Surah Nisa सूरतुन्निसा ayat 1-87
सूरतुन्निसा
तम्हीदी कलिमात
क़ुरान मजीद में मक्की और मदनी सूरतों के जो ग्रुप हैं उनमें से पहला ग्रुप पाँच सूरतों पर मुश्तमिल है। इस ग्रुप में मक्की सूरत सिर्फ़ सूरतुल फ़ातिहा है, जो हुज्म में बहुत छोटी मगर मायने व मफ़हूम और अज़मत व फ़ज़ीलत में बहुत बड़ी है। इसके बाद चार सूरतें मदनी हैं: अल् बक़रह, अन्निसा, आले इमरान और अल् मायदा। यह चार सूरतें दो-दो सूरतों के दो जोड़ों की शक्ल में हैं। पहला जोड़ा सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान का है, और इन्हें खुद रसूल अल्लाह ﷺ ने एक मुश्तरक नाम दिया है “अज्ज़हरावैन”। इन दो सूरतों में जो मुनास्बतें और मुशाबहतें हैं वह वह तर्जुमे के दौरान तफ़सील के साथ हमारे सामने आती रही हैं। इनमें निस्बते ज़ौजियत किस ऐतबार से है और यह एक-दूसरे की तकमील किस पहलु से करती हैं, यह बात भी सामने आ चुकी है।
अब दो सूरतें सूरतुन्निसा और सूरतुल मायदा जोड़े की शक्ल में आ रही हैं। इन दो जोड़ों में एक नुमाया फ़र्क़ (contrast) यह नज़र आयेगा कि साबक़ा (पिछली) दो सूरतों में पहले हुरूफ़े मुक़त्तआत हैं और फिर दोनों में क़ुराने मजीद कुतबे समाविया की अज़मत का बयान है, जबकि इन दोनों सूरतों में इस तरह की कोई तम्हीदी गुफ्तुगू नहीं है, बल्कि बराहे रास्त ख़िताब हो रहा है। अलबत्ता निस्बते ज़ौजियत के ऐतबार से इनमें यह फ़र्क़ है कि सूरतुन्निसा के आगाज़ में सीगा-ए-ख़िताब “یٰٓاَیُّھَا النَّاسُ” (ऐ लोगों) है, यानि ख़िताब आम है, और सूरतुल मायदा का आगाज़ होता है “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا” के सीगे से, यानि वहाँ ख़िताब ख़ास तौर पर इंसानों में से उन लोगों से है जो ईमान के दावेदार हैं। बाक़ी जिस तरह सूरतुल बक़रह और आले इमरान निस्फ़ैन में मुन्क़सिम हैं इस तरह का मामला इन दोनों सूरतों का नहीं है।
अपने असलूब के ऐतबार से यह दोनों सूरतें सूरतुल बक़रह के निस्फ़े सानी के मुशाबेह हैं। यानि चंद मज़ामीन की लड़ियाँ चल रही हैं, लेकिन एक रस्सी की तरह आपस में इस तरह बटी हुई और गुथी हुई हैं कि वह लड़ियाँ मुसलसल नहीं बल्कि कटवाँ नज़र आती हैं। अगर आप चार मुख्तलिफ़ रंगों की लड़ियों को आपस में बट कर रस्सी की शक्ल दे दें तो उनमें से कोई सा रंग भी मुसलसल नज़र नहीं आयेगा, बल्कि बारी-बारी चारों रंग नज़र आते रहेंगे। अब अगर आप उस रस्सी को खोल देंगे तो हर एक लड़ी अलग हो जायेगी और चारों रंग अलग-अलग नज़र आयेंगे। सूरतुल बक़रह के निस्फ़े सानी के मज़ामीन के बारे में मैंने बताया था कि यह गोया चार लड़ियाँ हैं, जिनमें दो का ताल्लुक़ शरीअत से है और दो का जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह से। शरीअत की दो लड़ियों में से एक इबादात की और दूसरी मामलात की है, जबकि जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह की लड़ियों में से एक जिहाद बिल माल यानि इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह और दूसरी जिहाद बिल नफ्स की आखरी शक्ल यानि क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह है।
यहाँ सूरतुन्निसा में भी आप देखेंगे कि तीन लड़ियाँ इसी तरह आपस में गुथी हुई हैं और इनके रंग कटवाँ नज़र आते हैं, लेकिन अगर आप इन सबको अलैहदा-अलैहदा कर लें तो इनमें से हर एक अपनी जगह एक अलग मज़मून बन जायेगा। यह तीन लड़ियाँ ख़िताब के ऐतबार से हैं। चुनाँचे एक लड़ी तो वह है जिसमें ख़िताब अहले ईमान से है, और सूरतुल बक़रह की तरह इसके ज़ेल में वही चार चीज़ें आ रही हैं: क़िताल, इन्फ़ाक़, अहकामे शरीअत और इबादात। दूसरी लड़ी में ख़िताब अहले किताब से है और इसमें नसारा और यहूद दोनों शामिल हैं। पहली दो सूरतों में यहूद व नसारा का मामला अलैहदा-अलैहदा था, जबकि इस सूरत में अहले किताब के ज़ेल में यह दोनों मिले-जुले हैं। तीसरी लड़ी इस सूरह मुबारका का वह सबसे बड़ा हिस्सा है जो मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब पर मुश्तमिल है, लेकिन अक्सर व बेशतर लोग वहाँ बात समझ नहीं पाते। इसलिये कि सीगा-ए-ख़िताब वहाँ भी “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا” होता है। वाज़ेह रहे कि पूरे क़ुरान में कहीं भी “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ نَافَقُوْا” के अल्फ़ाज़ नहीं आये। सीगा-ए-ख़िताब “يٰٓاَيُّهَا الْكٰفِرُوْنَ” भी है, “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ کَفَرُوْا” भी है और “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا” भी, लेकिन “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ نَافَقُوْا” कहीं नहीं है। इसलिये कि मुनाफ़िक़ भी क़ानूनन तो मुस्लमान ही होते थे। तो असल में यह पहचानने के लिये बड़ी गहरी नज़र की ज़रूरत है कि किसी मक़ाम पर “یٰٓاَیُّھَا الَّذِیْنَ اٰمَنُوْا” के अल्फ़ाज़ में रुए सुखन मोमिनीन सादिक़ीन की तरफ़ है या मुनाफ़िक़ीन की तरफ़। अगर यह फ़र्क़ ना किया जाये तो बाज़ मक़ामात पर बड़ी गलतफ़हमी हो जाती है। मसलन सूरह अत्त्तौबा का यह मक़ाम मुलाहिज़ा कीजिये: (आयत:38) { يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَا لَكُمْ اِذَا قِيْلَ لَكُمُ انْفِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اثَّاقَلْتُمْ اِلَى الْاَرْضِ ۭ } “ऐ अहले ईमान! तुम्हें क्या हो जाता है जब तुम्हें कहा जाता है कि निकलो अल्लाह की राह में तो तुम ज़मीन में धँसे जाते हो?” इस अन्दाज़े तखातब से एक आम सूए ज़न पैदा हो सकता है कि शायद यह आम मुसलमानों का हाल था। हालाँकि इस तर्ज़े अमल का मुज़ाहिरा मुसलमानों की तरफ़ से नहीं बल्कि मुनाफ़िक़ीन की तरफ़ से होता था और वहाँ यह आम मुसलमानों का नहीं, मुनाफ़िक़ीन का मसला था। चुनाँचे रुए सुखन मुनाफ़िक़ीन ही की तरफ़ है। मोमिनीन सादिक़ीन तो हर वक़्त खुले दिल से माल व जान की क़ुर्बानी के लिये आमादा रहते थे। गोया:
वापस नहीं फेरा कोई फ़रमान जूनून का
तन्हा नहीं लौटी कभी आवाज़ जरस की!
तो असल में देखना यह होता है कि किस आयत में रुए सुखन किसकी तरफ़ है।
मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब के ऐतबार से यह सूरह मुबारका अहमतरीन है। सूरतुल बक़रह में तो कहीं लफ्ज़ निफ़ाक़ आया ही नहीं। यह हिकमते खुदावन्दी है कि इस मर्ज़ को पहले छुपा कर रखा और इसकी सिर्फ़ अलामात बयान कर दीं कि जो कोई भी अपने अन्दर इन अलामात को देखे वह मुतनब्बा (सावधान) हो जाये और अपने इलाज की तरफ़ मुतवज्जा हो जाये। लेकिन जो लोग इस तरह मुतवज्जा नहीं होते तो मालूम हुआ कि उनको अब ज़रा नुमाया करना ज़रूरी है और बात ज़रा उरिया अंदाज़ से करनी पड़ेगी। चुनाँचे सूरह आले इमरान में एक-दो जगह निफ़ाक़ का लफ्ज़ आ गया। लेकिन अब यहाँ सूरतुन्निसा में सबसे बड़ा हिस्सा मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब पर मुश्तमिल है। मेरा तजज़िया यह है कि इस सूरत की 176 आयात में से 55 आयात में रुए सुखन मोमिनीन सादिक़ीन की तरफ़ है, सिर्फ़ 37 आयात में अहले किताब यानि यहूद व नसारा से मुश्तरक तौर पर ख़िताब है, जबकि 84 आयात में ख़िताब मुनाफ़िक़ीन से है। लेकिन याद रहे कि जहाँ भी उनसे बात होगी “يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا” के हवाले से होगी। इसलिये कि ईमान के दावेदार तो वह भी थे। मुनाफ़िक़ वही तो होता है जो ईमान का दावा करता है मगर हक़ीक़त में ईमान से तही दामन होता है, चाहे वह शऊरी तौर पर मुनाफ़िक़ हो चाहे ग़ैर शऊरी तौर पर।
सूरतुन्निसा और सूरतुल मायदा के माबैन एक फ़र्क़ नोट कर लीजिये। इंसानी तमद्दुन में सबसे बुनियादी चीज़ मआशरा है, और मआशरे में बुनियादी अहमियत औरत और मर्द के ताल्लुक़ को हासिल है। दूसरे यह कि मआशरे में कुछ कमज़ोर तबक़ात होते हैं, जिनके हुक़ूक़ का लिहाज़ करना ज़रूरी है। यह मज़मून आपको सूरतुन्निसा में मिलेगा। आइली क़वानीन सूरतुल बक़रह में तफ़सील से आ चुके हैं। एक मर्द और एक औरत के दरमियान अज़द्वाज का जो रिश्ता जुड़ता है जिससे फिर खानदान वजूद में आता है, जो मआशरे की बुनियादी इकाई (unit) और उसकी जड़ और बुनियाद है, इससे मुताल्लिक़ तफ़सीली हिदायात सूरतुल बक़रह में आ चुकी हैं। सूरह आले इमरान इस ऐतबार से मुनफ़रिद है कि उसमें शरीअत के अहकाम नहीं हैं, सिवाये उस एक हुक्म के जो सूद के बारे में आया है (आयत:130): {يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْ كُلُوا الرِّبٰٓوا اَضْعَافًا مُّضٰعَفَةً ۠ }। लेकिन अब यहाँ सूरतुन्निसा में तमद्दुन की मआशरती सतह पर मज़ीद हिदायात दी जा रही हैं। ख़ास तौर पर उस मआशरे के जो दबे हुए और पिसे हुए तबक़ात थे उनकी हुर्रियत व आज़ादी, उनके बेहतर मक़ाम और उनके हुक़ूक़ की तरफ़ मुतवज्जा किया जा रहा है।
मआशरे में जिन्स (sex) का मामला भी बहुत अहम है। किसी मआशरे में अगर जिन्सी मामलात पर क़दग़नें (control) ना हों और वह जिन्सी फ़साद का शिकार हो जाये तो वहाँ तबाही फैल जायेगी। इस ज़िमन में इब्तदाई अहकाम इस सूरत में आये हैं कि एक इस्लामी मआशरे में जिन्सी नज़्म व ज़ब्त (sex-discipline) कैसे क़ायम किया जाये और जिन्सी बेराहरवी से कैसे निबटा जाये। तो इस तरीक़े से तमद्दुन की बुनियादी मंज़िल पर गुफ्तुगू हो रही है। सूरतुल मायदा में तमद्दुन की बुलन्दतरीन मंज़िल रियासत ज़ेरे बहस आयेगी और आला सतह पर अदालती निज़ाम के लिये हिदायात दी जाएँगी कि चोरी, डाका वगैरह का सद्दे बाब कैसे किया जायेगा। इस ज़िमन में हुदूद व ताज़ीरात (सज़ाएँ) भी बयान की जाएँगी। बाक़ी सूरतुन्निसा की तरह सूरतुल मायदा में भी अहले किताब से फ़ैसलाकुन ख़िताब है।
मैंने आगाज़ में अर्ज़ किया था कि पहले ग्रुप की इन चार मदनी सूरतों में दो मज़मून मुतावाज़ी चलते हैं। पहला मज़मून शरीअते इस्लामी का है और सूरतुल बक़रह में अहकामे शरीअत का इब्तदाई ख़ाका दे दिया गया है, जबकि शरीअत के तकमीली अहकाम सूरतुल मायदा में हैं। इन सूरतों में दूसरा मज़मून अहले किताब से ख़िताब है और वह भी तदरीजन आगे बढ़ते हुए सूरतुल मायदा में अपनी तकमीली सूरत को पहुँचता है। चुनाँचे अहले किताब से आखरी और फ़ैसलाकुन बातें सूरतुल मायदा में मिलती हैं। इन तम्हीदी कलिमात के बाद अब हम इस सूरह मुबारका का मुताअला शुरू करते हैं।
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 10 तक
يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اتَّقُوْا رَبَّكُمُ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ وَّخَلَقَ مِنْھَا زَوْجَهَا وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيْرًا وَّنِسَاۗءً ۚ وَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْ تَسَاۗءَلُوْنَ بِهٖ وَالْاَرْحَامَ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيْبًا Ǻ وَاٰتُوا الْيَــتٰمٰٓى اَمْوَالَھُمْ وَلَا تَتَبَدَّلُوا الْخَبِيْثَ بِالطَّيِّبِ ۠ وَلَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَھُمْ اِلٰٓى اَمْوَالِكُمْ ۭ اِنَّهٗ كَانَ حُوْبًا كَبِيْرًا Ą وَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تُقْسِطُوْا فِي الْيَتٰمٰى فَانْكِحُوْا مَا طَابَ لَكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ مَثْنٰى وَثُلٰثَ وَرُبٰعَ ۚ فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تَعْدِلُوْا فَوَاحِدَةً اَوْ مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۭ ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَلَّا تَعُوْلُوْا Ǽۭ وَاٰتُوا النِّسَاۗءَ صَدُقٰتِهِنَّ نِحْلَةٍ ۭ فَاِنْ طِبْنَ لَكُمْ عَنْ شَيْءٍ مِّنْهُ نَفْسًا فَكُلُوْهُ هَنِيْۗــــــًٔـا مَّرِيْۗـــــــًٔـا Ć وَلَا تُؤْتُوا السُّفَھَاۗءَ اَمْوَالَكُمُ الَّتِىْ جَعَلَ اللّٰهُ لَكُمْ قِيٰـمًا وَّارْزُقُوْھُمْ فِيْھَا وَاكْسُوْھُمْ وَقُوْلُوْا لَھُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا Ĉ وَابْتَلُوا الْيَتٰمٰى ﱑ اِذَا بَلَغُوا النِّكَاحَ ۚ فَاِنْ اٰنَسْتُمْ مِّنْھُمْ رُشْدًا فَادْفَعُوْٓا اِلَيْھِمْ اَمْوَالَھُمْ ۚ وَلَا تَاْكُلُوْھَآ اِسْرَافًا وَّبِدَارًا اَنْ يَّكْبَرُوْا ۭ وَمَنْ كَانَ غَنِيًّا فَلْيَسْتَعْفِفْ ۚ وَمَنْ كَانَ فَقِيْرًا فَلْيَاْكُلْ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ فَاِذَا دَفَعْتُمْ اِلَيْھِمْ اَمْوَالَھُمْ فَاَشْهِدُوْا عَلَيْھِمْ ۭوَكَفٰى بِاللّٰهِ حَسِـيْبًا Č لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ ۠ وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ مِمَّا قَلَّ مِنْهُ اَوْ كَثُرَ ۭ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا Ċ وَاِذَا حَضَرَ الْقِسْمَةَ اُولُوا الْقُرْبٰي وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنُ فَارْزُقُوْھُمْ مِّنْهُ وَقُوْلُوْا لَھُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا Ď وَلْيَخْشَ الَّذِيْنَ لَوْ تَرَكُوْا مِنْ خَلْفِھِمْ ذُرِّيَّةً ضِعٰفًا خَافُوْا عَلَيْھِمْ ۠ فَلْيَتَّقُوا اللّٰهَ وَلْيَقُوْلُوْا قَوْلًا سَدِيْدًا Ḍ اِنَّ الَّذِيْنَ يَاْكُلُوْنَ اَمْوَالَ الْيَتٰمٰى ظُلْمًا اِنَّمَا يَاْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِھِمْ نَارًا ۭ وَسَيَصْلَوْنَ سَعِيْرًا 10ۧ
आयत 1
“ऐ लोगों अपने उस रब का तक़वा इख़्तियार करो जिसने तुम्हें एक जान से पैदा किया” | يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اتَّقُوْا رَبَّكُمُ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ |
देखिये मआशरती मसाइल के ज़िमन में गुफ्तुगू इस बुनियादी बात से शुरू की गयी है कि अपने खालिक़ व मालिक का तक़वा इख़्तियार करो।
“और उसी से उसका जोड़ा बनाया” | وَّخَلَقَ مِنْھَا زَوْجَهَا |
नोट कीजिये की यहाँ यह अल्फ़ाज़ नहीं हैं कि “उसने तुम्हें एक आदम से पैदा किया और उसी (आदम) से उसका जोड़ा बनाया”, बल्कि “نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ” (एक जान) का लफ्ज़ है। गोया इससे यह भी मुराद हो सकती है कि ऐन आदम (अलै०) ही से उनका जोड़ा बनाया गया हो, जैसा की बाज़ रिवायात से भी इशारा मिलता है, और यह भी मुराद हो सकती है कि आदम की नौअ से उनका जोड़ा बनाया गया, जैसा की बाज़ मुफ़स्सिरीन का ख्याल है। इसलिये कि नौअ एक है, जिन्सें दो हैं। इन्सान (Human Beings) नौअ (Species) एक है, लेकिन उसके अन्दर ही से जो जिन्सी तफ़रीक़ (Sexual differentiation) हुई है, उसके हवाले से उसका जोड़ा बनाया है।
“और उन दोनों से फैला दिये (ज़मीन में) कसीर तादाद में मर्द और औरतें।” | وَبَثَّ مِنْهُمَا رِجَالًا كَثِيْرًا وَّنِسَاۗءً ۚ |
“مِنْهُمَا” से मुराद यक़ीनन आदम व हव्वा हैं। यानि अगर आप इस तमद्दुने इंसानी का सुराग लगाने के लिये पीछे से पीछे जाएँगे तो आगाज़ में एक इंसानी जोड़ा (आदम व हव्वा) पाएँगे। इस रिश्ते से पूरी नौए इंसानी इस सतह पर जाकर रिश्ता-ए-अख़ुवत में मुन्सलिक (बंधन) हो जाती है। एक तो सगे बहन-भाई हैं। दादा-दादी पर जाकर cousins का हल्क़ा बन जाता है। इससे ऊपर परदादा-परदादी पर जाकर एक और वसीअ हल्क़ा बन जाता है। इसी तरह चलते जाइये तो मालूम होगा कि पूरी नौए इंसानी बिलआखिर एक जोड़े (आदम व हव्वा) की औलाद है।
“और तक़वा इख़्तियार करो उस अल्लाह का जिसका तुम एक-दूसरे को वास्ता देते हो, और रहमी रिश्तों का लिहाज़ रखो।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ الَّذِيْ تَسَاۗءَلُوْنَ بِهٖ وَالْاَرْحَامَ ۭ |
तक़वा की ताकीद मुलाहिज़ा कीजिये कि एक ही आयत में दूसरी मर्तबा फिर तक़वा का हुक्म है। फ़रमाया कि उस अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो जिसका तुम एक-दूसरे को वास्ता देते हो। आपको मालूम है कि फ़क़ीर भी माँगता है तो अल्लाह के नाम पर माँगता है, अल्लाह के वास्ते माँगता है, और अक्सर व बेशतर जो तमद्दुनी मामलात होते हैं उनमें भी अल्लाह का वास्ता दिया जाता है। घरेलू झगड़ों को जब निबटाया जाता है तो आखिरकार कहना पड़ता है कि अल्लाह का नाम मानो और अपनी इस ज़िद से बाज़ आ जाओ! तो जहाँ आखरी अपील अल्लाह ही के हवाले से करनी है तो अगर उसका तक़वा इख़्तियार करो तो यह झगड़े होंगे ही नहीं। उसने इस मआशरे के मुख्तलिफ़ तबक़ात के हुक़ूक़ मुअय्यन कर दिये हैं, मसलन मर्द और औरत के हुक़ूक़, रब्बुल माल और आमिल के हुक़ूक़, फ़र्द और इज्तमाइयत के हुक़ूक़ वगैरह। अगर अल्लाह के अहकाम की पैरवी की जाये और उसके आयद करदा हुक़ूक़ व फ़राइज़ की पाबन्दी की जाये तो झगड़ा नहीं होगा।
मज़ीद फ़रमाया की रहमी रिश्तों का लिहाज़ रखो! जैसा की अभी बताया गया कि रहमी रिश्तों का अव्वलीन दायरा बहन-भाई हैं, जो अपने वालिदैन की औलाद हैं। फिर दादा-दादी पर जाकर एक बड़ी तादाद पर मुश्तमिल दूसरा दायरा वजूद में आता है। यह रहमी रिश्ते हैं। इन्हीं रहमी रिश्तों को फैलाते जाइये तो कुल बनी आदम और कुल बिनाते हव्वा सब एक ही नस्ल से हैं, एक ही बाप और एक ही माँ की औलाद हैं।
“यक़ीनन अल्लाह तुम पर निगरान है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلَيْكُمْ رَقِيْبًا Ǻ |
यह तक़वा की रूह है। अगर हर वक़्त यह ख्याल रहे कि कोई मुझे देख रहा है, मेरा हर अमल उसकी निगाह में है, कोई अमल उससे छुपा हुआ नहीं है तो इन्सान का दिल अल्लाह के तक़वे से मामूर हो जायेगा। अगर यह इस्तेहज़ार (ध्यान) रहे कि चाहे मैंने सब दरवाज़े और खिड़कियाँ बंद कर दीं और परदे गिरा दिये हैं लेकिन एक आँख से मैं नहीं छुप सकता तो यही तक़वा है। और अगर तक़वा होगा तो फिर अल्लाह के हर हुक्म की पाबन्दी की जायेगी।
यह हिकमते नबवी है कि इस आयत को नबी अकरम ﷺ ने ख़ुत्बा-ए-निकाह में शामिल फ़रमाया। निकाह का मौक़ा वह होता है कि एक मर्द और एक औरत के दरमियान रिश्ता-ए-अज़द्वाज क़ायम हो रहा है। यानि आदम का एक बेटा और हव्वा की एक बेटी फिर उसी रिश्ते में मुन्सलिक हो रहे हैं जिसमें आदम और हव्वा थे। जिस तरह उन दोनों से नस्ल फैली है उसी तरह अब इन दोनों से नस्ल आगे बढ़ेगी। लेकिन इस पूरे मआशरती मामले में, खानदानी मामलात में, आइली मामलात में अल्लाह का तक़वा इन्तहाई अहम है। जैसे हमने सूरतुल बक़रह में देखा कि बार-बार { وَاتَّقُوا اللّٰهَ } की ताकीद फ़रमायी गयी। इसलिये कि अगर तक़वा नहीं होगा तो फिर खाली क़ानून मौअस्सर नहीं होगा। क़ानून को तो तख़्ता-ए-मश्क़ भी बनाया जा सकता है कि बज़ाहिर क़ानून का तक़ाज़ा पूरा हो रहा हो लेकिन उसकी रूह बिल्कुल ख़त्म होकर रह जाये। सूरतुल बक़रह में इसी तर्ज़े अमल के बारे में फ़रमाया गया कि: { وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اٰيٰتِ اللّٰهِ ھُزُوًا ۡ } (आयत:231) “और अल्लाह की आयात को मज़ाक़ ना बना लो।”
आयत 2
“और यतीमों के माल उनके हवाले कर दो” | وَاٰتُوا الْيَــتٰمٰٓى اَمْوَالَھُمْ |
मआशरे के दबे हुए तबक़ात में से यतीम एक अहम तबक़ा था। दौरे जाहिलियत में उनके कोई हुक़ूक़ नहीं थे और उनके माल हड़प कर लिये जाते थे। वह बहुत कमज़ोर थे।
“और (अपने) बुरे माल को (उनके) अच्छे माल से ना बदलो” | وَلَا تَتَبَدَّلُوا الْخَبِيْثَ بِالطَّيِّبِ ۠ |
ऐसा हरगिज़ ना हो कि यतीमों के माल में से अच्छा-अच्छा ले लिया और अपना रद्दी माल उसमें शामिल कर दिया।
“और उनके माल अपने मालों में शामिल करके हड़प ना करो।” | وَلَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَھُمْ اِلٰٓى اَمْوَالِكُمْ ۭ |
“यक़ीनन यह बहुत बड़ा गुना है।” | اِنَّهٗ كَانَ حُوْبًا كَبِيْرًا Ą |
यतीमों के बाज़ सरपरस्त जो तक़वा और खौफ़-ए-ख़ुदा से तही दामन होते हैं, अव्वल तो उनका माल हड़प कर जाते हैं, और अगर ऐसा ना भी करें तो उनका अच्छा माल ख़ुर्द-बर्द (गबन) करके अपना रद्दी और बेकार माल उसमें शामिल कर देते हैं और इस तरह तादाद पूरी कर देते हैं। फिर ऐसा भी होता है कि उनके माल को अपने माल के साथ मिला लेते हैं ताकि उसे बाआसानी हड़प कर सकें। उनको ऐसे सब हथकण्डों से रोक दिया गया।
आयत 3
“और अगर तुम्हें अन्देशा हो कि तुम यतीम बच्चियों के बारे में इन्साफ़ नहीं कर सकोगे” | وَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تُقْسِطُوْا فِي الْيَتٰمٰى |
“तो (उन्हें अपने निकाह में ना लाओ बल्कि) जो औरतें तुम्हें पसंद हों उनसे निकाह कर लो दो-दो, तीन-तीन, चार-चार तक।” | فَانْكِحُوْا مَا طَابَ لَكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ مَثْنٰى وَثُلٰثَ وَرُبٰعَ ۚ |
इस आयत में “यतामा” से मुराद यतीम बच्चियाँ और ख़्वातीन हैं। यतीम लड़के तो उम्र की एक ख़ास हद को पहुँचने के बाद अपनी आज़ाद मर्ज़ी से ज़िन्दगी गुज़ार लेते थे, लेकिन यतीम लड़कियों का मामला यह होता था कि उनके वली और सरपरस्त उनके साथ निकाह भी कर लेते थे। इस तरह यतीम लड़कियों के माल भी उनके क़ब्ज़े में आ जाते थे, और यतीम लड़कियों के पीछे उनके हुक़ूक़ की निगहदाश्त करने वाला भी कोई नहीं होता था। अगर माँ-बाप होते तो ज़ाहिर है कि वह बच्ची के हुक़ूक़ के बारे में भी कोई बात करते। लिहाज़ा उनका कोई परसाने हाल नहीं होता था। चुनाँचे फ़रमाया गया कि अगर तुम्हें अन्देशा हो कि तुम उनके बारे में इन्साफ़ नहीं कर सकोगे तो फिर तुम उन यतीम बच्चियों से निकाह मत करो, बल्कि दूसरी औरतें जो तुम्हें पसंद हों उनसे निकाह करो। अगर ज़रूरत हो तो दो-दो, तीन-तीन, चार-चार की हद तक निकाह कर सकते हो, इसकी तुम्हें इजाज़त है। लेकिन तुम यतीम बच्चियों के वली बन कर उनकी शादियाँ कहीं और करो ताकि तुम उनके हुक़ूक़ के पासबान बन कर खड़े हो सको। वरना अगर तुमने उनको अपने घरों में डाल लिया तो कौन होगा जो उनके हुक़ूक़ के बारे में तुमसे बाज़पुर्स कर सके? मुन्करीन सुन्नत और मुन्करीन हदीस ने इस आयत की मुख्तलिफ़ ताबीरात की हैं, जो यहाँ बयान नहीं की जा सकतीं। इसका सही मफ़हूम यही है जो सलफ़ से चला आ रहा है और जो हज़रत आयशा सिद्दीक़ा (रज़ि०) से मरवी है। मज़ीद बराँ तादादे अज़द्वाज के बारे में यही एक आयत क़ुरान मजीद में है। इस आयत की रू से तादादे अज़द्वाज को महदूद किया गया है और चार से ज़्यादा बीवियाँ रखने को ममनूअ (prohibited) कर दिया गया है।
“लेकिन अगर तुम्हें अन्देशा हो कि उनके दरमियान अद्ल ना कर सकोगे तो फिर एक ही पर बस करो” | فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تَعْدِلُوْا فَوَاحِدَةً |
यह जो हमने इजाज़त दी है कि दो-दो, तीन-तीन, चार-चार औरतों से निकाह कर लो, इसकी शर्ते लाज़िम यह है कि बीवियों के दरमियान अद्ल करो। अगर तम्हें अन्देशा हो कि इस शर्त को पूरा नहीं कर सकोगे और उनमें बराबरी ना कर सकोगे तो फिर एक ही शादी करो, इससे ज़्यादा नहीं। बीवियों के माबैन अद्ल व इन्साफ़ में हर उस चीज़ का ऐतबार होगा जो शुमार में आ सकती है। मसलन हर बीवी के पास जो वक़्त गुज़ारा जाये उसमें मसावात होनी चाहिये। नान-नफ्क़ा, ज़ेवरात, कपड़े और दीगर माल व असबाब, गर्ज़ यह कि तमाम माद्दी चीज़ें जो देखी-भाली जा सकती हैं उनमें इन्साफ़ और अद्ल लाज़िम है। अलबत्ता दिली मैलान और रुझान जिस पर इन्सान को क़ाबू नहीं होता, उसमें गिरफ़्त नहीं है।
“या वह औरतें जो तुम्हारी मिल्के यमीन हों।” | اَوْ مَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۭ |
यानि वह औरतें जो जंगों में गिरफ़्तार होकर आईं और हुकूमत की तरफ़ से लोगों में तक़सीम कर दी जायें। वह एक अलैहदा मामला है और उनकी तादाद पर कोई तहदीद नहीं है।
“यह इससे क़रीबतर है कि तुम एक ही तरफ़ को ना झुक पड़ो।” | ذٰلِكَ اَدْنٰٓى اَلَّا تَعُوْلُوْا Ǽۭ |
कि बस एक ही बीवी की तरफ़ मैलान है और, जैसा कि आगे आयेगा, मुअल्लक़ होकर रह गयी हैं कि ना वह शौहर वालियाँ हैं और ना आज़ाद हैं कि कहीं और निकाह कर लें।
आयत 4
“और औरतों को उनके महर खुशदिली के साथ दिया करो।” | وَاٰتُوا النِّسَاۗءَ صَدُقٰتِهِنَّ نِحْلَةٍ ۭ |
औरतों के महर तावान समझ कर ना दिया करो, बल्कि फ़र्ज़ जानते हुए अदा किया करो। صِدَاقٌ صَدُقَاتٌ की जमा है, जबकि صَدَقَۃٌ की जमा صَدَقَاتٌ आती है।
“फिर अगर वह ख़ुद अपनी रज़ामंदी से उसमें से कोई चीज़ तुम्हें छोड़ दें” | فَاِنْ طِبْنَ لَكُمْ عَنْ شَيْءٍ مِّنْهُ نَفْسًا |
तुमने जो महर मुक़र्रर किया था वह उन्हें अदा कर दिया, अब वह तुम्हें उसमें से कोई चीज़ हदिया कर रही हैं, तोहफ़ा दे रही हैं तो कोई हर्ज नहीं।
“तो तुम उसको खाओ मज़े से ख़ुशग्वारी से।” | فَكُلُوْهُ هَنِيْۗــــــًٔـا مَّرِيْۗـــــــًٔـا Ć |
तुम उसे बेखटके इस्तेमाल में ला सकते हो, इसमें कोई हर्ज नहीं है। लेकिन यह हो उनकी मर्ज़ी से, ज़बरदस्ती और ज़बर करके ना ले लिया जाये।
आयत 5
“और मत पकड़ा दो नासमझों को अपने वह माल जिनको अल्लाह ने तुम्हारे गुज़रान का ज़रिया बनाया है” | وَلَا تُؤْتُوا السُّفَھَاۗءَ اَمْوَالَكُمُ الَّتِىْ جَعَلَ اللّٰهُ لَكُمْ قِيٰـمًا |
मआशरे में एक तबक़ा ऐसा भी होता है जो नादानों और नासमझ लोगों (سُفَھاء) पर मुश्तमिल होता है। इनमें बच्चे भी शामिल हैं जो अभी सन शऊर को नहीं पहुँचे। ऐसे बच्चे अगर यतीम हो जायें तो वह विरासत में मिलने वाले माल को अलल्लो-तलल्लो में उड़ा सकते हैं। लिहाज़ा यहाँ हिदायत की गयी है कि ऐसे माल के बेजा इस्तेमाल की मआशरती सतह पर रोकथाम होनी चाहिये। यह तसव्वुर नाक़ाबिले क़ुबूल है कि मेरा माल है, मैं जैसे चाहूँ ख़र्च करूँ! चुनाँचे इस माल को “اَمْوَالَکُمْ” कहा गया कि यह असल में मआशरे की मुश्तरिक बहबूद (कल्याण) के लिये है। अगरचे इन्फ़रादी मिल्कियत है, लेकिन फिर भी इसे मआशरे की मुश्तरिक बहबूद में ख़र्च होना चाहिये।
“हाँ उन्हें उसमें से खिलाते और पहनाते रहो” | وَّارْزُقُوْھُمْ فِيْھَا وَاكْسُوْھُمْ |
“और उनसे बात किया करो अच्छे अंदाज़ में।” | وَقُوْلُوْا لَھُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا Ĉ |
इसी उसूल के तहत बिरतानवी दौर के हिन्दुस्तान में Court of wards मुक़र्रर कर दिये जाते थे। अगर कोई बड़ा जागीरदार या नवाब फ़ौत हो जाता और यह अन्देशा महसूस होता कि उसका बेटा आवारा है और वह सब कुछ उड़ा देगा, ख़त्म कर देगा तो हुकूमत उस मीरास को अपनी हिफ़ाज़त में ले लेती और वुरसा के लिये उसमें से सालाना वज़ीफ़ा मुक़र्रर कर देती। बाक़ी सब माल व असबाब जमा रहता था ताकि यह उनकी आइन्दा नस्ल के काम आ सके।
आयत 6
“और यतीमों की जाँच-परख करते रहो यहाँ तक कि वह निकाह की उम्र को पहुँच जायें।” | وَابْتَلُوا الْيَتٰمٰى ﱑ اِذَا بَلَغُوا النِّكَاحَ ۚ |
“फिर अगर तुम उनके अन्दर सूझ-बूझ पाओ” | فَاِنْ اٰنَسْتُمْ مِّنْھُمْ رُشْدًا |
तुम महसूस करो कि अब यह बाशऊर हो गये हैं, समझदार हो गये हैं।
“तो उनके अमवाल उनके हवाले कर दो।” | فَادْفَعُوْٓا اِلَيْھِمْ اَمْوَالَھُمْ ۚ |
“और तुम उसे हड़प ना कर जाओ इसराफ़ और जल्दीबाज़ी करके (इस डर से) कि वह बड़े हो जाएँगे।” | وَلَا تَاْكُلُوْھَآ اِسْرَافًا وَّبِدَارًا اَنْ يَّكْبَرُوْا ۭ |
ऐसा ना हो कि तुम यतीमों का माल ज़रूरत से ज़्यादा और जल्दबाज़ी में ख़र्च करने लगो, इस ख्याल से कि बच्चे जवान हो जाएँगे तो यह माल उनके हवाले करना है, लिहाज़ा इससे पहले-पहले हम इसमें से जितना हड़प कर सकें कर जायें।
“और जो कोई ग़नी हो उसको चाहिये कि वह परहेज़ करे।” | وَمَنْ كَانَ غَنِيًّا فَلْيَسْتَعْفِفْ ۚ |
यतीम का वली अगर ख़ुद ग़नी है, अल्लाह ने उसको दे रखा है, उसके पास कशाइश है तो उसे यतीम के माल में से कुछ भी लेने का हक़ नहीं है। फिर उसे यतीम के माल से बचते रहना चाहिये।
“और जो कोई मोहताज हो तो खाये दस्तूर के मुताबिक़।” | وَمَنْ كَانَ فَقِيْرًا فَلْيَاْكُلْ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ |
अगर कोई ख़ुद तंगदस्त है, मोहताज है और वह यतीम की निगहदाश्त भी कर रहा है, उसका कुछ वक़्त भी उस पर सर्फ़ हो रहा है तो मारूफ़ तरीक़े से अगर वह यतीम के माल में से कुछ खा भी ले तो कुछ हर्ज नहीं है। इस्लाम की तालीम बड़ी फ़ितरी है, इसमें ग़ैरफ़ितरी बन्दिशें नहीं हैं जिन पर अमल करना नामुमकिन हो जाये।
“फिर जब तुम उनके माल उनके हवाले करो तो इस पर गवाह ठहरा लो।” | فَاِذَا دَفَعْتُمْ اِلَيْھِمْ اَمْوَالَھُمْ فَاَشْهِدُوْا عَلَيْھِمْ ۭ |
उनका माल व मताअ गवाहों की मौजूदगी में उनके हवाले किया जाये कि उनकी यह-यह चीज़ें आज तक मेरी तहवील में थीं, अब मैंने इनके हवाले कर दीं।
“और अल्लाह काफ़ी है हिसाब लेने के लिये।” | وَكَفٰى بِاللّٰهِ حَسِـيْبًا Č |
यह दुनिया का मामला है कि इसके लिये लिखत-पढ़त और शहादत है। बाक़ी असल हिसाब तो तुम्हें अल्लाह के यहाँ जाकर देना है।
आयत 7
“मर्दों के लिये भी हिस्सा है उसमें से जो तरका छोड़ा हो वालिदैन ने और रिश्तेदारों ने” | لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ ۠ |
“और औरतों का भी हिस्सा है उसमें से जो तरका है वालिदैन और रिश्तेदारों का” | وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ |
यहाँ अब पहली मरतबा औरतों को विरासत का हक़ दिया जा रहा है, वरना क़ब्ल अज़ इस्लाम अरब मआशरे में औरत का कोई हक़ विरासत नहीं था।
“चाहे वह विरासत थोड़ी हो या ज़्यादा हो।” | مِمَّا قَلَّ مِنْهُ اَوْ كَثُرَ ۭ |
अल्लाह तआला का क़ानून इस पर हर सूरत में पूरी तरह नाफ़िज़ होना चाहिये।
“यह हिस्सा है (अल्लाह की तरफ़ से) फ़र्ज़ किया गया।” | نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا Ċ |
आगे आप देखेंगे कि इस क़ानूने विरासत की किस तरह बार-बार ताकीद आ रही है। साथ ही आप यह भी देखते रहें कि हमारे मआशरे के अन्दर अल्लाह तआला के इस हुक्म की किस तरह धज्जियाँ बिखरती हैं। ख़ास तौर पर हमारे शिमाली इलाक़े में वैसे तो नमाज़ रोज़े का बहुत अहतमाम होता है, लेकिन वहाँ के लोग बेटियों को विरासत में हिस्सा देने को किसी सूरत तैयार नहीं होते, बल्कि अपने रिवाज की पैरवी करते हैं। शरीअत की कुछ चीज़ें बहुत अहम हैं और क़ुरान में उनका हुक्म इन्तहाई ताकीद के साथ आता है।
आयत 8
“और जब हाज़िर हो तक़सीम के वक़्त क़राबतदार और यतीम और मोहताज” | وَاِذَا حَضَرَ الْقِسْمَةَ اُولُوا الْقُرْبٰي وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنُ |
जब विरासत की तक़सीम हो रही हो तो अब अगर वहाँ कुछ क़राबतदार, कुछ यतीम और कुछ मोहताज भी आ जायें।
“तो उन्हें भी कुछ दे दिला दो उसमें से और उनसे माक़ूल अंदाज़ में बात करो।” | فَارْزُقُوْھُمْ مِّنْهُ وَقُوْلُوْا لَھُمْ قَوْلًا مَّعْرُوْفًا Ď |
वह देख रहे हैं कि इस वक़्त विरासत तक़सीम हो रही है और वह बिल्कुल मोहताज हैं, तो उनके अहसासे महरूमियत का जो भी मदावा हो सकता है करो, और उनसे बड़े अच्छे अंदाज़ में बात करो। उन्हें झिड़को नहीं कि हमारी विरासत तक़सीम हो रही है और यहाँ तुम कौन आ गये हो?
