Surah Nahl-सूरतुन्नहल

सूरतुन्नहल

तम्हीदी कलिमात

सूरह युनुस से शुरू होने वाले मक्की सूरतों के तवील सिलसिले की अब तक हम छ: सूरतों का मुताअला कर चुके हैं। इन छ: सूरतों को भी हमने तीन-तीन सूरतों के मज़ीद दो ज़ेली ग्रुप्स में तक़सीम किया था। पहले ग्रुप में शामिल तीन सूरतें (युनुस, हूद और युसूफ़) निस्बतन तवील हैं, जबकि दूसरे ग्रुप की सूरतें (अल रअद, इब्राहीम और अलहिज्र) निस्बतन छोटी हैं। दूसरे ग्रुप की इन सूरतों में पहली दो यानि सूरतुल रअद और सूरह इब्राहीम में निस्बते जौज़ियत है जबकि सूरतुल हिज्र बिल्कुल मुनफ़रिद नौइयत की सूरत है। अब सूरतुल नहल से मक्की सूरतों के इस तवील सिलसिले के तीसरे ज़ेली ग्रुप का आग़ाज़ हो रहा है। इस ग्रुप में सूरतुल नहल, सूरह बनी इसराइल और सूरतुल कहफ़ शामिल हैं। यह तीनो सूरतें भी निस्बतन तवील हैं। इनमें सूरतुल नहल मुनफ़रिद है जबकि सूरह बनी इसराइल और सूरतुल कहफ़ में जोड़े का ताल्लुक़ है।

सूरतुल नहल का ज़माना-ए-नुज़ूल मक्के का आखरी दौर मालूम होता है। इस सूरत की ख़ास अहमियत यह है कि इसमें अल्लाह की नेअमतों का ज़िक्र बहुत जामियत के साथ हुआ है और इसके मज़ामीन की सूरतुल अनआम और सूरतुल रूम के मज़ामीन के साथ गहरी मुशाबहत पाई जाती है।

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

आयात 1 से 9 तक

اَتٰٓى اَمْرُ اللّٰهِ فَلَا تَسْتَعْجِلُوْهُ  ۭ سُبْحٰنَهٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يُشْرِكُوْنَ  Ǻ۝ يُنَزِّلُ الْمَلٰۗىِٕكَةَ بِالرُّوْحِ مِنْ اَمْرِهٖ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖٓ اَنْ اَنْذِرُوْٓا اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّآ اَنَا فَاتَّقُوْنِ     Ą۝ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّ  ۭ تَعٰلٰى عَمَّا يُشْرِكُوْنَ    Ǽ۝ خَلَقَ الْاِنْسَانَ مِنْ نُّطْفَةٍ فَاِذَا هُوَ خَصِيْمٌ مُّبِيْنٌ     Ć۝ وَالْاَنْعَامَ خَلَقَهَا  ۚ لَكُمْ فِيْهَا دِفْءٌ وَّمَنَافِعُ وَمِنْهَا تَاْكُلُوْنَ     Ĉ۝۠ وَلَكُمْ فِيْهَا جَمَالٌ حِيْنَ تُرِيْحُوْنَ وَحِيْنَ تَسْرَحُوْنَ     Č۝۠ وَتَحْمِلُ اَثْقَالَكُمْ اِلٰى بَلَدٍ لَّمْ تَكُوْنُوْا بٰلِغِيْهِ اِلَّا بِشِقِّ الْاَنْفُسِ ۭاِنَّ رَبَّكُمْ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ     Ċ۝ۙ وَّالْخَيْلَ وَالْبِغَالَ وَالْحَمِيْرَ لِتَرْكَبُوْهَا وَزِيْنَةً   ۭ وَيَخْلُقُ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ    Ď۝ وَعَلَي اللّٰهِ قَصْدُ السَّبِيْلِ وَمِنْهَا جَاۗىِٕرٌ   ۭ وَلَوْ شَاۗءَ لَهَدٰىكُمْ اَجْمَعِيْنَ     Ḍ۝ۧ

आयत 1

“अल्लाह का हुकुम आ पहुँचा है, पस तुम जल्दी मत मचाओ।”      اَتٰٓى اَمْرُ اللّٰهِ فَلَا تَسْتَعْجِلُوْهُ  ۭ

जब हमने अपना रसूल भेज दिया और उस पर अपना कलाम भी नाज़िल करना शुरू कर दिया है तो गोया फ़ैसलाकुन वक़्त आ पहुँचा है। अब मामला सिर्फ़ मोहलत के दौरानिये का है कि हमारे रसूल और हमारे पैग़ाम का इंकार करने वालों को मशियते इलाही के मुताबिक़ किस क़दर मोहलत मिलती है। बहरहाल अब जल्दी मचाने की ज़रूरत नहीं। अल्लाह का अज़ाब बस अब आया ही चाहता है, इसके लिये अब बहुत ज़्यादा वक़्त नहीं रह गया।

“वह पाक और बुलंद व बाला है उस शिर्क से जो वह करते हैं।”سُبْحٰنَهٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يُشْرِكُوْنَ  Ǻ۝

आयत 2

“वह उतारता है फ़रिश्तों को अपने अम्र की रूह के साथ अपने बन्दों में से जिस पर चाहता है, कि ख़बरदार कर दो (मेरे बन्दों को) कि मेरे सिवा कोई मअबूद नहीं है पस तुम मेरा ही तक़वा इख़्तियार करो।”يُنَزِّلُ الْمَلٰۗىِٕكَةَ بِالرُّوْحِ مِنْ اَمْرِهٖ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖٓ اَنْ اَنْذِرُوْٓا اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّآ اَنَا فَاتَّقُوْنِ     Ą۝

‘बिल रूही मिन अमरिही’ से मुराद अल्लाह की वही है। यानि हज़रत मोहम्मद ﷺ को अल्लाह ने अपनी वही के लिये चुन लिया और आप ﷺ की तरफ़ हज़रत जिब्राइल अलै. वही लेकर आए। यहाँ पर लफ्ज़ “अम्र” की वज़ाहत भी ज़रूरी है। सूरतुल आराफ़ में फ़रमाया गया: {اَلَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْاَمْرُ  ۭ} (आयत 54) “आगाह हो जाओ, उसी के लिये खल्क़ है और उसी के लिये अम्र।” यानि आलम-ए-खल्क़ और आलम-ए-अम्र दो अलग-अलग आलम हैं। आलमे अम्र का मामला यह है कि उसमें वक़्त का आमिल बिल्कुल कार फ़रमा नहीं। इस आलम में किसी काम के करने या कोई वाक़िया वक़ूअ पज़ीर होने में वक़्त दरकार नहीं होता। बस अल्लाह तआला का इरादा होता है और उसके “कुन” फ़रमाने से वह काम हो जाता है। जैसा कि सूरह यासीन में फ़रमाया गया: {اِنَّمَآ اَمْرُهٗٓ اِذَآ اَرَادَ شَـيْـــــًٔا اَنْ يَّقُوْلَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ} “उसका अम्र तो यही है कि जब वह किसी चीज़ का इरादा करता है तो बस यही होता कि वह उसे कहता है कि हो जा तो वह हो जाती है।”

इसके बरअक्स आलमे खल्क़ में किसी काम के पाया-ए-तकमील तक पहुँचने में वक़्त दरकार होता है। जैसे क़ुरान में मुतअद्दिद बार फ़रमाया गया कि अल्लाह ने ज़मीन व आसमान छ: दिनों में तख्लीक़ किये। इसी तरह दुनिया का सारा निज़ाम आलमे खल्क़ के असूलों पर चल रहा है। मसलन आम की गुठली से कौंपलें फूटती हैं, फिर बढ़ती हैं और फिर आहिस्ता-आहिस्ता एक तनावर दरख़्त बन जाता है। इस सारे अमल में वक़्त दरकार होता है।

यहाँ पर रूह के ज़िक्र के हवाले से यह बात अहम है कि रूह का ताल्लुक़ आलमे अम्र से है। आलमे अम्र की सिर्फ़ तीन चीज़ें ही हमारे इल्म में हैं। मलाएका, रूह और वही। क़ुरान में मलाएका को भी रूह कहा गया है। जैसे हज़रत जिब्राइल अलै. के लिये रूहुल क़ुदुस और रूहुल आमीन के अल्फ़ाज़ आए हैं। सूरतुल शौरा में फ़रमाया गया: { نَزَلَ بِهِ الرُّوْحُ الْاَمِيْنُ} (आयत 193) जबकि सूरतुल बक़रह की आयत 87 में इरशाद हुआ: { وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۭ }। इसी तरह क़ुरान में वही को भी रूह कहा गया है, और यह वही नाज़िल भी रूह पर होती है। जब मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर वही नाज़िल होती तो आप ﷺ उसका इदराक तबई हवास-ए-खम्सा (five sences) से नहीं करते थे, बल्कि वही बराहेरास्त आप ﷺ के क़ल्बे मुबारक पर नाज़िल होती थी। इसलिये कि क़ल्बे मोहम्मदी रूहे मोहम्मदी ﷺ का मसकन था: { نَزَلَ بِهِ الرُّوْحُ الْاَمِيْنُ} { عَلٰي قَلْبِكَ لِتَكُوْنَ مِنَ الْمُنْذِرِيْنَ} (अल शौअरा, आयत 193-194) चुनाँचे वही भी रूह है, इसको लाने वाले जिब्राइल अमीन भी रूह हैं और इसका नुज़ूल भी रूहे मोहमदी ﷺ पर हो रहा है। इस सिलसिले में जिगर मुरादाबादी का यह शेर उनकी किसी ख़ास कैफ़ियत का मज़हर मालूम होता है:

नगमा वही है नगमा कि जिसको, रूह सुने और रूह सुनाए!

आयत 3

“उसने पैदा किया आसमानों और ज़मीन को हक़ के साथ। वह बहुत बुलंद है ऊस शिर्क से जो वह करते हैं।”خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّ  ۭ تَعٰلٰى عَمَّا يُشْرِكُوْنَ    Ǽ۝

आयत 4

“उसने पैदा किया इंसान को गंदे पानी के बूंद से, फ़िर यकायक वह बन गया खुला झगड़ालू।”خَلَقَ الْاِنْسَانَ مِنْ نُّطْفَةٍ فَاِذَا هُوَ خَصِيْمٌ مُّبِيْنٌ     Ć۝

इंसान अपने खुदसाख्ता नज़रियात के हक़ में ख़ूब बहस करता है, अक़्ली व नक़ली दलीलें देता है और ज़ोरे खिताबत से ज़मीन व आसमान के क़लाबे मिला देता है।

आयत 5

“और चौपायों को भी उसने पैदा किया, उनमें तुम्हारे लिये गरमी का सामान और कई दूसरे फायदे भी हैं, और उनमें से तुम खाते भी हो।”وَالْاَنْعَامَ خَلَقَهَا  ۚ لَكُمْ فِيْهَا دِفْءٌ وَّمَنَافِعُ وَمِنْهَا تَاْكُلُوْنَ     Ĉ۝۠

बाज़ जानवरों की ऊन से तुम लोग लिबास बुनते हो, जो सर्दी के मौसम में तुम्हें गरमी पहुँचाता है, बाज़ जानवरों के बालों से बहुत सी दूसरी चीज़ें बनाते हो। इसी तरह यह जानवर और भी बहुत सी सूरतों में तुम्हारे लिये मुफ़ीद और मददगार होते हैं, हत्ता कि तुम्हारी ख़ुराक की बेशतर ज़रूरियात भी इन्हीं से पूरी होती हैं।

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आयत 6

“और तुम्हारे लिये इनमें बड़ी शान व शौकत है जब तुम शाम को इन्हें चरा कर लाते हो और जब (सुबह के वक़्त) चराने के लिये ले जाते हो।”وَلَكُمْ فِيْهَا جَمَالٌ حِيْنَ تُرِيْحُوْنَ وَحِيْنَ تَسْرَحُوْنَ     Č۝۠

देहाती माहौल में मवेशियों की हैसियत बहुत क़ीमती सरमाये की सी होती है, इसी लिये इन्हें माल-मवेशी कहा जाता है। यह जानवर जब सुबह चरने के लिये जाते हैं या शाम के वक़्त जंगल से चर कर वापस आ रहे होते हैं तो उनके मालिकों के लिये यह बड़ा ख़ुशकुन मंज़र होता है। जानवरों का गल्ला या रेवड़ जितना बड़ा होगा, उसके मालिक की हैसियत और शान व शौकत उसी क़दर ज़्यादा समझी जाएगी।

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आयत 7

“और वह तुम्हारे बोझ उठा कर ले जाते हैं ऐसी बस्तियों की तरफ़ जिन तक तुम नहीं पहुँचने वाले होते मगर जान तोड़ कर।”وَتَحْمِلُ اَثْقَالَكُمْ اِلٰى بَلَدٍ لَّمْ تَكُوْنُوْا بٰلِغِيْهِ اِلَّا بِشِقِّ الْاَنْفُسِ ۭ

इनमें ऐसे जानवर भी हैं जो साज़ो-सामान के नक़ल व हमल (loading-unloading) में तुम्हारे काम आते हैं और उनके बगैर तुम यह भारी चीज़ें उठा कर दूर-दराज़ इलाक़ों तक नहीं पहुँचा सकते।

“यक़ीनन तुम्हारा रब शफक्क़त फ़रमाने वाला, मेहरबान है।”اِنَّ رَبَّكُمْ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ     Ċ۝ۙ

आयत 8

“और (उसी ने पैदा किये) घोडे और खच्चर और गधे, कि तुम उन पर सवारी करो और (तुम्हारे लिये है उनमें) ज़ीनत भी।”وَّالْخَيْلَ وَالْبِغَالَ وَالْحَمِيْرَ لِتَرْكَبُوْهَا وَزِيْنَةً   ۭ

इन मवेशियों से इंसान को बहुत से फ़ायदे भी हासिल होते हैं और यह इसके लिये बाइसे ज़ेब व ज़ीनत भी हैं। ख़ुसूसी तौर पर घोड़ा बहुत हसीन और क़ीमती जानवर है और इसका मालिक इसे अपने लिये बाइसे फ़ख्र व तमक्कुनियत (खेती) समझता है।

“और (ऐसी चीज़ें भी) वह पैदा करता है जिनका तुम्हें इल्म ही नहीं।”وَيَخْلُقُ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ    Ď۝

यानि ये तो चंद वह चीज़ें हैं जिनके बारे में तुम लोग जानते हो, मगर अल्लाह तआला तो बेशुमार ऐसी चीज़ें भी तख्लीक़ फ़रमाता है जिनके बारे में तुम्हें कुछ भी इल्म नहीं।

आयत 9

“और अल्लाह तक पहुँचाने वाला सीधा रास्ता है और उनमें कुछ टेढ़े भी हैं।”وَعَلَي اللّٰهِ قَصْدُ السَّبِيْلِ وَمِنْهَا جَاۗىِٕرٌ   ۭ

यह सीधा रास्ता तौहीद का रास्ता है। यहाँ इस रास्ते को “क़सद उल सबील” का नाम दिया गया है। क़ुरान में इसे सिराते मुस्तक़ीम भी कहा गया है और सवा अस्सबील भी। यही एक रास्ता है जो इंसान को अल्लाह तक पहुँचाता है, मगर बहुत से लोग इस रास्ते से भटक कर टेढ़ी-मेढ़ी पगडंडियों पर मुड़ जाते हैं जो उन्हें गुमराही के गड्ढ़ों में गिरा देती हैं।

“और अगर अल्लाह चाहता तो तुम सबको हिदायत दे देता।”وَلَوْ شَاۗءَ لَهَدٰىكُمْ اَجْمَعِيْنَ     Ḍ۝ۧ

अल्लाह अगर चाहता तो सब इंसानों को इसी एक सीधे रास्ते पर चलने की तौफ़ीक़ और समझ-बूझ दे देता।

आयात 10 से 23 तक

هُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً لَّكُمْ مِّنْهُ شَرَابٌ وَّمِنْهُ شَجَـرٌ فِيْهِ تُسِيْمُوْنَ    10؀ يُنْۢبِتُ لَكُمْ بِهِ الزَّرْعَ وَالزَّيْتُوْنَ وَالنَّخِيْلَ وَالْاَعْنَابَ وَمِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ  ۭاِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ     11؀ وَسَخَّرَ لَكُمُ الَّيْلَ وَالنَّهَارَ  ۙ وَالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ  ۭ وَالنُّجُوْمُ مُسَخَّرٰتٌۢ بِاَمْرِهٖ  ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ     12۝ۙ .وَمَا ذَرَاَ لَكُمْ فِي الْاَرْضِ مُخْتَلِفًا اَلْوَانُهٗ   ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّذَّكَّرُوْنَ    13۝ وَهُوَ الَّذِيْ سَخَّرَ الْبَحْرَ لِتَاْكُلُوْا مِنْهُ لَحْمًا طَرِيًّا وَّتَسْتَخْرِجُوْا مِنْهُ حِلْيَةً تَلْبَسُوْنَهَا  ۚ وَتَرَى الْفُلْكَ مَوَاخِرَ فِيْهِ وَلِتَبْتَغُوْا مِنْ فَضْلِهٖ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ     14؀ وَاَلْقٰى فِي الْاَرْضِ رَوَاسِيَ اَنْ تَمِيْدَ بِكُمْ وَاَنْهٰرًا وَّسُبُلًا لَّعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ    15۝ۙ وَعَلٰمٰتٍ  ۭ وَبِالنَّجْمِ هُمْ يَهْتَدُوْنَ    16۝ اَفَمَنْ يَّخْلُقُ كَمَنْ لَّا يَخْلُقُ ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ    17۝ وَاِنْ تَعُدُّوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ لَا تُحْصُوْهَا  ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ      18؀ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تُسِرُّوْنَ وَمَا تُعْلِنُوْنَ      19؀ وَالَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ لَا يَخْلُقُوْنَ شَيْـــًٔـا وَّهُمْ يُخْلَقُوْنَ     20۝ۭ اَمْوَاتٌ غَيْرُ اَحْيَاۗءٍ  ۚ وَمَا يَشْعُرُوْنَ  ۙ اَيَّانَ يُبْعَثُوْنَ     21۝ۧ اِلٰـهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ  ۚ فَالَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ قُلُوْبُهُمْ مُّنْكِرَةٌ وَّهُمْ مُّسْـتَكْبِرُوْنَ    22؀ لَاجَرَمَ اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ ۭ اِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْـتَكْبِرِيْنَ    23؀

आयत 10

“वही है जिसने उतारा है आसमान से तुम्हारे लिये पानी, उसी से है (तुम्हारा) पीना और उसी से हैं दरख़्त (नबातात वगैरह), जिनमें तुम (अपने जानवरों) को चराते हो।”هُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً لَّكُمْ مِّنْهُ شَرَابٌ وَّمِنْهُ شَجَـرٌ فِيْهِ تُسِيْمُوْنَ       10؀

अल्लाह तआला ही बारिश और बर्फ़ की सूरत में बादलों से पानी बरसाता है जिस पर इंसानी ज़िन्दगी का बराहेरास्त इन्हसार है और फिर यही पानी बेशुमार नबाताती और हैवानी मख्लूक़ात को ज़िन्दगी बख्शता है जो इंसान ही के लिये पैदा की गई हैं।

आयत 11

“वह उगाता है तुम्हारे लिये इस (पानी) से खेती और ज़ैतून और खजूरें और अंगूर और हर क़िस्म के फ़ल।”يُنْۢبِتُ لَكُمْ بِهِ الزَّرْعَ وَالزَّيْتُوْنَ وَالنَّخِيْلَ وَالْاَعْنَابَ وَمِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ  ۭ
“यक़ीनन इसमें निशानी है उन लोगों के लिये जो गौर व फ़िक्र करते हैं।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ     11؀

अल्लाह तआला की शाने खल्लाक़ी के बेशुमार अंदाज़ हैं, उसकी तख्लीक़ में लामहदूद तनूअ, बूक़लमूनी और रंगा-रंगी है। चुनाँचे अब एक दूसरे पहलु से अल्लाह तआला की नेअमतों का ज़िक्र होने जा रहा है:

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आयत 12

“और उसने मुसख्खर कर दिया तुम्हारे लिये रात और दिन को”وَسَخَّرَ لَكُمُ الَّيْلَ وَالنَّهَارَ  ۙ

इंसान की इंफ़रादी और इज्तमाई ज़िन्दगी में रात अपनी जगह अहम है और दिन की अपनी अहमियत है। रात में मजमुई तौर पर एक सुकून है। यह इंसानों और दूसरे जानदारों के लिये बाइसे राहत है, इसमें वह आराम करते हैं, सोते हैं और सुबह ताज़ा दम होकर उठते हैं। दूसरी तरफ़ दिन में भाग-दौड़, मेहनत, जद्दो-जहद और मुख्तलिफ़ अलनौ इंसानी सरगर्मियाँ मुमकिन होती हैं। अगर इस पहलु से दुनिया के इज्तमाई निज़ाम को देखा जाए तो यह पूरा निज़ाम रात और दिन के वजूद का मरहूने मन्नत नज़र आता है। नबाताती निज़ाम को ही ले लीजिये। इसके लिये रात और दिन दोनों ही नागुज़ीर (अनिवार्य) हैं। दिन को सूरज की रौशनी और तमाज़त से नबातात के लिये Photosynthesis का अमल मुमकिन होता है जो उनकी नशो नुमा के लिये नागुज़ीर है। फ़सलों और फलों को भी पकने के लिये सूरज की रौशनी और हरारत की ज़रूरत होती है। दूसरी तरफ़ रात को नबातात respiration के अमल के ज़रिये से ऑक्सीजन हासिल करते हैं। गोया रात और दिन के बगैर नबातात का वजूद मुमकिन ही नहीं है और इंसानी ज़िन्दगी में नबातात के अमल व दखल का तस्सवुर करें तो इस एक मिसाल से ही यह हक़ीक़त समझ में आ जाती है कि अल्लाह तआला का दिन और रात को इंसान के लिये मुसख्खर कर देना कितनी बड़ी नेअमत है।

“और सूरज और चाँद को, और सितारे भी मुसख्खर हैं उसी के हुकुम से।”وَالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ  ۭ وَالنُّجُوْمُ مُسَخَّرٰتٌۢ بِاَمْرِهٖ  ۭ

पूरा निज़ामे शम्सी और तमाम अजरामे फ़लकी अल्लाह तआला के हुकुम से इंसान की नफ़ा रसानी में मसरूफ़ हैं।

“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं अक़ल वालों के लिये।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ     12۝ۙ

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आयत 13

“और जो चीज़ें उसने फैला दी हैं तुम्हारे लिये ज़मीन में उनके मुख्तलिफ़ रंग हैं।”.وَمَا ذَرَاَ لَكُمْ فِي الْاَرْضِ مُخْتَلِفًا اَلْوَانُهٗ   ۭ

अल्लाह तआला ने इंसान के लिये ज़मीन में रंगा-रंग क़िस्म के हैवानात, नबातात और जमादात पैदा किये हैं।

“यक़ीनन इसमें भी निशानी है उन लोगों के लिये जो नसीहत अखज़ करें।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّذَّكَّرُوْنَ    13۝

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आयत 14

“और वही है जिसने समुन्दर को तुम्हारी ज़रूरियात पूरी करने में लगा दिया है ताकि तुम खाओ उससे ताज़ा गोश्त”وَهُوَ الَّذِيْ سَخَّرَ الْبَحْرَ لِتَاْكُلُوْا مِنْهُ لَحْمًا طَرِيًّا

समुन्दरी ख़ुराक हमेशा से इंसानी ज़िन्दगी में बहुत अहम रही है। दौरे जदीद में इसकी अफ़ादियत (उपयोगिता) मज़ीद नुमाया होकर सामने आई है जिसकी वजह से इसकी अहमियत और भी बढ़ गई है।

“और ताकि तुम निकालो उसमें से बनाव श्रृंगार का सामान जो तुम पहनते हो।”وَّتَسْتَخْرِجُوْا مِنْهُ حِلْيَةً تَلْبَسُوْنَهَا  ۚ

समुन्दर से मोती और बहुत सी दूसरी ऐसी अश्या (चीज़ें) निकाली जाती हैं जिनसे ज़ेवरात और आराईश व ज़ेबाईश का सामान तैयार होता है।

“और तुम देखते हो कश्तियों को कि पानी को चीरती हुई चलती हैं उस (समुन्दर) में”وَتَرَى الْفُلْكَ مَوَاخِرَ فِيْهِ
“और ताकि तुम उसका फ़ज़ल तलाश करो और ताकि तुम शुक्र करो।”وَلِتَبْتَغُوْا مِنْ فَضْلِهٖ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ     14؀

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आयत 15

“और उसने ज़मीन में लंगर डाल दिये हैं कि तुम्हें लेकर लुढ़क ना जाए और उसमें (नदियाँ बहा दी हैं) और रास्ते (बना दिये हैं) ताकि तुम अपनी मंज़िलों तक पहुँचा करो।”وَاَلْقٰى فِي الْاَرْضِ رَوَاسِيَ اَنْ تَمِيْدَ بِكُمْ وَاَنْهٰرًا وَّسُبُلًا لَّعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ    15۝ۙ

यहाँ اَنْهٰرًا وَّسُبُلًا के इकट्ठे ज़िक्र के हवाले से अगर देखा जाए तो अमली तौर पर भी इनका आपस में गहरा ताल्लुक़ है। पहाड़ी सिलसिलों में आम तौर पर नदियों की गुज़रगाहों के साथ-साथ ही रास्ते बनते हैं। इसी तरह पहाड़ों के दरमियान क़ुदरती वादियाँ इन्सानों की गुज़रगाहें भी बनती हैं और पानी के रेलों को रास्ते भी फ़राहम करती हैं।

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आयत 16

“और दूसरी अलामतें भी हैं। और वह सितारों से भी रहनुमाई हासिल करते हैं।”وَعَلٰمٰتٍ  ۭ وَبِالنَّجْمِ هُمْ يَهْتَدُوْنَ    16۝

अल्लाह तआला ने इंसानों की मदद के लिये ज़मीन में तरह-तरह की अलामतें बनाईं ताकि मुख्तलिफ़ इलाक़ों और रास्तों की पहचान हो सके। इसी तरह आसमान के सितारों को भी सिम्तों (दिशाएँ) और रास्तों के तअय्युन का एक ज़रिया बना दिया। पुराने ज़माने में समुन्दरी और सहराई सफ़र रात के वक़्त सितारों की मदद से ही मुमकिन होते थे।

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आयत 17

“तो क्या जो (ये सब कुछ) पैदा करता है उनकी तरह है जो (कुछ भी) पैदा नहीं करते? तो क्या तुम नसीहत हासिल नहीं करते?”اَفَمَنْ يَّخْلُقُ كَمَنْ لَّا يَخْلُقُ ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ    17۝

मुशरिकीने अरब ने मुख्तलिफ़ नामों से जो बुत बना रखे थे उनके बारे में उनका अक़ीदा था कि वह अल्लाह के यहाँ उनकी सिफ़ारिश करेंगे। सूरह युनुस की आयत 18 में उनके इस अक़ीदे का ज़िक्र इन अल्फ़ाज़ में किया गया है: {وَيَقُوْلُوْنَ هٰٓؤُلَاۗءِ شُفَعَاۗؤُنَا عِنْدَاللّٰهِ ۭ } “और वह कहते हैं कि यह अल्लाह के यहाँ हमारे सिफ़ारशी हैं।” अल्लाह के बारे में उनका मानना था कि वह कायनात और इसमें मौजूद हर चीज़ का खालिक़ है और वह यह भी तस्लीम करते थे कि उनके मअबूदों का इस तख्लीक़ में कोई हिस्सा नहीं और ना ही वह कोई चीज़ तख्लीक़ कर सकते हैं। क़ुरान में उनके इस अक़ीदे का भी बार-बार ज़िक्र आया है: {وَلَىِٕنْ سَاَلْتَهُمْ مَّنْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ لَيَقُوْلُنَّ اللّٰهُ ۭ } (लुक़मान:25) “अगर आप इनसे पूछेंगे कि किसने पैदा किया आसमानों और ज़मीन को तो लाज़िमन यही कहेंगे कि अल्लाह ने!” उन लोगों के इसी अक़ीदे की बुनियाद पर यहाँ यह सवाल पूछा गया है कि तुम्हारे ये खुद साख्ता मअबूद, जो कुछ भी तख्लीक़ करने की क़ुदरत नहीं रखते, क्या उस अल्लाह की मानिन्द हो सकते हैं जो इस कायनात और इसमें मौजूद हर चीज़ का खालिक़ है? और अगर तुम तस्लीम करते हो कि इस सवाल का जवाब नफ़ी में है तो क्या फिर भी तुम लोग नसीहत नहीं पकड़ते हो?

