Suratul Aeraaf-सूरतुल आराफ़-ayat 1-206

सूरतुल आराफ़

तम्हीदी कलिमात

सूरतुल आराफ़ क़ुरान हकीम की तवील तरीन मक्की सूरह है। इस सूरह का सूरतुल अन्आम के साथ क्योंकि जोड़े का ताल्लुक़ है इसलिये इसके मज़ामीन का तआरुफ़ सूरतुल अन्आम के आग़ाज़ में आ चुका है। वहाँ पर التذکیر بآلَاءِ اللہ और التذکیر بِاَیَّامِ اللہ के फ़लसफ़े पर भी तफ़सीली बहस हो चुकी है और दोनों सूरतों में मज़ामीन की इस तक़सीम का ज़िक्र भी हो चुका है कि सूरह अन्आम में تذکیر بآلَاءِ اللہ पर ज़ोर है जबकि सूरह आराफ़ में تذکیر بِاَیَّامِ اللہ पर। सूरतुल आराफ़ के मौज़ूआत की तरतीब इस तरह से है कि सबसे पहले किस्सा आदम व इब्लीस बयान करके इंसानी तख़्लीक़ के आग़ाज़ का ज़िक्र किया गया है। फिर हयाते दुनियवी के इख़्ततामी दौर का तज़किरा किया गया है। इस इख़्ततामी दौर में तीन क़िस्मों के लोगों की तफ़सील आ गई है। पहले अहले जहन्नम का तज़किरा है, इसके बाद अहले जन्नत का और फिर असहाबे आराफ़ का, यानि वो लोग जिनके जन्नत व दोज़ख़ में दाख़िले के बारे में अभी फ़ैसला नहीं हुआ होगा। इस तरह हयाते इंसानी की इब्तदा और उसकी इन्तहा के तज़किरे के बाद हयाते इंसानी के “दरमियानी दौर” का तज़किरा تذکیر بِاَیَّامِ اللہ (अम्बिया व रुसुल और उनकी क़ौमों के हालात) के तौर पर आ गया है, जो इस सूरत के मज़ामीन का अमूद (main theme) है।

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

आयात 1 से 9 तक
الۗمّۗصۗ Ǻ۝ۚ كِتٰبٌ اُنْزِلَ اِلَيْكَ فَلَا يَكُنْ فِيْ صَدْرِكَ حَرَجٌ مِّنْهُ لِتُنْذِرَ بِهٖ وَذِكْرٰي لِلْمُؤْمِنِيْنَ Ą۝ اِتَّبِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَلَا تَتَّبِعُوْا مِنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۗءَ ۭ قَلِيْلًا مَّا تَذَكَّرُوْنَ Ǽ۝ وَكَمْ مِّنْ قَرْيَةٍ اَهْلَكْنٰهَا فَجَاۗءَهَا بَاْسُنَا بَيَاتًا اَوْ هُمْ قَاۗىِٕلُوْنَ Ć۝ فَمَا كَانَ دَعْوٰىهُمْ اِذْ جَاۗءَهُمْ بَاْسُنَآ اِلَّآ اَنْ قَالُوْٓا اِنَّا كُنَّا ظٰلِمِيْنَ Ĉ۝ فَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الَّذِيْنَ اُرْسِلَ اِلَيْهِمْ وَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الْمُرْسَلِيْنَ Č۝ۙ فَلَنَقُصَّنَّ عَلَيْهِمْ بِعِلْمٍ وَّمَا كُنَّا غَاۗىِٕبِيْنَ Ċ۝ وَالْوَزْنُ يَوْمَىِٕذِۨ الْحَقُّ ۚ فَمَنْ ثَقُلَتْ مَوَازِيْنُهٗ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ Ď۝ وَمَنْ خَفَّتْ مَوَازِيْنُهٗ فَاُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ بِمَا كَانُوْا بِاٰيٰتِنَا يَظْلِمُوْنَ Ḍ۝

आयत 1
“अलिफ़, लाम, मीम, सुआद। الۗمّۗصۗ Ǻ۝ۚ
यह हुरूफ़े मुक़त्तआत हैं, और जैसा कि पहले भी बयान हो चुका है, हुरूफ़े मुक़त्तआत का हक़ीकी और यक़ीनी मफ़हूम किसी को मालूम नहीं और यह कि इन तमाम हुरूफ़ के मफ़ाहीम व मतालब अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के दरमियान राज़ का दर्जा रखते हैं। अलबत्ता यह नोट कर लीजिये कि क़ुरान मजीद की दो सूरतें ऐसी हैं जिनके शुरू में चार-चार हुरूफ़े मुक़त्तआत आए हैं। उनमें से एक तो यही सूरतुल आराफ़ है और दूसरी सूरतुल राद है, जिसका आग़ाज़ अलिफ़ लाम मीम रा से हो रहा है। इससे पहले तीन हुरूफ़े मुक़त्तआत (अलिफ़ लाम मीम) सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान में आ चुके हैं।

आयत 2
“यह किताब है (ऐ नबी ﷺ) जो आप पर नाज़िल की गई है, तो नहीं होनी चाहिये आपके दिल में कुछ तंगी इसकी वजह से” كِتٰبٌ اُنْزِلَ اِلَيْكَ فَلَا يَكُنْ فِيْ صَدْرِكَ حَرَجٌ مِّنْهُ
रसूल अल्लाह ﷺ दावत के लिये हर मुमकिन तरीक़ा इस्तेमाल कर रहे थे, मगर आप ﷺ की सालों साल की जद्दो-जहद के बावजूद मक्का के सिर्फ़ चंद लोग ईमान लाये। यह सूरते हाल आप ﷺ के लिये बाइसे तशवीश (चिंता का विषय) थी। एक आम आदमी तो अपनी ग़लतियों की ज़िम्मेदारी भी दूसरों के सिर पर डालने की कोशिश करता है और अपनी कोताहियों को भी दूसरों के ख़ाते में डाल कर ख़ुद को साफ़ बचाने की फ़िक्र में रहता है, लेकिन एक शरीफ़ुल नफ़्स इंसान हमेशा यह देखता है कि अग़र उसकी कोशिश के ख़ातिर ख़्वाह नतीजे सामने नहीं आ रहे हैं तो उसमें उसकी तरफ़ से कहीं कोई कोताही तो नहीं हो रही। इस सोच और अहसास की वजह से वह अपने दिल पर हर वक़्त एक बोझ महसूस करता है। लिहाज़ा जब हुज़ूर ﷺ की मुसलसल कोशिश के बावजूद अहले मक्का ईमान नहीं ला रहे थे तो बशरी तक़ाज़े के तहत आप ﷺ को दिल में बहुत परेशानी महसूस होती थी। इसलिये आप ﷺ की तसल्ली के लिये फ़रमाया जा रहा है कि इस क़ुरान की वजह से आप ﷺ के ऊपर कोई तंगी नहीं होनी चाहिये।
“(यह तो इसलिये है) ताकि इसके ज़रिये से आप ﷺ ख़बरदार करें और यह याद दिहानी है अहले ईमान के लिये।” لِتُنْذِرَ بِهٖ وَذِكْرٰي لِلْمُؤْمِنِيْنَ Ą۝

“لِتُنْذِرَ بِهٖ” वही लफ़्ज़ है जो हम सूरतुल अन्आम की आयत 19 में भी पढ़ आये हैं। वहाँ फ़रमाया गया था: {وَاُوْحِيَ اِلَيَّ هٰذَا الْقُرْاٰنُ لِاُنْذِرَكُمْ بِهٖ وَمَنْۢ بَلَغَ } “और यह क़ुरान मेरी तरफ़ इसलिये वही किया गया है कि इसके ज़रिये से तुम्हें भी ख़बरदार करुँ और जिस-जिस को यह पहुँचे।” यहाँ मजीद फ़रमाया कि यह अहले ईमान के लिये ज़िकरा (याददिहानी) है। यानि जिन सलीमुल फ़ितरत लोगों के अंदर बिल् क़ुव्वत (potentially) ईमान मौजूद है उनके इस सोए हुए (dormant) ईमान को बेदार (activate) करने के लिये यह किताब एक तरह से याद दिहानी है। जैसे आपको कोई चीज़ भूल गई थी, अचानक कहीं उसकी कोई निशानी देखी तो फ़ौरन वह शय याद आ गई, इसी तरह अल्लाह तआला ने अपनी मारफ़त के हुसूल के लिये इस कायनात की निशानियों को याददिहानी (ज़िकरा) बना दिया है।

आयत 3
“पैरवी करो उसकी जो नाज़िल किया गया तुम्हारी तरफ़ तुम्हारे रब की जानिब से” اِتَّبِعُوْا مَآ اُنْزِلَ اِلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ
पिछली आयत में हुज़ूर से सीगा वाहिद में ख़िताब था {فَلَا يَكُنْ فِيْ صَدْرِكَ حَرَجٌ مِّنْهُ} जबकि यहाँ “اِتَّبِعُوْا” जमा का सीगा है। यानि यहाँ ख़िताब का रुख़ आम लोगों की तरफ़ है और उन्हें वही-ए-इलाही की पैरवी का हुक्म दिया जा रहा है।
“और मत पैरवी करो उसके सिवा दूसरे सरपरस्तों की। कम ही है जो नसीहत तुम हासिल करते हो।” وَلَا تَتَّبِعُوْا مِنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۗءَ ۭ قَلِيْلًا مَّا تَذَكَّرُوْنَ Ǽ۝
यानि अपने रब को छोड़ कर कुछ दूसरे औलिया (दोस्त, सरपरस्त) बना कर उनकी पैरवी मत करो।

आयत 4
“और कितनी ही बस्तियाँ ऐसी हैं जिन्हें हमने हलाक कर दिया, तो उन पर आ पड़ा हमारा अज़ाब जब वो रात को सो रहे थे या जब दोपहर को क़ैलूला (दोपहर के खाने के बाद की नींद) कर रहे थे।” وَكَمْ مِّنْ قَرْيَةٍ اَهْلَكْنٰهَا فَجَاۗءَهَا بَاْسُنَا بَيَاتًا اَوْ هُمْ قَاۗىِٕلُوْنَ Ć۝
चूँकि इस सूरह मुबारका के मौज़ू का उमूद तज़कीर बिअय्यामिल्लाह है, लिहाज़ा शुरू में ही अक़वामे गुज़िश्ता पर अज़ाब और उनकी बस्तियों की तबाही का तज़किरा आ गया है। यह क़ौमे नूह, क़ौमे हूद, क़ौमे सालेह, क़ौमे समूद और क़ौमे शुऐब अस्सलातु वस्सलाम की बस्तियों और आमूरा और सदूम के शहरों की तरफ़ इशारा है।

आयत 5
“तो फिर उनकी पुकार इसके सिवा कुछ नहीं थी जब उन पर हमारा अज़ाब आ पड़ा कि (हाय हमारी शामत) बेशक हम ही ज़ालिम थे।” فَمَا كَانَ دَعْوٰىهُمْ اِذْ جَاۗءَهُمْ بَاْسُنَآ اِلَّآ اَنْ قَالُوْٓا اِنَّا كُنَّا ظٰلِمِيْنَ Ĉ۝
वाक़िअतन हमारे रसूलों ने तो हमारी आँखें खोलने की पूरी कोशिश की थी मग़र हमने ही अपने जानों पर ज़्यादती की जो उनकी दावत को ना माना।
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आयत 6
“पस हम लाज़िमन पूछ कर रहेंगे उनसे भी जिनकी तरफ़ हमने रसूलों को भेजा और लाज़िमन पूछ कर रहेंगे रसूलों से भी।” فَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الَّذِيْنَ اُرْسِلَ اِلَيْهِمْ وَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الْمُرْسَلِيْنَ Č۝ۙ
यह फ़लसफ़ा-ए-रिसालत का बहुत अहम मौज़ू है जो इस आयत में बड़ी जलाली शान के साथ आया है। अल्लाह तआला किसी क़ौम की तरफ़ रसूल को इसलिये भेजता है ताकि वह उसे ख़बरदार कर दे। यह एक बहुत भारी और हस्सास ज़िम्मेदारी है जो रसूल पर डाली जाती है। अब अग़र बिल् फ़र्ज़ रसूल की तरफ़ से इसमें ज़रा भी कोताही होगी तो क़ौम से पहले उसकी पकड़ हो जायेगी। इसकी मिसाल यूँ है कि आपने एक अहम पैग़ाम देकर किसी आदमी को अपने किसी दोस्त के पास भेजा कि वह यह काम कल तक ज़रूर कर दे वरना बहुत नुक़सान होगा, लेकिन आपके उस दोस्त ने वह काम नहीं किया और आपका नुक़सान हो गया। अब आप गुस्से से आग बबूला अपने दोस्त के पास पहुँचे और कहा कि तुमने मेरे पैग़ाम के मुताबिक़ बरवक़्त मेरा काम क्यों नहीं किया? अब आपका दोस्त अग़र जवाबन यह कह दे कि उसके पास तो आपका पैग़ाम लेकर कोई आया ही नहीं तो अपने दोस्त से आपकी नाराज़गी फ़ौरन ख़त्म हो जायेगी, क्योंकि उसने कोताही नहीं की, और आपको शदीद गुस्सा उस शख़्स पर आयेगा जिसको आपने पैग़ाम देकर भेजा था। अब आप उससे बाज़पुर्स करेंगे कि तुमने मेरा इतना अहम पैग़ाम क्यों नहीं पहुँचाया? तुमने ग़ैर ज़िम्मेदारी का सबूत देकर मेरा इतना बड़ा नुक़सान कर दिया। इसी तरह का मामला है अल्लाह, रसूल और क़ौम का। अल्लाह ने रसूल को पैग़ाम्बर बना कर भेजा। बिल् फ़र्ज उस पैग़ाम के पहुँचाने में रसूल से कोताही हो जाये तो वह जवाबदेह होगा। हाँ अग़र वह पैग़ाम पहुँचा दे तो फिर वह अपनी ज़िम्मेदारी से बरी हो जायेगा। फिर अग़र क़ौम उस पैग़ाम पर अमल-दर-आमद नहीं करेगी तो वह ज़िम्मेदार ठहरेगी। चुनाँचे आख़िरत में उम्मतों का भी मुहासबा होना है और रसूलों का भी। उम्मत से जवाब तलबी होगी कि मैंने तुम्हारी तरफ़ अपना रसूल भेजा था ताकि वह तुम्हें मेरा पैग़ाम पहुँचा दे, तुमने उस पैग़ाम को क़ुबूल किया या नहीं किया? और मुरसलीन से यह पूछा जायेगा कि तुमने मेरा पैग़ाम पहुँचाया या नहीं? इसकी एक झलक हम सूरतुल मायदा आयत 109 में { مَاذَآ اُجِبْتُمْ } के सवाल में और फिर अल्लाह तआला के हज़रत ईसा अलै. के साथ क़यामत के दिन होने वाले मकाल्मे (conversation) के इन अल्फ़ाज़ (आयत 116) में भी देख आये हैं: { وَاِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ ءَاَنْتَ قُلْتَ لِلنَّاسِ اتَّخِذُوْنِيْ وَاُمِّيَ اِلٰــهَيْنِ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ } “और जब अल्लाह पूछेगा ऐ ईसा इब्ने मरियम क्या तुमने कहा था लोगों से कि मुझे और मेरी माँ को भी इलाह बना लेना अल्लाह के अलावा?”
अब ज़रा हज्जतुलविदा (10 हिजरी) के मंज़र को ज़हन में लाइये। मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ एक जमे ग़फ़ीर से मुख़ातिब हैं। इस तारीखी मौक़े के पसमंज़र में आप ﷺ की 23 बरस की मेहनते शाक्का थी, जिसके नतीजे में आप ﷺ ने जज़ीरा नुमाए अरब के लोगों पर इत्मामे हुज्जत करके दीन को ग़ालिब कर दिया था। लिहाज़ा आपने उस मजमे को मुख़ातिब करके फ़रमाया: اَلَا ھَلْ بَلَّغْتُ؟ लोगो सुनो! क्या मैंने पहुँचा दिया? इस पर पूरे मजमे ने एक ज़बान होकर जवाब दिया: نَشْھَدُ اَنَّکَ قَدْ بَلَّغْتَ وَ اَدَّیْتَ وَ نَصَحْتَ(5) एक रिवायत में अल्फ़ाज़ आते हैं: اِنَّا نَشْھَدُ اَنَّکَ قَدْ بَلَّغْتَ الرِّسَالَۃَ وَ اَدَّیْتَ الْاَمَانَۃَ وَنَصَحْتَ الْاُمَّۃَ وَ کَشَفْتَ الْغُمَّۃَ कि हाँ हम गवाह हैं आप ﷺ ने रिसालत का हक़ अदा कर दिया, आपने अमानत का हक़ अदा कर दिया (यह क़ुरान आपके पास अल्लाह की अमानत थी जो आपने हम तक पहुँचा दी), आप ﷺ ने उम्मत की ख़ैरख़्वाही का हक़ अदा कर दिया और आपने गुमराही और ज़लालत के अंधेरों का पर्दा चाक कर दिया। हुज़ूर ﷺ ने तीन दफ़ा यह सवाल किया और तीन दफ़ा जवाब लिया और तीनों दफ़ा शहादत की ऊँगली आसमान की तरफ़ उठा कर पुकारा: اَللّٰھُمَّ اشْھَدْ! اَللّٰھُمَّ اشْھَدْ! اَللّٰھُمَّ اشْھَدْ! ऐ अल्लाह तू भी गवाह रह, ये मान रहे हैं कि मैंने तेरा पैग़ाम इन्हें पहुँचा दिया। और फिर फ़रमाया: فَلْیُبَلِّغِ الشَّاھِدُ الْغَائِبَ(6) कि अब पहुँचाएँ वो लोग जो यहाँ मौजूद हैं उन लोगों को जो यहाँ मौजूद नहीं हैं। गोया मेरे कंधे से यह बोझ उतर कर अब तुम्हारे कन्धों पर आ गया है। अग़र मैं सिर्फ़ तुम्हारी तरफ़ रसूल बन कर आया होता तो बात आज पूरी हो गई होती, मग़र मैं तो रसूल हूँ तमाम इंसानों के लिये जो क़यामत तक आएँगे। चुनाँचे अब इस दावत और तब्लीग़ को उन लोगों तक पहुँचाना उम्मत के ज़िम्मे है। यही वह ग़वाही है जिसका मंज़र सूरतुन्निसा में दिखाया गया है: {فَكَيْفَ اِذَا جِئْنَا مِنْ كُلِّ اُمَّةٍۢ بِشَهِيْدٍ وَّجِئْنَا بِكَ عَلٰي هٰٓؤُلَاۗءِ شَهِيْدًا} (आयत:41) फिर उस रोज़ हज्जतुल विदा के मौक़े वाली ग़वाही का हवाला भी आयेगा कि ऐ अल्लाह मैंने तो इन लोगों को तेरा पैग़ाम पहुँचा दिया था, अब यह ज़िम्मेदार और जवाबदेह हैं। चूँकि मामला उन पर खोल दिया गया था, लिहाज़ा अब यह लोग लाइल्मी के बहाने का सहारा नहीं ले सकते।