आयत 9
“और डरते रहना चाहिये उन लोगों को कि अगर उन्होंने भी छोड़े होते अपने पीछे ना तवाँ (कमज़ोर) बच्चे तो उनके बारे में उन्हें कैसे-कैसे अन्देशे होते।” | وَلْيَخْشَ الَّذِيْنَ لَوْ تَرَكُوْا مِنْ خَلْفِھِمْ ذُرِّيَّةً ضِعٰفًا خَافُوْا عَلَيْھِمْ ۠ |
“तो उन्हें चाहिये कि अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करें” | فَلْيَتَّقُوا اللّٰهَ |
उन्हें यह ख्याल करना चाहिये कि यह यतीम जो इस वक़्त आ गये हैं यह भी किसी के बच्चे हैं, जिनके सर पर बाप का साया नहीं रहा। लिहाज़ा वह उनके सर पर शफक्क़त का हाथ रखें।
“और सीधी-सीधी (हक़ पर मब्नी) बात करें।” | وَلْيَقُوْلُوْا قَوْلًا سَدِيْدًا Ḍ |
आयत 10
“यक़ीनन वह लोग जो यतीमों का माल हड़प करते हैं नाहक़” | اِنَّ الَّذِيْنَ يَاْكُلُوْنَ اَمْوَالَ الْيَتٰمٰى ظُلْمًا |
“वह तो अपने पेटों में आग ही भर रहे हैं।” | اِنَّمَا يَاْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِھِمْ نَارًا ۭ |
“और वह अनक़रीब भड़कती आग में दाख़िल होंगे।” | وَسَيَصْلَوْنَ سَعِيْرًا 10ۧ |
अन्दर की आग तो वह ख़ुद अपने पेटों में डाल रहे हैं और वह ख़ुद भी समूचे दोज़ख़ की भड़कती आग में डाल दिये जाएँगे। गोया एक आग उनके अन्दर होगी और एक वसीअ व अरीज़ आग उनके बाहर होगी। यह दस आयतें बड़ी जामेअ हैं, जिनमें उस मआशरे के पसमान्दा तबक़ात में से एक-एक का ख्याल करके निहायत बारीक बीनी और हिकमत के साथ अहकाम दिये गये हैं।
आयात 11 से 14 तक
يُوْصِيْكُمُ اللّٰهُ فِيْٓ اَوْلَادِكُمْ ۤ لِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَيَيْنِ ۚ فَاِنْ كُنَّ نِسَاۗءً فَوْقَ اثْنَتَيْنِ فَلَھُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَ ۚ وَاِنْ كَانَتْ وَاحِدَةً فَلَھَا النِّصْفُ ۭ وَلِاَبَوَيْهِ لِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا السُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ اِنْ كَانَ لَهٗ وَلَدٌ ۚ فَاِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهٗ وَلَدٌ وَّوَرِثَهٗٓ اَبَوٰهُ فَلِاُمِّهِ الثُّلُثُ ۚ فَاِنْ كَانَ لَهٗٓ اِخْوَةٌ فَلِاُمِّهِ السُّدُسُ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصِيْ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۭ اٰبَاۗؤُكُمْ وَاَبْنَاۗؤُكُمْ لَا تَدْرُوْنَ اَيُّھُمْ اَقْرَبُ لَكُمْ نَفْعًا ۭ فَرِيْضَةً مِّنَ اللّٰهِ ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيْمًا حَكِـيْمًا 11 وَلَكُمْ نِصْفُ مَا تَرَكَ اَزْوَاجُكُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّھُنَّ وَلَدٌ ۚ فَاِنْ كَانَ لَھُنَّ وَلَدٌ فَلَكُمُ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْنَ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصِيْنَ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۭوَلَھُنَّ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْتُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّكُمْ وَلَدٌ ۚ فَاِنْ كَانَ لَكُمْ وَلَدٌ فَلَھُنَّ الثُّمُنُ مِمَّا تَرَكْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ تُوْصُوْنَ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۭ وَاِنْ كَانَ رَجُلٌ يُّوْرَثُ كَلٰلَةً اَوِ امْرَاَةٌ وَّلَهٗٓ اَخٌ اَوْ اُخْتٌ فَلِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا السُّدُسُ ۚ فَاِنْ كَانُوْٓا اَكْثَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَھُمْ شُرَكَاۗءُ فِي الثُّلُثِ مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصٰى بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۙغَيْرَ مُضَاۗرٍّ ۚ وَصِيَّةً مِّنَ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَلِيْمٌ 12ۭ تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ ۭ وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ يُدْخِلْهُ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَا ۭ وَذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ 13 وَمَنْ يَّعْصِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَيَتَعَدَّ حُدُوْدَهٗ يُدْخِلْهُ نَارًا خَالِدًا فِيْھَا ۠ وَلَهٗ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ 14ۧ
सूरतुन्निसा का दूसरा रुकूअ बड़ा मुख़्तसर है और इसमें सिर्फ़ चार आयात हैं, लेकिन मानवी तौर पर इनमें एक क़यामत मुज़मर है। यह क़ुरान हकीम का ऐजाज़ है कि चार आयतों के अन्दर इस्लाम का पूरा क़ानूने विरासत बयान कर दिया गया है जिस पर पूरी-पूरी जिल्दें लिखी गयी हैं। गोया जामिअत की इन्तहा है।
आयत 11
“अल्लाह तआला तुम्हें वसीयत करता है तुम्हारी औलाद के बारे में” | يُوْصِيْكُمُ اللّٰهُ فِيْٓ اَوْلَادِكُمْ ۤ |
“कि लड़के के लिये हिस्सा है दो लड़कियों के बराबर” | لِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَيَيْنِ ۚ |
“फिर अगर लड़कियाँ ही हों (दो या) दो से ज़्यादा तो उनके लिये तरके का दो तिहाई है।” | فَاِنْ كُنَّ نِسَاۗءً فَوْقَ اثْنَتَيْنِ فَلَھُنَّ ثُلُثَا مَا تَرَكَ ۚ |
“और अगर एक ही लड़की है तो उसके लिये आधा है।” | وَاِنْ كَانَتْ وَاحِدَةً فَلَھَا النِّصْفُ ۭ |
ज़ाहिर है अगर एक ही बेटा है तो वह पूरे तरके का वारिस हो जायेगा। लिहाज़ा जब बेटी का हिस्सा बेटे से आधा है तो अगर एक ही बेटी है तो उसे आधी विरासत मिलेगी, आधी दूसरे लोगों को जायेगी। वह एक अलैहदा मामला है।
“और मय्यत के वालिदैन में से हर एक के लिये छठा हिस्सा है जो उसने छोड़ा अगर मय्यत के औलाद हो।” | وَلِاَبَوَيْهِ لِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا السُّدُسُ مِمَّا تَرَكَ اِنْ كَانَ لَهٗ وَلَدٌ ۚ |
अगर कोई शख्स फ़ौत हो जाये और उसके वालिदैन या दोनों में से कोई एक ज़िन्दा हो तो उसकी विरासत में से उनका भी मुअय्यन हिस्सा है। अगर वफ़ात पाने वल शख्स साहिबे औलाद है तो उसके वालिदैन में से हर एक के लिये विरासत में छठा हिस्सा है। यानि मय्यत के तरके में से एक तिहाई वालिदैन को चला जायेगा और दो तिहाई औलाद में तक़सीम होगा।
“और अगर उसके औलाद ना हो और उसके वारिस माँ-बाप ही हों तो उसकी माँ का एक तिहाई है।” | فَاِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهٗ وَلَدٌ وَّوَرِثَهٗٓ اَبَوٰهُ فَلِاُمِّهِ الثُّلُثُ ۚ |
अगर कोई शख्स लावलद फ़ौत हो जाये तो उसके तरके में से उसकी माँ को एक तिहाई और बाप को दो तिहाई मिलेगा। यानि बाप का हिस्सा माँ से दो गुना हो जायेगा।
“फिर अगर मय्यत के बहन-भाई हों तो उसकी माँ का छठा हिस्सा है” | فَاِنْ كَانَ لَهٗٓ اِخْوَةٌ فَلِاُمِّهِ السُّدُسُ |
अगर मरने वाला बेऔलाद हो लेकिन उसके बहन-भाई हों तो इस सूरत में माँ का हिस्सा मज़ीद कम होकर एक तिहाई के बजाये छठा हिस्सा रह जायेगा और बाक़ी बाप को मिलेगा, लेकिन बहन-भाइयों को कुछ ना मिलेगा। वह बाप की तरफ़ से विरासत के हक़दार होंगे। लेकिन साथ ही फ़रमा दिया:
“बाद उस वसीयत की तकमील के जो वह कर जाये या बाद अदाये क़र्ज़ के।” | مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصِيْ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۭ |
विरासत की तक़सीम से पहले दो काम कर लेने ज़रूरी हैं। एक यह कि अगर उस शख्स के ज़िम्मे कोई क़र्ज़ है तो वह अदा किया जाये। और दूसरे यह कि अगर उसने कोई वसीयत की है तो उसको पूरा किया जाये। फिर विरासत तक़सीम होगी।
“तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे, तुम नहीं जानते कि उनमें से कौन तुम्हारे लिये ज़्यादा नाफ़ेअ है।” | اٰبَاۗؤُكُمْ وَاَبْنَاۗؤُكُمْ لَا تَدْرُوْنَ اَيُّھُمْ اَقْرَبُ لَكُمْ نَفْعًا ۭ |
“यह अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किया हुआ फ़रीज़ा है।” | فَرِيْضَةً مِّنَ اللّٰهِ ۭ |
तुम अपनी अक़्लों को छोड़ो और अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर करदा हिस्सों के मुताबिक़ विरासत तक़सीम करो। कोई आदमी यह समझे कि मेरे बूढ़े वालिदैन हैं, मेरी विरासत में ख्वाह मा ख्वाह उनके लिये हिस्सा क्यों रख दिया गया है? यह तो खा पी चुके, ज़िन्दगी गुज़र चुके, विरासत तो अब मेरी औलाद ही को मिलनी चाहिये, तो यह सोच बिल्कुल ग़लत है। तुम्हें बस अल्लाह का हुक्म मानना है।
“यक़ीनन अल्लाह तआला इल्म व हिकमत वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيْمًا حَكِـيْمًا 11 |
उसका कोई हुक्म इल्म और हिकमत से खाली नहीं है।
आयत 12
“और तुम्हारा हिस्सा तुम्हारी बीवियों के तरके में से आधा है अगर उनके कोई औलाद ना हो।” | وَلَكُمْ نِصْفُ مَا تَرَكَ اَزْوَاجُكُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّھُنَّ وَلَدٌ ۚ |
बीवी फ़ौत हो गयी है और उसके कोई औलाद नहीं है तो जो वह छोड़ गयी है उसमें से निस्फ़ शौहर का हो जायेगा। बाक़ी जो निस्फ़ है वह मरहूमा के वालिदैन और बहन-भाइयों में हस्बे क़ायदा तक़सीम होगा।
“और अगर उनके औलाद है तो तो तुम्हारे लिये चौथाई है उसमें से जो उन्होंने छोड़ा” | فَاِنْ كَانَ لَھُنَّ وَلَدٌ فَلَكُمُ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْنَ |
“बाद उस वसीयत की तामील के जो वह कर जायें या बाद अदाये क़र्ज़ के।” | مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصِيْنَ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۭ |
अगर मरने वाली ने औलाद छोड़ी है तो मौजूदा शौहर को मरहूमा के माल से अदाये देन व इन्फ़ाज़े वसीयत के बाद कुल माल का चौथाई हिस्सा मिलेगा और बाक़ी तीन चौथाई दूसरे वुरसा में तक़सीम होगा।
“और उनके लिये चौथाई है तुम्हारे तरके का अगर तुम्हारे औलाद नहीं है।” | وَلَھُنَّ الرُّبُعُ مِمَّا تَرَكْتُمْ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّكُمْ وَلَدٌ ۚ |
“और अगर तुम्हारे औलाद है तो उनके लिये आठवाँ हिस्सा है तुम्हारे तरके में से” | فَاِنْ كَانَ لَكُمْ وَلَدٌ فَلَھُنَّ الثُّمُنُ مِمَّا تَرَكْتُمْ |
“उस वसीयत की तामील के बाद जो तुमने की हो या क़र्ज़ अदा करने के बाद।” | مِّنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ تُوْصُوْنَ بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۭ |
अगर मरने वाले ने कोई औलाद नहीं छोड़ी तो अदाये देन व इन्फ़ाज़े वसीयत के बाद उसकी बीवी को उसके तरके का चौथाई मिलेगा, और अगर उसने कोई औलाद छोड़ी है तो इस सूरत में बाद अदाये देन व वसीयत के बीवी को आठवाँ हिस्सा मिलेगा। अगर बीवी एक से ज़्यादा हैं तो भी मज़कूरा हिस्सा सब बीवियों में तक़सीम हो जायेगा।
“और अगर कोई शख्स जिसकी विरासत तक़सीम हो रही है कलाला हो, या औरत हो ऐसी ही” | وَاِنْ كَانَ رَجُلٌ يُّوْرَثُ كَلٰلَةً اَوِ امْرَاَةٌ |
“कलाला” वह मर्द या औरत है जिसके ना तो वालिदैन ज़िन्दा हों और ना उसकी कोई औलाद हो।
“और उसका एक भाई या एक बहन हो तो उनमें से हर एक के लिये छठा हिस्सा है।” | وَّلَهٗٓ اَخٌ اَوْ اُخْتٌ فَلِكُلِّ وَاحِدٍ مِّنْهُمَا السُّدُسُ ۚ |
“और अगर वह इससे ज़्यादा हों तो वह सब एक तिहाई में शरीक होंगे” | فَاِنْ كَانُوْٓا اَكْثَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَھُمْ شُرَكَاۗءُ فِي الثُّلُثِ |
मुफ़स्सिरीन का इज्माअ है कि यहाँ कलाला की मीरास के हुक्म में भाई और बहनों से मुराद अख्याफ़ी (माँ शरीक) भाई और बहन हैं। रहे ऐनी और अलाती भाई-बहन तो उनका हुक्म इसी सूरत के आखिर में इरशाद हुआ है। अरबों में दरअसल तीन क़िस्म के बहन-भाई होते हैं। एक “ऐनी” जिनका बाप भी मुश्तरिक हो और माँ भी, जिन्हें हमारे यहाँ हक़ीक़ी कहते हैं। दूसरे “अलाती” बहन-भाई, जिनका बाप एक और माँयें जुदा हों। अहले अरब के यहाँ यह भी हक़ीक़ी बहन-भाई होते हैं और इनका हुक्म वही है जो “ऐनी” बहन-भाइयों का है। वह इन्हें “सौतेल” नहीं समझते। उनके यहाँ सौतेला वह कहलाता है जो एक माँ से हो लेकिन उसका बाप दूसरा हो। यह “अख्याफ़ी” बहन-भाई कहलाते हैं। एक शख्स की औलाद थी, वह फ़ौत हो गया। उसके बाद उसकी बीवी ने दूसरी शादी कर ली। तो अब उस दूसरे खाविन्द से जो औलाद है वह पहले खाविन्द की औलाद के अख्याफ़ी बहन-भाई हैं। तो कलाला की मीरास के हुक्म में यहाँ अख्याफ़ी भाई-बहन मुराद हैं।
“उस वसीयत की तामील के बाद जो की गयी या अदाये क़र्ज़ के बाद” | مِنْۢ بَعْدِ وَصِيَّةٍ يُّوْصٰى بِھَآ اَوْ دَيْنٍ ۙ |
यह दो शर्तें हर सूरत बाक़ी रहेंगी। मरने वाले की ज़िम्मे अगर कोई क़र्ज़ है तो पहले वह अदा किया जायेगा, फिर उसकी वसीयत की तामील की जायेगी, उसके बाद मीरास वारिसों में तक़सीम की जायेगी।
“बगैर किसी को ज़रर पहुँचाये।” | غَيْرَ مُضَاۗرٍّ ۚ |
यह सारा काम ऐसे होना चाहिये कि किसी को ज़रर (नुक़सान) पहुँचाने की नीयत ना हो।
“यह ताकीद है अल्लाह की तरफ़ से।” | وَصِيَّةً مِّنَ اللّٰهِ ۭ |
“और अल्लाह तआला सब कुछ जानने वाला कमाले हिल्म वाला है।” | وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَلِيْمٌ 12ۭ |
उसके हुक्म और बुर्दबारी पर धोखा ना खाओ कि वह तुम्हें पकड़ नहीं रहा है। “ना जा उसके तहम्मुल पर कि है बेढब गिरफ़्त उसकी!” उसकी पकड़ जब आयेगी तो उससे बचना मुमकिन नहीं होगा: {اِنَّ بَطْشَ رَبِّكَ لَشَدِيْدٌ} (अल बुरूज:12) “यक़ीनन तुम्हारे रब की पकड़ बड़ी सख्त है।”
आयत 13
“यह अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हुदूद हैं।” | تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ ۭ |
“और जो अल्लाह और उसके रसूल की इताअत करेगा वह दाख़िल करेगा उसे उन बाग़ात में जिसके दामन में नदियाँ बहती होंगी” | وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ يُدْخِلْهُ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ |
“उनमें वह हमेशा-हमेश रहेंगे।” | خٰلِدِيْنَ فِيْھَا ۭ |
“और यही है बहुत बड़ी कामयाबी।” | وَذٰلِكَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ 13 |
आयत 14
“और जो कोई नाफ़रमानी करेगा अल्लाह और उसके रसूल की और तजावुज़ करेगा उसकी हुदूद से” | وَمَنْ يَّعْصِ اللّٰهَ وَرَسُوْلَهٗ وَيَتَعَدَّ حُدُوْدَهٗ |
“वह दाख़िल करेगा उसको आग में जिसमें वह हमेशा रहेगा।” | يُدْخِلْهُ نَارًا خَالِدًا فِيْھَا ۠ |
“और उसके लिये अहानत आमेज़ अज़ाब होगा।” | وَلَهٗ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ 14ۧ |
आयात 15 से 22 तक
وَالّٰتِيْ يَاْتِيْنَ الْفَاحِشَةَ مِنْ نِّسَاۗىِٕكُمْ فَاسْتَشْهِدُوْا عَلَيْهِنَّ اَرْبَعَةً مِّنْكُمْ ۚ فَاِنْ شَهِدُوْا فَاَمْسِكُوْھُنَّ فِي الْبُيُوْتِ حَتّٰى يَتَوَفّٰىھُنَّ الْمَوْتُ اَوْ يَجْعَلَ اللّٰهُ لَھُنَّ سَبِيْلًا 15 وَالَّذٰنِ يَاْتِيٰنِھَا مِنْكُمْ فَاٰذُوْھُمَا ۚ فَاِنْ تَابَا وَاَصْلَحَا فَاَعْرِضُوْا عَنْهُمَا ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ تَوَّابًا رَّحِـيْمًا 16 اِنَّمَا التَّوْبَةُ عَلَي اللّٰهِ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السُّوْۗءَ بِجَهَالَةٍ ثُمَّ يَتُوْبُوْنَ مِنْ قَرِيْبٍ فَاُولٰۗىِٕكَ يَتُوْبُ اللّٰهُ عَلَيْھِمْ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا 17 وَلَيْسَتِ التَّوْبَةُ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السَّـيِّاٰتِ ۚ ﱑ اِذَا حَضَرَ اَحَدَھُمُ الْمَوْتُ قَالَ اِنِّىْ تُبْتُ الْــٰٔنَ وَلَا الَّذِيْنَ يَمُوْتُوْنَ وَھُمْ كُفَّارٌ ۭاُولٰۗىِٕكَ اَعْتَدْنَا لَھُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا 18 يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَرِثُوا النِّسَاۗءَ كَرْهًا ۭوَلَا تَعْضُلُوْھُنَّ لِتَذْهَبُوْا بِبَعْضِ مَآ اٰتَيْتُمُوْھُنَّ اِلَّآ اَنْ يَّاْتِيْنَ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ ۚ وَعَاشِرُوْھُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۚ فَاِنْ كَرِھْتُمُوْھُنَّ فَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَهُوْا شَـيْـــــًٔـا وَّيَجْعَلَ اللّٰهُ فِيْهِ خَيْرًا كَثِيْرًا 19 وَاِنْ اَرَدْتُّمُ اسْتِبْدَالَ زَوْجٍ مَّكَانَ زَوْجٍ ۙ وَّاٰتَيْتُمْ اِحْدٰىھُنَّ قِنْطَارًا فَلَا تَاْخُذُوْا مِنْهُ شَـيْـــًٔـا ۭ اَتَاْخُذُوْنَهٗ بُھْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا 20 وَكَيْفَ تَاْخُذُوْنَهٗ وَقَدْ اَفْضٰى بَعْضُكُمْ اِلٰى بَعْضٍ وَّاَخَذْنَ مِنْكُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا 21 وَلَا تَنْكِحُوْا مَا نَكَحَ اٰبَاۗؤُكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ ۭاِنَّهٗ كَانَ فَاحِشَةً وَّمَقْتًا ۭوَسَاۗءَ سَبِيْلًا 22ۧ
अब इस्लामी मआशरे की तहरीर के लिये अहकाम दिये जा रहे हैं। मुस्लमान जब तक मक्का में थे तो वहाँ कुफ्फ़ार का गलबा था। अब मदीना में अल्लाह तआला ने मुसलमानों को वह हैसियत दी है कि अपने मामलात को सँवारना शुरू करें। चुनाँचे एक-एक करके उन मआशरती मामलात और समाजी मसाइल को ज़ेरे बहस लाया जा रहा है। इस्लामी मआशरे में इफ्फ़त व अस्मत को बुनियादी अहमियत हासिल होती है। लिहाज़ा अगर मआशरे में जिन्सी बेराहरवी मौजूद है तो उसकी रोकथाम कैसे हो? उसके लिये इब्तदाई अहकाम यहाँ आ रहे हैं। इस ज़िमन में तकमीली अहकाम सूरह अल नूर में आएँगे। मआशरती मामलात के ज़िमन में अहकाम पहले सूरतुन्निसा, फिर सूरतुल अहज़ाब, फिर सूरह अल नूर और फिर सूरतुल मायदा में बतदरीज आये हैं। यह अल्लाह तआला की हिकमत का तक़ाज़ा है कि सूरतुल अहज़ाब और सूरह अल नूर को मुसहफ़ में काफ़ी आगे रखा गया है और यहाँ पर सूरतुन्निसा के बाद सूरतुल मायदा आ गयी है।
आयत 15
“और तुम्हारी औरतों में से जो किसी बेहयाई का इरतकाब करें” | وَالّٰتِيْ يَاْتِيْنَ الْفَاحِشَةَ مِنْ نِّسَاۗىِٕكُمْ |
“तो उन पर अपने में से चार गवाह लाओ।” | فَاسْتَشْهِدُوْا عَلَيْهِنَّ اَرْبَعَةً مِّنْكُمْ ۚ |
“पस अगर वह गवाही दे दें तो उन औरतों को घरों में बंद कर दो” | فَاِنْ شَهِدُوْا فَاَمْسِكُوْھُنَّ فِي الْبُيُوْتِ |
“यहाँ तक कि मौत उनको ले जाये” | حَتّٰى يَتَوَفّٰىھُنَّ الْمَوْتُ |
इसी हालत में उनकी ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाये।
“या अल्लाह उनके लिये कोई और रास्ता निकाल दे।” | اَوْ يَجْعَلَ اللّٰهُ لَھُنَّ سَبِيْلًا 15 |
बदकारी के मुताल्लिक़ यह इब्तदाई हुक्म था। बाद में सूरह अल नूर में हुक्म आ गया कि बदकारी करने वाले मर्द व औरत दोनों को सौ-सौ कोड़े लगाये जायें। मालूम होता है कि यहाँ ऐसी लड़कियों या औरतों का तज़किरा है जो मुसलमानों में से थीं मगर उनका बदकारी का मामला किसी ग़ैर मुस्लिम मर्द से हो गया जो इस्लामी मआशरे के दबाव में नहीं है। ऐसी औरतों के मुताल्लिक़ यह हिदायत फ़रमायी गयी कि उन्हें ता हुक्म सानी घरों के अन्दर महबूस (क़ैदी) रखा जाये।
आयत 16
“और जो दोनों तुम में से इस (बदकारी) का इरतकाब करें तो उन दोनों को ईज़ा (तकलीफ़) पहुँचाओ।” | وَالَّذٰنِ يَاْتِيٰنِھَا مِنْكُمْ فَاٰذُوْھُمَا ۚ |
अगर बदकारी का इरतकाब करने वाले मर्द व औरत दोनों मुसलमानों में से ही हों तो दोनों को अज़ियत दी जाये। यानि उनकी तौहीन व तज़लील की जाये और मारा-पीटा जाये।
“फिर अगर वह तौबा कर लें और इस्लाह कर लें तो उनको छोड़ दो।” | فَاِنْ تَابَا وَاَصْلَحَا فَاَعْرِضُوْا عَنْهُمَا ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला बहुत तौबा क़ुबूल फ़रमाने वाला और रहम फ़रमाने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ تَوَّابًا رَّحِـيْمًا 16 |
वाज़ेह रहे कि यह बिल्कुल इब्तदाई अहकाम हैं। इसी लिये इनकी वज़ाहत में तफ़सीरों में बहुत से अक़वाल मिल जाएँगे। इसलिये कि जब हुदूद नाफ़िज़ हो गईं तो यह उबूरी और आरज़ी अहकाम मनसूख क़रार पाये। जैसा की सूरतुन्निसा में क़ानूने विरासत नाज़िल होने के बाद सूरतुल बक़रह में वारिद शुदा वसीयत का हुक्म साक़ित हो गया।
आयत 17
“अल्लाह के ज़िम्मे है तौबा क़ुबूल करना ऐसे लोगों की जो कोई बुरी हरकत कर बैठते हैं जहालत और नादानी में” | اِنَّمَا التَّوْبَةُ عَلَي اللّٰهِ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السُّوْۗءَ بِجَهَالَةٍ |
“फिर जल्दी ही तौबा कर लेते हैं” | ثُمَّ يَتُوْبُوْنَ مِنْ قَرِيْبٍ |
एक साहिबे ईमान पर कभी ऐसा वक़्त भी आ सकता है कि खारजी असरात इतने शदीद हो जायें या नफ्स के अन्दर का हैजान उसे जज़्बात से मग़लूब कर दे और वह कोई गुनाह का काम कर गुज़रे। लेकिन इसके बाद उसे जैसे ही होश आयेगा उस पर शदीद नदामत तारी हो जायेगी और वह अल्लाह के हुज़ूर तौबा करेगा। ऐसे शख्स के बारे में फ़रमाया गया है कि उसकी तौबा क़ुबूल करना अल्लाह के ज़िम्मे है।
“तो यही हैं जिनकी तौबा अल्लाह क़ुबूल फ़रमायेगा।” | فَاُولٰۗىِٕكَ يَتُوْبُ اللّٰهُ عَلَيْھِمْ ۭ |
“और अल्लाह तआला बाख़बर है और हकीम व दाना है।” | وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا 17 |
आयत 18
“और ऐसे लोगों का कोई हक़ नहीं है तौबा का जो बुरे काम किये चले जाते हैं।” | وَلَيْسَتِ التَّوْبَةُ لِلَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ السَّـيِّاٰتِ ۚ |
मुसलसल हरामखोरियाँ करते रहते हैं, ज़िन्दगी भर ऐश उड़ाते रहते हैं।
“यहाँ तक कि जब उनमें से किसी की मौत का वक़्त आ जाता है तो उस वक़्त वह कहता है कि अब मैं तौबा करता हूँ” | ﱑ اِذَا حَضَرَ اَحَدَھُمُ الْمَوْتُ قَالَ اِنِّىْ تُبْتُ الْــٰٔنَ |
“और ना उन लोगों की तौबा है जो कुफ़्र की हालत में ही मर जाते हैं।” | وَلَا الَّذِيْنَ يَمُوْتُوْنَ وَھُمْ كُفَّارٌ ۭ |
उनकी तौबा का कोई सवाल ही नहीं।
“ऐसे लोगों के लिये तो हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।” | اُولٰۗىِٕكَ اَعْتَدْنَا لَھُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا 18 |
आयत 19
“ऐ अहले ईमान! तुम्हारे लिये जायज़ नहीं कि तुम औरतों को ज़बरदस्ती विरासत में ले लो।” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَرِثُوا النِّسَاۗءَ كَرْهًا ۭ |
यह भी अरब जाहिलियत की एक मकरूह रस्म थी जिसमें औरतों के तबक़े पर शदीद ज़ुल्म होता था। होता यूँ था कि एक शख्स फ़ौत हुआ है, उसकी चार-पाँच बीवियाँ हैं, तो उसका बड़ा बेटा वारिस बन गया है। अब उसकी हक़ीक़ी माँ तो एक ही है, बाक़ी सौतेली माँयें हैं, तो वह उनको विरासत में ले लेता था कि यह मेरे क़ब्ज़े में रहेंगी, बल्कि उनसे शादियाँ भी कर लेते थे या बगैर निकाह अपने घरों में डाले रखते थे, या फिर यह कि इख़्तियार अपने हाथ में रख कर उनकी शादियाँ कहीं और करते थे तो महर ख़ुद ले लेते थे। चुनाँचे फ़रमाया कि ऐ अहले ईमान, तुम्हारे लिये जायज़ नहीं है कि तुम औरतों के ज़बरदस्ती वारिस बन बैठो! जिस औरत का शौहर फ़ौत हो गया वह आज़ाद है। इद्दत गुज़ार कर जहाँ चाहे जाये और जिससे चाहे निकाह कर ले।
“और ना यह जायज़ है कि तुम उन्हें रोके रखो ताकि उनसे वापस ले लो उसका कुछ हिस्सा जो कुछ तुमने उनको दिया है” | وَلَا تَعْضُلُوْھُنَّ لِتَذْهَبُوْا بِبَعْضِ مَآ اٰتَيْتُمُوْھُنَّ |
निकाह के वक़्त तो बड़े चाव थे, बड़े लाड़ उठाये जा रहे थे और क्या-क्या दे दिया था, और अब वह सब वापस हथियाने के लिये तरह-तरह के हथकंडे इस्तेमाल हो रहे हैं, उन्हें तंग किया जा रहा है, ज़हनी तौर पर तकलीफ़ पहुँचाई जा रही है।
“हाँ अगर वह सरीह बदकारी की मुरतकिब हुई हों (तो तुम्हें उनको तंग करने का हक़ है)।” | اِلَّآ اَنْ يَّاْتِيْنَ بِفَاحِشَةٍ مُّبَيِّنَةٍ ۚ |
अगर किसी से सरीह हरामकारी का फ़अल सरज़द हो गया और उस पर उसे कोई सज़ा दी जाये (जैसा कि ऊपर आ चुका है فَاٰذُوْھُمَا) इसकी तो इजाज़त है। इसके बगैर किसी पर ज़्यादती करना जायज़ नहीं है। ख़ास तौर पर अगर नीयत यह हो कि मैं इससे अपना महर वापस ले लूँ, यह इन्तहाई कमीनगी है।
“और औरतों के साथ अच्छे तरीक़े पर मआशरत इख़्तियार करो।” | وَعَاشِرُوْھُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۚ |
उनके साथ भले तरीक़े पर, ख़ुश अस्लूबी से, नेकी और रास्ती के साथ गुज़र-बसर करो।
“अगर वह तुम्हें नापसन्द हों तो बईद नहीं कि एक चीज़ तुम्हें नापसन्द हो और उसमें अल्लाह ने तुम्हारे लिये बहुत कुछ बेहतरी रख दी हो।” | فَاِنْ كَرِھْتُمُوْھُنَّ فَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَهُوْا شَـيْـــــًٔـا وَّيَجْعَلَ اللّٰهُ فِيْهِ خَيْرًا كَثِيْرًا 19 |