आयत 18

“और अगर तुम अल्लाह की नेअमतों को गिनो तो उनका अहाता नहीं कर सकोगे।”وَاِنْ تَعُدُّوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ لَا تُحْصُوْهَا  ۭ

अल्लाह की नेअमतों की गिनती तो कजा उसकी बेशुमार नेअमतें ऐसी हैं जिनसे इंसान फैज़याब तो हो रहा है लेकिन उन तक इंसान के इल्म और शऊर की अभी पहुँच ही नहीं।

“यक़ीनन अल्लाह बहुत बख्शने वाला, निहायत रहम करने वाला है।”اِنَّ اللّٰهَ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ      18؀

आयत 19

“और अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ तुम छुपाते हो और जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो।”وَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تُسِرُّوْنَ وَمَا تُعْلِنُوْنَ      19؀

आयत 20

“और जिनको यह पुकारते हैं अल्लाह के सिवा वह कुछ पैदा नहीं करते, बल्कि वह तो खुद पैदा किये गए हैं।”وَالَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ لَا يَخْلُقُوْنَ شَيْـــًٔـا وَّهُمْ يُخْلَقُوْنَ     20۝ۭ

अम्बिया व रुसुल हों, मलाइका हों या औलिया अल्लाह, सब मख्लूक़ हैं, खालिक़ सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात है।

आयत 21

“मुर्दा हैं, ज़िन्दा नहीं हैं। और वह नहीं जानते कि कब उठाए जायेंगे।”اَمْوَاتٌ غَيْرُ اَحْيَاۗءٍ  ۚ وَمَا يَشْعُرُوْنَ  ۙ اَيَّانَ يُبْعَثُوْنَ     21۝ۧ

जिन औलिया अल्लाह के नामों पर इन्होंने बुत बना रखे हैं वह अब इस दुनिया में नहीं हैं, वह फ़ौत हो चुके हैं और उन्हें कुछ मालूम नहीं कि क़यामत कब बरपा होगी और कब उन्हें दोबारा उठाया जाएगा।

आयत 22

“तुम्हारा मअबूद एक ही मअबूद है।”اِلٰـهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ  ۚ
“तो वह लोग जो आख़िरत पर ईमान नहीं रखते उनके दिल मुन्किर हैं और वह तकब्बुर करते हैं।”فَالَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ قُلُوْبُهُمْ مُّنْكِرَةٌ وَّهُمْ مُّسْـتَكْبِرُوْنَ    22؀

इस नुक्ते को अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है कि जिन लोगों के दिलों में आख़िरत का यक़ीन नहीं है वह हक़ बात को क़बूल करने से क्यों झिझकते हैं और उनके अन्दर इस्तकबार क्यों पैदा हो जाता है। इस सिलसिले में क़ुरान का फ़लसफ़ा यह है कि जो शख्स फ़ितरते सलीमा का मालिक है उसके अन्दर अच्छाई और बुराई की तमीज़ मौजूद होती है। उसका दिल इस हक़ीक़त का क़ायल होता है कि अच्छाई का अच्छा बदला मिलना चाहिये और बुराई का बुरा “गन्दुम अज़ गन्दुम बरवीद, जौ ज़े जौ!”

यही फ़लसफ़ा या तस्सवुर मन्तक़ी तौर पर ईमान बिल आख़िरत की बुनियाद फ़राहम करता है। मगर दुनिया में जब पूरी तरह नेकी की जज़ा और बुराई की सज़ा मिलती हुई नज़र नहीं आती तो एक साहिबे शऊर इंसान लाज़िमन सोचता है कि आमाल और इसके नताइज के ऐतबार से दुनयावी ज़िन्दगी अधूरी है और इस दुनिया में इन्साफ़ की फ़राहमी कमा हक़ मुमकिन ही नहीं। मसलन एक सत्तर साला बूढ़ा एक नौजवान को क़त्ल कर दे तो इस दुनिया का क़ानून उसे क्या सज़ा देगा? वैसे तो यहाँ इन्साफ़ तक पहुँचने के लिये बहुत से कठिन मराहिल तय करने पड़ते हैं, लेकिन अगर यह तमाम मराहिल तय करके इन्साफ़ मिल भी जाए तो क़ानून ज़्यादा से ज़्यादा उस बूढ़े को फाँसी पर लटका देगा। लेकिन क्या इस बूढ़े की जान वाक़ई उस नौजवान मक़तूल की जान के बराबर है? नहीं, ऐसा हरगिज़ नहीं है। वह नौजवान तो अपने ख़ानदान का वाहिद सहारा था, उसके छोटे-छोटे बच्चे यतीम हुए, एक नौजवान औरत बेवा हुई, खानदान का मआशी सहारा छिन गया। इस तरह उसके लवाहिक़ीन (उत्तरजीवी) और ख़ानदान के लिये इस क़त्ल के असरात कितने गंभीर होंगे और कहाँ-कहाँ तक पहुँचेंगे, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। दूसरी तरफ़ वह बूढ़ा शख्स जो अपनी तबई उम्र गुज़ार चुका था, जिसके बच्चे ख़ुद मुख़्तार ज़िंदगियाँ गुज़ार रहे हैं, जिसकी कोई मआशी ज़िम्मेदारी भी नहीं है, उसके फाँसी पर चढ़ जाने से उसके पसमाँदगान पर वैसे असरात मुरत्तब नहीं होंगे जैसे उस नौजवान की जान जाने से उसके पसमाँदगान पर हुए थे। ऐसी सूरत में दुनिया को कोई क़ानून मज़लूम को पूरा-पूरा बदला दे ही नहीं सकता। ऐसी मिसालें अक़्ली और मन्तक़ी तौर पर साबित करती हैं कि यह दुनिया ना-मुकम्मल है। इस दुनिया के मामलात और अफ़आल का अधूरापन एक दूसरी दुनिया का तक़ाज़ा करता है जिसमें इस दुनिया के तशना तकमील रह जाने वाले मामलात पूरे इन्साफ़ के साथ अपने-अपने मन्तक़ी अंजाम को पहुँचे। अब एक ऐसा शख्स जो फ़ितरते सलीमा का मालिक है, उसके शऊर में नेकी और बदी का एक वाज़ेह और ग़ैर मुबहम (unclear) तस्सवुर मौजूद है, वह लाज़मी तौर पर आख़िरत के बारे में मज़कूरा मन्तक़ी नतीजे पर पहुँचेगा और फिर वह क़ुरान के तसव्वुरे आख़िरत को क़बूल करने में भी पसो-पेश नहीं करेगा, मगर इसके मुक़ाबले में एक ऐसा शख्स जिसके शऊर में नेकी और बदी का वाज़ेह तस्सवुर मौजूद नहीं, वह क़ुरान के तसव्वुरे आख़िरत पर भी दिल से यक़ीन नहीं रखता और फ़िक्रे आख़िरत से बेनियाज़ होकर गुरूर और तक्कबुर में भी मुबतला हो चुका है, उसका दिल पैगामे हक़ को क़बूल करने से भी मुन्किर होगा। ऐसे शख्स के सामने हकीमाना दर्स और आलिमाना वआज़ (बयान) सब बेअसर साबित होंगे।

आयत 23

“कोई शक नहीं कि अल्लाह ताअला ख़ूब जानता है जो कुछ वह ज़ाहिर करते हैं और जो कुछ वह छुपाते हैं।”لَاجَرَمَ اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ ۭ
“यक़ीनन वह तक्कबुर करने वालों को पसंद नहीं करता।”اِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْـتَكْبِرِيْنَ    23؀

आयात 24 से 32 तक

وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ مَّاذَآ اَنْزَلَ رَبُّكُمْ ۙ قَالُوْٓا اَسَاطِيْرُ الْاَوَّلِيْنَ    24؀ۙ لِيَحْمِلُوْٓا اَوْزَارَهُمْ كَامِلَةً يَّوْمَ الْقِيٰمَةِ ۙ وَمِنْ اَوْزَارِ الَّذِيْنَ يُضِلُّوْنَهُمْ بِغَيْرِ عِلْمٍ ۭ اَلَا سَاۗءَ مَا يَزِرُوْنَ    25؀ۧ قَدْ مَكَرَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَاَتَى اللّٰهُ بُنْيَانَهُمْ مِّنَ الْقَوَاعِدِ فَخَــرَّ عَلَيْهِمُ السَّقْفُ مِنْ فَوْقِهِمْ وَاَتٰىهُمُ الْعَذَابُ مِنْ حَيْثُ لَا يَشْعُرُوْنَ    26؀ ثُمَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ يُخْــزِيْهِمْ وَيَقُوْلُ اَيْنَ شُرَكَاۗءِيَ الَّذِيْنَ كُنْتُمْ تُشَاۗقُّوْنَ فِيْهِمْ ۭ قَالَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْعِلْمَ اِنَّ الْخِزْيَ الْيَوْمَ وَالسُّوْۗءَ عَلٰي الْكٰفِرِيْنَ    27؀ۙ الَّذِيْنَ تَتَوَفّٰىهُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِهِمْ  ۠فَاَلْقَوُا السَّلَمَ مَا كُنَّا نَعْمَلُ مِنْ سُوْۗءٍ  ۭ بَلٰٓى اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ   28؀ فَادْخُلُوْٓا اَبْوَابَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا  ۭ فَلَبِئْسَ مَثْوَى الْمُتَكَبِّرِيْنَ   29؀ وَقِيْلَ لِلَّذِيْنَ اتَّقَوْا مَاذَآ اَنْزَلَ رَبُّكُمْ قَالُوْا خَيْرًا ۭ لِلَّذِيْنَ اَحْسَنُوْا فِيْ هٰذِهِ الدُّنْيَا حَسَـنَةٌ  ۭ وَلَدَارُ الْاٰخِرَةِ خَيْرٌ  ۭ وَلَنِعْمَ دَارُ الْمُتَّقِيْنَ   30؀ۙ جَنّٰتُ عَدْنٍ يَّدْخُلُوْنَهَا تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ لَهُمْ فِيْهَا مَا يَشَاۗءُوْنَ ۭكَذٰلِكَ يَجْزِي اللّٰهُ الْمُتَّقِيْنَ 31؀ۙ الَّذِيْنَ تَتَوَفّٰىهُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ طَيِّبِيْنَ  ۙ يَقُوْلُوْنَ سَلٰمٌ عَلَيْكُمُ ۙ ادْخُلُوا الْجَنَّةَ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ    32؀

आयत 24

“और जब उनसे पूछा जाता है कि तुम्हारे रब ने क्या नाज़िल किया है?”وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ مَّاذَآ اَنْزَلَ رَبُّكُمْ ۙ

नबी अकरम ﷺ की दावत का चर्चा जब मक्का के ऐतराफ़ व अकनाफ़ (चारो तरफ़) में होने लगा तो लोग अहले मक्का से पूछते कि मोहम्मद (ﷺ) जो कह रहे हैं कि मुझ पर अल्लाह का कलाम नाज़िल होता है, तुम लोगों ने तो यह कलाम सुना है, चुनाँचे तुम्हारी इसके बारे में क्या राय है? इसके मज़ामीन क्या हैं?

“वह कहते हैं कि पहले लोगों के क़िस्से हैं।”قَالُوْٓا اَسَاطِيْرُ الْاَوَّلِيْنَ    24؀ۙ

कि यह कलाम तो बस पुराने क़िस्से कहानियों पर मुश्तमिल है। यह सब गुज़िश्ता क़ौमों के वाक़ियात हैं जो इधर-उधर से सुन कर हमें सुना देते हैं और फिर हम पर धौंस जमाते हैं कि यह अल्लाह का कलाम है।

आयत 25

“ताकि यह उठायें अपने (गुनाहों के) बोझ पूरे के पूरे क़यामत के दिन”لِيَحْمِلُوْٓا اَوْزَارَهُمْ كَامِلَةً يَّوْمَ الْقِيٰمَةِ ۙ

यूँ इनके दिल हक़ की तरफ़ माइल नहीं हो रहे और इसका नतीजा यह निकलेगा कि रोज़े क़यामत वह अपनी इस गुमराही और सरकशी के वबाल में गिरफ्तार होंगे।

“और कुछ उन लोगों के बोझ भी जिन्हें ये गुमराह कर रहे हैं ला-इल्मी में।”وَمِنْ اَوْزَارِ الَّذِيْنَ يُضِلُّوْنَهُمْ بِغَيْرِ عِلْمٍ ۭ

यानि क़यामत के दिन वह ना सिर्फ़ अपनी गुमराही का खामियाज़ा भुगतेंगे, बल्कि बहुत से दूसरे लोंगो की गुमराही का वबाल भी इन पर डाला जाएगा जिन्हें अपने नाम निहाद, दानिशवराना मशवरों से इन्होंने गुमराह किया होगा। जैसे क़र्ब व जवार के लोग जब अहले मक्का से इस कलाम के बारे में पूछते थे या मक्का के आम लोग क़ुरान से मुतास्सिर होकर अपने सरदारों से पूछते थे कि उनकी इस कलाम के बारे में क्या राय है? ऐसी सूरत में ये लोग अपने अवाम को यह कह कर गुमराह करते थे कि हाँ हमने भी ये कलाम सुना है, इसमें कोई ख़ास बात नहीं है, बस सुनी-सुनाई बातें हैं और पुराने लोगों की कहानियाँ हैं।

“आगाह रहो! बहुत बुरा होगा जो बोझ वह उठाए होंगे।”اَلَا سَاۗءَ مَا يَزِرُوْنَ    25؀ۧ

आयत 26

“(इसी तरह की) चालें चली थीं उन्होंने भी जो इनसे पहले थे”قَدْ مَكَرَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ

इनसे पहले भी मुख्तलिफ़ अक़वाम के लोगों ने हमारे अम्बिया व रुसुल की मुखालफ़त की थी और उनकी दावत को नाकाम करने के लिये तरह-तरह के हरबे आज़माए थे और साज़िशें की थीं।

“तो अल्लाह हमलावर हुआ उनके क़िलों पर बुनियादों से, फिर गिर पड़ीं उन पर छतें उनके ऊपर से”فَاَتَى اللّٰهُ بُنْيَانَهُمْ مِّنَ الْقَوَاعِدِ فَخَــرَّ عَلَيْهِمُ السَّقْفُ مِنْ فَوْقِهِمْ

जब अल्लाह तआला का फ़ैसला आया तो मुखालफ़ीन की तमाम साज़िशों को जड़ों से उखाड़ फेंका गया और उनकी बस्तियों को तलपट कर दिया गया। सदुम और आमूरा की बस्तियों के बारे में हम सूरह हूद की आयत 82 में पढ़ आए हैं: { فَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا جَعَلْنَا عَالِيَهَا سَافِلَهَا } “फिर जब आ गया हमारा हुक्म तो हमने कर दिया उसके ऊपर वाले हिस्से को उसका नीचे वाला।” यानि उसको तह व बाला कर दिया। इस सिलसिले में क़ुरान हकीम के अन्दर तो सिर्फ़ उन्ही चंद अक़वाम का ज़िक्र आया है जिनसे अहले अरब वाक़िफ़ थे, वरना रसूल तो हर इलाक़े और हर क़ौम में आते रहे हैं, अज़रुए अल्फ़ाज़-ए-क़ुरानी: { وَّلِكُلِّ قَوْمٍ هَادٍ } (रअद:7) “और हर क़ौम के लिये एक रहनुमा है।”

खुद हिन्दुस्तान के इलाक़े में भी बहुत से अंबिया व रुसुल के मबऊस होने के आसार मिलते हैं। हरियाणा, ज़िला हिसार, जिस इलाक़े में मेरा बचपन गुज़रा, वहाँ मुख्तलिफ़ मक़ामात पर स्याह रंग की राख के बड़े-बड़े टीले मौजूद थे, जिनकी खुदाई के दौरान बस्तियों के आसार मिलते थे। ऐसे मालूम होता है जैसे ये अपने ज़माने की पुर-रौनक़ बस्तियाँ थीं, इनके बाशिंदों ने अपने रसूलों की नाफ़रमानियाँ कीं और इन्हें अज़ाबे खुदावन्दी ने जला कर भस्म कर डाला, जिस तरह पोम्पाई पर लावे की बारिश हुई और पूरी बस्ती जलते हुए लावे के अन्दर दब गई। इस इलाक़े में दरिया-ए-सरस्वती बहता था जो हिन्दुस्तान का एक बहुत बड़ा दरिया था और इसे मुक़द्दस माना जाता था (दरिया-ए-गंगा बहुत बाद के ज़माने में वजूद में आया।) आज दरिया-ए-सरस्वती का कुछ पता नहीं चलता कि ये कहाँ-कहाँ से गुज़रता था और माहिरीने आसारे क़दीमिया इसकी गुज़रगाह तलाश कर रहे हैं। ये सब आसार बताते हैं कि हिन्दुस्तान के अन्दर मुख्तलिफ़ ज़मानों में अंबिया व रुसुल आए और उनकी नाफ़रमानियों के सबब उनकी क़ौमें अल्लाह के अज़ाब का शिकार हुईं। इन आसार की शहादतों के अलावा कुछ ऐसे मकाशफ़ात (ख़ुलासे) भी हैं कि मशरिक़ी पंजाब के जिस इलाक़े में शेख़ अहमद सरहंदी रहमतुल्लाह का मदफ़न है उस इलाक़े में तीस अंबिया मदफ़ून हैं। वल्लाह आलम!

“और उन पर अज़ाब वहाँ से आया जहाँ से उन्हें गुमान तक ना था।”وَاَتٰىهُمُ الْعَذَابُ مِنْ حَيْثُ لَا يَشْعُرُوْنَ    26؀

आयत 27

“फिर क़यामत के दिन अल्लाह उन्हें रुसवा करेगा और कहेगा: कहाँ हैं मेरे वह शरीक जिनकी हमियत में तुम झगड़ते थे?”ثُمَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ يُخْــزِيْهِمْ وَيَقُوْلُ اَيْنَ شُرَكَاۗءِيَ الَّذِيْنَ كُنْتُمْ تُشَاۗقُّوْنَ فِيْهِمْ ۭ

क़यामत के दिन उन्हें मज़ीद रुसवा करने के लिये उनसे पूछा जाएगा कि आज तुम्हारे वह मनघडत मअबूद कहाँ हैं जिनकी हिमायत और हमियत की वजह से तुम बड़ी-बड़ी जंगें लड़ने पर तैयार हो जाते थे?

“कहेंगे वह लोग जिनको इल्म दिया गया है कि यक़ीनन आज के दिन रुसवाई और बदबख्ती काफ़िरों ही के लिये है।”قَالَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْعِلْمَ اِنَّ الْخِزْيَ الْيَوْمَ وَالسُّوْۗءَ عَلٰي الْكٰفِرِيْنَ    27؀ۙ

आयत 28

“जिन (की रूहों) को क़ब्ज़ करते हैं फ़रिश्ते इस हाल में कि वह अपनी जानों पर ज़ुल्म करने वाले थे”الَّذِيْنَ تَتَوَفّٰىهُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِهِمْ  ۠

ऐसे लोग जिन्हें अपनी ज़िन्दगी में अल्लाह याद है ना आख़िरत, नेकी की रगबत है ना बुराई से नफ़रत, बस अपनी ऐश-कोशी और नफ्सपरस्ती में मग्न हैं। इसी हालत में जब फ़रिश्ते उनके पास परवाना-ए-मौत लेकर आ धमकेंगे:

“तो (उस वक़्त) वह अताअत पेश करेंगे कि हम तो कोई बुरे काम नहीं कर रहे थे।”فَاَلْقَوُا السَّلَمَ مَا كُنَّا نَعْمَلُ مِنْ سُوْۗءٍ  ۭ
“(तो फ़रिश्ते कहेंगे) क्यों नहीं, अल्लाह ख़ूब जानता है उसे जो कुछ तुम कर रहे थे।”بَلٰٓى اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ   28؀

मौत के फ़रिश्तों में सामने वह सरे-तस्लीम ख़म करते हुए अपने इस्लाम और अताअत का इज़हार करेंगे और इस तरह उनके सामने भी झूठ बोलने की कोशिश करेंगे।

आयत 29

“अब तुम दाख़िल हो जाओ जहन्नम के दरवाजों में, इसी में हमेशा-हमेश रहने के लिये।”فَادْخُلُوْٓا اَبْوَابَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا  ۭ
“पस क्या ही बुरा ठिकाना है मुतकब्बरीन का!”فَلَبِئْسَ مَثْوَى الْمُتَكَبِّرِيْنَ   29؀

आयत 30

“और (जब) पूछा जाता है अहले तक़वा से कि यह क्या नाज़िल किया है तुम्हारे रब ने?”وَقِيْلَ لِلَّذِيْنَ اتَّقَوْا مَاذَآ اَنْزَلَ رَبُّكُمْ

दूसरी तरफ़ वह लोग हैं जो अल्लाह से डरने वाले हैं, जिनके दिलों में अख्लाक़ी हिस्स बेदार और जिनकी रूहें ज़िन्दा हैं, जब उनसे पूछा जाता है कि मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ जो कलाम आप लोगों को सुनाते हैं वह क्या है?

“वह कहते हैं भलाई।”قَالُوْا خَيْرًا ۭ

यानि ये कलाम खैर ही खैर है और हमारी ही भलाई के लिये नाज़िल हुआ है।

“जिन लोगों ने नेकी की रविश इख्तियार की उनके लिये इस दुनिया में भी भलाई है, और आख़िरत का घर तो कहीं बेहतर है। और क्या ही अच्छा है वह घर मुत्ताक़ियों का!”لِلَّذِيْنَ اَحْسَنُوْا فِيْ هٰذِهِ الدُّنْيَا حَسَـنَةٌ  ۭ وَلَدَارُ الْاٰخِرَةِ خَيْرٌ  ۭ وَلَنِعْمَ دَارُ الْمُتَّقِيْنَ   30؀ۙ

आयत 31

“बाग़ात हमेशा रहने वाले जिनमें वह दाखिले होंगे, उनके दामन में नदियाँ बहती होंगी, उनके लिये वहाँ हर वह शय होगी जो वह चाहेंगे।”جَنّٰتُ عَدْنٍ يَّدْخُلُوْنَهَا تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ لَهُمْ فِيْهَا مَا يَشَاۗءُوْنَ ۭ
“इसी तरह अल्लाह बदला देगा अपने मुत्तक़ी बन्दों को।”كَذٰلِكَ يَجْزِي اللّٰهُ الْمُتَّقِيْنَ 31؀ۙ

आयत 32

“उन (की रूहों) को फ़रिश्ते क़ब्ज़ करते हैं दर हालाँकि वह पाक होते हैं”الَّذِيْنَ تَتَوَفّٰىهُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ طَيِّبِيْنَ  ۙ

जिनकी रूहें पाकीज़ा और जिनकी ज़िंदगियाँ तक़वा की आइनादार होती हैं, जब उनके पास मौत के फ़रिश्ते आते हैं तो:

“कहते हैं सलाम हो आप पर, दाख़िल हो जाइये जन्नत में अपने आमाल के बदले में।”يَقُوْلُوْنَ سَلٰمٌ عَلَيْكُمُ ۙ ادْخُلُوا الْجَنَّةَ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ    32؀

आयात 33 से 40 तक

هَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ تَاْتِيَهُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ اَوْ يَاْتِيَ اَمْرُ رَبِّكَ ۭ كَذٰلِكَ فَعَلَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ  ۭ وَمَا ظَلَمَهُمُ اللّٰهُ وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ   33؀ فَاَصَابَهُمْ سَـيِّاٰتُ مَا عَمِلُوْا وَحَاقَ بِهِمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ    34؀ۧ وَقَالَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا لَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا عَبَدْنَا مِنْ دُوْنِهٖ مِنْ شَيْءٍ نَّحْنُ وَلَآ اٰبَاۗؤُنَا وَلَا حَرَّمْنَا مِنْ دُوْنِهٖ مِنْ شَيْءٍ ۭ كَذٰلِكَ فَعَلَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۚ فَهَلْ عَلَي الرُّسُلِ اِلَّا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ    35؀ وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِيْ كُلِّ اُمَّةٍ رَّسُوْلًا اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوْتَ ۚ فَمِنْهُمْ مَّنْ هَدَى اللّٰهُ وَمِنْهُمْ مَّنْ حَقَّتْ عَلَيْهِ الضَّلٰلَةُ  ۭ فَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ فَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ   36؀ اِنْ تَحْرِصْ عَلٰي هُدٰىهُمْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِيْ مَنْ يُّضِلُّ وَمَا لَهُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ   37؀ وَاَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْ ۙ لَا يَبْعَثُ اللّٰهُ مَنْ يَّمُوْتُ  ۭ بَلٰى وَعْدًا عَلَيْهِ حَقًّا وَّلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ   38؀ۙ لِيُـبَيِّنَ لَهُمُ الَّذِيْ يَخْتَلِفُوْنَ فِيْهِ وَلِيَعْلَمَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنَّهُمْ كَانُوْا كٰذِبِيْنَ    39؀ اِنَّمَا قَوْلُــنَا لِشَيْءٍ اِذَآ اَرَدْنٰهُ اَنْ نَّقُوْلَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ    40؀ۧ

आयत 33

“अब ये लोग किस शय के मुन्तज़िर हैं सिवाय इसके कि आ धमके इन पर फ़रिश्ते या आ जाए फ़ैसला आपके रब का!”هَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ تَاْتِيَهُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ اَوْ يَاْتِيَ اَمْرُ رَبِّكَ ۭ

गुज़िश्ता बारह बरस से रसूल अल्लाह ﷺ क़ुरेशे मक्का को दावत दे रहे हैं, दो तिहाई के क़रीब क़ुरान भी अब तक नाज़िल हो चुका है। चुनाँचे इन लोगों को अब मज़ीद किस चीज़ का इंतेज़ार है? अब तो बस यही मरहला बाक़ी रह गया है कि फ़रिश्ते अल्लाह का फ़ैसला लेकर पहुँच जाएँ और वह नक़्शा सामने आ जाए जिसकी झलक सूरह अल फज्र में इस तरह दिखाई गई है: { وَّجَاۗءَ رَبُّكَ وَالْمَلَكُ صَفًّا صَفًّا   } { وَجِايْۗءَ يَوْمَىِٕذٍۢ بِجَهَنَّمَ   ڏ يَوْمَىِٕذٍ يَّتَذَكَّرُ الْاِنْسَانُ وَاَنّٰى لَهُ الذِّكْرٰى } (आयत 22-23) “और आएगा आपका रब और फ़रिश्ते सफ़-ब-सफ़। और लाई जायेगी उस दिन जहन्नम, उस दिन होश आएगा इंसान को, मगर क्या फ़ायदा होगा तब उसे उस होश का!”

