Surah Ale-Imraanसूरह आले इमरान Ayat 121 -200

आयात 121 से 129 तक

وَاِذْ غَدَوْتَ مِنْ اَھْلِكَ تُبَوِّئُ الْمُؤْمِنِيْنَ مَقَاعِدَ لِلْقِتَالِ  ۭ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ      ١٢١؁ۙ اِذْ ھَمَّتْ طَّاۗىِٕفَتٰنِ مِنْكُمْ اَنْ تَفْشَلَا  ۙوَاللّٰهُ وَلِيُّهُمَا  ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ     ١٢٢؁ وَلَقَدْ نَصَرَكُمُ اللّٰهُ بِبَدْرٍ وَّاَنْتُمْ اَذِلَّةٌ ۚ فَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ     ١٢٣؁ اِذْ تَقُوْلُ لِلْمُؤْمِنِيْنَ اَلَنْ يَّكْفِيَكُمْ اَنْ يُّمِدَّكُمْ رَبُّكُمْ بِثَلٰثَةِ اٰلٰفٍ مِّنَ الْمَلٰۗىِٕكَةِ مُنْزَلِيْنَ     ١٢٤؁ۭ بَلٰٓى ۙاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا وَيَاْتُوْكُمْ مِّنْ فَوْرِھِمْ ھٰذَا يُمْدِدْكُمْ رَبُّكُمْ بِخَمْسَةِ اٰلٰفٍ مِّنَ الْمَلٰۗىِٕكَةِ مُسَوِّمِيْنَ     ١٢٥؁ وَمَا جَعَلَهُ اللّٰهُ اِلَّا بُشْرٰى لَكُمْ وَلِتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُكُمْ بِهٖ ۭوَمَا النَّصْرُ اِلَّا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِ     ١٢٦؁ۙ لِيَقْطَعَ طَرَفًا مِّنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْ يَكْبِتَھُمْ فَيَنْقَلِبُوْا خَاۗىِٕــبِيْنَ      ١٢٧؁ لَيْسَ لَكَ مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ اَوْ يَتُوْبَ عَلَيْھِمْ اَوْ يُعَذِّبَھُمْ فَاِنَّھُمْ ظٰلِمُوْنَ     ١٢٨؁ وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ  ۭ يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١٢٩؁ۧ

यहाँ से सूरह आले इमरान के निस्फ़े सानी के दूसरे हिस्से का आगाज़ हो रहा है, जो छ: रुकूआत पर मुहीत है। यह छ: रुकूअ मुसलसल गज़वा-ए-ओहद के हालात व वाक़िआत और उन पर तबसिरे पर मुश्तमिल हैं। गज़वा-ए-ओहद शवाल 3 हिजरी में पेश आया था। इससे पहले रमज़ान 2 हिजरी में गज़वा-ए-बद्र पेश आ चुका था, जिसका तज़किरा हम सूरतुल अन्फ़ाल में पढ़ेंगे। इसलिये कि तरतीबे मुसहफ़ ना तो तरतीबे ज़मानी के ऐतबार से है और ना ही तरतीबे नुज़ूली के मुताबिक़। गज़वा-ए-बद्र में अल्लाह तआला ने मुस्लमानों को बहुत ज़बरदस्त फ़तह दी थी और कुफ्फ़ारे मक्का को बड़ी ज़क (चोट) पहुँची थी। उनके सत्तर (70) सरबरावरदा लोग मारे गये थे, जिनमें क़ुरैश के तक़रीबन सारे बड़े-बड़े सरदार भी शामिल थे। अहले मक्का के सीनों में इन्तेक़ाम की आग भड़क रही थी और उनके इन्तक़ामी जज़्बात लावे की तरह खोल रहे थे। चुनाँचे एक साल के अन्दर-अन्दर उन्होंने पूरी तैयारी की और तमाम साज़ो सामान जो वह जमा कर सकते थे जमा कर लिया। अबु जहल गज़वा-ए-बद्र में मारा जा चुका था और अब क़ुरैश के सबसे बड़े सरदार अबु सुफ़ियान थे। (अबु सुफ़ियान चूँकि बाद में ईमान ले आये थे और सहाबियत के मरतबे से सरफ़राज़ हुए थे लिहाज़ा हम उनका नाम अहतराम से लेते हैं।) अबु सुफ़ियान तीन हज़ार जंगजुओं का लश्कर लेकर मदीना पर चढ़ दौड़े। अहले मक्का अपनी फ़तह यक़ीनी बनाने के लिये इस दफ़ा अपने बच्चों और ख़ास तौर पर ख्वातीन को भी साथ लेकर आये थे ताकि उनकी ग़ैरत बेदार रहे कि अगर कहीं मैदान से हमारे क़दम उखड गये तो हमारी औरतें मुस्लमानों के कब्ज़े में चली जायेंगी। अबु सुफ़ियान की बीवी हिन्दा बिन्ते उत्बा भी लश्कर के हमराह थी। (वह भी बाद में फ़तह मक्का के मौके पर ईमान ले आयी थीं।) गज़वा-ए-बद्र में हिन्दा का बाप, भाई और चचा मुस्लमानों के हाथों वासिल-ए-जहन्नम हो चुके थे, लिहाज़ा उसके सीने के अन्दर भी इन्तेक़ाम की आग भड़क रही थी। मक्का का शायद ही कोई घर बचा हो जिसका कोई फ़र्द गज़वा-ए-बद्र में मारा ना गया हो।

इस मौके पर नबी अकरम ﷺ ने मदीना मुनव्वरा में एक मुशावरत मुनअक्क़िद फ़रमायी कि अब क्या हिकमते अमली इख़्तियार करनी चाहिये, जबकि तीन हज़ार का लश्कर मदीना पर चढ़ाई करने आ रहा है। रसूल अल्लाह ﷺ का अपना रुझान इस तरफ़ था कि इस सूरते हाल में हम अगर मदीना में महसूर होकर मुक़ाबला करें तो बेहतर रहेगा। अजीब इत्तेफ़ाक़ है कि रईसुल मुनाफ़िक़ीन अब्दुल्लाह बिन उबई की भी यही राय थी। लेकिन वह लोग जो बद्र के बाद ईमान लाये थे और वह जो गज़वा-ए-बद्र में शरीक नहीं हो पाये थे उनमें से ख़ास तौर पर नौजवानों की तरफ़ से खुसूसी जोशो खरोश का मुज़ाहिरा हो रहा था कि हमें मैदान में निकल कर दुश्मन का डट कर मुक़ाबला करना चाहिये, हमें तो शहादत दरकार है, हमें आख़िर मौत से क्या डर है?

शहादत है मतलूब-ओ-मक़सूदे मोमिन

ना माले गनीमत ना किशवर कुशाई!

चुनाँचे रसूल अल्लाह ﷺ ने उनके जज़्बात का लिहाज़ करते हुए फ़ैसला फ़रमा दिया कि दुश्मन का खुले मैदान में मुक़ाबला किया जायेगा। नबी अकरम ﷺ ने एक हज़ार की नफ़री लेकर मदीना से जबल-ए-ओहद की जानिब कूच फ़रमाया, लेकिन रास्ते ही में अब्दुल्लाह बिन उबई अपने तीन सौ आदमियों को साथ लेकर यह कह कर वापस चला गया कि जब हमारे मशवरे पर अमल नहीं होता और हमारी बात नहीं मानी जाती तो हम ख्वाहमा ख्वाह अपनी जानें जोखिम में क्यों डालें? तीन सौ मुनाफ़िक़ीन के चले जाने के बाद इस्लामी लश्कर में सिर्फ़ सात सौ अफ़राद बाक़ी रह गये थे, जिनमें कमज़ोर ईमान वाले भी थे। चुनाँचे दामने ओहद में पहुँच कर मदीना के दो खानदानों बनु हारसा और बनु सलमा के क़दम भी थोड़ी देर के लिये डगमगाये और उन्होंने वापस लौटना चाहा, लेकिन फिर अल्लाह तआला ने उनको हौसला दिया और उनके क़दम जमा दिये।

इसके बाद जंग हुई तो अल्लाह की तरफ़ से मदद आयी। अल्लाह ने लश्करे इस्लाम को फ़तह दे दी और मुशरिकीन के क़दम उखड़ गये। नबी अकरम ﷺ ने ओहद पहाड़ को अपनी पुश्त पर रखा था और उसके दामन में सफ़बंदी की थी। सामने दुश्मन का लश्कर था। पहाड़ में एक दर्रा था और हुज़ूर ﷺ को अन्देशा था कि ऐसा ना हो कि वहाँ से हम पर हमला हो जाये और हम दो तरफ़ से चक्की के दो पाटों के दरमियान आ जायें। लिहाज़ा आप ﷺ ने उस दर्रे पर हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ि० की इमारत में पचास तीर अंदाज़ तैनात फ़रमा दिये थे और उन्हें ताकीद फ़रमायी थी यहाँ से मत हिलना। चाहे तुम देखो कि हम सब मारे गये हैं और हमारा गोश्त चीलें और कव्वे नोच रहे हैं तब भी यह जगह मत छोड़ना! लेकिन जब मुस्लमानों को फ़तह हो गयी तो दर्रे पर मामूर हज़रात में इख्तलाफ़े राये हो गया। उनमें से अक्सर ने कहा कि रसूल ﷺ ने हमें जो इतनी ताकीद फ़रमायी थी वह तो शिकस्त की सूरत में थी, अब तो फ़तह हो गयी है, लिहाज़ा अब हमें भी चल कर माले गनीमत जमा करने में बाक़ी सब लोगों का साथ देना चाहिये। हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर रज़ि० वहाँ के लोकल कमांडर थे, वह उन्हें मना करते रहे कि यहाँ से हरगिज़ मत हटो, रसूल अल्लाह ﷺ का हुक्म याद रखो। लेकिन वह तो हुज़ूर ﷺ के हुक्म की तावील कर चुके थे। उनमें से 35 अफ़राद दर्रा छोड़ कर चले गये और सिर्फ़ 15 बाक़ी रह गये।

खालिद बिन वलीद (जो उस वक़्त तक ईमान नहीं लाये थे) मुशरिकीन की घुड़सवार फ़ौज (cavalry) के कमांडर थे। उनकी उक़ाबी निगाह ने देख लिया कि वह दर्रा खाली है। उनकी पैदल फ़ौज (infantry) शिकस्त खा चुकी थी और भगदड़ मच चुकी थी। ऐसे में वह अपने दो सौ घुड़सवारों के दस्ते के साथ ओहद का चक्कर काट कर पुश्त से उस दर्रे के रास्ते मुस्लमानों पर हमलावर हो गये। दर्रे पर सिर्फ़ 15 तीर अंदाज़ बाक़ी थे, उनके लिये दो सौ घुड़सवारों की यलगार को रोकना मुमकिन नहीं था और वह मज़ाहमत (प्रतिरोध) करते हुए शहीद हो गये। इस अचानक हमले से यकायक जंग का पांसा पलट गया और मुस्लमानों की फ़तह शिकस्त में बदल गयी। सत्तर सहाबा किराम रज़ि० शहीद हो गये। रसूल अल्लाह ﷺ खुद भी ज़ख़्मी हो गये। खौद की कड़ियाँ आप ﷺ के रुख्सार में घुस गयीं और दन्दाने मुबारक शहीद हो गये। खून इतना बहा कि आप ﷺ पर बेहोशी तारी हो गयी, और यह भी मशहूर हो गया कि हुज़ूर ﷺ का इन्तेक़ाल हो गया है। इससे मुस्लमानों के हौंसले पस्त हो गये। लेकिन फिर जब रसूल अल्लाह ﷺ ने लोगों को पुकारा तो लोग हिम्मत करके जमा हुए। तब आप ﷺ ने यह फ़ैसला किया कि इस वक़्त पहाड़ पर चढ़ कर बचाव कर लिया जाये, और आप ﷺ तमाम मुस्लमानों को लेकर कोहे ओहद पर चढ़ गये। इस मौक़े पर अबु सुफ़ियान और खालिद बिन वलीद के माबैन इख्तलाफ़े राय हो गया। खालिद बिन वलीद का कहना था कि हमें उनके पीछे पहाड़ पर चढ़ना चाहिये और उन्हें ख़त्म करके ही दम लेना चाहिये। लेकिन अबु सुफ़ियान बड़े हक़ीक़त पसंद और ज़रीक शख्स थे। उन्होंने कहा कि नहीं, मुस्लमान ऊँचाई पर हैं, वह ऊपर से पत्थर फेंकेगे और तीर बरसायेंगे तो हमारे लिये शदीद जानी नुक़सान का अन्देशा है। हमने बद्र का बदला ले लिया है, यही बहुत है। चुनाँचे मुशरिकीन वहाँ से चले गये। मुताअला-ए-आयात से क़ब्ल गज़वा-ए-ओहद के सिलसिला-ए-वाक़िआत का यह इज्माली ख़ाका ज़हन में रहना चाहिये।

आयत 121

“(और ऐ नबी !) याद कीजिये जबकि सुबह को आप अपने घर से निकले थे और मुस्लमानों को जंग के मोर्चों में मामूर कर रहे थे।”وَاِذْ غَدَوْتَ مِنْ اَھْلِكَ تُبَوِّئُ الْمُؤْمِنِيْنَ مَقَاعِدَ لِلْقِتَالِ  ۭ

गज़वा-ए-ओहद की सुबह आप ﷺ हज़रत आयशा के हुजरे से बरामद हुए थे और जंग के मैदान में सफ़बंदी कर रहे थे, वहाँ मोर्चे मुअय्यन कर रहे थे और उनमें सहाबा किराम رضی اللہ عنھم को मामूर कर रहे थे           

“जबकि अल्लाह सब कुछ सुनने वाला जानने वाला है।”وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ      ١٢١؁ۙ

आयत 122

“जबकि तुम में से दो गिरोह बुज़दिली दिखाने पर आमादा हो गये थे”اِذْ ھَمَّتْ طَّاۗىِٕفَتٰنِ مِنْكُمْ اَنْ تَفْشَلَا  ۙ

उन्होंने कुछ कमज़ोरी दिखाई, हौसला छोड़ने लगे और उनके पाँव लड़खड़ाये।

“हालाँकि अल्लाह उनका पुश्त पनाह था।”وَاللّٰهُ وَلِيُّهُمَا  ۭ
“और अल्लाह ही पर तवक्कुल करना चाहिये अहले ईमान को।”وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ     ١٢٢؁

जंग के आगाज़ से पहले अन्सार के दो घरानों बनु हारसा और बनु सलमा के क़दम वक़्ती तौर पर डगमगा गये थे, बर-बनाये तबा-ए-बशरी उनके हौसले पस्त होने लगे थे और उन्होंने वापसी का इरादा कर लिया था, लेकिन अल्लाह तआला ने उनके दिलों को साबित अता फ़रमाया और उनके क़दमों को जमा दिया। फिर उनका ज़िक्र क़ुरान में कर दिया गया। और वह इस पर फ़ख्र करते थे कि हम वह लोग हैं जिनका ज़िक्र अल्लाह तआला ने क़ुरान में   {مِنْكُمْ} और { وَاللّٰهُ وَلِيُّهُمَا  ۭ } के अल्फ़ाज़ में किया है। गौरतलब बात यह है कि तीन सौ मुनाफ़िक़ीन जो मैदाने जंग से चले गये थे अल्लाह तआला ने उनका ज़िक्र तक नहीं किया। गोया वह इस लायक़ भी नहीं हैं कि उनका बराहे रास्त ज़िक्र किया जाये। अलबत्ता आख़िर में उनका ज़िक्र बिल्वास्ता तौर पर (indirectly) आयेगा।

आयत 123

“और अल्लाह ने तो तुम्हारी मदद बद्र में भी की थी जबकि तुम बहुत कमज़ोर थे।” وَلَقَدْ نَصَرَكُمُ اللّٰهُ بِبَدْرٍ وَّاَنْتُمْ اَذِلَّةٌ ۚ

गज़वा-ए-बद्र में एक हज़ार मुशरिकीन के मुक़ाबले में अहले ईमान सिर्फ़ तीन सौ तेरह थे, जबकि सबके पास तलवारें भी नहीं थीं। कुल आठ तलवारें थीं। कुफ्फ़ारे मक्का एक सौ घोड़ों का रिसाला लेकर आये थे और इधर सिर्फ़ दो घोड़े थे। उधर सात सौ ऊँट थे और इधर सत्तर ऊँट थे। इस सबके बावजूद अल्लाह ने तुम्हारी मदद की थी और तुम्हें अपने से ताक़तवर दुश्मन पर गलबा अता फ़रमाया था।         

“तो अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो ताकि तुम अल्लाह का (सही मायने में) शुक्र अदा कर सको।” فَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ     ١٢٣؁

आयत 124

“(ऐ नबी !) जब आप कह रहे थे अहले ईमान से कि क्या तुम्हारे लिये यह काफ़ी नहीं है कि तुम्हारा रब तुम्हारी मदद करे तीन हज़ार फ़रिश्तों से जो आसमान से उतरने वाले होंगे?” اِذْ تَقُوْلُ لِلْمُؤْمِنِيْنَ اَلَنْ يَّكْفِيَكُمْ اَنْ يُّمِدَّكُمْ رَبُّكُمْ بِثَلٰثَةِ اٰلٰفٍ مِّنَ الْمَلٰۗىِٕكَةِ مُنْزَلِيْنَ     ١٢٤؁ۭ

यानि ऐ मुस्लमानों! अगर मुक़ाबले में तीन हज़ार का लश्कर आ गया है तो क्या गम है। मैं तुम्हे खुशख़बरी देता हूँ कि अल्लाह तआला तुम्हारी मदद को तीन हज़ार फ़रिश्ते भेजेगा जो आसमान से उतरेंगे। अल्लाह तआला ने अपने नबी ﷺ की इस खुशख़बरी को, जो एक तरह से इस्तदआ (इच्छा) भी हो सकती थी, फ़ौरी तौर पर शर्फ़े क़ुबूलियत अता फ़रमाया और इसकी मंज़ूरी का ऐलान फ़रमा दिया।

आयत 125

“क्यों नहीं (ऐ मुस्लमानों!) अगर तुम सब्र करोगे और तक़वा की रविश पर रहोगे और अगर वह फ़ौरी तौर पर तुम पर हमलावर हो जायें” بَلٰٓى ۙاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا وَيَاْتُوْكُمْ مِّنْ فَوْرِھِمْ ھٰذَا
“तो तुम्हारा रब तुम्हारी मदद करेगा पाँच हज़ार फ़रिश्तों के ज़रिये से जो निशानज़दा घोड़ों पर आएँगे।” يُمْدِدْكُمْ رَبُّكُمْ بِخَمْسَةِ اٰلٰفٍ مِّنَ الْمَلٰۗىِٕكَةِ مُسَوِّمِيْنَ     ١٢٥؁

आयत 126

“और अल्लाह ने इसको नहीं बनाया मगर तुम्हारे लिये बशारत” وَمَا جَعَلَهُ اللّٰهُ اِلَّا بُشْرٰى لَكُمْ
“और ताकि तुम्हारे दिल इससे मुत्मईन हो जायें।” وَلِتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُكُمْ بِهٖ ۭ
“वरना मदद तो होनी ही अल्लाह की तरफ़ से है जो ग़ालिब और हिकमत वाला है।”وَمَا النَّصْرُ اِلَّا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ الْعَزِيْزِ الْحَكِيْمِ     ١٢٦؁ۙ

यह तो अल्लाह तआला की तरफ़ से बशारत के तौर पर तुम्हारे दिलों के इत्मिनान के लिये तुम्हें बता दिया गया है, वरना अल्लाह फ़रिश्तों को भेजे बगैर भी तुम्हारी मदद कर सकता है, वह “कुन-फ़-यकून” की शान रखता है। तुम्हें यह बशारत तुम्हारी तबअ बशरी के हवाले से दी गयी है कि अगर तीन हज़ार की तादाद में दुश्मन सामने हुआ तो तुम्हारी मदद को तीन हज़ार फ़रिश्ते उतार आएँगे, और अगर वह फ़ौरी तौर पर हमलावर हो गये तो हम पाँच हज़ार फ़रिश्ते भेज देंगे।

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आयत 127

“(और यह मदद वह तुम्हें इसलिये देगा) ताकि काफ़िरों का एक बाज़ू काट दे” لِيَقْطَعَ طَرَفًا مِّنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا
“या उन्हें ज़लील कर दे कि वह खाइब (असफ़ल) व खासिर (हारे हुए) होकर लौट जायें।” اَوْ يَكْبِتَھُمْ فَيَنْقَلِبُوْا خَاۗىِٕــبِيْنَ      ١٢٧؁

यह बात ज़हन में रहे कि यहाँ गज़वा-ए-ओहद के हालात व वाक़िआत और उन पर तबसिरा ज़मानी तरतीब से नहीं है। सबसे पहले रसूल अल्लाह ﷺ का अपने घर से निकल कर मैदाने जंग में मोर्चाबंदी का ज़िक्र हुआ। फिर उससे पहले का ज़िक्र हो रहा है जब ख़बरें पहुँची होंगी कि तीन हज़ार का लश्कर मदीना पर हमलावर होने के लिये आ रहा है और रसूल अल्लाह ﷺ ने अहले ईमान को अल्लाह तआला की मदद व नुसरत की खुशखबरी दी होगी। अब इस जंग के दौरान मुस्लमानों से जो कुछ खताएँ और गलतियाँ हुईं उनकी निशानदेही की जा रही है। खुद आँहुज़ूर ﷺ से भी ख़ता का एक मामला हुआ, उस पर भी गिरफ्त है, बल्कि सबसे पहले उसी मामले को लाया जा रहा है। जब आप ﷺ शदीद ज़ख़्मी हो गये और आप ﷺ पर बेहोशी तारी हो गयी, फिर जब होश आया तो आप ﷺ की ज़बान पर यह अल्फ़ाज़ आ गये:

کَیْفَ یُفْلِحُ  قَوْمٌ خَضَبُوْا وَجْہَ نَبِیِّھِمْ بِالدَّمِ وَھُوَ یَدْعُوْھُمْ اِلٰی اللہِ

“यह क़ौम कैसे फ़लाह पायेगी जिसने अपने नबी के चेहरे को खून से रंग दिया जबकि वह उन्हें अल्लाह की तरफ़ बुला रहा था!”

