Surah Maida-सूरतुल माईदा ayat 1-56
सूरतुल मायदा
तम्हीदी कलिमात
सूरतुल मायदा से क़ुरान मजीद की दूसरी मंज़िल का आगाज़ होता है, लेकिन क़ुरान हकीम के मक्की और मदनी सूरतों के जो ग्रुप्स हैं, उनके ऐतबार से पहला ग्रुप अभी ख़त्म नहीं हुआ, बल्कि सूरतुल मायदा इस ग्रुप की आखरी सूरत है। इन ग्रुप्स की तफ़सील क़ब्ल अज़ बयान हो चुकी है। उनमें से पहला ग्रुप एक मक्की सूरत (अल् फ़ातिहा) और चार मदनी सूरतों (अल् बक़रह, आले इमरान, अन्निसा और अल् मायदा) पर मुश्तमिल है। मज़ामीन की मुनास्बत के ऐतबार से सूरतुल मायदा का “जोड़ा” सूरतुन्निसा के साथ बनता है। इन दोनों सूरतों का अस्लूब भी काफ़ी हद तक आपस में मिलता-जुलता है, अलबत्ता यहाँ ज़्यादा ज़ोर अहले किताब पर है। इस ग्रुप की मदनी सूरतों (अल् बक़रह, आले इमरान, अन्निसा और अल् मायदा) के बुनियादी मौज़ूआत दो हैं, यानि अहले किताब पर इत्मामे हुज्जत और अहकामे शरीअते इस्लामी। इन सूरतों में इन दोनों मौज़ूआत का एक तसल्सुल है जो तदरीजन नज़र आता है। लिहाज़ा शरीअते इस्लामी का जो इब्तदाई ख़ाका हमें सूरतुल बक़रह में मिलता है और फिर सूरह आले इमरान और सूरतुन्निसा में इसके खद्दो-खाल मज़ीद वाज़ेह हुए हैं, यहाँ सूरतुल मायदा में आकर यह तकमीली रंग इख़्तियार करता नज़र आता है। यही वजह है कि मआशरे की बुलन्दतरीन (हुकूमती) सतह के अहकाम भी हमें इस सूरत में मिलते हैं। इसी तरह अहले किताब से जिस ख़िताब की इब्तदा सूरतुल बक़रह में हुई थी, यहाँ आकर वह भी फ़ैसलाकुन मरहले में दाख़िल हो चुका है।
सूरतुन्निसा का आगाज़ “يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ” से हुआ था, जबकि सूरतुल मायदा का आगाज़ “يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا” के अल्फ़ाज़ से हो रहा है।
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 5 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَوْفُوْا بِالْعُقُوْدِ ڛ اُحِلَّتْ لَكُمْ بَهِيْمَةُ الْاَنْعَامِ اِلَّا مَا يُتْلٰى عَلَيْكُمْ غَيْرَ مُحِلِّي الصَّيْدِ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ ۭاِنَّ اللّٰهَ يَحْكُمُ مَا يُرِيْدُ Ǻ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحِلُّوْا شَعَاۗىِٕرَ اللّٰهِ وَلَا الشَّهْرَ الْحَرَامَ وَلَا الْهَدْيَ وَلَا الْقَلَاۗىِٕدَ وَلَآ اٰۗمِّيْنَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ يَبْتَغُوْنَ فَضْلًا مِّنْ رَّبِّهِمْ وَرِضْوَانًا ۭوَاِذَا حَلَلْتُمْ فَاصْطَادُوْا ۭوَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَـنَاٰنُ قَوْمٍ اَنْ صَدُّوْكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ اَنْ تَعْتَدُوْا ۘوَتَعَاوَنُوْا عَلَي الْبِرِّ وَالتَّقْوٰى ۠ وَلَا تَعَاوَنُوْا عَلَي الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ ۠وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ Ą حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖ وَالْمُنْخَنِقَةُ وَالْمَوْقُوْذَةُ وَالْمُتَرَدِّيَةُ وَالنَّطِيْحَةُ وَمَآ اَ كَلَ السَّبُعُ اِلَّا مَا ذَكَّيْتُمْ ۣ وَمَا ذُبِحَ عَلَي النُّصُبِ وَاَنْ تَسْـتَقْسِمُوْا بِالْاَزْلَامِ ۭذٰلِكُمْ فِسْقٌ ۭ اَلْيَوْمَ يَىِٕسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ دِيْنِكُمْ فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِ ۭ اَلْيَوْمَ اَ كْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا ۭ فَمَنِ اضْطُرَّ فِيْ مَخْمَصَةٍ غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّاِثْمٍ ۙ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ Ǽ يَسْـــَٔلُوْنَكَ مَاذَآ اُحِلَّ لَهُمْ ۭقُلْ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُ ۙوَمَا عَلَّمْتُمْ مِّنَ الْجَوَارِحِ مُكَلِّبِيْنَ تُعَلِّمُوْنَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ اللّٰهُ ۡ فَكُلُوْا مِمَّآ اَمْسَكْنَ عَلَيْكُمْ وَاذْكُرُوا اسْمَ اللّٰهِ عَلَيْهِ ۠ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ Ć اَلْيَوْمَ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُ ۭ وَطَعَامُ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ حِلٌّ لَّكُمْ ۠ وَطَعَامُكُمْ حِلٌّ لَّهُمْ ۡ وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الْمُؤْمِنٰتِ وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ اِذَآ اٰتَيْتُمُوْهُنَّ اُجُوْرَهُنَّ مُحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ وَلَا مُتَّخِذِيْٓ اَخْدَانٍ ۭوَمَنْ يَّكْفُرْ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُهٗ ۡ وَهُوَ فِي الْاٰخِرَةِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ Ĉۧ
आयत 1
“ऐ अहले ईमान! अपने अहदो पैमान (क़ौल व क़रार) को पूरा किया करो।” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَوْفُوْا بِالْعُقُوْدِ ڛ |
उक़द गिरह को कहते हैं जिसमें मज़बूती से बंधने का मफ़हूम शामिल है। लिहाज़ा “عُقُود” से मुराद वह मुआहिदे हैं जो बाक़ायदा तय पा गये हों। मुआहिदों और क़ौल व क़रार की अहमियत यूँ समझ लीजिये कि हमारी पूरी की पूरी समाजी व मआशरती ज़िन्दगी क़ायम ही मुआहिदों पर है। मआशरती ज़िन्दगी का बुनियादी यूनिट एक खानदान है, जिसकी बुनियाद एक मुआहिदे पर रखी जाती है। शादी क्या है? मर्द और औरत के दरमियान एक साथ ज़िन्दगी गुज़ारने का मुआहिदा है। इस मुआहिदे से इंसानी मआशरे की बुलन्द व बाला इमारत की बुनियादी ईंट रखी जाती है। इस मुआहिदे के मुताबिक़ फ़रीक़ैन के कुछ हुक़ूक़ हैं और कुछ फ़राइज़। एक तरफ़ बीवी के हुक़ूक़ और उसके फ़राइज़ हैं और दूसरी तरफ़ शौहर के हुक़ूक़ और उसके फ़राइज़। बड़े-बड़े कारोबार भी मुआहिदों की शक्ल में होते हैं। आजिर और मुस्ताजिर (Employer & Employee) का ताल्लुक़ भी एक मुआहिदे की बुनियाद पर क़ायम होता है। इसी तरह कारोबारे हुकूमत, हुकूमती इदारों में ओहदे और मनासिब (posts), छोटे-बड़े अहलकारों (कर्मियों) की ज़िम्मेदारियाँ, उनकी मराआत (विचारों) और इख़्तियारात का मामला है। गोया तमाम मआशरती, मआशी और सियासी मामलात क़ुरान हकीम के एक हुक्म पर अमल करने से दुरुस्त सिम्त पर चल सकते हैं, और वह हुक्म है “اَوْفُوْا بِالْعُقُوْدِ”।
“तुम्हारे लिये हलाल कर दिये गये हैं मवेशी क़िस्म के तमाम हैवानात, सिवाय इनके जो तुम्हें पढ़ कर सुनाये जा रहे हैं” | اُحِلَّتْ لَكُمْ بَهِيْمَةُ الْاَنْعَامِ اِلَّا مَا يُتْلٰى عَلَيْكُمْ |
जिनका हुक्म आगे चल कर तुम्हें बताया जायेगा, यानि खंज़ीर, मुरदार वगैरह हराम हैं। बाक़ी जो मवेशी क़िस्म के जानवर हैं, वहूश नहीं (मसलन शेर, चीता वगैरह वहशी हैं) वह हलाल हैं, जैसे हिरन, नील गाय और इस तरह के जानवर जो आम तौर पर गोश्त खौर नहीं हैं बल्कि सब्ज़े पर उनका गुज़ारा है, उनका गोश्त तुम्हारे लिये हलाल कर दिया गया है। अलबत्ता इस्तसनाई सूरतों की तफ़सील बाद में तुम्हें बता दी जायेगी।
“नाजायज़ करते हुए शिकार को जबकि तुम हालते अहराम में हो।” | غَيْرَ مُحِلِّي الصَّيْدِ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ ۭ |
यानि अगर तुमने हज या उमरे के लिये अहराम बाँधा हुआ है तो तुम इस हालत में इन हलाल जानवरों का भी शिकार नहीं कर सकते।
“बेशक अल्लाह हुक्म देता है जो चाहता है।” | اِنَّ اللّٰهَ يَحْكُمُ مَا يُرِيْدُ Ǻ |
यह अल्लाह का इख़्तियार है, वह जो चाहता है फ़ैसला करता है, जो चाहता है हुक्म देता है।
आयत 2
“ऐ अहले ईमान! मत बेहुरमती करो अल्लाह के शआइर (ritual) की और ना हुरमत वाले महीने की” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحِلُّوْا شَعَاۗىِٕرَ اللّٰهِ وَلَا الشَّهْرَ الْحَرَامَ |
यानि अल्लाह की हराम करदा चीज़ों को अपनी ख्वाहिश के मुताबिक़ हलाल मत कर लिया करो।
“और ना हदी के जानवरों की (बेहुरमती करो)” | وَلَا الْهَدْيَ |
यानि क़ुरबानी के वह जानवर जो हज या उमरे पर जाते हुए लोग साथ लेकर जाते थे। अरबों के यहाँ रिवाज था कि वह हज या उमरे पर जाते वक़्त क़ुरबानी के जानवर साथ लेकर जाते थे। यहाँ उन जानवरों की बेहुरमती की मुमानिअत (prohibition) बयान हो रही है।
“और ना (उन जानवरों की बेहुरमती होने पाये) जिनकी गर्दनों में पट्टे डाल दिये गये हों” | وَلَا الْقَلَاۗىِٕدَ |
यह पट्टे (क़लादे) अलामत के तौर पर डाल दिये जाते थे कि यह क़ुरबानी के जानवर हैं और काबे की तरफ़ जा रहे हैं।
“और ना आज़मीने बैतुल हराम (की इज़्ज़त व अहतराम में फ़र्क़ आये)” | وَلَآ اٰۗمِّيْنَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ |
यानि वह लोग जो बैतुल हराम की तरफ़ चल पड़े हों, हज या उमरे का क़सद करके सफ़र कर रहे हों, अब उनकी भी अल्लाह के घर के साथ एक निस्बत हो गयी है, वह अल्लाह के घर के मुसाफ़िर हैं, जैसा कि अहले अरब हुज्जाजे किराम को कहते हैं: “مَرْحَبًا بِضُیُوْفِ الرَّحْمٰن” “मरहबा उन लोगों को जो रहमान के मेहमान हैं।” यानि तमाम हुज्जाजे किराम असल में अल्लाह के मेहमान हैं, अल्लाह उन तमाम ज़ायरीने काबा का मेज़बान है। तो अल्लाह के उन तमाम मेहमानों की हतके इज़्ज़त (अपमान) और बेहुरमती से मना कर दिया गया।
“वह तलबगार हैं अपने रब के फ़ज़ल और उसकी ख़ुशनुदी के।” | يَبْتَغُوْنَ فَضْلًا مِّنْ رَّبِّهِمْ وَرِضْوَانًا ۭ |
यह सबके सब अल्लाह तआला के फ़ज़ल और उसकी ख़ुशनुदी की तलाश में निकले हुए हैं, अल्लाह को राज़ी करने की कोशिश में मकाने मोहतरम (काबे) की तरफ़ जा रहे हैं।
“हाँ जब तुम हलाल हो जाओ (अहराम खोल दो) तो फिर तुम शिकार करो।” | وَاِذَا حَلَلْتُمْ فَاصْطَادُوْا ۭ |
हलाल हो जाना एक इस्तलाह है, यानि अहराम खोल देना, हालते अहराम से बाहर आ जाना। अब तुम्हें शिकार की आज़ादी है, इस पर पाबन्दी सिर्फ़ अहराम की हालत में थी।
“और तुम्हें अमादा ना कर दे किसी क़ौम की दुश्मनी” | وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَـنَاٰنُ قَوْمٍ |
“कि उन्होंने रोके रखा तुम्हें मस्जिदे हराम से” | اَنْ صَدُّوْكُمْ عَنِ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ |
“कि (तुम भी उन पर) ज़्यादती करने लगो।” | اَنْ تَعْتَدُوْا ۘ |
यानि जैसे अहले मक्का ने तुम लोगों को छ:-सात बरस तक हज व उमरे से रोके रखा, अब कहीं उसके जवाब में तुम लोग भी उन पर ज़्यादती ना करना।
“और तुम नेकी और तक़वा के कामों में तआवुन करो” | وَتَعَاوَنُوْا عَلَي الْبِرِّ وَالتَّقْوٰى ۠ |
“और गुनाह और ज़ुल्म व ज़्यादती के कामों में तआवुन मत करो” | وَلَا تَعَاوَنُوْا عَلَي الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ ۠ |
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो, यक़ीनन अल्लाह तआला सज़ा देने में बहुत सख्त है।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ Ą |
देखिये यह अंदाज़ बिल्कुल वही है जो सूरतुन्निसा का था, वही मआशरती मामलात और उनके बारे में बुनियादी उसूल बयान हो रहे हैं। अब आ रहे हैं वह इस्तसनाई अहकाम जिनका ज़िक्र आगाज़े सूरत में हुआ था कि “اِلَّا مَا يُتْلٰى عَلَيْكُمْ”। खाने-पीने के लिये जो चीज़ें हराम क़रार दी गयी हैं उनका ज़िक्र यहाँ आखरी मरतबा आ रहा है और वह भी बहुत वज़ाहत के साथ।
आयत 3
“हराम किया गया तुम पर मुरदार” | حُرِّمَتْ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةُ |
वह जानवर जो ख़ुद अपनी मौत मर गया हो वह हराम है।
“और खून और खंज़ीर का गोश्त” | وَالدَّمُ وَلَحْمُ الْخِنْزِيْرِ |
“और जिस पर पुकारा गया अल्लाह के सिवा किसी और का नाम” | وَمَآ اُهِلَّ لِغَيْرِ اللّٰهِ بِهٖ |
यानि वह जानवर जो अल्लाह के अलावा किसी और के लिये नामज़द है, और गैरुल्लाह का तक़र्रुब हासिल करने के लिये उसको ज़िबह किया जा रहा है।
“और वह जानवर जो गला घुटने से मर गया हो” | وَالْمُنْخَنِقَةُ |
“और चोट लगने से जिस जानवर की मौत वाक़ेअ हो गयी हो” | وَالْمَوْقُوْذَةُ |
“और जो जानवर किसी ऊँची जगह से गिर कर मर गया हो” | وَالْمُتَرَدِّيَةُ |
“और जो जानवर किसी दूसरे जानवर के सींग मारने से हलाक हो गया हो” | وَالنَّطِيْحَةُ |
“और जिसे खाया हो किसी दरिन्दे ने” | وَمَآ اَ كَلَ السَّبُعُ |
यानि “اَلْمَیْتَۃ” की यह पाँच क़िस्में हैं। कोई जानवर इनमें से किसी सबब से मर गया, ज़िबह होने की नौबत नहीं आयी, उसके जिस्म से खून निकलने का इम्कान ना रहा, बल्कि खून उसके जिस्म के अन्दर ही जम गया और उसके गोश्त का हिस्सा बन गया तो वह मुरदार के हुक्म में होगा।
“मगर यह कि जिसे तुम (ज़िन्दा पाकर) ज़िबह कर लो।” | اِلَّا مَا ذَكَّيْتُمْ ۣ |
यानि मज़कूरा बाला अक़साम में से जो जानवर अभी मरा ना हो और उसे ज़िबह कर लिया जाये तो उसे खाया जा सकता है। मसलन शेर ने हिरन का शिकार किया, लेकिन इससे पहले कि वह हिरन मरता शेर ने किसी सबब से उसे छोड़ दिया। इस हालत में अगर उसे ज़िबह कर लिया गया और उसमें से खून भी निकला तो वह हलाल जाना जायेगा। जहाँ-जहाँ शेर का मुँह लगा हो वह हिस्सा काट कर फेंक दिया जाये तो बाक़ी गोश्त खाना जायज़ है।
“और वह जानवर जो किसी स्थान पर ज़िबह किया गया हो” | وَمَا ذُبِحَ عَلَي النُّصُبِ |
यानि किसी ख़ास आस्ताने पर, ख्वाह वह किसी वली अल्लाह का मज़ार हो या देवता, देवी का कोई स्थान हो, ऐसी जगहों पर जाकर ज़िबह किया गया जानवर भी हराम है।
“और यह कि जुए के तीरों के ज़रिये से तक़सीम करो।” | وَاَنْ تَسْـتَقْسِمُوْا بِالْاَزْلَامِ ۭ |
यह भी जुए की एक क़िस्म थी। अरबों के यहाँ रिवाज़ था कि क़ुर्बानी के बाद गोश्त के ढेर लगा देते थे और तीरों के ज़रिये गोश्त पर जुआ खेलते थे।
“यह तमाम गुनाह के काम हैं।” | ذٰلِكُمْ فِسْقٌ ۭ |
“अब यह काफ़िर लोग तुम्हारे दीन से मायूस हो चुके हैं” | اَلْيَوْمَ يَىِٕسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ دِيْنِكُمْ |
यानि यह लोग अब यह हक़ीक़त जान चुके हैं कि अल्लाह का दीन ग़ालिब हुआ चाहता है और उसका रास्ता रोकना इनके बस की बात नहीं है। जैसा कि पहले बयान हो चुका है, सूरतुल मायदा नुज़ूल के ऐतबार से आखरी सूरतों में से है। यह उस दौर की बात है जब अरब में इस्लाम के ग़लबे के आसार साफ़ नज़र आना शुरू हो गये थे।
“तो उनसे मत डरो और मुझ ही से डरो।” | فَلَا تَخْشَوْهُمْ وَاخْشَوْنِ ۭ |
“आज के दिन मैंने तुम्हारे लिये तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया है” | اَلْيَوْمَ اَ كْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ |
“और तुम पर इत्माम फ़रमा दिया है अपनी नेअमत का” | وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ |
“और तुम्हारे लिये मैंने पसंद कर लिया है इस्लाम को बहैसियत दीन के।” | وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا ۭ |
मेरे यहाँ पसंदीदा और मक़बूल दीन हमेशा-हमेश के लिये सिर्फ़ इस्लाम है।
“लेकिन जो शख्स भूख में मुज़तर (बेहाल) हो जाये (और कोई हराम शय खा ले)” | فَمَنِ اضْطُرَّ فِيْ مَخْمَصَةٍ |
शदीद फ़ाक़े की कैफ़ियत हो, भूख से जान निकल रही हो तो उन हराम करदा चीज़ों में से जान बचाने के बक़द्र खा सकता है।
“(बशर्ते कि) उसका गुनाह की तरफ़ कोई रुझान ना हो” | غَيْرَ مُتَجَانِفٍ لِّاِثْمٍ ۙ |
नीयत में कोई फ़तूर ना हो, बल्कि हक़ीक़त में जान पर बनी हो और दिल में नाफ़रमानी का कोई ख्याल ना हो।
“तो अल्लाह तआला बख्शने वाला मेहरबान है।” | فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ Ǽ |
आयत 4
“(ऐ नबी ﷺ!) यह लोग आपसे पूछते हैं कि उनके लिये क्या-क्या हलाल है?” | يَسْـــَٔلُوْنَكَ مَاذَآ اُحِلَّ لَهُمْ ۭ |
“आप (ﷺ इन्हें) बतायें कि तुम्हारे लिये सब पाकीज़ा चीज़ें हलाल कर दी गयी हैं” | قُلْ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُ ۙ |
“और यह जो तुम सधाते हो शिकारी जानवरों को, फिर छोड़ते हो इनको शिकार के लिये, इन्हें तुमने सिखाया है उसमें से जो अल्लाह ने तुम्हें सिखाया है” | وَمَا عَلَّمْتُمْ مِّنَ الْجَوَارِحِ مُكَلِّبِيْنَ تُعَلِّمُوْنَهُنَّ مِمَّا عَلَّمَكُمُ اللّٰهُ ۡ |
“तो तुम उनके उस शिकार में से खाओ जो वह तुम्हारे लिये रोके रखें” | فَكُلُوْا مِمَّآ اَمْسَكْنَ عَلَيْكُمْ |
“और उस पर अल्लाह का नाम ले लो।” | وَاذْكُرُوا اسْمَ اللّٰهِ عَلَيْهِ ۠ |
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह बहुत जल्द हिसाब चुकाने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ Ć |
उसे हिसाब लेने में देर नहीं लगती।
आयत 5
“आज तुम्हारे लिये तमाम पाकीज़ा चीज़ें हलाल कर दी गयी हैं।” | اَلْيَوْمَ اُحِلَّ لَكُمُ الطَّيِّبٰتُ ۭ |
यह वही “….اَلْيَوْمَ اَ كْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ” वाला अंदाज़ है। यानि इससे पहले अगर मुख्तलिफ़ मज़ाहिब के अहकाम की वजह से, यहूद की शरीअत या हज़रत याक़ूब अलै० की ज़ाती पसंद व नापसंद की बिना पर अगर कोई रुकावटें पैदा हो गयी थीं या मआशरे में राइज मुशरिकाना रसूमात व अवहाम (अंधविश्वास) की वजह से तुम्हारे ज़हनों में कुछ उलझनें थीं तो आज उन सबको साफ़ किया जा रहा है और आज तुम्हारे लिये तमाम साफ़-सुथरी और पाकीज़ा चीज़ों के हलाल होने का ऐलान किया जा रहा है।