“यही रविश इख्तियार की थी उन्होंने भी जो इनसे पहले थे। और अल्लाह ने उन पर ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि वह खुद अपनी जानों पर ज़ुल्म करते रहे।”كَذٰلِكَ فَعَلَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ  ۭ وَمَا ظَلَمَهُمُ اللّٰهُ وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ   33؀

जिन गुज़िश्ता अक़वाम के इबरतनाक अंजाम के बारे में तफ़सीलात क़ुरान में बताई जा रही हैं उन्हें उनके अपने करतूतों की सज़ा मिली थी। अल्लाह तआला की तरफ़ से उन पर क़तअन ज़ुल्म नहीं हुआ था।

आयत 34

“फिर उन पर वाक़ेअ होकर रहीं वो बुराईयाँ जो वह करते थे और घेर लिया उनको उसी ने जिसका वह इस्तेहज़ा करते थे।”فَاَصَابَهُمْ سَـيِّاٰتُ مَا عَمِلُوْا وَحَاقَ بِهِمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ    34؀ۧ

आयत 35

“और कहते हैं यह मुशरिक लोग कि अगर अल्लाह चाहता तो अल्लाह के सिवा किसी की पूजा ना करते, ना हम और ना हमारे आबा व अजदाद”وَقَالَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا لَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا عَبَدْنَا مِنْ دُوْنِهٖ مِنْ شَيْءٍ نَّحْنُ وَلَآ اٰبَاۗؤُنَا

उनकी दलील यह थी कि इस दुनिया में तो जो अल्लाह चाहता है वही कुछ होता है, वह अला कुल्ली शयइन क़दीर है। अगर वह चाहता कि हम कोई दूसरे मअबूद ना बनायें और उनकी परस्तिश ना करें, तो कैसे मुमकिन था कि हम ऐसा कर पाते? चुनाँचे अगर अल्लाह ने हमें इससे रोका नहीं है तो इसका वाज़ेह मतलब ये है कि इसमें उसकी मर्ज़ी शामिल है और उसकी तरफ़ से हमें ऐसा करने की इजाज़त है।

“और ना हराम क़रार देते हम उसके (हुक्म के) बगैर किसी भी चीज़ को। इसी तरह किया था उन लोगों ने भी जो इनसे पहले थे।”وَلَا حَرَّمْنَا مِنْ دُوْنِهٖ مِنْ شَيْءٍ ۭ كَذٰلِكَ فَعَلَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۚ
“पस नहीं है रसूलों पर कुछ ज़िम्मेदारी सिवाय वाज़ेह तौर पर पहुँचा देने के।”فَهَلْ عَلَي الرُّسُلِ اِلَّا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ    35؀

हमारे रसूल इस क़िस्म की कटहुज्जती और कज बहशी में नहीं उलझते। उनकी ज़िम्मेदारी हमारा पैग़ाम वाज़ेह तौर पर पहुँचा देने की हद तक है और यह ज़िम्मेदारी हमारे रसूल हमेशा से पूरी करते आए हैं। पैग़ाम पहुँच जाने के बाद उसे तस्लीम करना या ना करना मुतआलक़ा क़ौम का काम है, जिसके लिये उनका एक-एक फ़र्द हमारे सामने जवाब देह है।

आयत 36

“और हमने तो हर उम्मत में एक रसूल भेजा (इस पैग़ाम के साथ) कि अल्लाह ही की बंदगी करो और तागूत से बचो।”وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِيْ كُلِّ اُمَّةٍ رَّسُوْلًا اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوْتَ ۚ

तागूत का लफ्ज़ ‘तगा’ से मुश्तक़ है जिसके मायने सरकशी के हैं। लिहाज़ा जो कोई अल्लाह की बंदगी और इताअत से सरकशी और सरताबी कर रहा हो, वह तागूत है, चाहे वह इंसान हो या जिन्न, किसी रियासत का कोई इदारा हो, आइन (क़ानून) हो या खुद रियासत हो। बहरहाल जो भी अल्लाह की इताअत से सरताबी करके उसकी बंदगी से बाहर निकलने की कोशिश करेगा, वह गोया अल्लाह के मुक़ाबले में हाकिमियत का दावेदार होगा और इसी लिये तागूत के ज़ुमरे (category) में शुमार होगा। तागूत से किनारा कशी का हुक्म सूरतुल बक़रह की आयत नम्बर 256 में इस तरह आया है:                { فَمَنْ يَّكْفُرْ بِالطَّاغُوْتِ وَيُؤْمِنْۢ بِاللّٰهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقٰى ۤ لَا انْفِصَامَ لَهَا } “जिस किसी ने कुफ़्र किया तागूत से और ईमान लाया अल्लाह पर तो यक़ीनन उसने थाम लिया एक मज़बूत हल्क़ा जिसको टूटना नहीं है।”

“तो उनमें कुछ ऐसे भी थे जिन्हें अल्लाह ने हिदायत दे दी, और कुछ वह भी थे जिन मुसल्लत हो गई गुमराही।”فَمِنْهُمْ مَّنْ هَدَى اللّٰهُ وَمِنْهُمْ مَّنْ حَقَّتْ عَلَيْهِ الضَّلٰلَةُ  ۭ
“तो तुम घूमो-फिरो ज़मीन में और देखो कि झुठलाने वालों का कैसा अंजाम हुआ!”فَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ فَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ   36؀

तुम अपने तिजारती क़ाफ़िलों के साथ असहाबे हिज्र की बस्तियों से भी गुज़रते हो, तुमने क़ौमे समूद के महलात के खंडरात भी देखे हैं। तुम क़ौमे मदयन के अंजाम से भी वाक़िफ़ हो और तुम्हें यह भी मालूम है कि सदुम और आमूरह की बस्तियों के साथ क्या मामला हुआ था। यह तमाम तारीख़ी हक़ाइक तुम्हारे इल्म में हैं और तुम ये भी जानते हो कि इन सबको किस जुर्म की सज़ा भुगतना पड़ी थी।

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आयत 37

“(ऐ नबी !) अगर आपको बहुत ख्वाहिश है इनकी हिदायत की तो यक़ीनन अल्लाह हिदायत नहीं देता उसे जिसको वह गुमराह कर देता है, और इनके लिये नहीं होंगे कोई मददगार।”اِنْ تَحْرِصْ عَلٰي هُدٰىهُمْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِيْ مَنْ يُّضِلُّ وَمَا لَهُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ   37؀

इस सिलसिले में अल्लाह का क़ानून अटल है। अल्लाह की तरफ़ से लोगों तक हक़ की दावत पहुँचाने का पूरा बंदोबस्त किया जाता है, उन पर हिदायत मुन्कशिफ़ की जाती है और बार-बार उन्हें मौक़ा दिया जाता है कि वह सीधे रास्ते पर आ जाएँ। लेकिन अगर कोई शख्स हक़ को वाज़ेह तौर पर पहचान लेने के बाद हर बार उसे रद्द कर दे तो उससे हिदायत की तौफ़ीक़ सल्ब कर (छीन) ली जाती है। फिर वह हक़ को पहचानने की सलाहियत से महरूम हो जाता है और उसकी गुमराही पर मोहर तस्दीक़ सब्त हो जाती है। ऐसे लोगों ही के मुताल्लिक़ सूरतुल बक़रह की आयत नम्बर 7 में फ़रमाया गया है:  {خَتَمَ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ وَعَلٰي سَمْعِهِمْ   ۭ   وَعَلٰٓي اَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ } “अल्लाह ने मोहर लगा दी है उनके दिलों और उनके कानों पर, और उनकी आँखों पर परदा (पड़ चुका) है।” चुनाँचे इसी क़िस्म के लोगों के बारे में आयत ज़ेरे नज़र में फ़रमाया जा रहा है कि ऐ नबी ﷺ! आपकी शदीद ख्वाहिश है कि ये लोग ईमान लाकर राहे हिदायत पर आ जाएँ, मगर चूँकि ये हक़ को अच्छी तरह पहचान लेने के बाद उससे रू-गरदानी कर चुके हैं इसलिये इनकी गुमराही के बारे में अल्लाह तआला का फ़ैसला सादर हो चुका है, और अल्लाह का अटल क़ानून है कि वह ऐसे गुमराहों को हिदायत नहीं देता। सूरतुल क़सस की आयत नम्बर 56 में इसी असूल को वाज़ेह तर अंदाज़ में इस तरह बयान फ़रमाया गया है:         { اِنَّكَ لَا تَهْدِيْ مَنْ اَحْبَبْتَ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ } “(ऐ नबी ﷺ!) बेशक आप हिदायत नहीं दे सकते जिसको आप चाहें बल्कि अल्लाह हिदायत देता है जिसको वह चाहता है।”

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आयत 38

“और वह अल्लाह की क़समें खा कर कहते हैं, अपनी पक्की क़समें कि अल्लाह हरगिज़ नहीं उठाएगा उसको जो मर जाएगा।”وَاَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْ ۙ لَا يَبْعَثُ اللّٰهُ مَنْ يَّمُوْتُ  ۭ

मुशरिकीने मक्का अगरचे अमूमी तौर पर मरने के बाद दूसरी ज़िंदगी के क़ायल थे मगर उनका इस सिलसिले में अक़ीदा ये था कि जिन बुतों की वह पूजा करते हैं वह क़यामत के दिन अल्लाह के सामने उनके सिफ़ारशी होंगे और इस तरह रोज़े हश्र की तमाम सख्तियों से वह उन्हें बचा लेंगे। लेकिन उनके यहाँ एक तबक़ा ऐसा भी था जो बाअसे बाद अल मौत का मुन्किर था। उन लोगों के इस अक़ीदे का तज़किरा क़ुरान में मुतअद्दिद बार हुआ है। सूरतुल अनआम की आयत 29 में उन लोगों का क़ौल इस तरह नक़ल किया गया है:  { وَقَالُوْٓا اِنْ هِىَ اِلَّا حَيَاتُنَا الدُّنْيَا وَمَا نَحْنُ بِمَبْعُوْثِيْنَ   } “और वह कहते हैं कि नहीं है ये हमारी ज़िन्दगी मगर सिर्फ़ दुनिया की और हम (दोबारा) उठाए नहीं जायेंगे।”

“क्यों नहीं, ये वादा है उसके ज़िम्मे सच्चा (कि तुम ज़रूर उठाए जाओगे) लेकिन अक्सर लोग इल्म नहीं रखते।”بَلٰى وَعْدًا عَلَيْهِ حَقًّا وَّلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ   38؀ۙ

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आयत 39

“ताकि वह वाज़ेह कर दे उन पर वह तमाम चीज़ें जिनमें वह लोग इख्तिलाफ़ करते थे और इसलिये भी कि कुफ्फ़ार जान लें कि वही झूठे थे।”لِيُـبَيِّنَ لَهُمُ الَّذِيْ يَخْتَلِفُوْنَ فِيْهِ وَلِيَعْلَمَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنَّهُمْ كَانُوْا كٰذِبِيْنَ    39؀

अल्लाह तआला पूरी नौए इंसानी के एक-एक फ़र्द को दोबारा उठाएगा और उन्हें एक जगह जमा करेगा। फिर उनके तमाम इख्तलाफ़ी नज़रियात व अक़ाएद के बारे में हत्मी तौर पर उन्हें बता दिया जायेगा। चुनाँचे उस वक़्त तमाम मुन्करीने हक़ को इक़रार किये बगैर चारा ना रहेगा कि उनके ख्यालात व नज़रियात वाक़ई झूठ और बातिल पर मब्नी थे।

आयत 40

“हमारा क़ौल तो किसी चीज़ के बारे में बस ये होता है, जब हम उसका इरादा करते हैं कि हम फ़रमाते हैं उसे हो जा तो वह हो जाती है।”اِنَّمَا قَوْلُــنَا لِشَيْءٍ اِذَآ اَرَدْنٰهُ اَنْ نَّقُوْلَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ    40؀ۧ

इस नुक्ते को अच्छी तरह समझ लेना ज़रूरी है कि ये हुक्म आलमे अम्र के बारे में है, जबकि आलमे खल्क़ में यूँ नहीं होता (आलमे अम्र और आलमे खल्क़ के बारे में वज़ाहत इस सूरत की आयत 2 और सूरतुल आराफ़ की आयत 54 के ज़िमन में गुज़र चुकी है)। आलमे अम्र में किसी वाक़िये या किसी चीज़ के ज़हूर पज़ीर होने के लिये असबाब, वसाएल और वक़्त दरकार नहीं, बल्कि अल्लाह तआला इरादा फ़रमा कर कुन फ़रमाते हैं तो वह चीज़ वजूद में आ जाती है। आलमे खल्क़ में भी कुल्ली इख्तियार तो अल्लाह ही का है मगर इस आलम को आम तबई क़वानीन के मुताबिक़ चलाया जाता है। चुनाँचे आलमे खल्क़ में किसी चीज़ को वजूद में आने और मतलूबा मैयार तक पहुँचने के लिये असबाब, वसाएल और वक़्त की ज़रूरत पेश आती है। ये कायनात अपने तमाम तबई मौजूदात के साथ आलमे खल्क़ का इज़हार है। आयत ज़ेरे नज़र के मौज़ू की मुनासबत से यहाँ मैं कायनात की तख्लीक़ के आग़ाज़ से मुताल्लिक़ अपनी सोच और फ़िक्र की वज़ाहत ज़रूरी समझता हूँ।

कायनात की तख्लीक़ के बारे में एक तरफ़ तो पुराने फ़लसफ़ियाना तसव्वुरात हैं और दूसरी तरफ़ जदीद साइन्सी नज़रियात (theories)। फ़लसफ़ियाना तसव्वुरात के मुताबिक़ सबसे पहले वजूदे बारी तआला से अक़्ले अव्वल वजूद में आई। अक़्ले अव्वल से फ़िर फ़लक-ए-अवव्ल और फिर फ़लक-ए-अव्वल से फ़लक-ए-सानी वगैरह। ये मशाईन के फ़लसफ़े हैं जो अरस्तु और उसके शागिर्दों के नज़रियात के साथ दुनिया में फैले और हमारे यहाँ भी बहुत से मुतकल्लिमीन इनसे मुतास्सिर हुए। बहरहाल जदीद साइन्सी इन्कशाफ़ात के ज़रिये इनमें से किसी भी नज़रिये की कहीं कोई ताईद व तस्दीक़ नहीं हुई।

दूसरी तरफ़ जदीद फ़िज़िक्स के मैदान में आला इल्मी सतह पर इस सिलसिले में जितने भी नज़रियात (theories) हैं उनमें “अज़ीम धमाके” (Big Bang) का तसव्वुर पाया जाता है। इस तसव्वुर के तहत Big Bang के नतीजे में अरब-ह-अरब दर्जा-ए-हरारत के हामिल बेशुमार ज़र्रात वजूद में आए। ये ज़र्रात तेज़ी से हरकत करते हुए मुख्तलिफ़ forms में इकट्ठे हुए तो कहकशाएँ (galaxies) वजूद में आईं और छोटे-बड़े बेशुमार सितारों का एक जहान आबाद हो गया। इन्हीं सितारों में एक हमारा सूरज भी था, जिसके अन्दर मज़ीद टूट-फूट के नतीजे में इसके सय्यारे (planets) वजूद में आए। सूरज के इन सय्यारों में से एक सय्यारा हमारी ज़मीन है जो वक़्त के साथ-साथ ठंडी होती रही और बिलआख़िर इस पर नबाताती और हैवानी ज़िंदगी के लिये साज़गार माहौल वजूद में आया। आज की साइंस फ़िलहाल “बिग बैंग” से आगे कोई नज़रिया क़ायम करने से क़ासिर है। इस नज़रिये से जो मालूमात साइंस ने अखज़ की है वह उन तमाम हक़ाएक़ के साथ मुताबक़त (corroboration) रखती हैं जिनका इल्म इस मौज़ू पर हमें क़ुरान से मिलता है। इससे पहले माद्दे के बारे में साइंस क़ानून बक़ाए माद्दा (law of conservation of mass) की क़ायल थी कि माद्दा हमेशा से है और हमेशा रहेगा, मगर नये नज़रिये को अपना कर साइंस ने ना सिर्फ़ Big Bang को कायनात का नुक्ता-ए-आग़ाज़ तस्लीम कर लिया है बल्कि ये भी मान लिया है कि माद्दा एक ख़ास वक़्त तक के लिये है और एक ख़ास वक़्त के बाद ख़त्म हो जाएगा।

जहाँ तक कायनात की तख्लीक़ के आग़ाज़ के बारे में मेरी अपनी सोच का ताल्लुक़ है उसका खुलासा ये है कि इसकी तख्लीक़ अल्लाह तआला के एक अम्र “कुन” से हुई (अल्लाह के हुक्म से, ना कि उसकी ज़ात से)। फ़िर इस अम्रे “कुन” का ज़हूर एक ख़ुनक नूर या ठन्डी रौशनी की सूरत में हुआ (ये ख़ुनक नूर हरफ़े कुन का ज़हूर था ना कि ज़ाते बारी तआला का)। इस रौशनी में हरारत नहीं थी, गोया ये माद्दी रौशनी (material light) के वजूद में आने से पहले का दौर था। आज जिस रौशनी को हम देखते या पहचानते हैं इसमें हरारत होती है और इसी हरारत की वज़ह से ये material light है।

अम्रे “कुन” से ज़हूर पाने वाले इस ख़ुनक नूर से पहले मरहले पर मलाएका (फ़रिश्तों) की पैदाइश हुई। जैसे कि मुस्लिम शरीफ़ में हज़रत आयशा रज़िअल्लाहु अन्हा से हदीस मरवी है कि अल्लाह तआला ने मलाएका को नूर से पैदा किया। इसी नूर से इंसानी अरवाह पैदा की गईं, और सबसे पहले रूहे मोहम्मदी ﷺ पैदा की गई, जैसा कि हदीस में अल्फ़ाज़ आए हैं: ((اَوَّلُ مَا خَلَقَ اللّٰہُ نُوْرِیْ))(13) यानि अल्लाह तआला ने सबसे पहले मेरा नूर पैदा किया। “नूरी” और “रूही” गोया दो मुतरादिफ़ अल्फ़ाज़ हैं, क्योंकि रूह का ताल्लुक़ भी नूर से है। बहरहाल ये कायनात की तख्लीक़ का मरहला-ए-अव्वल है जिसमें फ़रिश्तों और इन्सानी अरवाह की तख्लीक़ हुई।

इसके बाद किसी मरहले पर इस खुनक नूर में किसी नौइयत का ज़ोरदार धमाका (explosion) हुआ जिसको आज की साइंस “बिग बैंग” के नाम से पहचानती है। इस धमाके के नतीजे में हरारत का वह गोला वजूद में आया जो बहुत छोटे-छोटे ज़र्रात पर मुश्तमिल था। इस ज़र्रात का दर्जा-ए-हरारत नाक़ाबिल-ए-तस्सवुर हद तक था। ये गोया तबई दुनिया (physical world) का नुक्ता-ए-आग़ाज़ था। इसी दौर में इस आग की लपट से जिन्नात पैदा किये गए और इन्ही इन्तहाई गर्म ज़र्रात से कहकशाएँ, सितारे और सय्यारे वजूद में आए।

इन सय्यारों में से एक सय्यारा या कुर्रा हमारी ज़मीन है, जो इब्तदा में इन्तहाई गरम थी। इसके ठंडा होने पर इसके अन्दर से बुखारात निकले जो इसके गिर्द एक हाले की शक्ल में जमा हो गए। इन बुखारात से पानी वजूद में आया जो हज़ार-हा बरस तक ज़मीन पर बारिश की सूरत में बरसता रहा। इसके नतीजे में तमाम रुए ज़मीन पर हर तरफ़ पानी ही पानी फ़ैल गया। इस वक़्त तक ज़मीन पर पानी के अलावा और कुछ नहीं था। यही वह दौर था जिसका ज़िक्र क़ुरान में बा-अल्फ़ाज़ किया गया है: {وَّكَانَ عَرْشُهٗ عَلَي الْمَاۗءِ} (सूरह हूद:7) “कि उसका अर्श (उस वक़्त) पानी पर था।” फिर ज़मीन जब मज़ीद ठंडा होने पर सुकड़ी तो इसकी सतह पर नशेब व फ़राज़ (उतार-चढ़ाव) नमूदार हुए। कहीं पहाड़ वजूद में आए तो कहीं सनुन्दर। इसके बाद नबाताती और हैवानी हयात का आग़ाज़ हुआ। इस हयात के इरताक़ाअ (विकास) के बुलंदतरीन मरहले पर इंसान की तख्लीक़ हुई और हज़रत आदम अलै. की रूह उनके वजूद को सौंपी गई। हज़रत आदम अलै. की ताजपोशी का यही वाक़िया है जहाँ से क़ुरान आदम अलै. की तख्लीक़ का तज़किरा करता है। इस लिहाज़ से इंसान अल्लाह तआला की तख्लीक़ का आलातरीन शाहकार भी है और इस पूरी कायनात की तख्लीक़ का असल मक़सूद व मतलूब भी।

यहाँ एक नुक्ता ये भी समझ लें कि आलमे खल्क़ और आलमे अम्र बिल्कुल अलग-अलग नहीं हैं। यानि यूँ नहीं कहा जा सकता कि यहाँ तक तो आलमे खल्क़ है और यहाँ से आगे आलमे अम्र है। ऐसा हरगिज़ नहीं है, बल्कि ये दोनों आलम एक-दूसरे के साथ खल्त-मल्त और बाहम गुंधे हुए हैं। मसलन इस आलमे खल्क़ में तमाम इंसानों की अरवाह मौजूद हैं, जिनका ताल्लुक़ आलमे अम्र से है: {وَيَسْــــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الرُّوْحِ  ۭ قُلِ الرُّوْحُ مِنْ اَمْرِ رَبِّيْ} (बनी इसराइल:85) ये आयत वाज़ेह करती है कि रूह का ताल्लुक़ आलमे अम्र से है। शाह वलीउल्लाह देहलवी रहमतुल्लाह ने अपनी मशहूर किताब “हुज्जतुल्लाहिल बलागा” में लिखा है कि अल्लाह तआला अपने बाज़ नेक बन्दों की अरवाह को फरिश्तों के तबक़ा-ए-असफ़ल (rank) में शामिल कर लेते हैं, चुनाँचे ये नेक़ अरवाह उन फरिश्तों के साथ सरग़रमे अमल रहती हैं जो अल्लाह के अहकाम की तामील व तन्फ़ीज़ में मसरूफ़ हैं। इस तरह फ़रिश्ते जो कि आलमे अम्र की मख्लूक़ हैं वह भी यहाँ आलमे खल्क़ में हमारे इर्द-गिर्द मौजूद हैं। दो-दो फ़रिश्ते तो हम में से हर इंसान के साथ बतौर निगरान मुक़र्रर किये गए हैं। हज़रत अबु हुरैरा रज़ि. रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

مَا اجْتَمَعَ قَوْمٌ فِیْ بَیْتٍ مِنْ بُیُوْتِ اللّٰہِ یَتْلُوْنَ کِتَاب اللّٰہِ وَیَتَدَارَسُوْنَہُ بَیْنَھُمْ الاَّ نَزَلَتْ عَلَیْھِمُ السَّکِیْنَۃُ وَغَشِیَتْھُمُ الرَّحْمَۃُ وَحَفَّتْھُمُ الْمَلَاءِکَۃُ وَذَکَرَھُمُ اللّٰہُ فِیْمَنْ عِنْدَہُ

“अल्लाह के घरों में से किसी घर में कुछ लोग किताबुल्लाह की तिलावत और उसको समझने और समझाने के लिये जमा नहीं होते मगर ये कि उनके ऊपर सकीनत नाज़िल होती है, अल्लाह की रहमत उन्हें ढाँप लेती है, फ़रिश्ते उनको घेर लेते हैं और अल्लाह तआला अपने मुक़र्रबीन (मला-ए-आला) में उनका ज़िक्र करता है।”(14)

इस हदीस की रू से दरसे क़ुरान की इस महफ़िल में यक़ीनन फ़रिश्ते मौजूद हैं, वह आलमे अम्र की शय हैं, हम ना उन्हें देख सकते हैं ना उनसे ख़िताब कर सकते हैं। ये भी मुमकिन है कि अहले ईमान जिन्नात भी मौजूद हों और क़ुरान सुन रहे हों। चुनाँचे अरवाह, फ़रिश्ते और वही तीनों का ताल्लुक़ अगरचे आलमे अम्र से है मगर इनका अमल-दखल आलमे खल्क़ में भी है। इस तरह आलमे खल्क़ और आलमे अम्र को बिल्कुल अलग-अलग नहीं किया जा सकता।

यहाँ मै मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल के एक मशहूर शेर का हवाला देना चाहता हूँ जो तख्लीक़-ए-कायनात और तख्लीक़-ए-आदम के इस फ़लसफ़े को बहुत खूबसूरती से वाज़ेह करता है:

हर दो आलम ख़ाक शुद ता बस्त नक़शे आदमी

ऐ बहारे नीस्ती अज़ क़दरे ख़ुद होशियार बाश!

मिर्ज़ा अब्दुल क़ादिर बेदिल हिन्दुस्तान में औरंगज़ेब आलमगीर के ज़माने में थे। वह अज़ीम फ़लसफ़ी और फ़ारसी के बहुत बड़े शायर थे। उनका शुमार दुनिया के चोटी के फ़लसफ़ियों में होता था। उनकी शायराना अज़मत के सामने मिर्ज़ा ग़ालिब भी पानी भरते और उनकी तर्ज़ को अपनाने में फ़ख्र महसूस करते नज़र आते हैं:

तर्ज़े बेदिल में रेख्ता लिखना

असदुल्लाह खां क़यामत है!

मौज़ू की अहमियत के पेशे नज़र यहाँ मिर्ज़ा बेदिल के मंदरजा बाला शेर की वज़ाहत ज़रूरी है। इस शेर में वह फ़रमाते हैं “हर दो आलम ख़ाक शुद” यानि दोनों आलम ख़ाक हो गए। शायर के अपने ज़हन में इसकी वज़ाहत क्या थी इसके बारे में शायर खुद जानता है या अल्लाह तआला। लेकिन मैं इससे ये नुक्ता समझा हूँ कि अल्लाह तआला ने आलमे अम्र को तनज्ज़ुल के मुख्तलिफ़ मराहिल से गुज़ार कर आलमे खल्क़ की शकल दी। फिर इसके मज़ीद तनज्ज़ुलात के नतीजे में ज़मीन (मिट्टी) पैदा की गई। गोया दोनों जहानों ने ख़ाक की सूरत इख्तियार कर ली, तब जाकर कहीं हयाते अर्ज़ी का सिलसिला शुरू हुआ और फिर इस सिलसिले में इरतक़ाअ का वह बुलंदतरीन मरहला आया: “ताबस्त नक़शे आदमी!” जब आदमी का नक्श बनना शुरू हुआ।

दूसरे मिसरे में (ऐ बहारे नीस्ती अज़ क़द्रे ख़ुद होशियार बाश!) “नीस्त” के फ़लसफ़े को भी अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है। “वहदतुल वुजूद” के फ़लसफ़े के मुताबिक़ हक़ीक़ी वजूद सिर्फ़ अल्लाह का है, बाक़ी जो कुछ भी हमें नज़र आता है इसमें से किसी चीज़ का वजूद हक़ीक़ी नहीं है। गोया अल्लाह के अलावा इस कायनात की हर चीज़ “नीस्त” है “हस्त” नहीं है:

کُلُّ مَا فِی الْکَوْنِ وَ ھْمٌ اَوْ خَیَالٌ   اَوْ عُکُوسٌ فِی المَرایَا اَوْ ظِلَال

यानि अल्लाह के वजूद के अलावा जो वजूद भी नज़र आते हैं वह वहम हैं या ख्याली तसवीरें। इस तरह यह तमाम आलम गोया “नीस्त” है और इस आलमे नीस्त की “बहार” इंसान है, जिसके बारे में अल्लाह तआला ने फ़रमाया” {خَلَقْتُ بِيَدَيَّ} (सूरह सआद:75) कि मैंने इसे अपने दोनों हाथों से बनाया है। अल्लाह का एक हाथ गोया आलमे अम्र और दूसरा हाथ आलमे खल्क़ है। इस तरह इंसान अल्लाह तआला के अमल-ए-तख्लीक़ का climax, मस्जूद-ए-मलाइक और खलीफ़तुल्लाह है। चुनाँचे मिर्ज़ा बेदिल फ़रमाते हैं (ऐ बहारे नीस्ती अज़ क़द्रे खुद होशियार बाश!) कि ऐ इंसान! ऐ इस आलमे नीस्ती की बहार! ज़रा अपने मक़ाम व मरतबे को पहचानो! तुम्हें वजूद में लाने के लिये अल्लाह तआला ने हर दो आलम को ना जाने तनज्ज़ुलात की किन-किन मनाज़िल से नीचे उतार कर खाक़ किया, तब कहीं जाकर तुम्हारा नक्श बना।

आयात 41 से 50 तक

وَالَّذِيْنَ هَاجَرُوْا فِي اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا ظُلِمُوْا لَنُبَوِّئَنَّهُمْ فِي الدُّنْيَا حَسَـنَةً  ۭ وَلَاَجْرُ الْاٰخِرَةِ اَكْبَرُ  ۘ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ    41؀ۙ الَّذِيْنَ صَبَرُوْا وَعَلٰي رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَ    42؀ وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ اِلَّا رِجَالًا نُّوْحِيْٓ اِلَيْهِمْ فَسْـــَٔـلُوْٓا اَهْلَ الذِّكْرِ اِنْ كُنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ   43؀ۙ بِالْبَيِّنٰتِ وَالزُّبُرِ ۭ وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الذِّكْرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ اِلَيْهِمْ وَلَعَلَّهُمْ يَتَفَكَّرُوْنَ    44؀ اَفَاَمِنَ الَّذِيْنَ مَكَرُوا السَّيِّاٰتِ اَنْ يَّخْسِفَ اللّٰهُ بِهِمُ الْاَرْضَ اَوْ يَاْتِيَهُمُ الْعَذَابُ مِنْ حَيْثُ لَا يَشْعُرُوْنَ    45؀ۙ اَوْ يَاْخُذَهُمْ فِيْ تَقَلُّبِهِمْ فَمَا هُمْ بِمُعْجِزِيْنَ    46؀ۙ اَوْ يَاْخُذَهُمْ عَلٰي تَخَــوُّفٍ ۭ فَاِنَّ رَبَّكُمْ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ     47؀ اَوَلَمْ يَرَوْا اِلٰى مَا خَلَقَ اللّٰهُ مِنْ شَيْءٍ يَّتَفَيَّؤُا ظِلٰلُهٗ عَنِ الْيَمِيْنِ وَالشَّمَاۗىِٕلِ سُجَّدًا لِّلّٰهِ وَهُمْ دٰخِرُوْنَ    48؀ وَلِلّٰهِ يَسْجُدُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ مِنْ دَاۗبَّـةٍ وَّالْمَلٰۗىِٕكَةُ وَهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ    49؀ يَخَافُوْنَ رَبَّهُمْ مِّنْ فَوْقِهِمْ وَيَفْعَلُوْنَ مَا يُؤْمَرُوْنَ    50؀۞ۧ

आयत 41

“और जिन लोगों ने अल्लाह के लिये हिजरत की, इसके बाद कि उन पर ज़ुल्म किया गया, हम उन्हें दुनिया में भी ज़रूर अच्छी जगह देंगे।”وَالَّذِيْنَ هَاجَرُوْا فِي اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا ظُلِمُوْا لَنُبَوِّئَنَّهُمْ فِي الدُّنْيَا حَسَـنَةً  ۭ
“और (उनके लिये) आख़िरत का अज्र तो बहुत ही बड़ा है। काश कि उनको मालूम होता।”وَلَاَجْرُ الْاٰخِرَةِ اَكْبَرُ  ۘ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ    41؀ۙ

आयत 42

“यह वह लोग हैं जिन्होंने सब्र किया और वह अपने रब पर तवक्कुल करने वाले हैं।”الَّذِيْنَ صَبَرُوْا وَعَلٰي رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَ    42؀

आयत 43

“और (ऐ नबी !) हमने नहीं भेजा आपसे पहले मगर मर्दों ही को (रसूल बना कर) जिनकी तरफ़ हम वही किया करते थे”وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ اِلَّا رِجَالًا نُّوْحِيْٓ اِلَيْهِمْ

यानि आप ﷺ पहले नबी या रसूल नहीं हैं बल्कि आप ﷺ से पहले हम बहुत से रसूल भेज चुके हैं। वह सब के सब आदमी ही थे और उनकी तरफ़ हम इसी तरह वही भेजते थे जिस तरह आज आपकी तरफ़ वही आती है।

“तो तुम लोग अहले ज़िक्र से पूछ लो, अगर तुम ख़ुद नहीं जानते हो।”فَسْـــَٔـلُوْٓا اَهْلَ الذِّكْرِ اِنْ كُنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ   43؀ۙ

यानि ऐ अहले मक्का! अगर तुम लोगों को इस बारे में कुछ शक है तो तुम्हारे पड़ोस मदीने में वह लोग आबाद हैं जो सिलसिला-ए-वही व रिसालत से ख़ूब वाक़िफ़ हैं, उनसे पूछ लो कि अब तक जो अम्बिया व रुसुल अलै. इस दुनिया में आए हैं वह सब के सब इंसान थे या फ़रिश्ते?