तलवार का वार आँहुज़ूर ﷺ के रुख्सार की हड्डी पर पड़ा था और उससे आप ﷺ के दो दाँत भी शहीद हो गये थे। ज़ख्म से खून का फ़व्वारा छूटा था जिससे आप ﷺ का पूरा चेहरा मुबारक लहूलुहान हो गया था। खून इतनी मिक़दार में बह गया था कि आप ﷺ पर बेहोशी तारी हो गयी। आप ﷺ होश में आये तो ज़बाने मुबारक से यह अल्फ़ाज़ अदा हो गये। इस पर यह आयत नाज़िल हुई:  {…. لَيْسَ لَكَ مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ } ऐ नबी ﷺ इस मामले में आप ﷺ का कोई इख़्तियार नहीं है, आप ﷺ का काम दावत देना और तब्लीग करना है। लोगों की हिदायत और ज़लालत के फ़ैसले हम करते हैं। और देखिये अल्लाह ने क्या शान दिखाई? जिस शख्स की वजह से मुस्लमानों को हज़ीमत (हार) उठाना पड़ी, यानि खालिद बिन वलीद, अल्लाह तआला ने हुज़ूर ﷺ ही की ज़बाने मुबारक से उसे “سَیْفٌ مِنْ سُیُوْفِ اللہِ” (अल्लाह की तलवारों में से एक तलवार) का ख़िताब दिलवा दिया।

आयत 128

“(ऐ नबी !) इस मामले में आपको कोई इख़्तियार नहीं” لَيْسَ لَكَ مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ
“अल्लाह उनकी तौबा क़ुबूल करे या उन्हें अज़ाब दे” اَوْ يَتُوْبَ عَلَيْھِمْ اَوْ يُعَذِّبَھُمْ

यह अल्लाह के इख़्तियार में है, वह चाहेगा तो उनको तौबा की तौफ़ीक़ दे देगा, वह ईमान ले आएँगे, या अल्लाह चाहेगा तो उन्हें अज़ाब देगा।

“इसलिये कि वह ज़ालिम हैं।” فَاِنَّھُمْ ظٰلِمُوْنَ     ١٢٨؁

उनके ज़ालिम होने में कोई शुबह नहीं, लिहाज़ा वह सज़ा के हक़दार तो हो चुके हैं। लेकिन हो सकता है अल्लाह उन्हें हिदायत दे दे। देखिये, यह वक़्त-वक़्त की बात होती है। चंद साल पहले ताइफ़ में रसूल अल्लाह ﷺ से जिस तरह बदसुलूकी का मुज़ाहिरा किया गया वह आप ﷺ की ज़िन्दगी का शदीद-तरीन दिन था। इस पर जिब्राइल अलै० ने आकर कहा कि यह मलाकुल जिबाल (पहाड़ों का फ़रिश्ता) हाज़िर है। यह कहता है कि मुझे अल्लाह ने भेजा है, आप ﷺ फ़रमायें तो इन दोनों पहाड़ों को टकरा दूँ जिनके माबैन वादी के अन्दर यह शहर ताइफ़ आबाद है, ताकि यह सब पिस जायें, इनका सुरमा बन जाये। आप ﷺ ने फ़रमाया कि नहीं, क्या अजब कि अल्लाह तआला उनकी आइन्दा नस्लों को हिदायत दे दे। लेकिन यह वक़्त कुछ ऐसा था कि बरबनाये तबअ बशरी ज़बान मुबारक से वह जुमला निकल गया। इसलिये कि:

وَالْعَبْدُ عَبْدٌ وَاِنْ تَرَقّٰی  وَالرَّبُّ رَبٌّ وَاِنْ تَنَزَّلْ

“बंदा, बंदा ही रहता है चाहे कितना ही बुलन्द हो जाये, और रब, रब ही है चाहे कितना ही नुज़ूल फ़रमा ले!”

आयत 129

“अल्लाह ही के लिये है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है।” وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ  ۭ
“वह जिसको चाहता है बख्श देता है और जिसको चाहता है अज़ाब देता है।” يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ
“और अल्लाह गफ़ूर व रहीम है।” وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ     ١٢٩؁ۧ

आयात 130 से 143 तक

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْ كُلُوا الرِّبٰٓوا اَضْعَافًا مُّضٰعَفَةً  ۠  وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ    ١٣٠؁ۚ وَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِىْٓ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ    ١٣١؁ۚ وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ     ١٣٢؁ۙ وَسَارِعُوْٓا اِلٰى مَغْفِرَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَجَنَّةٍ عَرْضُھَا السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ ۙ اُعِدَّتْ لِلْمُتَّقِيْنَ    ١٣٣؁ۙ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ فِي السَّرَّاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَالْكٰظِمِيْنَ الْغَيْظَ وَالْعَافِيْنَ عَنِ النَّاسِ ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ    ١٣٤؁ۚ وَالَّذِيْنَ اِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَةً اَوْ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ ذَكَرُوا اللّٰهَ فَاسْتَغْفَرُوْا لِذُنُوْبِھِمْ ۠ وَ مَنْ يَّغْفِرُ الذُّنُوْبَ اِلَّا اللّٰهُ ڞ وَلَمْ يُصِرُّوْا عَلٰي مَا فَعَلُوْا وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ    ١٣٥؁ اُولٰۗىِٕكَ جَزَاۗؤُھُمْ مَّغْفِرَةٌ مِّنْ رَّبِّھِمْ وَجَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا  ۭ وَنِعْمَ اَجْرُ الْعٰمِلِيْنَ    ١٣٦؁ۭ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ سُنَنٌ ۙ فَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ فَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ     ١٣٧؁ ھٰذَا بَيَانٌ لِّلنَّاسِ وَھُدًى وَّمَوْعِظَةٌ لِّلْمُتَّقِيْنَ     ١٣٨؁ وَلَا تَهِنُوْا وَلَا تَحْزَنُوْا وَاَنْتُمُ الْاَعْلَوْنَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ     ١٣٩؁ اِنْ يَّمْسَسْكُمْ قَرْحٌ فَقَدْ مَسَّ الْقَوْمَ قَرْحٌ مِّثْلُهٗ  ۭ وَتِلْكَ الْاَيَّامُ نُدَاوِلُھَا بَيْنَ النَّاسِ  ۚ وَلِيَعْلَمَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَتَّخِذَ مِنْكُمْ شُهَدَاۗءَ  ۭ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَ    ١٤٠؁ۙ وَلِيُمَحِّصَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَمْحَقَ الْكٰفِرِيْنَ    ١٤١؁ اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا يَعْلَمِ اللّٰهُ الَّذِيْنَ جٰهَدُوْا مِنْكُمْ وَيَعْلَمَ الصّٰبِرِيْنَ ١٤٢؁ وَلَقَدْ كُنْتُمْ تَـمَنَّوْنَ الْمَوْتَ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَلْقَوْهُ  ۠ فَقَدْ رَاَيْتُمُوْهُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ    ١٤٣؁ۧ

आयत 130

“ऐ अहले ईमान! सूद मत खाओ दोगुना-चौगुना बढ़ता हुआ” يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْ كُلُوا الرِّبٰٓوا اَضْعَافًا مُّضٰعَفَةً  ۠ 

यहाँ पर सूद मुरक्कब (compund interest) का ज़िक्र आया है जो बढ़ता-चढ़ता रहता है। वाज़ेह रहे कि शराब और जुए की तरह सूद की हुरमत के अहकाम भी तदरीजन (धीरे-धीरे) नाज़िल हुए हैं। सबसे पहले एक मक्की सूरत, सूरह रूम में इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह और सूद को एक-दूसरे के मक़ाबिल रख कर सूद की क़बाहत और शनाअत को वाज़ेह कर दिया गया:

 وَمَآ اٰتَيْتُمْ مِّنْ رِّبًا لِّيَرْبُوَا۟ فِيْٓ اَمْوَالِ النَّاسِ فَلَا يَرْبُوْا عِنْدَ اللّٰهِ  ۚ وَمَآ اٰتَيْتُمْ مِّنْ زَكٰوةٍ تُرِيْدُوْنَ وَجْهَ اللّٰهِ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْمُضْعِفُوْنَ   39؀

जैसे कि शराब और जुए की खराबी को सूरतुल बक़रह (आयत 219) में बयान कर दिया गया था। इसके बाद आयत ज़ेरे मुताअला में दूसरे क़दम के तौर पर महाजनी सूद (usury) से रोक दिया गया। हमारे यहाँ आज-कल भी ऐसे सूदखोर मौजूद हैं जो बहुत ज़्यादा शरह सूद पर लोगों को क़र्ज़ देते हैं और उनका खून चूस जाते हैं। तो यहाँ उस सूद की मज़म्मत आयी है। सूद के बारे में आखरी और हत्मी हुक्म 9 हिजरी में नाज़िल हुआ, लेकिन तरतीबे मुसहफ़ में वह सूरतुल बक़रह में है। वह पूरा रुकूअ (नम्बर 38) हम मुताअला कर चुके हैं। वहाँ पर सूद को दो टूक अंदाज़ में हराम क़रार दे दिया गया और सूदखोरी से बाज़ ना आने पर अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की तरफ़ से जंग का अल्टीमेटम दे दिया गया।

सवाल पैदा होता है कि गज़वा-ए-ओहद के हालत व वाक़िआत के दरमियान सूदखोरी की मज़म्मत क्यों बयान हुई? ऐसा महसूस होता है कि दर्रे पर मामूर पचास तीर अंदाज़ों में से पैंतीस अपनी जगह छोड़ कर जो चले गये थे तो उनके तहतुल शऊर में माले गनीमत की कोई तलब थी, जो नहीं होनी चाहिये थी। इस हवाले से सूदखोरी की मज़म्मत बयान की गयी कि यह भी इन्सान के अन्दर माल व दौलत से ऐसी मोहब्बत पैदा कर देती है जिसकी वजह से उसके किरदार में बड़े-बड़े खला पैदा हो सकते हैं।  

“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो ताकि तुम फ़लाह पाओ।” وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ   ١٣٠؁ۚ

आयत 131

“और उस आग से बचो जो काफ़िरों के लिये तैयार की गयी है।” وَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِىْٓ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ    ١٣١؁ۚ

आयत 132

“और अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करते रहो ताकि तुम पर रहम किया जाये।” وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ   ١٣٢؁ۙ

आयत 133

“और मुसाबक़त (competition) करो अपने रब की मगफ़िरत के हुसूल के लिये और उस जन्नत को हासिल करने के लिये जिसका फैलाव आसमानों और ज़मीन जितना है” وَسَارِعُوْٓا اِلٰى مَغْفِرَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَجَنَّةٍ عَرْضُھَا السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ ۙ
“वह तैयार की गयी है (और सँवारी गयी है) अहले तक़वा के लिये।” اُعِدَّتْ لِلْمُتَّقِيْنَ    ١٣٣؁ۙ

आयत 134

“वो लोग जो खर्च करते हैं कुशादगी में भी और तंगी में भी” الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ فِي السَّرَّاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ

यहाँ भी तक़ाबुल मुलाहिज़ा कीजिये कि सूद के मुक़ाबले में इन्फ़ाक़ का ज़िक्र हो रहा है।

“और वह अपने गुस्से को पी जाने वाले और लोगों की खताओं से दरगुज़र करने वाले हैं।” وَالْكٰظِمِيْنَ الْغَيْظَ وَالْعَافِيْنَ عَنِ النَّاسِ ۭ
“और अल्लाह तआला ऐसे मोहसिनीन को पसंद करता है।” وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ    ١٣٤؁ۚ

यह दर्जा-ए-अहसान है, जो इस्लाम और ईमान के बाद का दर्जा है।

आयत 135

“और जिनका हाल यह है कि अगर कभी उनसे किसी बेहयाई का इरतकाब हो जाये या अपने ऊपर कोई और ज़ुल्म कर बैठें तो फ़ौरन उन्हें अल्लाह याद आ जाता है” وَالَّذِيْنَ اِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَةً اَوْ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ ذَكَرُوا اللّٰهَ
“पस वह उससे अपने गुनाहों की बख्शीश माँगते हैं।” فَاسْتَغْفَرُوْا لِذُنُوْبِھِمْ ۠

यह मज़मून सूरतुन्निसा में आयेगा कि किसी मुस्लमान शख्स से अगर कोई खता हो जाये और वह फ़ौरन तौबा कर ले तो अल्लाह तआला ने अपने ऊपर वाजिब ठहरा लिया है कि उसकी तौबा ज़रूर क़ुबूल फ़रमायेगा।

“और कौन है जो माफ़ कर सके गुनाहों को सिवाय अल्लाह के?” وَ مَنْ يَّغْفِرُ الذُّنُوْبَ اِلَّا اللّٰهُ ڞ
“और वह अपने उस गलत फ़अल (काम) पर जानते-बूझते इसरार नहीं करते।” وَلَمْ يُصِرُّوْا عَلٰي مَا فَعَلُوْا وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ    ١٣٥؁

यानि ऐसा नहीं कि गुनाह पर गुनाह करते चले जा रहे हैं कि मौत आने पर तौबा कर लेंगे। उस वक़्त की तौबा तौबा नहीं है। एक मुस्लमान से अगर जज़्बात की रू में बह कर या भूल-चूक में कोई गुनाह सरज़द हो जाये और वह होश आने पर अल्लाह के हुज़ूर गिड़गिड़ाये, अज़मे मुसम्मम (वादा) करे कि दोबारा ऐसा नहीं करेगा, और पूरी पशेमानी के साथ समीम क़ल्ब से अल्लाह की जनाब में तौबा करे तो अल्लाह तआला उसकी तौबा क़ुबूल करने की ज़मानत देता है।

आयत 136

“यह हैं वह लोग कि जिनका बदला हैं उनके रब की तरफ़ से मगफ़िरत” اُولٰۗىِٕكَ جَزَاۗؤُھُمْ مَّغْفِرَةٌ مِّنْ رَّبِّھِمْ
“और वह बाग़ात कि जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी और वह उनमें हमेशा-हमेश रहेंगे।” وَجَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا  ۭ
“और क्या ही अच्छा बदला है अमल करने वालों के लिये।” وَنِعْمَ اَجْرُ الْعٰمِلِيْنَ    ١٣٦؁ۭ

आयत 137

“तुमसे पहले भी बहुत से हालात व वाक़िआत गुज़र चुके हैं” قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ سُنَنٌ ۙ
“तो ज़मीन में घूमो-फिरो” فَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ
“और देखो कि कैसा अंजाम हुआ झुठलाने वालों का!” فَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُكَذِّبِيْنَ     ١٣٧؁

क़ुरैश के तिजारती काफ़िले शाम (सीरिया) की तरफ़ जाते थे तो रास्ते में क़ौमे समूद का मसकन भी आता था और वह बस्तियाँ भी आती थीं जिनमें कभी हज़रत लूत अलै० ने तब्लीग की थी। उनके खण्डरात से इबरत हासिल करो कि उनके साथ क्या कुछ हुआ।

आयत 138

“यह वज़ाहत है लोगों के लिये और हिदायत और नसीहत है मुत्तक़ीन के हक़ में।” ھٰذَا بَيَانٌ لِّلنَّاسِ وَھُدًى وَّمَوْعِظَةٌ لِّلْمُتَّقِيْنَ   ١٣٨؁

आयत 139

“और ना कमज़ोर पड़ो और ना गम खाओ” وَلَا تَهِنُوْا وَلَا تَحْزَنُوْا
“और तुम ही सर बुलन्द रहोगे अगर तुम मोमिन हुए।” وَاَنْتُمُ الْاَعْلَوْنَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ   ١٣٩؁

यह आयत बहुत अहम है। यह अल्लाह तआला का पुख्ता वादा है कि तुम ही ग़ालिब व सरबुलन्द होगे, आखरी फ़तह तुम्हारी होगी, बशर्ते कि तुम मोमिन हुए। यह आयत हमें दावते फ़िक्र देती है कि आज दुनिया में जो हम ज़लील हैं, ग़ालिब व सरबुलन्द नहीं हैं, तो नतीजा क्या निकलता है? यह कि हमारे अन्दर ईमान नहीं है, हम हक़ीक़ी ईमान से महरूम हैं। हम जिस ईमान के मुद्दई हैं वह महज़ एक मौरूसी अक़ीदा है, यक़ीने क़ल्बी और conviction वाला ईमान नहीं है। यह हो नहीं सकता कि उम्मत के अन्दर हक़ीक़ी ईमान मौजूद हो और फिर भी वह दुनिया में ज़लील व ख्वार हो।

आयत 140

“अगर तुम्हें अब चरका लगा है तो तुम्हारे दुश्मन को भी ऐसा ही चरका इससे पहले लग चुका है।” اِنْ يَّمْسَسْكُمْ قَرْحٌ فَقَدْ مَسَّ الْقَوْمَ قَرْحٌ مِّثْلُهٗ  ۭ

अहले ईमान को गज़वा-ए-ओहद में इतनी बड़ी चोट पहुँची थी कि सत्तर सहाबा रज़ि० शहीद हो गये। उनमें हज़रत हमज़ा रज़ि० भी थे और मुसअब बिन उमैर रज़ि० भी। अन्सार का कोई घराना ऐसा नहीं था जिसका कोई फ़र्द शहीद ना हुआ हो। रसूल अल्लाह ﷺ और मुस्लमान जब मदीना वापस आये तो हर घर में कोहराम मचा हुआ था। उस वक़्त तक मय्यत पर बैन करने की मुमानियत नहीं हुई थी। औरतें मरसिये कह रही थीं, बैन (नौहा) कर रही थीं, मातम कर रही थीं। इस हालत में खुद आँहुज़ूर ﷺ की ज़बाने मुबारक से अल्फ़ाज़ निकल गये: لٰکِنَّ حَمْزَۃَ لَا بَوَاکِی لَہٗ!(1) “हाय हमज़ा के लिये तो कोई रोने वालियाँ भी नहीं है!” क्योंकि मदीना में हज़रत हमज़ा रज़ि० की कोई रिश्तेदार ख्वातीन नहीं थीं। हमज़ा रज़ि० तो मुहाजिर थे। अन्सार के घरानों की ख्वातीन अपने-अपने मकतूलों पर आँसू बहा रही थीं और बैन (नौहा) कर रही थीं। फिर अन्सार ने अपने घरों से जाकर ख्वातीन को हज़रत हमज़ा रज़ि० की हमशीरा हज़रत सफ़िया रज़ि० के घर भेजा कि वहाँ जाकर ताज़ियत करें। बहरहाल दुःख तो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को भी पहुँचा है। आख़िर आप ﷺ के सीने के अन्दर एक हस्सास दिल था, पत्थर का कोई टुकड़ा तो नहीं था। यहाँ अल्लाह तआला अहले ईमान की दिलजोई के लिये फ़रमा रहा है कि इतने ग़मगीन ना हो, इतने मलूल ना हो, इतने दिल गिरफ्ता ना हो। इस वक़्त अगर तुम्हें कोई चरका लगा है तो तुम्हारे दुश्मन को इस जैसा चरका इससे पहले लग चुका है। एक साल पहले उनके भी सत्तर अफ़राद मारे गये थे।

“यह तो दिन हैं जिनको हम लोगों में उलट-फेर करते रहते हैं।” وَتِلْكَ الْاَيَّامُ نُدَاوِلُھَا بَيْنَ النَّاسِ  ۚ

यह ज़माने के नशेबो फ़राज़ हैं जिन्हें हम लोगों के दरमियान गर्दिश देते रहते हैं। किसी क़ौम को हम एक सी कैफ़ियत में नहीं रखते।   

“और यह इसलिये होता है कि अल्लाह देख ले कि कौन हक़ीक़तन मोमिन हैं” وَلِيَعْلَمَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا

अगर इम्तिहान और आज़माइश ना आये, तकलीफ़ ना आये क़ुर्बानी ना देनी पड़े, कोई ज़क ना पहुँचे तो कैसे पता चले कि हक़ीक़ी मोमिन कौन है? इम्तिहान व आज़माइश से तो पता चलता है कि कौन साबित क़दम रहा। अल्लाह तआला जानना चाहता है, देखना चाहता है, ज़ाहिर करना चाहता है कि किसने अपना सब कुछ लगा दिया? किसने सब्र किया?  

“और वह चाहता है कि तुम में से कुछ को मक़ामे शहादत अता करे।” وَيَتَّخِذَ مِنْكُمْ شُهَدَاۗءَ  ۭ

उन्हें अपनी गवाही के लिये क़ुबूल कर ले।

“अल्लाह ज़ालिमों को पसंद नहीं करता।” وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَ    ١٤٠؁ۙ

अगर तुम्हें तकलीफ़ पहुँची है तो इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह ने कुफ्फ़ार की मदद की है और उनको पसंद किया है (माज़ अल्लाह!)