अगर तुम्हें किसी वजह से अपनी औरतें नापसन्द हो गयी हों तो हो सकता है कि किसी शय को तुम नापसन्द करो, दर हालाँकि अल्लाह ने उसी में तुम्हारे लिये खैरे कसीर रख दिया हो। एक औरत किसी एक ऐतबार से आपके दिल से उतार गयी है, तबीयत का मैलान नहीं रहा है, लेकिन पता नहीं उसमें और कौन-कौन सी खूबियाँ हैं और वह किस-किस ऐतबार से आपके लिये खैर का ज़रिया बनती है। तो इस मामले को अल्लाह के हवाले करो, और उनके हुक़ूक़ अदा करते हुए, उनके साथ ख़ुश अस्लूबी से गुज़र-बसर करो। अलबत्ता अगर मामला ऐसा हो गया है कि साथ रहना मुमकिन नहीं है तो तलाक़ का रास्ता खुला है, शरीअते इस्लामी ने इसमें कोई तंगी नहीं रखी है। यह मसीहियत की तरह का कोई गैर माक़ूल निज़ाम नहीं है कि तलाक़ हो ही नहीं सकती।
आयत 20
“और अगर तुम्हारा इरादा एक बीवी की जगह दूसरी बीवी ले आने का हो” | وَاِنْ اَرَدْتُّمُ اسْتِبْدَالَ زَوْجٍ مَّكَانَ زَوْجٍ ۙ |
अगर तुमने फ़ैसला कर ही लिया हो कि एक बीवी की जगह दूसरी बीवी लानी है।
“और उनमें से किसी एक को तुमने ढ़ेरों माल दिया हो” | وَّاٰتَيْتُمْ اِحْدٰىھُنَّ قِنْطَارًا |
“तो उसमें से कोई भी शय वापस ना लो।” | فَلَا تَاْخُذُوْا مِنْهُ شَـيْـــًٔـا ۭ |
औरतों को तुमने जो महर दिया था वह उनका है, अब उसमें से कुछ वापस नहीं ले सकते।
“क्या तुम उसे वापस लोगे बोहतान लगा कर और सरीह गुनाह के मुरतकिब होकर?” | اَتَاْخُذُوْنَهٗ بُھْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا 20 |
आयत 21
“और तुम उसे कैसे वापस ले सकते हो जबकि तुम एक-दूसरे के साथ सोहबत कर चुके हो?” | وَكَيْفَ تَاْخُذُوْنَهٗ وَقَدْ اَفْضٰى بَعْضُكُمْ اِلٰى بَعْضٍ |
कुछ अक़्ल के नाखुन लो, कुछ शऊर और शराफ़त का सबूत दो। तुम उनसे वह माल किस तरह वापस लेना चाहते हो जबकि तुम्हारे माबैन दुनिया का इन्तहाई क़रीबी ताल्लुक़ क़ायम हो चुका है।
“और वह तुमसे मज़बूत क़ौल व क़रार ले चुकी हैं।” | وَّاَخَذْنَ مِنْكُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا 21 |
यह क़ौल व क़रार निकाह के वक़्त होता है जब मर्द औरत के महर व नफ़क़ा की पूरी ज़िम्मेदारी लेता है।
आयत 22
“और जिन औरतों से तुम्हारे बाप निकाह कर चुके हों उनसे तुम निकाह मत करो” | وَلَا تَنْكِحُوْا مَا نَكَحَ اٰبَاۗؤُكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ |
जैसा कि पहले ज़िक्र हुआ, अय्यामे जाहिलियत में सौतेली माँओं को निकाह करके या बगैर निकाह के घर में डाल लिया जाता था। ऐसे निकाह को उस मआशरे में भी “निकाहे मक़त” कहा जाता था। यानि यह बहुत ही बुरा निकाह है। ज़ाहिर है फ़ितरते इंसानी तो ऐसे ताल्लुक़ से इबा करती है, मगर उनके यहाँ यह रिवाज था। क़ुरान मजीद ने इस मक़ाम पर इसका सख्ती से सद्दे बाब किया है।
“सिवाये इसके जो हो चुका।” | اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ ۭ |
“यक़ीनन यह बड़ी बेहयाई की बात है और अल्लाह तआला के ग़ज़ब को भड़काने वाली है।” | اِنَّهٗ كَانَ فَاحِشَةً وَّمَقْتًا ۭ |
“और बहुत ही बुरा रास्ता है।” | وَسَاۗءَ سَبِيْلًا 22ۧ |
अगली आयत में मुहर्रामाते अब्दिया का बयान है कि किन रिश्तों में निकाह का मामला नहीं हो सकता। यानि एक मर्द अपनी किन-किन रिश्तेदार ख्वातीन से शादी नहीं कर सकता।
आयात 23 से 25 तक
حُرِّمَتْ عَلَيْكُمْ اُمَّھٰتُكُمْ وَبَنٰتُكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ وَعَمّٰتُكُمْ وَخٰلٰتُكُمْ وَبَنٰتُ الْاَخِ وَبَنٰتُ الْاُخْتِ وَاُمَّھٰتُكُمُ الّٰتِيْٓ اَرْضَعْنَكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ مِّنَ الرَّضَاعَةِ وَاُمَّھٰتُ نِسَاۗىِٕكُمْ وَرَبَاۗىِٕبُكُمُ الّٰتِيْ فِيْ حُجُوْرِكُمْ مِّنْ نِّسَاۗىِٕكُمُ الّٰتِيْ دَخَلْتُمْ بِهِنَّ ۡ فَاِنْ لَّمْ تَكُوْنُوْا دَخَلْتُمْ بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ ۡ وَحَلَاۗىِٕلُ اَبْنَاۗىِٕكُمُ الَّذِيْنَ مِنْ اَصْلَابِكُمْ ۙ وَاَنْ تَجْمَعُوْا بَيْنَ الْاُخْتَيْنِ اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِـيْمًا 23ۙ وَّالْمُحْصَنٰتُ مِنَ النِّسَاۗءِ اِلَّا مَامَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۚ كِتٰبَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ ۚ وَاُحِلَّ لَكُمْ مَّا وَرَاۗءَ ذٰلِكُمْ اَنْ تَبْتَغُوْا بِاَمْوَالِكُمْ مُّحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ ۭ فَـمَا اسْتَمْتَعْتُمْ بِهٖ مِنْھُنَّ فَاٰتُوْھُنَّ اُجُوْرَھُنَّ فَرِيْضَةً ۭ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا تَرٰضَيْتُمْ بِهٖ مِنْۢ بَعْدِ الْفَرِيْضَةِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا 24 وَمَنْ لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنْكُمْ طَوْلًا اَنْ يَّنْكِحَ الْمُحْصَنٰتِ الْمُؤْمِنٰتِ فَمِنْ مَّا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ مِّنْ فَتَيٰتِكُمُ الْمُؤْمِنٰتِ ۭ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِـاِيْمَانِكُمْ ۭ بَعْضُكُمْ مِّنْۢ بَعْضٍ ۚ فَانْكِحُوْھُنَّ بِاِذْنِ اَھْلِهِنَّ وَاٰتُوْھُنَّ اُجُوْرَھُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ مُحْصَنٰتٍ غَيْرَ مُسٰفِحٰتٍ وَّلَا مُتَّخِذٰتِ اَخْدَانٍ ۚ فَاِذَآ اُحْصِنَّ فَاِنْ اَتَيْنَ بِفَاحِشَةٍ فَعَلَيْهِنَّ نِصْفُ مَا عَلَي الْمُحْصَنٰتِ مِنَ الْعَذَابِ ۭ ذٰلِكَ لِمَنْ خَشِيَ الْعَنَتَ مِنْكُمْ ۭ وَاَنْ تَصْبِرُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 25ۧ
आयत 23
“हराम कर दी गयीं तुम पर तुम्हारी माँएं और तुम्हारी बेटियाँ और तुम्हारी बहनें” | حُرِّمَتْ عَلَيْكُمْ اُمَّھٰتُكُمْ وَبَنٰتُكُمْ وَاَخَوٰتُكُمْ |
“और तुम्हारी फूफियाँ और तुम्हारी खालाएँ” | وَعَمّٰتُكُمْ وَخٰلٰتُكُمْ |
“और तुम्हारी भतीजियाँ और भन्जियाँ” | وَبَنٰتُ الْاَخِ وَبَنٰتُ الْاُخْتِ |
“और तुम्हारी वह माँएं जिन्होंने तुम्हें दूध पिलाया है” | وَاُمَّھٰتُكُمُ الّٰتِيْٓ اَرْضَعْنَكُمْ |
“और तुम्हारी दूध शरीक बहनें” | وَاَخَوٰتُكُمْ مِّنَ الرَّضَاعَةِ |
“और तुम्हारी बीवियों की माँएं” | وَاُمَّھٰتُ نِسَاۗىِٕكُمْ |
जिनको हम सास या ख़ुशदामन कहते हैं।
“और तुम्हारी रबीबाएँ जो तुम्हारी गोदों में पली-बढ़ी हों” | وَرَبَاۗىِٕبُكُمُ الّٰتِيْ فِيْ حُجُوْرِكُمْ |
“तुम्हारी उन बीवियों से जिनके साथ तुमने मुक़ारबत की हो” | مِّنْ نِّسَاۗىِٕكُمُ الّٰتِيْ دَخَلْتُمْ بِهِنَّ ۡ |
“और अगर तुमने उन बीवियों से मुक़ारबत ना की हो तो तुम पर कुछ गुनाह नहीं” | فَاِنْ لَّمْ تَكُوْنُوْا دَخَلْتُمْ بِهِنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ ۡ |
“रबीबा” बीवी की उस लड़की को कहा जाता है जो उसके साबिक़ शौहर से हो। अगर मौजूदा शौहर उस बीवी से ताल्लुक़ ज़नो शो क़ायम होने के बाद उसको तलाक़ दे दे तो रबीबा को अपने निकाह में नहीं ला सकता, यह उसके लिये हराम है। लेकिन अगर उस बीवी के साथ ताल्लुक़ ज़नो शो क़ायम नहीं हुआ और उसे तलाक़ दे दी तो फिर रबीबा के साथ निकाह हो सकता है। चुनाँचे फ़रमाया कि अगर तुमने उन बीवियों के साथ मुक़ारबत ना की हो तो फिर (उन्हें छोड़ कर उनकी लड़कियों से निकाह कर लेने में) तुम पर कोई गुनाह नहीं।
“और तुम्हारे उन बेटों की बीवियाँ जो तुम्हारी सल्ब से हों” | وَحَلَاۗىِٕلُ اَبْنَاۗىِٕكُمُ الَّذِيْنَ مِنْ اَصْلَابِكُمْ ۙ |
जिनको हम बहुएँ कहते हैं। अपने सुल्बी बेटे की बीवी से निकाह हराम है। अलबत्ता मुँह बोले बेटे की मुतल्लक़ा बीवी से निकाह में कोई हर्ज नहीं।
“और यह (भी तुम पर हराम कर दिया गया है) कि तुम बयक वक़्त दो बहनों को एक निकाह में जमा करो” | وَاَنْ تَجْمَعُوْا بَيْنَ الْاُخْتَيْنِ |
“सिवाय इसके कि जो गुज़र चुका।” | اِلَّا مَا قَدْ سَلَفَ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह गफूर और रहीम है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِـيْمًا 23ۙ |
जो पहले हो गया सो हो गया। अब गड़े मुर्दे तो उखाड़े नहीं जा सकते। लेकिन आइन्दा के लिये यह मुहर्रामाते अब्दिया हैं। इसमें रसूल अल्लाह ﷺ ने इज़ाफ़ा किया है कि जिस तरह दो बहनों को बयक वक़्त निकाह में नहीं रख सकते इसी तरह खाला भांजी को और फूफी भतीजी को भी बयक वक़्त निकाह में नहीं रख सकते। यह मुहर्रामाते अब्दिया हैं कि जिनके साथ किसी हाल में, किसी वक़्त शादी नहीं हो सकती। अब वह मुहर्रामात बयान हो रहे हैं जो आरज़ी हैं।
आयत 24
“और वो औरतें (भी तुम पर हराम हैं) जो किसी और के निकाह में हों” | وَّالْمُحْصَنٰتُ مِنَ النِّسَاۗءِ |
चूँकि वह किसी और के निकाह में हैं इसलिये आप पर हराम हैं। एक औरत को अगर उसका शौहर तलाक़ दे दे तो आप उससे निकाह कर सकते हैं। चुनाँचे यह हुरमत अब्दी नौइयत की नहीं है। “مُحْصَنٰتُ” उन औरतों को कहा जाता है जो किसी की क़ैद निकाह में हों। “حِصن” क़िले को कहते हैं और “اِحصان” के मायने किसी शय को अपनी हिफ़ाज़त में लेने के भी और किसी के हिफ़ाज़त में होने के भी। चुनाँचे “مُحْصَنٰتُ” वह औरतें हैं जो एक ख़ानदान के क़िले के अंदर महफ़ूज़ हैं और शौहर वालियाँ हैं। नेज़ यह लफ़्ज़ लौंडियों के मुक़ाबले आज़ाद ख़ानदानी शरीफ़ ज़ादियों के लिये भी इस्तेमाल होता है।
“सिवाय उसके कि जो तुम्हारी मिल्के यमीन बन जायें।” | اِلَّا مَامَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۚ |
यानि जंग के नतीजे में तुम्हारे यहाँ कनीज़ें बन कर आ जायें। यह औरतें अगरचे मुशरिकों की बीवियाँ हैं लेकिन वह लौंडियों की हैसियत से आपके लिये जायज़ होंगी।
“यह तुम पर अल्लाह का लिखा हुआ फ़रीज़ा है।” | كِتٰبَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ ۚ |
यह अल्लाह का क़ानून है जिसकी पाबंदी तुम पर लाज़िम कर दी गई है।
“इनके सिवा जो औरतें हैं वह तुम्हारे लिये हलाल हैं।” | وَاُحِلَّ لَكُمْ مَّا وَرَاۗءَ ذٰلِكُمْ |
आपने देखा कि कितनी थोड़ी सी तादाद में मुहर्रमात हैं, जिनसे निकाह हराम क़रार दे दिया गया है, बाक़ी कसीर तादाद हलाल है। यानि मुबाहात का दायरा बहुत वसीअ है जबकि मुहर्रमात का दायरा बहुत महदूद है।
“कि तुम अपने माल के ज़रिये उनके तालिब बनो” | اَنْ تَبْتَغُوْا بِاَمْوَالِكُمْ |
यानि उनके महर अदा करके उनके साथ निकाह करो।
“बशर्ते कि हिसारे निकाह में उनको महफ़ूज़ करो, ना कि आज़ाद शहवतरानी करने लगो।” | مُّحْصِنِيْنَ غَيْرَ مُسٰفِحِيْنَ ۭ |
यानि नीयत घर बसाने की हो, सिर्फ़ मस्ती निकालने की नहीं। इसको महज़ एक खेल और मशग़ला ना बना लो।
“बस जो भी तुमने उनसे तमत्तो (भोग-विलास) किया हो तो उसके बदले उनके महर अदा करो, जो मुक़र्रर हुए थे।” | فَـمَا اسْتَمْتَعْتُمْ بِهٖ مِنْھُنَّ فَاٰتُوْھُنَّ اُجُوْرَھُنَّ فَرِيْضَةً ۭ |
“अलबत्ता इसका तुम पर कोई गुनाह नहीं है कि महर मुक़र्रर होने के बाद बाहमी रज़ामंदी से कोई कमी पेशी कर लो।” | وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا تَرٰضَيْتُمْ بِهٖ مِنْۢ بَعْدِ الْفَرِيْضَةِ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला अलीम और हकीम है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا 24 |
आयत 25
“और जो कोई तुममें से इतनी मुक़दरत ना रखता हो कि ख़ानदानी मुसलमान औरतों से शादी कर सकें” | وَمَنْ لَّمْ يَسْتَطِعْ مِنْكُمْ طَوْلًا اَنْ يَّنْكِحَ الْمُحْصَنٰتِ الْمُؤْمِنٰتِ |
“तो वह तुम्हारी उन लौंडियों में से किसी के साथ निक़ाह कर ले जो तुम्हारे क़ब्ज़े में हों और मोमिना हों।” | فَمِنْ مَّا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ مِّنْ فَتَيٰتِكُمُ الْمُؤْمِنٰتِ ۭ |
यहाँ “مُحصَنٰت” दूसरे मायने में आया है, यानि शरीफ़ ज़ादियाँ, आज़ाद मुसलमान औरतें। और ज़ाहिर है आज़ाद मुसलमान औरतों का तो महर अदा करना पड़ेगा। इस हवाले से अगर कोई बेचारा मुफ़लिस है, एक ख़ानदानी औरत का महर अदा नहीं कर सकता तो वह क्या करे? ऐसे लोगों को हिदायत की जा रही है कि वह मआशरे में मौजूद मुसलमान लौंडियों से निकाह कर लें।
“अल्लाह तुम्हारे ईमानों का हाल ख़ूब जानता है।” | وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِـاِيْمَانِكُمْ ۭ |
यह अल्लाह बेहतर जानता है कि कौन मोमिन है और कौन नहीं है। मुराद यह है कि जो भी क़ानूनी ऐतबार से मुसलमान है दुनिया में वह मोमिन समझा जायेगा।
“तुम सब एक-दूसरे ही में से हो।” | بَعْضُكُمْ مِّنْۢ بَعْضٍ ۚ |
“सो उनसे निकाह कर लो उनके मालिकों की इजाज़त से” | فَانْكِحُوْھُنَّ بِاِذْنِ اَھْلِهِنَّ |
किसी लौंडी का मालिक उससे जिन्सी ताल्लुक़ क़ायम कर सकता है। लेकिन जब एक शख़्स उसकी इजाज़त से उसकी लौंडी से निकाह कर ले तो अब लौंडी के मालिक का यह ताल्लुक़ मुन्क़ता हो जायेगा। अब वह लौंडी इस ऐतबार से उसके काम में नहीं आ सकती, बल्कि अब वह एक मुसलमान की मन्कूहा हो जायेगी। इसी लिये उस निकाह के लिये “بِاِذْنِ اَھْلِهِنَّ” की हिदायत फ़रमाई गई है। वाज़ेह रहे की उस वक़्त के मआशरे में बिल् फ़अल यह शक्लें मौजूद थीं। यह नहीं कहा जा रहा कि यह शक्लें पैदा करो। गुलाम और लौंडियों का मामला उस वक़्त के बैनुल अक़वामी हालात और असीराने जंग के मसले के एक हल के तौर पर पहले से मौजूद था। हमें यह देखना है कि जिस मआशरे में क़ुरान ने इस्लाह का अमल शुरू किया उसमें फ़िल वाक़ेअ क्या सूरते हाल थी और उसमें किस-किस ऐतबार से तदरीजन बेहतरी पैदा की गई।
“और उन्हें उनके महर अदा करो मारूफ़ तरीक़े पर” | وَاٰتُوْھُنَّ اُجُوْرَھُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ |
“उनको हिसारे निकाह में लाकर, ना कि आज़ाद शहवतरानी करने वालियाँ हों” | مُحْصَنٰتٍ غَيْرَ مُسٰفِحٰتٍ |
उनसे निकाह का ताल्लुक़ होगा, जिसमें नीयत घर में बसाने की होनी चाहिये, महज़ मस्ती निकालने की और शहवतरानी की नीयत ना हो। यह हिसारे निकाह में महफ़ूज़ होकर रहें, आज़ाद शहवतरानी ना करती फिरें।
“और ना ही चोरी-छिपे आशनाइयाँ करें।” | وَّلَا مُتَّخِذٰتِ اَخْدَانٍ ۚ |
किसी की लौंडी से किसी का निकाह हो तो ख़ुल्लम-ख़ुल्ला हो। मालूम हो कि फलाँ की लौंडी अब फलाँ के निकाह में है। जैसे हज़रत सुमय्या रज़ि० से हज़रत यासिर रज़ि० ने निकाह किया था। हज़रत सुमय्या रज़ि० अबु जहल के चचा की लौंडी थीं, जो एक शरीफ़ इंसान था। हज़रत यासिर जब यमन से आकर मक्का में आबाद हुए तो उन्होंने अबु जहल के चचा से इजाज़त लेकर उनकी लौंडी सुमय्या रज़ि० से शादी कर ली। उनसे हज़रत अम्मार रज़ि० पैदा हुए। यह तीन अफ़राद का एक कुन्बा था। यासिर, अम्मार बिन यासर और अम्मार की वालिदा सुमय्या रज़ि०। अबु जहल का शरीफ़ुल नफ्स चचा जब फ़ौत हो गया तो अबु जहल को इस कुन्बे पर इख़्तियार हासिल हो गया और उसने इस ख़ानदान को बद्तरीन ईज़ाएँ दी।
“पस जब वह क़ैदे निकाह में आ जाएँ तो फिर अगर वह बेहयाई का काम करें” | فَاِذَآ اُحْصِنَّ فَاِنْ اَتَيْنَ بِفَاحِشَةٍ |
“तो उन पर उस सज़ा की बनिस्बत आधी सज़ा है जो आज़ाद औरतों के लिये है।” | فَعَلَيْهِنَّ نِصْفُ مَا عَلَي الْمُحْصَنٰتِ مِنَ الْعَذَابِ ۭ |
लौंडियाँ अगर क़ैदे निकाह में आने के बाद बदचलनी की मुरतकिब हों तो बदकारी की जो सज़ा आज़ाद औरतों को दी जायेगी उन्हें उसकी निस्फ़ सज़ा दी जायेगी। वाज़ेह रहे कि यह इब्तदाई अहकामात हैं। अभी तक ना तो सौ कोड़ों की सज़ा का हुक्म आया था और ना रजम का। चुनाँचे “اٰذُوْھُمَا” के हुक्म की तामील में बदकारी की जो सज़ा अभी आज़ाद ख़ानदानी औरतों को दी जाती थी एक मन्कूहा लौंडी को उससे निस्फ़ सज़ा देने का हुक्म दिया गया। इसलिये कि एक शरीफ़ ख़ानदान की औरत जिसे हर तरह का तहफ़्फ़ुज़ हासिल हो उसका मामला और है और एक बेचारी गरीब लौंडी का मामला और है।
“यह इजाज़त तुममें से उनके लिये है जिनको गुनाह में पड़ने का अंदेशा हो।” | ذٰلِكَ لِمَنْ خَشِيَ الْعَنَتَ مِنْكُمْ ۭ |
मुसलमान लौंडियों से निकाह कर लेने की इजाज़त तुममें से उन लोगों के लिये है जो अपनी शहवत और जिन्सी जज़्बे को रोक ना सकते हों और उन्हें फ़ितने में मुब्तला हो जाने और गुनाहों में मुलव्विस हो जाने का अंदेशा हो।
“और अगर तुम सब्र करो तो यह तुम्हारे हक़ में बेहतर है।” | وَاَنْ تَصْبِرُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ ۭ |
चूँकि आमतौर पर उस मआशरे में जो बांदियाँ थीं वह बुलन्द किरदार नहीं थीं, लिहाज़ा फ़रमाया कि बेहतर यह है कि तुम उनसे निकाह करने से बचो और तअफ़्फ़ुफ़ (संयम) इख़्तियार करो।
“और अल्लाह ग़फूर और रहीम है।” | وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 25ۧ |
आयात 26 से 28 तक
يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيُـبَيِّنَ لَكُمْ وَيَهْدِيَكُمْ سُنَنَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَيَتُوْبَ عَلَيْكُمْ ۭ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ 26 وَاللّٰهُ يُرِيْدُ اَنْ يَّتُوْبَ عَلَيْكُمْ ۣ وَيُرِيْدُ الَّذِيْنَ يَتَّبِعُوْنَ الشَّهَوٰتِ اَنْ تَمِيْلُوْا مَيْلًا عَظِيْمًا 27 يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّخَفِّفَ عَنْكُمْ ۚ وَخُلِقَ الْاِنْسَانُ ضَعِيْفًا 28
इन तीन आयात में अहकामे शरीअत के ज़िमन में फ़लसफ़ा व हिकमत का बयान हो रहा है। अहकामे शरीअत को इंसान अपने ऊपर बोझ समझने लगता है। उसे जब हुक्म दिया जाता है कि यह करो और यह मत करो तो आदमी की तबियत नागवारी महसूस करती है। यही वजह है कि ईसाईयों ने शरीअत का तौक़ अपने गले से उतार फेंका है। 1970 ईस्वी में क्रिसमस के मौक़े पर मैं लंदन में था। वहाँ मैने एक ईसाई दानिशवर की तक़रीर सुनी थी, जिसने कहा था कि शरीअत लानत है। ख़्वाह मख्वाह एक इंसान को यह बावर कराया जाता है कि यह हलाल है, यह हराम है। जब वह हराम से रुक नहीं सकता तो उसका दिल मैला हो जाता है। वह अपने आपको ख़ताकार समझने लगता है और मुजरिम ज़मीर (guilty conscience) हो जाता है। इस अहसास के तहत वह मन्फ़ी नफ़्सियात का शिकार हो जाता है। उनके नज़दीक इस सारी ख़राबी का सबब यह है कि आपने हराम और हलाल का फ़लसफ़ा छेड़ा। अगर सब काम हलाल समझ लिये जाएँ तो कोई हराम काम करते हुए ज़मीर पर कोई बोझ नहीं होगा। दुनिया में ऐसे-ऐसे फ़लसफ़े भी मौजूद हैं। लेकिन अल्लाह तआला के नज़दीक फ़लसफ़ा-ए-अहकाम यह है:
आयत 26
“अल्लाह चाहता है कि तुम्हारे लिये अपने अहकाम वाज़ेह कर दे” | يُرِيْدُ اللّٰهُ لِيُـبَيِّنَ لَكُمْ |
“और तुम्हें हिदायत बख़्शे उन रास्तों की जो तुमसे पहले के लोगों के थे” | وَيَهْدِيَكُمْ سُنَنَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ |
पहले गुज़रे हुए लोगों में नेकोकार भी थे और बदकार भी। अल्लाह तआला चाहता है कि तुम अम्बिया व सुल्हा और नेकोकारों का रास्ता इख़्तियार करो {صِرَاطَ الَّذِيْنَ اَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ } और तुम दूसरे रास्तों से बच सको।
“और तुम पर नज़रे इनायत फ़रमाये।” | وَيَتُوْبَ عَلَيْكُمْ ۭ |
“और अल्लाह सब कुछ जानने वाला कमाले हिकमत वाला है।” | وَاللّٰهُ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ 26 |
आयत 27
“अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम पर रहमत के साथ तवज्जो फ़रमाये।” | وَاللّٰهُ يُرِيْدُ اَنْ يَّتُوْبَ عَلَيْكُمْ ۣ |
“और वह लोग जो शहवात की पैरवी करते हैं वह चाहते हैं कि तुम राहे हक़ से भटक कर दूर निकल जाओ।” | وَيُرِيْدُ الَّذِيْنَ يَتَّبِعُوْنَ الشَّهَوٰتِ اَنْ تَمِيْلُوْا مَيْلًا عَظِيْمًا 27 |
वह चाहते हैं कि तुम्हारा रुझान सिराते मुस्तक़ीम के बजाय ग़लत रास्तों की तरफ़ हो जाये और उधर ही तुम भटकते चले जाओ। आज भी औरत की आज़ादी (Women Lib) की बुनियाद पर और हुक़ूके निसवाँ के नाम पर दुनिया में जो तहरीकें बरपा हैं यह दरहक़ीक़त अल्लाह तआला की आयद करदा हुदूद व क़ुयूद को तोड़ कर जिन्सी बेराहरवी फैलाने की एक अज़ीम साज़िश है जो दुनिया में चल रही है।
आयत 28
“अल्लाह चाहता है कि तुम पर से बोझ को हल्का करे।” | يُرِيْدُ اللّٰهُ اَنْ يُّخَفِّفَ عَنْكُمْ ۚ |
तुम यह ना समझो कि अल्लाह तुम पर बोझ डाल रहा है। अल्लाह तो तुम पर तख़फ़ीफ़ चाहता है, तुमसे बोझ को हल्का करना चाहता है। अगर तुम इन चीज़ों पर अमल नहीं करोगे तो मआशरे में गंदगियाँ फैलेंगी, फ़साद बरपा होगा, झगड़े होंगे, बद्गुमानियाँ होंगी। अल्लाह तआला इस सबकी रोकथाम चाहता है, वह तुम्हारे लिये आसानी चाहता है।
“और इंसान कमज़ोर पैदा किया गया है।” | وَخُلِقَ الْاِنْسَانُ ضَعِيْفًا 28 |
उसके अंदर कमज़ोरी के पहलु भी मौजूद हैं। जहाँ एक बहुत ऊँचा पहलु है कि उसमें रूहे रब्बानी फूँकी गई है, वहाँ उसके अंदर नफ़्स भी तो है, जिसमें ज़ौफ़ के पहलु मौजूद हैं।
आयात 29 से 35 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَ تِجَارَةً عَنْ تَرَاضٍ مِّنْكُمْ ۣوَلَا تَقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُمْ رَحِيْمًا 29 وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ عُدْوَانًا وَّظُلْمًا فَسَوْفَ نُصْلِيْهِ نَارًا ۭوَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ يَسِيْرًا 30 اِنْ تَجْتَنِبُوْا كَبَاۗىِٕرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ وَنُدْخِلْكُمْ مُّدْخَلًا كَرِيْمًا 31 وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللّٰهُ بِهٖ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ ۭ لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبُوْا ۭ وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبْنَ ۭ وَسْـــَٔـلُوا اللّٰهَ مِنْ فَضْلِهٖ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِـــيْمًا 32 وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ ۭوَالَّذِيْنَ عَقَدَتْ اَيْمَانُكُمْ فَاٰتُوْھُمْ نَصِيْبَھُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدًا 33ۧ اَلرِّجَالُ قَوّٰمُوْنَ عَلَي النِّسَاۗءِ بِمَا فَضَّلَ اللّٰهُ بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ وَّبِمَآ اَنْفَقُوْا مِنْ اَمْوَالِهِمْ ۭ فَالصّٰلِحٰتُ قٰنِتٰتٌ حٰفِظٰتٌ لِّلْغَيْبِ بِمَا حَفِظَ اللّٰهُ ۭ وَالّٰتِيْ تَخَافُوْنَ نُشُوْزَھُنَّ فَعِظُوْھُنَّ وَاهْجُرُوْھُنَّ فِي الْمَضَاجِعِ وَاضْرِبُوْھُنَّ ۚ فَاِنْ اَطَعْنَكُمْ فَلَا تَبْغُوْا عَلَيْهِنَّ سَبِيْلًا ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيْرًا 34 وَاِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا فَابْعَثُوْا حَكَمًا مِّنْ اَھْلِهٖ وَحَكَمًا مِّنْ اَھْلِھَا ۚ اِنْ يُّرِيْدَآ اِصْلَاحًا يُّوَفِّقِ اللّٰهُ بَيْنَهُمَا ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِــيْمًا خَبِيْرًا 35
आयत 29
“ऐ अहले ईमान, अपने माल आपस में बातिल तरीक़े पर हड़प ना करो” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ |
“सिवाय इसके कि तिजारत हो तुम्हारी बाहमी रज़ामंदी से।” | اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَ تِجَارَةً عَنْ تَرَاضٍ مِّنْكُمْ ۣ |
तिजारत और लेन-देन की बुनियाद जब हक़ीक़ी बाहमी रज़ामंदी पर हो तो उससे होने वाला मुनाफ़ा जायज़ और हलाल है। फ़र्ज़ कीजिये कि आपकी जूतों की दुकान है। आपने ग्राहक को एक जूता दिखाया और उसके दाम दो सौ रुपये बताये। उसने जूता पसंद किया और दो सौ रुपये में ख़रीद लिया। यह बाहमी रजामंदी से सौदा है जो सीधे-साधे और सही तरीक़े पर हो गया। ज़ाहिर बात है कि इसमें से कुछ ना कुछ नफ़ा तो आपने कमाया है। आपने इसके लिये मेहनत की है, कहीं से ख़रीद कर लाये हैं, उसे स्टोर में महफ़ूज़ किया है, दुकान का किराया दिया है, लिहाज़ा यह मुनाफ़ा आपका हक़ है और ग्राहक को इसमें तायल नहीं होगा। लेकिन अगर आपने यही जूता झूठ बोल कर या झूठी क़सम खाकर फ़रोख़्त किया कि मैंने तो ख़ुद इतने का लिया है तो इस तरह आपने अपनी सारी मेहनत भी ज़ाया की और आपने हराम कमा लिया। इसी तरह मामलात और लेन-देन के वह तमाम तरीक़े जिनकी बुनियाद झूठ और धोखाधड़ी पर हो नाजायज़ और हराम हैं।