आयत 7
“फिर हम उनके सामने अहवाल (स्थिति) बयान करेंगे इल्म की बुनियाद पर और हम कहीं ग़ायब तो नहीं थे।” فَلَنَقُصَّنَّ عَلَيْهِمْ بِعِلْمٍ وَّمَا كُنَّا غَاۗىِٕبِيْنَ Ċ۝
अल्लाह तआला ख़ूब जानता है कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ फ़रीज़ा-ए-रिसालत की अदायगी में किस क़द्र जद्दो-जहद कर रहे थे और आप ﷺ के सहाबा रज़ि. किस तरह के मुश्किल हालात में आपका साथ दे रहे थे। इसी तरह अल्लाह तआला अबुजहल और अबुलहब की कार्यवाहियों को भी देख रहा था कि वो किस-किस तरीज़े से हुज़ूर ﷺ को अज़ीयतें पहुँचा रहे थे और इस्लाम की मुख़ालफ़त कर रहे थे। अल्लाह तआला फ़रमाते हैं कि क़यामत के दिन हम उनके सामने अपने इल्म की बुनियाद पर तमाम अहवाल बयान कर देंगे, क्योंकि जब यह सब कुछ हो रहा था तो हम वहाँ से ग़ैर हाज़िर तो नहीं थे। सूरतुल हदीद (आयत:4) में इस हक़ीक़त को इस तरह बयान किया गया है: { وَهُوَ مَعَكُمْ اَيْنَ مَا كُنْتُمْ ۭ } कि वह (अल्लाह) तुम्हारे साथ ही होता है जहाँ कहीं भी तुम होते हो।

आयत 8
“और उस रोज़ वज़न होगा हक़ ही में (या वज़न ही फ़ैसलाकुन होगा)” وَالْوَزْنُ يَوْمَىِٕذِۨ الْحَقُّ ۚ
उस रोज़ अल्लाह तआला तराज़ू नुमा कोई ऐसा निज़ाम क़ायम करेगा, जिसके ज़रिये से आमाल का ठीक-ठीक वज़न होगा, मग़र उस दिन वज़न सिर्फ़ हक़ ही में होगा, यानि सिर्फ़ आमाले सालेहा ही का वज़न होगा, बातिल और बुरे कामों में सिरे से कोई वज़न नहीं होगा, रियाकारी की नेकियाँ तराज़ू में बिल्कुल बे हैसियत होंगी। { وَالْوَزْنُ يَوْمَىِٕذِۨ الْحَقُّ ۚ} का दूसरा मफ़हूम यह भी है कि उस दिन वज़न ही हक़ होगा, वज़न ही फ़ैसलाकुन होगा। अग़र दो पलड़ों वाली तराज़ू का तसव्वुर करें तो जिसका निकियों वाला पलड़ा भारी होगा निजात बस उसी के लिये होगी।
“तो जिसके पलड़े भारी होंगे तो वही होंगे फ़लाह पाने वाले।” فَمَنْ ثَقُلَتْ مَوَازِيْنُهٗ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ Ď۝

आयत 9
“और जिसके पलड़े हल्के होंगे तो यही वह लोग होंगे जिन्होंने अपने आप को हलाक कर लिया बसबब इसके कि वो हमारी आयतों से नाइंसाफ़ी करते रहे।” وَمَنْ خَفَّتْ مَوَازِيْنُهٗ فَاُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ بِمَا كَانُوْا بِاٰيٰتِنَا يَظْلِمُوْنَ Ḍ۝
आयत 6 { فَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الَّذِيْنَ اُرْسِلَ اِلَيْهِمْ وَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الْمُرْسَلِيْنَ } की तरह अगली आयत भी अपने मौज़ू के ऐतबार से बहुत अहम है।

आयात 10 से 25 तक
وَلَقَدْ مَكَّنّٰكُمْ فِي الْاَرْضِ وَجَعَلْنَا لَكُمْ فِيْهَا مَعَايِشَ ۭقَلِيْلًا مَّا تَشْكُرُوْنَ 10۝ۧ وَلَقَدْ خَلَقْنٰكُمْ ثُمَّ صَوَّرْنٰكُمْ ثُمَّ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ ڰ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ لَمْ يَكُنْ مِّنَ السّٰجِدِيْنَ 11 ؁ قَالَ مَا مَنَعَكَ اَلَّا تَسْجُدَ اِذْ اَمَرْتُكَ ۭ قَالَ اَنَا خَيْرٌ مِّنْهُ ۚ خَلَقْتَنِيْ مِنْ نَّارٍ وَّخَلَقْتَهٗ مِنْ طِيْنٍ 12 ؀ قَالَ فَاهْبِطْ مِنْهَا فَمَا يَكُوْنُ لَكَ اَنْ تَتَكَبَّرَ فِيْهَا فَاخْرُجْ اِنَّكَ مِنَ الصّٰغِرِيْنَ 13؀ قَالَ اَنْظِرْنِيْٓ اِلٰي يَوْمِ يُبْعَثُوْنَ 14؀ قَالَ اِنَّكَ مِنَ الْمُنْظَرِيْنَ 15؀ قَالَ فَبِمَآ اَغْوَيْتَنِيْ لَاَقْعُدَنَّ لَهُمْ صِرَاطَكَ الْمُسْتَقِيْمَ 16؀ۙ ثُمَّ لَاٰتِيَنَّهُمْ مِّنْۢ بَيْنِ اَيْدِيْهِمْ وَمِنْ خَلْفِهِمْ وَعَنْ اَيْمَانِهِمْ وَعَنْ شَمَاۗىِٕلِهِمْ ۭ وَلَا تَجِدُ اَكْثَرَهُمْ شٰكِرِيْنَ 17؀ قَالَ اخْرُجْ مِنْهَا مَذْءُوْمًا مَّدْحُوْرًا ۭ لَمَنْ تَبِعَكَ مِنْهُمْ لَاَمْلَئَنَّ جَهَنَّمَ مِنْكُمْ اَجْمَعِيْنَ 18؀ وَيٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ فَكُلَا مِنْ حَيْثُ شِـئْتُمَا وَلَا تَقْرَبَا هٰذِهِ الشَّجَرَةَ فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِمِيْنَ 19؀ فَوَسْوَسَ لَهُمَا الشَّيْطٰنُ لِيُبْدِيَ لَهُمَا مَا وٗرِيَ عَنْهُمَا مِنْ سَوْاٰتِهِمَا وَقَالَ مَا نَهٰىكُمَا رَبُّكُمَا عَنْ هٰذِهِ الشَّجَرَةِ اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَا مَلَكَيْنِ اَوْ تَكُوْنَا مِنَ الْخٰلِدِيْنَ 20؀ وَقَاسَمَهُمَآ اِنِّىْ لَكُمَا لَمِنَ النّٰصِحِيْنَ 21۝ۙ فَدَلّٰىهُمَا بِغُرُوْرٍ ۚ فَلَمَّا ذَاقَا الشَّجَرَةَ بَدَتْ لَهُمَا سَوْاٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخْصِفٰنِ عَلَيْهِمَا مِنْ وَّرَقِ الْجَنَّةِ ۭوَنَادٰىهُمَا رَبُّهُمَآ اَلَمْ اَنْهَكُمَا عَنْ تِلْكُمَا الشَّجَرَةِ وَاَقُلْ لَّكُمَآ اِنَّ الشَّيْطٰنَ لَكُمَا عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ 22؀ قَالَا رَبَّنَا ظَلَمْنَآ اَنْفُسَنَا ۫وَاِنْ لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ 23؀ قَالَ اهْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ ۚ وَلَكُمْ فِي الْاَرْضِ مُسْتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰي حِيْنٍ 24؀ قَالَ فِيْهَا تَحْيَوْنَ وَفِيْهَا تَمُوْتُوْنَ وَمِنْهَا تُخْرَجُوْنَ 25؀ۧ

आयत 10
“और (देखो इंसानों!) हमने तुम्हें ज़मीन में तमक्कुन अता फ़रमाया और इसमें तुम्हारे लिये मआश के सारे सामान रख दिये, (लेकिन) बहुत ही कम है जो शुक्र तुम करते हो।” وَلَقَدْ مَكَّنّٰكُمْ فِي الْاَرْضِ وَجَعَلْنَا لَكُمْ فِيْهَا مَعَايِشَ ۭقَلِيْلًا مَّا تَشْكُرُوْنَ 10۝ۧ
तुम लोगों को तो हर वक़्त यह धड़का लगा रहता है कि ज़मीन के वसाइल (resources) इंसान के मुसलसल इस्तेमाल से ख़त्म ना हो जायें, इंसानी व हैवानी ख़ुराक का क़हत ना पड़ जाये। मग़र तुम्हें मालूम होना चाहिये कि अल्लाह के ख़जाने ख़त्म होने वाले नहीं हैं। हमने तुम्हें इस ज़मीन में बसाया है तो तुम्हारे मआश का पूरा-पूरा बंदोबस्त भी किया है। इस दुनयवी ज़िन्दगी में तुम्हारी और तुम्हारी आइंदा नस्लों की हर क़िस्म की जिस्मानी ज़रूरतें यहीं से पूरी होंगी। इस मौज़ू की अहमियत के पेशेनज़र अगले (दूसरे) रुकूअ में भी इसी मज़मून यानि तमक्कुन फ़िल् अर्ज़ की तफ़सील बयान हुई है।

आयत 11
“और हमने तुम्हें तख़्लीक़ किया, फिर तुम्हारी तस्वीर कशी की, फिर हमने कहा फ़रिश्तों से कि झुक जाओ आदम के सामने” وَلَقَدْ خَلَقْنٰكُمْ ثُمَّ صَوَّرْنٰكُمْ ثُمَّ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ ڰ
नज़रिया-ए-इरतक़ाअ (Evolution Theory) के हामी इस आयत से भी किसी हद तक अपनी नज़रियाती ग़िज़ा हासिल करने की कोशिश करते हैं। क़ुरान हकीम में इंसान की तख़्लीक़ के मुख़्तलिफ़ मराहिल के बारे में मुख़्तलिफ़ नौईयत की तफ़सीलात मिलती हैं। एक तरफ़ तो इंसान को मिट्टी से पैदा करने की बात की गई है। मसलन सूरह आले इमरान आयत 59 में बताया गया है कि इंसाने अव्वल को मिट्टी से बना कर ‘कुन’ कहा गया तो वह एक ज़िन्दा इंसान बन गया (फ़-यकून)। यानि यह आयत एक तरह से इंसान की एक ख़ास मख़्लूक़ के तौर पर तख़्लीक़ की ताईद करती है। जबकि आयत ज़ेरे नज़र में इस ज़िमन में तदरीजी मराहिल (step by step process) का ज़िक्र हुआ है। यहाँ जमा के सीगे { وَلَقَدْ خَلَقْنٰكُمْ ثُمَّ صَوَّرْنٰكُمْ } से यूँ मालूम होता है कि जैसे इस सिलसिले की कुछ अन्वाअ (species) पहले पैदा की गई थीं। गोया नस्ले इंसानी पहले पैदा की गई, फिर उनकी शक्ल व सूरत को फिनिशिंग टच दिये गये। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि आदम तो एक था, फिर यह जमा के सीगे क्यों इस्तेमाल हो रहे हैं? इस सवाल के जवाब के लिये सूरह आले इमरान की आयत 33 भी एक तरह से हमें दावते ग़ौरो फ़िक्र देती है, जिसमें फ़रमाया गया है कि हज़रत आदम अलै. को भी अल्लाह तआला ने चुना था: {اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰٓي اٰدَمَ وَنُوْحًا وَّاٰلَ اِبْرٰهِيْمَ وَاٰلَ عِمْرٰنَ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ}। गोया यह आयत भी किसी हद तक इरतक़ाई अमल की तरफ़ इशारा करती हुई महसूस होती है। बहरहाल इस क़िस्म की theories के बारे में जैसे-जैसे जो-जो अमली इशारे दस्तयाब हों उनको अच्छी तरह समझने की कोशिश करनी चाहिये और आने वाले वक़्त के लिये अपने options खुले रखने चाहिये। हो सकता है जब वक़्त के साथ-साथ कुछ मज़ीद हक़ाइक अल्लाह तआला की हिकमत और मशीयत से इंसानी इल्म में आयें तो इन आयतों के मफ़ाहीम ज़्यादा वाज़ेह होकर सामने आ जाएँ।
“तो सज्दा किया सबने सिवाय इब्लीस के, ना हुआ वह सज्दा करने वालों में।” فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ لَمْ يَكُنْ مِّنَ السّٰجِدِيْنَ 11 ؁