आयत 141

“और यह इसलिये हुआ है कि अल्लाह अहले ईमान को बिल्कुल पाक पाक-साफ़ कर दे और काफिरों को मिटा दे।” وَلِيُمَحِّصَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَيَمْحَقَ الْكٰفِرِيْنَ    ١٤١؁

मुस्लमानों में से ख़ास तौर पर अन्सारे मदीना की आज़माइश मतलूब है जो अभी ईमान लाये हैं, उनमें कुछ पुख्ता ईमान वाले हैं, कुछ कमज़ोर ईमान वाले हैं और कुछ मुनाफ़िक़ भी हैं। अल्लाह चाहता है कि वह पूरे तरीक़े से पुख्ता हो जायें, और अगर कोई कच्चा ही रहता है तो वह अहले ईमान से कट जाये, ताकि बहैसियते मज्मुई जमाती क़ुव्वत को कोई ज़ौफ़ (नुक़सान) ना पहुँचे। तो यह जो तुम्हारे अन्दर हर तरह के लोग गडमड हो गये हैं कि कुछ मोमिन सादिक़ हैं, पुख्ता ईमान वाले हैं, कुछ कमज़ोर ईमान वाले हैं और कुछ मुनाफ़िक़ भी हैं, तो अल्लाह तआला ने यह तम्हीस की है कि सबको छाँट कर अलग कर दिया है। चुनाँचे अब्दुल्लाह बिन उबइ और उसके तीन सौ साथियों के निफ़ाक़ का पर्दा चाक हो गया, वरना उनकी असलियत तुम पर कैसे ज़ाहिर होती? “बहस व तम्हीस” हम उर्दू में भी इस्तेमाल करते हैं। बहस के मायने हैं कुरेदना और तम्हीस अलग-अलग करना।

आयत 142

“क्या तुमने समझा था कि जन्नत में यूँ ही दाख़िल हो जाओगे?” اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ
“हालाँकि अभी तो अल्लाह ने देखा ही नहीं है तुम में से कौन वाक़िअतन (अल्लाह की राह में) जिहाद करने वाले हैं और सब्र व इस्तक़ामत का मुज़ाहिरा करने वाले हैं।” وَلَمَّا يَعْلَمِ اللّٰهُ الَّذِيْنَ جٰهَدُوْا مِنْكُمْ وَيَعْلَمَ الصّٰبِرِيْنَ ١٤٢؁

गोया ~ “अभी इश्क़ के इम्तिहान और भी हैं!” अभी तो तुम्हारे लिये इस रास्ते में कड़ी से कड़ी मंज़िलें आने वाली हैं। याद रहे कि यह मज़मून हम सूरतुल बक़रह की आयत 214 में पढ़ आये हैं। नोट कीजिये कि ज़ेरे मुताअला आयत का नम्बर 142 है, यानि हंदसों की सिर्फ़ तरतीब बदली है।

आयत 143

“और तुम तो मौत की तमन्ना कर रहे थे इससे पहले कि उससे मुलाक़ात होती।” وَلَقَدْ كُنْتُمْ تَـمَنَّوْنَ الْمَوْتَ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَلْقَوْهُ  ۠
“सो अब तुमने उसको देख लिया है अपनी आँखों से।” فَقَدْ رَاَيْتُمُوْهُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ    ١٤٣؁ۧ

यहाँ रुए सुखन उन लोगों की तरफ़ है जो नये-नये ईमान लाये थे और उनमें से ख़ास तौर पर नौजवानों ने कहा था कि हमें तो शहादत चाहिये और हम तो खुले मैदान में जाकर मुक़ाबला करेंगे। उनके जज़्बात पर थोड़ा सा तबसिरा हो रहा है कि उस वक़्त तो जोशे क़िताल और ज़ोक़े शहादत का इज़हार हो रहा था, अब तुमने मौत देख ली है ना! तो यह है मौत जिसे इन्सान इतनी आसानी के साथ क़ुबूल नहीं करता।

आयात 144 से 148 तक

وَمَا مُحَمَّدٌ اِلَّا رَسُوْلٌ ۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۭ اَفَا۟ىِٕنْ مَّاتَ اَوْ قُتِلَ انْقَلَبْتُمْ عَلٰٓى اَعْقَابِكُمْ ۭ وَمَنْ يَّنْقَلِبْ عَلٰي عَقِبَيْهِ فَلَنْ يَّضُرَّ اللّٰهَ شَـيْـــًٔـا  ۭ وَسَيَجْزِي اللّٰهُ الشّٰكِرِيْنَ     ١٤٤؁ وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تَمُوْتَ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ كِتٰبًا مُّؤَجَّلًا  ۭ وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الدُّنْيَا نُؤْتِھٖ مِنْھَا  ۚ وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الْاٰخِرَةِ نُؤْتِھٖ مِنْھَا  ۚ وَ سَنَجْزِي الشّٰكِرِيْنَ   ١٤٥؁ وَكَاَيِّنْ مِّنْ نَّبِيٍّ قٰتَلَ ۙ مَعَهٗ رِبِّيُّوْنَ كَثِيْرٌ  ۚ فَمَا وَهَنُوْا لِمَآ اَصَابَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَمَا ضَعُفُوْا وَمَا اسْتَكَانُوْا  ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الصّٰبِرِيْنَ    ١٤٦؁ وَمَا كَانَ قَوْلَھُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوْا رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَ اِسْرَافَنَا فِيْٓ اَمْرِنَا وَثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ   ١٤٧؁ فَاٰتٰىھُمُ اللّٰهُ ثَوَابَ الدُّنْيَا وَحُسْنَ ثَوَابِ الْاٰخِرَةِ  ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ    ١٤٨؁ۧ

आयत 144

“मुहम्मद () इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल हैं।”  وَمَا مُحَمَّدٌ اِلَّا رَسُوْلٌ ۚ

गज़वा-ए-ओहद के दौरान जब यह अफ़वाह उड़ गई कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ का इन्तेक़ाल हो गया है तो बाज़ लोग बहुत दिल गिरफ्ता हो गये कि अब किस लिये जंग करनी है? हज़रत उमर रज़ि० भी उनमें से थे। आप रज़ि० ने रसूल अल्लाह ﷺ की वफ़ात की ख़बर सुन कर तलवार फेंक दी और दिल बर्दाश्ता होकर बैठ गये कि अब हमने जंग करके क्या लेना है! यहाँ इस तर्ज़े अमल पर गिरफ़्त हो रही है कि तुम्हारा यह रवैय्या गलत था। मुहम्मद ﷺ इसके सिवा कुछ नहीं हैं कि वह अल्लाह के रसूल हैं, वह मअबूद तो नहीं हैं। तुम उनके लिये जिहाद नहीं कर रहे, बल्कि अल्लाह के लिये कर रहे हो, अल्लाह के दीन के गलबे के लिये अपने जान व माल क़ुर्बान कर रहे हो। मुहम्मद ﷺ तो अल्लाह के रसूल हैं।

“उनसे पहले भी बहुत से रसूल गुज़र चुके हैं।”قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۭ
“तो क्या अगर उनका इन्तेक़ाल हो जाये या क़त्ल कर दिये जायें तो तुम अपनी एड़ियों के बल लौट जाओगे?”اَفَا۟ىِٕنْ مَّاتَ اَوْ قُتِلَ انْقَلَبْتُمْ عَلٰٓى اَعْقَابِكُمْ ۭ

क्या इस सूरत में तुम उल्टे पाँव राहे हक़ से फिर जाओगे? क्या यही तुम्हारे दीन और ईमान की हक़ीक़त है?

“और जो कोई भी अपनी एड़ियों के बल लौट जायेगा वह अल्लाह का कुछ भी नुक़सान ना करेगा।”وَمَنْ يَّنْقَلِبْ عَلٰي عَقِبَيْهِ فَلَنْ يَّضُرَّ اللّٰهَ شَـيْـــًٔـا  ۭ
“हाँ अल्लाह बदला देगा शुक्र करने वालों को।”وَسَيَجْزِي اللّٰهُ الشّٰكِرِيْنَ     ١٤٤؁

हज़रत उमर रज़ि० चूँकि जज़्बाती इन्सान थे लिहाज़ा रसूल अल्लाह ﷺ की वफ़ात की ख़बर सुन कर हौंसला छोड़ गये। आप रज़ि० की तक़रीबन यही कैफ़ियत फिर हुज़ूर ﷺ के इन्तेक़ाल पर हो गयी थी। आप रज़ि० तलवार सूंत कर बैठ गये थे कि जो कहेगा कि मुहम्मद ﷺ का इन्तेक़ाल हो गया है मैं उसका सर उड़ा दूँगा। हज़रत अबु बक्र रज़ि० “सानी-ए-इस्लाम व गार-ओ-बदर व क़ब्र” उस वक़्त मदीना के मज़ाफ़ात में थे। आप रज़ि० आते ही सीधे अपनी बेटी हज़रत आयशा रज़ि० के हुजरे में गये। रसूल अल्लाह ﷺ के चेहरे मुबारक पर चादर थी, आप रज़ि० ने चादर हटाई और झुक कर आँहुज़ूर ﷺ की पेशानी को बोसा दिया और रो दिये। फिर कहा: ऐ अल्लाह के रसूल, मेरे माँ-बाप आप ﷺ पर क़ुर्बान! अल्लाह तआला आप ﷺ पर दो मौतें जमा नहीं करेगा। यानि अब दोबारा आप ﷺ पर मौत वारिद नहीं होगी, अब तो आप ﷺ को हयाते जावेदानी हासिल हो चुकी है। हज़रत अबु बक्र रज़ि० बाहर आये और लोगों से ख़िताब शुरू किया तो हज़रत उमर रज़ि० बैठ गये। हज़रत अबु बक्र रज़ि० ने अल्लाह तआला की हम्दो सना के बाद फ़रमाया: مَنْ کَانَ یَعْبُدُ مُحَمَّدًا فَاِنَّ مُحَمَّدًا قَدْ مَاتَ، وَمَنْ کَانَ یَعْبُدُ اللہَ فَاِنَّ اللہَ حَیٌّ لَا یَمُوْتُ  “जो कोई मुहम्मद ﷺ की इबादत करता था वह जान ले कि मुहम्मद ﷺ का इन्तेक़ाल हो चुका है, और जो कोई अल्लाह की इबादत करता था उसे मालूम हो कि अल्लाह तो ज़िन्दा है, जिसे मौत नहीं आयेगी।” इसके बाद आप रज़ि० ने यह आयत तिलावत फ़रमायी:

  وَمَا مُحَمَّدٌ اِلَّا رَسُوْلٌ ۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۭ اَفَا۟ىِٕنْ مَّاتَ اَوْ قُتِلَ انْقَلَبْتُمْ عَلٰٓى اَعْقَابِكُمْ ۭ وَمَنْ يَّنْقَلِبْ عَلٰي عَقِبَيْهِ فَلَنْ يَّضُرَّ اللّٰهَ شَـيْـــًٔـا  ۭ وَسَيَجْزِي اللّٰهُ الشّٰكِرِيْنَ     ١٤٤؁

हज़रत अबु बक्र रज़ि० की ज़बानी यह आयत सुन कर लोगों को ऐसे महसूस होता था कि जैसे यह आयत उसी वक़्त नाज़िल हुई हो।(1)

आयत 145

“और किसी जान के लिये यह मुमकिन नहीं है कि वह मर सके मगर अल्लाह के हुक्म से”وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تَمُوْتَ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ
“(हर एक की मौत का) वक़्त मुक़र्रर लिखा हुआ है।”كِتٰبًا مُّؤَجَّلًا  ۭ

अज्ले मुअय्यन के साथ हर एक का वक़्त तय है। लिहाज़ा इन्सान की बेहतरीन मुहाफ़िज़ खुद मौत है। आपकी मौत का जो वक़्त मुक़र्रर है उससे पहले कोई आपके लिये मौत नहीं ला सकता।

“जो कोई दुनिया का अज्र व सवाब चाहता है हम उसे उसमें से दे देते हैं।”وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الدُّنْيَا نُؤْتِھٖ مِنْھَا  ۚ
“और जो वाक़िअतन आख़िरत का अज्र चाहता है हम उसे उसमें से देंगे।”وَمَنْ يُّرِدْ ثَوَابَ الْاٰخِرَةِ نُؤْتِھٖ مِنْھَا  ۚ

यह मज़मून सूरतुल बक़रह की आयात 200-202 में हज के सिलसिले में आ चुका है।  

“और शुक्र करने वालों को हम भरपूर जज़ा देंगे।”وَ سَنَجْزِي الشّٰكِرِيْنَ   ١٤٥؁

आयत 146

“कितने ही नबी ऐसे गुज़रे हैं कि जिनके साथ होकर बहुत से अल्लाह वालों ने जंग की।”وَكَاَيِّنْ مِّنْ نَّبِيٍّ قٰتَلَ ۙ مَعَهٗ رِبِّيُّوْنَ كَثِيْرٌ  ۚ

ऐ मुस्लमानों! तुम्हारे साथ जो यह वाक़िया पेश आया है वह पहला तो नहीं है। अल्लाह के बहुत से नबी ऐसे गुज़रे हैं जिनकी मईयत (साथ) में बहुत सारे अल्लाह वालों ने, अल्लाह के मानने और चाहने वालों ने, अल्लाह के दीवानों और मतवालों ने, अल्लाह के गुलामों और आशिक़ों ने अल्लाह के दुश्मनों से जंगें की हैं। “رِبِّیْ” और “ربّائی” का लफ्ज़ आज भी यहूदियों के यहाँ इस्तेमाल होता है।

“तो अल्लाह की राह में जो भी तकलीफ़ें उन पर आयीं उस पर उन्होंने हिम्मत नहीं हारी”فَمَا وَهَنُوْا لِمَآ اَصَابَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ
“और ना उन्होंने कमज़ोरी दिखाई और ना ही (बातिल के आगे) सर निगो (सर झुकाना) हुए।”وَمَا ضَعُفُوْا وَمَا اسْتَكَانُوْا  ۭ
“और अल्लाह तआला को ऐसे ही साबिरों से मोहब्बत है।”وَاللّٰهُ يُحِبُّ الصّٰبِرِيْنَ    ١٤٦؁

तो ऐ मुस्लमानों! उनका किरदार अपनाओ और दिल गिरफ्ता ना हो।

आयत 147

“और उनका तो हर मरहले पर यही क़ौल होता था कि वह दुआ करते थे कि ऐ रब हमारे! बख्श दे हमें हमारे गुनाह और अगर हमसे अपने किसी मामले में हद से तजावुज़ हो गया हो तो उसे माफ़ फरमा दे”وَمَا كَانَ قَوْلَھُمْ اِلَّآ اَنْ قَالُوْا رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَ اِسْرَافَنَا فِيْٓ اَمْرِنَا
“और हमारे क़दमों को जमा दे और हमारी मदद फ़रमा काफ़िरों के मुक़ाबले में।”وَثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ   ١٤٧؁

हज़रत तालूत के साथियों की भी यही दुआ थी और सूरतुल बक़रह के इख्तताम पर आने वाली दुआ के अल्फ़ाज़ भी यही थे: { فَانْــصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ }।

आयत 148

“तो उन लोगों को अल्लाह तआला ने दुनिया का सवाब भी अता फ़रमाया और आख़िरत के सवाब का भी बहुत ही उम्दा हिस्सा अता किया।”فَاٰتٰىھُمُ اللّٰهُ ثَوَابَ الدُّنْيَا وَحُسْنَ ثَوَابِ الْاٰخِرَةِ  ۭ

उन्हें दुनिया की सरबुलन्दी भी दी, फ़तुहात से भी नवाज़ा और आख़िरत का बहतरीन अज्र भी अता फ़रमाया।  

“और अल्लाह तआला ऐसे ही मोहसिनीन को पसंद करता है।”وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِـنِيْنَ    ١٤٨؁ۧ

आयात 149 से 155 तक

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَرُدُّوْكُمْ عَلٰٓي اَعْقَابِكُمْ فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ   ١٤٩؁ بَلِ اللّٰهُ مَوْلٰىكُمْ ۚ وَھُوَ خَيْرُ النّٰصِرِيْنَ    ١٥٠؁ سَـنُلْقِيْ فِيْ قُلُوْبِ الَّذِيْنَ كَفَرُوا الرُّعْبَ بِمَآ اَشْرَكُوْا بِاللّٰهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهٖ سُلْطٰنًا  ۚ وَمَاْوٰىھُمُ النَّارُ  ۭ وَبِئْسَ مَثْوَى الظّٰلِمِيْنَ    ١٥١؁ وَلَقَدْ صَدَقَكُمُ اللّٰهُ وَعْدَهٗٓ اِذْ تَحُسُّوْنَھُمْ بِاِذْنِھٖ ۚ ﱑ اِذَا فَشِلْتُمْ وَ تَنَازَعْتُمْ فِي الْاَمْرِ وَعَصَيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَآ اَرٰىكُمْ مَّا تُحِبُّوْنَ  ۭ مِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الدُّنْيَا وَمِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الْاٰخِرَةَ  ۚ ثُمَّ صَرَفَكُمْ عَنْھُمْ لِيَبْتَلِيَكُمْ ۚ وَلَقَدْ عَفَا عَنْكُمْ ۭ وَاللّٰهُ ذُوْ فَضْلٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ   ١٥٢؁ اِذْ تُصْعِدُوْنَ وَلَا تَلْوٗنَ عَلٰٓي اَحَدٍ وَّالرَّسُوْلُ يَدْعُوْكُمْ فِيْٓ اُخْرٰىكُمْ فَاَثَابَكُمْ غَمًّـۢا بِغَمٍّ لِّكَيْلَا تَحْزَنُوْا عَلٰي مَا فَاتَكُمْ وَلَا مَآ اَصَابَكُمْ ۭ وَاللّٰهُ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ    ١٥٣؁ ثُمَّ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ الْغَمِّ اَمَنَةً نُّعَاسًا يَّغْشٰى طَاۗىِٕفَةً مِّنْكُمْ  ۙ وَطَاۗىِٕفَةٌ قَدْ اَهَمَّتْھُمْ اَنْفُسُھُمْ يَظُنُّوْنَ بِاللّٰهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ  ۭ يَقُوْلُوْنَ ھَلْ لَّنَا مِنَ الْاَمْرِ مِنْ شَيْءٍ ۭ قُلْ اِنَّ الْاَمْرَ كُلَّهٗ لِلّٰهِ  ۭ يُخْفُوْنَ فِيْٓ اَنْفُسِھِمْ مَّا لَا يُبْدُوْنَ لَكَ  ۭ يَقُوْلُوْنَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا ھٰهُنَا  ۭقُلْ لَّوْ كُنْتُمْ فِيْ بُيُوْتِكُمْ لَبَرَزَ الَّذِيْنَ كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقَتْلُ اِلٰى مَضَاجِعِھِمْ ۚ وَلِيَبْتَلِيَ اللّٰهُ مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِيْ قُلُوْبِكُمْ ۭ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ    ١٥٤؁ اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَلَّوْا مِنْكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ ۙ اِنَّمَا اسْتَزَلَّھُمُ الشَّـيْطٰنُ بِبَعْضِ مَا كَسَبُوْا ۚ وَلَقَدْ عَفَا اللّٰهُ عَنْھُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ     ١٥٥؁

आयत 149

“ऐ अहले ईमान! अगर तुम उन लोगों का कहना मानोगे जिन्होंने कुफ़्र की रविश इख़्तियार की है तो वह तुम्हें तुम्हारी एड़ियों के बल वापस ले जायेंगे”  يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَرُدُّوْكُمْ عَلٰٓي اَعْقَابِكُمْ
“फिर तुम बिल्कुल नामुराद होकर रह जाओगे।” فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ   ١٤٩؁

आयत 150

“हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा मौला तो अल्लाह है।” بَلِ اللّٰهُ مَوْلٰىكُمْ ۚ

तुम्हें यह समझना चाहिये कि तुम्हारा मौला, मददगार, पुश्तपनाह, साथी और हिमायती अल्लाह है।

“और वही है जो सबसे अच्छा मददगार है।” وَھُوَ خَيْرُ النّٰصِرِيْنَ    ١٥٠؁

आयत 151

“हम अनक़रीब काफ़िरों के दिलों में रौब डाल देंगे” سَـنُلْقِيْ فِيْ قُلُوْبِ الَّذِيْنَ كَفَرُوا الرُّعْبَ
“इस सबब से कि उन्होंने ऐसी चीज़ों को अल्लाह का शरीक ठहराया जिनके हक़ में उसने कोई सनद नहीं उतारी।” بِمَآ اَشْرَكُوْا بِاللّٰهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهٖ سُلْطٰنًا  ۚ
“और उनका ठिकाना जहन्नम है, और बहुत ही बुरा ठिकाना है उन ज़ालिमों के लिये।” وَمَاْوٰىھُمُ النَّارُ  ۭ وَبِئْسَ مَثْوَى الظّٰلِمِيْنَ    ١٥١؁

इस आयत में दरअसल तौजीह (खुलासा) बयान हो रही है कि गज़वा-ए-ओहद में मुशरिकीन वापस क्यों चले गये, जबकि उनको इस दर्जा खुली फ़तह हासिल हो चुकी थी और मुस्लमानों को हज़ीमत उठाना पड़ी थी। रसूल अल्लाह ﷺ और सहाबा किराम रज़ि० ने पहाड़ के ऊपर चढ़ कर पनाह ले ली थी। खालिद बिन वलीद कह रहे थे कि हमें उनका तअक़्क़ुब करना चाहिये और इस मामले को ख़त्म कर देना चाहिये। लेकिन अबु सुफ़ियान के दिल में अल्लाह ने उस वक़्त ऐसा रौब डाल दिया कि वह लश्कर को लेकर वहाँ से चले गये। वरना वाक़िअतन उस वक़्त सूरते हाल बहुत मख्दूश (बुरी) हो चुकी थी।

आयत 152

“और अल्लाह ने तो तुमसे (ताइद व नुसरत का) जो वादा किया था वह पूरा कर दिया जबकि तुन उनको तहे तैग़ (क़त्ल) कर रहे थे अल्लाह के हुक्म से।” وَلَقَدْ صَدَقَكُمُ اللّٰهُ وَعْدَهٗٓ اِذْ تَحُسُّوْنَھُمْ بِاِذْنِھٖ ۚ

