Surah Maida-सूरतुल माईदा ayat 57-120
आयात 57 से 66 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَكُمْ هُزُوًا وَّلَعِبًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَالْكُفَّارَ اَوْلِيَاۗءَ ۚوَاتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ 57 وَاِذَا نَادَيْتُمْ اِلَى الصَّلٰوةِ اتَّخَذُوْهَا هُزُوًا وَّلَعِبًا ۭذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْقِلُوْنَ 58 قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ هَلْ تَنْقِمُوْنَ مِنَّآ اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلُ ۙ وَاَنَّ اَكْثَرَكُمْ فٰسِقُوْنَ 59 قُلْ هَلْ اُنَبِّئُكُمْ بِشَرٍّ مِّنْ ذٰلِكَ مَثُوْبَةً عِنْدَ اللّٰهِ ۭ مَنْ لَّعَنَهُ اللّٰهُ وَغَضِبَ عَلَيْهِ وَجَعَلَ مِنْهُمُ الْقِرَدَةَ وَالْخَـنَازِيْرَ وَعَبَدَ الطَّاغُوْتَ ۭ اُولٰۗىِٕكَ شَرٌّ مَّكَانًا وَّاَضَلُّ عَنْ سَوَاۗءِ السَّبِيْلِ 60 وَاِذَا جَاۗءُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّا وَقَدْ دَّخَلُوْا بِالْكُفْرِ وَهُمْ قَدْ خَرَجُوْا بِهٖ ۭ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا كَانُوْا يَكْتُمُوْنَ 61 وَتَرٰى كَثِيْرًا مِّنْهُمْ يُسَارِعُوْنَ فِي الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَ ۭ لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 62 لَوْلَا يَنْھٰىهُمُ الرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ عَنْ قَوْلِهِمُ الْاِثْمَ وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَ ۭلَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ 63 وَقَالَتِ الْيَھُوْدُ يَدُاللّٰهِ مَغْلُوْلَةٌ ۭغُلَّتْ اَيْدِيْهِمْ وَلُعِنُوْا بِمَا قَالُوْا ۘبَلْ يَدٰهُ مَبْسُوْطَتٰنِ ۙ يُنْفِقُ كَيْفَ يَشَاۗءُ ۭ وَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًا ۭ وَاَلْقَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۭكُلَّمَآ اَوْقَدُوْا نَارًا لِّـلْحَرْبِ اَطْفَاَهَا اللّٰهُ ۙوَيَسْعَوْنَ فِي الْاَرْضِ فَسَادًا ۭوَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِيْنَ 64 وَلَوْ اَنَّ اَهْلَ الْكِتٰبِ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَكَفَّرْنَا عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْ وَلَاَدْخَلْنٰهُمْ جَنّٰتِ النَّعِيْمِ 65 وَلَوْ اَنَّهُمْ اَقَامُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِمْ مِّنْ رَّبِّهِمْ لَاَكَلُوْا مِنْ فَوْقِهِمْ وَمِنْ تَحْتِ اَرْجُلِهِمْ ۭمِنْهُمْ اُمَّةٌ مُّقْتَصِدَةٌ ۭ وَكَثِيْرٌ مِّنْهُمْ سَاۗءَ مَا يَعْمَلُوْنَ 66ۧ
आयत 57
“ऐ अहले ईमान, उन लोगों को अपना दोस्त ना बनाओ जिन्होंने तुम्हारे दीन को हँसी-मज़ाक और खेल बना रखा है उन लोगों में से जिन्हें किताब दी गयी थी तुमसे पहले और दूसरे काफ़िरों में से भी।” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَكُمْ هُزُوًا وَّلَعِبًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَالْكُفَّارَ اَوْلِيَاۗءَ ۚ |
फिर वही बात फ़रमायी गयी कि मुशरिकीन और अहले किताब में से किसी को अपना वली और दोस्त ना बनाओ।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो अगर तुम मोमिन हो।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ 57 |
आयत 58
“और जब तुम नमाज़ के लिये पुकारते हो तो यह लोग उसको मज़ाक और खेल बना लेते हैं।” | وَاِذَا نَادَيْتُمْ اِلَى الصَّلٰوةِ اتَّخَذُوْهَا هُزُوًا وَّلَعِبًا ۭ |
यानि अज़ान की आवाज़ सुन कर उसकी नक़लें उतारते हैं और तमस्खुर करते हैं।
“यह इस वजह से कि यह लोग अक़्ल से आरी (खाली) हैं।” | ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ قَوْمٌ لَّا يَعْقِلُوْنَ 58 |
आयत 59
“(ऐ नबी ﷺ) इनसे कहिये कि ऐ किताब वालो” | قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ |
“तुम किस बात का इन्तेक़ाम ले रहे हो हमसे?” | هَلْ تَنْقِمُوْنَ مِنَّآ |
“सिवाय इसके कि हम ईमान लाये हैं अल्लाह पर” | اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ |
“और (उस पर) जो हम पर नाज़िल किया गया” | وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا |
“और (उस पर भी) जो पहले नाज़िल किया गया” | وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلُ ۙ |
“और हक़ीक़त यह है कि तुम्हारी अक्सरियत नाफ़रमानों पर मुश्तमिल है।” | وَاَنَّ اَكْثَرَكُمْ فٰسِقُوْنَ 59 |
आयत 60
“आप (ﷺ) कहिये क्या मैं तुम्हें बताऊँ कि अल्लाह यहाँ इससे भी बदतर सज़ा पाने वाले कौन हैं?” | قُلْ هَلْ اُنَبِّئُكُمْ بِشَرٍّ مِّنْ ذٰلِكَ مَثُوْبَةً عِنْدَ اللّٰهِ ۭ |
“(वह लोग हैं) जिन पर अल्लाह ने लानत की” | مَنْ لَّعَنَهُ اللّٰهُ |
“और जिन पर वह ग़ज़बनाक हुआ” | وَغَضِبَ عَلَيْهِ |
“और जिनमें से उसने बन्दर और खंज़ीर बना दिये” | وَجَعَلَ مِنْهُمُ الْقِرَدَةَ وَالْخَـنَازِيْرَ |
“और जिन्होंने शैतान की बन्दगी की।” | وَعَبَدَ الطَّاغُوْتَ ۭ |
“यह सबके सब बहुत बुरे मुक़ाम में हैं और बहुत ज़्यादा भटके हुए हैं सीधे रास्ते से।” | اُولٰۗىِٕكَ شَرٌّ مَّكَانًا وَّاَضَلُّ عَنْ سَوَاۗءِ السَّبِيْلِ 60 |
आयत 61
“और जब वह तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं हम ईमान ले आये” | وَاِذَا جَاۗءُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّا |
“हालाँकि वह दाख़िल भी हुए थे कुफ़्र के साथ और निकले भी हैं कुफ़्र के साथ।” | وَقَدْ دَّخَلُوْا بِالْكُفْرِ وَهُمْ قَدْ خَرَجُوْا بِهٖ ۭ |
मेरे नज़दीक यह उन लोगों की तरफ़ इशारा है जिनका ज़िक्र सूरह आले इमरान (आयत 72) में आया है, जिन्होंने फ़ैसला किया था कि सुबह को ईमान लाओ और शाम को काफ़िर हो जाओ। उनके बारे में यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि वह कुफ़्र के साथ दाख़िल हुए थे और कुफ़्र के साथ ही निकले हैं, एक लम्हे के लिये भी उन्हें ईमान की हलावत नसीब नहीं हुई। वह शऊरी तौर पर फ़ैसला कर चुके थे कि रहना तो हमें अपने दीन पर है, लेकिन इस्लाम की जो साख बन गयी है उसको नुक़सान पहुँचाने की खातिर हम यह धोखा और साज़िश कर रहे हैं।
“और अल्लाह खूब जानता है जो वह छुपाये हुए थे।” | وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا كَانُوْا يَكْتُمُوْنَ 61 |
आयत 62
“और तुम देखोगे उनमें से अक्सर को कि बहुत भाग-दौड़ करते हैं गुनाह और ज़ुल्म व ज़्यादती (के कामों) में” | وَتَرٰى كَثِيْرًا مِّنْهُمْ يُسَارِعُوْنَ فِي الْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ |
“और हराम के माल खाने में।” | وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَ ۭ |
“बहुत ही बुरा अमल है जो वह कर रहे हैं!” | لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 62 |
आयत 63
“क्यों नहीं मना करते उन्हें उनके दरवेश (सूफ़ी और पीरो मुरशिद) और उलमा व फ़ुक़हा गुनाह की बात कहने से और हरामखोरी से?” | لَوْلَا يَنْھٰىهُمُ الرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ عَنْ قَوْلِهِمُ الْاِثْمَ وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَ ۭ |
आज हमारे यहाँ भी अक्सर व बेशतर पीर अपने मुरीदों को हरामखोरी से मना नहीं करते। उन्हें उसमें से नज़राने मिल जाने चाहियें, अल्लाह-अल्लाह खैर सल्ला। कहाँ से खाया? कैसे खाया? इससे कोई बहस नहीं। हालाँकि अल्लाह वालों का काम तो बुराई से रोकना है, अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर का फ़रीज़ा सरअंजाम देना है।
“बहुत बुरा है वह काम जो वह कर रहे हैं।” | لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَصْنَعُوْنَ 63 |
आयत 64
“और यहूद ने कहा कि अल्लाह का हाथ बंद हो गया।” | وَقَالَتِ الْيَھُوْدُ يَدُاللّٰهِ مَغْلُوْلَةٌ ۭ |
उनके इस क़ौल का मतलब यह था कि अल्लाह की रहमत जो हमारे लिये थी वह बंद हो गयी है, नबुवत की रहमत हमारे लिये मुख्तस (allocated) थी और अब यह दस्ते रहमत हमारी तरफ़ से बंद हो गया है। या इसका मफ़हूम यह भी हो सकता है जो मुनाफ़िक़ीन कहा करते थे कि अल्लाह हमसे क़र्ज़े हसना माँगता है तो गोया अल्लाह फ़क़ीर हो गया है (नाउज़ु बिल्लाह) और हम अग़निया (धनी) हैं। जवाब में फ़रमाया गया:
“उनके हाथ बंध गये हैं” या “बंध जायें उनके हाथ” | غُلَّتْ اَيْدِيْهِمْ |
“और उन पर लानत है उसके सबब जो उन्होंने कहा” | وَلُعِنُوْا بِمَا قَالُوْا ۘ |
“बल्कि अल्लाह के दोनों हाथ तो खुले हुए हैं” | بَلْ يَدٰهُ مَبْسُوْطَتٰنِ ۙ |
“वह जैसे चाहे खर्च करता है।” | يُنْفِقُ كَيْفَ يَشَاۗءُ ۭ |
“और यक़ीनन इज़ाफ़ा करेगा उनमें से अक्सर को सरकशी और कुफ़्र में जो कुछ (ऐ नबी ﷺ) नाज़िल किया गया है आप ﷺ पर आप ﷺ के रब की तरफ़ से।” | وَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًا ۭ |
यानि ज़िद में आकर उन्होंने हक़ व सदाक़त पर मब्नी इस कलाम की मुखालफ़त शुरू कर दी है। मज़ीद बराँ अल्लाह तआला की तरफ़ से जैसे-जैसे जो-जो अहसानात भी आप ﷺ पर और आप ﷺ के साथियों पर हो रहे हैं, अल्लाह तआला मुसलमानों को जो ग़नीमतें दे रहा है, दीन को रफ़्ता-रफ़्ता जो गलबा हासिल हो रहा है, उसके हसद के नतीजे में उनकी ज़िद और हठधर्मी बढ़ती जा रही है। सुलह हुदैबिया के बाद तो ख़ास तौर पर अरब के अन्दर बहुत तेज़ी के साथ सूरते हाल बदलनी शुरू हो गयी थी। इसके नतीजे में बजाये इसके कि यह लोग समझ जाते कि वाक़ई यह अल्लाह की तरफ़ से हक़ है और यकसू होकर इसका साथ देते, उनके अन्दर की जलन और हसद की आग मज़ीद भड़क उठी।
“और हमने उनके माबैन क़यामत तक के लिये दुश्मनी और बुग्ज़ डाल दिया है।” | وَاَلْقَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۭ |
“जब कभी यह आग भड़काते हैं जंग के लिये अल्लाह उसको बुझा देता है” | كُلَّمَآ اَوْقَدُوْا نَارًا لِّـلْحَرْبِ اَطْفَاَهَا اللّٰهُ ۙ |
जंग की आग भड़काने के लिये यहूदी अक्सर साज़िशें करते रहते थे। ख़ास तौर पर ग़ज़वा-ए-अहज़ाब तो उन्हीं की साज़िशों के नतीजे में बरपा हुआ था। मदीने के यहूदी क़बाइले अरब के पास जा-जाकर, इधर-उधर वफ़द भेज कर लोगों को जमा करते थे कि आओ तुम बाहर से हमला करो, हम अन्दर से तुम्हारी मदद करेंगे। उनकी इन्हीं साज़िशों के बारे में फ़रमाया जा रहा है कि जब भी वह जंग की आग भड़काते हैं अल्लाह तआला उसे बुझा देता है।
“और (फिर भी) यह ज़मीन में फ़साद मचाने के लिये भाग-दौड़ करते रहते हैं।” | وَيَسْعَوْنَ فِي الْاَرْضِ فَسَادًا ۭ |
“और अल्लाह ऐसे मुफ़सिदों को पसंद नहीं करता।” | وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الْمُفْسِدِيْنَ 64 |
आयत 65
“अगर अहले किताब ईमान ले आते और तक़वा की रविश इख़्तियार करते” | وَلَوْ اَنَّ اَهْلَ الْكِتٰبِ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا |
“तो हम उनसे उनकी बुराईयों को दूर कर देते” | لَكَفَّرْنَا عَنْهُمْ سَيِّاٰتِهِمْ |
“और हम लाज़िमन उन्हें दाख़िल करते नेअमतों वाले बागों में।” | وَلَاَدْخَلْنٰهُمْ جَنّٰتِ النَّعِيْمِ 65 |
जो आयत आगे आ रही है उस पर गौर कीजिये और उसे ख़ुद पर भी मुन्तबिक़ करके ज़रा सोचिये।
आयत 66
“और अगर इन्होंने क़ायम किया होता तौरात को और इन्जील को और उसको जो कुछ नाज़िल किया गया था इन पर इनके रब की तरफ़ से” | وَلَوْ اَنَّهُمْ اَقَامُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِمْ مِّنْ رَّبِّهِمْ |
“तो यह खाते अपने ऊपर से भी और अपने क़दमों के नीचे से भी।” | لَاَكَلُوْا مِنْ فَوْقِهِمْ وَمِنْ تَحْتِ اَرْجُلِهِمْ ۭ |
यानि हमने इन्हें तौरात इसलिये दी थी कि उसके अहकामात को नाफ़िज़ किया जाये। इसी सूरत के सातवें रुकूअ (आयत 44 से 50) में इसका मुफ़स्सल ज़िक्र हम पढ़ आये हैं कि किस तरह उन्हें हुक्म दिया गया था कि अपने फ़ैसले तौरात के अहकामात के मुताबिक़ करो। उससे अगला मरहला उस पूरे निज़ाम के निफ़ाज़ का था जो तौरात ने दिया था। इसी तरह हम पर भी फ़र्ज़ है कि हमने क़ुरान के निज़ाम को क़ायम करना है। उसके बारे में फ़रमाया जा रहा है, कि अगर उन्होंने अल्लाह का वह निज़ाम क़ायम किया होता तो उनके ऊपर से भी उनके रब की तरफ़ से नेअमतों की बारिश होती, और उनके क़दमों के नीचे से भी अल्लाह तआला की नेअमतों के धारे फूटते।
“उनमें कुछ लोग हैं जो दरमियानी (यानि सीधी) राह पर हैं।” | مِنْهُمْ اُمَّةٌ مُّقْتَصِدَةٌ ۭ |
“लेकिन उनमें अक्सरियत उन लोगों की है जो बहुत बुरी हरकतें कर रहे हैं।” | وَكَثِيْرٌ مِّنْهُمْ سَاۗءَ مَا يَعْمَلُوْنَ 66ۧ |
उनका अमल और रवैय्या निहायत गलत है।
आयात 67 से 77 तक
يٰٓاَيُّھَا الرَّسُوْلُ بَلِّــغْ مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ ۭوَاِنْ لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهٗ ۭوَاللّٰهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۭاِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ 67 قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَسْتُمْ عَلٰي شَيْءٍ حَتّٰي تُقِيْمُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭوَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًا ۚ فَلَا تَاْسَ عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ 68 اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ هَادُوْا وَالصّٰبِـُٔــوْنَ وَالنَّصٰرٰى مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ 69 لَقَدْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ وَاَرْسَلْنَآ اِلَيْهِمْ رُسُلًا ۭكُلَّمَا جَاۗءَهُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَهْوٰٓى اَنْفُسُهُمْ ۙ فَرِيْقًا كَذَّبُوْا وَفَرِيْقًا يَّقْتُلُوْنَ 70ۤ وَحَسِبُوْٓا اَلَّا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ فَعَمُوْا وَصَمُّوْا ثُمَّ تَابَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ ثُمَّ عَمُوْا وَصَمُّوْا كَثِيْرٌ مِّنْهُمْ ۭ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ 71 لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ ۭوَقَالَ الْمَسِيْحُ يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اعْبُدُوا اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ ۭاِنَّهٗ مَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللّٰهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ وَمَاْوٰىهُ النَّارُ ۭوَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ 72 لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ ثَالِثُ ثَلٰثَةٍ ۘوَمَا مِنْ اِلٰهٍ اِلَّآ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۭوَاِنْ لَّمْ يَنْتَھُوْا عَمَّا يَقُوْلُوْنَ لَيَمَسَّنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 73 اَفَلَا يَتُوْبُوْنَ اِلَى اللّٰهِ وَيَسْتَغْفِرُوْنَهٗ ۭوَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 74 مَا الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ اِلَّا رَسُوْلٌ ۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۭوَاُمُّهٗ صِدِّيْقَةٌ ۭكَانَا يَاْكُلٰنِ الطَّعَامَ ۭاُنْظُرْ كَيْفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ الْاٰيٰتِ ثُمَّ انْظُرْ اَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ 75 قُلْ اَتَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَمْلِكُ لَكُمْ ضَرًّا وَّلَا نَفْعًا ۭوَاللّٰهُ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 76 قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ غَيْرَ الْحَقِّ وَلَا تَتَّبِعُوْٓا اَهْوَاۗءَ قَوْمٍ قَدْ ضَلُّوْا مِنْ قَبْلُ وَاَضَلُّوْا كَثِيْرًا وَّضَلُّوْا عَنْ سَوَاۗءِ السَّبِيْلِ 77ۧ
आयत 67
“ऐ रसूल (ﷺ) पहुँचा दीजिये जो कुछ नाज़िल किया गया है आप ﷺ की तरफ़ आप ﷺ के रब की जानिब से।” | يٰٓاَيُّھَا الرَّسُوْلُ بَلِّــغْ مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ ۭ |
“और अगर (बिलफ़र्ज़) आप ﷺ ने ऐसा ना किया तो गोया आप ﷺ ने उसकी रिसालत का हक़ अदा नहीं किया।” | وَاِنْ لَّمْ تَفْعَلْ فَمَا بَلَّغْتَ رِسَالَتَهٗ ۭ |
अपने मज़मून के ऐतबार से यह बहुत सख्त आयत है। इससे यह भी पता चलता है कि अगर वही में कहीं रसूल अल्लाह ﷺ पर तनक़ीद नाज़िल हुई है तो वह भी क़ुरान में ज्यों की त्यों मौजूद है। ऐसा हरगिज़ नहीं कि ऐसी चीज़ों को छुपा लिया गया हो। तीसवें पारे में सूरतुल अबस की इब्तदाई आयात {عَبَسَ وَتَوَلّىٰٓ} {اَنْ جَاۗءَهُ الْاَعْمٰى } भी वैसे ही मौजूद हैं जैसे नाज़िल हुई थीं। सूरह आले इमरान में भी हम पढ़ कर आये हैं कि हुज़ूर ﷺ को मुख़ातिब करके फ़रमाया गया: {….لَيْسَ لَكَ مِنَ الْاَمْرِ شَيْءٌ } (आयत:128)। इस तरह की आयात अपनी जगह पर मन व अन मौजूद हैं, और यह क़ुरान के महफ़ूज़ मिनल्लाह होने पर हुज्जत हैं। आयत ज़ेरे नज़र में तम्बीह की जा रही है कि वही-ए-इलाही में से कोई चीज़ किसी वजह से पहुँचने से रह ना जाये। लोगों के खौफ़ से या अपनी किसी मसलहत की वजह से बिलफ़र्ज़ अगर ऐसा हुआ तो गोया आप ﷺ फ़रीज़ा-ए-रिसालत की अदायगी में कोताही का सबूत देंगे। “اَلْعَبْدُ عَبْدٌ وَاِنْ تَرَقّٰی، وَالرَّبُّ رَبٌّ وَاِنْ تَنَزَّل!”