आयत 12
“(अल्लाह तआला ने) फ़रमाया किस चीज़ ने तुम्हें रोका कि तुमने सज्दा नहीं किया, जबकि मैंने तुम्हें हुक्म दिया था।” قَالَ مَا مَنَعَكَ اَلَّا تَسْجُدَ اِذْ اَمَرْتُكَ ۭ
“उसने कहा मैं इससे बेहतर हूँ, मुझे तूने बनाया है आग से और इसको बनाया है मिट्टी से।” قَالَ اَنَا خَيْرٌ مِّنْهُ ۚ خَلَقْتَنِيْ مِنْ نَّارٍ وَّخَلَقْتَهٗ مِنْ طِيْنٍ 12 ؀
उसने अपने इस्तकबार (तकब्बुर) की बुनियाद पर ऐसा कहा। यहाँ उसका जो क़ौल नक़ल किया गया है उसके एक एक लफ़्ज से तकब्बुर झलकता है।

आयत 13
“(अल्लाह तआला ने) फ़रमाया पस उतर जाओ इससे, तुम्हें यह हक़ नहीं था कि तुम इसमें तकब्बुर करो, पस निकल जाओ, यक़ीनन तुम ज़लील व ख़्वार हो।” قَالَ فَاهْبِطْ مِنْهَا فَمَا يَكُوْنُ لَكَ اَنْ تَتَكَبَّرَ فِيْهَا فَاخْرُجْ اِنَّكَ مِنَ الصّٰغِرِيْنَ 13؀

आयत 14
“उसने कहा (ऐ अल्लाह) मुझे मोहलत दे उस दिन तक जिस दिन इन्हें (ज़िन्दा करके) उठाया जायेगा।” قَالَ اَنْظِرْنِيْٓ اِلٰي يَوْمِ يُبْعَثُوْنَ 14؀
आयत 15
“फ़रमाया (ठीक है जाओ) तुम्हें मोहलत दी गई।” قَالَ اِنَّكَ مِنَ الْمُنْظَرِيْنَ 15؀
आयत 16
“उसने कहा (परवरदिग़ार!) तूने जो मुझे (आदम की वजह से) गुमराह किया है तो अब मैं लाज़िमन उनके लिये घात में बैठूँगा तेरी सीधी राह पर।” قَالَ فَبِمَآ اَغْوَيْتَنِيْ لَاَقْعُدَنَّ لَهُمْ صِرَاطَكَ الْمُسْتَقِيْمَ 16؀ۙ
तेरी तौहीद की शाहराह पर डेरे जमा कर, घात लगा कर, मोर्चाबंद होकर बैठूँगा और तेरे बंदों को शिर्क की पगडँडियों की तरफ़ मोड़ता रहूँगा।

आयत 17
“फिर मैं उन पर हमला करुँगा उनके सामने से और उनके पीछे से, उनके दाएँ और बाएँ जानिब से, और तू नहीं पायेगा उनकी अक्सरियत को शुक्र करने वाला।” ثُمَّ لَاٰتِيَنَّهُمْ مِّنْۢ بَيْنِ اَيْدِيْهِمْ وَمِنْ خَلْفِهِمْ وَعَنْ اَيْمَانِهِمْ وَعَنْ شَمَاۗىِٕلِهِمْ ۭ وَلَا تَجِدُ اَكْثَرَهُمْ شٰكِرِيْنَ 17؀

आयत 18
“(अल्लाह तआला ने) फ़रमाया निकल जाओ इसमें से बुरे हाल में मरदूद होकर। उनमें से जो तेरी पैरवी करेंगे तो मैं (उन्हें और तुम्हें इकट्ठा करके) तुम सबसे जहन्नम को भर कर रहूँगा।” قَالَ اخْرُجْ مِنْهَا مَذْءُوْمًا مَّدْحُوْرًا ۭ لَمَنْ تَبِعَكَ مِنْهُمْ لَاَمْلَئَنَّ جَهَنَّمَ مِنْكُمْ اَجْمَعِيْنَ 18؀

आयत 19
“और (फिर हमने आदम से कहा कि) ऐ आदम अलै. रहो जन्नत में तुम और तुम्हारी बीवी, और खाओ-पियो इसमें से जहाँ से तुम दोनों चाहो, (हाँ) उस दरख़्त के क़रीब मत जाना, वरना तुम ज़ालिमों में से हो जाओगे।” وَيٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ فَكُلَا مِنْ حَيْثُ شِـئْتُمَا وَلَا تَقْرَبَا هٰذِهِ الشَّجَرَةَ فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِمِيْنَ 19؀

आयत 20
“तो शैतान ने उन दोनों को वसवसे में डाला ताकि ज़ाहिर कर दे उन पर जो उनसे पोशीदा थीं उनके शर्मगाहें” فَوَسْوَسَ لَهُمَا الشَّيْطٰنُ لِيُبْدِيَ لَهُمَا مَا وٗرِيَ عَنْهُمَا مِنْ سَوْاٰتِهِمَا
क़िस्सा आदम अलै. व इब्लीस की तफ़सील हम सूरतुल बक़रह के चौथे रुकूअ में भी पढ़ चुके हैं। यहाँ यह क़िस्सा दूसरी मरतबा बयान हुआ है। पूरे क़ुरान मजीद में यह वाक़्या सात मरतबा आया है, छ: मरतबा मक्की सूरतों में और एक मरतबा मदनी सूरत (अल् बक़रह) में। लेकिन हर जगह मुख़्तलिफ़ अंदाज़ से बयान हुआ है और हर बार किसी ना किसी नई बात का इसमें इज़ाफ़ा हुआ है। हुज़ूर ﷺ की दावती तहरीक जैसे-जैसे आगे बढ़ रही थी, हर दौर के मख़्सूस हालात के सबब इस वाक़िये में हर दफ़ा मज़ीद तफ़सीलात शामिल होती गईं। इस रुकूअ के शुरू में जब इस क़िस्से का ज़िक्र आया है तो वहाँ जमा का सीगा इस्तेमाल करके तमाम इंसानों को मुख़ातिब किया गया है: {وَلَقَدْ خَلَقْنٰكُمْ ثُمَّ صَوَّرْنٰكُمْ ثُمَّ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ ڰ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ}
सूरतुल बक़रह की मुतल्लक़ा आयतों की वज़ाहत करते हुए इस ज़िमन में बाज़ अहम निकात ज़ेरे बहस आ चुके हैं। यहाँ मज़ीद कुछ बातें तशरीह तलब हैं। एक तो शैतान के हज़रत आदम और हज़रत हव्वा अलै. को वरगलाने और उनके दिलों में वसवसे डालने का सवाल है कि उसकी कैफ़ियत क्या थी। इस सिलसिले में जो बातें और मकालमात (discussions) क़ुरान में आये हैं उनसे यह गुमान हरग़िज़ ना किया जाये कि वह इसी तरह उनके दरमियान वक़ूअ पज़ीर भी हुए थे और वह एक-दूसरे को देखते और पहचानते हुए एक-दूसरे से बातें करते थे। ऐसा हरग़िज़ नहीं था, बल्कि शैतान जैसे आज हमारी निगाहों से पोशीदा है इसी तरह हज़रत आदम अलै. और हज़रत हव्वा अलै. की नज़रों से भी पोशीदा था और जिस तरह आज हमारे दिलों में शैतानी वसवसे जन्म लेते हैं इसी तरह उनके दिलों में भी वसवसे पैदा हुए थे। दूसरा अहम नुक्ता एक ख़ास ममनुआ (मना किया) फल के चखने और उसकी एक ख़ास तासीर के बारे में है। क़ुरान मजीद में हमें इसकी तफ़सील इस तरह मिलती है कि उस फल के चखने पर उनकी शर्मगाहें नुमाया हो गईं। जहाँ तक इस कैफ़ियत की हक़ीक़त का ताल्लुक़ है तो इसे मालूम करने के लिये हमारे पास हत्मी और क़तई इल्मी ज़राए नहीं हैं, इसलिये इसे मुतशाबेहात में ही शुमार किया जायेगा। अलबत्ता इसके बारे में मुफ़स्सरीन ने क़यास आराइयाँ की हैं। मसलन यह कि उन्हें अपने इन आज़ा (body parts) के बारे में शऊर नहीं था, मग़र वह फल चखने के बाद यह शऊर उनमें बेदार हो गया, या यह कि पहले उन्हें जन्नत का लिबास दिया गया था जो इस वाक़िये के बाद उतर गया। बाज़ लोगों के नज़दीक यह नेकी और बदी का दरख़्त था जिसका फल खाते ही उनमें नेकी और बदी की तमीज़ पैदा हो गई। बाज़ हज़रात का ख़्याल है कि यह दरअसल आदम अलै. और हव्वा अलै. के दरमियान पहला जिन्सी इख़तलात (sexual act) था, जिसे इस अंदाज़ में बयान किया गया है। यह मुख़्तलिफ़ आरा (opinions) हैं, लेकिन सही बात यही है कि यह मुतशाबेहात में से हैं और ठोस इल्मी मालूमात के बग़ैर इसके बारे में कोई क़तई और हक़ीकी राय क़ायम करने की कोशिश नहीं करनी चाहिये कि वह दरख़्त कौनसा था और उसे चखने की असल हक़ीक़त और कैफ़ियत क्या थी।
“और उसने कहा (वसवसा अंदाज़ी की) कि नहीं रोका है आप दोनों को आपके रब ने इस दरख़्त से म़गर इसलिये कि कहीं आप फ़रिश्ते ना बन जायें या कहीं हमेशा-हमेशा रहने वाले ना बन जायें।” وَقَالَ مَا نَهٰىكُمَا رَبُّكُمَا عَنْ هٰذِهِ الشَّجَرَةِ اِلَّآ اَنْ تَكُوْنَا مَلَكَيْنِ اَوْ تَكُوْنَا مِنَ الْخٰلِدِيْنَ 20؀
यह तो सीधी सी बात है कि फ़रिश्तों को तो आदम अलै. के सामने झुकाया गया था तो इसके बाद आप अलै. के लिये फ़रिश्ता बन जाना कौनसी बड़ी बात थी, लेकिन बाज़ अवक़ात यूँ भी होता है कि इंसान को निस्यान हो जाता है और वह अपनी असल हक़ीक़त, असल मक़ाम को भूल जाता है, चुनाँचे यह बात गोया शैतान ने वसवसे के अंदाज़ से उनके ज़हनों में डालने की कोशिश की कि इस शजर-ए-ममनुआ (Probihited Tree) का फ़ल खाकर तुम फ़रिश्ते बन जाओगे या हमेशा-हमेशा ज़िन्दा रहोगे और तुम पर मौत तारी ना होगी।

आयत 21
“और उसने क़समें खा-खा कर उनको यक़ीन दिलाया कि मैं आप दोनों के लिये बहुत ही ख़ैरख़्वाह हूँ।” وَقَاسَمَهُمَآ اِنِّىْ لَكُمَا لَمِنَ النّٰصِحِيْنَ 21۝ۙ

आयत 22
“तो उसने धोखा देकर उन्हें माइल (राज़ी) कर ही लिया।” فَدَلّٰىهُمَا بِغُرُوْرٍ ۚ
“तो जब उन दोनों ने चख लिया उस दरख़्त के फल को तो ज़ाहिर हो गईं उन पर उनकी शर्मगाहें और वह लगे गाँठने जन्नत के (दरख़्तों के) पत्तों को अपने ऊपर (लिबास बनाने के लिये)” فَلَمَّا ذَاقَا الشَّجَرَةَ بَدَتْ لَهُمَا سَوْاٰتُهُمَا وَطَفِقَا يَخْصِفٰنِ عَلَيْهِمَا مِنْ وَّرَقِ الْجَنَّةِ ۭ
अपनी उरयानी का अहसास होने के बाद वह जन्नत के दरख़्तों के पत्तों को आपस में सी कर या जोड़ कर अपने-अपने सतर को छुपाने का अहतमाम करने लगे।
“और अब आवाज़ दी उन दोनों को उनके रब ने कि क्या मैंने तुम्हें मना नहीं किया था उस दरख़्त से और क्या मैंने तुमसे कहा नहीं था कि शैतान तुम दोनों का खुला दुश्मन है।” وَنَادٰىهُمَا رَبُّهُمَآ اَلَمْ اَنْهَكُمَا عَنْ تِلْكُمَا الشَّجَرَةِ وَاَقُلْ لَّكُمَآ اِنَّ الشَّيْطٰنَ لَكُمَا عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ 22؀

आयत 23
“(इस पर) वह दोनों पुकार उठे कि ऐ हमारे रब हमने ज़ुल्म किया अपनी जानों पर, और अग़र तूने हमें माफ़ ना फ़रमाया और हम पर रहम ना फ़रमाया तो हम तबाह होने वालों में से हो जायेंगे।” قَالَا رَبَّنَا ظَلَمْنَآ اَنْفُسَنَا ۫وَاِنْ لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ 23؀
यानि हम अपनी ग़लती का ऐतराफ़ (स्वीकार) करते हैं कि हमने अपनी जानों पर ज़्यादती की है। यह वही कलिमात हैं जिनके बारे में हम सूरतुल बक़रह (आयत:37) में पढ़ आये हैं: {فَتَلَـقّيٰٓ اٰدَمُ مِنْ رَّبِّهٖ كَلِمٰتٍ فَتَابَ عَلَيْهِ} यानि आदम अलै. ने अपने रब से कुछ कलिमात सीख लिये और उनके ज़रिये से माफ़ी माँगी तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़ुबूल कर ली। वहाँ इस ज़िमन में सिर्फ़ इशारा किया गया था, यहाँ वह कलिमात बता दिये गये हैं। इस सारे वाक़िये में एक बात यह भी क़ाबिले ग़ौर है कि क़ुरान में कहीं भी कोई ऐसा इशारा नहीं मिलता जिससे यह साबित हो कि इब्लीस ने यह वसवसा इब्तदा में अम्मा हव्वा के दिल में डाला था। इस सिलसिले में आमतौर पर हमारे यहाँ जो कहानियाँ मौजूद हैं उनकी रू से शैतान के बहकावे में पहले हज़रत हव्वा आयीं और फिर वह हज़रत आदम अलै. को गुमराह करने का ज़रिया बनी। लेकिन क़ुरान इस इम्कान की नफ़ी करता है। आयत ज़ेरेनज़र के मुताअले से तो उन दोनों का बहकावे में आ जाना बिल्कुल वाज़ेह हो जाता है क्योंकि यहाँ क़ुरान मुसलसल तसनिया का सीगा (द्विवचन) इस्तेमाल कर रहा है यानि शैतान ने उन दोनों को वरग़लाया, दोनो उसके बहकावे में आ गये फिर दोनों ने अल्लाह से माफ़ी माँगी और अल्लाह ने दोनों को माफ़ कर दिया।
हज़रत हव्वा अलै. के शैतान के बहकावे में आने वाली कहानियों की तरवीज दरअसल ईसाइयत के ज़ेरे असर हुई है। ईसाइयत में औरत को गुनाह और बुराई की जड़ समझा जाता है यही वजह है कि Eve (हव्वा) से लफ़्ज़ evil उनके यहाँ बुराई का हम मायने क़रार पाया है। ईसाइयत में शादी करना और औरत से क़ुरबत का ताल्लुक़ एक घटिया फ़अल (काम) तसव्वुर किया जाता था, जबकि तज्जरुद (अविवाहित) की ज़िन्दगी गुज़ारना और रहबानियत के तौर तरीक़ों को उनके यहाँ रुहानियत की मैराज समझा जाता था। नतीजतन उनके यहाँ इस तरह की कहानियों ने जन्म लिया, जिनसे साबित होता है कि आदम अलै. को जन्नत से निकलवाने और उनकी आज़माईशों और मुसीबतों का बाइस बनने वाली दरअसल एक औरत थी। बहरहाल ऐसे तसव्वुरात और नज़रियात की ताईद क़ुरान मजीद से नहीं होती।