गज़वा-ए-ओहद में जो आरज़ी शिकस्त हो गयी थी और मुस्लमानों को ज़क पहुँची थी, जिससे उनके दिल ज़ख़्मी थे उसके ज़िमन में अब यह आयत एक क़ौले फ़ैसल के अंदाज़ में आयी है कि देखो मुस्लमानों! तुम हमसे कोई शिकायत नहीं कर सकते, अल्लाह ने तुमसे ताइद व नुसरत का जो वादा किया था वह पूरा कर दिया था जबकि तुम उन्हें अल्लाह के हुक्म से क़त्ल कर रहे थे, गाजर-मूली की तरह काट रहे थे। तुम्हें फ़तह हासिल हो गयी थी और हमारा वादा पूरा हो चुका था।   

“यहाँ तक कि जब तुम ढीले पड़ गये और अम्र में तुमने झगड़ा किया” ﱑ اِذَا فَشِلْتُمْ وَ تَنَازَعْتُمْ فِي الْاَمْرِ

فَشِلْتُمْ का तर्जुमा बाज़ मुतर्जिमीन ने कुछ और भी किया है, लेकिन मेरे नज़दीक यहाँ नज़म (Discipline) को ढीला करना मुराद है। इस्लामी नज़मे जमाअत में सम-ओ-ताअत (Listen & Obey) को बुनियादी अहमियत हासिल है, और ज़ाहिर है कि सम-ओ-ताअत में एक ही शख्स की इताअत मक़सूद नहीं होती। रसूल अल्लाह ﷺ की इताअत भी फ़र्ज़ थी और आप ﷺ अगर किसी को अमीर मुक़र्रर करते तो उसकी इताअत भी फ़र्ज़ थी। हज़रत अबु हुरैरा रज़ि० रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

مَنْ اَطَاعَنِیْ فَقَدْ اَطَاعَ اللہَ، وَمَنْ عَصَانِیْ فَقَدْ عَصَی اللہَ، وَمَنْ اَطَاعَ اَمِیْرِیْ فَقَدْ اَطَانِیْ، وَمَنْ عَصٰی اَمِیْرِیْ فَقَدْ عَصَانِیْ

“जिसने मेरी इताअत की उसने अल्लाह की इताअत की, और जिसने मेरी नाफ़रमानी की उसने अल्लाह की नाफ़रमानी की। और जिसने मेरे मुक़र्रर करदा अमीर की इताअत की उसने मेरी इताअत की, और जिसने मेरे नामज़दकरदा अमीर की नाफ़रमानी की उसने मेरी नाफ़रमानी की।”

अगरचे रसूल अल्लाह ﷺ के हुक्म की तो उन्होंने तावील कर ली थी कि हुज़ूर ﷺ ने जो यह फ़रमाया था कि अगर हम सब भी अल्लाह की राह में क़त्ल हो जायें और तुम देखो कि चीलें और कव्वे हमारा गोश्त खा रहे हैं तब भी यहाँ से ना हटना, तो यह शिकस्त की सूरत में था, लेकिन अब तो फ़तह हो गयी है। चुनाँचे उन्होंने जान-बूझ कर अल्लाह के रसूल ﷺ के हुक्म की खिलाफ़वर्ज़ी नहीं की थी। लेकिन उन्होंने अपने मक़ामी अमीर (लोकल कमांडर) के हुक्म की खिलाफ़वर्ज़ी की थी। मेरे नज़दीक यहाँ “وَعَصَيْتُمْ” से यही हुक्म अदूली मुराद है, इस्लामी नज़मे जमाअत में ऊपर से लेकर नीचे तक, सिपहसालार से लेकर लोकल कमांडर तक, दर्जा-ब-दर्जा निज़ामे सम-ओ-ताअत की पाबंदी ज़रूरी है। फ़ौज का एक सिपहसालार है, लेकिन फिर पूरी फ़ौज के कईं हिस्से होते हैं और हर एक का एक अमीर होता है। मैसरह, मेमना, क़ल्ब और हरावल दस्ते वगैरह, हर एक का एक कमांडर होता है। अब अगर उन कमांडरों के अहकाम से सरताबी होगी तो ऐसी फ़ौज का जो अंजाम होगा वह मालूम है। चुनाँचे एक जमाअत के अन्दर दर्जा-ब-दर्जा जो भी निज़ामे सम-ओ-ताअत है उसकी पूरी-पूरी पाबन्दी ज़रूरी है।    

“और तुमने नाफ़रमानी की इसके बाद कि तुमने वह चीज़ देख ली जो तुम्हें महबूब है।” وَعَصَيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَآ اَرٰىكُمْ مَّا تُحِبُّوْنَ  ۭ

{ عَصَيْتُمْ} के बारे में वज़ाहत हो चुकी है कि इससे मुराद अल्लाह के रसूल ﷺ की नाफ़रमानी नहीं, बल्कि लोकल कमांडर की नाफ़रमानी है।          { مِّنْۢ بَعْدِ مَآ اَرٰىكُمْ مَّا تُحِبُّوْنَ  ۭ } से अक्सर मुफ़स्सिरीन ने माले ग़नीमत मुराद लिया है, कि दर्रे पर मामूर हज़रात माले ग़नीमत की तलब में दर्रा छोड़ कर चले गये, लेकिन मेरे नज़दीक यह बात दुरुस्त नहीं है। इसलिये कि माले ग़नीमत की तक़सीम का क़ानून तो गज़वा-ए-बद्र के बाद सूरतुल अन्फ़ाल में नाज़िल हो चुका था। उसकी रू से चाहे कोई शख्स कुछ जमा करे या ना करे उसे माले ग़नीमत में से बराबर का हिस्सा मिलेगा। यहाँ { مِّنْۢ بَعْدِ مَآ اَرٰىكُمْ مَّا تُحِبُّوْنَ  ۭ } से मुराद दरअसल “फ़तह” है और इसके लिये “القُرآن یُفسِّر بعضُہ بَعضًا” की रू से सूरतुस्सफ़ की यह आयत (आयत:13) हमारी रहनुमाई करती है:                { وَاُخْرٰى تُحِبُّوْنَهَا ۭ نَصْرٌ مِّنَ اللّٰهِ وَفَتْحٌ قَرِيْبٌ ۭ } गोया बंदा-ए-मोमिन को दुनिया में फ़तह व नुसरत महबूब होती है, लेकिन उसे इसको अपना मक़सूद नहीं बनाना। उसका मक़सूद अल्लाह की रज़ाजोई और अपने फ़र्ज़ की अदायगी है। बाक़ी कामयाबी या नाकामी अल्लाह की मर्ज़ी और उसकी हिकमत के तहत होती है। अल्लाह कब फ़तह लाना चाहता है वह बेहतर जानता है।        

“तुम में से वह भी हैं जो दुनिया चाहते हैं” مِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الدُّنْيَا

यानि वह ख्वाहिश रखते हैं कि दुनिया में फ़तह व नुसरत और कामयाबी हासिल हो जाये, हमारा बोल-बाला हो जाये, हमारी हुकूमत क़ायम हो जाये।

“और तुम में से वह भी हैं जो सिर्फ़ आख़िरत के तलबगार हैं।” وَمِنْكُمْ مَّنْ يُّرِيْدُ الْاٰخِرَةَ  ۚ
“फिर अल्लाह ने तुम्हारा रुख फेर दिया उनकी तरफ़ से ताकि तुम्हारी आज़माइश करे।” ثُمَّ صَرَفَكُمْ عَنْھُمْ لِيَبْتَلِيَكُمْ ۚ

पहले वह भाग रहे थे और तुम उनका तअक्क़ुब कर रहे थे, अब मामला उल्टा हो गया कि तुम पसपा (पीछे हटना) हो गये और अपनी जानें बचाने के लिये इधर-उधर जाये पनाह (बचने की जगह) ढूँढने लगे। तुम्हारी यह पसपाई तुम्हारे लिये आज़माइश थी।      

“और अल्लाह तुम्हें माफ़ कर चुका है।” وَلَقَدْ عَفَا عَنْكُمْ ۭ

तुम में से जिस किसी से जो भी खता हुई अल्लाह ने उसे माफ़ फ़रमा दिया।   

“और अल्लाह तआला अहले ईमान के हक़ में बहुत फ़ज़ल वाला है।” وَاللّٰهُ ذُوْ فَضْلٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ   ١٥٢؁

आयत 153

“याद करो, जबकि तुम (पहाड़ पर) चढ़े चले जा रहे थे (जान बचाने के लिये) और किसी की तरफ़ मुड़ कर भी नहीं देख रहे थे” اِذْ تُصْعِدُوْنَ وَلَا تَلْوٗنَ عَلٰٓي اَحَدٍ
“और रसूल () तुम्हें पुकार रहे थे तुम्हारे पीछे से” وَّالرَّسُوْلُ يَدْعُوْكُمْ فِيْٓ اُخْرٰىكُمْ

गज़वा-ए-ओहद में खालिद बिन वलीद के अचानक हमले से एक भगदड़ सी मच गयी थी। बाज़ सहाबा रज़ि० ने रसूल अल्लाह ﷺ को अपने हिफ़ाज़ती हिसार में ले लिया था और उन्होंने अपने जिस्मों को ढाल बना कर आँहुज़ूर ﷺ की हिफ़ाज़त की। बहुत से लोग सरासीमा (भौचक्के) होकर अपनी जान बचाने की खातिर भाग खड़े हुए। बाज़ कोहे ओहद पर चढ़े जा रहे थे। अल्लाह के रसूल ﷺ उन्हें पुकार-पुकार कर वापस बुला रहे थे।

“तो अल्लाह तआला तुम पर ग़म के बाद ग़म मुसलसल डालता रहा” فَاَثَابَكُمْ غَمًّـۢا بِغَمٍّ
“ताकि (आइन्दा के लिये तुम्हें यह सबक़ मिले कि) तुम ग़मगीन ना हुआ करो उस पर कि जो तुम्हारे हाथ से जाता रहे और ना उस तकलीफ़ पर कि जो तुम पर आ पड़े।” لِّكَيْلَا تَحْزَنُوْا عَلٰي مَا فَاتَكُمْ وَلَا مَآ اَصَابَكُمْ ۭ

यानि “रन्ज से खूंगर हुआ इन्सान तो मिट जाता है रन्ज!” आदमी को अगर कभी इत्तेफ़ाक़न ही रन्ज व ग़म का सामना करना पड़े तो उसका असर बहुत ज़्यादा होता है, लेकिन जब पे-दर-पे रन्ज व ग़म उठाने पड़ें तो उनकी शिद्दत में कमी वाक़ेअ हो जाती है। दामने ओहद में मुसलमानों को पे-दर-पे तकालीफ़ बर्दाश्त करना पड़ीं। सबसे बड़ा रन्ज जो पेश आया वह हुज़ूर ﷺ के इन्तेक़ाल की ख़बर थी, जिस पर किसी को अपने तन-बदन का तो होश ही नहीं रहा कि खुद उसको क्या ज़ख्म लगा है। इस तरह अल्लाह तआला ने उस वक़्त की कैफ़ियत में एक तख्फ़ीफ़ पैदा कर दी।         

“और अल्लाह बाख़बर है उससे जो तुम कर रहे थे।” وَاللّٰهُ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ    ١٥٣؁

आयत 154

“फिर उस ग़म के बाद अल्लाह तआला ने तुम पर इत्मिनान नाज़िल फ़रमाया” ثُمَّ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ الْغَمِّ اَمَنَةً
“यानि नींद जो तुम में से एक गिरोह पर तारी हो गयी” نُّعَاسًا يَّغْشٰى طَاۗىِٕفَةً مِّنْكُمْ  ۙ

इन्सान को नींद जो आती है यह इत्मिनाने क़ल्ब का मज़हर होती है कि जैसे अब उसने सब कुछ भुला दिया। ऐन हालते जंग में ऐसी कैफ़ियत अल्लाह की रहमत का मज़हर थी।   

“और एक गिरोह ऐसा था कि जिन्हें अपनी जानों की पड़ी हुई थी”  وَطَاۗىِٕفَةٌ قَدْ اَهَمَّتْھُمْ اَنْفُسُھُمْ
“वह अल्लाह के बारे में नाहक़ जहालत वाले गुमान कर रहे थे।” يَظُنُّوْنَ بِاللّٰهِ غَيْرَ الْحَقِّ ظَنَّ الْجَاهِلِيَّةِ  ۭ

अब्दुल्लाह बिन उबई और उसके तीन सौ साथी तो मैदाने जंग के रास्ते ही से वापस हो गये थे। उसके बाद भी अगर मुसलमानों की जमात में कुछ मुनाफ़िक़ीन बाक़ी रह गये थे तो उनका हाल यह था कि उस वक़्त उन्हें अपनी जानों के लाले पड़े हुए थे। ऐसी कैफ़ियत में उन्हें ऊँघ कैसे आती? उनका हाल तो यह था कि उनके दिलों में वसवसे आ रहे थे कि अल्लाह ने तो मदद का वादा किया था, लेकिन वह वादा पूरा नही हुआ, अल्लाह की बात सच्ची साबित नहीं हुई। इस तरह उनके दिल व दिमाग में खिलाफ़े हक़ीक़त ज़माना-ए-जाहिलियत के गुमान पैदा हो रहे थे।    

“वह कह रहे थे कि हमारे लिये भी इख़्तियार में कोई हिस्सा है या नहीं?” يَقُوْلُوْنَ ھَلْ لَّنَا مِنَ الْاَمْرِ مِنْ شَيْءٍ ۭ

यह वह लोग हो सकते हैं जिन्होंने जंग से क़ब्ल मशवरा दिया था (जैसे हुज़ूर ﷺ की अपनी राय भी थी) कि मदीने के अन्दर महसूर (बंद) रह कर जंग की जाये। जब उनके मशवरे पर अमल नही हुआ तो वह कहने लगे कि इन मामलात में हमारा भी कोई इख़्तियार है या सारी बात मुहम्मद (ﷺ) ही की चलेगी? यह भी जमाती ज़िन्दगी की एक ख़राबी है कि हर शख्स चाहता है कि मेरी बात भी मानी जाये, मेरी राय को भी अहमियत दी जाये। आख़िर हम सब अपने अमीर ही की राय क्यों मानते चले जायें? हमारा भी कुछ इख़्तियार है या नहीं?         

“कह दीजिये कि सारा मामला अल्लाह के इख़्तियार में है।” قُلْ اِنَّ الْاَمْرَ كُلَّهٗ لِلّٰهِ  ۭ
“(ऐ नबी ) यह अपने दिल में वह बात छुपा रहे हैं जो आप पर ज़ाहिर नहीं कर रहे।” يُخْفُوْنَ فِيْٓ اَنْفُسِھِمْ مَّا لَا يُبْدُوْنَ لَكَ  ۭ 

उनके दिल में क्या है, अब अल्लाह खोल कर बता रहा है।   

“यह (अपने दिल में) कहते हैं कि अगर इख़्तियार में हमारा भी कुछ हिस्सा होता तो हम यहाँ ना मारे जाते।” يَقُوْلُوْنَ لَوْ كَانَ لَنَا مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ مَّا قُتِلْنَا ھٰهُنَا  ۭ

अगर हमारी राय मानी जाती, हमारे मशवरे पर अमल होता तो हम यहाँ क़त्ल ना होते। यानि हमारे इतने लोग यहाँ पर शहीद ना होते।

“इनसे कहिये अगर तुम सबके सब अपने घरों में होते” قُلْ لَّوْ كُنْتُمْ فِيْ بُيُوْتِكُمْ
“तब भी जिन लोगों का क़त्ल होना मुक़द्दर था वह अपनी क़त्लगाहों तक पहुँच कर रहते।” لَبَرَزَ الَّذِيْنَ كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقَتْلُ اِلٰى مَضَاجِعِھِمْ ۚ

अल्लाह की मशीयत (मर्ज़ी) में जिनके लिये तय था कि उन्हें शहादत की खलअत फाखरह (लिबास) पहनाई जायेगी वह खुद-ब-खुद अपने घरों से निकाल आते और कशां-कशां (एक-एक करके) उन जगहों पर पहुँच जाते जहाँ उन्होंने खलअत शहादत ज़ेब तन करनी (पहननी) थी। यह तो अल्लाह तआला के फ़ैसले होते हैं, तुम्हारी तदबीर से उनका कोई ताल्लुक़ नहीं है।        

“और यह (मामला जो पेश आया) इसलिये था कि अल्लाह उसे आज़मा ले जो कुछ तुम्हारे सीनों में था” وَلِيَبْتَلِيَ اللّٰهُ مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ
“और ताकि वह बिल्कुल पाक और खालिस कर दे जो कुछ तुम्हारे दिलों में है।” وَلِيُمَحِّصَ مَا فِيْ قُلُوْبِكُمْ ۭ
“और अल्लाह तआला सीनों के अन्दर मख्फी (छुपी) बातों को भी जानता है।” وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ    ١٥٤؁

आयत 155

“तुम में से वह लोग जो मैदाने जंग से चले गये उस दिन जब दो गिरोह एक-दूसरे के मुक़ाबले में आये” اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَلَّوْا مِنْكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ ۙ

यह ऐसे मुख्लिस हज़रात का तज़किरा है जो अचानक हमले के बाद जंग की शिद्दत से घबरा कर अपनी जान बचाने के लिये वक़्ती तौर पर पीठ फेर गये। उनमें से कुछ लोग कोहे ओहद पर चढ़ गये थे और कुछ उससे ज़रा आगे बढ़ कर मैदान ही से बाहर चले गये थे। उनमें बाज़ कबार (सीनियर) सहाबा का नाम भी आता है। दरअसल यह भगदड़ मच जाने के बाद ऐसी अज़तरारी (emergency) कैफ़ियत थी कि उसमें किसी से भी किसी ज़ौफ़ (कमी) और कमज़ोरी का इज़हार हो जाना बिल्कुल क़रीने क़यास (मुमकिन सी) बात है।

“असल में शैतान ने उनके पाँव फिसला दिये थे उनके बाज़ अफ़आल (कामों) की वजह से।” اِنَّمَا اسْتَزَلَّھُمُ الشَّـيْطٰنُ بِبَعْضِ مَا كَسَبُوْا ۚ

किसी वक़्त कोई तक़सीर (गलती) हो गयी हो, कोई कोताही हो गयी हो, या किसी कमज़ोरी का इज़हार हो गया हो, यह मुख्लिस मुसलमानों से भी बईद (दूर) नहीं। ऐसा मामला हर एक से पेश आ सकता है। मासूम तो सिर्फ़ नबी होते हैं। इंसानी कमज़ोरियों की वजह से शैतान को मौक़ा मिल जाता है कि किसी वक़्त वह अड़ंगा लगा कर उस शख्स को फिसला दे, ख्वाह वह कितना ही नेक और कितना ही साहिबे रुतबा हो।      

“और अल्लाह उन्हें माफ़ कर चुका है।” وَلَقَدْ عَفَا اللّٰهُ عَنْھُمْ ۭ

यह अल्फ़ाज़ बहुत अहम हैं। बाज़ गुमराह फिरक़े इस बात को बहुत उछालते हैं और बाज़ सहाबा किराम रज़ि० की तौहीन करते हैं, उन पर तनक़ीद (आलोचना) करते हैं कि यह मैदाने जंग से पीठ दिखा कर भाग गये थे। लेकिन वह यह भूल जाते हैं कि अल्लाह तआला उनकी माफ़ी का ऐलान कर चुका है। इसके बाद अब किसी मुस्लमान के लिये जायज़ नहीं है कि उन पर ज़बाने तअन दराज़ (निंदा) करे।

“यक़ीनन अल्लाह तआला माफ़ फ़रमाने वाला और बुर्दबार है।” اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ     ١٥٥؁