“और अल्लाह आप ﷺ की हिफ़ाज़त करेगा लोगों से।” | وَاللّٰهُ يَعْصِمُكَ مِنَ النَّاسِ ۭ |
आपको लोगों से डरने की कोई ज़रूरत नहीं।
“यक़ीनन अल्लाह काफ़िरों को राहयाब नहीं करता।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ 67 |
आयत 68
“(ऐ नबी ﷺ) कह दीजिये: ऐ किताब वालों तुम किसी चीज़ पर नहीं हो” | قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَسْتُمْ عَلٰي شَيْءٍ |
तुम्हारी कोई हैसियत नहीं है, कोई मक़ाम नहीं है, कोई जड़ बुनियाद नहीं है, तुम हमसे हमकलाम होने के मुस्तहिक़ (हक़दार) नहीं हो।
“जब तक तुम क़ायम ना करो तौरात और इन्जील को और जो कुछ नाज़िल किया गया है तुम पर तुम्हारे रब की तरफ़ से।” | حَتّٰي تُقِيْمُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ |
अब अपने लिये इस आयत को आप इस तरह पढ़ लीजिये: { يٰٓاَهْلَ الْقُرْآنِ لَسْتُمْ عَلٰي شَيْءٍ حَتّٰي تُقِيْمُوا الْقُرْآنَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ} “ऐ क़ुरान के मानने वालो! तुम्हारी कोई हैसियत नहीं….. तुम समझते हो कि हम उम्मते मुस्लिमा हैं, अल्लाह वाले हैं, अल्लाह के लाड़ले और प्यारे हैं, अल्लाह के रसूल ﷺ के उम्मती हैं। लेकिन तुम देख रहे हो कि ज़िल्लत व ख्वारी तुम्हारा मुक़द्दर बनी हुई है, हर तरफ़ से तुम पर यलगार है, इज़्ज़त व वक़ार नाम की कोई शय (चीज़) तुम्हारे पास नहीं रही। तुम कितनी ही तादाद में क्यों ना हो, दुनिया में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं, और इससे भी ज़्यादा बेतौक़ीरी (बेईज्ज़त होने) के लिये भी तैयार रहो। “तुम्हारी कोई असल नहीं जब तक तुम क़ायम ना करो क़ुरान को और उसके साथ जो कुछ मज़ीद तुम पर तुम्हारे रब की तरफ़ से नाज़िल हुआ है।” क़ुरान वही-ए-जली है। इसके अलावा हुज़ूर ﷺ को वही-ए-ख़फ़ी के ज़रिये से भी तो अहकामात मिलते थे और सुन्नते रसूल ﷺ वही-ए-ख़फ़ी का ज़हूर ही तो है। तो जब तक तुम किताब व सुन्नत का निज़ाम क़ायम नहीं करते, तुम्हारी कोई हैसियत नहीं। यह भी याद रहे कि “या अहलल क़ुरान” का ख़िताब ख़ुद हुज़ूर ﷺ ने हमें दिया है। मेरे किताबचे “मुसलमानों पर क़ुरान मजीद के हुक़ूक़” में यह हदीस मौजूद है जिसमें हुज़ूर ﷺ से यह अल्फ़ाज़ नक़ल हुए हैं:
یَا اَھْلَ الْقُرْآنِ لَا تَتَوَسَّدُوا الْقُرْآنَ، وَاتْلُوْہُ حَقَّ تِلَاوَتِہٖ مِنْ آنَاءِ اللَّیْلِ وَالنَّھَارِ، وَأَفْشُوْہُ وَتَغَنَّوْہُ وَتَدَبَّرُوْا مَا فِیْہِ لَعَلَّکُمْ تُفْلِحُوْنَ
“ऐ अहले क़ुरान, क़ुरान को अपना तकिया ना बना लेना, बल्कि इसे पढ़ा करो रात के अवक़ात में भी और दिन के अवक़ात में भी, जैसा कि इसके पढ़ने का हक़ है, और इसे आम करो और ख़ुश अलहानी से पढ़ो और इसमें तदब्बुर करो ताकि तुम फ़लाह पाओ।”
“लेकिन (ऐ नबी ﷺ) जो कुछ आप ﷺ पर नाज़िल किया गया है आप ﷺ के रब की तरफ़ से यह उनके अक्सर लोगों की सरकशी और कुफ़्र में यक़ीनन इज़ाफ़ा करेगा।” | وَلَيَزِيْدَنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ مَّآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ طُغْيَانًا وَّكُفْرًا ۚ |
उनकी सरकशी और तुग्यानी में और इज़ाफ़ा होगा, उनकी मुखालफ़त और बढ़ती चली जायेगी, हसद की आग में वह मज़ीद जलते चले जाएँगे।
“तो आप ﷺ उन काफ़िरों के बारे में अफ़सोस ना करें।” | فَلَا تَاْسَ عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ 68 |
नबी चूँकि अपनी उम्मत के हक़ में निहायत रहीम व शफ़ीक़ होता है लिहाज़ा वह लोगों पर अज़ाब को पसंद नहीं करता और क़ौम पर अज़ाब के तसव्वुर से उसे सदमा होता है। फिर ख़ुसूसन जब वह अपनी बिरादरी भी हो, जैसा कि बनी इस्माइल अलै० थे, तो यह रन्ज व सदमा दो चंद हो जाता है। चुनाँचे जब उनके बारे में सूरह युनुस और सूरह हूद में अज़ाब की ख़बरें आ रही थीं तो आप ﷺ बहुत फ़िक्रमन्द और ग़मगीन हुए और आप ﷺ के बालों में एकदम सफ़ेदी आ गयी। इस पर हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ि० ने पूछा, हुज़ूर ﷺ क्या हुआ? आप ﷺ पर बुढ़ापा तारी हो गया? तो आप ﷺ ने फ़रमाया: ((شَیَّبَتْنِیْ ھُوْدٌ وَ اَخَوَاتُھَا)) “मुझे सूरह हूद और उसकी बहनों (हम मज़मून सूरतों) ने बूढ़ा कर दिया है।” क्योंकि इन सूरतों का अंदाज़ ऐसा है कि जैसे अब मोहलत ख़त्म हुई चाहती है और अज़ाब का धारा फूटने ही वाला है।
आयत 69
“बेशक वह लोग जो ईमान लाये, और वह लोग जो यहूदी, साबी और नसारा (ईसाई) हुए” | اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ هَادُوْا وَالصّٰبِـُٔــوْنَ وَالنَّصٰرٰى |
इस आयत में तक़रीबन वही मज़मून है जो इससे पहले सूरतुल बक़रह के आठवें रुकूअ (आयत 62) में आ चुका है, जिससे बाज़ लोगों को धोखा होता है कि शायद निजात के लिये ईमान बिल रिसालत की ज़रूरत नहीं है, हालाँकि सूरतुन्निसा (आयत 150, 151 और 152) में अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के माबैन तफ़रीक़ करने वालों के लिये बहुत वाज़ेह अंदाज़ में फ़रमाया गया है: {اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ حَقًّا ۚ } “वही लोग तो पक्के काफ़िर हैं।” दूसरी बात यहाँ ज़हन में यह रखिये कि इन तमाम सूरतों में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान लाने की दावत क़दम-क़दम पर है, बार-बार है, लिहाज़ा इससे इस्तगना (स्वतंत्रता) का कोई जवाज़ (कारण) रहता ही नहीं, सिवाय इसके कि किसी की नीयत में फ़साद हो और दिल में कजी पैदा हो चुकी हो।
“(अपने-अपने ज़माने में जिस क़ौम और जिस गिरोह से) जो कोई ईमान लाया अल्लाह पर और यौमे आख़िरत पर और उसने अच्छे अमल किये तो उन पर ना कोई खौफ़ होगा और ना वह ग़म से दो-चार होंगे।” | مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ 69 |
यहाँ वह तमाम लोग मुराद हैं जो अपने-अपने दौर में अल्लाह और आख़िरत पर ईमान व यक़ीन रखते थे और अपने वक़्त के नबी और गुज़िश्ता अम्बिया पर ईमान रखते थे। जैसे हज़रत मसीह अलै० से माक़ब्ल ज़माने में यहूदी थे, जो किताबुल्लाह तौरात पर यक़ीन रखते थे, हज़रत मूसा अलै० को मानते थे, दूसरे नबियों को मानते थे और नेक अमल करते थे। लेकिन अमल के मामले में असल चीज़ और असल बुनियाद अल्लाह की रज़ाजोई और आख़िरत की जज़ा तलबी है, जिससे कोई अमल, अमले सालेह बनता है।
आयत 70
“हमने बनी इसराइल से अहद लिया और उनकी तरफ़ बहुत से रसूल भेजे।” | لَقَدْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ وَاَرْسَلْنَآ اِلَيْهِمْ رُسُلًا ۭ |
यहाँ बहुत से रसूल भेजने से मुराद है बहुत से अम्बिया भेजे। जैसा कि मैं पहले अर्ज़ कर चुका हूँ, क़ुरान मजीद में रसूल का लफ्ज़ नबी की जगह इस्तेमाल हुआ है, अलबत्ता जहाँ तक लफ्ज़ रसूल के इस्तलाही मफ़हूम का ताल्लुक़ है तो हज़रत मूसा अलै० के बाद बनी इसराइल में रसूल सिर्फ़ एक आये हैं यानि हज़रत ईसा अलै०, बाक़ी सब नबी थे।
“(लेकिन) जब भी कभी उनके पास कोई रसूल लेकर आया वह चीज़ जो उनकी ख्वाहिशाते नफ्स के ख़िलाफ़ थी” | كُلَّمَا جَاۗءَهُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَهْوٰٓى اَنْفُسُهُمْ ۙ |
“तो एक गिरोह को उन्होंने झुठलाया और एक गिरोह को क़त्ल करते रहे।” | فَرِيْقًا كَذَّبُوْا وَفَرِيْقًا يَّقْتُلُوْنَ 70ۤ |
आयत 71
“और उन्होंने समझा कि उन पर कोई पकड़ नहीं आयेगी” | وَحَسِبُوْٓا اَلَّا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ |
कोई अक़ूबत नहीं होगी, हम पर कोई सरज़निश नहीं होगी।
“तो वह बहरे भी हो गये, अंधे भी हो गये” | فَعَمُوْا وَصَمُّوْا |
“फिर अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया” | ثُمَّ تَابَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ |
अल्लाह तआला ने भी उन्हें फ़ौरन नहीं पकड़ा। उन्हें तौबा की मोहलत दी, मौक़ा दिया।
“(नतीजा यह हुआ कि) फिर उनमें से अक्सर लोग और ज़्यादा अंधे और बहरे हो गये।” | ثُمَّ عَمُوْا وَصَمُّوْا كَثِيْرٌ مِّنْهُمْ ۭ |
बजाये अल्लाह के दामने रहमत में आने के अपनी गुमराही में और बढ़ते चले गये।
“और जो कुछ वह कर रहे हैं अल्लाह उसे देख रहा है।” | وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ 71 |
आयत 72
“यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह मसीह इब्ने मरयम ही है।” | لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ هُوَ الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ ۭ |
यह वही बात है जो इससे पहले इसी सूरत की आयत 17 में आ चुकी है, यानि अल्लाह ही ने मसीह अलै० की शख्सियत का लिबादा ओढ़ लिया है।
“जबकि मसीह अलै० ने तो कहा था कि ऐ बनी इसराइल, बन्दगी और परस्तिश करो अल्लाह की जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है।” | وَقَالَ الْمَسِيْحُ يٰبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اعْبُدُوا اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ ۭ |
“यक़ीनन जो भी अल्लाह के साथ शिर्क करेगा तो अल्लाह ने उस पर जन्नत को हराम कर दिया है” | اِنَّهٗ مَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدْ حَرَّمَ اللّٰهُ عَلَيْهِ الْجَنَّةَ |
“और उसका ठिकाना आग है, और ऐसे ज़ालिमों के लिये कोई मददगार नहीं होगा।” | وَمَاْوٰىهُ النَّارُ ۭوَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ 72 |
अब ईसाईयों के शिर्क की एक दूसरी शक्ल का ज़िक्र हो रहा है। उनका एक अक़ीदा तो God Incarnate का था। यह उनमें से एक फ़िरक़े Jacobites का अक़ीदा था कि ख़ुद अल्लाह तआला ही ने ईसा अलै० की शक्ल में इंसानी रूप धार लिया है। ऊपर इसी अक़ीदे का ज़िक्र हुआ है, लेकिन ईसाईयों के यहाँ एक अक़ीदा “तसलीस” का भी है, और इस अक़ीदे की भी उनके यहाँ दो शक्लें हैं। इब्तदा में जो तसलीस थी उसमें अल्लाह, हज़रत मरयम और हज़रत मसीह शामिल थे। यानि “God the Father, God the Mother and God the Son”। दरअसल यह तसलीस मिस्र में फ़राअना के ज़माने से चली आ रही थी। इसी के अन्दर उन्होंने ईसाईयत को ढाल दिया, ताकि मिस्र के लोग आसानी से ईसाईयत क़ुबूल कर लें। इसके बाद हज़रत मरयम को इस तसलीस में से निकाल दिया गया और Holy Ghost या Holy Spirit (रुहुल क़ुदुस) को उनकी जगह शामिल कर लिया गया और इस तरह “God the Father, God the Son and God the Holy Ghost” पर मुश्तमिल तसलीस वजूद में आयी।
आयत 73
“यक़ीनन कुफ़्र किया उन लोगों ने जिन्होंने कहा कि अल्लाह तीन में का तीसरा है।” | لَقَدْ كَفَرَ الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ ثَالِثُ ثَلٰثَةٍ ۘ |
“जबकि हक़ीक़तन नहीं है कोई इलाह सिवाय एक ही इलाह के।” | وَمَا مِنْ اِلٰهٍ اِلَّآ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۭ |
“और अगर यह बाज़ ना आये उससे जो कुछ यह कह रहे हैं” | وَاِنْ لَّمْ يَنْتَھُوْا عَمَّا يَقُوْلُوْنَ |
“तो इनमें से जो काफ़िर हैं उन पर बहुत दर्दनाक अज़ाब आकर रहेगा।” | لَيَمَسَّنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 73 |
आयत 74
“तो क्या यह लोग अल्लाह की जनाब में तौबा और उससे इस्तग़फ़ार नहीं करते?” | اَفَلَا يَتُوْبُوْنَ اِلَى اللّٰهِ وَيَسْتَغْفِرُوْنَهٗ ۭ |
“और अल्लाह तो ग़फ़ूर और रहीम है।” | وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 74 |
आयत 75
“मसीह इब्ने मरयम और कुछ नहीं सिवाय इसके कि वह एक रसूल थे।” | مَا الْمَسِيْحُ ابْنُ مَرْيَمَ اِلَّا رَسُوْلٌ ۚ |
“उनसे पहले भी बहुत से रसूल गुज़र चुके थे।” | قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۭ |
यह बिल्कुल वही अल्फ़ाज़ हैं जो सूरह आले इमरान (आयत 144) में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के बारे में आये हैं: { وَمَا مُحَمَّدٌ اِلَّا رَسُوْلٌ ۚ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِ الرُّسُلُ ۭ } “मुहम्मद (ﷺ) इसके सिवा क्या हैं कि अल्लाह के रसूल हैं, और आप ﷺ से पहले बहुत से रसूल गुज़र चुके हैं।” तो इसी तरह फ़रमाया कि हज़रत ईसा अलै० की हैसियत अल्लाह के एक रसूल की है, जिस तरह उनसे पहले बहुत से रसूल गुज़र चुके हैं।
“और उनकी वालिदा सिद्दीक़ा थीं।” | وَاُمُّهٗ صِدِّيْقَةٌ ۭ |
क़ब्ल अज़ हम सूरतुन्निसा (आयत 69) में पढ़ चुके हैं कि नबियों के बाद सबसे ऊँचा दर्जा सिद्दीक़ीन का है। ख्वातीन को अगरचे नबुवत तो नहीं मिली है लेकिन अम्बिया के बाद जो दूसरा दर्जा है उसमें बहुत चोटी की हैसियतें उन्हें मिली हैं। हमारी उम्मत की सिद्दीक़तुल कुबरा यानि सबसे बड़ी सिद्दीक़ा हज़रत ख़दीजा रज़ि० हैं और सिद्दीक़े अकबर की हैसियत इस उम्मत में हज़रत अबु बक्र रज़ि० को मिली है। हज़रत आयशा रज़ि० भी सिद्दीक़ा हैं। इसी तरह हज़रत मरयम अलै० भी सिद्दीक़ा थीं।