आयत 24
“(अल्लाह ने) फ़रमाया तुम सब उतर जाओ (अब) तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो।” قَالَ اهْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ ۚ
हुबूत के बारे में सूरतुल बक़रह आयत 36 में वज़ाहत हो चुकी है कि यह लफ़्ज़ सिर्फ़ बुलंदी से नीचे उतरने के मायने के लिये ही ख़ास नहीं बल्कि एक जगह से दूसरी जगह मुन्तक़िल होने का मफ़हूम भी इसमें शामिल है। जिस दुश्मनी का ज़िक्र यहाँ किया गया वह हज़रत आदम के हुबूते अरज़ी के वक़्त से आज तक शैतान की ज़ुर्रियत और आदम की औलाद के दरमियान मुसलसल चली आ रही है और क़यामत तक चलती रहेगी। इसके अलावा इससे बनी नौए इंसानी की बाहमी दुश्मनियाँ भी मुराद हैं जो मुख्तलिफ़ अफ़राद और अक़वाम के दरमियान पायी जाती हैं।
“और तुम्हारे लिये ज़मीन में ठिकाना है और (ज़रुरत का) साज़ो सामान भी एक वक़्ते मुअय्यन तक।” وَلَكُمْ فِي الْاَرْضِ مُسْتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰي حِيْنٍ 24؀
यह ठिकाना और माल-ओ-मताअ अब्दी नहीं है, बल्कि एक ख़ास वक़्त तक के लिये है। अब तुम्हें इस ज़मीन पर रहना-बसना है और यहाँ रहने-बसने के लिये जो चीज़ें ज़रूरी हैं वह यहाँ पर फ़राहम कर दी गई हैं।

आयत 25
“फिर फ़रमाया कि (अब) तुम इसी (ज़मीन) में ज़िन्दगी गुज़ारोगे, इसी में मरोगे और इसी में से तुम्हें निकाल लिया जायेगा।” قَالَ فِيْهَا تَحْيَوْنَ وَفِيْهَا تَمُوْتُوْنَ وَمِنْهَا تُخْرَجُوْنَ 25؀ۧ

आयात 26 से 31 तक
يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ قَدْ اَنْزَلْنَا عَلَيْكُمْ لِبَاسًا يُّوَارِيْ سَوْاٰتِكُمْ وَرِيْشًا ۭوَلِبَاسُ التَّقْوٰى ۙ ذٰلِكَ خَيْرٌ ۭذٰلِكَ مِنْ اٰيٰتِ اللّٰهِ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُوْنَ 26؀ يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ لَا يَفْتِنَنَّكُمُ الشَّيْطٰنُ كَمَآ اَخْرَجَ اَبَوَيْكُمْ مِّنَ الْجَنَّةِ يَنْزِعُ عَنْهُمَا لِبَاسَهُمَا لِيُرِيَهُمَا سَوْاٰتِهِمَا ۭاِنَّهٗ يَرٰىكُمْ هُوَ وَقَبِيْلُهٗ مِنْ حَيْثُ لَا تَرَوْنَهُمْ ۭاِنَّا جَعَلْنَا الشَّيٰطِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ لِلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ 27؀ وَاِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَةً قَالُوْا وَجَدْنَا عَلَيْهَآ اٰبَاۗءَنَا وَاللّٰهُ اَمَرَنَا بِهَا ۭقُلْ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَاْمُرُ بِالْفَحْشَاۗءِ ۭاَتَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 28؀ قُلْ اَمَرَ رَبِّيْ بِالْقِسْطِ ۣوَاَقِيْمُوْا وُجُوْهَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ وَّادْعُوْهُ مُخْلِصِيْنَ لَهُ الدِّيْنَ ڛ كَمَا بَدَاَكُمْ تَعُوْدُوْنَ 29؀ۭ فَرِيْقًا هَدٰي وَفَرِيْقًا حَقَّ عَلَيْهِمُ الضَّلٰلَةُ ۭاِنَّهُمُ اتَّخَذُوا الشَّيٰطِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَيَحْسَبُوْنَ اَنَّهُمْ مُّهْتَدُوْنَ 30؀ يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ خُذُوْا زِيْنَتَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ وَّكُلُوْا وَاشْرَبُوْا وَلَا تُسْرِفُوْا ۚ اِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِيْنَ 31؀ۧ

आयत 26
“ऐ आदम अलै. की औलाद, हमने तुम पर लिबास उतारा जो तुम्हारी शर्मगाहों को ढ़ाँपता है और आराईश व ज़ेबाईश का सबब भी है।” يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ قَدْ اَنْزَلْنَا عَلَيْكُمْ لِبَاسًا يُّوَارِيْ سَوْاٰتِكُمْ وَرِيْشًا ۭ
अरबों के यहाँ ज़माना-ए-जाहिलियत के गलत रस्मों रिवाज और नज़रियात में से एक राहबाना नज़रिया या तसव्वुर यह भी था कि लिबास इंसानी जिस्म के लिए ख़्वाह मख़्वाह का तकल्लुफ़ है और यह शर्म का अहसास जो इंसान ने अपने ऊपर ओढ़ रखा है यह भी इंसान का ख़ुद अपना पैदा करदा है। इस नज़रिये के तहत उनके मर्द और औरतें मादारज़ाद नंगे होकर काबातुल्लाह का तवाफ़ करते थे। उनके नज़दीक यह नफ़ी ज़ात (self annihiliation) का बहुत बड़ा मज़ाहिर था और यूँ अल्लाह तआला के क़ुर्ब का एक ख़ास ज़रिया भी। इस तरह के ख़्यालात व नज़रियात बाज़ मआशरों में आज भी पाए जाते हैं, हमारे यहाँ भी बाज़ मलन्ग क़िस्म के लोग लिबास पर उरयानी को तरजीह देते हैं, जबकि अवामुन्नास आमतौर पर ऐसे लोगों को अल्लाह के मुक़र्रब बन्दे समझते हैं। इस आयत में दरअसल ऐसे जाहिलाना नज़रियात की नफ़ी की जा रही है कि तुम्हारे लिये लिबास का तसव्वुर अल्लाह का वदीयत करदा है। यह ना सिर्फ़ तुम्हारी सतरपोशी करता है बल्कि तुम्हारे लिये ज़ेबो ज़ीनत का बाइस भी है।
“और (इससे बढ़ कर) तक़वे का लिबास जो है वह सबसे बेहतर है।” وَلِبَاسُ التَّقْوٰى ۙ ذٰلِكَ خَيْرٌ ۭ
सबसे बेहतर लिबास तक़वे का लिबास है, अग़र यह ना होता तो बसा अवक़ात इंसान लिबास पहन कर भी नंगा होता है, जैसा कि इन्तहाई तंग लिबास, जिसमें जिस्म के नशेब-ओ-फ़राज़ ज़ाहिर हो रहे हों या औरतों का इस क़द्र बारीक लिबास जिसमें जिस्म झलक रहा हो। ऐसा लिबास पहनने वाली औरतें के बारे में हुज़ूर ﷺ ने “کَاسِیَاتٌ عَارِیَاتٌ” के अल्फ़ाज़ इस्तेमाल फ़रमाये हैं, यानि जो लिबास पहन कर भी नंगी रहती हैं। उनके बारे में फ़रमाया कि यह औरतें जन्नत में दाख़िल होना तो दरकिनार, जन्नत की हवा भी ना पा सकेंगी, जबकि जन्नत की हवा पाँच सौ साल की मुसाफ़त से भी महसूस हो जाती है।(7) चुनाँचे وَلِبَاسُ التَّقْوٰى से मुराद एक तरफ़ तो यह है कि इंसान जो लिबास ज़ेबतन करे वह हक़ीक़ी मायनों में तक़वे का मज़हर हो और दूसरी तरफ़ यह भी कि इंसानी शख़्सियत की असल ज़ीनत वह लिबास है जिसका ताना-बाना शर्म व हया और ख़ुदा ख़ौफ़ी से बनता है।
“यह अल्लाह की निशानियों में से है ताकि यह लोग नसीहत अख़ज़ (हासिल) करें।” ذٰلِكَ مِنْ اٰيٰتِ اللّٰهِ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُوْنَ 26؀

आयत 27
“ऐ बनी आदम (देखो अब) शैतान तुम्हें फ़ितने में ना डालने पाये, जैसे कि तुम्हारे वालिदैन को उसने जन्नत से निकलवा दिया था (और उसने उतरवा दिया था उनसे उनका लिबास, ताकि उन पर अयाँ (ज़ाहिर) कर दे उनकी शर्मगाहें।” يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ لَا يَفْتِنَنَّكُمُ الشَّيْطٰنُ كَمَآ اَخْرَجَ اَبَوَيْكُمْ مِّنَ الْجَنَّةِ يَنْزِعُ عَنْهُمَا لِبَاسَهُمَا لِيُرِيَهُمَا سَوْاٰتِهِمَا ۭ
“यक़ीनन वह और उसकी ज़ुर्रियत (औलाद) वहाँ से तुम पर नज़र रखते हैं जहाँ से तुम उन्हें देख नहीं सकते।” اِنَّهٗ يَرٰىكُمْ هُوَ وَقَبِيْلُهٗ مِنْ حَيْثُ لَا تَرَوْنَهُمْ ۭ
चूँकि इब्लीस को अल्लाह की तरफ़ से क़यामत तक छूट मिली हुई है लिहाज़ा वह ना सिर्फ़ मुसलसल ज़िन्दा है, बल्कि उसने अपनी औलाद और अपने नुमाइन्दों को अपने एजेंडे की तकमील के लिये इंसानों के दरमियान फैला रखा है। यह जिन्न श्यातीन चूँकि ग़ैर मरई (invisible) मख्लूक़ हैं इसलिये ऐसी-ऐसी जगहों पर हमारी घात में बैठे होते हैं और ऐसे-ऐसे तौर तरीक़ों से हमलावर होते हैं जिसका हल्का सा अंदाज़ा भी हम नहीं कर सकते।
“हमने तो श्यातीन को उन लोगों का दोस्त बना दिया है जो ईमान नहीं लाते।” اِنَّا جَعَلْنَا الشَّيٰطِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ لِلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ 27؀
जैसे गंदगी और मक्ख़ी का फितरी साथ है ऐसे ही शैतान और मुन्करीने हक़ का याराना है। जिस दिल में ईमान नहीं होगा और वह अल्लाह के ज़िक्र से महरूम होगा, वह “ख़ाना-ए-खाली राद यूमी दीगर” के मिस्दाक़ शैतान ही का अड्डा बनेगा।
आयत 28
“और जब यह लोग कोई बेहयाई का काम करते हैं तो कहते हैं कि हमने पाया है यही कुछ करते हुए अपने अबा व अजदाद को, और अल्लाह ने हमें इसका हुक्म दिया है।” وَاِذَا فَعَلُوْا فَاحِشَةً قَالُوْا وَجَدْنَا عَلَيْهَآ اٰبَاۗءَنَا وَاللّٰهُ اَمَرَنَا بِهَا ۭ
यह लोग जब नंगे होकर ख़ाना काबा का तवाफ़ करते तो इस शर्मनाक फ़अल का जवाज़ पेश करते हुए कहते कि हमने अपने अबा व अजदाद को ऐसे ही करते देखा है और यक़ीनन अल्लाह ही ने इसका हुक्म दिया होगा। यह गोया उनके नज़दीक एक ठोस, क़राइनी शहादत (circumstantial evidence) थी कि जब एक रीत और रस्म चली आ रही है तो यक़ीनन यह सब कुछ अल्लाह की मर्ज़ी और उसके हुक्म के मुताबिक़ ही हो रहा होगा।
“(ऐ नबी ﷺ इनसे) कह दीजिये कि अल्लाह तआला बेहयाई का हुक्म नहीं देता, तो क्या तुम अल्लाह की तरफ़ मन्सूब कर रहे हो वह कुछ जिसका तुम्हें कोई इल्म नहीं।” قُلْ اِنَّ اللّٰهَ لَا يَاْمُرُ بِالْفَحْشَاۗءِ ۭاَتَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 28؀

आयत 29
“आप ﷺ कहिये कि मेरे रब ने तो हुक्म दिया है इंसाफ़ (अद्ल व तवाज़ुन) का, और अपने रुख़ सीधे कर लिया करो हर नमाज़ के वक़्त” قُلْ اَمَرَ رَبِّيْ بِالْقِسْطِ ۣوَاَقِيْمُوْا وُجُوْهَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ
मस्जिद इस्मे ज़र्फ़ है और यह ज़र्फ़े ज़मान भी है और ज़र्फे मकान भी। बतौर ज़र्फ़े मकान सज्दे की जगह मस्जिद है और बतौर ज़र्फे ज़मान सज्दे का वक़्त मस्जिद है।
“और उसी को पुकारा करो उसी के लिये अपनी इताअत को ख़ालिस करते हुए।” وَّادْعُوْهُ مُخْلِصِيْنَ لَهُ الدِّيْنَ ڛ
यानि अल्लाह को पुकारने, उससे दुआ करने की एक शर्त है और वह यह कि उसकी इताअत को अपने ऊपर लाज़िम किया जाये। जैसा कि सूरतुल बक़रह आयत 186 में रोज़े के अहकाम और हिकमतों को बयान करने के बाद फ़रमाया: { اُجِيْبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِ } कि मैं तो हर पुकारने वाले की पुकार सुनता हूँ, उसकी दुआ को क़ुबूल करता हूँ, लेकिन उन्हें भी तो चाहिये कि मेरा कहना मानें। और यह कहना मानना या इताअत जुज़्वी (partially) तौर पर क़ाबिले क़ुबूल नहीं, बल्कि इसके लिये {ادْخُلُوْا فِي السِّلْمِ كَاۗفَّةً ۠} (अल् बक़रह:208) का मैयार सामने रखना होगा, यानि अल्लाह तआला की इताअत में पूरे-पूरे दाख़िल होना होगा। लिहाज़ा इस हवाले से यहाँ फ़रमाया गया कि अपनी इताअत को उसी के लिये ख़ालिस करते हुए उसे पुकारो। यानि उसकी इताअत के दायरे के अन्दर कुल्ली तौर पर दाख़िल होते हुए उससे दुआ करो। यहाँ यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जोह है कि इंसान को अपनी ज़िन्दगी में बेशुमार इताअतों से साबक़ा पड़ता है, वालिदैन की इताअत, उस्तादों की इताअत, ऊलुल अम्र की इताअत वग़ैरह। तो इसमें बुनियादी तौर पर जो उसूलकार फ़रमा है वह यह है कि “لَا طَاعَۃَ لِمَخْلُوْقٍ فِیْ مَعْصِیَۃِ الْخَالِقِ”। यानि मख्लूक़ में से किसी की ऐसी इताअत नहीं की जायेगी जिसमें ख़ालिक़े हक़ीक़ी की मअसियत लाज़िम आती हो। अल्लाह की इताअत सबसे ऊपर और सबसे बरतर है। उसकी इताअत के दायरे के अंदर रहते हुए बाक़ी सब इताअतें हो सकती हैं, मग़र जहाँ किसी की इताअत में अल्लाह के किसी हुक्म की ख़िलाफ़ वर्ज़ी होती हो तो ऐसी इताअत ना क़ाबिले क़ुबूल और हराम होगी।
“जैसे उसने तुम्हें पहले पैदा किया था इसी तरह तुम दोबारा भी पैदा हो जाओगे।” كَمَا بَدَاَكُمْ تَعُوْدُوْنَ 29؀ۭ