आयात 156 से 180 तक

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَقَالُوْا لِاِخْوَانِھِمْ اِذَا ضَرَبُوْا فِي الْاَرْضِ اَوْ كَانُوْا غُزًّى لَّوْ كَانُوْا عِنْدَنَا مَا مَاتُوْا وَمَا قُتِلُوْا  ۚ لِيَجْعَلَ اللّٰهُ ذٰلِكَ حَسْرَةً  فِيْ قُلُوْبِھِمْ ۭ وَاللّٰهُ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ ۭ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ     ١٥٦؁ وَلَىِٕنْ قُتِلْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَوْ مُتُّمْ لَمَغْفِرَةٌ  مِّنَ اللّٰهِ وَرَحْمَةٌ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ    ١٥٧؁ وَلَىِٕنْ مُّتُّمْ اَوْ قُتِلْتُمْ لَاِالَى اللّٰهِ تُحْشَرُوْنَ    ١٥٨؁ فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ لِنْتَ لَھُمْ ۚ وَلَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيْظَ الْقَلْبِ لَانْفَضُّوْا مِنْ حَوْلِكَ ۠ فَاعْفُ عَنْھُمْ وَاسْتَغْفِرْ لَھُمْ وَشَاوِرْھُمْ فِي الْاَمْرِ ۚ فَاِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَي اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِيْنَ    ١٥٩؁ اِنْ يَّنْصُرْكُمُ اللّٰهُ فَلَا غَالِبَ لَكُمْ ۚ وَاِنْ يَّخْذُلْكُمْ فَمَنْ ذَا الَّذِيْ يَنْصُرُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِھٖ  ۭوَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ    ١٦٠؁ وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ اَنْ يَّغُلَّ ۭ وَمَنْ يَّغْلُلْ يَاْتِ بِمَا غَلَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۚ ثُمَّ تُوَفّٰي كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ    ١٦١؁ اَفَمَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَ اللّٰهِ كَمَنْۢ بَاۗءَ بِسَخَطٍ مِّنَ اللّٰهِ وَمَاْوٰىهُ جَهَنَّمُ  ۭوَبِئْسَ الْمَصِيْرُ     ١٦٢؁ ھُمْ دَرَجٰتٌ عِنْدَ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ    ١٦٣؁ لَقَدْ مَنَّ اللّٰهُ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ اِذْ بَعَثَ فِيْھِمْ رَسُوْلًا مِّنْ اَنْفُسِھِمْ يَتْلُوْا عَلَيْھِمْ اٰيٰتِھٖ وَيُزَكِّيْھِمْ وَيُعَلِّمُھُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ  ۚ وَاِنْ كَانُوْا مِنْ قَبْلُ لَفِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ  ١٦٤؁ اَوَلَمَّآ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةٌ قَدْ اَصَبْتُمْ مِّثْلَيْھَا  ۙ قُلْتُمْ اَنّٰى هٰذَا  ۭ قُلْ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اَنْفُسِكُمْ  ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ    ١٦٥؁ وَمَآ اَصَابَكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ فَبِاِذْنِ اللّٰهِ وَلِيَعْلَمَ الْمُؤْمِنِيْنَ    ١٦٦؁ۙ وَلِيَعْلَمَ الَّذِيْنَ نَافَقُوْا ښ وَقِيْلَ لَھُمْ تَعَالَوْا قَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَوِ ادْفَعُوْا  ۭ قَالُوْا لَوْ نَعْلَمُ قِتَالًا لَّااتَّبَعْنٰكُمْ  ۭھُمْ لِلْكُفْرِ يَوْمَىِٕذٍ اَقْرَبُ مِنْھُمْ لِلْاِيْمَانِ ۚ يَقُوْلُوْنَ بِاَفْوَاهِھِمْ مَّا لَيْسَ فِيْ قُلُوْبِھِمْ ۭوَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا يَكْتُمُوْنَ    ١٦٧؁ۚ اَلَّذِيْنَ قَالُوْا لِاِخْوَانِھِمْ وَقَعَدُوْا لَوْ اَطَاعُوْنَا مَا قُتِلُوْا  ۭ قُلْ فَادْرَءُوْا عَنْ اَنْفُسِكُمُ الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ    ١٦٨؁ وَلَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ قُتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتًا ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ عِنْدَ رَبِّھِمْ يُرْزَقُوْنَ    ١٦٩؁ۙ فَرِحِيْنَ بِمَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِھٖ ۙ وَيَسْـتَبْشِرُوْنَ بِالَّذِيْنَ لَمْ يَلْحَقُوْا بِھِمْ مِّنْ خَلْفِھِمْ ۙ اَلَّا خَوْفٌ عَلَيْھِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ    ١٧٠؁ۘ يَسْتَبْشِرُوْنَ بِنِعْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَفَضْلٍ ۙ وَّاَنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُؤْمِنِيْنَ    ١٧١؁ڧ اَلَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِلّٰهِ وَالرَّسُوْلِ مِنْۢ بَعْدِ مَآ اَصَابَھُمُ الْقَرْحُ  لِلَّذِيْنَ اَحْسَنُوْا مِنْھُمْ وَاتَّقَوْا اَجْرٌ عَظِيْمٌ     ١٧٢؁ۚ اَلَّذِيْنَ قَالَ لَھُمُ النَّاسُ اِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوْا لَكُمْ فَاخْشَوْھُمْ فَزَادَھُمْ اِيْمَانًا ڰ وَّقَالُوْا حَسْبُنَا اللّٰهُ وَنِعْمَ الْوَكِيْلُ  ١٧٣؁ فَانْقَلَبُوْا بِنِعْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَفَضْلٍ لَّمْ يَمْسَسْھُمْ سُوْۗءٌ  ۙ وَّاتَّبَعُوْا رِضْوَانَ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ ذُوْ فَضْلٍ عَظِيْمٍ   ١٧٤؁ اِنَّمَا ذٰلِكُمُ الشَّيْطٰنُ يُخَوِّفُ اَوْلِيَاۗءَهٗ  ۠ فَلَا تَخَافُوْھُمْ وَخَافُوْنِ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ  ١٧٥؁ وَلَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِي الْكُفْرِ  ۚ اِنَّھُمْ لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَـيْــــًٔـا  ۭ يُرِيْدُ اللّٰهُ اَلَّا يَجْعَلَ لَھُمْ حَظًّا فِي الْاٰخِرَةِ  ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ      ١٧٦؁ اِنَّ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَـيْـــًٔـا  ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     ١٧٧؁ وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنَّمَا نُمْلِيْ لَھُمْ خَيْرٌ لِّاَنْفُسِھِمْ ۭ اِنَّمَا نُمْلِيْ لَھُمْ لِيَزْدَادُوْٓا اِثْمًا  ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ     ١٧٨؁ مَا كَانَ اللّٰهُ لِيَذَرَ الْمُؤْمِنِيْنَ عَلٰي مَآ اَنْتُمْ عَلَيْهِ حَتّٰى يَمِيْزَ الْخَبِيْثَ مِنَ الطَّيِّبِ ۭ وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيُطْلِعَكُمْ عَلَي الْغَيْبِ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَجْتَبِىْ مِنْ رُّسُلِھٖ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۠ فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِھٖ ۚ وَاِنْ تُؤْمِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَلَكُمْ اَجْرٌ عَظِيْمٌ      ١٧٩؁ وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ بِمَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِھٖ ھُوَ خَيْرًا لَّھُمْ ۭ بَلْ ھُوَ شَرٌّ لَّھُمْ ۭ سَيُطَوَّقُوْنَ مَا بَخِلُوْا بِهٖ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ وَلِلّٰهِ مِيْرَاثُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ      ١٨٠؁ۧ

आयत 156

“ऐ अहले ईमान! तुम उन लोगों की मानिंद ना हो जाना जिन्होंने कुफ़्र किया” يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا
“और जिन्होंने अपने भाइयों के बारे में जबकि वह ज़मीन में सफ़र पर निकले हुए थे या किसी जिहाद में शरीक थे (और वहाँ उनका इन्तेक़ाल हो गया) कहा कि अगर वह हमारे पास होते तो ना मरते, ना क़त्ल होते।” وَقَالُوْا لِاِخْوَانِھِمْ اِذَا ضَرَبُوْا فِي الْاَرْضِ اَوْ كَانُوْا غُزًّى لَّوْ كَانُوْا عِنْدَنَا مَا مَاتُوْا وَمَا قُتِلُوْا  ۚ

हर शख्स की मौत का वक़्त तो मुअय्यन है। वह अगर तुम्हारी गोद में बैठे हो तब भी मौत आ जायेगी। चाहे वह बहुत ही मज़बूत पहरे वाले क़िलों में हों मौत तो वहाँ भी पहुँच जायेगी। तो तुम इस तरह की बातें ना करो। यह तो काफ़िरों के अन्दाज़ की बातें हैं कि अगर हमारे पास होते और जंग में ना जाते तो बच जाते। यह सारी बातें दरहक़ीक़त ईमान के मनाफ़ी हैं। एक हदीस में आता है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ((فَاِنَّ لَوْ تَفْتَحُ عَمَلَ الشَّیْطَانِ))(1) “काश का लफ्ज़ शैतान के अमल का दरवाज़ा खोल देता है।” यानि यह कहना कि काश ऐसे हो जाता तो यूँ हो जाता, इस कलमे ही से शैतान का अमल शुरू हो जाता है। जो हुआ इसलिये हुआ कि अल्लाह तआला को उसका होना मंज़ूर था, उसकी हिकमतें उसे मालूम हैं, हम उसकी हिकमत का इहाता नहीं कर सकते।  

“(यह बात इसलिये इनकी ज़ुबान पर आती है) ताकि अल्लाह इसको उनके दिलों में हसरत का बाइस बना दे।” لِيَجْعَلَ اللّٰهُ ذٰلِكَ حَسْرَةً  فِيْ قُلُوْبِھِمْ ۭ

इस क़िस्म की बातों से अल्लाह तआला उनके दिलों में हसरत की आग जला देता है। यह भी गोया उनके कुफ़्र की सज़ा है।

“और देखो अल्लाह ही ज़िन्दा रखता है और वही मौत वारिद करता है।” وَاللّٰهُ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ ۭ
“और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उसे देख रहा है।” وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ     ١٥٦؁

आयत 157

“और अगर तुम अल्लाह की राह में क़त्ल हो जाओ या वैसे ही तुम्हें मौत आ जाये” وَلَىِٕنْ قُتِلْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَوْ مُتُّمْ
“तो अल्लाह तआला की तरफ़ से जो मगफ़िरत और रहमत तुम्हें मिलेगी वह कहीं बेहतर है उन चीज़ों से जो यह जमा कर रहे हैं।” لَمَغْفِرَةٌ  مِّنَ اللّٰهِ وَرَحْمَةٌ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ     ١٥٧؁

अगर दुनिया में 10-15 साल और जी लेते तो क्या कुछ जमा कर लेते? अल्लाह तआला ने तुम्हें शहादत की मौत दे दी, तुम्हारे लिये इससे बड़ी सआदत और क्या होगी!

आयत 158

“और चाहे तुम मरो या क़त्ल हो, बहरहाल अल्लाह ही के पास इकट्ठे किये जाओगे।” وَلَىِٕنْ مُّتُّمْ اَوْ قُتِلْتُمْ لَاِالَى اللّٰهِ تُحْشَرُوْنَ    ١٥٨؁

चाहे तुम्हें अपने बिस्तरों पर मौत आये और चाहे तुम क़त्ल हो, हर हाल में तुम्हें अल्लाह की जनाब में हाज़िर कर दिया जायेगा। तुम्हारी आखरी मंज़िल तो वही है, ख्वाह तुम बिस्तर पर पड़े हुए दम तोड़ दो या मैदाने जंग के अन्दर जामे शहादत नोश कर लो।

आयत 159

“(ऐ नबी !) यह तो अल्लाह की रहमत है कि आप इनके हक़ में बहुत नर्म हैं।” فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ لِنْتَ لَھُمْ ۚ

इस सूरह मुबारका की यह आयत भी बड़ी अहम है। जमाअती ज़िन्दगी में जो भी अमीर हो, साहिबे अम्र हो, जिसके पास ज़िम्मेदारियाँ हों, जिसके गिर्द उसके साथी जमा हों, उसे यह ख्याल रहना चाहिये कि आख़िर वह भी इन्सान हैं, उनके भी कोई जज़्बात और अहसासात हैं, उनकी इज़्ज़ते नफ्स भी है, लिहाज़ा उनके साथ नरमी की जानी चाहिये, सख्ती नहीं। वह कोई मुलाज़िम नहीं हैं, बल्कि रज़ाकार (volunteers) हैं। आँहुज़ूर ﷺ के साथ जो लोग थे वह कोई तनख्वाह याफ्ता सिपाही तो नहीं थे। यह लोग ईमान की बुनियाद पर जमा हुए थे। अब भी कोई दीनी जमाअत वजूद में आती है तो जो लोग उसमें काम कर रहे हैं वह दीनी जज़्बे के तहत जुड़े हुए हैं, लिहाज़ा उनके उमरा को उनके साथ नर्म रवैय्या इख़्तियार करना चाहिये। रसूल अल्लाह ﷺ को मुख़ातिब करके कहा जा रहा है कि यह अल्लाह की रहमत का मज़हर है कि आप ﷺ इनके हक़ में बहुत नर्म हैं।

“और अगर आप तंदखू और सख्त दिल होते तो यह आप के इर्द-गिर्द से मुन्तशिर हो जाते।” وَلَوْ كُنْتَ فَظًّا غَلِيْظَ الْقَلْبِ لَانْفَضُّوْا مِنْ حَوْلِكَ ۠

कोई कारवाँ से टूटा, कोई बदगुमाँ हरम से

कि अमीर कारवाँ मैं नहीं खोये दिल नवाज़ी!

“पस आप उनसे दरगुज़र करें”  فَاعْفُ عَنْھُمْ

चूँकि बाज़ सहाबा रज़ि० से इतनी बड़ी गलती हुई थी कि उसके नतीजे में मुसलमानों को बहुत बड़ा चरका लगा था, लिहाज़ा आँहुज़ूर ﷺ से कहा जा रहा है कि अपने इन साथियों के लिये अपने दिल में मैल मत आने दीजिये। इनकी गलती और कोताही को अल्लाह ने माफ़ कर दिया है तो आप ﷺ भी इन्हें माफ़ कर दें। आम हालात में भी आप इन्हें माफ़ करते रहा करें।  

“और इनके लिये मगफ़िरत तलब करें” وَاسْتَغْفِرْ لَھُمْ

इनसे जो भी खता हो जाये उस पर इनके लिये इस्तगफ़ार किया करें।

“और मामलात में इनसे मशवरा लेते रहें।” وَشَاوِرْھُمْ فِي الْاَمْرِ ۚ

ऐसा तर्ज़े अमल इख़्तियार ना करें कि आइन्दा उनकी कोई बात नहीं सुननी, बल्कि उनको भी मशवरे में शामिल रखिये। इससे भी बाहमी ऐतमाद पैदा होता है कि हमारा अमीर हमसे मशवरा करता है, हमारी बात को भी अहमियत देता है। यह भी दरहक़ीक़त इज्तमाई ज़िन्दगी के लिये बहुत ही ज़रूरी बात है।         

“फिर जब आप फ़ैसला कर लें तो अब अल्लाह पर तवक्कुल करें।” فَاِذَا عَزَمْتَ فَتَوَكَّلْ عَلَي اللّٰهِ ۭ

मशवरे के बाद जब आप ﷺ का दिल किसी राय पर मुत्मईन हो जाये और आप एक फ़ैसला कर लें तो अब किसी शख्स की बात की परवाह ना करें, अब सारा तवक्कुल अल्लाह की ज़ात पर हो। गज़वा-ए-ओहद से पहले रसूल अल्लाह ﷺ ने मशवरा किया था, उस वक़्त कुछ लोगों की राय वही थी जो आँहुज़ूर ﷺ की राय थी, यानि मदीना में महसूर होकर जंग की जाये। लेकिन कुछ हज़रात ने कहा हम तो खुले मैदान में जंग करना चाहते हैं, हमें तो शहादत की मौत चाहिये तो हुज़ूर ﷺ ने उनकी रिआयत की और बाहर निकलने का फ़ैसला फ़रमा दिया। इसके फ़ौरन बाद जब आप ﷺ हज़रत आयशा के हुजरे से बरामद हुए तो खिलाफ़े मामूल आप ﷺ ने ज़िरह पहनी हुई थी और हथियार लगाये हुए थे। इससे लोगों को अंदाज़ा हो गया कि कुछ सख्त मामला पेश आने वाला है। चुनाँचे उन लोगों ने कहा हुज़ूर ﷺ हम अपनी राय वापस लेते हैं, जो आप ﷺ की राय है आप उसके मुताबिक़ फ़ैसला कीजिये। लेकिन आप ﷺ ने फ़रमाया कि नहीं, यह फ़ैसला बरक़रार रहेगा। नबी को यह ज़ेबा नहीं है कि हथियार बाँधने के बाद जंग किये बगैर उन्हें उतार दे। यह आयत गोया नही अकरम ﷺ के तर्ज़े अमल की तौसीक़ में नाज़िल हुई है कि जब आप एक फ़ैसला कर लें तो अल्लाह पर तवक्कुल कीजिये।    

“यक़ीनन अल्लाह तआला तवक्कुल करने वालों को पसंद करता है।” اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَوَكِّلِيْنَ    ١٥٩؁

आयत 160

“(ऐ मुसलमानों! देखो) अगर अल्लाह तुम्हारी मदद करेगा तो कोई तुम पर ग़ालिब नही आ सकता।” اِنْ يَّنْصُرْكُمُ اللّٰهُ فَلَا غَالِبَ لَكُمْ ۚ
“और अगर वह तुम्हें छोड़ दे (तुम्हारी मदद से दस्त-कश हो जाये) तो कौन है जो तुम्हारी मदद करेगा इसके बाद?” وَاِنْ يَّخْذُلْكُمْ فَمَنْ ذَا الَّذِيْ يَنْصُرُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِھٖ  ۭ
“और अल्लाह ही पर तवक्कुल करना चाहिये ईमान वालों को।” وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ    ١٦٠؁

आयत 161

“और किसी नबी की यह शान नहीं है कि वह ख्यानत करे।” وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ اَنْ يَّغُلَّ ۭ

غَلَّ یَغُلُّ غُلُوْلًا के मायने हैं ख्यानत करना और माले ग़नीमत में से किसी चीज़ का चोरी कर लेना, जबकि غَلَّ یَغِلُّ غِلًّا के मायने दिल में कीना होने के हैं। रिवायात में आता है कि आँहुज़ूर ﷺ पर मुनाफ़िक़ों ने इल्ज़ाम लगाया था कि आप ﷺ ने माले ग़नीमत में कोई ख्यानत की है (माज़ अल्लाह सुम्मा माज़ अल्लाह!) यह उस इल्ज़ाम का जवाब दिया जा रहा है कि किसी नबी ﷺ की शान नहीं है कि वह ख्यानत का इरतकाब करे। अलबत्ता मौलाना इस्लाही साहब ने यह राय ज़ाहिर की है कि इस लफ्ज़ को सिर्फ़ माली ख्यानत के साथ मखसूस करने की कोई दलील नहीं। यह दरअसल मुनाफ़िक़ीन के उस इल्ज़ाम की तरदीद (इन्कार) है जो उन्होंने ओहद की शिकस्त के बाद रसूल अल्लाह ﷺ पर लगाया था कि हमने तो इस शख्स पर ऐतमाद किया, इसके हाथ पर बैत की, अपने नेक व बद का इसको मालिक बनाया, लेकिन यह इस ऐतमाद से बिल्कुल गलत फ़ायदा उठा रहे हैं और हमारे जान व माल को अपने ज़ाती हुसूलों और उमंगों के लिये तबाह कर रहे हैं। यह अरब पर हुकूमत करना चाहते हैं और इस मक़सद के लिये इन्होंने हमारी जानों को तख्ता-ए-मश्क़ बनाया है। यह सरीहन क़ौम की बदख्वाही और उसके साथ गद्दारी व बेवफ़ाई है। क़ुरान ने उनके इस इल्ज़ाम की तरदीद फ़रमायी है कि तुम्हारा यह इल्ज़ाम बिल्कुल झूठ है, कोई नबी अपनी उम्मत के साथ कभी बेवफ़ाई और बदअहदी नहीं करता। नबी जो क़दम भी उठाता है रज़ा-ए-इलाही की तलब में और उसके अहकाम के तहत उठाता है।         

“और जो कोई ख्यानत करेगा तो वह अपनी ख्यानत की हुई चीज़ समेत हाज़िर होगा क़यामत के दिन।” وَمَنْ يَّغْلُلْ يَاْتِ بِمَا غَلَّ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۚ

अल्लाह तआला के क़ानून-ए-जज़ा-ओ-सज़ा से एक नबी से बढ़ कर कौन बाख़बर होगा?

“फिर हर जान को पूरा-पूरा दे दिया जायेगा जो कुछ उसने कमाया होगा और उन पर कुछ ज़ुल्म ना होगा।” ثُمَّ تُوَفّٰي كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ    ١٦١؁

नोट कीजिये लफ्ज़ “تُوَفّٰی” यहाँ भी पूरा-पूरा दे दिये जाने के मायने में आया है।

आयत 162

“तो क्या भला वह शख्स जिसने अल्लाह की रज़ा की पैरवी की उसकी मानिंद हो जायेगा जो अल्लाह के ग़ज़ब और गुस्से को कमा कर लौटा?” اَفَمَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَ اللّٰهِ كَمَنْۢ بَاۗءَ بِسَخَطٍ مِّنَ اللّٰهِ
“और उसका ठिकाना जहन्नम है।” وَمَاْوٰىهُ جَهَنَّمُ  ۭ
“और वह बहुत ही बुरी जगह है पहुँचने की।” وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ     ١٦٢؁

आयत 163

“उनकी भी दर्जाबंदियाँ हैं अल्लाह के यहाँ।” ھُمْ دَرَجٰتٌ عِنْدَ اللّٰهِ ۭ

जैसे नेकोकारों के दर्जे हैं इसी तरह वहाँ बदकारों के भी दर्जे हैं। सब बदकार बराबर नहीं और सब नेकोकार बराबर नहीं।

“और जो कुछ यह कर रहे हैं अल्लाह उसे देख रहा है।” وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ    ١٦٣؁

अब आगे जो आयत आ रही है, यह मज़मून सूरतुल बक़रह में दो मरतबा आ चुका है। पहली मरतबा सूरतुल बक़रह के पंद्रहवें रुकूअ में हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माइल अलै० की दुआ (आयत:129) में यह मज़मून बाअल्फ़ाज़ आया था:

رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيْهِمْ رَسُوْلًا مِّنْھُمْ يَتْلُوْا عَلَيْهِمْ اٰيٰتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَيُزَكِّيْهِمْ ۭ

फिर अट्ठारहवें रुकूअ के आख़िर में यह अल्फ़ाज़ आये थे (आयत 151):

كَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْكُمْ رَسُوْلًا مِّنْكُمْ يَتْلُوْا عَلَيْكُمْ اٰيٰتِنَا وَيُزَكِّيْكُمْ وَيُعَلِّمُكُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَيُعَلِّمُكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ    ١٥١؀ړ

अब यह मज़मून तीसरी मरतबा यहाँ आ रहा है:

आयत 164

“दरहक़ीक़त अल्लाह ने यह बहुत बड़ा अहसान किया है अहले ईमान पर” لَقَدْ مَنَّ اللّٰهُ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ
“जब उनमें उठाया एक रसूल उन्ही में से” اِذْ بَعَثَ فِيْھِمْ رَسُوْلًا مِّنْ اَنْفُسِھِمْ

यानि उनकी अपनी क़ौम में से।

“जो तिलावत करके उन्हें सुनाता है उसकी आयात” يَتْلُوْا عَلَيْھِمْ اٰيٰتِھٖ
“और उन्हें पाक करता है” وَيُزَكِّيْھِمْ
“और तालीम देता है उन्हें किताब व हिकमत की।” وَيُعَلِّمُھُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ  ۚ

यह इन्क़लाबे नबवी ﷺ के असासी मन्हाज के चार अनासिर हैं, जिन्हें क़ुरान इसी तरतीब से बयान करता है: तिलावते आयात, तज़किया और तालीम किताब व हिकमत। हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माइल अलै० की दुआ में जो तरतीब थी, अल्लाह ने उसको तब्दील किया है। इस पर सूरतुल बक़रह आयत 151 के ज़ेल में गुफ्तगू हो चुकी है।

“और यक़ीनन इससे पहले (यानि रसूल की आमद से क़ब्ल) तो वह लाज़िमन खुली गुमराही के अन्दर मुब्तला थे।” وَاِنْ كَانُوْا مِنْ قَبْلُ لَفِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ    ١٦٤؁

आयत 165

“और क्या जब तुम पर एक मुसीबत आयी, जबकि तुम उससे दोगुनी मुसीबत उनको पहुँचा चुके हो तो तुम कहने लगे कि यह कहाँ से आ गई?” اَوَلَمَّآ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةٌ قَدْ اَصَبْتُمْ مِّثْلَيْھَا  ۙ قُلْتُمْ اَنّٰى هٰذَا  ۭ

यानि यह क्यों हो गया? अल्लाह ने पहले मदद की थी, अब क्यों नहीं की?