“वह दोनों खाना खाते थे।” | كَانَا يَاْكُلٰنِ الطَّعَامَ ۭ |
दोनों इन्सान थे, बशर थे और सारे बशरी तक़ाज़े उनके साथ थे।
“देखो, किस तरह हम उनके लिये अपनी आयात वाज़ेह करते हैं, फिर देखो कि वह कहाँ से उल्टा दिये जाते हैं।” | اُنْظُرْ كَيْفَ نُبَيِّنُ لَهُمُ الْاٰيٰتِ ثُمَّ انْظُرْ اَنّٰى يُؤْفَكُوْنَ 75 |
आयत 76
“आप ﷺ कहिये क्या तुम पूजते हो अल्लाह के सिवा उन्हें जो तुम्हारे लिये ना किसी नुक़सान का इख़्तियार रखते हैं और ना नफ़े का?” | قُلْ اَتَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَمْلِكُ لَكُمْ ضَرًّا وَّلَا نَفْعًا ۭ |
“जबकि अल्लाह ही सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।” | وَاللّٰهُ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 76 |
आयत 77
“कह दीजिये, ऐ अहले किताब, अपने दीन में नाहक़ गुलू ना करो” | قُلْ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ غَيْرَ الْحَقِّ |
यह तुमने हज़रत ईसा अलै० को मोहब्बत और अक़ीदत की वजह से जो कुछ बना दिया है, वह सरासर मुबालगा है। हुज़ूर ﷺ की शान में भी मुबालगा आराई अगर लोग करते हैं तो मोहब्बत की वजह से करते हैं, इश्क़े रसूल ﷺ के नाम पर करते हैं, अक़ीदत के गुलू की वजह से करते हैं। तो गुलू (मुबालगा) दरहक़ीक़त इन्सान को गुमराही की तरफ़ ले जाता है। चुनाँचे इससे मना किया जा रहा है।
“और मत पैरवी करो उन लोगों की बिदआत की जो तुमसे पहले (ख़ुद भी) गुमराह हुए” | وَلَا تَتَّبِعُوْٓا اَهْوَاۗءَ قَوْمٍ قَدْ ضَلُّوْا مِنْ قَبْلُ |
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया है, यह तसलीस मिस्र में ज़माना-ए-क़दीम से मौजूद थी, उसी को उन्होंने इख़्तियार किया।
“और उन्होंने बहुत से दूसरे लोगों को भी गुमराह किया और सीधे रास्ते से भटक गये।” | وَاَضَلُّوْا كَثِيْرًا وَّضَلُّوْا عَنْ سَوَاۗءِ السَّبِيْلِ 77ۧ |
आयात 78 से 86 तक
لُعِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْۢ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ عَلٰي لِسَانِ دَاوٗدَ وَعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۭذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ 78 كَانُوْا لَا يَتَنَاهَوْنَ عَنْ مُّنْكَرٍ فَعَلُوْهُ ۭلَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ 79 تَرٰى كَثِيْرًا مِّنْهُمْ يَتَوَلَّوْنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۭلَبِئْسَ مَا قَدَّمَتْ لَهُمْ اَنْفُسُهُمْ اَنْ سَخِـــطَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ وَفِي الْعَذَابِ هُمْ خٰلِدُوْنَ 80 وَلَوْ كَانُوْا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالنَّبِيِّ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ مَا اتَّخَذُوْهُمْ اَوْلِيَاۗءَ وَلٰكِنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ فٰسِقُوْنَ 81 لَتَجِدَنَّ اَشَدَّ النَّاسِ عَدَاوَةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الْيَھُوْدَ وَالَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا ۚ وَلَتَجِدَنَّ اَقْرَبَهُمْ مَّوَدَّةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰى ۭذٰلِكَ بِاَنَّ مِنْهُمْ قِسِّيْسِيْنَ وَرُهْبَانًا وَّاَنَّهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ 82 وَاِذَا سَمِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَى الرَّسُوْلِ تَرٰٓي اَعْيُنَهُمْ تَفِيْضُ مِنَ الدَّمْعِ مِمَّا عَرَفُوْا مِنَ الْحَـقِّ ۚ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اٰمَنَّا فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰهِدِيْنَ 83 وَمَا لَنَا لَا نُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَمَا جَاۗءَنَا مِنَ الْحَقِّ ۙ وَنَطْمَعُ اَنْ يُّدْخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ الْقَوْمِ الصّٰلِحِيْنَ 84 فَاَثَابَهُمُ اللّٰهُ بِمَا قَالُوْا جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا ۭوَذٰلِكَ جَزَاۗءُ الْمُحْسِنِيْنَ 85 وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَــحِيْمِ 86ۧ
आयत 78
“लानत की गयी उन लोगों पर जिन्होंने कुफ़्र किया बनी इसराइल में से, दाऊद अलै० की ज़बान से और ईसा अलै० इब्ने मरयम की ज़बान से भी।” | لُعِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْۢ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ عَلٰي لِسَانِ دَاوٗدَ وَعِيْسَى ابْنِ مَرْيَمَ ۭ |
बनी इसराइल का जो किरदार रहा है उस पर उनके अम्बिया उनको मुसलसल लअन-तअन करते रहे हैं। Old Testament में हज़रत दाऊद अलै० के हवाले से इसकी बहुत सी मिसालें मौजूद हैं। New Testament (गोस्पल्ज़) में हज़रत मसीह अलै० के तनक़ीदी फ़रमूदात (आलोचनात्मक कथन) बार-बार मिलते हैं, जिनमें अक्सर उनके उलमा, अहबार और सूफ़िया मुख़ातिब हैं कि तुम साँपों के संपोलिये हो। तुम्हारा हाल उन क़ब्रों जैसा है जिनके ऊपर तो सफ़ेदी फिरी हुई है, मगर अन्दर गली-सड़ी हड्डियों के सिवा कुछ भी नहीं है। तुमने अपने ऊपर सिर्फ़ मज़हबी लिबादे ओढ़े हुए हैं, लेकिन तुम्हारे अन्दर ख्यानत भरी हुई है। तुम मच्छर छानते हो और समूचे ऊँट निगल जाते हो, यानि छोटी-छोटी चीज़ों पर तो ज़ोरदार बहसें होती हैं जबकि बड़े-बड़े गुनाह खुले बन्दों करते हो। यह तो यहूदी क़ौम और उनके उलमा के किरदार की झलक है उनके अपने नबी की ज़बान से, मगर दूसरी तरफ़ यही नक़्शा बैन ही आज हमें अपने उलमा-ए-सू में भी नज़र आता है।
“यह इसलिये हुआ कि उन्होंने नाफ़रमानी की, और वह हुदूद से तजावुज़ कर जाते थे।” | ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ 78 |
आयत 79
“यह लोग एक-दूसरे को नहीं रोकते थे उन मुन्किरात से जो वह करते थे।” | كَانُوْا لَا يَتَنَاهَوْنَ عَنْ مُّنْكَرٍ فَعَلُوْهُ ۭ |
जिस मआशरे से नही अनिल मुन्कर (बुराई से रोकना) ख़त्म हो जायेगा, वह पूरा मआशरा संडास बन जायेगा। यह तो गोया इंतेज़ामे सफ़ाई है। हर शख्स का फ़र्ज़ है कि वह अपने इर्द-गिर्द निगाह रखे, एक-दूसरे को रोकता रहे कि यह काम ग़लत है, यह मत करो! जिस मआशरे से यह तनक़ीद और अहतसाब ख़त्म हो जायेगा, उसके अन्दर लाज़िमन ख़राबी पैदा हो जायेगी।
“बहुत ही बुरा तर्ज़े अमल था जो उन्होंने इख़्तियार किया।” | لَبِئْسَ مَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ 79 |
आयत 80
“तुम उनमें से अक्सर को देखोगे कि वह काफ़िरों से दोस्ती रखते हैं।” | تَرٰى كَثِيْرًا مِّنْهُمْ يَتَوَلَّوْنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۭ |
ख़ुद काफ़िरों के हिमायती बनते हैं और अपने लिये उनकी हिमायत तलाश करते हैं।
“बहुत ही बुरी कमाई है जो उन्होंने अपने लिये आगे भेजी है” | لَبِئْسَ مَا قَدَّمَتْ لَهُمْ اَنْفُسُهُمْ |
यह उनके जो करतूत हैं वह सब आगे अल्लाह के यहाँ जमा हो रहे हैं और उनका वबाल उन पर आयेगा।
“यह कि अल्लाह तआला का ग़ज़ब होगा उन पर” | اَنْ سَخِـــطَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ |
“और वह अज़ाब में हमेशा-हमेश रहेंगे।” | وَفِي الْعَذَابِ هُمْ خٰلِدُوْنَ 80 |
आयत 81
“और अगर यह ईमान लाते अल्लाह पर और नबी ﷺ पर और उस पर जो नबी ﷺ पर नाज़िल किया गया (यानि क़ुरान हकीम)” | وَلَوْ كَانُوْا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالنَّبِيِّ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ |
“तो फिर इन्होंने इन (काफ़िरों) को अपना वली ना बनाया होता” | مَا اتَّخَذُوْهُمْ اَوْلِيَاۗءَ |
“लेकिन इनकी अक्सरियत नाफ़रमानों पर मुश्तमिल है। | وَلٰكِنَّ كَثِيْرًا مِّنْهُمْ فٰسِقُوْنَ 81 |
आयत 82
“तुम लाज़िमन पाओगे अहले ईमान के हक़ में शदीद-तरीन दुश्मन यहूद को और उनको जो मुशरिक हैं।” | لَتَجِدَنَّ اَشَدَّ النَّاسِ عَدَاوَةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الْيَھُوْدَ وَالَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا ۚ |
यह बहुत अहम बात है। मक्का के मुशरिकीन भी मुसलमानों के दुश्मन थे, लेकिन उनकी दुश्मनी कमसे कम खुली दुश्मनी थी, उनका दुश्मन होना बिल्कुल ज़ाहिर व बाहर था, वह सामने से हमला करते थे। लेकिन मुसलमानों से बदतरीन दुश्मनी यहूद की थी, वह आस्तीन के साँप थे और साज़िशी अंदाज़ में मुसलमानों को नुक़सान पहुँचाने में मुशरिकीने मक्का से कहीं आगे थे। आज भी यहूद और हिन्दू मुसलमानों की दुश्मनी में सबसे आगे हैं, क्योंकि इस क़िस्म (बुत परस्ती) का शिर्क तो अब सिर्फ़ हिन्दुस्तान में रह गया है, और कहीं नहीं रहा। हिन्दुस्तान के भी अब यह सिर्फ़ निचले तबक़े में है जबकि आम तौर पर ऊपर के तबक़े में नहीं है। लेकिन बहरहाल अब भी मुसलमानों के ख़िलाफ़ यहूद और हिन्दू का गठजोड़ है।
“और तुम लाज़िमन पाओगे मवद्दत (दोस्ती) के ऐतबार से क़रीब-तरीन अहले ईमान के हक़ में उन लोगों को जिन्होंने कहा कि हम नसारा हैं।” | وَلَتَجِدَنَّ اَقْرَبَهُمْ مَّوَدَّةً لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوا الَّذِيْنَ قَالُوْٓا اِنَّا نَصٰرٰى ۭ |
यह तारीखी हक़ीक़त है और सीरते मुहम्मद ﷺ से साबित है कि जिस तरह की शदीद दुश्मनी उस वक़्त यहूद ने आप ﷺ से की वैसी नसारा ने नहीं की। हज़रत नजाशी रहि० (शाहे हबशा) ने उस वक़्त के मुस्लमान मुहाजिरों को पनाह दी, मक़ोक़स (शाहे मिस्र) ने भी हुज़ूर ﷺ की ख़िदमत में हदिये भेजे। हरक़ुल ने भी हुज़ूर ﷺ के नामाये मुबारक का अहतराम किया। वह चाहता भी था कि अगर मेरी पूरी क़ौम मान ले तो हम इस्लाम क़ुबूल कर लें। नजरान के ईसाईयों का एक वफ़द आप ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुआ, जिसका ज़िक्र सूरह आले इमरान (आयत 61) में हम पढ़ चुके हैं। वह लोग अगरचे मुस्लमान तो नहीं हुए मगर उनका रवैय्या इन्तहाई मोहतात रहा। बहरहाल यह हक़ीक़त है कि हुज़ूर ﷺ के ज़माने में मुसलमानों के ख़िलाफ़ ईसाईयों की मुखालफ़त में वह शिद्दत ना थी जो यहूदियों की मुखालफ़त में थी।
“यह इसलिये कि उन (ईसाईयों) में आलिम भी मौजूद हैं और दरवेश भी और (इसलिये भी कि) वह तकब्बुर नहीं करते।” | ذٰلِكَ بِاَنَّ مِنْهُمْ قِسِّيْسِيْنَ وَرُهْبَانًا وَّاَنَّهُمْ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ 82 |
यानि ईसाईयों में उस वक़्त तक उलमाये हक़ भी मौजूद थे और दरवेश राहिब भी जो वाक़ई अल्लाह वाले थे। बहीरा राहिब ईसाई था जिसने हुज़ूर ﷺ को बचपन में पहचाना था। इसी तरह वरक़ा बिन नौफ़ल ने हुज़ूर ﷺ किस सबसे पहले तस्दीक़ की थी और बताया था कि ऐ मुहम्मद (ﷺ) आप पर वही नामूस नाज़िल हुआ है जो इससे पहले हज़रत मूसा और हज़रत ईसा (अलै०) पर नाज़िल हुआ था। वरक़ा बिन नौफ़ल थे तो अरब के रहने वाले, लेकिन वह हक़ की तलाश में शाम गये और ईसाईयत इख़्तियार की। वह इब्रानी ज़बान में तौरात लिखा करते थे। यह उस दौर के चंद ईसाई उलमा और राहिबों की मिसालें हैं। लेकिन वह “قِسِّيْسِين” और “رُهْبَان” अब आपको ईसाईयों में नहीं मिलेंगे, वह दौर ख़त्म हो चुका है। यह उस वक़्त की बात है जब क़ुरान नाज़िल हो रहा था। इसके बाद जो सूरते हाल बदली है और सलेबी जंगों के अन्दर ईसाईयत ने जो वहशत और बरबरियत दिखाई है, और ईसाई उलमा और मज़हबी पेशवाओं ने जिस तरह मुसलमानों के खून से होली खेली है और अपनी क़ौम से इस सिलसिले में जो कारनामे अंजाम दिलवाये हैं वह तारीख के चेहरे पर बहुत ही बदनुमा दाग़ है।
आयत 83
“और जब इन्होंने सुनी वह चीज़ जो कि रसूल (ﷺ) पर नाज़िल की गयी थी” | وَاِذَا سَمِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَى الرَّسُوْلِ |
“तो तुम देखते हो कि हक़ की जो पहचान उन्हें हासिल हुई उसके ज़ेरे असर उनकी आँखों से आँसू रवाँ हो गये।” | تَرٰٓي اَعْيُنَهُمْ تَفِيْضُ مِنَ الدَّمْعِ مِمَّا عَرَفُوْا مِنَ الْحَـقِّ ۚ |
यह एक वाक़िये की तरफ़ इशारा है। मक्की दौर में जब सहाबा रज़ि० हिजरत करके हबशा गये थे तो उनके ज़रिये से वहाँ कुछ लोगों ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया था। फिर जब मदीना मुनव्वरा में इस्लाम का गलबा हो गया और अरब में अमन क़ायम हो गया तो उनका एक वफ़द मदीना आया जो सत्तर (70) अफ़राद पर मुश्तमिल था और उसमें कुछ नव मुस्लिम भी शामिल थे। आयत ज़ेरे नज़र में उस वफ़द के अरकान का ज़िक्र है कि जब उन्होंने क़ुरान सुना तो हक़ को पहचान लेने की वजह से उनकी आँखों से आँसुओं की लड़ियाँ जारी हो गयीं।