“और अहले किताब का खाना तुम्हारे लिये हलाल है।” | وَطَعَامُ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ حِلٌّ لَّكُمْ ۠ |
लेकिन यह सिर्फ़ उस सूरत में है कि वह खाना असलन हलाल हो, क्योंकि अगर एक ईसाई सुवर खा रहा होगा तो वह हमारे लिये हलाल नहीं होगा। इस खाने में उनका ज़बीहा भी शामिल है, दो बुनियादी शराइत के साथ: एक यह कि जानवर हलाल हो और दूसरे यह कि उसे अल्लाह का नाम लेकर ज़िबह किया गया हो।
“इसी तरह तुम्हारा खाना भी उनके लिये हलाल है।” | وَطَعَامُكُمْ حِلٌّ لَّهُمْ ۡ |
“और (तुम्हारे लिये हलाल हैं) अहले ईमान में से खानदानी औरतें” | وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الْمُؤْمِنٰتِ |
“और खानदानी औरतें उन लोगों की जिनको तुमसे पहले किताब दी गयी थी” | وَالْمُحْصَنٰتُ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ |
यानि मुस्लमान मर्द ईसाई या यहूदी औरत से शादी कर सकता है।
“जबकि तुम उन्हें अदा कर दो उनके महर” | اِذَآ اٰتَيْتُمُوْهُنَّ اُجُوْرَهُنَّ |
“क़ैदे निकाह में लाकर उनके मुहाफ़िज़ बनते हुए” | مُحْصِنِيْنَ |
नीयत यह हो कि तुमने उनको अपने घरों में बसाना है, मुस्तक़िल तौर पर एक खानदान की बुनियाद रखनी है।
“ना कि आज़ाद शहवत रानी के लिये” | غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ |
“और ना ही चोरी-छुपे आशनाई करने के लिये।” | وَلَا مُتَّخِذِيْٓ اَخْدَانٍ ۭ |
बल्कि मारूफ़ तरीक़े से अलल ऐलान निकाह करके तुम उन्हें अपने घरों में आबाद करो और उनके मुहाफ़िज़ बनो। इस ज़िमन में बाज़ अशकालात (अश्कालात) का रफ़ा (दूर) करना ज़रूरी है। जहाँ तक शरीअते इस्लामी का हुक्म है तो शरीअत रसूल अल्लाह ﷺ पर मुकम्मल हो चुकी है, अब इसमें तगय्युर व तबद्दुल मुमकिन नहीं। इस लिहाज़ से यह क़ानून अपनी जगह क़ायम है और क़ायम रहेगा। यह तो है इसका जवाज़, अलबत्ता अगर आज इसके ख़िलाफ़ किसी को कोई मसलहत नज़र आती है तो वह अपनी जगह दुरुस्त हो सकती है, लेकिन इसके बावजूद क़ानून को बदला नहीं जा सकता। अलबत्ता अगर एक ख़ालिस इस्लामी रियासत हो तो हालात की संगीनी के पेशे नज़र कुछ अरसे के लिये किसी ऐसी इजाज़त या हुक्म को मौक़ूफ़ (pause) किया जा सकता है। जैसे हज़रत उमर रज़ि० ने एक मरतबा अपने ज़माने में क़हत के सबब क़तअ यद (हाथ काटने) की सज़ा को मौक़ूफ़ कर दिया था। इस तरह किसी क़ानून में इस्लामी हुकूमत के किसी आरज़ी इन्तेज़ामी हुक्म (executive order) के ज़रिये से कोई आरज़ी तब्दीली की जा सकती है। मज़ीद बराँ इस इजाज़त के पस मंज़र में जो फ़लसफ़ा और हिकमत है उसकी असल रूह को समझना भी ज़रूरी है। यह इजाज़त सिर्फ़ मुस्लमान मर्द को दी गयी है कि वह ईसाई या यहूदी औरतों से शादी कर सकते हैं, मुस्लमान औरत ईसाई या यहूदी मर्द से शादी नहीं कर सकती। इसकी वजह यह है कि आम तौर पर मर्द औरत पर ग़ालिब होता है, लिहाज़ा इम्काने ग़ालिब है कि वह अपनी बीवी को इस्लाम की तरफ़ रागिब कर लेगा। दूसरे यह कि उस ज़माने में यह बात मुसल्लमा (मान्य) थी कि औलाद मर्द की है, और मर्द के ग़ालिब और फ़आल होने का मतलब था कि ऐसे मियाँ-बीवी की औलाद ईसाई या यहूदी नहीं बल्कि मुस्लमान होगी। उस वक़्त वैसे भी मुसलमानों का ग़लबा था और यहूदी और ईसाई उनके ताबेअ हो चुके थे। आज-कल हालात यक्सर तब्दील हो चुके हैं। आज ईसाई और यहूदी ग़ालिब हैं, जबकि मुस्लमान इन्तहाई मग़लूब। दूसरी तरफ बैनुल अक़वामी सियासत में औरतों का ग़लबा है। लिहाज़ा मौजूदा हालात में मसलहत का तक़ाज़ा यही है कि ऐसी शादियाँ ना हों, लेकिन बहरहाल इनको हराम नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इसके जवाज़ का वाज़ेह हुक्म मौजूद है। हाँ अगर कोई इस्लामी रियासत कहीं क़ायम हो जाये तो वह आरज़ी तौर पर (जब तक हालात में कोई तब्दीली ना आ जाये) इस इजाज़त को मन्सूख कर सकती है।
“तो जिस शख्स ने ईमान के साथ कुफ़्र किया उसके तमाम आमाल ज़ाया हो गये” | وَمَنْ يَّكْفُرْ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ حَبِطَ عَمَلُهٗ ۡ |
इसमें इशारा अहले किताब की तरफ़ भी हो सकता है कि जब तक मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ तशरीफ़ नहीं लाये थे तब तक वह अहले ईमान थे लेकिन अब अगर वह नबी आखिरुज़्ज़मान ﷺ पर ईमान नहीं ला रहे तो गोया वह कुफ़्र कर रहे हैं। इसका दूसरा मफ़हूम यह है कि कोई शख्स ईमान का मुद्दई होकर काफ़िराना हरकतें करे तो उसके तमाम आमाल ज़ाया हो जाएँगे।
“और आख़िरत में वह होगा ख़सारा उठाने वालों में।” | وَهُوَ فِي الْاٰخِرَةِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ Ĉۧ |
आयात 6 से 11 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا قُمْتُمْ اِلَى الصَّلٰوةِ فَاغْسِلُوْا وُجُوْهَكُمْ وَاَيْدِيَكُمْ اِلَى الْمَرَافِقِ وَامْسَحُوْا بِرُءُوْسِكُمْ وَاَرْجُلَكُمْ اِلَى الْكَعْبَيْنِ ۭ وَاِنْ كُنْتُمْ جُنُبًا فَاطَّهَّرُوْا ۭ وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰي سَفَرٍ اَوْ جَاۗءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۗىِٕطِ اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۗءَ فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۗءً فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوْا بِوُجُوْهِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ مِّنْهُ ۭ مَا يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيَجْعَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ حَرَجٍ وَّلٰكِنْ يُّرِيْدُ لِيُطَهِّرَكُمْ وَلِيُتِمَّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ Č وَاذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَمِيْثَاقَهُ الَّذِيْ وَاثَقَكُمْ بِهٖٓ ۙ اِذْ قُلْتُمْ سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ۡ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ Ċ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ لِلّٰهِ شُهَدَاۗءَ بِالْقِسْطِ ۡ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَاٰنُ قَوْمٍ عَلٰٓي اَلَّا تَعْدِلُوْا ۭاِعْدِلُوْا ۣ هُوَ اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰى ۡ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ Ď وَعَدَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ۙ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّاَجْرٌ عَظِيْمٌ Ḍ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَحِيْمِ 10 يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ هَمَّ قَوْمٌ اَنْ يَّبْسُطُوْٓا اِلَيْكُمْ اَيْدِيَهُمْ فَكَفَّ اَيْدِيَهُمْ عَنْكُمْ ۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ 11ۧ
आयत 6
“ऐ अहले ईमान! जब तुम खड़े हो नमाज़ के लिये” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا قُمْتُمْ اِلَى الصَّلٰوةِ |
यानि नमाज़ पढ़ने का क़सद किया करो।
“तो धो लिया करो अपने चेहरे और दोनों हाथ भी कोहनियों तक” | فَاغْسِلُوْا وُجُوْهَكُمْ وَاَيْدِيَكُمْ اِلَى الْمَرَافِقِ |
“और अपने सरों पर मसह कर लिया करो” | وَامْسَحُوْا بِرُءُوْسِكُمْ |
“और (धो लिया करो) अपने दोनों पाँव भी टखनों तक।” | وَاَرْجُلَكُمْ اِلَى الْكَعْبَيْنِ ۭ |
यहाँ पर वाज़ेह रहे कि اَرْجُلَكُمْ और اَرْجُلِكُمْ दोनों क़िरातें मुस्तनद (authentic) हैं, लिहाज़ा अहले तशय्य (शिया) इसको मुस्तक़लन اَرْجُلِكُمْ पढ़ते हैं और उनके नज़दीक इसमें पाँव पर मसह का हुक्म है। चुनाँचे वह { وَامْسَحُوْا بِرُءُوْسِكُمْ وَاَرْجُلِكُمْ} का तर्जुमा इस तरह करते हैं: “और मसह कर लिया करो अपने सरों पर भी और अपने पाँव पर भी।” लेकिन अहले सुन्नत के नज़दीक यह اَرْجُلَكُمْ है और اِلَى الْكَعْبَيْنِ के इज़ाफ़े से यहाँ पाँव को धोने का हुक्म बिल्कुल वाज़ेह हो गया है। अगर सिर्फ़ मसह करना मतलूब होता तो इसमें कोई हद बयान करने की ज़रूरत नहीं थी। लिहाज़ा اِلَى الْكَعْبَيْنِ की शर्त से यह टुकड़ा { فَاغْسِلُوْا وُجُوْهَكُمْ وَاَيْدِيَكُمْ اِلَى الْمَرَافِقِ} के बिल्कुल मसावी (बराबर) हो गया है। जैसे हाथों का धोना है कोहनियों तक, ऐसे ही पाँव का धोना है टखनों तक। इस हुक्म में वुज़ू के फ़राइज़ बयान हुए हैं।
“और अगर तुम हालते जनाबत में हो तो फिर तुम और ज़्यादा पाकी हासिल करो।” | وَاِنْ كُنْتُمْ جُنُبًا فَاطَّهَّرُوْا ۭ |
यानि पूरे जिस्म का गुस्ल करो। जनाबत की हालत में नमाज़ पढ़ना या क़ुरान को हाथ लगाना जायज़ नहीं।
“और अगर तुम बीमार हो या सफ़र पर हो” | وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰي سَفَرٍ |
“या तुम में से कोई किसी नशेबी जगह (शौचालय) से होकर आये” | اَوْ جَاۗءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۗىِٕطِ |
यह इस्तआरा है क़ज़ाये हाजत के लिये। आम तौर पर लोग क़ज़ाये हाजत के लिये नशेबी जगहों पर जाते थे।
“या तुमने औरतों से मुक़ारबत की हो” | اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۗءَ |
“और तुम्हें पानी दस्तयाब ना हो” | فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۗءً |
“तो इरादा कर लो पाक मिट्टी का” | فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا |
यानि पाक मिट्टी से तयम्मुम कर लिया करो।
“तो उससे अपने चेहरे और हाथों को मल लो।” | فَامْسَحُوْا بِوُجُوْهِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ مِّنْهُ ۭ |
“अल्लाह यह नहीं चाहता कि तुम पर कोई तंगी करे” | مَا يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيَجْعَلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ حَرَجٍ |
“बल्कि वह चाहता है कि तुम्हें पाक कर दे” | وَّلٰكِنْ يُّرِيْدُ لِيُطَهِّرَكُمْ |
“और तुम पर अपनी नेअमत का इत्माम फ़रमाये ताकि तुम शुक्रगुज़ार बन सको।” | وَلِيُتِمَّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ Č |
आयत 7
“और अल्लाह ने तुम्हें जो अपनी नेअमत अता की है उसको याद रखो और उस मुआहिदे को भी जो उसने तुमसे बाँध लिया है (या जिसमें उसने तुम्हें बाँध लिया है)” | وَاذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَمِيْثَاقَهُ الَّذِيْ وَاثَقَكُمْ بِهٖٓ ۙ |
एक मीसाक़ वह था जो बनी इसराइल से लिया गया था, अब एक मीसाक़ यह है जो अहले ईमान से हो रहा है। चूँकि यह सूरत शुरू हुई थी يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا से, यानि अहले ईमान से ख़िताब है, लिहाज़ा इस मीसाक़ में भी अहले ईमान ही मुख़ातिब हैं।
“जब तुमने कहा था हमने सुना और इताअत क़ुबूल की।” | اِذْ قُلْتُمْ سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ۡ |
सूरतुल बक़रह की आखरी आयत से पहले वाली आयत में अहले ईमान का यह इक़रार मौजूद है {سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ڭ غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَاِلَيْكَ الْمَصِيْرُ} अब जो मुस्लमान भी سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ڭ कहता है वह गोया एक मीसाक़ और एक बहुत मज़बूत मुआहिदे के अन्दर अल्लाह तआला के साथ बंध जाता है। यानि अब उसे अल्लाह की शरीअत की पाबन्दी करनी है।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो, यक़ीनन अल्लाह तआला सीने के राज़ों से भी वाक़िफ़ है।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ Ċ |
आयत 8
“ऐ लोगो जो ईमान लाये हो, अल्लाह की खातिर रास्ती पर क़ायम रहने वाले और इन्साफ़ की गवाही देने वाले बन जाओ” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ لِلّٰهِ شُهَدَاۗءَ بِالْقِسْطِ ۡ |
यहाँ पर सूरतुन्निसा की आयत 135 का हवाला ज़रूरी है। सूरतुन्निसा की आयत 135 और ज़ेरे मुताअला आयत में एक ही मज़मून बयान हुआ है, फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि तरतीब अक्सी है (दोनों सूरतों की निस्बते ज़ौजियत मद्देनज़र रहे)। वहाँ अल्फ़ाज़ आये हैं: {يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ بِالْقِسْطِ شُهَدَاۗءَ لِلّٰهِ} और यहाँ अल्फ़ाज़ हैं: {يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ لِلّٰهِ شُهَدَاۗءَ بِالْقِسْطِ ۡ }। एक हक़ीक़त तो मैंने उस वक़्त बयान कर दी थी कि इससे यह मालूम हुआ कि गोया “अल्लाह” और “क़िस्त” मुतरादिफ़ हैं। एक जगह फ़रमाया: “क़िस्त के लिये खड़े हो जाओ” और दूसरी जगह फ़रमाया: “अल्लाह के लिये खड़े हो जाओ।” इसी तरह एक जगह “अल्लाह के गवाह बन जाओ” और दूसरी जगह “क़िस्त के गवाह बन जाओ” फ़रमाया। तो गोया “अल्लाह” और “क़िस्त” एक-दूसरे के मुतरादिफ़ के तौर पर आये हैं।
दूसरा अहम नुक्ता इस आयत से हमारे सामने यह आ रहा है कि मआशरे में अद्ल क़ायम करने का हुक्म है। इन्सान फ़ितरतन इन्साफ़ पसंद है। इन्साफ़ आम इन्सान की नफ्सियात और उसकी फ़ितरत का तक़ाज़ा है। आज पूरी नौए इंसानी इन्साफ़ की तलाश में सरगर्दां (हैरान व परेशान) है। इन्साफ़ ही के लिये इन्सान ने बादशाहत से निजात हासिल की और जम्हूरियत को अपनाया ताकि इन्सान पर इन्सान की हाकिमियत ख़त्म हो, इन्साफ़ मयस्सर आये, मगर जम्हूरियत की मंज़िल सराब (भ्रम) साबित हुई और एक दफ़ा इन्सान फिर सरमाया दाराना निज़ाम (capitalism) की लानत में गिरफ़्तार हो गया। अब सरमायेदार उसके आक़ा और डिक्टेटर बन गये। इस लानत से निजात के लिये उसने कम्युनिज़्म (communism) का दरवाज़ा खटखटाया मगर यहाँ भी मताअलक़ा पार्टी की आमरियत (one party dictatorship) उसकी मुन्तज़िर थी। गोया “रुस्त अज़ यक बंद ता उफ्ताद दर बन्दे दिगर” यानि एक मुसीबत से निजात पायी थी कि दूसरी आफ़त में गिरफ़्तार हो गये। अब इन्सान अद्ल और इन्साफ़ हासिल करने के लिये कहाँ जाये? क्या करे? यहाँ पर एक रोशनी तो इन्सान को अपनी फ़ितरत के अन्दर से मिलती है कि उसकी फ़ितरत इन्साफ़ का तक़ाज़ा करती है और अपनी फ़ितरत के इस तक़ाज़े को पूरा करने के लिये वह अद्ल क़ायम करने के लिये खड़ा हो जाये, मगर इससे ऊपर भी एक मंज़िल है और वह यह है कि “अल् अद्ल” अल्लाह की ज़ात है जिसका दिया हुआ निज़ाम ही आदिलाना निज़ाम है। हम उसके बन्दे हैं, उसके वफ़ादार हैं, लिहाज़ा उसके निज़ाम को क़ायम करना हमारे ज़िम्मे है, हम पर फ़र्ज़ है। चुनाँचे {يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ لِلّٰهِ شُهَدَاۗءَ بِالْقِسْطِ ۡ } में उसी बुलन्दतर मंज़िल का ज़िक्र है। यह सिर्फ़ फ़ितरते इन्सानी ही का तक़ाज़ा नहीं बल्कि तुम्हारी अबदियत का तक़ाज़ा भी है। अल्लाह तआला के साथ वफ़ादारी के रिश्ते का तक़ाज़ा है कि पूरी क़ुव्वत के साथ, अपने तमामतर वसाइल के साथ, जो भी असबाब व ज़राय मयस्सर हों उन सबको जमा करके खड़े हो जाओ अल्लाह के लिये! यानि अल्लाह के दीन के गवाह बन कर खड़े हो जाओ। और उस दीन में जो तसव्वुर है अद्ल, इन्साफ़ और क़िस्त का उस अद्ल व इन्साफ़ और क़िस्त को क़ायम करने के लिये खड़े हो जाओ। यह है इस हुक्म का तक़ाज़ा।
अब देखिये, वहाँ (सूरतुन्निसा आयत 135 में) क्या था: “ऐ ईमान वालो! इन्साफ़ के अलम्बरदार और अल्लाह वास्ते के गवाह बन जाओ।” {وَلَوْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ اَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ ۚ } “अगरचे इसकी (तुम्हारे इन्साफ़ और तुम्हारी गवाही की) ज़द ख़ुद तुम्हारी अपनी ज़ात पर या तुम्हारे वालिदैन या रिश्तेदारों पर ही क्यों ना पड़ती हो।”
इन्साफ़ से रोकने वाले अवामिल में से एक अहम आमिल मुस्बते ताल्लुक़ यानि मोहब्बत है। अपनी ज़ात से मोहब्बत, वालिदैन और रिश्तेदारों वगैरह की मोहब्बत इन्सान को सोचने पर मजबूर कर देती है कि मैं अपने ख़िलाफ़ कैसे फ़तवा दे दूँ? अपने ही वालिदैन के ख़िलाफ़ क्योंकर फ़ैसला सुना दूँ? सच्ची गवाही देकर अपने अज़ीज़ रिश्तेदार को कैसे फाँसी चढ़ा दूँ? लिहाज़ा “…..وَلَوْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ” फ़रमा कर इस नौइयत की तमाम अस्बियतों की जड़ काट दी गयी कि बात अगर हक़ की है, इन्साफ़ की है तो फिर ख्वाह वह तुम्हारे अपने ख़िलाफ़ ही क्यों ना जा रही हो, तुम्हारे वालिदैन पर ही उसकी ज़द क्यों ना पड़ रही हो, तुम्हारे अज़ीज़ रिश्तेदार ही उसकी काट के शिकार क्यों ना हो रहे हों, उसका इज़हार बगैर किसी मसलहत के डंके की चोट पर करना है।
इस सिलसिले में दूसरा आमिल मनफ़ी ताल्लुक़ है, यानि किसी फ़र्द या गिरोह की दुश्मनी, जिसकी वजह से इन्सान हक़ बात कहने से पहलुतही कर जाता है। वह सोचता है कि बात तो हक़ की है मगर है तो वह मेरा दुश्मन, लिहाज़ा अपने दुश्मन के हक़ में आखिर कैसे फ़ैसला दे दूँ? आयत ज़ेरे नज़र में इस आमिल को बयान करते हुए दुश्मनी की बिना पर भी कतमाने हक़ (हक़ छुपाने) से मना कर दिया गया:
“और किसी क़ौम की दुश्मनी तुम्हें इस बात पर अमादा ना कर दे कि तुम अद्ल से मुन्हरिफ़ (बागी) हो जाओ।” | وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَاٰنُ قَوْمٍ عَلٰٓي اَلَّا تَعْدِلُوْا ۭ |
“अद्ल से काम लो” | اِعْدِلُوْا ۣ |
“यही क़रीबतर है तक़वे के” | هُوَ اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰى ۡ |
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो। जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह यक़ीनन उससे बाख़बर है।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ خَبِيْرٌۢ بِمَا تَعْمَلُوْنَ Ď |
तुम्हारा कोई अमल और कोई क़ौल उसके इल्म से ख़ारिज नहीं, लिहाज़ा हर वक़्त चौकस रहो, चौकन्ने रहो। (आयत ज़ेरे नज़र और सूरतुन्निसा की आयत 135 के मायने व मफ़हूम का बाहमी रब्त और अल्फ़ाज़ की अक्सी और reciprocal तरतीब का हुस्न लायक़-ए-तवज्जोह है।)
आयत 9
“अल्लाह का वादा है उन लोगों से जो ईमान लाये और नेक अमल करते रहे कि उनके लिये मग़फ़िरत भी है और अज्रे अज़ीम भी।” | وَعَدَ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ۙ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّاَجْرٌ عَظِيْمٌ Ḍ |
आयत 10
“और जिन्होंने इन्कार किया और हमारी आयात को झुठलाया वही लोग जहन्नम वाले हैं।” | وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَحِيْمِ 10 |
आयत 11
“ऐ अहले ईमान! ज़रा याद करो अल्लाह के उस ईनाम को जो उसने तुम पर किया जब इरादा किया था एक क़ौम ने कि तुम्हारे ख़िलाफ़ अपने हाथ बढायें” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ هَمَّ قَوْمٌ اَنْ يَّبْسُطُوْٓا اِلَيْكُمْ اَيْدِيَهُمْ |
“तो अल्लाह ने उनके हाथों को रोक दिया तुमसे।” | فَكَفَّ اَيْدِيَهُمْ عَنْكُمْ ۚ |
यह गज़वा-ए-अहज़ाब के बाद के हालात पर तबसिरा है। इस गज़वे के बाद अभी कुफ्फ़ार में से बहुत से लोग पेच व ताब खा रहे थे और बईद नहीं था कि वह दो बार मुहिम जोई करते, लेकिन अल्लाह तआला ने ऐसे हालात पैदा कर दिये और उनके दिलों में ऐसा रौब डाल दिया कि वह दोबारा लश्कर कशी की जुर्रात ना कर सके। इस सूरते हाल का ज़िक्र अल्लाह तआला यहाँ पर अपने ईनाम के तौर पर कर रहे हैं कि जब कुफ्फ़ार ने इरादा किया था कि तुम पर दस्तदराज़ी करें, तुम्हारे ऊपर ज़्यादती करने के लिये, तुम पर फ़ौज कशी के लिये इक़दाम करें।
इसमें ख़ास तौर पर इशारा सुलह हुदैबिया की तरफ़ है। उस वक़्त भी क़ुरैश लड़ाई के लिये बेताब हो रहे थे, उनके नौजवानों का खून खौल रहा था, लेकिन बिलआखिर उन्हें इस हक़ीक़त का इदराक (अहसास) हो गया कि अब हम मुसलमानों का मुक़ाबला नहीं कर सकते। गोया अल्लाह तआला ने उनके दिलों में रौब डाल दिया और उनके हाथों को मुसलमानों के ख़िलाफ़ उठने से रोक दिया।
“और तुम अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो, और अहले ईमान को तो अल्लाह ही पर तवक्कुल करना चाहिये।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ 11ۧ |
आयात 12 से 19 तक
وَلَقَدْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ ۚ وَبَعَثْنَا مِنْهُمُ اثْنَيْ عَشَرَ نَقِيْبًا ۭوَقَالَ اللّٰهُ اِنِّىْ مَعَكُمْ ۭلَىِٕنْ اَقَمْــتُمُ الصَّلٰوةَ وَاٰتَيْتُمُ الزَّكٰوةَ وَاٰمَنْتُمْ بِرُسُلِيْ وَعَزَّرْتُمُوْهُمْ وَاَقْرَضْتُمُ اللّٰهَ قَرْضًا حَسَـنًا لَّاُكَفِّرَنَّ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ وَلَاُدْخِلَنَّكُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْھٰرُ ۚ فَمَنْ كَفَرَ بَعْدَ ذٰلِكَ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۗءَ السَّبِيْلِ 12 فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ لَعَنّٰهُمْ وَجَعَلْنَا قُلُوْبَهُمْ قٰسِـيَةً ۚ يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِهٖ ۙ وَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِهٖ ۚ وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلٰي خَاۗىِٕنَةٍ مِّنْهُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاصْفَحْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ 13 وَمِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰٓى اَخَذْنَا مِيْثَاقَهُمْ فَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِهٖ ۠ فَاَغْرَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۭ وَسَوْفَ يُنَبِّئُهُمُ اللّٰهُ بِمَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ 14 يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلُنَا يُبَيِّنُ لَكُمْ كَثِيْرًا مِّمَّا كُنْتُمْ تُخْفُوْنَ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَعْفُوْا عَنْ كَثِيْرٍ ڛ قَدْ جَاۗءَكُمْ مِّنَ اللّٰهِ نُوْرٌ وَّكِتٰبٌ مُّبِيْنٌ 15ۙ يَّهْدِيْ بِهِ اللّٰهُ مَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَهٗ سُبُلَ السَّلٰمِ وَيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ بِاِذْنِهٖ وَيَهْدِيْهِمْ اِلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ 16 لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ ۭ قُلْ فَمَنْ يَّمْلِكُ مِنَ اللّٰهِ شَـيْـــًٔـا اِنْ اَرَادَ اَنْ يُّهْلِكَ الْمَسِيْحَ ابْنَ مَرْيَمَ وَاُمَّهٗ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا ۭوَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا ۭيخْلُقُ مَا يَشَاۗءُ ۭوَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 17 وَقَالَتِ الْيَھُوْدُ وَالنَّصٰرٰى نَحْنُ اَبْنٰۗؤُا اللّٰهِ وَاَحِبَّاۗؤُهٗ ۭقُلْ فَلِمَ يُعَذِّبُكُمْ بِذُنُوْبِكُمْ ۭ بَلْ اَنْتُمْ بَشَرٌ مِّمَّنْ خَلَقَ ۭيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭوَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا ۡ وَاِلَيْهِ الْمَصِيْرُ 18 يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلُنَا يُبَيِّنُ لَكُمْ عَلٰي فَتْرَةٍ مِّنَ الرُّسُلِ اَنْ تَقُوْلُوْا مَا جَاۗءَنَا مِنْۢ بَشِيْرٍ وَّلَا نَذِيْرٍ ۡ فَقَدْ جَاۗءَكُمْ بَشِيْرٌ وَّنَذِيْرٌ ۭ وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 19ۧ
अब यहाँ से बनी इसराइल की तारीख के चंद वाक़िआत आ रहे हैं।
आयत 12
“और अल्लाह तआला ने बनी इसराइल से भी मीसाक़ लिया था।” | وَلَقَدْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ ۚ |
यानि ऐ मुसलमानों! जिस तरह आज तुमसे यह मीसाक़ लिया गया है और अल्लाह ने तुम्हें शरीअत के मीसाक़ में बाँध लिया है, बिल्कुल इस तरह का मीसाक़ अल्लाह तआला ने तुमसे पहले बनी इसराइल से भी लिया था।
“और उनमें हमने मुक़र्रर किये थे बारह नक़ीब।” | وَبَعَثْنَا مِنْهُمُ اثْنَيْ عَشَرَ نَقِيْبًا ۭ |
बनी इसराइल के बारह क़बीले थे, हर क़बीले में से हज़रत मूसा अलै० ने एक नक़ीब मुक़र्रर किया। नबी अकरम ﷺ ने भी अन्सार में बारह नक़ीब फ़रमाये थे, नौ ख़जरज में से और तीन औस से।
“और अल्लाह ने (उनसे) फ़रमाया था कि मैं तुम्हारे साथ हूँ।” | وَقَالَ اللّٰهُ اِنِّىْ مَعَكُمْ ۭ |
मेरी मदद, मेरी ताइद, मेरी नुसरत तुम्हारे साथ शामिले हाल रहेगी।
“अगर तुमने नमाज़ को क़ायम रखा और ज़कात अदा करते रहे” | لَىِٕنْ اَقَمْــتُمُ الصَّلٰوةَ وَاٰتَيْتُمُ الزَّكٰوةَ |
“और मेरे रसूलों पर ईमान लाते रहे” | وَاٰمَنْتُمْ بِرُسُلِيْ |
“और उन (रसूलों) की तुम मदद करते रहे” | وَعَزَّرْتُمُوْهُمْ |
यह जिन रसूलों का ज़िक्र है वह पे-दर-पे बनी इसराइल में आते रहे। हज़रत मूसा अलै० के बाद तो रिसालत का यह सिलसिला एक तार की मानिन्द था जो छ: सौ बरस तक टूटा ही नहीं। फिर ज़रा सा वक़्फ़ा छ: सौ बरस का आया और फिर उसके बाद नबी आखिरुज़्ज़मान ﷺ तशरीफ़ लाये।
“और अल्लाह को क़र्ज़े हसना देते रहे” | وَاَقْرَضْتُمُ اللّٰهَ قَرْضًا حَسَـنًا |
यानि अल्लाह के दीन के लिये माल ख़र्च करते रहे।
“तो मैं लाज़िमन दूर कर दूँगा तुमसे तुम्हारी बुराइयाँ” | لَّاُكَفِّرَنَّ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ |
“और मैं लाज़िमन दाख़िल कर दूँगा तुम्हें उन बाग़ात में जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी।” | وَلَاُدْخِلَنَّكُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْھٰرُ ۚ |
“तो जिसने कुफ़्र किया इसके बाद तुम में से तो वह सीधे रास्ते से भटक कर रह गया।” | فَمَنْ كَفَرَ بَعْدَ ذٰلِكَ مِنْكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۗءَ السَّبِيْلِ 12 |
आयत 13
“पस उनके अपने इस अहद को तोड़ने के बाइस हमने उन पर लानत फ़रमायी” | فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ لَعَنّٰهُمْ |
मैंने सूरतुन्निसा आयत 155 में “لَعَنّٰهُمْ” महज़ूफ़ क़रार दिया था, लेकिन यहाँ पर यह वाज़ेह होकर आ गया है कि हमने उनके इस मीसाक़ को तोड़ने की पादाश में उन पर लानत फ़रमायी।
“और उनके दिलों को सख्त कर दिया।” | وَجَعَلْنَا قُلُوْبَهُمْ قٰسِـيَةً ۚ |
जैसे सूरतुल बक़रह में फ़रमाया: {ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَهِىَ كَالْحِجَارَةِ اَوْ اَشَدُّ قَسْوَةً ۭ } (आयत:74) “फिर तुम्हारे दिल सख्त हो गये उसके बाद, पत्थरों की तरह बल्कि पत्थरों से भी बढ़ कर सख्त।” यहाँ पर वही बात दोहराई गयी है।
“वह कलाम को उसके असल मक़ाम से हटाते थे” | يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِهٖ ۙ |
“और जो कुछ उनको दिया गया था नसीहत के तौर पर उसके अक्सर हिस्से को वह भूल गये।” | وَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِهٖ ۚ |
और उन्होंने उससे फ़ायदा उठाना छोड़ दिया।
“और (ऐ नबी ﷺ) आप हमेशा उनकी तरफ़ से ख्यानत की इत्तलाअ पाते रहेंगे” | وَلَا تَزَالُ تَطَّلِعُ عَلٰي خَاۗىِٕنَةٍ مِّنْهُمْ |
रसूल अल्लाह ﷺ जैसे ही मदीने पहुँचे थे तो आप ﷺ ने उस नयी जगह पर अपनी पोज़ीशन मज़बूत करने के लिये पहले छ: महीनों में जो तीन काम किये उनमें से एक यह भी था कि यहूद के तीनों क़बीलों से मदीना के मुश्तरका दिफ़ा के मुआहिदे कर लिये कि अगर मदीने पर हमला होगा तो सब मिल कर इसका दिफ़ा करेंगे, लेकिन बाद में उनमें से हर क़बीले ने एक-एक करके ग़द्दारी की। चुनाँचे नबी अकरम ﷺ से फ़रमाया जा रहा है कि उनकी तरफ़ से मुसलसल ख्यानतें होती रहेंगी, लिहाज़ा आपको उनकी तरफ़ से होशियार रहना चाहिये और उनका तोड़ करने के लिये पहले से तैयार रहना चाहिये।
“सिवाय उनमें से चंद एक के” | اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ |
उनमें से बहुत थोड़े लोग इससे मुस्तशना (मुक्त) हैं।
“लिहाज़ा (अभी) आप ﷺ उन्हें माफ़ करते रहें और दरगुज़र से काम लें।” | فَاعْفُ عَنْهُمْ وَاصْفَحْ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला अहसान करने वालों को पसंद फ़रमाता है।” | اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ 13 |
आयत 14
“और जिन लोगों ने कहा हम नसारा हैं, हमने उनसे भी मीसाक़ लिया” | وَمِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰٓى اَخَذْنَا مِيْثَاقَهُمْ |
“तो वह भी भूल गये बड़ा हिस्सा उसका जिसकी उनको नसीहत की गयी थी।” | فَنَسُوْا حَظًّا مِّمَّا ذُكِّرُوْا بِهٖ ۠ |
वह उस नसीहत से फ़ायदा उठाना भूल गये।
“तो हमने डाल दी उनके दरमियान दुश्मनी और बुग्ज़ क़यामत के दिन तक।” | فَاَغْرَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۭ |
यहाँ एक अहम नुक्ता तो यह है कि ईसाईयों और यहूदियों के दरमियान पूरे उन्नीस सौ बरस शदीद दुश्मनी रही है। मौजूदा दौर में सूरते हाल आरज़ी तौर पर कुछ तब्दील हो गयी है। ईसाई जिन्हें अल्लाह का बेटा बल्कि ख़ुदा समझते हैं, यहूदियों ने उन्हें वलदुज्ज़िना क़रार दिया और काफ़िर व मुर्तद कहते हुए वाजिबुल क़त्ल ठहराया। यह बुनियादी इख्तलाफ़ दोनों मज़ाहिब के पैरोकारों में इस क़द्र अहम और शदीद है कि इसकी मौजूदगी में दोनों में इत्तेहाद व इत्तेफ़ाक़ मुमकिन ही नहीं। लेकिन आयत ज़ेरे नज़र में बुनियादी तौर पर ईसाईयों की आपस की दुश्मनी और उनका बाहम बुग्ज़ व अनाद (विरोध) मुराद है। उनके मुख्तलिफ़ फ़िरक़ों के दरमियान नज़रियाती इख्तलाफ़ात उनकी दिली कदुरतों और नफ़रतों से बढ़ कर बारहा (बार-बार) बाहमी जंग व जदल (झगड़े) की शक्ल में नमूदार होते रहे हैं। मज़हबी बुनियादों पर ईसाई फ़िरक़ों की आपस की खाना जंगियों की मिसाल पूरी इंसानी तारीख में नहीं मिलती। मज़हब के नाम पर ईसाईयों की खूँरेज़ी और क़त्ल व ग़ारतगरी की इबरत आमोज़ और रोंगटे खड़े कर देने वाली तफ़सीलात “Blood on the Cross” नामी ज़खीम किताब में मिलती हैं, जो लन्दन से शाया हुई है। ख़ास तौर पर प्रोटेस्टेंट्स (Protestants) और कैथोलिक्स (Catholics) की बाहमी चप्पलिश तो कोई पोशीदा राज़ नहीं, जिसकी हल्की सी झलक आज भी हमें आयरलैंड में नज़र आती है।
“और अनक़रीब अल्लाह तआला जितला देगा उन्हें जो कुछ वह करते रहे थे।” | وَسَوْفَ يُنَبِّئُهُمُ اللّٰهُ بِمَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ 14 |
अब फिर वही अंदाज़ है जो सूरतुन्निसा के आखिर में था।
आयत 15
“ऐ अहले किताब, आ गया है तुम्हारे पास हमारा रसूल” | يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلُنَا |
“जो ज़ाहिर कर रहा है तुम पर वह बहुत सी बातें जिनको तुम छुपा रहे थे किताब में से” | يُبَيِّنُ لَكُمْ كَثِيْرًا مِّمَّا كُنْتُمْ تُخْفُوْنَ مِنَ الْكِتٰبِ |
“और बहुत सी बातों से तो दरगुज़र भी कर रहा है।” | وَيَعْفُوْا عَنْ كَثِيْرٍ ڛ |
“आ चुका है तुम्हारे पास अल्लाह की तरफ़ से एक नूर भी और एक रोशन किताब भी।” | قَدْ جَاۗءَكُمْ مِّنَ اللّٰهِ نُوْرٌ وَّكِتٰبٌ مُّبِيْنٌ 15ۙ |
यहाँ नूर से मुराद नबी अकरम ﷺ की शख्सियत भी हो सकती है। सूरतुन्निसा आयत 174 में जो फ़रमाया गया: {وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكُمْ نُوْرًا مُّبِيْنًا} “और नाज़िल कर दिया है हमने तुम्हारी तरफ़ एक रोशन नूर” वहाँ नूर से मुराद क़ुरान है, इसलिये कि हुज़ूर ﷺ के लिये फ़अल وَاَنْزَلْنَآ दुरुस्त नहीं। लेकिन यहाँ ज़्यादा अहतमाल (सम्भावना) यही है कि नूर से मुराद रसूल अल्लाह ﷺ की ज़ाते मुबारका है, यानि आप ﷺ की रूहे पुरनूर, क्योंकि आप ﷺ की रूह और रूहानियत आप ﷺ के पूरे वजूद पर ग़ालिब थी, छायी हुई थी। इस लिहाज़ से आप ﷺ को नूरे मुजस्सम भी कहा जा सकता है। गोया आप ﷺ को इस्तआरतन “नूर” कहा गया है। एक अहतमाल यह भी है कि यहाँ नूर भी क़ुरान पाक ही को कहा गया हो और “वाव” इसमें वावे तफ़सीरी हो। इस सूरत में मफ़हूम यूँ होगा: “आ गया है तुम्हारे पास नूर यानि किताबे मुबीन।”
आयत 16
“इसके ज़रिये से अल्लाह तआला रहनुमाई फ़रमाता है उनकी जो उसकी रज़ा के तालिब हैं, सलामती के रास्तों की तरफ़” | يَّهْدِيْ بِهِ اللّٰهُ مَنِ اتَّبَعَ رِضْوَانَهٗ سُبُلَ السَّلٰمِ |
“और निकलता है उन्हें अन्धेरों से रोशनी की तरफ़ अपने हुक्म से और उनकी रहनुमाई फ़रमाता है सीधे रास्ते की तरफ़।” | وَيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ بِاِذْنِهٖ وَيَهْدِيْهِمْ اِلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ 16 |
आयत 17
“यक़ीनन कुफ़्र किया उन्होंने जिन्होंने कहा कि अल्लाह ही मसीह इब्ने मरयम है।” | لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ ۭ |
हज़रत ईसा अलै० के बारे में ईसाईयों के यहाँ जो अक़ीदे रहे हैं उनमें से एक यह है कि अल्लाह ही मसीह अलै० है। इस अक़ीदे की बुनियाद इस नज़रिये पर क़ायम है कि ख़ुदा ख़ुद ही इन्सानी शक्ल में ज़हूर कर लेता है। इस अक़ीदे को God Incarnate कहा जाता है, यानि अवतार का अक़ीदा जो हिन्दुओं में भी है। जैसे राम चन्द्र जी, कृष्ण जी महाराज उनके यहाँ ख़ुदा के अवतार माने जाते हैं। चुनाँचे ईसाईयों का फ़िरक़ा Jacobites ख़ास तौर पर God Incarnate के अक़ीदे का सख्ती से क़ायल रहा है, कि असल में अल्लाह ही ने हज़रत मसीह अलै० की शक्ल में दुनिया में ज़हूर फ़रमाया। जैसे हमारे यहाँ भी बाज़ लोग नबी अकरम ﷺ की मोहब्बत व अक़ीदत और अज़मत के इज़हार में गुलु से काम लेकर हद से तजावुज़ करते हुए यहाँ तक कह जाते हैं:
वही जो मुस्तवी-ए-अर्श था ख़ुदा होकर
उतर पड़ा वह मदीने में मुस्तफ़ा होकर
ईसाईयों के इसी अक़ीदे का इब्ताल (खंडन) इस आयत में किया गया है।
“तो उनसे पूछिये कौन है जिसे इख़्तियार हो अल्लाह के मुक़ाबले कुछ भी” | قُلْ فَمَنْ يَّمْلِكُ مِنَ اللّٰهِ شَـيْـــًٔـا |
“अगर वह हलाक करना चाहे मसीह अलै० इब्ने मरयम को और उसकी माँ को” | اِنْ اَرَادَ اَنْ يُّهْلِكَ الْمَسِيْحَ ابْنَ مَرْيَمَ وَاُمَّهٗ |
“और जो ज़मीन में हैं उन सबको” | وَمَنْ فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا ۭ |
अगर अल्लाह इन सबको हलाक करना चाहे तो कौन है जो उसका हाथ रोक लेगा?