“(ऐ नबी ) कह दीजिये यह तुम्हारे अपने नफ्सों (की शरारत की वजह) से हुआ है।”  قُلْ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اَنْفُسِكُمْ  ۭ

गलती तुमने की थी, अमीर के हुक्म की खिलाफ़वर्ज़ी तुमने की थी, जिसका खामियाज़ा तुमको भुगतना पड़ा।

“यक़ीनन अल्लाह तो हर चीज़ पर क़ादिर है।” اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ     ١٦٥؁

गोया उसी मज़मून को यहाँ दोहरा कर लाया गया है जो पीछे आयत 152 में बयान हो चुका है कि अल्लाह तो वादा अपना कर चुका था और तुम दुश्मन पर ग़ालिब आ चुके थे, मगर तुम्हारी अपनी गलती की वजह से जंग का पांसा पलट गया। अल्लाह चाहता तो तुम्हें कोई सज़ा ना देता, बगैर सज़ा दिये माफ़ कर देता, लेकिन अल्लाह की हिकमत का तक़ाज़ा यह हुआ कि तुम्हें सज़ा दी जाये। इसलिये कि अभी तो बड़े-बड़े मराहिल आने हैं। अगर इसी तरह तुम नज़म को तोड़ते रहे और अहकाम की खिलाफ़वर्ज़ी करते रहे तो फिर तुम्हारी हैसियत एक जमाअत की तो नहीं होगी, फिर तो एक अनबूह होगा, “हुजूम-ए-मोमिनीन” होगा, जबकि अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने के लिये एक मुनज्ज़म जमाअत, लश्कर, फ़ौज, हिज़बुल्लाह दरकार है।

आयत 166

“और जो भी मुसीबत तुम पर आयी है उस दिन जब दोनों लश्कर आपस में भिड गये थे वह अल्लाह के इज़्न से आयी है” وَمَآ اَصَابَكُمْ يَوْمَ الْتَقَى الْجَمْعٰنِ فَبِاِذْنِ اللّٰهِ

अल्लाह के इज़्न के बगैर तो यह तकलीफ़ नहीं आ सकती थी।

“और यह इसलिये थी कि अल्लाह ज़ाहिर कर दे ईमान वालों को।” وَلِيَعْلَمَ الْمُؤْمِنِيْنَ    ١٦٦؁ۙ

यह ज़ाहिर हो जाये कि कौन हैं असल मोमिन, हक़ीक़ी मोमिन जो सब्र व इस्तक़ामत का मुज़ाहिरा करते हैं।

आयत 167

“और ताकि उन लोगों को भी ज़ाहिर कर दे जिन्होंने मुनाफ़क़त इख़्तियार की।” وَلِيَعْلَمَ الَّذِيْنَ نَافَقُوْا ښ

“لِیَعْلَمَ” के मायने हैं “ताकि जान ले” — लेकिन चूँकि अल्लाह तआला हर चीज़ का जानने वाला है लिहाज़ा ऐसे मक़ामात पर तर्जुमा किया जाता है: “ताकि अल्लाह ज़ाहिर कर दे।” जैसा की अल्लाह तआला ने वाक़िअतन ज़ाहिर कर दिया कि कौन मोमिन है और कौन मुनाफ़िक़! अब्दुल्लाह बिन उबई अपने तीन सौ साथियों को लेकर चला गया तो सब पर उनका निफ़ाक़ ज़ाहिर हो गया। अब आइन्दा अहले ईमान उनकी बात पर ऐतबार तो नहीं करेंगे, उनकी चिकनी-चुपड़ी बातें कान लगा कर तो नहीं सुनेंगे। तो अल्लाह तआला ने चाहा कि यह बिल्कुल वाज़ेह हो जाये कि Who is who & What is what?

“और उन (मुनाफ़िक़ों) से कहा गया कि आओ अल्लाह की राह में जंग करो या (कम से कम शहर का) दिफ़ा (बचाव) करो।” وَقِيْلَ لَھُمْ تَعَالَوْا قَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَوِ ادْفَعُوْا  ۭ

अब्दुल्लाह बिन उबई जब अपने तीन सौ आदमियों को लेकर वापस जा रहा था तो उस वक़्त उनसे कुछ लोगों ने कहा होगा कि बेवकूफों! कहाँ जा रहे हो? इस वक़्त तो लश्कर सामने है। अगर एक हज़ार में से तीन सौ आदमी निकाल जायेंगे तो बाक़ी लोगों के दिलों में भी कुछ ना कुछ कमज़ोरी पैदा होगी। अगर तुम मैदाने जंग में दुश्मन का मुक़ाबला नहीं कर सकते तो कम से कम मदीने के दिफ़ा के लिये तो कमरबस्ता (तैयार) हो जाओ। अगर मदीने पर हमला हुआ तो क्या होगा? अगर यहाँ पर यह लश्कर शिकस्त खा गया तो क्या दुश्मन तुम्हारी बहू-बेटियों को अपनी बांदियाँ (गुलाम) बना कर नहीं ले जायेंगे?

“उन्होंने कहा कि अगर हम समझते कि जंग होनी है तो हम ज़रूर तुम्हारा साथ देते।” قَالُوْا لَوْ نَعْلَمُ قِتَالًا لَّااتَّبَعْنٰكُمْ  ۭ

यानि यह तो दरहक़ीक़त नूराकुश्ती हो रही है, यह हक़ीक़त में जंग है ही नहीं। यह जो मक्के से मुहम्मद (ﷺ) के साथी मुहाजिरीन आये हैं और अब यह जो मक्का ही से लश्कर हम पर चढ़ाई करके आया है यह सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं और हमारा इनसे कोई सरोकार नहीं।        

“यह लोग उस दिन ईमान की निस्बत कुफ़्र से क़रीबतर थे।” ھُمْ لِلْكُفْرِ يَوْمَىِٕذٍ اَقْرَبُ مِنْھُمْ لِلْاِيْمَانِ ۚ 
“यह अपने मुँहों से वह बात कह रहे हैं जो इनके दिलों में नहीं है।” يَقُوْلُوْنَ بِاَفْوَاهِھِمْ مَّا لَيْسَ فِيْ قُلُوْبِھِمْ ۭ
“और अल्लाह उस चीज़ को खूब जानता है जो कुछ वह छुपा रहे हैं।”وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا يَكْتُمُوْنَ    ١٦٧؁ۚ

आयत 168

“यह वह लोग हैं जो खुद तो बैठे रहे और अपने (शहीद हो जाने वाले) भाइयों की निस्बत कहा कि अगर वह भी हमारे साथ आ गये होते तो क़त्ल ना होते।”اَلَّذِيْنَ قَالُوْا لِاِخْوَانِھِمْ وَقَعَدُوْا لَوْ اَطَاعُوْنَا مَا قُتِلُوْا  ۭ
“तो (ऐ नबी ) इनसे कहिये अच्छा अगर तुम (अपने इस क़ौल में) सच्चे हो तो अपनी जानों से मौत को हटा कर दिखा दो।”قُلْ فَادْرَءُوْا عَنْ اَنْفُسِكُمُ الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ  ١٦٨؁

क्या तुम अपने आप से मौत को टाल लोगे? खुद मौत से बचे रहोगे? क्या मौत तुम्हें अपने घरों में नहीं आयेगी?

आयत 169

“और हरगिज़ ना समझना उन लोगों को जो अल्लाह की राह में क़त्ल हो जायें कि वह मुर्दा हैं।”وَلَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ قُتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتًا ۭ

यही मज़मून क़ब्ल अज़ सूरतुल बक़रह में आ चुका है:

 وَلَا تَـقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتٌ ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ   ١٥٤؁

“बल्कि वह तो ज़िन्दा हैं, अपने रब के पास रिज़्क़ पा रहे हैं।”بَلْ اَحْيَاۗءٌ عِنْدَ رَبِّھِمْ يُرْزَقُوْنَ    ١٦٩؁ۙ

आयत 170

“शादाँ व फ़रहाँ हैं उस पर जो कुछ अल्लाह तआला ने उन्हें अपने फ़ज़ल से अता किया है”فَرِحِيْنَ بِمَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِھٖ ۙ
“और बशारत हासिल कर रहे हैं उन लोगों के बारे में जो उनके पीछे (दुनिया में) रह गये हैं और अभी उनसे नहीं मिले”وَيَسْـتَبْشِرُوْنَ بِالَّذِيْنَ لَمْ يَلْحَقُوْا بِھِمْ مِّنْ خَلْفِھِمْ ۙ
“कि ना उन पर कोई खौफ़ होगा और ना वह हुज़्न से दो-चार होंगे।”اَلَّا خَوْفٌ عَلَيْھِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ    ١٧٠؁ۘ

आयत 171

“वह खुशियाँ मना रहे हैं अल्लाह तआला की नेअमत की वजह से और उसके फ़ज़ल की बिना पर”يَسْتَبْشِرُوْنَ بِنِعْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَفَضْلٍ ۙ
“और इस बात पर कि अल्लाह तआला अहले ईमान के अज्र को ज़ाया नहीं करता।”وَّاَنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُؤْمِنِيْنَ    ١٧١؁ڧ

अब आगे जो आयात आ रही हैं उनके बारे में तारीख व सीरत की किताबों में दो क़िस्म की रिवायात आती हैं। एक तो यह कि कुफ्फ़ार की फ़ौज के वापस चले जाने के बाद रसूल अल्लाह ﷺ ने बाज़ ज़रूरी अमूर निबटाये और शुहदा की तद्फ़ीन (दफ़न) की। उसके बाद आप ﷺ को अचानक ख्याल आया कि यह कुफ्फ़ार चले तो गये हैं, लेकिन हो सकता है उन्हें अपनी गलती का अहसास हो कि इस वक़्त तो मुस्लमान इस हालत में थे कि हम उन्हें ख़त्म कर सकते थे, लिहाज़ा वह कहीं दोबारा पलट कर हमलावर ना हो जायें। चुनाँचे रसूल अल्लाह ﷺ ने मुसलमानों को क़ुरैश के तअक़्क़ुब के लिये तैयार हो जाने का हुक्म दिया, ताकि उन्हें मालूम हो जाये कि हमने हिम्मत नहीं हार दी। इसके बावजूद कि अहले ईमान के जिस्म ज़ख्मों से चूर-चूर थे, इतना बड़ा सदमा पहुँचा था, वह फिर तैयार हो गये और हुज़ूर ﷺ जाँनिसारों की एक जमाअत के साथ कुफ्फ़ार के तअक़्क़ुब में हमरा अल असद तक गये जो मदीना से 8 मील के फ़ासले पर है। इधर अबु सुफ़ियान को वाक़िअतन अपनी गलती का अहसास हो चुका था और वह मक़ामे रव्हा पर रुक कर अपनी फ़ौज की अज़सर नौ तंज़ीम करके वापस पलट कर मदीना पर हमलावर होने का इरादा कर रहा था। उधर से आने वाले एक ताजिर से उसने कहा भी था कि जाकर मुसलमानों को बता दो कि मैं बहुत बड़ा लश्कर लेकर दोबारा आ रहा हूँ। लेकिन जब अबु सुफ़ियान ने देखा कि मुसलमानों के अज़म व हौसले में कोई कमी नहीं आयी है और वह उनके तअक़्क़ुब में आ रहे हैं तो इरादा बदल लिया और लश्कर को मक्का की तरफ़ कूच का हुक्म दे दिया।

इसी तरह का एक और वाक़िया बयान होता है कि अबु सुफ़ियान जाते हुए यह कह गया था कि अब अगले साल बद्र में दोबारा मुलाक़ात होगी। यानि एक साल पहले बद्र में जंग हुई थी, अब ओहद में हमारा मुक़ाबला हो गया। अब अगले साल फिर हमारे और तुम्हारे दरमियान तीसरा मुक़ाबला बद्र में होगा। चुनाँचे अगले साल रसूल अल्लाह ﷺ सहाबा किराम (रज़ि०) को लेकर बद्र तक गये। यह मुहिम “बद्रे सुगरा” कहलाती है। उधर से अबु सुफ़ियान पूरे लाव-लश्कर के साथ आ गया और इस मरतबा भी कुछ लोगों के ज़रिये से अहले ईमान में खौफ़ व हरास फ़ैलाने की कोशिश की कि लोगो क्या कर रहे हो, क़ुरैश तो बहुत बड़ा लश्कर लेकर आ रहे हैं, तुम उसका मुक़ाबला ना कर पाओगे! तो इसके जवाब में मुसलमानों ने सब्र व तवक्कुल का मुज़ाहिरा किया और वह कलिमात कहे जो आगे आ रहे हैं। तो यह आयात दोनों वाक़िआत पर मुन्तबिक़ हो सकती हैं।

आयत 172

“जिन लोगों ने लब्बैक कही अल्लाह और रसूल की पुकार पर इसके बाद कि उनको चरका लग चुका था।”اَلَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِلّٰهِ وَالرَّسُوْلِ مِنْۢ بَعْدِ مَآ اَصَابَھُمُ الْقَرْحُ

यह आयत साबक़ा आयात के तसल्सुल में आयी है। यानि इस अज्रे अज़ीम के मुस्तहिक़ वह लोग ठहरेंगे जो कि ओहद की शिकस्त का ज़ख्म खाने के बाद भी उनके अज़म व ईमान का यह हाल है कि ज्यों ही अल्लाह और रसूल की जानिब से उन्हें एक ताज़ा मुहिम के लिये पुकारा गया वह फ़ौरन तैयार हो गये।

“उनमें से जो भी मोहसिनीन और मुत्तक़ीन हैं उनके लिये बहुत बड़ा अज्र है।”لِلَّذِيْنَ اَحْسَنُوْا مِنْھُمْ وَاتَّقَوْا اَجْرٌ عَظِيْمٌ     ١٧٢؁ۚ

आयत 173

“यह वह लोग हैं जिनसे लोगों ने कहा कि तुम्हारे खिलाफ़ बड़ी फ़ौजें जमा हो गयी हैं, पस उनसे डरो!”اَلَّذِيْنَ قَالَ لَھُمُ النَّاسُ اِنَّ النَّاسَ قَدْ جَمَعُوْا لَكُمْ فَاخْشَوْھُمْ
“तो इस बात ने उनके ईमान में और ज़्यादा इज़ाफ़ा कर दिया”فَزَادَھُمْ اِيْمَانًا ڰ
“और उन्होंने कहा अल्लाह हमारे लिये काफ़ी है और वही बेहतरीन कारसाज़ है।”وَّقَالُوْا حَسْبُنَا اللّٰهُ وَنِعْمَ الْوَكِيْلُ    ١٧٣؁

उसी का सहारा सबसे अच्छा सहारा है। चुनाँचे यह लोग बेख़ौफ़ होकर मुक़ाबले के लिये निकले।

आयत 174

“पस वह लौट आये अल्लाह की नेअमत और उसके फ़ज़ल के साथ”فَانْقَلَبُوْا بِنِعْمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَفَضْلٍ

अबु सुफ़ियान को जब पता चला कि मुहम्मद ﷺ हमारे तअक़्क़ुब में आ रहे हैं तो उसने आफ़ियत इसी में समझी कि सीधा मक्का मुकर्रमा की तरफ़ रुख कर लिया जाये। “बद्रे सुगरा” की मुहिम में भी यही हुआ कि जब उसने सुना कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ तो अपने पूरे साथियों के साथ मुक़ाबले पर आ गये हैं तो वह कन्नी कतरा कर और तरह देकर निकल गया और मुक़ाबले में नहीं आया।

“उनको किसी क़िस्म का भी ज़र्र नहीं पहुँचा”لَّمْ يَمْسَسْھُمْ سُوْۗءٌ  ۙ

उन्हें इस मुहिम में कोई तकलीफ़ नहीं पहुँची। यह अल्लाह की तरफ़ से एक आज़माइश थी जिसमें वह पूरे उतरे।

“और उन्होंने तो अल्लाह की रज़ा की पैरवी की।”وَّاتَّبَعُوْا رِضْوَانَ اللّٰهِ ۭ

उन्हें अल्लाह की रज़ा व खुशनुदी पर चलने का शर्फ़ हासिल हो गया।           

“और यक़ीनन अल्लाह तआला बड़े फ़ज़ल का मालिक है।وَاللّٰهُ ذُوْ فَضْلٍ عَظِيْمٍ     ١٧٤؁

आयत 175

“(ऐ मुसलमानों!) यह शैतान है जो तुम्हें डराता है अपने साथियों से”اِنَّمَا ذٰلِكُمُ الشَّيْطٰنُ يُخَوِّفُ اَوْلِيَاۗءَهٗ  ۠

वह तो चाहता है कि अपने साथी कुफ्फ़ार यानि हिज़्बुश्श्यतान का खौफ़ तुम पर तारी कर दे। इसके एक मायने यह भी लिये गये हैं कि शैतान अपने दोस्तों को डराता है। यानि शैतान की इस तख्वीफ़ का असर उन्हीं पर होता है जो उसके वली होते हैं, लेकिन जो औलिया अल्लाह हैं उन पर शैतान की तरफ़ से इस क़िस्म की वस्वसा अंदाज़ी का असर नहीं होता। 

“तो तुम उनसे ना डरो, मुझसे डरो”فَلَا تَخَافُوْھُمْ وَخَافُوْنِ
“अगर तुम मोमिने सादिक़ हो।”اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ    ١٧٥؁

आयत 176

“और (ऐ नबी ) यह लोग आपके लिये बाइसे गम ना बनें जो कुफ़्र के मामले में इस क़दर भाग-दौड़ कर रहे हैं।”وَلَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِي الْكُفْرِ  ۚ

मदीना के यहूद और मक्का के मुशरिकीन मुसलमानों के खिलाफ़ साज़-बाज़ में मसरूफ़ रहते। कभी यहूदियों का कोई वफ़द सरदाराने मक्का के पास जाकर कहता कि तुम मुसलमानों पर चढ़ाई करो, हम अन्दर से तुम्हारी मदद करेंगे। कभी क़ुरैश यहूदियों से राब्ता करते। गोया आज-कल की इस्तलाह में बड़ी Diplomatic Activity हो रही थी। इन हालात में रसूल अल्लाह ﷺ और आप ﷺ की वसातत से अहले ईमान को इत्मिनान दिलाया जा रहा है कि इनकी सरगर्मियों से रंजीदा ना हों, इनकी सारी रेशादवानियों की हैसियत सैलाब के ऊपर आ जाने वाले झाग के सिवा कुछ नहीं है।   

“वह अल्लाह को हरगिज़ कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगे।”اِنَّھُمْ لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَـيْــــًٔـا  ۭ
“अल्लाह चाहता है कि इनके लिये आख़िरत में कोई हिस्सा ना रखे।”يُرِيْدُ اللّٰهُ اَلَّا يَجْعَلَ لَھُمْ حَظًّا فِي الْاٰخِرَةِ  ۚ

यह गोया अल्लाह के इस फ़ैसले का ज़हूर है कि इनका आख़िरत में कोई हिस्सा ना हो।

“और उनके लिये तो बड़ा अज़ाब है।”وَلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ      ١٧٦؁

आयत 177

“यक़ीनन जिन लोगों ने ईमान हाथ से देकर कुफ़्र खरीद लिया वह अल्लाह को कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकते।”اِنَّ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ لَنْ يَّضُرُّوا اللّٰهَ شَـيْـــًٔـا  ۚ
“और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।”وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ      ١٧٧؁

आयत 178

“और मत समझें यह काफ़िर कि हम जो इन्हें मोहलत दे रहे हैं तो यह इनके हक़ में बेहतर है।”وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنَّمَا نُمْلِيْ لَھُمْ خَيْرٌ لِّاَنْفُسِھِمْ ۭ

काफ़िरों को मोहलत इसलिये मिलती है कि वह अपने कुफ़्र में और बढ़ जायें ताकि अपने आपको बुरे से बुरे अज़ाब का मुस्तहिक़ बना लें। अल्लाह उनको ढील ज़रूर देता है, लेकिन यह ना समझो कि यह ढील उनके हक़ में अच्छी है।  

“हम तो इनको सिर्फ़ इसलिये ढील देते हैं ताकि वह गुनाह में और इज़ाफ़ा कर लें।”اِنَّمَا نُمْلِيْ لَھُمْ لِيَزْدَادُوْٓا اِثْمًا  ۚ
“और उनके लिये अहानत आमेज़ अज़ाब होगा।”وَلَھُمْ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ     ١٧٨؁

आयत 179

“अल्लाह वह नहीं कि छोड़े रखे मुसलमानों को इस हालत में जिस पर तुम हो”مَا كَانَ اللّٰهُ لِيَذَرَ الْمُؤْمِنِيْنَ عَلٰي مَآ اَنْتُمْ عَلَيْهِ
“यहाँ तक कि वह ख़बीस को तय्यब से मुमय्यज़ (distinguish) कर दे।”حَتّٰى يَمِيْزَ الْخَبِيْثَ مِنَ الطَّيِّبِ ۭ