“(और) वह कह रहे हैं, ऐ हमारे रब हम ईमान ले आये, पस तू हमें लिख ले गवाही देने वालों में से।” | يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اٰمَنَّا فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰهِدِيْنَ 83 |
आयत 84
“और हमें क्या हुआ है कि हम ईमान ना लायें अल्लाह पर और उस हक़ पर जो हम तक पहुँच गया है” | وَمَا لَنَا لَا نُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَمَا جَاۗءَنَا مِنَ الْحَقِّ ۙ |
“और हमें तो बड़ी ख्वाहिश है कि दाख़िल करे हमें हमारा रब नेकोकार लोगों के साथ।” | وَنَطْمَعُ اَنْ يُّدْخِلَنَا رَبُّنَا مَعَ الْقَوْمِ الصّٰلِحِيْنَ 84 |
आयत 85
“तो अल्लाह ने उनके इस क़ौल के बदले उन्हें वह बाग़ात अता किये जिनके दामन में नदियाँ बहती हैं, जिनमें वह हमेशा रहेंगे।” | فَاَثَابَهُمُ اللّٰهُ بِمَا قَالُوْا جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا ۭ |
“और यही बदला है अहसान की रविश इख़्तियार करने वालों का।” | وَذٰلِكَ جَزَاۗءُ الْمُحْسِنِيْنَ 85 |
जो ख़ुश किस्मत नफ़ूस इस्लाम क़ुबूल करें, और इस्लाम के बाद ईमान और फिर ईमान से आगे बढ़ कर अहसान के दर्जे तक पहुँच जायें उनका बदला यही है।
आयत 86
“रहे वह लोग जिन्होंने इन्कार किया और झुठला दिया हमारी आयात को, तो वही लोग हैं जो जहन्नमी हैं।” | وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَــحِيْمِ 86ۧ |
आयात 87 से 93 तक
يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحَرِّمُوْا طَيِّبٰتِ مَآ اَحَلَّ اللّٰهُ لَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوْا ۭاِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ 87 وَكُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ حَلٰلًا طَيِّبًا ۠وَّاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اَنْتُمْ بِهٖ مُؤْمِنُوْنَ 88 لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللّٰهُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا عَقَّدْتُّمُ الْاَيْمَانَ ۚ فَكَفَّارَتُهٗٓ اِطْعَامُ عَشَرَةِ مَسٰكِيْنَ مِنْ اَوْسَطِ مَا تُطْعِمُوْنَ اَهْلِيْكُمْ اَوْ كِسْوَتُهُمْ اَوْ تَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ ۭ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ ۭذٰلِكَ كَفَّارَةُ اَيْمَانِكُمْ اِذَا حَلَفْتُمْ ۭ وَاحْفَظُوْٓا اَيْمَانَكُمْ ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ 89 يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَيْسِرُ وَالْاَنْصَابُ وَالْاَزْلَامُ رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطٰنِ فَاجْتَنِبُوْهُ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ 90 اِنَّمَا يُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّوْقِعَ بَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ فِي الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ وَيَصُدَّكُمْ عَنْ ذِكْرِ اللّٰهِ وَعَنِ الصَّلٰوةِ ۚ فَهَلْ اَنْتُمْ مُّنْتَهُوْنَ 91 وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاحْذَرُوْا ۚ فَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَا عَلٰي رَسُوْلِنَا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ 92 لَيْسَ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جُنَاحٌ فِيْمَا طَعِمُوْٓا اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاَحْسَنُوْا ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ 93ۧ
खाने-पीने की चीज़ों में हिल्लत व हुरमत और तहलील व तहरीम इल्हामी शरीअतों का एक अहम मौज़ू रहा है। क़ुरान हकीम में भी बार-बार इन मसाइल पर बहस की गयी है और यह मौज़ू सूरतुल बक़रह से मुसलसल चल रहा है। अरबों के यहाँ नस्ल दर नस्ल राइज मुशरिकाना अवाहम की वजह से बहुत सी चीज़ों के बारे में हिल्लत व हुरमत के ग़लत तसव्वुरात ज़हनों में पुख्ता हो चुके थे। इस क़िस्म के ख्यालात ज़हनों, दिलों और मिज़ाजों से निकलने में वक़्त लगता है। इसलिये बार-बार इन मसाइल की तरफ़ तवज्जो दिलाई जा रही है।
आयत 87
“ऐ ईमान वालो, ना हराम ठहरा लो उन चीज़ों को जिनको अल्लाह ने तुम्हारे लिये हलाल किया है” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُحَرِّمُوْا طَيِّبٰتِ مَآ اَحَلَّ اللّٰهُ لَكُمْ |
“और हद से तजावुज़ ना करो।” | وَلَا تَعْتَدُوْا ۭ |
बाज़ अवक़ात ऐसा भी होता है कि कुछ लोग तक़वे के जोश में और बहुत ज़्यादा नेकी कमाने के जज़्बे में भी कईं हलाल चीज़ों को अपने ऊपर हराम कर बैठते हैं, इसलिये फ़रमाया गया कि हद से तजावुज़ ना करो।
“यक़ीनन अल्लाह हद से तजावुज़ करने वालों को पसंद नहीं करता।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ 87 |
आयत 88
“और खाओ उन हलाल और पाकीज़ा चीज़ों में से जो अल्लाह ने तुम्हें दी हैं” | وَكُلُوْا مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ حَلٰلًا طَيِّبًا ۠ |
यानि वह चीज़ें जो क़ानूनी तौर पर हलाल हों और ज़ाहिरी तौर पर भी साफ़-सुथरी हों।
“और उस अल्लाह का तक़वा इख़्तियार किये रखो जिस पर तुम्हारा ईमान है।” | وَّاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اَنْتُمْ بِهٖ مُؤْمِنُوْنَ 88 |
आयत 89
“अल्लाह तआला मुआख़ज़ा नहीं करेगा तुमसे तुम्हारी उन क़समों में जो लग्व होती हैं” | لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللّٰهُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ |
क़समों के सिलसिले में सूरतुल बक़रह (आयत 225) में हिदायात गुज़र चुकी हैं, अब यहाँ इस ज़िमन में आखरी हुक्म आ रहा है। यानि ऐसी क़समें जो बगैर किसी इरादे के खाई जाती हैं, उन पर कोई गिरफ़्त नहीं है। जैसे वल्लाह, बिल्लाह वगैरह का तकिया कलाम के तौर पर इस्तेमाल अरबों की ख़ास आदत थी और आज भी है। ज़ाहिर है इसको सुन कर कोई भी यह नहीं समझता कि यह शख्स बाक़ायदा क़सम खा रहा है। तो ऐसी सूरत में कोई मुआख़ज़ा नहीं है।
“लेकिन वह (ज़रूर) मुआख़ज़ा करेगा तुमसे उन क़समों पर जिनको तुमने पुख्ता किया है।” | وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا عَقَّدْتُّمُ الْاَيْمَانَ ۚ |
عَقَّدْتُّمُ عقد से बाबे तफ़ईल है। यानि पूरे अहतमाम के साथ एक बात तय की गयी और उस पर किसी ने क़सम खाई। अब अगर ऐसी क़सम टूट जाये या उसको तोड़ना मक़सूद हो तो उसका कफ्फ़ारा अदा करना होगा।
“सो उसका कफ्फ़ारा है खाना खिलाना दस मसाकीन को, औसत दर्जे का खाना जैसा तुम अपने घर वालों को खिलाते हो” | فَكَفَّارَتُهٗٓ اِطْعَامُ عَشَرَةِ مَسٰكِيْنَ مِنْ اَوْسَطِ مَا تُطْعِمُوْنَ اَهْلِيْكُمْ |
“या उनको कपड़े पहनाना” | اَوْ كِسْوَتُهُمْ |
“या किसी गुलाम को आज़ाद करना।” | اَوْ تَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ ۭ |
“फिर जो कोई इसकी इस्तताअत ना रखता हो वह तीन दिन के रोज़े रखे।” | فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ ۭ |
यानि अगर किसी के पास इन तीनों में से कोई सूरत भी मौजूद ना हो, कोई शख्स ख़ुद फ़क़ीर और मुफ़लिस हो, उसके पास कुछ ना हो तो वह तीन दिन के रोज़े रख ले।
“यह कफ्फ़ारा है तुम्हारी क़समों का जब तुम क़सम खा (कर तोड़) बैठो।” | ذٰلِكَ كَفَّارَةُ اَيْمَانِكُمْ اِذَا حَلَفْتُمْ ۭ |
“और अपनी क़समों की हिफ़ाज़त किया करो।” | وَاحْفَظُوْٓا اَيْمَانَكُمْ ۭ |
यानि जब किसी सही मामले में बिल इरादा क़सम खाई जाये तो उसे पूरा किया जाये, और अगर किसी वजह से क़सम तोड़ने की नौबत आ जाये तो उसे तोड़ने का बाक़ायदा कफ्फ़ारा दिया जायेगा।
“इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिये अपनी आयात को वाज़ेह फ़रमा रहा है ताकि तुम शुक्र करो।” | كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهِ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ 89 |
अब शराब और जुए के बारे में भी आखरी हुक्म आ रहा है।
आयत 90
“ऐ अहले ईमान, यक़ीनन शराब और जुआ, बुत और पांसे, यह सब गंदे काम हैं शैतान के अमल में से, तो इनसे बच कर रहो ताकि तुम फ़लाह पाओ।” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّمَا الْخَمْرُ وَالْمَيْسِرُ وَالْاَنْصَابُ وَالْاَزْلَامُ رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطٰنِ فَاجْتَنِبُوْهُ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ 90 |
शराब और जुए के बारे में तो पहले भी हुक्म आ चुका है, लेकिन “اَنْصَاب” और “اَزْلَام” का यहाँ इज़ाफ़ा किया गया है। अन्साब से मुराद बुतों के स्थान हैं और अज़्लाम जुए ही की एक क़िस्म थी जिसमें अहले अरब तीरों के ज़रिये पांसे डालते थे, क़ुर्रा अंदाज़ी करते थे। इन तमाम कामों को “رِجْسٌ مِّنْ عَمَلِ الشَّيْطٰنِ” क़रार दे दिया गया।
आयत 91
“शैतान तो यह चाहता है कि तुम्हारे दरमियान दुश्मनी दुश्मनी और बुग्ज़ पैदा कर दे शराब और जुए के ज़रिये से” | اِنَّمَا يُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّوْقِعَ بَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ فِي الْخَمْرِ وَالْمَيْسِرِ |
यह बहुत अहम बात है, क्योंकि शराब के नशे में इन्सान अपना होश और शऊर खो बैठता है। ऐसी हालत में उसको कुछ ख़बर नहीं रहती कि वह मुँह से क्या बकवास कर रहा है और उसके आज़ा व जवारह (अंगों) से क्या अफ़आल सरज़द हो रहे हैं, लिहाज़ा कुछ नहीं कहा जा सकता कि ऐसी हालत में किसी बात या किसी हरकत से क्या-क्या गुल खिलेंगे, कैसे-कैसे झगड़े और फ़सादात जन्म लेंगे। बाज़ अवक़ात ऐसा भी होता है कि हुकूमती और रियासती सतह के बड़े-बड़े राज़ शराब के नशे में चुरा लिये जाते हैं। तो अल्लाह तआला तुम्हें इन चीज़ों से बचाना चाहता है, जबकि शैतान चाहता है कि तुम्हारे माबैन अदावत और बुग्ज़ पैदा करे। इसी तरह जुए से भी बुग्ज़ व अदावत की कोंपलें फूटती हैं। मसलन एक आदमी जुए में हार जाता है, फिर पे-दर-पे हारता चला जाता है। एक वक़्त आता है कि वह फट पड़ता है और गुस्से में आग बबूला होकर आपे से बहार हो जाता है। इसलिये कि उसे नज़र आ रहा है कि मेरा जो हरीफ़ मुझसे जीत रहा है वह किसी मेहनत की वजह से नहीं जीत रहा। किसी ने मेहनत और कोशिश से कुछ कमाया हो तो उससे दूसरे को जलन महसूस नहीं होती, लेकिन जुए में बेमेहनत की कमाई होती है जिसे मुखालिफ़ फ़रीक़ बर्दाश्त नहीं कर सकता, और इस तरह इंसानी ताल्लुक़ात में कई मनफ़ी पेचीदगियाँ जन्म लेती हैं।
“और (शैतान यह भी चाहता है कि) तुम्हें रोके अल्लाह की याद से और नमाज़ से।” | وَيَصُدَّكُمْ عَنْ ذِكْرِ اللّٰهِ وَعَنِ الصَّلٰوةِ ۚ |
अल्लाह के ज़िक्र और नमाज़ से रोकने वाला मामला भी शराब का तो बिल्कुल वाज़ेह है, लेकिन जुए में भी यूँ ही होता है कि आदमी एक बार इसमें लग जाये तो फिर वहाँ से निकलना मुश्किल हो जाता है। जैसा कि ताश और शतरंज वगैरह भी ऐसे खेल हैं कि इनमें मशगूल होकर इन्सान ज़िक्र और नमाज़ जैसी चीज़ों से बिल्कुल ग़ाफ़िल हो जाता है।
“तो अब बाज़ आते हो या नहीं?” | فَهَلْ اَنْتُمْ مُّنْتَهُوْنَ 91 |
यह अंदाज़ बड़ा सख्त है और इसका एक ख़ास पसमंज़र है। शराब और जुए के बारे में एक वाज़ेह हिदायत क़ब्ल अज़ (सूरतुल बक़रह, आयत:219 में) आ चुकी थी: {فِيْهِمَآ اِثْمٌ كَبِيْرٌ وَّمَنَافِعُ لِلنَّاسِ ۡ وَاِثْـمُهُمَآ اَكْبَرُ مِنْ نَّفْعِهِمَا } “इन दोनों के अन्दर बहुत बड़े गुनाह के पहलु हैं, और लोगों के लिये कुछ फ़ायदे भी हैं, अलबत्ता इनका गुनाह का पहलु नफ़े के पहलु से बड़ा है।” तो उसी वक़्त तुम्हें समझ लेना चाहिये था और बाज़ आ जना चाहिये था। उस पहले हुक्म में अल्लाह तआला की मसलहत, मशीयत और शरीअत का रुख तो वाज़ेह हो गया था। फिर अगला क़दम उठाया गया और हुक्म दिया गया: “जब तुम लोग शराब के नशे में हो तो नमाज़ के क़रीब मत जाओ….” (अन्निसा:43)। इससे तो पूरे तौर से वाज़ेह हो जना चाहिये था कि दीन का अहमतरीन सुतून नमाज़ है: ((اَلصَّلٰوۃُ عِمَادُ الدِّیْنِ)) और यह शराब नमाज़ से रोक रही है, तो तुम्हें यह छोड़ देनी चाहिये थी। बहरहाल अब आखरी बात अल्लाह तआला की तरफ़ से आ गयी है, तो इसे सुन कर क्या अब भी बाज़ नहीं आओगे?