आयत 44

“(हमने उन्हें भेजा) खुली निशानियों और किताबों के साथ।”بِالْبَيِّنٰتِ وَالزُّبُرِ ۭ
“और हमने नाज़िल किया आपकी तरफ़ अज्ज़िक्र, ताकि आप वाज़ेह कर दें लोगों के लिये जो कुछ नाज़िल किया गया है उनकी जानिब और ताकि वह गौर व फ़िक्र करें।”وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الذِّكْرَ لِتُبَيِّنَ لِلنَّاسِ مَا نُزِّلَ اِلَيْهِمْ وَلَعَلَّهُمْ يَتَفَكَّرُوْنَ    44؀

यहाँ क़ुरान के लिये फिर लफ्ज़ “अल ज़िक्र” इस्तेमाल हुआ है, यानि ये क़ुरान एक तरह की याद दिहानी है। ये आयत मुनकरीने सुन्नत व हदीस के ख़िलाफ़ एक वाज़ेह दलील फ़राहम करती है। इसकी रू से क़ुरान की “तबईन” रसूल का फ़र्ज़े मंसबी है। क़ुरान के असरार व रमूज़ को समझाना, इसमें अगर कोई नुक्ता मुज्मल है तो उसकी तफ़सील बयान करना, अगर कोई हुक्म मुब्हम है तो उसकी वज़ाहत करना रसूल अल्लाह ﷺ का फ़र्ज़े मंसबी था। ये फ़र्ज़ इस आयत की रू से ख़ुद अल्लाह तआला ने आप ﷺ को तज़वीज़ किया है, मगर मुनकरीने सुन्नत आज आप ﷺ को ये हक़ देने के लिये तैयार नहीं हैं। उनकी राय के मुताबिक़ ये अल्लाह की किताब है जो अल्लाह के रसूल ने हम तक पहुँचा दी है, अब हम खुद इसको पढेंगे, खुद समझेंगे और खुद ही अमल की जहतें (dimensions) मुतअय्यन करेंगे। हुज़ूर ﷺ के समझाने की अगर कुछ ज़रूरत थी भी तो वह अपने ज़माने की हद तक थी।

आयत 45

“तो क्या बेखौफ़ हो गए हैं वह लोग जिन्होंने बुरी चालें चलीं इस बात से कि अल्लाह उन्हें ज़मीन में धंसा दे”اَفَاَمِنَ الَّذِيْنَ مَكَرُوا السَّيِّاٰتِ اَنْ يَّخْسِفَ اللّٰهُ بِهِمُ الْاَرْضَ

ये लोग़ हमारे रसूल के ख़िलाफ़ साज़िशों के जाल बुनने में मग्न हैं और हक़ की दावत का रास्ता रोकने के लिये तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल कर रहे हैं। क्या ये डरते नहीं कि अगर अल्लाह चाहे तो इन्हें इस जुर्म की पादाश में ज़मीन में धंसा दे?

“या (इन्हें ये खौफ़ भी नहीं रहा कि) उन पर आ धमके कोई अज़ाब जहाँ से इन्हें गुमान तक ना हो।”اَوْ يَاْتِيَهُمُ الْعَذَابُ مِنْ حَيْثُ لَا يَشْعُرُوْنَ    45؀ۙ

आयत 46

“या वह इन्हें पकड़ ले इनकी चलत-फिरत में, फिर वह (अल्लाह को) आजिज़ करने वाले नहीं हैं।”اَوْ يَاْخُذَهُمْ فِيْ تَقَلُّبِهِمْ فَمَا هُمْ بِمُعْجِزِيْنَ    46؀ۙ

यूँ भी हो सकता है कि इनकी रोज़मर्रा ज़िन्दगी में, मामूल की सरगर्मियों के दौरान ही इनकी पकड़ का हुक्म आ जाए और फिर अल्लाह के इस हुक्म के मुक़ाबले में इनकी कोई तदबीर भी कामयाब ना हो सके।

आयत 47

“या इन्हें पकड़े खौफ़ दिलाकर। हक़ीक़त ये है कि तुम्हारा रब बहुत बख्शने वाला, निहायत रहम वाला है।”اَوْ يَاْخُذَهُمْ عَلٰي تَخَــوُّفٍ ۭ فَاِنَّ رَبَّكُمْ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ     47؀

अगरचे अल्लाह तआला अपने नाफ़रमानों को अचानक भी पकड़ सकता है, मगर चूँकि वह बहुत शफ़ीक़ और निहायत रहम फ़रमाने वाला है, इसलिये उसका अज़ाब यूँही बेख़बरी में नहीं आता बल्कि मुतालक़ा क़ौम को पहले पूरी तरह आगाह किया जाता है, उन पर इत्मामे हुज्जत के तमाम तक़ाज़े पूरे किये जाते हैं, तब कहीं जाकर अज़ाब का फ़ैसला होता है। जैसे सूरह बनी इसराईल में फ़रमाया गया: { وَمَا كُنَّا مُعَذِّبِيْنَ حَتّٰى نَبْعَثَ رَسُوْلًا } (आयत 15) “और हम अज़ाब देने वाले नहीं हैं जब तक कि हम रसूल ना भेजें।” यानि हमेशा ऐसा होता रहा है कि लोगों की हिदायत के लिये रसूल भेजा गया, जिसने उन पर हक़ का हक़ होना और बातिल का बातिल होना ख़ूब अच्छी तरह वाज़ेह कर दिया, यहाँ तक कि मुतालक़ा क़ौम पर हुज्जत तमाम होने में कोई कसर बाक़ी ना रही। इसके बाद भी जो लोग कुफ़्र और ज़ुल्म पर अड़े रहे, उन पर गिरफ़्त की गई और अज़ाब के ज़रिये उन्हें नेस्तोनाबूद कर दिया गया।

आयत 48

“क्या ये देखते नहीं है अल्लाह की पैदा की गई हर शय की तरफ़, कि झुकते हैं उसके साये दाएँ और बाएँ अल्लाह को सज्दा करते हुए और वह सब आजिज़ी (की कैफ़ियत) में होते हैं।”اَوَلَمْ يَرَوْا اِلٰى مَا خَلَقَ اللّٰهُ مِنْ شَيْءٍ يَّتَفَيَّؤُا ظِلٰلُهٗ عَنِ الْيَمِيْنِ وَالشَّمَاۗىِٕلِ سُجَّدًا لِّلّٰهِ وَهُمْ دٰخِرُوْنَ    48؀

इस आयत में हमारे इर्द-गिर्द की अशया (चीज़ों) से पैदा होने वाले माहौल की तस्वीर कशी की गई है जिसे देखते हुए हम अल्लाह की किबरियाई का एक नक्शा अपने तस्सवुर में ला सकते हैं। जब सूरज निकलता है तो तमाम चीज़ों के साये ज़मीन पर बिछे हुए अल्लाह को सज्दा करते हुए नज़र आते हैं। फिर सूरज के बुलंद होने के साथ ही साथ ये साये सिमटते चले जाते हैं। सूरज के ढ़लने के साथ दूसरी सिम्त (दिशा) में फैलते हुए ये साये फिर अल्लाह के हुज़ूर सज्दा रेज़ हो जाते हैं।

आयत 49

“और अल्लाह ही को सज्दा करते हैं आसमानों और ज़मीन में जितने जानदार हैं और फ़रिश्ते भी, और वह तकब्बुर से काम नहीं लेते।”وَلِلّٰهِ يَسْجُدُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ مِنْ دَاۗبَّـةٍ وَّالْمَلٰۗىِٕكَةُ وَهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ    49؀

आयत 50

“वह डरते रहते हैं अपने ऊपर अपने रब से और वही कुछ करते हैं जिसका उन्हें हुक्म दिया जाता है।”يَخَافُوْنَ رَبَّهُمْ مِّنْ فَوْقِهِمْ وَيَفْعَلُوْنَ مَا يُؤْمَرُوْنَ    50؀۞ۧ

यह ख़ुसूसी तौर पर फ़रिश्तों के बारे में फ़रमाया गया है। जैसे कि सूरतुल तहरीम में फ़रमाया गया: {لَا يَعْصُوْنَ اللّٰهَ مَآ اَمَرَهُمْ وَيَفْعَلُوْنَ مَا يُؤْمَرُوْنَ} “वह अल्लाह की नाफ़रमानी नहीं करते जो हुक्म वह उन्हें देता है और वही करते हैं जो हुक्म उन्हें दिया जाता है।”

आयत 51 से 60 तक

وَقَالَ اللّٰهُ لَا تَتَّخِذُوْٓا اِلٰـهَيْنِ اثْـنَيْنِ ۚ اِنَّمَا هُوَ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۚ فَاِيَّايَ فَارْهَبُوْنِ    51؀ وَلَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَلَهُ الدِّيْنُ وَاصِبًا  ۭ اَفَغَيْرَ اللّٰهِ تَتَّقُوْنَ    52؀ وَمَا بِكُمْ مِّنْ نِّعْمَةٍ فَمِنَ اللّٰهِ ثُمَّ اِذَا مَسَّكُمُ الضُّرُّ فَاِلَيْهِ تَجْــــَٔــرُوْنَ    53؀ۚ ثُمَّ اِذَا كَشَفَ الضُّرَّ عَنْكُمْ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْكُمْ بِرَبِّهِمْ يُشْرِكُوْنَ    54؀ۙ لِيَكْفُرُوْا بِمَآ اٰتَيْنٰهُمْ ۭ فَتَمَتَّعُوْا  ۣ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ   55؀ وَيَجْعَلُوْنَ لِمَا لَا يَعْلَمُوْنَ نَصِيْبًا مِّمَّا رَزَقْنٰهُمْ  ۭ تَاللّٰهِ لَتُسْـــَٔـلُنَّ عَمَّا كُنْتُمْ تَفْتَرُوْنَ    56؀ وَيَجْعَلُوْنَ لِلّٰهِ الْبَنٰتِ سُبْحٰنَهٗ ۙ وَلَهُمْ مَّا يَشْتَهُوْنَ    57؀ وَاِذَا بُشِّرَ اَحَدُهُمْ بِالْاُنْثٰى ظَلَّ وَجْهُهٗ مُسْوَدًّا وَّهُوَ كَظِيْمٌ    58؀ۚ يَتَوَارٰى مِنَ الْقَوْمِ مِنْ سُوْۗءِ مَا بُشِّرَ بِهٖ  ۭ اَيُمْسِكُهٗ عَلٰي هُوْنٍ اَمْ يَدُسُّهٗ فِي التُّرَابِ  ۭ اَلَا سَاۗءَ مَا يَحْكُمُوْنَ    59؀ لِلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ مَثَلُ السَّوْءِ ۚ وَلِلّٰهِ الْمَثَلُ الْاَعْلٰى  ۭ وَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ     60؀ۧ

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आयत 51

“और अल्लाह ने फ़रमाया है कि दो मअबूद मत बनाओ, यक़ीनन वह तो एक ही मअबूद है, पस तुम मुझ ही से डरो।”وَقَالَ اللّٰهُ لَا تَتَّخِذُوْٓا اِلٰـهَيْنِ اثْـنَيْنِ ۚ اِنَّمَا هُوَ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۚ فَاِيَّايَ فَارْهَبُوْنِ    51؀

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आयत 52

“और उसी के लिये है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है और उसी के लिये इताअत है हमेशा-हमेश, तो क्या तुम अल्लाह के सिवा किसी और का तक़वा इख्तियार करते हो?”وَلَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَلَهُ الدِّيْنُ وَاصِبًا  ۭ اَفَغَيْرَ اللّٰهِ تَتَّقُوْنَ    52؀

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आयत 53

“और जो नेअमत भी तुम्हें मयस्सर है वह अल्लाह ही की तरफ़ से है, फिर जब तुम्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो उसी के सामने तुम फ़रियाद करते हो।”وَمَا بِكُمْ مِّنْ نِّعْمَةٍ فَمِنَ اللّٰهِ ثُمَّ اِذَا مَسَّكُمُ الضُّرُّ فَاِلَيْهِ تَجْــــَٔــرُوْنَ    53؀ۚ

तकलीफ़ की कैफ़ियत में तुम अल्लाह को ही याद करते हो, उसी की जनाब में गिडगिडाते, आहवज़ारी करते, और दुआएँ माँगते हो। इस हालत में तुम्हें कोई दूसरा मअबूद याद नहीं आता।

आयत 54

“फिर जब वह तुमसे तकलीफ़ दूर कर देता है तो जब ही तुम में से एक गिरोह अपने रब के साथ शिर्क करना शुरू कर देता है।”ثُمَّ اِذَا كَشَفَ الضُّرَّ عَنْكُمْ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْكُمْ بِرَبِّهِمْ يُشْرِكُوْنَ    54؀ۙ

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आयत 55

“ताकि नाशुक्री करें उन (नेअमतों) की जो हमने उनको दी हैं। तो चंद रोज़ा मज़े उड़ा लो, पस अनक़रीब तुम जान लोगे।”لِيَكْفُرُوْا بِمَآ اٰتَيْنٰهُمْ ۭ فَتَمَتَّعُوْا  ۣ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ   55؀

कुछ दिनों की बात है दुनिया में तुम लोग मज़े उड़ा लो। बहुत जल्द असल हक़ीक़त खुल कर तुम्हारे सामने आ जाएगी।

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आयत 56

“और वह बना देते हैं उनके लिये जिनके बारे में उन्हें कोई इल्म ही नहीं, एक हिस्सा उसमें से जो रिज़्क़ हमने उन्हें दिया है।”وَيَجْعَلُوْنَ لِمَا لَا يَعْلَمُوْنَ نَصِيْبًا مِّمَّا رَزَقْنٰهُمْ  ۭ

अल्लाह तआला ही के अता करदा रिज़्क़ में से वह लोग अल्लाह के उन शरीकों के लिये भी हिस्से निकालते थे जिनके बारे में कोई इल्मी सनद या वाज़ेह दलील भी उनके पास मौजूद नहीं थी। ये मज़मून सूरतुल अनआम की आयत 136 में भी आ चुका है कि वह लोग अपनी खेतियों की पैदावार और जानवरों में से जहाँ अल्लाह के लिये हिस्सा निकालते थे वहाँ अपने झूठे मअबूदों के हिस्से के लिये भी ख़ास अहतमाम करते थे।

“अल्लाह की क़सम! ज़रूर सवाल किया जायेगा तुमसे इस बारे में जो इफ़तरा तुम लोग करते थे।”تَاللّٰهِ لَتُسْـــَٔـلُنَّ عَمَّا كُنْتُمْ تَفْتَرُوْنَ    56؀

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आयत 57

“और वह बनाते हैं अल्लाह के लिये बेटियाँ, वह पाक है (इससे), और खुद उनके लिये वह कुछ जो उन्हें पसंद है!”وَيَجْعَلُوْنَ لِلّٰهِ الْبَنٰتِ سُبْحٰنَهٗ ۙ وَلَهُمْ مَّا يَشْتَهُوْنَ    57؀

अल्लाह तआला की औलाद के तौर पर वह लोग उससे बेटियाँ मंसूब करते हैं जबकि खुद अपने लिये वह बेटे पसंद करते हैं। उन्होंने अल्लाह के लिये औलाद तजवीज़ भी की तो बेटियाँ तजवीज़ कीं, जो खुद अपने लिये पसंद नहीं करते।

आयत 58

“और जब इनमें से किसी को बेटी की खुश ख़बरी दी जाती है तो उसका चेहरा सियाह पड़ जाता है और वह (अन्दर ही अन्दर) रंज व गम से घुटता रहता है।”وَاِذَا بُشِّرَ اَحَدُهُمْ بِالْاُنْثٰى ظَلَّ وَجْهُهٗ مُسْوَدًّا وَّهُوَ كَظِيْمٌ    58؀ۚ

आयत 59

‘वह लोगों से छिपता फिरता है उस बुरी ख़बर की वजह से जो उसे दी गई।”يَتَوَارٰى مِنَ الْقَوْمِ مِنْ سُوْۗءِ مَا بُشِّرَ بِهٖ  ۭ

जब उसे खुशख़बरी दी जाती है कि वह एक बेटी का बाप बन गया है तो उसे एक मनहूस ख़बर ख्याल करता है और यूँ महसूस करता है कि अब वह किसी को मुँह दिखाने के क़ाबिल नहीं रहा। शर्म के मारे लोगों से छिपता फिरता है और हर वक़्त इसी शशो-पंज में रहता है कि:

“क्या वह इसे ज़िल्लत के बावजूद रोके रखे या मिट्टी में दफ़न कर दे?”اَيُمْسِكُهٗ عَلٰي هُوْنٍ اَمْ يَدُسُّهٗ فِي التُّرَابِ  ۭ
“आगा रहो, बहुत ही बुरा है जो फ़ैसला वह करते हैं।”اَلَا سَاۗءَ مَا يَحْكُمُوْنَ    59؀

आयत 60

“उन लोगों के लिये जो आख़िरत पर ईमान नहीं रखते बुरी मिसाल है।”لِلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ مَثَلُ السَّوْءِ ۚ
“और अल्लाह की सिफ़त निहायत बुलंद है। और वह ज़बरदस्त है कमाले हिकमत वाला।”وَلِلّٰهِ الْمَثَلُ الْاَعْلٰى  ۭ وَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ     60؀ۧ

अक़ीदा-ए-आख़िरत के हवाले से ये हक़ीक़त लायक़-ए-तवज्जो है कि यह अक़ीदा दुनियवी ज़िन्दगी में इंसानी आमाल पर तमाम अवामिल से बढ़ कर असर अंदाज़ होता है। यही वज़ह है कि क़ुरान में आख़िरत और ईमान बिल आख़िरत के बारे में बहुत तकरार पाई जाती है।

आयत 61 से 65 तक

وَلَوْ يُؤَاخِذُ اللّٰهُ النَّاسَ بِظُلْمِهِمْ مَّا تَرَكَ عَلَيْهَا مِنْ دَاۗبَّةٍ وَّلٰكِنْ يُّؤَخِّرُهُمْ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى ۚ فَاِذَا جَاۗءَ اَجَلُهُمْ لَا يَسْتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ    61؀ وَيَجْعَلُوْنَ لِلّٰهِ مَا يَكْرَهُوْنَ وَتَصِفُ اَلْسِـنَتُهُمُ الْكَذِبَ اَنَّ لَهُمُ الْحُسْنٰى ۭ لَا جَرَمَ اَنَّ لَهُمُ النَّارَ وَاَنَّهُمْ مُّفْرَطُوْنَ    62؀ تَاللّٰهِ لَقَدْ اَرْسَلْنَآ اِلٰٓى اُمَمٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطٰنُ اَعْمَالَهُمْ فَهُوَ وَلِيُّهُمُ الْيَوْمَ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     63؀ وَمَآ اَنْزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتٰبَ اِلَّا لِتُـبَيِّنَ لَهُمُ الَّذِي اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۙ وَهُدًى وَّرَحْمَةً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ    64؀ وَاللّٰهُ اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا  ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّسْمَعُوْنَ   65؀ۧ

आयत 61

“और अगर अल्लाह (फ़ौरन) पकड़ करता लोगों की उनके गुनाहों के सबब तो ना छोड़ता इस (ज़मीन) पर कोई भी जानदार, लेकिन वह मोहलत देता है उन्हें एक वक़्ते मुअय्यन तक।”وَلَوْ يُؤَاخِذُ اللّٰهُ النَّاسَ بِظُلْمِهِمْ مَّا تَرَكَ عَلَيْهَا مِنْ دَاۗبَّةٍ وَّلٰكِنْ يُّؤَخِّرُهُمْ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى ۚ

ये अल्लाह की ख़ास रहमत है कि वह लोगों के ज़ुल्म व मअसियत (नाफ़रमानी) की पादाश में फ़ौरी तौर पर उनकी गिरफ़्त नहीं करता, बल्कि ढील देकर उन्हें इस्लाह (सुधरने) का पूरा-पूरा मौक़ा देता है।

“फ़िर जब उनका वक़्ते मुअय्यन आ जाएगा तो ना वह उससे एक साअत पीछे हट सकेंगे और ना आगे बढ़ सकेंगे।”فَاِذَا جَاۗءَ اَجَلُهُمْ لَا يَسْتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ    61؀

आयत 62

“और वह ठहराते हैं अल्लाह के लिये जो वह खुद पसंद नहीं करते”وَيَجْعَلُوْنَ لِلّٰهِ مَا يَكْرَهُوْنَ

यानि इनमें से कोई भी खुद बेटी का बाप बनना पसंद नहीं करता, मगर अल्लाह के साथ बेटियाँ मंसूब करते हुए ये लोग ऐसा कुछ नहीं सोचते।

“और इनकी ज़बाने झूठ बयान कर रही हैं कि इनके लिये यक़ीनन भलाई है।”وَتَصِفُ اَلْسِـنَتُهُمُ الْكَذِبَ اَنَّ لَهُمُ الْحُسْنٰى ۭ

ये लोग इस ज़अम (ख्याल) में है कि दुनिया में इन्हें इज्ज़त, दौलत और सरदारी मिली हुई है, तो ये दलील है इस बात की कि अल्लाह इनसे खुश है और इन्हें ये खुशफ़हमी भी है कि अगर उसने इन्हें ये सब कुछ दिया है तो आख़िरत में भी वह ज़रूर इन्हें अपनी नेअमतों से नवाज़ेगा। चुनाँचे दुनिया हो या आख़िरत इनके लिये तो भलाई ही भलाई है।

“इसमें कोई शक नहीं कि इनके लिये आग है और ये कि वह बढाये जा रहे हैं।”لَا جَرَمَ اَنَّ لَهُمُ النَّارَ وَاَنَّهُمْ مُّفْرَطُوْنَ    62؀

दुनिया में इनकी रस्सी दराज़ करने का मक़सद ये है कि वह अल्लाह की नाफ़रमानी में जिस हद तक जुर्मी होकर आगे बढ़ सकते हैं बढ़ते चले जाएँ।

आयत 63

“अल्लाह की क़सम! हमने भेजा (अपने रसूलों को) बहुत सी उम्मतों की तरफ़ आपसे पहले, लेकिन शैतान ने उनके लिये उनके अमाल को मुज़य्यन किये रखा”تَاللّٰهِ لَقَدْ اَرْسَلْنَآ اِلٰٓى اُمَمٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَزَيَّنَ لَهُمُ الشَّيْطٰنُ اَعْمَالَهُمْ

शैतान के बहकावे के सबब वह लोग इस खुशफ़हमी में रहे कि उनका कल्चर, उनकी तहज़ीब और उनकी रिवायात सबसे आला हैं।

“तो आज वही इनका साथी है और इनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।”فَهُوَ وَلِيُّهُمُ الْيَوْمَ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     63؀

आयत 64

“और नहीं उतारी (ऐ मोहम्मद !) हमने आप पर ये किताब मगर इसलिये कि आप वाज़ेह कर दें इनके लिये वह सब कुछ जिसमें इन्होंने इख्तिलाफ़ किया”وَمَآ اَنْزَلْنَا عَلَيْكَ الْكِتٰبَ اِلَّا لِتُـبَيِّنَ لَهُمُ الَّذِي اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۙ
“और ये हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिये जो ईमान लाने वाले हैं।”وَهُدًى وَّرَحْمَةً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ    64؀

इस आयत को पढ़ते हुए सूरह युनुस की ये दो आयात भी ज़हन में रखिये:

يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَتْكُمْ مَّوْعِظَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَشِفَاۗءٌ لِّمَا فِي الصُّدُوْرِ ڏ وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّلْمُؤْمِنِيْنَ     57؀ قُلْ بِفَضْلِ اللّٰهِ وَبِرَحْمَتِهٖ فَبِذٰلِكَ فَلْيَفْرَحُوْا  ۭ ھُوَ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ     58؀

“ऐ लोगों! आ गई है तुम्हारे पास नसीहत तुम्हारे रब की तरफ़ से और तुम्हारे सीनों (के जो रोग हैं उन) की शिफ़ा और हिदायत और अहले ईमान के हक़ में (बहुत बड़ी) रहमत। (ऐ नबी ﷺ! इनसे) कह दीजिये कि ये (क़ुरान) अल्लाह के फ़ज़ल और उसकी रहमत से (नाज़िल हुआ) है, तो चाहिये कि लोग इस पर खुशियाँ मनाएँ, वह बेहतर है उन चीज़ों से जो वह जमा करते हैं।”

आयत 65

“और अल्लाह ही ने आसमान से पानी उतारा, फ़िर उससे ज़िन्दा कर दिया ज़मीन को उसके मुर्दा हो जाने के बाद।”وَاللّٰهُ اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا  ۭ
“यक़ीनन इसमें निशानी है उन लोगों के लिये जो सुनते हैं।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّسْمَعُوْنَ   65؀ۧ

ये निशानी उन लोगों के लिये है जिनका सुनना हैवानों का सा सुनना ना हो, बल्कि इंसानों का सा सुनना हो। अल्लामा इक़बाल ने “ज़बूरे अज़्म” में क्या ख़ूब कहा है:

दम चीस्त? पयाम अस्त, शनैदी, नशनैदी!

दर ख़ाके तू यक जलवा-ए-आम अस्त नदैदी?

दीदन दीगर आमोज़! शनैदन दीगर आमोज़!

यानि साँस जो तुम लेते हो ये भी अल्लाह का एक पैग़ाम है, ये अलग बात है कि तुम इस पैग़ाम को सुनते हो या नहीं सुनते हो। ये दुरुस्त है कि तुम ख़ाक से बने हो, मगर तुम्हारे इसी ख़ाकी वजूद के अन्दर एक नूर और जलवा-ए-रब्बानी भी मौजूद है। यह रूहे रब्बानी जो तुम्हारे वजूद में फूँकी गई है यह जलवा-ए-रब्बानी ही तो है, जिसे तुम देखते ही नहीं हो। तुम्हें अंदाज़ा ही नहीं है कि तुम्हारे अन्दर क्या-क्या कुछ मौजूद है: { وَفِيْٓ اَنْفُسِكُمْ ۭ اَفَلَا تُبْصِرُوْنَ} (अल ज़ारियात:21) “और तुम्हारे अन्दर (क्या कुछ है), क्या तुम देखते नहीं हो?” ज़रा दूसरी तरह का देखना और दूसरी तरह का सुनना सीखो! ऐसा देखना सीखो जो चीज़ों की असलियत को देख सके और ऐसा सुनने की सलाहियत हासिल करो जिससे तुम्हें हक़ीक़त की पहचान नसीब हो। अगर ऐसा नहीं तो फिर ये देखना और ये सुनना महज़ हैवानों का सा देखना और सुनना है।

ऐ अहले नज़र ज़ोक़-ए-नज़र ख़ूब है लेकिन

जो शय की हक़ीक़त को ना देखे वह नज़र क्या!

इस सूरत में तकरार के साथ अहले फ़िक्र व दानिश को दावत दी गई है कि वह अल्लाह की निशानियों को देख कर, सुन कर और समझ कर सबक़ हासिल करने की कोशिश करें। (आयते ज़ेरे नज़र के अलावा मुलाहिज़ा हों आयात 11, 12, 67, 69 और 79)

आयात 66 से 70 तक

وَاِنَّ لَكُمْ فِي الْاَنْعَامِ لَعِبْرَةً   ۭ نُسْقِيْكُمْ مِّمَّا فِيْ بُطُوْنِهٖ مِنْۢ بَيْنِ فَرْثٍ وَّدَمٍ لَّبَنًا خَالِصًا سَاۗىِٕغًا لِّلشّٰرِبِيْنَ   66؀ وَمِنْ ثَمَرٰتِ النَّخِيْلِ وَالْاَعْنَابِ تَتَّخِذُوْنَ مِنْهُ سَكَرًا وَّرِزْقًا حَسَـنًا  ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ    67؀ وَاَوْحٰى رَبُّكَ اِلَى النَّحْلِ اَنِ اتَّخِذِيْ مِنَ الْجِبَالِ بُيُوْتًا وَّمِنَ الشَّجَرِ وَمِمَّا يَعْرِشُوْنَ   68؀ۙ ثُمَّ كُلِيْ مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ فَاسْلُكِيْ سُبُلَ رَبِّكِ ذُلُلًا  ۭ يَخْرُجُ مِنْۢ بُطُوْنِهَا شَرَابٌ مُّخْتَلِفٌ اَلْوَانُهٗ فِيْهِ شِفَاۗءٌ لِّلنَّاسِ ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ     69؀ وَاللّٰهُ خَلَقَكُمْ ثُمَّ يَتَوَفّٰىكُمْ ڐوَمِنْكُمْ مَّنْ يُّرَدُّ اِلٰٓى اَرْذَلِ الْعُمُرِ لِكَيْ لَا يَعْلَمَ بَعْدَ عِلْمٍ شَـيْــــًٔـا  ۭاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌ قَدِيْرٌ    70؀ۧ

आयत 66

“और यक़ीनन तुम्हारे लिये चौपायों में भी इबरत है।”وَاِنَّ لَكُمْ فِي الْاَنْعَامِ لَعِبْرَةً   ۭ

चौपायों की तख्लीक़ में भी तुम्हारे लिये बड़ा सबक़ है। इनको देखो, गौर करो और अल्लाह की हिकमतों को पहचानो!