यह आयत भी फ़लसफ़ा-ए-आज़माइश के ज़िमन में बहुत अहम है कि अल्लाह तआला अपने नेक और सालेह बन्दों को तकलीफ़ में क्यों डालता है, हालाँकि वह तो क़ादिरे मुतलक़ है, आने वाहिद में जो चाहे कर सकता है। फ़रमाया जा रहा है कि यह बात अल्लाह की हिकमत के मुताबिक़ नहीं है कि वह तुम्हें उसी हाल में छोड़े रखे जिस पर तुम हो। अभी तुम्हारे अन्दर कमज़ोर और पुख्ता ईमान वाले गडमड हैं, बल्कि अभी तो मुनाफ़िक़ और मोमिन भी गडमड हैं। तो जब तक इन अनासिर को अलग-अलग ना कर दिया जाये और तुम्हारी इज्तमाइयत से यह तमाम नापाक अनासिर निकाल ना दिये जायें उस वक़्त तक तुम आइन्दा पेश आने वाले मुश्किल और कठिन हालात के लिये तैयार नहीं हो सकते। आगे तुम्हें सल्तनत रोमा से टकराना है, तुम्हें सल्तनत किसरा से टक्कर लेने है। अभी तो यह अन्दरून मुल्क अरब तुम्हारी जंगें हो रही हैं। इन आज़माइशों का मक़सद यह है कि तुम्हारी इज्तमाइयत की ततहीर (purge) होती रहे, यहाँ तक कि मुनाफ़िक़ीन और सादिक़ुल ईमान लोग बिल्कुल निखर कर अलैहदा हो जायें।

“और अल्लाह तआला का यह भी तरीक़ा नहीं है कि तुम्हें गैब की ख़बरें बताये”وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِيُطْلِعَكُمْ عَلَي الْغَيْبِ
“लेकिन (इस काम के लिये) अल्लाह मुन्तखब कर लेता है अपने रसूलों में से जिसको चाहता है।”وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَجْتَبِىْ مِنْ رُّسُلِھٖ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۠

वह अपने रसूलों में से जिसको चाहता है गैब के हालात भी बताता है। रसूलों को गैब अज़-खुद मालूम नहीं होता, अल्लाह के बताने से मालूम होता है। यानि इन आज़माइशों में क्या हिकमतें हैं और इनमें तुम्हारे लिये क्या खैर पिन्हा है, हर चीज़ हर एक को नहीं बतायी जायेगी, अलबत्ता यह चीज़ें हम अपने रसूलों को बता देते हैं।

“पस ईमान पुख्ता रखो अल्लाह पर और उसके रसूलों (अलै०) पर।”فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِھٖ ۚ
“और अगर तुम (यह दो शर्तें पूरी कर दोगे) ईमान में साबित क़दम रहोगे और तक़वा पर कारबंद रहोगे तो तुम्हारे लिये बहुत बड़ा अज्र है।”وَاِنْ تُؤْمِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَلَكُمْ اَجْرٌ عَظِيْمٌ      ١٧٩؁

आयत 180

“और ना ख्याल करें वो लोग जो बुख्ल कर रहे हैं उस माल में जो अल्लाह ने उन्हें दिया है अपने फ़ज़ल में से कि यह बुख्ल उनके हक़ में बेहतर है।”وَلَا يَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ بِمَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِھٖ ھُوَ خَيْرًا لَّھُمْ ۭ

ज़ाहिर बात है कि जब जंग-ए-ओहद के लिये तैयारी हो रही होगी तो हुज़ूर ﷺ ने मुसलमानों को इन्फ़ाक़े माल की दावत दी होगी ताकि असबाबे जंग फ़राहम किये जायें। लेकिन जिन लोगों ने दौलतमन्द होने के बावजूद बुख्ल किया उनकी तरफ़ इशारा हो रहा है कि उन्होंने बुख्ल करके जो अपना माल बचा लिया वह यह ना समझें कि उन्होंने कोई अच्छा काम किया है। यह माल अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़ल से अता किया था, इसमें बुख्ल से काम लेकर उन्होंने अच्छा नहीं किया।

“बल्कि यह उनके हक़ में बहुत बुरा है।”بَلْ ھُوَ شَرٌّ لَّھُمْ ۭ
“उसी माल के तौक़ बना कर उनकी गर्दनों में पहनाये जाएँगे जिसमें उन्होंने बुख्ल किया था, क़यामत के दिन।”سَيُطَوَّقُوْنَ مَا بَخِلُوْا بِهٖ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ
“और आसमानों और ज़मीन की विरासत बिलआख़िर अल्लाह ही के लिये है।”وَلِلّٰهِ مِيْرَاثُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ

दुनिया का माल-ओ-असबाब आज तुम्हारे पास है तो कल किसी और के पास चला जायेगा और बिलआख़िर सब कुछ अल्लाह के लिये रह जायेगा। आसमानों और ज़मीन की मीरास का हक़ीक़ी वारिस अल्लाह तआला ही है।

“और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उससे बाख़बर है।”وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ      ١٨٠؁ۧ

यहाँ वह छ: रुकूअ मुकम्मल हो गये हैं जो गज़वा-ए-ओहद के हालात व वाक़िआत और उन पर तबसिरे पर मुश्तमिल थे। इस सूरह मुबारका के आख़िरी दो रुकूअ की नौइयत “हासिले कलाम” की है। यह गोया concluding रुकूअ हैं।

आयात 181 से 189 तक

لَقَدْ سَمِعَ اللّٰهُ قَوْلَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ فَقِيْرٌ وَّنَحْنُ اَغْنِيَاۗءُ  ۘسَنَكْتُبُ مَا قَالُوْا وَقَتْلَھُمُ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ   ۙ وَّنَقُوْلُ ذُوْقُوْا عَذَابَ الْحَرِيْقِ      ١٨١؁ ذٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْكُمْ وَاَنَّ اللّٰهَ لَيْسَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيْدِ     ١٨٢؁ۚ اَلَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ عَهِدَ اِلَيْنَآ اَلَّا نُؤْمِنَ لِرَسُوْلٍ حَتّٰى يَاْتِيَنَا بِقُرْبَانٍ تَاْكُلُهُ النَّارُ  ۭ قُلْ قَدْ جَاۗءَكُمْ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِيْ بِالْبَيِّنٰتِ وَبِالَّذِيْ قُلْتُمْ فَلِمَ قَتَلْتُمُوْھُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ     ١٨٣؁ فَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقَدْ كُذِّبَ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِكَ جَاۗءُوْ بِالْبَيِّنٰتِ وَالزُّبُرِ وَالْكِتٰبِ الْمُنِيْرِ     ١٨٤؁ كُلُّ نَفْسٍ ذَاۗىِٕقَةُ الْمَوْتِ ۭ وَاِنَّمَا تُوَفَّوْنَ اُجُوْرَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ فَمَنْ زُحْزِحَ عَنِ النَّارِ وَاُدْخِلَ الْجَنَّةَ فَقَدْ فَازَ  ۭ وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَآ اِلَّا مَتَاعُ الْغُرُوْرِ     ١٨٥؁ لَتُبْلَوُنَّ فِيْٓ اَمْوَالِكُمْ وَاَنْفُسِكُمْ  ۣوَلَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَذًى كَثِيْرًا  ۭ وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ ذٰلِكَ مِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ      ١٨٦؁ وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَتُبَيِّنُنَّهٗ لِلنَّاسِ وَلَاتَكْتُمُوْنَهٗ ۡ فَنَبَذُوْهُ وَرَاۗءَ ظُهُوْرِھِمْ وَاشْتَرَوْا بِهٖ ثَمَـــنًا قَلِيْلًا  ۭ فَبِئْسَ مَا يَشْتَرُوْنَ     ١٨٧؁ لَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَفْرَحُوْنَ بِمَآ اَتَوْا وَّيُحِبُّوْنَ اَنْ يُّحْمَدُوْا بِمَا لَمْ يَفْعَلُوْا فَلَا تَحْسَبَنَّھُمْ بِمَفَازَةٍ مِّنَ الْعَذَابِ ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ      ١٨٨؁ وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭوَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ      ١٨٩؁ۧ

आयत 181

“अल्लाह ने सुन लिया है क़ौल उन लोगों का जिन्होंने कहा कि अल्लाह फ़क़ीर है और हम ग़नी हैं।” لَقَدْ سَمِعَ اللّٰهُ قَوْلَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ فَقِيْرٌ وَّنَحْنُ اَغْنِيَاۗءُ  ۘ

यह बात कहने वालों में मुनाफ़िक़ीन भी शामिल हो सकते हैं और यहूदी भी। जब रसूल अल्लाह ﷺ मुसलमानों को इन्फ़ाक़े माल की तरग़ीब देते थे कि अल्लाह को क़र्ज़े हस्ना दो तो यहूदियों और उनके ज़ेरे असर मुनाफ़िक़ों ने इसका मज़ाक उड़ाते हुए कहना शुरू कर दिया कि हाँ अल्लाह फ़क़ीर हो गया है और हमसे क़र्ज़ माँग रहा है, जबकि हम ग़नी हैं, हमारे पास दौलत है।           

“हम लिख रखेंगे जो कुछ उन्होंने कहा है” سَنَكْتُبُ مَا قَالُوْا

इन अल्फ़ाज़ में अल्लाह तआला की शदीद नाराज़गी झलकती है। अल्लाह तआला फ़ौरन तो गिरफ्त नहीं करता लेकिन एक वक़्त आयेगा जिस दिन उन्हें अपने इस क़ौल की पूरी सज़ा मिल जायेगी। और सिर्फ़ यही नहीं:         

“और इनके नाहक़ क़त्ल अम्बिया को भी (लिख रखेंगे)” وَقَتْلَھُمُ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ   ۙ

इससे पहले यह जो नबियों को नाहक़ क़त्ल करते रहे हैं इनका यह जुर्म भी इनके नामा-ए-आमाल में सब्त है।    

“और हम कहेंगे अब चखो मज़ा इस जला देने वाली आग़ के अज़ाब का।” وَّنَقُوْلُ ذُوْقُوْا عَذَابَ الْحَرِيْقِ      ١٨١؁

आयत 182

“यह सब कुछ तुम्हारे अपने ही हाथों ने आगे भेजा है” ذٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْكُمْ
“और अल्लाह तो अपने बन्दों के हक़ में हरगिज़ ज़ालिम नहीं है।” وَاَنَّ اللّٰهَ لَيْسَ بِظَلَّامٍ لِّلْعَبِيْدِ ١٨٢؁ۚ

आयत 183

“जो लोग यह कहते हैं कि अल्लाह ने हमसे एक अहद ले लिया था” اَلَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ عَهِدَ اِلَيْنَآ
“कि हम किसी रसूल पर ईमान ना लायें जब तक वह ऐसी क़ुर्बानी पेश ना करे जिसे आग़ खा जाये।” اَلَّا نُؤْمِنَ لِرَسُوْلٍ حَتّٰى يَاْتِيَنَا بِقُرْبَانٍ تَاْكُلُهُ النَّارُ  ۭ

यहाँ रुए सुखन फिर यहूद की तरफ़ हो गया है। नौए इन्सानी जब अहदे तफ़ूलियत (बचपन के दौर) में थी तो खर्क़े आदत चीज़ें बहुत हुआ करती थीं। उनमें से एक बात यह भी थी कि अगर कोई शख्स अल्लाह की जनाब में कोई जानवर ज़िबह करके पेश करता तो आसमान से एक आग़ उतरती जो उसे भस्म कर देती थी और यह इस बात की अलामत होती थी कि यह क़ुर्बानी क़ुबूल हो गयी। जैसे हाबील और क़ाबील के क़िस्से (अल मायदा:27) में आया है कि: { اِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا فَتُقُبِّلَ مِنْ اَحَدِهِمَا وَلَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْاٰخَرِ ۭ  } “जब दोनों ने क़ुर्बानी पेश की तो एक की क़ुर्बानी क़ुबूल हो गयी और दूसरे की क़ुबूल नहीं हुई।” यह पाता कैसे चला? ईद-उल-अज़हा के मौक़े पर हम जो क़ुर्बानियाँ करते हैं उनके बारे में हम नहीं जानते कि किसकी क़ुर्बानी क़ुबूल हुई और किसकी क़ुबूल नहीं हुई। यह तो अल्लाह ही जानता है। लेकिन पहले ऐसी हिस्सी अलामात होती थीं कि पता चल जाता था कि यह क़ुर्बानी अल्लाह ने क़ुबूल कर ली है। बनी इस्राईल के इब्तदाई दौर में भी यह निशानी मौजूद थी कि आसमान से उतरने वाली आग़ का क़ुर्बानी को भस्म कर देना उसकी क़ुबूलियत की अलामत थी। मदीने के यहूद ने कटहुज्जती का मुज़ाहिरा करते हुए कहा कि हमसे तो अल्लाह ने यह अहद ले लिया था कि हम किसी रसूल पर ईमान नहीं लायेंगे जब तक कि वह यह मौज्जज़ा ना दिखाये। तो अगर मौहम्मद (ﷺ) वाक़ई रसूल ﷺ हैं तो यह मौज्जज़ा दिखायें। उसका जवाब दिया जा रहा है:        

“(ऐ नबी ! इनसे) कहिये तुम्हारे पास मुझसे पहले बहुत से रसूल आ चुके हैं वाज़ेह मौज्जज़ों के साथ” قُلْ قَدْ جَاۗءَكُمْ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِيْ بِالْبَيِّنٰتِ
“और वह चीज़ भी लेकर आये जिसके लिये तुम कह रहे हो” وَبِالَّذِيْ قُلْتُمْ

उन्होंने सौ ख़तनी क़ुर्बानी का मौज्जज़ा भी दिखाया जिसका तुम मुतालबा कर रहे हो।

“फिर तुमने उन्हें क्यों क़त्ल किया अगर तुम सच्चे हो?” فَلِمَ قَتَلْتُمُوْھُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ     ١٨٣؁

आयत 184

“फिर (ऐ नबी ) अगर वह आप को झुठला दें” فَاِنْ كَذَّبُوْكَ

तो यह कोई तअज्जुब की बात नहीं। यह मामला सिर्फ़ आप ﷺ ही के साथ नहीं हुआ।          

“तो आप से पहले भी बहुत से रसूलों को झुठलाया जा चुका है” فَقَدْ كُذِّبَ رُسُلٌ مِّنْ قَبْلِكَ

यह तो इस रास्ते का एक आम तजुर्बा है, जिससे आप ﷺ को भी गुज़रना पड़ेगा।    

“जो आये थे वाज़ेह निशानियाँ और सहीफ़े और रोशन किताब लेकर।” جَاۗءُوْ بِالْبَيِّنٰتِ وَالزُّبُرِ وَالْكِتٰبِ الْمُنِيْرِ     ١٨٤؁

आयत 185

“हर ज़ी नफ्स को मौत का मज़ा चखना है।” كُلُّ نَفْسٍ ذَاۗىِٕقَةُ الْمَوْتِ ۭ

मौत तो एक दिन आकर रहनी है।

“और तुमको तुम्हारे आमाल का पूरा-पूरा बदला तो क़यामत ही के दिन दिया जायेगा।” وَاِنَّمَا تُوَفَّوْنَ اُجُوْرَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ
“तो जो कोई बचा लिया गया जहन्नम से और दाख़िल कर दिया गया जन्नत में तो वह कामयाब हो गया।” فَمَنْ زُحْزِحَ عَنِ النَّارِ وَاُدْخِلَ الْجَنَّةَ فَقَدْ فَازَ  ۭ

اللھم ربنا اجعلنا  منھم۔ ऐ अल्लाह! हमें भी उन लोगों में शामिल फरमाना!

“और यह दुनिया की ज़िन्दगी तो इसके सिवा कुछ नहीं की सिर्फ़ धोखे का सामान है।” وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَآ اِلَّا مَتَاعُ الْغُرُوْرِ     ١٨٥؁

आयत 186

“(मुसलमानों! याद रखो) तुम्हें लाज़िमन आज़माया जायेगा तुम्हारे मालों में भी और तुम्हारी जानों में भी।” لَتُبْلَوُنَّ فِيْٓ اَمْوَالِكُمْ وَاَنْفُسِكُمْ  ۣ

यह वही मज़मून है जो सूरतुल बक़रह के उन्नीसवे रुकूअ में गुज़र चुका है:     { وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ ۭ } (आयत:155) “और हम तुम्हें लाज़िमन आज़माएंगे किसी क़दर खौफ़ से भूख से और मालों, जानों और समरात (फलों) के नुक़सान से।” यहाँ मजहूल का सीगा है कि तुम्हें लाज़िमन आज़माया जायेगा, तुम्हारी आज़माइश की जायेगी तुम्हारे मालों में भी और तुम्हारी जानों में भी। कान खोल कर सुन लो कि यह ईमान का रास्ता फूलों की सेज नहीं है, यह काँटों भरा बिस्तर है। ऐसा नहीं होगा कि ठण्डे-ठण्डे और बगैर तकलीफ़ें उठाये तुम्हें जन्नत मिल जायेगी। सूरतुल बक़रह (आयत:214) में हम पढ़ चुके हैं कि “क्या तुमने यह समझ रखा है कि यूँही जन्नत में दाख़िल हो जाओगे हालाँकि अभी तो तुम पर वह हालात व वाक़िआत वारिद नहीं हुए जो तुमसे पहलों पर हुए थे…..”

“और तुम्हें लाज़िमन सुननी पड़ेंगी उन लोगों से भी जिन्हें तुमसे पहले किताब दी गयी थी और उनसे भी जिन्होंने शिर्क किया, बड़ी तकलीफ़देह बातें।” وَلَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَذًى كَثِيْرًا  ۭ

यह सब कुछ सुनों और सब्र करो। जैसे रसूल अल्लाह ﷺ से इब्तदा में कहा गया था: { وَاصْبِرْ عَلٰي مَا يَقُوْلُوْنَ وَاهْجُرْهُمْ هَجْرًا جَمِيْلًا} (अल मुज़म्मिल:10) “और उन बातों पर सब्र कीजिये जो यह लोग कहते हैं और वज़अदारी (गर्व) के साथ इनसे अलग हो जाइये।” आप ﷺ को क्या कुछ नहीं सुनना पड़ा। किसी ने कह दिया मजनून है, किसी ने कह दिया शायर है, किसी ने कहा साहिर है, किसी ने कहा मसहूर है। सूरतुल हिज्र के आख़िर में इरशाद है (आयत 97):   { وَلَقَدْ نَعْلَمُ اَنَّكَ يَضِيْقُ صَدْرُكَ بِمَا يَقُوْلُوْنَ} “(ऐ नबी ﷺ) हमें खूब मालूम है कि यह (मुशरिकीन) जो कुछ कह रहे हैं उससे आप ﷺ का सीना भिंचता है।” इनकी ज़बानों से जो कुछ आप ﷺ को सुनना पड़ रहा है उससे आप ﷺ को तकलीफ़ पहुँचती है, लेकिन सब्र कीजिये! वही बात मुसलमानों से कही जा रही है।

“और अगर तुम सब्र करते रहोगे (साबित क़दम रहोगे) और तक़वा की रविश इख़्तियार किये रखोगे तो बेशक यह बड़े हिम्मत के कामों में से है।” وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ ذٰلِكَ مِنْ عَزْمِ الْاُمُوْرِ  ١٨٦؁

आयत 187

“और याद करो जबकि अल्लाह ने उन लोगों से एक क़ौल व क़रार लिया था जिनको किताब दी गयी थी” وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ
“कि तुम लाज़िमन उसे लोगों के सामने वाज़ेह करोगे और उसे छुपाओगे नहीं” لَتُبَيِّنُنَّهٗ لِلنَّاسِ وَلَاتَكْتُمُوْنَهٗ ۡ
“तो उन्होंने उस अहद को पसे-पुश्त फ़ेंक दिया” فَنَبَذُوْهُ وَرَاۗءَ ظُهُوْرِھِمْ
“और उसकी बड़ी हक़ीर सी क़ीमत वसूल कर ली।” وَاشْتَرَوْا بِهٖ ثَمَـــنًا قَلِيْلًا  ۭ
“तो बहुत ही बुरी शय है जो वह (उसके बदले में) हासिल कर रहे हैं।” فَبِئْسَ مَا يَشْتَرُوْنَ      ١٨٧؁

आयत 188

“आप उनके बारे में ख्याल ना करें जो अपने किये पर ख़ुश होते हैं” لَا تَحْسَبَنَّ الَّذِيْنَ يَفْرَحُوْنَ بِمَآ اَتَوْا

अगर कुछ नेकी कर लेते हैं, किसी को कुछ दे देते हैं तो उस पर बहुत इतराते हैं, अकड़ते हैं कि हमने यह कुछ कर लिया है।

“और (इससे भी बढ़ कर) चाहते हैं कि उनकी तारीफ़ की जाये ऐसे कामों पर जो उन्होंने किये ही नहीं” وَّيُحِبُّوْنَ اَنْ يُّحْمَدُوْا بِمَا لَمْ يَفْعَلُوْا

आज कल इसकी सबसे बड़ी मिसाल स्पासनामे हैं, जो तक़रीबात में मदऊ (invited) शख्सियात को पेश किये जाते हैं। इन स्पासनामों में उन हज़रात के ऐसे-ऐसे कारहाये नुमाया बयान किये जाते हैं जो उनकी पुश्तों में से भी किसी ने ना किये हों। इस तरह उनकी ख़ुशामद और चापलूसी की जाती है और वह उसे पसंद करते हैं।

“तो उनके बारे में यह ख्याल ना करें कि वह अज़ाब से बच जायेंगे।” فَلَا تَحْسَبَنَّھُمْ بِمَفَازَةٍ مِّنَ الْعَذَابِ ۚ
“और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।” وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ      ١٨٨؁