आयत 30
“एक ग़िरोह को उसने हिदायत दे दी है और एक ग़िरोह वह है जिसके ऊपर गुमराही मुसल्लत हो चुकी है।” فَرِيْقًا هَدٰي وَفَرِيْقًا حَقَّ عَلَيْهِمُ الضَّلٰلَةُ ۭ
यानि जिन्होंने इन्कार किया और फिर उस इन्कार पर डट गए वो अपनी इस मुतअस्सुबाना रविश की वजह से, अपनी ज़िद और अपनी हठधर्मी के सबब, अपने हसद और तकब्बुर के बाइस ग़ुमराही के मुस्तहिक़ हो चुके हैं।
“(और यह इसलिये कि) इन्होंने शैतानों को अपना साथी बना लिया अल्लाह को छोड़ कर और समझते यह हैं कि हम हिदायत पर हैं।” اِنَّهُمُ اتَّخَذُوا الشَّيٰطِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَيَحْسَبُوْنَ اَنَّهُمْ مُّهْتَدُوْنَ 30؀

आयत 31
“ऐ आदम अलै० की औलाद, अपनी ज़ीनत इस्तवार किया करो हर नमाज़ के वक़्त” يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ خُذُوْا زِيْنَتَكُمْ عِنْدَ كُلِّ مَسْجِدٍ
यहाँ अच्छे लिबास को ज़ीनत कहा गया है, जैसा कि आयत 26 में लिबास को رِيْشًا फ़रमाया गया था, यानि लिबास इंसान के लिये ज़ेबो ज़ीनत का ज़रिया है। यहाँ एक नुक्ता यह भी क़ाबिले ग़ौर है कि अभी जिन तीन आयात (26, 27 और 31) में लिबास का ज़िक्र हुआ है, उन तीनों में बनी आदम को मुख़ातिब किया गया है। इसका मतलब यह है कि लिबास का मामला पूरी नौए इंसानी से मुताल्लिक़ है। बहरहाल इस आयत में जो अहम हुक्म दिया जा रहा है वह नमाज़ के वक़्त बेहतर लिबास ज़ेबतन करने के बारे में है। हमारे यहाँ इस सिलसिले में आमतौर पर उल्टी रविश चलती है। दफ़्तर और आम मेल मुलाक़ात के लिये तो अमूमन बहुत अच्छे लिबास का अहतमाम किया जाता है, लेकिन मस्जिद जाना हो तो मैले-कुचैले कपड़ों से ही काम चला लिया जाता है। लेकिन यहाँ अल्लाह तआला फ़रमा रहे हैं कि जब तुम्हें मेरे दरबार में आना हो तो पूरे अहतमाम के साथ आया करो, अच्छा और साफ़-सुथरा लिबास पहन कर आया करो।
“और खाओ और पियो अलबत्ता इसराफ़ (फ़ुज़ूल खर्ची) ना करो, यक़ीनन वह इसराफ़ करने वालों को पसंद नहीं करता।” وَّكُلُوْا وَاشْرَبُوْا وَلَا تُسْرِفُوْا ۚ اِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُسْرِفِيْنَ 31؀ۧ
बनी आदम से कहा जा रहा है कि यह दुनिया की चीज़ें तुम्हारे लिये ही बनाई गयीं हैं और इन चीज़ों से जायज़ और मारूफ़ तरीक़ों से इस्तफ़ादा करने पर कोई पाबंदी नहीं, लेकिन अल्लाह तआला की अता करदा इन नेअमतों के बेजा इस्तेमाल और इसराफ़ से इज्तनाब भी ज़रूरी है, क्योंकि इसराफ़ अल्लाह तआला को पसंद नहीं। यहाँ एक तरफ़ तो उसी रहबानी नज़रिये की नफ़ी हो रही है जिसमें अच्छे खाने, अच्छे लिबास और ज़ेब व ज़ेबाइश को सिरे से अच्छा नहीं समझा जाता और मुफ़्लिसाना वज़ा-क़तअ और तर्के लज़्ज़ात को रुहानी इरतक़ाअ के लिये ज़रूरी ख़्याल किया जाता है, जबकि दूसरी तरफ़ दुनियवी नेअमतों के बेजा इसराफ़ और ज़िया (बर्बादी) से सख़्ती से मना कर दिया गया है।
इस सिलसिले में इफ़रात व तफ़रीत से बचने के लिये ज़रूरियाते ज़िन्दगी के इकतसाब व तसर्रुफ़ के मैयार और फ़लसफ़े को अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है। एक मुसलमान जहाँ कहीं भी रहता-बसता है उसको दो सूरतों में से एक सूरते हाल दरपेश हो सकती है। उसके मुल्क में या तो दीन ग़ालिब है या मग़लूब। अब अग़र आपके मुल्क में अल्लाह का दीन मग़लूब है तो आपका पहला फ़र्ज़ यह है कि आप अल्लाह के दीन के गलबे की जद्दोजहद करें और इसके लिये किसी बाक़ायदा तन्ज़ीम में शामिल होकर अपना बेशतर वक़्त और सलाहियतें इस जद्दोजहद में लगाएँ। ऐसी सूरते हाल में दुनियवी तौर पर तरक्क़ी करना और फलना-फूलना आपकी तरजीहात में शामिल ही नहीं होना चाहिये, बल्कि आपकी पहली तरजीह दीन के ग़लबे के लिये जद्दोजहद होनी चाहिये और आपका मोटो { قُلْ اِنَّ صَلَاتِيْ وَنُسُكِيْ وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِيْ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ } (अनआम:162) होना चाहिये। इसका मन्तक़ी नतीजा यह होगा कि आप माद्दी लिहाज़ से बहुत बेहतर मैयारे ज़िन्दगी को बरक़रार नहीं रख सकेंगे। यह इसलिये नहीं होगा कि आप रहबानियत या तर्के लज़्ज़ात के क़ायल हैं बल्कि इसकी वजह यह होगी कि दुनिया और दुनियवी आसाईशें कमाने के लिये ना आप कोशां है और ना ही उसके लिये आपके पस वक़्त है। आप तो शऊरी तौर पर ज़रूरियाते ज़िन्दगी को कम से कम मैयार पर रख कर अपनी तमाम तर सलाहियतें, अपना वक़्त और अपने वसाइल दीन की सरबुलंदी के लिये खपा रहे हैं। यह रहबानियत नहीं है बल्कि एक मुसबत जिहादी नज़रिया है। जैस नबी अकरम ﷺ और सहाबा किराम रज़ि. ने सख़्तियाँ झेलीं और अपने घर-बार इसी दीन की सरबुलंदी के लिये छोड़े। क्योंकि इस काम के लिये अल्लाह तआला आसमान से फ़रिश्तों को नाज़िल नहीं करेगा, बल्कि यह काम इंसानों ने करना है, मुसलमानों ने करना है। इंसानी तारीख़ ग़वाह है कि जो लोग इन्क़लाब के दाई बने हैं, उन्हें क़ुर्बानियाँ देनी पड़ी हैं, उन्हें सख़्तियाँ उठानी पड़ी हैं। क्योंकि कोई भी इन्क़लाब क़ुर्बानियों के बग़ैर नहीं आता। लिहाज़ा अग़र आप वाक़ई अपने दीन को ग़ालिब करने के लिये इन्क़लाब के दाई बन कर निकले हैं तो आप का मैयारे ज़िन्दगी ख़ुद ब ख़ुद कम से कम होता चला जायेगा।
अलबत्ता अगर आपके मुल्क में दीन ग़ालिब हो चुका है, निज़ामें ख़िलाफ़त क़ायम हो चुका है, इस्लामी फ़लाही रियासत वजूद में आ चुकी है तो दीन की मज़ीद नशरो इशाअत, दावत व तब्लीग़ और निज़ामे ख़िलाफ़त की तौसीअ (विस्तार), अवामी फ़लाह व बहबूद (कल्याण) की निग़रानी, अमन व अमान का क़याम, मुल्की सरहदों की हिफ़ाजत, यह सब हुकूमत और रियासत की ज़िम्मेदारियाँ हैं। ऐसी इस्लामी रियासत में एक फ़र्द की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ इसी हद तक है जिस हद तक हुकूमत की तरफ़ से उसे मुकल्लफ़ किया जाये। वह किसी टैक्स की सूरत में हो या फिर किसी और नौइयत की ज़िम्मेदारी हो। लेकिन ऐसी सूरते हाल में एक फ़र्द, एक आम शहरी आज़ाद है कि वह दीन के दायरे में रहते हुए अपनी ज़ाती ज़िन्दगी अपनी मर्ज़ी से गुज़ारे। अच्छा कमाये, अपने बच्चों के लिये बेहतर मैयारे ज़िन्दगी अपनाये, दुनियवी तरक्की के लिये मेहनत करे, इल्मी व तहक़ीक़ी मैदान में अपनी सलाहियतों को आज़माये या रूहानी तरक्क़ी के लिये मुजाहदा करे, तमाम रास्ते उसके लिये खुले हैं।

आयात 32 से 39 तक
قُلْ مَنْ حَرَّمَ زِيْنَةَ اللّٰهِ الَّتِيْٓ اَخْرَجَ لِعِبَادِهٖ وَالطَّيِّبٰتِ مِنَ الرِّزْقِ ۭقُلْ هِىَ لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا خَالِصَةً يَّوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭكَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ 32؀ قُلْ اِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَ وَالْاِثْمَ وَالْبَغْيَ بِغَيْرِ الْحَقِّ وَاَنْ تُشْرِكُوْا بِاللّٰهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهٖ سُلْطٰنًا وَّاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 33؀ وَلِكُلِّ اُمَّةٍ اَجَلٌ ۚ فَاِذَا جَاۗءَ اَجَلُهُمْ لَا يَسْـتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ 34؀ يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ اِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ رُسُلٌ مِّنْكُمْ يَـقُصُّوْنَ عَلَيْكُمْ اٰيٰتِيْ ۙ فَمَنِ اتَّقٰى وَاَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ 35؀ وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاسْتَكْبَرُوْا عَنْهَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 36؀ فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِهٖ ۭاُولٰۗىِٕكَ يَنَالُهُمْ نَصِيْبُهُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ ۭ ﱑ اِذَا جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُنَا يَتَوَفَّوْنَهُمْ ۙ قَالُوْٓا اَيْنَ مَا كُنْتُمْ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ قَالُوْا ضَلُّوْا عَنَّا وَشَهِدُوْا عَلٰٓي اَنْفُسِهِمْ اَنَّهُمْ كَانُوْا كٰفِرِيْنَ 37؀ قَالَ ادْخُلُوْا فِيْٓ اُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ فِي النَّارِ ۭكُلَّمَا دَخَلَتْ اُمَّةٌ لَّعَنَتْ اُخْتَهَا ۭ ﱑ اِذَا ادَّارَكُوْا فِيْهَا جَمِيْعًا ۙ قَالَتْ اُخْرٰىهُمْ لِاُوْلٰىهُمْ رَبَّنَا هٰٓؤُلَاۗءِ اَضَلُّوْنَا فَاٰتِهِمْ عَذَابًا ضِعْفًا مِّنَ النَّارِ ڛ قَالَ لِكُلٍّ ضِعْفٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَعْلَمُوْنَ 38؀ وَقَالَتْ اُوْلٰىهُمْ لِاُخْرٰىهُمْ فَمَا كَانَ لَكُمْ عَلَيْنَا مِنْ فَضْلٍ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْسِبُوْنَ 39؀ۧ

आयत 32
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कहें कि किसने हराम की है वह ज़ीनत जो अल्लाह ने निकाली है अपने बंदों के लिये? और (किसने हराम की हैं) पाकीज़ा चीज़ें खाने की? आप कह दीजिये ये तमाम चीज़ें दुनिया की ज़िन्दगी में भी अहले ईमान के लिये हैं और क़यामत के दिन तो यह ख़ालिसतन उन्हीं के लिये होंगी।” قُلْ مَنْ حَرَّمَ زِيْنَةَ اللّٰهِ الَّتِيْٓ اَخْرَجَ لِعِبَادِهٖ وَالطَّيِّبٰتِ مِنَ الرِّزْقِ ۭقُلْ هِىَ لِلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا خَالِصَةً يَّوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ
दुनिया में रहते हुए तो बेशक अल्लाह के मुन्करीन भी उसकी नेअमतों में से खा-पी लें, इस्तफ़ादा कर लें मग़र आख़िरत में यह तमाम पाक़ीज़ा नेअमतें अहले ईमान और अहले जन्नत के लिये मुख़्तस (allocated) होंगी और कुफ्फ़ार को इनमें से कोई चीज़ नहीं मिलेगी।
“इसी तरह हम अपनी आयात की वज़ाहत करते हैं उन लोगों के लिये जो इल्म रखते हैं।” كَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ 32؀

आयत 33
“कह दीजिये कि मेरे रब ने तो हराम क़रार दिया है बेहयाई की बातों को ख़्वाह वह ऐलानिया हों और ख़्वाह छुपी हुई हों।” قُلْ اِنَّمَا حَرَّمَ رَبِّيَ الْفَوَاحِشَ مَا ظَهَرَ مِنْهَا وَمَا بَطَنَ
बेहयाई ख़्वाह छुपी हुई भी हो, अल्लाह तआला को पसंद नहीं है।
“और (हराम किया है उसने) गुनाह को और नाहक़ ज़्यादती को” وَالْاِثْمَ وَالْبَغْيَ بِغَيْرِ الْحَقِّ
“और यह (भी हराम ठहराया है) कि तुम अल्लाह के साथ शरीक ठहराओ (किसी ऐसी चीज़ को) जिसके लिये उसने कोई सनद नहीं उतारी है और यह भी कि तुम अल्लाह की तरफ़ मन्सूब करो वह चीज़ जिसका तुम इल्म नहीं रखते।” وَاَنْ تُشْرِكُوْا بِاللّٰهِ مَا لَمْ يُنَزِّلْ بِهٖ سُلْطٰنًا وَّاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 33؀

आयत 34
“और हर क़ौम के लिये एक वक़्त मुअय्यन है।” وَلِكُلِّ اُمَّةٍ اَجَلٌ ۚ
यानि जब भी कभी किसी क़ौम की तरफ़ कोई रसूल आता, तो एक मुक़र्रर मुद्दत तक उस क़ौम को मोहलत मयस्सर होती कि वह उस मुद्दते मोहलत से फ़ायदा उठाते हुए अपने रसूल अलै. की दावत पर लब्बैक कहे और सही रास्ते पर आ जाये। उस मुक़र्रर मुद्दत के दौरान उस क़ौम की नाफ़रमानियों को नज़रअंदाज़ किया जाता और उन पर अज़ाब नहीं आता था। हुज़ूर ﷺ की बेअसत के बाद मक्के में भी यही मामला दरपेश था। अहले मक्का को मशीयते ख़ुदावंदी के तहत मोहलत दी जा रही थी। दूसरी तरफ़ हक व बातिल की थका देने वाली कशमकश में अहले ईमान की ख़्वाहिश थी कि कुफ्फ़ार का फ़ैसला जल्द से जल्द चुका दिया जाये। अहले ईमान के ज़हनों में लाज़िमन यह सवाल बार-बार आता था कि आख़िर कुफ्फ़ार को इर क़द्र ढ़ील क्यों दी जा रही है! इस पसमंज़र में इस फ़रमान का मफ़हूम यह है कि अहले ईमान का ख़्याल अपनी जगह दुरुस्त सही, लेकिन हमारी हिकमत का तकाज़ा कुछ और है। हमने अपने रसूल ﷺ को मबऊस फ़रमाया है तो साथ ही इस क़ौम के लिये मोहलत की एक ख़ास मुद्दत भी मुक़र्रर की है। इस मुक़र्रर घड़ी से पहले इन पर अज़ाब नहीं आयेगा। हाँ जब वह घड़ी (अजल) आ जायेगी तो फिर हमारा फ़ैसला मुअख़्खर नहीं होगा। सूरह अल् अनआम की आयत 58 में इसी हवाले से फ़रमाया गया कि ऐ नबी (ﷺ) आप कुफ्फ़ार पर वाज़ेह कर दें कि अग़र मेरे इख़्तियार वह चीज़ होती जिसकी तुम लोग जल्दी मचा रहे हो तो मेरे और तुम्हारे दरमियान यह फ़ैसला कब का चुकाया जा चुका होता।
“फिर जब उनका वह मुक़र्रर वक़्त आ जायेगा तो ना एक घड़ी पीछे हट सकेंगे, ना आगे की तरफ़ सरक सकेंगे।” فَاِذَا جَاۗءَ اَجَلُهُمْ لَا يَسْـتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ 34؀
अब वह बात आ रही है जो हम सूरतुल बक़रह में भी पढ़ आये हैं। वहाँ आदम अलै. को ज़मीन पर भेजते हुए फ़रमाया गया था:
فَاِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ مِّـنِّىْ ھُدًى فَمَنْ تَبِعَ ھُدَاىَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ 38؀ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 39؀ۧ
इसी बात को यहाँ एक दूसरे अंदाज़ से बयान किया गया है।

आयत 35
“ऐ बनी आदम! जब भी तुम्हारे पास आएँ रसूल तुम ही में से जो तुम्हें मेरी आयात सुनाएँ, तो जो कोई भी (उनकी दावत के जवाब में) तक़वा की रविश इख़्तियार करेगा और इस्लाह कर लेगा तो उनके लिये ना कोई ख़ौफ़ होगा और ना वो किसी ग़म से दो-चार होंगे।” يٰبَنِيْٓ اٰدَمَ اِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ رُسُلٌ مِّنْكُمْ يَـقُصُّوْنَ عَلَيْكُمْ اٰيٰتِيْ ۙ فَمَنِ اتَّقٰى وَاَصْلَحَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا هُمْ يَحْزَنُوْنَ 35؀

आयत 36
“और जो हमारी आयात को झुठलाएँगे और तकब्बुर की बिना पर उन्हें रद्द कर देंगे वही जहन्नमी होंगे, उसी में वो हमेशा रहेंगे।” وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاسْتَكْبَرُوْا عَنْهَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 36؀

आयत 37
“फिर उस शख़्स से बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह की तरफ़ कोई ग़लत बात मन्सूब करे या उसकी आयात को झुठलाए।” فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِهٖ ۭ
“(लेकिन दुनिया में) उनको मिलता रहेगा उनका हिस्सा, उसमें से जो (उनके लिये) लिखा गया है।” اُولٰۗىِٕكَ يَنَالُهُمْ نَصِيْبُهُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ ۭ
दुनिया में रिज़्क़ वग़ैरह का जो मामला है वो उनके कुफ़्र की वजह से मुन्क़तअ (disconnect) नहीं होगा, बल्कि दुनियवी ज़िन्दगी में वह उन्हें मामूल के मुताबिक़ मिलता रहेगा। यह मज़मून सूरह बनी इस्राईल में दोबारा आयेगा।
“यहाँ तक कि जब उनके पास हमारे भेजे हुए (फ़रिश्ते) आ जायेंगे उन (की रूहों) को क़ब्ज़ करने के लिये तो वो कहेंगे कि कहाँ हैं वो जिनको तुम पुकारा करते थे अल्लाह के सिवा?” ﱑ اِذَا جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُنَا يَتَوَفَّوْنَهُمْ ۙ قَالُوْٓا اَيْنَ مَا كُنْتُمْ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ
अब कहाँ है वो तुम्हारे ख़ुद साख़्ता मअबूद जिनके सामने तुम माथे रगड़ते थे और जिनके आगे गिड़गिड़ाते हुए दुआएँ करते थे?
“वो कहेंगे कि वो सब तो हमसे गुम हो गये, और वो ख़ुद अपने ख़िलाफ़ यह गवाही देंगे कि वाक़िअतन वो काफिर थे।” قَالُوْا ضَلُّوْا عَنَّا وَشَهِدُوْا عَلٰٓي اَنْفُسِهِمْ اَنَّهُمْ كَانُوْا كٰفِرِيْنَ 37؀

आयत 38
“कहा जाएगा अच्छा शामिल हो जाओ जिन्नों और इंसानों की उन उम्मतों में जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं आग मे (दाख़िल होने के लिये)” قَالَ ادْخُلُوْا فِيْٓ اُمَمٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِكُمْ مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ فِي النَّارِ ۭ
यानि एक-एक क़ौम का हिसाब होता जाएगा और मुजरिमीन जहन्नम के अंदर झोंके जाते रहेंगे। पहली नस्ल के बाद दूसरी नस्ल, फिर तीसरी नस्ल व अला हाज़ल क़यास। अब वहाँ उनमें मुकालमा (discussion) होगा। बाद में आने वाली हर नस्ल के मुक़ालबे में पहली नस्ल के लोग बड़े मुजरिम होंगे, क्योंकि जो लोग बिदआत और ग़लत अक़ाइद के मौजद (आविष्कारक) होते हैं असल और बड़े मुजरिम तो वही होते हैं, उन्हीं की वजह से बाद में आने वाली नस्लें भी गुमराह होती हैं। लिहाज़ा क़ुरान मजीद में अहले जहन्नम के जो मकालमात मज़कूर हैं उनके मुताबिक़ बाद में आने वाले लोग अपने पहले वालों पर लानत करेंगे और कहेंगे कि तुम्हारी वजह से ही हम गुमराह हुए, लिहाज़ा तुम लोगों को तो दोगुना अज़ाब मिलना चाहिये। इस तरीक़े से वो आपस में एक-दूसरे पर लअन-तअन करेंगे और झगड़ेंगे।
“जब भी कोई उम्मत (जहन्नम में) दाख़िल होगी तो वह अपने जैसी दूसरी उम्मत पर लानत करेगी।” كُلَّمَا دَخَلَتْ اُمَّةٌ لَّعَنَتْ اُخْتَهَا ۭ
“यहाँ तक कि जब उसमें गिर चुकेंगे सबके सब तो उनके पिछले कहेंगे अपने अगलों के बारे में कि ऐ हमारे रब! यही लोग हैं जिन्होंने हमें गुमराह किया था” ﱑ اِذَا ادَّارَكُوْا فِيْهَا جَمِيْعًا ۙ قَالَتْ اُخْرٰىهُمْ لِاُوْلٰىهُمْ رَبَّنَا هٰٓؤُلَاۗءِ اَضَلُّوْنَا
दुनिया में तो ये लोग अपनी नस्लों के बारे में कहते थे कि वो हमारे आबा व अजदाद थे, हमारे क़ाबिले अहतराम अस्लाफ़ थे। यह तौर-तरीक़े उन्हीं की रीतें हैं, उन्हीं की रिवायतें हैं और उनकी इन रिवायतों को हम कैसे छोड़ सकते हैं? लेकिन वहाँ जहन्नम में अपने उन्हीं आबा व अजदाद के बारे में वो अलल ऐलान कह देंगे कि ऐ अल्लाह! यही हैं वो बदबख़्त जिन्होंने हमें गुमराह किया था।
“तो इनको दुगना अज़ाब दे आग में से।” فَاٰتِهِمْ عَذَابًا ضِعْفًا مِّنَ النَّارِ ڛ
“अल्लाह फ़रमायेगा (तुम) सबके लिये ही दुगना (अज़ाब) है, लेकिन तुम्हें इसका शऊर नहीं है।” قَالَ لِكُلٍّ ضِعْفٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَعْلَمُوْنَ 38؀
जैसे ये लोग तुम्हें गुमराह करके आये थे वैसे ही तुम भी अपने बाद वालों को गुमराह करके आये हो और यह सिलसिला दुनिया में इसी तरह चलता रहा। यह तो हर एक को उस वक़्त चाहिये था कि अपनी अक़्ल से काम लेता। मैंने तुम सबको अक़्ल दी थी, देखने और सुनने की सलाहियतें दी थी, नेकी और बदी का शऊर दिया था। तुम्हें चाहिये था कि इन सलाहियतों से काम लेकर बुरे-भले का ख़ुद तजज़िया (analysis) करते और अपने आबा व अजदाद और लीडरों की अंधी तक़लीद ना करते। लिहाज़ा तुम में से हर शख़्स अपनी तबाही व बर्बादी का ख़ुद ज़िम्मेदार है।

आयत 39
“और उनके अगले अपने पिछलों से कहेगे कि तुम्हें भी तो हम पर कोई फ़ज़ीलत हासिल नहीं हो सकी, लिहाज़ा अब चखो मज़ा अज़ाब का अपनी करतूतों के बदले में।” وَقَالَتْ اُوْلٰىهُمْ لِاُخْرٰىهُمْ فَمَا كَانَ لَكُمْ عَلَيْنَا مِنْ فَضْلٍ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْسِبُوْنَ 39؀ۧ

आयात 40 से 43 तक
اِنَّ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاسْتَكْبَرُوْا عَنْهَا لَا تُفَتَّحُ لَهُمْ اَبْوَابُ السَّمَاۗءِ وَلَا يَدْخُلُوْنَ الْجَنَّةَ حَتّٰي يَلِجَ الْجَمَلُ فِيْ سَمِّ الْخِيَاطِ ۭوَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُجْرِمِيْنَ 40؀ لَهُمْ مِّنْ جَهَنَّمَ مِهَادٌ وَّمِنْ فَوْقِهِمْ غَوَاشٍ ۭوَكَذٰلِكَ نَجْزِي الظّٰلِمِيْنَ 41؀ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَا نُكَلِّفُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَآ ۡ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 42؀ وَنَزَعْنَا مَا فِيْ صُدُوْرِهِمْ مِّنْ غِلٍّ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمُ الْاَنْھٰرُ ۚ وَقَالُوا الْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ هَدٰىنَا لِھٰذَا ۣ وَمَا كُنَّا لِنَهْتَدِيَ لَوْلَآ اَنْ هَدٰىنَا اللّٰهُ ۚ لَقَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُ رَبِّنَا بِالْحَقِّ ۭ وَنُوْدُوْٓا اَنْ تِلْكُمُ الْجَنَّةُ اُوْرِثْتُمُوْهَا بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ 43؀

आयत 40
“यक़ीनन जिन लोगों ने हमारी आयात को झुठलाया और तकब्बुर की बिना पर उनको रद्द किया, उनके लिये आसमान के दरवाज़े कभी नहीं खोले जायेंगे” اِنَّ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاسْتَكْبَرُوْا عَنْهَا لَا تُفَتَّحُ لَهُمْ اَبْوَابُ السَّمَاۗءِ
अग़रचे यह बात हतमियत (निश्चितता) से नहीं कही जा सकती, ताहम (फिर भी) क़ुरान मजीद में कुछ इस तरह के इशारात मिलते हैं जिनसे मालूम होता है कि जहन्नम इसी ज़मीन पर बरपा होगी और इब्तदाई नुज़ुल (महमानी) वाली जन्नत भी यहीं पर बसाई जायेगी। {وَاِذَا الْاَرْضُ مُدَّتْ} (सूरतुल इनशिक़ाक़:3) की अमली कैफ़ियत को ज़हन में लाने से यह नक़्शा तसव्वुर में यूँ आता है कि ज़मीन को जब ख़ींचा जायेगा तो यह पिचक जायेगी, जैस रबड़ की की गेंद को खींचा जाये तो वह अंदर को पिचक जाती है। इस अमल में ज़मीन के अंदर का सारा लावा बाहर निकल आयेगा जो जहन्नम की शक़्ल इख़्तियार कर लेगा (वल्लाहु आलम)। अहादीस में मज़कूर है कि रोज़े महशर मैदाने अराफ़ात को खोल कर वसीअ कर दिया जायेगा और यहीं पर हशर होगा। क़ुरान हकीम में { وَّجَاۗءَ رَبُّكَ وَالْمَلَكُ صَفًّا صَفًّا } (सूरतुल फ़ज्र:22) के अल्फ़ाज़ भी इस पर दलालत करते हैं कि परवरदिग़ार शाने अजलाल के साथ नुज़ूल फ़रमाएँगे, फ़रिश्ते भी फ़ौज दर फ़ौज आएँगे और यहीं पर हिसाब-किताब होगा। गोया “क़िस्सा-ए-ज़मीन बरसरे ज़मीन” वाला मामला होगा। अहले बहिश्त की इब्तदाई मेहमान नवाज़ी भी यहीं होगी, लेकिन फिर अहले जन्नत अपने मरातिब के ऐतबार से दर्जा-ब-दर्जा ऊपर की जन्नतों में चढ़ते चले जायेंगे, जबकि अहले जहन्नम यहीं कहीं रह जायेंगे, उनके लिये आसमानों के दरवाज़े खोले ही नहीं जायेंगे।
“और वो जन्नत में दाख़िल नहीं होंगे यहाँ तक कि ऊँट सुई के नाके में से गुज़र जाये।” وَلَا يَدْخُلُوْنَ الْجَنَّةَ حَتّٰي يَلِجَ الْجَمَلُ فِيْ سَمِّ الْخِيَاطِ ۭ
इसे कहते हैं “तालीक़ बिल् महाल।” ना यह मुमकिन होगा कि सुई के नाके से ऊँट गुज़र जाये और ना ही कुफ्फ़ार के लिये जन्नत में दाख़िल होने की कोई सूरत पैदा होगी। बिल्कुल यही मुहावरा हज़रत ईसा अलै. ने भी एक जगह इस्तेमाल किया है। आप अलै. के पास एक दौलतमंद शख़्स आया और पूछा कि आप अलै. की तालीमात क्या हैं? जवाब में आप अलै. ने नमाज़ पढ़ने, रोज़ा रखने, ग़रीबों पर माल ख़र्च करने और दूसरे नेक कामों के बारे में बताया। उस शख़्स ने कहा कि नेकी के यह काम तो मैं सब करता हूँ, आप बताइये और मैं क्या करुँ? आप अलै. ने फ़रमाया कि ठीक है तुमने यह सारी मंज़िलें तय कर ली हैं तो अब आख़री मंज़िल यह है कि अपनी सलीब उठाओ और मेरे साथ चलो! यानि हक़ व बातिल की कशमकश में जान व माल से मेरा साथ दो। यह सुन कर उस शख़्स का चेहरा लटक गया और वह चला गया। इस पर आप अलै. ने फ़रमाया कि ऊँट का सुई के नाके में से ग़ुजरना मुमकिन है मगर किसी दौलतमंद शख़्स का अल्लाह की बादशाहत में दाख़िल होना मुमकिन नहीं है। यहाँ यह वाक़िया क़ुरान में मज़कूर मुहावरे के हवाले से बर सबील तज़किरा आ गया है, हज़रत ईसा अलै. के इस फ़रमान को किसी मामले में बतौरे दलील पेश करना मक़सद नहीं।
“और इसी तरह हम बदला देते हैं मुजरिमों को।” وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُجْرِمِيْنَ 40؀

आयत 41
“उनके लिये जहन्नम ही का बिछौना होगा और ऊपर से उसी का ओढ़ना होगा। और इसी तरह हम ज़ालिमों को बदला देगें।” لَهُمْ مِّنْ جَهَنَّمَ مِهَادٌ وَّمِنْ فَوْقِهِمْ غَوَاشٍ ۭوَكَذٰلِكَ نَجْزِي الظّٰلِمِيْنَ 41؀
आग के गद्दे होंगे बिछाने के लिये और उसी के लिहाफ़ होगें ओढ़ने के लिये। और उसी आग के अंदर उनका गुज़र-बसर होगा।

आयत 42
“और वो लोग जो ईमान लाये और जिन्होंने नेक अमल किये— हम किसी जान को ज़िम्मेदार नहीं ठहराएँगे मग़र उसकी वुसअत के मुताबिक़— वही होंगे जन्नत वाले, उसमें रहेंगे हमेशा-हमेश।” وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ لَا نُكَلِّفُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَآ ۡ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 42؀
यह मज़मून सूरतुल बक़रह की आख़री आयत में भी आ चुका है। अब यहाँ फिर दोहराया गया है कि आख़िरत का मुहासबा इन्फ़रादी तौर पर होगा और हर फ़र्द की सलाहियतों और उसको वदीयत की गई नेअमतों के ऐन मुताबिक़ होगा। किसी की इस्तताअत से ज़्यादा की ज़िम्मेदारी उस पर नहीं डाली जायेगी।

आयत 43
“और हम निकाल देंगे जो कुछ उनके सीनों में होगा (एक-दूसरे की तरफ़ से) कोई मैल” وَنَزَعْنَا مَا فِيْ صُدُوْرِهِمْ مِّنْ غِلٍّ
अहले ईमान भी आख़िर इंसान हैं। बाहमी मामलात में उनको भी एक-दूसरे से गिले और शिकवे हो सकते हैं और दिलों में शुकूक व शुबहात जन्म ले सकते हैं। दीनी जमाअतों के अंदर भी किसी मामूर को अमीर से, अमीर को मामूर से या एक रफ़ीक़ से दूसरे रफ़ीक़ से शिकायत हो सकती है। कुछ ऐसे गिले-शिकवे भी हो सकते हैं जो दुनिया की ज़िन्दगी में ख़त्म ना हो सके होंगे। ऐसे गिले-शिकवों के ज़िमन में क़ुरान हकीम में कई मरतबा फ़रमाया गया कि अहले जन्नत को जन्नत में दाख़िल करने से पहले उनके दिलों को ऐसी तमाम आलाइशों से पाक कर दिया जायेगा और वो लोग बाहम भाई-भाई बन कर एक-दूसरे के रू-ब-रू बैठेंगे: {وَنَزَعْنَا مَا فِيْ صُدُوْرِهِمْ مِّنْ غِلٍّ اِخْوَانًا عَلٰي سُرُرٍ مُّتَقٰبِلِيْنَ} (हिज्र: 47) इसी लिये अहले ईमान को सूरह हश्र में यह दुआ भी तल्क़ीन की गई है: { رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا وَلِاِخْوَانِنَا الَّذِيْنَ سَبَقُوْنَا بِالْاِيْمَانِ وَلَا تَجْعَلْ فِيْ قُلُوْبِنَا غِلًّا لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا رَبَّنَآ اِنَّكَ رَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ} “ऐ हमारे परवरदिगार! तू हमारे और हमारे उन भाईयों के गुनाह माफ़ फ़रमा दे जो हमसे पहले ईमान लाये और अहले ईमान में से किसी के लिये भी हमारे दिलों में कोई कदूरत बाक़ी ना रहने दे, बेशक तू रऊफ़ और रहीम है।” इन मज़ामीन की आयात के बारे में हज़रत अली रज़ि. का यह क़ौल भी (ख़ासतौर पर सूरतुल हिज्र, आयत 47 के शाने नुज़ूल में) मन्क़ूल है कि यह मेरा और मुआविया रज़ि. का ज़िक्र है कि अल्लाह तआला हमें जन्नत में दाख़िल करेगा तो दिलों से तमाम कदूरतें साफ़ कर देगा। ज़ाहिर बात है कि हज़रत अली और हज़रत अमीर मुआविया रज़ि. के दरमियान जंगे हुई हैं तो कितनी कुछ शिकायतें बाहमी तौर पर पैदा हुई होंगी। ऐसी तमाम शिकायतें और कदूरतें वहाँ दूर कर दी जायेंगी।
“और उनके (बाला ख़ानों) के नीचे नहरें बहती होंगी।” تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمُ الْاَنْھٰرُ ۚ
“और वो कहेंगे कुल शुक्र और कुल तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जिसने हमें यहाँ तक पहुँचा दिया, और हम यहाँ तक नहीं पहुँच सकते थे अग़र अल्लाह ही ने हमें ना पहुँचा दिया होता। यक़ीनन हमारे रब के रसूल हक़ के साथ आये थे।” وَقَالُوا الْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ هَدٰىنَا لِھٰذَا ۣ وَمَا كُنَّا لِنَهْتَدِيَ لَوْلَآ اَنْ هَدٰىنَا اللّٰهُ ۚ لَقَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُ رَبِّنَا بِالْحَقِّ ۭ
“और (तब) उन्हें पुकारा जायेगा कि यह है वह जन्नत जिसके तुम वारिस बना दिये गये हो अपने आमाल की वजह से।” وَنُوْدُوْٓا اَنْ تِلْكُمُ الْجَنَّةُ اُوْرِثْتُمُوْهَا بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ 43؀
बंदे का मक़ामे अब्दियत इसी बात का तक़ाज़ा करता है कि वह अल्लाह के ईनाम व इकराम पर सरापा शुक्र बन कर पुकार उठे कि ऐ अल्लाह मैं इस लायक़ नहीं था, मेरे आमाल ऐसे नहीं थे, मैं अपनी कोशिश की बुनियाद पर कभी भी इसका मुस्तहिक़ नहीं हो सकता था, यह सारा तेरा फ़ज़ल व करम, तेरी अता और तेरी देन है, जबकि अल्लाह तआला बंदे के हुस्ने नीयत और आमाले सालेह की क़द्र अफ़ज़ाई करते हुए इर्शाद फ़रमायेगा कि मेरे बंदे, तूने दुनिया में जो मेहनत की थी, यह मक़ाम तेरी मेहनत का ईनाम हैं, तेरी कोशिश का समर (फल) है, तेरे ईसार (त्याग) का सिला है। तूने खुलूसे नीयत से हक़ का रास्ता चुना था, उसमें तूने नुक़सान भी बर्दाश्त किया, बातिल का मुक़ाबला करने में तकालीफ़ भी उठाईं। चुनाँचे बंदे की कोशिश व मेहनत और अल्लाह तआला का फ़ज़ल व करम दोनों चीज़ें मिल कर ही बंदे की दाइमी फ़लाह को मुमकिन बनाती हैं। हम एक नेक काम का इरादा करते हैं तो अल्लाह तआला नीयत के ख़ुलूस को देखते हुए उस काम की तौफ़ीक़ दे देता है और उसे हमारे लिये आसान कर देता है। अग़र हम इरादा ही नहीं करेंगे तो अल्लाह की तरफ़ से तौफ़ीक़ भी नहीं मिलेगी। इसी तरह अल्लाह की तौफ़ीक़ व तैसीर के बग़ैर महज़ इरादे से भी हम कुछ नहीं कर सकते।

आयात 44 से 53 तक
وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ اَصْحٰبَ النَّارِ اَنْ قَدْ وَجَدْنَا مَا وَعَدَنَا رَبُّنَا حَقًّا فَهَلْ وَجَدْتُّمْ مَّا وَعَدَ رَبُّكُمْ حَقًّا ۭقَالُوْا نَعَمْ ۚ فَاَذَّنَ مُؤَذِّنٌۢ بَيْنَهُمْ اَنْ لَّعْنَةُ اللّٰهِ عَلَي الظّٰلِمِيْنَ 44؀ۙ الَّذِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَيَبْغُوْنَهَا عِوَجًا ۚ وَهُمْ بِالْاٰخِرَةِ كٰفِرُوْنَ 45؀ۘ وَبَيْنَهُمَا حِجَابٌ ۚ وَعَلَي الْاَعْرَافِ رِجَالٌ يَّعْرِفُوْنَ كُلًّاۢ بِسِيْمٰىهُمْ ۚ وَنَادَوْا اَصْحٰبَ الْجَنَّةِ اَنْ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ ۣ لَمْ يَدْخُلُوْهَا وَهُمْ يَطْمَعُوْنَ 46؀ وَاِذَا صُرِفَتْ اَبْصَارُهُمْ تِلْقَاۗءَ اَصْحٰبِ النَّارِ ۙ قَالُوْا رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ 47؀ۧ وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ الْاَعْرَافِ رِجَالًا يَّعْرِفُوْنَهُمْ بِسِيْمٰىهُمْ قَالُوْا مَآ اَغْنٰى عَنْكُمْ جَمْعُكُمْ وَمَا كُنْتُمْ تَسْتَكْبِرُوْنَ 48؀ اَهٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمْتُمْ لَا يَنَالُهُمُ اللّٰهُ بِرَحْمَةٍ ۭ اُدْخُلُوا الْجَنَّةَ لَا خَوْفٌ عَلَيْكُمْ وَلَآ اَنْتُمْ تَحْزَنُوْنَ 49؀ وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ النَّارِ اَصْحٰبَ الْجَنَّةِ اَنْ اَفِيْضُوْا عَلَيْنَا مِنَ الْمَاۗءِ اَوْ مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ ۭ قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ حَرَّمَهُمَا عَلَي الْكٰفِرِيْنَ 50؀ۙ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَهُمْ لَهْوًا وَّلَعِبًا وَّغَرَّتْهُمُ الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا ۚ فَالْيَوْمَ نَنْسٰىهُمْ كَمَا نَسُوْا لِقَاۗءَ يَوْمِهِمْ ھٰذَا ۙ وَمَا كَانُوْا بِاٰيٰتِنَا يَجْحَدُوْنَ 51؀ وَلَقَدْ جِئْنٰهُمْ بِكِتٰبٍ فَصَّلْنٰهُ عَلٰي عِلْمٍ هُدًى وَّرَحْمَةً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ 52؀ هَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّا تَاْوِيْلَهٗ ۭ يَوْمَ يَاْتِيْ تَاْوِيْلُهٗ يَقُوْلُ الَّذِيْنَ نَسُوْهُ مِنْ قَبْلُ قَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُ رَبِّنَا بِالْحَقِّ ۚ فَهَلْ لَّنَا مِنْ شُفَعَاۗءَ فَيَشْفَعُوْا لَنَآ اَوْ نُرَدُّ فَنَعْمَلَ غَيْرَ الَّذِيْ كُنَّا نَعْمَلُ ۭقَدْ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 53؀ۧ

आयत 44
“और जन्नती लोग पुकार कर कहेंगे जहन्नमियों से कि हमने तो वह वादा बिल्कुल सच्चा पाया है जो हमारे रब ने हमसे किया था” وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ اَصْحٰبَ النَّارِ اَنْ قَدْ وَجَدْنَا مَا وَعَدَنَا رَبُّنَا حَقًّا
जिन नेअमतों का अल्लाह ने हमसे वादा किया था वह हमें मिल गईं। अल्लाह का वादा हमारे हक़ में सच साबित हुआ।
“तो क्या तुमने भी सच्चा पाया है वह वादा जो तुम्हारे रब ने तुमसे किया था? वो कहेंगे कि हाँ!” فَهَلْ وَجَدْتُّمْ مَّا وَعَدَ رَبُّكُمْ حَقًّا ۭقَالُوْا نَعَمْ ۚ
अहले जहन्नम जवाब देंगे कि हाँ! हमारे साथ भी जो वादे किये गए थे वो भी सब पूरे हो गए। जो वईदें (चेतावनियाँ) हमें दुनिया में सुनाई जाती थीं, अज़ाब की जो मुख़्तलिफ़ शक्लें बताई जाती थीं, वो सबकी सब हक़ीक़त का रूप धार कर हमारे सामने मौजूद हैं और इस वक़्त हम उनमें घिरे हुए हैं।
“तो (उस वक़्त) पुकारेगा एक पुकारने वाला उनके माबैन (बीच) कि अल्लाह की लानत है ज़ालिमों पर।” فَاَذَّنَ مُؤَذِّنٌۢ بَيْنَهُمْ اَنْ لَّعْنَةُ اللّٰهِ عَلَي الظّٰلِمِيْنَ 44؀ۙ

आयत 45
“वो लोग जो रोकते थे (और ख़ुद भी रुकते थे) अल्लाह के रास्ते से और उस (रास्ते) में कजी (टेढ़) निकालते थे” الَّذِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَيَبْغُوْنَهَا عِوَجًا ۚ
ना सिर्फ़ यह कि वो ख़ुद ईमान नहीं लाये थे, बल्कि दूसरे लोगों को भी उस रास्ते से रोकने की हत्ता वसीअ कोशिश करते थे। अग़र किसी शख़्स को मुहम्मह रसूल अल्लाह ﷺ की महफ़िल की तरफ़ जाते देखते तो उसे बरगलाने और बहकाने के दर पे हो जाते थे कि कहीं आप ﷺ की बातों से मुतास्सिर होकर ईमान ना ले आये।
“और यह लोग आख़िरत के मुन्कर थे।” وَهُمْ بِالْاٰخِرَةِ كٰفِرُوْنَ 45؀ۘ

आयत 46
“और उन (जन्नतियों और जहन्नमियों) के माबैन एक पर्दे की दीवार होगी।” وَبَيْنَهُمَا حِجَابٌ ۚ
अहले जन्नत और अहले जहन्नम के दरमियान होने वाली इस नौइयत की गुफ़्तगु का नक़्शा ज़्यादा वाज़ेह तौर पर सूरतुल हदीद में खींचा गया है। वहाँ (आयत नम्बर 13 में) फ़रमाया गया है: { فَضُرِبَ بَيْنَهُمْ بِسُوْرٍ لَّهٗ بَابٌ } यानि एक तरफ़ जन्नत और दूसरी तरफ़ दोज़ख होगी और दरमियान में फ़सील होगी जिसमें एक दरवाज़ा भी होगा।
“और दीवार की बुर्जियों (top) पर कुछ लोग होंगे जो हर एक को उनकी निशानी से पहचानते होगे।” وَعَلَي الْاَعْرَافِ رِجَالٌ يَّعْرِفُوْنَ كُلًّاۢ بِسِيْمٰىهُمْ ۚ
यह असहाबे आराफ़ अहले जन्नत को भी पहचानते होंगे और अहले जहन्नम को भी। क़िलों की फ़सीलों के ऊपर जो बुर्जियाँ और झरोखे बने होते हैं जहाँ से तमाम ऐतराफ़ व जवानिब (चारों तरफ़) का मुशाहिदा हो सके, उन्हें “अर्फ़” (जमा आराफ़) कहा जाता है। दोज़ख़ और जन्नत की दरमियानी फ़सील पर भी कुछ बुर्जियाँ और झरोखे होंगे जहाँ से जन्नत व दोज़ख़ के मनाज़िर का मुशाहिदा हो सकेगा। उन पर वो लोग होंगे जो दुनिया में बैन-बैन (in between) के लोग थे, यानि किसी तरफ़ भी यक्सू होकर नहीं रहे थे। उनके आमाल नामों मे नेकियाँ और बद्आमालियाँ बराबर हो जायेंगी, जिसकी वजह से अभी उन्हें जन्नत में भेजने या जहन्नम में झोंकने का फ़ैसला नहीं हुआ होगा और उन्हें आराफ़ पर ही रोका गया होगा।
“और वो (असहाबे आराफ़) जन्नत वालों को पुकार कर कहेंगे कि आप पर सलामती हो! वो उस (जन्नत में) अभी दाख़िल नहीं हुए होंगे, मग़र उन्हें उसकी बहुत ख़्वाहिश होगी।” وَنَادَوْا اَصْحٰبَ الْجَنَّةِ اَنْ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ ۣ لَمْ يَدْخُلُوْهَا وَهُمْ يَطْمَعُوْنَ 46؀
वो अहले जन्नत को देख कर उन्हें बतौर मुबारकबाद सलाम कहेंगे और उनकी अपनी शदीद ख़्वाहिश और आरज़ू होगी कि अल्लाह तआला उन्हें भी जल्द से जल्द जन्नत में दाख़िल कर दे, जो आख़िरकार पूरी कर दी जायेगी।