“हम पिलाते हैं तुम्हें उसमें से जो उनके पेटों में होता है, गोबर और खून के दरमियान से ख़ालिस दूध, पीने वालों के लिये निहायत खुशगवार।”نُسْقِيْكُمْ مِّمَّا فِيْ بُطُوْنِهٖ مِنْۢ بَيْنِ فَرْثٍ وَّدَمٍ لَّبَنًا خَالِصًا سَاۗىِٕغًا لِّلشّٰرِبِيْنَ   66؀

आयत 67

“और खजूरों और अंगूरों के फलों से भी, उनसे तुम नशाआवर चीज़ें भी बनाते हो और अच्छा रिज़्क़ भी।”وَمِنْ ثَمَرٰتِ النَّخِيْلِ وَالْاَعْنَابِ تَتَّخِذُوْنَ مِنْهُ سَكَرًا وَّرِزْقًا حَسَـنًا  ۭ
“यक़ीनन इसमें निशानी है उन लोगों के लिये जो अक़ल से काम लें।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ    67؀

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आयत 68

“और आपके रब ने वही की शहद की मक्खी की तरफ़, कि घर बना पहाड़ों में, दरख्तों में और लोग (अंगूरों की बेलों के लिये) जो छतरियाँ बनाते हैं उनमें।”وَاَوْحٰى رَبُّكَ اِلَى النَّحْلِ اَنِ اتَّخِذِيْ مِنَ الْجِبَالِ بُيُوْتًا وَّمِنَ الشَّجَرِ وَمِمَّا يَعْرِشُوْنَ   68؀ۙ

यानि शहद की मक्खी की फ़ितरत में यह चीज़ वदीयत कर दी गई है।

आयत 69

“फिर हर तरह के मेवों में से खा और अपने रब के हमवार किये हुए रास्तों पर चलती रह।”ثُمَّ كُلِيْ مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ فَاسْلُكِيْ سُبُلَ رَبِّكِ ذُلُلًا  ۭ
“निकलती है इनके पेटों से पीने की एक शय (शहद), जिसके रंग मुखतलिफ़ होते हैं, इसमें लोगों के लिये शिफ़ा है।”يَخْرُجُ مِنْۢ بُطُوْنِهَا شَرَابٌ مُّخْتَلِفٌ اَلْوَانُهٗ فِيْهِ شِفَاۗءٌ لِّلنَّاسِ ۭ

शहद की मक्खी जिन-जिन जड़ी-बूटियों और पौदों के फूलों का रस चूसती है उनके ख्वास (गुण) और उनकी तासीरात को गोया वह कशीद करती (खींचती) है। इस तरह शहद में मुख्तलिफ़ अदवियात (दवाओं) के असरात भी शामिल हो जाते हैं और यही वजह है कि इसमें बहुत सी बीमारियों के लिये शिफ़ा है।

“यक़ीनन इसमें निशानी है उन लोगों के लिये जो गौर व फ़िक्र करते हैं।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ     69؀

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आयत 70

“और अल्लाह ही ने तुम्हें पैदा किया, फिर वही तुम्हें वफ़ात देगा, और तुम में से कुछ ऐसे भी हैं जो नाकारा उम्र को लौटा दिये जाते हैं”وَاللّٰهُ خَلَقَكُمْ ثُمَّ يَتَوَفّٰىكُمْ ڐوَمِنْكُمْ مَّنْ يُّرَدُّ اِلٰٓى اَرْذَلِ الْعُمُرِ

ऐसी उम्र जिसमें आदमी नाकारा होकर दूसरों पर बोझ बन जाता है।

“कि ना जाने इल्म रखने के बाद कुछ भी। यक़ीनन अल्लाह जानने वाला, क़ुदरत वाला है।”لِكَيْ لَا يَعْلَمَ بَعْدَ عِلْمٍ شَـيْــــًٔـا  ۭاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌ قَدِيْرٌ    70؀ۧ

बुढ़ापे में अक्सर लोगों की क़ुव्वते फ़िक्र मुतास्सिर हो जाती है और ज़्यादा उम्र रसीदा लोगों को तो dementia हो जाता है जिससे ज़हनी सलाहियतें ख़त्म हो जाती हैं और याददाश्त जवाब दे जाती है। इस कैफ़ियत में बड़े-बड़े फ़लसफ़ी और दानिशवर बच्चों जैसी बातें करने लगते हैं।

आयात 71 से 76 तक

وَاللّٰهُ فَضَّلَ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ فِي الرِّزْقِ ۚ فَمَا الَّذِيْنَ فُضِّلُوْا بِرَاۗدِّيْ رِزْقِهِمْ عَلٰي مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُهُمْ فَهُمْ فِيْهِ سَوَاۗءٌ  ۭ اَفَبِنِعْمَةِ اللّٰهِ يَجْحَدُوْنَ     71؀ وَاللّٰهُ جَعَلَ لَكُمْ مِّنْ اَنْفُسِكُمْ اَزْوَاجًا وَّجَعَلَ لَكُمْ مِّنْ اَزْوَاجِكُمْ بَنِيْنَ وَحَفَدَةً وَّرَزَقَكُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ ۭ اَفَبِالْبَاطِلِ يُؤْمِنُوْنَ وَبِنِعْمَةِ اللّٰهِ هُمْ يَكْفُرُوْنَ    72؀ۙ وَيَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَمْلِكُ لَهُمْ رِزْقًا مِّنَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ شَـيْـــًٔـا وَّلَا يَسْتَطِيْعُوْنَ   73؀ۚ فَلَا تَضْرِبُوْا لِلّٰهِ الْاَمْثَالَ ۭ اِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ    74؀ ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا عَبْدًا مَّمْلُوْكًا لَّا يَـقْدِرُ عَلٰي شَيْءٍ وَّمَنْ رَّزَقْنٰهُ مِنَّا رِزْقًا حَسَـنًا فَهُوَ يُنْفِقُ مِنْهُ سِرًّا وَّجَهْرًا  ۭ هَلْ يَسْتَوٗنَ ۭ اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ  ۭ بَلْ اَكْثَرُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ    75؀ وَضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا رَّجُلَيْنِ اَحَدُهُمَآ اَبْكَمُ لَا يَـقْدِرُ عَلٰي شَيْءٍ وَّهُوَ كَلٌّ عَلٰي مَوْلٰىهُ  ۙ اَيْنَـمَا يُوَجِّهْهُّ لَا يَاْتِ بِخَيْرٍ  ۭهَلْ يَسْتَوِيْ هُوَ  ۙ وَمَنْ يَّاْمُرُ بِالْعَدْلِ ۙ وَهُوَ عَلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَــقِيْمٍ    76؀ۧ

आयत 71

“और अल्लाह ने तुम में से बाज़ को बाज़ पर रिज़्क़ में फज़ीलत दी है।”وَاللّٰهُ فَضَّلَ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ فِي الرِّزْقِ ۚ

रिज़्क़ से मुराद सिर्फ़ माद्दी असबाब व वसाएल ही नहीं बल्कि इसमें इंसान की जिस्मानी व ज़ेहनी सलाहियतें भी शामिल हैं। माद्दी वसाएल की कमी-बेशी के बारे में कोई सोशलिस्ट या कम्युनिस्ट ऐतराज़ कर सकता है कि यह ग़लत तक़सीम और ग़लत निज़ाम का नतीजा है, जिसका ज़िम्मेदार खुद इंसान है, मगर ये अम्र अपनी जगह अटल हक़ीक़त है कि हर इंसान की ज़ेहनी इस्तेदाद और जिस्मानी ताक़त एक सी नहीं होती। जींस (genes) के ज़रिये विरासत में मिलने वाली तमाम सलाहियतें भी सब इंसानों में बराबर नहीं होतीं, फिर इसमें किसी के इख़्तियार व इंतेखाब को भी कोई दखल नहीं है। चुनाँचे अल्लाह तआला ने माद्दी असबाब व वसाएल के अलावा ज़ाती सलाहियतों में भी मुख्तलिफ़ इंसानों को मुख्तलिफ़ ऐतबार से एक-दूसरे पर फज़ीलत दी है।

“तो नहीं हैं वह लोग जिन्हें (रिज़्क़ में) फज़ीलत दी गई है लौटाने वाले अपना रिज़्क़ अपने गुलामों को कि वह हो जाएँ इसमें बराबर।”فَمَا الَّذِيْنَ فُضِّلُوْا بِرَاۗدِّيْ رِزْقِهِمْ عَلٰي مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُهُمْ فَهُمْ فِيْهِ سَوَاۗءٌ  ۭ

यानि ऐसा तो नहीं होता कि उमराअ अपनी दौलत और जायदादें अपने गुलामों में तक़सीम कर दें और उन्हें भी अपने साथ उन जायदादों का मालिक बना लें। तो अगर तुम लोग अपने गुलामों को अपने साथ अपनी मिल्कियत में शरीक नहीं करते तो क्या अल्लाह तुम्हारे झूठे मअबूदों को अपने बराबर कर लेगा? और ये जो इन लोगों का ख्याल है कि एक बड़ा ख़ुदा है और कुछ छोटे-छोटे ख़ुदा हैं और ये छोटे ख़ुदा बड़े ख़ुदा से इनकी सिफ़ारिश करेंगे तो क्या अल्लाह पर इनमें से किसी की धौंस चल सकेगी या अल्लाह इनमें से किसी को यह इख़्तियार देगा कि वह उससे अपनी कोई बात मनवा ले?

“तो क्या ये लोग अल्लाह की नेअमत का इन्कार कर रहे हैं?”اَفَبِنِعْمَةِ اللّٰهِ يَجْحَدُوْنَ     71؀

आयत 72

“और अल्लाह ने तुम्हारे लिये तुम्हारी ही नौअ से बीवियाँ बनाईं”وَاللّٰهُ جَعَلَ لَكُمْ مِّنْ اَنْفُسِكُمْ اَزْوَاجًا

अरबी में “ज़ौज” शरीके हयात (spouse) को कहते हैं और यह लफ्ज़ बीवी और खाविंद दोनों के लिये इस्तेमाल होता है। औरत के लिये मर्द ज़ौज है और मर्द के लिये औरत।

“और बनाए तुम्हारे लिये तुम्हारी बीवियों से बेटे और पोते, और रिज़्क़ दिया तुम्हें पाकीज़ा चीज़ों से।”وَّجَعَلَ لَكُمْ مِّنْ اَزْوَاجِكُمْ بَنِيْنَ وَحَفَدَةً وَّرَزَقَكُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ ۭ
“तो क्या ये लोग बातिल पर ईमान रखते हैं और अल्लाह की नेअमत का वह इन्कार करते हैं?”اَفَبِالْبَاطِلِ يُؤْمِنُوْنَ وَبِنِعْمَةِ اللّٰهِ هُمْ يَكْفُرُوْنَ    72؀ۙ

यानि कुफ़्राने नेअमत करते हैं। यहाँ यह अहम बात लायक़-ए-तवज्जो है कि इस सूरत में अल्लाह की नेअमतों का ज़िक्र बहुत तकरार के साथ आ रहा है।

आयत 73

“और ये परस्तिश करते हैं अल्लाह के सिवा उनकी जिन्हें कुछ इख्तियार नहीं उनके लिये किसी रिज़्क़ का, ना आसमानों से और ना ज़मीन से, और ना वह इसकी क़ुदरत ही रखते हैं।”وَيَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَمْلِكُ لَهُمْ رِزْقًا مِّنَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ شَـيْـــًٔـا وَّلَا يَسْتَطِيْعُوْنَ   73؀ۚ

मुशरिकीने अरब अय्यामे जाहिलियत में जो तलबिया पढ़ते थे उसमें तौहीद के इक़रार के साथ-साथ शिर्क का अस्बात भी मौजूद था। उनका तलबिया यह था: لبّیک اللّٰھُم لبّیک‘ لبّیک لَا شَرِیْکَ لَک لبّیک‘ اِلَّا شَرِیْکًا تَملِکُہُ وَمَا مَلَک यानि मैं हाज़िर हूँ ऐ अल्लाह! मैं हाज़िर हूँ। मैं हाज़िर हूँ, तेरा कोई शरीक नहीं है, मैं हाज़िर हूँ। सिवाय उस शरीक के कि उसका और जो कुछ उसका इख्तियार है सबका मालिक तू ही है। यानि बिलआखिर इख्तियार तेरा ही है और तेरा कोई शरीक तुझ से आज़ाद होकर ख़ुद मुख्तार (autonomous) नहीं है। चुनाँचे जिस तरह ईसाईयों ने तौहीद को तसलीस में बदला और फिर तसलीस को तौहीद में ले आए (One in three and three in one) इसी तरह मुशरिकीने अरब भी तौहीद में शिर्क पैदा करते और फिर शिर्क को तौहीद में लौटा देते थे।

आयत 74

“तो अल्लाह के लिये मिसालें बयान ना किया करो।”فَلَا تَضْرِبُوْا لِلّٰهِ الْاَمْثَالَ ۭ

क़ब्ल अज़ इसी सूरत (आयत 60) में हम पढ़ चुके हैं: {وَلِلّٰهِ الْمَثَلُ الْاَعْلٰى  ۭ } “और अल्लाह की मिसाल सबसे बुलंद है” लेकिन इसका तर्जुमा बिलउमूम यूँ किया जाता है: “अल्लाह की सिफ्त बहुत बुलंद है।” या “अल्लाह की शान बहुत बुलंद है।” इसलिये कि अल्लाह के लिये कोई मिसाल बयान नहीं की जा सकती। इंसानी सतह पर बात समझने और समझाने के लिये कुछ ना कुछ तम्सीली अल्फ़ाज़ तो इस्तेमाल करने पड़ते हैं, मसलन अल्लाह का चेहरा, अल्लाह का हाथ, अल्लाह का तख़्त, अल्लाह की कुर्सी, अल्लाह का अर्श वगैरह, लेकिन ऐसे अल्फ़ाज़ से हम ना तो हक़ीक़त का इज़हार कर सकते हैं और ना ही अल्लाह की सिफ़ात और उसके अफ़आल की हक़ीक़त को जान सकते हैं। इसी लिये मना कर दिया गया है कि अल्लाह की मिसालें बयान ना किया करो। इसकी मन्तक़ी वजह यह है कि हम अगर उस हस्ती के लिये कोई मिसाल लायेंगे तो आलमे खल्क़ से लायेंगे, जिसकी हर चीज़ महदूद है। या फिर ऐसी कोई मिसाल हम अपने ज़हन से लायेंगे, जबकि इंसानी सोच, क़ुव्वते मतखीला (गंभीरता) और तस्सवुरात भी सब महदूद हैं। दूसरी तरफ़ अल्लाह तआला की ज़ात मुतलक़ (Absolute) है और उसकी सिफ़ात भी मुतलक़ है। चुनाँचे इंसान के लिये यह मुम्किन ही नहीं कि ऐसी मुतलक़ हस्ती के लिये कोई मिसाल बयान कर सके। इसी लिये सूरतुल शौरा की आयत 11 में दो टूक अंदाज़ में फ़रमा दिया गया: {لَيْسَ كَمِثْلِهٖ شَيْءٌ ۚ } कि उसकी मिसाल की सी भी कोई शय मौजूद नहीं।

“बेशक अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।”اِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ    74؀

आयत 75

“अल्लाह ने मिसाल बयान की है एक गुलाम ममलूक की, जो इख्तियार नहीं रखता किसी चीज़ पर भी”ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا عَبْدًا مَّمْلُوْكًا لَّا يَـقْدِرُ عَلٰي شَيْءٍ

अल्लाह तआला इनके शिर्क के नफ़ी के लिये यह मिसाल बयान कर रहा है कि एक बंदा वह है जो किसी का गुलाम और ममलूक है, उसका कुछ इख्तियार नहीं, वह अपनी मरज़ी से कुछ भी नहीं कर सकता।

“और (एक वह है) जिसको हमने अपने पास से बहुत अच्छा रिज़्क़ दिया है, और वह उसमें से खर्च करता है छुप कर भी और ऐलानिया भी।”وَّمَنْ رَّزَقْنٰهُ مِنَّا رِزْقًا حَسَـنًا فَهُوَ يُنْفِقُ مِنْهُ سِرًّا وَّجَهْرًا  ۭ

रिज़्क़ में माल, इल्म और सलाहियतें सब शामिल हैं। यानि वह शख्स माल भी खर्च कर रहा है, लोगों को तालीम भी दे रहा है, और कई दूसरे तरीक़ों से भी लोगों को मुस्तफ़ीद कर रहा है।

“क्या ये (दोनों) बराबर हैं? कुल तारीफ़ और शुक्र अल्लाह के लिये है, लेकिन इनकी अक्सरियत इल्म नहीं रखती।”هَلْ يَسْتَوٗنَ ۭ اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ  ۭ بَلْ اَكْثَرُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ    75؀

एक तरफ़ अल्लाह का वह बंदा है जो उसके दीन की ख़िदमत में मसरूफ़ है, अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर के फ़राइज़ सरअंजाम दे रहा है, लोगों में दीन की तालीम को आम कर रहा है, या अगर साहिबे सरवत (मालदार) है तो अपना माल अल्लाह के दीन की सरबुलंदी के लिये खर्च कर रहा है और मोहताजों की मदद कर रहा है। जबकि दूसरी तरफ़ एक ऐसा शख्स है जिसके पास कुछ इख्तियार व क़ुदरत नहीं है, वह अपनी मरज़ी से कुछ कर ही नहीं सकता। ये दोनों बराबर कैसे हो सकते हैं?

आयत 76

“और अल्लाह ने (अब एक और) मिसाल बयान की दो अश्खास की, इनमें से एक गूंगा है, वह क़ुदरत नहीं रखता किसी भी चीज़ पर और वह अपने आक़ा पर बोझ है”وَضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا رَّجُلَيْنِ اَحَدُهُمَآ اَبْكَمُ لَا يَـقْدِرُ عَلٰي شَيْءٍ وَّهُوَ كَلٌّ عَلٰي مَوْلٰىهُ  ۙ
“जहाँ कहीं भी वह (आक़ा) इसे भेजता है, वह कोई खैर लेकर नहीं आता।”اَيْنَـمَا يُوَجِّهْهُّ لَا يَاْتِ بِخَيْرٍ  ۭ

एक शख्स के दो गुलाम हैं। एक गुलाम गूंगा है, किसी काम की कोई सलाहियत नहीं रखता, उल्टा अपने मालिक पर बोझ बना हुआ है। काम वगैरह कुछ नहीं करता, सिर्फ़ रोटियाँ तोड़ता है। अगर इसका आक़ा इसे किसी काम से भेज दे तो वह काम ख़राब करके ही आता है।

“क्या बराबर होगा वह, और वह जो हुक्म देता है अद्ल का, और वह सीधी राह पर क़ायम है?”هَلْ يَسْتَوِيْ هُوَ  ۙ وَمَنْ يَّاْمُرُ بِالْعَدْلِ ۙ وَهُوَ عَلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَــقِيْمٍ    76؀ۧ

अल्लाह तआला ने यहाँ एक शख्स के दो गुलामों के हवाले से दो तरह के इन्सानों की मिसाल बयान फ़रमाई है कि सब इंसान मेरे गुलाम हैं। लेकिन मेरे इन गुलामों की एक क़िस्म वह है जो मेरी नेअमतों से लुत्फ़ अन्दोज़ हो रहे हैं मगर मेरा कोई काम नहीं करते, मेरे दीन की कुछ ख़िदमत नहीं करते, मेरी मख्लूक़ के किसी काम नहीं आते। ये लोग उस गुलाम की मानिन्द हैं जो अपने आक़ा पर बोझ हैं। दूसरी तरफ़ मेरे वह बंदे और गुलाम हैं जो दिन-रात मेरी रज़ा जोई के लिये जद्दो-जहद कर रहे हैं, नेकी का हुक्म दे रहे हैं और बुराई से रोक रहे हैं, मेरे दीन को क़ायम करने की जद्दो-जहद में अपने तन, मन और धन की क़ुरबानियाँ पेश कर रहे हैं। तो क्या ये दोनों तरह के इंसान बराबर हो सकते हैं?

आयात 77 से 83 तक

وَلِلّٰهِ غَيْبُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ وَمَآ اَمْرُ السَّاعَةِ اِلَّا كَلَمْحِ الْبَصَرِ اَوْ هُوَ اَقْرَبُ ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ    77؀ وَاللّٰهُ اَخْرَجَكُمْ مِّنْۢ  بُطُوْنِ اُمَّهٰتِكُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ شَـيْـــًٔـا  ۙ وَّجَعَلَ لَكُمُ السَّمْعَ وَالْاَبْصَارَ وَالْاَفْــِٕدَةَ  ۙ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ    78؀ اَلَمْ يَرَوْا اِلَى الطَّيْرِ مُسَخَّرٰتٍ فِيْ جَوِّ السَّمَاۗءِ  ۭ مَا يُمْسِكُهُنَّ اِلَّا اللّٰهُ  ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ    79؀ وَاللّٰهُ جَعَلَ لَكُمْ مِّنْۢ بُيُوْتِكُمْ سَكَنًا وَّجَعَلَ لَكُمْ مِّنْ جُلُوْدِ الْاَنْعَامِ بُيُوْتًا تَسْتَخِفُّوْنَهَا يَوْمَ ظَعْنِكُمْ وَيَوْمَ اِقَامَتِكُمْ ۙ وَمِنْ اَصْوَافِهَا وَاَوْبَارِهَا وَاَشْعَارِهَآ اَثَاثًا وَّمَتَاعًا اِلٰى حِيْنٍ    80؀ وَاللّٰهُ جَعَلَ لَكُمْ مِّمَّا خَلَقَ ظِلٰلًا وَّجَعَلَ لَكُمْ مِّنَ الْجِبَالِ اَكْنَانًا وَّجَعَلَ لَكُمْ سَرَابِيْلَ تَـقِيْكُمُ الْحَـرَّ وَسَرَابِيْلَ تَقِيْكُمْ بَاْسَكُمْ ۭكَذٰلِكَ يُتِمُّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكُمْ لَعَلَّكُمْ تُسْلِمُوْنَ    81؀ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ  82؀ يَعْرِفُوْنَ نِعْمَتَ اللّٰهِ ثُمَّ يُنْكِرُوْنَهَا وَاَكْثَرُهُمُ الْكٰفِرُوْنَ    83؀ۧ

आयत 77

“और आसमानों और ज़मीन की सारी छिपी बातें अल्लाह ही के लिये है।”وَلِلّٰهِ غَيْبُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ
“और क़यामत का मामला तो ऐसे है जैसे निगाह का लपकना, या (मुमकिन है) वह इससे भी क़रीब तर हो। यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।”وَمَآ اَمْرُ السَّاعَةِ اِلَّا كَلَمْحِ الْبَصَرِ اَوْ هُوَ اَقْرَبُ ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ    77؀

आयत 78

“और अल्लाह ने तुम्हें निकाला तुम्हारी माँओं के पेटों से जबकि तुम कुछ नहीं जानते थे”وَاللّٰهُ اَخْرَجَكُمْ مِّنْۢ  بُطُوْنِ اُمَّهٰتِكُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ شَـيْـــًٔـا  ۙ

नौज़ाएदा (नवजात) बच्चा अक़्ल व शऊर और समझ-बूझ से बिल्कुल आरी होता है, बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि इंसान का बच्चा तमाम हैवानात के बच्चों से ज़्यादा कमज़ोर और ज़्यादा मोहताज (dependent) होता है।

“और तुम्हारे लिये समाअत, बसारत और अक़्ल बनाई।”وَّجَعَلَ لَكُمُ السَّمْعَ وَالْاَبْصَارَ وَالْاَفْــِٕدَةَ  ۙ

اَفْــِٕدَةَ का तरजुमा आमतौर पर “दिल” किया जाता है, मगर मेरे नज़दीक इससे मुराद अक़्ल और शऊर है। इस पर तफ़सीली गुफ़्तगू इंशा अल्लाह सूरह बनी इसराईल की आयत 36 {اِنَّ السَّمْعَ وَالْبَصَرَ وَالْفُؤَادَ كُلُّ اُولٰۗىِٕكَ كَانَ عَنْهُ مَسْــــُٔــوْلًا} के ज़िमन में होगी। आयत ज़ेरे नज़र में कानों और आँखों का ज़िक्र इंसानी हवास (senses) के तौर पर हुआ है और इन हवास का ताल्लुक़ अक़्ल (اَفْــِٕدَةَ) के साथ वही है जो कंप्यूटर के input devices का इसके प्रोसेसिंग यूनिट के साथ होता है। जिस तरह कंप्यूटर का प्रोसेसिंग यूनिट मुख्तलिफ़ ज़राए से हासिल होने वाली मालूमात (डाटा) को प्रासेस करके उससे कोई नतीजा अखज़ करता है इसी तरह हवासे खम्सा से हासिल होने वाली मालूमात से इंसानी दिमाग़ सोच-विचार करके कोई नतीजा निकालता है। इंसान की इसी सलाहियत को हम अक़्ल कहते हैं और मेरे नज़दीक اَفْــِٕدَةَ से मुराद इंसान की यही अक़्ल है।

“ताकि तुम शुक्र करो।”لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ    78؀

ये तमाम सलाहियतें इंसान के लिये अल्लाह तआला की नेअमत हैं और अल्लाह ने ये नेअमतें इंसान को इसलिये अता की हैं कि वह इन पर अल्लाह का शुक्र अदा करे, और इस सिलसिले में अल्लाह के शुक्र का तक़ाज़ा यह है कि इंसान इन नेअमतों का इस्तेमाल दुरुस्त तौर पर करे और इनसे कोई ऐसा काम ना ले जिससे अल्लाह तआला की नाफ़रमानी का कोई पहलु निकलता हो।

आयत 79

“क्या ये देखते नहीं परिंदों को कि वह आसमान की फ़ज़ा में मुसख्खर हैं, इन्हें नहीं थामा हुआ किसी ने सिवाय अल्लाह के।”اَلَمْ يَرَوْا اِلَى الطَّيْرِ مُسَخَّرٰتٍ فِيْ جَوِّ السَّمَاۗءِ  ۭ مَا يُمْسِكُهُنَّ اِلَّا اللّٰهُ  ۭ

यानि अल्लाह तआला के हुक्म और उसके क़ानून के मुताबिक़ ये परिंदे फ़ज़ा में तैर रहे हैं।

“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिये जो ईमान रखते हों।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ    79؀

आयत 80

“और अल्लाह ने तुम्हारे घरों में तुम्हारे लिये सकूनत की जगह बनाई है”وَاللّٰهُ جَعَلَ لَكُمْ مِّنْۢ بُيُوْتِكُمْ سَكَنًا
“और उसने बना दिये तुम्हारे लिये चौपायों की खालों से ऐसे घर (खेमें) जिन्हें तुम बहुत हल्का-फुल्का पाते हो अपने कूच और क़याम के दिन”وَّجَعَلَ لَكُمْ مِّنْ جُلُوْدِ الْاَنْعَامِ بُيُوْتًا تَسْتَخِفُّوْنَهَا يَوْمَ ظَعْنِكُمْ وَيَوْمَ اِقَامَتِكُمْ ۙ

जानवरों की खालों से बनाये गए खेमे बहुत हल्के-फुल्के होते हैं। चुनाँचे दौराने सफ़र भी इन्हें उठाना आसान होता है, और इसी तरह जब और जहाँ चाहें इन्हें आसानी से गाड़ कर आरामदेह क़याम गाह बनाई जा सकती है।

“और (उसने बनाया तुम्हारे लिये) उन (भेड़ों) की ऊन से और उन (ऊँटों और बकरियों) के बालों से सामान और बरतने की चीज़ें एक ख़ास वक़्त तक के लिये।”وَمِنْ اَصْوَافِهَا وَاَوْبَارِهَا وَاَشْعَارِهَآ اَثَاثًا وَّمَتَاعًا اِلٰى حِيْنٍ    80؀

क़ब्ल अज़ आयत 5 में जानवरों के बालों की अफ़ादियत के हवाले से “دِفْءٌ” का लफ्ज़ का इस्तेमाल हुआ था, जिसमें सर्दी की शिद्दत से बचने के लिये कपड़ा तैयार करने की तरफ़ इशारा था। यहाँ इस सिलसिले में वज़ाहत से बताया गया है कि मुख्तलिफ़ जानवरों की ऊन और उनके बालों की सूरत में अल्लाह ने तुम्हारे लिये क़ुदरती रेशा (fiber) पैदा कर दिया है जिससे तुम लोग कपड़े बुनते हो और दूसरी बहुत सी मुफ़ीद अशया बनाते हो। एक मुद्दत तक इंसान के पास कपड़ा बनाने के लिये जानवरों से हासिल होने वाले इस रेशे के अलावा और कोई चीज़ नहीं थी। कपास की दरयाफ्त बहुत बाद में हुई। मौजूदा ज़माने में इस मक़सद के लिये अगरचे मसनूई रेशे की रंगारंग अक़साम मौजूद हैं मगर इस क़ुदरती रेशे की अहमियत व अफ़ादियत से आज भी इन्कार नहीं किया जा सकता।

आयत 81

“और अल्लाह ही ने बनाया तुम्हारे लिये अपनी पैदा करदा चीज़ों से साया”وَاللّٰهُ جَعَلَ لَكُمْ مِّمَّا خَلَقَ ظِلٰلًا

अल्लाह ने दरख्तों और बहुत सी दूसरी चीज़ों से साये का निज़ाम वज़अ फ़रमाया है जो इंसानी ज़िन्दगी के लिये बहुत मुफ़ीद है।