“और ना अपने आपको क़त्ल करो।” | وَلَا تَقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ ۭ |
यानि एक-दूसरे को क़त्ल ना करो। तमद्दुन की बुनियाद दो चीज़ों पर है, एहतरामे जान और एहतरामे माल। मेरे लिये आपका माल और आपकी जान मोहतरम है, मैं उसे कोई गज़ंद (चोट) ना पहुँचाऊँ, और आपके लिये मेरा माल और मेरी जान मोहतरम है, इसे आप गज़ंद ना पहुँचाए। अगर हमारे माबैन यह शरीफ़ाना मुआहिदा (Gentleman’s agreemenet) क़ायम रहे तब तो हम एक मआशरे और एक मुल्क में रह सकते हैं, जहाँ इत्मिनान, अमन व सुकून और चैन होगा। और जहाँ यह दोनों एहतराम ख़त्म हो गए, जान का और माल का, तो ज़ाहिर बात है कि फिर वहाँ अमन व सुकून, चैन और इत्मिनान कहाँ से आएगा? इस आयत में बातिल तरीक़े से एक-दूसरे का माल खाने और क़त्ल नफ़्स दोनों को हराम क़रार देकर इन दोनों हुरमतों को एक साथ जमा कर दिया गया है।
“यक़ीक़न अल्लाह तआला तुम पर बहुत मेहरबान है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُمْ رَحِيْمًا 29 |
आयत 30
“और जो कोई भी यह काम करेगा ताअद्दी और ज़ुल्म के साथ” | وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ عُدْوَانًا وَّظُلْمًا |
यानि यह दोनों काम— बातिल तरीक़े से एक-दूसरे का माल खाना और क़त्ले नफ़्स।
“तो हम जल्द उसको झोंक देंगे आग में।” | فَسَوْفَ نُصْلِيْهِ نَارًا ۭ |
“और यह चीज़ अल्लाह पर बहुत आसान है।” | وَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ يَسِيْرًا 30 |
यह मत समझना कि अल्लाह तआला नौए इंसानी के बहुत बड़े हिस्से को जहन्नम में कैसे झोंक देगा? यह अल्लाह के लिये कोई मुश्किल नहीं है।
अगली दो आयात में इंसानी तमद्दुन के दो बहुत अहम मसाइल बयान हो रहे हैं, जो बड़े गहरे और फ़लसफ़ियाना अहमियत के हामिल हैं। पहला मसला गुनाहों के बारे में है, जिनमें कबाइर और सग़ाइर की तक़सीम है। बड़े गुनाहों में सबसे बड़ा गुनाह शिर्क और कुफ़्र है। फिर यह कि जो फ़राइज़ हैं उनका तर्क करना और जो हराम चीज़ें हैं उनका इरत्काब कबाइर में शामिल होगा। एक हैं छोटी-छोटी कोताहियाँ जो इंसान से अक्सर हो जाती हैं, मसलन आदाब में या अहकाम की जुज़ायात (विवरण) में कोई कोताही हो गई, या बग़ैर किसी इरादे के कहीं किसी को ऐसी बात कह बैठे कि जो ग़ीबत के हुक्म में आ गई, वग़ैरह-वग़ैरह। इस ज़िमन में सेहतमंदाना रवैय्या यह है कि कबाइर से पूरे अहतमाम के साथ बचा जाये कि इससे इंसान बिल्कुल पाक हो जाये। फ़राइज़ की पूरी अदायगी हो, मुहर्ररमात से मुताल्लिक़ इज्तनाब (बचाव) हो, और यह जो छोटी-छोटी चीज़ें हैं इनके बारे में ना तो एक-दूसरे पर ज़्यादा गिरफ़्त और नकीर की जाये और ना ही ख़ुद ज़्यादा दिल गिरफ़्ता हुआ जाये, बल्कि इनके बारे में तवक़्क़ो रखी जाये कि अल्लाह तआला माफ़ फ़रमा देगा। इनके बारे में इस्तग़फ़ार भी किया जाये और यही सग़ाइर हैं जो नेकियों के ज़रिये से ख़ुद ब ख़ुद भी ख़त्म होते रहते हैं। जैसे हदीस में आता है कि आज़ा-ए-वुज़ू धोते हुए इन आज़ा के गुनाह धुल जाते हैं। रसूल अल्लाह ﷺ का इर्शाद है कि जो शख़्स वुज़ू करता है तो जब वह कुल्ली करता है और नाक में पानी डालता है तो उसके मुँह और नाक से उसके गुनाह निकल जाते हैं। जब वह चेहरा धोता है तो उसके चेहरे और उसकी आँखों से उसके गुनाह निकल जाते हैं। जब वह हाथ धोता है तो उसके हाथों से गुनाह निकल जाते हैं, यहाँ तक कि उसके हाथों के नाखूनों के नीचे से भी गुनाह धुल जाते हैं। जब वह सर का मसह करता है तो उसके सर और कानों से गुनाह झड़ जाते हैं। फिर जब वह पाँव धोता है तो उसके पाँवों से गुनाह निकल जाते हैं, यहाँ तक कि उसके पाँवों के नाखूनों के नीचे से भी गुनाह निकल जाते हैं। फिर उसका मस्जिद की तरफ़ चलना और नमाज़ पढ़ना उसकी नेकियों में इज़ाफ़ा बनता है।(1)
यह सग़ीरा गुनाह हैं जो नेकियों के असर से माफ़ होते रहते हैं, अज़रुए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: { اِنَّ الْحَسَنٰتِ يُذْهِبْنَ السَّـيِّاٰتِ} (हूद:114) “यक़ीनन नेकियाँ बुराईयों को दूर कर देती हैं।” इन बुराईयों से मुराद कबाइर नहीं, सग़ाइर हैं। कबाइर तौबा के बग़ैर माफ़ नहीं होते (इल्ला माशा अल्लाह) उनके लिये तौबा करनी होगी। और जो अकबरुल कबाइर यानि शिर्क है उसके बारे में तो इस सूरत (आयत 48 और 116) में दो मर्तबा यह अल्फ़ाज़ आये हैं: { اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ ۚ} “बिला शुबह अल्लाह तआला यह बात तो कभी माफ़ नहीं करेगा कि उसके साथ किसी को शरीक ठहराया जाये, और इसके मा-सिवा जिस क़दर गुनाह हैं वह जिसके लिये चाहेगा माफ़ कर देगा।” लेकिन हमारे यहाँ जो मज़हब का मस्ख़शुदा (perverted) तसव्वुर मौजूद है उससे एक ऐसा मज़हबी मिज़ाज वुजूद में आता है कि जो कबाइर हैं वह तो हो रहे हैं, सूदख़ोरी हो रही है, हरामख़ोरी हो रही है, मगर छोटी-छोटी बातों पर नकीर हो रही है। सारी गिरफ़्त इन बातों पर हो रही है कि तुम्हारी दाढ़ी क्यों शरई नहीं है, और तुम्हारा पाहुँचा टखनों से नीचे क्यों है? क़ुरान मजीद में इस मामले को तीन जगह नक़ल किया गया है कि छोटी-छोटी चीजों के बारे में दरगुज़र से भी काम लो और यह कि बहुत ज़्यादा मुतफ़क्किर भी ना हो। इस मामले में बाहमी निस्बत व तनासब (अनुपात) पेशे नज़र रहनी चाहिये। फ़रमाया:
आयत 31
“अग़र तुम इज्तनाब करते रहोगे उन बड़े-बड़े गुनाहों से जिनसे तुम्हें रोका जा रहा है” | اِنْ تَجْتَنِبُوْا كَبَاۗىِٕرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ |
“तो हम तुम्हारी छोटी बुराईयों को तुमसे दूर कर देंगे।” | نُكَفِّرْ عَنْكُمْ سَيِّاٰتِكُمْ |
हम तुम्हें इनसे पाक साफ़ करते रहेंगे। तुम जो भी नेक काम करोगे उनके हवाले से तुम्हारी सय्यिआत ख़ुद ब ख़ुद धुलती रहेगी।
“और तुम्हें दाखिल करेंगे बहुत बाइज़्ज़त जगह पर।” | وَنُدْخِلْكُمْ مُّدْخَلًا كَرِيْمًا 31 |
यह मज़मून सूरह अल शौरा में भी आया है और फिर सूरह अल् नज्म में भी। वाज़ेह रहे कि क़ुरान हकीम में अहम मज़ामीन कम से कम दो मर्तबा ज़रूर आते हैं और यह मज़मून क़ुरान में तीन बार आया है।
दूसरा मसला इंसानी मआशरे में फ़ज़ीलत का है। ज़ाहिर है कि अल्लाह तआला ने तमाम इंसानों को एक जैसा तो नहीं बनाया है। किसी को ख़ूबसूरत बना दिया तो किसी को बदसूरत। कोई सही सालिम है तो कोई नाक़िसुल आज़ा है। किसी का क़द ऊँचा है तो कोई ठिगने क़द का है और लोग उस पर हँसते हैं। किसी को मर्द बना दिया, किसी को औरत। अब कोई औरत अंदर ही अंदर कुढती रहे कि मुझे अल्लाह ने औरत क्यों बनाया तो इसका हासिल क्या होगा? इसी तरह कोई बदसूरत इंसान है या ठिगना है या किसी और ऐतबार से कमतर है और वह दूसरे शख़्स को देखता है कि वह तो बड़ा अच्छा है, तो अब उस पर कुढने के बजाय यह होना चाहिये कि अल्लाह तआला ने उसे जो कुछ दिया है उस पर सब्र और शुक्र करे। अल्लाह का फ़ज़ल किसी और पहलु से भी हो सकता है। लिहाज़ा वह इरादा करे कि मैं नेकी और ख़ैर के कामों में आगे बढ़ जाऊँ, मैं इल्म में आगे बढ़ जाऊँ। इस तरह इंसान दूसरी चीज़ों से इन चीज़ों की तलाफ़ी करले जो उसे मयस्सर नहीं है, बजाय इसके कि एक मन्फ़ी नफ़्सियात परवान चढ़ती चली जाये। इस तरह इंसान अहसासे कमतरी का शिकार हो जाता है और अंदर ही अंदर कुढते रहने से तरह-तरह की ज़हनी बीमारियाँ पैदा होती है। ज़हनी उलझनों, महरूमियों और नाकामियों के अहसासात के तहत इंसान अपना ज़हनी तवाज़ुन तक खो बैठता है। चुनाँचे देखिये इस ज़िमन में किस क़दर उम्दा तालीम दी जा रही है:
आयत 32
“और तमन्ना ना किया करो उस शय की जिसके ज़रिये से अल्लाह ने तुममें से बाज़ को बाज़ पर फ़ज़ीलत दे दी है।” | وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللّٰهُ بِهٖ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ ۭ |
अल्लाह तआला ने बाज़ लोगों को उनकी ख़ल्क़ी सिफ़ात के ऐतबार से दूसरों पर फ़ज़ीलत दी है। आदमी की यह ज़हनियत कि जहाँ किसी दूसरे को अपने मुक़ाबले में किसी हैसियत से बढ़ा हुआ देखे बेचैन हो जाये, उसके अंदर हसद, रक़ाबत (विरोध) और अदावत (शत्रुता) के जज़्बात पैदा कर देती है। इस आयत में इसी ज़हनियत से बचने की हिदायत फ़रमाई जा रही है। फ़ज़ीलत का एक पहलु यह भी है कि अल्लाह तआला ने किसी को मर्द बनाया, किसी को औरत। यह चीज़ भी ख़ल्क़ी है और किसी औरत की मर्द बनने या किसी मर्द की औरत बनने की तमन्ना नरी (बिल्कुल) हिमाक़त है। अलबत्ता दुनिया में क़िस्मत आज़माई और जद्दो-जहद के मौक़े सबके लिये मौजूद हैं। चुनाँचे पहली बात यह बताई जा रही है:
“मर्दों के लिये हिस्सा है उसमें से जो वह कमाएँगे।” | لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبُوْا ۭ |
“और औरतों के लिये हिस्सा है उसमें से जो वह कमाएँगी।” | وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبْنَ ۭ |
यानि जहाँ तक नेकियों, ख़ैरात और हसनात का मामला है, या सय्यिआत व मुन्करात का मामला है, मर्द व ज़न मे बिल्कुल मुसावात है। मर्द ने जो नेकी कमाई वह उसके लिये है और औरत ने जो नेकी कमाई वह उसके लिये है। मुसाबक़त का यह मैदान दोनों के लिये ख़ुला है। औरत नेकी में मर्द से आगे निकल सकती है। करोड़ों मर्द होंगे जो क़यामत के दिन हज़रत ख़दीजा, हज़रत आयशा और हज़रत फ़ातिमा रज़ि० के मक़ाम पर रश्क करेंगे और उनकी ख़ाक को भी नहीं पहुँच सकेगें। चुनाँचे आदमी का तर्ज़े अमल तस्लीम व रज़ा का होना चाहिये कि जो भी अल्लाह ने मुझे बना दिया और जो कुछ मुझे अता फ़रमाया उस हवाले से मुझे बेहतर से बेहतर करना है। मेरा “शकिला” तो अल्लाह की तरफ़ से आ गया है, जिससे मैं तजावुज़ नहीं कर सकता: { قُلْ كُلٌّ يَّعْمَلُ عَلٰي شَاكِلَتِهٖ ۭ } (बनी इस्राईल:84) और हम सूरतुल बक़रह में पढ़ चुके हैं कि { لَا يُكَلِّفُ اللّٰهُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَا ۭ} (आयत:286) लिहाज़ा मेरी वुसअत जो है वह अल्लाह ने बना दी है।
सूरह निसा की ज़ेरे मुताअला आयत से बाज़ लोग यह मतलब निकालने की कोशिश करते हैं कि औरतें भी माल कमा सकती हैं। यह बात समझ लीजिये कि क़ुरान मजीद में सिर्फ़ एक मक़ाम पर “کسب” का लफ़्ज़ मआशी जद्दो-जहद और मआशी कमाई के लिये आया है: { اَنْفِقُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا كَسَبْتُمْ } (अल् बक़रह:267)। बाक़ी पूरे क़ुरान में “कसब” जहाँ भी आया है आमाल के लिये आया है। कसब-ए-हसनात नेकियाँ कमाना है और कसब-ए-सय्यिआत बदियाँ कमाना। आप इस आयत के अल्फ़ाज़ पर दोबारा ग़ौर कीजिये: {لِلرِّجَالِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبُوْا ۭ وَلِلنِّسَاۗءِ نَصِيْبٌ مِّمَّا اكْتَـسَبْنَ ۭ} “मर्दों के लिये हिस्सा है उसमें से जो उन्होंने कमाया, और औरतों के लिये हिस्सा है उसमें से जो उन्होंने कमाया।” तो क्या एक औरत की तनख़्वाह अगर दस हज़ार है तो उसे उसमें से पाँच हज़ार मिलेंगे? नहीं, बल्कि उसे पूरी तनख़्वाह मिलेगी। लिहाज़ा इस आयत में “कसब” का इत्लाक़ दुनयवी कमाई पर नहीं किया जा सकता। एक ख़ातून कोई काम करती है या कहीं मुलाज़मत करती है तो अगर उसमें कोई हराम पहलु नहीं है, शरीफ़ाना जॉब है, और वह सतर-ए-हिजाब के आदाब भी मल्हूज़ रखती है तो इसमें कोई हर्ज नहीं। लेकिन ज़ाहिर है कि जो भी कमाई होगी वह पूरी उसकी होगी, उसमें उसका हिस्सा तो नहीं होगा। अलबत्ता यह अस्लूब ज़जा-ए-आमाल के लिये आता है कि उन्हें उनकी कमाई में से हिस्सा मिलेगा। इसलिये कि आमाल के मुख़्तलिफ़ मरातिब होते हैं। अल्लाह तआला के यहाँ यह देखा जाता है कि इस अमल में ख़ुलूसे नीयत कितना था और आदाब कितने मल्हूज़ रखे गये। हम सूरतुल बक़रह में हज के ज़िक्र में भी पढ़ चुके हैं कि: {اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ نَصِيْبٌ مِّمَّا كَسَبُوْا ۭ } (आयत:202) यानि जो उन्होंने कमाया होगा उसमें से उन्हें हिस्सा मिलेगा। इस तरह यहाँ पर भी इकतसाब से मुराद अच्छे या बुरे आमाल कमाना है। यानि अख्लाक़ी सतह पर और इंसानी इज़्ज़त व तकरीम के लिहाज़ से औरत और मर्द बराबर है, लेकिन मआशरती ज़िम्मेदारियों के हवाले से अल्लाह तआला ने जो तक़सीम कर रखी है उसके ऐतबार से फ़र्क़ है। अब अगर औरत इस फ़र्क़ को क़ुबूल करने पर तैयार ना हो, मुफ़ाहमत पर रज़ामन्द ना हो, और वह इस पर कुढ़ती रहे और मर्द के बिल्कुल बराबर होने की कोशिश करे तो ज़ाहिर है कि मआशरे में फ़साद और बिगाड़ पैदा हो जायेगा।
“और अल्लाह से उसका फ़ज़ल तलब करो।” | وَسْـــَٔـلُوا اللّٰهَ مِنْ فَضْلِهٖ ۭ |
यानि जो फ़ज़ीलत अल्लाह ने दूसरों को दे रखी है उसकी तमन्ना ना करो, अलबत्ता उससे फ़ज़ल की दुआ करो कि ऐ अल्लाह! तूने इस मामले में मुझे कमतर रखा है, तू मुझे दूसरे मामलात के अंदर हिम्मत दे कि मैं तरक्क़ी करूँ। अल्लाह तआला जिस पहलु से मुनासिब समझेगा अपना फ़ज़ल तुम्हें अता फ़रमा देगा। वह बहुत से लोगों को किसी और पहलु से नुमाया कर देता है।
“यक़ीनन अल्लाह तआला हर शय का इल्म रखता है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِـــيْمًا 32 |
आयत 33
“और हर एक के लिये हमने वारिस मुक़रर्र कर दिये हैं जो भी वालिदैन और रिश्तेदार छोड़ें।” | وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدٰنِ وَالْاَقْرَبُوْنَ ۭ |
क़ानूने विरासत की अहमियत को देखिये कि अब आख़िर में एक मर्तबा फिर इसका ज़िक्र फ़रमाया।
“और जिनके साथ तुम्हारे अहद व पैमान हों तो उनको उनका हिस्सा दो।” | وَالَّذِيْنَ عَقَدَتْ اَيْمَانُكُمْ فَاٰتُوْھُمْ نَصِيْبَھُمْ ۭ |
एक नया मसला यह पैदा हो गया था कि जिन लोगों के साथ दोस्ती और भाईचारा है या मुआख़ात का रिश्ता है (मदीना मुनव्वरा में रसूल अल्लाह ﷺ ने एक अंसारी और एक मुहाजिर को भाई-भाई बना दिया था) तो क्या उनका विरासत में भी हिस्सा है? इस आयत में फ़रमाया गया है कि विरासत तो उसी क़ायदे के मुताबिक़ वुरसा में तक़सीम होनी चाहिये जो हमने मुक़रर्र कर दिया है। जिन लोगों के साथ तुम्हारे दोस्ती और भाईचारे के अहद व पैमाने हैं, या जो मुँह बोले भाई या बेटे हैं उनका विरासत में कोई हिस्सा नहीं है, अलबत्ता अपनी ज़िन्दगी में उनके साथ जो भलाई करना चाहो कर सकते हो, उन्हें जो कुछ देना चाहो दे सकते हो, अपनी विरासत में से भी कुछ वसीयत करना चाहो तो कर सकते हो। लेकिन जो क़ानूने विरासत तय हो गया है उसमें किसी तरमीम व तब्दीली की गुँजाईश नही। विरासत में हक़दार कोई और नहीं होगा सिवाय उसके जिसको अल्लाह ने मुक़रर्र कर दिया है।
“यक़ीनन अल्लाह तआला हर चीज़ पर गवाह है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ شَهِيْدًا 33ۧ |
अब आ रही है असल में वह काँटेदार आयत जो औरतों के हलक़ से बहुत मुश्किल से उतरती है, काँटा बन कर अटक जाती है। अब तक इस ज़िमन में जो बाते आईं वह दरअसल उसकी तम्हीद की हैसियत रखती हैं। पहली तम्हीद सूरतुल बक़रह में आ चुकी है: { وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۠ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ} (आयत:228) “औरतों के लिये इसी तरह हुक़ूक़ हैं जिस तरह उन पर जिम्मेदारियाँ हैं दस्तूर के मुताबिक़, अलबत्ता मर्दों के लिये उन पर एक दर्जा फ़ौक़ियत है।” यह कह कर बात छोड़ दी गई। इसके बाद अभी हमने पढ़ा: {وَلَا تَتَمَنَّوْا مَا فَضَّلَ اللّٰهُ بِهٖ بَعْضَكُمْ عَلٰي بَعْضٍ ۭ } यह हिदायत औरतों के लिये मज़ीद ज़हनी तैयारी की गर्ज़ से दी गई। और अब दो टूक अंदाज़ में इर्शाद हो रहा है:
आयत 34
“मर्द औरतों पर हाकिम हैं” | اَلرِّجَالُ قَوّٰمُوْنَ عَلَي النِّسَاۗءِ |
यह तर्जुमा मैं ज़ोर देकर कर रहा हूँ। इसलिये कि यहाँ قَامَ ‘عَلٰی’ के सिला के साथ आ रहा है। قَامَ ‘بِ’ के साथ आयेगा तो मायने होंगे “किसी शय को क़ायम करना।” इसी सूरह मुबारका में आगे चल कर यह अल्फ़ाज़ आएँगे: {كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ بِالْقِسْطِ} अदल को क़ायम करने वाले बन कर खड़े हो जाओ!” जबकि قَامَ عَلٰی का मफ़हूम है कि किसी के ऊपर मुसल्लत होना। यानि हाकिम और मुन्तज़िम होना। चुनाँचे आयत ज़ेरे मुताअला से यह वाज़ेह हिदायत मिलती है कि घर के इदारे में हाकिम होने की हैसियत मर्द को हासिल है, सरबराहे ख़ानदान मर्द है, औरत नहीं है। औरत को बहरहाल उसके साथ एक वज़ीर की हैसियत से काम करना है। यूँ तो हर इंसान यह चाहता है कि मेरी बात मानी जाये। घर के अंदर मर्द भी यह चाहता है और औरत भी। लेकिन आख़िरकार किसकी बात चलेगी? या तो दोनों बाहमी रज़ामंदी से किसी मसले पर मुत्तफ़िक़ हो जायें, बीवी अपने शौहर को दलील से, अपील से, जिस तरह हो सके क़ायल करले तो मामला ठीक हो गया। लेकिन अग़र मामला तय नहीं हो रहा तो अब किसकी राय फ़ैसलाकुन होगी? मर्द की! औरत की राय जब मुस्तरद (रद्द) होगी तो उसे इससे एक सदमा तो पहुँचेगा। इसी सदमे का असर कम करने के लिये अल्लाह तआला ने औरत में निस्यान का माद्दा ज़्यादा रख दिया है, जो एक safety valve का काम देता है। यही वज़ह है कि क़ानूने शहादत में एक मर्द की जगह दो औरतों का निसाब रखा गया है “ताकि उनमें से कोई एक भूल जाए तो दूसरी याद करा दे।” इस पर हम सूरतुल बक़रह (आयत:282) में भी गुफ़्तगू कर चुके हैं। बहरहाल अल्लाह तआला ने घर के इदारे का सरबराह मर्द को बनाया है। अब यह दूसरी बात है कि मर्द अपनी इस हैसियत का ग़लत इस्तेमाल करता है, औरत पर ज़ुल्म करता है और उसके हुक़ूक अदा नहीं करता तो अल्लाह के यहाँ बड़ी सख़्त पकड़ होगी। आपको एक इख़्तियार दिया गया है और आप उसका ग़लत इस्तेमाल कर रहे हैं, उसको ज़ुल्म का ज़रिया बना रहे हैं तो इसकी सज़ा अल्लाह तआला के यहाँ मिल जायेगी।
“बसबब उस फ़ज़ीलत के जो अल्लाह ने बाज़ को बाज़ पर दी है” | بِمَا فَضَّلَ اللّٰهُ بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ |
मर्द को बाज़ सिफ़ात में औरत पर नुमाया तफ़व्वुक़ (सर्वोच्चता) हासिल है, जिनकी बिना पर क़व्वामियत की ज़िम्मेदारी उस पर डाली गई है।
“और बसबब इसके कि जो वह ख़र्च करते हैं अपने माल।” | وَّبِمَآ اَنْفَقُوْا مِنْ اَمْوَالِهِمْ ۭ |
इस्लाम के मआशरती निज़ाम में किफ़ालती ज़िम्मेदारी तमामतर मर्द के ऊपर है। शादी के आग़ाज़ ही से मर्द अपना माल ख़र्च करता है। शादी अग़रचे मर्द की भी ज़रूरत है और औरत की भी, लेकिन मर्द महर देता है, औरत महर वसूल करती है। फिर घर में औरत का नान नफ़्क़ा मर्द के ज़िम्मे है।
“पस जो नेक बीवियाँ हैं वह इताअत शआर होती हैं” | فَالصّٰلِحٰتُ قٰنِتٰتٌ |
मर्द को क़व्वामियत के मन्सब पर फ़ाइज़ करने के बाद अब नेक बीवियों का रवैय्या बताया जा रहा है। यूँ समझिये कि क़ुरान के नज़दीक एक ख़ातूने ख़ाना की जो बेहतरीन रविश होनी चाहिये वह यहाँ तीन अल्फ़ाज़ में बयान कर दी गई है: { فَالصّٰلِحٰتُ قٰنِتٰتٌ حٰفِظٰتٌ لِّلْغَيْبِ }
“ग़ैब में हिफ़ाज़त करने वालियाँ” | حٰفِظٰتٌ لِّلْغَيْبِ |
वह मर्दों की ग़ैरमौजूदगी में उनके अमवाल और हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त करती हैं। ज़ाहिर है मर्द का माल तो घर में ही होता है, वह काम पर चला गया तो अब वह बीवी की हिफ़ाज़त में है। इसी तरह बीवी की अस्मत दरहक़ीकत मर्द की इज़्ज़त है। वह उसकी ग़ैरमौजूदगी में उसकी इज़्जत की हिफ़ाज़त करती है। इसी तरह मर्द के राज़ होते हैं, जिनकी सबसे ज़्यादा बढ़ कर राज़दान बीवी होती है। तो यह हिफ़ाज़त तीन ऐतबारात से है, शौहर के माल की, शौहर की इज़्ज़त व नामूस की, और शौहर के राज़ों की।
“अल्लाह की हिफ़ाज़त से।” | بِمَا حَفِظَ اللّٰهُ ۭ |
असल हिफ़ाज़त व निगरानी तो अल्लाह की है, लेकिन इंसान को अपनी ज़िम्मेदारी अदा करनी पड़ती है। जैसे राज़िक़ तो अल्लाह है, लेकिन इंसान को काम करके रिज़्क़ कमाना पड़ता है।
“और वह ख्वातीन जिनके बारे में तुम्हें शरकशी का अंदेशा हो” | وَالّٰتِيْ تَخَافُوْنَ نُشُوْزَھُنَّ |
अगर किसी औरत के रवैये से ज़ाहिर हो रहा है कि यह सरकशी, सरताबी, ज़िद और हठधर्मी की रविश पर चल रही पड़ी है, शौहर की बात नहीं मान रही बल्कि हर सूरत पर अपनी बात मनवाने पर मसर (ज़िद्दी) है और इस तरह घर की फ़िज़ा ख़राब की हुई है तो यह नशूज़ है। अगर औरत अपनी इस हैसियत को ज़हनन तस्लीम ना करे कि वह शौहर के ताबेअ है तो ज़ाहिर बात है कि मज़ाहमत (friction) होगी और उसके नतीजे में घर के अंदर एक फ़साद पैदा होगा। ऐसी सूरते हाल में मर्द को क़व्वाम होने की हैसियत से बाज़ तादीबी (अनुशासनात्मक) इख़्तियारात दिये गये हैं, जिनके तीन मराहिल हैं:
“पस उनको नसीहत करो” | فَعِظُوْھُنَّ |
पहला मरहला समझाने-बुझाने का है, जिसमें डाँट-डपट भी शामिल है।
“और उनको उनके बिस्तरों में तन्हा छोड़ दो” | وَاهْجُرُوْھُنَّ فِي الْمَضَاجِعِ |
अगर नसीहत व मलामत से काम ना चले तो दूसरा मरहला यह है कि उनसे अपने बिस्तर अलैहदा कर लो और उनके साथ ताल्लुक़ ज़नो-शो कुछ अरसे के लिये मुन्क़तअ कर लो।
“और उनको मारो।” | وَاضْرِبُوْھُنَّ ۚ |
अगर अब भी वह अपनी रविश ना बदलें तो मर्द को जिस्मानी सज़ा देने का भी इख़्तियार है। इस ज़िमन में आँहुज़ूर ﷺ ने हिदायत फ़रमाई है कि चेहरे पर ना मारा जाये और कोई ऐसी मार ना हो जिसका मुस्तक़िल निशान जिस्म पर पड़े। मज़कूरा बाला तादीबी हिदायात अल्लाह के कलाम के अंदर बयान फ़रमाई गई हैं और इन्हें बयान करने में हमारे लिये कोई झिझक नहीं होनी चाहिये। मआशरती ज़िन्दगी को दुरुस्त रखने के लिये इनकी ज़रुरत पेश आये तो इन्हें इख़्तियार करना होगा।
“फिर अग़र वह तुम्हारी इताअत करें तो उनके ख़िलाफ़ (ख़्वाह मा ख़्वाह ज़्यादती की) राह मत तलाश करो।” | فَاِنْ اَطَعْنَكُمْ فَلَا تَبْغُوْا عَلَيْهِنَّ سَبِيْلًا ۭ |
अगर औरत सरकशी व सरताबी की रविश छोड़ कर इताअत की राह पर आ जाये तो पिछली कदूरतें (नफ़रतें) भुला देनी चाहिये उससे इन्तक़ाम लेने के बहाने तलाश नहीं करनी चाहिये।
“यक़ीनन अल्लाह तआला बहुत बुलंद है, बहुत बड़ा है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِيًّا كَبِيْرًا 34 |
आयत 35
“और अग़र तुमको मियाँ-बीवी के दरमियान इफ़तराक़ (विभाजन) का अंदेशा हो” | وَاِنْ خِفْتُمْ شِقَاقَ بَيْنِهِمَا |
अब अगर कोई तदबीर नतीजाखेज़ ना हो और उन दोनों के माबैन ज़िद्दम-ज़िद्दा की कैफ़ियत पैदा हो चुकी हो कि औरत भी अकड़ गई है, मर्द भी अकड़ा हुआ है, और अब उनका साथ चलना मुश्किल नज़र आता हो तो इस्लाहे अहवाल के लिये एक दूसरी तदबीर इख़्तियार करने की हिदायत फ़रमाई गई है।
“तो एक हकम मर्द के ख़ानदान से मुक़र्रर करो और एक हकम औरत के ख़ानदान से।” | فَابْعَثُوْا حَكَمًا مِّنْ اَھْلِهٖ وَحَكَمًا مِّنْ اَھْلِھَا ۚ |
“अग़र वह दोनों इस्लाह चाहेंगे तो अल्लाह तआला उनके दरमियान मुवाफ़क़त (समझौता) पैदा कर देगा।” | اِنْ يُّرِيْدَآ اِصْلَاحًا يُّوَفِّقِ اللّٰهُ بَيْنَهُمَا ۭ |
“اِنْ يُّرِيْدَآ اِصْلَاحًا” में मुराद ज़वजैन भी हो सकते हैं और हकमैन भी। यानि एक तो यह कि अगर वाक़िअतन शौहर और बीवी मुवाफ़क़त चाहते हैं तो अल्लाह उनके दरमियान साज़गारी पैदा फ़रमा देगा। बाज़ अवक़ात ऐसा होता है कि शौहर और बीवी दोनों की ख़्वाहिश होती है कि मामला दुरुस्त हो जाये, लेकिन कोई नफ़्सियाती गिरह ऐसी बंध जाती है जिसे खोलना उनके बस में नहीं होता। अब अगर दोनों के ख़ानदानों में से एक एक सालिस आ जायेगा और वह दोनों मिल बैठ कर ख़ैर-ख़्वाही के जज़्बे से इस्लाहे अहवाल की कोशिश करेंगे तो इस ग़िरह को खोल सकेगें। यह दोनों अस्बाबे इख़्तलाफ़ की तहक़ीक़ करेंगे, मियाँ-बीवी दोनों के गिले-शिकवे और वज़ाहतें सुनेंगे और दोनों को समझा-बुझा कर तस्फ़ीह (समझौते) की कोई सूरत निकालेंगे। “اِنْ يُّرِيْدَآ اِصْلَاحًا” में मुराद हकमैन भी हो सकते हैं कि अगर वह इस्लाह की पूरी कोशिश करेंगे तो अल्लाह तआला उनके माबैन मुवाफ़क़त पैदा फ़रमा देगा। लेकिन मेरा रुझान पहली राय की तरफ़ ज़्यादा है कि इससे मुराद मियाँ-बीवी हैं।
“यक़ीनन अल्लाह तआला सब कुछ जानता है और बा ख़बर है।“” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلِــيْمًا خَبِيْرًا 35 |
आयात 36 से 43 तक