“और अल्लाह ही के लिये है बादशाही आसमानों और ज़मीन की और जो कुछ इन दोनों के दरमियान है (सबकी)।” | وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا ۭ |
“वह पैदा करता है जो कुछ चाहता है।” | يخْلُقُ مَا يَشَاۗءُ ۭ |
“और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।” | وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 17 |
वह जो चाहता है, जैसे चाहता है, तख्लीक़ फ़रमाता है। उसने आदम, ईसा और याहया (अलै०) को तख्लीक़ फ़रमाया। यह अल्लाह तआला के ऐजाज़े तख्लीक़ की मुख्तलिफ़ मिसालें हैं।
आयत 18
“यहूदी और नसरानी कहते हैं कि हम अल्लाह के बेटे हैं और उसके बड़े चहेते हैं।” | وَقَالَتِ الْيَھُوْدُ وَالنَّصٰرٰى نَحْنُ اَبْنٰۗؤُا اللّٰهِ وَاَحِبَّاۗؤُهٗ ۭ |
यानि बेटों की मानिन्द हैं, बड़े लाड़ले और प्यारे हैं।
“(तो इनसे) कहिये कि फिर वह तुम्हें अज़ाब क्यों देता रहा है तुम्हारे गुनाहों की पादाश में?” | قُلْ فَلِمَ يُعَذِّبُكُمْ بِذُنُوْبِكُمْ ۭ |
अगर तुम अल्लाह की औलाद हो, उसके बड़े चहेते हो, तो क्या इसी लिये बख्तनसर (Nebukadnezar) के हाथों उसने तुम्हें पिटवाया, तुम्हारे छ: लाख अफ़राद क़त्ल करवा दिये, छ: लाख क़ैदी बने, तुम्हारा हैकले अव्वल भी शहीद कर दिया गया। फिर आशूरियों ने तुम्हारी सल्तनत इसराइल को रौंद डाला। फिर यूनानियों के हाथों तुम्हारा इस्तहसाल (शोषण) हुआ। फिर रोमियों ने तुम्हारे ऊपर ज़ुल्म व बरबरियत के पहाड़ तोड़े और रोमन जनरल टाइटस (Titus) ने तुम्हारा दूसरा हैकल भी मस्मार कर दिया। क्या ऐसे ही लाड़ले होते हैं अल्लाह के? क्या अल्लाह इतना ही लाचार और आजिज़ है कि अपने लाडलों को ज़िल्लत व ख्वारी और ज़ुल्म व सितम से बचा नहीं सकता?
“(नहीं) बल्कि तुम भी इन्सान हो जैसे दूसरे इन्सान उसने पैदा किये हैं।” | بَلْ اَنْتُمْ بَشَرٌ مِّمَّنْ خَلَقَ ۭ |
“वह जिसे चाहता है बख्श देता है और जिसे चाहता है सज़ा देता है।” | يَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ |
“और अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन और जो कुछ इन दोनों के दरमियान है, सबकी बादशाही” | وَلِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا بَيْنَهُمَا ۡ |
“और उसी की तरफ़ लौट कर जाना है।” | وَاِلَيْهِ الْمَصِيْرُ 18 |
आयत 19
“ऐ अहले किताब! तुम्हारे पास आ चुका है हमारा रसूल” | يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ قَدْ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلُنَا |
“जो तुम्हारे लिये (दीन को) वाज़ेह कर रहा है, रसूलों के एक वक़्फ़े के बाद” | يُبَيِّنُ لَكُمْ عَلٰي فَتْرَةٍ مِّنَ الرُّسُلِ |
हज़रत ईसा अलै० और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के दरमियान छ: सौ बरस ऐसे गुज़रे हैं कि उस दौरान दुनिया में कोई नबी, कोई रसूल नहीं रहा। इस वक़्फ़े को इस्तलाह में ‘फ़ितरत’ कहा जाता है। फिर हुज़ूर ﷺ की बेअसत हुई और फिर इसके बाद ता क़यामे क़यामत रिसालत का दरवाज़ा बंद हो गया।
“मबादा तुम कहो कि हमारे पास तो आया ही नहीं था कोई बशारत देने वाला और ना कोई ख़बरदार करने वाला” | اَنْ تَقُوْلُوْا مَا جَاۗءَنَا مِنْۢ بَشِيْرٍ وَّلَا نَذِيْرٍ ۡ |
“तो (सुन लो!) आ गया है तुम्हारे पास बशारत देने वाला और ख़बरदार करने वाला।” | فَقَدْ جَاۗءَكُمْ بَشِيْرٌ وَّنَذِيْرٌ ۭ |
“और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।” | وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 19ۧ |
सूरतुन्निसा (आयत:165) में यही बात इस अंदाज़ से बयान हो चुकी है: {رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَي اللّٰهِ حُجَّــةٌۢ بَعْدَ الرُّسُلِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا }
आयात 20 से 26 तक
وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ يٰقَوْمِ اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ جَعَلَ فِيْكُمْ اَنْۢبِيَاۗءَ وَجَعَلَكُمْ مُّلُوْكًا ڰ وَّاٰتٰىكُمْ مَّا لَمْ يُؤْتِ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ 20 يٰقَوْمِ ادْخُلُوا الْاَرْضَ الْمُقَدَّسَةَ الَّتِيْ كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ وَلَا تَرْتَدُّوْا عَلٰٓي اَدْبَارِكُمْ فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ 21 قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّ فِيْهَا قَوْمًا جَبَّارِيْنَ ڰ وَاِنَّا لَنْ نَّدْخُلَهَا حَتّٰي يَخْرُجُوْا مِنْهَا ۚ فَاِنْ يَّخْرُجُوْا مِنْهَا فَاِنَّا دٰخِلُوْنَ 22 قَالَ رَجُلٰنِ مِنَ الَّذِيْنَ يَخَافُوْنَ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمَا ادْخُلُوْا عَلَيْهِمُ الْبَابَ ۚ فَاِذَا دَخَلْتُمُوْهُ فَاِنَّكُمْ غٰلِبُوْنَ ۥ ۚ وَعَلَي اللّٰهِ فَتَوَكَّلُوْٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ 23 قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّا لَنْ نَّدْخُلَهَآ اَبَدًا مَّا دَامُوْا فِيْهَا فَاذْهَبْ اَنْتَ وَرَبُّكَ فَقَاتِلَآ اِنَّا ھٰهُنَا قٰعِدُوْنَ 24 قَالَ رَبِّ اِنِّىْ لَآ اَمْلِكُ اِلَّا نَفْسِيْ وَاَخِيْ فَافْرُقْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ 25 قَالَ فَاِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيْهِمْ اَرْبَعِيْنَ سَـنَةً ۚ يَتِيْھُوْنَ فِي الْاَرْضِ ۭ فَلَا تَاْسَ عَلَي الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ 26ۧ
अब हज़रत मूसा अलै० का वह वाक़िया आ रहा है जब आप अलै० मिस्र से अपनी क़ौम को लेकर निकले, सहराए सीना में रहे, आप अलै० को कोहे तूर पर बुलाया गया और तौरात दी गयी। इसके बाद उन्हें हुक्म हुआ कि फ़लस्तीन में दाख़िल हो जाओ और वहाँ पर आबाद मुशरिक और काफ़िर क़ौम (जो फ़लस्तई कहलाते थे) के साथ जंग करो और उन्हें वहाँ से निकालो, क्योंकि यह अर्ज़े मुक़द्दस तुम्हारे लिये अल्लाह की तरफ़ से मौऊद (promised) है। इसलिये कि उनके जद्दे अमजद हज़रत इब्राहीम अलै० और हज़रत इस्हाक़ और हज़रत याक़ूब अलै० का ताल्लुक़ इस ख़ित्ते से था। फिर हज़रत याक़ूब अलै० के ज़माने में हज़रत युसुफ़ अलै० की वसातत (ज़रिये) से बनी इसराइल मिस्र में मुन्तक़िल (move) हुए तो उन्हें हुक्म हुआ कि अब जाओ, अपने असल घर (अर्ज़े फ़लस्तीन) को दोबारा हासिल करो। लेकिन जब जंग का मौक़ा आया तो पूरी क़ौम ने कोरा जवाब दे दिया कि हम जंग करने के लिये तैयार नहीं हैं। इस पर हज़रत मूसा अलै० के मिज़ाज में जो तल्खी पैदा हुई और तबीयत के अन्दर बेज़ारी की जो कैफ़ियत पैदा हुई, उसकी शिद्दत यहाँ नज़र आती है। आम तौर पर समझा जाता है कि रसूल अपनी उम्मत के हक़ में सरापा शफ़क्क़त होता है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि नबी का मामला भी अल्लाह तआला की मानिन्द है। जैसे अल्लाह रऊफ़ भी है, वदूद भी, लेकिन साथ ही वह अज़ीज़ुन ज़ुनतिक़ाम भी है (अल्लाह की यह दोनों शानें एक साथ हैं) इसी तरह रसूल का मामला है कि रसूल शफ़ीक़ और रहीम होने के साथ-साथ गय्यूर भी होता है। नबी के दिल में दीन की गैरत अपने पैरोकारों से कहीं बढ़ कर होती है। लिहाज़ा क़ौम के मनफ़ी रद्दे अमल पर नबी की बेज़ारी लाज़मी है।
यहाँ पर एक बहुत अहम नुक्ता समझने का यह है कि बनी इसराइल को पे-दर-पे मौअज्ज़ात के ज़हूर ने तसाहिल पसंद बना दिया था। प्यास लगी तो चट्टान पर मूसा अलै० की एक ही ज़र्ब से बारह चश्मे फूट पड़े, भूख महसूस हुई तो मन्न व सलवा नाज़िल हो गया, धूप ने सताया तो अब्र का सायबान साथ-साथ चल पड़ा, समुन्दर रास्ते में आया तो असा की ज़र्ब से रास्ता बन गया। ऐसा महसूस होता है कि इस लाड़-प्यार की वजह से वह बिगड़ गये, आराम तलब हो गये, मुश्किल की हर घड़ी में उन्हें मौअज्ज़े के ज़हूर की आदत सी पड़ गयी और जंग के मौक़े पर दुश्मन का सामना करने से इन्कार कर दिया, बावजूद यह कि उनके कम से कम एक लाख अफ़राद तो ऐसे थे जो जंग की सलाहियत रखते थे। यही हिकमत है कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की पूरी ज़िन्दगी में इस क़िस्म का कोई मौअज्ज़ा नज़र नहीं आता, बल्कि यह नक़्शा नज़र आता है कि मुसलमानों! तुम्हें जो कुछ करना है अपनी जान देकर, ईसार व क़ुर्बानी से, मेहनत व मशक्क़त से, भूख झेल कर, फ़ाक़े बर्दाश्त करके करना है। चुनाँचे बनी इसराइल के बरअक्स रसूल अल्लाह ﷺ के साथियों में ईसार व क़ुर्बानी, जुर्रात व बहादुरी और बुलन्द हिम्मती नज़र आती है, जिसकी वाज़ेह मिसाल गज़वा-ए-बद्र के मौक़े पर हज़रत मिक़दाद रज़ि० का यह क़ौल है:
یَا رَسُوْلَ اللہِ اِنَّا لَا نَقُوْلُ لَکَ کَمَا قَالَتْ بَنُوْ اِسْرَائِیْلَ لِمُوْسٰی (فَاذْھَبْ اَنْتَ وَ رَبُّکَ فَقَاتِلَا اِنَّا ھٰھُنَا قَاعِدُوْنَ) وَلٰکِنِ امْضِ وَ نَحْنُ مَعَکَ، فَکَاَنَّہٗ سُرِّیَ عَنْ رَسُوْلِ اللہِ ﷺ۔
“या रसूल अल्लाह! हम आप ﷺ से बनी इसराइल की तरह यह नहीं कहेंगे कि तुम और तुम्हारा रब जाकर क़िताल करो हम तो यहाँ बैठे हैं। बल्कि (हम कहेंगे) आप ﷺ क़दम बढाइये, हम आप ﷺ के साथ हैं! इस पर गोया रसूल अल्लाह ﷺ की परेशानी का इज़ाला हो गया।”
आयत 20
“और याद करो जब कहा मूसा अलै० ने अपनी क़ौम से” | وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ |
“ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह के उस ईनाम को याद करो जो तुम पर हुआ है” | اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ |
“जब उसने तुम्हारे अन्दर नबी उठाये” | اِذْ جَعَلَ فِيْكُمْ اَنْۢبِيَاۗءَ |
यानि ख़ुद मैं नबी हूँ, मेरे भाई हारुन नबी हैं। हज़रत युसुफ़, हज़रत याक़ूब, हज़रत इस्हाक़ और हज़रत इब्राहीम अलै० सब नबी थे।
“और तुम्हें बादशाह बनाया” | وَجَعَلَكُمْ مُّلُوْكًا ڰ |
अगरचे उस वक़्त तक उनकी बादशाहत तो क़ायम नहीं हुई थी मगर हो सकता है कि यह पेशनगोई हो कि आइन्दा तुम्हें अल्लाह तआला ज़मीन की सल्तनत और ख़िलाफ़त अता करने वाला है। चुनाँचे हज़रत दाऊद और हज़रत सुलेमान अलै० के ज़माने में बनी इसराइल की अज़ीमुश्शान सल्तनत क़ायम हुई। एक राय यह भी है कि यहाँ हज़रत युसुफ़ अलै० के इक़तदार (power) की तरफ़ इशारा है, वह अगरचे मिस्र के बादशाह तो नहीं थे लेकिन बादशाहों के भी मखदूम व ममदूह थे और बनी इसराइल को मिस्र में पीरज़ादों का सा इज़्ज़त व अहतराम हासिल हो गया था।
“और तुम्हें वह कुछ दिया जो तमाम जहान वालों में से किसी को नहीं दिया।” | وَّاٰتٰىكُمْ مَّا لَمْ يُؤْتِ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ 20 |
आयत 21
“(तो) ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अब दाख़िल हो जाओ इस अर्ज़े मुक़द्दस (फ़लस्तीन) में जो अल्लाह ने तुम्हारे लिये लिख दी है” | يٰقَوْمِ ادْخُلُوا الْاَرْضَ الْمُقَدَّسَةَ الَّتِيْ كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ |
अल्लाह का फ़ैसला है कि वह ज़मीन तुम्हें मिलेगी।
“और अपनी पीठों के बल वापस ना फिरना” | وَلَا تَرْتَدُّوْا عَلٰٓي اَدْبَارِكُمْ |
“(और अगर ऐसा करोगे) तो नाकाम व नामुराद पलटोगे।” | فَتَنْقَلِبُوْا خٰسِرِيْنَ 21 |
आयत 22
“उन्होंने कहा ऐ मूसा! इसमें तो बड़े ज़ोर आवर लोग हैं” | قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّ فِيْهَا قَوْمًا جَبَّارِيْنَ ڰ |
हम फ़लस्तीन में कैसे दाख़िल हो जायें? यहाँ तो जो लोग आबाद हैं वह बड़े ताक़तवर, गिराँ डेल और ज़बरदस्त हैं। हम उनका मुक़ाबला कैसे कर सकते हैं?
“और हम उस (सरज़मीन) में दाख़िल नहीं होंगे जब तक वह वहाँ से निकल ना जायें।” | وَاِنَّا لَنْ نَّدْخُلَهَا حَتّٰي يَخْرُجُوْا مِنْهَا ۚ |
“हाँ अगर वह वहाँ से निकाल जायें तो फिर हम दाख़िल हो जाएँगे।” | فَاِنْ يَّخْرُجُوْا مِنْهَا فَاِنَّا دٰخِلُوْنَ 22 |
आयत 23
“कहा दो अश्खास ने जो (अल्लाह का) खौफ़ रखने वालों में से थे” | قَالَ رَجُلٰنِ مِنَ الَّذِيْنَ يَخَافُوْنَ |
“और अल्लाह ने भी उन दोनों पर ईनाम किया था” | اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمَا |
यह दो अश्खास (शख्स) हज़रत मूसा अलै० के शागिर्द और क़रीबी हवारी थे। एक तो यूशा बिन नून थे, जो हज़रत मूसा अलै० के बाद उनके जानशीन भी हुए और गुमाने ग़ालिब है कि वह नबी भी थे, जबकि दूसरे शख्स कालिब बिन युफ़न्ना थे। इन दोनों ने अपनी क़ौम के लोगों को समझाना चाहा कि हिम्मत करो:
“तुम उनके मुक़ाबले में दरवाज़े के अन्दर घुस जाओ।” | ادْخُلُوْا عَلَيْهِمُ الْبَابَ ۚ |
तुम लोग एक दफ़ा दरवाज़े में घुस कर उनका सामना तो करो।
“और जब तुम उसमें दाख़िल होगे तो लाज़िमन तुम ग़ालिब हो जाओगे।” | فَاِذَا دَخَلْتُمُوْهُ فَاِنَّكُمْ غٰلِبُوْنَ ۥ ۚ |
“और अल्लाह पर तवक्कुल करो अगर तुम मोमिन हो।” | وَعَلَي اللّٰهِ فَتَوَكَّلُوْٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ 23 |
आयत 24
“उन्होंने कहा ऐ मूसा हम तो हरगिज़ इस शहर में दाख़िल नहीं होंगे | قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّا لَنْ نَّدْخُلَهَآ اَبَدًا |
“जब तक कि वह इसमें मौजूद हैं” | مَّا دَامُوْا فِيْهَا |
“बस तुम और तुम्हारा रब दोनों जाओ और जाकर क़िताल करो” | فَاذْهَبْ اَنْتَ وَرَبُّكَ فَقَاتِلَآ |
गोया वह यह भी कह रहे थे कि साथ अपनी यह लठिया भी लेते जाओ, जिसने बड़े-बड़े कारनामे दिखाये हैं, इसकी मदद से उन जब्बारों को शिकस्त दे दो।
“हम तो यहाँ बैठे हैं।” | اِنَّا ھٰهُنَا قٰعِدُوْنَ 24 |
हम तो यहाँ टिके हुए हैं, यहाँ से नहीं हिलेंगे, ज़मीन जनबद, ना जनबद गुल मुहम्मद!
यह मक़ामे इबरत है, तौरात (Book of Exsodus) से मालूम होता है कि मिस्र से हज़रत मूसा अलै० के साथ लगभग छ: लाख अफ़राद निकले थे। उनमें से औरतें, बच्चे और बूढ़े निकाल दें तो एक लाख अफ़राद तो जंग के क़ाबिल होंगे। मज़ीद मोहतात अंदाज़ा लगायें तो पचास हज़ार जंगजू तो दस्तयाब हो सकते थे, मगर उस क़ौम की पस्त हिम्मती और नज़रियाती कमज़ोरी मुलाहिज़ा हो कि छ: लाख के हुजूम में से सिर्फ़ दो अश्खास ने अल्लाह के इस हुक्म पर लब्बैक कहा। فاعتبروا یا اُولِی الابصار!