आयत 92
“और इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल (ﷺ) की और (उनकी नाफ़रमानी से) बचते रहो।” | وَاَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاحْذَرُوْا ۚ |
“फिर अगर तुम पीठ मोड़ लोगे तो जान लो कि हमारे रसूल (ﷺ) पर तो ज़िम्मेदारी है बस साफ़-साफ़ पहुँचा देने की।” | فَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَا عَلٰي رَسُوْلِنَا الْبَلٰغُ الْمُبِيْنُ 92 |
यह अल्लाह का हुक्म है। अल्लाह का हुक्म पहुँचाना रसूल ﷺ के ज़िम्मे था, तो रसूल ﷺ ने पहुँचा कर अपनी ज़िम्मेदारी अदा कर दी, अब मामला अल्लाह का और तुम्हारा होगा। अल्लाह तुमसे निमट लेगा, तुमसे हिसाब ले लेगा।
अब जो अगली आयत आ रही है यह भी क़ुरान मजीद के फ़लसफ़े और हिकमत के ज़िमन में बहुत बुनियादी आयत है। इसका पसमंज़र यह है कि जब शराब के बारे में इतना सख्त अंदाज़ आया कि शराब और जुआ गंदे शैतानी काम हैं, इनसे बाज़ आते हो या नहीं? तो बहुत से मुसलमानों को तशवीश (चिंता) लाहक़ हो गई कि हम जो इतने अरसे तक शराब पीते रहे तो यह गन्दगी तो हमारी हड्डियों में बैठ गयी होगी। आज साइंस की ज़बान में जैसे कोई शख्स कहे कि मेरे जिस्म का तो कोई एक खला (cell) भी ऐसा नहीं होगा जिसमें शराब के असरात ना पहुँचे हों। तो अब हम कैसे पाक होंगे? अब किस तरीक़े से यह गन्दगी हमारे जिस्मों से धुलेगी? उनकी यह तशवीश (चिंता) बजा (ठीक) थी। जैसे तहवीले क़िब्ला के वक़्त तशवीश पैदा हो गई थी कि अगर असल क़िब्ला बैतुल्लाह था और हम बैतुल मक़दस की तरफ़ रुख करके नमाज़ें पढ़ते रहे तो वह नमाज़ें तो ज़ाया हो गईं, और नमाज़ ही तो ईमान है। तो इस पर मोमिनीन की तसल्ली के लिये (सूरतुल बक़रह:143 में) फ़रमाया गया था: {وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِـيُضِيْعَ اِيْمَانَكُمْ ۭ } “अल्लाह तुम्हारे ईमान को ज़ाया करने वाला नहीं है।” ऐसे ही यहाँ उनकी दिलजोई के लिये फ़रमाया:
आयत 93
“उन लोगों पर जो ईमान लाये और नेक अमल किये कोई गुनाह नहीं है उसमें जो वह (पहले) खा-पी चुके” | لَيْسَ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جُنَاحٌ فِيْمَا طَعِمُوْٓا |
किसी शय की हुरमत के क़तई हुक्म आने से पहले जो कुछ खाया-पिया गया, उसका कोई गुनाह उन पर नहीं रहेगा। यह कोई हड्डियों में बैठ जाने वाली शय नहीं है, यह तो शरई और अख्लाक़ी क़ानून (Moral Law) का मामला है, तबई क़ानून (Physical Law) का नहीं है। तबई (Physical) तौर पर तो कुछ चीज़ों के असरात वाक़ई दाइमी हो जाते हैं, लेकिन Moral Law का मामला यक्सर मुख्तलिफ़ है। गुनाह तो ओहद पहाड़ के बराबर भी हो तो सच्ची तौबा से बिल्कुल साफ़ हो जाते हैं। अज़रुए हदीस नबवी ﷺ: ((اَلتَّائِبُ مِنَ الذَّنْبِ کَمَنْ لَا ذَنْبَ لَہٗ)) “गुनाह से हक़ीक़ी तौबा करने वाला बिल्कुल ऐसे है जैसे उसने कभी वह गुनाह किया ही नहीं था।” सिदक़े दिल से तौबा की जाये तो नामाये आमाल बिल्कुल धुल जाता है। लिहाज़ा ऐसी किसी तशवीश को बिल्कुल अपने क़रीब मत आने दो।
“जब तक वह तक़वा की रविश इख़्तियार किये रखें और ईमान लायें और नेक अमल करें, फिर मज़ीद तक़वा इख़्तियार करें और ईमान लायें, फिर और तक़वा में बढ़ें और दर्जा-ए-अहसान पर फ़ाइज़ हो जायें। और अल्लाह तआला मोहसिनों से मोहब्बत करता है।” | اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاَحْسَنُوْا ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ 93ۧ |
यह दरअसल तीन दर्जे हैं। पहला दर्जा ‘इस्लाम’ है। यानि अल्लाह को मान लिया, रसूल ﷺ को मान लिया और उसके अहकाम पर चल पड़े। इससे ऊपर का दर्जा ‘ईमान’ है, यानि दिल का कामिल यक़ीन, जो ईमान के दिल में उतर जाने से हासिल होता है। {وَلٰكِنَّ اللّٰهَ حَبَّبَ اِلَيْكُمُ الْاِيْمَانَ وَزَيَّنَهٗ فِيْ قُلُوْبِكُمْ } (अल् हुजरात:7) के मिस्दाक़ ईमान क़ल्ब में उतर जायेगा तो आमाल की कैफ़ियत बदल जायेगी, आमाल में एक नयी शान पैदा हो जायेगी, ज़िन्दगी के अन्दर एक नया रंग आ जायेगा जोकि ख़ालिस अल्लाह का रंग होगा। अज़रुए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: {صِبْغَةَ اللّٰهِ ۚ وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ صِبْغَةً ۡ} (सूरह बक़रह:138)। और इससे भी आगे जब ईमान “अय्नुल यक़ीन” का दर्जा हासिल कर ले तो यही दर्जा अहसान है। हदीसे नबवी ﷺ में इसकी कैफ़ियत यह बयान हुई है: ((اَنْ تَعْبُدَ اللہَ کَاَنَّکَ تَرَاہُ، فَاِنْ لَمْ تَکُنْ تَرَاہُ فَاِنَّہٗ یَرَاکَ)) “यह कि तू अल्लाह की इबादत इस तरह करे गोया कि तू उसे देख रहा है, और अगर तू उसे नहीं देख रहा (यह कैफ़ियत पैदा नहीं हो रही) तो फिर (यह कैफ़ियत तो पैदा होनी चाहिये कि) वह तुझे देखता है।” यानि तुम अल्लाह की बन्दगी करो, अल्लाह के लिये जिहाद करो, उसकी राह में भाग-दौड़ करो, और इसमें तक़वा की कैफ़ियत ऐसी हो जाये कि जैसे तुम अल्लाह को अपनी आँखों से देख रहे हो।
अहसान की यह तारीफ़ “हदीसे जिब्राइल” में मौजूद है। इस हदीस को उम्मुस सुन्नत कहा गया है, जैसे सूरतुल फ़ातिहा को उम्मुल क़ुरान का नाम दिया गया है। जिस तरह सूरतुल फ़ातिहा असासुल क़ुरान है, इसी तरह हदीसे जिब्राइल (अलै०) सुन्नत की असास है। इस हदीस में हमें यह तफ़सील मिलती है कि हज़रत जिब्राइल अलै० इंसानी शक्ल में हुज़ूर ﷺ के पास आये। सहाबा रज़ि० का मजमा था, वहाँ उन्होंने कुछ सवालात किये। हज़रत जिब्राइल अ० ने पहला सवाल इस्लाम के बारे में किया: یَا مُحَمَّدُ اَخْبِرْنِیْ عَنِ الْاِسْلَامِ! इसके जवाब में आप ﷺ ने फ़रमाया: “इस्लाम यह है कि तुम इस बात की गवाही दो कि अल्लाह के सिवा कोई मअबूद नहीं और मुहम्मद (ﷺ) अल्लाह के रसूल हैं, नमाज़ क़ायम करो, ज़कात अदा करो, रमज़ान के रोज़े रखो और बैतुल्लाह का हज करो अगर तुम्हें इसके लिये सफ़र की इस्तताअत हो।” यानि इस्लाम के ज़िमन में आमाल का ज़िक्र आ गया। फिर जिब्राइल अलै० ने कहा कि मुझे ईमान के बारे में बतलाइये! इस पर आप ﷺ ने फ़रमाया: “यह कि तुम ईमान लाओ अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर, उसके रसूलों पर, यौमे आख़िरत पर और तक़दीर की अच्छाई और बुराई पर।” अब यहाँ यह नुक्ता गौरतलब है कि ईमान तो इस्लाम में भी मौजूद है, यानि ज़बानी और क़ानूनी ईमान, लेकिन दूसरे दर्जे में ईमान को इस्लाम से अलैहदा किया गया है और आमाले सालेहा का ताल्लुक़ ईमान के बजाये इस्लाम से बताया गया है। इसलिये कि जब ईमान दिल में उतर कर यक़ीन की सूरत इख़्तियार कर जाये तो फिर आमाल का ज़िक्र अलग से करने की ज़रूरत नहीं रहती। ईमान के इस मरहले पर आमाल लाज़िमन दुरुस्त हो जायेंगे। फिर ईमान जब दिल में मज़ीद गहरा और पुख्ता होता है तो आमाल भी मज़ीद दुरुस्त होंगे। यूँ समझिये कि जितना-जितना दरख़्त ऊपर जा रहा है उसी निस्बत से जड़ नीचे गहराई में उतर रही है। ईमान की जड़ ने दिल की ज़मीन में क़रार पकड़ा तो इस्लाम से ईमान बन गया। जब यह जड़ मज़ीद गहरी हुई तो तीसरी मंज़िल यानि अहसान तक रसाई हो गयी और यहाँ आमाल में मज़ीद निखार पैदा हुआ। चुनाँचे जब हज़रत जिब्राइल अलै० ने अहसान के बारे में पूछा तो आप ﷺ ने फ़रमाया: “अहसान यह है कि तुम अल्लाह की इबादत इस तरह करो गोया कि तुम उसे देख रहे हो….” आप ﷺ का जवाब तीन रिवायतों में तीन मुख्तलिफ़ अल्फ़ाज़ में नक़ल हुआ है: (1)… اَنْ تَعْبُدَ اللہَ کَاَنَّکَ تَرَاہُ (2)… اَنْ تَخْشَی اللہَ تَعَالٰی کَاَنَّکَ تَرَاہُ (3)… اَنْ تَعْمَلَ لِلہِ کَاَنَّکَ تَرَاہُ अगले अल्फ़ाज़ ((فَاِنْ لَمْ تَکُنْ تَرَاہُ فَاِنَّہٗ یَرَاکَ)) तीनों रिवायतों में यक्सां हैं। यानि एक बंदा-ए-मोमिन अल्लाह की बन्दगी, अल्लाह की परस्तिश, अल्लाह के लिये भाग-दौड़, अल्लाह के लिये अमल, अल्लाह के लिये जिहाद ऐसी कैफ़ियत से सरशार (समर्पित) होकर कर रहा हो गोया वह अपनी आँखों से अल्लाह को देख रहा है। तो जब अल्लाह सामने होगा, तो फिर कैसे कुछ हमारे जज़्बाते अबदियत होंगे, कैसी-कैसी हमारी क़ल्बी कैफ़ियात होंगी। इस दुनिया में भी यह कैफ़ियत हासिल हो सकती है, लेकिन यह कैफ़ियत बहुत कम लोगों को हासिल होती है। चुनाँचे अगर यह कैफ़ियत हासिल ना हो सके तो अहसान का एक इससे निचला दर्जा भी है। यानि कम से कम यह बात हर वक़्त मुस्तहज़र रहे कि अल्लाह मुझे देख रहा है। तो यह हैं वह तीन दर्जे जिनका ज़िक्र इस आयत में है।
“तहरीके इस्लामी की अख्लाक़ी बुनियादें” मौलाना मौदूदी मरहूम की एक क़ाबिले क़द्र किताब है। इसमें मौलाना ने इस्लाम, ईमान, अहसान और तक़वा चार मरातिब बयान किये हैं। लेकिन मेरे नज़दीक तक़वा अलैहदा से कोई मरतबा व मक़ाम नहीं है। तक़वा वह रूह (Spirit) और वह क़ुव्वते मोहरका (driving force) है जो इन्सान को नेकी की तरफ़ धकेलती और उभारती है। चुनाँचे आयत ज़ेरे नज़र में तक़वा की तकरार का मफ़हूम यूँ है कि तक़वा ने आपको baseline से ऊपर उठाया और अब आपके ईमान और अमले सालेह में और रंग पैदा हो गया {اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ}। फिर तक़वा में मजीद इज़ाफ़ा हुआ और तक़वा ने आपको मज़ीद ऊपर उठाया तो अब वह यक़ीन वाला ईमान पैदा हो गया { ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا }। अब यहाँ अमले सालेह के अलैहदा ज़िक्र की ज़रूरत ही नहीं। जब दिल में ईमान उतर गया तो आमाल ख़ुद-ब-ख़ुद दुरुस्त हो गये। फिर तक़वा अगर मज़ीद रूबा तरक्क़ी है {ثُمَّ اتَّقَوْا} तो उसके नतीजे में { وَّاَحْسَنُوْا ۭ } का दर्जा आ जायेगा, यानि इन्सान दर्जा-ए-अहसान पर फ़ाइज़ हो जायेगा। (اللھم ربنا اجعلنا منھم۔ आमीन!)
ईमान और तक़वा से आमाल की दुरुस्ती के ज़िमन में नबी अकरम ﷺ का यह फ़रमान पेशे नज़र रहना चाहिये:
اَلَا وَاِنَّ فِی الْجَسَدِ مُضْغَۃً، اِذَا صَلَحَتْ صَلَحَ الْجَسَدُ کُلُّہٗ، وَاِذَا فَسَدَتْ فَسَدَ الْجَسَدُ کُلُّہٗ، اَلَا وَھِیَ الْقَلْبُ
“आगाह रहो, यक़ीनन जिस्म के अन्दर एक गोश्त का लोथड़ा है, जब वह दुरुस्त हो तो सारा जिस्म दुरुस्त होता है और जब वह बिगड़ जाये तो सारा जिस्म बिगड़ जाता है। आगाह रहो कि वह दिल है।”
“और अल्लाह ऐसे मोहसिन बन्दों को महबूब रखता है।” | وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ 93ۧ |
अल्लाह के जो बन्दे दर्जा-ए-अहसान तक पहुँच जाते हैं वह उसके महबूब बन जाते हैं।
इस सूरह मुबारका (आयत 71) में पहले एक ग़लत रास्ते की निशानदेही की गयी थी: {….ثُمَّ عَمُوْا وَصَمُّوْا ….فَعَمُوْا وَصَمُّوْا } यह गुमराही व ज़लालत के मुख्तलिफ़ मराहिल का ज़िक्र है कि वह अंधे और बहरे हो गये, अल्लाह ने फिर ढील दी तो उस पर वह और भी अंधे और बहरे हो गये, अल्लाह ने मज़ीद ढील दी तो वह और ज़्यादा अंधे और बहरे हो गये। उस रास्ते पर इन्सान क़दम-ब-क़दम गुमराही की दलदल में धँसता चला जाता है। मगर एक रास्ता यह है, हिदायत का रास्ता, इस्लाम, ईमान, अहसान और तक़वा का रास्ता। यहाँ इन्सान को दर्जा-ब-दर्जा तरक्क़ी मिलती चली जाती है।
आयात 94 से 100 तक
يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَيَبْلُوَنَّكُمُ اللّٰهُ بِشَيْءٍ مِّنَ الصَّيْدِ تَـنَالُهٗٓ اَيْدِيْكُمْ وَرِمَاحُكُمْ لِيَعْلَمَ اللّٰهُ مَنْ يَّخَافُهٗ بِالْغَيْبِ ۚ فَمَنِ اعْتَدٰي بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَهٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 94 يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْتُلُوا الصَّيْدَ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ ۭ وَمَنْ قَتَلَهٗ مِنْكُمْ مُّتَعَمِّدًا فَجَــزَاۗءٌ مِّثْلُ مَا قَتَلَ مِنَ النَّعَمِ يَحْكُمُ بِهٖ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ هَدْيًۢا بٰلِــغَ الْكَعْبَةِ اَوْ كَفَّارَةٌ طَعَامُ مَسٰكِيْنَ اَوْ عَدْلُ ذٰلِكَ صِيَامًا لِّيَذُوْقَ وَبَالَ اَمْرِهٖ ۭعَفَا اللّٰهُ عَمَّا سَلَفَ ۭ وَمَنْ عَادَ فَيَنْتَقِمُ اللّٰهُ مِنْهُ ۭ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ 95 اُحِلَّ لَكُمْ صَيْدُ الْبَحْرِ وَطَعَامُهٗ مَتَاعًا لَّكُمْ وَلِلسَّيَّارَةِ ۚ وَحُرِّمَ عَلَيْكُمْ صَيْدُ الْبَرِّ مَا دُمْتُمْ حُرُمًا ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ 96 جَعَلَ اللّٰهُ الْكَعْبَةَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ قِــيٰمًا لِّلنَّاسِ وَالشَّهْرَ الْحَرَامَ وَالْهَدْيَ وَالْقَلَاۗىِٕدَ ۭذٰلِكَ لِتَعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ وَاَنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ 97 اِعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ وَاَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 98ۭ مَا عَلَي الرَّسُوْلِ اِلَّا الْبَلٰغُ ۭوَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا تَكْتُمُوْنَ 99 قُلْ لَّا يَسْتَوِي الْخَبِيْثُ وَالطَّيِّبُ وَلَوْ اَعْجَبَكَ كَثْرَةُ الْخَبِيْثِ ۚ فَاتَّقُوا اللّٰهَ يٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ ١٠٠ۧ
इस सूरह मुबारका के शुरू में हालते अहराम में शिकार करने की मुमानियत (prohibition) आ चुकी है। अब अल्लाह की उस सुन्नत का ज़िक्र है कि अल्लाह अपने मानने वालों को आज़माता है, सख्त तरीन इम्तिहान लेता है। फ़र्ज़ कीजिये कि हाजियों का एक क़ाफ़िला जा रहा है, सबने अहराम बाँधा हुआ है, इत्तेफ़ाक़ से उनके पास खाने को कुछ भी नहीं। अब एक हिरन अठखेलियाँ करते हुए क़रीब आ रहा है, भूख भी सता रही है, ज़रूरत भी है, चाहे तो ज़रा सा नेज़ा मारें और शिकार कर लें या वैसे ही भाग कर पकड़ लें, लेकिन पकड़ नहीं सकते, शिकार नहीं कर सकते, क्योंकि अहराम में हैं और इस हालत में इजाज़त नहीं है। तो अल्लाह तआला अपने बन्दों को इस तरह आज़माता है।
आयत 94
“ऐ अहले ईमान! अल्लाह तुम्हें लाज़िमन आज़माएगा किसी ऐसे शिकार के ज़रिये” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَيَبْلُوَنَّكُمُ اللّٰهُ بِشَيْءٍ مِّنَ الصَّيْدِ |
“जिसको पहुँचते होंगे (आसानी से) तुम्हारे हाथ और नेज़े” | تَـنَالُهٗٓ اَيْدِيْكُمْ وَرِمَاحُكُمْ |
“ताकि अल्लाह देख ले उन लोगों को जो गैब में होते हुए भी उससे डरते रहते हैं।” | لِيَعْلَمَ اللّٰهُ مَنْ يَّخَافُهٗ بِالْغَيْبِ ۚ |
शिकार पहुँच में भी है, उनके हाथों और नेज़ों की ज़द में है, ज़रूरत भी है, चाहे तो शिकार कर लें, लेकिन मजबूर हैं, क्योंकि अहराम बाँधा हुआ है। तो जिसके दिल में ईमान होगा तो वह अपनी भूख को बर्दाश्त करेगा, अल्लाह के हुक्म को नहीं तोड़ेगा।
“अब इसके बाद जिसने ज़्यादती की तो उसके लिये दर्दनाक अज़ाब है।” | فَمَنِ اعْتَدٰي بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَهٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 94 |
आयत 95
“ऐ ईमान वालो! जब तुम अहराम की हालत में हो तो किसी शिकार को क़त्ल मत करो।” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْتُلُوا الصَّيْدَ وَاَنْتُمْ حُرُمٌ ۭ |
“तो जो कोई तुम में से उसे क़त्ल (शिकार) कर बैठे जान-बूझ कर, तो फिर उसका कफ्फ़ारा होगा उसी तरह का एक चौपाया जैसा कि उसने क़त्ल किया” | وَمَنْ قَتَلَهٗ مِنْكُمْ مُّتَعَمِّدًا فَجَــزَاۗءٌ مِّثْلُ مَا قَتَلَ مِنَ النَّعَمِ |
कफ्फ़ारे के तौर पर अल्लाह की राह में वैसा ही एक चौपाया सदक़ा किया जायेगा। यानि अगर आपने हिरन मारा तो बकरी या भेड़ दी जायेगी और अगर नील गाय मार दी तो फिर गाय बतौर कफ्फ़ारा देना होगी। इस तरह जिस क़िस्म और जिस जसामत का हैवान शिकार किया गया है, उसके बराबर का चौपाया सदक़ा करना होगा।
“जिसका फ़ैसला तुम में से दो आदिल आदमी करेंगे” | يَحْكُمُ بِهٖ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ |
यानि दो मुत्तक़ी और मोअतबर अश्खास इसकी गवाही देंगे कि यह जानवर उस शिकार किये जाने वाले जानवर के बराबर है।
“यह नज़र की हैसियत से खाना काबा तक पहुँचाया जाये” | هَدْيًۢا بٰلِــغَ الْكَعْبَةِ |
यह जानवर हदी के तौर पर खाना काबा की नज़र किया जायेगा।
“या फिर उसका कफ्फ़ारा है कुछ मसाकीन को खाना खिलाना” | اَوْ كَفَّارَةٌ طَعَامُ مَسٰكِيْنَ |
इसमें फ़ुक़हा ने लिखा है कि अगर अनाज या रक़म देना हो तो वह सदक़ाये फ़ितर के हिसाब से होगी।
“या उतने ही रोज़े रखना” | اَوْ عَدْلُ ذٰلِكَ صِيَامًا |
यह देखना होगा कि जो जानवर शिकार हुआ है उसे कितने आदमी खा सकते थे। उतने आदमियों को खाना खिलाया जाये या उतने दिन के रोज़े रखे जायें।
“ताकि वह अपने किये की सज़ा चखे।” | لِّيَذُوْقَ وَبَالَ اَمْرِهٖ ۭ |
“अल्लाह माफ़ कर चुका है जो पहले हो चुका है।” | عَفَا اللّٰهُ عَمَّا سَلَفَ ۭ |
“लेकिन जो कोई फिर ऐसा करेगा तो अल्लाह उससे इन्तेक़ाम लेगा, और यक़ीनन अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, इन्तेक़ाम लेने वाला।” | وَمَنْ عَادَ فَيَنْتَقِمُ اللّٰهُ مِنْهُ ۭ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ 95 |
आयत 96
“(अलबत्ता) तुम्हारे लिये हलाल कर दिया गया है समुन्दर का शिकार और उसका खाना” | اُحِلَّ لَكُمْ صَيْدُ الْبَحْرِ وَطَعَامُهٗ |
समुन्दर और दरिया का शिकार हालते अहराम में भी हलाल है। हाजी लोग अगर कश्तियों और बहरी जहाज़ों के ज़रिये से सफ़र कर रहे हों तो वह अहराम की हालत में भी मछली वगैरह का शिकार कर सकते हैं।
“तुम्हारे लिये और मुसाफ़िरों के लिये ज़ादे राह के तौर पर।” | مَتَاعًا لَّكُمْ وَلِلسَّيَّارَةِ ۚ |
समुन्दर की ख़ुराक (sea food) तो यूँ समझ लीजिये कि पूरी दुनिया के इंसानों के लिये गिज़ा का एक नया ख़ज़ाना है जो सामने आया है। यह बहुत सी खराबियों और बीमारियों से बचाने वाली भी है। यही वजह है कि दुनिया में यह आज-कल बहुत मक़बूल हो रही है।
“लेकिन खुश्की पर शिकार करना तुम्हारे लिये हराम कर दिया गया है जब तक कि तुम अहराम में हो।” | وَحُرِّمَ عَلَيْكُمْ صَيْدُ الْبَرِّ مَا دُمْتُمْ حُرُمًا ۭ |
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार किये रखो जिसकी तरफ़ तुम्हें जमा कर दिया जायेगा।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْٓ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ 96 |
तुम सब उसकी तरफ़ घेराव करके ले जाये जाओगे।
आयत 97
“अल्लाह ने काबे को, जो कि बैतुल हराम है, लोगों के लिये क़ियाम का बाइस बना दिया है” | جَعَلَ اللّٰهُ الْكَعْبَةَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ قِــيٰمًا لِّلنَّاسِ |
“और हुरमत वाला महीना, क़ुर्बानी के जानवर और वह जानवर भी जिनके गलों में पट्टे डाल दिये गये हों” | وَالشَّهْرَ الْحَرَامَ وَالْهَدْيَ وَالْقَلَاۗىِٕدَ ۭ |
यह सब अल्लाह तआला के शआइर (संस्कार) हैं और उसी के मुअय्यन करदा हैं। सूरत के शुरू में भी इनका ज़िक्र आ चुका है। यहाँ दरअसल तौसीक़ (confirmation) हो रही है कि यह सब चीज़ें ज़माना-ए-जाहिलियत की रिवायात नहीं हैं बल्कि खाना काबा की हुरमत और अज़मत की अलामत हैं।
“यह इसलिये कि तुम अच्छी तरह जान लो कि अल्लाह तआला को आसमानों और ज़मीन की हर शय का इल्म है” | ذٰلِكَ لِتَعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ |
“और यह कि अल्लाह हर शय का इल्म रखता है।” | وَاَنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ 97 |
आगे चल कर इन चीज़ों के मुक़ाबले में उन चार चीज़ों का ज़िक्र आयेगा जो अहले अरब के यहाँ बगैर किसी सनद के हराम कर ली गयी थीं।
आयत 98
“जान लो कि अल्लाह सज़ा देने में बहुत सख्त है और यह कि अल्लाह ग़फ़ूर और रहीम भी है।” | اِعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ وَاَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 98ۭ |
यानि उसकी तो दोनों शानें एक साथ जलवागर हैं। अब देखो कि तुम अपने आपको किस शान के साथ मुताल्लिक़ कर रहे हो और ख़ुद को कैसे सुलूक का मुस्तहिक़ बना रहे हो? उसकी अक़ूबत का या उसकी रहमत और मग़फ़िरत का?