“और उसी ने बनाएँ तुम्हारे लिये पहाड़ों के अन्दर पनाह गाहें”وَّجَعَلَ لَكُمْ مِّنَ الْجِبَالِ اَكْنَانًا

पहाड़ों के अन्दर क़ुदरती गारें पाई जाती हैं जिनमें लोग तूफानी हवाओं वगैरह की शिद्दत से बचने के लिये पनाह ले सकते हैं। पुराने ज़माने में तो इस हवाले से इन गारों की बहुत अहमियत थी।

“और बनाए तुम्हारे लिये ऐसे लिबास जो तुम्हें बचाते हैं गरमी से और ऐसे लिबास (ज़िरहें) जो तुम्हें बचाते हैं तुम्हारी लड़ाई में”وَّجَعَلَ لَكُمْ سَرَابِيْلَ تَـقِيْكُمُ الْحَـرَّ وَسَرَابِيْلَ تَقِيْكُمْ بَاْسَكُمْ ۭ
“इसी तरह वह इत्माम फ़रमाता है अपनी नेअमत का तुम पर ताकि तुम इताअत की रविश इख्तियार करो।”كَذٰلِكَ يُتِمُّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكُمْ لَعَلَّكُمْ تُسْلِمُوْنَ    81؀

जैसा कि क़ब्ल अज़ भी इशारा किया गया है, इस सूरत में अल्लाह तआला की नेअमतों के ज़िक्र की तकरार बहुत ज़्यादा है। (मज़ीद मुलाहिज़ा हों आयात 18, 35, 71, 72, 83 और 114)।

आयत 82

“तो (ऐ नबी !) अगर ये लोग अपने मुँह फ़ेर लें तो आप पर तो सिर्फ़ साफ़-साफ़ पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है।”فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ  82؀

आयत 83

“ये लोग अल्लाह की नेअमत को पहचानते हैं, फिर मुन्कर हो जाते हैं और इनमें अक्सर ना शुक्रे हैं।”يَعْرِفُوْنَ نِعْمَتَ اللّٰهِ ثُمَّ يُنْكِرُوْنَهَا وَاَكْثَرُهُمُ الْكٰفِرُوْنَ    83؀ۧ

आयात 84 से 89 तक

وَيَوْمَ نَبْعَثُ مِنْ كُلِّ اُمَّةٍ شَهِيْدًا ثُمَّ لَا يُؤْذَنُ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَلَا هُمْ يُسْتَعْتَبُوْنَ    84؀ وَاِذَا رَاَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوا الْعَذَابَ فَلَا يُخَـفَّفُ عَنْهُمْ وَلَا هُمْ يُنْظَرُوْنَ     85؀ وَاِذَا رَاَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا شُرَكَاۗءَهُمْ قَالُوْا رَبَّنَا هٰٓؤُلَاۗءِ شُرَكَاۗؤُنَا الَّذِيْنَ كُنَّا نَدْعُوْا مِنْ دُوْنِكَ ۚ فَاَلْقَوْا اِلَيْهِمُ الْقَوْلَ اِنَّكُمْ لَكٰذِبُوْنَ    86؀ۚ وَاَلْقَوْا اِلَى اللّٰهِ يَوْمَىِٕذِۨ السَّلَمَ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ    87؀ اَلَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ زِدْنٰهُمْ عَذَابًا فَوْقَ الْعَذَابِ بِمَا كَانُوْا يُفْسِدُوْنَ   88؀ وَيَوْمَ نَبْعَثُ فِيْ كُلِّ اُمَّةٍ شَهِيْدًا عَلَيْهِمْ مِّنْ اَنْفُسِهِمْ وَجِئْنَا بِكَ شَهِيْدًا عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ ۭوَنَزَّلْنَا عَلَيْكَ الْكِتٰبَ تِبْيَانًا لِّكُلِّ شَيْءٍ وَّهُدًى وَّرَحْمَةً وَّبُشْرٰى لِلْمُسْلِمِيْنَ    89؀ۧ

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आयत 84

“और जिस दिन हम उठाएंगे हर उम्मत में से एक गवाह”وَيَوْمَ نَبْعَثُ مِنْ كُلِّ اُمَّةٍ شَهِيْدًا

शहादत-ए-हक़ का यह मज़मून इस सूरत में दो मरतबा (मज़ीद मुलाहिज़ा हो आयत 89) आया है, जबकि क़ब्ल अज़ सूरतुल बक़रह की आयत 143 और सूरह निसा आयत 41 में भी इसका ज़िक्र है। आयत ज़ेरे नज़र में हर उम्मत में से जिस गवाह का ज़िक्र है वह उस उम्मत का नबी या रसूल होगा। जैसा कि सूरतुल आराफ़ में फ़रमाया गया है: {فَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الَّذِيْنَ اُرْسِلَ اِلَيْهِمْ وَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الْمُرْسَلِيْنَ} (आयत 6) “हम ज़रूर पूछेंगे उनसे जिनकी तरफ़ रसूल भेजे गए और हम रसूलों से भी पूछेंगे।” रोज़े महशर हर उम्मत की पेशी के वक़्त उस उम्मत का रसूल अदालत के सरकारी गवाह (prosecution witness) की हैसियत से गवाही देगा कि ऐ अल्लाह! तेरी तरफ़ से जो पैग़ाम मुझे इस क़ौम के लिये मिला था वह मैंने बे कम-ओ-कास्त इन तक पहुँचा दिया था। अब ये लोग जवाबदेह हैं, इनसे मुहासबा हो सकता है। इस तरह तमाम अम्बिया व रुसुल अलै. अपनी-अपनी उम्मत के ख़िलाफ़ गवाही देंगे।

“फिर काफ़िरों को ना (बोलने की) इजाज़त मिलेगी और ना ही उनको उज़्र पेश करने का मौक़ा दिया जाएगा।”ثُمَّ لَا يُؤْذَنُ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَلَا هُمْ يُسْتَعْتَبُوْنَ    84؀

उस वक़्त उन्हें ऐसा मौक़ा फ़राहम नहीं किया जाएगा कि वह उज़्र तराश कर अपने आप को बचाने की कोशिश कर सकें।

आयत 85

“और जब ये ज़ालिम देख लेंगे अज़ाब को तो फिर उसे इनसे हल्का नहीं किया जाएगा और ना ही इन्हें कोई मोहलत दी जाएगी।”وَاِذَا رَاَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوا الْعَذَابَ فَلَا يُخَـفَّفُ عَنْهُمْ وَلَا هُمْ يُنْظَرُوْنَ     85؀

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आयत 86

“और जब मुशरिक लोग देखेंगे अपने (बनाए हुए) शरीकों को तो कहेंगे कि ऐ हमारे रब! यही हैं हमारे वह शरीक जिन्हें हम तेरे सिवा पुकारा करते थे।”وَاِذَا رَاَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا شُرَكَاۗءَهُمْ قَالُوْا رَبَّنَا هٰٓؤُلَاۗءِ شُرَكَاۗؤُنَا الَّذِيْنَ كُنَّا نَدْعُوْا مِنْ دُوْنِكَ ۚ
“तो वह फेंक देंगे ये बात उन्ही की तरफ़ कि तुम लोग यक़ीनन झूठ बोल रहे हो।”فَاَلْقَوْا اِلَيْهِمُ الْقَوْلَ اِنَّكُمْ لَكٰذِبُوْنَ    86؀ۚ

शिर्क का इरतकाब करने वाले ये लोग महशर में जब उन मुक़द्दस हस्तियों को देखेंगे जिनके नाम की वह दुनिया में दुहाई दिया करते थे तो पुकार उठेंगे कि ऐ अल्लाह! ये हैं वह हस्तियाँ जिन्हें हम पुकारा करते थे आपको छोड़ कर। मसलन हज़रत अब्दुल क़ादिर जिलानी रहमतुल्लाह के नाम की दुहाई देने वाले जब वहाँ आपको बुलंद मरातब पर फ़ाइज़ देखेंगे तो आप रहि. को पहचान कर ऐसे कहेंगे। और हज़रत ईसा अलै. को अल्लाह का शरीक ठहराने वाले जब आप अलै. को देखेंगे तो पुकार उठेंगे कि ये हैं ईसा इब्ने मरियम जिन्हें हम अल्लाह का चहेता बेटा समझते थे और हमारा अक़ीदा था कि वह सूली पर चढ़ कर हमारे तमाम गुनाहों का कफ्फ़ारा अदा कर चुके हैं।

ये तमाम मुक़द्दस हस्तियाँ वहाँ मुशरिकीन के मुशरिकाना अक़ाएद से इज़हारे बराअत करेंगी कि हमारा तुम लोगों से कोई ताल्लुक़ नहीं है और हमें कुछ मालूम नहीं है कि तुम लोग दुनिया में हमारी इबादत किया करते थे और अल्लाह के सिवा हमें पुकारा करते थे। क़ब्ल अज़ यह मज़मून सूरह युनुस की आयत 28 और 29 में भी गुज़र चुका है।

आयत 87

“और वह (सब के सब) उस रोज़ अल्लाह के हुज़ूर आजिज़ी पेश करेंगे और गुम हो जायेंगे उनसे वह (अक़ाएद) जो वह गढ़ा करते थे।”وَاَلْقَوْا اِلَى اللّٰهِ يَوْمَىِٕذِۨ السَّلَمَ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ    87؀

ऐसी मुक़द्दस हस्तियों के बारे में जो अक़ाएद और नज़रियात इन्होंने गढ़ रखे थे कि वह इन्हें अज़ाब से बचा लेंगे और अल्लाह की पकड़ से छुड़ा लेंगे, ऐसे तमाम खुदसाख्ता अक़ाएद में से उस दिन इन्हें कुछ भी याद नहीं रहेगा और अज़ाब को देख कर इनके हाथों के तोते उड़ जायेंगे।

आयत 88

“वह लोग जिन्होंने कुफ़्र किया और रोकते रहे (दूसरों को) अल्लाह के रास्ते से, हम उनके अज़ाब पर अज़ाब का इज़ाफ़ा करते जायेंगे, बसबब उस फ़साद के जो वह करते थे।”اَلَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ زِدْنٰهُمْ عَذَابًا فَوْقَ الْعَذَابِ بِمَا كَانُوْا يُفْسِدُوْنَ   88؀

उन लोगों का अज़ाब बतदरीज बढ़ता ही चला जाएगा जिन्होंने ना सिर्फ़ हक़ को झुठलाया बल्कि उसके ख़िलाफ़ साज़िशें कीं और लोगों को वरगला कर अल्लाह के रास्ते से रोकते रहे।

आयत 89

“और (ज़रा तसव्वुर करो उस दिन का) जिस दिन हम हर उम्मत में खड़ा करेंगे एक गवाह उन पर उन ही में से”وَيَوْمَ نَبْعَثُ فِيْ كُلِّ اُمَّةٍ شَهِيْدًا عَلَيْهِمْ مِّنْ اَنْفُسِهِمْ

ये वही अल्फ़ाज़ हैं जो हम आयत 84 में पढ़ आए हैं। क़यामत के दिन तमाम रसूल अपनी-अपनी उम्मत पर गवाह होंगे। सूरतुल अहज़ाब में रसूल ﷺ के बारे में इस हवाले से फ़रमाया गया: {يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ شَاهِدًا وَّمُبَشِّرًا وَّنَذِيْرًا} {وَّدَاعِيًا اِلَى اللّٰهِ بِاِذْنِهٖ وَسِرَاجًا مُّنِيْرًا} (आयत 45-46) “ऐ नबी! यक़ीनन हमने आपको भेजा है गवाही देने वाला, खुशख़बरी देने वाला और ख़बरदार करने वाला बनाकर, और बुलाने वाला अल्लाह की तरफ़ उसके हुक्म से और एक रौशन चिराग।” इसी तरह सूरतुल मुज़म्मिल आयत 15 में हुज़ूर ﷺ के बारे में फ़रमाया: { اِنَّآ اَرْسَلْنَآ اِلَيْكُمْ رَسُوْلًا ڏ شَاهِدًا عَلَيْكُمْ كَمَآ اَرْسَلْنَآ اِلٰى فِرْعَوْنَ رَسُوْلًا} “यक़ीनन हमने भेजा है तुम्हारी तरफ़ एक रसूल, गवाही देने वाला तुम पर जैसे हमने भेजा था फ़िरऔन की तरफ़ एक रसूल।”

“और आपको खड़ा करेंगे गवाह (बना कर) इनके ख़िलाफ़।”وَجِئْنَا بِكَ شَهِيْدًا عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ ۭ

क़ब्ल अज़ हम सूरतुन्न्निसा में भी इससे मिलती-जुलती ये आयत पढ़ चुके हैं: {فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا} (आयत 41) “फिर क्या हाल होगा जब हम लायेंगे हर उम्मत में से एक गवाह और आपको लायेंगे इन पर गवाह।” यहाँ هٰٓؤُلَاۗءِ के लफ्ज़ में क़ुरैशे मक्का की तरफ़ इशारा है जिन तक हुज़ूर ﷺ ने बराहेरास्त अल्लाह की दावत पहुँचा दी थी। लिहाज़ा क़यामत के दिन आप उनके ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि ऐ अल्लाह मैंने आपका पैग़ाम बे-कम-ओ-कास्त इन तक पहुँचा दिया था और इसमें किसी शक व शुबह की गुंजाईश नहीं छोड़ी थी। मैंने इस ज़िमन में बरस-हा-बरस तक इनके दरमियान हर तरह की मुशक्क़त उठाई। इन्हें तन्हाई में फ़र्दन-फ़र्दन भी मिला और अलल ऐलान इज्तमाई तौर पर भी इनसे मुखातिब हुआ। मैंने इस सिलसिले में कोई दक़ीक़ा फ़रो-गुज़ाश्त नहीं किया था।

रसूल अल्लाह ﷺ ने अल्लाह का ये पैग़ाम अहले अरब तक बराहेरास्त पहुँचा दिया और बाक़ी दुनिया तक क़यामत तक के लिये ये पैग़ाम पहुँचाने की ज़िम्मेदारी आप ﷺ ने उम्मत को मुन्तक़िल फ़रमा (transfer कर) दी। अब अगर उम्मत इस फ़र्ज़ में कोताही करेगी तो लोगों की गुमराही का वबाल अफ़रादे उम्मत पर आयेगा। चुनाँचे ये बहुत भारी और नाज़ुक ज़िम्मेदारी है जो उम्मते मुस्लिमा के अफ़राद होने के सबब हमारे कन्धों पर आ पड़ी है। सूरतुल बक़रह की आयत नम्बर 143 में उम्मते मुस्लिमा की इस ज़िम्मेदारी का ज़िक्र तहवीले क़िब्ला के ज़िक्र के फ़ौरन बाद इस तरह फ़रमाया गया: {وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا ۭ} “इसी तरह हमने तुम्हें एक उम्मते वसत बनाया है ताकि तुम लोगों पर गवाह बनो और रसूल तुम पर गवाह बने।” इस भारी ज़िम्मेदारी की अदायगी के दौरान बहुत मुश्किल और जाँ-कसल मराहिल का आना नागुज़ीर है। इस तरह के मुश्किल मराहिल से गुज़रने का तरीक़ा सूरतुल बक़रह ही में आगे चल कर इस तरह वाज़ेह किया गया है: {يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ  ۭاِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ} “ऐ अहले ईमान तुम मदद तलब करो नमाज़ और सब्र के साथ, यक़ीनन अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।” और फिर इस राह में जान की बाज़ी लगाने वाले खुशनसीब अहले ईमान की दिलजोई (बक़रह:154 में) इस तरह फ़रमाई गई: {وَلَا تَـقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتٌ ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ} “और मत कहो उन्हें मुर्दा जो अल्लाह के रस्ते में क़त्ल कर दिये जाएँ, बल्कि वह ज़िन्दा हैं मगर तुम्हें (उनकी ज़िन्दगी का) शऊर नहीं है।”

“और (ऐ नबी !) हमने उतार दी है आप पर यह किताब वज़ाहत करती हुई हर शय की, और यह हिदायत, रहमत और बशारत (बन कर आई) है मुसलमानों के लिये।”وَنَزَّلْنَا عَلَيْكَ الْكِتٰبَ تِبْيَانًا لِّكُلِّ شَيْءٍ وَّهُدًى وَّرَحْمَةً وَّبُشْرٰى لِلْمُسْلِمِيْنَ

यानि हयाते इंसानी के तमाम मसाइल का हल क़ुरान में मौजूद है। क़ुरान उन लोगों के लिये हिदायत, रहमत और बशारत है जो मुस्लिम यानि अल्लाह की फ़रमाबरदारी करने वाले हैं।

आयात 90 से 100 तक

اِنَّ اللّٰهَ يَاْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالْاِحْسَانِ وَاِيْتَاۗئِ ذِي الْقُرْبٰى وَيَنْهٰى عَنِ الْفَحْشَاۗءِ وَالْمُنْكَرِ وَالْبَغْيِ ۚيَعِظُكُمْ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ     90؀ وَاَوْفُوْا بِعَهْدِ اللّٰهِ اِذَا عٰهَدْتُّمْ وَلَا تَـنْقُضُوا الْاَيْمَانَ بَعْدَ تَوْكِيْدِهَا وَقَدْ جَعَلْتُمُ اللّٰهَ عَلَيْكُمْ كَفِيْلًا  ۭ اِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا تَفْعَلُوْنَ     91؀ وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّتِيْ نَقَضَتْ غَزْلَهَا مِنْۢ بَعْدِ قُوَّةٍ اَنْكَاثًا  ۭ تَتَّخِذُوْنَ اَيْمَانَكُمْ دَخَلًۢا بَيْنَكُمْ اَنْ تَكُوْنَ اُمَّةٌ هِىَ اَرْبٰى مِنْ اُمَّةٍ  ۭ اِنَّمَا يَبْلُوْكُمُ اللّٰهُ بِهٖ  ۭ  وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ مَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ    92؀ وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلٰكِنْ يُّضِلُّ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَلَتُسْـــَٔـلُنَّ عَمَّا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ    93؀ وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اَيْمَانَكُمْ دَخَلًۢا بَيْنَكُمْ فَتَزِلَّ قَدَمٌۢ بَعْدَ ثُبُوْتِهَا وَتَذُوْقُوا السُّوْۗءَ بِمَا صَدَدْتُّمْ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ وَلَكُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ     94؀ وَلَا تَشْتَرُوْا بِعَهْدِ اللّٰهِ ثَـمَنًا قَلِيْلًا  ۭ اِنَّمَا عِنْدَ اللّٰهِ هُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ     95؀ مَا عِنْدَكُمْ يَنْفَدُ وَمَا عِنْدَ اللّٰهِ بَاقٍ  ۭ وَلَنَجْزِيَنَّ الَّذِيْنَ صَبَرُوْٓا اَجْرَهُمْ بِاَحْسَنِ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ     96؀ مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِّنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْيِيَنَّهٗ حَيٰوةً طَيِّبَةً  ۚ وَلَـنَجْزِيَنَّهُمْ اَجْرَهُمْ بِاَحْسَنِ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ    97؀ فَاِذَا قَرَاْتَ الْقُرْاٰنَ فَاسْتَعِذْ بِاللّٰهِ مِنَ الشَّيْطٰنِ الرَّجِيْمِ     98؀ اِنَّهٗ لَيْسَ لَهٗ سُلْطٰنٌ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَلٰي رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَ     99؀ اِنَّمَا سُلْطٰنُهٗ عَلَي الَّذِيْنَ يَتَوَلَّوْنَهٗ وَالَّذِيْنَ هُمْ بِهٖ مُشْرِكُوْنَ     ١٠٠؀ۧ

आयत 90

“यक़ीनन अल्लाह हुक्म देता है अद्ल का, अहसान का और क़राबतदारों को (उनके हुक़ूक़) अदा करने का”اِنَّ اللّٰهَ يَاْمُرُ بِالْعَدْلِ وَالْاِحْسَانِ وَاِيْتَاۗئِ ذِي الْقُرْبٰى
“और वह रोकता है बेहयाई, बुराई और सरकशी से।”وَيَنْهٰى عَنِ الْفَحْشَاۗءِ وَالْمُنْكَرِ وَالْبَغْيِ ۚ
“वह तुम्हें नसीहत करता है ताकि तुम सबक़ हासिल करो।”يَعِظُكُمْ لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ     90؀

यह आयत इस लिहाज़ से बहुत मशहूर है कि अक्सर जुमातुल मुबारक के खुतबात में शामिल की जाती है। यह बहुत ही जामेअ आयत है और इसमें अम्र बिल मारूफ़ और नहि अनिलमुन्कर के अंदाज़ में तीन चीज़ों का हुक्म दिया गया है और तीन चीज़ों से मना किया गया है। पहला हुक्म अद्ल का है और दूसरा अहसान का। अद्ल तो यह है कि जिसका जिस क़दर हक़ है ऐन उसी क़दर आप उसे दे दें, लेकिन अहसान एक ऐसा अमल है जो अद्ल से बहुत आला व अरफ़अ है। यानि अहसान यह है कि आप किसी को उसके हक़ से ज़्यादा दें और यह अमल अल्लाह तआला को बहुत पसंद है। चुनाँचे अल्लाह मोहसिनीन को महबूब रखता है। तीसरा हुक्म क़राबतदारों के हुक़ूक़ का ख्याल रखने के बारे में है, यानि उनसे हुस्ने सुलूक से पेश आना, सिला रहमी के तक़ाज़े पूरे करना और इन्फ़ाक़े माल के सिलसिले में उनको तरज़ीह देना। ये तीन अहकाम उन आमाल के बारे में हैं जो एक अच्छे मआशरे की बुनियाद का काम देते हैं।

जिन चीज़ों से यहाँ मना फ़रमाया गया है उनमें सबसे पहली बेहयाई है। हया गोया इंसान और हर बुरे काम के दरमियान परदा है। जब तक यह परदा क़ायम रहता है इंसान अमली तौर पर बुराई से बचा रहता है, और जब यह परदा उठ जाता है तो फिर इंसान बेशर्म होकर आज़ाद हो जाता है। फिर वह “बेहया बाश व हरचे ख्वाही कुन!” का मिस्दाक़ बन कर जो चाहे करता फिरता है। बेहयाई के बाद मुन्कर से मना किया गया है। मुन्कर हर वह काम है जिसके बुरे होने पर इंसान की फ़ितरत गवाही दे। तीसरा नापसन्दीदा अमल या जज़्बा अल बगा यानि सरकशी है। यह सरकशी अगर अल्लाह के ख़िलाफ़ हो तो बग़ावत है और यूँ कुफ़्र है, और अगर यह इंसानों के ख़िलाफ़ हो तो इसे “उदवान” कहा जाता है यानि ज़ुल्म और ज़्यादती। बहरहाल इन दोनों सतहों पर यह इन्तहाई नापसन्दीदा और मज़मूम जज़्बा है।

अगली चंद आयात मुश्किलातुल क़ुरान में से हैं। इनकी तफ़सीर के बारे में बहुत सी आरा (रायें) हैं जो सबकी सब यहाँ बयान नहीं की जा सकती। मैं यहाँ सिर्फ़ वह राय बयान करूँगा जिससे मुझे इत्तेफ़ाक़ है। मेरी राय के मुताबिक़ इन आयात में रुए सुखन अहले किताब की तरफ़ है। मक्की सूरतों में अगरचे अहले किताब से “या बनी इसराईल” या “या अहले किताब” के अल्फ़ाज़ से बराहेरास्त ख़िताब नहीं किया गया, लेकिन सूरतुल अनआम और इसके बाद (मक्की दौर के आख़री सालों में) नाज़िल होने वाली सूरतों में अहले किताब को बिल वास्ता अंदाज़ में मुखातिब करने का सिलसिला शुरू हो चुका था। इसकी वजह ये थी कि इस वक़्त तक मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के दावा-ए-नबुवत के बारे में ख़बरें मदीना पहुँच चुकी थीं और यहूदे मदीना इन खबरों को सुन कर बहुत मुतजस्साना अंदाज़ में मज़ीद मालूमात की टोह में थे। उनमें से कुछ लोग तो नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ को पहचान भी चुके थे और वह इस इंतेज़ार में थे कि मज़ीद मालूमात से आप ﷺ की नबुवत की तस्दीक़ हो जाए तो वह आप ﷺ पर ईमान ले आएँ। दूसरी तरफ़ यहूदे मदीना ही में से कुछ लोगों के दिलों में आप ﷺ के ख़िलाफ़ हसद की आग भड़क चुकी थी। इस क़िस्म के लोग आप ﷺ की मुखालफ़त के लिये क़ुरैशे मक्का से मुसलसल राब्ते में थे और आपकी आज़माइश के लिये क़ुरैशे मक्का को मुख्तलिफ़ क़िस्म के सवालात भेजते रहते थे। इन सवालात में एक अहम सवाल ये भी था कि हज़रत इब्राहीम अलै. और हज़रत इस्हाक़ अलै. तो फ़लस्तीन में आबाद थे लेकिन उनकी औलाद यानि बनी इसराईल के लोग वहाँ से मिस्र कैसे पहुँचे? इनका यही सवाल था जिसके जवाब में पूरी सूरह युसुफ़ नाज़िल हुई थी। चुनाँचे यह वह मअरूज़ी (objective) सूरते हाल थी जिसकी वजह से मक्की दौर की आख़री सूरतों में कहीं-कहीं अहले किताब का ज़िक्र भी मौजूद है और बिल वास्ता तौर पर उनसे ख़िताब भी है। इस पसमंज़र में मेरी राय यही है कि आइन्दा आयात में रुए सुखन अहले किताब की तरफ़ है।

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आयत 91

“और अल्लाह के अहद को पूरा करो जबकि तुम अहद कर चुके हो”وَاَوْفُوْا بِعَهْدِ اللّٰهِ اِذَا عٰهَدْتُّمْ

यहाँ बनी इसराईल का वह वादा मुराद है जिसकी तफ़सील बाद में मदनी सूरतों में आई। मदनी सूरतों में इनके इस अहद का बार-बार ज़िक्र किया गया है: {….. وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ} (बक़रह:63) यहाँ पर इस अहद की तफ़सील में जाए बगैर सिर्फ़ इसका तज़किरा कर दिया गया कि “आक़िलाँ रा इशारा काफ़ी अस्त।” मक़सद ये था कि बनी इसराईल के साहबाने इल्म व बसीरत बात को समझना चाहें तो समझ लें।

“और अपनी क़समों को मत तोड़ो मज़बूती से बाँधने के बाद, जबकि तुम अल्लाह को अपने ऊपर गवाह ठहरा चुके हो।”وَلَا تَـنْقُضُوا الْاَيْمَانَ بَعْدَ تَوْكِيْدِهَا وَقَدْ جَعَلْتُمُ اللّٰهَ عَلَيْكُمْ كَفِيْلًا  ۭ
“यक़ीनन अल्लाह जानता है जो कुछ तुम कर रहे हो।”اِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا تَفْعَلُوْنَ     91؀

यानि यह अहद तुमने अल्लाह को गवाह बना कर और अल्लाह की क़समें खा कर बांधा हुआ है।

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आयत 92

“और मत हो जाओ उस (दीवानी) औरत की मानिन्द जिसने अपना सूत तोड़ कर टुकड़े-टुकड़े कर डाला, मज़बूती (से कातने) के बाद।”وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّتِيْ نَقَضَتْ غَزْلَهَا مِنْۢ بَعْدِ قُوَّةٍ اَنْكَاثًا  ۭ

देखो तुम तो एक मुद्दत से नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ के मुंतज़िर चले आ रहे थे और अहले अरब को इस हवाले से धमकाया भी करते थे कि नबी आखिरुज्ज़मान आने वाले हैं, जब वह तशरीफ़ ले आए तो हम उनके साथ मिलकर तुम लोगों पर ग़ालिब आ जायेंगे। अब जबकि वह नबी आ गए हैं तो तुम लोगों को क्या हो गया है कि तुम उनको झुठलाने के लिये बहाने ढूँढ रहे हो! तो क्या अब तुम लोग अपने मंसूबों और इफ़कार व नज़रियात के ताने बाने ख़ुद अपने ही हाथों तार-तार कर देने पर तुल गए हो? क्या उस दीवानी औरत की तरह तुम्हारी भी मत मारी गई है जो बड़ी मेहनत और मशक्क़त के साथ काते हुए अपने सूत की तार-तार उधेड़ कर रख दे?