अब नबी की बेज़ारी मुलाहिज़ा फ़रमायें। वही हज़रत मूसा अलै० जिन्होंने अपने हम क़ौम इसराइली की मुदाफ़अत (बचाव) करते हुए एक मुक्का रसीद करके क़िब्ती की जान निकाल दी थी {فَوَكَزَهٗ مُوْسٰى فَقَضٰى عَلَيْهِ ڭ} (अल् क़सस:15) अब अपनी क़ौम से किस क़दर बेज़ारी का इज़हार कर रहे हैं।
आयत 25
“मूसा अलै० ने अर्ज़ किया परवरदिगार, मुझे तो इख़्तियार नहीं है सिवाय अपनी जान के और अपने भाई (हारुन अलै० की जान) के” | قَالَ رَبِّ اِنِّىْ لَآ اَمْلِكُ اِلَّا نَفْسِيْ وَاَخِيْ |
बाक़ी यह पूरी क़ौम इन्कार कर रही है। मेरा किसी पर कुछ ज़ोर नहीं है।
“तो अब तफ़रीक़ कर दे, हमारे और इन नाफ़रमान लोगों के दरमियान।” | فَافْرُقْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ 25 |
हज़रत मूसा अलै० क़ौम के रवैय्ये से इस दर्जा आज़रदा खातिर हुए कि क़ौम से अलैहदगी की तमन्ना करने लगे कि मैं अब इन नाहंजारों के साथ नहीं रहना चाहता। इन्होंने तेरी अता करदा क्या कुछ नेअमतें बरती हैं और मेरे हाथों से क्या-क्या मौअज्ज़े यह लोग देख चुके हैं, इसके बावजूद इनका यह हाल है तो मुझे इनसे अलैहदा कर दे। अल्लाह तआला ने उनकी यह दरख्वास्त क़ुबूल नहीं की लेकिन इसका तज़किरा भी नहीं किया।
आयत 26
“फ़रमाया अब यह (अर्ज़े मुक़द्दस) हराम रहेगी इन पर चालीस साल तक।” | قَالَ فَاِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيْهِمْ اَرْبَعِيْنَ سَـنَةً ۚ |
यह हमारी तरफ़ से इनकी बुज़दिली की सज़ा है। अगर यह बुज़दिली ना दिखाते तो अर्ज़े फ़लस्तीन अभी इनको अता कर दी जाती, मगर अब यह चालीस साल तक इन पर हराम रहेगी।
“यह भटकते फिरेंगे ज़मीन में।” | يَتِيْھُوْنَ فِي الْاَرْضِ ۭ |
इस सहराये सीना में यह चालीस साल तक मारे-मारे फिरते रहेंगे।
“तो (ऐ मूसा अलै०) आप अफ़सोस ना करें इस फ़ासिक़ क़ौम पर।” | فَلَا تَاْسَ عَلَي الْقَوْمِ الْفٰسِقِيْنَ 26ۧ |
अब आप इन नाफ़रमानों का ग़म ना खाइये। अब जो कुछ इन पर बीतेगी उस पर आप अलै० को तरस नहीं खाना चाहिये। आप बहरहाल इनकी तरफ़ रसूल बना कर भेजे गये हैं, जब तक ज़िन्दगी है आपको इनके साथ रहना है।
अल्लाह तआला के फ़ैसले के मुताबिक़ बनी इसराइल चालीस बरस तक सहराये सीना में भटकते फिरे। इस दौरान में वह सब लोग मर-खप गये जो जवानी की उम्र में मिस्र से निकले थे और सहरा में एक नयी नस्ल परवान चढ़ी जो खू-ए-गुलामी से मुबर्रा थी। हज़रत मूसा और हारुन अलै० दोनों का इन्तेक़ाल हो गया और इसके बाद हज़रत यूशा बिन नून के अहदे ख़िलाफ़त में बनी इसराइल इस क़ाबिल हुए कि फ़लस्तीन फ़तह कर सकें।
अब ज़रा इस पसमंज़र में सूरतुन्निसा में नाज़िल होने वाले हुक्म को भी याद करें। यहाँ तो हज़रत मूसा अ० का क़ौल नक़ल हुआ है:{لَآ اَمْلِكُ اِلَّا نَفْسِيْ وَاَخِيْ} लेकिन वहाँ (सूरतुन्निसा, आयत:84 में) हुज़ूर ﷺ से फ़रमाया गया था: {فَقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ لَا تُكَلَّفُ اِلَّا نَفْسَكَ وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ }। “(ऐ नबी ﷺ) आप अल्लाह की राह में क़िताल कीजिये, आप ﷺ अपने सिवा किसी के ज़िम्मेदार नहीं हैं, अलबत्ता अहले ईमान को भी तरगीब दें।” आप ﷺ पर किसी और की ज़िम्मेदारी नहीं है सिवाय अपनी जान के, अलबत्ता आप ﷺ अहले ईमान को जिस क़दर तरगीब (प्रोत्साहन) व तशवीक़ (प्रेरणा) दिला सकते हैं दिलायें, उनके जज़्बाते ईमानी को जिस-जिस अंदाज़ से अपील करना मुमकिन है करें, और बस इससे ज़्यादा आप ﷺ पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं।
अब पाँचवें रुकूअ में क़त्ले नाहक़, मुल्क में फ़साद फैलाने और चोरी-डाके जैसे जराइम के बारे में इस्लामी नुक़्ता-ए-नज़र और फिर उनकी सज़ाओं का ज़िक्र होगा।
आयात 27 से 34 तक
وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ ابْنَيْ اٰدَمَ بِالْحَقِّ ۘاِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا فَتُقُبِّلَ مِنْ اَحَدِهِمَا وَلَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْاٰخَرِ ۭ قَالَ لَاَقْتُلَنَّكَ ۭ قَالَ اِنَّمَا يَتَقَبَّلُ اللّٰهُ مِنَ الْمُتَّقِيْنَ 27 لَىِٕنْۢ بَسَطْتَّ اِلَيَّ يَدَكَ لِتَقْتُلَنِيْ مَآ اَنَا بِبَاسِطٍ يَّدِيَ اِلَيْكَ لِاَقْتُلَكَ ۚ اِنِّىْٓ اَخَافُ اللّٰهَ رَبَّ الْعٰلَمِيْنَ 28 اِنِّىْٓ اُرِيْدُ اَنْ تَبُوْۗاَ بِاِثْمِيْ وَاِثْمِكَ فَتَكُوْنَ مِنْ اَصْحٰبِ النَّارِ ۚ وَذٰلِكَ جَزٰۗؤُ ا الظّٰلِمِيْنَ 29ۚ فَطَوَّعَتْ لَهٗ نَفْسُهٗ قَتْلَ اَخِيْهِ فَقَتَلَهٗ فَاَصْبَحَ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ 30 فَبَعَثَ اللّٰهُ غُرَابًا يَّبْحَثُ فِي الْاَرْضِ لِيُرِيَهٗ كَيْفَ يُوَارِيْ سَوْءَةَ اَخِيْهِ ۭ قَالَ يٰوَيْلَتٰٓى اَعَجَزْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِثْلَ هٰذَا الْغُرَابِ فَاُوَارِيَ سَوْءَةَ اَخِيْ ۚ فَاَصْبَحَ مِنَ النّٰدِمِيْنَ 31ٺ مِنْ اَجْلِ ذٰلِكَ ۃ كَتَبْنَا عَلٰي بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اَنَّهٗ مَنْ قَتَلَ نَفْسًۢابِغَيْرِ نَفْسٍ اَوْ فَسَادٍ فِي الْاَرْضِ فَكَاَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيْعًا ۭوَمَنْ اَحْيَاهَا فَكَاَنَّمَآ اَحْيَا النَّاسَ جَمِيْعًا ۭوَلَقَدْ جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنٰتِ ۡ ثُمَّ اِنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ بَعْدَ ذٰلِكَ فِي الْاَرْضِ لَمُسْرِفُوْنَ 32 اِنَّمَا جَزٰۗؤُا الَّذِيْنَ يُحَارِبُوْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَيَسْعَوْنَ فِي الْاَرْضِ فَسَادًا اَنْ يُّقَتَّلُوْٓا اَوْ يُصَلَّبُوْٓا اَوْ تُـقَطَّعَ اَيْدِيْهِمْ وَاَرْجُلُهُمْ مِّنْ خِلَافٍ اَوْ يُنْفَوْا مِنَ الْاَرْضِ ۭ ذٰلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِي الدُّنْيَاوَلَهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ 33ۙ اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَقْدِرُوْا عَلَيْهِمْ ۚ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 34ۧ
आयत 27
“और (ऐ नबी ﷺ) इनको पढ़ कर सुनाइये आदम अलै० के दो बेटों का क़िस्सा हक़ के साथ।” | وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ ابْنَيْ اٰدَمَ بِالْحَقِّ ۘ |
“जबकि उन दोनों ने क़ुर्बानी पेश की” | اِذْ قَرَّبَا قُرْبَانًا |
“तो उनमें से एक की क़ुर्बानी क़ुबूल कर ली गयी, जबकि दूसरे की क़ुबूल नहीं की गयी।” | فَتُقُبِّلَ مِنْ اَحَدِهِمَا وَلَمْ يُتَقَبَّلْ مِنَ الْاٰخَرِ ۭ |
आदम अलै० के यह दो बेटे हाबील और क़ाबील थे। हाबील भेड़-बकरियाँ चराता था और क़ाबील काश्तकार था। उन दोनों ने अल्लाह के हुज़ूर क़ुर्बानी दी। हाबील ने कुछ जानवर पेश किये, जबकि क़ाबील ने अनाज नज़र किया। हाबील की क़ुर्बानी क़ुबूल हो गयी मगर क़ाबील की क़ुबूल नहीं हुई। उस ज़माने में क़ुर्बानी की क़ुबूलियत की अलामत यह होती थी कि आसमान से एक शोला नीचे उतरता था और वह क़ुर्बानी की चीज़ को जला कर भस्म कर देता था। इसका मतलब यह था कि अल्लाह ने क़ुर्बानी को क़ुबूल फ़रमा लिया।
“उसने कहा मैं तुम्हें क़त्ल करके रहूँगा।” | قَالَ لَاَقْتُلَنَّكَ ۭ |
क़ाबील ने, जिसकी क़ुर्बानी क़ुबूल नहीं हुई थी, हसद की आग में जल कर अपने भाई हाबील से कहा कि मैं तुम्हें ज़िन्दा नहीं छोडूँगा।
“उसने जवाब दिया कि अल्लाह तो परहेज़गारों ही से क़ुबूल करता है।” | قَالَ اِنَّمَا يَتَقَبَّلُ اللّٰهُ مِنَ الْمُتَّقِيْنَ 27 |
हाबील ने कहा भाई जान, इसमें मेरा क्या क़ुसूर है? यह तो अल्लाह तआला का क़ायदा है कि वह सिर्फ़ अपने मुत्तक़ी बन्दों की क़ुर्बानी क़ुबूल करता है।
आयत 28
“अगर आप अपना हाथ चलाएँगे मुझ पर मुझे क़त्ल करने के लिये” | لَىِٕنْۢ بَسَطْتَّ اِلَيَّ يَدَكَ لِتَقْتُلَنِيْ |
“(तब भी) मैं अपना हाथ नहीं चलाऊँगा आपको क़त्ल करने के लिये।” | مَآ اَنَا بِبَاسِطٍ يَّدِيَ اِلَيْكَ لِاَقْتُلَكَ ۚ |
यानि अगर ऐसा हुआ तो यह एक तरफ़ा क़त्ल ही होगा।
“मुझे तो अल्लाह का खौफ़ है जो तमाम जहानों का परवरदिगार है।” | اِنِّىْٓ اَخَافُ اللّٰهَ رَبَّ الْعٰلَمِيْنَ 28 |
आयत 29
“मैं चाहता हूँ कि मेरा और अपना गुनाह तुम्ही अपने सर लो” | اِنِّىْٓ اُرِيْدُ اَنْ تَبُوْۗاَ بِاِثْمِيْ وَاِثْمِكَ |
“तो फिर तुम हो जाओगे जहन्नम वालों में से।” | فَتَكُوْنَ مِنْ اَصْحٰبِ النَّارِ ۚ |
अगर आप इस इन्तहा तक पहुँच जाएँगे कि मुझे क़त्ल कर ही देंगे तो आप अपने गुनाहों के साथ-साथ मेरी खताओं का बोझ भी अपने सर उठा लेंगे। एक बेगुनाह इन्सान को क़त्ल करने वाला गोया मक़तूल के तमाम गुनाहों का बोझ भी अपने सर उठा लेता है। यानि अगर आप मुझे नाहक़ क़त्ल करेंगे तो मेरे गुनाहों का वबाल भी आपके सर होगा और मेरे लिये तो यह कोई घाटे का सौदा नहीं है। अलबत्ता इस जुर्म की वजह से आप जहन्नमी हो जाएँगे।
“और यही बदला है ज़ालिमों का।” | وَذٰلِكَ جَزٰۗؤُ ا الظّٰلِمِيْنَ 29ۚ |
आयत 30
“बिलआखिर उसके नफ्स ने आमादा कर ही लिया उसे अपने भाई के क़त्ल पर” | فَطَوَّعَتْ لَهٗ نَفْسُهٗ قَتْلَ اَخِيْهِ |
इन अल्फ़ाज़ के बैनल सुतूर (between the lines) उसके ज़मीर की कशमकश का मुकम्मल नक़्शा मौजूद है। एक तरफ अल्लाह का खौफ़, नेकी का जज़्बा, खून का रिश्ता और दूसरी तरफ़ शैतानी तरगीब, हसद की आग और नफ्सानी ख्वाहिश की उकसाहट। और फिर बिलआखिर इस अन्दरूनी कशमकश में उसका नफ्स जीत ही गया।
“तो उसने उसे क़त्ल कर दिया और हो गया तबाह होने वालों में से।” | فَقَتَلَهٗ فَاَصْبَحَ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ 30 |
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आयत 31
“तो अल्लाह ने एक कव्वा भेजा जो ज़मीन कुरेदने लगा” | فَبَعَثَ اللّٰهُ غُرَابًا يَّبْحَثُ فِي الْاَرْضِ |
यह पहला खून था जो नस्ले आदम में हुआ। क़ाबील ने हाबील को क़त्ल तो कर दिया लेकिन अब उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था कि भाई की लाश का क्या करे, उसे कैसे dispose off करे, तो अल्लाह तआला ने एक कव्वे को भेज दिया जो उसके सामने अपनी चोंच से ज़मीन खोदने लगा।
“ताकि (अल्लाह) उसे दिखा दे कि अपने भाई की लाश को कैसे छुपाये।” | لِيُرِيَهٗ كَيْفَ يُوَارِيْ سَوْءَةَ اَخِيْهِ ۭ |
कव्वे के ज़मीन खोदने के अमल से उसे समझ आ जाये कि ज़मीन खोद कर लाश को दफ़न किया जा सकता है।
“(यह देखा तो) उसने कहा हाय मेरी शामत! मैं इस कव्वे जैसा भी ना हो सका कि अपने भाई की लाश को छुपा देता।” | قَالَ يٰوَيْلَتٰٓى اَعَجَزْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِثْلَ هٰذَا الْغُرَابِ فَاُوَارِيَ سَوْءَةَ اَخِيْ ۚ |
अफ़सोस मुझ पर! क्या मेरे अन्दर इस कव्वे जैसी अक़्ल भी ना थी कि यह तरीक़ा मुझे खुद ही सूझ जाता।
“फिर वह बहुत पशेमान हुआ।” | فَاَصْبَحَ مِنَ النّٰدِمِيْنَ 31ٺ |
इस अहसास पर उसके अन्दर बड़ी शदीद नदामत पैदा हुई।
आयत 32
“इस वजह से हमने बनी इसराइल पर (तौरात में) यह बात लिख दी थी” | مِنْ اَجْلِ ذٰلِكَ ۃ كَتَبْنَا عَلٰي بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ |
{ مِنْ اَجْلِ ذٰلِكَ} वाला फ़िक़रा पिछली आयत के साथ भी पढ़ा जा सकता है और इस आयत के साथ भी, यह दोनों तरफ़ बामायने बन सकता है।
“कि जिस किसी ने किसी इन्सान को क़त्ल किया बगैर किसी क़त्ल के क़िसास के” | اَنَّهٗ مَنْ قَتَلَ نَفْسًۢابِغَيْرِ نَفْسٍ |
यानि अगर किसी ने क़त्ल किया है और वह उसके क़िसास में क़त्ल किया जाये तो यह क़त्ल नाहक़ नहीं है।
“या बगैर ज़मीन में फ़साद फ़ैलाने (के जुर्म की सज़ा) के” | اَوْ فَسَادٍ فِي الْاَرْضِ |
अगर कोई शख्स मुल्क में फ़साद फ़ैलाने का मुजरिम है और उसे इस जुर्म की सज़ा के तौर पर क़त्ल कर दिया जाये तो उसका क़त्ल भी क़त्ले नाहक़ नहीं। लेकिन इन सूरतों के अलावा अगर किसी ने किसी बेक़सूर इन्सान को क़त्ल कर दिया।
“गोया उसने तमाम इंसानों को क़त्ल कर दिया।” | فَكَاَنَّمَا قَتَلَ النَّاسَ جَمِيْعًا ۭ |
उसका यह फ़अल ऐसा ही है जैसे उसने पूरी नौए इंसानी को तहे तेग कर दिया। इसलिये कि उसने क़त्ले नाहक़ से तमद्दुन व मआशरत की जड़ काट डाली। जान व माल का अहतराम ही तो तमद्दुन की जड़ और बुनियाद है।
“और जिसने उस (किसी एक इन्सान) की जान बचायी तो गोया उसने पूरी नौए इंसानी को ज़िन्दा कर दिया।” | وَمَنْ اَحْيَاهَا فَكَاَنَّمَآ اَحْيَا النَّاسَ جَمِيْعًا ۭ |
“और उनके पास हमारे रसूल आये थे वाज़ेह निशानियाँ लेकर” | وَلَقَدْ جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُنَا بِالْبَيِّنٰتِ ۡ |
“लेकिन इसके बावजूद उनमें से बहुत से लोग ज़मीन में ज़्यादतियाँ करते फिर रहे हैं।” | ثُمَّ اِنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ بَعْدَ ذٰلِكَ فِي الْاَرْضِ لَمُسْرِفُوْنَ 32 |
अब “आयते मुहारबा” आ रही है जो इस्लामी क़वानीन के लिहाज़ से बहुत अहम आयत है। मुहारबा यह है कि इस्लामी रियासत में कोई गिरोह फ़ितना व फ़साद मचा रहा है, दहशतगर्दी कर रहा है, खूंरेज़ी और क़त्लो गारत कर रहा है, राहज़नी और डाकाज़नी कर रहा है, गैंग रेप हो रहे हैं। इस आयत में ऐसे लोगों की सज़ा बयान हुई है। लेकिन वाज़ेह रहे कि यह इस्लामी रियासत की बात हो रही है, जहाँ इस्लामी क़ानून नाफ़िज़ हो, जहाँ इस्लाम का पूरा निज़ाम क़ायम हो। वरना अगर निज़ाम ऐसा हो कि झूठी गवाहियाँ देने वाले खुले आम सौदे कर रहे हों, ईमान फ़रोश मौजूद हों, जजों को ख़रीदा जा सकता हो और ऐसे निज़ाम के तहत शरई क़वानीन का निफ़ाज़ कर दिया जाये तो फिर इससे जो नतीजे निकलेंगे उनसे शरीअत उल्टा बदनाम होगी। लिहाज़ा रियासत में हुकूमती निज़ाम और मरवज्जा (प्रचलित) क़वानीन दोनों का दुरुस्त होना लाज़मी है। अगर ऐसा होगा तो यह दोनों एक-दूसरे को मज़बूत व मुस्तहकम करेंगे और इसी सूरत में मतलूबा नताइज की तवक्क़ो की जा सकती है।
आयत 33
“यही है सज़ा उन लोगों की जो लड़ाई करते हैं अल्लाह और उसके रसूल से” | اِنَّمَا جَزٰۗؤُا الَّذِيْنَ يُحَارِبُوْنَ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ |
यानि इस्लामी रियासत की अमलदारी को चैलेंज करते हैं।
“और ज़मीन में फ़साद फैलाते फिरते हैं” | وَيَسْعَوْنَ فِي الْاَرْضِ فَسَادًا |
“कि उन्हें (इबरतनाक तौर पर) क़त्ल किया जाये” | اَنْ يُّقَتَّلُوْٓا |
वाज़ेह रहे कि यहाँ फ़अल يُقْتَلُوْا इस्तेमाल नहीं हुआ बल्कि يُّقَتَّلُوْٓا है कि उनके टुकड़े किये जायें।
“या उन्हें सूली चढ़ाया जाये” | اَوْ يُصَلَّبُوْٓا |
“या उनके हाथ और पाँव मुखालिफ़ सिम्तों में काट दिये जायें” | اَوْ تُـقَطَّعَ اَيْدِيْهِمْ وَاَرْجُلُهُمْ مِّنْ خِلَافٍ |
यानि एक तरफ़ का हाथ और दूसरी तरफ़ का एक पाँव काटा जाये।
“या उन्हें मुल्क बदर कर दिया जाये।” | اَوْ يُنْفَوْا مِنَ الْاَرْضِ ۭ |
“यह तो उनके लिये दुनिया की ज़िन्दगी में रुसवाई है” | ذٰلِكَ لَهُمْ خِزْيٌ فِي الدُّنْيَا |
“और आख़िरत में उनके लिये (मज़ीद) बहुत बड़ा अज़ाब है।” | وَلَهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ 33ۙ |
आयत 34
“सिवाय उनके जो तौबा कर लें इससे पहले कि तुम उन पर क़ाबू पाओ।” | اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَقْدِرُوْا عَلَيْهِمْ ۚ |
यानि पकड़े जाने से पहले ऐसे लोग अगर तौबा कर लें तो उनके लिये रिआयत की गुंजाइश है, लेकिन जब पकड़ लिये गये तो तौबा का दरवाज़ा बंद हो गया।
“पस जान लो कि अल्लाह तआला मगफ़िरत फ़रमाने वाला, मेहरबान है।” | فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 34ۧ |
हज़रत अली रज़ि० ने ख्वारिज के साथ यही मामला किया था कि अगर तुम अपने ग़लत अक़ीदे को अपने तक रखो तो तुम्हें कुछ नहीं कहा जायेगा, लेकिन अगर तुम खूंरेज़ी करोगे, क़त्लो गारत करोगे तो फिर तुम्हारे साथ रिआयत नहीं की जा सकती।
आयात 35 से 43 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَابْتَغُوْٓا اِلَيْهِ الْوَسِيْلَةَ وَجَاهِدُوْا فِيْ سَبِيْلِهٖ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ 35 اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ اَنَّ لَهُمْ مَّا فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا وَّمِثْلَهٗ مَعَهٗ لِيَفْتَدُوْا بِهٖ مِنْ عَذَابِ يَوْمِ الْقِيٰمَةِ مَا تُقُبِّلَ مِنْهُمْ ۚ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 36 يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّخْرُجُوْا مِنَ النَّارِ وَمَا هُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنْهَا ۡ وَلَهُمْ عَذَابٌ مُّقِيْمٌ 37 وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَهُمَا جَزَاۗءًۢ بِمَا كَسَـبَا نَكَالًا مِّنَ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ 38 فَمَنْ تَابَ مِنْۢ بَعْدِ ظُلْمِهٖ وَاَصْلَحَ فَاِنَّ اللّٰهَ يَتُوْبُ عَلَيْهِ ۭاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 39 اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ يُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ ۭوَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 40 يٰٓاَيُّھَا الرَّسُوْلُ لَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِي الْكُفْرِ مِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِاَفْوَاهِهِمْ وَلَمْ تُؤْمِنْ قُلُوْبُهُمْ ڔ وَمِنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا ڔ سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ سَمّٰعُوْنَ لِقَوْمٍ اٰخَرِيْنَ ۙ لَمْ يَاْتُوْكَ ۭيُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ مِنْۢ بَعْدِ مَوَاضِعِهٖ ۚ يَقُوْلُوْنَ اِنْ اُوْتِيْتُمْ هٰذَا فَخُذُوْهُ وَاِنْ لَّمْ تُؤْتَوْهُ فَاحْذَرُوْا ۭ وَمَنْ يُّرِدِ اللّٰهُ فِتْنَتَهٗ فَلَنْ تَمْلِكَ لَهٗ مِنَ اللّٰهِ شَـيْـــــًٔـا ۭ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَمْ يُرِدِ اللّٰهُ اَنْ يُّطَهِّرَ قُلُوْبَهُمْ ۭلَهُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ ښ وَّلَهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ 41 سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ اَكّٰلُوْنَ لِلسُّحْتِ ۭ فَاِنْ جَاۗءُوْكَ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ اَوْ اَعْرِضْ عَنْهُمْ ۚ وَاِنْ تُعْرِضْ عَنْهُمْ فَلَنْ يَّضُرُّوْكَ شَـيْـــًٔـا ۭوَاِنْ حَكَمْتَ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِالْقِسْطِ ۭاِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِيْنَ 42 وَكَيْفَ يُحَكِّمُوْنَكَ وَعِنْدَهُمُ التَّوْرٰىةُ فِيْهَا حُكْمُ اللّٰهِ ثُمَّ يَتَوَلَّوْنَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ ۭ وَمَآ اُولٰۗىِٕكَ بِالْمُؤْمِنِيْنَ 43ۧ
आयत 35
“ऐ अहले ईमान, अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और उसकी जनाब में उसका क़ुर्ब तलाश करो” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَابْتَغُوْٓا اِلَيْهِ الْوَسِيْلَةَ |
यहाँ लफ्ज़ “वसीला” क़बीले गौर है और इस लफ्ज़ ने काफ़ी लोगों को परेशान भी किया है। लफ्ज़ “वसीला” उर्दू में तो “ज़रिया” के मायने में आता है, यानि किसी तक पहुँचे का कोई ज़रिया बना लेना, सिफ़ारिश के लिये किसी को वसीला बना लेना। लेकिन अरबी ज़बान में “वसीले” के मायने हैं “क़ुर्ब”। बाज़ अल्फ़ाज़ ऐसे हैं जिनका अरबी में मफ़हूम कुछ और है जबकि उर्दू में कुछ और है। जैसे लफ्ज़ “ज़लील” है, अरबी में इसके मायने “कमज़ोर” जबकि उर्दू में “कमीने” के हैं। जैसा की हम पढ़ आये हैं: {وَلَقَدْ نَصَرَكُمُ اللّٰهُ بِبَدْرٍ وَّاَنْتُمْ اَذِلَّةٌ ۚ } (आले इमरान:123) यानि “ऐ मुसलमानों! याद करो अल्लाह ने तुम्हारी मदद की थी बद्र में जबकि तुम बहुत कमज़ोर थे।” अब अगर यहाँ ज़लील का तर्जुमा उर्दू वाला कर दिया जाये तो हमारे ईमान के लाले पड़ जाएँगे। इसी तरह अरबी में “जहल” के मायने जज़्बाती होना है, अनपढ़ होना नहीं। एक पढ़ा लिखा शख्स भी जाहिल यानि जज़्बाती, अक्खड़ मिज़ाज हो सकता है लेकिन उर्दू में जाहिल आलिम का मुतज़ाद (विपरीत) है, यानि जो अनपढ़ हो। इसी तरह का मामला लफ्ज़ “वसीले” का है। इसका असल मफ़हूम “क़ुर्ब” है और यहाँ भी यही मुराद लिया जायेगा। यहाँ इरशाद हुआ है:
“ऐ ईमान वालो, अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और (आगे बढ़ कर) उसका क़ुर्ब तलाश करो”
तक़वा के मायने हैं अल्लाह के ग़ज़ब से, अल्लाह की नाराज़गी से और अल्लाह के अहकाम तोड़ने से बचना। यह एक मनफ़ी मुहर्रिक (इशारा) है, जबकि क़ुर्बे इलाही की तलब एक मुस्बत मुहर्रिक है कि अल्लाह के नज़दीक से नज़दीकतर होते चलो जाओ। लेकिन उसके क़ुर्ब का ज़रिया क्या होगा?