आयत 99
“रसूल (ﷺ) पर सिवाय पहुँचा देने के और कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।” | مَا عَلَي الرَّسُوْلِ اِلَّا الْبَلٰغُ ۭ |
“और अल्लाह जानता है जो कुछ तुम ज़ाहिर करते हो और जो कुछ तुम छुपाते हो।” | وَاللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا تَكْتُمُوْنَ 99 |
जब रसूल अल्लाह ﷺ ने पैगाम पहुँचा दिया तो बाक़ी सारी ज़िम्मेदारी तुम्हारी है।
आयत 100
“(ऐ नबी ﷺ) कह दीजिये कि नापाक और पाक बराबर नहीं हो सकते, चाहे नापाक शय की कसरत तुम्हें अच्छी लगे।” | قُلْ لَّا يَسْتَوِي الْخَبِيْثُ وَالطَّيِّبُ وَلَوْ اَعْجَبَكَ كَثْرَةُ الْخَبِيْثِ ۚ |
इन्सान तो चाहता है कि उसके पास हर शय की बहुतात हो, लेकिन नाजायज़ और हराम तरीक़े से कमाया हुआ माल अगरचे कसरत से जमा हो गया हो मगर है तो खबीस और नापाक ही। बेशक उसकी चकाचौंध तुम्हारी आँखों को खीराह (प्रभावित) कर रही हो मगर उसमें तुम्हारे लिये कोई भलाई नहीं है। बक़ौल अल्लामा इक़बाल:
नज़र को खैर करती है चमक तहज़ीबे हाज़िर की
यह सन्नाई मगर झूठे नगों की रेज़ा कारी है!
“तो अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो ऐ होशमंदो, ताकि तुम फ़लाह पाओ।” | فَاتَّقُوا اللّٰهَ يٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ ١٠٠ۧ |
आयात 101 से 108 तक
يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَسْــــَٔـلُوْا عَنْ اَشْيَاۗءَ اِنْ تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ ۚ وَاِنْ تَسْــــَٔـلُوْا عَنْهَا حِيْنَ يُنَزَّلُ الْقُرْاٰنُ تُبْدَ لَكُمْ ۭعَفَا اللّٰهُ عَنْهَا ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ١٠١ قَدْ سَاَلَهَا قَوْمٌ مِّنْ قَبْلِكُمْ ثُمَّ اَصْبَحُوْا بِهَا كٰفِرِيْنَ ١٠٢ مَا جَعَلَ اللّٰهُ مِنْۢ بَحِيْرَةٍ وَّلَا سَاۗىِٕبَةٍ وَّلَا وَصِيْلَةٍ وَّلَا حَامٍ ۙ وَّلٰكِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ ۭ وَاَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ ١٠٣ وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ قَالُوْا حَسْبُنَا مَا وَجَدْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۗءَنَا ۭ اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۗؤُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يَهْتَدُوْنَ ١٠٤ يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا عَلَيْكُمْ اَنْفُسَكُمْ ۚلَا يَضُرُّكُمْ مَّنْ ضَلَّ اِذَا اهْتَدَيْتُمْ ۭ اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ ١٠٥ يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا شَهَادَةُ بَيْنِكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ حِيْنَ الْوَصِيَّةِ اثْنٰنِ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ اَوْ اٰخَرٰنِ مِنْ غَيْرِكُمْ اِنْ اَنْتُمْ ضَرَبْتُمْ فِي الْاَرْضِ فَاَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةُ الْمَوْتِ ۭ تَحْبِسُوْنَهُمَا مِنْۢ بَعْدِ الصَّلٰوةِ فَيُقْسِمٰنِ بِاللّٰهِ اِنِ ارْتَبْتُمْ لَا نَشْتَرِيْ بِهٖ ثَـمَنًا وَّلَوْ كَانَ ذَا قُرْبٰى ۙ وَلَا نَكْتُمُ شَهَادَةَ ۙاللّٰهِ اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الْاٰثِمِيْنَ ١٠٦ فَاِنْ عُثِرَ عَلٰٓي اَنَّهُمَا اسْتَحَقَّآ اِثْمًا فَاٰخَرٰنِ يَقُوْمٰنِ مَقَامَهُمَا مِنَ الَّذِيْنَ اسْتَحَقَّ عَلَيْهِمُ الْاَوْلَيٰنِ فَيُقْسِمٰنِ بِاللّٰهِ لَشَهَادَتُنَآ اَحَقُّ مِنْ شَهَادَتِهِمَا وَمَا اعْتَدَيْنَآ ڮ اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ ١٠٧ ذٰلِكَ اَدْنٰٓي اَنْ يَّاْتُوْا بِالشَّهَادَةِ عَلٰي وَجْهِهَآ اَوْ يَخَافُوْٓا اَنْ تُرَدَّ اَيْمَانٌۢ بَعْدَ اَيْمَانِهِمْ ۭوَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاسْمَعُوْا ۭ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ ١٠٨ۧ
आयत 101
“ऐ अहले ईमान! उन चीज़ों के मुताल्लिक़ सवाल ना किया करो जो अगर तुम पर ज़ाहिर कर दी जायें तो तुम्हें बुरी लगें।” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَسْــــَٔـلُوْا عَنْ اَشْيَاۗءَ اِنْ تُبْدَ لَكُمْ تَسُؤْكُمْ ۚ |
यह एक ख़ास क़िस्म की मज़हबी ज़हनियत का तज़किरा है। बाज़ लोग बिला ज़रूरत हर बात को खोदने, कुरेदने और बाल की खाल उतारने के आदी होते हैं। अगर किसी चीज़ के बारे में अल्लाह तआला ने ख़ुद ख़ामोशी इख़्तियार फ़रमायी है तो उस बारे में ख्वाह मा ख्वाह सवाल करना अपनी ज़िम्मेदारी को बढ़ाने वाली बात है। चुनाँचे हज के बारे में जब सूरह आले इमरान (आयत 97) में हुक्म नाज़िल हुआ तो एक साहब ने सवाल किया कि हुज़ूर क्या हर साल हज फ़र्ज़ है? आप ﷺ ने सवाल सुन लिया लेकिन रुखे मुबारक दूसरी तरफ़ कर लिया। अब वह साहब उधर तशरीफ़ ले आये और फिर अर्ज़ किया, हुज़ूर क्या हज हर साल फ़र्ज़ है? हुज़ूर ﷺ ने फिर ऐराज़ फ़रमाया। जब उन्होंने यही सवाल तीसरी मरतबा किया तो फिर आप ﷺ नाराज़ हुए और फ़रमाया कि देखो अगर मैं हाँ कह दूँ तो तुम लोगों पर क़यामत तक के लिये हर साल हज फ़र्ज़ हो जायेगा। जिस चीज़ में अल्लाह तआला ने अहतमाल (संभावना) रखा है उसमें तुम्हारी बेहतरी है। जो शख्स हर साल कर सकता हो वह हर साल कर ले, लेकिन फ़र्ज़ियत के साथ हर साल की क़ैद अल्लाह ने नहीं लगायी है। बेजा सवाल करके तुम अपने लिये तंगी पैदा ना करो। जैसे गाय के मामले में बनी इसराइल ने किया था कि उसका रंग कैसा हो? उसकी उम्र क्या हो? और कैसी गाय हो? वगैरह-वगैरह, जितने सवालात करते गये उतनी ही शराइत लागू होती गयीं। इस नौइयत के सारे सवाल इसी ज़िमन में आते हैं।
“और अगर तुम सवाल करोगे, ऐसी चीज़ों के बारे में जबकि अभी क़ुरान का नुज़ूल जारी है तो तुम्हारे लिये वह ज़ाहिर कर दी जायेंगी।” | وَاِنْ تَسْــــَٔـلُوْا عَنْهَا حِيْنَ يُنَزَّلُ الْقُرْاٰنُ تُبْدَ لَكُمْ ۭ |
अल्लाह तआला ने अपनी हिकमत के तहत कई चीज़ों को परदे में रखा है, क्योंकि वह समझता है कि इनको ज़ाहिर करने में तुम्हारे लिये तंगी हो जायेगी, बोझ ज़्यादा हो जायेगा, यह तुम पर गिराँ गुज़रेंगी। लेकिन अगर सवाल करोगे तो फिर उनको ज़ाहिर कर दिया जायेगा।
“अल्लाह तआला ने इसमें दरगुज़र से काम लिया है, अल्लाह बख्शने वाला और बुर्दबार है।” | ۭعَفَا اللّٰهُ عَنْهَا ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ١٠١ |
बाज़ चीज़ों के बारे में जो अल्लाह ने तुम पर नरमी की है और तुम्हें तंगी से बचाया है, वह इसलिये है कि वह ग़फ़ूर और हलीम है। यह किसी निस्यान, भूल या ग़लती की वजह से नहीं हुआ (माज़ अल्लाह!)
आयत 102
“तुमसे पहले एक क़ौम (अहले किताब) ने इस क़िस्म के सवालात किये थे और फिर वह उनका इन्कार करने वाले बन गये थे।” | قَدْ سَاَلَهَا قَوْمٌ مِّنْ قَبْلِكُمْ ثُمَّ اَصْبَحُوْا بِهَا كٰفِرِيْنَ ١٠٢ |
अब यहाँ उन चीज़ों का ज़िक्र आ रहा है जो उनके यहाँ ख्वाह मा ख्वाह बहुत ज़्यादा मुक़द्दस हो गयी थीं। यह गोया अल्लाह तआला के उन चार शआइर के मुक़ाबले की चार चीज़ें हैं जिनका ज़िक्र पीछे आयत 97 में हुआ है: {جَعَلَ اللّٰهُ الْكَعْبَةَ الْبَيْتَ الْحَرَامَ قِــيٰمًا لِّلنَّاسِ وَالشَّهْرَ الْحَرَامَ وَالْهَدْيَ وَالْقَلَاۗىِٕدَ ۭ} वहाँ इन चार चीज़ों की तौसीक़ की गयी थी कि वह वाक़िअतन अल्लाह की शरीअत के अजज़ा हैं, उनका अहतराम और उनकी हुरमत को मल्हूज़ रखना अहले ईमान पर लाज़िम है। लेकिन यहाँ तवज्जो दिलाई जा रही है कि कुछ चीज़ें तुम्हारे यहाँ ऐसी राइज हैं जो दौरे जाहिलियत के मुशरिकाना अवहाम (अंधविश्वास) की यादगारें हैं। चुनाँचे फ़रमाया:
आयत 103
“अल्लाह ने ना तो बहीरा को कुछ चीज़ बनाया है, ना सायबा, ना वसीला और ना हाम को” | مَا جَعَلَ اللّٰهُ مِنْۢ بَحِيْرَةٍ وَّلَا سَاۗىِٕبَةٍ وَّلَا وَصِيْلَةٍ وَّلَا حَامٍ ۙ |
इन चीज़ों के तक़द्दुस की अल्लाह की तरफ़ से कोई सनद नहीं। बहीरा, सायबा, वसीला और हाम के बारे में बहुत से अक़वाल हैं, लेकिन जलीलुल क़द्र ताबई हज़रत सईद बिन मुसैब रहि० ने इन अल्फ़ाज़ की जो तफ़सील बयान की है, वह सही बुखारी (किताब तफ़सीरुल क़ुरान) में वारिद हुई है। मौलाना तक़ी उस्मानी साहब ने भी उसे अपने हवाशी में नक़ल किया है। बहीरा: ऐसा जानवर जिसका दूध बुतों के नाम कर दिया जाता था और कोई उसे अपने काम में ना लाता था। सायबा: वह जानवर जो बुतों के नाम पर, हमारे ज़माने के सांड की तरह, छोड़ दिया जाता था। वसीला: जो ऊँटनी मुसलसल मादा बच्चों को जन्म देती और दरमियान में कोई नर बच्चा पैदा ना होता, उसे भी बुतों के नाम पर छोड़ दिया जाता था। हाम: नर ऊँट जो एक ख़ास तादाद में जफ्ती (संभोग) कर चुका होता, उसे भी बुतों के नाम पर छोड़ दिया जाता था। इस तरह के जानवरों को बुतों के नाम मंसूब करके आज़ाद छोड़ दिया जाता था कि अब उन्हें कोई हाथ ना लगाये, कोई उनसे इस्तफ़ादा ना करे, कोई उनका गोश्त ना खाये ना सदक़ा दे, ना उनसे कोई ख़िदमत ले, बस उनका अहतराम किया जाये। लिहाज़ा वाज़ेह कर दिया गया कि अल्लाह तआला की तरफ़ से ऐसे कोई अहकाम नहीं दिये गये, बल्कि फ़रमाया:
“लेकिन यह काफ़िर अल्लाह पर इफ़तरा करते (झूठ गढ़ते) हैं, और उनकी अक्सरियत अक़्ल से आरी है।” | وَّلٰكِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ ۭ وَاَكْثَرُهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ ١٠٣ |
यह लोग बगैर सोचे समझे अल्लाह के ज़िम्मे झूठी बातें लगाते रहते हैं।
आयत 104
“और जब उन्हें कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की तरफ़ जो अल्लाह ने नाज़िल फ़रमायी है और आओ अल्लाह के रसूल की तरफ़” | وَاِذَا قِيْلَ لَهُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ |
इस हुक्म (कि आओ अल्लाह के रसूल की तरफ़) की तर्जुमानी अल्लामा इक़बाल ने क्या ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में की है:
ब मुस्तफ़ा ﷺ ब रसां ख्वीश रा कि दीं हमा ऊस्त
अगर बाव नरसीदी तमाम बू लहबीस्त
“वह कहते हैं हमारे लिये वही काफ़ी है जिस पर हमने अपने आबा व अजदाद को पाया।” | قَالُوْا حَسْبُنَا مَا وَجَدْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۗءَنَا ۭ |
यानि हमारे आबा व अजदाद जो इतने अरसे से इन चीज़ों पर अमल करते चले आ रहे थे तो क्या वह जाहिल थे? यही बातें आज भी सुनने को मिलती हैं। किसी रस्म के बारे में आप किसी को बतायें कि इसकी दीन में कोई सनद नहीं है और सहाबा रज़ि० के यहाँ इसका कोई वजूद ना था तो उसका जवाब होगा कि हमने तो अपने बाप-दादा को यूँ ही करते देखा है।
“ख्वाह उनके आबा व अजदाद ऐसे रहे हों कि ना उन्हें कोई इल्म हासिल हुआ हो ना ही वह हिदायत पर हों (फिर भी)?” | اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۗؤُهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يَهْتَدُوْنَ ١٠٤ |
जैसे तुम अल्लाह की मख्लूक़ हो वैसे ही वह भी मख्लूक़ थे। जैसे तुम ग़लत काम कर सकते हो और ग़लत आरा (राय) क़ायम कर सकते हो, वैसे ही वह भी ग़लतकार हो सकते थे।
आयत 105
“ऐ लोगो जो ईमान लाये हो, तुम पर ज़िम्मेदारी है सिर्फ़ अपनी जानों की।” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا عَلَيْكُمْ اَنْفُسَكُمْ ۚ |