وَاعْبُدُوا اللّٰهَ وَلَا تُشْرِكُوْا بِهٖ شَـيْـــــًٔـا وَّبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا وَّبِذِي الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰي وَالْمَسٰكِيْنِ وَالْجَارِ ذِي الْقُرْبٰى وَالْجَارِ الْجُنُبِ وَالصَّاحِبِ بِالْجَـنْۢبِ وَابْنِ السَّبِيْلِ ۙ وَمَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ مُخْــتَالًا فَخُــوْرَۨا 36ۙ الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ وَيَاْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ وَيَكْتُمُوْنَ مَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ ۭ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا 37ۚ وَالَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ رِئَاۗءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ وَمَنْ يَّكُنِ الشَّيْطٰنُ لَهٗ قَرِيْنًا فَسَاۗءَ قَرِيْنًا 38 وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقَھُمُ اللّٰهُ ۭوَكَانَ اللّٰهُ بِهِمْ عَلِــيْمًا 39 اِنَّ اللّٰهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ ۚ وَاِنْ تَكُ حَسَنَةً يُّضٰعِفْھَا وَيُؤْتِ مِنْ لَّدُنْهُ اَجْرًا عَظِيْمًا 40 فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا 41ڲ يَوْمَىِٕذٍ يَّوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَعَصَوُا الرَّسُوْلَ لَوْ تُـسَوّٰى بِهِمُ الْاَرْضُ ۭ وَلَا يَكْتُمُوْنَ اللّٰهَ حَدِيْثًا 42ۧ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْرَبُوا الصَّلٰوةَ وَاَنْتُمْ سُكٰرٰى حَتّٰى تَعْلَمُوْا مَا تَقُوْلُوْنَ وَلَا جُنُبًا اِلَّا عَابِرِيْ سَبِيْلٍ حَتّٰى تَغْتَسِلُوْا ۭ وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰي سَفَرٍ اَوْ جَاۗءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۗىِٕطِ اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۗءَ فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۗءً فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا فَامْسَحُوْا بِوُجُوْهِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُوْرًا 43
इससे क़ब्ल सूरतुल बक़रह आयत 83 में बनी इस्राईल से लिये जाने वाले मीसाक़ का ज़िक्र आया था। इस मीसाक़ में जो बातें मज़कूर थीं वह गोया उम्मेहाते शरीअत या दीन की बुनियादें हैं। इर्शाद हुआ: “और याद करो जब हमने बनी इस्राईल से अहद लिया था कि तुम नहीं इबादत करोगे किसी की सिवाये अल्लाह के, और वालिदैन के साथ नेक सुलूक करोगे और क़राबत-दारों, यतीमों और मोहताजों के साथ भी, और लोगों से अच्छी बात कहो, और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात अदा करो।” अब यह दूसरा मक़ाम आ रहा है कि शरीअत के अंदर जो चीज़ें अहमतर हैं और जिन्हें मआशरती सतह पर मुक़द्दम रखना चाहिये वह बयान की जा रही हैं। फ़रमाया:
आयत 36
“और अल्लाह ही की बंदगी करो और किसी चीज़ को भी उसके साथ शरीक ना ठहराओ” | وَاعْبُدُوا اللّٰهَ وَلَا تُشْرِكُوْا بِهٖ شَـيْـــــًٔـا |
सबसे पहला हक़ अल्लाह का है कि उसी की बंदगी और परस्तिश करो, और उसके साथ किसी को शरीक ना ठहराओ।
“और वालिदैन के साथ हुस्ने सुलूक करो।” | وَّبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا |
क़ुरान हकीम में ऐसे चार मक़ामात हैं जहाँ अल्लाह के हक़ के फ़ौरन बाद वालिदैन के हक़ का तज़किरा है। यह भी हमारे ख़ानदानी निज़ाम के लिये बहुत अहम बुनियाद है कि वालिदैन के साथ हुस्ने सुलूक हो, उनका अदब व अहतराम हो, उनकी ख़िदमत की जाये, उनके सामने आवाज़ पस्त रखी जाये। यह बात सूरह बनी इस्राईल में बड़ी तफ़सील से आयेगी। हमारे मआशरे में ख़ानदान के इस्तेहकाम (स्थिरता) की यह एक बहुत अहम बुनियाद है।
“और क़राबतदारों, यतीमों और मोहताजों के साथ” | وَّبِذِي الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰي وَالْمَسٰكِيْنِ |
“और क़राबतदार हमसाये और अजनबी हमसाये के साथ” | وَالْجَارِ ذِي الْقُرْبٰى وَالْجَارِ الْجُنُبِ |
पहले आमतौर पर मुहल्ले ऐसे ही होते थे कि एक क़बीला एक ही जगह रह रहा है, रिश्तेदारी भी है और हमसायगी भी। लेकिन कोई अजनबी हमसाया भी हो सकता है। जैसे आज-कल शहरों में हमसाये अजनबी होते हैं।
“और हमनशीन साथी और मुसाफ़िर के साथ” | وَالصَّاحِبِ بِالْجَـنْۢبِ وَابْنِ السَّبِيْلِ ۙ |
एक हमसायगी आरज़ी नौइयत की भी होती है। मसलन आप बस में बैठे हुए हैं, आपके बराबर बैठा हुआ शख़्स आपका हमसाया है। नेज़ जो लोग किसी भी ऐतबार से आपके साथी हैं, आपके पास बैठने वालें हैं, वह सब आपके हुस्ने सुलूक के मुस्तहिक़ हैं।
“और वह लौंडी गुलाम जो तुम्हारे मिल्के यमीन हैं (उनके साथ भी नेक सुलूक करो)।” | وَمَا مَلَكَتْ اَيْمَانُكُمْ ۭ |
“अल्लाह बिल्कुल पसंद नहीं करता उन लोगों को जो शेख़ीख़ोर और अकड़ने वाले हों।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ مُخْــتَالًا فَخُــوْرَۨا 36ۙ |
आयत 37
“जो ख़ुद भी बुख्ल (कंजूसी) करते हैं और दूसरे लोगों को भी बुख्ल का मशवरा देते हैं” | الَّذِيْنَ يَبْخَلُوْنَ وَيَاْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ |
जिनमें यह शेख़ीखोरी और अकड़ होती है फिर वह बखील (कंजूस) भी होते हैं। इसलिये की ग़ुरूर व तकब्बुर आमतौर पर दौलत की बिना (बुनियाद) पर होता है। उन्हें मालूम है कि हमारे पास जो दौलत है अगर यह ख़र्च हो गई तो हमारा वह मक़ाम नहीं रहेगा, लोगों की नज़रों में हमारी इज़्ज़त नहीं रहेगी। लिहाज़ा वह अपना माल ख़र्च करने में कंजूसी से काम लेते हैं। इस पर उन्हें यह अंदेशा भी होता है कि लोग हमें मलामत करेंगे कि तुम बड़े बखील हो, चुनाँचे वह ख़ुद लोगों को इस तरह के मशवरे देने लगते हैं कि बाबा इस तरह ख़ुला ख़र्च ना किया करो, तुम ख़्वाह माख़्वाह पैसे उड़ाते हो, अक़्ल के नाख़ुन लो, कुछ ना कुछ बचा कर रखा करो, वक़्त पर काम आयेगा। इस तरह वह लोगों को भी बुख्ल का ही मशवरा देते हैं।
“और वह छुपाते हैं उसको जो अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़ल में से दिया है।” | وَيَكْتُمُوْنَ مَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ ۭ |
अपनी दौलत को छुपा-छुपा कर रखते हैं। उन्हें यह अंदेशा लाहक़ रहता है कि दौलत ज़ाहिर होगी तो कोई साइल सवाल कर बैठेगा। लिहाज़ा ख़ुद ही मिस्कीन सूरत बनाये रखते हैं कि कोई उनके सामने दस्ते सवाल दराज़ ना करे।
“और ऐसे नाशुक्रों के लिये हमने बड़ा अहानत आमेज़ आज़ाब तैयार कर रखा है।” | وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا 37ۚ |
आयत 38
“और वह लोग (भी अल्लाह को नापसंद हैं) जो अपने माल ख़र्च करते हैं लोगों को दिखाने के लिये” | وَالَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ رِئَاۗءَ النَّاسِ |
“और वह हक़ीक़त में ईमान नहीं रखते ना अल्लाह पर ना यौमे आख़िर पर।” | وَلَا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَلَا بِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ |
“(ऐसे लोग गोया शैतान के साथी हैं) और जिसका साथी शैतान हो जाये तो वह बहुत ही बुरा साथी है।” | وَمَنْ يَّكُنِ الشَّيْطٰنُ لَهٗ قَرِيْنًا فَسَاۗءَ قَرِيْنًا 38 |
आयत 39
“इन लोगों पर क्या आफ़त आ जाती अगर यह अल्लाह और यौमे आख़िर पर (सदक़े दिल से) ईमान ले आते” | وَمَاذَا عَلَيْهِمْ لَوْ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ |
“और ख़र्च करते (खुले दिल के साथ) उसमें से जो अल्लाह ने उन्हें दिया है।” | وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقَھُمُ اللّٰهُ ۭ |
“और अल्लाह तआला इनसे अच्छी तरह वाक़िफ़ है।” | وَكَانَ اللّٰهُ بِهِمْ عَلِــيْمًا 39 |
आयत 40
“यक़ीनन अल्लाह किसी पर ज़र्रे के हमवज़न (बराबर) भी ज़ुल्म नहीं करेगा।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَظْلِمُ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ ۚ |
“अगर एक नेकी होगी तो उसको कई गुना बढ़ाएगा” | وَاِنْ تَكُ حَسَنَةً يُّضٰعِفْھَا |
“और ख़ास अपने ख़जाना-ए-फ़ज़ल से मज़ीद बहुत बड़ा अजर देगा।” | وَيُؤْتِ مِنْ لَّدُنْهُ اَجْرًا عَظِيْمًا 40 |
इस सूरह मुबारका की अगली आयत बड़ी अहम है। यह उस शहादत अलन्नास से मुताल्लिक़ है जो मज़मून सूरतुल बक़रह (आयत:143) में आया था कि ऐ मुसलमानों! तुम्हें अब शोहदा अलन्नास बनाया गया है, जैसे कि नबी ﷺ ने तुम पर शहादत दी है। नबी अकरम ﷺ क़यामत के दिन खड़े होकर कहेंगे कि ऐ अल्लाह मेरे पास जो दीन आया था मैंने इन्हें पहुँचा दिया था, अब यह अपने तर्ज़े अमल के ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। यही बात क़यामत के दिन खड़े होकर तुम्हें कहनी है कि ऐ अल्लाह हमने अपने ज़माने के लोगों तक तेरा दीन पहुँचा दिया था, अब इसके बाद अपने तर्ज़े अमल के यह ख़ुद जवाबदेह हैं। ऐसा ना हो कि उल्टा वह हमारे ऊपर मुक़दमा करें कि ऐ अल्लाह इन बदबख्तों ने हमें तेरा दीन नहीं पहुँचाया, यह ख़जाने के साँप बन कर बैठे रहे। यह तो शहादत का एक रुख़ है, लेकिन जिनके काँधों पर यह ज़िम्मेदारी डाल दी गई हो, वाक़्या यह है कि उसके लिये तो यह एक बहुत भारी बोझ है। यहाँ इसका नुक़्शा खींचा जा रहा है कि क़यामत के दिन क्या होगा।
आयत 41
“तो उस दिन क्या सूरते हाल होगी जब हम हर उम्मत में से एक गवाह खड़ा करेंगे” | فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ |
यानि उस नबी और रसूल को गवाह बना कर खड़ा करेंगे जिसने उस उम्मत को दावत पहुँचाई होगी।
“और (ऐ नबी) आपको लाएँगे हम इन पर गवाह बना कर।” | وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا 41ڲ |
यानि आप ﷺ को खड़े होकर कहना पड़ेगा कि ऐ अल्लाह! मैंने इन तक तेरा पैगाम पहुँचा दिया था। हमारी अदालती इस्तलाह में इसे इस्तग़ाशा का गवाह (prosecution witness) कहा जाता है। गोया अदालत-ए-ख़ुदावंदी में नबी अकरम ﷺ इस्तग़ाशा के गवाह की हैसियत से पेश होकर कहेंगे कि ऐ अल्लाह, तेरा पैग़ाम जो मुझ तक पहुँचा था मैंने इन्हें पहुँचा दिया था, अब यह ख़ुद ज़िम्मेदार और जवाबदेह हैं। चुनाँचे अपनी ही क़ौम के ख़िलाफ़ गवाही आ गई ना? यहाँ अल्फ़ाज़ नोट कर लीजिये: عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا और عَلٰي हमेशा मुख़ालफ़त के लिये आता है। हम तो हाथ पर हाथ धरे शफ़ाअत की उम्मीद में हैं और यहाँ हमारे ख़िलाफ मुक़दमा क़ायम होने चला है। अल्लाह के रसूल ﷺ दरबारे ख़ुदावंदी में हमारे ख़िलाफ़ गवाही देंगे कि ऐ अल्लाह! मैंने तेरा दीन इनके सुपुर्द किया था, अब इसे दुनिया में फैलाना इनका काम था, लेकिन इन्होंने ख़ुद दीन को छोड़ दिया। सूरतुल फ़ुरक़ान में अल्फ़ाज़ आये हैं: { وَقَالَ الرَّسُوْلُ يٰرَبِّ اِنَّ قَوْمِي اتَّخَذُوْا ھٰذَا الْقُرْاٰنَ مَهْجُوْرًا} (आयत:30) “और रसूल ﷺ कहेंगे कि परवरदिग़ार, मेरी क़ौम ने इस क़ुरान को तर्क कर दिया था।” सूरतुन्निसा की आयत ज़ेरे मुताअला के बारे में एक वाक़िया भी है। एक मर्तबा रसूल ﷺ ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ि० से इर्शाद फ़रमाया कि मुझे क़ुरान सुनाओ! उन्होंने अर्ज़ किया हुज़ूर आपको सुनाऊँ? आप ﷺ पर तो नाज़िल हुआ है। फ़रमाया: हाँ, लेकिन मुझे किसी दूसरे से सुन कर कुछ और हज़ (आनंद) हासिल होता है। हज़रत अब्दुल्लाह रज़ि० ने सूरतुन्निसा पढ़नी शुरू की। हुज़ूर ﷺ भी सुन रहे थे, बाक़ी और सहाबा रज़ि० भी होंगे और हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ि० गर्दन झुकाए पढ़ते जा रहे थे। जब इस आयत पर पहुँचे { فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا } तो हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया حَسْبُکَ، حَسْبُکَ (बस करो, बस करो!) अब्दुल्लाह बिन मसूद रज़ि० ने सर उठा कर देखा तो हुज़ूर ﷺ की आँखों में आँसू रवाँ थे। इस वजह से कि मुझे अपनी क़ौम के ख़िलाफ़ गवाही देनी होगी।
आयत 42
“उस दिन तमन्ना करेंगे वह लोग जिन्होंने कुफ़्र किया था और रसूल की नाफ़रमानी की थी कि काश उनके समेत ज़मीन बराबर कर दी जाये।” | يَوْمَىِٕذٍ يَّوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَعَصَوُا الرَّسُوْلَ لَوْ تُـسَوّٰى بِهِمُ الْاَرْضُ ۭ |
यानि किसी तरह ज़मीन फट जाये और हम इसमें दफ़न हो जायें, हमें नसयम मन्सिया कर दिया जाये।
“और वह अल्लाह से कोई बात भी छुपा नहीं सकेगें।” | وَلَا يَكْتُمُوْنَ اللّٰهَ حَدِيْثًا 42ۧ |
आयत 43
“ऐ अहले ईमान, नमाज़ के क़रीब ना जाओ इस हाल में कि तुम नशे की हालत में हो” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقْرَبُوا الصَّلٰوةَ وَاَنْتُمْ سُكٰرٰى |
“यहाँ तक कि तुम्हें मालूम हो जो कुछ तुम कह रहे हो” | حَتّٰى تَعْلَمُوْا مَا تَقُوْلُوْنَ |
सूरतुल बक़रह (आयत:219) में शराब और जुए के बारे में महज़ इज़हारे नाराज़गी फ़रमाया था कि {وَاِثْـمُهُمَآ اَكْبَرُ مِنْ نَّفْعِهِمَا ۭ } “उनके गुनाह का पहलु नफ़े के पहलु से बड़ा है।” अब अगले क़दम के तौर पर शराब के अंदर जो ख़बासत, शनाअत और बुराई का पहलु है उसे एक मर्बता और उजागर किया गया कि नशे की हालत में नमाज़ के क़रीब ना जाया करो। जब तक नशा उतर ना जाये और तुम्हें मालूम हो कि तुम क्या कह रहे हो उस वक़्त तक नमाज़ ना पढ़ा करो। चूँकि शराब की हुरमत का हुक्म अभी नहीं आया था लिहाज़ा बाज़ अवक़ात लोग नशे की हालत ही में नमाज़ पढ़ने खड़े हो जाते और कुछ का कुछ पढ़ जाते। ऐसे अवक़ात भी बयान हुए हैं कि किसी ने नशे मे नमाज़ पढ़ाई और “لَآ اَعْبُدُ مَا تَعْبُدُوْنَ” के बजाय “اَعْبُدُ مَا تَعْبُدُوْنَ” पढ़ दिया। इस पर ख़ास तौर पर यह आयत नाज़िल हुई। { حَتّٰى تَعْلَمُوْا مَا تَقُوْلُوْنَ} के अल्फ़ाज़ क़ाबिले ग़ौर हैं कि जब तक कि तुम शऊर के साथ समझ ना रहे हो कि तुम क्या कह रहे हो! इसमें एक इशारा इधर भी हो गया कि बे समझ नमाज़ ना पढ़ा करो! यानि एक तो मदहोशी की वजह से समझ में नहीं आ रहा और ग़लत-सलत पढ़ रहे हैं तो इससे रोका जा रहा है, और एक समझ ही नहीं कि नमाज़ में क्या पढ़ रहे हैं। क़ुरान कह रहा है कि तुम्हें मालूम होना चाहिये कि तुम कह क्या रहे हो। अब जिन्हें क़ुरान मजीद के मायने नहीं आते, नमाज़ के मायने नहीं आते, उन्हें क्या पता कि वह नमाज़ में क्या कह रहे हैं!
“और इसी तरह जनाबत की हालत में भी (नमाज़ के क़रीब ना जाओ) जब तक ग़ुस्ल ना कर लो, इल्ला यह कि रास्ते से गुज़रते हुए।” | وَلَا جُنُبًا اِلَّا عَابِرِيْ سَبِيْلٍ حَتّٰى تَغْتَسِلُوْا ۭ |
अग़र तुमने अपनी बीवियों से मुबाशरत (संभोग) की हो या अहतलाम वग़ैरह की शक्ल हो गई हो तब भी तुम नमाज़ के क़रीब मत जाओ जब तक कि ग़ुस्ल न कर लो। “اِلَّا عَابِرِيْ سَبِيْلٍ” के बारे में बहुत से क़ौल हैं। बाज़ फ़ुक़हा और मुफ़स्सिरीन ने इसका यह मफ़हूम समझा है कि हालते जनाबत में मस्जिद में ना जाना चाहिये, इल्ला यह कि किसी काम के लिये मस्जिद में से गुज़रना हो, जबकि बाज़ ने इससे मुराद सफ़र लिया है।
“और अगर तुम बीमार हो या सफ़र में हो” | وَاِنْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَوْ عَلٰي سَفَرٍ |
आदमी को तेज़ बुख़ार है या कोई और तकलीफ़ है जिसमें गुस्ल करना मज़र (ख़तरनाक) साबित हो सकता है तो तयम्मुम की इजाज़त है। इसी तरह कोई शख़्स सफ़र में है और उसे पानी दस्तयाब नहीं है तो वह तयम्मुम कर ले।
“या तुममें से कोई क़ज़ा-ए-हाजत (शौच) के बाद आया हो” | اَوْ جَاۗءَ اَحَدٌ مِّنْكُمْ مِّنَ الْغَاۗىِٕطِ |
“या तुमने औरतों के साथ मुबाशरत की हो” | اَوْ لٰمَسْتُمُ النِّسَاۗءَ |
“फिर तुम पानी ना पाओ” | فَلَمْ تَجِدُوْا مَاۗءً |
“तो पाक मिट्टी का क़सद करो” | فَتَيَمَّمُوْا صَعِيْدًا طَيِّبًا |
यानि वो तमाम सूरतें जिनमें ग़ुस्ल या वुज़ू वाज़िब है, इनमें अगर बीमारी ग़ुस्ल से मना हो, हालते सफ़र में नहाना मुमकिन ना हो, क़ज़ा-ए-हाजत या औरतों से मुबाशरत के बाद पानी दस्तयाब ना हो तो पाक मिट्टी से तयम्मुम कर लिया जाये।
“और इससे अपने चेहरों और हाथों पर मसह कर लो।” | فَامْسَحُوْا بِوُجُوْهِكُمْ وَاَيْدِيْكُمْ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला बहुत माफ़ करने वाला, बख़्शने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَفُوًّا غَفُوْرًا 43 |
हज़रत आयशा रज़ि० से लैलतुलक़द्र की जो दुआ मरवी है उसमें यही लफ़्ज़ आया है: ((اَللّٰھُمَّ اِنَّکَ عَفُوٌّ تُحِبُّ الْعَفْوَ فَاعْفُ عَنِّیْ)) “ऐ अल्लाह, तू माफ़ फ़रमाने वाला है, माफ़ी को पसंद करता है, पस तू मुझे माफ़ फ़रमा दे!”
सूरतुन्निसा की इन तैंतालीस आयात में वही सूरतुल बक़रह का अंदाज़ है कि शरीअत के अहकाम मुख़्तलिफ़ गोशों में, मुख़्तलिफ़ पहलुओं से बयान हुए। इबादात के ज़िमन में तयम्मुम का ज़िक्र आ गया, विरासत का क़ानून पूरी तफ़सील से बयान हो गया और मआशरे में जिन्सी बेराहरवी की रोकथाम के लिये अहकाम आ गये, ताकि एक पाकीज़ा और सालेह मआशरा वुजूद में आये जहाँ एक मुस्तहकम ख़ानदानी निज़ाम हो। अब यहाँ एक मुख़्तसर सा ख़िताब अहले किताब के बारे में आ रहा है।
आयात 44 से 57 तक
اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يَشْتَرُوْنَ الضَّلٰلَةَ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ تَضِلُّوا السَّبِيْلَ 44ۭ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِاَعْدَاۗىِٕكُمْ ۭ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَلِيًّـۢا ڭ وَّكَفٰى بِاللّٰهِ نَصِيْرًا 45 مِنَ الَّذِيْنَ ھَادُوْا يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِهٖ وَيَقُوْلُوْنَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ وَّرَاعِنَا لَيًّــۢا بِاَلْسِنَتِهِمْ وَطَعْنًا فِي الدِّيْنِ ۭ وَلَوْ اَنَّھُمْ قَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانْظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ وَاَقْوَمَ ۙ وَلٰكِنْ لَّعَنَھُمُ اللّٰهُ بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا 46 يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اٰمِنُوْا بِمَا نَزَّلْنَا مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ نَّطْمِسَ وُجُوْهًا فَنَرُدَّھَا عَلٰٓي اَدْبَارِھَآ اَوْ نَلْعَنَھُمْ كَمَا لَعَنَّآ اَصْحٰبَ السَّبْتِ ۭوَكَانَ اَمْرُ اللّٰهِ مَفْعُوْلًا 47 اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ ۚوَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدِ افْتَرٰٓى اِثْمًا عَظِيْمًا 48 اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يُزَكُّوْنَ اَنْفُسَھُمْ ۭ بَلِ اللّٰهُ يُزَكِّيْ مَنْ يَّشَاۗءُ وَلَا يُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا 49 اُنْظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ ۭوَكَفٰى بِهٖٓ اِثْمًا مُّبِيْنًا 50ۧ اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يُؤْمِنُوْنَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوْتِ وَيَقُوْلُوْنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا هٰٓؤُلَاۗءِ اَهْدٰى مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا سَبِيْلًا 51 اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَعَنَھُمُ اللّٰهُ ۭ وَمَنْ يَّلْعَنِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ نَصِيْرًا 52ۭ اَمْ لَھُمْ نَصِيْبٌ مِّنَ الْمُلْكِ فَاِذًا لَّا يُؤْتُوْنَ النَّاسَ نَقِيْرًا 53ۙ اَمْ يَحْسُدُوْنَ النَّاسَ عَلٰي مَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ ۚ فَقَدْ اٰتَيْنَآ اٰلَ اِبْرٰهِيْمَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَاٰتَيْنٰھُمْ مُّلْكًا عَظِيْمًا 54 فَمِنْھُمْ مَّنْ اٰمَنَ بِهٖ وَمِنْھُمْ مَّنْ صَدَّ عَنْهُ ۭوَكَفٰى بِجَهَنَّمَ سَعِيْرًا 55 اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِنَا سَوْفَ نُصْلِيْهِمْ نَارًا ۭ كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُوْدُھُمْ بَدَّلْنٰھُمْ جُلُوْدًا غَيْرَھَا لِيَذُوْقُوا الْعَذَابَ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَزِيْزًا حَكِيْمًا 56 وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَنُدْخِلُھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَآ اَبَدًا ۭ لَھُمْ فِيْھَآ اَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ ۡ وَّنُدْخِلُھُمْ ظِلًّا ظَلِيْلًا 57
आयत 44
“क्या तुमने देखा नहीं उन लोगों को जिन्हें किताब में से एक हिस्सा दिया गया था” | اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ |
वह “अल किताब” एक हक़ीक़त है जिसमें से एक हिस्सा तौरात और एक हिस्सा इन्जील के नाम से नाज़िल हुआ और फिर वह किताब हर ऐतबार से कामिल होकर क़ुरान की शक्ल में नाज़िल हुई।
“वह गुमराही ख़रीदते हैं और चाहते हैं कि तुम भी गुमराह हो जाओ।” | يَشْتَرُوْنَ الضَّلٰلَةَ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ تَضِلُّوا السَّبِيْلَ 44ۭ |
मुशरिकीने मक्का भी यही कुछ किया करते थे कि लोग लहव व लअब (खेल-तमाशे) में मशग़ूल रहें और क़ुरान ना सुनें। उन्होंने ईरान से रुस्तम व असफंदयार के क़िस्से मँगवा कर दास्तान गोई का सिलसिला शुरू किया और गाने-बजाने वाली लौंड़ियों और आलाते मौसीक़ी का इन्तेज़ाम किया ताकि लोग इन्हीं चीजों में मशग़ूल रहें और हुज़ूर ﷺ की बात कोई ना सुने। इसी तरह मदीना में यहूद का भी यही मामला था कि वह ख़ुद भी गुमराहकुन मशागुल इख़्तियार करते और दूसरों को भी उसमें मशग़ूल करने की कोशिश करते। हमारे ज़माने में इस क़िस्म के मशागुल की बहुत सी सूरतें हैं। हमारे यहाँ जब किक्रेट मैच हो रहे होते हैं और टीवी पर दिखाये जाते हैं तो पूरी क़ौम का यह हाल होता है गोया कि दुनिया की अहमतरीन शय किक्रेट ही है। इसी तरह दुनिया में दूसरे खेल-तमाशे देखे जाते हैं कि दुनिया उनके पीछे पागल हो जाती है। शैतान को और क्या चाहिये? वह तो यही चाहता है ना कि लोगों की हक़ाइक़ की तरफ़ निगाह ही ना हो। किसी को यह सोचने की ज़रूरत ही महसूस ना हो कि ज़िन्दगी किस लिये है? जीना काहे के लिये है? मौत है तो उसके बाद क्या होना है? इंसान या तो हैवानी सतह पर ज़िन्दगी गुज़ारे दे कि उसे हलाल व हराम की तमीज़ ही ना रहे कि वह क्या कमा रहा है और क्या खा रहा है, और या फिर इस तरह के लहव व लअब के अंदर ज़िन्दगी गुज़ार दे। इन चीज़ों के फ़रोग़ के लिये बड़े मुस्तहकम निज़ाम हैं और इन खिलाड़ियों वग़ैरह के लिये बहुत बड़े-बड़े ईनामात होते हैं। फ़रमाया: यह चाहते हैं कि तुम्हें भी सीधे रास्ते से भटका दें, राहे हक़ से मुनहरिफ़ कर दें।
आयत 45
“अल्लाह तुम्हारे दुश्मनों से ख़ूब वाक़िफ़ है।” | وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِاَعْدَاۗىِٕكُمْ ۭ |
“और अल्लाह काफ़ी है तुम्हारे वली और पुश्तपनाह होने की हैसियत से और काफ़ी है तुम्हारे मददगार होने के ऐतबार से।” | وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَلِيًّـۢا ڭ وَّكَفٰى بِاللّٰهِ نَصِيْرًا 45 |
आयत 46
“इन यहूदियों में से कुछ लोग हैं जो कलाम को उसके असल मक़ाम व महल (जगह) से फेरते हैं।” | مِنَ الَّذِيْنَ ھَادُوْا يُحَرِّفُوْنَ الْكَلِمَ عَنْ مَّوَاضِعِهٖ |
“वह कहते हैं हमने सुना और हमने नहीं माना” | وَيَقُوْلُوْنَ سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا |
यहूद अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़ कर अल्फ़ाज़ को कुछ का कुछ बना देते। रसूल अल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर होते तो अहकामे इलाही सुन कर कहते سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا । बज़ाहिर वह अहले ईमान की तरह سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا (हमने सुना और हमने क़ुबूल किया) कह रहे होते लेकिन ज़बान को मरोड़ कर हक़ीक़त में سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا कहते।
“और (कहते हैं) सुनिये, ना सुना जाये।” | وَاسْمَعْ غَيْرَ مُسْمَعٍ |
वह हुज़ूर ﷺ की मजलिस में आप ﷺ को मुख़ातिब करके कहते ज़रा हमारी बात सुनिये! साथ ही चुपके से कह देते कि आपसे सुना ना जाये, हमें आपको सुनाना मतलूब नहीं है। इस तरह वह शाने रिसालत में गुस्ताख़ी के मुरतकिब होते।
“और (कहते हैं) राइना अपनी ज़बानों को मोड़ कर” | وَّرَاعِنَا لَيًّــۢا بِاَلْسِنَتِهِمْ |
राइना का मफ़हूम तो है “हमारी रियायत कीजिये” लेकिन वह इसे खींच कर राईना बना देते। यानि ऐ हमारे चरवाहे!