आयत 189

“और अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन की बादशाही।” وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ
“और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।” وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ      ١٨٩؁ۧ

आयात 190 से 200 तक

اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّھَارِ لَاٰيٰتٍ لِّاُولِي الْاَلْبَابِ      ١٩٠؁ڌ الَّذِيْنَ يَذْكُرُوْنَ اللّٰهَ قِيٰمًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰي جُنُوْبِھِمْ وَيَتَفَكَّرُوْنَ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۚ رَبَّنَا مَا خَلَقْتَ هٰذَا بَاطِلًا  ۚ سُبْحٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ النَّارِ     ١٩١؁ رَبَّنَآ اِنَّكَ مَنْ تُدْخِلِ النَّارَ فَقَدْ اَخْزَيْتَهٗ ۭ وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ    ١٩٢؁ رَبَّنَآ اِنَّنَا سَمِعْنَا مُنَادِيًا يُّنَادِيْ لِلْاِيْمَانِ اَنْ اٰمِنُوْا بِرَبِّكُمْ فَاٰمَنَّاڰ رَبَّنَا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَكَفِّرْ عَنَّا سَيِّاٰتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ الْاَبْرَارِ  ١٩٣؁ۚ رَبَّنَا وَاٰتِنَا مَا وَعَدْتَّنَا عَلٰي رُسُلِكَ وَلَا تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭاِنَّكَ لَا تُخْلِفُ الْمِيْعَادَ      ١٩٤؁ فَاسْتَجَابَ لَھُمْ رَبُّھُمْ اَنِّىْ لَآ اُضِيْعُ عَمَلَ عَامِلٍ مِّنْكُمْ مِّنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى ۚ بَعْضُكُمْ مِّنْۢ  بَعْضٍ ۚ فَالَّذِيْنَ ھَاجَرُوْا وَاُخْرِجُوْا مِنْ دِيَارِھِمْ وَاُوْذُوْا فِيْ سَبِيْلِيْ وَقٰتَلُوْا وَقُتِلُوْا لَاُكَفِّرَنَّ عَنْھُمْ سَيِّاٰتِھِمْ وَلَاُدْخِلَنَّھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ ۚ ثَوَابًا مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ  ۭوَاللّٰهُ عِنْدَهٗ حُسْنُ الثَّوَابِ     ١٩٥؁ لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فِي الْبِلَادِ     ١٩٦؁ۭ مَتَاعٌ قَلِيْلٌ  ۣ ثُمَّ مَاْوٰىھُمْ جَهَنَّمُ  ۭوَبِئْسَ الْمِھَادُ     ١٩٧؁ لٰكِنِ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا رَبَّھُمْ لَھُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا نُزُلًا مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ  ۭ وَمَا عِنْدَ اللّٰهِ خَيْرٌ لِّلْاَبْرَارِ    ١٩٨؁ وَاِنَّ مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَمَنْ يُّؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْھِمْ خٰشِعِيْنَ لِلّٰهِ ۙ لَا يَشْتَرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ثَـمَنًا قَلِيْلًا  ۭ اُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّھِمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ   ١٩٩؁ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اصْبِرُوْا وَصَابِرُوْا وَرَابِطُوْا     ۣوَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ     ٢٠٠؁ۧ

सूरह आले इमरान का आख़री रुकूअ क़ुरान मजीद के अज़ीम-तरीन मक़ामात में से है। इसकी पहली छ: आयात के बारे में रिवायत आती है कि जिस शब में यह नाज़िल हुईं तो पूरी रात हुज़ूर ﷺ पर रक़्त (संवेदना) तारी रही और आप ﷺ खड़े, बैठे, लेटे हुए रोते रहे। नमाज़े तहज्जुद के दौरान भी आप ﷺ पर रक़्त तारी रही। फिर आप ﷺ ने बहुत तवील सज्दा किया, उसमें भी गिरया तारी रहा और सज्दागाह आँसूओं से तर हो गयी। फिर आप ﷺ कुछ देर लेटे रहे लेकिन वह कैफ़ियत बरक़रार रही। यहाँ तक कि सुबह सादिक़ हो गयी। हजरत बिलाल रज़ि० जब फज्र की नमाज़ की इत्तलाअ देने के लिये हाज़िर हुए और आप ﷺ को इस कैफ़ियत में देखा तो वजह दरयाफ्त की। आप ﷺ ने फ़रमाया: “ऐ बिलाल, मैं क्यों ना रोऊँ कि आज की शब मेरे रब ने मुझ पर यह आयात नाज़िल फ़रमायी हैं।” फिर आप ﷺ ने इन आयात की तिलावत फ़रमायी (इस रिवायत को इमाम राज़ी ने तफ़सीर कबीर में बयान किया है) यानि वह गिरया और रक़्त शुक्र के जज़्बे के तहत थी।

यह भी नोट कीजिये कि यह सूरह आले इमरान का बीसवाँ रुकूअ शुरू हो रहा है और सूरतुल बक़रह के बीसवें रुकूअ की पहली आयत के अल्फ़ाज़ यह थे:

 اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِىْ تَجْرِيْ فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنْفَعُ النَّاسَ وَمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ مِنْ مَّاۗءٍ فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيْهَا مِنْ كُلِّ دَاۗبَّةٍ    ۠ وَّتَـصْرِيْفِ الرِّيٰحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ   ١٦٤؁

इसी “अयातुल आयात” का ख़ुलासा यहाँ आ गया है:

आयत 190

“यक़ीनन आसमानों और ज़मीन की तख्लीक़ में और रात और दिन के उलट-फेर में” اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّھَارِ
“होशमन्द लोगों के लिये निशानियाँ हैं।” لَاٰيٰتٍ لِّاُولِي الْاَلْبَابِ      ١٩٠؁ڌ

सूरतुल बक़रह की आयत 164 इन अल्फ़ाज़ पर ख़त्म हुई थी: { لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ } “उन लोगों के लिये निशानियाँ हैं जो अक़्ल से काम लेते हैं।” यहाँ उन लोगों को “ऊलूल अल्बाब” का नाम दिया गया। यह हिदायत का पहला क़दम है कि क़ायनात को देखो, मज़ाहिरे फ़ितरत का मुशाहिदा करो—

खोल आँख, ज़मीं देख, फ़लक देख, फ़ज़ा देख

मशरिक़ से उभरते हुए सूरज को ज़रा देख!

यह सब आयाते इलाहिया हैं, इनको देखो और अल्लाह को पहचानो। अगला क़दम यह है कि जब अल्लाह को पहचान लिया तो अब उसे याद रखो। यानि—

फ़िक़्रे क़ुरान इख्तलाते ज़िक्र-ओ-फ़िक्र

फ़िक्र रा कामिल ना दीदम जुज़-बा-ज़िक्र!

आयत 191

“जो अल्लाह का ज़िक्र करते रहते हैं, खड़े भी, बैठे भी और अपने पहलुओं पर भी” الَّذِيْنَ يَذْكُرُوْنَ اللّٰهَ قِيٰمًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰي جُنُوْبِھِمْ
“और मज़ीद गौर-ओ-फ़िक्र करते रहते हैं आसमानों और ज़मीन की तख्लीक़ में।” وَيَتَفَكَّرُوْنَ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۚ

इस गौर-ओ-फ़िक्र से वह एक दूसरे नतीजे पर पहुँचते हैं और वो पुकार उठते हैं:

“ऐ हमारे रब! तूने यह सब कुछ बे-मक़सद तो पैदा नहीं किया है।” رَبَّنَا مَا خَلَقْتَ هٰذَا بَاطِلًا  ۚ

और फिर उनका ज़हन अपनी तरफ़ मुन्तक़िल होता है कि मेरी ज़िन्दगी का मक़सद क्या है? मैं किस लिये पैदा किया गया हूँ? क्या मेरी ज़िन्दगी बस यही है कि खाओ-पीओ, औलाद पैदा करो और दुनिया से रुख्सत हो जाओ? मालूम हुआ कि नहीं, कोई खला है। इंसानी आमाल के नतीजे निकलने चाहिये, इन्सान को उसकी नेकी और बदी का बदला मिलना चाहिये, जो इस दुनिया में अक्सर-ओ-बेशतर नहीं मिलता। दुनिया में अक्सर यही देखा गया है कि नेकोकार फ़ाक़ों से रहते हैं और बदकार ऐश करते हैं। चुनाँचे कोई और ज़िन्दगी होनी चाहिये, कोई और दुनिया होनी चाहिये जिसमें अच्छे-बुरे आमाल का भरपूर बदला मिल जाये, मकाफ़ाते अमल (काम का बदला) हो। लिहाज़ा वह कह उठते हैं:      

“तू पाक है (इससे कि कोई अबस [बेकार] काम करे), पस तू हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा!” سُبْحٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ النَّارِ     ١٩١؁

तूने यक़ीनन एक दूसरी दुनिया तैयार कर रखी है, जिसमें जज़ा व सज़ा के लिये जन्नत भी है और जहन्नम भी!

आयत 192

“ऐ हमारे रब! जिसको तूने दाख़िल कर दिया आग में बेशक उसको तूने रुसवा कर दिया।” رَبَّنَآ اِنَّكَ مَنْ تُدْخِلِ النَّارَ فَقَدْ اَخْزَيْتَهٗ ۭ
“और ज़ालिमों के लिये कोई मददगार नहीं होंगे।”  وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ      ١٩٢؁

आयत 193

“ऐ हमारे रब! हमने एक पुकारने वाले को सुना” رَبَّنَآ اِنَّنَا سَمِعْنَا مُنَادِيًا
“जो ईमान की निदा दे रहा था कि ईमान लाओ अपने रब पर, तो हम ईमान ले आये।” يُّنَادِيْ لِلْاِيْمَانِ اَنْ اٰمِنُوْا بِرَبِّكُمْ فَاٰمَنَّاڰ

ईमान बिल्लाह और ईमान बिल आख़िरत के बाद ऐसे लोगों के कानों में ज्यों ही किसी नबी या रसूल की पुकार आती है तो फ़ौरन लब्बैक कहते हैं, ज़रा भी देर नहीं लगाते। जैसे हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने फ़ौरी तौर पर रसूल अल्लाह ﷺ की दावत क़ुबूल कर ली, इसलिये कि ईमान बिल्लाह और ईमान बिल आख़िरत तक तो वह ख़ुद पहुँच चुके थे। सूरतुल फ़ातिहा के मज़ामीन को ज़हन में ताज़ा कर लीजिये कि ऊलूल अल्बाब में से एक शख्स जो अपनी सलामती-ए-तबअ, सलामती-ए-फ़ितरत और सलामती-ए-अक़्ल की रहनुमाई में यहाँ तक पहुँच गया कि उसने अल्लाह को पहचान लिया, आख़िरत को पहचान लिया, यह भी तय कर लिया कि उसे अल्लाह की बन्दगी ही का रास्ता इख़्तियार करना है, लेकिन इसके बाद वह नबुवत व रिसालत की रहनुमाई का मोहताज है, लिहाज़ा अल्लाह तआला के हुज़ूर दस्ते सवाल दराज़ करता है: { اِھْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَـقِيْمَ۝} यहाँ भी यही मज़मून है कि अब ऐसे शख्स के सामने अगर किसी नबी की दावत आयेगी तो उसका रद्दे अमल क्या होगा। अब आगे एक अज़ीम-तरीन दुआ आ रही है। यह उस दुआ से जो सूरतुल बक़रह के आख़िर में आयी थी बाज़ पहलुओं से कहीं ज़्यादा अज़ीमतर है।     

“ऐ हमारे रब, हमारे गुनाह बख्श दे!” رَبَّنَا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا
“और हमारी बुराइयाँ हमसे दूर कर दे!” وَكَفِّرْ عَنَّا سَيِّاٰتِنَا

हमारे नामा-ए-आमाल के धब्बे भी धो दे और हमारे दामने किरदार के जो दाग़ हैं वह भी साफ़ कर दे।

“और हमें वफ़ात दीजियो अपने नेकोकार (और वफादार) बन्दों के साथ।” وَتَوَفَّنَا مَعَ الْاَبْرَارِ     ١٩٣؁ۚ

आयत 194

“ऐ हमारे रब, हमें बख्श वह सब-कुछ जिसका तूने वादा किया है हमसे अपने रसूलों के ज़रिये से” رَبَّنَا وَاٰتِنَا مَا وَعَدْتَّنَا عَلٰي رُسُلِكَ
“और हमें रुसवा ना कीजियो क़यामत के दिन।” وَلَا تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ
“यक़ीनन तू अपने वादे के ख़िलाफ़ नहीं करेगा।” اِنَّكَ لَا تُخْلِفُ الْمِيْعَادَ      ١٩٤؁

हमें शक है तो इस बात में कि आया हम तेरे उन वादों के मिस्दाक़ साबित हो सकेंगे या नहीं। लिहाज़ा तू अपनी शाने गफ्फ़ारी से हमारी कोताहियों की पर्दापोशी करना और हमें वह सब-कुछ अता कर देना जो तूने अपने रसूलों के ज़रिये से वादा किया है।

आयत 195

“तो उनके रब ने उनकी दुआ क़ुबूल फ़रमायी” فَاسْتَجَابَ لَھُمْ رَبُّھُمْ

यह है दुआ की क़ुबूलियत की इन्तहा कि इस दुआ के फ़ौरन बाद अल्लाह तआला की तरफ़ से क़ुबूलियत का ऐलान हो रहा है।           

“कि मैं तुम में से किसी अमल करने वाले के किसी अमल को ज़ाया करने वाला नहीं हूँ, ख्वाह वह मर्द हो या औरत।” اَنِّىْ لَآ اُضِيْعُ عَمَلَ عَامِلٍ مِّنْكُمْ مِّنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى ۚ
“तुम सब एक-दूसरे ही में से हो।” بَعْضُكُمْ مِّنْۢ  بَعْضٍ ۚ

एक ही बात के नुत्फ़े से बेटा भी है और बेटी भी, और एक ही माँ के रहम में बेटा भी पला है और बेटी भी।

“सो जिन्होंने हिजरत की और जो अपने घरों से निकाल दिये गये” فَالَّذِيْنَ ھَاجَرُوْا وَاُخْرِجُوْا مِنْ دِيَارِھِمْ
“और जिन्हें मेरी राह में ईज़ायें पहुँचायी गयीं” وَاُوْذُوْا فِيْ سَبِيْلِيْ
“और जिन्होंने (मेरी राह में) जंग की और जानें भी दे दीं” وَقٰتَلُوْا وَقُتِلُوْا
“मैं लाज़िमन उनसे उनकी बुराइयों को दूर कर दूँगा” لَاُكَفِّرَنَّ عَنْھُمْ سَيِّاٰتِھِمْ

उनके नामा-ए-आमाल में अगर कोई धब्बे होंगे तो उन्हें धो दूँगा।     

“और लाज़िमन दाख़िल करूँगा उन्हें उन बाग़ात में जिनके नीचे नहरें बहती हैं।” وَلَاُدْخِلَنَّھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ ۚ
“और यह बदला होगा अल्लाह के पास से।” ثَوَابًا مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ  ۭ

यानि अल्लाह तआला के ख़ास खज़ाना-ए-फ़ज़ल से।           

“और बेहतरीन बदला तो अल्लाह ही के पास है।”وَاللّٰهُ عِنْدَهٗ حُسْنُ الثَّوَابِ     ١٩٥؁

अब आख़री पाँच आयात जो आ रही हैं उनकी हैसियत इस सूरह मुबारका के तमाम मुबाहिस पर “खात्मा-ए-कलाम” की हैं। याद रहे कि इस सूरत में अहले किताब का उमूमी ज़िक्र भी हुआ है और यहूद व नसारा का अलग-अलग भी। फिर इसमें अहले ईमान का ज़िक्र भी है और मुशरिकीन का भी। अब फरमाया:

आयत 196

“(ऐ नबी ) आपको धोखे में ना डाले इन काफ़िरों की चलत-फिरत शहरों के अन्दर।” لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فِي الْبِلَادِ     ١٩٦؁ۭ

यह काफ़िर जो इधर से उधर और उधर से इधर भाग-दौड़ कर रहे हैं, और इस्लाम और मुस्लमानों को ख़त्म करने के लिये साज़िशें कर रहे हैं, जमीयतें फ़राहम कर रहे हैं, इससे आप ﷺ किसी धोखे में ना आयें, किसी मुगालते का शिकार ना हों, उनकी ताक़त के बारे में कहीं आप ﷺ मरऊब ना हो जायें।

आयत 197

“यह तो बस थोड़ा सा फ़ायदा उठाना है” مَتَاعٌ قَلِيْلٌ  ۣ

यह तो महज़ चंद रोज़ा ज़िन्दगी के लिये हमने इन्हें कुछ साज़ो-सामान दे दिया है।     

“फिर उनका ठिकाना जहन्नम ही है।” ثُمَّ مَاْوٰىھُمْ جَهَنَّمُ  ۭ
“और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।” وَبِئْسَ الْمِھَادُ     ١٩٧؁

आयत 198

“इसके बरअक्स जिन लोगों ने अपने रब का तक़वा इख़्तियार किया” لٰكِنِ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا رَبَّھُمْ
“उनके लिये बाग़ात हैं जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी, जिनमें वह हमेशा-हमेशा रहेंगे” لَھُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا
“यह उनके लिये इब्तदाई मेहमान नवाज़ी होगी अल्लाह की तरफ़ से।” نُزُلًا مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ  ۭ
“और मज़ीद जो अल्लाह के पास है वह कहीं बेहतर है नेकोकारों के लिये।” وَمَا عِنْدَ اللّٰهِ خَيْرٌ لِّلْاَبْرَارِ    ١٩٨؁

जन्नत की असल नेअमतें तो बयान में आ ही नहीं सकतीं। उनके बारे में हज़रत अबु हुरैरा रज़ि० से मरवी यह मुत्तफ़िक़ अलै हदीस याद रखें कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

قَالَ اللہُ تَبَارَکَ وَ تَعَالٰی : اَعْدَدْتُ لِعِبَادِیَ الصَّالِحِیْنَ مَا لَا عَیْنٌ رَأَتْ وَ لَا اُذُنٌ سَمِعَتْ وَلَا خَطَرَ عَلٰی قَلْبِ بَشَرٍ

“अल्लाह तआला का इरशाद है: मैंने अपने सालेह बन्दों के लिये (जन्नत में) वह कुछ तैयार कर रखा है जो ना तो किसी आँख ने देखा और ना किसी कान ने सुना, और ना ही किसी इन्सान के दिल में उसका ख्याल ही गुज़रा।”

क़ुरान व हदीस में जन्नत की जिन नेअमतों का तज़किरा है उनकी हैसियत अहले जन्नत के लिये نُزُل  (इब्तदाई मेहमान नवाज़ी) की होगी।

आयत 199

“और बेशक अहले किताब में वह भी हैं जो ईमान रखते हैं अल्लाह पर” وَاِنَّ مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَمَنْ يُّؤْمِنُ بِاللّٰهِ
“और उस पर भी ईमान रखते हैं जो तुम पर नाज़िल किया गया और उस पर भी जो उनकी तरफ नाज़िल किया गया” وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْھِمْ
“अल्लाह से डरते रहते हैं” خٰشِعِيْنَ لِلّٰهِ ۙ

उनके दिलों में अल्लाह का खौफ़ है, वह आजिज़ी और तवाज़े इख़्तियार करते हैं।        

“वह अल्लाह की आयात को हक़ीर सी क़ीमत पर फ़रोख्त नहीं करते।” لَا يَشْتَرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ثَـمَنًا قَلِيْلًا  ۭ
“ऐसे ही लोगों का अज्र उनके रब के पास महफ़ूज़ है।” اُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّھِمْ ۭ
“यक़ीनन अल्लाह जल्द हिसाब चुकाने वाला है।” اِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ      ١٩٩؁

वह हिसाब लेने में देर नहीं लगाता। आखरी आयत फिर बहुत जामेअ है:

आयत 200

“ऐ अहले ईमान! सब्र करो और सब्र में अपने दुश्मनों से बढ़ जाओ” يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اصْبِرُوْا وَصَابِرُوْا

मुसाबरत बाबे मुफ़ाअला से है और इसमें मुक़ाबला होता है। एक तो है सब्र करना, साबित क़दम रहना, और एक है मुसाबरत यानि सब्र व इस्तक़ामत में दुश्मन से बढ़ जाना। एक सब्र वह भी तो कर रहे हैं। तुम्हें आज चरका लगा है तो उन्हें एक साल पहले ऐसा ही चरका लगा था और 70 मारे गये थे। वह एक साल के अन्दर फिर चढ़ाई करके आ गये, तो तुम अपना दिल ग़मगीन करके क्यों बैठे हुए हो? तुम्हें तो उनसे बढ़ कर सब्र करना है, उनसे बढ़ कर क़ुर्बानियाँ देनी हैं, तभी तुम हक़ीक़त में अल्लाह के वफ़ादार साबित होंगे।    

“और मरबूत रहो।” وَرَابِطُوْا     ۣ

मुराब्ता पहरे को भी कहते हैं और नज़्म व ज़ब्त (discipline) की पाबन्दी करते हुए बाहम जुड़े रहने को भी। गज़वा-ए-ओहद में शिकस्त का सबब नज़्म का ढ़ीलापन और समो-ताअत में कमी थी। लिहाज़ा यहाँ सब्र व मुसाबरत के साथ-साथ नज़्म की पाबन्दी और बाहम मरबूत रहने की ताकीद फ़रमायी गयी है।         

“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार किये रखो ताकि तुम फ़लाह पाओ।” وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ     ٢٠٠؁ۧ

यह आखरी और अहमतरीन चीज़ है। यह सब-कुछ करोगे तो फ़लाह मिलेगी। ऐसे ही घर बैठे तुम फौज़ व फ़लाह से हमकिनार नहीं हो सकोगे।

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم