Surah Nisa सूरतुन्निसा ayat 88-176

आयात 88 से 91 तक

فَمَا لَكُمْ فِي الْمُنٰفِقِيْنَ فِئَتَيْنِ وَاللّٰهُ اَرْكَسَھُمْ بِمَا كَسَبُوْا ۭ اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَهْدُوْا مَنْ اَضَلَّ اللّٰهُ ۭ وَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ سَبِيْلًا    88؀ وَدُّوْا لَوْ تَكْفُرُوْنَ كَمَا كَفَرُوْا فَتَكُوْنُوْنَ سَوَاۗءً فَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْھُمْ اَوْلِيَاۗءَ حَتّٰي يُھَاجِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۭ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ وَجَدْتُّمُوْھُمْ ۠ وَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْھُمْ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا    89؀ۙ اِلَّا الَّذِيْنَ يَصِلُوْنَ اِلٰى قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَھُمْ مِّيْثَاقٌ اَوْ جَاۗءُوْكُمْ حَصِرَتْ صُدُوْرُھُمْ اَنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ اَوْ يُقَاتِلُوْا قَوْمَھُمْ ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَسَلَّطَھُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقٰتَلُوْكُمْ ۚ فَاِنِ اعْتَزَلُوْكُمْ فَلَمْ يُقَاتِلُوْكُمْ وَاَلْقَوْا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ ۙ فَمَا جَعَلَ اللّٰهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيْلًا     90؀ سَتَجِدُوْنَ اٰخَرِيْنَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّاْمَنُوْكُمْ وَيَاْمَنُوْا قَوْمَھُمْ ۭكُلَّمَا رُدُّوْٓا اِلَى الْفِتْنَةِ اُرْكِسُوْا فِيْھَا ۚ فَاِنْ لَّمْ يَعْتَزِلُوْكُمْ وَيُلْقُوْٓا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ وَيَكُفُّوْٓااَيْدِيَھُمْ فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْھُمْ ۭ وَاُولٰۗىِٕكُمْ جَعَلْنَا لَكُمْ عَلَيْهِمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا      91۝ۧ

आयत 88

“पस तुम्हें क्या हो गया है कि तुम मुनाफ़िक़ों के बारे में दो गिरोह हो रहे हो?” فَمَا لَكُمْ فِي الْمُنٰفِقِيْنَ فِئَتَيْنِ

बात आगे वाज़ेह हो जायेगी कि यह किन मुनाफ़िक़ीन का तज़किरा है, जिनके बारे में मुसलमानों के दरमियान दो राय पाई जाती थीं। अहले ईमान में से बाज़ का ख़्याल था कि उनके साथ नर्मी होनी चाहिये, आख़िर यह ईमान तो लाये थे ना, अब नहीं हिजरत कर सके। जबकि कुछ लोग अल्लाह के हुक्म के मामले में उनसे सख़्त रवैया इख़्तियार करने के हक़ में थे। चुनाँचे इर्शाद हुआ कि ऐ मुसलमानों! तुम्हें क्या हो गया है कि तुम उनके बारे में दो ग़िरोहों में तक़सीम हो गये हो?

“और अल्लाह ने तो उनको उनकी करतूतों के सबब उलट दिया है।”وَاللّٰهُ اَرْكَسَھُمْ بِمَا كَسَبُوْا ۭ

उनका हिजरत ना करना दरहक़ीक़त इस बात का सबूत है कि वह उल्टे फेर दिए गये हैं। यानि उनका ईमान सल्ब हो चुका है। हाँ कोई मजबूरी होती, उज़्र (बहाना) होता तो बात थी।

“क्या तुम चाहते हो कि उनको हिदायत दे दो जिनको अल्लाह ने गुमराह कर दिया है?”اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَهْدُوْا مَنْ اَضَلَّ اللّٰهُ ۭ

जिनकी गुमराही पर अल्लाह की तरफ़ से मुहर तस्दीक़ सब्त हो चुकी है।

“और जिसको अल्लाह रास्ते से हटा दे उसके लिये तुम कोई रास्ता ना पाओगे।”وَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ سَبِيْلًا    88؀

जिसकी गुमराही पर अल्लाह की तरफ़ से आखरी मुहर तस्दीक़ सब्त हो चुकी हो उसके लिये फिर कौन सा रास्ता बाक़ी रह जाता है।

आयत 89

“यह तो चाहते हैं कि तुम भी कुफ़्र करो जिस तरह इन्होंने कुफ़्र किया है ताकि तुम सब बराबर हो जाओ”وَدُّوْا لَوْ تَكْفُرُوْنَ كَمَا كَفَرُوْا فَتَكُوْنُوْنَ سَوَاۗءً

यह लोग जो उनके बारे में नर्मी की बातें कर रहे हैं यह चाहते हैं कि जैसे उन्होंने कुफ़्र किया है तुम भी करो, ताकि तुम और वह सब यक्साँ (एक जैसे) हो जायें। दुम कटी बिल्ली चाहती है कि सब बिल्लियों की दुम कट जायें।

“तो अब उनमें से किसी को दोस्त ना बनाओ जब तक कि वह हिजरत ना करें अल्लाह की राह में।”فَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْھُمْ اَوْلِيَاۗءَ حَتّٰي يُھَاجِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۭ

यह गोया अब उनके ईमान का लिट्मस टेस्ट है। अगर वह हिजरत नहीं करते तो इसका मतलब यह होगा कि वह मोमिन नहीं मुनाफ़िक़ हैं।

“और अगर वह पीठ मोड़ लें (हिजरत ना करें) तो उनको पकड़ो और क़त्ल करो जहाँ कहीं भी पाओ।”فَاِنْ تَوَلَّوْا فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ وَجَدْتُّمُوْھُمْ ۠

यानि अगर वह हिजरत नहीं करते जो उन पर फ़र्ज़ कर दी गई है तो फिर वह काफ़िरों के हुक्म में है, चाहे वह कलमा पढ़ते हों। तुम उन्हें जहाँ भी पाओ पकड़ो और क़त्ल करो।

“और उनमें से किसी को भी अपना साथी और मददगार मत बनाओ।”وَلَا تَتَّخِذُوْا مِنْھُمْ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا    89؀ۙ

आयत 90

“सिवाय उनके जिनका ताल्लुक़ किसी ऐसी क़ौम से हो जिसके साथ तुम्हारा कोई मुआहिदा है”اِلَّا الَّذِيْنَ يَصِلُوْنَ اِلٰى قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَھُمْ مِّيْثَاقٌ

यानि इस हुक्म से सिर्फ़ वह मुनाफ़िक़ीन मुस्तसना हैं जो किसी ऐसे क़बीले से ताल्लुक़ रखते हों जिसके साथ तुम्हारा सुलह का मुआहिदा है। उस मुआहिदे से उन्हें भी तहफ्फ़ुज़ हासिल हो जायेगा।

“या वह लोग जो तुम्हारे पास इस हाल में आयें कि दिल बरदाश्ता हों”اَوْ جَاۗءُوْكُمْ حَصِرَتْ صُدُوْرُھُمْ
“इस बात से कि तुमसे लड़ें या अपनी क़ौम से लड़ें।”اَنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ اَوْ يُقَاتِلُوْا قَوْمَھُمْ ۭ

यानि उनमें इतनी जुर्रत नहीं रही कि वह तुम्हारे साथ होकर अपनी क़ौम के ख़िलाफ़ लड़ें या अपनी क़ौम के साथ होकर तुम्हारे ख़िलाफ़ लड़ें। इंसानी मआशरे में हर सतह के लोग हर दौर में रहे हैं और हर दौर में रहेंगे। लिहाज़ा वाज़ेह किया जा रहा है कि इन्क़लाबी जद्दो-जहद के दौरान हर तरह के हालात आयेंगे और हर तरह के लोगों से वास्ता पड़ेगा। इस तरह के कम हिम्मत लोग कहते थे भई हमारे लिये लड़ना-भिड़ना मुश्किल है, ना तो हम अपनी क़ौम के साथ होकर मुसलमानों से लड़ेंगे और ना मुसलमानों के साथ होकर अपनी क़ौम से लड़ेंगे, उनके बारे में भी फ़रमाया कि उनकी भी जान बख़्शी करो। चुनाँचे हिज़रत ना करने वाले मुनाफ़िक़ीन के बारे में जो यह हुक्म दिया गया कि { فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ وَجَدْتُّمُوْھُمْ ۠} “पस उनको पकड़ो और क़त्ल करो जहाँ कहीं भी पाओ” इससे दो इस्तसना बयान कर दिये गये।

“अगर अल्लाह चाहता तो उनको तुम पर मुसल्लत कर देता और वह तुमसे लड़ते।”وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَسَلَّطَھُمْ عَلَيْكُمْ فَلَقٰتَلُوْكُمْ ۚ

यह भी तो हो सकता था कि अल्लाह उन्हें तुम्हारे ख़िलाफ़ हिम्मत अता कर देता और वह तुम्हारे ख़िलाफ़ क़िताल करते।

“पस अगर यह लोग तुमसे किनाराकश रहें और तुमसे जंग ना करें”فَاِنِ اعْتَزَلُوْكُمْ فَلَمْ يُقَاتِلُوْكُمْ
“और तुम्हारी तरफ़ सुलह व आशती (शांति) का हाथ बढ़ाएँ।”وَاَلْقَوْا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ ۙ
“तो अल्लाह ने तुम्हें भी ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ इक़दाम करने की इजाज़त नहीं दीفَمَا جَعَلَ اللّٰهُ لَكُمْ عَلَيْهِمْ سَبِيْلًا     90؀

तो इस बात को समझ लीजिये कि जो मुनाफ़िक़ हिजरत नहीं कर रहे, उनके लिये क़ायदा यह है कि अब उनके ख़िलाफ़ इक़दाम होगा, उन्हें जहाँ भी पकड़ो और क़त्ल करो, वह हरबी काफ़िरों के हुक्म में हैं। इल्ला यह कि (1) उनके क़बीले से तुम्हारा सुलह का मआहिदा है तो वह उनको तहफ्फ़ुज़ फ़राहम कर जायेगा। (2) वह आकर अगर यह कह दें कि हम बिल्कुल ग़ैर जानिबदार (neutral) हो जाते हैं, हममें जंग की हिम्मत नहीं है, हम ना आपके साथ होकर अपनी क़ौम से लड़ सकते हैं और ना ही आपके ख़िलाफ़ अपनी क़ौम की मदद करेंगे, तब ही उन्हें छोड़ दो। इसके बाद अब मुनाफ़िक़ीन के एक तीसरे गिरोह की निशानदेही की जा रही है।

आयत 91

“तुम पाओगे एक और क़िस्म के लोगों को भी जो चाहते हैं कि तुमसे भी अमन में रहें और अपनी क़ौम से भी अमन में रहें।”سَتَجِدُوْنَ اٰخَرِيْنَ يُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّاْمَنُوْكُمْ وَيَاْمَنُوْا قَوْمَھُمْ ۭ
“लेकिन जब भी फ़ितने की तरफ़ मोड़े जाते हैं तो उसके अंदर औंधे हो जाते हैं।”كُلَّمَا رُدُّوْٓا اِلَى الْفِتْنَةِ اُرْكِسُوْا فِيْھَا ۚ

जब भी आज़माइश का वक़्त आता है तो उसमें वो औंधे मुँह गिरते हैं। जब देखते हैं कि अपनी क़ौम का पलड़ा भारी है तो मुसलमानों के ख़िलाफ़ जंग करने के लिये तैयार हो जाते हैं कि अब तो हमारी फ़तह होने वाली है और हमें माले ग़नीमत में से हिस्सा मिल जायेगा।

“पस अगर यह तुमसे किनाराकश ना रहें, तुम्हारे सामने सुलह व सलामती पेश ना करें और अपने हाथ ना रोकें”فَاِنْ لَّمْ يَعْتَزِلُوْكُمْ وَيُلْقُوْٓا اِلَيْكُمُ السَّلَمَ وَيَكُفُّوْٓااَيْدِيَھُمْ
“तो इनको पकड़ो और क़त्ल करो जहाँ कहीं भी पाओ।”فَخُذُوْھُمْ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْھُمْ ۭ
“यह वह लोग हैं जिनके ख़िलाफ़ हमने तुम्हें सनद (और क़ुव्वत) अता कर दी है।”وَاُولٰۗىِٕكُمْ جَعَلْنَا لَكُمْ عَلَيْهِمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا      91۝ۧ

ऐसे लोगों के मामले में हमने तुम्हें खुला इख़्तियार दे दिया है कि तुम इनके ख़िलाफ़ इक़दाम कर सकते हो।

आयात 92 से 96 तक

وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ اَنْ يَّقْتُلَ مُؤْمِنًا اِلَّا خَطَــــــًٔـا ۚ وَمَنْ قَتَلَ مُؤْمِنًا خَطَــــًٔا فَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ وَّدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ اِلٰٓى اَھْلِهٖٓ اِلَّآ اَنْ يَّصَّدَّقُوْا ۭ فَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍ عَدُوٍّ لَّكُمْ وَھُوَ مُؤْمِنٌ فَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ ۭ وَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَھُمْ مِّيْثَاقٌ فَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ اِلٰٓى اَھْلِهٖ وَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ ۚ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ ۡ تَوْبَةً مِّنَ اللّٰهِ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا      92؀ وَمَنْ يَّقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاۗؤُهٗ جَهَنَّمُ خٰلِدًا فِيْھَا وَغَضِبَ اللّٰهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهٗ وَاَعَدَّ لَهٗ عَذَابًا عَظِيْمًا      93؀ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا ضَرَبْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَتَبَيَّنُوْا وَلَا تَقُوْلُوْا لِمَنْ اَلْقٰٓى اِلَيْكُمُ السَّلٰمَ لَسْتَ مُؤْمِنًا ۚ تَبْتَغُوْنَ عَرَضَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا  ۡ فَعِنْدَ اللّٰهِ مَغَانِمُ كَثِيْرَةٌ  ۭكَذٰلِكَ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلُ فَمَنَّ اللّٰهُ عَلَيْكُمْ فَتَبَيَّنُوْا  ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا      94؀ لَا يَسْتَوِي الْقٰعِدُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ غَيْرُ اُولِي الضَّرَرِ وَالْمُجٰهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ ۭ فَضَّلَ اللّٰهُ الْمُجٰهِدِيْنَ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ عَلَي الْقٰعِدِيْنَ دَرَجَةً  ۭ وَكُلًّا وَّعَدَ اللّٰهُ الْحُسْنٰي ۭ وَفَضَّلَ اللّٰهُ الْمُجٰهِدِيْنَ عَلَي الْقٰعِدِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا     95؀ۙ دَرَجٰتٍ مِّنْهُ وَمَغْفِرَةً وَّرَحْمَةً ۭ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      96؀ۧ

अब एक और मआशरती मसला आ रहा है। उस वक़्त दरअसल पूरे अरब के अंदर एक भट्टी दहक रही थी, जगह-जगह जंगें लड़ी जा रही थीं, मैदान लग रहे थे, मअरके (आक्रमण) हो रहे थे। तारीख़ और सीरत की किताबों में तो सिर्फ़ बड़े-बड़े मअरकों और ग़ज़वात का ज़िक्र हुआ है मगर हक़ीक़त में उस वक़्त पूरा मआशरा हालते जंग में था। एक चौमुखी जंग थी जो मुसलसल जारी थी। इन आयात से उस वक़्त के अरब मआशरे की असल सूरते हाल और उस क़बाइली मआशरे के मसाइल की बहुत कुछ अक्कासी होती है। इस तरह के माहौल में फ़र्ज़ करें, एक शख्स ने किसी दूसरे को क़त्ल कर दिया। क़ातिल और मक़तूल दोनों मुसलमान हैं। क़ातिल कहता है कि मैंने अम्दन (जानबूझ कर) ऐसा नहीं किया, मैंने तो शिकार की ग़र्ज़ से तीर चलाया था मगर इत्तेफ़ाक़ से निशाना चूक गया और उसको जा लगा। तो अब यह मुसलमान को मुसलमान को क़त्ल करना दो तरह का हो सकता है, क़त्ले अम्द या क़त्ले ख़ता। यहाँ इस बारे में वज़ाहत फ़रमाई गई है।

आयत 92

“किसी मोमिन के लिये यह रवा नहीं कि वह एक मोमिन को क़त्ल करे मगर ख़ता के तौर पर।”وَمَا كَانَ لِمُؤْمِنٍ اَنْ يَّقْتُلَ مُؤْمِنًا اِلَّا خَطَــــــًٔـا ۚ

ख़ता के तौर पर क़त्ल क्या है? निशाना चूक गया और किसी को जा लगा या सड़क पर हादसा हो गया, कोई शख्स गाड़ी के नीचे आकर मर गया। आप तो उसे मारना नहीं चाहते थे, बस यह सब कुछ आपसे इत्तेफ़ाक़ी तौर पर हो गया। चुनाँचे सऊदी अरब में हादसों के ज़रिये होने वाली मौतों के फ़ैसले इसी क़ानूने क़त्ले ख़ता के तहत होते हैं। वह क़ानून क्या है:

“और जो शख्स किसी मोमिन को क़त्ल कर दे ग़लती से तो (उसके ज़िम्में है) एक मुसलमान ग़ुलाम की ग़र्दन का आज़ाद कराना”وَمَنْ قَتَلَ مُؤْمِنًا خَطَــــًٔا فَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ
“और ख़ून बहा मक़तूल के घरवालों को अदा करना, इल्ला यह कि वह माफ़ कर दें।”وَّدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ اِلٰٓى اَھْلِهٖٓ اِلَّآ اَنْ يَّصَّدَّقُوْا ۭ

यानि क़त्ले ख़ता के बदले में क़ातिल को क़त्ल नहीं किया जायेगा बल्कि दीयत यानि ख़ून बहा अदा किया जायेगा, यह मक़तूल के वारिसों का हक़ है। और गुनाह के कफ्फ़ारे के तौर पर एक मुसलमान ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा, यह अल्लाह का हक़ है।

“और अगर वह (मक़तूल) किसी ऐसे क़बीले से था जिससे तुम्हारी दुश्मनी है और था वह मुसलमान” فَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍ عَدُوٍّ لَّكُمْ وَھُوَ مُؤْمِنٌ
“तो फिर सिर्फ़ एक मुसलमान ग़ुलाम को आज़ाद करना होगा।”فَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ ۭ

क्योंकि काफ़िर क़बीले का आदमी था और अगर उसकी दीयत दी जायेगी तो वह उसके घर वालों को मिलेगी जो कि काफ़िर हैं, लिहाज़ा यहाँ दीयत माफ़ हो गई, लेकिन एक गुलाम को आज़ाद करना जो अल्लाह का हक़ था, वह बरक़रार रहेगा।

“और अगर वह (मक़तूल) हो किसी ऐसी क़ौम से जिसके साथ तुम्हारा मुआहिदा है” وَاِنْ كَانَ مِنْ قَوْمٍۢ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَھُمْ مِّيْثَاقٌ
“तो फिर दीयत भी देनी होगी उसके घर वालों को और एक मोमिन ग़ुलाम भी आज़ाद करना होगा।”فَدِيَةٌ مُّسَلَّمَةٌ اِلٰٓى اَھْلِهٖ وَتَحْرِيْرُ رَقَبَةٍ مُّؤْمِنَةٍ ۚ

गोया यह दो हक़ अलग-अलग हैं। एक तो दीयत है जो मक़तूल के वुरसा का हक़ है, इसमें यहाँ रिआयत नहीं हो सकती, अलबत्ता जो हक़ अल्लाह का अपना है यानि गुनाह के असरात को ज़ाइल करने के लिये एक मोमिन ग़ुलाम का आज़ाद करना, तो इसमें अल्लाह ने नर्मी कर दी, जिसका ज़िक्र आगे आ रहा है।

“फिर जो यह (ग़ुलाम आज़ाद) ना कर सके तो रोज़े रखे दो महीनों के मुतावातिर। यह अल्लाह की तरफ़ से तौबा (क़ुबूल करने का ज़रिया) है, और यक़ीनन अल्लाह तो अलीम व हकीम है।” فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ شَهْرَيْنِ مُتَتَابِعَيْنِ ۡ تَوْبَةً مِّنَ اللّٰهِ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا      92؀

अब आगे क़त्ले अम्द के मुताल्लिक़ तफ़सीलात का ज़िक्र है।

आयत 93

“और जो कोई क़त्ल करेगा किसी मोमिन को जानबूझ कर तो उसका बदला जहन्नम है जिसमें वह हमेशा रहेगा”وَمَنْ يَّقْتُلْ مُؤْمِنًا مُّتَعَمِّدًا فَجَزَاۗؤُهٗ جَهَنَّمُ خٰلِدًا فِيْھَا
“और अल्लाह का ग़ज़ब उस पर होगा, और अल्लाह ने उस पर लानत फ़रमाई है और उसके लिये बहुत बड़ा अज़ाब तैयार कर रखा है।”وَغَضِبَ اللّٰهُ عَلَيْهِ وَلَعَنَهٗ وَاَعَدَّ لَهٗ عَذَابًا عَظِيْمًا      93؀

जैसा कि आग़ाज़े सूरत में ज़िक्र हुआ था कि हुरमते जान और हुरमते माल के तसव्वुर पर मआशरे की बुनियाद क़ायम है। लिहाज़ा एक मुसलमान का क़त्ल कर देना अल्लाह के यहाँ एक बहुत संजीदा मामला है। यही वजह है कि सूरह मायदा (आयत:32) में क़त्ले नाहक़ को पूरी नौए इंसानी के क़त्ल के मुतरादिफ़ क़रार दिया गया है। इसलिये कि क़ातिल ने हुरमते जान को पामाल करके शजरे तमद्दुन की गोया जड़ काट दी, और उसका यह फ़अल (काम) ऐसे ही है जैसे उसने पूरी इंसानी नस्ल को मौत के घाट उतार दिया। इससे अंदाज़ा कीजिये कि हमारे यहाँ ईमान व इस्लाम कितना कुछ है और इंसानी जान की क़द्र व क़ीमत क्या है। आज हमारे मआशरे में क़त्ले अम्द के वाक़िआत रोज़मर्रा का मामूल बन चुके हैं और इंसानी जान मच्छर-मक्खी की जान की तरह अरज़ा (सस्ती) हो चुकी है।

अब अगली आयत को समझने के लिये अरब के उन मख़सूस हालात को नज़र में रखें जिनमें मुसलमान और ग़ैर मुस्लिम एक-दूसरे के साथ रहते थे, मुख़्तलिफ़ इलाकों में कुछ लोग दायरा-ए-इस्लाम में दाख़िल हो चुके थे और कुछ अभी कुफ़्र पर क़ायम थे और कोई ज़रिया तमीज़ भी उनमें नहीं था, जगह-जगह मअरके भी हो रहे थे। अब फ़र्ज़ करें किसी इलाक़े में लड़ाई हो रही है, मुसलमान मुजाहिद समझा कि सामने से काफ़िर आ रहा है, मगर जब वह उसे क़त्ल करने के लिये बढ़ा तो उसने आगे से कलमा पढ़ कर दावा किया कि वह मुसलमान है। इस सूरते हाल में मुमकिन है समझा जाये कि उसने जान बचाने के लिये बहाना किया है। इस बारे में हुक्म दिया जा रहा है:

आयत 94

“ऐ अहले ईमान, जब तुम अल्लाह की राह में निकलो तो तहक़ीक़ कर लिया करो”يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا ضَرَبْتُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ فَتَبَيَّنُوْا
“और जो शख्स भी तुम्हारे सामने सलाम पेश करे (या इस्लाम पेश करे) उसको यह मत कहो कि तुम मोमिन नहीं हो।”وَلَا تَقُوْلُوْا لِمَنْ اَلْقٰٓى اِلَيْكُمُ السَّلٰمَ لَسْتَ مُؤْمِنًا ۚ

तुम उसकी बातिनी कैफ़ियत मालूम नहीं कर सकते। ईमान का ताल्लुक़ चूँकि दिल से है और दिल का हाल सिवाय अल्लाह के और कोई नहीं जान सकता, लिहाज़ा दुनिया में तमाम मामलात का ऐतबार ज़बानी इस्लाम (इक़रार बिल् लिसान) पर ही होगा। अगर कोई शख्स कलमा पढ़ रहा है और अपने इस्लाम का इज़हार कर रहा है तो आपको उसके अल्फ़ाज़ का ऐतबार करना होगा। इस आयत के पसमंज़र के तौर पर रिवायात में एक वाक़िये का ज़िक्र मिलता है जो हज़रत उसामा रज़ि० के साथ पेश आया था। किसी सरीये में हज़रत उसामा रज़ि० का एक काफ़िर से दू-बर-दू मुक़ाबला हुआ। जब वह काफ़िर बिल्कुल ज़ेर हो गया और उसको यक़ीन हो गया कि बचने का कोई रास्ता नहीं तो उसने कलमा पढ़ दिया: اَشْھَدُ اَنْ لَّا اِلٰہَ اِلَّا اللہُ وَ اَشْھَدُ اَنَّ مُحَمَّدًا رَسُوْلُ اللہِ. अब ऐसी सूरते हाल में जो कोई भी होता यही समझता कि उसने जान बचाने के लिये बहाना किया है। हज़रत उसामा रज़ि० ने भी यही समझते हुए उस पर नेज़े का वार किया और उसे क़त्ल कर दिया। लेकिन दिल में एक खलिश रही। बाद में उन्होंने रसूल अल्लाह ﷺ से इसका ज़िक्र किया तो आप ﷺ ने फ़रमाया: ((اَقَالَ لَا اِلٰہَ اَلَّا اللہُ وَ قَتَلْتَہٗ؟)) “उसने ला इलाहा इल्ललाह कह दिया और तुमने फिर भी उसे क़त्ल कर दिया?” हज़रत उसामा रज़ि० ने जवाब दिया: “या रसूल अल्लाह! उसने तो हथियार के ख़ौफ़ से कलमा पढ़ा था।” आप ﷺ ने फ़रमाया: ((اَفَلَا شَقَقْتَ عَنْ قَلْبِہٖ حَتّٰی تَعْلَمَ اَقَالَھَا اَمْ لَا؟)) “तुमने उसका दिल चीर कर क्यों ना जान लिया कि उसने कलमा दिल से पढ़ा था या नहीं?” हज़रत उसामा रज़ि० कहते हैं कि आप ﷺ ने यह बात मुझसे बार-बार फ़रमाई, यहाँ तक कि मैं ख़्वाहिश करने लगा कि काश मैं आज ही मुसलमान हुआ होता! बाज़ रिवायात में आया है कि आप ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया कि ऐ उसामा उस दिन क्या जवाब दोगे जब वह कलमा-ए-शहादत तुम्हारे ख़िलाफ़ मुद्दई होकर आयेगा?