“और उसकी राह में जिहाद करो ताकि तुम फ़लाह पाओ।” | وَجَاهِدُوْا فِيْ سَبِيْلِهٖ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ 35 |
इससे बात बिल्कुल वाज़ेह हो गयी कि तक़र्रुब इलल्लाह के लिये जिहाद करो। तक़वा शर्ते लाज़िम है। यानि पहले जो हराम चीज़ें हैं उनसे अपने आप को बचाओ, जिन चीज़ों से रोक दिया गया है उनसे रुक जाओ और अल्लाह की नाफ़रमानी से बाज़ आ जाओ। और फिर उसका तक़र्रुब हासिल करना चाहते हो तो उसकी राह में जद्दो-जहद करो।
आयत 36
“यक़ीनन वह लोग जिन्होंने कुफ़्र किया, अगर उनके पास वह सारी दौलत हो जो कि ज़मीन में है कुल की कुल और उसके साथ उतनी ही और भी हो” | اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ اَنَّ لَهُمْ مَّا فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا وَّمِثْلَهٗ مَعَهٗ |
“(और वह चाहें) कि वह उसके ज़रिये से फ़िदया देकर छूट सकें क़यामत के दिन के अज़ाब से” | لِيَفْتَدُوْا بِهٖ مِنْ عَذَابِ يَوْمِ الْقِيٰمَةِ |
“तो उनसे हरगिज़ क़ुबूल नहीं की जायेगी।” | مَا تُقُبِّلَ مِنْهُمْ ۚ |
यह हुक्म गोया “तालीक़ बिलमहाल” है कि ना ऐसा मुमकिन है और ना ऐसा होगा। लेकिन बात की सख्ती वाज़ेह करने के लिये यह अंदाज़ा अपनाया गया है और आखरी दर्जे में वज़ाहत कर दी गयी है कि अगर बिलफ़र्ज़ उनके पास इतनी दौलत मौजूद भी हो तब भी अल्लाह के यहाँ उनका फिदया क़ुबूल नहीं होगा।
“और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।” | وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 36 |
आयत 37
“वह चाहेंगे कि आग से किसी तरह निकल जायें लेकिन निकल नहीं पाएँगे” | يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّخْرُجُوْا مِنَ النَّارِ وَمَا هُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنْهَا ۡ |
“और उनके लिये होगा क़ायम रहने वाला अज़ाब।” | وَلَهُمْ عَذَابٌ مُّقِيْمٌ 37 |
यानि उनको मुसलसल दाइम और क़ायम रहने वाला अज़ाब दिया जायेगा।
आयत 38
“और चोर ख्वाह मर्द हो या औरत, उन दोनों के हाथ काट दो” | وَالسَّارِقُ وَالسَّارِقَةُ فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَهُمَا |
यानि चोर का एक हाथ काट दो।
“यह बदला है उनके करतूत का” | جَزَاۗءًۢ بِمَا كَسَـبَا |
“और इबरतनाक सज़ा है अल्लाह की तरफ़ से।” | نَكَالًا مِّنَ اللّٰهِ ۭ |
देखिये क़ुरान ख़ुद अपनी हिफ़ाज़त किस तरह करता है और क्यों चैलेंज करता है कि इस कलाम पर बातिल हमलावर नहीं हो सकता किसी भी जानिब से (हा मीम सज्दा:42)। ज़रा मुलाहिज़ा कीजिये इस आयत के ज़िमन में गुलाम अहमद परवेज़ साहब कहते हैं कि यहाँ चोर का हाथ काटने का मतलब है कि ऐसा निज़ाम वज़अ किया जाये जिसमें किसी को चोरी की ज़रूरत ही ना पड़े। यह तो हम भी चाहते हैं कि ऐसा निज़ाम हो, रियासत की तरफ़ से किफ़ालते आम्मा की सहूलत मौजूद हो ताकि कोई शख्स मजबूरन चोरी ना करे, लेकिन “فَاقْطَعُوْٓا اَيْدِيَهُمَا” के अल्फ़ाज़ से जो मतलब परवेज़ साहब ने निकाला है वह बिल्कुल ग़लत है। और अगर फ़र्ज़ कर लें कि ऐसा ही है तो फिर {جَزَاۗءًۢ بِمَا كَسَـبَا} (यह बदला है उनकी अपनी कमाई का) की क्या तावील होगी? यानि जो कमाई उन्होंने की है उसका बदला यह है कि एक अच्छा निज़ाम क़ायम कर दिया जाये? इसके बाद फिर { نَكَالًا مِّنَ اللّٰهِ ۭ } के अल्फ़ाज़ मज़ीद आये हैं। “نكال” कहते हैं इबरतनाक सज़ा को। तो क्या ऐसे निज़ाम का क़ायम करना अल्लाह की तरफ़ से इबरतनाक सज़ा होगी? अपने देखा क़ुरान के मायने व मफ़हूम की हिफ़ाज़त के लिये भी अल्फ़ाज़ के कैसे-कैसे पहरे बिठाये गये हैं!
दरअसल हुदूद व ताज़ीरात के फ़लसफ़े को समझना बहुत ज़रूरी है और इसके लिये लफ्ज़ “نكال” बहुत अहम है। क़ुरान में ताज़ीरात और हुदूद के सिलसिले में यह अल्फ़ाज़ अक्सर इस्तेमाल हुआ है। यानि अगर सज़ा होगी तो इबरतनाक होगी। इस्लाम में शहादत का क़ानून बहुत सख्त रखा गया है। ज़रा सा शुबह हो तो उसका फ़ायदा मुल्ज़िम को दिया जाता है। इस लिहाज़ से सज़ा का निफ़ाज़ आसान नहीं। लेकिन अगर तमाम मराहिल तय करके जुर्म पूरी तरह साबित हो जाये तो फिर सज़ा ऐसी दी जाये कि एक को सज़ा मिले और लाखों की आँखें खुल जायें ताकि आइन्दा किसी को जुर्म करने की हिम्मत ना हो। यह फ़लसफ़ा है इस्लामी सज़ाओं का। यह दरहक़ीक़त एक तस्दीद (deterrence) है जिसके सबब मआशरे से बुराई का इस्तेसाल (विनाश) करना मुमकिन है। आज अमेरिका जैसे (नाम-निहाद) मज़हब मआशरे में भी आये दिन इन्तहाई घिनौने जराइम हो रहे हैं। इसकी वजह यह है कि अहतसाब और सज़ा का निज़ाम दुरुस्त नहीं। लोग जुर्म करते हैं, सज़ा होती है, जेल जाते हैं, कुछ दिन वहाँ गुज़ारने के बाद, वापस आते हैं, फिर जुर्म करते हैं, फिर जेल चले जाते हैं। जेल क्या है? सरकारी मेहमानदारी है। यही वजह है कि ऐसे मआशरों में जराइम रोज़-ब-रोज़ बढ़ते जा रहे हैं।
“और अल्लाह ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ 38 |
आयत 39
“तो जिसने भी तौबा कर ली अपने इस ज़ुल्म के बाद और इस्लाह कर ली तो अल्लाह ज़रूर क़ुबूल करता है उसकी तौबा को।” | فَمَنْ تَابَ مِنْۢ بَعْدِ ظُلْمِهٖ وَاَصْلَحَ فَاِنَّ اللّٰهَ يَتُوْبُ عَلَيْهِ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह गफूर है, रहीम है।” | اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 39 |
लेकिन इस तौबा से जुर्म की सज़ा दुनिया में ख़त्म नहीं होगी। यह जुर्म है दुनिया (क़ानून) का और गुनाह है अल्लाह का। जुर्म की सज़ा दुनिया में मिलेगी, गुनाह की सज़ा अल्लाह ने देनी है, अगर तौबा कर ली तो अल्लाह तआला माफ़ फ़रमा देगा और अगर तौबा नहीं की तो उसकी सज़ा भी मिलेगी।
आयत 40
“क्या तुम नहीं जानते हो कि अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन की बादशाही?” | اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ |
“वह सज़ा देगा जिसको चाहेगा और बख्श देगा जिसको चाहेगा।” | يُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ ۭ |
“और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।” | وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 40 |
अब यहाँ फिर ज़िक्र आ रहा है उन लोगों का जो दोगली पालिसी पर कारबंद थे, लेकिन सूरतुल बक़रह की तरह यहाँ भी रुए सुखन क़तईयत (accuracy) के साथ वाज़ेह नहीं किया गया। लिहाज़ा इसका इन्तबाक़ (अनुपालन) मुनाफ़िक़ीन पर भी होगा और अहले किताब पर भी। मुनाफ़िक़ अहले किताब में से भी थे, जिनका मीलान इस्लाम की तरफ़ भी था और चाहते भी थे कि मुसलमानों में शामिल रहें लेकिन वह अपने साथियों को भी छोड़ने पर तैयार नहीं थे। तो यह लोग जो “مُذَبْذَبِیْنَ بَیْنَ ذٰلِک” की मिसाल थे, यह दोनों तरफ़ के लोग थे।
आयत 41
“ऐ नबी (ﷺ) यह लोग आपके लिये बाइसे रन्ज ना हों जो कुफ़्र की राह में बहुत भाग-दौड़ कर रहे हैं” | يٰٓاَيُّھَا الرَّسُوْلُ لَا يَحْزُنْكَ الَّذِيْنَ يُسَارِعُوْنَ فِي الْكُفْرِ |
“इन लोगों में से जो अपने मुँह से तो कहते हैं कि हम ईमान रखते हैं, मगर उनके दिल ईमान नहीं लाये हैं।” | مِنَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِاَفْوَاهِهِمْ وَلَمْ تُؤْمِنْ قُلُوْبُهُمْ ڔ |
आप ﷺ इन लोगों की सरगरमियों और भाग-दौड़ से ग़मगीन और रंजीदा खातिर ना हों।
“और इसी तरह के लोग यहूदियों में से भी हैं।” | وَمِنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا ڔ |
“यह बड़े ही गौर से सुनते हैं झूठ को” | سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ |
“और यह सुनते हैं कुछ और लोगों की खातिर जो आपके पास नहीं आते” | سَمّٰعُوْنَ لِقَوْمٍ اٰخَرِيْنَ ۙ لَمْ يَاْتُوْكَ ۭ |
यानि एक तो यह लोग अपने “शयातीन” की झूठी बातें बड़ी तवज्जो से सुनते हैं, जैसे: {وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا ښ وَاِذَا خَلَوْا اِلٰى شَيٰطِيْنِهِمْ ۙ قَالُوْٓا اِنَّا مَعَكُمْ ۙ اِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَهْزِءُوْنَ} सूरतुल बक़रह आयत:14 में फ़रमाया। फिर यह लोग उनकी तरफ़ से जासूस बन कर मुसलमानों के यहाँ आते हैं कि यहाँ से सुन कर उनको रिपोर्ट दे सकें कि आज मुहम्मद (ﷺ) ने यह कहा, आज आप ﷺ की मजलिस में फलाँ मामला हुआ। { سَمّٰعُوْنَ لِقَوْمٍ اٰخَرِيْنَ ۙ } का तर्जुमा दोनों तरह से हो सकता है: “दूसरी क़ौम के लोगों की बातों को बड़ी तवज्जो से सुनते हैं” या “सुनते हैं दूसरी क़ौम के लोगों के लिये” यानि उन्हें रिपोर्ट करने के लिये उनके जासूस की हैसियत से। उनके जो लीडर और शयातीन हैं, वह आप ﷺ के पास ख़ुद नहीं आते और यह जो बैन-बैन के लोग हैं यह आप ﷺ के पास आते हैं और उनके ज़रिये से जासूसी का यह सारा मामला चल रहा है।
“वह कलाम को फेर देते हैं उसकी जगह से उसका मौक़ा व महल (जगह) मुअय्यन हो जाने के बाद।” | يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ مِنْۢ بَعْدِ مَوَاضِعِهٖ ۚ |
“वह कहते हैं अगर तुम्हें यही (फ़ैसला) मिल जाये तो क़ुबूल कर लेना” | يَقُوْلُوْنَ اِنْ اُوْتِيْتُمْ هٰذَا فَخُذُوْهُ |
“और अगर यह (फ़ैसला) ना मिले तो कन्नी कतरा जाना।” | وَاِنْ لَّمْ تُؤْتَوْهُ فَاحْذَرُوْا ۭ |
अहले किताब के सरदारों को अगर किसी मुक़दमे का फ़ैसला मतलूब होता तो अपने लोगों को रसूल अल्लाह ﷺ के पास भेजते और पहले से उन्हें बता देते कि अगर फ़ैसला इस तरह हो तो तुम क़ुबूल कर लेना, वरना रद्द कर देना। वाज़ेह रहे कि मदीना मुनव्वरा में इस्लामी रियासत और पूरे तौर पर एक हमागीर इस्लामी हुकूमत दरअसल फ़तह मक्का के बाद क़ायम हुई और यह सूरते हाल इससे पहले की थी। वरना किसी रियासत में दोहरा अदालती निज़ाम नहीं हो सकता। यही वजह थी कि यह लोग जब चाहते अपने फ़ैसलों के लिये हुज़ूर ﷺ के पास आ जाते और जब चाहते किसी और के पास चले जाते थे। गोया बयक वक़्त दो मुतवाज़ी निज़ाम चल रहे थे। इसी लिये तो वह लोग यह कहने कि जसारत (हिम्मत) करते थे कि यह फ़ैसला हो तो क़ुबूल कर लेना, वरना नहीं।
“और जिसको अल्लाह ही ने फ़ितने में डालने का इरादा कर लिया हो तो तुम उसके लिये अल्लाह के मुक़ाबले में कुछ भी इख़्तियार नहीं रखते।” | وَمَنْ يُّرِدِ اللّٰهُ فِتْنَتَهٗ فَلَنْ تَمْلِكَ لَهٗ مِنَ اللّٰهِ شَـيْـــــًٔـا ۭ |
“यह वह लोग हैं कि जिनके दिलों को अल्लाह ने पाक करना चाहा ही नहीं।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَمْ يُرِدِ اللّٰهُ اَنْ يُّطَهِّرَ قُلُوْبَهُمْ ۭ |
“उनके लिये दुनिया में भी रुसवाई है” | لَهُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ ښ |
“और आख़िरत में भी उनके लिये बहुत बड़ा अज़ाब है।” | وَّلَهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ 41 |
आयत 42
“यह खूब सुनने वाले हैं झूठ को” | سَمّٰعُوْنَ لِلْكَذِبِ |
“खूब खाने वाले हैं हराम को।” | اَكّٰلُوْنَ لِلسُّحْتِ ۭ |
“फिर अगर यह आप ﷺ के पास (अपना कोई मुक़दमा लेकर) आयें” | فَاِنْ جَاۗءُوْكَ |
“तो आप ﷺ (को इख़्तियार है) ख्वाह उनके दरमियान फ़ैसला कर दें या उनसे ऐराज़ करें।” | فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ اَوْ اَعْرِضْ عَنْهُمْ ۚ |
आप ﷺ को यह इख़्तियार दिया जाता है कि आप चाहें तो उनका मुक़दमा सुनें और फ़ैसला कर दें और चाहें तो मुक़दमा लेने ही से इन्कार कर दें, क्योंकि उनकी नीयत दुरुस्त नहीं होती और वह आप ﷺ का फ़ैसला लेने में संजीदा नहीं होते। लिहाज़ा ऐसे लोगों पर अपना वक़्त ज़ाया करने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन यह अन्देशा भी था कि वह प्रोपोगंडा करेंगे कि देखो जी हम तो गये थे मुहम्मद (ﷺ) के पास मुक़दमा लेकर, यह कैसे नबी हैं कि मुक़दमे का फ़ैसला करने को ही तैयार नहीं! इस ज़िमन में भी अल्लाह तआला की तरफ़ से हुज़ूर ﷺ को इत्मिनान दिलाया जा रहा है कि आप ﷺ इसकी परवाह ना करें।
“और अगर आप ﷺ उनसे ऐराज़ करेंगे तो वह आप ﷺ को कोई ज़र्र (नुक़सान) नहीं पहुँचा सकेंगे।” | وَاِنْ تُعْرِضْ عَنْهُمْ فَلَنْ يَّضُرُّوْكَ شَـيْـــًٔـا ۭ |
यानि उनके मुखालफ़ाना प्रोपोगंडे से क़तअन फ़िक्रमन्द होने की ज़रूरत नहीं है।
“और अगर आप ﷺ फ़ैसला करें तो उनके दरमियान इन्साफ़ के ऐन मुताबिक़ फ़ैसला करें।” | وَاِنْ حَكَمْتَ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِالْقِسْطِ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला इन्साफ़ करने वालों को पसंद करता है।” | اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِيْنَ 42 |
आयत 43
“और (ऐ नबी ﷺ) यह लोग आप ﷺ को कैसे हाकिम बनाते हैं” | وَكَيْفَ يُحَكِّمُوْنَكَ |
“जबकि इनके पास तौरात मौजूद है” | وَعِنْدَهُمُ التَّوْرٰىةُ |
“जिसमें अल्लाह का हुक्म मौजूद है” | فِيْهَا حُكْمُ اللّٰهِ |
यहाँ अल्लाह तआला ने यहूद की बदनीयती को बिल्कुल बेनक़ाब कर दिया है कि अगर उनकी नीयत दुरुस्त हो तो तौरात से रहनुमाई हासिल कर लें।
“फिर भी वह उससे रूगरदानी करते हैं।” | ثُمَّ يَتَوَلَّوْنَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ ۭ |
“और हक़ीक़त में यह लोग मोमिन नहीं हैं।” | وَمَآ اُولٰۗىِٕكَ بِالْمُؤْمِنِيْنَ 43ۧ |
असल बात यह है कि यह ईमान से तही दस्त हैं, इनके दिल ईमान से खाली हैं। यह है इनका असल रोग।
आयात 44 से 50 तक
اِنَّآ اَنْزَلْنَا التَّوْرٰىةَ فِيْهَا هُدًى وَّنُوْرٌ ۚ يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّوْنَ الَّذِيْنَ اَسْلَمُوْا لِلَّذِيْنَ هَادُوْا وَالرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ بِمَا اسْتُحْفِظُوْا مِنْ كِتٰبِ اللّٰهِ وَكَانُوْا عَلَيْهِ شُهَدَاۗءَ ۚ فَلَا تَخْشَوُا النَّاسَ وَاخْشَوْنِ وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِيْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا ۭوَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ 44 وَكَتَبْنَا عَلَيْهِمْ فِيْهَآ اَنَّ النَّفْسَ بِالنَّفْسِ ۙوَالْعَيْنَ بِالْعَيْنِ وَالْاَنْفَ بِالْاَنْفِ وَالْاُذُنَ بِالْاُذُنِ وَالسِّنَّ بِالسِّنِّ ۙ وَالْجُرُوْحَ قِصَاصٌ ۭ فَمَنْ تَصَدَّقَ بِهٖ فَهُوَ كَفَّارَةٌ لَّهٗ ۭ وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ 45 وَقَفَّيْنَا عَلٰٓي اٰثَارِهِمْ بِعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرٰىةِ ۠ وَاٰتَيْنٰهُ الْاِنْجِيْلَ فِيْهِ هُدًى وَّنُوْرٌ ۙ وَّمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرٰىةِ وَهُدًى وَّمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَ 46ۭ وَلْيَحْكُمْ اَهْلُ الْاِنْجِيْلِ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فِيْهِ ۭ وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ 47 وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتٰبِ وَمُهَيْمِنًا عَلَيْهِ فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۗءَهُمْ عَمَّا جَاۗءَكَ مِنَ الْحَقِّ ۭ لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَةً وَّمِنْهَاجًا ۭوَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلٰكِنْ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْ فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ ۭ اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ 48ۙ وَاَنِ احْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۗءَهُمْ وَاحْذَرْهُمْ اَنْ يَّفْتِنُوْكَ عَنْۢ بَعْضِ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ اِلَيْكَ ۭ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاعْلَمْ اَنَّمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّصِيْبَهُمْ بِبَعْضِ ذُنُوْبِهِمْ ۭ وَاِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ لَفٰسِقُوْنَ 49 اَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُوْنَ ۭوَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ حُكْمًا لِّقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ 50ۧ
सूरतुल मायदा का यह सातवाँ रुकूअ हुस्ने इत्तेफ़ाक़ से सात ही आयात पर मुश्तमिल है। इसमें बहुत सख्त तहदीद (प्रतिबन्ध), तम्बीह (चेतावनी) और धमकी है उन लोगों के लिये जो किसी आसमानी शरीअत पर ईमान के दावेदार हों और फिर उसके बजाये किसी और क़ानून के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार रहे हों। क़ुरान हकीम की तवील सूरतों में कहीं-कहीं तीन-तीन आयतों के छोटे-छोटे ग्रुप मिलते हैं जो मायने व मफ़हूम के लिहाज़ से बहुत जामेअ होते हैं, जैसा कि सूरह आले इमरान की आयत 102, 103 और 104 हैं। अभी सूरतुल मायदा में भी तीन आयात पर मुश्तमिल निहायत जामेअ अहकामात का हामिल एक मक़ाम आयेगा। इसी तरह कहीं-कहीं सात-सात आयात का मजमुआ भी मिलता है। जैसे सूरतुल बक़रह के पाँचवें रुकूअ की सात आयात (40 से 46) बनी इसराइल से ख़िताब के ज़िमन में निहायत जामेअ हैं। यह दावत के इब्तदाई अंदाज़ पर मुश्तमिल हैं और दावत के बाब में बा-मंज़िला-ए-फ़ातिहा हैं। इसी तरह क़ानूने शरीअत की तन्फीज़, उसकी अहमियत और उससे पहलु तही पर वईद (चेतावनी) के ज़िमन में ज़ेरे मुताअला रुकूअ की सात आयात निहायत ताकीदी और जामेअ हैं, बल्कि यह मक़ाम इस मौज़ू पर क़ुरान हकीम का ज़रवा-ए-सनाम (climax) है।
आयत 44
“यक़ीनन हमने ही नाज़िल फ़रमायी थी तौरात” | اِنَّآ اَنْزَلْنَا التَّوْرٰىةَ |
“उसमें हिदायत भी थी और नूर भी था।” | فِيْهَا هُدًى وَّنُوْرٌ ۚ |
“उसके मुताबिक़ फ़ैसले करते थे अम्बिया” | يَحْكُمُ بِهَا النَّبِيُّوْنَ |
“जो कि सब फ़रमाबरदार थे (अल्लाह के)” | الَّذِيْنَ اَسْلَمُوْا |
ज़ाहिर है कि तमाम अम्बिया किराम अलै० ख़ुद भी अल्लाह तआला के फ़रमाबरदार थे।
“(और वह फ़ैसले करते थे) यहूदियों के लिये” | لِلَّذِيْنَ هَادُوْا |
यानि अम्बिया किराम अ० यहूदियों के तमाम फ़ैसले तौरात (शरीअते मूसवी) के मुताबिक़ करते थे, जैसा की हदीस में है ((کَانَتْ بَنُوْ اِسْرَائِیْلَ تَسُوْسُھُمُ الْاَنْبِیَاءُ)) यानि बनी इसराइल की सियासत और हुकूमत के मामलात, इंतेज़ाम व अन्सराम (प्रबंध) अम्बिया के हाथ में होता था। इसलिये वही उनके माबैन नज़ाआत (झगड़ों) के फ़ैसले करते थे।
“और दरवेश और उलमा” | وَالرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ |
उनके यहाँ अल्लाह वाले सूफ़िया और उलमा व फ़ुक़हा भी तौरात ही के मुताबिक़ फ़ैसले करते थे।
“बसबब इसके कि वह किताबुल्लाह के निगरान बनाये गये थे” | بِمَا اسْتُحْفِظُوْا مِنْ كِتٰبِ اللّٰهِ |
उन्हें ज़िम्मेदारी दी गयी थी कि उन्हें किताबुल्लाह की हिफ़ाज़त करनी है।
“और वह उस पर गवाह थे।” | وَكَانُوْا عَلَيْهِ شُهَدَاۗءَ ۚ |
“(तो उनसे कह दिया गया था कि) तुम लोगों से मत डरो और मुझसे डरो” | فَلَا تَخْشَوُا النَّاسَ وَاخْشَوْنِ |
“और मेरी आयात को हक़ीर सी क़ीमत पर फ़रोख्त ना करो।” | وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِيْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا ۭ |
यानि अल्लाह का तय करदा क़ानून मौजूद है, उसके मुताबिक़ फ़ैसले करो। लोगों को पसंद हो या नापसंद, इससे तुम्हारा बिल्कुल कोई सरोकार नहीं होना चाहिये। अब आ रही है वह काँटे वाली बात:
“और जो अल्लाह की उतारी हुई शरीअत के मुताबिक़ फ़ैसले नहीं करते वही तो काफ़िर हैं।” | وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ 44 |
बक़ौल अल्लामा इक़बाल:
बुतों से तुझको उम्मीदें, ख़ुदा से नाउम्मिदी
मुझे बता तो सही और काफ़िरी क्या है?
आयत 45
“और हमने लिख दिया था उन पर उस (तौरात) में” | وَكَتَبْنَا عَلَيْهِمْ فِيْهَآ |
“कि जान के बदले जान” | اَنَّ النَّفْسَ بِالنَّفْسِ ۙ |
“और आँख के बदले आँख” | وَالْعَيْنَ بِالْعَيْنِ |
“और नाक के बदले नाक” | وَالْاَنْفَ بِالْاَنْفِ |
“और कान के बदले कान” | وَالْاُذُنَ بِالْاُذُنِ |
“और दांत के बदले दांत” | وَالسِّنَّ بِالسِّنِّ ۙ |
“और इस तरह ज़ख्मों का बदला भी होगा बराबर।” | وَالْجُرُوْحَ قِصَاصٌ ۭ |
“फिर जो कोई उसको माफ़ कर दे तो यह उसके लिये (गुनाहों का) कफ्फ़ारा होगा।” | فَمَنْ تَصَدَّقَ بِهٖ فَهُوَ كَفَّارَةٌ لَّهٗ ۭ |
किसी ने एक शख्स का कान काट दिया, अब वह जवाबन उसका कान काटने का हक़दार है, लेकिन अगर वह क़िसास नहीं लेता और माफ़ कर देता है तो उसे अपने बहुत से गुनाहों का कफ्फ़ारा बना लेगा। इसका मफ़हूम यह भी हो सकता है कि मुजरिम को जब माफ़ कर दिया जाये तो उसके ज़िम्मे से वह गुनाह धुल गया।
“और जो फ़ैसले नहीं करते अल्लाह की उतारी हुई शरीअत के मुताबिक़ वही तो ज़ालिम हैं।” | وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ 45 |
और ज़ालिम यहाँ बा-मायने मुशरिक है, क्योंकि अल्लाह तआला ने शिर्क को ज़ुल्मे अज़ीम क़रार दिया है: {اِنَّ الشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيْمٌ } (लुक़मान:13) अब देखिये, एक क़ानून अल्लाह का है और एक इंसानों का। फिर इंसानों के भी मुख्तलिफ़ क़वानीन हैं, एक Roman Law है, एक पाकिस्तानी क़ानून है, एक रिवाज पर मब्नी क़ानून है। अब देखना यह है कि आप फ़ैसला किस क़ानून के मुताबिक़ कर रहे हैं? अल्लाह के क़ानून के तहत या किसी और क़ानून के मुताबिक़? अगर आपने अल्लाह के क़ानून के साथ-साथ किसी और क़ानून को भी मान लिया या अल्लाह के क़ानून के मुक़ाबले में किसी और क़ानून को तरजीह दी तो यह शिर्क है।
आयत 46
“और हमने उनके पीछे उन्हीं के नक़्शे क़दम पर ईसा (अलै०) इब्ने मरयम को भेजा” | وَقَفَّيْنَا عَلٰٓي اٰثَارِهِمْ بِعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ |
“(वह आये) तस्दीक़ करते हुए उसकी जो उनके सामने मौजूद था तौरात में से” | مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرٰىةِ ۠ |
“और हमने उन्हें इंजील अता की, उसमें हिदायत भी थी और नूर भी था” | وَاٰتَيْنٰهُ الْاِنْجِيْلَ فِيْهِ هُدًى وَّنُوْرٌ ۙ |
“और वह (इंजील भी) तस्दीक़ कर रही थी उसकी जो तौरात में से उसके सामने मौजूद था” | وَّمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ التَّوْرٰىةِ |
“और वह हिदायत (रहनुमाई) और नसीहत थी तक़वा वालों के लिये।” | وَهُدًى وَّمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَ 46ۭ |
आयत 47
“और चाहिये कि इंजील के मानने वाले फ़ैसला करें उसके मुताबिक़ जो अल्लाह ने उसमें नाज़िल किया है।” | وَلْيَحْكُمْ اَهْلُ الْاِنْجِيْلِ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فِيْهِ ۭ |
“और जो लोग नहीं फ़ैसला करते अल्लाह के उतारे हुए अहकामात व क़वानीन के मुताबिक़, वही तो फ़ासिक़ हैं।” | وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ 47 |
वही तो सरकश हैं, वही तो नाफ़रमान हैं, वही तो नाहंजार हैं। गौर कीजिये एक रुकूअ में तीन दफ़ा यह अल्फ़ाज़ दोहराये गये हैं:
وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ 44 وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ 45 وَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ 47
इन आयाते क़ुरानिया को सामने रखिये और मिल्लते इस्लामिया की मौजूदा कैफ़ियत का जायज़ा लीजिये कि दुनिया में कितने मुमालिक हैं जहाँ अल्लाह का क़ानून नाफ़िज़ है? आज रुए ज़मीन पर कोई एक भी मुल्क ऐसा नहीं है जहाँ शरीअते इस्लामी पूरे तौर पर नाफ़िज़ हो और इस्लाम का मुकम्मल निज़ाम क़ायम हो। अगरचे हम इन्फ़रादी ऐतबार से मुस्लमान हैं लेकिन हमारे निज़ाम काफ़िराना हैं।
आयत 48
“और (अब ऐ नबी ﷺ) हमने आप पर किताब नाज़िल फ़रमायी हक़ के साथ” | وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ |
“जो अपने से पहली किताबों की तस्दीक़ करती है और उन पर निगरान है” | مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتٰبِ وَمُهَيْمِنًا عَلَيْهِ |
यह किताब तौरात और इंजील की मिस्दाक़ भी है और मुसद्दक़ भी। और इसकी हैसियत कसौटी की है। पहली किताबों के अन्दर जो तहरीफ़ात हो गयी थीं अब उनकी तसहीह (correction) इसके ज़रिये से होगी।
“तो (आप ﷺ) भी फ़ैसला करें इनके दरमियान इस (क़ानून) के मुताबिक़ जो अल्लाह ने नाज़िल फ़रमाया है” | فَاحْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ |
“और मत पैरवी करें उनकी ख्वाहिशात की, इस हक़ को छोड़ कर जो आ चुका है आप (ﷺ) के पास।” | وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۗءَهُمْ عَمَّا جَاۗءَكَ مِنَ الْحَقِّ ۭ |
“तुम में से हर एक के लिये हमने एक शरीअत और एक राहे अमल तय कर दी है।” | لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَةً وَّمِنْهَاجًا ۭ |
जहाँ तक शरीअत का ताल्लुक़ है सबको मालूम है कि शरीअते मूसवी (अलै०) शरीअते मुहम्मदी ﷺ से मुख्तलिफ़ थी। मज़ीद बराँ रसूलों के मिन्हाज (तरीक़े कार) में भी फ़र्क़ था। मसलन हज़रत मूसा अलै० के मिन्हाज में हम देखते हैं कि आप (अलै०) एक मुस्लमान उम्मत (बनी इसराइल) के लिये भेजे गये थे। वह उम्मत जोकि दबी हुई थी, पिसी हुई थी, गुलाम थी। उसमें अख्लाक़ी खराबियाँ भी थीं, दीनी ऐतबार से ज़ौफ़ (दोष) भी था, वह आले फ़िरऔन के ज़ुल्म-ओ-सितम का तख़्ता-ए-मश्क़ बनी हुई थी। चुनाँचे हज़रत मूसा अलै० के मक़सदे बेअसत में यह बात भी शामिल थी कि एक बिगड़ी हुई मुस्लमान उम्मत को काफ़िरों के तसल्लुत और गलबे से निजात दिलायें। इसका एक ख़ास तरीक़े कार अल्लाह तआला की तरफ़ से उन्हें बताया गया। हज़रत ईसा अलै० भी एक मुस्लमान उम्मत के लिये मबऊस किये गये, यानि यहूदियों ही की तरफ़। इस क़ौम में नज़रियाती फ़तूर आ चुका था, उनके मआशरे में अख्लाक़ी व रूहानी गिरावट इन्तहा को पहुँच चुकी थी। उनके उलमा की तवज्जो भी दीन के सिर्फ़ ज़ाहिरी अहकाम और क़ानूनी पहलुओं पर रह गयी थी और वह असल मक़ासिदे दीन को भूल चुके थे। दीन की असल रूह निगाहों से ओझल हो गयी थी। इस सारे बिगाड़ की इस्लाह के लिये हज़रत मसीह अलै० को अल्लाह तआला ने एक ख़ास मन्हज, एक ख़ास तरीक़े कार अता फ़रमाया। मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को उन लोगों में मबऊस किया गया जो मुशरिक थे, अनपढ़ थे, किसी नबी के नाम से नावाक़िफ़ थे सिवाये हज़रत इब्राहीम अलै० के। उनका अहतराम भी वह अपने जद्दे अमजद के तौर पर करते थे, एक नबी के तौर पर नहीं। कोई शरीअत उनमें मौजूद नहीं थी, कोई किताब उनके पास नहीं थी। गोया “ضَلَّ ضَلَالًا بَعِیْدًا” मुजस्सम तस्वीर! आप ﷺ ने अपनी दावत व तब्लीग के ज़रिये उनमें से सहाबा किराम रज़ि० की एक अज़ीम जमात पैदा की, उन्हें हिज़बुल्लाह बनाया, और फिर उस जमात को साथ लेकर आप ﷺ ने कुफ़्र, शिर्क और अइम्मा-ए-कुफ़्र के ख़िलाफ़ जिहाद व क़िताल किया, और बिलआख़िर अल्लाह के दीन को उस मआशरे में क़ायम कर दिया। यह मिन्हाज हैं मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ का। तो यह मफ़हूम है इस आयत का { لِكُلٍّ جَعَلْنَا مِنْكُمْ شِرْعَةً وَّمِنْهَاجًا ۭ} “हमने तुम में से हर एक के लिये एक शरीअत और एक मिन्हाज (तरीक़े कार, मन्हजे अमल) मुक़र्रर किया है।” इस लिहाज़ से यह आयत बहुत अहम है।
“और अल्लाह चाहता तो तुम सबको एक ही उम्मत बना देता” | وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَجَعَلَكُمْ اُمَّةً وَّاحِدَةً |
“मगर उसने चाहा कि वह उस चीज़ में तुम्हारी आज़माइश करे जो उसने तुमको अता की” | وَّلٰكِنْ لِّيَبْلُوَكُمْ فِيْ مَآ اٰتٰىكُمْ |
यानि अल्लाह की हिकमत इसकी मुतक़ाज़ी हुई (अल्लाह ने चाहा) कि जिसको जो-जो कुछ दिया गया है उसके हवाले से उसको आज़माये। चुनाँचे अब हमारे लिये असल उसवा ना तो हज़रत मूसा अलै० हैं और ना ही हज़रत ईसा अलै०, बल्कि {لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِيْ رَسُوْلِ اللّٰهِ اُسْوَةٌ حَسَنَةٌ } (अहज़ाब:21) के मिस्दाक़ हमारे लिये उसवा हैं तो सिर्फ़ मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की ज़ाते मुबारका है। हज़रत ईसा अलै० ने अगर शादी नहीं की तो यह हमारे लिये उसवा नहीं है। हमें तो हुज़ूर ﷺ के फ़रमान को पेशे नज़र रखना है, जिन्होंने फ़रमाया: ((اَلنِّکَاحُ مِنْ سُنَّتِیْ)) और फिर फ़रमाया: ((فَمَنْ رَغِبَ عَنْ سُنَّتِیْ فَلَیْسَ مِنِّی))। तो वाक़िया यह है कि तमाम अम्बिया अल्लाह ही की तरफ़ से मबऊस थे, और हर एक के लिये जो भी तरीक़ा अल्लाह तआला ने मुनासिब समझा वह उनको अता किया, अलबत्ता हमारे लिये क़ाबिले तक़लीद मिन्हाजे नबवी ﷺ है। अब हम पर फ़र्ज़ है कि इस मन्हजे इन्क़लाबे नबवी ﷺ का गहरा शऊर हासिल करें, फिर इस रास्ते पर उसी तरह चलें जिस तरह हुज़ूर ﷺ चले। जिस तरह आप ﷺ ने दीन को क़ायम किया, ग़ालिब किया, एक निज़ाम बरपा किया, फिर उस निज़ाम के तहत अल्लाह का क़ानून नाफ़िज़ किया, उसी तरह हम भी अल्लाह के दीन को क़ायम करने की कोशिश करें।
“तो तुम नेकियों में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करो।” | فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ ۭ |
“अल्लाह ही की तरफ़ तुम सबका लौटना है” | اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا |
“तो वह तुम्हें जितला देगा उन चीज़ों के बारे में जिनमें तुम इख्तिलाफ़ करते रहे थे।” | فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ 48ۙ |
आयत 49
“और फ़ैसले कीजिये उनके माबैन उस (शरीअत) के मुताबिक़ जोकि अल्लाह ने उतारी है” | وَاَنِ احْكُمْ بَيْنَهُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ |
“और उनकी ख्वाहिशात की पैरवी ना कीजिये” | وَلَا تَتَّبِعْ اَهْوَاۗءَهُمْ |
आज हमारा क्या हाल है? हम किन लोगों की ख्वाहिशात की पैरवी कर रहे हैं? आज हम अहकामे इलाही को पसे-पुश्त डाल कर अपने सियासी पेशवाओं की ख्वाहिशात की पैरवी कर रहे हैं। वह जो चाहते हैं क़ानून बना देते हैं, जो चाहते हैं फ़ैसला कर देते हैं और पूरी क़ौम उसकी पाबन्द होती है। हम इस जाल से इसी सूरत में निकल सकते हैं कि एक ज़बरदस्त जमात बनायें, ताक़त पैदा करें, एक भरपूर तहरीक उठायें, क़ुर्बानियाँ दें, जानें लड़ायें ताकि यह मौजूदा निज़ाम तब्दील हो, अल्लाह का दीन क़ायम हो, और फिर उस दीन के मुताबिक़ हमारे फ़ैसले हों। यहाँ हुज़ूर ﷺ को एक बार फिर से ताकीद की जा रही है कि आप ﷺ उनकी ख्वाहिशात की पैरवी मत कीजिये और अल्लाह के अहकाम के मुताबिक़ फ़ैसले कीजिये।
“और उनसे होशियार रहिये, ऐसा ना हो कि यह लोग आपको उनमें से किसी चीज़ से बिचला दें जो अल्लाह ने आप पर नाज़िल की हैं।” | وَاحْذَرْهُمْ اَنْ يَّفْتِنُوْكَ عَنْۢ بَعْضِ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ اِلَيْكَ ۭ |
यानि हर तरफ़ से दबाव आयेगा, लेकिन आप ﷺ को साबित क़दमी से खड़े रहना है उस शरीअत पर जो अल्लाह तआला ने आप ﷺ पर नाज़िल फ़रमायी है।
“फिर अगर वह रुगरदानी करें” | فَاِنْ تَوَلَّوْا |
“तो जान लीजिये कि अल्लाह तआला उन्हें उनके बाज़ गुनाहों की सज़ा देना चाहता है।” | اَنَّمَا يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّصِيْبَهُمْ بِبَعْضِ ذُنُوْبِهِمْ ۭ |
यह दरअसल लरज़ा देने वाला मक़ाम है। अगर हम अपने इस मुल्क के अन्दर इस्लाम को क़ायम नहीं करते और हमारी सारी कोशिशों के बावजूद दीन नाफ़िज़ नहीं हो रहा तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह के अज़ाब का कोई कोड़ा मुक़द्दर हो चुका है। वाज़ेह अल्फ़ाज़ में फ़रमाया जा रहा है कि अगर वह अल्लाह के अहकामात से मुँह मोड़ें, शरीअत के फ़ैसलों का इन्कार करें तो जान लो कि अल्लाह तआला दरहक़ीक़त उनके गुनाहों की पादाश में उन पर अज़ाब नाज़िल करना चाहता है और {اِنَّ بَطْشَ رَبِّكَ لَشَدِيْدٌ} (अल बुरूज:12) के मिस्दाक़ उन्हें कोई सज़ा देना चाहता है।
“और इसमें तो कोई शक ही नहीं है कि लोगों में से अक्सर फ़ासिक़ (नाफ़रमान) हैं।” | وَاِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ لَفٰسِقُوْنَ 49 |
आयत 50
“तो क्या यह जाहिलियत के फ़ैसले चाहते हैं?” | اَفَحُكْمَ الْجَاهِلِيَّةِ يَبْغُوْنَ ۭ |
जाहिलियत से मुराद हुज़ूर ﷺ की बेअसत से पहले का दौर है। यानि क्या क़ानूने इलाही नाज़िल हो जाने के बाद भी यह लोग जाहिलियत के दस्तूर, अपनी रिवायात और अपनी रसुमात पर अमल करना चाहते हैं? जैसा कि हिन्दुस्तान में मुस्लमान ज़मींदार अँगरेज़ की अदालत में खड़े होकर कह देते थे कि हमें अपनी विरासत के मुक़द्दमात में शरीअत का फ़ैसला नहीं चाहिये बल्कि रिवाज का फ़ैसला चाहिये।
“और अल्लाह के हुक्म (और फ़ैसले) से बेहतर किसका हुक्म हो सकता है उन लोगों के लिये जो यक़ीन रखने वाले हैं।” | وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ حُكْمًا لِّقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ 50ۧ |
अल्लाह तआला हमें उस यक़ीन और ईमाने हक़ीक़ी की दौलत से सरफ़राज़ फ़रमाये। (आमीन)
आयात 51 से 56 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْيَھُوْدَ وَالنَّصٰرٰٓى اَوْلِيَاۗءَ ۘبَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۗءُ بَعْضٍ ۭ وَمَنْ يَّتَوَلَّهُمْ مِّنْكُمْ فَاِنَّهٗ مِنْهُمْ ۭاِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ 51 فَتَرَى الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ يُّسَارِعُوْنَ فِيْهِمْ يَقُوْلُوْنَ نَخْشٰٓى اَنْ تُصِيْبَنَا دَاۗىِٕرَةٌ ۭفَعَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّاْتِيَ بِالْفَتْحِ اَوْ اَمْرٍ مِّنْ عِنْدِهٖ فَيُصْبِحُوْا عَلٰي مَآ اَ سَرُّوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ نٰدِمِيْنَ 52ۭ وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَهٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْ ۙاِنَّهُمْ لَمَعَكُمْ ۭحَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فَاَصْبَحُوْا خٰسِرِيْنَ 53 يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَنْ يَّرْتَدَّ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ فَسَوْفَ يَاْتِي اللّٰهُ بِقَوْمٍ يُّحِبُّهُمْ وَيُحِبُّوْنَهٗٓ ۙ اَذِلَّةٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ اَعِزَّةٍ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ ۡ يُجَاهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا يَخَافُوْنَ لَوْمَةَ لَاۗىِٕمٍ ۭ ذٰلِكَ فَضْلُ اللّٰهِ يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭوَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ 54 اِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ يُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَهُمْ رٰكِعُوْنَ 55 وَمَنْ يَّتَوَلَّ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَاِنَّ حِزْبَ اللّٰهِ هُمُ الْغٰلِبُوْنَ 56ۧ
आयत 51
“ऐ ईमान वालो! यहूद व नसारा को अपना दिली दोस्त (हिमायती और पुश्त पनाह) ना बनाओ।” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْيَھُوْدَ وَالنَّصٰرٰٓى اَوْلِيَاۗءَ ۘ |
“वह आपस में एक-दूसरे के दोस्त हैं।” | بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۗءُ بَعْضٍ ۭ |
उनमें से बाज़, बाज़ के पुश्तपनाह और मददगार हैं। यह दरहक़ीक़त एक पेशनगोई थी जो इस दौर में आकर पूरी हुई है। जब क़ुरान नाज़िल हुआ तो सूरते हाल वह थी जो हम क़ब्ल अज़ (इस सूरत की आयत 14 में) पढ़ आये हैं: {فَاَغْرَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۭ } “पस हमने उनके माबैन अदावत और बुग्ज़ की आग भड़का दी रोज़े क़यामत तक के लिये।” चुनाँचे ईसाईयों और यहूदियों के माबैन हमेशा शदीद दुश्मनी रही है और आपस में कश्त व खून होता रहा है, लेकिन ज़ेरे नज़र अल्फ़ाज़ { بَعْضُهُمْ اَوْلِيَاۗءُ بَعْضٍ ۭ} में जो पेशनगोई थी वह बीसवीं सदी में आकर पूरी हुई है। बाल्फोर्ड डिक्लेरेशन (1917 ई०) के बाद की सूरते हाल में उनका बाहमी गठजोड़ शुरू हुआ, जिसके नतीजे में ब्रितानिया और अमेरिका के ज़ेरे असर इसराइल की हुकूमत क़ायम हुई, और अब भी अगर वह क़ायम है तो असल में उन्हीं ईसाई मुल्कों की पुश्तपनाही की वजह से क़ायम है। ईसाई अब यहूदियों की इसलिये पुश्तपनाही कर रहे हैं कि उनकी सारी मईशत यहूदी बैंकारों के ज़ेरे तसल्लुत है। ईसाईयों की मईशत पर यहूदियों के क़ब्ज़े की वजह से यहूद व नसारा का यह गठजोड़ इस दर्जा मुस्तहकम हो चुका है कि आज ईसाईयों की पूरी अस्करी (Military) ताक़त यहूदियों की पुश्त पर है।
“और तुम में से जो कोई उनसे दिली दोस्ती रखेगा तो वह उन्हीं में से होगा।” | وَمَنْ يَّتَوَلَّهُمْ مِّنْكُمْ فَاِنَّهٗ مِنْهُمْ ۭ |
यानि जो कोई उनसे दोस्ती के मुआहिदे करेगा, उनसे नुसरत व हिमायत का तलबगार होगा, हमारी निगाहों में वह यहूदी या नसरानी शुमार होगा।
“यक़ीनन अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को हिदायत नहीं देता।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ 51 |
आज हमारे अक्सर मुस्लमान मुमालिक की पोलिसियाँ क्या हैं और इस सिलसिले में क़ुरान का फ़तवा क्या है, वह आपके सामने है।
आयत 52
“तो तुम देखते हो उन लोगों को जिनके दिलों में रोग है” | فَتَرَى الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ |
“वह उन्हीं के अन्दर घुसने की कोशिश करते रहते हैं” | يُّسَارِعُوْنَ فِيْهِمْ |
फलाँ मुल्क से दोस्ती का मुआहिदा, फलाँ से मदद की दरख्वास्त, फलाँ से हिमायत की तवक्क़ो, उनकी सारी भाग-दौड़, तगो दो (कोशिशें), खारजा पालिसी “يُّسَارِعُوْنَ فِيْهِمْ” की अमली तस्वीर है। इसलिये कि उनके दिलों में रोग यानि निफ़ाक़ है। अगर अल्लाह पर ईमान हो, ऐतमाद और यक़ीन हो, उससे ख़ुलूस और इख्लास का रिश्ता हो तो फिर उसी से नुसरत व हिमायत की उम्मीद हो और {اِنْ تَنْصُرُوا اللّٰهَ يَنْصُرْكُمْ} (सूरह मुहम्मद:7) के वादे पर यक़ीन हो!
“वह कहते हैं हमें अन्देशा है कि हम गर्दिशे ज़माना (और किसी मुसीबत के चक्कर) में ना फँस जायें।” | يَقُوْلُوْنَ نَخْشٰٓى اَنْ تُصِيْبَنَا دَاۗىِٕرَةٌ ۭ |
यानि हम यहूद व नसारा से इसलिये ताल्लुक़ात अस्तवार (मज़बूत) कर रहे हैं कि कल फ़लां किसी नागहानी आफ़त से बच सकें।
“तो बहुत मुमकिन है अल्लाह तआला जल्द ही फ़तह ले आये या अपने पास से कोई और फ़ैसला सादिर फ़रमा दे” | فَعَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّاْتِيَ بِالْفَتْحِ اَوْ اَمْرٍ مِّنْ عِنْدِهٖ |
“तो फिर जो कुछ वह अपने दिलों में छुपाये हुए हैं उस पर उन्हें नादिम होना पड़े।” | فَيُصْبِحُوْا عَلٰي مَآ اَ سَرُّوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ نٰدِمِيْنَ 52ۭ |
उन्हें मालूम हो जायेगा कि जिनकी दोस्ती का सहारा उन्होंने अपने ज़अम (दावे) में ले रखा था वही उन्हें धोखा दे रहे हैं, जिन पर तकिया था वही पत्ते हवा देने लगे!
आयत 53
“और (उस वक़्त) अहले ईमान कहेंगे क्या यह वही लोग हैं जो अल्लाह की क़समें खा-खा कर कहते थे कि वह तो तुम्हारे साथ हैं।” | وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَهٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمُوْا بِاللّٰهِ جَهْدَ اَيْمَانِهِمْ ۙاِنَّهُمْ لَمَعَكُمْ ۭ |
“उनके तमाम आमाल अकारत (waste) हो जाएँगे और वह ख़सारे वाले बन कर रह जाएँगे।” | حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فَاَصْبَحُوْا خٰسِرِيْنَ 53 |
अब जो तीन आयतें आ रही हैं इनमें उन अहले ईमान का ज़िक्र है जो पूरे ख़ुलूस व इख्लास के साथ अल्लाह के रास्ते में जद्दो-जहद कर रहे हैं। अल्लाह तआला हम सबको भी तौफ़ीक़ दे कि कमर हिम्मते कस कर अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने के लिये उठ खड़े हों। और अल्लाह तआला हमारे दिलों में यह अहसास पैदा फ़रमा दे कि उसकी शरीअत को नाफ़िज़ करना है और अल् काफ़िरून, अज्ज़ालिमून और अल् फ़ासिक़ून (अल् मायदा:44, 45 और 47) की सफ़ों से बाहर निकलना हैं। इस तरह की जद्दो-जहद में मेहनत करना पड़ती है, मुश्किलात बर्दाश्त करना पड़ती हैं, तकालीफ़ सहना पड़ती हैं। ऐसे हालात में बाज़ अवक़ात इन्सान के क़दम लड़खड़ाने लगते हैं और अज़म (वादे) व हिम्मत में कुछ कमज़ोरी आने लगती है। ऐसे मौक़े पर इस राह के मुसाफ़िरों की एक ख़ास ज़हनी और नफ्सियाती कैफ़ियत होती है। इस हवाले से यह तीन आयात निहायत अहम और जामेअ हैं।
आयत 54
“ऐ ईमान वालो! जो कोई भी फिर गया तुम में से अपने दीन से” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَنْ يَّرْتَدَّ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ |
“तो अल्लाह (को कोई परवाह नहीं, वह) अनक़रीब (तुम्हें हटा कर) एक ऐसी क़ौम को ले आयेगा” | فَسَوْفَ يَاْتِي اللّٰهُ بِقَوْمٍ |
“जिन्हें अल्लाह महबूब रखेगा और वह उसे महबूब रखेंगे” | يُّحِبُّهُمْ وَيُحِبُّوْنَهٗٓ ۙ |
“वह अहले ईमान के हक़ में बहुत नरम होंगे” | اَذِلَّةٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ |
“काफ़िरों पर बहुत भारी होंगे” | اَعِزَّةٍ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ ۡ |
“अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे” | يُجَاهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ |
“और किसी मलामत करने वाले की मलामत का कोई खौफ़ नहीं करेंगे।” | وَلَا يَخَافُوْنَ لَوْمَةَ لَاۗىِٕمٍ ۭ |
यहाँ पर जो लफ्ज़ “يَّرْتَدَّ” आया है उसके मफ़हूम में एक तो क़ानूनी और ज़ाहिरी इरतदाद (apostasy) है। जैसे एक शख्स इस्लाम को छोड़ कर काफ़िर हो जाये, यहूदी या नसरानी हो जाये। यह तो बहुत वाज़ेह क़ानूनी इरतदाद है, लेकिन एक बातिनी इरतदाद भी है, यानि उलटे पाँव फिरने लगना, पसपाई इख़्तियार कर लेना। ऊपर इस्लाम का लिबादा तो ज्यों का त्यों है, लेकिन फ़र्क़ यह वाक़ेअ हो गया है कि पहले गलबा-ए-दीन की जद्दो-जहद में लगे हुए थे, मेहनतें कर रहे थे, वक़्त लगा रहे थे, ईसार (त्याग) कर रहे थे, इन्फ़ाक़ कर रहे थे, भाग-दौड़ कर रहे थे, और अब कोई आज़माइश आयी है तो ठिठक कर खड़े रह गये हैं। जैसे सूरतुल बक़रह (आयत:20) में इरशाद है: { كُلَّمَآ اَضَاۗءَ لَھُمْ مَّشَوْا فِيْهِ ڎ وَاِذَآ اَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قَامُوْا } “जब ज़रा सी रोशनी होती है उन पर तो उसमें कुछ चल लेते हैं और जब उन पर अँधेरा छा जाता है तो खड़े हो जाते हैं।” अब कैफ़ियत यह है कि ना सिर्फ़ खड़े रह गये हैं बल्कि कुछ पीछे हट रहे हैं। ऐसी कैफ़ियत के बारे में फ़रमाया गया कि तुम यह ना समझो कि अल्लाह तुम्हारा मोहताज है, बल्कि तुम अल्लाह के मोहताज हो। तुम्हें अपनी निजात के लिये अपने इस फ़र्ज़ को अदा करना है। अगर तुमने पसपाई इख़्तियार की तो अल्लाह तआला तुम्हें हटायेगा और किसी दूसरी क़ौम को ले आयेगा, किसी और के हाथ में अपने दीन का झंडा थमा देगा।
यहाँ पर मोमिनीन सादिक़ीन के औसाफ़ के ज़िमन में जो तीन जोड़े आये हैं उन पर ज़रा दोबारा गौर करें:
(1) “अल्लाह उनसे मोहब्बत करेगा और वह अल्लाह से मोहब्बत करेंगे।” (اللھم اجعلنا منھم) | يُّحِبُّهُمْ وَيُحِبُّوْنَهٗٓ ۙ |
(2) “वह अहले ईमान के हक़ में बहुत नरम होंगे, काफ़िरों पर बहुत सख्त होंगे।” | اَذِلَّةٍ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ اَعِزَّةٍ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ ۡ |
यही मज़मून सूरह फ़तह में दूसरे अंदाज़ से आया है: { اَشِدَّاۗءُ عَلَي الْكُفَّارِ رُحَمَاۗءُ بَيْنَهُمْ} (आयत:29) “आपस में बहुत रहीम व शफ़ीक़, कुफ्फ़ार पर बहुत सख्त।” बक़ौले इक़बाल:
हो हल्क़ा-ए-याराँ तो बा-रेशम की तरह नर्म
रज़्मे हक़-ओ-बातिल हो तो फ़ौलाद है मोमिन!
(3) “अल्लाह की राह में जिहाद करेंगे और किसी मलामत करने वाले की मलामत का कोई खौफ़ नहीं करेंगे।” | يُجَاهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا يَخَافُوْنَ لَوْمَةَ لَاۗىِٕمٍ ۭ |
उनके रिश्तेदार उनको समझाएँगे, दोस्त अहबाब नसीहतें करेंगे कि क्या हो गया है तुम्हें? दिमाग ख़राब हो गया है तुम्हारा? तुम fanatic हो गये हो? तुम्हें औलाद का ख्याल नहीं, अपने मुस्तक़बिल की फ़िक्र नहीं! मगर यह लोग किसी की कोई परवाह नहीं करेंगे, बस अपनी ही धुन में मगन होंगे। और उनकी कैफ़ियत यह होगी:
वापस नहीं फेरा कोई फ़रमान जूनून का
तन्हा नहीं लौटी कभी आवाज़ जर्स की
खैरियते जाँ, राहते तन, सेहते दामां
सब भूल गयीं मसलहतें अहले हवस की
इस राह में जो सब पे गुज़रती है सो गुज़री
तन्हा पसे ज़िन्दां, कभी रुसवा सरे बाज़ार
कड़के हैं बहुत शेख़ सरगोशा-ए-मिम्बर
गरजे हैं बहुत अहले हुक्म बर सरे दरबार
छोड़ा नहीं गैरों ने कोई नावके दशनाम
छूटी नहीं अपनों से कोई तर्ज़े मलामत
इस इश्क़, ना उस इश्क़ पे नादिम है मगर दिल
हर दाग है इस दिल में बजुज़ दागे नदामत!
यह एक किरदार है जिसको वाज़ेह करने के लिये दो-दो औसाफ़ के यह तीन जोड़े आये हैं। इनको अच्छी तरह ज़हननशीन कर लें और अल्लाह तआला से दुआ माँगे कि वह हमें इस किरदार को अमलन इख़्तियार करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
“यह अल्लाह का फ़ज़ल है, जिसको चाहे अता करता है, और अल्लाह बहुत वुसअत रखने वाला, सब कुछ जानने वाला है।” | ذٰلِكَ فَضْلُ اللّٰهِ يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭوَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ 54 |
अल्लाह के खज़ानों में कमी नहीं है। अगर तुम अपने भाइयों, अज़ीज़ों, दोस्तों, साथियों और रफ़ीक़ों को देखते हो कि उन पर अल्लाह का बड़ा फ़ज़ल हुआ है, उन्होंने कैसे-कैसे मरहले सर कर लिये हैं, कैसी-कैसी बाज़ियाँ जीत लीं हैं, तो तुम भी अल्लाह से उसका फ़ज़ल तलब करो। अल्लाह तुम्हें भी हिम्मत देगा। इसलिये कि इस दीन के काम में इस क़िस्म का रश्क़ बहुत पसंदीदा है। जैसे हज़रत उमर रज़ि० को रश्क़ आया हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ि० पर। जब ग़ज़वा-ए-तबूक के लिये रसूल अल्लाह ﷺ ने अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने का हुक्म दिया तो आप (रज़ि०) ने सोचा कि आज तो मैं अबु बक्र रज़ि० से बाज़ी ले जाऊँगा, क्योंकि इत्तेफ़ाक़ से इस वक़्त मेरे पास खासा माल है। चुनाँचे उन्हों (रज़ि०) ने अपने पूरे माल के दो बराबर हिस्से किये, और पूरा एक हिस्सा यानि आधा माल लाकर हुज़ूर ﷺ के क़दमों में डाल दिया। लेकिन हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ि० के घर में जो कुछ था वह सब ले आये। यह देख कर हज़रत उमर रज़ि० ने कहा मैंने जान लिया कि अबु बक्र रज़ि० से आगे कोई नहीं बढ़ सकता। तो दीन के मामले में अल्लाह का हुक्म है: {فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ ۭ } (अल् मायदा:48) यानि नेकियों में, खैर में, भलाई में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश में रहो!
अब फिर अहले ईमान को दोस्ताना ताल्लुक़ात के मैयार के बारे में ख़बरदार किया जा रहा है। अहले ईमान की दिली दोस्ती कुफ्फ़ार से, यहूद हनूद और नसारा से मुमकिन ही नहीं, इसलिये कि यह ईमान के मनाफ़ी है। अगर दीन की गैरत व हमियत होगी, अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की मोहब्बत दिल में होगी तो उनके दुश्मनों से दिली दोस्ती हो ही नहीं सकती।
आयत 55
“तुम्हारे वली तो असल में बस अल्लाह, उसका रसूल (ﷺ) और अहले ईमान हैं” | اِنَّمَا وَلِيُّكُمُ اللّٰهُ وَرَسُوْلُهٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوا |
तुम्हारे दोस्त, पुश्तपनाह, हिमायती, मौतमद (secretary) और राज़दार तो बस अल्लाह, उसका रसूल ﷺ और अहले ईमान हैं। और यह अहले ईमान भी पैदाइशी और क़ानूनी मुस्लमान नहीं, बल्कि:
“जो नमाज़ क़ायम रखते हैं और ज़कात देते हैं झुक कर।” | الَّذِيْنَ يُقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَهُمْ رٰكِعُوْنَ 55 |
यहाँ “وَهُمْ رٰكِعُوْنَ” का मतलब “वह रुकूअ करते हैं” सही नहीं है। यह दरहक़ीक़त ज़कात देने की कैफ़ियत है कि वह ज़कात अदा करते हैं फ़रवतनी (विनम्रता) करते हुए। हम सूरतुल बक़रह में पढ़ आये हैं कि सबसे बढ़ कर इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह के मुस्तहिक़ कौन लोग हैं: {…. لِلْفُقَرَاۗءِ الَّذِيْنَ اُحْصِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ} (आयत:273) जो अल्लाह के दीन के लिये हमावक़्त और हमातन मसरूफ़ हैं और उनके पास अब अपनी मआशी जद्दो-जहद के लिये वक़्त नहीं है। लेकिन वह फ़क़ीर तो नहीं कि आपसे झुक कर माँगे, यह तो आपको झुक कर, फ़रवतनी करते हुए उनकी मदद करना होगी। आप उन्हें दें और वह क़ुबूल कर लें तो आपको उनका ममनूने अहसान होना चाहिये।
आयत 56
“और जो कोई दोस्ती क़ायम करेगा अल्लाह, उसके रसूल (ﷺ) और ईमान वालों के साथ” | وَمَنْ يَّتَوَلَّ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا |
यूँ समझ लें कि यहाँ यह फ़िक़रा महज़ूफ़ है: “तो वह शामिल हो जायेगा हिज़बुल्लाह (अल्लाह की पार्टी) में।”
“पस सुन लो कि हिज़बुल्लाह ही ग़ालिब रहने वाली है।” | فَاِنَّ حِزْبَ اللّٰهِ هُمُ الْغٰلِبُوْنَ 56ۧ |
यह शराइत पहले पूरी की जायें, इन तमाम मैयारात पर पूरा उतरा जाये, अल्लाह तआला के वादे पर ईमान रखा जाये, तो फिर यक़ीनन हिज़बुल्लाह ही ग़ालिब रहेगी।