“तुम अपनी क़समों को अपने माबैन दख़ल देने का ज़रिया बनाते हो ताकि ना हो जाए एक क़ौम बढ़ी हुई दूसरी क़ौम से।”تَتَّخِذُوْنَ اَيْمَانَكُمْ دَخَلًۢا بَيْنَكُمْ اَنْ تَكُوْنَ اُمَّةٌ هِىَ اَرْبٰى مِنْ اُمَّةٍ  ۭ

यानि तुमने तो इस मामले को गोया दो क़ौमों का तनाज़ाअ बना लिया है। यह जानते हुए भी कि यह वही नबी (ﷺ) हैं जिनकी बशारत तुम्हारी किताब में मौजूद है, तुम आपस में अहद व पैमान कर रहे हो, क़समें खा रहे हो कि हम हरगिज़ आप (ﷺ) पर ईमान नहीं लायेंगे। तुम्हारी इस हठधर्मी की वजह इसके सिवा और कोई नहीं कि तुम क़ौमी अस्बियत में मुब्तला हो चुके हो। चूँकि इस आख़री नबी ﷺ का ताल्लुक़ बनी इस्माईल यानि उम्मिय्यीन से है, इसलिये तुम लोग नहीं चाहते कि बनी इस्माईल अब वैसी ही फज़ीलत हासिल हो जाए जो पिछले दो हज़ार साल से तुम लोगों को हासिल थी।

“यक़ीनन अल्लाह तुम्हें आज़मा रहा है इसके ज़रिये से।”اِنَّمَا يَبْلُوْكُمُ اللّٰهُ بِهٖ  ۭ 

इसमें तुम्हारी आज़माइश है। अल्लाह तआला देखना चाहता है कि तुम लोग हक़परस्त हो या नस्लपरस्त? अगर तुम लोग इस मामले में नस्लपरस्ती का सबूत देते हो तो जान लो कि अल्लाह से तुम्हारा कोई ताल्लुक़ नहीं और अगर हक़परस्त बनना चाहते हो तो तुम्हें सोचना चाहिये कि एक मुद्दत तक अल्लाह तआला ने नबुवत तुम्हारी नस्ल में रखी और अब अल्लाह तआला ने बनी इस्माईल के एक फ़र्द को इसके लिये चुन लिया है। लिहाज़ा इसे अल्लाह का फ़ैसला समझते हुए क़ुबूल कर लेना चाहिये। तुम्हें यह भी सोचना चाहिये कि बनी इस्माईल भी तो आख़िर तुम्हारी ही नस्ल में से हैं। वह भी तुम्हारे जद्दे अमजद हज़रत ईब्राहीम अलै. ही की औलाद हैं मगर तुम लोग हो कि तुमने इस मामले को बाहमी मुखासमत और ज़िद {بَغْیًا بَیْنَہُمْ} की भेंट चढ़ा दिया है और इस तरह तुम लोग अल्लाह की इस आज़माइश में नाकाम हो रहे हो।

“और वह ज़रूर ज़ाहिर करेगा तुम पर क़यामत के दिन वह सब कुछ जिसमें तुम लोग इख्तिलाफ़ करते थे।”وَلَيُبَيِّنَنَّ لَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ مَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ    92؀

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आयत 93

“और अगर अल्लाह चाहता तो तुम्हें एक ही उम्मत बना देता”وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً

अल्लाह तआला यह भी कर सकता था कि पूरी इंसानियत को एक ही उम्मत बना देता ताकि नस्लों और क़ौमों की ये तफ़रीक़ ही ना होती और ना ही एक उम्मत को माज़ूल (सुस्पेंड) करके दूसरी उम्मत को नवाज़ने की ज़रूरत पेश आती। फिर जिस अल्लाह ने बख्तनसर के हाथों तुम्हारी बरबादी के बाद हज़रत उज़ैर अलै. की दावते तौबा के ज़रिये तुम्हारी नशाअत-ए-सानिया की थी, वह यह भी कर सकता था कि एक दफ़ा फिर किसी इस्लाही तहरीक के ज़रिये तुम्हें अपनी हिदायत और रहमत से नवाज़ देता। इस तरह आखरी नबी भी तुम ही में आते और ये क़ुरान भी तुम ही को मिलता। अगर अल्लाह को मंज़ूर होता तो ये सब कुछ मुमकिन था।

“लेकिन वह गुमराह करता है जिसे चाहता है और हिदायत देता है जिसे चाहता है।”وَّلٰكِنْ يُّضِلُّ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ

आयत के इस हिस्से का एक तर्जुमा ये भी है कि “वह गुमराह करता है उसे जो (गुमराही) चाहता है और हिदायत देता है उसे जो (हिदायत) चाहता है।”

“और तुमसे ज़रूर पूछा जाएगा उस बारे में जो कुछ तुम करते थे।”وَلَتُسْـــَٔـلُنَّ عَمَّا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ    93؀

यानि इस वक़्त तुम लोग एक बहुत बड़े इम्तिहान से दो-चार हो। तुम्हारे पास नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ के बारे में वाज़ेह निशानियों के साथ इल्म आ चुका है और तुम अल्लाह की किताब के वारिस भी हो। इसके बावजूद अगर तुमने हमारे नबी ﷺ की तस्दीक़ ना की और आपको झुठलाने पर तुले रहे तो इस बारे में तुमसे ज़रूर जवाब तलबी होगी।

अब जरा सूरतुल बक़रह की इन आयात तो ज़हन में ताज़ा कीजिये:

يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَوْفُوْا بِعَهْدِىْٓ اُوْفِ بِعَهْدِكُمْ   ۚ   وَاِيَّاىَ فَارْھَبُوْنِ   40؀ وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ    ۠   وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِىْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا  وَاِيَّاىَ فَاتَّقُوْنِ    41؀ وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَــقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ   42؀

“ऐ बनी इसराईल! याद करो तुम मेरी वो नेअमत जो मैंने तुम पर ईनाम की, और पूरा करो मेरा अहद, मैं पूरा करूँगा तुम्हारे (साथ किये गए) अहद को और मुझ ही से डरो। और ईमान लाओ उस किताब पर जो मैंने नाज़िल की है, जो तस्दीक़ करते हुए आई है उस किताब की जो तुम्हारे पास है, और मत हो जाओ तुम ही सबसे पहले इसका कुफ़्र करने वाले, और मत बेचो मेरी आयात तो थोड़ी सी क़ीमत के एवज़ और मेरा ही तक़वा इख़्तियार करो। और ना मिलाओ हक़ को बातिल के साथ और ना छुपाओ हक़ को जानते बूझते।”

इन आयात को पढ़ कर यही महसूस होता है कि यहाँ सूरतुल नहल में जो बात  से शुरू हुई है यह गोया तम्हीद है उस मज़मून की जो सूरतुल बक़रह की मन्दर्जा बाला आयात की शक्ल में मदीना जाकर नाज़िल होने वाला था।

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आयत 94

“और मत बनाओ अपनी क़समों को अपने दरमियान धोखे का ज़रिया कि फ़िसल जाए कोई क़दम पुख्तगी के बाद”وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اَيْمَانَكُمْ دَخَلًۢا بَيْنَكُمْ فَتَزِلَّ قَدَمٌۢ بَعْدَ ثُبُوْتِهَا

देखो हक़ीक़त ये है कि तुम हमारे नबी ﷺ को अच्छी तरह पहचान चुके हो: { يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَھُمْ ۭ } (सूरतुल बक़रह 146) अब इस हालत में अगर तुम फिसलोगे तो याद रखो सीधे जहन्नम की आग में जाकर गिरोगे:            { فَانْهَارَ بِهٖ فِيْ نَارِ جَهَنَّمَ  ۭ } (सूरह तौबा:109)

“और तुम्हें अज़ाब का मज़ा चखना पड़े बसबब इसके कि तुमने (लोगों को) रोका अल्लाह के रास्ते से, और तुम्हारे लिये (इसकी पादाश में) बहुत बड़ा अज़ाब है।”وَتَذُوْقُوا السُّوْۗءَ بِمَا صَدَدْتُّمْ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ وَلَكُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ     94؀

तुम्हें तो चाहिये था कि सबसे पहले खड़े होकर गवाही देते कि हमने मोहम्मद (ﷺ) को अपनी किताब में दी गई निशानियों से ठीक-ठीक पहचान लिया है, आप (ﷺ) वाक़ई अल्लाह के रसूल हैं। और तुम्हें नसीहत भी की गई थी: { وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ} (सूरतुल बक़रह: 41) “और तुम इसके पहले मुन्किर ना बन जाना।” इस सब कुछ के बावजूद तुम लोग इस गवाही को छुपा रहे हो: {وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَهَادَةً عِنْدَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۭ } (सूरतुल बक़रह:140) “और उस शख्स से बढ़ कर कौन ज़ालिम होगा जिसने छुपाई वह गवाही जो उसके पास है अल्लाह की तरफ़ से!”

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आयत 95

“और अल्लाह के उस अहद को हक़ीर सी क़ीमत के एवज़ फ़रोख्त ना करो।”وَلَا تَشْتَرُوْا بِعَهْدِ اللّٰهِ ثَـمَنًا قَلِيْلًا  ۭ
“यक़ीनन अल्लाह के पास जो कुछ है वह बहुत बेहतर है तुम्हारे लिये अगर तुम इल्म रखते हो।”اِنَّمَا عِنْدَ اللّٰهِ هُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ     95؀

तुम्हें दुनिया के छोटे-छोटे मफ़ादात बहुत अज़ीज़ हैं और इन हक़ीर मफ़ादात के लिये तुम लोग अल्लाह की हिदायत को ठुकरा रहे हो, मगर तुम्हें मालूम होना चाहिये कि अगर तुम लोग इस हिदायत तो क़ुबूल कर लोगे तो अल्लाह के यहाँ उखरवी ईनामात से नवाज़े जाओगे। अल्लाह के यहाँ जन्नत की दाइमी नेअमतें तुम्हारे इन मफ़ादात के मुक़ाबले में कहीं बेहतर हैं जिनके साथ तुम लोग आज चिमटे हुए हो।

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आयत 96

“जो तुम्हारे पास है वह ख़त्म हो जाएगा और जो अल्लाह के पास है वह बाक़ी रहने वाला है।”مَا عِنْدَكُمْ يَنْفَدُ وَمَا عِنْدَ اللّٰهِ بَاقٍ  ۭ
“और हम लाज़िमन देंगे सब्र करने वालों को उनका अज्र उनके बेहतरीन अमाल के मुताबिक़।”وَلَنَجْزِيَنَّ الَّذِيْنَ صَبَرُوْٓا اَجْرَهُمْ بِاَحْسَنِ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ     96؀

हर नेकोकार शख्स के तमाम आमाल एक दर्जे के नहीं होते, कोई नेकी आला दर्जे की होती है और कोई निस्बतन छोटे दर्जे की। मगर जिन लोगों से अल्लाह तआला खुश हो जायेंगे, उनकी आला दर्जे की नेकियों को सामने रख कर उनके अज्र व सवाब का तअय्युन किया जाएगा।

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आयत 97

“जिस किसी ने भी नेक अमल किया, ख्वाह वह मर्द हो या औरत, बशर्ते कि हो वह मोमिन तो हम उसे (दुनिया में) एक पाकीज़ा ज़िंदगी बसर करायेंगे।”مَنْ عَمِلَ صَالِحًا مِّنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَلَنُحْيِيَنَّهٗ حَيٰوةً طَيِّبَةً  ۚ

ऐसे लोग बेशक दुनिया में रूखी-सूखी खाकर गुज़ारा करें मगर इन्हें सुकूने क़ल्ब की दौलत नसीब होगी, इन लोगों के दिल गनी होंगे, क्योंकि हुज़ूर ﷺ का फ़रमान है: ((اَلْغِنٰی غِنَی النَّفْسِ))(15) कि असल अमीरी तो दिल की अमीरी है। अगर इंसान का दिल गनी है तो इंसान वाक़िअतन गनी है और अगर ढेरों दौलत पाकर भी दिल लालच के फंदे में गिरफ़्तार है तो ऐसा शख्स दरअसल गनी या अमीर नही, फ़क़ीर है। चुनाँचे नेकोकार इंसानों को दुनयवी ज़िन्दगी में ही गिना और सुकूने क़ल्ब की नेअमत से नवाज़ा जाएगा, क्योंकि ये नेअमत तो समरह (फल) है अल्लाह की याद का: {اَلَا بِذِكْرِ اللّٰهِ تَـطْمَىِٕنُّ الْقُلُوْبُ} (सूरह रअद 28) “आगाह रहो! दिल तो अल्लाह के ज़िक्र ही से मुत्मईन होते हैं।” ऐसे लोगों का शुमार अल्लाह के दोस्तों और औलिया में होता है। इनके साथ ख़ुसूसी शफक्क़त का मामला फ़रमाया जाता है और इन्हें हुज़्न व मलाल के सायों से महफ़ूज़ रखा जाता है: {اَلَآ اِنَّ اَوْلِيَاۗءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ} (युनुस 62) “आगाह रहो! यक़ीनन औलिया अल्लाह पर ना कोई खौफ़ होगा और ना वह ग़मगीन होंगे।”

“और (आख़िरत में) हम उन्हें ज़रूर देंगे उनके अज्र, उनके बेहतरीन आमाल के मुताबिक़।”وَلَـنَجْزِيَنَّهُمْ اَجْرَهُمْ بِاَحْسَنِ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ    97؀

आयत 98

“तो जब आप क़ुरान पढ़ें तो अल्लाह की पनाह तलब कर लीजिये शैताने मरदूद से।”فَاِذَا قَرَاْتَ الْقُرْاٰنَ فَاسْتَعِذْ بِاللّٰهِ مِنَ الشَّيْطٰنِ الرَّجِيْمِ     98؀

इस हुक्म की रू से क़ुरान की तिलावत शुरू करने से पहले अऊज़ुबिल्लाही मिनाश्शयतानिर्रजीम पढ़ना ज़रूरी है।

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आयत 99

“उसका कुछ भी ज़ोर नहीं चलता उन लोगों पर जो ईमान लाए हैं और जो अपने रब पर तवक्कुल करते हैं।”اِنَّهٗ لَيْسَ لَهٗ سُلْطٰنٌ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَلٰي رَبِّهِمْ يَتَوَكَّلُوْنَ     99؀

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आयत 100

“उसका ज़ोर तो उन्हीं लोगों पर चलता है जो उससे दोस्ती करते हैं और जो उसको (अल्लाह के साथ) शरीक ठहराने वाले हैं।”اِنَّمَا سُلْطٰنُهٗ عَلَي الَّذِيْنَ يَتَوَلَّوْنَهٗ وَالَّذِيْنَ هُمْ بِهٖ مُشْرِكُوْنَ     ١٠٠؀ۧ

शैतान का ज़ोर उन्हीं लोगों पर चलता है जो उसको अपना रफ़ीक़ और सरपरस्त बना लेते हैं और अल्लाह की इताअत के बजाए उसकी इताअत करते हैं। गोया उसको अल्लाह के साथ शरीक ठहरा लेते हैं, या उसके बहकाने से दूसरी हस्तियों को अल्लाह का शरीक बना लेते हैं।

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आयात 101 से 111 तक

وَاِذَا بَدَّلْنَآ اٰيَةً مَّكَانَ اٰيَةٍ  ۙ وَّاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا يُنَزِّلُ قَالُوْٓا اِنَّمَآ اَنْتَ مُفْتَرٍ  ۭ بَلْ اَكْثَرُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ     ١٠١؁ قُلْ نَزَّلَهٗ رُوْحُ الْقُدُسِ مِنْ رَّبِّكَ بِالْحَقِّ لِيُثَبِّتَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَهُدًى وَّبُشْرٰى لِلْمُسْلِمِيْنَ    ١٠٢؁ وَلَقَدْ نَعْلَمُ اَنَّهُمْ يَقُوْلُوْنَ اِنَّمَا يُعَلِّمُهٗ بَشَرٌ  ۭ لِسَانُ الَّذِيْ يُلْحِدُوْنَ اِلَيْهِ اَعْجَمِيٌّ وَّھٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيٌّ مُّبِيْنٌ     ١٠٣؁ اِنَّ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ  ۙ لَا يَهْدِيْهِمُ اللّٰهُ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     ١٠٤؁ اِنَّمَا يَفْتَرِي الْكَذِبَ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰذِبُوْنَ    ١٠٥؁ مَنْ كَفَرَ بِاللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ اِيْمَانِهٖٓ اِلَّا مَنْ اُكْرِهَ وَقَلْبُهٗ مُطْمَـﭟ بِالْاِيْمَانِ وَلٰكِنْ مَّنْ شَرَحَ بِالْكُفْرِ صَدْرًا فَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ مِّنَ اللّٰهِ ۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ      ١٠٦؁ ذٰلِكَ بِاَنَّهُمُ اسْتَحَبُّوا الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا عَلَي الْاٰخِرَةِ  ۙ وَاَنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ    ١٠٧؁ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ طَبَعَ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ وَسَمْعِهِمْ وَاَبْصَارِهِمْ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْغٰفِلُوْنَ    ١٠٨؁ لَا جَرَمَ اَنَّهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ    ١٠٩؁ ثُمَّ اِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِيْنَ هَاجَرُوْا مِنْۢ بَعْدِ مَا فُتِنُوْا ثُمَّ جٰهَدُوْا وَصَبَرُوْٓا  ۙ اِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِهَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١١٠۝ۧ يَوْمَ تَاْتِيْ كُلُّ نَفْسٍ تُجَادِلُ عَنْ نَّفْسِهَا وَتُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ     ١١١؁

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आयत 101

“और जब हम बदलते हैं एक आयत की जगह दूसरी आयत”وَاِذَا بَدَّلْنَآ اٰيَةً مَّكَانَ اٰيَةٍ  ۙ

क़ब्ल अज़ यह मज़मून सूरतुल बक़रह (आयत : 106) में बयान हो चुका है: {مَا نَنْسَخْ مِنْ اٰيَةٍ اَوْ نُنْسِهَا نَاْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَآ اَوْ مِثْلِهَا ۭ}। चुनाँचे सूरतुल बक़रह के मुताअले के दौरान इस आयत के तहत इस मज़मून की वज़ाहत भी हो चुकी है।

“और अल्लाह ख़ूब जानता है जो वह नाज़िल करता है”وَّاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا يُنَزِّلُ

क़ुरान का नुज़ूल अल्लाह तआला की हिकमत और मशियत के ऐन मुताबिक़ हो रहा है। अगर कोई मखसूस हुक्म किसी एक दौर के लिये था और फिर बदले हुए हालात में उस हुक्म में तब्दीली की ज़रूरत है तो यह सब कुछ अल्लाह के इल्म के मुताबिक़ है और किसी ख़ास ज़रूरत और हिकमत के तहत ही किसी हुक्म में तब्दीली की जाती है। मगर ऐसी तब्दीली को देखते हुए:

“ये (मुशरिकीन) कहते हैं कि आप खुद ही (इसे) गढ़ने वाले हैं”قَالُوْٓا اِنَّمَآ اَنْتَ مُفْتَرٍ  ۭ

कि पहले यूँ कहा गया था, अब इसे बदल कर यूँ कह रहे हैं। अगर यह अल्लाह का कलाम होता तो इसमें इस तरह की तब्दीली कैसे मुमकिन थी?

“बल्कि इनमें से अक्सर इल्म नहीं रखते।”بَلْ اَكْثَرُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ     ١٠١؁

हक़ीक़त ये है कि इनकी अक्सरियत इल्म से आरी है।

आयत 102

“आप कहिये कि इसे नाज़िल किया है रुहुल क़ुदुस ने आपके रब की तरफ़ से हक़ के साथ”قُلْ نَزَّلَهٗ رُوْحُ الْقُدُسِ مِنْ رَّبِّكَ بِالْحَقِّ

यहाँ पर रुहुल क़ुदुस का लफ्ज़ हज़रत जिबराईल अलै. के लिये आया है कि एक पाक फ़रिश्ता इस कलाम को लेकर आया है।

“ताकि वह साबित क़दम रखे अहले ईमान को”لِيُثَبِّتَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا

सूरतुल फुरक़ान (आयत 32) में यही मज़मून इस तरह बयान किया गया है: {كَذٰلِكَ ڔ لِنُثَبِّتَ بِهٖ فُؤَادَكَ وَرَتَّلْنٰهُ تَرْتِيْلًا} “ताकि हम मज़बूत करें इसके साथ आपके दिल को और (इसी लिये) हमने पढ़ सुनाया इसे ठहर-ठहर कर।”

“और ये हिदायत और खुशख़बरी हो फ़रमाबरदारों के लिये।”وَهُدًى وَّبُشْرٰى لِلْمُسْلِمِيْنَ    ١٠٢؁

जैसे-जैसे हालात में तब्दीली आ रही है, वैसे-वैसे इस क़ुरान के ज़रिये मुसलमानों ले लिये हिदायत व रहनुमाई का अहतमाम किया जा रहा है। मसलन क़िस्सा आदम व इब्लीस जब पहली दफ़ा बयान किया गया तो इसमें वह तफ़सीलात बयान की गईं जो उस वक़्त के मखसूस मअरूज़ी हालात में हुज़ूर ﷺ और मुसलमानों के लिये जानना ज़रूरी थीं। फिर जब हालात में तब्दीली आई तो यही क़िस्सा कुछ मज़ीद तफ़सीलात के साथ फिर नाज़िल किया गया इसी असूल और ज़रूरत के तहत इसका नुज़ूल बार-बार हुआ ताकि हर दौर के हालात के मुताबिक़ अहले हक़ इसमें से अपनी रहनुमाई के लिये सबक़ हासिल कर सकें।

आयत 103

“और हमें ख़ूब मालूम है कि वह कहते हैं कि इसको तो एक इंसान सिखाता है।”وَلَقَدْ نَعْلَمُ اَنَّهُمْ يَقُوْلُوْنَ اِنَّمَا يُعَلِّمُهٗ بَشَرٌ  ۭ

मुशरिकीन रसूल अल्लाह ﷺ पर एक इल्ज़ाम यह लगा रहे थे कि आपने किसी अज्मी गुलाम को या अहले किताब में से किसी आदमी को अपने घर में छुपा रखा है, जो तौरात का आलिम है। उससे आप ये सारी बातें सीखते हैं और फिर वही के नाम पर हमें सुनाते हैं और हम पर धौंस जमाते हैं।

“ये लोग जिसकी तरफ़ गलत तौर पर मंसूब कर रहे हैं उसकी ज़बान तो (इनके बक़ौल) अज्मी है और यह (क़ुरान) फ़सीह अरबी ज़बान है।”لِسَانُ الَّذِيْ يُلْحِدُوْنَ اِلَيْهِ اَعْجَمِيٌّ وَّھٰذَا لِسَانٌ عَرَبِيٌّ مُّبِيْنٌ     ١٠٣؁

चुनाँचे यह इल्ज़ाम लगाते हुए इनको खुद सोचना चाहिये कि कोई अज्मी ऐसी फ़सीह व बलीग़ अरबी ज़बान कैसे बोल सकता है!

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आयत 104

“यक़ीनन जो लोग अल्लाह की आयात पर ईमान नहीं रखते, अल्लाह उन्हें हिदायत नहीं देगा और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।”اِنَّ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ  ۙ لَا يَهْدِيْهِمُ اللّٰهُ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     ١٠٤؁

अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं कि किसी को ज़बरदस्ती खींच कर हिदायत की तरफ़ ले आए।

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आयत 105

“झूठ तो वही लोग गढ़ते हैं जो अल्लाह की आयात पर ईमान नहीं रखते, और वही लोग हैं जो झूठे हैं।”اِنَّمَا يَفْتَرِي الْكَذِبَ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰذِبُوْنَ    ١٠٥؁

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आयत 106

“और जो कोई कुफ़्र करे अल्लाह का अपने ईमान लाने के बाद”مَنْ كَفَرَ بِاللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ اِيْمَانِهٖٓ

इसका इतलाक़ ईमान की दोनों कैफ़ियतों पर होगा। एक यह कि दिल में ईमान आ गया, बात पूरी तरह दिल में बैठ गई, दिल में यक़ीन की कैफ़ियत पैदा हो गई कि हाँ यही हक़ है मगर ज़बान से अभी इक़रार नहीं किया। ईमान की दूसरी कैफ़ियत ये है कि दिल भी ईमान ले आया और ज़बान से ईमान का इक़रार भी कर लिया। चुनाँचे इन दोनों दर्जों में से किसी भी दर्जे में अगर इंसान ने हक़ को हक़ जान लिया, दिल में यक़ीन पैदा हो गया मगर फिर किसी मस्लहत का शिकार हो गया और हक़ का साथ देने से कन्नी कतरा गया तो इस पर इस हुक्म का इतलाक़ होगा।

“सिवाय इसके कि कोई शख्स मजबूर कर दिया गया हो और उसका दिल ईमान पर जमा हुआ हो”اِلَّا مَنْ اُكْرِهَ وَقَلْبُهٗ مُطْمَـﭟ بِالْاِيْمَانِ

किसी की जान पर बनी हुई थी और इस हालत में कोई कलमा-ए-कुफ़्र उसकी ज़बान से अदा हो गया, मगर उसका दिल ब-दस्तूर हालाते ईमान में मुत्मईन रहा तो ऐसा शख्स अल्लाह के यहाँ माज़ूर समझा जाएगा।

“मगर जिसने खोल दिया कुफ़्र के साथ (अपना) सीना तो ऐसे लोगों पर अल्लाह का गज़ब है, और उनके लिये बहुत बड़ा अज़ाब है।”وَلٰكِنْ مَّنْ شَرَحَ بِالْكُفْرِ صَدْرًا فَعَلَيْهِمْ غَضَبٌ مِّنَ اللّٰهِ ۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ      ١٠٦؁

ऊपर बयान किये गए इस्तशना के मुताबिक़ मजबूरी की हालत में तो कलमा-ए-कुफ़्र कहने वाले को तो माफ़ कर दिया जाएगा (बशर्ते कि उसका दिल ईमान पर पूरी तरह मुत्मईन हो) मगर जो शख्स किसी वजह से पूरे शरह-ए- सद्र के साथ कुफ़्र की तरफ़ लौट गया, वह अल्लाह के गज़ब और बहुत बड़े अज़ाब का मुस्तहिक़ हो गया।

आयत 107

“ये इसलिये कि इन्होंने दुनिया की ज़िन्दगी को महबूब रखा आख़िरत के मुक़ाबले में”   ذٰلِكَ بِاَنَّهُمُ اسْتَحَبُّوا الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا عَلَي الْاٰخِرَةِ  ۙ
“और ये (अल्लाह का क़ायदा है) कि अल्लाह ऐसे काफ़िरों को हिदायत नहीं दिया करता।” وَاَنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ    ١٠٧؁

आयत 108

“ये वह लोग हैं जिनके दिलों, कानों और आँखों पर अल्लाह ने मोहर कर दी है।”اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ طَبَعَ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ وَسَمْعِهِمْ وَاَبْصَارِهِمْ ۚ
“और यही लोग हैं जो गाफ़िल हैं।”وَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْغٰفِلُوْنَ    ١٠٨؁

आयत 109

“अब इसमें कोई शक नहीं कि यही लोग हैं जो आख़िरत में खसारे वाले होंगे।”لَا جَرَمَ اَنَّهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ    ١٠٩؁

ये वह लोग हैं जो दुनियवी ज़िन्दगी की मोहब्बत में हक़ से मुहँ मोड़ कर गफ़लत में डूबे हुए हैं। अब इनके इस तर्ज़े अमल का मन्तक़ी नतीजा यह होगा कि आख़िरत की भलाइयों में इनके लिये कोई हिस्सा नहीं होगा।

अगली आयत में फिर हिजरत का ज़िक्र आ रहा है, जो इससे पहले आयत 41 में भी आ चुका है।

आयत 110

“फिर यक़ीनन आपका रब इनके हक़ में जिन्होंने हिजरत की, इसके बाद कि इन्हें तकलीफ़ पहुँचाई गई, फिर इन्होंने जिहाद किया और सब्र किया, यक़ीनन आपका रब इस (सब कुछ) के बाद बख्शने वाला, निहायत रहम वाला है।”ثُمَّ اِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِيْنَ هَاجَرُوْا مِنْۢ بَعْدِ مَا فُتِنُوْا ثُمَّ جٰهَدُوْا وَصَبَرُوْٓا  ۙ اِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِهَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١١٠۝ۧ

जिन मोमिनीन पर मक्के में मसाएब (मुसीबतों) के पहाड़ तोड़े गए, इन हालात में उन्होंने हिजरत की, फिर वह जिहाद भी करते रहे, इस तरह राहे हक़ में आने वाली आज़माइशों के तमाम मराहिल उन्होंने कमाल सब्र से तय किये, अल्लाह तआला उन्हें उनकी इन क़ुर्बानियों और सरफ़रोशियों का ज़रूर अज्र देगा। उन्हें बख्शीश अता फ़रमाएगा और उनकी तरफ़ नज़रे रहमत फ़रमाएगा।

आयत 111

“जिस दिन आएगी हर जान अपनी तरफ़ से मदाफ़अत (बचाव) करते हुए”يَوْمَ تَاْتِيْ كُلُّ نَفْسٍ تُجَادِلُ عَنْ نَّفْسِهَا

रोज़े क़यामत हर शख्स चाहेगा कि किसी ना किसी तरह जहन्नम की सज़ा से उसकी जान छूट जाए। लिहाज़ा इसके लिये वह मुख्तलिफ़ उज़्र पेश करेगा।

“और (बदले में) पूरा-पूरा दिया जाएगा हर जान को जो कुछ उसने कमाया होगा और उन पर ज़रा भी ज़ुल्म नहीं किया जाएगा।”وَتُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ وَهُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ     ١١١؁