“तुम दुनिया का सामान चाहते हो”تَبْتَغُوْنَ عَرَضَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا  ۡ

कि ऐसे शख्स को काफ़िर क़रार दें, क़त्ल करें और माले ग़नीमत ले लें।

“अल्लाह के यहाँ बड़ी ग़नीमतें हैं।”فَعِنْدَ اللّٰهِ مَغَانِمُ كَثِيْرَةٌ  ۭ

तुम्हारे लिये बड़ी-बड़ी ममलकतों के अम्वाले ग़नीमत आने वाले हैं। इन छोटी-छोटी चीजों के लिये हुदूदुल्लाह से तजावुज़ ना करो।

“तुम ख़ुद भी तो पहले ऐसे ही थे, तो अल्लाह ने तुम पर अहसान फ़रमाया है” كَذٰلِكَ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلُ فَمَنَّ اللّٰهُ عَلَيْكُمْ

आख़िर एक दौर तुम पर भी ऐसा ही गुज़रा है। तुम सब भी तो नौ मुस्लिम ही हो और एक वक़्त में तुममें से हर शख्स काफ़िर या मुशरिक ही तो था! फिर अल्लाह ही ने तुम लोगों पर अहसान फ़रमाया कि तुम्हें कलमा-ए-शहादत अता किया और रसूल अल्लाह ﷺ की दावत व तब्लीग़ से बहराहमंद होने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाई। लिहाज़ा अल्लाह का अहसान मानों और इस तरीक़े से लोगों के मामले में इतनी सख़्त रविश इख़्तियार ना करो।

“तो (देखो) तहक़ीक कर लिया करो। और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उससे अच्छी तरह बा ख़बर है।”فَتَبَيَّنُوْا  ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا      94؀

अगली आयत मुबारका में जिहाद का लफ़्ज़ बा-मायने क़िताल आया है। जहाँ तक जिहाद की असल रूह का ताल्लुक़ है तो एक मोमिन गोया हर वक़्त जिहाद में मसरूफ़ है। दावत व तब्लीग़ भी जिहाद है, अपने नफ़्स के ख़िलाफ़ इताअते इलाही भी जिहाद है। अज़रूए हदीसे नबवी: ((اَلْمُجَاھِدُ مَنْ جَاھَدَ نَفْسَہٗ)) बल्कि रसूल अल्लाह ﷺ से पूछा गया: اَیُّ الْجِھَادِ اَفْضَلُ؟ “सबसे अफ़ज़ल जिहाद कौनसा है?” तो आपने फ़रमाया: ((اَنْ تُجَاھِدَ نَفْسَکَ وَ ھَوَاکَ فِیْ ذَاتِ اللہِ عَزَّ وَ جَلَّ)) “यह कि तुम अपने नफ़्स और अपनी ख़्वाहिशात के ख़िलाफ़ जिहाद करो उन्हें अल्लाह का मुतीअ बनाने के लिये।” चुनाँचे जिहाद की बहुत सी मंजिलें हैं, जिनमें से आख़री मंजिल क़िताल है। ताहम जिहाद और क़िताल के अल्फ़ाज़ क़ुरान में एक-दूसरे की जगह पर भी इस्तेमाल हुए हैं। क़ुरान में अल्फ़ाज़ के तीन ऐसे जोड़े हैं जिनमें से हर लफ़्ज़ अपने जोड़े के दूसरे लफ़्ज़ की जगह अक्सर इस्तेमाल हुआ है। उनमें से एक जोड़ा तो यही है, यानि जिहाद और क़िताल के अल्फ़ाज़, जबकि दूसरे दो जोड़े हैं “मोमिन व मुस्लिम” और “नबी व रसूल।”

आयत 95

“बराबर नहीं हैं अहले ईमान में से बैठे रहने वाले बग़ैर उज़र के और वह लोग जो अल्लाह की राह में जिहाद (क़िताल) के लिये निकलते हैं अपनी जानों और मालों के साथ।”لَا يَسْتَوِي الْقٰعِدُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ غَيْرُ اُولِي الضَّرَرِ وَالْمُجٰهِدُوْنَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ ۭ
“अल्लाह ने फ़ज़ीलत दी है उन मुजाहिदों को जो अपनी जानों और मालों से जिहाद करने वाले हैं, बैठे रहने वालों पर, एक बहुत बड़े दर्जे की।”فَضَّلَ اللّٰهُ الْمُجٰهِدِيْنَ بِاَمْوَالِهِمْ وَاَنْفُسِهِمْ عَلَي الْقٰعِدِيْنَ دَرَجَةً  ۭ

دَرَجَةً की तन्कीर تفخیم के लिये है, यानि बहुत बड़ा दर्जा। यहाँ क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह के लिये निकलने की बात हो रही है कि जो किसी माक़ूल उज़र के बग़ैर क़िताल के लिये नहीं निकलता वह उसके बराबर हरग़िज़ नहीं हो सकता जो क़िताल कर रहा है। अग़र कोई अंधा है, देखने से माज़ूर है या कोई लँगड़ा है, चल नहीं सकता, ऐसे माज़ूर क़िस्म के लोग अगर क़िताल के लिये ना निकलें तो कोई हर्ज नहीं। लेकिन ऐसे लोग जिनको कोई ऐसा उज़र नहीं है, फिर भी वह बैठे रहें, यहाँ उन्हीं लोगों का ज़िक्र हो रहा है कि वह दर्जे में मुजाहिदीन के बराबर हरगिज़ नहीं हो सकते। और यह भी नोट कर लीजिये कि यह ऐसे क़िताल की बात हो रही है जिसकी हैसियत इख़्तियारी (optional) हो, लाज़िमी क़रार ना दिया गया हो। जब इस्लामी रियासत की तरफ़ से क़िताल के लिये नफ़ीरे आम हो जाये तो माज़ूरों के सिवा सबके लिये निकलना लाज़िम हो जाता है। और यह भी याद रहे कि क़िताल के लिये पहली दफ़ा नफ़ीरे आम ग़ज़वा-ए-तबूक (सन् 9 हिजरी) में हुई थी। इससे पहले क़िताल के बारे में सिर्फ़ तरगीब (persuasion) थी कि निकलो अल्लाह की राह में, हुक्म नहीं था। लिहाज़ा कोई जवाब तलबी भी नहीं थी। कोई चला गया, कोई नहीं गया, कोई गिरफ्त नहीं थी। लेकिन ग़ज़वा-ए-तबूक के लिये नफ़ीरे आम हुई थी, बाक़ायदा एक हुक्म था, लिहाज़ा जो लोग नहीं निकले उनसे वज़हें तलब की गई, उनका मुआख़्जा किया गया और उनको सज़ाएँ भी दी गयीं। तो यहाँ चूँकि इख़्तियारी क़िताल की बात हो रही है इसलिये यह नहीं कहा जा रहा कि उनको पकड़ो और सज़ा दो, बल्कि यह बताया जा रहा है कि क़िताल करने वाले मुजाहिदीन अल्लाह की नज़र में बहुत अफ़ज़ल हैं। इससे पहले ऐसे क़िताल के लिये इसी सूरत (आयत:84) में { وَحَرِّضِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ } का हुक्म है, यानि मोमिनों को क़िताल पर उकसाइये, तरगीब दीजिये, आमादा कीजिये। लेकिन यहाँ वाज़ेह अंदाज़ में बताया जा रहा है कि क़िताल करने वाले और ना करने वाले बराबर नहीं हो सकते।

“(अग़रचे) सबके लिये अल्लाह की तरफ़ से अच्छा वादा है।”وَكُلًّا وَّعَدَ اللّٰهُ الْحُسْنٰي ۭ

चूँकि अभी क़िताल फ़र्ज़ नहीं था, नफ़ीरे आम नहीं थी, सबका निकलना लाज़िम नहीं किया गया था, इसलिये फ़रमाया गया कि तमाम मोमिनों को उनके आमाल के मुताबिक़ अच्छा अजर दिया जायेगा। क़िताल के लिये ना निकलने वालों ने अगर इतनी हिम्मत नहीं की और वह कमतर मक़ाम पर क़ानेअ (संतुष्ट) हो गये हैं तो ठीक है, अल्लाह तआला की तरफ़ से इस सिलसिले में उन पर कोई गिरफ़्त नहीं होगी।

“लेकिन फ़ज़ीलत दी है अल्लाह तआला ने मुजाहिदों को बैठे रहने वालों पर एक अज्रे अज़ीम की (सूरत में)وَفَضَّلَ اللّٰهُ الْمُجٰهِدِيْنَ عَلَي الْقٰعِدِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا     95؀ۙ

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आयत 96

“(उनके लिये) उसकी तरफ़ से बुलंद दरजात भी होंगे और मग़फ़िरत व रहमत भी। और यक़ीनन अल्लाह तआला बख़्शने वाला, बहुत रहम करने वाला है।”دَرَجٰتٍ مِّنْهُ وَمَغْفِرَةً وَّرَحْمَةً ۭ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      96؀ۧ

आयात 97 से 100 तक

اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَفّٰىھُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِهِمْ قَالُوْا فِيْمَ كُنْتُمْ  ۭقَالُوْا كُنَّا مُسْتَضْعَفِيْنَ فِي الْاَرْضِ ۭقَالُوْٓا اَلَمْ تَكُنْ اَرْضُ اللّٰهِ وَاسِعَةً فَتُھَاجِرُوْا فِيْھَا  ۭفَاُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمْ جَهَنَّمُ   ۭوَسَاۗءَتْ مَصِيْرًا    97؀ۙ اِلَّا الْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاۗءِ وَالْوِلْدَانِ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ حِيْلَةً وَّلَا يَهْتَدُوْنَ سَبِيْلًا  98؀ۙ فَاُولٰۗىِٕكَ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّعْفُوَ عَنْھُمْ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَفُوًّا غَفُوْرًا      99؀ وَمَنْ يُّھَاجِرْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ يَجِدْ فِي الْاَرْضِ مُرٰغَمًا كَثِيْرًا وَّسَعَةً  ۭ وَمَنْ يَّخْرُجْ مِنْۢ بَيْتِهٖ مُھَاجِرًا اِلَى اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ ثُمَّ يُدْرِكْهُ الْمَوْتُ فَقَدْ وَقَعَ اَجْرُهٗ عَلَي اللّٰهِ  ۭ وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      ١٠٠؀ۧ

अब उन लोगों का ज़िक्र आ रहा है जो हिजरत करने में पसोपेश (टाल-मटोली) कर रहे थे, इस सिलसिले में उन्हें कोई उज़र भी मानेअ (रुकावट) नहीं था, मगर फिर भी वह अपने क़बीले या मक्का शहर में अपने घरों में आराम से बैठे थे।

आयत 97

“यक़ीनन वह लोग कि जिनको फ़रिश्ते इस हाल में क़ब्ज़ करेंगे कि वह अपनी जानों पर ज़ुल्म कर रहे थे”اِنَّ الَّذِيْنَ تَوَفّٰىھُمُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ ظَالِمِيْٓ اَنْفُسِهِمْ

यानि उन्होंने हिजरत नहीं की थी, इस सिलसिले में रसूल अल्लाह ﷺ की इताअत नहीं की थी। आख़िर मौत तो आनी है, लिहाज़ा फ़रिश्ते जब उनकी रूहें क़ब्ज़ करेंगे तो उनके साथ इस तरह का मकालमा करेंगे:

“वह उनसे कहेंगे यह तुम किस हाल में थे।”قَالُوْا فِيْمَ كُنْتُمْ  ۭ

तुमने ईमान का दावा तो किया था, लेकिन जब रसूल अल्लाह ﷺ ने हिजरत का हुक्म दिया तो हिजरत क्यों नहीं की? तुम्हें क्या हो गया था?

“वह कहेंगे हम मजबूर और कमज़ोर बना दिये गये थे इस ज़मीन में।”قَالُوْا كُنَّا مُسْتَضْعَفِيْنَ فِي الْاَرْضِ ۭ
“वह (फ़रिश्ते) कहेंगे क्या अल्लाह की ज़मीन कुशादा नहीं थी कि तुम उसमें हिजरत करते?”قَالُوْٓا اَلَمْ تَكُنْ اَرْضُ اللّٰهِ وَاسِعَةً فَتُھَاجِرُوْا فِيْھَا  ۭ
“तो यह वह लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बहुत बुरी जगह है ठहरने की।”فَاُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمْ جَهَنَّمُ   ۭوَسَاۗءَتْ مَصِيْرًا      97؀ۙ

आयत 98

“सिवाय उन मर्दों, औरतों और बच्चों के जिनको वाक़िअतन दबा लिया गया हो”اِلَّا الْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الرِّجَالِ وَالنِّسَاۗءِ وَالْوِلْدَانِ

जिन लोगों को कमज़ोर समझ कर दबा लिया गया हो, वाक़िअतन ज़ंजीरों में जकड़ कर घरों में बंद कर दिया गया हो, उनका मामला और है। या फिर कोई औरत है जिसके लिये तन्हा सफ़र करना मुमकिन नहीं। वैसे तो ऐसी औरतें भी थी जिन्होंने तन्हा हिजरतें कीं, लेकिन हर एक के लिये तो ऐसा मुमकिन नहीं था।

“ना तो वह कोई तदबीर कर सकते हैं और ना वह रास्ता जानते हैं।”لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ حِيْلَةً وَّلَا يَهْتَدُوْنَ سَبِيْلًا     98؀ۙ

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आयत 99

“बईद नहीं कि ऐसे लोगों को अल्लाह तआला माफ़ फ़रमा दे, और अल्लाह वाक़िअतन बख़्शने वाला और माफ़ फ़रमाने वाला है।”فَاُولٰۗىِٕكَ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّعْفُوَ عَنْھُمْ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَفُوًّا غَفُوْرًا      99؀

ऐसे बेबस और लाचार मर्दों, बच्चों और औरतों के लिये इसी सूरह (आयत:75) में हुक्म हुआ था कि उनके लिये क़िताल फ़ी सबीलिल्लाह करो और उन्हें जाकर छुड़ाओ। लेकिन जो लोग हिजरत के इस वाज़ेह हुक्म के बाद भी बग़ैर उज़्र के बैठे रहे हैं उनके बारे में मुसलमानों को बताया गया है कि वह मुनाफ़िक़ हैं, उनसे तुम्हारा कोई ताल्लुक़ नहीं, जब तक कि वह हिजरत ना करें। बल्कि क़िताल के मामले में वह बिल्कुल कुफ्फ़ार के बराबर हैं।

आयत 100

“और जो कोई हिजरत करेगा अल्लाह की राह में”وَمَنْ يُّھَاجِرْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ
“वह पायेगा ज़मीन में बड़े ठिकाने और बड़ी वुसअत।”يَجِدْ فِي الْاَرْضِ مُرٰغَمًا كَثِيْرًا وَّسَعَةً  ۭ

जैसे सूरह अन्कबूत में फ़रमाया: { يٰعِبَادِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّ اَرْضِيْ وَاسِعَةٌ فَاِيَّايَ فَاعْبُدُوْنِ} (आयत:56) “ऐ मेरे वह बन्दों जो ईमान लाये हो, मेरी ज़मीन बहुत कुशादा है, बस तुम लोग मेरी ही बंदगी करो!” अगर यहाँ अपने वतन में अल्लाह की बंदगी नहीं कर सकते हो तो कहीं और चले जाओ।

“और जो कोई अपने घर से निकल खड़ा हुआ हिजरत के लिये अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़, फिर उसे मौत ने आ लिया”وَمَنْ يَّخْرُجْ مِنْۢ بَيْتِهٖ مُھَاجِرًا اِلَى اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ ثُمَّ يُدْرِكْهُ الْمَوْتُ
“तो उसका अजर अल्लाह के ज़िम्मे साबित हो गया।”فَقَدْ وَقَعَ اَجْرُهٗ عَلَي اللّٰهِ  ۭ

यानि जिस किसी ने भी हिजरत की, फ़ी सबीलिल्लाह, दौलत के लिये या हुसूले दुनिया के लिये नहीं, बल्कि अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की रज़ाजोई के लिये, वह असल हिजरत है। हदीस में इसकी मज़ीद वज़ाहत मिलती है:

اِنَّمَا الْاَعْمَالُ بِنِّیَّاتِ وَ اِنَّمَا لِکُلِّ امْرِیئٍ مَا نَوٰی، مَمَنْ کَانَتْ ھِجْرَتُہٗ اِلَی اللہِ وَ رَسُوْلِہٖ فَھِجْرَتُہٗ اِلَی اللہِ وَ رَسُوْلِہٖ، وَ مَنْ کَانَتْ ھِجْرَتُہٗ لِدُنْیَا یُصِیْبُھَا اَوِامْرَاَۃٍ یَنْکِحُھَا فَھِجْرَتُہٗ اِلٰی مَا ھَاجَرَ اِلَیْہِ

“आमाल का दारोमदार नीयतों पर ही है और बिलाशुबह हर इंसान के लिये वही कुछ है जिसकी उसने नीयत की। पस जिसने हिजरत की अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की तरफ़ तो वाक़ई उसकी हिजरत अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की तरफ़ है, और जिसने हिजरत की दुनिया कमाने के लिये या किसी औरत से शादी रचाने के लिये तो उसकी हिजरत उसी चीज़ की तरफ़ शुमार होगी जिसका उसने क़सद (इरादा) किया।”

चुनाँचे जिसने अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ हिजरत की, ख़ुलूसे नीयत के साथ घर से निकल खड़ा हुआ और रास्ते ही में फ़ौत हो गया, मदीना मुनव्वरा नहीं पहुँच सका, हुज़ूर ﷺ के क़दमों तक उसकी रसाई नहीं हो सकी, वह अपना मक़सूद हासिल नहीं कर सका, तो फिर भी वह कामयाब व कामरान है। अल्लाह तआला उसकी नीयत के मुताबिक़ उसे हिजरत का अजर ज़रूर अता फ़रमायेगा।

“और यक़ीनन अल्लाह बख़्शने वाला, रहम फ़रमाने वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      ١٠٠؀ۧ

आयात 101 से 104 तक

وَاِذَا ضَرَبْتُمْ فِي الْاَرْضِ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَقْصُرُوْا مِنَ الصَّلٰوةِ  ڰ اِنْ خِفْتُمْ اَنْ يَّفْتِنَكُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۭ اِنَّ الْكٰفِرِيْنَ كَانُوْا لَكُمْ عَدُوًّا مُّبِيْنًا      ١٠١؁ وَاِذَا كُنْتَ فِيْهِمْ فَاَقَمْتَ لَھُمُ الصَّلٰوةَ فَلْتَقُمْ طَاۗىِٕفَةٌ مِّنْھُمْ مَّعَكَ وَلْيَاْخُذُوْٓا اَسْلِحَتَھُمْ  ۣفَاِذَا سَجَدُوْا فَلْيَكُوْنُوْا مِنْ وَّرَاۗىِٕكُمْ ۠ وَلْتَاْتِ طَاۗىِٕفَةٌ اُخْرٰى لَمْ يُصَلُّوْافَلْيُصَلُّوْا مَعَكَ وَلْيَاْخُذُوْا حِذْرَھُمْ وَاَسْلِحَتَھُمْ ۚ وَدَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ تَغْفُلُوْنَ عَنْ اَسْلِحَتِكُمْ وَاَمْتِعَتِكُمْ فَيَمِيْلُوْنَ عَلَيْكُمْ مَّيْلَةً وَّاحِدَةً  ۭ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ كَانَ بِكُمْ اَذًى مِّنْ مَّطَرٍ اَوْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَنْ تَضَعُوْٓا اَسْلِحَتَكُمْ ۚ وَخُذُوْا حِذْرَكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ اَعَدَّ لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا     ١٠٢؁ فَاِذَا قَضَيْتُمُ الصَّلٰوةَ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ قِيٰمًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰي جُنُوْبِكُمْ ۚ فَاِذَا اطْمَاْنَـنْتُمْ فَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ  ۚ اِنَّ الصَّلٰوةَ كَانَتْ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ كِتٰبًا مَّوْقُوْتًا      ١٠٣؁ وَلَا تَهِنُوْا فِي ابْتِغَاۗءِ الْقَوْمِ ۭ اِنْ تَكُوْنُوْا تَاْ لَمُوْنَ فَاِنَّھُمْ يَاْ لَمُوْنَ كَمَا تَاْ لَمُوْنَ ۚ وَتَرْجُوْنَ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا يَرْجُوْنَ  ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِــيْمًا      ١٠٤؀ۧ

इस रुकूअ में फिर शरीअत के कुछ अहकाम और इबादात की कुछ तफ़ासील हैं। गोआ ख़िताब का रुख़ अब फिर अहले ईमान की तरफ़ है।

आयत 101

“और (ऐ मुसलमानों!) जब तुम ज़मीन में सफ़र करो तो तुम पर कोई गुनाह नहीं अगर तुम नमाज़ को कुछ कम कर लिया करो”وَاِذَا ضَرَبْتُمْ فِي الْاَرْضِ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَقْصُرُوْا مِنَ الصَّلٰوةِ  ڰ
“अगर तुम्हें अंदेशा हो कि काफ़िर तुम्हें नुक़सान पहुँचाऐंगे।”اِنْ خِفْتُمْ اَنْ يَّفْتِنَكُمُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ۭ
“यक़ीनन यह काफ़िर तुम्हारे ख़ुले दुश्मन हैं।”اِنَّ الْكٰفِرِيْنَ كَانُوْا لَكُمْ عَدُوًّا مُّبِيْنًا      ١٠١؁

यह तो है हालते सफ़र में क़सरे सलाह (नमाज़) का हुक्म। लेकिन जंग की हालत में क़सर यानि सलातुल ख़ौफ़ का तरीक़ा अगली आयत में मज़कूर है। हालते जंग में जब पूरे लश्कर का एक साथ नमाज़ पढ़ना मुमकिन ना रहे तो गिरोहों की शक्ल में नमाज़ अदा करने की इजाज़त है। लेकिन ऐसी सूरत में जब हुज़ूर ﷺ ख़ुद भी लश्कर में मौजूद होते तो कोई एक गिरोह ही आप ﷺ के साथ नमाज़ पढ़ सकता था, जबकि दूसरे गिरोह के लोगों को लाज़िमन महरूमी का अहसास होता। लिहाज़ा इस मसले के हल के लिये सलातुल ख़ौफ़ अदा करने की बहुत उम्दा तदबीर बताई गयी।

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आयत 102

“और (ऐ नबी ) जब आप उनके दरमियान मौजूद हों और (हालते जंग में) उन्हें नमाज़ पढ़ाने खड़े हों”وَاِذَا كُنْتَ فِيْهِمْ فَاَقَمْتَ لَھُمُ الصَّلٰوةَ
“तो उनमें से एक गिरोह को खड़ा होना चाहिये आप के साथ, और वह अपना अस्लाह लिये हुए हों।”فَلْتَقُمْ طَاۗىِٕفَةٌ مِّنْھُمْ مَّعَكَ وَلْيَاْخُذُوْٓا اَسْلِحَتَھُمْ  ۣ
“फिर जब वह सज्दा कर चुकें तो तुम्हारे पीछे हो जाएँ”فَاِذَا سَجَدُوْا فَلْيَكُوْنُوْا مِنْ وَّرَاۗىِٕكُمْ ۠
“और आए दूसरा गिरोह जिन्होंने अभी नमाज़ नहीं पढ़ी और वह आप के साथ नमाज़ पढ़ें”وَلْتَاْتِ طَاۗىِٕفَةٌ اُخْرٰى لَمْ يُصَلُّوْافَلْيُصَلُّوْا مَعَكَ

यह हुक्म सलातुल ख़ौफ़ के बारे में है। इसकी अमली सूरत यह थी कि हुज़ूर ﷺ ने एक रकअत नमाज़ पढ़ा दी और उसके बाद आप ﷺ बैठे रहे, दूसरी रकअत के लिये खड़े नहीं हुए, जबकि मुक़तदियों ने दूसरी रकअत ख़ुद अदा कर ली। दो रकअतें पूरी करके वह महाज़ पर वापस चले गये तो दूसरे गिरोह के लोग जो अब तक नमाज़ में शरीक नहीं हुए थे, नमाज़ के लिए हुज़ूर ﷺ के पीछे आकर खड़े हो गए। अब हुज़ूर ﷺ ने दूसरी रकअत इस गिरोह के लोगों की मौजूदगी में पढ़ाई। इसके बाद हुज़र ﷺ ने सलाम फेर दिया, लेकिन मुक़तदियों ने अपनी दूसरी रकअत इन्फ़रादी तौर पर अदा कर ली। इस तरीक़े से लश्कर में से कोई शख़्स भी हुज़ूर ﷺ की इमामत के शर्फ़ और सआदत से महरूम ना रहा।

“और उनको भी चाहिये कि वह अपनी हिफ़ाज़त का सामान और अपना अस्लाह अपने साथ रखें।”وَلْيَاْخُذُوْا حِذْرَھُمْ وَاَسْلِحَتَھُمْ ۚ
“यह काफ़िर लोग तो इसी ताक में रहते हैं कि तुम जैसे ही अपने अस्लाह और साज़ो सामान से ज़रा गाफ़िल हो, तो वह तुम पर एक दम टूट पड़ें।”وَدَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ تَغْفُلُوْنَ عَنْ اَسْلِحَتِكُمْ وَاَمْتِعَتِكُمْ فَيَمِيْلُوْنَ عَلَيْكُمْ مَّيْلَةً وَّاحِدَةً  ۭ
“और तुम पर कोई गुनाह नहीं है कि अगर तुम्हें कोई तकलीफ़ हो बारिश की वजह से या तुम बीमार हो जाओ और (ऐसी सूरतों में) तुम अपना अस्लाह उतार कर रख दो।”وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ كَانَ بِكُمْ اَذًى مِّنْ مَّطَرٍ اَوْ كُنْتُمْ مَّرْضٰٓى اَنْ تَضَعُوْٓا اَسْلِحَتَكُمْ ۚ
“अलबत्ता अपना बचाव ज़रूर कर लिया करो।”وَخُذُوْا حِذْرَكُمْ ۭ

अगर तलवार, नेज़ा वग़ैरह जिस्म से बंधे हुए हों और इस हालत में नमाज़ पढ़ना मुश्किल हो तो यह असला वग़ैरह खोल कर अलैहदा रख देने में कोई हर्ज नहीं, बशर्ते कि जंग के हालात इजाज़त देते हों, लेकिन ढ़ाल वग़ैरह अपने पास ज़रूर मौजूद रहे ताकि अचानक कोई हमला हो तो इंसान अपने आपको उस फ़ौरी हमले से बचा सके और अपने हथियार संभाल सके।

“यक़ीनन अल्लाह ने काफ़िरों के लिये बहुत ज़िल्लत आमेज़ अज़ाब तैयार कर रखा है।”اِنَّ اللّٰهَ اَعَدَّ لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا     ١٠٢؁

आयत 103

“फिर जब तुम (इस तरीक़े से) नमाज़ अदा कर लो” فَاِذَا قَضَيْتُمُ الصَّلٰوةَ
“तो फिर ज़िक्र करो अल्लाह का खड़े हुए, बैठे हुए और लेटे हुए।”فَاذْكُرُوا اللّٰهَ قِيٰمًا وَّقُعُوْدًا وَّعَلٰي جُنُوْبِكُمْ ۚ

चलते-फिरते, उठते-बैठते, सवारी पर, पैदल चलते हुए हर हालत में अल्लाह का ज़िक्र जारी रहना चाहिये। यह ज़िक्रे कसीर सिर्फ़ नमाज़ के साथ मख़्सूस नहीं बल्कि हर वक़्त और हर हालत में इसका अहतमाम होना चाहिये। जैसे सूरह अल् जुमा (आयत:10) में हुक्म दिया गया है:                                     { فَاِذَا قُضِيَتِ الصَّلٰوةُ فَانْتَشِرُوْا فِي الْاَرْضِ وَابْتَغُوْا مِنْ فَضْلِ اللّٰهِ وَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَثِيْرًا لَّعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ} “फिर जब नमाज़ पूरी हो जाए तो ज़मीन में फैल जाओ और अल्लाह का फ़ज़ल तलाश करो, और अल्लाह को कसरत से याद करो ताकि तुम फ़लाह पा जाओ।” चुनाँचे नमाज़ के बाद भी और कारोबारी ज़िन्दगी की मसरूफ़ियात के दौरान भी ज़िक्रे कसीर ज़ारी रखो। हर हाल में अल्लाह को याद करते रहो, उसके ज़िक्र में मशगूल रहो। दुआ-ए-मासूरह और दुआ-ए-मसनून का अहतमाम करो, अपनी ज़बानों, ज़हनों और दिलों को उसके ज़िक्र से तरोताज़ा रखो।

“फिर जब तुम्हें अमन हासिल हो जाए तो फिर नमाज़ को क़ायम करो (तमाम आदाब व शराइत के साथ)فَاِذَا اطْمَاْنَـنْتُمْ فَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ  ۚ

यानि नमाज़ की यह शक्ल (सलातुल ख़ौफ़) सिर्फ़ इज़तरारी (emergency) हालत में होगी, मगर जब ख़ौफ़ जाता रहे और हालते अमन बहाल हो जाए तो नमाज़ को शरीअत के अहकाम और आदाब के ऐन मुताबिक़ अदा करना ज़रूरी है।

“यक़ीनन नमाज़ अहले ईमान पर फ़र्ज़ की गई है वक़्त की पाबंदी के साथ।”اِنَّ الصَّلٰوةَ كَانَتْ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ كِتٰبًا مَّوْقُوْتًا      ١٠٣؁

यानि नमाज़ की फ़र्ज़ियत बाक़ायदा उसके अवक़ात के साथ है। नमाज़ के अवक़ात के ज़िमन में एक हदीस में तफ़सील मज़कूर है कि हज़रत जिब्रील अलै० ने दो दिन रसूल अल्लाह ﷺ को नमाज़ पढ़ाई। एक दिन पाँचो नमाज़ें अव्वल वक़्त में जबकि दूसरे दिन तमाम नमाज़ें आख़िर वक़्त में पढ़ाईं और बताया कि नमाज़ों के अवक़ात इन हदों के माबैन (बीच) हैं।

आयत 104

“और उस दुश्मन गिरोह का पीछा करने में कमज़ोरी ना दिखाओوَلَا تَهِنُوْا فِي ابْتِغَاۗءِ الْقَوْمِ ۭ

हक़ व बातिल की जंग अब फ़ैसलाकुन मरहले में दाख़िल हो रही हैं। इस आख़री मरहले में आकर थक ना जाना और दुश्मन का पीछा करने में सुस्त मत पड़ जाना, हिम्मत ना हार देना।

“अग़र तुम्हें तकलीफ़ पहुँचती है तो तुम्हारी तरह उन्हें भी तो तकलीफ़ पहुँचती है।”اِنْ تَكُوْنُوْا تَاْ لَمُوْنَ فَاِنَّھُمْ يَاْ لَمُوْنَ كَمَا تَاْلَمُوْنَ ۚ

यह बड़ा प्यारा अंदाज़ है कि इस कशमकश में अगर तुम लोग नुक़सान उठा रहे हो तो क्या हुआ? तुम्हारे दुश्मन भी तो वैसे ही नुक़सान से दो-चार हो रहे हैं, उन्हें भी तो तकालीफ़ पहुँच रही हैं, वह भी तो ज़ख़्म पर ज़ख़्म खा रहे हैं, उनके लोग भी तो मर रहे हैं।

“और तुम अल्लाह से ऐसी उम्मीदें रखते हो जैसी उम्मीदें वह नहीं रखते।”وَتَرْجُوْنَ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا يَرْجُوْنَ  ۭ

तुम्हें तो जन्नत की उम्मीद है, अल्लाह तआला से मग़फ़िरत की उम्मीद है, जबकि उन्हें ऐसी कोई उम्मीद नहीं है। लिहाज़ा इस ऐतबार से तुम्हें तो उनसे कहीं बढ़ कर पुरजोश होना चाहिये। सूरह आले इमरान की आख़री आयत में भी अहले ईमान को मुख़ातिब करके फ़रमाया गया है (आयत:200):       {يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اصْبِرُوْا وَصَابِرُوْا وَرَابِطُوْا     ۣ} “ऐ ईमान वालो, सब्र से काम लो और सब्र में अपने दुश्मनों से बढ़ जाओ और मरबूत (एक साथ) रहो।” तो आप लोगों को सब्र व इस्तकामत में उनसे बहुत आगे होना चाहिये, क्योंकि तुम्हारा सहारा तो अल्लाह है: {وَاصْبِرْ وَمَا صَبْرُكَ اِلَّا بِاللّٰهِ } (अल् नहल:127) “आप सब्र कीजिये, और आपका सब्र तो बस अल्लाह ही की तौफ़ीक़ से है।” तुम्हारे दुश्मनों के तो मनगढ़त क़िस्म के ख़ुदा हैं। उनके देवताओं और देवियों की ख़ुद उनके दिलों में कोई हक़ीक़ी क़द्र व क़ीमत नहीं है, फिर भी वह अपने बातिल मअबूदों के लिये अपनी जान जोख़िम में डाल रहे हैं तो ऐ मुसलमानों! तुम्हें तो उनसे कई गुना ज़्यादा क़ुर्बानियों के लिये हर वक़्त तैयार रहना चाहिये।

“और यक़ीनन अल्लाह अलीम भी है और हकीम भी।”وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِــيْمًا      ١٠٤؀ۧ

यह चंद आयतें तो थीं अहले ईमान से ख़िताब में। इसके बाद अगले रुकूअ में फिर मुनाफ़िक़ीन का ज़िक्र आ रहा है।

आयात 105 से 115 तक

اِنَّآ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِتَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ بِمَآ اَرٰىكَ اللّٰهُ  ۭوَلَا تَكُنْ لِّلْخَاۗىِٕنِيْنَ خَصِيْمًا    ١٠٥؀ۙ وَّاسْتَغْفِرِ اللّٰهَ  ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا     ١٠٦؁ۚ وَلَا تُجَادِلْ عَنِ الَّذِيْنَ يَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَھُمْ ۭاِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ خَوَّانًا اَثِــيْمًا     ١٠٧؀ڌ يَّسْتَخْفُوْنَ مِنَ النَّاسِ وَلَا يَسْتَخْفُوْنَ مِنَ اللّٰهِ وَھُوَ مَعَھُمْ اِذْ يُبَيِّتُوْنَ مَا لَا يَرْضٰى مِنَ الْقَوْلِ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطًا    ١٠٨؁ ھٰٓاَنْتُمْ هٰٓؤُلَاۗءِ جٰدَلْتُمْ عَنْھُمْ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا    ۣ فَمَنْ يُّجَادِلُ اللّٰهَ عَنْھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ اَمْ مَّنْ يَّكُوْنُ عَلَيْهِمْ وَكِيْلًا     ١٠٩؁ وَمَنْ يَّعْمَلْ سُوْۗءًا اَوْ يَظْلِمْ نَفْسَهٗ ثُمَّ يَسْتَغْفِرِ اللّٰهَ يَجِدِ اللّٰهَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      ١١٠؁ وَمَنْ يَّكْسِبْ اِثْمًا فَاِنَّمَا يَكْسِبُهٗ عَلٰي نَفْسِهٖ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا      ١١١؁ وَمَنْ يَّكْسِبْ خَطِيْۗئَةً اَوْ اِثْمًا ثُمَّ يَرْمِ بِهٖ بَرِيْۗـــــــًٔــا فَقَدِ احْتَمَلَ بُهْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا     ١١٢؀ۧ وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكَ وَرَحْمَتُهٗ لَهَمَّتْ طَّاۗىِٕفَةٌ مِّنْھُمْ اَنْ يُّضِلُّوْكَ ۭوَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَضُرُّوْنَكَ مِنْ شَيْءٍ ۭ وَاَنْزَلَ اللّٰهُ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمْ تَكُنْ تَعْلَمُ ۭ وَكَانَ فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكَ عَظِيْمًا       ١١٣؁ لَا خَيْرَ فِيْ كَثِيْرٍ مِّنْ نَّجْوٰىھُمْ اِلَّا مَنْ اَمَرَ بِصَدَقَةٍ اَوْ مَعْرُوْفٍ اَوْ اِصْلَاحٍۢ بَيْنَ النَّاسِ ۭ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ ابْتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ فَسَوْفَ نُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا       ١١٤؁ وَمَنْ يُّشَاقِقِ الرَّسُوْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ الْهُدٰى وَيَتَّبِعْ غَيْرَ سَبِيْلِ الْمُؤْمِنِيْنَ نُوَلِّهٖ مَا تَوَلّٰى وَنُصْلِهٖ جَهَنَّمَ ۭ وَسَاۗءَتْ مَصِيْرًا      ١١٥؁ۧ

आयत 105

“(ऐ नबी ) यक़ीनन हमने आप पर किताब नाज़िल की है हक़ के साथ ताकि आप लोगों के माबैन फ़ैसला करें उसके मुताबिक़ जो अल्लाह ने आपको दिखाया है”اِنَّآ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِتَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ بِمَآ اَرٰىكَ اللّٰهُ  ۭ

यानि एक तो अल्लाह ने अपने रसूल ﷺ को किताब दी है, क़ानून दिया है, इसके साथ आप ﷺ को बसीरते ख़ास दी है। मसलन अदालत में एक जज बैठा है, उसके सामने क़ानून की किताब है, मुकदमें से मुताल्लिक़ मुतलक़ा रिकार्ड है, शहादतें हैं, अब उसकी अपनी अक़्ल (sixth sense) और क़ुव्वते फ़ैसला भी होती है, जिसको बरूएकार (इस्तेमाल) लाकर वह फ़ैसला करता है। यही वह चीज़ है जिसके बारे में अल्लाह तआला फ़रमाते हैं कि जैसा हम आप ﷺ को दिखाते हैं उसके मुताबिक़ आप ﷺ फ़ैसला करें।

“और आप ख्यानत करने वालों की तरफ़ से झगड़ने वाले ना बने।”وَلَا تَكُنْ لِّلْخَاۗىِٕنِيْنَ خَصِيْمًا    ١٠٥؀ۙ

यानि आप ﷺ उनकी तरफ़ से वकालत ना फ़रमायें। एक शख्स जो कहने को तो मुसलमान है लेकिन है ख़ाइन, आप ﷺ को उसकी तरफ़दारी नहीं करनी चाहिये। इसके पसमंज़र में दरअसल एक वाक़्या है। एक मुनाफ़िक़ ने किसी मुसलमान के घर में चोरी के लिये नक़ब (सेंध) लगाई और वहाँ से आटे का एक थैला और कुछ अस्लाह चुरा लिया। आटे के थैले में सुराख़ था, जब वहाँ से वह अपने घर की तरफ़ चला तो सुराख़ में से आटा थोड़ा-थोड़ा गिरता गया। इस तरह उसके रास्ते और घर की निशानदेही होती गई, मगर उसे ख़बर नहीं थी कि आटे की लकीर उसका राज़ फ़ाश कर रहीं है। घर पहुँच कर उसे ख़्याल आया कि मुमकिन है मुझ पर शक़ हो जाये, चुनाँचे उसने उसी वक़्त जाकर वह सामान एक यहूदी के यहाँ अमानतन रखवा दिया, लेकिन आटे का निशान वहाँ भी पहुँच गया अगले रोज़ जब तलाश शुरू हुई तो आटे की लकीर के ज़रिये लोग खोज लगाते हुए उसके मकान पर पहुँच गये, लेकिन पूछने पर उसने साफ़ इन्कार कर दिया। तलाशी ली गई, मग़र कोई चीज़ बरामद ना हुई। जब लोगों ने देखा कि आटे के निशानात मज़ीद आगे जा रहे हैं तो वह खोज लगाते हुए यहूदी के घर पहुँचे, उसके यहाँ से सामान भी बरामद हो गया। यहूदी ने हक़ीक़त बयान कर दी यह सामान रात को फलाँ शख्स ने उसके पास अमानतन रखवाया था। मुनाफ़िक़ की क़ौम के लोगों ने कहा कि यहूदी झूठ बोलता है, वही चोर है। जब कोई फ़ैसला ना हो सका तो यह झगड़ा हुज़ूर ﷺ के सामने लाया गया। मुनाफ़िक़ के क़बीले वालों ने क़समें खा-खा कर ख़ूब वकालत की कि हमारा यह आदमी तो बहुत नेक है, इस पर ख़्वाह मख़्वाह का झूठा इल्ज़ाम लग रहा है। यहाँ तक कि हुज़ूर ﷺ का दिल भी उस शख्स के बारे में कुछ पसीजने लगा। इस पर यह आयत नाज़िल हुई कि आप ख्यानत करने वाले के हिमायती ना बनें, उसकी तरफ़ से वकालत ना करें, उसका सहारा ना बनें, उसको मदद ना पहुँचायें। यहाँ خَصِيْمًا के मायने हैं झगड़ा करने वाला, बहस करने वाला। لِّلْخَاۗىِٕنِيْنَ का मतलब है “ख़ाइन लोगों के हक़ में।” लेकिन अग़र عَلَی الخَائِنِیْنَ होता तो इसका मतलब होता “ख़ाइन लोगों के ख़िलाफ़।”

आयत 106

“और अल्लाह से अस्तग़फ़ार करें, यक़ीनन अल्लाह तआला बख़्शने वाला बहुत रहम करने वाला है।”وَّاسْتَغْفِرِ اللّٰهَ  ۭاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا     ١٠٦؁ۚ

यानि उस मुनाफ़िक़ के हक़ में आप ﷺ की तबीयत में जो नर्मी पैदा हो गई थी उस पर अल्लाह से अस्तग़फ़ार कीजिये, मग़फ़िरत तलब कीजिये।

आयत 107

“और आप मत झगडिये उन लोगों की तरफ़ से जो अपनी जानों के साथ ख्यानत करते हैंوَلَا تُجَادِلْ عَنِ الَّذِيْنَ يَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَھُمْ ۭ

इस हुक्म के हवाले से ज़रा मसला-ए-शफ़ाअत पर भी ग़ौर करें। हम यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि हुज़ूर ﷺ हमारी तरफ़ से शफ़ाअत करेंगे, चाहे हमने बेईमानियाँ की हैं, हरामख़ोरियाँ की हैं, शरीअत की धज्जियाँ बिखेरी हैं। लेकिन यहाँ आप ﷺ को दो टूक अंदाज़ में ख़ाइन लोगों की वकालत से मना किया जा रहा है।

“यक़ीनन अल्लाह तआला को बिल्कुल पसंद नहीं है ख्यानत में बहुत बढ़े हुए और गुनहगार लोग।”اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ مَنْ كَانَ خَوَّانًا اَثِــيْمًا     ١٠٧؀ڌ

आयत 108

“यह लोगों से तो छुपते हैं मगर अल्लाह से नहीं छुप सकते”يَّسْتَخْفُوْنَ مِنَ النَّاسِ وَلَا يَسْتَخْفُوْنَ مِنَ اللّٰهِ

यह लोग इंसानों से अपनी हरकतों को छुपा सकते हैं मगर अल्लाह तआला से नहीं छुपा सकते।

“और वह तो उनके साथ होता है जब वह रातों को छुप कर उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मशवरे करते हैं।”وَھُوَ مَعَھُمْ اِذْ يُبَيِّتُوْنَ مَا لَا يَرْضٰى مِنَ الْقَوْلِ ۭ

यह मुनाफ़िक़ों के बारे में फ़रमाया जा रहा है कि जब वह मुसलमानों और रसूल ﷺ के ख़िलाफ़ चोरी-छुपे साज़िशें कर रहे होते हैं तो अल्लाह तआला उनके साथ मौज़ूद होता है। अगर अल्लाह पर उनका ईमान हो तो उन्हें मालूम हो कि अल्लाह हमारी बातें सुन रहा है। यह मुसलमानों से डरते हैं, उनसे अपनी बातों को ख़ुफ़िया रखते हैं, मग़र इन बबदबख्तों को यह ख़्याल नहीं आता कि अल्लाह तआला तो हर वक़्त हमारे पास मौजूद है, उससे तो कुछ नहीं छुप सकता।

“और जो कुछ वह कर रहें हैं अल्लाह तआला उसका अहाता किये हुए हैं।”وَكَانَ اللّٰهُ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطًا    ١٠٨؁

यानि उसकी पकड़ से कहीं बाहर नहीं निकल सकते।

आयत 109

“यह तुम लोग हो जिन्होंने दुनिया की ज़िन्दगी में इन (मुजरिमों) की तरफ़ से झगड़ा कर लिया।”ھٰٓاَنْتُمْ هٰٓؤُلَاۗءِ جٰدَلْتُمْ عَنْھُمْ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا    ۣ
“मग़र कयामत के दिन अल्लाह से इनके बारे में कौन झगड़ा करेगा?”الدُّنْيَا    ۣ فَمَنْ يُّجَادِلُ اللّٰهَ عَنْھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ
“या कौन होगा जो (वहाँ) उनका वकील बन सकेगा?” اَمْ مَّنْ يَّكُوْنُ عَلَيْهِمْ وَكِيْلًا     ١٠٩؁

यह ख़िताब है उस मुनाफ़िक़ चोर के क़बीले के लोगों से कि ऐ लोगों! तुमने दुनिया की ज़िन्दगी में तो मुजरिमों की तरफ़ से ख़ूब वकालत कर ली, यहाँ तक कि हुज़ूर ﷺ को भी क़ायल करने के हद तक तुम पहुँच गये। मगर यहाँ तुम उन्हें छुड़ा भी लेते और बिल फ़र्ज़ हुज़ूर ﷺ को भी क़ायल कर लेते तो क़यामत के दिन उन्हें अल्लाह की पकड़ से कौन छुड़ाता? इस ज़िमन में हुज़ूर ﷺ की एक हदीस का मफ़हूम इस तरह है कि मेरे सामने कोई मुक़दमा पेश होता है, उसमें एक फ़रीक़ ज़्यादा चर्प ज़बान होता है, वह अपनी बात बेहतर तौर पर पेश करता है और मेरे यहाँ से अपने हक़ में गलत तौर पर फ़ैसला ले जाता है। (फ़र्ज़ कीजिये किसी ज़मीन के टुकड़े के बारे में कोई तनाज़ा [विवाद] था और एक शख़्स गलत तौर पर बात साबित करके अपने हक़ में फ़ैसला ले गया) लेकिन उसे मालूम होना चाहिये कि इस तरह वह ज़मीन का टुकड़ा नहीं बल्कि जहन्नम का टुकड़ा लेकर गया है। यानि ख़ुद रसूल अल्लाह ﷺ जो भी फ़ैसला करते थे शहादतों के ऐतबार से करते थे, हुज़ूर ﷺ के लिये अल्लाह की तरफ़ से हर वक़्त और हर मरहले पर तो वही नाज़िल नहीं होती थी, जहाँ अल्लाह तआला चाहता वहाँ आप ﷺ को मुतन्बा (note) फ़रमा देता था। इसलिये आइंदा के लिये अल्लाह तआला ने तम्बीह फ़रमा दी कि अगर कुछ लोग इस दुनिया में झूठ, फ़रेब और गलत फ़ैसले के ज़रिये कोई मफ़ाद हासिल कर भी लेते हैं तो उन्हें यह बात नहीं भूलनी चाहिये कि एक दिन उसकी अदालत में भी पेश होना है जहाँ झूठ और गलत बयानी से काम नहीं चलेगा, वहाँ उनके हक़ में अल्लाह से कौन झगड़ेगा?

आयत 110

“और जो कोई बुरी हरकत करे या अपनी जान पर कोई ज़ुल्म कर बैठे और फिर अल्लाह से इस्तग़फ़ार करे तो वह अल्लाह को पायेगा बख़्शने वाला, बहुत रहम करने वाला।”وَمَنْ يَّعْمَلْ سُوْۗءًا اَوْ يَظْلِمْ نَفْسَهٗ ثُمَّ يَسْتَغْفِرِ اللّٰهَ يَجِدِ اللّٰهَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      ١١٠؁

इस सिलसिले में सीधी रविश यही है कि गलती या ख़ता हो गई है तो उसका ऐतराफ़ कर लो, उस जुर्म की जो दुनियवी सज़ा है वह भुगत लो और अल्लाह से इस्तग़फ़ार करो। इस तरह आख़िरत की सज़ा से छुटकारा मिल जायेगा।

आयत 111

“जो कोई भी गुनाह कमाता है तो वह उसका वबाल अपनी ही जान पर लेता है। और अल्लाह अलीम और हकीम है।”وَمَنْ يَّكْسِبْ اِثْمًا فَاِنَّمَا يَكْسِبُهٗ عَلٰي نَفْسِهٖ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا      ١١١؁

आयत 112

“और जो कोई किसी गलती या गुनाह का इरतकाब करता है, फिर उसका इल्ज़ाम किसी बेगुनाह पर लगा देता है” وَمَنْ يَّكْسِبْ خَطِيْۗئَةً اَوْ اِثْمًا ثُمَّ يَرْمِ بِهٖ بَرِيْۗـــــــًٔــا
“तो उसने अपने सर एक बहुत बड़ा बोहतान और बहुत सरीह गुनाह का बोझ ले लिया।”فَقَدِ احْتَمَلَ بُهْتَانًا وَّاِثْمًا مُّبِيْنًا     ١١٢؀ۧ

किसी ने कोई गुनाह कमाया, कोई ख़ता की, कोई ग़लती की, कोई जुर्म किया, फिर उसकी तोहमत किसी बेकसूर शख़्स पर लगा दी तो बहुत बड़े बोहतान और ख़ुल्म-खुल्ला गुनाह का भार समेट लिया। मज़कूरा मामले में यहूदी तो बेकसूर था, जो लोग उसको सजा दिलवाने में तुल गए तो उनका यह फ़अल  يَرْمِ بِهٖ بَرِيْۗـــــــًٔــا के ज़ुमरे (category) में आ गया। किसी बेगुनाह पर इस तरह का बोहतान लगाना अल्लाह के नज़दीक बहुत संजीदा मामला है।

इसके बाद उस यहूदी और मुनाफ़िक़ के मुक़दमे के कुछ मज़ीद पहलुओं के बारे में हुज़ूर ﷺ से ख़िताब हो रहा है।

आयत 113

“और (ऐ नबी ) अगर अल्लाह का फ़ज़ल और उसकी रहमत आप के शामिले हाल ना होती तो उन (मुनाफ़िक़ों) का एक गिरोह तो इस पर तुल गया था कि आपको गुमराह कर दें।”وَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكَ وَرَحْمَتُهٗ لَهَمَّتْ طَّاۗىِٕفَةٌ مِّنْھُمْ اَنْ يُّضِلُّوْكَ ۭ

वह लोग तो इस पर कमरबस्ता थे कि आप ﷺ को ग़लतफ़हमी में मुब्तला करके आप ﷺ से ग़लत फ़ैसला करवाएँ, अदालते मुहम्मदी ﷺ से ज़ुल्म पर मब्नी फ़ैसला सादर (जारी) हो जाये, गुनाहग़ार छूट जाए और जो असल मुजरिम नहीं था, बिल्कुल बेगुनाह था, उसे पकड़ लिया जाए।

“और हक़ीक़त में वह नहीं गुमराह करते मगर अपने आपको और (ऐ नबी ) वह आप को कुछ भी नुक़सान नहीं पहुँचा सकते।” وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَضُرُّوْنَكَ مِنْ شَيْءٍ ۭ

हम ऐसे मौक़े पर बरवक़्त आप ﷺ को मुत्तलाअ करते रहेंगे।

“और अल्लाह ने आप पर किताब नाज़िल की है और हिकमत भी, और आप को वह कुछ सिखाया है जो आप नहीं जानते थे।”وَاَنْزَلَ اللّٰهُ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَكَ مَا لَمْ تَكُنْ تَعْلَمُ ۭ
“और यक़ीनन अल्लाह का फ़ज़ल है आप पर बहुत बड़ा।”وَكَانَ فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكَ عَظِيْمًا       ١١٣؁

आयत 114

“उन (मुनाफ़िक़ीन) की सरगोशियों में से अक्सर में कोई भलाई नहीं होती”لَا خَيْرَ فِيْ كَثِيْرٍ مِّنْ نَّجْوٰىھُمْ

मुनाफ़िक़ीन की मन्फ़ी सरगर्मियों का ज़िक्र है। अलैहदा बैठ कर सरगोशियाँ करना, दूसरों को देख कर मुस्कुराना और साथ इशारे भी करना ताकि देखने वाले के दिल में ख़ल्जान (शक) पैदा हो कि मेरे बारे में बात हो रही है, आज भी हमारी मजलिसों में यह सब कुछ होता है। यह सारे मामले ज्यों के त्यों इंसानी मआशरे के अंदर वैसे ही आज भी मौजूद हैं। मगर अल्लाह का फ़रमान है कि इस अंदाज़ की ख़ुफ़िया सरग़ोशियों का ज़्यादा हिस्सा ऐसा होता है जिसमें कोई ख़ैर नहीं होती।

“इल्ला यह कि कोई तल्क़ीन करे सद्क़ा व ख़ैरात की, या नेकी की या लोगों के मामलात को दुरुस्त करने की।”اِلَّا مَنْ اَمَرَ بِصَدَقَةٍ اَوْ مَعْرُوْفٍ اَوْ اِصْلَاحٍۢ بَيْنَ النَّاسِ ۭ

ख़ैर वाली सरग़ोशी यह हो सकती है कि ख़ामोशी से किसी को अलैहदगी में ले जाकर उसको सद्क़ा व ख़ैरात की तल्क़ीन की जाये कि भाई देखो आपको अल्लाह ने ग़नी किया है, फलाँ शख़्स मोहताज है, मैं उसको जानता हूँ, आपको उसकी मदद करनी चाहिये, वग़ैरह। फिर मारूफ़ और भलाई के उमूर (कामों) में ख़ुफ़िया सलाह मशवरे अगर किये जाएँ तो इसमें भी हर्ज नहीं। इसी तरह किसी ग़लतफ़हमी या झगड़े की सूरत में फ़रीक़ैन में सुलह सफ़ाई कराने की ग़र्ज़ से भी ख़ुफ़िया मुज़ाकरात किसी साज़िश के ज़ुमरे में नहीं आते। मसलन दो भाई झगड़ पड़े हैं, अब आप एक की बात अलैहदगी में सुने और दूसरे के पास जाकर उस बात को बेहतर अंदाज़ में पेश करें कि आपको मुग़ालता हुआ है, उन्होंने यह बात यूँ नहीं, यूँ कही थी। इस तरह की अलैहदा-अलैहदा ग़ुफ़्तगू जो नेक नीयती से की जा रही हो, यह यक़ीनन नेकी और भलाई की बात है, जो बाइसे अज्रो सवाब है।

“और जो शख़्स इस तरह (की शरग़ोशी) करेगा अल्लाह तआला की रज़ाजोई के लिये तो अनक़रीब हम उसे देंगे बहुत बड़ा अजर।”وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ ابْتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ فَسَوْفَ نُؤْتِيْهِ اَجْرًا عَظِيْمًا       ١١٤؁

आयत 115

“और जो रसूल अल्लाह की मुख़ालफ़त पर तुल गया, इसके बाद कि उस पर हिदायत वाज़ेह हो चुकी”وَمَنْ يُّشَاقِقِ الرَّسُوْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُ الْهُدٰى

यानि जो कोई ख़ुफ़िया साज़िशों और चोरी-छुपे की लगाई-बुझाई के ज़रिये लोगों को अल्लाह के रसूल ﷺ के ख़िलाफ़ भड़काता है कि देखो जी यह अपने लोगों को नवाज़ रहे हैं। जैसा कि ग़ज़वा-ए-हुनैन में हुआ था कि आप ﷺ ने मक्का मुकर्रमा के उन मुसलमानों को जो फ़तह मक्का के बाद मुसलमान हुए थे, माले ग़नीमत में से उनकी दिलजोई के लिये (जिसे क़ुरान में तालीफ़े क़ुलूब कहा गया है) ज़रा ज़्यादा माल दे दिया तो उस पर बाज़ लोगों ने शोर मचा दिया कि देख लिया, जब कड़ा वक़्त था, मुश्किल वक़्त था तो उसे हम झेलते रहे, अब यह अच्छा वक़्त आया है तो आपको रिश्तेदार याद आ गये हैं। ज़ाहिर है मक्के वाले हुज़ूर ﷺ के रिश्तेदार थे, क़ुरैश का क़बीला हुज़ूर ﷺ का अपना क़बीला था। तो तरह-तरह की बातें जो आज के दौर में भी होती हैं वैसी ही बातें हमेशा होती रही हैं। यह इंसान की फ़ितरत है जो हमेशा एक सी रही है, इसमें कोई तगय्युर (परिवर्तन) व तबद्दुल (बदलाव) नहीं हुआ।

“और वह अहले ईमान के रास्ते के सिवा कोई दूसरा रास्ता इख़्तियार करें”وَيَتَّبِعْ غَيْرَ سَبِيْلِ الْمُؤْمِنِيْنَ
“तो हम भी उसको उसी तरफ़ फेर देते हैं जिस तरफ़ उसने ख़ुद रुख़ इख़्तियार कर लिया हो और हम उसे पहुँचाएँगे जहन्नम में।”نُوَلِّهٖ مَا تَوَلّٰى وَنُصْلِهٖ جَهَنَّمَ ۭ
“और वह बहुत बुरी जगह है लौटने की।”وَسَاۗءَتْ مَصِيْرًا      ١١٥؁ۧ

यह आयत इस ऐतबार से बड़ी अहम है कि इमाम शाफ़ई रहि० के नज़दीक इज्मा-ए-उम्मत की सनद इस आयत में है। यह बात तो बहुत वाज़ेह है कि इस्लामी क़वानीन के लिये बुनियादी माख़ज़ (source) क़ुरान है, फिर हदीस व सुन्नत है। इस तरह इज्तिहाद का मामला भी समझ में आता है, मग़र इज्मा किसी चीज़ का नाम है? इसका ज़िक्र क़ुरान में कहाँ है? इमाम शाफ़ई रहि० फ़रमाते हैं कि मैंने इज्मा की दलील क़ुरान से तलाश करने की कोशिश की और क़ुरान को शुरू से आख़िर तक तीन सौ मर्तबा पढ़ा मगर मुझे इज्मा की कोई दलील नहीं मिली। फिर बिल्आख़िर तीन सौ एक मर्तबा पढ़ने पर मेरी नज़र जाकर इस आयत पर जम गई: { وَيَتَّبِعْ غَيْرَ سَبِيْلِ الْمُؤْمِنِيْنَ}। गोया अहले ईमान का जो रास्ता है, जिस पर इज्मा हो गया हो अहले ईमान का, वह ख़ुद अपनी जगह बहुत बड़ी सनद है। इसलिये कि रसूल अल्लाह ﷺ का इर्शाद है: ((اِنَّ اُمَّتِیْ لَا تَجْتَمِعُ عَلٰی ضَلَالَۃٍ)) “मेरी उम्मत कभी गुमराही पर जमा नहीं होगी।”

आयात 116 से 126 तक

اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ  ۭوَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا     ١١٦؁ اِنْ يَّدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلَّآ اِنَاثًا  ۚ وَاِنْ يَّدْعُوْنَ اِلَّا شَيْطٰنًا مَّرِيْدًا     ١١٧؁ۙ لَّعَنَهُ اللّٰهُ  ۘوَقَالَ لَاَتَّخِذَنَّ مِنْ عِبَادِكَ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا     ١١٨؁ۙ وَّلَاُضِلَّنَّھُمْ وَلَاُمَنِّيَنَّھُمْ وَلَاٰمُرَنَّھُمْ فَلَيُبَتِّكُنَّ اٰذَانَ الْاَنْعَامِ وَلَاٰمُرَنَّھُمْ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلْقَ اللّٰهِ  ۭ وَمَنْ يَّتَّخِذِ الشَّيْطٰنَ وَلِيًّا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ فَقَدْ خَسِرَ خُسْرَانًا مُّبِيْنًا      ١١٩؀ۭ يَعِدُھُمْ وَيُمَنِّيْهِمْ ۭ وَمَا يَعِدُھُمُ الشَّيْطٰنُ  اِلَّا  غُرُوْرًا     ١٢٠؁ اُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمْ جَهَنَّمُ ۡ وَلَا يَجِدُوْنَ عَنْھَا مَحِيْصًا     ١٢١؁ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَنُدْخِلُھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْھَآ اَبَدًا  ۭ وَعْدَ اللّٰهِ حَقًّا  ۭ وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ قِيْلًا     ١٢٢؁ لَيْسَ بِاَمَانِيِّكُمْ وَلَآ اَمَانِيِّ اَھْلِ الْكِتٰبِ  ۭ مَنْ يَّعْمَلْ سُوْۗءًا يُّجْزَ بِهٖ ۙ وَلَا يَجِدْ لَهٗ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا    ١٢٣؁ وَمَنْ يَّعْمَلْ مِنَ الصّٰلِحٰتِ مِنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى وَھُوَ مُؤْمِنٌ فَاُولٰۗىِٕكَ يَدْخُلُوْنَ الْجَنَّةَ وَلَا يُظْلَمُوْنَ نَقِيْرًا    ١٢٤؁ وَمَنْ اَحْسَنُ دِيْنًا مِّمَّنْ اَسْلَمَ وَجْهَهٗ لِلّٰهِ وَھُوَ مُحْسِنٌ وَّاتَّبَعَ مِلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا  ۭوَاتَّخَذَ اللّٰهُ اِبْرٰهِيْمَ خَلِيْلًا      ١٢٥؁ وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُّحِيْطًا     ١٢٦؀ۧ

आयत 116

“अल्लाह हरग़िज़ नहीं बख़्शेगा इस बात को कि उसके साथ शिर्क किया जाये, और बख़्श देगा इसके सिवा जिसके लिये चाहेगा।”اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ

गोया यह भी कोई फ्री लाइसेंस नहीं है। याद रहे कि यह आयत इस सूरह मुबारका में दूसरी बार आ रही है।

“और जो शिर्क करता है अल्लाह के साथ वह तो फिर गुमराह हो गया और गुमराही में भी बहुत दूर निकल गया।”وَمَنْ يُّشْرِكْ بِاللّٰهِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا     ١١٦؁

आयत 117

“नहीं पुकारते यह लोग अल्लाह के सिवा मगर देवियों को, और वह नहीं पुकारते किसी को सिवाये सरकश शैतान के।”اِنْ يَّدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلَّآ اِنَاثًا  ۚ وَاِنْ يَّدْعُوْنَ اِلَّا شَيْطٰنًا مَّرِيْدًا     ١١٧؁ۙ

यहाँ पहली मर्तबा मुशरिकीने मक्का की बात भी हो रही है। मुशरिकीने मक्का ने अपने देवियों के मुअन्नस (female) नाम रखे हुए थे, जैसे लात, मनात, उज्ज़ा वग़ैरह। लेकिन असल में ना लात का कोई वुजूद है और ना ही मनात की कुछ हक़ीक़त है। अलबत्ता शैतान ज़रूर मौजूद है जो उनकी पुकार सुन रहा है।

आयत 118

“अल्लाह ने उस पर लानत फ़रमा दी हैلَّعَنَهُ اللّٰهُ  ۘ
“और उसने कहा (ऐ अल्लाह) मैं तेरे बंदो में से एक मुक़र्रर हिस्सा तो लेकर ही छोडूँगा।”وَقَالَ لَاَتَّخِذَنَّ مِنْ عِبَادِكَ نَصِيْبًا مَّفْرُوْضًا     ١١٨؁ۙ

उन लोगों को मैं अपने साथ जहन्नम में पहुँचा कर रहूँगा। गोया:

“हम तो डूबे हैं सनम, तुमको भी ले डूबेंगे!”

आयत 119

“और मैं लाज़िमन उनको बहकाऊँगा और उनको बड़ी-बड़ी उम्मीदें दिलाऊँगा”وَّلَاُضِلَّنَّھُمْ وَلَاُمَنِّيَنَّھُمْ

उनके दिलों में बड़ी उम्मीदों के चिराग़ रोशन करुँगा कि यह बहुत ताबनाक (bright) केरियर हैं, लगे रहो इस काम में, इसमें बड़ा फ़ायदा है, नाजायज़ है तो ख़ैर है, अल्लाह बख़्श ही देगा। हम तो अल्लाह के प्यारे रसूल ﷺ के उम्मती हैं, हमें ख़ौफ़ किस बात का है? जिस तरह यहूदियों को यह ज़अम (दावा) हो गया था कि हम तो अल्लाह के बेटे हैं, हम उसके बड़े चहेते हैं, वग़ैरह। उनको मैं इस तरह की लंबी-लंबी उम्मीदों और लंबे-लंबे मन्सूबों में उलझा दूँगा। इसी को ‘तौले अमल’ कहते हैं।

“और मैं उन्हें हुक्म दूँगा तो (उसकी तामील में) वह चौपायों के कान चीर देंगे”وَلَاٰمُرَنَّھُمْ فَلَيُبَتِّكُنَّ اٰذَانَ الْاَنْعَامِ

इसकी तफ़सील सूरतुल अनआम में आयेगी कि फलाँ बुत या फलाँ देवी के नाम पर किसी जानवर के कान चीर कर उसे आज़ाद कर दिया गया है, अब इसको कोई छेड़ नहीं सकता, इसका ग़ोश्त नहीं खाया जा सकता, इस पर सवारी नहीं हो सकती।

“और मैं उन्हें हुक्म दूँगा तो (उसकी तामील में) वह अल्लाह की तख़्लीक़ में तब्दीली करेंगे।”وَلَاٰمُرَنَّھُمْ فَلَيُغَيِّرُنَّ خَلْقَ اللّٰهِ  ۭ

जैसे आज जो कुछ आप देख रहे हैं कि मर्दों में औरतों के से अंदाज़ अपनाये जा रहे हैं और औरतों में मर्दों के से तौर-तरीक़े इख़्तियार किये जा रहे हैं। लेकिन साइंस के मैदान में, ख़ास तौर पर Genetics में जो कुछ आज हो रहा है वह तो बहुत ही नाज़ुक सूरते हाल है। साइंसी तरक्क़ी के सबब इंसान आज इस मक़ाम पर पहुँच गया है कि वह अपना इख़्तियार इस्तेमाल करके जीनियाती तब्दीलियों के ज़रिये से अल्लाह की तख़्लीक़ में तगय्युर व तबद्दुल कर रहा है।

“और जिस किसी ने भी अल्लाह को छोड़ कर शैतान को अपना दोस्त बना लिया तो वह बहुत खुले ख़सारे (और तबाही) में पड़ गया।”وَمَنْ يَّتَّخِذِ الشَّيْطٰنَ وَلِيًّا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ فَقَدْ خَسِرَ خُسْرَانًا مُّبِيْنًا      ١١٩؀ۭ

आयत 120

“वह (शैतान) उनसे वादे भी करता है और उन्हें उम्मीदें भी दिलाता है, और नहीं वादा करता उनसे शैतान मग़र धोखे का।”يَعِدُھُمْ وَيُمَنِّيْهِمْ ۭ وَمَا يَعِدُھُمُ الشَّيْطٰنُ  اِلَّا  غُرُوْرًا     ١٢٠؁

शैतान उनको वादों के बहलावे देता है और आरज़ुओं में फँसाता है, सब्ज़ बाग़ दिखाता है, मग़र शैतान के दावे सरासर फ़रेब हैं।

आयत 121

“यह वह लोग हैं जिनका ठिकाना जहन्नम है, और वहाँ से वह फ़रार की कोई सूरत नहीं पाएँगे।”اُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمْ جَهَنَّمُ ۡ وَلَا يَجِدُوْنَ عَنْھَا مَحِيْصًا     ١٢١؁

वहाँ से भागने का उन्हें कोई रास्ता नहीं मिलेगा। दूसरी तरफ़ अहले ईमान की शान क्या होगी, अगली आयत में इसकी तफ़सील है। दो गिरोहों या दो पहलुओं के दरमियान फ़ौरी तक़ाबुल (simultaneous contrast) का यह अंदाज़ क़ुरान में हमें जगह-जगह नज़र आता है।

आयत 122

“और जो लोग ईमान लाएँ और नेक अमल करें उन्हें हम अनक़रीब दाख़िल करेंगे ऐसे बाग़ात में जिनके नीचे नहरें बहती होंगी”وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ سَنُدْخِلُھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِھَا الْاَنْھٰرُ
“उनमें वह हमेशा-हमेश रहेंगे।”خٰلِدِيْنَ فِيْھَآ اَبَدًا  ۭ
“अल्लाह का यह वादा सच्चा है, और कौन है जो अल्लाह से बढ़ कर अपनी बात में सच्चा हो सकता है?”وَعْدَ اللّٰهِ حَقًّا  ۭ وَمَنْ اَصْدَقُ مِنَ اللّٰهِ قِيْلًا     ١٢٢؁

आयत 123

“(ऐ मुसलमानों!) ना तुम्हारी ख़्वाहिशात पर (मौक़ूफ़ है) और ना अहले किताब की ख्वाहिशात पर।”لَيْسَ بِاَمَانِيِّكُمْ وَلَآ اَمَانِيِّ اَھْلِ الْكِتٰبِ  ۭ

तंबीह आ गई कि तुम्हारे अंदर भी बिला जवाज़ और बे बुनियाद ख़्वाहिशात पैदा हो जाएँगी। यहूद व नसारा की तरह तुम लोग भी बड़ी दिल ख़ुशकुन आरज़ुओं में (wishful thinkings) के आदी हो जाओगे, शफ़ाअत की उम्मीद पर तुम भी हरामख़ोरियाँ करोगे, अल्लाह की नाफ़रमानियाँ जैसी कुछ उन्होंने की थीं तुम भी करोगे। लेकिन जान लो कि अल्लाह का क़ानून अटल है, बदलेगा नहीं। तुम्हारी ख़्वाहिशात से, तुम्हारी आरज़ुओं से और तुम्हारी तमन्नाओं से कुछ नहीं होगा। बिल्कुल उसी तरह जैसे अहले किताब की ख़्वाहिशात से कुछ नहीं हुआ। बल्कि:

“जो कोई बुरा काम करेगा उसकी सज़ा उसको मिल कर रहेगी”مَنْ يَّعْمَلْ سُوْۗءًا يُّجْزَ بِهٖ ۙ

अग़रचे अल्लाह के यहाँ इस क़ानून में नर्मी का एक पहलु मौजूद है, लेकिन अपनी जगह यह बहुत सख़्त अल्फ़ाज़ हैं। बाज़ अवक़ात बदी की जगह पर नेकी उसके मन्फ़ी असरात को धो देती है, लेकिन इस आयत के रू से बुराई का हिसाब तो होकर रहना है। मतलब यह है कि इंसान से जिस बदी का इरत्काब होता है वह उसके बारे में जवाबदेह है, उसका अहतसाब होकर रहेगा। अगर किसी की नेकी ने उसकी बदी को छुपा भी लिया, किसी ने ग़लती की और फिर सिद्क़े दिल से तौबा कर ली तो इसके सबब उसकी बदी के असरात जाते रहे, लेकिन मामला account for ज़रूर होगा। तौबा को दिखाया जायेगा, कि क्या तौबा वाक़िअतन सच्ची थी? तौबा करने वाला अपने किये पर नादिम (शर्मिंदा) हुआ था? वाक़ई उसने आदते बद को छोड़ दिया था? या सिर्फ़ ज़बान से “اَسْتَغْفِرُ اللہَ رَبِّیْ مِنْ کُلِّ ذَنْبٍ وَّ اَتُوْبُ اِلَیْہِ” की ग़रदान हो रही थी और साथ नाफ़रमानी और हरामख़ोरी भी ज्यों की त्यों चल रही थी। तो अहतसाब के कटहरे में हर शख़्स और हर मामले को लाया जायेगा और खरा-खोटा देख कर फ़ैसला किया जायेगा। फिर जो मुजरिम पाया गया, उसे उसके किये की सज़ा ज़रूर मिलेगी।

“और वह नहीं पायेगा अपने लिये अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हिमायती और ना कोई मददगार।”وَلَا يَجِدْ لَهٗ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا    ١٢٣؁

आयत 124

“और जो कोई नेक अमल करेगा, ख़्वाह वह मर्द हो या औरत और हो वह साहिबे ईमान”وَمَنْ يَّعْمَلْ مِنَ الصّٰلِحٰتِ مِنْ ذَكَرٍ اَوْ اُنْثٰى وَھُوَ مُؤْمِنٌ
“तो यह वह लोग हैं जो जन्नत में दाख़िल होंगे और उनकी तिल के बराबर भी कोई हक़ तल्फ़ी नहीं की जायेगी।”فَاُولٰۗىِٕكَ يَدْخُلُوْنَ الْجَنَّةَ وَلَا يُظْلَمُوْنَ نَقِيْرًا    ١٢٤؁

आयत 125

“और उससे बेहतर दीन किसका होगा जिसने अपना चेहरा (सिर) अल्लाह के सामने झुका दिया, और (उसके बाद) अहसान (के दर्जे) तक पहुँच गया”وَمَنْ اَحْسَنُ دِيْنًا مِّمَّنْ اَسْلَمَ وَجْهَهٗ لِلّٰهِ وَھُوَ مُحْسِنٌ

अल्लाह की बंदगी में ख़ूबसूरती लाकर, ख़ुलूस और लिल्लाहियत के साथ, पूरे दीन का इत्तेबाअ करके, تفریق بین الدّین से बच कर और total submission के ज़रिये से उसने अहसान के दर्जे तक रसाई हासिल कर ली।

“और उसने पैरवी की दीने इब्राहीम अलै० की यक्सू होकर (या पैरवी की उस इब्राहीम अलै० के दीन की, जो यक्सू था)।”وَّاتَّبَعَ مِلَّةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا  ۭ
“और अल्लाह ने तो इब्राहीम को अपना दोस्त बना लिया था।”وَاتَّخَذَ اللّٰهُ اِبْرٰهِيْمَ خَلِيْلًا      ١٢٥؁

आयत 126

“और अल्लाह ही के लिये है जो कुछ आसमानों में और जो कुछ ज़मीन में है, और अल्लाह तआला हर शय का अहाता किये हुए हैं।”وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ مُّحِيْطًا     ١٢٦؀ۧ

आयात 127 से 134 तक

وَيَسْتَفْتُوْنَكَ فِي النِّسَاۗءِ ۭ قُلِ اللّٰهُ يُفْتِيْكُمْ فِيْهِنَّ ۙ وَمَا يُتْلٰي عَلَيْكُمْ فِي الْكِتٰبِ فِيْ يَتٰمَي النِّسَاۗءِ الّٰتِيْ لَا تُؤْتُوْنَھُنَّ مَا كُتِبَ لَھُنَّ وَتَرْغَبُوْنَ اَنْ تَنْكِحُوْھُنَّ وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الْوِلْدَانِ ۙوَاَنْ تَقُوْمُوْا لِلْيَتٰمٰي بِالْقِسْطِ ۭ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِهٖ عَلِــيْمًا      ١٢٧؁ وَاِنِ امْرَاَةٌ خَافَتْ مِنْۢ بَعْلِھَا نُشُوْزًا اَوْ اِعْرَاضًا فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَآ اَنْ يُّصْلِحَا بَيْنَهُمَا صُلْحًا  ۭ وَالصُّلْحُ خَيْرٌ  ۭوَاُحْضِرَتِ الْاَنْفُسُ الشُّحَّ ۭوَاِنْ تُحْسِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا      ١٢٨؁ وَلَنْ تَسْتَطِيْعُوْٓا اَنْ تَعْدِلُوْا بَيْنَ النِّسَاۗءِ وَلَوْ حَرَصْتُمْ فَلَا تَمِيْلُوْا كُلَّ الْمَيْلِ فَتَذَرُوْھَا كَالْمُعَلَّقَةِ  ۭ وَاِنْ تُصْلِحُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      ١٢٩؁ وَاِنْ يَّتَفَرَّقَا يُغْنِ اللّٰهُ كُلًّا مِّنْ سَعَتِهٖ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ وَاسِعًا حَكِيْمًا     ١٣٠؁ وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ  ۭوَلَقَدْ وَصَّيْنَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَاِيَّاكُمْ اَنِ اتَّقُوا اللّٰهَ ۭ وَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ غَنِيًّا حَمِيْدًا     ١٣١؁ وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا     ١٣٢؁ اِنْ يَّشَاْ يُذْهِبْكُمْ اَيُّھَا النَّاسُ وَيَاْتِ بِاٰخَرِيْنَ  ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَلٰي ذٰلِكَ قَدِيْرًا     ١٣٣؁ مَنْ كَانَ يُرِيْدُ ثَوَابَ الدُّنْيَا فَعِنْدَ اللّٰهِ ثَوَابُ الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ  ۭوَكَانَ اللّٰهُ سَمِيْعًۢا بَصِيْرًا     ١٣٤؁ۧ

अब जो आयात आ रही हैं इनमें ख़िताब मुसलमानों ही से है लेकिन इनकी हैसियत “इस्तदराक (समझाने)” की है और इनका ताल्लुक़ इस सूरत की इब्तदाई आयतों के साथ है। सूरतुन्निसा के आग़ाज़ में ख्वातीन के मसलों के बारे में कुछ अहकाम नाज़िल हुए थे, जिनमें यतीम बच्चियों से निकाह के बारे में भी मामलात ज़ेरे बहस आये थे और कुछ तलाक़ वग़ैरह के मसले थे। इसमें कुछ निकात (points) लोगों के लिये वज़ाहत तलब थे, लिहाज़ा ऐसे निकात के बारे में मुसलमानों की तरफ़ से कुछ सवाल किये गये और हुज़ूर ﷺ से कुछ वज़ाहतें तलब की गईं। जवाब में अल्लाह तआला ने यह वज़ाहतें नाज़िल की हैं और उस सवाल का हवाला देकर बात शुरू की गई है जिसका जवाब दिया जाना मक़सूद है।

आयत 127

“(ऐ नबी ) यह लोग आप से औरतों के मामले में फ़तवा पूछते हैं।”وَيَسْتَفْتُوْنَكَ فِي النِّسَاۗءِ ۭ
“कह दीजिये कि अल्लाह तुम्हें फ़तवा देता है (वज़ाहत करता है) उनके बारे में”قُلِ اللّٰهُ يُفْتِيْكُمْ فِيْهِنَّ ۙ
“और जो तुम्हें (पहले से) सुनाया जा रहा है किताब में यतीम लड़कियों के बारे में”وَمَا يُتْلٰي عَلَيْكُمْ فِي الْكِتٰبِ فِيْ يَتٰمَي النِّسَاۗءِ

यह इसी सूरत की आयत 3 की तरफ़ इशारा है। आयत ज़ेरे नज़र के साथ मिल कर उस आयत की तशरीह भी बिल्कुल वाज़ेह हो गई है और साबित हो गया कि वहाँ जो फ़रमाया गया था { وَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تُقْسِطُوْا فِي الْيَتٰمٰى} तो उससे असल मुराद “يَتٰمَي النِّسَاۗءِ” था। यानि अगर तुम्हें अंदेशा हो कि यतीम लड़कियों से शादी करोगे तो उनके साथ इंसाफ़ नहीं कर सकोगे (इसलिये कि उनकी तरफ़ से कोई नहीं जो उनके हुक़ूक का पासदार हो और तुमसे बाज़पुर्स कर सके) तो फिर उनसे शादी मत करो, बल्कि दूसरी औरतों से शादी कर लो। अगर एक से ज़्यादा निकाह करना चाहते हो तो अपनी पसंद की दूसरी औरतों से, दो-दो, तीन-तीन, या चार-चार से कर लो { فَانْكِحُوْا مَا طَابَ لَكُمْ مِّنَ النِّسَاۗءِ مَثْنٰى وَثُلٰثَ وَرُبٰعَ ۚ } मगर ऐसी बेसहारा यतीम लड़कियों से निकाह ना करो क्योंकि:

“जिनको तुम देते नहीं हो जो अल्लाह ने उनके लिये लिख दिया है और चाहते हो कि उनसे निकाह भी करो”الّٰتِيْ لَا تُؤْتُوْنَھُنَّ مَا كُتِبَ لَھُنَّ وَتَرْغَبُوْنَ اَنْ تَنْكِحُوْھُنَّ

यतीम समझ कर महर दिये बग़ैर उनसे निकाह करने के ख़्वाहिशमंद रहते हो।

“और (इसी तरह) वह बच्चे जो कमज़ोर हैं (जिन पर ज़ुल्म होता है)”وَالْمُسْتَضْعَفِيْنَ مِنَ الْوِلْدَانِ ۙ
“और यह (हमने तुम्हें इतने तफ़सीलली अहकाम दिये हैं) कि यतीमों के मामले में इंसाफ़ पर कारबंद रहो।”وَاَنْ تَقُوْمُوْا لِلْيَتٰمٰي بِالْقِسْطِ ۭ
“और जो भलाई भी तुम करोगे अल्लाह उससे वाक़िफ़ है।”وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِهٖ عَلِــيْمًا      ١٢٧؁

वह तुम्हारी नीयतों को जानता है। उसने शरीअत के अहकाम नाज़िल कर दिये हैं, बुनियादी हिदायात तुम्हें दे दी गई हैं। अब इज़ाफ़ी चीज़ तो बस यही है कि तुम्हारी नीयत साफ़ होनी चाहिये। क्योंकि { وَاللّٰهُ يَعْلَمُ الْمُفْسِدَ مِنَ الْمُصْلِحِ ۭ } (अल् बकरह:220) अल्लाह जानता है कि कौन हक़ीक़त में शरारती है और किसकी नीयत सही है।

आयत 128

“और अगर किसी औरत को अंदेशा हो अपने शौहर से ज़्यादती या बेरुख़ी का” وَاِنِ امْرَاَةٌ خَافَتْ مِنْۢ بَعْلِھَا نُشُوْزًا اَوْ اِعْرَاضًا

एक “नुशूज़” तो वह था जिसका तज़किरा इसी सूरत की आयत 34 मे औरत के लिये हुआ था: {وَالّٰتِيْ تَخَافُوْنَ نُشُوْزَھُنَّ} “और जिन औरतों से तुम्हें शरकशी का अंदेशा हो।” यानि वह औरतें, वह बीवियाँ जो ख़ाविंदों से सरकशी करती हैं, उनके अहकाम नहीं मानती, उनकी इताअत नहीं करती, अपनी ज़िद पर अड़ी रहती हैं, उनके बारे में हुक्म था कि उनके साथ कैसा मामला किया जाये। अब यहाँ ज़िक्र है उस  “नुशूज़” का जिसका इज़हार ख़ाविंद की तरफ़ से हो सकता है। यानि यह भी तो हो सकता है कि ख़ाविंद अपनी बीवी पर ज़ुल्म कर रहा हो, उसके हुक़ूक़ अदा करने में पहलु तही कर रहा हो, अपनी “क़व्वामियत” के हक़ को ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल कर रहा हो, बेजा रौब डालता हो, धौंस देता हो, या बिना वजह सताता हो, तंग करता हो और तंग करके महर माफ़ करवाना चाहता हो, या फिर बीवी के वालिदैन अच्छे खाते-पीते हों तो हो सकता है उसे ब्लैकमेल करके उसके वालिदैन से दौलत हथियाना चाहता हो। यह सारी ख़बासतें हमारे मआशरे में मौजूद हैं और औरतें बेचारी ज़ुल्म व सितम की इस चक्की में पिसती रहतीं हैं। आयत ज़ेरे नज़र में इस मसले की वज़ाहत की गई है कि अगर किसी औरत को अपने शौहर से अंदेशा हो जाये कि वह ज़्यादती करेगा, या अगर शौहर ज़्यादती कर रहा हो और वह बीवी के हुक़ूक़ अदा ना कर रहा हो, या उसकी तरफ़ मैलान ही ना रखता हो, कोई नई शादी रचा ली हो और अब सारी तवज्जोह नई दुल्हन की तरफ़ हो।

“तो उन दोनों पर कोई इल्ज़ाम नहीं होगा कि वह आपस में सुलह कर लेंفَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَآ اَنْ يُّصْلِحَا بَيْنَهُمَا صُلْحًا  ۭ

यहाँ सुलह से मुराद यह है कि सारे मामले बाहम तय करके औरत ख़ुला ले ले। लेकिन ख़ुला लेने में, जैसा कि हम पढ़ चुके हैं जबकि औरत को महर छोड़ना पड़ेगा, और अगर लिया था तो कुछ वापस करना पड़ेगा।

“और सुलह बहरहाल बेहतर है। अलबत्ता इंसानी नफ़्स पर लालच मुसल्लत रहता है।”وَالصُّلْحُ خَيْرٌ  ۭوَاُحْضِرَتِ الْاَنْفُسُ الشُّحَّ ۭ

मर्द चाहेगा कि मेरा पूरा महर वापस किया जाये जबकि औरत चाहेगी कि मुझे कुछ भी वापस ना करना पड़े। यह मज़ामीन सूरतुल बक़रह में बयान हो चुके हैं।

“और अगर तुम अहसान करो और तक़वा इख़्तियार करो तो जान लो कि अल्लाह तुम्हारे तमाम आमाल से बाख़बर है।”وَاِنْ تُحْسِنُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا      ١٢٨؁

तुम मर्द हो, मर्दानगी का सबूत दो, इस मामले में अपने अंदर नर्मी पैदा करो, बीवी का हक़ फ़राख़ दिली से अदा करो।

आयत 129

“और तुम्हारे लिये मुमकिन ही नहीं कि तुम औरतों के दरमियान पूरा-पूरा इंसाफ कर सको, चाहे तुम इसके लिये कितने ही हरीस हो” وَلَنْ تَسْتَطِيْعُوْٓا اَنْ تَعْدِلُوْا بَيْنَ النِّسَاۗءِ وَلَوْ حَرَصْتُمْ

सूरह के आग़ाज़ (आयत 3) में फ़रमाया गया था: {فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا تَعْدِلُوْا فَوَاحِدَةً } यानि अगर तुम्हें अंदेशा हो कि तुम अपनी बीवियों में (अग़र एक से ज़्यादा हैं) अद्ल नहीं कर सकोगे तो फिर एक पर ही इकतफ़ा (सन्तुष्टि) करो, दूसरी शादी मत करो। अगर तुम्हें कुल्ली तौर पर इत्मिनान है, अपने ऊपर ऐतमाद है कि तुम अद्ल कर सकते हो तब दूसरी शादी करो, वरना नहीं। लेकिन हक़ीक़त यह है कि कुछ चीज़ें तो गिनती और नाप-तौल की होती हैं, उनमें तो अद्ल करना मुमकिन है, लेकिन जो क़ल्बी मैलान है यह तो इंसान के इख़्तियार में नहीं है। हुज़ूर ﷺ ने अपनी तमाम अज़वाज के लिये हर चीज़ गिन-गिन कर तय की हुई थी। शब बसरी (रात गुज़ारने) के लिये सबकी बारियाँ मुक़र्रर थीं। दिन में भी आप ﷺ हर घर में चक्कर लगाते थे। अस्र और मग़रिब के दरमियान थोड़ी-थोड़ी देर हर ज़ौजा मोहतरमा के पास ठहरते थे। अगर कहीं ज़्यादा देर हो जाती तो गोया ख़लबली मच जाती थी कि आज वहाँ ज़्यादा देर क्यों ठहर गये? यह चीज़े इंसानी मआशरे में साथ-साथ चलती हैं। हुज़ूर ﷺ की अज़वाजे मुतह्हरात रज़ि० का आपस का मामला बहुत अच्छा था, लेकिन सोकनापे (सोकनों) के असरात कुछ ना कुछ तो होते हैं, यह औरत की फ़ितरत है, जो उसके इख़्तियार में नहीं है। तो इसलिये फ़रमाया कि मुकम्मल इंसाफ़ करना तुम्हारे बस में नहीं। इससे मुराद दरअसल क़ल्बी मैलान है। एक हदीस में भी इसकी वज़ाहत मिलती है कि नबी अकरम ﷺ फ़रमाया करते थे कि ऐ अल्लाह मैंने ज़ाहिरी चीज़ों में पूरा-पूरा अद्ल किया है, बाक़ी जहाँ तक मेरे दिल के मैलान का ताल्लुक़ है तो मुझे उम्मीद है कि इस बारे में तू मुझसे मुवाख़ज़ा नहीं करेगा। इसी लिये यहाँ फ़रमाया गया कि तुम चाहो भी तो अद्ल नहीं कर सकते।

“तो ऐसा ना हो कि तुम एक ही तरफ़ पूरे के पूरे झुक जाओ कि दूसरी बीवी को मुअल्लक़ करके छोड़ दो।”فَلَا تَمِيْلُوْا كُلَّ الْمَيْلِ فَتَذَرُوْھَا كَالْمُعَلَّقَةِ  ۭ

दूसरी बीवी इस तरह मुअल्लक़ होकर ना रह जाये कि अब वह ना शौहर वाली है और ना आज़ाद है। उससे ख़ाविंद का गोया कोई ताल्लुक़ ही नहीं रहा।

“और अगर तुम इस्लाह कर लो और तक़वा की रविश इख़्तियार करो तो अल्लाह तआला भी ग़फ़ी और रहीम है।”وَاِنْ تُصْلِحُوْا وَتَتَّقُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا      ١٢٩؁

अब अगली आयत में तलाक़ के मामले में एक अहम नुक्ता बयान हो रहा है। तलाक़ यक़ीनन एक निहायत संजीदा मसला है, इसलिये रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ((اَبْغَضُ الْحَلَالِ اِلَی اللہِ تَعَالٰی الطَّلَاقُ)) “हलाल चीज़ों में अल्लाह तआला के नज़दीक सबसे ज़्यादा नापंसदीदा चीज़ तलाक़ है।” लेकिन हमारे मआशरे में इसको बसा अवक़ात कुफ़्र तक पहुँचा दिया जाता है। लड़ाईयाँ हो रही हैं, मुक़दमात चल रहे हैं, मिज़ाजों में मुवाफ़क़त (मेल-जोल) नहीं है, एक-दूसरे को कोस रहे हैं, दिन-रात का झगड़ा है, लेकिन तलाक़ नहीं देनी। यह तर्ज़े अमल निहायत अहमक़ाना है और शरीअत की मंशा के बिल्कुल ख़िलाफ़ भी। इस आयत में आप देखेंगे कि एक तरह से तलाक़ की तरगीब दी गई है।

आयत 130

“और अगर वह (मियाँ-बीवी) दोनो अलैहदा हो जाएँगे तो अल्लाह उनको अपनी कुशादगी से ग़नी कर देगा।”وَاِنْ يَّتَفَرَّقَا يُغْنِ اللّٰهُ كُلًّا مِّنْ سَعَتِهٖ ۭ

हो सकता है कि उस औरत को भी कोई बेहतर रिश्ता मिल जाये जो उसके साथ मिज़ाजी मुवाफ़क़त रखने वाला हो और उस शौहर को भी अल्लाह तआला कोई बेहतर बीवी दे दे। मियाँ-बीवी का हर वक़्त लड़ते रहना, दंगा-फ़साद करना और अदमे मुवाफ़क़त के बावजूद तलाक़ का इख़्तियार (option) इस्तेमाल ना करना, यह सोच हमारे यहाँ हिन्दु मआशरत और ईसाईयत के असरात की वजह से पैदा हुई है। हिन्दुमत की तरह ईसाईयत में भी तलाक़ हराम है। दरअसल इंजील में तो शरीअत और क़ानून है ही नहीं, सिर्फ़ अख्लाक़ी तालीमात हैं। चुनाँचे जिस तरह नबी अकरम ﷺ ने फ़रमाया: ((اَبْغَضُ الْحَلَالِ اِلَی اللہِ تَعَالٰی الطَّلَاقُ)) ऐसी ही कोई बात हज़रत मसीह अलै० ने भी फ़रमाई थी कि कोई शख़्स बिना वजह अपनी बीवी को तलाक़ ना दे कि मआशरे में इसके मन्फ़ी असरात मुरत्तब होने का अंदेशा है। तलाक़ शुदा औरत की दूसरी शादी ना होने की सूरत में उसके आवारा हो जाने का इम्कान है और अगर ऐसा हुआ तो उसका बवाल उसे बिना वजह तलाक़ देने वाले के सर जायेगा। लेकिन यह महज़ अख्लाक़ी तालीम थी, कोई क़ानूनी शिक़ (article) नहीं थी। ईसाईयत का क़ानून तो वही है जो तौरात के अंदर है और हज़रत मसीह अलै० फ़रमा गये हैं कि यह ना समझो कि मैं क़ानून को ख़त्म करने आया हूँ, बल्कि हज़रत मूसा अलै० की शरीअत तुम पर बदस्तूर नाफ़िज़ रहेगी। क़ानून बहरहाल क़ानून है, अख्लाक़ी हिदायात को क़ानून का दर्जा तो नहीं दिया जा सकता। लेकिन ईसाईयत में इस तरह की अख्लाक़ी तालीमात को क़ानून बना दिया गया, जिसकी वजह से बिलाजवाज़ पेचीदगियाँ पैदा हुईं। चुनाँचे उनके यहाँ कोई शख़्स अपनी बीवी को उस वक़्त तक तलाक़ नहीं दे सकता जब तक उस पर बद्कारी का जुर्म साबित ना करे। लिहाज़ा वह तलाक़ देने के लिये तरह-तरह के तरीक़े इस्तेमाल करके बीवी को पहले बद्कार बना देते हैं, फिर उसका सबूत फ़राहम करते हैं, तब जाकर उससे जान छुड़ाते हैं। तो शरीअत के दुरुस्त और आसान रास्ते अगर छोड़ दिये जाएँ तो फिर इसी तरह ग़लत और मुश्किल रास्ते इख़्तियार करने पड़ते हैं। यही वजह है कि इस आयत में अदमे मुवाफ़क़त की सूरत में तलाक़ के बारे में एक तरह की तरगीब नज़र आती है।

“और अल्लाह बड़ी वुसअत रखने वाला, हिकमत वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ وَاسِعًا حَكِيْمًا     ١٣٠؁

अल्लाह के ख़जाने बड़े वसीअ हैं और उसका हर हुक्म हिकमत पर मब्नी होता है।

आयत 131

“और अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है।”وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ  ۭ
“और (देखो मुसलमानों!) तुमसे पहले जिन लोगों को किताब दी गई थी उन्हें भी हमने वसीयत की थी और अब तुम्हें भी यही वसीयत है कि अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो।”وَلَقَدْ وَصَّيْنَا الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَاِيَّاكُمْ اَنِ اتَّقُوا اللّٰهَ ۭ

अहकामे शरीअत की तामील के सिलसिले में असल जज़्बा-ए-मुहरका तक़वा है। तक़वा के बग़ैर शरीअत भी मज़ाक बन जायेगी। रसूल अल्लाह ﷺ के एक ख़ुत्बे के यह अल्फ़ाज़ बहुत मशहूर हैं और जुमे के ख़ुत्बों में भी अक्सर इन्हें शामिल किया जाता है: ((اُوْصِیْکُمْ وَ نَفْسِیْ بِتَقْوَی اللہِ)) “मुसलमानों! मैं तुम्हें भी और अपने नफ़्स को भी अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करने की वसीयत करता हूँ।” क़ुरान हकीम में जा-बजा (जगह-जगह) अल्लाह तआला का तक़वा इख़्तियार करने की हिदायत की गई है। सूरह तहरीम (आयत:6) में इर्शाद है: {يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قُوْٓا اَنْفُسَكُمْ وَاَهْلِيْكُمْ نَارًا} “ऐ ईमान वालो, बचाओ अपने आपको और अपने अहलो अयाल (घर वालों) को आग से।” यहाँ भी तक़वा का हुक्म इन्तहाई ताकीद (ज़ोर) के साथ दिया जा रहा है।

“और अगर तुम ना मानोगे तो (याद रखो कि) जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है वह अल्लाह ही का है, और अल्लाह तआला तो ख़ुद ग़नी है, अपनी ज़ात में ख़ुद सतूदह (प्रशंसनीय) सिफ़ात हैं।”وَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَكَانَ اللّٰهُ غَنِيًّا حَمِيْدًا     ١٣١؁

आयत 132

“और आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है वह अल्लाह ही का है, और अल्लाह काफ़ी है कारसाज़ होने के ऐतबार से।” وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَكَفٰى بِاللّٰهِ وَكِيْلًا     ١٣٢؁

अगर मियाँ-बीवी में वाक़ई निबाह नहीं हो रहा तो बेशक वह अलैहदगी इख़्तियार कर लें, दोनों का कारसाज़ अल्लाह है। औरत भी यह समझे कि मेरा शौहर मुझ पर जो ज़ुल्म कर रहा है और साथ इंसाफ़ नहीं कर रहा है, इस सूरत में अगर मैं इससे ताल्लुक़ मुन्क़तअ कर लूँगी तो अल्लाह कारसाज़ है, वह मेरे लिये कोई रास्ता पैदा कर देगा। और इसी तरह की सोच मर्द की भी होनी चाहिये। इसके बरअक्स यह सोच इन्तहाई अहमक़ाना और ख़िलाफ़े शरीअत है कि हर सूरत में औरत से निबाह करना है, चाहे अल्लाह से बग़ावत ही क्यों ना हो जाये। लिहाज़ा हर चीज़ को उसके मक़ाम पर रखना चाहिये।

आयत 133

“ऐ लोगों! वह चाहे तो तुम सबको ले जाये और दूसरे लोगों को ले आये।”اِنْ يَّشَاْ يُذْهِبْكُمْ اَيُّھَا النَّاسُ وَيَاْتِ بِاٰخَرِيْنَ  ۭ

अल्लाह के मुक़ाबले में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं। उसके सामने तुम सब नफ़्से वाहिद की तरह हो, जब चाहे अल्लाह तआला सबको नस्यम-मन्सिया (नेस्तोनाबूद) कर दे और नये लोगों को पैदा कर दे।

“और यक़ीनन अल्लाह तआला इस पर क़ादिर है।”وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰي ذٰلِكَ قَدِيْرًا     ١٣٣؁

आयत 134

“जो कोई भी दुनिया का सवाब चाहता है तो अल्लाह के पास है सवाब दुनिया का भी और आख़िरत का भी।”مَنْ كَانَ يُرِيْدُ ثَوَابَ الدُّنْيَا فَعِنْدَ اللّٰهِ ثَوَابُ الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ  ۭ

जो शख़्स अपनी सारी भाग-दौड़ और दिन-रात की मेहनत दुनिया कमाने, दौलत और जायदाद बढ़ाने, ओहदों में तरक्क़ी पाने और माद्दी तौर पर फलने-फूलने में लगा रहा है, दूसरी तरफ़ अल्लाह के अहकाम और हुक़ूक़ को नज़रअंदाज़ कर रहा है, उसे मालूम होना चाहिये कि अल्लाह तआला के पास तो पास दुनिया के ख़ज़ाने भी हैं और आख़िरत के भी। और यह कि वह सिर्फ़ दुनियावी चीज़ों की ख़्वाहिश करके गोया समुन्दर से क़तरा हासिल करने पर एकतफ़ा कर रहा है। बक़ौल अल्लामा इक़बाल:

तू ही नादान चंद कलियों पर क़नाअत कर गया

वरना गुलशन में इलाज-ए-तंगी-ए-दामाँ भी है!

लिहाज़ा अल्लाह से दुनिया भी माँगो और आख़िरत भी। और इस तरह माँगो जिस तरह उसने माँगने का तरीक़ा बताया है: (सूरतुल बक़रह, आयत:201) {رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَّفِي الْاٰخِرَةِ حَسَـنَةً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ} तुम लोग अल्लाह के साथ अपने मामलात को दुरुस्त करो, उसके साथ अपना ताल्लुक़ ख़ुलूस व इख्लास की बुनियाद पर इस्तवार (stable) करो, उसकी तरफ़ से जो ज़िम्मेदारियाँ हैं उनको अदा करो, फिर अल्लाह तआला यक़ीनन दुनिया में भी नवाज़ेगा और आख़िरत में भी।

“और अल्लाह तआला सब कुछ सुनने वाला और देखने वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ سَمِيْعًۢا بَصِيْرًا     ١٣٤؁ۧ

आयात 135 से 141 तक

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ بِالْقِسْطِ شُهَدَاۗءَ لِلّٰهِ وَلَوْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ اَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ ۚ اِنْ يَّكُنْ غَنِيًّا اَوْ فَقِيْرًا فَاللّٰهُ اَوْلٰى بِهِمَا   ۣ فَلَا تَتَّبِعُوا الْهَوٰٓى اَنْ تَعْدِلُوْا ۚ وَاِنْ تَلْوٗٓا اَوْ تُعْرِضُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا     ١٣٥؁ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْ نَزَّلَ عَلٰي رَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنْ قَبْلُ ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِاللّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا     ١٣٦؁ اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا لَّمْ يَكُنِ اللّٰهُ لِيَغْفِرَ لَھُمْ وَلَا لِيَهْدِيَھُمْ سَبِيْلًا     ١٣٧؁ۭ بَشِّرِ الْمُنٰفِقِيْنَ بِاَنَّ لَھُمْ عَذَابًا اَلِيْـمَۨا     ١٣٨؁ۙ الَّذِيْنَ يَتَّخِذُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۭ اَيَبْتَغُوْنَ عِنْدَھُمُ الْعِزَّةَ فَاِنَّ الْعِزَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا     ١٣٩؁ۭ وَقَدْ نَزَّلَ عَلَيْكُمْ فِي الْكِتٰبِ اَنْ اِذَا سَمِعْتُمْ اٰيٰتِ اللّٰهِ يُكْفَرُ بِھَا وَيُسْتَهْزَاُ بِھَا فَلَا تَقْعُدُوْا مَعَھُمْ حَتّٰي يَخُوْضُوْا فِيْ حَدِيْثٍ غَيْرِهٖٓ  ڮ اِنَّكُمْ اِذًا مِّثْلُھُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ جَامِعُ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْكٰفِرِيْنَ فِيْ جَهَنَّمَ جَمِيْعَۨا     ١٤٠؀ۙ الَّذِيْنَ يَتَرَبَّصُوْنَ بِكُمْ ۚ فَاِنْ كَانَ لَكُمْ فَتْحٌ مِّنَ اللّٰهِ قَالُوْٓا اَلَمْ نَكُنْ مَّعَكُمْ ڮ وَاِنْ كَانَ لِلْكٰفِرِيْنَ نَصِيْبٌ ۙ قَالُوْٓا اَلَمْ نَسْتَحْوِذْ عَلَيْكُمْ وَنَمْنَعْكُمْ مِّنَ الْمُؤْمِنِيْنَ  ۭفَاللّٰهُ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ وَلَنْ يَّجْعَلَ اللّٰهُ لِلْكٰفِرِيْنَ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ سَبِيْلًا     ١٤١؁ۧ

आयत 135

“ऐ अहले ईमान, खड़े हो जाओ पूरी क़ुव्वत के साथ अद्ल को क़ायम करने के लिये अल्लाह के गवाह बन कर”يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ بِالْقِسْطِ شُهَدَاۗءَ لِلّٰهِ

यह आयत क़ुरान करीम की अज़ीम तरीन आयतों में से है। सूरह आले इमरान (आयत18) में हम पढ़ आये हैं: { شَهِدَ اللّٰهُ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۙ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ وَاُولُوا الْعِلْمِ قَاۗىِٕمًۢا بِالْقِسْطِ ۭ } “अल्लाह गवाह है कि उसके सिवा कोई मअबूद नहीं, और सारे फ़रिश्ते और अहले इल्म भी इस पर गवाह हैं, वह अद्ल का क़ायम करने वाला है।” अल्लाह तआला इस ज़मीन पर अद्ल क़ायम करना चाहता है, इसके लिये वह अपने दीन का ग़लबा चाहता है, और इस अज़ीम काम के लिये उसके कारिन्दे और सिपाही अहले ईमान ही हैं। उन्हीं के ज़रिये से अल्लाह तआला इस दुनिया में अद्ल क़ायम करेगा। लेकिन अहले ईमान को इस अज़ीम मक़सद के लिये कोशिश करनी होगी, जानों का नज़राना पेश करना होगा, ईसार करना होगा, क़ुर्बानियाँ देनी होंगी, तब जाकर कहीं दीन ग़ालिब होगा। अल्लाह तआला के यहाँ यह बहुत ही अहम मामला है। मआशरे में अद्ल व क़िस्त के क़याम की अहमियत का अंदाज़ा इससे लगाएँ कि इसके लिये जद्दो-जहद करने वालों को “अल्लाह के गवाह” कहा गया है। अद्ले इज्तमाई (Social Justice) पर इस्लाम ने जितना ज़ोर दिया है बदक़िस्मती से आज हमारा मज़हबी तबक़ा उतना ही उससे बेपरवाह है। आज के मुस्लिम मआशरों में सिरे से शऊर ही नहीं की अद्ले इज्तमाई की भी कोई अहमियत इस्लाम में है। इस्लामी क़ानूने और हुदूद व ताज़ीरात के निफ़ाज़ की अहमियत तो सब जानते हैं, लेकिन बातिल निज़ाम की नाइंसाफ़ियाँ, यह जागीरदाराना ज़ुल्म व सितम और ग़रीबों का इस्तहसाल  (exploitation) किस तरह ख़त्म होगा? सरमायादार ग़रीबों का ख़ून चूस-चूस कर रोज़-ब-रोज़ मोटे होते जा रहे हैं। यह निज़ाम एक ऐसी चक्की है जो आटा पीस-पीस कर एक ही तरफ़ डालती जा है रही है, जबकि दूसरी तरफ़ महरूमी ही महरूमी है। यहाँ दौलत का तक़सीम का निज़ाम ही ग़लत है, एक तरफ़ वसाइल की रेल-पेल है तो दूसरी तरफ़ भूख ही भूख। एक तरफ़ अमीर अमीरतर हो रहे हैं दूसरी तरफ़ ग़रीब ग़रीबतर, और ग़ुरबत तो ऐसी लानत है जो इंसान को कुफ़्र तक पहुँचा देती है, अज़रुए हदीसे नबवी ﷺ:      ((کَادَ الْفَقْرُ اَنْ یَّکُوْنَ کُفْرًا)) लिहाज़ा सबसे पहले वह निज़ाम क़ायम करने की ज़रूरत है जिसमें अद्ल हो, इंसाफ़ हो, जिसमें ज़मानत दी गई हो कि हर शहरी की बुनियादी ज़रूरतों की कफ़ालत होगी। कफ़ालते आम्मा की यह ज़मानत निज़ामे ख़िलाफ़त में दी जाती है। जब निज़ाम दुरुस्त हो जाए तो फिर हुदूद व ताज़ीरात का निफ़ाज़ हो। फिर जो कोई चोरी करे उसका हाथ काटा जाए। लेकिन मौजूदा हालात में अगर इस्लामी क़वानीन नाफ़िज़ होंगे तो उनका फ़ायदा उल्टा लुटेरों और हरामख़ोरों को होगा, ब्लैक मार्केटिंग करने वाले उनसे मुस्तफ़ीद होंगे। जिन्होंने हरामख़ोरी से दौलत जमा कर रखी है, वह ख़ूब पाँव फैला कर सोएंगे। चोर का हाथ कटेगा तो उन्हें चोरी का डर रहेगा ना डाके का। तो असल काम निज़ाम का बदलना है। इसका यह मतलब नहीं कि (मआज़ अल्लाह) शरीअत नाफ़िज़ ना की जाये, बल्कि मक़सद यह है कि शरीअत नाफ़िज़ करने से पहले निज़ाम (system) को बदला जाए, दीन का निज़ाम क़ायम किया जाए और फिर इस निज़ाम को क़ायम रखने के लिये, इसको मुस्तहकम और मज़बूत करने के लिये, इसे मुस्तक़िल तौर पर चलाने के लिये क़ानून नाफ़िज़ किया जाए। क्योंकि क़ानून ही किसी निज़ाम के इस्तहकाम (स्थिरता) का ज़रिया बनता है क़ानून के सही निफ़ाज़ से ही कोई निज़ाम मज़बूत होता है।

यही मज़मून आगे चल कर सूरतुल मायदा (आयत:8) में भी आयेगा, लेकिन वहाँ इसकी तरतीब बदल गई है। वहाँ तरतीब इस तरह है:              { يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْا قَوّٰمِيْنَ لِلّٰهِ شُهَدَاۗءَ بِالْقِسْطِ ۡ } इस तरतीब के बदलने में एक इशारा यह भी है कि अल्लाह और अद्ल व क़िस्त गोया मुतरादिफ़ (बराबर) अल्फ़ाज़ हैं। एक जगह हुक्म है “गवाह बन जाओ अल्लाह के” और दूसरी जगह फ़रमाया: “गवाह बन जाओ क़िस्त के।” एक जगह फ़रमाया: “खड़े हो जाओ क़िस्त (अद्ल व इंसाफ़) के लिये” जबकि दूसरी जगह इर्शाद हुआ है कि “खड़े हो जाओ अल्लाह के लिये।” मालूम हुआ कि अल्लाह और क़िस्त के अल्फ़ाज़ जो एक दूसरे की जगह आये हैं, आपस में मुतरादिफ़ हैं।

“ख़्वाह यह (इंसाफ़ की बात और शहादत) तुम्हारे अपने ख़िलाफ़ हो या तुम्हारे वालिदैन के या तुम्हारे क़राबतदारों के।”وَلَوْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ اَوِ الْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ ۚ

एक मोमिन का ताल्लुक़ अद्ल व इंसाफ़ और क़िस्त के साथ होना चाहिये, रिश्तेदारी के साथ नहीं। यहाँ पर हर्फ़े जार के बदलने से मायने में होने वाली तब्दीली मद्देनज़र रहे। شھادۃ علٰی का मतलब है लोगों पर गवाही, उनके ख़िलाफ़ गवाही, जबकि شھادۃ لِلہ का मतलब है अल्लाह के लिये गवाही, लिहाज़ा شُھَدَآءَ لِلہ के मायने हैं अल्लाह के गवाह।

“चाहे वह शख़्स ग़नी है या फ़क़ीर, अल्लाह ही दोनों का पुश्तपनाह है।”اِنْ يَّكُنْ غَنِيًّا اَوْ فَقِيْرًا فَاللّٰهُ اَوْلٰى بِهِمَا   ۣ

अल्लाह हर किसी का कफ़ील है, तुम किसी के कफ़ील नहीं हो। तुम्हें तो फ़ैसला करना है जो अद्ल व इन्साफ पर मब्नी होना चाहिये, तुम्हें किसी की जानिबदारी नहीं करनी, ना माँ-बाप की, ना भाई की ना ख़ुद अपनी। एक चोर दरवाज़ा यह भी होता है कि इसका हक़ तो नहीं बनता, लेकिन यह ग़रीब है, लिहाज़ा इसके हक़ में फ़ैसला कर दिया जाये। फ़रमाया कि फ़रीक़े मामला ख़्वाह मालदार हो या ग़रीब, तुम्हें उसकी जानिबदारी नहीं करनी। यह हुक्म हमें वाज़ेह तौर पर हमारा फ़र्ज़ याद दिलाता है कि हम सब अल्लाह के गवाह बन कर खड़े हो जाएँ। हर हक़ बात जो अल्लाह की तरफ़ से हो उसके अलम्बरदार बन जाएँ और उस हक़ को क़ायम करने के लिये तन, मन और धन की क़ुर्बानी देने के लिये अपनी कमर कस लें।

“तो तुम ख़्वाहिशात की पैरवी ना करो, मबादा कि तुम अद्ल से हट जाओ। अगर तुम ज़बानों को मरोड़ोगे या ऐराज़ करोगे तो (याद रखो कि) अल्लाह तआला तुम्हारे हर अमल से पूरी तरह बाख़बर है।”فَلَا تَتَّبِعُوا الْهَوٰٓى اَنْ تَعْدِلُوْا ۚ وَاِنْ تَلْوٗٓا اَوْ تُعْرِضُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرًا     ١٣٥؁

यानि अगर तुमने लगी-लपटी बात कही या हक़गोई से पहलु तही की तो जान रखो कि जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह को उसकी पूरी-पूरी ख़बर है “تَلْوٗٓا” का सही मफ़हूम आज की ज़बान में होगा chewing your words. यानि इस तरीक़े से ज़बान को हरकत देना कि बात कहना भी चाहते हैं लेकिन कह भी नहीं पा रहे हैं, हक़ बात ज़बान से निकालना नहीं चाहते, ग़लत बात निकल नहीं रही है। या फिर वैसे ही हक़ बात कहने वाली सूरते हाल का सामना करने से कन्नी कतरा रहे हैं, मौक़े से ही बच निकलना चाहते हैं। लेकिन याद रखो कि ऐसी किसी कोशिश से इंसानो को तो धोखा दिया जा सकता है मगर अल्लाह तो तुम्हारी हर सोच, हर नीयत और हर हरकत से बाख़बर है।

इसके बाद जो मज़मून आ रहा है वह शायद इस सूरह मुबारका का अहमतरीन मज़मून है।

आयत 136

“ऐ ईमान वालो! ईमान लाओ अल्लाह पर, उसके रसूल पर और उस किताब पर जो उसने नाज़िल फ़रमाई अपने रसूल पर और उस किताब पर जो उसने पहले नाज़िल फ़रमाई।”يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْ نَزَّلَ عَلٰي رَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنْ قَبْلُ ۭ

ईमान वालों से यह कहना कि ईमान लाओ बज़ाहिर अजीब मालूम होता है। “ऐ ईमान वालो, ईमान लाओ!” क्या मायने हुए इसके? इसका मतलब है कि इक़रार बिल् लिसान वाला ईमान तो तुम्हें मौरूसी तौर पर हासिल हो चुका है। मुसलमान माँ-बाप के घर पैदा हो गए तो विरासत में ईमान भी मिल गया, या यह कि जब पूरा क़बीला इस्लाम ले आया तो उसमें पक्के मुसलमानों के साथ कुछ कच्चे मुसलमान भी शामिल हो गए। उन्होंने भी कहा:          اَشْھَدُ اَنْ لَّا اِلٰہَ اِلَّا اللہُ وَ اَشْھَدُ اَنَّ مُحَمَّدًا رَسُوْلُ اللہِ इस तरह ईमान एक दर्जे (इक़रार बिल् लिसान) में तो हासिल हो गया। यह ईमान का क़ानूनी दर्जा है। पीछे इसी सूरत (आयत:94) में हम पढ़ आए हैं कि अगर कोई शख़्स रास्ते में मिले और वह अपना इस्लाम ज़ाहिर करे तो तुम उसको यह नहीं कह सकते हो कि तुम मोमिन नहीं हो, क्योंकि जिसने ज़बान से कलमा-ए-शहादत अदा कर लिया तो क़ानूनी तौर पर वह मोमिन है। लेकिन क्या हक़ीक़ी ईमान यही है? नहीं, बल्कि हक़ीक़ी ईमान है यक़ीने क़ल्बी। इसलिये फ़रमाया: “ऐ ईमान वालो! ईमान लाओ अल्लाह पर…..” इस नुक्ते को समझने के लिये हम इस आयत का तर्जुमा इस तरह करेंगे कि “ऐ अहले ईमान! ईमान लाओ अल्लाह पर जैसा कि ईमान लाने का हक़ है, मानो रसूल ﷺ को जैसा कि मानने का हक़ है…..” और यह हक़ उसी वक़्त अदा होगा जब अल्लाह और उसके रसूल ﷺ पर ईमान दिल में घर कर गया हो। जैसे सहाबा किराम रज़ि० के बारे में सूरतुल हुजरात (आयत:7) में फ़रमाया गया: { وَلٰكِنَّ اللّٰهَ حَبَّبَ اِلَيْكُمُ الْاِيْمَانَ وَزَيَّنَهٗ فِيْ قُلُوْبِكُمْ } “अल्लाह ने ईमान को तुम्हारे नज़दीक महबूब बना दिया है और उसे तुम्हारे दिलों में मुज़य्यन कर दिया है।” आगे चल कर इसी सूरह में कुछ लोगों के बारे यूँ फ़रमाया: { قَالَتِ الْاَعْرَابُ اٰمَنَّا  ۭ قُلْ لَّمْ تُؤْمِنُوْا وَلٰكِنْ قُوْلُوْٓا اَسْلَمْنَا وَلَمَّا يَدْخُلِ الْاِيْمَانُ فِيْ قُلُوْبِكُمْ ۭ } (आयत:14) “यह बददु लोग दावा कर रहे हैं कि हम ईमान ले आये हैं। ऐ नबी (ﷺ) इनसे कह दीजिये कि तुम हरग़िज़ ईमान नहीं लाये हो, हाँ यूँ कह सकते हो कि हम मुसलमान हो गए हैं, लेकिन अभी तक ईमान तुम्हारे दिलों में दाख़िल नहीं हुआ।” चुनाँचे असल ईमान वह है जो दिल में दाखिल हो जाए। यह दर्जा तस्दीक़ बिल् क़ल्ब का है। याद रहे कि आयत ज़ेरे मुताअला में दरअसल रूए सुख़न मुनाफ़िक़ीन की तरफ़ है। वह ज़बानी ईमान तो लाए थे लेकिन वह ईमान असल ईमान नहीं था, उसमें दिल की तस्दीक़ शामिल नहीं थी (अरबी ज़बान से वाक़फ़ियत रखने वाले हज़रात यह नुक्ता भी नोट करें कि क़ुरान के लिये इस आयत में लफ़्ज़ नज़्ज़ला और तौरात के लिए अन्ज़ला इस्तेमाल हुआ है।)

“और जो कोई कुफ़्र (इन्कार) करेगा अल्लाह का, उसके फ़रिश्तों का, उसकी किताबों का, उसके रसूलों का और क़यामत के दिन का, तो वह गुमराह हो गया और गुमराही में बहुत दूर निकल गया।”وَمَنْ يَّكْفُرْ بِاللّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ فَقَدْ ضَلَّ ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا     ١٣٦؁

यह तमाम आयात बहुत अहम हैं और मफ़हूम के लिहाज़ से इनमें बड़ी गहराई है।

आयत 137

“बेशक वह लोग जो ईमान लाये, फिर कुफ़्र किया, फिर ईमान लाये, फिर कुफ़्र किया, फिर कुफ़्र में बढ़ते चले गये” اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ اٰمَنُوْا ثُمَّ كَفَرُوْا ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا

यहाँ कुफ़्र से मुराद कुफ़्रे हक़ीक़ी, कुफ़्रे मायनवी, कुफ़्रे बातिनी यानि निफ़ाक़ है, क़ानूनी कुफ़्र नहीं। क्योंकि मुनाफ़िक़ीन के यहाँ कुफ़्र व ईमान के दरमियान जो भी कशमकश और खींचा-तानी हो रही थी, वह अंदर ही अंदर हो रही थी, लेकिन ज़ाहिरी तौर पर तो उन लोगों ने इस्लाम का इंकार नहीं किया था।

“तो अल्लाह ना उनकी मग़फिरत करने वाला है और ना वह उन्हें राहे रास्त दिखाएगा।”لَّمْ يَكُنِ اللّٰهُ لِيَغْفِرَ لَھُمْ وَلَا لِيَهْدِيَھُمْ سَبِيْلًا     ١٣٧؁ۭ

वाज़ेह रहे कि मुनाफ़क़त का मामला ऐसा नहीं है कि एक ही दिन में कोई मुनाफ़िक़ हो गया हो। मुनाफ़िक़ीन में एक तो शऊरी मुनाफ़िक़ थे, जो बाक़ायदा एक फ़ैसला करके अपनी हिकमते अमली इख़्तियार करते थे, जैसे हम सूरह आले इमरान में उनकी पॉलिसी के बारे में पढ़ आए हैं कि सुबह ईमान का ऐलान करेंगे, शाम को फिर क़ाफ़िर हो जाएँगे, मुर्तद हो जाएँगे। तो मालूम हुआ कि ईमान उन्हें नसीब हुआ ही नहीं और उन्हें भी मालूम था कि वह मोमिन नहीं हैं। वह दिल से जानते थे कि हम ईमान लाये ही नहीं हैं, हम तो धोखा दे रहे हैं यह शऊरी मुनाफ़क़त है।

दूसरी तरफ़ कुछ लोग ग़ैर शऊरी मुनाफ़िक़ थे। यह वह लोग थे जिन्होंने इस्लाम तो क़ुबूल किया था, उनके दिल में धोखा देने की नीयत भी नहीं थी, लेकिन उन्हें असल सूरते हाल का अंदाज़ा नहीं था। वह समझते थे कि यह फूलों की सेज है, लेकिन उनकी तवक्क़ुआत के बिल्कुल बरअक्स वह निकला काँटो वाला बिस्तर। अब उन्हें क़दम-क़दम पर रुकावट महसूस हो रही है, इरादे में पुख़्तगी नहीं है, ईमान में गहराई नहीं है, लिहाज़ा उनका मामला “हरचे बादा बाद” वाला नहीं है। ऐसे लोगों का हाल हम सूरतुल बक़रह के आग़ाज़ (आयत:20) में पढ़ आए हैं कि कुछ रोशनी हुई तो ज़रा चल पड़े, अँधेरा हुआ तो खड़े के खड़े रह गए। कुछ हिम्मत की, दो चार क़दम चले, फिर हालात ना मुवाफ़िक़ देख कर ठिठक गये, पीछे हट गये। नतीजा यह होता था कि लोग उनको मलामत करते कि यह तुम क्या करते हो? तो अब उन्होंने यह किया कि झूठे बहाने बनाने लगे, और फिर इससे भी बढ़ कर झूठी क़समें खानी शुरू कर दीं, कि ख़ुदा की क़सम यह मजबूरी थी, इसलिये मैं रुक गया था, ऐसा तो नहीं कि मैं जिहाद में जाना नहीं चाहता था। मेरी बीवी मर रही थी, उसे छोड़ कर मैं कैसे जा सकता था? वग़ैरह वग़ैरह। इस तरह की झूठी क़समें खाना ऐसे मुनाफ़िक़ीन का आख़री दर्जे का हरबा होता है। तो ईमान और कुफ़्र का यह मामला उनके यहाँ यूँ ही चलता रहता है, अगरचे ऊपर ईमान बिल् लिसान का पर्दा मौजूद रहता है। जब कोई शख़्स ईमान ले आया और उसने इरतदाद (स्वधर्म त्याग) का ऐलान भी नहीं किया तो क़ानूनी तौर पर तो वह मुसलमान ही रहता है, लेकिन जहाँ तक ईमान बिल् क़ल्ब का ताल्लुक़ है तो वह “مُذَبْذَبِیْنَ بَیْنَ ذٰلِکَ” की कैफ़ियत में होता है और उसके अंदर हर वक़्त तज़बज़ुब और अहतज़ाज़ (oscillation) की कैफ़ियत रहती है कि अभी ईमान की तरफ़ आया, फिर कुफ़्र की तरफ़ गया, फिर ईमान की तरफ़ आया, फ़िर कुफ़्र की तरफ़ गया। इसकी मिसाल बैनही (बिल्कुल) उस शख़्स की सी है जो दरिया या तालाब के गहरे पानी में डूबते हुए कभी नीचे जा रहा है, फिर हाथ-पैर मारता है तो एक लम्हे के लिये फिर ऊपर आ जाता है मगर ऊपर ठहर नहीं सकता और फ़ौरन नीचे चला जाता है। बिल्आख़िर नीचे जाकर ऊपर नहीं आता और डूब जाता है। बिल्कुल यही नक़्शा है जो इस आयत में पेश किया जा रहा है। अगली आयत में खोल कर बयान कर दिया गया है कि यह किन लोगों का तज़किरा है।

आयत 138

“(ऐ नबी ) इन मुनाफ़िक़ों को बशारत दे दीजिये कि इनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।”بَشِّرِ الْمُنٰفِقِيْنَ بِاَنَّ لَھُمْ عَذَابًا اَلِيْـمَۨا     ١٣٨؁ۙ

यानि वाज़ेह तौर पर फ़रमा दिया गया कि यह लोग मुनाफ़िक़ हैं और इनको अज़ाब की बशारत भी दे दी गई। यह अज़ाब की बशारत देना तंज़िया अंदाज़ है।

यहाँ पर क़ुबूले हक़ के दावेदारों को यह हक़ीक़त अच्छी तरह समझ लेनी चाहिये कि जो लोग दायरा-ए-इस्लाम में दाख़िल होते हैं, अल्लाह को अपना रब मानते हैं, उनके लिये यहाँ फूलों की सेज नहीं है, इसलिये जो शख़्स इस गिरोह में शामिल होना चाहता है उसे चाहिये कि यकसू होकर आये, दिल में तहफ्फ़ुज़ात (reservations) रख कर ना आये। यहाँ तो क़दम-क़दम पर आज़माईशें आएँगी, यह अल्लाह का अटल फ़ैसला है: (सूरतुल बक़रह, आयत:155) {وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ ۭ } यहाँ तो अलल ऐलान बताया जा रहा है: (सूरह आले इमरान, आयत:186)  {لَتُبْلَوُنَّ فِيْٓ اَمْوَالِكُمْ وَاَنْفُسِكُمْ  ۣوَلَتَسْمَعُنَّ مِنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكُمْ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُوْٓا اَذًى كَثِيْرًا  ۭ} यहाँ तो माल व जान का नुक़सान उठाना पड़ेगा, हर तरह की तल्ख़ व नाज़ेबा बातें सुननी पड़ेंगी, कड़वे घूँट भी हलक़ से उतारने पड़ेंगे, क़दम-क़दम  पर ख़तरात का सामना करना पड़ेगा।

दर रहे मंजिले लैला कि ख़तर हास्त बसे

शर्ते अव्वल क़दम ईं अस्त कि मजनूँ बाशी!

आयत 139

“जो अहले ईमान को छोड़ कर कुफ़्फ़ार को अपना दोस्त बनाते हैं।”الَّذِيْنَ يَتَّخِذُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۭ

इन मुनाफ़िक़ीन का तरीक़ा यह भी था कि वह कुफ़्फ़ार के साथ भी दोस्ती रखते थे और अपनी अक़्ल से इस पॉलिसी पर अमल पैरा थे कि: Don’t keep all your eggs in one basket. उनका ख़्याल था कि आज अगर हम सब ताल्लुक़, दोस्तियाँ छोड़ कर, यकसू होकर मुसलमानों के साथ हो गए तो कल का क्या पता? क्या मालूम कल हालात बदल जाएँ, हालात का पलड़ा कुफ़्फ़ार की तरफ़ झुक जाये। तो ऐसे मुश्किल वक़्त में फिर यही लोग काम आएँगे, इसलिये वह उनसे दोस्तियाँ रखते थे।

“क्या वह उनके क़ुर्ब से इज़्ज़त चाहते हैं?” اَيَبْتَغُوْنَ عِنْدَھُمُ الْعِزَّةَ

क्या यह लोग इज़्ज़त की तलब में उनके पास जाते हैं? क्या उनकी महफ़िलों में जगह पाकर वह मुअज़ज़्ज़ बनना चाहते हैं? जैसे आज अमेरिका जाना और सदरे अमेरिका से मिलना गोया बहुत बड़ा ऐज़ाज़ है, जिसे पाने के लिये करोड़ों रुपये ख़र्च होते हैं। चंद मिनट की ऐसी मुलाक़ात के लिये किस-किस अंदाज़ से lobbying होती है, ख़्वाह उससे कुछ भी हासिल ना हो और उनकी पॉलिसियाँ ज्यों कि त्यों चलती रहें।

“हाँलाकि इज़्ज़त तो कुल की कुल अल्लाह के इख़्तियार में है।”فَاِنَّ الْعِزَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا     ١٣٩؁ۭ

लेकिन वह अल्लाह को छोड़ कर कहाँ इज़्ज़त ढूँढ रहे हैं?

आयत 140

“और यह बात वह तुम पर नाज़िल कर चुका है किताब में”وَقَدْ نَزَّلَ عَلَيْكُمْ فِي الْكِتٰبِ
“कि जब तुम सुनो कि अल्लाह की आयात के साथ कुफ़्र किया जा रहा है और उनका मज़ाक़ उड़ाया जा रहा है”اَنْ اِذَا سَمِعْتُمْ اٰيٰتِ اللّٰهِ يُكْفَرُ بِھَا وَيُسْتَهْزَاُ بِھَا
“तो उनके साथ मत बैठो यहाँ तक कि वह किसी और बात में लग जाएँ”فَلَا تَقْعُدُوْا مَعَھُمْ حَتّٰي يَخُوْضُوْا فِيْ حَدِيْثٍ غَيْرِهٖٓ  ڮ

यह सूरतुल अनआम की आयत 68 का हवाला है जिसमें मुसलमानों को हुक्म दिया गया था कि जब तुम्हारे सामने काफ़िर लोग अल्लाह की आयात का इस्तहज़ाअ (मज़ाक) कर रहे हों, क़ुरान का मज़ाक़ उड़ा रहे हों तो तुम वहाँ बैठो नहीं, वहाँ से उठ जाओ। यह मक्की आयत है। चूँकि उस वक़्त मुसलमानों में इतना ज़ोर नहीं था कि कुफ्फ़ार को ऐसी हरकतों से ज़बरदस्ती मना कर सकते इसलिये उनको बताया गया कि ऐसी महफ़िलों में तुम लोग मत बैठो। अगर किसी महफ़िल में ऐसी कोई बात हो जाए तो अहतजाजन वहाँ से उठ कर चले जाओ। ऐसा ना हो कि ऐसे बातों से तुम्हारी ग़ैरते ईमानी में भी कुछ कमी आ जाए या तुम्हारी ईमानी हिस्स कुन्द (कुंठित) पड़ जाए। हाँ जब वह लोग दूसरी बातों में मशगूल हो जाएँ तो फिर दोबारा उनके पास जाने में कोई हर्ज नहीं। दरअसल यहाँ ग़ैर मुस्लिमों से ताल्लुक़ मुन्क़तअ करना मक़सूद नहीं क्योंकि उनको तब्लीग़ करने के लिये उनके पास जाना भी ज़रूरी है।

“वरना तुम उन्हीं के मानिंद हो जाओगे।”اِنَّكُمْ اِذًا مِّثْلُھُمْ ۭ

अगर इस हालत में तुम भी उन्हीं के साथ बैठे रहोगे तो फिर तुम भी उन जैसे हो जाओगे।

“यक़ीनन अल्लाह तआला जमा करने वाला है मुनाफ़िक़ों को भी और काफ़िरों को भी जहन्नम में सबके सब।”اِنَّ اللّٰهَ جَامِعُ الْمُنٰفِقِيْنَ وَالْكٰفِرِيْنَ فِيْ جَهَنَّمَ جَمِيْعَۨا     ١٤٠؀ۙ

आयत 141

“वो लोग जो तुम्हारे लिये इन्तेज़ार की हालत में हैं।”الَّذِيْنَ يَتَرَبَّصُوْنَ بِكُمْ ۚ

मुनाफ़िक़ तुम्हारे मामले में गर्दिशे ज़माना के मुन्तज़िर हैं। देखना चाहते हैं कि हालात का ऊँट किस करवट बैठता है। यह लोग “तेल देखो, तेल की धार देखो” की पॉलिसी अपनाये हुए हैं और नतीजे के इन्तेज़ार में हैं कि आख़री फ़तह किसकी होती है। इसलिये कि उनका तयशुदा मन्सूबा है कि दोनों तरफ़ कुछ ना कुछ ताल्लुक़ात रखो, ताकि वक़्त जैसा भी आये, जो भी सूरते हाल हो, हम उसके मुताबिक़ अपने बचाव की कुछ सूरत बना सकें।

“तो अगर तुम लोगों को अल्लाह की तरफ़ से कोई फ़तह हासिल हो जाये तो यह कहेंगे कि क्या हम तुम्हारे साथ नहीं थे?” فَاِنْ كَانَ لَكُمْ فَتْحٌ مِّنَ اللّٰهِ قَالُوْٓا اَلَمْ نَكُنْ مَّعَكُمْ ڮ

अगर अल्लाह तआला की मदद से मुसलमान फ़तह हासिल कर लेते हैं तो वह आ जाएँगे बाते बनाते हुए कि हम भी तो आपके साथ थे, मुसलमान थे, माले ग़नीमत में से हमारा भी हिस्सा निकालिये।

“और अगर कोई हिस्सा पहुँच जाबा काफ़िरों को”وَاِنْ كَانَ لِلْكٰفِرِيْنَ نَصِيْبٌ ۙ

कभी वक़्ती तौर पर कुफ़्फ़ार को फ़तह हासिल हो जाये, जंग में उनका पलड़ा भारी हो जाये।

“तो वह कहेंगे (अपने काफ़िर साथियों से) क्या हमने तुम्हारा घेराव नहीं कर लिया था? और हमने बचाया नहीं तुमको मुसलमानों से?”قَالُوْٓا اَلَمْ نَسْتَحْوِذْ عَلَيْكُمْ وَنَمْنَعْكُمْ مِّنَ الْمُؤْمِنِيْنَ  ۭ

यानि हमने तो आपको मुसलमानों से बचाने का मन्सूबा बनाया हुआ था, हम तो आपके लिये आड़ बने हुए थे। आप समझते हैं कि हम मुसलमानों के साथ होकर जंग करने आये थे? नहीं, हम तो इसलिये आये थे कि वक़्त आने पर मुसलमानों के हमलों से आपको बचा सकें।

“तो अल्लाह ही फ़ैसला करेगा तुम्हारे माबैन क़यामत के दिन।”فَاللّٰهُ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ  ۭ
“और अल्लाह अहले ईमान के मुक़ाबले में काफ़िरों को राहयाब नहीं करेगा।”وَلَنْ يَّجْعَلَ اللّٰهُ لِلْكٰفِرِيْنَ عَلَي الْمُؤْمِنِيْنَ سَبِيْلًا     ١٤١؁ۧ

जैसा कि इससे पहले बताया जा चुका है कि सुरतुन्निसा का बड़ा हिस्सा मुनाफ़िक़ीन से ख़िताब पर मुश्तमिल है, अगरचे उनसे बराहे रास्त ख़िताब मेंيٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ نَافَقُوْا  के अल्फ़ाज़ कहीं इस्तेमाल नहीं हुए, बल्कि يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا  के अल्फ़ाज़ से ही मुख़ातिब किया गया है। क्योंकि वह भी ईमान के दावेदार थे, ईमान के मुद्दई थे, क़ानूनी तौर पर मुसलमान थे। यह एक तवील मज़मून है जो आइंदा आयाते मुबारका में अंजाम पज़ीर (concluded) हो रहा है।

आयात 142 से 152 तक

اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ وَھُوَ خَادِعُھُمْ ۚ وَاِذَا قَامُوْٓا اِلَى الصَّلٰوةِ قَامُوْا كُسَالٰى ۙ يُرَاۗءُوْنَ النَّاسَ وَلَا يَذْكُرُوْنَ اللّٰهَ اِلَّا قَلِيْلًا     ١٤٢؁ۡۙ مُّذَبْذَبِيْنَ بَيْنَ ذٰلِكَ ڰ لَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ وَلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ ۭوَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ سَبِيْلًا    ١٤٣؁ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۭ اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ عَلَيْكُمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا    ١٤٤؁ اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ فِي الدَّرْكِ الْاَسْفَلِ مِنَ النَّارِ ۚ وَلَنْ تَجِدَ لَھُمْ نَصِيْرًا     ١٤٥؁ۙ   اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَاعْتَصَمُوْا بِاللّٰهِ وَاَخْلَصُوْا دِيْنَھُمْ لِلّٰهِ فَاُولٰۗىِٕكَ مَعَ الْمُؤْمِنِيْنَ  ۭ وَسَوْفَ يُؤْتِ اللّٰهُ الْمُؤْمِنِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا    ١٤٦؁ مَا يَفْعَلُ اللّٰهُ بِعَذَابِكُمْ اِنْ شَكَرْتُمْ وَاٰمَنْتُمْ  ۭ وَكَانَ اللّٰهُ شَاكِرًا عَلِــيْمًا     ١٤٧؁ لَا يُحِبُّ اللّٰهُ الْجَــهْرَ بِالسُّوْۗءِ مِنَ الْقَوْلِ اِلَّا مَنْ ظُلِمَ  ۭ وَكَانَ اللّٰهُ سَمِيْعًا عَلِـــيْمًا     ١٤٨؁ اِنْ تُبْدُوْا خَيْرًا اَوْ تُخْفُوْهُ اَوْ تَعْفُوْا عَنْ سُوْۗءٍ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَفُوًّا قَدِيْرًا     ١٤٩؁ اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ يُّفَرِّقُوْا بَيْنَ اللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَيَقُوْلُوْنَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَّنَكْفُرُ بِبَعْضٍ ۙ وَّيُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَّخِذُوْا بَيْنَ ذٰلِكَ سَبِيْلًا    ١٥٠؀ۙ اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ حَقًّا  ۚ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا      ١٥١؁ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَلَمْ يُفَرِّقُوْا بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْهُمْ اُولٰۗىِٕكَ سَوْفَ يُؤْتِيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ ۭوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا     ١٥٢؀ۧ

आयत 142

“यक़ीनन मुनाफ़िक़ कोशिश कर रहे हैं अल्लाह को धोखा देने की”اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ

यह मज़मून सूरतुल बक़रह के दूसरे रुकूअ में भी आ चुका है। مُخادَعۃ बाब मुफ़ाअला का मसदर है। इस बाब में किसी के मुक़ाबले में कोशिश के मायने शामिल होते हैं। इसी सूरत में दो फ़रीक़ों में मुक़ाबला होता है और पता नहीं होता कि कौन जीतेगा और कौन हारेगा। लिहाज़ा इसका सही तर्जुमा होगा कि “वह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं।” इसके जवाब में अल्लाह की तरफ़ से फ़रमाया गया है:

“और वह उनको धोखा देकर रहेगा।”وَھُوَ خَادِعُھُمْ ۚ

خَادِع सलासी मुजर्रद से इस्मुल फ़ाइल है और यह निहायत ज़ोरदार ताकीद के लिये आता है, इसलिये तर्जुमे में ताकीदी अल्फ़ाज़ आएँगे। यहाँ मुनाफ़िक़ीन के लिये धोखे वाला पहलु यह है कि अल्लाह ने उनको जो ढ़ील दी हुई है उससे वह समझ रहें हैं कि हम कामयाब हो रहे हैं, हमारे ऊपर अभी तक कोई आँच नहीं आई, कोई पकड़ नहीं हुई, कोई गिरफ़्त नहीं हुई, हम दोनों तरफ़ से बचे हुए हैं। इस हवाले से वह अपनी इस ढ़ील की वजह से बढ़ते चले जा रहे हैं। और दरहक़ीकत यही धोखा है जो अल्लाह की तरफ़ से उनको दिया जा रहा है। यानि अल्लाह ने उनको धोखे में डाल रखा है।

“और जब वह खड़े होते हैं नमाज़ के लिये तो खड़े होते हैं बड़ी कसलमंदी (थकावट) के साथ”وَاِذَا قَامُوْٓا اِلَى الصَّلٰوةِ قَامُوْا كُسَالٰى ۙ

यह मुनाफ़िक़ीन जब नमाज़ के लिये खड़े होते हैं तो साफ़ नज़र आता है कि तबीयत में बशाशत नहीं है, आमादगी नहीं है। लेकिन चूँकि अपने आपको मुसलमान ज़ाहिर करना भी ज़रूरी है लिहाज़ा मजबूरन खड़े हो जाते हैं। قَامَ फ़अल है और इसके मायने हैं खड़े होना, जबकि قَائِم इससे इस्मुल फ़ाइल है। मुख़्तलिफ़ ज़बानों में आम तौर पर verb के बाद prepositions की तब्दीली से मायने और मफ़हूम बदल जाते हैं। मसलन अँग्रेज़ी में to give एक ख़ास मसदर है। अग़र to give up हो तो मायने यक्सर (radically) बदल जाएँगे। फिर यह to give in हो तो बिल्कुल ही उल्टी बात हो जायेगी। इसी तरह अरबी में भी हुरूफ़े जार के तब्दील होने से मायने बदल जाते हैं। लिहाज़ा अग़र قَامَ عَلٰی हो, जैसे {الرِّجَالُ قَوّٰمُوْنَ عَلَی النِّسَآءِ} में है तो इसके मायने होंगे हाकिम होना, सरबराह होना, किसी के हुक्म का नाफ़िज़ होना। लेकिन अग़र قَامَ اِلٰی हो (जैसे आयत ज़ेरे नज़र में है) तो इसका मतलब होगा किसी शय के लिये खड़े होना, किसी शय की तरफ़ खड़े होना, कोई काम करने के लिये उठना, कोई काम करने का इरादा करना। इससे पहले हम قَامَ “بِ” के साथ भी पढ़ चुके हैं: قَوّٰمِیْنَ بِالْقِسطِ ओर قَائِمًا بِالْقِسْطِ. यहाँ इसके मायने हैं किसी शय को क़ायम करना। तो आपने मुलाहिज़ा किया कि हुरूफ़े जार (prepositions) की तब्दीली से किसी फ़अल के अंदर किस तरह इज़ाफ़ी मायने पैदा हो जाते हैं।

“महज़ लोगों को दिखाने के लिये”يُرَاۗءُوْنَ النَّاسَ
“और अल्लाह का ज़िक्र नहीं करते मगर बहुत कम।”وَلَا يَذْكُرُوْنَ اللّٰهَ اِلَّا قَلِيْلًا     ١٤٢؁ۡۙ

यानि ज़िक्रे इलाही जो नमाज़ का असल मक़सद है {وَاَ قِمِ الصَّلٰوةَ لِذِكْرِيْ} (ताहा:14) वह उन्हें नसीब नहीं होता। मगर मुमकिन है इस बेध्यानी में किसी वक़्त कोई आयत बिजली के कड़के की तरह कड़क कर उनके शऊर में कुछ ना कुछ असरात पैदा कर दे।

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आयत 143

“यह उसके माबैन मुज़बज़ब (होकर रह गये) हैंمُّذَبْذَبِيْنَ بَيْنَ ذٰلِكَ ڰ

कुफ़्र और ईमान के दरमियान डवाँडोल हैं, किसी तरफ़ भी यकसू नहीं हो रहे। इसी लिये क़ुरान में हज़रत इब्राहीम अलै० के तज़किरे के साथ हनीफ़ का लफ़्ज़ बार-बार आता है। दीन के बारे में अल्लाह की तरफ़ से तरगीब यही है कि यकसू हो जाओ। दुनिया में अगर इंसान कुफ़्र पर भी यकसू होगा तो कम से कम उसकी दुनिया तो बन जायेगी, लेकिन अगर दुनिया और आख़िरत दोनों बनाने हैं तो फिर ईमान के साथ यकसू होना ज़रूरी है। लेकिन जो लोग बीच में रहेंगे, इधर के ना उधर के, उनके लिये तो {خَسِرَ الدُّنْیَا وَالْاٰخِرَۃِ} के मिस्दाक़ दुनिया और आख़िरत दोनों का घाटा और नुक़सान होगा।

“ना तो यह इनकी जानिब हैं और ना ही उनकी जानिब हैंلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ وَلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ ۭ

ना अहले ईमान के साथ मुख़्लिस हैं और ना अहले कुफ़्र के साथ। ना इनके साथ यकसू हैं और ना उनके साथ।

“और जिसे अल्लाह ही ने गुमराह कर दिया हो तो उसके लिये तुम कोई रास्ता ना पाओगे।”وَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ سَبِيْلًا    ١٤٣؁

यानि जिसकी गुमराही पर अल्लाह की तरफ़ से मोहर तस्दीक़ सब्त हो चुकी हो, उसके राहे रास्त पर आने का कोई इम्कान बाक़ी नहीं रहता।

आयत 144

“ऐ अहले ईमान, मत बनाओ काफ़िरों को अपना दिली दोस्त मुसलमानों को छोड़ कर।”يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوا الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۭ

यह मज़मून पहले आयत 139 में भी आ चुका है। यह भी निफ़ाक़ की एक अलामत है कि अहले ईमान को छोड़ कर काफ़िरों के साथ दोस्तियों की पींगें बढ़ाई जायें, उनको अपना हिमायती, मददगार और राज़दार बनाया जाये।

“क्या तुम चाहते हो कि तुम अपने ख़िलाफ़ अल्लाह के हाथ में एक सरीह हुज्जत दे दो?”اَتُرِيْدُوْنَ اَنْ تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ عَلَيْكُمْ سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا    ١٤٤؁

इस तरह तुम लोग ख़ुद ही अपने ख़िलाफ़ एक हुज्जत फ़राहम कर रहे हो। जब अल्लाह तआला आख़िरत में तुम्हारा मुहासबा करेगा, तब इस सवाल का क्या जवाब दोगे कि तुम्हारी दोस्तियाँ काफ़िरों के साथ क्यों थी? इस तरह तुम्हारा यह फ़अल तुम्हारे अपने ख़िलाफ़ हुज्जते क़ातअ (transverse) बन जायेगा।

अब जो आयत आ रही है वह एक ऐतबार से मुनाफ़िक़ीन के हक़ में क़ुराने हकीम की सख़्त तरीन आयत है। अगरचे बाज़ दूसरे ऐतबारात से, बल्कि एक ख़ास लतीफ़ पहलु से एक आयत इससे भी सख़्त तर है जो सूरह तौबा में आयेगी। दरअसल तवील सूरतों में से सुरतुन्निसा और सूरतुत्तौबा दो ऐसी सूरतें हैं जिनमें निफ़ाक़ का मज़मून बहुत ज़्यादा तफ़सील के साथ आया है।

आयत 145

“यक़ीनन मुनाफ़िक़ीन आग के सबसे निचले तब्क़े में होंगे, और तुम ना पाओगे उनके लिये कोई मददगार।”اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ فِي الدَّرْكِ الْاَسْفَلِ مِنَ النَّارِ ۚ وَلَنْ تَجِدَ لَھُمْ نَصِيْرًا     ١٤٥؁ۙ

अगली आयत में उन लोगों के लिये एक रिआयत का ऐलान है। मुनाफ़क़त का पर्दा कुल्ली तौर पर तो सूरह तौबा में चाक होगा। यानि उनके लिये आख़री अहकाम सन् 9 हिजरी में आये थे, जबकि अभी सन् 4 हिजरी के दौर की बातें हो रही हैं। तो अभी उनके लिये रिआयत रखी गई है कि तौबा का दरवाज़ा अभी खुला है। फ़रमाया:

आयत 146

“सिवाय उन लोगों के जो तौबा करें और इस्लाह कर लें और अल्लाह से चिमट जायें”  اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَاعْتَصَمُوْا بِاللّٰهِ

अल्लाह का दामन मज़बूती से थाम लें, ईमान के साथ यकसू हो जायें।    “کُوْنُوْا رَبَّانِیِّیْن” के मिस्दाक़ अल्लाह वाले बन जायें। शैतान से मोहब्बत की पींगें ना बढ़ायें, शैतान के एजेंटों से दोस्तियाँ ना करें, और अपने आपको दीन इस्लाम के साथ वाबस्ता कर लें कि हरचे बादा बाद, अब तो हम इस्लाम की इस कश्ती पर सवार हो गये हैं, अगर यह तैरती है तो हम तैरेंगे, और अगर ख़ुदा ना ख़ास्ता इसके मुक़द्दर में कोई हादसा है तो हम भी उस हादसे में शामिल होंगे।

“और अपनी इताअत को अल्लाह के लिये ख़ालिस कर लें”وَاَخْلَصُوْا دِيْنَھُمْ لِلّٰهِ

यह ना हो कि ज़िन्दगी के कुछ हिस्से में इताअत अल्लाह की हो रही है, कुछ हिस्से में किसी और की हो रही है कि क्या करें जी! यह मामला तो रिवाज का है, बिरादरी को छोड़ तो नहीं सकते ना! मालूम हुआ आपने अपनी इताअत के अलैहदा-अलैहदा हिस्से कर लिये हैं और फिर उनमें इंतख़ाब करते हैं कि यह हिस्सा तो बिरादरी की इताअत में जायेगा और यह हिस्सा अल्लाह की इताअत के लिये होगा। इताअत जब तक कुल की कुल अल्लाह के लिये ना हो, अल्लाह के यहाँ क़ाबिले क़ुबूल नहीं है। सूरतुल बक़रह (आयत:193) में हमने पढ़ा था: {وَقٰتِلُوْھُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ لِلّٰهِ ۭ } यहाँ पर दीन पूरे का पूरा अल्लाह के लिये हो जाने का मतलब यह है कि इज्तमाई सतह पर दीन अल्लाह के लिये हो जाये, यानि इस्लामी रियासत क़ायम हो जाये, पूरा इस्लामी निज़ाम क़ायम हो जाये, शरीअते इस्लामी का निफ़ाज़ अमल में आ जाये। और अगर यह नहीं है तो कम से कम एक शख़्स इन्फ़रादी सतह पर तो अपनी इताअत अल्लाह के लिये ख़ालिस कर ले। यह गोया इन्फ़रादी तौहीदी अमली है।

“तो फिर यह लोग अहले ईमान में शामिल हो जाएँगे, और अल्लाह अहले ईमान को अनक़रीब बहुत बड़ा अजर अता फ़रमाएगा।”فَاُولٰۗىِٕكَ مَعَ الْمُؤْمِنِيْنَ  ۭ وَسَوْفَ يُؤْتِ اللّٰهُ الْمُؤْمِنِيْنَ اَجْرًا عَظِيْمًا    ١٤٦؁

यानि अभी तौबा का दरवाज़ा खुला है, सच्ची तौबा करने के बाद उनको माफ़ी मिल सकती है। अभी उनके लिये point of no return नहीं आया है।

आयत 147

“(ऐ मुनाफ़िक़ों ज़रा सोचो!) अल्लाह तुम्हें अज़ाब देकर क्या करेगा?”مَا يَفْعَلُ اللّٰهُ بِعَذَابِكُمْ

अल्लाह तआला मआज़ अल्लाह कोई इज़ा पसंद (sadist) हस्ती नहीं है कि उसे लोगों को दुख पहुँचा कर खुशी होती हो। इस तरह के रवैये तो perverted क़िस्म के इंसानों के होते हैं, जिनकी शख़्सियतें मस्ख़ हो चुकी होती हैं, जो दूसरों को तकलीफ़ में देखते हैं तो ख़ुश होते हैं, दूसरों को तकलीफ़ और कोफ़्त पहुँचा कर उन्हें राहत हासिल होती है। लेकिन अल्लाह तो ऐसा नहीं है। इसलिये फ़रमाया कि अल्लाह तुम्हें अज़ाब देकर तुमसे क्या लेगा?

“अग़र तुम शुक्र और ईमान की रविश इख़्तियार करो।”اِنْ شَكَرْتُمْ وَاٰمَنْتُمْ  ۭ
“और अल्लाह बहुत ही क़दरदानी फ़रमाने वाला और हर शय का इल्म रखने वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ شَاكِرًا عَلِــيْمًا     ١٤٧؁

जो बंदा उसके लिये काम करे, मेहनत करे, अल्लाह तआला उसकी क़द्र फ़रमाता है। और जो कोई जो कुछ भी करता है सब उसके इल्म में होता है। इंसान का कोई अमल ऐसा नहीं है जो अल्लाह के यहाँ unaccounted रह जाये, और उसे उसका अजर ना मिल सके।

अब इस सूरत के आख़री हिस्से में फ़लसफ़ा-ए-दीन के बहुत अहम बुनियादी निकात की कुछ तफ़सील आयेगी। इस ज़िमन में पहली बात तो तमद्दुनी और मआशरती मामलात ही से मुताल्लिक़ है। मआशरे के अंदर किसी बुरी बात का चर्चा करना बिलफ़अल कोई अच्छी बात नहीं है, लेकिन इसमें एक इस्तसना रखा गया है, और वह है मज़लूम का मामला। अगर मज़लूम की ज़बान से ज़ुल्म के रद्दे अमल के तौर पर कुछ नाज़ेबा कलिमात, जले-कटे अल्फ़ाज़ भी निकल जायें तो अल्लाह तआला उन्हें माफ़ कर देगा।

आयत 148

“अल्लाह को बिल्कुल पसंद नहीं है कि किसी बुरी बात को बुलन्द आवाज़ से कहा जाये, सिवाय उसके जिस पर ज़ुल्म हुआ है।”لَا يُحِبُّ اللّٰهُ الْجَــهْرَ بِالسُّوْۗءِ مِنَ الْقَوْلِ اِلَّا مَنْ ظُلِمَ  ۭ

जिसका दिल दुखा है, जिसके साथ ज़्यादती हुई है, ना सिर्फ़ यह कि उसके जवाब में उसकी ज़बान से निकलने वाले कलिमात पर गिरफ़्त नहीं, बल्कि मज़लूम की दुआ को भी क़ुबूलियत की सनद अता होती है। किसी फ़ारसी शायर ने इस मज़मून को इस तरह अदा किया है:

बतरस अज़ आहे मज़लूमा की हंगामे दुआ कर दन

इजाबत अज़ दरे हक़ बहरे इस्तक़बाल मी आयद

कि मज़लूम की आहों से डरो कि उसकी ज़बान से निकलने वाली फ़रियाद ऐसी दुआ बन जाती है जिसकी क़ुबूलियत ख़ुद अल्लाह तआला की तरफ़ से उसका इस्तक़बाल करने के लिये अर्श से आती है।

“और अल्लाह सुनने वाला और जानने वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ سَمِيْعًا عَلِـــيْمًا     ١٤٨؁

उसे सब मालूम है कि जिसके दिल से यह आवाज़ निकली है वह कितना दुखी है। उसके अहसासात कितने मजरूह (आहत) हुए हैं।

आयत 149

“अगर तुम भलाई को ज़ाहिर करो या उसे छुपाओ”اِنْ تُبْدُوْا خَيْرًا اَوْ تُخْفُوْهُ

जहाँ तक तो खैर का मामला है तुम उसे बुलन्द आवाज़ से कहो, ज़ाहिर करो या छुपाओ बराबर की बात है। अल्लाह तआला के लिये खैर तो हर हाल में खैर ही है, अयाँ (ज़ाहिर) हो या ख़ुफ़िया।

“या तुम बुराई को माफ़ कर दिया करो तो यक़ीनन अल्लाह भी माफ़ फ़रमाने वाला, क़ुदरत रखने वाला है।”اَوْ تَعْفُوْا عَنْ سُوْۗءٍ فَاِنَّ اللّٰهَ كَانَ عَفُوًّا قَدِيْرًا     ١٤٩؁

अपने साथ होने वाली ज़्यादती को माफ़ कर देना यक़ीनन नेकी का एक ऊँचा दर्जा है। इसलिये यहाँ तरगीब के अंदाज़ में मज़लूम से भी कहा जा रहा है कि अगरचे तुम्हें छूट है, तुम्हारी बदगोई की भी तुम पर कोई गिरफ़्त नहीं, लेकिन ज़्यादती की तलाफ़ी का इससे आला और बुलन्दतर दर्जा भी है, तुम उस बुलन्द दर्जे को हासिल क्यों नहीं करते? वह यह कि तुम अपने साथ होने वाली ज़्यादती को माफ़ कर दो। इसके साथ अल्लाह की क़ुदरत का ज़िक्र भी हुआ है कि इन्सान तो बसा अवक़ात बदला लेने की ताक़त ना होने के बाइस माफ़ करने पर मजबूर भी हो जाता है, जबकि अल्लाह तआला क़ादिरे मुतलक़ है, क़दीर है, वह तो जब चाहे, जैसे चाहे (there & then) ख़ताकार को फ़ौरन सज़ा देकर हिसाब चुका सकता है। लेकिन इतनी क़ुदरत के बावजूद भी वह माफ़ फ़रमा देता है।

आइन्दा आयात में फिर वहदत अल अदयान जैसे अहम मज़मून का तज़किरा होने जा रहा है और इस सिलसिले में यहाँ तमाम ग़लत नज़रियात की जड़ काटी जा रही है। इससे पहले भी यह बात ज़ेरे बहस आ चुकी है कि फ़लसफ़ा-ए-वहदत-ए-अदयान का एक हिस्सा सही है। वह यह कि असल (origin) सब अदयान की एक है। लेकिन अगर कोई यह कहे कि मुख्तलिफ़ अदयान की मौजूदा शक्लों में भी एक रंगी और हम आहंगी है तो इससे बड़ी हिमाक़त, जहालत, ज़लालत और गुमराही कोई नहीं।

यहाँ पर अब कांटे की बात बताई जा रही है कि दीन में जिस चीज़ की वजह से बुनियादी खराबी पैदा होती है वह असल में क्या है। वह ग़लती या खराबी है अल्लाह और रसूलों में तफ़रीक़! एक तफ़रीक़ तो वह है जो रसूलों के दरमियान की जाती है, और दूसरी तफ़रीक़ अल्लाह और रसूल ﷺ को अलैहदा-अलैहदा कर देने की शक्ल में सामने आती है, और यह सबसे बड़ी जहालत है। फ़ितना इन्कारे हदीस और इन्कारे सुन्नत इसी जहालत व गुमराही का शाखसाना (नतीजा) है। यह लोग अपने आप को अहले क़ुरान समझते हैं और उनका नज़रिया यह है कि रसूल ﷺ का काम क़ुरान पहुँचा देना था, सो उन्होंने पहुँचा दिया, अब असल मामला हमारे और अल्लाह के दरमियान है। अल्लाह की किताब अरबी ज़बान में है, हम इसको ख़ुद समझेंगे और इस पर अमल करेंगे। रसूल ﷺ ने अपने ज़माने में मुसलमानों को जो इसकी तशरीह समझायी थी और उस ज़माने के लोगों ने उसे क़ुबूल किया था, वह उस ज़माने के लिये थी। गोया रसूल ﷺ की तशरीह कोई दाइमी चीज़ नहीं, दाइमी शय सिर्फ़ क़ुरान है। इस तरह उन्होंने अल्लाह और रसूल ﷺ को जुदा कर दिया। यहाँ उसी गुमराही का ज़िक्र आ रहा है।

आयत 150

“यक़ीनन वह लोग जो कुफ़्र करते हैं अल्लाह और उसके रसूलों का और वह चाहते हैं कि तफ़रीक़ कर दें अल्लाह और उसके रसूलों के माबैन”اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَيُرِيْدُوْنَ اَنْ يُّفَرِّقُوْا بَيْنَ اللّٰهِ وَرُسُلِهٖ

अकबर के “दीन-ए-इलाही” का बुनियादी फ़लसफ़ा भी यही था कि बस दीन तो अल्लाह ही का है, रसूल ﷺ की निस्बत ज़रूरी नहीं, क्योंकि जब दीन की निस्बत रसूल के साथ हो जाती है तो फिर दीन रसूल के साथ मंसूब हो जाता है कि यह दीने मूसा (अलै०) है, यह दीने ईसा (अलै०) है, यह दीने मुहम्मदी ﷺ है। अगर रसूलों का यह तफ़रीक़ी अन्सर (differentiating factor) दरमियान से निकाल दिया जाये तो मज़ाहिब के इख्तलाफ़ात का ख़ात्मा हो जायेगा। अल्लाह तो सबका मुश्तरिक़ (common) है, चुनाँचे जो दीन उसी के साथ मंसूब होगा वह दीने इलाही होगा।

“और वह कहते हैं कि हम कुछ को मानेंगे और कुछ को नहीं मानेंगे”وَيَقُوْلُوْنَ نُؤْمِنُ بِبَعْضٍ وَّنَكْفُرُ بِبَعْضٍ ۙ

यानि अल्लाह को मानेंगे, रसूलों का मानना ज़रूरी नहीं है। अल्लाह की किताब को मानेंगे, रसूल ﷺ की सुन्नत का मानना कोई ज़रूरी नहीं है, वगैरह-वगैरह।

“और वह चाहते हैं कि इसके बैन-बैन एक रास्ता निकाल लें।”وَّيُرِيْدُوْنَ اَنْ يَّتَّخِذُوْا بَيْنَ ذٰلِكَ سَبِيْلًا    ١٥٠؀ۙ

अल्लाह को एक तरफ़ कर दें और रसूल को एक तरफ़।

आयत 151

“यही लोग हक़ीक़त में पक्के काफ़िर हैं, और हमने इन काफ़िरों के लिये बड़ा अहानत आमेज़ अज़ाब तैयार कर रखा है।”اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْكٰفِرُوْنَ حَقًّا  ۚ وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابًا مُّهِيْنًا      ١٥١؁

आयत 152

“और जो लोग ईमान रखते हैं अल्लाह और उसके रसूलों पर और उन्होंने उनमें से किसी के माबैन कोई तफ़रीक़ नहीं की”وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ وَلَمْ يُفَرِّقُوْا بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْهُمْ

ना अल्लाह को रसूल से जुदा किया और ना रसूल को रसूल से जुदा किया। और वह कहते हैं कि हम सबको मानते हैं: لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْ رُّسُلِهٖ ۣ (अल बक़रह:285)। हम उन रसूलों को भी मानते हैं जिनके नाम क़ुरान मजीद में आ गये हैं, और यह भी मानते हैं कि उनके अलावा भी अल्लाह की तरफ़ से बेशुमार नबी और रसूल आये हैं।

“यह वह लोग हैं कि जिन्हें अल्लाह उनके अज्र अता फ़रमायेगा, और अल्लाह तआला गफ़ूर और रहीम है।”اُولٰۗىِٕكَ سَوْفَ يُؤْتِيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ ۭوَكَانَ اللّٰهُ غَفُوْرًا رَّحِيْمًا     ١٥٢؀ۧ

आयत 153 से 162 तक

يَسْــَٔــلُكَ اَهْلُ الْكِتٰبِ اَنْ تُنَزِّلَ عَلَيْهِمْ كِتٰبًا مِّنَ السَّمَاۗءِ فَقَدْ سَاَلُوْا مُوْسٰٓى اَكْبَرَ مِنْ ذٰلِكَ فَقَالُوْٓا اَرِنَا اللّٰهَ جَهْرَةً فَاَخَذَتْهُمُ الصّٰعِقَةُ بِظُلْمِهِمْ ۚ ثُمَّ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ فَعَفَوْنَا عَنْ ذٰلِكَ ۚ وَاٰتَيْنَا مُوْسٰى سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا    ١٥٣؁ وَرَفَعْنَا فَوْقَھُمُ الطُّوْرَ بِمِيْثَاقِهِمْ وَقُلْنَا لَهُمُ ادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُلْنَا لَهُمْ لَا تَعْدُوْا فِي السَّبْتِ وَاَخَذْنَا مِنْهُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا     ١٥٤؁ فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ وَكُفْرِهِمْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَقَتْلِهِمُ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ وَّقَوْلِهِمْ قُلُوْبُنَا غُلْفٌ ۭ بَلْ طَبَعَ اللّٰهُ عَلَيْهَا بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا     ١٥٥؀۠ وَّبِكُفْرِهِمْ وَقَوْلِهِمْ عَلٰي مَرْيَمَ بُهْتَانًا عَظِيْمًا     ١٥٦؀ۙ وَّقَوْلِهِمْ اِنَّا قَتَلْنَا الْمَسِيْحَ عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ رَسُوْلَ اللّٰهِ ۚ وَمَا قَتَلُوْهُ وَمَا صَلَبُوْهُ وَلٰكِنْ شُبِّهَ لَهُمْ ۭ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِيْهِ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْهُ  ۭ مَا لَهُمْ بِهٖ مِنْ عِلْمٍ اِلَّا اتِّبَاعَ الظَّنِّ ۚ وَمَا قَتَلُوْهُ يَقِيْنًۢا   ١٥٧؀ۙ بَلْ رَّفَعَهُ اللّٰهُ اِلَيْهِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِـيْمًا     ١٥٨؁ وَاِنْ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ اِلَّا لَيُؤْمِنَنَّ بِهٖ قَبْلَ مَوْتِهٖ ۚ وَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يَكُوْنُ عَلَيْهِمْ شَهِيْدًا    ١٥٩؀ۚ فَبِظُلْمٍ مِّنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا حَرَّمْنَا عَلَيْهِمْ طَيِّبٰتٍ اُحِلَّتْ لَهُمْ وَبِصَدِّهِمْ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ كَثِيْرًا ١٦٠؀ۙ وَّاَخْذِهِمُ الرِّبٰوا وَقَدْ نُھُوْا عَنْهُ وَاَ كْلِهِمْ اَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ ۭوَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ مِنْهُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا     ١٦١؁ لٰكِنِ الرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ مِنْهُمْ وَالْمُؤْمِنُوْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ وَالْمُقِيْمِيْنَ الصَّلٰوةَ وَالْمُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَالْمُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ اُولٰۗىِٕكَ سَنُؤْتِيْهِمْ اَجْرًا عَظِيْمًا      ١٦٢؀ۧ

आयत 153

“(ऐ नबी !) अहले किताब आप से यह मुतालबा कर रहे हैं कि आप उन पर एक किताब आसमान से उतार लायें”يَسْــَٔــلُكَ اَهْلُ الْكِتٰبِ اَنْ تُنَزِّلَ عَلَيْهِمْ كِتٰبًا مِّنَ السَّمَاۗءِ

यानि जैसे तौरात उतरी थी, वैसे ही तहरीरी शक्ल में एक किताब आसमान से उतरनी चाहिये। आप ﷺ तो कहते हैं मुझ पर वही आती है, लेकिन कहाँ लिखी हुई है वह वही? कौन लाया है? हमें तो पता नहीं। मूसा (अलै०) को तो उनकी किताब लिखी हुई मिली थी और वह पत्थर की तख्तियों की सूरत में उसे लेकर आये थे। आप ﷺ पर भी इसी तरह की किताब नाज़िल हो तो हम मानें।

“(यह तअज्जुब की बात नहीं) इन्होंने मूसा (अलै०) से इससे भी बढ़ कर मुतालबे किये थे”فَقَدْ سَاَلُوْا مُوْسٰٓى اَكْبَرَ مِنْ ذٰلِكَ

ऐ नबी ﷺ आप फ़िक्र ना करें, इनकी परवाह ना करें। इन्होंने, इनके आबा व अजदाद ने हज़रत मूसा (अलै०) से इससे भी बड़े-बड़े मुतालबात किये थे।

“उन्होंने तो (उनसे यह भी) कहा था कि हमें दिखाओ अल्लाह को ऐलानिया”فَقَالُوْٓا اَرِنَا اللّٰهَ جَهْرَةً

कि हम ख़ुद अपनी आँखों से उसे देखना चाहते हैं, जब देखेंगे तब मानेंगे।

“तो उनको आ पकड़ा था कड़क ने उनके इस गुनाह की पादाश में।”فَاَخَذَتْهُمُ الصّٰعِقَةُ بِظُلْمِهِمْ ۚ
“फिर उन्होंने बछड़े को मअबूद बना लिया इसके बाद कि उनके पास बहुत वाज़ेह निशानियाँ आ चुकी थीं”ثُمَّ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ

उन लोगों की नाहंजारी का अंदाज़ा करें कि नौ-नौ मौअज्जज़े हज़रत मूसा (अलै०) के हाथों देखने के बाद भी उन्होंने बछड़े की परस्तिश शुरू कर दी।

“तो हमने इन तमाम चीज़ों से भी दरगुज़र किया, और हमने मूसा (अलै०) को अता किया बड़ा वाज़ेह गलबा।”فَعَفَوْنَا عَنْ ذٰلِكَ ۚ وَاٰتَيْنَا مُوْسٰى سُلْطٰنًا مُّبِيْنًا      ١٥٣؁

फ़िरऔन और उसके लाव-लश्कर को उनकी आँखों के सामने गर्क़ कर दिया।

आयत 154

“और हमने उनके सरों पर मुअल्लक़ कर दिया था तूर पहाड़ को जबकि उनसे अहद लिया जा रहा था और हमने उनसे कहा कि दरवाज़े में दाख़िल हों झुक कर”وَرَفَعْنَا فَوْقَھُمُ الطُّوْرَ بِمِيْثَاقِهِمْ وَقُلْنَا لَهُمُ ادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا

यानि जब अरीहा (Jericho) शहर तुम्हारे हाथों फ़तह हो जाये और उसमें दाख़िल होने का मरहला आये तो अपने सरों को झुका कर आजिज़ी के साथ दाख़िल होना।

“और हमने उनसे (यह भी) कहा था कि सब्त (हफ़्ते के दिन के क़ानून) में हद से तजावुज़ ना करना”وَّقُلْنَا لَهُمْ لَا تَعْدُوْا فِي السَّبْتِ
“और हमने उनसे (इन तमाम बातों के बारे में) बड़े गाढ़े क़ौल व क़रार लिये थे।”وَاَخَذْنَا مِنْهُمْ مِّيْثَاقًا غَلِيْظًا     ١٥٤؁

आयत 155

“तो उन्होंने जो अपने इस मीसाक़ को तोड़ डाला इसके सबब”فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ

अब उनके जराइम (जुर्मों) की फ़ेहरिस्त आ रही है, और यूँ समझिये कि मुब्तदा ही की तकरार हो रही है और इसमें जो असल ख़बर है वह गोया महज़ूफ़ है। गोया बात यूँ बनेगी:  فَبِمَا نَقْضِهِمْ مِّيْثَاقَهُمْ لَعَنّٰھُمْकि उन्होंने जो अपने मीसाक़ को तोडा और तोड़ते रहे, हमारे साथ उन्होंने जो भी वादे किये थे, जब उनका पास (guard) उन्होंने ना किया तो हमने उन पर लानत कर दी। लेकिन यह “لَعَنّٰھُمْ” इतनी वाज़ेह बात थी कि इसको कहने की ज़रूरत महसूस नहीं की गयी, बल्कि उनके जराइम की फ़ेहरिस्त बयान कर दी गयी।

“और उनके अल्लाह की आयात के इन्कार और अम्बिया को नाहक़ क़त्ल करने (के सबब)”وَكُفْرِهِمْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَقَتْلِهِمُ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ
“और उनके इस तरह कहने (की पादाश) में कि हमारे दिल तो गिलाफ़ों में बंद हैं। बल्कि (हक़ीक़त यह है कि) अल्लाह ने उन (के दिलों) पर मोहर कर दी है उनके कुफ़्र के बाइस, पस अब वह ईमान नहीं लायेंगे मगर बहुत ही शाज़।”وَّقَوْلِهِمْ قُلُوْبُنَا غُلْفٌ ۭ بَلْ طَبَعَ اللّٰهُ عَلَيْهَا بِكُفْرِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْنَ اِلَّا قَلِيْلًا     ١٥٥؀۠

आयत 156

“और बसबब उनके कुफ़्र के और उन बातों के जो उन्होंने मरयम के ख़िलाफ़ कीं एक बहुत बड़े बोहतान के तौर पर।”وَّبِكُفْرِهِمْ وَقَوْلِهِمْ عَلٰي مَرْيَمَ بُهْتَانًا عَظِيْمًا     ١٥٦؀ۙ

हज़रत मरयम सलामुन अलैहा पर यहूदियों ने बोहतान लगाया कि उन्होंने (माज़ अल्लाह) ज़िना किया है और मसीह (अलै०) दरअसल युसुफ़ नज्जार का बेटा है। उनकी रिवायात के मुताबिक़ युसुफ़ नज्जार के साथ हज़रत मरयम की निस्बत हो चुकी थी, लेकिन अभी रुख्सती नहीं हुई थी कि उनके माबैन ताल्लुक़ क़ायम हो गया, जिसके नतीजे में यह बेटा पैदा हो गया। इस तरह उन्होंने हज़रत मसीह (अलै०) को वलदुज्ज़िना क़रार दिया। यह है वह इतनी बड़ी बात जो यहूदी कहते हैं और आज भी इस गुमराहकुन नज़रिये पर मब्नी “Son of Man” जैसी फ़िल्में बना कर अमेरिका में चलाते हैं, जिनमें ईसाईयों को बताया जाता है कि जिस मसीह को तुम लोग Son of God कहते हो वह हक़ीक़त में Son of Man है।

आयत 157

“और बसबब उनके यह कहने के कि हमने क़त्ल किया मसीह ईसा इब्ने मरयम को, अल्लाह के रसूल को!”وَّقَوْلِهِمْ اِنَّا قَتَلْنَا الْمَسِيْحَ عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ رَسُوْلَ اللّٰهِ ۚ

यानि अल्लाह के रसूल को क़त्ल कर दिया! यहाँ यह “رَسُوْلَ اللّٰهِ” के अल्फ़ाज़ उनके नहीं हैं, बल्कि यह अल्लाह की तरफ़ से हैं इस्तेजाबिया निशान (sign of exclamation) के साथ, कि अच्छा उनका दावा यह है कि उन्होंने अल्लाह के रसूल को क़त्ल किया है! जबकि रसूल तो क़त्ल हो ही नहीं सकता। अल्लाह का तो फ़ैसला है, एक तयशुदा अम्र है, अल्लाह की तरफ़ से लिखा हुआ है कि मैं और मेरे रसूल ग़ालिब आकर रहेंगे { كَتَبَ اللّٰهُ لَاَغْلِبَنَّ اَنَا وَرُسُلِيْ ۭ} (अल मुजादला:21) तो उनकी यह जुर्रात कि वह समझते हैं कि उन्होंने अल्लाह के रसूल को क़त्ल किया है!

“हालाँकि ना तो उन्होंने उसे क़त्ल किया और ना ही उसे सूली दी, बल्कि उसकी शबीहा (image) बना दी गयी उनके लिये।”وَمَا قَتَلُوْهُ وَمَا صَلَبُوْهُ وَلٰكِنْ شُبِّهَ لَهُمْ ۭ

मामला उनके लिये मुशतबा (संदिग्ध) कर दिया गया और एक शख्स की हज़रत मसीह अलै० जैसी सूरत बना दी गयी, उनके साथ मुशाबिहत कर दी गयी। चुनाँचे उन्होंने जिसको मसीह समझ कर सूली पर चढ़ाया, वह मसीह अलै० नहीं था, उनकी जगह कोई और था। इन्जील बरनबास से मालूम होता है कि उस शख्स का नाम “यहूदा इस्केरियोट” (Judas Iscariot) था और वह आप (अलै०) के हवारियों में से था, वैसे उसकी नीयत कुछ और थी, उसमें बदनीयती बहरहाल नहीं थी (तफ़सील का यहाँ मौक़ा नहीं है) लेकिन चूँकि उसने आप (अलै०) को गिरफ़्तार कराया था, चुनाँचे इस गुस्ताखी की पादाश में अल्लाह तआला ने उसकी शक्ल हज़रत मसीह (अलै०) जैसी बना दी और हज़रत मसीह (अलै०) की जगह वह पकड़ा गया और सूली चढ़ा दिया गया।

“और जो लोग उसके बारे में इख्तिलाफ़ में पड़े हुए हैं वह यक़ीनन शुक़ूक व शुबहात में हैं।”وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِيْهِ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْهُ  ۭ

उन्हें ख़ुद पता नहीं कि क्या हुआ? कैसे हुआ?

“उनके पास इस ज़िमन में कोई इल्म नहीं है सिवाय इसके कि गुमान की पैरवी कर रहे हैं, और यह बात यक़ीनी है कि उन्होंने उसे क़त्ल नहीं किया।”مَا لَهُمْ بِهٖ مِنْ عِلْمٍ اِلَّا اتِّبَاعَ الظَّنِّ ۚ وَمَا قَتَلُوْهُ يَقِيْنًۢا   ١٥٧؀ۙ

हज़रत मसीह अलै० हरगिज़ क़त्ल नहीं हुए और ना ही आप अलै० को सलैब पर चढ़ाया गया।

आयत 158

“बल्कि अल्लाह ने उसे उठा लिया अपनी तरफ़, और अल्लाह तआला ज़बरदस्त है कमाले हिकमत वाला।”بَلْ رَّفَعَهُ اللّٰهُ اِلَيْهِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِـيْمًا     ١٥٨؁

इस वाक़्ये की तफ़सील इन्जील बरनबास में मौजूद है।

आयत 159

“और नहीं होगा अहले किताब में से कोई भी मगर उस पर ईमान लाकर रहेगा उसकी मौत से क़ब्ल।”وَاِنْ مِّنْ اَهْلِ الْكِتٰبِ اِلَّا لَيُؤْمِنَنَّ بِهٖ قَبْلَ مَوْتِهٖ ۚ

यानि हज़रत मसीह अलै० फ़ौत नहीं हुए, ज़िन्दा हैं, उन्हें आसमान पर उठा लिया गया था और वह दोबारा ज़मीन पर आएंगे, और जब आएंगे तो अहले किताब में से कोई शख्स नहीं रहेगा कि जो उन पर ईमान ना ले आये।

“और क़यामत के दिन वही उनके ख़िलाफ़ गवाह (बन कर खड़ा) होगा।” وَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يَكُوْنُ عَلَيْهِمْ شَهِيْدًا     ١٥٩؀ۚ

यह गवाही वाला मामला वही है जिसकी तफ़सील हम आयत 41 में पढ़ आये हैं: {فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا }। कि हर नबी को अपनी उम्मत के ख़िलाफ़ गवाही देनी है। लिहाज़ा हज़रत मसीह अलै० अपनी उम्मत के ख़िलाफ़ गवाही देंगे।

आयत 160

“तो बसबब उन यहूदी बन जाने वालों की ज़ालिमाना रविश के हमने उन पर वह पाकीज़ा चीज़ें भी हराम कर दीं जो असलन उनके लिये हलाल थीं”فَبِظُلْمٍ مِّنَ الَّذِيْنَ هَادُوْا حَرَّمْنَا عَلَيْهِمْ طَيِّبٰتٍ اُحِلَّتْ لَهُمْ

अल्लाह तआला की एक सुन्नत यह भी है कि कोई क़ौम अगर किसी मामले में हद से गुज़रती है तो सज़ा के तौर पर उसे हलाल चीज़ों से भी महरूम कर दिया जाता है। यहाँ पर यही उसूल बयान हो रहा है। मसलन अगर याक़ूब अलै० ने ऊँट का गोश्त खाना छोड़ दिया था तो अल्लाह तआला ने तौरात में इसकी सराहत नहीं की कि यह हराम नहीं है, यह तो महज़ तुम्हारे नबी (अलै०) का बिल्कुल ज़ाती क़िस्म का फ़ैसला है, बल्कि अल्लाह ने कहा कि ठीक है, इनकी यही सज़ा है कि इन पर तंगी रहे और इस तरह इनके करतूतों की सज़ा के तौर पर हलाल चीज़ें भी उन पर हराम कर दीं।

“और बसबब इसके कि यह बकसरत अल्लाह के रास्ते से (ख़ुद रुकते हैं और दूसरों को भी) रोकते हैं।”وَبِصَدِّهِمْ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ كَثِيْرًا     ١٦٠؀ۙ

यह लोग अल्लाह के रास्ते से ख़ुद भी रुकते हैं और दूसरे लोगों को भी रोकते हैं। तो इस वजह से अल्लाह तआला ने इनको सज़ा दी और इन पर बाज़ हलाल चीज़ें भी हराम कर दीं।

आयत 161

“और बसबब उनके सूद खाने के जबकि इससे उन्हें मना किया गया था”وَّاَخْذِهِمُ الرِّبٰوا وَقَدْ نُھُوْا عَنْهُ

शरीअते मूसवी में सूद हराम था, आज भी हराम है, लेकिन उन्होंने इस हुक्म का अपना एक मनपसंद मफ़हूम निकाल लिया, जिसके मुताबिक़ यहूदियों का आपस में सूद का लेन-देन तो हराम है, कोई यहूदी दूसरे यहूदी से सूदी लेन-देन नहीं कर सकता, लेकिन गैर यहूदी से सूद लेना जायज़ है, क्योंकि वह उनके नज़दीक Gentiles और Goyems हैं, इन्सान नुमा हैवान हैं, जिनसे फ़ायदा उठाना और उनका इस्तेहसाल करना उनका हक़ है। हम सूरह आले इमरान (आयत:75) में यहूद का यह क़ौल पढ़ चुके हैं: {لَيْسَ عَلَيْنَا فِي الْاُمِّيّٖنَ سَبِيْلٌ ۚ } कि इन उम्मिय्यीन के बारे में हम पर कोई गिरफ़्त है ही नहीं, कोई ज़िम्मेदारी है ही नहीं। हम जैसे चाहें लूट-मार करें, जिस तरह चाहें इन्हें धोखा दें, हम पर कोई मुआखज़ा नहीं। लिहाज़ा सूद खाने में उनके यहाँ अमूमी तौर पर कोई क़बाहत नहीं है।

“और बसबब उनके लोगों के माल नाहक़ हड़प करने के।”وَاَ كْلِهِمْ اَمْوَالَ النَّاسِ بِالْبَاطِلِ ۭ
“और उनमें से जो काफ़िर हैं उनके लिये हमने बहुत दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।”وَاَعْتَدْنَا لِلْكٰفِرِيْنَ مِنْهُمْ عَذَابًا اَلِـــيْمًا     ١٦١؁

आयत 162

“अलबत्ता जो लोग उनमें से पुख्ता इल्म वाले हैं और अहले ईमान हैं”لٰكِنِ الرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ مِنْهُمْ وَالْمُؤْمِنُوْنَ

यानि यहूद में से अहले इल्म लोग जैसे अब्दुल्लाह बिन सलाम (अलै०) और ऐसे ही रास्तबाज़ लोग जिन्होंने तौरात के इल्म की बिना पर नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ की तस्दीक़ की और आप ﷺ पर ईमान लाये।

“वह ईमान रखते हैं उस पर जो (ऐ नबी ) आप पर नाज़िल किया गया और उस पर भी जो आप से पहले नाज़िल किया गया”يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ
“और वह नमाज़ क़ायम करने वाले हैं, ज़कात अदा करने वाले हैं, और ईमान रखने वाले हैं अल्लाह पर भी और यौमे आख़िरत पर भी”وَالْمُقِيْمِيْنَ الصَّلٰوةَ وَالْمُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَالْمُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ
“यह वह लोग हैं जिन्हें हम ज़रूर अज्रे अज़ीम अता फ़रमाएंगे।”اُولٰۗىِٕكَ سَنُؤْتِيْهِمْ اَجْرًا عَظِيْمًا      ١٦٢؀ۧ

इन आयात में अभी भी थोड़ी सी गुंजाइश रखी जा रही है कि अहले किताब में से कोई ऐसा अन्सर (तत्व) अगर अब भी मौजूद हो जो हक़ की तरफ़ माइल हो, अब भी अगर कोई सलीमुल फ़ितरत फ़र्द कहीं कोने खुदरे में पड़ा हो, अगर इस कान में हीरे का कोई टुकड़ा कहीं अभी तक पड़ा रह गया हो, तो वह भी निकल आये इससे पहले कि आखरी दरवाज़ा भी बंद कर दिया जाये। तो अभी आखरी दरवाज़ा ना तो मुनाफ़िक़ीन पर बंद किया गया है और ना इन अहले किताब पर, बल्कि  لٰكِنِ الرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ  फ़रमा कर एक दफ़ा फिर सिलाये आम दे दी गयी है कि अहले किताब में से अब भी अगर कुछ लोग माइल बाहक़ हैं तो वह मुतवज्ज हो जायें।

आयत 163 से 169 तक

اِنَّآ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ كَمَآ اَوْحَيْنَآ اِلٰي نُوْحٍ وَّالنَّـبِيّٖنَ مِنْۢ بَعْدِهٖ  ۚ  وَاَوْحَيْنَآ اِلٰٓي اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَعِيْسٰى وَاَيُّوْبَ وَيُوْنُسَ وَهٰرُوْنَ وَسُلَيْمٰنَ ۚ وَاٰتَيْنَا دَاوٗدَ زَبُوْرًا     ١٦٣؀ۚ وَرُسُلًا قَدْ قَصَصْنٰهُمْ عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ وَرُسُلًا لَّمْ نَقْصُصْهُمْ عَلَيْكَ  ۭ وَكَلَّمَ اللّٰهُ مُوْسٰى تَكْلِــيْمًا     ١٦٤؀ۚ رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَي اللّٰهِ حُجَّــةٌۢ بَعْدَ الرُّسُلِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا    ١٦٥؁ لٰكِنِ اللّٰهُ يَشْهَدُ بِمَآ اَنْزَلَ اِلَيْكَ اَنْزَلَهٗ بِعِلْمِهٖ ۚ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ يَشْهَدُوْنَ ۭوَكَفٰي بِاللّٰهِ شَهِيْدًا     ١٦٦؀ۭ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ قَدْ ضَلُّوْا ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا     ١٦٧؁ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَظَلَمُوْا لَمْ يَكُنِ اللّٰهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلَا لِيَهْدِيَهُمْ طَرِيْقًا    ١٦٨؀ۙ اِلَّا طَرِيْقَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۭوَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ يَسِيْرًا     ١٦٩؁

इस रुकूअ के शुरू में अम्बिया और रसूलों के नामों का एक ख़ूबसूरत गुलदस्ता नज़र आता है। क़ुरान पाक में मुतअद्दिद (कईं) ऐसे मक़ामात हैं जहाँ ऐसे गुलदस्ते ख़ूबसूरती से सजाये गये हैं। यहाँ आपको पे-बा-पे अम्बिया और रसूलों के नाम मिलेंगे और फिर उनमें से बाज़ की इज़ाफ़ी शानों का ज़िक्र भी मिलेगा। इसके बाद फ़लसफ़ा-ए-क़ुरान के ऐतबार से एक बहुत अहम आयत भी आयेगी, जिसमें नबुवत का बुनियादी मक़सद और असासी फ़लसफ़ा बयान किया गया है।

आयत 163

“(ऐ नबी ) हमने आप की जानिब भी वही की है जैसे हमने नूह (अलै०) और उनके बाद बहुत से अम्बिया पर वही की थी।”اِنَّآ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ كَمَآ اَوْحَيْنَآ اِلٰي نُوْحٍ وَّالنَّـبِيّٖنَ مِنْۢ بَعْدِهٖ  ۚ 
“और हमने इब्राहीम (अलै०), इस्माइल (अलै०), इस्हाक़ (अलै०), याक़ूब (अलै०) और उनकी औलाद की तरफ़ भी वही की”وَاَوْحَيْنَآ اِلٰٓي اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ
“और ईसा (अलै०), अय्यूब (अलै०), युनुस (अलै०), हारुन (अलै०) और सुलेमान (अलै०) की तरफ़ (भी वही की)। और दाऊद (अलै०) को तो हमने ज़बूर (जैसी किताब) अता फ़रमायी।”وَعِيْسٰى وَاَيُّوْبَ وَيُوْنُسَ وَهٰرُوْنَ وَسُلَيْمٰنَ ۚ وَاٰتَيْنَا دَاوٗدَ زَبُوْرًا     ١٦٣؀ۚ

आयत 164

“और (भेजे) वह रसूल जिनका हम इससे पहले आप के सामने तज़किरा कर चुके हैं और ऐसे रसूल (भी) जिनके हालात हमने आप के सामने बयान नहीं किये”وَرُسُلًا قَدْ قَصَصْنٰهُمْ عَلَيْكَ مِنْ قَبْلُ وَرُسُلًا لَّمْ نَقْصُصْهُمْ عَلَيْكَ  ۭ

पूरी दुनिया की तारीख बयान करना तो क़ुरान मजीद का मक़सद नहीं है कि तमाम अम्बिया व रुसुल (अलै०) की मुकम्मल फ़ेहरिस्त दे दी जाती। यह तो किताबे हिदायत है, तारीख की किताब नहीं है।

“और मूसा अलै० से तो कलाम किया अल्लाह ने जैसा कि कलाम किया जाता है।”وَكَلَّمَ اللّٰهُ مُوْسٰى تَكْلِــيْمًا     ١٦٤؀ۚ

यह ख़ास हज़रत मूसा अलै० की इम्तियाज़ी शान बयान हुई है। लेकिन यह मुकलमा “مِنْ وَرَآءِ حِجَابٍ” था, यानि परदे के पीछे से, अलबत्ता था दू-बर-दू कलाम। अब इसके बाद वह आयत आ रही है जिसमें नबुवत का असासी मक़सद (basic purpose) बयान हुआ है कि यह तमाम रसूल (अलै०) किस लिये भेजे गये थे।

आयत 165

“यह रसूल अलै० (भेजे गये) बशारत देने वाले और ख़बरदार करने वाले बना कर”رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ
“ताकि ना रह जाये लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हुज्जत (दलील) रसूलों के आने के बाद।”لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَي اللّٰهِ حُجَّــةٌۢ بَعْدَ الرُّسُلِ ۭ

यहाँ पर एक तरफ़ لِلنَّاسِ का “ل” नोट कीजिये और दूसरी तरफ عَلَي اللّٰهِ का “عَلَي”। यह दोनों हुरूफ़ मुतज़ाद (विपरीत) मायने पैदा कर रहे हैं। لِلنَّاسِ के मायने हैं लोगों के हक़ में हुज्जत, जबकि عَلَي اللّٰهِ के मायने हैं अल्लाह के ख़िलाफ़ हुज्जत।

“और अल्लाह ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا    ١٦٥؁

अब आप आख़िरत के अहतसाब के फ़लसफ़े को समझिये। क़यामत के दिन हर किसी का इम्तिहान होगा और इम्तिहान से फिर नतीजे निकलेंगे, कोई पास होगा और कोई फ़ेल। लेकिन इम्तिहान से पहले कुछ पढ़ाया जाना भी ज़रूरी है, किसी को जाँचने से पहले उसे कुछ दिया भी जाता है। चुनाँचे हमें देखना है कि क़यामत के इम्तिहान के लिये हमें क्या पढ़ाया गया है? इस आखरी जाँच पड़ताल से पहले हमें क्या कुछ दिया गया है? क़ुरान मजीद के बुनियादी फ़लसफ़े के मुताबिक़ अल्लाह तआला ने इन्सान को समअ, बसर और अक़्ल तीन बड़ी चीज़ें दी हैं। फिर अल्लाह तआला ने इन्सान के अन्दर रूह भी वदीयत की है और नफ्से इंसानी में खैर और शर का इल्म भी रखा है। इन बातों की बिना पर इन्सान वही-ए-इलाही की रहनुमाई के बगैर भी अल्लाह के हुज़ूर जवाबदेह (accountable) है कि जब तुम्हारी फ़ितरत में नेकी और बदी की तमीज़ रख दी गयी थी तो तुम बदी की तरफ़ क्यों गये? तो गोया अगर कोई नबी या रसूल ना भी आता, कोई किताब नाज़िल ना भी होती, तब भी अल्लाह तआला की तरफ़ से मुहासबा नाहक़ नहीं था। इसलिये कि वह बुनियादी चीज़ें जो इम्तिहान और अहतसाब के लिये ज़रूरी थीं वह अल्लाह तआला इन्सान को दे चुका था। अलबत्ता अल्लाह तआला की सुन्नत यह रही है कि वह फिर भी इंसानों पर इत्मामे हुज्जत करता है। अब हमने यह देखना है कि हुज्जत क्या है? बुनियादी हुज्जत तो अक़्ल है जो अल्लाह ने हमें दे रखी है: { اِنَّ السَّمْعَ وَالْبَصَرَ وَالْفُؤَادَ كُلُّ اُولٰۗىِٕكَ كَانَ عَنْهُ مَسْــــُٔــوْلًا} (बनी इसराइल:36) इंसानी नफ्स के अन्दर नेकी और बदी की तमीज़ भी वदीयत कर दी गयी है:  {وَنَفْسٍ وَّمَا سَوّٰىهَا} {فَاَلْهَمَهَا فُجُوْرَهَا وَتَقْوٰىهَا} (अश्शम्श:7-8) फिर इन्सान के अन्दर अल्लाह तआला की तरफ़ से रूह फूँकी गयी है। इन तमाम सलाहियतों और अहलियतों (skills) की बिना पर जवाबदेही (accountability) का जवाज़ बरहक़ है। कोई नबी आता या ना आता, अल्लाह की यह हुज्जत तमाम इंसानों पर बहरहाल क़ायम है।

इसके बावजूद भी अल्लाह तआला ने इत्मामे हुज्जत करने के लिये अपने नबी और रसूल भेजे। यह इज़ाफ़ी शय है कि अल्लाह ने तुम्ही में से कुछ लोगों को चुना, जो बड़े ही आला किरदार के लोग थे। तुम जानते थे कि यह हमारे यहाँ के बेहतरीन लोग हैं, इनके दामने किरदार पर कोई दाग़-धब्बा नहीं है, इनकी सीरत व अख्लाक़ खुली किताब की मानिन्द तुम्हारे सामने थे। इनके पास अल्लाह ने अपनी वही भेजी और वाज़ेह तौर पर बता दिया कि इन्सान को क्या करना है और क्या नहीं करना है। इस तरह उसने तुम्हारे लिये इस इम्तिहान को आसान कर दिया, ताकि अब किसी के पास कोई उज़्र (बहाना) बाक़ी ना रह जाये, कोई यह दलील पेश ना कर सके कि मुझे तो इल्म ही नहीं था। परवरदिगार! मैं तो बेदीन माहौल में पैदा हो गया था, वहाँ सबके सब इसी रंग में रंगे हुए थे। परवरदिगार! मैं तो अपनी दो वक़्त की रोटी के धंधे में ही ऐसा मसरूफ़ रहा कि मुझे कभी होश ही नहीं आया कि दीन व ईमान और अल्लाह व आख़िरत के बारे में सोचता। लेकिन जब रसूल (अलै०) आ जाते हैं और रसूलों के आ जाने के बाद हक़ खुल कर सामने आ जाता है, हक़ व बातिल के दरमियान इम्तियाज़ बिल्कुल वाज़ेह तौर पर क़ायम हो जाता है तो फिर कोई उज़्र बाक़ी नहीं रहता। लोगों के पास अल्लाह के सामने मुहासबे के मुक़ाबले में पेश करने के लिये कोई हुज्जत बाक़ी नहीं रहती। तो यह है इत्मामे हुज्जत का फ़लसफ़ा और तरीक़ा अल्लाह की तरफ़ से।

रसूल (अलै०) इसके अलावा और क्या कर सकते हैं? किसी को ज़बरदस्ती तो हिदायत पर नहीं ला सकते। हाँ जिनके अन्दर अहसास जाग जायेगा वह रसूल (अलै०) की तालीमात की तरफ़ मुतवज्जह होंगे, उनसे फ़ायदा उठाएँगे, सीधे रास्ते पर चलेंगे। उनके लिये अल्लाह के रसूल “मुबश्शिर” होंगे, अल्लाह के फ़ज़ल और जन्नत की नेअमतों की बशारत देने वाले: { فَرَوْحٌ وَّرَيْحَانٌ ڏ وَّجَنَّتُ نَعِيْمٍ } (अल वाक़िया:89)। और जो लोग इसके बाद भी ग़लत रास्तों पर चलते रहेंगे, तअस्सुब में, ज़िद और हठधर्मी में, मफ़ादात के लालच में, अपनी चौधराहटें क़ायम रखने के लालच में, उनके लिये रसूल (अलै०) “नज़ीर” होंगे। उनको ख़बरदार करेंगे कि अब तुम्हारे लिये बदतरीन अंजाम के तौर पर जहन्नम तैयार है। तो रसूलों (अलै०) की बेअसत का बुनियादी मक़सद यही है, यानि तब्शीर और इन्ज़ार।

इस सारी वज़ाहत के बाद अब दोबारा आयत के अल्फ़ाज़ को सामने रखिये: { رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ} “रसूल भेजे गये बशारत देने वाले और ख़बरदार करने वाले बना कर।” यह तब्शीर और इन्ज़ार किस लिये?                       { لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَي اللّٰهِ حُجَّــةٌۢ بَعْدَ الرُّسُلِ ۭ} “ताकि बाक़ी ना रह जाये लोगों के पास अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हुज्जत, कोई उज़्र, कोई बहाना, रसूलों के आने के बाद।” {وَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا} “और अल्लाह ज़बरदस्त है हकीम है।” वह अज़ीज़ है, ग़ालिब है, ज़बरदस्त है, बगैर रसूलों के भी मुहासबा कर सकता है, उसका इख़्तियार मुतलक़ है। लेकिन साथ ही साथ वह हकीम भी है, उसने मुहासबा-ए-उखरवी के लिये यह मब्नी बर हिकमत निज़ाम बनाया है। इस ज़िमन में एक बात और नोट कर लीजिये कि रिसालत का एक तकमीली मक़सद भी है जो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर कामिल हुआ, और वह है रुए अर्ज़ी पर अल्लाह के दीन को ग़ालिब करना। आप ﷺ ने दावत का आगाज़ इसी तब्शीर और इन्ज़ार ही से फ़रमाया, जैसा कि सूरतुल अहज़ाब में इरशाद है:  { يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ شَاهِدًا وَّمُبَشِّرًا وَّنَذِيْرًا } { وَّدَاعِيًا اِلَى اللّٰهِ بِاِذْنِهٖ وَسِرَاجًا مُّنِيْرًا } (आयत 45-46) बहैसियते रसूल ﷺ यह आप ﷺ की रिसालत के बुनियादी मक़सद का इज़हार है, लेकिन इससे बुलन्दतर दर्जे में आपकी रिसालत की तकमीली हैसियत का इज़हार सूरतुत्तौबा:33, सूरह फ़तह:28 और सूरतुस्सफ़:9 में एक जैसे अल्फ़ाज़ में हुआ है: { هُوَ الَّذِيْٓ اَرْسَلَ رَسُوْلَهٗ بِالْهُدٰى وَدِيْنِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهٗ عَلَي الدِّيْنِ كُلِّهٖ ۭ } “वही है (अल्लाह) जिसने भेजा अपने रसूल (मुहम्मद ﷺ) को अल् हुदा (क़ुरान हकीम) और दीने हक़ देकर ताकि वह उसे ग़ालिब कर दे पूरे दीन पर।” तमाम अम्बिया व रुसुल (अलै०) में यह आप ﷺ की इम्तियाज़ी शान है। मेरी किताब “नबी अकरम ﷺ का मक़सदे बेअसत” में इस मौज़ू पर तफ़सील से बहस की गयी है।

आयत 166

“लेकिन अल्लाह गवाह है कि जो कुछ उसने नाज़िल किया है (ऐ नबी ) आप की तरफ़ वह उसने नाज़िल किया है अपने इल्म से, और फ़रिश्ते भी इस पर गवाह हैं, अगरचे अल्लाह (अकेला ही) गवाह होने के ऐतबार से काफ़ी है।”لٰكِنِ اللّٰهُ يَشْهَدُ بِمَآ اَنْزَلَ اِلَيْكَ اَنْزَلَهٗ بِعِلْمِهٖ ۚ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ يَشْهَدُوْنَ ۭوَكَفٰي بِاللّٰهِ شَهِيْدًا     ١٦٦؀ۭ

आयत 167

“बिलाशुबा जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह के रास्ते से रोका (ख़ुद को भी और दूसरों को भी) तो यक़ीनन वह गुमराही में बहुत दूर निकल गये हैं।”اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَصَدُّوْا عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ قَدْ ضَلُّوْا ضَلٰلًۢا بَعِيْدًا     ١٦٧؁

अब आखरी रसूल ﷺ के आने के बाद भी जो लोग कुफ़्र पर अड़े रहे, अल्लाह के रास्ते से रुके रहे और दूसरों को भी रोकते रहे, वह राहे हक़ से बहक गये, भटक गये, और अपने भटकने में, बहकने में, गुमराही में बहुत दूर निकल गये हैं।

आयत 168

“यक़ीनन वह लोग जिन्होंने कुफ़्र किया और ज़ुल्म (शिर्क) के मुरतकिब हुए अल्लाह उन्हें हरगिज़ बख्शने वाला नहीं है, और ना उन्हें किसी रास्ते की हिदायत देगा।”اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَظَلَمُوْا لَمْ يَكُنِ اللّٰهُ لِيَغْفِرَ لَهُمْ وَلَا لِيَهْدِيَهُمْ طَرِيْقًا    ١٦٨؀ۙ

आयत 169

“सिवाय जहन्नम के रास्ते के जिसमें वह हमेशा-हमेश रहेंगे, और यह अल्लाह पर बहुत आसान है।”اِلَّا طَرِيْقَ جَهَنَّمَ خٰلِدِيْنَ فِيْهَآ اَبَدًا ۭوَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ يَسِيْرًا     ١٦٩؁

अब ज़रा इस आयत का तक़ाबुल कीजिये (इस ही सूरह की) आयत 147 के साथ {….مَا يَفْعَلُ اللّٰهُ بِعَذَابِكُمْ} “अल्लाह तुम्हें अज़ाब देकर क्या करेगा….?” यक़ीनन अल्लाह ईज़ा पसंद (sadist) नहीं है, उसे लोगों को अज़ाब देकर ख़ुशी नहीं होगी। लेकिन यह उसका ज़ाब्ता और क़ानून है, इसी पर उसने दुनिया बनाई है, और अपने इसी ज़ाब्ते और क़ानून के ऐन मुताबिक़ वह मुस्तहिक़ीन (लाभार्थियों) को जज़ा व सज़ा देगा। यह उस पर कोई भारी गुज़रने वाली बात नहीं है कि वह अपनी ही मख्लूक़ को सज़ा दे। बाज़ मलंग क़िस्म के सूफ़ी इस तरह की बातें भी करते हैं कि अल्लाह बड़ा रहीम है, क्या वह अपनी ही मख्लूक़ को जहन्नम में झोंक देगा? यह तो ऐसे ही डरावे के लिये, लोगों को राहे रास्त पर लाने के लिये अज़ाब और सज़ा की बातें की गयी हैं। जैसे बाप बच्चों को डाँटता है मैं तेरी हड्डियाँ तोड़ दूँगा, माँ कहती है मैं तेरा क़ीमा कर दूँगी। तो क्या वह सचमुच अपने बच्चों का क़ीमा कर देगी? लिहाज़ा यह तो सिर्फ़ डरावा है, हक़ीक़त में ऐसा नहीं होगा, वगैरह-वगैरह। इस तरह के ख्यालात व नज़रियात गुमराहकुन हैं। माँ के लिये तो अपने बच्चे को बड़े से बड़े क़ुसूर पर भी आग में डालना मुमकिन नहीं है, मगर अल्लाह तआला ने फ़रमाया है: {وَكَانَ ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ يَسِيْرًا} अल्लाह के लिये यह बहुत आसान है, बहुत हल्की बात है।

आयत 170 से 175 तक

يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمُ الرَّسُوْلُ بِالْحَقِّ مِنْ رَّبِّكُمْ فَاٰمِنُوْا خَيْرًا لَّكُمْ ۭ وَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا     ١٧٠؁ يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ وَلَا تَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّ ۭاِنَّمَا الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُوْلُ اللّٰهِ وَكَلِمَتُهٗ ۚ اَلْقٰىهَآ اِلٰي مَرْيَمَ وَرُوْحٌ مِّنْهُ  ۡ فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ  ڟ وَلَا تَقُوْلُوْا ثَلٰثَةٌ  ۭاِنْتَھُوْا خَيْرًا لَّكُمْ ۭاِنَّمَا اللّٰهُ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۭسُبْحٰنَهٗٓ اَنْ يَّكُوْنَ لَهٗ وَلَدٌ  ۘ لَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭوَكَفٰي بِاللّٰهِ وَكِيْلًا   ١٧١؀ۧ لَنْ يَّسْتَنْكِفَ الْمَسِيْحُ اَنْ يَّكُوْنَ عَبْدًا لِّلّٰهِ وَلَا الْمَلٰۗىِٕكَةُ الْمُقَرَّبُوْنَ ۭوَمَنْ يَّسْتَنْكِفْ عَنْ عِبَادَتِهٖ وَيَسْتَكْبِرْ فَسَيَحْشُرُهُمْ اِلَيْهِ جَمِيْعًا     ١٧٢؁ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ وَيَزِيْدُهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖ ۚ وَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْتَنْكَفُوْا وَاسْتَكْبَرُوْا فَيُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا اَلِــيْمًا  ۥۙ وَّلَا يَجِدُوْنَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا     ١٧٣؁ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمْ بُرْهَانٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكُمْ نُوْرًا مُّبِيْنًا     ١٧٤؁ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَاعْتَصَمُوْا بِهٖ فَسَـيُدْخِلُهُمْ فِيْ رَحْمَةٍ مِّنْهُ وَفَضْلٍ ۙ وَّيَهْدِيْهِمْ اِلَيْهِ صِرَاطًا مُّسْتَــقِيْمًا    ١٧٥؀ۭ

अब अगली आयात एक तरह से इस सूरह का “हर्फ़े आख़िर” हैं।

आयत 170

“ऐ लोगो! तुम्हारे पास आ चुका है रसूल हक़ के साथ, तो अब तुम ईमान ले आओ, यही तुम्हारे लिये बेहतर है।”يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمُ الرَّسُوْلُ بِالْحَقِّ مِنْ رَّبِّكُمْ فَاٰمِنُوْا خَيْرًا لَّكُمْ ۭ

बल्कि आखरी अल्फ़ाज़ का सही तर तर्जुमा यह होगा कि “ईमान ले आओ, इसी में तुम्हारी खैरियत है।” इस आयत के एक-एक लफ्ज़ में बहुत ज़ोर और जलाल है और अब बात बिल्कुल दो टूक अंदाज़ और हत्मी तौर पर की जा रही है। यानि अब तुम यह नहीं कह सकते कि अल्लाह की तरफ़ से कोई रहनुमाई नहीं की गयी, हमें कुछ पता नहीं था, हम पर बात वाज़ेह नहीं हुई थी। हमारे आखरी नबी ﷺ के आ जाने के बाद तुम्हारा यह बहाना अब ख़त्म हो गया।

“और अगर तुम लोग कुफ़्र पर अड़े रहोगे तो (अल्लाह का क्या बिगाड़ लोगे?) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है वह अल्लाह ही का है, और अल्लाह अलीम भी है, हकीम भी।”وَاِنْ تَكْفُرُوْا فَاِنَّ لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَلِــيْمًا حَكِـيْمًا     ١٧٠؁

आगे अहले किताब से जो ख़िताब है उसके मुख़ातिब ख़ास तौर पर ईसाई हैं, जो हज़रत मसीह (अलै०) की अक़ीदत व मोहब्बत में हद से गुज़र गये थे।

आयत 171

“ऐ अहले किताब, अपने दीन में गुलु (मुबालग़ा) ना करो, और अल्लाह की तरफ़ कोई शय मंसूब ना करो सिवाय उसके जो हक़ हो।”يٰٓاَهْلَ الْكِتٰبِ لَا تَغْلُوْا فِيْ دِيْنِكُمْ وَلَا تَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّ ۭ

तुम आपस के मामलात में तो झूठ बोलते ही हो, मगर अल्लाह के बारे में झूठ गढ़ना, झूठ बोल कर अल्लाह पर उसे थोपना कि अल्लाह का यह हुक्म है, अल्लाह ने यूँ कहा है, यह तो वही बात हुई: बाज़ी-बाज़ी बारीशे बाबा हम बाज़ी!

“देखो मसीह ईसा (अलै०) इब्ने मरयम तो बस अल्लाह के रसूल (अलै०) थे”اِنَّمَا الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ رَسُوْلُ اللّٰهِ

वह अल्लाह की तरफ़ से भेजे गये एक रसूल (अलै०) थे और बस! उलूहियत (divinity) में उनका कोई हिस्सा नहीं है, वह ख़ुदा के बेटे नहीं हैं।

“और वह उसका एक कलमा थे, जो उसने इल्क़ा किया मरयम (अलै०) पर और एक रूह थे उसकी तरफ़ से”وَكَلِمَتُهٗ ۚ اَلْقٰىهَآ اِلٰي مَرْيَمَ وَرُوْحٌ مِّنْهُ  ۡ

यानि हज़रत मरयम (अलै०) के रहम में जो हमल हुआ था वह अल्लाह के कलमा-ए-कुन के तुफ़ैल हुआ। बच्चे की पैदाइश के तबई अमल में एक हिस्सा बाप का होता है और एक माँ का। अब हज़रत मसीह (अलै०) की विलादत में माँ का हिस्सा तो पूरा मौजूद है। हज़रत मरयम (अलै०) को हमल हुआ, नौ महीने आप (अलै०) रहम में रहे, लेकिन यहाँ बाप वाला हिस्सा बिल्कुल नहीं है और बाप के बगैर ही आप (अलै०) की पैदाइश मुमकिन हुई। ऐसे मामलात में जहाँ अल्लाह की मशीयत से एक लगे-बंधे तबई अमल में से अगर कोई कड़ी अपनी जगह से हटाई जाती है तो वहाँ पर अल्लाह का मख़सूस अम्र कलमा-ए-कुन की सूरत में किफ़ायत करता है। यहाँ पर अल्लाह के “कलमे” का यही मफ़हूम है।

जहाँ तक हज़रत मसीह (अलै०) “رُوْحٌ مِّنْهُ” क़रार देने का ताल्लुक़ है तो अगरचे सब इंसानों की रूह अल्लाह ही की तरफ़ से है, लेकिन तमाम रूहें एक जैसी नहीं होतीं। बाज़ रूहों के बड़े-बड़े ऊँचे मरातिब होते हैं। ज़रा तसव्वुर करें रूहे मुहम्मदी ﷺ की शान और अज़मत क्या होगी! रूहे मुहम्मदी ﷺ को आम तौर पर हमारे उलमा “नूरे मुहम्मदी ﷺ” कहते हैं। इसलिये कि रूह एक नूरानी शय है। मलाइका भी नूर से पैदा हुए हैं और इंसानी अरवाह भी नूर से पैदा हुई हैं। लेकिन सब इंसानों की अरवाह बराबर नहीं हैं। हुज़ूर ﷺ की रूह की अपनी एक शान है। इसी तरह हज़रत ईसा (अलै०) की रूह की अपनी एक शान है।

“पस ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूलों पर, और तसलीस (तीन ख़ुदाओं) का दावा मत करो।”فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرُسُلِهٖ  ڟ وَلَا تَقُوْلُوْا ثَلٰثَةٌ  ۭ
“बाज़ आ जाओ, इसी में तुम्हारी बेहतरी (खैरियत) है।”اِنْتَھُوْا خَيْرًا لَّكُمْ ۭ

यह मत कहो कि उलूहियत तीन में है। एक में तीन और तीन में एक का अक़ीदा मत गढ़ो।

“जान लो कि अल्लाह तो बस एक ही है इलाहे वाहिद है, वह इससे पाक है कि उसका कोई बेटा हो।”اِنَّمَا اللّٰهُ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۭسُبْحٰنَهٗٓ اَنْ يَّكُوْنَ لَهٗ وَلَدٌ  ۘ
“आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है सब कुछ उसी का है, और अल्लाह काफ़ी है बतौरे कारसाज़।”لَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭوَكَفٰي بِاللّٰهِ وَكِيْلًا     ١٧١؀ۧ

आयत 172

“मसीह (अलै०) को तो इसमें हरगिज़ कोई आर (घृणा) नहीं है कि वह बने अल्लाह का बंदा और ना ही मलाइका-ए-मुक़र्रबीन को इसमें कोई आर है (कि उन्हें अल्लाह का बंदा समझा जाये)।”لَنْ يَّسْتَنْكِفَ الْمَسِيْحُ اَنْ يَّكُوْنَ عَبْدًا لِّلّٰهِ وَلَا الْمَلٰۗىِٕكَةُ الْمُقَرَّبُوْنَ ۭ

मसीह अलै० को तो अल्लाह का बंदा होने में अपनी शान महसूस होगी। जैसे हम भी हुज़ूर ﷺ के बारे में कहते हैं: وَنَشْھَدُ اَنَّ مُحَمَّدًا عَبْدُہٗ وَ رَسُوْلُہٗ। तो अबदियत की शान तो बहुत बुलन्द व बाला है, रिसालत से भी आला और अरफ़ा। (यह एक अलैहदा मज़मून है, जिसकी तफ़सील का यह मौक़ा नहीं है।) चुनाँचे हज़रत मसीह अलै० के लिये यह कोई आर की बात नहीं है कि वह अल्लाह के बन्दे हैं।

“और जो कोई भी आर समझेगा उसकी बन्दगी में और तकब्बुर करेगा तो अल्लाह उन सबको अपने पास जमा कर लेगा।”وَمَنْ يَّسْتَنْكِفْ عَنْ عِبَادَتِهٖ وَيَسْتَكْبِرْ فَسَيَحْشُرُهُمْ اِلَيْهِ جَمِيْعًا     ١٧٢؁

आयत 173

“पस जो लोग ईमान लाये होंगे और उन्होंने नेक अमल किये होंगे तो उनको तो उनका पूरा-पूरा अज्र भी देगा और उन्हें मज़ीद भी देगा अपने ख़ास फ़ज़ल में से।”فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْهِمْ اُجُوْرَهُمْ وَيَزِيْدُهُمْ مِّنْ فَضْلِهٖ ۚ

ऐसे लोगों को उनके अज्र के अलावा बोनस भी मिलेगा। जैसे आप किसी काम करने वाले को अच्छा काम करने पर उजरत के अलावा ईनाम (tip) भी देते हैं। अल्लाह तआला अपने ख़ज़ाना-ए-फ़ज़ल से उन्हें उनके मुक़र्रर अज्र से बढ़ कर नवाज़ेगा।

“और जिन्होंने (अबदियत के अन्दर) आर महसूस की थी और तकब्बुर किया था तो उनको वह दर्दनाक अज़ाब देगा”وَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْتَنْكَفُوْا وَاسْتَكْبَرُوْا فَيُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا اَلِــيْمًا  ۥۙ
“और वह नहीं पाएँगे अपने लिये अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हिमायती और ना कोई मददगार।”وَّلَا يَجِدُوْنَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلِيًّا وَّلَا نَصِيْرًا     ١٧٣؁

आयत 174

“ऐ लोगो! आ चुकी है तुम्हारे पास एक बुरहान तुम्हारे रब की तरफ़ से”يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمْ بُرْهَانٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ

यह क़ुरान मजीद और रसूल अल्लाह ﷺ दोनों की तरफ़ इशारा है। क़ुरान और मुहम्मद ﷺ मिल कर बुरहान होंगे। तआरुफ़े क़ुरान के दौरान ज़िक्र हो चुका है कि किताब और रसूल ﷺ मिल कर बय्यिना बनते हैं, जैसा कि सूरतुल बय्यिना (आयात 1 से 3) में इरशाद हुआ है। आयत ज़ेरे मुताअला में उसी बय्यिना को बुरहान कहा गया है।

“और हमने तुम्हारी तरफ़ रोशन नूर नाज़िल कर दिया है।”وَاَنْزَلْنَآ اِلَيْكُمْ نُوْرًا مُّبِيْنًا     ١٧٤؁

यहाँ चूँकि नूर के साथ-साथ लफ्ज़ इन्ज़ाल आया है इसलिये इससे मुराद लाज़िमन क़ुरान मजीद ही है।

आयत 175

“पस जो लोग अल्लाह पर ईमान लाएँगे और उसके साथ चिमट जाएँगे”فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِاللّٰهِ وَاعْتَصَمُوْا بِهٖ

यकसू हो जाएँगे, ख़ालिस अल्लाह वाले बन जाएँगे, मुज़बज़ब नहीं रहेंगे कि कभी इधर कभी उधर, बल्कि पूरी तरह से यकसू होकर अल्लाह के दामन से वाबस्ता हो जाएँगे।

“तो उन्हें वह दाख़िल करेगा अपनी रहमत और अपने फ़ज़ल में, और उन्हें हिदायत देगा अपनी तरफ़ सिराते मुस्तक़ीम की।”فَسَـيُدْخِلُهُمْ فِيْ رَحْمَةٍ مِّنْهُ وَفَضْلٍ ۙ وَّيَهْدِيْهِمْ اِلَيْهِ صِرَاطًا مُّسْتَــقِيْمًا    ١٧٥؀ۭ

وَّيَهْدِيْهِمْ اِلَيْهِ यानि अपनी तरफ़ हिदायत देगा। उन्हें सीधे रास्ते (सिराते मुस्तक़ीम) पर चलने की तौफ़ीक़ बख्शेगा और सहज-सहज, रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें अपने ख़ास फ़ज़ल व करम और जवारे रहमत में ले आयेगा।

आयत 176

يَسْتَـفْتُوْنَكَ ۭ قُلِ اللّٰهُ يُفْتِيْكُمْ فِي الْكَلٰلَةِ  ۭاِنِ امْرُؤٌا هَلَكَ لَيْسَ لَهٗ وَلَدٌ وَّلَهٗٓ اُخْتٌ فَلَهَا نِصْفُ مَا تَرَكَ ۚ وَهُوَ يَرِثُهَآ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهَا وَلَدٌ ۭفَاِنْ كَانَتَا اثْنَـتَيْنِ فَلَهُمَا الثُّلُثٰنِ مِمَّا تَرَكَ  ۭوَاِنْ كَانُوْٓا اِخْوَةً رِّجَالًا وَّنِسَاۗءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَـيَيْنِ ۭ يُـبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اَنْ تَضِلُّوْا  ۭوَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ      ١٧٦؀ۧ

इस आखरी में फिर एक इस्तफ़ता (formal legal) है। आयत 12 में क़ानूने विरासत के ज़िमन में एक लफ्ज़ आया था کلالہ, यानि वह मर्द या औरत जिसके ना तो वालिदैन ज़िन्दा हों और ना उसकी कोई औलाद हो। उसके बारे में बताया गया था कि अगर उसके बहन-भाई हों तो उसकी विरासत का हुक्म यह है। लेकिन वह हुक्म लोगों पर वाज़ेह नहीं हो सका था। लिहाज़ा यहाँ उस हुक्म की मज़ीद वज़ाहत की गयी है। आयत 12 के हुक्म को सिर्फ़ अख्याफ़ी बहन-भाइयों के साथ मख़सूस मान लेने के बाद इस तौज़ीही हुक्म में कलाला की विरासत का हर पहलु वाज़ेह हो जाता है।

आयत 176

“(ऐ नबी ) यह आप से फ़तवा माँग रहे हैं। कहो कि अल्लाह तुम्हें कलाला के बारे में फ़तवा दे रहा है।”يَسْتَـفْتُوْنَكَ ۭ قُلِ اللّٰهُ يُفْتِيْكُمْ فِي الْكَلٰلَةِ  ۭ
“अगर कोई शख्स फ़ौत हो गया और उसकी कोई औलाद नहीं (और ना माँ-बाप हैं) और उसकी सिर्फ़ एक बहन है तो उसके लिये उसके तरके में से निस्फ़ है।”اِنِ امْرُؤٌا هَلَكَ لَيْسَ لَهٗ وَلَدٌ وَّلَهٗٓ اُخْتٌ فَلَهَا نِصْفُ مَا تَرَكَ ۚ

ऐसी सूरत में उसकी बहन ऐसे ही है जैसे एक बेटी हो तो उसे तरके में से आधा हिस्सा मिलेगा।

“और वह मर्द (भाई) उस (बहन) का मुकम्मल वारिस होगा अगर उस (बहन) की कोई औलाद नहीं।”وَهُوَ يَرِثُهَآ اِنْ لَّمْ يَكُنْ لَّهَا وَلَدٌ ۭ

यानि अगर कलाला औरत थी जिसकी कोई औलाद नहीं, कोई वालिदैन नहीं तो उसका वारिस उसका भाई बन जायेगा, उसकी पूरी विरासत उसके भाई को चली जायेगी।

“फिर अगर दो (या दो से ज़्यादा) बहनें हो तो वह तरके में से दो तिहाई की हक़दार होंगी।”فَاِنْ كَانَتَا اثْنَـتَيْنِ فَلَهُمَا الثُّلُثٰنِ مِمَّا تَرَكَ  ۭ
“और अगर कईं बहन-भाई हों तो एक मर्द के लिये दो औरतों के बराबर हिस्सा होगा।”وَاِنْ كَانُوْٓا اِخْوَةً رِّجَالًا وَّنِسَاۗءً فَلِلذَّكَرِ مِثْلُ حَظِّ الْاُنْثَـيَيْنِ ۭ

यानि भाई को बहन से दोगुना मिलेगा। अलबत्ता यह बात अहम है कि आयत 12 में जो हुक्म दिया गया था वह अख्याफ़ी बहन-भाइयों के बारे में था। यानि ऐसे बहन-भाई जिनकी माँ एक हो और बाप अलैहदा-अलैहदा हों। उस ज़माने के अरब मआशरे में तादादे अज़वाज के आम रिवाज की वजह से ऐसे मसाइल मामूलात का हिस्सा थे। बाक़ी ऐनी या अलाती बहन-भाइयों (जिनके माँ और बाप एक ही हों या माँएं अलग-अलग हों और बाप एक ही हो) का वही आम क़ानून होगा जो बेटे और बेटी का है। जिस निस्बत से बेटे और बेटी में विरासत तक़सीम होती है ऐसे ही उन बहन-भाइयों में होगी।

“अल्लाह वाज़ेह किये देता है तुम्हारे लिये मबादा कि तुम गुमराह हो जाओ, और अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखने वाला है।”يُـبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اَنْ تَضِلُّوْا  ۭوَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ      ١٧٦؀ۧ

तआरुफ़े क़ुरान के दौरान मैंने बताया था कि क़ुरान हकीम की एक तक़सीम सात अहज़ाब या मंज़िलों की है। इस ऐतबार से सूरतुन्निसा पर पहली मंज़िल ख़त्म हो गयी है।

فالحمد للہ علی ذٰلک!

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