“जो कोई गुमराह हो जाये वह तुम्हें नुक़सान नहीं पहुँचा सकता, जबकि तुम हिदायत पर हो।” | لَا يَضُرُّكُمْ مَّنْ ضَلَّ اِذَا اهْتَدَيْتُمْ ۭ |
“अल्लाह ही की तरफ़ तुम सबको लौट कर जाना है, और वह तुम्हें बता देगा जो कुछ तुम करते रहे थे।” | اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا فَيُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ ١٠٥ |
यह आयत इस लिहाज़ से बहुत अहम है कि इसका एक ग़लत मतलब और मफ़हूम दौरे सहाबा रज़ि० में ही बाज़ लोगों ने निकाल लिया था। वह यह कि दावत व तब्लीग की कोई ज़िम्मेदारी हम पर नहीं है, हर एक पर अपनी ज़ात की ज़िम्मेदारी है, कोई क्या करता है इससे किसी दूसरे को कुछ गर्ज़ नहीं होनी चाहिये। क़ुरान जो कह रहा है कि “तुम पर ज़िम्मेदारी सिर्फ़ अपनी जानों की है। अगर तुम हिदायत पर हो तो जो गुमराह हुआ वह तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ेगा।” लिहाज़ा हर किसी को बस अपना अमल दुरुस्त रखना चाहिये, कोई दूसरा शख्स अगर ग़लत काम करता है तो उसे ख्वाह मा ख्वाह रोकने-टोकने, उसकी नाराज़गी मोल लेने, अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर की कोई ज़रूरत नहीं है। इस तरह की बातें जब हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ि० के इल्म में आईं तो आप रज़ि० ने बाक़ायदा एक ख़ुत्बा दिया कि लोगों मैं देख रहा हूँ कि तुम इस आयत का मतलब ग़लत समझ रहे हो। इसका मतलब तो यह है कि तुम्हारी सारी तब्लीग, कोशिश, अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर के बावजूद अगर कोई शख्स गुमराह रहता है तो उसका तुम पर कोई वबाल नहीं। सूरतुल बक़रह (आयत:119) में हम पढ़ चुके हैं: {وَّلَا تُسْـــَٔـلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ } “(ऐ नबी ﷺ) आपसे कोई बाज़ पुर्स नहीं होगी जहन्नमियों के बारे में।” यानि हम यह नहीं पूछेंगे कि हमने आप ﷺ को बशीर व नज़ीर बना कर भेजा था और फिर भी यह लोग जहन्नम में क्यों चले गये? लेकिन जहाँ तक दावत व तब्लीग, नसीहत व मौअज़त (उपदेश), अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर का ताल्लुक़ है, यह तो फ़राइज़ में से हैं। इस आयत की रू से यह फ़राइज़ साक़ित (माफ़) नहीं होते। बल्कि इसका दुरुस्त मफ़हूम यह है कि तुम्हारी सारी कोशिश के बावजूद अगर कोई शख्स नहीं मानता तो अब तुम्हारी ज़िम्मेदारी पूरी हो गयी। फ़र्ज़ कीजिये कि किसी का बच्चा आवारा हो गया है, वालिद अपनी इम्कानी हद तक कोशिश किये जा रहा है मगर बच्चा राहे रास्त पर नहीं आ रहा, तो ज़ाहिर बात है कि अगर उसने बच्चे की तरबियत और इस्लाह में कोई कोताही नहीं छोड़ी तो अल्लाह की तरफ़ से उसकी गुमराही का वबाल वालिद पर नहीं आयेगा। लेकिन अपना फ़र्ज़ अदा करना बहरहाल लाज़िम है।
आयत 106
“ऐ अहले ईमान, तुम्हारे दरमियान शहादत (का निसाब) है जबकि तुम में से किसी को मौत आ जाये और वह वसीयत कर रहा हो, तो तुम में से दो मोअतबर अश्खास (बतौर गवाह) मौजूद हों” | يٰٓاَيُّھَاالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا شَهَادَةُ بَيْنِكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ حِيْنَ الْوَصِيَّةِ اثْنٰنِ ذَوَا عَدْلٍ مِّنْكُمْ |
यानि मौत से क़ब्ल वसीयत के वक़्त अपने लोगों में से दो गवाह (मर्द) मुक़र्रर कर लो। वाज़ेह रहे कि वसीयत कुल तरके के एक तिहाई हिस्से से ज़्यादा की नहीं हो सकती। अगर ज़ायदाद ज़्यादा है तो उसका एक तिहाई हिस्सा भी ख़ासा ज़्यादा हो सकता है।
“या दूसरे दो आदमी तुम्हारे ग़ैरों में से अगर तुम ज़मीन में सफ़र पर (निकले हुए) हो और (हालते सफ़र में) तुम्हें मौत की मुसीबत पेश आ जाये।” | اَوْ اٰخَرٰنِ مِنْ غَيْرِكُمْ اِنْ اَنْتُمْ ضَرَبْتُمْ فِي الْاَرْضِ فَاَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةُ الْمَوْتِ ۭ |
यानि हालते सफ़र में अगर किसी की मौत का वक़्त आ पहुँचे और वह वसीयत करना चाहता हो तो ऐसी सूरत में गवाहान ग़ैर क़ौम, किसी दूसरी बस्ती, किसी दूसरी बिरादरी और दूसरे क़बीले से भी मुक़र्रर किये जा सकते हैं, मगर आम हालात में अपनी बस्ती, अपने खानदान में रहते हुए कोई शख्स इन्तेक़ाल कर रहा है तो उसे वसीयत के वक़्त अपने लोगों, रिश्तेदारों और क़राबतदारों में से ही दो मोअतबर आदमियों को गवाह बनाना चाहिये।
“तुम उन दोनों गवाहों को नमाज़ के बाद (मस्जिद में) रोक लो” | تَحْبِسُوْنَهُمَا مِنْۢ بَعْدِ الصَّلٰوةِ |
यानि जब वसीयत के बारे में मुतालक़ा लोग पूछें और उसमें कुछ शक का अहतमाल हो तो नमाज़ के बाद उन दोनों गवाहों को मस्जिद में रोक लिया जाये।
“फिर वह दोनों अल्लाह की क़सम खायें, अगर तुम्हें शक हो” | فَيُقْسِمٰنِ بِاللّٰهِ اِنِ ارْتَبْتُمْ |
अगर तुम्हें उनके बारे में कोई शक हो कि कहीं यह वसीयत को बदल ना दें, कहीं उनसे गलती ना हो जाये तो उनसे क़सम उठवा लो। वह नमाज़ के बाद मस्जिद में हलफ़ की बुनियाद पर शहादत दें, और इस तरह कहें:
“हम इसकी कोई क़ीमत वसूल नहीं करेंगे, अगरचे कोई क़राबतदार ही क्यों ना हो” | لَا نَشْتَرِيْ بِهٖ ثَـمَنًا وَّلَوْ كَانَ ذَا قُرْبٰى ۙ |
यानि हम इस शहादत से ना तो ख़ुद कोई नाजायज़ फ़ायदा उठाएँगे, ना किसी के हक़ में कोई नाइंसाफ़ी करेंगे और ना ही किसी रिश्तेदार अज़ीज़ को कोई नाजायज़ फ़ायदा पहुँचाएँगे।
“और ना हम छुपाएँगे अल्लाह की गवाही को” | وَلَا نَكْتُمُ شَهَادَةَ اللّٰهِ |
गौर करें गवाही इतनी अज़ीम शय है कि इसे “شَهَادَةَ اللّٰهِ” कहा गया है, यानि अल्लाह की गवाही, अल्लाह की तरफ़ से अमानत।
“अगर हम ऐसा करें तो यक़ीनन हम गुनाहगारों में शुमार होंगे।” | اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الْاٰثِمِيْنَ ١٠٦ |
आयत 107
“फिर अगर मालूम हो जाये कि इन दोनों ने (झूठ बोल कर) गुनाह कमाया है” | فَاِنْ عُثِرَ عَلٰٓي اَنَّهُمَا اسْتَحَقَّآ اِثْمًا |
हल्फ़िया बयान भी ग़लत दिया है और वसीयत में तरमीम (बदलाव) की है, इसके बावजूद कि नमाज़ के बाद मस्जिद के अन्दर हलफ़ उठा कर बात कर रहे हैं। आख़िर इन्सान हैं और हर मआशरे में हर तरह के इन्सान हर वक़्त मौजूद रहते हैं।
“तो अब दो और लोग उनकी जगह पर खड़े हों” | فَاٰخَرٰنِ يَقُوْمٰنِ مَقَامَهُمَا |
“उन लोगों में से जिनकी हक़ तल्फ़ी की है इन पहले दो लोगों ने” | مِنَ الَّذِيْنَ اسْتَحَقَّ عَلَيْهِمُ الْاَوْلَيٰنِ |
अब वह खड़े होकर कहेंगे कि यह लोग हमारा हक़ तल्फ़ कर रहे हैं, इन्होंने वसीयत के अन्दर ख्यानत की है।
“पस वह दोनों अल्लाह की क़सम खायें कि हमारी गवाही ज़्यादा बरहक़ है इन दोनों की गवाही से” | فَيُقْسِمٰنِ بِاللّٰهِ لَشَهَادَتُنَآ اَحَقُّ مِنْ شَهَادَتِهِمَا |
“और हमने कोई ज़्यादती नहीं की है, अगर ऐसा हो तो यक़ीनन हम ज़ालिमों में से होंगे।” | وَمَا اعْتَدَيْنَآ ڮ اِنَّآ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ ١٠٧ |
आयत 108
“यह तरीक़ेकार क़रीबतर है कि इससे लोग ठीक-ठीक शहादत पेश करें” | ذٰلِكَ اَدْنٰٓي اَنْ يَّاْتُوْا بِالشَّهَادَةِ عَلٰي وَجْهِهَآ |
“या (कमसे कम) उन्हें खौफ़ रहे कि हमारी क़समें उनकी क़समों के बाद रद्द कर दी जायेंगी।” | اَوْ يَخَافُوْٓا اَنْ تُرَدَّ اَيْمَانٌۢ بَعْدَ اَيْمَانِهِمْ ۭ |
क्योंकि उन्हें मालूम होगा कि अगर हमने झूठी क़सम खा भी ली, और फिर अगर दूसरा फ़रीक़ भी क़सम खा गया, तो हमारा मंसूबा कामयाब नहीं होगा। लिहाज़ा वाह इसकी हिम्मत नहीं करेंगे।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और सुन रखो।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاسْمَعُوْا ۭ |
“अल्लाह ऐसे नाफ़रमानों को हिदायत नहीं देता।” | وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْفٰسِقِيْنَ ١٠٨ۧ |
इस तरह का मामला सूरह अल नूर (आयात 6 से 9) में भी मज़कूर हुआ है कि अगर कोई शख्स अपनी बीवी को बदकारी करते हुए देखे और उसके पास कोई और गवाह ना हो तो वह चार मरतबा क़सम खा कर कहे कि मैं जो कह रहा हूँ सच कह रहा हूँ। तो उस एक शख्स की गवाही चार गवाहों के बराबर हो जायेगी। लेकिन फिर अल्लाह तआला ने इसका जवाब भी बताया है, कि अगर बीवी भी चार मरतबा क़सम खा कर कह दे कि यह झूठ बोल रहा है, मुझ पर तोहमत लगा रहा है और पाँचवी मरतबा यह कहे कि मुझ पर अल्लाह का ग़ज़ब टूटे अगर इसका इल्ज़ाम दुरुस्त हो, तो शौहर की गवाही साक़ित हो जायेगी। इस तरह दोनों तरफ़ से अल्लाह तआला ने मामले को मुतवाज़िन किया है।
अब आखरी दो रुकूअ इस लिहाज़ से अहम हैं कि इनमें अल्लाह तआला के साथ हज़रत मसीह अलै० के मकालमे (बात-चीत) का नक़्शा खींचा गया है, जो क़यामत के दिन होगा। और इसके पसमंज़र में गोया एक पूरी दास्तान है, जो एक नयी शान से सामने सामने आयी है।
आयात 109 से 115 तक
يَوْمَ يَجْمَعُ اللّٰهُ الرُّسُلَ فَيَقُوْلُ مَاذَآ اُجِبْتُمْ ۭ قَالُوْا لَا عِلْمَ لَنَا ۭاِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ ١٠٩ اِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ اذْكُرْ نِعْمَتِيْ عَلَيْكَ وَعَلٰي وَالِدَتِكَ ۘ اِذْ اَيَّدْتُّكَ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۣ تُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا ۚ وَاِذْ عَلَّمْتُكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ ۚ وَاِذْ تَخْلُقُ مِنَ الطِّيْنِ كَهَيْئَةِ الطَّيْرِ بِاِذْنِيْ فَتَنْفُخُ فِيْهَا فَتَكُوْنُ طَيْرًۢا بِاِذْنِيْ وَتُبْرِئُ الْاَكْـمَهَ وَالْاَبْرَصَ بِاِذْنِيْ ۚ وَاِذْ تُخْرِجُ الْمَوْتٰى بِاِذْنِيْ ۚ وَاِذْ كَفَفْتُ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ عَنْكَ اِذْ جِئْتَهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ اِنْ هٰذَآ اِلَّا سِحْرٌ مُّبِيْنٌ ١١٠ وَاِذْ اَوْحَيْتُ اِلَى الْحَوَارِيّٖنَ اَنْ اٰمِنُوْا بِيْ وَبِرَسُوْلِيْ ۚ قَالُوْٓا اٰمَنَّا وَاشْهَدْ بِاَنَّنَا مُسْلِمُوْنَ ١١١ اِذْ قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ هَلْ يَسْتَطِيْعُ رَبُّكَ اَنْ يُّنَزِّلَ عَلَيْنَا مَاۗىِٕدَةً مِّنَ السَّمَاۗءِ ۭ قَالَ اتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ١١٢ قَالُوْا نُرِيْدُ اَنْ نَّاْكُلَ مِنْهَا وَتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُنَا وَنَعْلَمَ اَنْ قَدْ صَدَقْتَنَا وَنَكُوْنَ عَلَيْهَا مِنَ الشّٰهِدِيْنَ ١١٣ قَالَ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ اللّٰهُمَّ رَبَّنَآ اَنْزِلْ عَلَيْنَا مَاۗىِٕدَةً مِّنَ السَّمَاۗءِ تَكُوْنُ لَنَا عِيْدًا لِّاَوَّلِنَا وَاٰخِرِنَا وَاٰيَةً مِّنْكَ ۚ وَارْزُقْنَا وَاَنْتَ خَيْرُ الرّٰزِقِيْنَ ١١٤ قَالَ اللّٰهُ اِنِّىْ مُنَزِّلُهَا عَلَيْكُمْ ۚ فَمَنْ يَّكْفُرْ بَعْدُ مِنْكُمْ فَاِنِّىْٓ اُعَذِّبُهٗ عَذَابًا لَّآ اُعَذِّبُهٗٓ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ ١١٥ۧ
आयत 109
“(उस दिन का तसव्वुर करो) जिस दिन अल्लाह तआला तमाम रसूलों को जमा करेगा और पूछेगा आप लोगों को क्या जवाब मिला था?” | يَوْمَ يَجْمَعُ اللّٰهُ الرُّسُلَ فَيَقُوْلُ مَاذَآ اُجِبْتُمْ ۭ |
आप लोगों की दावत के जवाब में आपकी क़ौमों ने आपके साथ क्या मामला किया था?