“और दीन में तअन करने के लिये।” | وَطَعْنًا فِي الدِّيْنِ ۭ |
यहूद अपनी ज़बानों को तोड़-मरोड़ कर ऐसे कलिमात कहते और फिर दीन में यह ऐब लगाते कि अगर यह शख़्स वाक़ई नबी होता तो हमारा फ़रेब इस पर ज़ाहिर हो जाता। चुनाँचे अल्लाह तआला ने उनके फ़रेब को ज़ाहिर कर दिया।
“और अगर वह यह कहते कि हमने सुना और इताअत क़ुबूल की, और आप हमारी बात सुन लीजिये, और ज़रा हमें मोहलत दीजिये, तो यह उनके हक़ में कहीं बेहतर होता और बहुत दुरुस्त और सीधी बात होती” | وَلَوْ اَنَّھُمْ قَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا وَاسْمَعْ وَانْظُرْنَا لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ وَاَقْوَمَ ۙ |
“लेकिन अल्लाह ने तो उनके कुफ़्र की वजह से उन पर लानत कर दी है” | وَلٰكِنْ لَّعَنَھُمُ اللّٰهُ بِكُفْرِهِمْ |
“तो अब वह ईमान लाने वाले नहीं हैं मगर शाज़ ही कोई।” | فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا 46 |
आयत 47
“ऐ वह लोगो जिनको किताब दी गई थी! ईमान लाओ उस पर जो हमने नाज़िल किया है” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اٰمِنُوْا بِمَا نَزَّلْنَا |
यहूद की शरारतों पर लानत व मलामत के साथ ही उन्हें क़ुरान करीम पर ईमान की दावत भी दी जा रही है।
“जो उसकी तस्दीक़ करते हुए आया है जो तुम्हारे पास है” | مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ |
“इससे क़ब्ल कि हम चेहरों को मिटा डालें, फिर उनको उनकी पीठों की तरफ़ मोड़ दें” | مِّنْ قَبْلِ اَنْ نَّطْمِسَ وُجُوْهًا فَنَرُدَّھَا عَلٰٓي اَدْبَارِھَآ |
यानि चेहरे इस तरह मस्ख़ कर दिये जायें कि बिल्कुल सपाट हो जायें, उन पर कोई निशान बाक़ी ना रहे और फिर उन्हें पुश्त की तरफ़ मोड़ दिया जाये कि चेहरा पीछे और गुद्दी सामने।
“या हम उन पर भी इसी तरह लानत कर दें जिस तरह हमने अपने अस्हाबे सब्त पर लानत की थी।” | اَوْ نَلْعَنَھُمْ كَمَا لَعَنَّآ اَصْحٰبَ السَّبْتِ ۭ |
अस्हाबे सब्त के वाक़िये की तफ़सील सूरतुल आराफ़ में आयेगी, लेकिन इज्मालन यह वाक़िया सूरतुल बक़रह में आ चुका है।
“और अल्लाह का हुक्म तो नाफ़िज़ (लागू) होकर रहना है।” | وَكَانَ اَمْرُ اللّٰهِ مَفْعُوْلًا 47 |
आयत 48
“यक़ीनन अल्लाह इस बात को हरग़िज़ नहीं बख़्शेगा कि उसके साथ शिर्क किया जाये” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ |
“इससे कमतर जो कुछ है वह जिसके लिये चाहेगा बख़्श देगा।” | وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ ۚ |
गोया यह भी खुला लाइसेंस नहीं है कि आप समझ लें कि बाक़ी सब गुनाह तो माफ़ हो ही जायेंगे। इसकी उम्मीद दिलाई गई है कि अल्लाह तआला बाक़ी तमाम गुनाहों को बग़ैर तौबा के भी माफ़ कर सकता है, लेकिन शिर्क के माफ़ होने का कोई इम्कान नहीं।
“और जो अल्लाह तआला के साथ शिर्क करता है उसने तो बहुत बड़े गुनाह का इफ़तरा (बोहतान) किया।” | وَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدِ افْتَرٰٓى اِثْمًا عَظِيْمًا 48 |
अल्लाह तआला तो वाहिद व यक्ता है। उसकी ज़ात व सिफ़ात में किसी और को शरीक करना बहुत बड़ा झूठ, इफ़तरा और बोहतान है, और अज़ीम-तरीन गुनाह है।
आयत 49
“क्या तुमने देखा नहीं उन लोगों को जो अपने आपको बड़ा पाकीज़ा ठहराते हैं?” | اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يُزَكُّوْنَ اَنْفُسَھُمْ ۭ |
यहाँ यहूद के उसी फ़लसफ़े की तरफ़ इशारा है कि वह अपने आपको बहुत पाकबाज़ और आला व अरफ़ा समझते हैं। उनका दावा है कि “We are the chosen people of the Lord”। सूरतुल मायदा में उनका यह क़ौल नक़ल हुआ है: {نَحْنُ اَبْنٰۗؤُا اللّٰهِ وَاَحِبَّاۗؤُهٗ } (आयत:18) यानि हम तो अल्लाह के बेटों की तरह हैं बल्कि उसके बहुत ही चहेते और लाड़ले हैं। उनके नज़दीक दूसरे तमाम लोग Gentiles और Goyems हैं, जो देखने में इंसान नज़र आते हैं, हक़ीकत में हैवान हैं। उनको तो जिस तरह चाहो लूट कर खा जाओ, जिस तरह चाहो उनको धोखा दो, उनका इस्तहसाल (शोषण) करो, हम पर कोई गिरफ्त नहीं है। सूरह आले इमरान (आयत:75) में हम उनका क़ौल पढ़ चुके हैं: {لَيْسَ عَلَيْنَا فِي الْاُمِّيّٖنَ سَبِيْلٌ ۚ } “इन उम्मियों के मामले में हम पर कोई गिरफ़्त नहीं है।” हमसे इनके बारे में कोई मुहासबा और कोई मुआख़जा नहीं होगा। जैसे आपने घोड़े को तांगे में जोत लिया या हिरन का शिकार करके खा लिया तो आपसे इस पर कौन मुआख़जा करेगा?
“बल्कि अल्लाह तआला ही है जो पाक करता है जिसको चाहता है” | بَلِ اللّٰهُ يُزَكِّيْ مَنْ يَّشَاۗءُ |
“और उन पर ज़रा भी ज़ुल्म नहीं किया जायेगा।” | وَلَا يُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا 49 |
उनको अगर पाकीज़गी नहीं मिलती तो इसका सबब उनके अपने करतूत हैं, अल्लाह तआला की तरफ़ से तो उन पर ज़रा भी ज़ुल्म नहीं किया जाता। फ़तील दरअसल उस धागे को कहते हैं जो ख़जूर के अंदर गुठली के साथ लगा हुआ होता है। नुज़ूले क़ुरान के ज़माने में जो छोटी से छोटी चीज़ें लोगों के मुशाहिदे में आती थीं ज़ाहिर है कि वहीं से किसी चीज़ के छोटा होने के लिये मिसाल पेश की जा सकती थी।
आयत 50
“देखो ये लोग अल्लाह पर कैसे झूठ बाँध रहे हैं?” | اُنْظُرْ كَيْفَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ ۭ |
“और सरीह गुनाह होने के लिये तो यही काफ़ी है।” | وَكَفٰى بِهٖٓ اِثْمًا مُّبِيْنًا 50ۧ |
यानि इनकी गिरफ़्त के लिये और इनको अज़ाब देने के लिये यही एक बात काफ़ी है जो इन्होंने गढ़ी है।
आयत 51
“क्या तुमने देखा नहीं उन लोगों को जिन्हें किताब में से एक हिस्सा दिया गया था” | اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ |
“वह ईमान लातें हैं बुतों पर और शैतान पर” | يُؤْمِنُوْنَ بِالْجِبْتِ وَالطَّاغُوْتِ |
“और कहते हैं उन लोगों के मुताल्लिक़ जिन्होंने कुफ़्र किया (यानि मुशरिकीन) कि इन अहले ईमान से ज़्यादा हिदायत पर तो यह हैं।” | وَيَقُوْلُوْنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا هٰٓؤُلَاۗءِ اَهْدٰى مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا سَبِيْلًا 51 |
यहूद अपनी ज़िद और हठधर्मी में इस हद तक पहुँच गये थे। उन्हें ख़ूब मालूम था कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और उनके साथी रज़ि० ईमान बिल् अल्लाह और ईमान बिल् आख़िरत में उनसे मुशाबेह थे, फिर वह हज़रत मूसा अलै० पर भी ईमान रखते थे और तौरात को अल्लाह की किताब मानते थे। लेकिन अहले ईमान के साथ ज़िद्दम-ज़िद्दा और अदावत में वह इस हद तक आगे बढ़ गये कि मुशरीकीने मक्का से मिल कर उनके बुतों की ताज़ीम की और कहा कि यह मुशरिक मुसलमानों से ज़्यादा हिदायत याफ़्ता हैं और इनका दीन मुसलमानों के दीन से बेहतर है।
आयत 52
“यह वह लोग हैं जिन पर अल्लाह ने लानत फ़रमा दी है।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَعَنَھُمُ اللّٰهُ ۭ |
“और जिस पर अल्लाह लानत कर दे फिर तुम उसके लिये कोई मददगार नहीं पाओगे।” | وَمَنْ يَّلْعَنِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ نَصِيْرًا 52ۭ |
आयत 53
“क्या इनका कोई हिस्सा है इक़तदार में?” | اَمْ لَھُمْ نَصِيْبٌ مِّنَ الْمُلْكِ |
इन्होंने यह जो तक़सीम कर ली है कि दुनिया में यह सब कुछ हमारे लिये है, बाक़ी तमाम इंसान Gentiles और Goyems हैं, तो इंसानों में यह तक़सीम और तफ़रीक़ का इख़्तियार इन्हें किसने दिया है? क्या इनका अल्लाह की हुकूमत में कोई हिस्सा है? ज़मीन व आसमान की बादशाही तो अल्लाह की है, मालिकुल मुल्क अल्लाह है। तो क्या इनको उसके पास से कोई इख़्तियार मिला हुआ है?
“अग़र ऐसा कहीं होता तो यह दूसरे लोगों को तिल के बराबर भी कोई शय देने को तैयार ना होते।” | فَاِذًا لَّا يُؤْتُوْنَ النَّاسَ نَقِيْرًا 53ۙ |
आयत 54
“क्या यह हसद कर रहे हैं लोगों से उस पर कि जो अल्लाह ने उनको अपने फ़ज़ल में से अता कर दिया है?” | اَمْ يَحْسُدُوْنَ النَّاسَ عَلٰي مَآ اٰتٰىھُمُ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ ۚ |
दरअसल यह सब उस हसद का नतीजा है जो यह मुसलमानों से रखते हैं कि अल्लाह ने इन उम्मियों में अपना आख़री नबी भेज दिया और इन्हें अपनी आख़री किताब अता फ़रमा दी जिन्हें यह हक़ीर समझते थे। अब यह इस हसद की आग में जल रहे हैं।
“तो हमने आले इब्राहीम अलै० को किताब और हिकमत अता फ़रमाई और उन्हें बहुत बड़ी हुकूमतें भी दीं।” | فَقَدْ اٰتَيْنَآ اٰلَ اِبْرٰهِيْمَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَاٰتَيْنٰھُمْ مُّلْكًا عَظِيْمًا 54 |
यानि तुम्हें भी अगर तौरात और इंजील मिली थी तो इब्राहीम अलै० की नस्ल होने के नाते से मिली थी, तो यह जो इस्माईल अलै० की नस्ल है यह भी तो इब्राहीम अलै० ही की नस्ल है। यहाँ बनी इस्राईल को किताब और हिकमत अलैहदा-अलैहदा मिली। तौरात किताब थी और इंजील हिकमत थी, जबकि यहाँ किताब और हिकमत अल्लाह तआला ने एक ही जगह पर क़ुरान में ब-तमाम व कमाल जमा कर दी हैं। मज़ीद बराँ जैसे उनको मुल्के अज़ीम दिया था, अब हम इन मुसलमानों को उससे बड़ा मुल्क देंगे। यह मज़मून सूरतुन्नूर में आयेगा: { لَيَسْتَخْلِفَنَّهُمْ فِي الْاَرْضِ كَمَا اسْتَخْلَفَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۠ } (आयत:55) “हम लाज़िमन अहले ईमान को दुनिया में हुकूमत और ख़िलाफ़त अता करेंगे जैसे इनसे पहलों को अता की थी।”
आयत 55
“पस इनमें से वह भी हैं जो इस पर ईमान ले आये हैं और वह भी हैं जो इससे रुक गये हैं।” | فَمِنْھُمْ مَّنْ اٰمَنَ بِهٖ وَمِنْھُمْ مَّنْ صَدَّ عَنْهُ ۭ |
“और ऐसे लोगों के लिये तो जहन्नम की भड़कती हुई आग ही काफ़ी है।” | وَكَفٰى بِجَهَنَّمَ سَعِيْرًا 55 |
आयत 56
“यक़ीनन जो लोग हमारी आयात का कुफ़्र करेंगे एक वक़्त आयेगा कि हम उन्हें आग में झोंक देगें।” | اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِنَا سَوْفَ نُصْلِيْهِمْ نَارًا ۭ |
“और जब भी उनकी खालें जल जाएँगी हम उनको दूसरी खालें में बदल देंगे” | كُلَّمَا نَضِجَتْ جُلُوْدُھُمْ بَدَّلْنٰھُمْ جُلُوْدًا غَيْرَھَا |
“ताकि वह अज़ाब का मज़ा चखते रहें।” | لِيَذُوْقُوا الْعَذَابَ ۭ |
यह भी एक बहुत बड़ी हक़ीक़त है जिसे मेडिकल साइंस ने दरयाफ़्त किया है कि दर्द का अहसास इंसान की खाल (skin) ही में है। इसके नीचे गोश्त व अज़लात (मांसपेशियों) वग़ैरह में दर्द का अहसास नहीं है। किसी को चुटकी काटी जाये, काँटा चुभे, चोट लगे या कोई हिस्सा जल जाये तो तकलीफ़ और दर्द का सारा अहसास जिल्द ही में होता है। चुनाँचे इन जहन्नमियों के बारे में फ़रमाया गया कि जब भी इनकी खाल आतिशे जहन्नम से जल जायेगी तो इसकी जगह नई खाल दे दी जायेगी ताकि उनकी तकलीफ़ और सोज़श (सूजन) मुसलसल रहे, जलन का अहसास बरक़रार रहे, इसमें कमी ना हो।
“यक़ीनन अल्लाह ज़बरदस्त है, कमाले हिकमत वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَزِيْزًا حَكِيْمًا 56 |
आयत 57
“और वह लोग जो ईमान लाये और उन्होंने नेक अमल किये” | وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ |
यहाँ भी वही फ़ौरी तक़ाबुल (simultaneous contrast) है कि अहले जहन्नम के तज़किरे के फ़ौरन बाद अहले जन्नत का तज़किरा है।
“अनक़रीब उन्हें हम दाख़िल करेंगे उन बाग़ात में जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी” | سَنُدْخِلُھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ |
“वह रहेंगे उनमें हमेशा-हमेश।” | خٰلِدِيْنَ فِيْھَآ اَبَدًا ۭ |
“उनके लिये उसमें होंगी बड़ी पाक-बाज़ बीवियाँ” | لَھُمْ فِيْھَآ اَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ ۡ |
“और हम उन्हें दाख़िल करेंगे घनी छावों में।” | وَّنُدْخِلُھُمْ ظِلًّا ظَلِيْلًا 57 |
उन्हें ऐसी गहरी और ठंडी छाँव में रखा जायेगा जो धूप की हदत (warming) और तमाज़त (शदीद गर्मी) से बिल्कुल महफ़ूज़ होगी।
यहाँ वह हिस्सा ख़त्म हुआ जिसमें अहले किताब की तरफ़ रुए सुख़न था। अब फिर मुसलमानों से ख़िताब है।
आयात 58 से 70 तक
اِنَّ اللّٰهَ يَاْمُرُكُمْ اَنْ تُؤَدُّوا الْاَمٰنٰتِ اِلٰٓى اَھْلِھَا ۙ وَاِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ اَنْ تَحْكُمُوْا بِالْعَدْلِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ نِعِمَّا يَعِظُكُمْ بِهٖ ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ سَمِيْعًۢا بَصِيْرًا 58 يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاُولِي الْاَمْرِ مِنْكُمْ ۚ فَاِنْ تَنَازَعْتُمْ فِيْ شَيْءٍ فَرُدُّوْهُ اِلَى اللّٰهِ وَالرَّسُوْلِ اِنْ كُنْتُمْ تُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ ذٰلِكَ خَيْرٌ وَّاَحْسَنُ تَاْوِيْلًا 59ۧ اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يَزْعُمُوْنَ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَحَاكَمُوْٓا اِلَى الطَّاغُوْتِ وَقَدْ اُمِرُوْٓا اَنْ يَّكْفُرُوْا بِهٖ ۭ وَيُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّضِلَّھُمْ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا 60 وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ رَاَيْتَ الْمُنٰفِقِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْكَ صُدُوْدًا 61ۚ فَكَيْفَ اِذَآ اَصَابَتْھُمْ مُّصِيْبَةٌۢ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ ثُمَّ جَاۗءُوْكَ يَحْلِفُوْنَ ڰ بِاللّٰهِ اِنْ اَرَدْنَآ اِلَّآ اِحْسَانًا وَّتَوْفِيْقًا 62 اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ يَعْلَمُ اللّٰهُ مَا فِيْ قُلُوْبِهِمْ ۤ فَاَعْرِضْ عَنْھُمْ وَعِظْھُمْ وَقُلْ لَّھُمْ فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ قَوْلًۢا بَلِيْغًا 63 وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا لِيُطَاعَ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ وَلَوْ اَنَّھُمْ اِذْ ظَّلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ جَاۗءُوْكَ فَاسْتَغْفَرُوا اللّٰهَ وَاسْتَغْفَرَ لَھُمُ الرَّسُوْلُ لَوَجَدُوا اللّٰهَ تَوَّابًا رَّحِـيْمًا 64 فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰي يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَــرَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِــيْمًا 65 وَلَوْ اَنَّا كَتَبْنَا عَلَيْهِمْ اَنِ اقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ اَوِ اخْرُجُوْا مِنْ دِيَارِكُمْ مَّا فَعَلُوْهُ اِلَّا قَلِيْلٌ مِّنْھُمْ ۭ وَلَوْ اَنَّھُمْ فَعَلُوْا مَا يُوْعَظُوْنَ بِهٖ لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ وَاَشَدَّ تَثْبِيْتًا 66ۙ وَّاِذًا لَّاٰتَيْنٰھُمْ مِّنْ لَّدُنَّآ اَجْرًا عَظِيْمًا 67ۙ وَّلَهَدَيْنٰھُمْ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًا 68 وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ فَاُولٰۗىِٕكَ مَعَ الَّذِيْنَ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ مِّنَ النَّبِيّٖنَ وَالصِّدِّيْقِيْنَ وَالشُّهَدَاۗءِ وَالصّٰلِحِيْنَ ۚ وَحَسُنَ اُولٰۗىِٕكَ رَفِيْقًا 69ۭ ذٰلِكَ الْفَضْلُ مِنَ اللّٰهِ ۭ وَكَفٰى بِاللّٰهِ عَلِــيْمًا 70ۧ
यह दो आयात (58, 59) क़ुरान मजीद की निहायत अहम आयात हैं, जिनमें इस्लाम का सारा सियासी, क़ानूनी और दस्तूरी निज़ाम मौजूद है। फ़रमाया:
आयत 58
“अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि अमानतें अहले अमानत के सुपुर्द करो” | اِنَّ اللّٰهَ يَاْمُرُكُمْ اَنْ تُؤَدُّوا الْاَمٰنٰتِ اِلٰٓى اَھْلِھَا ۙ |
“और जब लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो अदल के साथ फ़ैसला करो।” | اَھْلِھَا ۙ وَاِذَا حَكَمْتُمْ بَيْنَ النَّاسِ اَنْ تَحْكُمُوْا بِالْعَدْلِ ۭ |
पहली बात तो यह है कि आप जो भी सियासी निज़ाम बनाते हैं उसमें मनासिब (पद) होते हैं, जिनकी ज़िम्मेदारियाँ भी होती हैं और इख़्तियारात भी। लिहाज़ा इन मनासिब के इन्तख़ाब में आपकी राय की हैसियत अमानत की है। आप अपनी राय देख-भाल कर दें कि कौन इसका अहल है। अगर आपने ज़ात बिरादरी, रिश्तेदारी वग़ैरह की बिना पर या मफ़ादात के लालच में या किसी की धौंस की वजह से किसी के हक़ में राय दी तो यह सरीह ख़यानत है। हक़ राय वही एक अमानत है और उस अमानत का इस्तेमाल सही-सही होना चाहिये। आम मायने में भी अमानत की हिफ़ाज़त ज़रूरी है और जो भी अमानत किसी ने रखवाई है उसे वापस लौटाना आपकी शरई ज़िम्मेदारी है। लेकिन यहाँ यह बात इज्तमाई ज़िन्दगी के अहम उसूलों की हैसियत से आ रही है। दूसरी बात यह है कि जब लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो अदल के साथ फ़ैसला करो। गोया पहली हिदायत सियासी निज़ाम से मुताल्लिक़ है कि अमीरुल मोमिनीन या सरबराहे रियासत का इन्तख़ाब अहलियत (क्षमता) की बुनियाद पर होगा, जबकि दूसरी हिदायत अदलिया (Judiciary) के इस्तहकाम के बारे में है कि वहाँ बिला इम्तियाज़ हर एक को अदल व इंसाफ़ मयस्सर आये।
“यक़ीनन यह बहुत ही अच्छी नसीहतें हैं जो अल्लाह तुम्हें कर रहा है।” | اِنَّ اللّٰهَ نِعِمَّا يَعِظُكُمْ بِهٖ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला सब कुछ सुनने वाला देखने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ سَمِيْعًۢا بَصِيْرًا 58 |
अगली आयत में तीसरी हिदायत मुक़न्नाह (Legislature) के बारे में आ रही है कि इस्लामी रियासत की दस्तूरी बुनियाद क्या होगी। जदीद रियासत के तीन सुतून इन्तज़ामिया (Executive), अदलिया (Judiciary), और मुक़न्नाह (Legislature) गिने जाते हैं। पहली आयत में इन्तज़ामिया और अदलिया के ज़िक्र के बाद अब दूसरी आयत में मुक़न्नाह का ज़िक्र है कि क़ानून साजी के उसूल क्या होंगे। फ़रमाया:
आयत 59
“ऐ अहल ईमान! इताअत करो अल्लाह की और इताअत करो रसूल की” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ |
यानि कोई क़ानून अल्लाह और उसके रसूल की मन्शा के ख़िलाफ़ नहीं बनाया जा सकता। उसूली तौर पर यह बात पाकिस्तान के दस्तूर में भी तस्लीम की गई है।
“No Legislation will be done repugnant to the Quran and the Sunnah.”
लेकिन इसकी तन्फ़ीज़ व तामील की कोई ज़मानत मौजूद नहीं है, लिहाज़ा इस वक़्त हमारा दस्तूर मुनाफ़क़त का पुलंदा है। इस आयत की रू से अल्लाह के अहकाम और अल्लाह के रसूल ﷺ के अहकाम क़ानून साज़ी के दो मुस्तक़िल ज़राय (sources) हैं। इस तरह यहाँ मुन्करीने सुन्नत की नफ़ी होती है जो मुअख़र अल ज़िक्र का इंकार करते हैं। इसके साथ ही फ़रमाया:
“और अपने में से ऊलुल अम्र की भी (इताअत करो)” | وَاُولِي الْاَمْرِ مِنْكُمْ ۚ |
यहाँ बहुत अजीब अस्लूब है कि तीन हस्तियों की इताअत का हुक्म दिया गया है: अल्लाह की, रसूल की और ऊलुल अम्र की, लेकिन पहले दो के लिये “اَطِيْعُوا” का लफ़्ज़ आया है, जबकि तीसरे के लिये नहीं है। एक अस्लूब यह भी हो सकता था कि “اَطِيْعُوا” एक मर्तबा आ जाता और इसका इतलाक़ तीनों पर हो जाता: “يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَاُولِي الْاَمْرِ مِنْكُمْ ۚ” इस तरह तीनों बराबर हो जाते। दूसरा अस्लूब यह हो सकता था कि “اَطِيْعُوا” तीसरी मर्तबा भी आता: “يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوا الرَّسُوْلَ وَ اَطِيْعُوا اُولِي الْاَمْرِ مِنْكُمْ ۚ”। लेकिन क़ुरान ने जो अस्लूब इख़्तियार किया है कि “اَطِيْعُوا” दो के साथ है, तीसरे के साथ नहीं है, इससे ऊलुल अम्र की इताअत का मरतबा (status) मत्ईन (निर्धारित) हो जाता है। एक तो “مِنْكُمْ” की शर्त से वाज़ेह हो गया कि ऊलुल अम्र तुम ही में से होने चाहिये, यानि मुसलमान हों। ग़ैर मुस्लिम की हुकूमत को ज़हनन तस्लीम करना अल्लाह से बग़ावत है। वह कम से कम मुसलमान तो हों। फिर यह कि मुत्ज़क्किर बाला अस्लूब से वाज़ेह हो गया कि उनकी इताअत मुत्लक़, दायम और ग़ैर मशरूत नहीं। अल्लाह और रसूल ﷺ की इताअत मुत्लक़, दायम, ग़ैर मशरूत और ग़ैर महदूद है, लेकिन साहिबे अम्र की इताअत अल्लाह और उसके रसूल की इताअत के ताबेअ होगी। वह जो हुक्म भी लाये उसे बताना होगा कि मैं किताब व सुन्नत से कैसे इसका इसतन्बात (अनुमान) कर रहा हूँ। गोया उसे कम से कम यह साबित करना होगा कि यह हुक्म किताब व सुन्नत के ख़िलाफ़ नहीं है। एक मुसलमान रियासत में क़ानून साज़ी इसी बुनियाद पर हो सकती है। दौरे जदीद में क़ानून साज़ इदारा कोई भी हो, कांग्रेस हो, पार्लियामेंट हो या मजलिस मिल्ली हो, वह क़ानून साज़ी करेगी, लेकिन एक शर्त के साथ कि यह क़ानून साज़ी क़ुरान व सुन्नत से मुतसादिम (विरोध) ना हो।
“फिर अग़र तुम्हारे दरमियान किसी मामले में इख़्तलाफ़े राय हो जाये” | فَاِنْ تَنَازَعْتُمْ فِيْ شَيْءٍ |
ऐसी सूरत पैदा हो जाये कि उलुल अम्र कहे कि मैं तो इसे ऐन इस्लाम के मुताबिक़ समझता हूँ, लेकिन आप कहें कि नहीं, यह बात ख़िलाफ़े इस्लाम है, तो अब कहाँ जायें? फ़रमाया:
“तो उसे लौटा दो अल्लाह और रसूल की तरफ़” | فَرُدُّوْهُ اِلَى اللّٰهِ وَالرَّسُوْلِ |
यानि अब जो भी अपनी बात साबित करना चाहता है उसे अल्लाह और उसके रसूल से यानि क़ुरान व सुन्नत से दलील लानी पड़ेगी। मेरी पसंद, मेरा ख़्याल, मेरा नज़रिया वाला इस्तदलाल क़ाबिले क़ुबूल नहीं होगा। इस्तदलाल की बुनियाद अल्लाह और उसके रसूल की मर्ज़ी होगी। यह बात माननी पड़ेगी कि अभी यहाँ एक ख़ला है। वह ख़ला यह है कि यह फ़ैसला कौन करेगा कि फ़रीक़ैन में से किसकी राय सही है। और आज के रियासती निज़ाम में आकर वह ख़ला पुर हो चुका है कि यह अदलिया (Judiciary) का काम है। रसूल अल्लाह ﷺ के ज़माने में जब अरब में इस्लामी रियासत क़ायम हुई तो इस तरह अलैहदा-अलैहदा रियासती इदारे अभी पूरी तरह वुजूद में नहीं आये थे और इनकी अलग-अलग शिनाख्त नहीं थी कि यह मुक़न्नाह (Legislature) है, यह अदलिया (Judiciary) है और यह इन्तज़ामिया (Executive) है। हज़रत अबु बकर रज़ि० के ज़माने में तो कोई क़ाज़ी थे ही नहीं। सबसे पहले हज़रत उमर रज़ि० ने शोबा-ए-क़ज़ा शुरू किया। तो रफ़्ता-रफ़्ता यह रियासती इदारे परवान चढ़े। जदीद दौर में इन तनाज़आत के हल का इदारा अदलिया है। वहाँ हर शख़्स जाये और अपनी दलील पेश करे। उल्मा जायें, क़ानूनदान जायें और सब जाकर दलीलें दें। वहाँ से फ़ैसला हो जायेगा कि यह बात वाक़िअतन क़ुरान व सुन्नत से मुतसादिम है या नहीं।
“अग़र तुम वाक़िअतन अल्लाह पर और यौमे आख़िर पर ईमान रखते हो।” | اِنْ كُنْتُمْ تُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ |
“यही तरीक़ा बेहतर भी है और नताइज के ऐतबार से भी बहुत मुफ़ीद है।” | ذٰلِكَ خَيْرٌ وَّاَحْسَنُ تَاْوِيْلًا 59ۧ |
आगे फिर मुनाफ़िक़ीन का तज़किरा शुरू हो रहा है। याद रहे कि मैंने आग़ाज़ में अर्ज़ किया था कि इस सूरह मुबारका का सबसे बड़ा हिस्सा मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब और उनके तज़किरे पर मुश्तमिल है।
आयत 60
“क्या तुमने ग़ौर नहीं किया उन लोगों की तरफ़ जिनका दावा तो यह है कि वह ईमान ले आये हैं उस पर भी जो (ऐ नबी ﷺ!) आप ﷺ पर नाज़िल किया गया और उस पर भी जो आपसे पहले नाज़िल किया गया” | اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ يَزْعُمُوْنَ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ |
लेकिन उनका तर्ज़े अमल यह है कि:
“वह चाहते हैं कि अपने मुक़दमात के फ़ैसले ताग़ूत से करवाएँ” | يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَحَاكَمُوْٓا اِلَى الطَّاغُوْتِ |
यहाँ वाज़ेह तौर पर “ताग़ूत” से मुराद वह हाकिम या वह इदारे हैं जो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के अहकाम के मुताबिक़ फ़ैसला नहीं करता। पिछली आयत में अल्लाह और उसके रसूल की इताअत का हुक्म दिया गया था। गोया जो अल्लाह और उसके रसूल की इताअत पर कारबंद हो गया वह ताग़ूत से ख़ारिज हो गया और जो अल्लाह और उसके रसूल की इताअत को क़ुबूल नहीं करता वह ताग़ूत है, इसलिये कि वह अपनी हद से तजावुज़ कर गया। चुनाँचे ग़ैर मुस्लिम हाकिम या मुन्सिफ़ जो अल्लाह और उसके रसूल के अहकाम का पाबंद नहीं वह ताग़ूत है।
“हालाँकि उन्हें हुक्म दिया गया है कि ताग़ूत का कुफ़्र करें।” | وَقَدْ اُمِرُوْٓا اَنْ يَّكْفُرُوْا بِهٖ ۭ |
मुनाफ़िक़ीने मदीना की आम रविश यह थी जिस मुक़दमे में उन्हें अंदेशा होता कि फ़ैसला उनके ख़िलाफ़ होगा उसे नबी अकरम ﷺ की ख़िदमत में लाने के बजाय यहूदी आलिमों के पास ले जाते। वह जानते थे कि हुज़ूर ﷺ के पास जायेंगे तो हक़ और इंसाफ़ की बात होगी। एक यहूदी और एक मुसलमान जो मुनाफ़िक़ था, उनका आपस में झगड़ा हो गया। यहूदी कहने लगा कि चलो मुहम्मद (ﷺ) के पास चलते हैं। इसलिये कि उसे यक़ीन था कि मैं हक़ पर हूँ। लेकिन वह मुनाफ़िक़ कहने लगा कि काअब बिन अशरफ़ के पास चलते हैं जो एक यहूदी आलिम था। बहरहाल वह यहूदी उस मुनाफ़िक़ को रसूल ﷺ के पास ले आया। आप ﷺ ने दोनों की दलीलें सुनने के बाद फ़ैसला यहूदी के हक़ में कर दिया। वहाँ से बाहर निकले तो मुनाफ़िक़ ने कहा कि चलो अब हज़रत उमर रज़ि० के पास चलते हैं, वह जो फ़ैसला कर दें वह मुझे मंज़ूर होगा। वह दोनों हज़रत उमर रज़ि० के पास आये। मुनाफ़िक़ को यह उम्मीद थी कि हज़रत उमर रज़ि० मेरा ज़्यादा लिहाज़ करेंगे, क्योंकि मैं मुसलमान हूँ। जब यहूदी ने यह बताया कि इस मुक़दमें का फ़ैसला रसूल अल्लाह ﷺ मेरे हक़ में कर चुके हैं तो हज़रत उमर रज़ि० ने आव देखा ना ताव, तलवार ली और उस मुनाफ़िक़ की गर्दन उड़ा दी कि जो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के फ़ैसले पर राज़ी नहीं है और उसके बाद मुझसे फ़ैसला करवाना चाहता है उसके हक़ में मेरा यह फ़ैसला है! इस पर उस मुनाफ़िक़ के खानदान वालों ने बड़ा बवाल मचाया वह चीखते-चिल्लाते हुए रसूल अल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए और हज़रत उमर रज़ि० पर क़त्ल का दावा किया। उनका कहना था कि मक़तूल हज़रत उमर रज़ि० के पास यहूदी को लेकर इस वजह से गया था कि वह इस मामले में बाहम मसालिहत करा दें, उसके पेशे नज़र रसूल अल्लाह ﷺ के फ़ैसले से इंकार नहीं था। इस पर यह आयात नाज़िल हुईं जिनमें असल हक़ीक़त ज़ाहिर फ़रमा दी गई।
“और शैतान चाहता है कि उन्हें बहुत दूर की गुमराही में डाल दे।” | وَيُرِيْدُ الشَّيْطٰنُ اَنْ يُّضِلَّھُمْ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا 60 |
आयत 61
“और जब उनसे कहा जाता है कि आओ उस चीज़ की तरफ़ जो अल्लाह ने नाज़िल फ़रमाई है और आओ रसूल की तरफ़” | وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ تَعَالَوْا اِلٰى مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ وَاِلَى الرَّسُوْلِ |
अपने मुक़दमात के फ़ैसले अल्लाह के रसूल ﷺ ले कराओ।
“तो (ऐ नबी ﷺ!) आप देखते हैं कि यह मुनाफ़िक़ आपके पास आने से कन्नी कतराते हैं।” | رَاَيْتَ الْمُنٰفِقِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْكَ صُدُوْدًا 61ۚ |
یَصُدُّ صَدَّ के बारे में मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि यह रुकने के मायने में भी आता है और रोकने के भी मायने में भी।
आयत 62
“फिर उस वक़्त क्या हुआ जब उन पर कोई मुसीबत आ गयी उनके अपने हाथों के करतूतों की वजह से” | فَكَيْفَ اِذَآ اَصَابَتْھُمْ مُّصِيْبَةٌۢ بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ |
वह चीखते-चिल्लाते आये कि उमर ने हमारा आदमी मार डाला, हमें उसका क़िसास दिलाया जाये।
“फिर वह आपके पास आये अल्लाह की क़समें खाते हुए” | ثُمَّ جَاۗءُوْكَ يَحْلِفُوْنَ ڰ بِاللّٰهِ |
“कि हम तो सिर्फ़ भलाई और मुवाफ़क़त (अनुकूलन) चाहते थे।” | اِنْ اَرَدْنَآ اِلَّآ اِحْسَانًا وَّتَوْفِيْقًا 62 |
हम तो उमर रज़ि० के पास महज़ इसलिये गये थे कि कोई मसालिहत और राज़ीनामा हो जाये।
आयत 63
“यह वह लोग हैं कि जो कुछ इनके दिलों में है अल्लाह उसे जानता है।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ يَعْلَمُ اللّٰهُ مَا فِيْ قُلُوْبِهِمْ ۤ |
“तो (ऐ नबी ﷺ!) आप इनसे चश्मपोशी कीजिये” | فَاَعْرِضْ عَنْھُمْ |