आयात 112 से 119 तक

وَضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا قَرْيَةً كَانَتْ اٰمِنَةً مُّطْمَىِٕنَّةً يَّاْتِيْهَا رِزْقُهَا رَغَدًا مِّنْ كُلِّ مَكَانٍ فَكَفَرَتْ بِاَنْعُمِ اللّٰهِ فَاَذَاقَهَا اللّٰهُ لِبَاسَ الْجُوْعِ وَالْخَوْفِ بِمَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ     ١١٢؁ وَلَقَدْ جَاۗءَهُمْ رَسُوْلٌ مِّنْهُمْ فَكَذَّبُوْهُ فَاَخَذَهُمُ الْعَذَابُ وَهُمْ ظٰلِمُوْنَ     ١١٣؁ فَكُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ حَلٰلًا طَيِّبًا  ۠ وَّاشْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ اِيَّاهُ تَعْبُدُوْنَ    ١١٤؁ اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖ ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١١٥؁ وَلَا تَــقُوْلُوْا لِمَا تَصِفُ اَلْسِنَتُكُمُ الْكَذِبَ ھٰذَا حَلٰلٌ وَّھٰذَا حَرَامٌ لِّتَفْتَرُوْا عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ  ۭ اِنَّ الَّذِيْنَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ لَا يُفْلِحُوْنَ     ١١٦۝ۭ مَتَاعٌ قَلِيْلٌ ۠ وَّلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     ١١٧؁ وَعَلَي الَّذِيْنَ هَادُوْا حَرَّمْنَا مَا قَصَصْنَا عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ ۚ وَمَا ظَلَمْنٰهُمْ وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ    ١١٨؁ ثُمَّ اِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِيْنَ عَمِلُوا السُّوْۗءَ بِجَــهَالَةٍ ثُمَّ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْٓا  ۙ اِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِهَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١١٩۝ۧ

आयत 112

“और अल्लाह ने मिसाल बयान की है एक बस्ती की जो बिल्कुल अमन व इत्मिनान की हालत में थी, आता था उसके पास उसका रिज़्क़ बा-फ़रागत हर तरफ़ से”وَضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا قَرْيَةً كَانَتْ اٰمِنَةً مُّطْمَىِٕنَّةً يَّاْتِيْهَا رِزْقُهَا رَغَدًا مِّنْ كُلِّ مَكَانٍ
“तो उसने नाशुकरी की अल्लाह की नेअमतों की, तो उसे चखा (पहना) दिया अल्लाह ने लिबास भूख और खौफ़ का, उनके करतूतों की पादाश में।”فَكَفَرَتْ بِاَنْعُمِ اللّٰهِ فَاَذَاقَهَا اللّٰهُ لِبَاسَ الْجُوْعِ وَالْخَوْفِ بِمَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ     ١١٢؁

इस तम्सील के बारे में मुख्तलिफ़ आराअ हैं। एक राय तो ये है कि यह एक आम तम्सील है और किसी ख़ास बस्ती के मुताल्लिक़ नहीं। कुछ मुफ्फ़सरीन का ख्याल है कि ये क़ौमे सबा की मिसाल है जिसके बारे में तफ़सील आगे चल कर सूरह सबा में आएगी। एक तीसरी राय ये है कि इस मिसाल के आईने में मक्का और अहले मक्का का ज़िक्र है कि ये शहर हमेशा से अमन व सुकून का गहवारा चला आ रहा था और यहाँ अहले मक्का की तिजारती सरगरमियों और हज व उमरे के इज्तमाआत के बाइस खुशहाली और फ़ारिगुल बाली भी थी। दुनिया भर से अनवाअ व अक़साम का रिज़्क़ फ़रावानी से इनके पास चला आता था, मगर हुज़ूर ﷺ की बेअसत के बाद आपकी दावत का इन्कार करने की पादाश में इस शहर के बाशिंदों पर क़हत का अज़ाब मुसल्लत कर दिया गया था। मक्का में ये क़हत उसी क़ानूने खुदावन्दी के तहत आया था जिसका ज़िक्र सूरतुल अनआम की आयत 42 और सूरतुल आराफ़ की आयत 94 में हुआ है। इस असूल या क़ानून के तहत हर रसूल की बेअसत के बाद मुतालक़ा क़ौम पर छोटे-छोटे अज़ाब आते हैं ताकि उन्हें ख्वाबे गफ़लत से जागने और संभलने का मौक़ा मिल जाए और वह रसूल पर ईमान लाकर बड़े अज़ाब से बच जाएँ।

तावीले ख़ास के ऐतबार से इस मिसाल में यक़ीनन मक्का ही की तरफ़ इशारा है मगर इसकी अमूमी हैसियत भी मद्दे नज़र रहनी चाहिये कि कोई बस्ती भी इस क़ानूने खुदावन्दी की ज़द में आ सकती है। जैसे पाकिस्तान के उरूसुल बिलाद कराची के हालात की मिसाल हमारे सामने है। एक वक़्त वह था जब कराची में अमन व अमान, वासाइले रिज़्क़ की फ़रावनी और खुशहाली की कैफ़ियत मुल्क भर के लोगों के लिये बाइसे कशिश थी, मगर फिर देखते ही देखते ये शहर वही नक्शा पेश करने लगा जिसकी झलक इस आयत में दिखाई गई है। यानि कुफ्राने नेअमत की पादाश में अल्लाह तआला ने इसके बाशिंदों को भूख और खौफ़ का लिबास पहना दिया।

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आयत 113

“और आया इनके पास एक रसूल इन्ही में से तो इन्होंने उसको झुठला दिया, पस आ पकड़ा इन्हें अज़ाब ने और वह खुद ही ज़ालिम थे।”وَلَقَدْ جَاۗءَهُمْ رَسُوْلٌ مِّنْهُمْ فَكَذَّبُوْهُ فَاَخَذَهُمُ الْعَذَابُ وَهُمْ ظٰلِمُوْنَ     ١١٣؁

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आयत 114

“पस (ऐ अहले ईमान) तुम खाया करो उसमें से जो अल्लाह ने तुम्हें रिज़्क़ दिया है हलाल और पाकीज़ा चीज़ें”فَكُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ حَلٰلًا طَيِّبًا  ۠
“और अल्लाह की नेअमत का शुक्र अदा करो अगर तुम वाक़िअतन उसी की बन्दगी करते हो।”وَّاشْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ اِيَّاهُ تَعْبُدُوْنَ    ١١٤؁

नोट कीजिये कि अल्लाह की नेअमतों का ज़िक्र मुख्तलिफ़ अंदाज़ में बार-बार इस सूरत में आ रहा है।

आयत 115

“उसने तो बस हराम किया है तुम पर मुर्दार, खून, खंज़ीर का गोश्त और वह चीज़ जिस पर नाम पुकारा जाए अल्लाह के सिवा किसी और का।”اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖ ۚ
“फिर जो कोई मजबूर हो जाए, (लेकिन) ना वह तालिब हो, ना हद से बढ़ने वाला, तो यक़ीनन अल्लाह बख्शने वाला, निहायत रहम वाला है।”فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١١٥؁

यानि इन्तहाई मजबूरी की हालत में, जान बचाने के लिये वक़्ती तौर पर बक़द्रे ज़रूरत इन हराम अशिया को इस्तमाल में लाकर जान बचाई जा सकती है, मगर ना तो दिल में इनकी तलब हो, ना अल्लाह से सरकशी का इरादा, और ना ही ऐसी हालत में वह चीज़ ज़रूरत से ज़्यादा खाई जाए।

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आयत 116

“और मत कहो जिसके मुताल्लिक़ तुम्हारी ज़बानें झूठ गढ़ती हैं कि ये हलाल है और ये हराम है”وَلَا تَــقُوْلُوْا لِمَا تَصِفُ اَلْسِنَتُكُمُ الْكَذِبَ ھٰذَا حَلٰلٌ وَّھٰذَا حَرَامٌ

हलाल और हराम का फ़ैसला करने का हक़ सिर्फ़ अल्लाह तआला को है। यह एक संजीदा मामला है, इसलिये इस बारे में ग़ैर-मोहतात रवैया इख्तियार नहीं करना चाहिये कि बग़ैर इल्म, दलील और सनद के जो मुहँ में आया कह दिया।

“ताकि तुम अल्लाह की तरफ़ झूठ मंसूब करो।”لِّتَفْتَرُوْا عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ  ۭ
“यक़ीनन जो लोग अल्लाह की तरफ़ झूठ मंसूब करते हैं वह फ़ला नहीं पायेंगे।”اِنَّ الَّذِيْنَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ لَا يُفْلِحُوْنَ     ١١٦۝ۭ

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आयत 117

“बरतने का सामान है (दुनियावी ज़िंदगी में) थोड़ा सा, और फिर इन लोगों के लिये दर्दनाक अज़ाब है।”مَتَاعٌ قَلِيْلٌ ۠ وَّلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     ١١٧؁

आयत 118

“और उन लोगों पर जो यहूदी हुए हमने हराम की थीं (वह चीज़ें) जो हम बयान कर चुके हैं आप पर इससे पहले।”وَعَلَي الَّذِيْنَ هَادُوْا حَرَّمْنَا مَا قَصَصْنَا عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ ۚ

इस बारे में तफ़सील सूरह आले इमरान 93, निसा 140 और अल अनआम 146 में गुज़र चुकी है। हज़रत याक़ूब अलै. ने अपनी मर्ज़ी से अपने ऊपर ऊँट का गोश्त हराम कर लिया था, जिसकी तामील बाद में वह पूरी क़ौम करती रही। इसके अलावा मुख्तलिफ़ हैवानात की चर्बी भी बनी इसराइल पर हराम कर दी गई थी।

“और हमने उन पर ज़ुल्म नहीं किया बल्कि वह खुद अपनी जानों पर ज़ुल्म ढहाते रहे।”وَمَا ظَلَمْنٰهُمْ وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ    ١١٨؁

आयत 119

“फिर यक़ीनन आपका रब इन लोगों के हक़ में जो जहालत से कोई बुरा काम कर बैठें, फिर इसके बाद वह तौबा कर लें और इस्लाह कर लें, तो यक़ीनन आपका रब इसके बाद बहुत बख्शने वाला, निहायत रहम करने वाला है।”ثُمَّ اِنَّ رَبَّكَ لِلَّذِيْنَ عَمِلُوا السُّوْۗءَ بِجَــهَالَةٍ ثُمَّ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْٓا  ۙ اِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِهَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١١٩۝ۧ

जो लोग जज़्बात की रू में बहकर या नादानी में कोई गुनाह कर बैठें, फिर तौबा करके अपनी इस्लाह कर लें और गलत रविश से बाज़ आ जाएँ तो ऐसे लोगों के हक़ में अल्लाह तआला ज़रूर गफ़ूर व रहीम है।

आयात 120 से 128 तक

اِنَّ اِبْرٰهِيْمَ كَانَ اُمَّةً قَانِتًا لِّلّٰهِ حَنِيْفًا ۭ وَلَمْ يَكُ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ    ١٢٠؀ۙ شَاكِرًا لِّاَنْعُمِهٖ ۭ اِجْتَبٰىهُ وَهَدٰىهُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَــقِيْ      ١٢١؁ وَاٰتَيْنٰهُ فِي الدُّنْيَا  حَسَـنَةً  ۭ وَاِنَّهٗ فِي الْاٰخِرَةِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ     ١٢٢؀ۭ ثُمَّ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ اَنِ اتَّبِعْ مِلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا  ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ     ١٢٣؁ اِنَّمَا جُعِلَ السَّبْتُ عَلَي الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۭ وَاِنَّ رَبَّكَ لَيَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِـيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ    ١٢٤؁ اُدْعُ اِلٰى سَبِيْلِ رَبِّكَ بِالْحِكْمَةِ وَالْمَوْعِظَةِ الْحَسَنَةِ وَجَادِلْهُمْ بِالَّتِيْ هِىَ اَحْسَنُ ۭ اِنَّ رَبَّكَ هُوَ اَعْلَمُ بِمَنْ ضَلَّ عَنْ سَـبِيْلِهٖ وَهُوَ اَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِيْنَ    ١٢٥؁ وَاِنْ عَاقَبْتُمْ فَعَاقِبُوْا بِمِثْلِ مَا عُوْقِبْتُمْ بِهٖ  ۭوَلَىِٕنْ صَبَرْتُمْ لَهُوَ خَيْرٌ لِّلصّٰبِرِيْنَ     ١٢٦؁ وَاصْبِرْ وَمَا صَبْرُكَ اِلَّا بِاللّٰهِ وَلَا تَحْزَنْ عَلَيْهِمْ وَلَا تَكُ فِيْ ضَيْقٍ مِّمَّا يَمْكُرُوْنَ    ١٢٧؁ اِنَّ اللّٰهَ مَعَ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا وَّالَّذِيْنَ هُمْ مُّحْسِنُوْنَ     ١٢٨؀ۧ

आयत 120

“यक़ीनन इब्राहीम एक उम्मत थे, अल्लाह के लिये फ़रमाबरदार और यक्सु, और आप अलै. मुशरिकीन में से नहीं थे।”اِنَّ اِبْرٰهِيْمَ كَانَ اُمَّةً قَانِتًا لِّلّٰهِ حَنِيْفًا ۭ وَلَمْ يَكُ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ    ١٢٠؀ۙ

उम्मत के लुग्वी मायने क़सद करने के हैं। सूरह युसुफ़ (आयत 45) में उम्मत का लफ्ज़ वक़्त और मुद्दत के लिये भी इस्तेमाल हुआ है {وَادَّكَرَ بَعْدَ اُمَّةٍ}। वक़्त और ज़माने के भी हम पीछे चलते हैं तो गोया इसका क़सद करते हैं। इसी तरह रास्ते पर चलते हुए भी इंसान इसका क़सद करता है। इस हवाले से लफ्ज़ उम्मत वक़्त और रास्ते के लिये भी इस्तेमाल होता है। इसी तरह जब बहुत से लोग एक नज़रिये का क़सद करके इकठ्ठा हो जाएँ तो उन्हें भी उम्मत कहा जाता है, यानि हम-मक़सद लोगों की जमात। चुनाँचे इसी मायने में सूरह बक़रह में फ़रमाया गया है: {وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ} (आयत 143)। इस लिहाज़ से आयत ज़ेरे नज़र में उम्मत का मफ़हूम ये होगा कि हज़रत इब्राहीम अलै. एक रास्ता बनाने वाले, और एक रेत डालने वाले थे, और इस तरह आप अपनी ज़ात में गोया एक उम्मत थे। जब दुनिया में कोई मुसलमान ना था और पूरी दुनिया कुफ़्र के रास्ते पर गामज़न थी तो आप तने-तन्हा इस्लाम के अलम्बरदार थे।

आयत 121

“शुक्रगुज़ार थे उसकी नेअमतों के। अल्लाह ने उनको पसंद कर लिया था और उनको हिदायत दी थी सीधी राह की तरफ़।”شَاكِرًا لِّاَنْعُمِهٖ ۭ اِجْتَبٰىهُ وَهَدٰىهُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَــقِيْ      ١٢١؁

आयत 122

“और उनको हमने दुनिया में भी भलाई अता की थी, और यक़ीनन आख़िरत में भी वह नेक बन्दों में से होंगे।”وَاٰتَيْنٰهُ فِي الدُّنْيَا  حَسَـنَةً  ۭ وَاِنَّهٗ فِي الْاٰخِرَةِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ     ١٢٢؀ۭ

आयत 123

“फिर (ऐ मोहम्मद !) हमने वही की आपकी तरफ़ कि पैरवी कीजिये मिल्लते इब्राहीम की यक्सु होकर, और वह हरगिज़ मुशरिकीन में से ना थे।”ثُمَّ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ اَنِ اتَّبِعْ مِلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا  ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ     ١٢٣؁

आयत 124

“हफ़्ते का दिन तो उन्हीं लोगों के लिये मुअययन किया गया था जिन्होंने इसमें इख्तिलाफ़ किया था।”اِنَّمَا جُعِلَ السَّبْتُ عَلَي الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۭ

दरअसल बनी इसराईल के लिये अल्लाह तआला ने इबादत के लिये जुमे का दिन ही मुक़रर्र फ़रमाया था, मगर उन्होंने अपनी शरारत की वजह से इसकी नाक़द्री की और इसे छोड़ कर हफ़्ते का दिन इख़्तियार कर लिया। चुनाँचे बाद में अल्लाह तआला ने उनके लिये इस हैसियत में हफ़्ते का दिन ही मुक़रर्र कर दिया।

“और यक़ीनन आपका रब उनके माबैन फ़ैसला करेगा क़यामत के दिन उन चीज़ों में जिनमें वह इख्तिलाफ़ करते थे।”وَاِنَّ رَبَّكَ لَيَحْكُمُ بَيْنَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِـيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ    ١٢٤؁

आयत 125

“आप दावत दीजिये अपने रब के रास्ते की तरफ़ दानाई और अच्छी नसीहत के साथ”اُدْعُ اِلٰى سَبِيْلِ رَبِّكَ بِالْحِكْمَةِ وَالْمَوْعِظَةِ الْحَسَنَةِ

ये दावत इलल हक़ का तरीक़ा और इसके आदाब का ज़िक्र है, जैसा कि सूरह यूसुफ़ में फ़रमाया गया है: { قُلْ هٰذِهٖ سَبِيْلِيْٓ اَدْعُوْٓا اِلَى اللّٰهِ ۷ عَلٰي بَصِيْرَةٍ اَنَا وَمَنِ اتَّبَعَنِيْ  ۭ } (आयत 108) “(ऐ नबी ﷺ!) आप कह दीजिये कि ये मेरा रास्ता है, मैं अल्लाह की तरफ़ बुला रहा हूँ पुरी बसीरत के साथ, मैं खुद भी और मेरे पैरोकार भी (इस रास्ते पर गामज़न हैं)।”

“और इनसे बहस कीजिये बहुत अच्छे तरीक़े से।”وَجَادِلْهُمْ بِالَّتِيْ هِىَ اَحْسَنُ ۭ
“यक़ीनन आपका रब ख़ूब वाक़िफ़ है उनसे जो उसके रास्ते से भटक गए हैं और वह ख़ूब जानता है उनको भी जो राहे हिदायत पर हैं।” اِنَّ رَبَّكَ هُوَ اَعْلَمُ بِمَنْ ضَلَّ عَنْ سَـبِيْلِهٖ وَهُوَ اَعْلَمُ بِالْمُهْتَدِيْنَ    ١٢٥؁

अपने मौज़ू के हवाले से ये बहुत अज़ीम आयत है। इसमें इंसानी मआशरे के अन्दर इंसानों की तीन बुनियादी अक़साम के हवाले से दावते दीन के तीन मदारज बयान किये गए हैं, मगर आमतौर पर इस आयत का तरजुमा और तशरीह करते हुए इस पहलु को उजागर नहीं किया जाता।

किसी भी मआशरे में इल्म व दानिश की बुलंद तरीन सतह पर वह लोग होते हैं जिन्हें उस मआशरे का दानिशवर तबक़ा (intelligentsia) या ज़हीन अक़लियत (intellectual minority) कहा जाता है। इस तबक़े की हैसियत उस मआशरे या क़ौम के दिमाग़ की सी होती है। ये लोग अगरचे तादाद के लिहाज़ से बहुत छोटी अक़लियत पर मुश्तमिल होते हैं मगर किसी मआशरे की मज्मुई सोच और उसके मिज़ाज का रुख मुतअय्यन करने में उनका किरदार या हिस्सा फ़ैसलाकुन हैसियत का हामिल होता है। इन लोगों को जज़्बाती तक़ारीर और खुशकुन वअज़ मुतास्सिर नहीं कर सकते, बल्कि ऐसे लोग किसी सोच या नज़रिये को क़ुबूल करते हैं तो मुसद्दक़ा इल्मी व मन्तक़ी दलील से क़ुबूल करते हैं और अगर रद्द करते हैं तो ऐसी ही ठोस दलील से रद्द करते हैं।

आयत ज़ेरे नज़र में बयान करदा पहला दर्जा ऐसे ही लोगों के लिये है और वह है “हिकमत।” यह इल्म व अक़्ल की पुख्तगी की बहुत आला सतह है। सूरतुल बक़रह की आयत 269 में अल्लाह तआला ने हिकमत को “खैर कसीर” क़रार दिया है {وَمَنْ يُّؤْتَ الْحِكْمَةَ فَقَدْ اُوْتِيَ خَيْرًا كَثِيْرًا ۭ}। क़ुरान में तीन मक़ामात (बक़राह 129, आले इमरान 164 और जुमा 2) पर इन मराहिल और दरजात का ज़िक्र किया गया है जिनके तहत हुज़ूर ﷺ ने अपने सहाबा रज़ि. की तरबियत फरमाई। इनमें बुलंद तरीन मरहला या दर्जा हिकमत का है। हिकमत के सबब किसी इंसान की सोच और इल्म में पुख्तगी आती है, उसकी गुफ्तगू में जामियत पैदा होती है और उसकी तजज़ियाती अहलियत बेहतर हो जाती है। इस तरह वह किसी से बात करते हुए या किसी को दीन की दावत देते हुए मारूज़ी सूरते हाल, मुखातब के ज़हनी रुझान और तरजीहात का दुरुस्त तजज़िया करने के बाद अपनी गुफ्तगू के निकात और दलाइल को तरतीब देता है। उसे ख़ूब अंदाज़ा होता है कि किस वक़्त उसे क्या पेश करना है और किस अंदाज़ में पेश करना है। कौनसा नुक्ता बुनियादी हैसियत का दर्जा रखता है और कौनसी दलील सानवी अहमियत की हामिल है। बहरहाल किसी भी मआशरे के वह लोग जो इल्म, अक़्ल और शऊर में ग़ैर मामूली अहलियत के हामिल हों, उनको दावत देने के लिये भी किसी ऐसे दाई की ज़रूरत है जो खुद भी इल्म व हिकमत के आला मक़ाम पर फ़ाइज़ हो और उनसे बराबरी की सतह पर खड़े होकर बात कर सके। क्योंकि जब क़ुरान अपने मुखालफ़ीन को चैलेंज करता है { ھَاتُوْا بُرْھَانَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ} (सूरतुल बक़रह 111)। “अपनी दलील लाओ अगर तुम वाक़ई सच्चे हो।” तो ऐसी सूरत में हमारे मुखालफ़ीन को भी हक़ है कि वह भी हमसे दलील माँगें और हमारा फ़र्ज़ है कि हम अक़्ल और मन्तक़ की आला से आला सतह पर उनकी तसल्ली व तशफ़ी का सामान फ़राहम करें। लिहाज़ा आयत ज़ेरे नज़र में दावत व तब्लीग का पहला दर्जा हिकमत बयान किया गया है जिसका हक़ अदा करने के लिये दाई का साहिबे हिकमत और हकीम होना लाज़मी है।

हिकमत के बाद दूसरा दर्जा “मौअज़ा-ए-ह’सना” का है, यानि अच्छा खूबसूरत वअज़। यह दर्जा अवामुन्नास के लिये है। किसी भी मआशरे में अक्सरियत ऐसे लोगों पर मुश्तमिल होती है जिनके ज़हनो में अक़्ल और मन्तिक़ की छलनियाँ नहीं लगी होतीं। चुनाँचे ऐसे लोगों के लिये मन्तक़ी मुबाहिस और फ़लसफ़ियाना तक़ारीर “तकलीफ़ मा ला यताक़” के मुतरादिफ़ हैं। इनके दिल खुली किताब और ज़हन साफ़ सलेट की मानिंद होते हैं, आप इन पर जो लिखना चाहें लिख लें। ऐसे लोगों को दावत देने के लिये उनके जज़्बात को अपील करने की ज़रूरत होती है। ये पुर तासीर वअज़ और ख़ुलूस व हमदर्दी से की गई बात से मुतास्सिर हो जाते हैं। इनको अहसास हो जाता है कि दाई हम पर अपने इल्म का रौब नहीं डालना चाहता, हम पर धौंस नहीं जमाना चाहता, वह हमसे इज़हारे नफ़रत नहीं कर रहा, हमारी तहक़ीर नहीं कर रहा, बल्कि इसकी पेशेनज़र हमारी खैरख्वाही है। चुनाँचे दाई के दिल से निकली हुई बात “अज़ दिल खैज़द, बर दिल रैज़द” के मिस्दाक़ सीधी इनके दिलों में उतर जाती है।

दावते हक़ का तीसरा दर्जा { وَجَادِلْهُمْ بِالَّتِيْ هِىَ اَحْسَنُ ۭ} उन अनासिर के लिये है जो किसी मआशरे में खल्क़-ए-ख़ुदा को गुमराह करने के मिशन के अलम्बरदार होते हैं। आज-कल बहुत सी तंज़ीमों की तरफ़ से बाक़ायदा पेशावाराना तरबियत से ऐसे लोग तैयार करके मैदान में उतारे जाते हैं। ये लोग ख़ुलूस व इख्लास से की गई बात को किसी क़ीमत पर मानने के लिये तैयार नहीं होते। हर हाल में अपने नज़रिये और मौक़फ़ की तरफ़दारी करना इन लोगों की मजबूरी होती है, चाहे वह किसी इल्मी व अक़्ली दलील से हो या हठधर्मी से। ऐसे लोगों को मुस्कित जवाब देकर लाजवाब करना ज़रूरी होता है, वरना बाज़ अवक़ात अवामी सतह के इज्तमाआत में उनकी बहस बराए बहस की पालिसी बहुत ख़तरनाक हो सकती है, जिससे अवामुन्नास के ज़हन मनफ़ी तौर पर मुतास्सिर हो सकते हैं। ऐसे लोगों से बहस व मुबाहिसा के अमल को हमारे यहाँ “मुनाज़रा” कहा जाता है, जबकि क़ुरान ने इसे “मुजादला” कहा है। बहरहाल क़ुरान ने अपने पैरोकारों के लिये इसमें भी आला मैयार मुक़रर्र कर दिया है कि मुखालफ़ीन से मुजादला भी हो तो अहसन अंदाज़ में हो। अगर आपका मुखालिफ़ किसी तौर से घटियापन का मुज़ाहिरा भी करे तब भी आपको जवाब में अच्छे अख्लाक़ का दामन हाथ से छोड़ने की इजाज़त नहीं, जैसा कि सूरतुल अनआम की आयत नम्बर 108 में हुक्म दिया गया: {وَلَا تَسُبُّوا الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ فَيَسُبُّوا اللّٰهَ عَدْوًۢا بِغَيْرِ عِلْمٍ ۭ} “और जिनको ये (मुशरिक) अल्लाह के सिवा पुकारते हैं इन्हें बुरा-भला ना कहो कि कहीं ये भी बगैर सोचे समझे मुखालफ़त में अल्लाह को बुरा-भला कहने लग जाएँ।” आज-कल मुख्तलिफ़ मज़ाहिब की तंज़ीमें मसलन इसाई मिशनरीज़ बाक़ायदा मंसूबा बंदी के तहत इस्लाम को हदफ़ बनाने के लिये कुछ ख़ास मौज़ुआत और मसाइल को एक मख्सूस अंदाज़ में पेश करती हैं। ये लोग ऐसे मौज़ुआत व मसाइल पर मुनाज़रे करने के लिये बाक़ायदा ट्रेनिंग के ज़रिये स्पेशलिस्ट (specialist) तैयार करते हैं। ऐसे पेशावाराना लोगों के मुक़ाबले और मुजादले के लिये दाईयाने हक़ को ख़ुसूसी तालीम व तरबियत देने की ज़रूरत है।

आयत 126

“और (ऐ मुसलमानों!) अगर तुम बदला लो तो इसी क़दर जिस क़दर तुम्हें तक़लीफ़ दी गई हो।”وَاِنْ عَاقَبْتُمْ فَعَاقِبُوْا بِمِثْلِ مَا عُوْقِبْتُمْ بِهٖ  ۭ
“और अगर तुम सब्र करो तो ये सब्र करने वालों के हक़ में बेहतर है।”وَلَىِٕنْ صَبَرْتُمْ لَهُوَ خَيْرٌ لِّلصّٰبِرِيْنَ     ١٢٦؁

आयत 127

“और (ऐ नबी !) आप सब्र कीजिये और आपका सब्र तो अल्लाह ही के सहारे पर है”وَاصْبِرْ وَمَا صَبْرُكَ اِلَّا بِاللّٰهِ

ये हुक्म बराहेरास्त रसूल अल्लाह ﷺ के लिये है और आप ﷺ की वसातत से तमाम मुसलमानों के लिये भी। इस सिलसिले में हक़ीक़त ये है कि अल्लाह पर जिस क़दर ऐतमाद होगा, जैसा उस पर तवक्कुल होगा, जितना पुख्ता उसके वादों पर यक़ीन होगा, इसी अंदाज़ में इंसान सब्र भी कर सकेगा।

“और आप इन पर गम ना करें, और ना आप तंगी में पड़ें, इस बारे में जो साज़िशें ये लोग कर रहे थे।”وَلَا تَحْزَنْ عَلَيْهِمْ وَلَا تَكُ فِيْ ضَيْقٍ مِّمَّا يَمْكُرُوْنَ    ١٢٧؁

ये लोग अपने करतूतों के सबब अज़ाब के मुस्तहिक़ हो चुके हैं। चुनाँचे आप इनके अंजाम के बारे में बिल्कुल रंजीदा और फ़िक्रमन्द ना हों और ना ही इनकी साज़िशों और घटिया मआन्दाना सरगर्मियों के बारे में सोच कर आप अपना दिल मैला करें।

आयत 128

“यक़ीनन अल्लाह अहले तक़वा और नेकोकारों के साथ है।”اِنَّ اللّٰهَ مَعَ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا وَّالَّذِيْنَ هُمْ مُّحْسِنُوْنَ     ١٢٨؀ۧ

जो लोग तक़वे की रविश इख़्तियार करते हुए दर्जा-ए-अहसान पर फ़ाइज़ हो गए हैं, अल्लाह की मईयत (साथ), नुसरत और ताईद उनके शामिले हाल रहेगी। चुनाँचे जब अल्लाह तआला आप लोगों के साथ होगा तो ये मुशरिकीन आपको कुछ गज़न्द नहीं पहुँचा सकते।

क्या डर है अगर सारी खुदाई है मुखालिफ़

काफ़ी है अगर एक ख़ुदा मेरे लिये है!

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔

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