“वह कहेंगे कि हमें कुछ मालूम नहीं, तू ही बेहतर जानने वाला है गैब की बातों का।” | قَالُوْا لَا عِلْمَ لَنَا ۭاِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ ١٠٩ |
वह अल्लाह तआला के जनाब में ज़बान खोलने से गुरेज़ करेंगे और कहेंगे कि तू तमाम पोशीदा बातों को जानने वाला है, हर हक़ीक़त तुझ पर मुन्कशिफ़ है।
आयत 110
“जब कहेगा अल्लाह तआला ऐ ईसा अलै० इब्ने मरयम” | اِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ |
अब रोज़े क़यामत हज़रत ईसा अलै० की ख़ास पेशी का मंज़र है। दुनिया में उनकी परस्तिश की गयी, उनको अल्लाह का बेटा बनाया गया, सालिसु सलासा क़रार दिया गया। लिहाज़ा अब आँजनाब अलै० को अल्लाह तआला के सामने जो शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी, उसका नक़्शा खींचा जा रहा है जब अल्लाह उनको मुख़ातिब करके फ़रमायेगा कि ऐ ईसा अलै० इब्ने मरयम:
“ज़रा मेरे उन ईनामात को याद करो जो तुम पर और तुम्हारी वालिदा पर हुए।” | اذْكُرْ نِعْمَتِيْ عَلَيْكَ وَعَلٰي وَالِدَتِكَ ۘ |
“जबकि मैंने तुम्हारी मदद की रूहुल क़ुदुस से” | اِذْ اَيَّدْتُّكَ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۣ |
जिब्राइल अलै० के ज़रिये से तुम्हारी ताइद की।
“तुम गुफ्तुगू करते थे लोगों के साथ पिन्घोड़े में भी और बड़ी उम्र को पहुँच कर भी।” | تُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا ۚ |
तुम शीर ख्वारगी (शिशु) की उम्र में भी लोगों से गुफ्तुगू करते थे और अधेड़ उम्र को पहुँच कर भी। आगे वही सूरह आले इमरान (आयत 48) वाले अल्फ़ाज़ दोहराये जा रहे हैं।
“और (याद करो मेरे उस अहसान को) जबकि मैंने तुम्हें सिखाई किताब और हिकमत, यानि तौरात और इन्जील।” | وَاِذْ عَلَّمْتُكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ ۚ |
दरमियान का वाव तफ़सीरिया है, लिहाज़ा “यानि” के मफ़हूम में आयेगा।
“और (याद करो) जब तुम बनाते थे गारे से परिन्दे की एक शक्ल, मेरे हुक्म से” | وَاِذْ تَخْلُقُ مِنَ الطِّيْنِ كَهَيْئَةِ الطَّيْرِ بِاِذْنِيْ |
“फिर तुम उसमें फूँक मारते थे तो वह एक उड़ने वाला परिंदा बन जाता था मेरे हुक्म से” | فَتَنْفُخُ فِيْهَا فَتَكُوْنُ طَيْرًۢا بِاِذْنِيْ |
“और तुम अच्छा कर देते थे मादरज़ाद अंधे को और कोढ़ी को मेरे हुक्म से।” | وَتُبْرِئُ الْاَكْـمَهَ وَالْاَبْرَصَ بِاِذْنِيْ ۚ |
“और जब तुम मुर्दों को निकाल खड़ा करते थे मेरे हुक्म से।” | وَاِذْ تُخْرِجُ الْمَوْتٰى بِاِذْنِيْ ۚ |
“और (याद करो मेरे उस अहसान को भी) जब मैंने बनी इसराइल के हाथ रोक दिये तुमसे” | وَاِذْ كَفَفْتُ بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ عَنْكَ |
उनके हाथ तुम तक नहीं पहुँचने दिये और तुम्हें उनके शर से महफ़ूज़ रखा। यह उसी वाक़िये की तरफ़ इशारा है कि हज़रत मसीह अलै० गिरफ़्तार नहीं हुए, और ऐन उस वक़्त जब पुलिस वाले आप अलै० को गिरफ़्तार करने के लिये बाग़ में दाख़िल हुए तो चार फ़रिश्ते उतरे, जो आप अलै० को लेकर आसमान पर चले गये।
“जबकि तुम आये उनके पास खुले मौज्ज़ात के साथ तो कहा उन लोगों ने जो उनमें से काफ़िर थे कि यह तो सरीह जादू के सिवा कुछ नहीं है।” | اِذْ جِئْتَهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْهُمْ اِنْ هٰذَآ اِلَّا سِحْرٌ مُّبِيْنٌ ١١٠ |
आयत 111
“और (याद करो मेरे अहसान को) जब मैंने इशारा किया हवारियों को” | وَاِذْ اَوْحَيْتُ اِلَى الْحَوَارِيّٖنَ |
“कि ईमान लाओ मुझ पर और मेरे रसूल पर।” | اَنْ اٰمِنُوْا بِيْ وَبِرَسُوْلِيْ ۚ |
उनके दिल में डाल दिया, इल्हाम कर दिया, उनकी तरफ़ वही कर दी। यह वहिये ख़फ़ी है। ज़ाहिर है हवारियों की तरफ़ वहिये जली तो नहीं आ सकती थी जो खास्सा-ए-नबुवत है। लेकिन जैसा कि शहद की मक्खी के लिये वही का लफ्ज़ आया है (अल् नहल:68) या जैसे अल्लाह तआला ने आसमानों को वही की (फ़ुसिलत:12) यह वहिये ख़फ़ी की मिसालें हैं।
“तो उन्होंने कहा हम ईमान लाये और (ऐ ईसा अलै० आप भी) गवाह रहिये कि हम अल्लाह के फ़रमाबरदार हैं।” | قَالُوْٓا اٰمَنَّا وَاشْهَدْ بِاَنَّنَا مُسْلِمُوْنَ ١١١ |
आयत 112
“और (ज़रा याद करो उस वाक़िये को) जब हवारियों ने कहा कि ऐ ईसा इब्ने मरयम” | اِذْ قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ |
“क्या आपके रब को यह क़ुदरत हासिल है कि हम पर आसमान से एक दस्तरख्वान उतारे?” | هَلْ يَسْتَطِيْعُ رَبُّكَ اَنْ يُّنَزِّلَ عَلَيْنَا مَاۗىِٕدَةً مِّنَ السَّمَاۗءِ ۭ |
“(जवाब में ईसा अलै० ने) कहा अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो अगर तुम ईमान रखते हो।” | قَالَ اتَّقُوا اللّٰهَ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ١١٢ |
मोमिनीन को ऐसी दुआएँ नहीं करनी चाहिये। ऐसे मुतालबात आप लोगों को ज़ेब नहीं देते।
आयत 113
“उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि हम उस (ख्वान) में से खायें और हमारे दिल बिल्कुल मुत्मईन हो जायें” | قَالُوْا نُرِيْدُ اَنْ نَّاْكُلَ مِنْهَا وَتَطْمَىِٕنَّ قُلُوْبُنَا |
यह इस तरह की बात है जैसी हज़रत इब्राहीम अलै० ने कही थी (अल् बक़रह:260): { رَبِّ اَرِنِيْ كَيْفَ تُـحْيِ الْمَوْتٰى }। इसी तरह का मुशाहिदा वह भी तलब कर रहे थे।
“और हमें मालूम हो जाये कि आप अलै० ने जो कुछ हमसे कहा वह सच है और हम उस पर गवाह बन जायें।” | وَنَعْلَمَ اَنْ قَدْ صَدَقْتَنَا وَنَكُوْنَ عَلَيْهَا مِنَ الشّٰهِدِيْنَ ١١٣ |
ताकि हमें आप अलै० की किसी बात में शक व शुबह की कोई गुंज़ाइश ना रहे और ऐसा यक़ीने कामिल हो जाये कि फिर हम जब आप अलै० की जानिब से लोगों को तब्लीग करें तो हमारे अपने दिलों में कहीं शक व शुबह का कोई काँटा चुभा हुआ ना रह जाये।
आयत 114
“इस पर ईसा अलै० इब्ने मरयम ने दुआ की: ऐ अल्लाह, ऐ हमारे रब, उतार दे हम पर एक दस्तरख्वान आसमान से” | قَالَ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ اللّٰهُمَّ رَبَّنَآ اَنْزِلْ عَلَيْنَا مَاۗىِٕدَةً مِّنَ السَّمَاۗءِ |
“जो ईद बन जाये हमारे लिये और हमारे अगलों और पिछलों के लिये, और एक निशानी हो तेरी तरफ़ से।” | تَكُوْنُ لَنَا عِيْدًا لِّاَوَّلِنَا وَاٰخِرِنَا وَاٰيَةً مِّنْكَ ۚ |
आसमान से, ख़ास तेरे यहाँ से खाने से भरे हुए दस्तरख्वान का नाज़िल होना यक़ीनन हमारे लिये जश्न का मौक़ा होगा, हमारे अगलों-पिछलों के लिये एक यादगार वाक़िया और तेरी तरफ़ से एक ख़ास निशानी होगा।
“और हमें रिज़्क़ अता फ़रमा और यक़ीनन तू बेहतरीन रिज़्क़ देने वाला है।” | وَارْزُقْنَا وَاَنْتَ خَيْرُ الرّٰزِقِيْنَ ١١٤ |
आयत 115
“अल्लाह ने इरशाद फ़रमाया (ठीक है) मैं नाज़िल कर दूँगा उसको तुम पर।” | قَالَ اللّٰهُ اِنِّىْ مُنَزِّلُهَا عَلَيْكُمْ ۚ |
“लेकिन फिर उसके बाद तुम में से जो कोई कुफ़्र की रविश इख़्तियार करेगा तो फिर उसको मैं अज़ाब भी वह दूँगा जो तमाम जहानों में से किसी और को नहीं दूँगा।” | فَمَنْ يَّكْفُرْ بَعْدُ مِنْكُمْ فَاِنِّىْٓ اُعَذِّبُهٗ عَذَابًا لَّآ اُعَذِّبُهٗٓ اَحَدًا مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ ١١٥ۧ |
यानि जब इस तरह की कोई खर्क़े आदत चीज़ दिखा दी जायेगी, खुला मौज्ज़ा सामने आ जायेगा तो फिर रिआयत नहीं होगी। गुज़िश्ता क़ौमों के साथ ऐसे ही हुआ था। क़ौमे समूद ने हज़रत सालेह अलै० से मुतालबा किया कि अभी इस चट्टान में से एक हामिला ऊँटनी बरामद हो जानी चाहिये। वह ऊँटनी बरामद हो गयी, लेकिन साथ ही रिआयत भी ख़त्म हो गयी। उनसे वाज़ेह तौर पर कह दिया गया कि अब तुम्हारे लिये मोहलत के सिर्फ़ चंद दिन हैं, अगर इन दिनों में ईमान नहीं लाओगे तो नेस्तो नाबूद कर दिये जाओगे। यह बात सूरह शौअरा में बहुत तफ़सील से आयेगी कि ऐ नबी ﷺ यह लोग अब जो निशानियाँ माँग रहे हैं तो हम यह इनकी खैर-ख्वाही में इन्हें नहीं दिखा रहे हैं। अगर इनके कहने पर ऐसी निशानियाँ हम दिखा दें तो फिर इनको मज़ीद रिआयत नहीं दी जायेगी और इनकी मोहलत अभी ख़त्म हो जायेगी। इस क़िस्म के मौज्ज़े देख कर ना कोई पहले ईमान लाया, ना अब यह लोग लायेंगे। इनके अन्दर जो नीयत का फ़साद है वह कहाँ इन्हें मानने देगा? जैसे क़ौमे सालेह अलै० ने नहीं माना, हालाँकि अपनी निगाहों के सामने उन्होंने ऐसा खुला मौज्ज़ा देख लिया था। हज़रत ईसा अलै० के मौज्ज़ों को यहूदियों ने नहीं माना, उल्टा उन्हें जादू क़रार दे दिया। तो इस क़दर वाज़ेह मौज्ज़ात देख कर भी लोग ईमान नहीं लाये। सिवाय उन जादूगरों के जिनका फिरऔन के दरबार में हज़रत मूसा अलै० से मुक़ाबला हुआ था। ना तो ख़ुद फिरऔन ईमान लाया था ना फिरऔन के दरबारी और ना ही अवामुन्नास। चुनाँचे मौज्ज़े का ज़हूर दरअसल मुतल्लक़ा क़ौम के ख़िलाफ़ जाता है। मौज्ज़े के ज़हूर से पहले तो उम्मीद होती है कि अल्लाह तआला शायद इस क़ौम को कुछ ढील दे दे, शायद कुछ और लोगों को ईमान की तौफ़ीक़ मिल जाये, लेकिन मौज्ज़े के ज़हूर से मोहलत का वह सिलसिला ख़त्म हो जाता है।
आयात 116 से 120 तक
وَاِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ ءَاَنْتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُوْنِيْ وَاُمِّيَ اِلٰــهَيْنِ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ قَالَ سُبْحٰنَكَ مَا يَكُوْنُ لِيْٓ اَنْ اَقُوْلَ مَا لَيْسَ لِيْ ۤ بِحَقٍّ ڲ اِنْ كُنْتُ قُلْتُهٗ فَقَدْ عَلِمْتَهٗ ۭ تَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِيْ وَلَآ اَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِكَ ۭاِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ ١١٦ مَا قُلْتُ لَهُمْ اِلَّا مَآ اَمَرْتَنِيْ بِهٖٓ اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ ۚ وَكُنْتُ عَلَيْهِمْ شَهِيْدًا مَّا دُمْتُ فِيْهِمْ ۚ فَلَمَّا تَوَفَّيْتَنِيْ كُنْتَ اَنْتَ الرَّقِيْبَ عَلَيْهِمْ ۭواَنْتَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدٌ ١١٧ اِنْ تُعَذِّبْهُمْ فَاِنَّهُمْ عِبَادُكَ ۚ وَاِنْ تَغْفِرْ لَهُمْ فَاِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ ١١٨ قَالَ اللّٰهُ هٰذَا يَوْمُ يَنْفَعُ الصّٰدِقِيْنَ صِدْقُهُمْ ۭ لَهُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۭ رَضِيَ اللّٰهُ عَنْهُمْ وَرَضُوْا عَنْهُ ۭ ذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ ١١٩ لِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا فِيْهِنَّ ۭ وَهُوَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ١٢٠ۧ
अब इस पेशी का आखरी मंज़र है और इसका अंदाज़ बहुत सख्त है।
आयत 116
“और जब अल्लाह कहेगा कि ऐ मरयम के बेटे ईसा! क्या तुमने कहा था लोगों से कि मुझे और मेरी माँ दोनों को मअबूद बना लेना, अल्लाह के सिवा?” | وَاِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ ءَاَنْتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُوْنِيْ وَاُمِّيَ اِلٰــهَيْنِ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ |
“वह (जवाब में) अर्ज़ करेंगे (ऐ अल्लाह) तू पाक है, मेरे लिये कैसे रवा था कि मैं वह बात कहता जिसके कहने का मुझे कोई हक़ नहीं।” | قَالَ سُبْحٰنَكَ مَا يَكُوْنُ لِيْٓ اَنْ اَقُوْلَ مَا لَيْسَ لِيْ ۤ بِحَقٍّ ڲ |
“अगर मैंने वह बात कही होती तो वह तेरे इल्म में होती।” | اِنْ كُنْتُ قُلْتُهٗ فَقَدْ عَلِمْتَهٗ ۭ |
“तू तो जनता है जो कुछ मेरे जी में है और मैं नहीं जनता जो तेरे जी में है। यक़ीनन तमाम पोशीदा हक़ीक़तों का जानने वाला तो बस तू ही है।” | تَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِيْ وَلَآ اَعْلَمُ مَا فِيْ نَفْسِكَ ۭاِنَّكَ اَنْتَ عَلَّامُ الْغُيُوْبِ ١١٦ |
आयत 117
“मैंने उनसे कुछ नहीं कहा मगर वही कुछ जिसका तूने मुझे हुक्म दिया था” | مَا قُلْتُ لَهُمْ اِلَّا مَآ اَمَرْتَنِيْ بِهٖٓ |
“(और वह यही बात थी) कि बंदगी करो अल्लाह की जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है।” | اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبَّكُمْ ۚ |
“और मैं उन पर निगरान रहा जब तक उनमें मौजूद रहा।” | وَكُنْتُ عَلَيْهِمْ شَهِيْدًا مَّا دُمْتُ فِيْهِمْ ۚ |
उनकी देखभाल करता रहा, निगरानी करता रहा। यहाँ लफ्ज “शहीद” निगरान के मायनों में आया है।
“फिर जब तूने मुझे उठा लिया तो (इसके बाद) तू ही निगरान था उन पर” | فَلَمَّا تَوَفَّيْتَنِيْ كُنْتَ اَنْتَ الرَّقِيْبَ عَلَيْهِمْ ۭ |
वाज़ेह रहे कि यहाँ भी تَوَفَّيْتَنِيْ मौत के मायनों में नहीं है। इस सिलसिले में सूरह आले इमरान आयत 55 { اِنِّىْ مُتَوَفِّيْكَ } की तशरीह मद्देनज़र रहे।
“और यक़ीनन तू हर चीज़ पर गवाह है।” | واَنْتَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدٌ ١١٧ |
तू हर चीज़ पर निगरान है, हर चीज़ से बाखबर है।
आयत 118
“अब अगर तू इन्हें अज़ाब दे तो यह तेरे ही बन्दे हैं।” | اِنْ تُعَذِّبْهُمْ فَاِنَّهُمْ عِبَادُكَ ۚ |
तुझे इन पर पूरा इख़्तियार हासिल है, तेरी मख्लूक़ हैं।
“और अगर तू इन्हें बख्श दे तो तू ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | وَاِنْ تَغْفِرْ لَهُمْ فَاِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ ١١٨ |
यह बेहतरीन अंदाज़ है। माफ़ी की दरख्वास्त भी है, जिसमें बहुत ख़ूबसूरत अंदाज़ में शफक्क़त व राफ़त का इज़हार है, जो नौए इंसानी के लिये अम्बिया की शख्सियत का खास्सा है। लेकिन इससे आगे बढ़ कर कुछ नहीं कह सकते कि मक़ामे अबदियत यही है। तो ऐ अल्लाह! तेरा ही इख़्तियार है और तू अज़ीज़ भी है और हकीम भी। अगर तू इन्हें माफ़ फ़रमाना चाहे तो तुझसे कोई बाज़पुर्स नहीं कर सकता, कोई जवाब तलबी नहीं कर सकता कि तूने कैसे माफ़ कर दिया! अब आ रहा है कि इस पूरी पेशी का ड्राप सीन और आखरी नक़्शा क्या होगा।
आयत 119
“अल्लाह फ़रमायेगा यह आज का दिन वह है जिस दिन सच्चों को उनकी सच्चाई फायदा पहुँचायेगी।” | قَالَ اللّٰهُ هٰذَا يَوْمُ يَنْفَعُ الصّٰدِقِيْنَ صِدْقُهُمْ ۭ |
उनका सच और सिद्क़ उनके हक़ में मुफ़ीद होगा।
“उनके लिये बाग़ात हैं जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी, वह उनमे हमेशा-हमेशा रहेंगे।” | لَهُمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۭ |
“अल्लाह उनसे राज़ी हो गया और वह अल्लाह से राज़ी हो गये। यही है बड़ी कमयाबी।” | رَضِيَ اللّٰهُ عَنْهُمْ وَرَضُوْا عَنْهُ ۭ ذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ ١١٩ |
यह है बाहमी रज़ामंदी का आखरी मक़ाम, अल्लाह उनसे राज़ी और वह अल्लाह से राज़ी।
आयत 120
“अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीन और जो कुछ इनमें है, सबकी बादशाही।” | لِلّٰهِ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا فِيْهِنَّ ۭ |
“और वह हर चीज पर क़ादिर है।” | وَهُوَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ١٢٠ۧ |
यहाँ पर अल्लाह तआला के फ़ज़ल से सूरतुल मायदा के इख्तताम के साथ ही मक्की और मदनी सूरतों के ग्रुप्स (groups) में से पहला ग्रुप ख़त्म हो गया है, जिसमें एक मक्की सूरत यानि सूरतुल फ़ातिहा और चार मदनी सूरतें हैं। सूरतुल फ़ातिहा अगरचे हुज्म में बहुत छोटी है लेकिन यह अपनी मायनवी अज़मत के लिहाज़ से पूरे क़ुरान के हमवज़न है। सूरतुल हिज्र की आयत 87: {وَلَقَدْ اٰتَيْنٰكَ سَبْعًا مِّنَ الْمَثَانِيْ وَالْقُرْاٰنَ الْعَظِيْمَ} मुफ़स्सिरीन की राय के मुताबिक़ सूरतुल फ़ातिहा ही के बारे में है। इस ग्रुप की चार मदनी सूरतें अल् बक़रह, आले इमरान, अन्निसा और अल् मायदा दो-दो के जोड़ों की शक्ल में हैं। इन तमाम सूरतों के मज़ामीन का उमूद एक दफ़ा फिर ज़हन में ताज़ा कर लें। मुकम्मल शरीअते आसमानी, अहले किताब से ख़िताब और रद्दो-कदा, उन पर इल्ज़ामात का तज़किरा, उनके ग़लत अक़ाइद की नफ़ी, उन्हें ईमान की दावत, उनकी तारीख के अहम वाक़िआत की तफ़सीलात, उनका उम्मते मुस्लिमा के मंसब से माज़ूल किया जाना, जिस पर वह दो हज़ार बरस से फ़ाइज़ थे और उम्मते मुहम्मद ﷺ का इस मंसब पर फ़ाइज़ किया जाना। यह मौज़ूआत आखरी दर्जे में इस ग्रुप की सूरतों में मुकम्मल हो गये हैं।
بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