“और इनको ज़रा नसीहत कीजिये” | وَعِظْھُمْ |
“और इनसे ख़ुद इनके बारे में ऐसी बात कहिये जो उनके दिलों में उतर जाये।” | وَقُلْ لَّھُمْ فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ قَوْلًۢا بَلِيْغًا 63 |
यह आयात नाज़िल होने के बाद रसूल अल्लाह ﷺ ने हज़रत उमर रज़ि० को बरी क़रार दिया कि अल्लाह की तरफ़ से उनकी बराअत आ गई है, और उसी दिन से उनका लक़ब “फ़ारूक़” क़रार पाया, यानि हक़ और बातिल में फ़र्क़ कर देने वाला।
अब एक बात नोट कर लीजिये कि इस सूरह मुबारका में मुनाफ़क़त जो ज़ेरे बहस आई है वह तीन उन्वानात के तहत है। मुनाफ़िक़ों पर तीन चीजें बहुत भारी थीं, जिनमें से अव्वलीन रसूल अल्लाह ﷺ की इताअत थी। और यह बड़ी नफ़्सियाती बात है। एक इंसान के लिये दूसरे इंसान की इताअत बड़ा मुश्किल काम है। हम जो रसूल अल्लाह ﷺ की इताअत करते हैं तो रसूल अल्लाह ﷺ हमारे लिये एक इदारे (institution) की हैसियत रखते हैं, रसूल ﷺ शख़्सन हमारे सामने मौजूद नहीं है। जबकि उनके सामने रसूल अल्लाह ﷺ शख़्सन मौजूद थे। वह देखते थे कि उनके भी दो हाथ हैं, दो पाँव हैं, दो आँखें हैं, लिहाज़ा बज़ाहिर अपने जैसे एक इंसान की इताअत उन पर बहुत शाक़ थी। जैसा कि जमातों में होता है कि अमीर की इताअत बहुत शाक़ गुज़रती है, यह बड़ा मुश्किल काम है। अमीर की राय पर चलने के लिये अपनी राय को पीछे डालना पड़ता है। जो सादिक़ुल ईमान मुसलमान थे उन्हें तो यह यक़ीन था कि यह मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह जिन्हें हम देख रहे हैं, हक़ीक़त में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ हैं और हम उनकी इसी हैसियत में उन पर ईमान लाये हैं। लेकिन जिनके दिलों में यह यक़ीन नहीं था या कमज़ोर था उनके लिये हुज़ूर ﷺ की शख़्सी इताअत बड़ी भारी और बड़ी कठिन थी। यही वजह है कि बाज़ मौक़े पर वह कहते थे कि यह जो कुछ कह रहे हैं अपने पास से कह रहे हैं। क्यों नहीं कोई सूरत नाज़िल हो जाती? क्यों नहीं कोई आयत नाज़िल हो जाती? और सूरह मुहम्मद ﷺ इसी अंदाज़ में नाज़िल हो हुई है। वह यह कहते थे कि मुहम्मद ﷺ ने ख़ुद अपनी तरफ़ से इक़दाम कर दिया है। इस पर अल्लाह ने कहा कि लो फिर हम क़िताल की आयत नाज़िल कर देते हैं। दूसरी चीज़ जो उन पर कठिन थी वह है क़िताल, यानि अल्लाह की राह में जंग के लिये निकलना। उनका हाल यह था कि “मरहले सख़्त हैं और जान अज़ीज़!” तीसरी कठिन चीज़ हिजरत थी। इसका इतलाक़ मुनाफ़िक़ीने मदीना पर नहीं होता था बल्कि मक्का और इर्द-गिर्द के जो मुनाफ़िक़ थे उन पर होता था। उनका ज़िक्र भी आगे आयेगा। ज़ाहिर है घर-बार और ख़ानदान वालों को छोड़ कर निकल जाना कोई आसान काम नहीं है। अब सबसे पहले इताअते रसूल ﷺ की अहमियत बयान की जा रही है:
आयत 64
“हमने नहीं भेजा किसी रसूल को मगर इसलिये कि उसकी इताअत की जाये अल्लाह के हुक्म से।” | وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا لِيُطَاعَ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ |
“और अगर वह, जबकि उन्होंने अपनी जानों पर ज़ुल्म किया था, आपकी ख़िदमत में हाज़िर हो जाते” | وَلَوْ اَنَّھُمْ اِذْ ظَّلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ جَاۗءُوْكَ |
“और अल्लाह से इस्तग़फ़ार करते और रसूल भी उनके लिये इस्तग़फ़ार करते” | فَاسْتَغْفَرُوا اللّٰهَ وَاسْتَغْفَرَ لَھُمُ الرَّسُوْلُ |
“तो वह यक़ीनन अल्लाह को बड़ा तौबा क़ुबूल फ़रमाने वाला और रहम करने वाला पाते।” | لَوَجَدُوا اللّٰهَ تَوَّابًا رَّحِـيْمًا 64 |
आयत 65
“पस नहीं, आपके रब की क़सम! यह हरग़िज़ मोमिन नहीं हो सकते जब तक कि यह आपको हकम (chief) ना मानें उन तमाम मामलात में जो उनके माबैन पैदा हो जायें” | فَلَا وَرَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ حَتّٰي يُحَكِّمُوْكَ فِيْمَا شَجَــرَ بَيْنَھُمْ |
इसमें उन्हें कोई इख़्तियार (choice) हासिल नहीं है। उनके माबैन जो भी नज़ाआत (विवाद) और इख़्तलाफ़ात हों उनमें अगर यह आपको हकम नहीं मानते तो आापके रब की क़सम यह मोमिन नहीं हैं। कलामे इलाही का दो टूक और पुरजलाल अंदाज़ मुलाहिज़ा कीजिये।
“फिर जो कुछ आप फ़ैसला कर दें उस पर अपने दिलों में भी कोई तंगी महसूस ना करें” | ثُمَّ لَا يَجِدُوْا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ حَرَجًا مِّمَّا قَضَيْتَ |
अगर आप ﷺ का फ़ैसला क़ुबूल भी कर लिया, लेकिन दिल की तंगी और कदूरत के साथ किया तब भी यह मोमिन नहीं हैं।
“और सरे तस्लीम ख़म करें, जैसे कि सरे तस्लीम ख़म करने का हक़ है।” | وَيُسَلِّمُوْا تَسْلِــيْمًا 65 |
वाज़ेह रहे कि यह हुक्म सिर्फ़ रसूल अल्लाह ﷺ की ज़िन्दगी तक महदूद नहीं था, बल्कि यह क़यामत तक के लिये है।
आयत 66
“और अगर हमने उन पर यह फ़र्ज़ कर दिया होता कि क़त्ल करो अपने आपको” | وَلَوْ اَنَّا كَتَبْنَا عَلَيْهِمْ اَنِ اقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ |
“या निकलो अपने घरों से” | اَوِ اخْرُجُوْا مِنْ دِيَارِكُمْ |
“तो यह इसकी तामील ना करते सिवाय इनमें से चंद एक के।” | مَّا فَعَلُوْهُ اِلَّا قَلِيْلٌ مِّنْھُمْ ۭ |
“और अगर यह लोग वह करते जिसकी इनको नसीहत की जा रही है” | وَلَوْ اَنَّھُمْ فَعَلُوْا مَا يُوْعَظُوْنَ بِهٖ |
इसका तर्जुमा इस तरह भी किया गया है: “और अगर यह लोग वह करते जिसकी इन्हें हिदायत की जाती” यानि अपने आपको क़त्ल करना और अपने घरों से निकल खड़े होना।
“तो यही इनके लिये बेहतर होता और इन्हें दीन पर साबित क़दम रखने वाला होता।” | لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ وَاَشَدَّ تَثْبِيْتًا 66ۙ |
आयत 67
“और इस सूरत में हम इन्हें अपने पास से बहुत बड़ा अजर देते।” | وَّاِذًا لَّاٰتَيْنٰھُمْ مِّنْ لَّدُنَّآ اَجْرًا عَظِيْمًا 67ۙ |
आयत 68
“और इन्हें हिदायत फ़रमा देते सीधी राह की तरफ़।” | وَّلَهَدَيْنٰھُمْ صِرَاطًا مُّسْتَقِيْمًا 68 |
अक्सर मुफ़स्सरीन ने इस आयत के अल्फ़ाज़ को इनके ज़ाहिरी मायने पर महमूल किया (समझा) है। यानि अगर अल्लाह तआला हुक्म दे कि अपने आपको क़त्ल करो, ख़ुदकुशी करो, तो हमें यह करना होगा। अगर अल्लाह तआला हुक्म दे कि अपने घरों से निकल जाओ तो निकलना होगा। अल्लाह तआला हमारा ख़ालिक़ व मालिक है। उसकी तरफ़ से दिया गया हर हुक्म वाजिबुल तामील है। अलबत्ता { اَنِ اقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ} के अल्फ़ाज़ में एक मज़ीद इशारा भी मालूम होता है। सूरतुल बक़रह (आयत:54) में हम तारीख़ बनी इस्राईल के हवाले से पढ़ आये हैं कि बनी इस्राईल में से जिन लोगों ने बछड़े की परस्तिश की थी उनको मुर्तद होने की जो सज़ा दी गई थी उसके लिये यही अल्फ़ाज़ आये थे: { فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ} “पस क़त्ल करो अपने आपको।” इससे मुराद यह है कि तुम अपने-अपने क़बीले के उन लोगों को क़त्ल करो जिन्होंने कुफ़्र व शिर्क का इरतकाब किया है। मुनाफ़िक़ीन का मामला यह था कि उनकी हिमायत में अक्सरो बेशतर उनके ख़ानदान वाले, रिश्तेदार, उनके घराने वाले उनके साथ शामिल हो जाते थे। तो यहाँ शायद यह बताया जा रहा है कि बजाय इसके कि तुम उनकी हिमायत करो, तुम्हारा तर्ज़े अमल इसके बिल्कुल बरअक्स होना चाहिये, कि तुम अपने अंदर से ख़ुद देखो कि कौन मुनाफ़िक़ हैं जो असल में आस्तीन के साँप हैं। अगरचे अल्लाह तआला ने तुम्हें यह हुक्म नहीं दिया, मगर वह यह हुक्म भी दे सकता था कि हर घराना अपने यहाँ के मुनाफ़िक़ीन को ख़ुद क़त्ल करे। यह तो हज़रत उमर रज़ि० ने अपनी ग़ैरते ईमानी की वजह से उस मुनाफ़िक़ को क़त्ल किया था, जबकि उस मुनाफ़िक़ के ख़ानदान के लोग हज़रत उमर रज़ि० पर क़त्ल का दावा कर रहे थे। अगर अल्लाह तआला यह हुक्म देता तो यह भी तुम्हें करना चाहिये था, लेकिन यह अल्लाह के इल्म में है कि तुममें से बहुत कम लोग होते जो इस हुक्म की तामील करते। और अगर वह यह कर गुज़रते तो यह उनके हक़ में बेहतर होता है और उनके सबाते क़ल्बी (स्थिर दिल) और सबाते ईमानी (स्थिर ईमान) का बाइस होता। इस सूरत में अल्लाह तआला उन्हें ख़ास अपने पास से अजरे अज़ीम अता फ़रमाता और उन्हें सिराते मुस्तक़ीम की हिदायत अता फ़रमाता।
अब जो आयत आ रही है यह इताअते रसूल ﷺ के मौज़ू पर क़ुरान हकीम की अज़ीम तरीन आयत है। फ़रमाया:
आयत 69
“और जो कोई इताअत करेगा अल्लाह की और रसूल ﷺ की तो यह वह लोग होंगे जिन्हें मईयत (साथ) हासिल होगी उनकी जिन पर अल्लाह का ईनाम हुआ” | وَمَنْ يُّطِعِ اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ فَاُولٰۗىِٕكَ مَعَ الَّذِيْنَ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيْهِمْ |
“यानि अम्बिया किराम, सिद्दीक़ीन, शोहदा और सालेहीन।” | مِّنَ النَّبِيّٖنَ وَالصِّدِّيْقِيْنَ وَالشُّهَدَاۗءِ وَالصّٰلِحِيْنَ ۚ |
“और क्या ही अच्छे हैं यह लोग रफ़ाक़त के लिये।” | وَحَسُنَ اُولٰۗىِٕكَ رَفِيْقًا 69ۭ |
यानि अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की इताअत करने वालों का शुमार उन लोगों के ज़ुमरे में होगा जिन पर अल्लाह ने ईनाम फ़रमाया है। सूरह फ़ातिहा में हमने यह अल्फ़ाज़ पढ़े थे: { اِھْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَـقِيْمَ} {صِرَاطَ الَّذِيْنَ اَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ} आयत ज़ेरे मुताअला “اَنْعَمْتَ عَلَيْهِمْ” की तफ़सीर है। इन मरातिब को ज़रा समझ लीजिये। सालेह मुसलमान गोया baseline पर है। वह एक नेक नीयत मुसलमान है जिसके दिल में ख़ुलूस के साथ ईमान है। वह अल्लाह और रसूल ﷺ के अहकाम पर अमल कर रहा है, मुहर्रमात से बचा हुआ है। वह इससे ऊपर उठेगा तो एक ऊँचा दर्जा शोहदा का है, इससे बुलंदतर दर्जा सिद्दीक़ीन का है और बुलंद तरीन दर्जा अम्बिया का है। इस बुलंद तरीन दर्जे पर तो कोई नहीं पहुँच सकता, इसलिये की वह कोई कस्बी चीज़ नहीं है, वह तो एक वहबी चीज़ थी, जिसका दरवाज़ा भी बंद हो चुका है। अलबत्ता मर्तबा सालेहात से बुलंदतर दर्जे अभी मौजूद हैं कि इंसान अपनी हिम्मत, मेहनत और कोशिश से शहादत और सिद्दीक़ियत के मरातिब पर फ़ाइज़ हो सकता है। यह मज़मून इन्शा अल्लाह सूरतुल हदीद में पूरी वज़ाहत के साथ बयान होगा।
आयत 70
“यह फ़ज़ल है अल्लाह की तरफ़ से” | ذٰلِكَ الْفَضْلُ مِنَ اللّٰهِ ۭ |
यह अल्लाह तआला का बड़ा फ़ज़ल है उन पर कि जिन्हें आख़िरत में अम्बिया किराम, सिद्दीक़ीन अज़ाम, शोहदा और सालेहीन की मईयत हासिल हो जाये। इसके लिये दुआ करनी चाहिये: وَ تَوَفَّنَا مَعَ الْاَبْرَارِ ऐ अल्लाह हमें मौत दीजियो अपने वफ़ादार नेकोकार बंदों के साथ!
“और अल्लाह काफ़ी है हर शय के जानने के लिये।” | وَكَفٰى بِاللّٰهِ عَلِــيْمًا 70ۧ |
यानि कौन किस इस्तअदाद (क्षमता) का हामिल है और किस क़दर व मन्ज़िलत का मुस्तहिक़ है, अल्लाह ख़ूब जानता है। हक़ीक़त जानने के लिये बस अल्लाह ही का इल्म काफ़ी है।
आयात 71 से 76 तक
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا خُذُوْا حِذْرَكُمْ فَانْفِرُوْا ثُبَاتٍ اَوِ انْفِرُوْا جَمِيْعًا 71 وَاِنَّ مِنْكُمْ لَمَنْ لَّيُبَطِّئَنَّ ۚ فَاِنْ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةٌ قَالَ قَدْ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيَّ اِذْ لَمْ اَكُنْ مَّعَھُمْ شَهِيْدًا 72 وَلَىِٕنْ اَصَابَكُمْ فَضْلٌ مِّنَ اللّٰهِ لَيَقُوْلَنَّ كَاَنْ لَّمْ تَكُنْۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهٗ مَوَدَّةٌ يّٰلَيْتَنِيْ كُنْتُ مَعَھُمْ فَاَفُوْزَ فَوْزًا عَظِيْمًا 73 فَلْيُقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ الَّذِيْنَ يَشْرُوْنَ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَةِ ۭوَمَنْ يُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَيُقْتَلْ اَوْ يَغْلِبْ فَسَوْفَ نُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا 74 وَمَا لَكُمْ لَا تُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَ النِّسَاۗءِ وَ الْوِلْدَانِ الَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اَخْرِجْنَا مِنْ ھٰذِهِ الْقَرْيَةِ الظَّالِمِ اَهْلُھَا ۚ وَاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ وَلِيًّـۢا ڌ وَّاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ نَصِيْرًا 75ۭ اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ الطَّاغُوْتِ فَقَاتِلُوْٓا اَوْلِيَاۗءَ الشَّيْطٰنِ ۚ اِنَّ كَيْدَ الشَّيْطٰنِ كَانَ ضَعِيْفًا 76ۧ
अब ज़िक्र आ रहा है क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह का। यह दूसरी चीज़ थी जो मुनाफ़िक़ीन पर बहुत भारी थी। माद्दी ऐतबार से यह बड़ा सख़्त इम्तिहान था। इताअते रसूल ﷺ ज़्यादातर एक नफ़्सियाती मरहला था, एक नफ़्सियाती उलझन थी, लेकिन अपना माल ख़र्च करना और अपनी जान को ख़तरे में डालना एक ख़ालिस महसूस माद्दी शय थी।
आयत 71
“ऐ अहले ईमान, अपने तहफ्फ़ुज़ का सामान (और अपने हथियार) संभालो” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا خُذُوْا حِذْرَكُمْ |
“और (जिहाद) के लिये) निकलो, ख़्वाह टुकड़ियों की सूरत में ख़्वाह फ़ौज की शक्ल में।” | فَانْفِرُوْا ثُبَاتٍ اَوِ انْفِرُوْا جَمِيْعًا 71 |
यानि जैसा मौका हो उसके मुताबिक़ अलग-अलग दस्तों की शक्ल में या इकठ्ठे फ़ौज की सूरत में निकलो। रसूल अल्लाह ﷺ मौक़े की मुनास्बत से कभी छोटे-छोटे ग्रुप भेजते थे। जैसे ग़जवा-ए-बद्र से क़ब्ल आप ﷺ ने आठ मुहिमें रवाना फ़रमाईं, जबकि ग़ज़वा-ए-बद्र और ग़ज़वा-ए-ओहद में आप ﷺ पूरी फ़ौज लेकर निकले।
“और तुममें से कुछ लोग ऐसे हैं जो देर लगा देते हैं” | وَاِنَّ مِنْكُمْ لَمَنْ لَّيُبَطِّئَنَّ ۚ |
हुक्म हो गया है कि जिहाद के लिये निकलना है, फ़लाँ वक्त कूच होगा, लेकिन वह तैयारी में ढ़ील बरत रहे हैं और फिर बहाना बना देगें कि बस हम तो तैयारी कर ही रहे थे अब निकलने ही वाले थे। और वह मुन्तज़िर रहते हैं कि जंग का फ़ैसला हो जाये तो उस वक़्त हम कहेंगे कि हम बस निकलने ही वाले थे कि यह फ़ैसला हमको पहुँच गया।
“फ़िर अगर तुम्हें कोई मुसीबत पेश आ जाये” | فَاِنْ اَصَابَتْكُمْ مُّصِيْبَةٌ |
अग़र जंग के लिये निकलने वाले मुसलमानों को कोई तकलीफ़ पेश आ जाये, कोई गज़न्द पहुँच जाये, वक़्ती तौर पर कोई हज़ीमत (हार) हो जाये।
“तो वह कहेगा कि मुझ पर तो अल्लाह ने बड़ा ईनाम किया कि मैं उनके साथ शरीक नहीं हुआ।” | قَالَ قَدْ اَنْعَمَ اللّٰهُ عَلَيَّ اِذْ لَمْ اَكُنْ مَّعَھُمْ شَهِيْدًا 72 |
आयत 73
“और अग़र तुम्हें कोई फ़ज़ल पहुँच जाये अल्लाह की तरफ़ से” | وَلَىِٕنْ اَصَابَكُمْ فَضْلٌ مِّنَ اللّٰهِ |
यानि तुम्हें फ़तह हो जाये और तुम कामरानी के साथ माले ग़नीमत लेकर वापस आओ।
“तो उस वक़्त वह फिर (हसरत के साथ) कहेगा, जैसे तुम्हारे और उसके दरमियान मोहब्बत का कोई ताल्लुक़ था ही नहीं” | لَيَقُوْلَنَّ كَاَنْ لَّمْ تَكُنْۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهٗ مَوَدَّةٌ |
ऐ काश कि मैं भी इनके साथ गया होता तो यह बड़ी कामयाबी मुझे भी हासिल हो जाती।” | يّٰلَيْتَنِيْ كُنْتُ مَعَھُمْ فَاَفُوْزَ فَوْزًا عَظِيْمًا 73 |
यह मुनाफ़िक़ीन का किरदार था जिसका यहाँ नक़्शा खींच दिया गया है।
आयत 74
“पस अल्लाह की राह में क़िताल करना चाहिये उन लोगों को जो दुनिया की ज़िन्दगी को आख़िरत के एवज़ फ़रोख़्त करने के लिये तैयार हैं।” | فَلْيُقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ الَّذِيْنَ يَشْرُوْنَ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَةِ ۭ |
जो लोग यह तय कर चुके हों कि हमने दुनिया की ज़िन्दगी के बदले में आख़िरत क़ुबूल की, उनके लिये तो क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह में कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिये। अगर उन्होंने वाक़ई यह सौदा अल्लाह से किया है तो फिर उऩ्हें अल्लाह की राह में जंग के लिये निकलना चाहिये।
“और जो कोई भी अल्लाह की राह में क़िताल करेगा, तो ख़्वाह वह मारा जाये या ग़ालिब हो” | وَمَنْ يُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَيُقْتَلْ اَوْ يَغْلِبْ |
अल्लाह की राह में क़िताल करने वाले के लिये दो ही इम्कानात हैं, एक यह कि वह क़त्ल होकर मर्तबा-ए-शहादत पर फ़ाइज़ हो जाये और दूसरे यह कि वह दुश्मन पर ग़ालिब रहे और फ़तहमंद होकर वापस आये।
“हम उसे (दोनों हालतों में) बहुत बड़ा अजर अता फ़रमायेंगे।” | فَسَوْفَ نُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا 74 |
अगली आयत में ख़ासतौर पर उन मुसलमानों की नुसरत व हिमायत के लिये क़िताल के लिये तरग़ीब दिलाई जा रही है जो मुख्तलिफ़ इलाक़ों में फँसे हुए थे। उनमें कमज़ोर भी थे, बीमार और बूढ़े भी थे, ख्वातीन और बच्चे भी थे। यह लोग ईमान तो ले आये थे लेकिन हिजरत के क़ाबिल नहीं थे। यह अपने-अपने इलाक़ों में और अपने-अपने क़बीलों में थे और वहाँ उन पर ज़ुल्म हो रहा था, उन्हें सताया जा रहा था, उन्हें तशद्दुद व ताज़ीब का निशाना बनाया जा रहा था। तो ख़ासतौर से उनकी मदद के लिये निकलना उनकी जान छुड़ाना और उनको बचा कर ले आना, ग़ैरते ईमानी का बहुत ही शदीद तक़ाज़ा है, बल्कि यह ग़ैरते इंसानी का भी तक़ाज़ा है। चुनाँचे फ़रमाया:
आयत 75
“और तुम्हें क्या हो गया है कि तुम क़िताल नहीं करते अल्लाह की राह में” | وَمَا لَكُمْ لَا تُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ |
“और उन बेबस मर्दों, औरतों और बच्चों की ख़ातिर जो मग़लूब बना दिये गये हैं” | وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَ النِّسَاۗءِ وَ الْوِلْدَانِ |
“जो दुआ कर रहे हैं कि ऐ हमारे परवरदिग़ार, हमें निकाल इस बस्ती से जिसके रहने वाले लोग ज़ालिम हैं” | الَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اَخْرِجْنَا مِنْ ھٰذِهِ الْقَرْيَةِ الظَّالِمِ اَهْلُھَا ۚ |
“और हमारे लिये अपने पास से कोई हिमायती बना दे और हमारे लिये ख़ास अपने फ़ज़ल से कोई मददगार भेज दे।” | وَاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ وَلِيًّـۢا ڌ وَّاجْعَلْ لَّنَا مِنْ لَّدُنْكَ نَصِيْرًا 75ۭ |
उनकी यह आह व बका तुम्हें आमादा पैकार क्यों नहीं कर रही? उन पर ज़ुल्म हो रहा है, उन पर सितम ढाये जा रहे हैं और तुम्हारा हाल यह है कि तुम अपने घरों से निकलने को तैयार नहीं हो? बाज़ लोग इस आयत का इन्तबाक़ उन मुख्तलिफ़ क़िस्म के सियासी जिहादों पर भी कर देते हैं जो कि आज-कल हमारे यहाँ जारी हैं और उन पर “जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह” का लेबल लगाया जा रहा है। लेकिन यह बात बिल्कुल ही क़यास मअल फ़ारुक़ है। वाज़ेह रहे कि यह ख़िताब उन अहले ईमान से हो रहा है जिनके यहाँ इस्लाम क़ायम हो चुका था। हम अपने मुल्क में इस्लाम क़ायम कर नहीं सकते। यहाँ पर दीन के ग़ल्बे व इक़ामत की कोई जद्दो-जहद नहीं कर रहे। हमारे यहाँ कुफ़्र का निज़ाम चल रहा है। इसके मुख़ातिब अहले ईमान हैं, और अहले ईमान का फ़र्ज़ यह है कि पहले अपने घर को दुरुस्त करो, पहले अपने मुल्क के अंदर इस्लाम क़ायम करो लिहाज़ा जिहाद करना है तो यहाँ करो, जानें देनी है तो यहाँ दो। यहाँ पर ताग़ूत की हुकूमत है, ग़ैरुल्लाह की हुकूमत है, क़ुरान के सिवा कोई और क़ानून चल रहा है, जबकि अल्लाह तआला का (सूरतुल मायदा, आयत 44, 45 व 47 में) यह फ़रमान है:
“और जो लोग अल्लाह के नाज़िल करदा क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसले नहीं करते वही तो काफिर हैं, ….वही तो ज़ालिम हैं, ….वही तो फासिक़ हैं।” | ۭوَمَنْ لَّمْ يَحْكُمْ بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ 44۔۔۔ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الظّٰلِمُوْنَ 45۔۔۔ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْفٰسِقُوْنَ 47 |
चुनाँचे काफ़िर, ज़ालिम और फ़ासिक़ तो हम ख़ुद हैं। हमें पहले अपने घर की हालत दुरुस्त करनी होगी। इसके बाद एक जामियत क़ायम होगी। हमारी हुकूमत तो उन लोगों से दोस्तियाँ करती फिरती है जिनके ख़िलाफ़ यहाँ जिहाद का नारा बुलंद हो रहा है, जिसमें जाने दी जा रहीं हैं। तो यह आयत अपनी जगह है। हर चीज़ को उसके सयाक़ व सबाक़ (सन्दर्भ) के अंदर रखनी चाहिये।
आयत 76
“जो लोग ईमान वाले हैं वह क़िताल करते हैं अल्लाह की राह में” | اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ |
“और जो लोग काफ़िर हैं वह ताग़ूत की राह में क़िताल कर रहे हैं” | وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا يُقَاتِلُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ الطَّاغُوْتِ |
जंग तो वह भी कर रहे हैं, जानें वह भी दे रहे हैं। अबु जहल भी तो लश्कर लेकर आया था। उनकी सारी जद्दो-जहद ताग़ूत की राह में है।
“तो तुम जंग करो शैतान के साथियों से” | فَقَاتِلُوْٓا اَوْلِيَاۗءَ الشَّيْطٰنِ ۚ |
तुम शैतान के हिमायतियों से, हिज़बुल शैतान से क़िताल करो।
“यक़ीनन शैतान की चाल बड़ी कमज़ोर है।“ | اِنَّ كَيْدَ الشَّيْطٰنِ كَانَ ضَعِيْفًا 76ۧ |
शैतान की चाल बज़ाहिर बड़ी ज़ोरदार बड़ी बारौब दिखाई देती है, लेकिन जब मर्दे मोमिन उसके मुक़ाबिल खड़े हो जायें तो फिर मालूम हो जाता है कि बड़ी बोदी और फुसफुसी चाल है।
आयात 77 से 87 तक
اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ قِيْلَ لَھُمْ كُفُّوْٓا اَيْدِيَكُمْ وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ ۚ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ يَخْشَوْنَ النَّاسَ كَخَشْيَةِ اللّٰهِ اَوْ اَشَدَّ خَشْـيَةً ۚ وَقَالُوْا رَبَّنَا لِمَ كَتَبْتَ عَلَيْنَا الْقِتَالَ ۚ لَوْلَآ اَخَّرْتَنَآ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍ ۭ قُلْ مَتَاعُ الدُّنْيَا قَلِيْلٌ ۚ وَالْاٰخِرَةُ خَيْرٌ لِّمَنِ اتَّقٰى ۣ وَلَا تُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا 77 اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يُدْرِكْكُّمُ الْمَوْتُ وَلَوْ كُنْتُمْ فِيْ بُرُوْجٍ مُّشَـيَّدَةٍ ۭ وَاِنْ تُصِبْھُمْ حَسَـنَةٌ يَّقُوْلُوْا هٰذِهٖ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۚ وَاِنْ تُصِبْھُمْ سَيِّئَةٌ يَّقُوْلُوْا هٰذِهٖ مِنْ عِنْدِكَ ۭقُلْ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۭ فَمَالِ هٰٓؤُلَاۗءِ الْقَوْمِ لَا يَكَادُوْنَ يَفْقَهُوْنَ حَدِيْثًا 78 مَآ اَصَابَكَ مِنْ حَسَنَةٍ فَمِنَ اللّٰهِ ۡ وَمَآ اَصَابَكَ مِنْ سَيِّئَةٍ فَمِنْ نَّفْسِكَ ۭوَاَرْسَلْنٰكَ لِلنَّاسِ رَسُوْلًا ۭ وَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًا 79 مَنْ يُّطِعِ الرَّسُوْلَ فَقَدْ اَطَاعَ اللّٰهَ ۚ وَمَنْ تَوَلّٰى فَمَآ اَرْسَلْنٰكَ عَلَيْهِمْ حَفِيْظًا 80ۭ وَيَقُوْلُوْنَ طَاعَةٌ ۡ فَاِذَا بَرَزُوْا مِنْ عِنْدِكَ بَيَّتَ طَاۗىِٕفَةٌ مِّنْھُمْ غَيْرَ الَّذِيْ تَقُوْلُ ۭ وَاللّٰهُ يَكْتُبُ مَا يُبَيِّتُوْنَ ۚ فَاَعْرِضْ عَنْھُمْ وَتَوَكَّلْ عَلَي اللّٰهِ ۭ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا 81 اَفَلَا يَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْاٰنَ ۭوَلَوْ كَانَ مِنْ عِنْدِ غَيْرِ اللّٰهِ لَوَجَدُوْا فِيْهِ اخْتِلَافًا كَثِيْرًا 82 وَاِذَا جَاۗءَھُمْ اَمْرٌ مِّنَ الْاَمْنِ اَوِ الْخَوْفِ اَذَاعُوْا بِهٖ ۭوَلَوْ رَدُّوْهُ اِلَى الرَّسُوْلِ وَاِلٰٓى اُولِي الْاَمْرِ مِنْھُمْ لَعَلِمَهُ الَّذِيْنَ يَسْتَنْۢبِطُوْنَهٗ مِنْھُمْ ۭ وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ لَاتَّبَعْتُمُ الشَّيْطٰنَ اِلَّا قَلِيْلًا 83 فَقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ لَا تُكَلَّفُ اِلَّا نَفْسَكَ وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّكُفَّ بَاْسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۭ وَاللّٰهُ اَشَدُّ بَاْسًا وَّاَشَدُّ تَنْكِيْلًا 84 مَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَةً حَسَنَةً يَّكُنْ لَّهٗ نَصِيْبٌ مِّنْھَا ۚ وَمَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَةً سَيِّئَةً يَّكُنْ لَّهٗ كِفْلٌ مِّنْھَا ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ مُّقِيْتًا 85 وَاِذَا حُيِّيْتُمْ بِتَحِيَّةٍ فَحَــيُّوْا بِاَحْسَنَ مِنْھَآ اَوْ رُدُّوْھَا ۭ اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ حَسِيْبًا 86 اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۭ لَيَجْمَعَنَّكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ لَا رَيْبَ فِيْهِ ۭ وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ حَدِيْثًا 87ۧ
आयत 77
“तुमने देखा नहीं उन लोगों को जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो?” | اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ قِيْلَ لَھُمْ كُفُّوْٓا اَيْدِيَكُمْ وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ ۚ |
मक्का मुकर्रमा में बारह बरस तक मुसलमानों को यही हुक्म था कि अपने हाथ बंधे रखो। उस दौर में मुसलमानों पर ज़ुल्मो सितम के पहाड़ तोड़े जा रहे थे, उन्हें बहुत बुरी तरह सताया जा रहा था, तशद्दुत व ताज़ीब की नई तारीख़ रक़म की जा रही थी। इस पर मुसलमान का ख़ून खौलता था और बहुत से मुसलमान यह चाहते थे कि हमें इजाज़त दी जाये तो हम अपने भाईयों पर होने वाले इस ज़ुल्म व सितम का बदला लें, आख़िर हम नामर्द नहीं हैं, बेग़ैरत नहीं हैं, बुज़दिल नहीं हैं। लेकिन उन्हें हाथ उठाने की इजाज़त नहीं थी। यह मन्हजे इन्क़लाबे नबवी ﷺ का “सब्रे महज़” का मरहला था उस वक़्त हुक्म यह था कि अपने हाथ रोके रखो।
नग़मा है बुलबुल शौरीदा तेरा ख़ाम अभी
अपने सीने में इसे और ज़रा थाम अभी
एक वक़्त आयेगा कि तुम्हारे हाथ खोल दिये जायेंगे।
यहाँ सवाल पैदा होता है कि { اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ قِيْلَ لَھُمْ كُفُّوْٓا اَيْدِيَكُمْ} फ़अल मजहूल है। यह कहा किसने था? मक्की क़ुरान में तो “كُفُّوْٓا اَيْدِيَكُمْ” का हुक्म मौजूद नहीं है। यह हुक्म था मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ का। हुज़ूर ﷺ ने अहले ईमान को हाथ उठाने से रोका था। यह आयत सूरतुन्निसा में नाज़िल हो रही है जो मदनी है। कि उस वक़्त भी वह रसूल अल्लाह ﷺ का हुक्म था, जिसको अल्लाह ने अपना हुक्म क़रार दिया। गोया यह अल्लाह ही की तरफ़ से था। वहिये जली तो यह क़ुरान है। इसके अलावा नबी अकरम ﷺ पर वहिये ख़फ़ी भी नाज़िल होती थी। तो यह भी हो सकता है कि अल्लाह ने मक्की दौर में वहिये ख़फ़ी के ज़रिये रसूल अल्लाह ﷺ को यह हुक्म दिया हो जो यहाँ नक़ल हुआ है और यह भी हो सकता है कि यह हुज़ूर ﷺ का अपना इज्तेहाद हो जिसे अल्लाह ने बरक़रार रखा हो, उसे क़ुबूल (own) किया हो।
अब यह बात यहाँ महज़ूफ़ है कि उस वक़्त तो कुछ लोग बड़ जोश व जज़्बे से और बड़े ज़ोर-शोर से कहते थे कि हमें इजाज़त होनी चाहिये कि हम जंग करें, लेकिन अब क्या हाल हुआ:
“तो उनमें से एक फ़रीक़ का हाल यह है कि वह लोगों से इस तरह डर रहे हैं जैसे अल्लाह से डरना चाहिये, बल्कि उससे भी ज़्यादा डर रहे हैं।” | فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ اِذَا فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ يَخْشَوْنَ النَّاسَ كَخَشْيَةِ اللّٰهِ اَوْ اَشَدَّ خَشْـيَةً ۚ |
ज़ाहिर बात है कि यह मक्के के मुहाजरीन नहीं थे, बल्कि यह हाल मुनाफ़िक़ीने मदीना का था, लेकिन फ़र्क़ व तफ़ावुत वाज़ेह करने के लिये मक्की दौर की कैफ़ियत से तक़ाबुल किया गया कि असल ईमान तो वह था, और यह जो सूरते हाल है यह कमज़ोरी-ए-ईमान और निफ़ाक़ की अलामत है।
“और वह कहते हैं परवरदिग़ार! तूने हम पर जंग क्यों फ़र्ज़ कर दी?” | وَقَالُوْا رَبَّنَا لِمَ كَتَبْتَ عَلَيْنَا الْقِتَالَ ۚ |
“क्यों ना अभी हमें कुछ और मोहलत दी?” | لَوْلَآ اَخَّرْتَنَآ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍ ۭ |
इस हुक्म को कुछ देर के लिये मज़ीद मुअख़र क्यों ना किया?
“(ऐ नबी ﷺ!) कह दीजिये दुनिया का साज़ो सामान बहुत थोड़ा है।” | قُلْ مَتَاعُ الدُّنْيَا قَلِيْلٌ ۚ |
“और आख़िरत बहुत बेहतर है उसके लिये जो तक़वा की रविश इख़्तियार करे” | وَالْاٰخِرَةُ خَيْرٌ لِّمَنِ اتَّقٰى ۣ |
“और तुम पर एक धागे के बराबर भी ज़ुल्म नहीं होगा।” | وَلَا تُظْلَمُوْنَ فَتِيْلًا 77 |
तुम्हारी हक़ तल्फ़ी क़तअन नहीं होगी और तुम्हारे जो भी आमाल हैं, इन्फ़ाक़ है, क़िताल है, अल्लाह की राह में ईसार (त्याग) है, उसका तुम्हें भरपूर अजर व सवाब दे दिया जायेगा।
आयत 78
“तुम जहाँ कहीं भी होगे मौत तुमको पा लेगी” | اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يُدْرِكْكُّمُ الْمَوْتُ |
ज़ाहिर है जिहाद से जी चुराने का असल सबब मौत का ख़ौफ़ था। चुनाँचे उनके दिलों के अंदर जो ख़ौफ़ था उसे ज़ाहिर किया जा रहा है। उन पर वाज़ेह किया जा रहा है कि मौत से कोई मफ़र (शरण) नहीं, तुम जहाँ कहीं भी होगे मौत तुम्हें पा लेगी।
“ख़्वाह तुम बड़े मज़बूत क़िलों के अंदर ही हो।” | وَلَوْ كُنْتُمْ فِيْ بُرُوْجٍ مُّشَـيَّدَةٍ ۭ |
अग़रचे तुम बहुत मज़बूत (fortified) क़िलों के अंदर अपने आप को महसूर (क़ैद) कर लो। फिर भी मौत से नहीं बच सकते।
“और अगर उन्हें कोई भलाई पहुँचती है तो कहते हैं यह अल्लाह की तरफ़ से है।” | وَاِنْ تُصِبْھُمْ حَسَـنَةٌ يَّقُوْلُوْا هٰذِهٖ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۚ |
मुनाफ़िक़ीन का एक तर्ज़े अमल यह भी था कि अगर मुसलमानों को कोई कामयाबी हासिल हो जाती, फ़तह नसीब हो जाती, कोई और भलाई पहुँच जाती, हुज़ूर ﷺ की तदबीर के अच्छे नतीजे निकल आते तो उसे हुज़ूर ﷺ की तरफ़ मन्सूब नहीं करते थे, बल्कि कहते थे कि यह अल्लाह का फ़ज़ल व करम हुआ है, यह सब अल्लाह की तरफ़ से है।
“और अगर उन्हें कोई तकलीफ़ पहुँच जाये तो कहते हैं कि (ऐ मुहम्मद ﷺ) यह आपकी वजह से है।” | وَاِنْ تُصِبْھُمْ سَيِّئَةٌ يَّقُوْلُوْا هٰذِهٖ مِنْ عِنْدِكَ ۭ |
आप ﷺ ने यह गलत इक़दाम (अंदाज़ा) किया तो उसके नतीजे में हम पर यह मुसीबत आ गई। यह आपका फ़ैसला था कि खुले मैदान में जाकर जंग करेंगे, हमने तो आपको मशवरा दिया था कि मदीने के महसूर होकर जंग करें।
“कह दीजिये सब कुछ अल्लाह ही की तरफ़ से है।” | قُلْ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۭ |
यह सब चीजें, ख़ैर हो, शर हो, तकलीफ़ हो, आसानी हो, मुश्किल हो, जो भी सूरतें हैं सब अल्लाह की तरफ़ से हैं।
“तो इन लोगों को क्या हो गया है कि यह कोई बात भी नहीं समझते!” | فَمَالِ هٰٓؤُلَاۗءِ الْقَوْمِ لَا يَكَادُوْنَ يَفْقَهُوْنَ حَدِيْثًا 78 |
आयत 79
“(ऐ मुसलमान!) तुझे जो भलाई भी पहुँचती है वह अल्लाह की तरफ़ से पहुँचती है, और जो मुसीबत तुझ पर आती है वह ख़ुद तेरे नफ़्स की तरफ़ से है।” | مَآ اَصَابَكَ مِنْ حَسَنَةٍ فَمِنَ اللّٰهِ ۡ وَمَآ اَصَابَكَ مِنْ سَيِّئَةٍ فَمِنْ نَّفْسِكَ ۭ |
इस आयत के बारे में मुफ़स्सिरीन ने मुख़्तलिफ़ अक़वाल नक़ल किये हैं। मेरे नज़दीक राजेह (सबसे सही) क़ौल यह है कि यहाँ तहवीले ख़िताब है। पहली आयत में ख़िताब उन मुसलमानों को जिनकी तरफ़ से कमज़ोरी या निफ़ाक़ का इज़हार हो रहा था, लेकिन इस आयत में बहैसियते मज्मुई ख़िताब है कि देखो ऐ मुसलमानों! जो भी कोई ख़ैर तुम्हें मिलता है उस पर तुम्हें यही कहना चाहिये कि यह अल्लाह की तरफ़ से है और कोई शर पहुँच जाये तो उसे अपने कसब (कमाई) व अमल का नतीजा समझना चाहिये। अग़रचे हमारा ईमान है कि ख़ैर भी अल्लाह की तरफ़ से है और शर भी। “ईमाने मुफ़स्सल” में अल्फ़ाज़ आते हैं: “وَالْقَدْرِ خَیْرِہٖ وَ شَرِّہٖ مِنَ اللہِ تَعَالٰی” लेकिन एक मुसलमान के लिये सही तर्ज़े अमल यह है कि ख़ैर मिले तो उसे अल्लाह का फ़ज़ल समझे। और अगर कोई ख़राबी हो जाये तो समझे कि यह मेरी किसी ग़लती के सबब हुई है, मुझसे कोई कोताही हुई है, जिस पर अल्लाह तआला ने कोई तादीब (correction) फ़रमानी चाही है।
“और (ऐ नबी ﷺ) हमने आपको तो लोगों के लिये रसूल बना कर भेजा है।” | وَاَرْسَلْنٰكَ لِلنَّاسِ رَسُوْلًا ۭ |
इस मक़ाम के बारे में एक क़ौल यह भी है कि दरमियानी टुकड़े में भी ख़िताब तो रसूल अल्लाह ﷺ ही से है, लेकिन इस्तजाब के अंदाज़ में कि अच्छा! जो कुछ उन्हें ख़ैर मिल जाये वह तो अल्लाह की तरफ़ से है और जो कोई बुराई आ जाये तो वह आपकी तरफ़ से है! यानि क्या बात यह कह रहे हैं! जबकि अल्लाह ने तो आपको रसूल बना कर भेजा है। इसकी यह दो ताबीरें हैं। मेरे नज़दीक पहली ताबीर राजेह है।
“और अल्लाह तआला काफ़ी है ग़वाह के तौर पर।” | وَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًا 79 |
आयत 80
“जिसने इताअत की रसूल की उसने इताअत की अल्लाह की।” | مَنْ يُّطِعِ الرَّسُوْلَ فَقَدْ اَطَاعَ اللّٰهَ ۚ |
यह टुकड़ा बहुत अहम है। इसलिये कि यह दो टूक अंदाज़ में वाज़ेह कर रहा है कि रसूल ﷺ की इताअत दरहक़ीक़त अल्लाह की इताअत है। इसकी मज़ीद वज़ाहत के लिये यह हदीस मुलाहिज़ा कीजिये। हज़रत अबु हुरैरा रज़ि० से रिवायत है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया:
مَنْ اَطَاعَنِیْ فَقَدْ اَطَاعَ اللہَ، وَمَنْ عَصَانِیْ فَقَدْ عَصَی اللہَ، وَمَنْ اَطَاعَ اَمِیْرِیْ فَقَدْ اَطَاعَنِیْ، وَمَنْ عَصٰی اَمِیْرِیْ فَقَدْ عَصَانِیْ
“जिसने मेरी इताअत की उसने अल्लाह की इताअत की और जिसने मेरी नाफ़रमानी की उसने अल्लाह की नाफ़रमानी की। और जिसने मेरे (मुक़र्रर करदा) अमीर की इताअत की उसने मेरी इताअत की और जिसने मेरे (मुक़र्रर करदा) अमीर की नाफ़रमानी की उसने मेरी नाफ़रमानी की।”
रसूल अल्लाह ﷺ की सारी जद्दो-जहद जमाअती नज़्म के तहत हो रही थी। जिहाद व क़िताल के लिये फ़ौज तैयार होती तो इसमें ऊपर से नीचे तक समअ व इताअत की एक ज़ंजीर बनती चली जाती। रसूल अल्लाह ﷺ कमांडर एंड चीफ़ थे, आप ﷺ लश्कर के मैमना, मैसरह, क़ल्ब और अक़ब वगैरह पर, हरावल दस्ते पर अलग-अलग कमांडर मुक़र्रर फ़रमाते। उन अमीरों (कमांडरों) के बारे में आप ﷺ ने फ़रमाया कि जिसने मेरे मुक़र्रर करदा अमीर की इताअत की उसने मेरी इताअत की, और जिसने मेरे मुक़र्रर करदा अमीर की नाफ़रमानी की उसने मेरी नाफ़रमानी की।
“और जिसने रूगरदानी की तो हमने आपको उन पर निगरान बना कर नहीं भेजा है।” | وَمَنْ تَوَلّٰى فَمَآ اَرْسَلْنٰكَ عَلَيْهِمْ حَفِيْظًا 80ۭ |
ऐ नबी ﷺ! हमने आपको इन पर दरोगा मुक़र्रर नहीं किया। अपने तर्ज़े अमल के यह खुद ज़िम्मेदार और जवाबदेह हैं और अल्लाह तआला के हुज़ूर पेश होकर यह उसके मुहासबे का खुद सामना कर लेंगे।
आयत 81
“और कहते हैं कि सरे तस्लीम ख़म है” | وَيَقُوْلُوْنَ طَاعَةٌ ۡ |
इन मुनाफ़िकों का यह हाल है कि आपके सामने तो कहते हैं कि हम मुतीअ फ़रमान हैं, आप ﷺ ने जो फ़रमाया क़ुबूल है, हम उस पर अमल करेंगे।
“फिर जब आपके पास से हटते हैं तो उनमें से एक गिरोह आपस में ऐसे मशवरे करता है जो उनको अपने क़ौल के ख़िलाफ़ है।” | فَاِذَا بَرَزُوْا مِنْ عِنْدِكَ بَيَّتَ طَاۗىِٕفَةٌ مِّنْھُمْ غَيْرَ الَّذِيْ تَقُوْلُ ۭ |
जाकर ऐसे मशवरे आपस में शुरू कर देता है जो ख़िलाफ़ है इसके जो वह वहाँ कह कर गये हैं। सामने वह हो गई बाद में जाकर जो है रेशादवानी, साज़िश।
“और अल्लाह लिख रहा है जो भी वह मशवरे करते हैं” | وَاللّٰهُ يَكْتُبُ مَا يُبَيِّتُوْنَ ۚ |
“तो (ऐ नबी ﷺ) आप इनसे चश्मपोशी कीजिये” | فَاَعْرِضْ عَنْھُمْ |
आप इनकी परवाह ना कीजिये, यह आपको कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगे। अभी इनके ख़िलाफ़ इक़दाम करना ख़िलाफ़े मस्लहत है। जैसे एक दौर में फ़रमाया गया: { فَاعْفُوْا وَاصْفَحُوْا} (अल् बक़रह:109) यानि इन यहूदियों को ज़रा नज़रअंदाज़ कीजिये, अभी इनकी शरारतों पर तकफ़ीर ना कीजिये, जो कुछ यह कह रहे हैं उस पर सब्र कीजिये, इसलिये कि मस्लहत का तक़ाज़ा है कि अभी यह महाज़ ना खोला जाये। इसी तरह यहाँ मुनाफ़िक़ीन के बारे में कहा गया कि अभी इनसे ऐराज़ कीजिये। चुनाँचे उनकी रेशादवानियों से कुछ अरसे तक चश्मपोशी की गई और फिर ग़ज़वा-ए-तबूक के बाद रसूल अल्लाह ﷺ ने उन पर गिरफ़्त शुरू की। फिर वह वक़्त आ गया कि अब तक उनकी शरारतों पर जो पर्दे पड़े रहे थे वह पर्दे उठा दिये गये।
“और आप अल्लाह पर तवक्कुल कीजिये।” | وَتَوَكَّلْ عَلَي اللّٰهِ ۭ |
“और अल्लाह काफ़ी है भरोसे के लिये।” | وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا 81 |
आप ﷺ को सहारे के लिये अल्लाह काफ़ी है। उनकी सारी रेशादवानियाँ, यह मशवरे, यह साज़िशें, सब पादर हवा हो जायेंगी, आप फ़िक्र ना कीजिये।
आयत 82
“क्या यह क़ुरान पर तदब्बुर नहीं करते?” | اَفَلَا يَتَدَبَّرُوْنَ الْقُرْاٰنَ ۭ |
यह क़ुरान पढ़ते भी हैं और सुनते भी हैं, लेकिन इस पर ग़ौरो फ़िक्र नहीं करते। नमाज़ें तो वह पढ़ते थे। उस वक़्त जो भी मुनाफ़िक़ था उसे नमाज़ तो पढ़नी पड़ती थी, वरना उसको मुसलमान ना माना जाता। आज तो मुसलमान माने जाने के लिये नमाज़ ज़रूरी नहीं है, उस वक़्त तो ज़रूरी थी। बल्कि रईसुल मुनाफ़िक़ीन अब्दुल्लाह बिन उबई तो पहली सफ़ में होता था और जुमे के रोज़ तो ख़ासतौर पर ख़ुत्बे से पहले खड़े होकर ऐलान करता था कि लोगों इनकी बात तवज्जोह से सुनो, यह अल्लाह के रसूल हैं। गोया अपनी चौधराहट के इज़हार के लिये यह अंदाज़ इख़्तियार करता। तो वह नमाज़े पढ़ते थे, क़ुरान सुनते थे, लेकिन क़ुरान पर तदब्बुर नहीं करते थे। क़ुरान उनके सिरों के ऊपर से गुज़र रहा था। या उनके एक कान से दाख़िल होकर दूसरे कान से निकल जाता था।
“अगर यह अल्लाह के सिवा किसी और की तरफ से होता तो इसमें वह बहुत से तज़ादात (इख़्तिलाफ़) पाते।” | وَلَوْ كَانَ مِنْ عِنْدِ غَيْرِ اللّٰهِ لَوَجَدُوْا فِيْهِ اخْتِلَافًا كَثِيْرًا 82 |
इस पर ग़ौर करो, यह बहुत मरबूत (वर्णन किया हुआ) कलाम है। इसका पूरा फ़लसफ़ा मन्तक़ी तौर पर बहुत मरबूत है, इसके अंदर कहीं कोई तज़ाद नहीं है।
आयत 83
“और जब उनके पास कोई ख़बर पहुँचती है अमन की या ख़तरे की तो वह उसे फैला देते हैं।” | وَاِذَا جَاۗءَھُمْ اَمْرٌ مِّنَ الْاَمْنِ اَوِ الْخَوْفِ اَذَاعُوْا بِهٖ ۭ |
मुनाफ़िकों की एक रविश यह भी थी कि ज्यों ही कोई इत्मिनान बख़्श या ख़तरनाक ख़बर सुन पाते उसे लेकर फैला देते। कहीं से ख़बर आ गई कि फ़लाँ क़बीला चढ़ाई करने की तैयारी कर रहा, उसकी तरफ़ से हमले का अंदेशा है तो वह फ़ौरन उसे आम कर देते, ताकि लोगों में ख़ौफ़ व हरास (गिरावट) पैदा हो जाये। “اِذَاعَۃ” का लफ़्ज़ आज-कल नश्रियाति (broadcasting) इदारों के लिये इस्तेमाल होता है और “مِذْیَاع” रेडियो सेट को कहा जाता है।
“और अगर वह उसको रसूल ﷺ और अपने ऊलुल अम्र के सामने पेश करते” | وَلَوْ رَدُّوْهُ اِلَى الرَّسُوْلِ وَاِلٰٓى اُولِي الْاَمْرِ مِنْھُمْ |
“तो यह बात उनमें से उन लोगों के इल्म में आ जाती जो बात की तह तक पहुँचने वाले हैं।” | لَعَلِمَهُ الَّذِيْنَ يَسْتَنْۢبِطُوْنَهٗ مِنْھُمْ ۭ |
अग़र यह लोग ऐसी ख़बरों को रसूल अल्लाह ﷺ तक या ज़िम्मेदार असहाब तक पहुँचाते, मसलन औस के सरदार साद बिन उबादाह रज़ि० और ख़ज़रज के सरदार साद बिन मुआज़ रज़ि०, तो यह उनकी तहक़ीक़ कर लेते कि बात किस हद तक दुरुस्त है और इसका क्या नतीजा निकल सकता है और फिर जायज़ा लेते कि हमें इस ज़िमन में क्या क़दम उठाना चाहिेये। लेकिन उनकी रविश यह थी कि महज़ सनसनी फैलाने और सरासेमगी (डर) पैदा करने के लिये ऐसी ख़बरें लोगों में आम कर देते।
“और अगर अल्लाह का फ़ज़ल और उसकी रहमत तुम्हारे शामिले हाल ना होती” | وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ |
“तो तुम सबके सब शैतान की पैरवी करते, सिवाय चंद एक के।” | لَاتَّبَعْتُمُ الشَّيْطٰنَ اِلَّا قَلِيْلًا 83 |
आयत 84
“पस (ऐ नबी ﷺ!) आप जंग करे अल्लाह की राह में!” | فَقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۚ |
क़िताल के ज़िमन में यह क़ुरान मजीद की ग़ालिबन सख़्त तरीन आयत है, लेकिन इसमें सख़्ती लफ़्ज़ी नहीं, मायनवी है।
“आप पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं है सिवाय अपनी ज़ात के” | لَا تُكَلَّفُ اِلَّا نَفْسَكَ |
“अलबत्ता अहले ईमान को आप इसके लिये उकसाएँ।” | وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ |
आप ﷺ अहले ईमान को क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह के लिये जिस क़दर तरग़ीब व तशवीक़ दे सकते हैं दीजिये। उन्हें इसके लिये जोश दिलायें, उभारिये। लेकिन अगर कोई और नहीं निकलता तो अकेले निकलिये जैसे हज़रत अबु बकर रज़ि० का क़ौल भी नक़ल हुआ है जब उनसे कहा गया कि मानीने ज़कात (ज़कात ना देने वालों) के बारे में नर्मी कीजिये तो आप रज़ि० ने फ़रमाया था कि अगर कोई मेरा साथ नहीं देगा तो मैं अकेला जाऊँगा, अज़मियत का यह आलम है! तो ऐ नबी ﷺ आपको तो यह काम करना है, आपका तो यह फ़र्ज़े मन्सबी है। आपको हमने भेजा ही इसलिये है कि रूए अरज़ी पर अल्लाह के दीन को ग़ालिब कर दें।
“बईद (दूर) नहीं कि अल्लाह तआला जल्द ही इन काफ़िरों की क़ुव्वत को रोक दे।” | عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّكُفَّ بَاْسَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۭ |
कुफ़्फ़ार व मुशरिकीन की जंगी तैयारियाँ हो रही हैं, बड़ी चलत-फिरत हो रही है, यह तो कुछ अरसे की बात है वह वक़्त बस आया चाहता है कि उनमें दम नहीं रहेगा कि आपका मुक़ाबला करें। और वह वक़्त जल्द ही आ गया कि मुशरिकीन की कमर टूट गई। सूरतुन्निसा की यह आयत चार हिजरी में नाज़िल हुई और पाँच हिजरी में ग़ज़वा-ए-अहज़ाब पेश आया। जिसके बाद मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ ने अहले ईमान से फ़रमाया कि ((لن تغزو کم قریش بعد عامکم ھذا و لکنکم تغزونھم)) “इस साल के बाद क़ुरैश तुम पर हमलावर होने की जुर्रत नहीं करेंगे, बल्कि अब तुम उन पर हमलावर होगे।” ग़ज़वा-ए-अहज़ाब के फ़ौरन बाद सूरह सफ़ नाज़िल हुई। जिस (आयत:13) में अहले ईमान को फ़तह व नुसरत की बशारत दी गई। { وَّاُخْرٰى تُحِبُّوْنَهَا ۭ نَصْرٌ مِّنَ اللّٰهِ وَفَتْحٌ قَرِيْبٌ ۭ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ} इससे अगले साल 6 हिजरी में आप ﷺ ने उमरे का सफ़र किया, जिसके नतीजे में सुलह हुदैबिया हो गयी, जिसे अल्लाह तआला ने फ़तह मुबीन क़रार दिया { اِنَّا فَتَحْنَا لَكَ فَتْحًا مُّبِيْنًا}। इसके बाद सातवें साल अल्लाह तआला ने फ़तह ख़ैबर अता फ़रमा दी और आठवें साल में मक्का फ़तह हो गया। इसी तरह एक के बाद एक, सारे बंद दरवाज़े खुलते चले गये।
“और यक़ीनन अल्लाह तआला बहुत शदीद है क़ुव्वत में भी और सज़ा देने में भी।” | وَاللّٰهُ اَشَدُّ بَاْسًا وَّاَشَدُّ تَنْكِيْلًا 84 |
मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब के बाद अब फिर कुछ तमद्दुनी आदाब का ज़िक्र हो रहा है। मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब में दो बातों को नुमाया किया गया। एक इताअते रसूल ﷺ जो उन पर बहुत शाक़ (मुश्किल) गुज़रती थी और एक क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह जो उनके लिए बहुत बड़ा इम्तिहान बन जाता था। अब फिर अहले ईमान से ख़िताब आ रहा है।
आयत 85
“जो कोई सिफ़ारिश करेगा भलाई की उसे उसमें से हिस्सा मिलेगा।” | مَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَةً حَسَنَةً يَّكُنْ لَّهٗ نَصِيْبٌ مِّنْھَا ۚ |
इंसानी मआशरे के अंदर किसी के लिये सिफ़ारिश करना भी बाज़ अवक़ात ज़रूरी हो जाता है। कोई शख्स है, उसकी कोई अहतियाज (ज़रुरत) है, आप जानते हैं कि सही आदमी है, बहरुपिया नहीं है। दूसरे शख्स को आप जानते हैं कि वह इसकी मदद कर सकता है तो आपको दूसरे शख्स के पास जाकर उसके हक़ में सिफ़ारिश करनी चाहिये कि मैं इसको जानता हूँ, यह वाक़िअतन ज़रूरतमंद है। इस तरह उसकी ज़रूरत पूरी हो जायेगी और इस नेकी के सवाब में आप भी हिस्सेदार होंगे। इसी तरह किसी पर कोई मुक़दमा क़ायम हो गया है और आपके इल्म में उसकी बेगुनाही के बारे में हक़ाइक़ और शवाहिद हैं तो आपको अदालत में पेश होकर यह हक़ाइक़ और शवाहिद पेश करने चाहियें, ताकि उसकी गुलु ख़लासी हो सके। इस आयत की रू से नेकी, भलाई, ख़ैर और अद्ल व इंसाफ़ की ख़ातिर अगर किसी की सिफ़ारिश की जाये तो अल्लाह तआला इसका अजर व सवाब अता फ़रमायेगा।
“और जो कोई सिफ़ारिश करेगा बुराई की तो उसे उसमें से हिस्सा मिलेगा।” | وَمَنْ يَّشْفَعْ شَفَاعَةً سَيِّئَةً يَّكُنْ لَّهٗ كِفْلٌ مِّنْھَا ۭ |
किसी ने किसी कि झूठी और ग़लत सिफ़ारिश की, हक़ाइक़ को तोड़ा-मरोड़ा तो वह भी उसके जुर्म में शरीक हो गया और वह उस जुर्म की सज़ा में भी हिस्सेदार होगा।
“और अल्लाह तआला हर शय पर क़ुव्वत रखने वाला है।” | وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ مُّقِيْتًا 85 |
आयत 86
“और जब तुम्हें सलामती की कोई दुआ दी जाये तो तुम भी सलामती की उससे बेहतर दुआ दो या उसी को लौटा दो।” | وَاِذَا حُيِّيْتُمْ بِتَحِيَّةٍ فَحَــيُّوْا بِاَحْسَنَ مِنْھَآ اَوْ رُدُّوْھَا ۭ |
हर मआशरे में कुछ ऐसे दुआइया कलिमात राइज होते हैं जो मआशरे के अफ़राद बाहमी मुलाक़ात के वक़्त इस्तेमाल करते हैं। जैसे मग़रिबी मआशरे में गुड मॉर्निंग और गुड इवनिंग वग़ैरह। अरबों के यहाँ सबाह अल् ख़ैर व मसाअ अल् ख़ैर के अलावा सबसे ज़्यादा रिवाज “हय्याका अल्लाह” कहने का था। यानि अल्लाह तुम्हारी ज़िन्दगी बढ़ाये। जैसे हमारे यहाँ सरायकी इलाक़े में कहा जाता है “हयाती होवे”। दराज़ी-ए-उम्र की इस दुआ को तहिय्या कहा जाता है। सलाम और उसके हम मायने दूसरे दुआइया कलिमात भी सब इसके अंदर शामिल हो जाते हैं। अरब में जब इस्लामी मआशरा वुजूद में आया तो दीग़र दुआइया कलिमात भी बाक़ी रहे, अलबत्ता “अस्सलामु अलैकुम” को एक ख़ास इस्लामी शआर (सिद्धांत) की हैसियत हासिल हो गई। इस आयत में हिदायत की जा रही है कि जब तुम्हें कोई सलामती की दुआ दे तो उसके जवाब का आला तरीक़ा यह है कि उससे बेहतर तरीक़े पर जवाब दो। “अस्सलामु अलैकुम” के जवाब में “वालैकुम अस्सलाम” के साथ “वा रहमतुल्लाही वा बरकातुहू” का इज़ाफा करके उसे लौटाएँ। अगर यह नहीं हो तो कम से कम उसी के अल्फ़ाज़ उसकी तरफ़ लौटा दो।
“यक़ीनन अल्लाह तआला हर चीज़ का हिसाब करने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ حَسِيْبًا 86 |
यह छोटी-छोटी नेकियाँ जो हैं इंसानी ज़िन्दगी में इनकी बहुत अहमियत है। इन मआशरती आदाब से मआशरती ज़िन्दगी के अंदर हुस्न पैदा होता है, आपस में मुहब्बत व मवद्दत (स्नेह) पैदा होती है।
आयत 87
“अल्लाह वह है जिसके सिवा कोई मअबूद नहीं।” | اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۭ |
“वह तुम्हें लाज़िमन जमा करेगा क़यामत के दिन, जिसके आने में कोई शक नहीं।” | لَيَجْمَعَنَّكُمْ اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ لَا رَيْبَ فِيْهِ ۭ |
“और अल्लाह से बढ़ कर अपनी बात में सच्चा कौन होगा?” | وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ حَدِيْثًا 87ۧ |
मुनाफ़िक़ीन पर जो तीन चीज़ें बहुत शाक़ थीं, अब उनमें से तीसरी चीज़ का तज़किरा आ रहा है, यानि हिजरत। एक तो वह लोग थे जो बीमार थे, बूढ़े थे, सफ़र के क़ाबिल नहीं थे, या औरतें और बच्चे थे, उनका मामला तो पहले ज़िक्र हो चुका कि उनके लिये तुम्हें क़िताल करना चाहिये ताकि उन्हें ज़ालिमों के चंगुल से छुड़ओ। एक वह लोग थे जो दायरा-ए-इस्लाम में दाख़िल होने का ऐलान तो कर चुके थे लेकिन अपने काफ़िर क़बीलों और अपनी बस्तियों के अंदर आराम से रह रहे थे और हिजरत नहीं कर रहे थे, जबकि हिजरत अब फ़र्ज़ कर दी गई थी। यह भी समझ लीजिये कि हिजरत फ़र्ज़ क्यों कर दी गई? इसलिये कि जब मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की दावत और तहरीक इस मरहले में दाख़िल हो गई कि अब बातिल के ख़िलाफ़ इक़दाम करना है, तो अब अहले ईमान की जितनी भी दस्तयाब ताक़त थी उसे एक मरकज़ पर मुजतमअ (जमा) करना ज़रूरी था, मक्की दौर में जो पहली हिजरत हुई थी यानि हिजरते हब्शा वह इख़्तियारी थी। इसकी सिर्फ़ इजाज़त थी, हुक्म नहीं था लेकिन हिजरते मदीना का तो हुक्म था। लिहाज़ा अब उन लोगों का ज़िक्र है जो इस बिना पर मुनाफ़िक़ क़रार पाये कि वह हिजरत नहीं कर रहे हैं।