आयत 47
“और जब उनकी निगाहें फेरी जायेंगी अहले जहन्नम की तरफ़ तो (उस वक़्त) वो कहेंगे ऐ हमारे परवरदिग़ार! हमें इन ज़ालिमों के साथ शामिल अ कर दीजियो।” وَاِذَا صُرِفَتْ اَبْصَارُهُمْ تِلْقَاۗءَ اَصْحٰبِ النَّارِ ۙ قَالُوْا رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ 47؀ۧ
जन्नत के नज़ारे के बाद उनको जहन्नम का मंज़र भी दिखाया जायेगा, कि अब ज़रा जहन्नमियों की कैफ़ियत का भी मुशाहिदा कर लो। यह लोग अभी तक “बैयनल खौफ़ वर्रिजा” की कैफ़ियत में होंगे। उन्हें जन्नत में दाख़िले की उम्मीद भी होगी और जहन्नम में झोंके जाने का ख़ौफ़ भी। इसलिये जब वो अहले जन्नत की तरफ देखेंगे तो उन्हें सलाम करेगें और साथ ही उनके दिलों में उमंगे और तमन्नायें जाग जायेंगी कि अल्लाह हमें भी इनके साथ शामिल कर दे। लेकिन दूसरी तरफ़ जब अहले जहन्नम पर नज़र पड़ेगी तो फ़रियाद करेंगे कि पवरदिगार! हम पर रहम फ़रमाइयो और हमें इन ज़ालिम लोगों का साथी ना बनाइयो!

आयत 48
“और पुकारेंगे अहले आराफ़ (अहले जहन्नम से) उन लोगों को जिन्हें वो पहचानते होंगे उनकी निशानी से, कहेंगे कि तुम्हारे कुछ काम ना आई तुम्हारी जमीअत और (ना वो) जो कुछ तुम तकब्बुर किया करते थे।” وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ الْاَعْرَافِ رِجَالًا يَّعْرِفُوْنَهُمْ بِسِيْمٰىهُمْ قَالُوْا مَآ اَغْنٰى عَنْكُمْ جَمْعُكُمْ وَمَا كُنْتُمْ تَسْتَكْبِرُوْنَ 48؀
वो उन्हें याद दिलाएँगे कि वो तुम्हारे हाशियानशीन, तुम्हारे वो लाव लश्कर, तुम्हारा वह ग़ुरूर व तकब्बुर, वो जाह व हशम सब कहाँ गये? ऐ अबु जहल! यह तेरे साथ क्या हुआ? और ऐ वलीद बिन मुगीरह! यह तेरा क्या अंजाम हुआ?

आयत 49
“क्या यही वो लोग हैं जिनके बारे में तुम क़समें खाया करते थे कि नहीं नवाज़ेगा इन्हें अल्लाह अपनी किसी रहमत से!” اَهٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ اَقْسَمْتُمْ لَا يَنَالُهُمُ اللّٰهُ بِرَحْمَةٍ ۭ
असहाबे आराफ़ को जन्नत वालों में फ़ुक़रा-ए-सहाबा रज़ि. भी नज़र आएँगे, वहाँ वो हज़रत बिलाल रज़ि. को भी देखेंगे, वहाँ उनकी नज़र सुहेब रूमी रज़ि. और हज़रत यासिर रज़ि. पर भी पड़ेगी। चुनाँचे वो उन असहाबे जन्नत की तरफ़ इशारा करके जहन्नमियों से पूछेंगे कि क्या यही वो लोग थे जिनके बारे में तुम क़समें खा-खाकर कहा करते थे कि इन लोगों को अल्लाह तआला किसी तरह भी हम पर फ़ज़ीलत नहीं दे सकता, इन तक अल्लाह की कोई रहमत पहुँच ही नहीं सकती, क्योंकि तुम्हारे ज़अम (ख्याल) में तो वो मुफ़लिस और नादार थे, घटिया तबके से ताल्लुक़ रखते थे और गिरे-पड़े लोग थे! और तुम थे कि उस वक़्त इनके मुक़ाबले में अपनी दौलत, हैसियत, वजाहत और ताक़त के बल पर अकड़ा करते थे।
“(उनसे तो कह दिया गया है कि) दाख़िल हो जाओ जन्नत में, ना तुम पर कोई ख़ौफ़ है और ना तुम किसी ग़म से दो-चार होगे।” اُدْخُلُوا الْجَنَّةَ لَا خَوْفٌ عَلَيْكُمْ وَلَآ اَنْتُمْ تَحْزَنُوْنَ 49؀

आयत 50
“और जहन्नम वाले आवाज़ देंगे जन्नत वालों को कि कुछ तो बहा दो हमारी तरफ़ पानी में से या उस रिज़्क़ में से (कुछ दे दो) जो अल्लाह ने तुम्हें दे रखा है।” وَنَادٰٓي اَصْحٰبُ النَّارِ اَصْحٰبَ الْجَنَّةِ اَنْ اَفِيْضُوْا عَلَيْنَا مِنَ الْمَاۗءِ اَوْ مِمَّا رَزَقَكُمُ اللّٰهُ ۭ
“वो कहेंगे कि अल्लाह ने हराम कर दी हैं यह दोनों चीज़ें (जन्नत का पानी और रिज़्क़) काफ़िरों पर।” قَالُوْٓا اِنَّ اللّٰهَ حَرَّمَهُمَا عَلَي الْكٰفِرِيْنَ 50؀ۙ
अहले जन्नत जवाब देंगे कि हम तो शायद ये चीज़ें तुम लोगों को देना भी चाहते, क्योंकि हमारी शराफ़त से तो यह बईद था कि तुम्हें कोरा जवाब देते, लेकिन क्या करें, अल्लाह ने काफ़िरों के लिये जन्नत की यह सब चीज़ें हराम कर दी हैं, लिहाज़ा हम यह नेअमतें तुम्हारी तरफ़ नहीं भेज सकते।

आयत 51
“(उनके लिये) जिन्होंने अपने दीन को तमाशा और खेल बना लिया था और उन्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने धोखे में मुब्तला कर दिया था।” الَّذِيْنَ اتَّخَذُوْا دِيْنَهُمْ لَهْوًا وَّلَعِبًا وَّغَرَّتْهُمُ الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا ۚ
“लिहाज़ा आज के दिन हम भी उन्हें नज़र अंदाज़ कर देंगे, जैसा कि उन्होंने इस दिन की मुलाक़ात को भुलाए रखा था” فَالْيَوْمَ نَنْسٰىهُمْ كَمَا نَسُوْا لِقَاۗءَ يَوْمِهِمْ ھٰذَا ۙ
“और जैसा कि वो हमारी आयात का इन्कार करते रहे थे।” وَمَا كَانُوْا بِاٰيٰتِنَا يَجْحَدُوْنَ 51؀

आयत 52
“और हम ले आए हैं इनके पास एक किताब, जिसकी हमने पूरी तफ़सील बयान कर दी है इल्म क़तई की बुनियाद पर, हिदायत भी है और रहमत भी उन लोगों के लिये जो ईमान ले आएँ।” وَلَقَدْ جِئْنٰهُمْ بِكِتٰبٍ فَصَّلْنٰهُ عَلٰي عِلْمٍ هُدًى وَّرَحْمَةً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ 52؀

आयत 53
“यह किस चीज़ का इन्तेज़ार कर रहे हैं सिवाय इसकी हक़ीक़त के मुशाहिदे के!” هَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّا تَاْوِيْلَهٗ ۭ
यानि क्या यह लोग आयाते अज़ाब के अमली ज़हूर का इन्तेज़ार कर रहे हैं? क्या यह इन्तेज़ार कर रहे हैं कि वक़्फ़ा-ए-मोहलत का यह बंद टूट जाये और वाक़िअतन इनके ऊपर अज़ाब का धारा छूट पड़े। क्या यह लोग इस अंजाम का इन्तेज़ार कर रहे हैं?
“जिस दिन इसका मिस्दाक़ ज़ाहिर हो जायेगा तो कहेंगे वो लोग जिन्होंने पहले इसे नज़र अंदाज़ किये रखा था कि यक़ीनन हमारे परवरदिग़ार के रसूल हक़ के साथ आए थे।” يَوْمَ يَاْتِيْ تَاْوِيْلُهٗ يَقُوْلُ الَّذِيْنَ نَسُوْهُ مِنْ قَبْلُ قَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُ رَبِّنَا بِالْحَقِّ ۚ
“तो क्या (अब) हैं हमारे लिये कोई शफ़ाअत करने वाले कि हमारी शफ़ाअत करें या कोई सूरत कि हमें (दुनिया में) लौटा दिया जाये ताकि हम अमल करें उसके बरअक्स जो कुछ (पहले) हम करते रहे थे!” فَهَلْ لَّنَا مِنْ شُفَعَاۗءَ فَيَشْفَعُوْا لَنَآ اَوْ نُرَدُّ فَنَعْمَلَ غَيْرَ الَّذِيْ كُنَّا نَعْمَلُ ۭ
“वो तो अपने आप को बर्बाद कर चुके, और जो इफ़्तरा (अपवाद) वो करते रहे थे वो उनसे गुम हो गया।” قَدْ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 53؀ۧ
उस दिन वो लोग दोबारा दुनिया में जाने की ख़्वाहिश करेंगे, लेकिन तब उन्हें इस तरह का कोई मौक़ा फ़राहम किये जाने का कोई इम्कान नहीं होगा।
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आयात 54 से 58 तक
اِنَّ رَبَّكُمُ اللّٰهُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِتَّةِ اَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ يُغْشِي الَّيْلَ النَّهَارَ يَطْلُبُهٗ حَثِيْثًا ۙ وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ وَالنُّجُوْمَ مُسَخَّرٰتٍۢ بِاَمْرِهٖ ۭاَلَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْاَمْرُ ۭ تَبٰرَكَ اللّٰهُ رَبُّ الْعٰلَمِيْنَ 54؀ اُدْعُوْا رَبَّكُمْ تَضَرُّعًا وَّخُفْيَةً ۭاِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ 55؀ۚ وَلَا تُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ بَعْدَ اِصْلَاحِهَا وَادْعُوْهُ خَوْفًا وَّطَمَعًا ۭاِنَّ رَحْمَتَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ مِّنَ الْمُحْسِنِيْنَ 56؀ وَهُوَ الَّذِيْ يُرْسِلُ الرِّيٰحَ بُشْرًۢا بَيْنَ يَدَيْ رَحْمَتِهٖ ۭ ﱑ اِذَآ اَقَلَّتْ سَحَابًا ثِقَالًا سُقْنٰهُ لِبَلَدٍ مَّيِّتٍ فَاَنْزَلْنَا بِهِ الْمَاۗءَ فَاَخْرَجْنَا بِهٖ مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ ۭكَذٰلِكَ نُخْرِجُ الْمَوْتٰى لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ 57؀ وَالْبَلَدُ الطَّيِّبُ يَخْرُجُ نَبَاتُهٗ بِاِذْنِ رَبِّهٖ ۚ وَالَّذِيْ خَبُثَ لَا يَخْرُجُ اِلَّا نَكِدًا ۭ كَذٰلِكَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّشْكُرُوْنَ 58؀ۧ

आयत 54
“बेशक तुम्हारा परवरदिग़ार वही अल्लाह है जिसने पैदा किये आसमान और ज़मीन छ: दिनो में, फिर मुतमक्किन हुआ अर्श पर।” اِنَّ رَبَّكُمُ اللّٰهُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِتَّةِ اَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ
अर्श की हक़ीक़त और अल्लाह तआला के अर्श पर मतमक्किन होने की कैफ़ियत हमारे तसव्वुर से बालातर है। इस लिहाज़ से यह आयत मुतशाबेहात में से है। इसकी असल हक़ीक़त को अल्लाह ही जानता है। मुमकिन है वाक़्यतन यह कोई मुजस्सम शय हो और किसी ख़ास जगह पर मौजूद हो और यह भी हो सकता है कि महज़ इस्तआरा (रूपक) हो। आलम-ए-ग़ैब की ख़बरें देने वाली इस तरह की क़ुरानी आयात मुस्तक़िल तौर पर आयाते मुतशाबेहात के ज़ुमरे में आती हैं। अलबत्ता जिन आयात में बाज़ साइंसी हक़ाइक़ बयान हुए हैं, उनमें से अक्सर की सदाक़त साइंसी तरक्क़ी के बाइस मुन्कशिफ़ हो चुकी है, और वो “मोहकमात” के दर्जे में आ चुकी हैं। इस सिलसिले में आइंदा तदरीजन मज़ीद पेशरफ्त रफ़त की तवक्क़ो भी है। (वल्लाहु आलम!)
“वह ढ़ाँप देता है रात को दिन पर (या रात को ढ़ाँप देता है दिन से) जो उसके पीछे लगा आता है दौड़ता हुआ” يُغْشِي الَّيْلَ النَّهَارَ يَطْلُبُهٗ حَثِيْثًا ۙ
दिन रात के पीछे आता है और रात दिन के पीछे आती है।
“और उसने सूरज, चाँद और सितारे पैदा किये जो उसके हुक्म से अपने-अपने कामों में लगे हुए हैं।” وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ وَالنُّجُوْمَ مُسَخَّرٰتٍۢ بِاَمْرِهٖ ۭ
सूरज, चाँद और सितारों के मुसख़्ख़र होने का मतलब यह है कि जो भी क़ायदा या क़ानून उनके लिये मुक़र्रर कर दिया गया है, वो उसकी इताअत कर रहे हैं।
“आगाह हो जाओ उसी के लिये है ख़ल्क़ और (उसी के लिये है) अम्र।” اَلَا لَهُ الْخَلْقُ وَالْاَمْرُ ۭ
इन अल्फ़ाज़ के दो मफ़हूम ज़हन में रखिये। एक तो बहुत सादा और सतही मफ़हूम है कि यह कायनात अल्लाह ने तख़्लीक़ की है और अब इसमें उसी का हुक्म कारफ़रमा है। यानि अहकामे तबीइया (law of physics) भी उसी के बनाये हुए हैं जिनके मुताबिक़ कायनात का निज़ाम चल रहा है, और अहकामे तशरीइया (वैधानिक) भी उसी ने उतारे हैं कि यह अवामिर और यह नवाही हैं, इंसान इनके मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ारे। मग़र इसका दूसरा और गहरा मफ़हूम यह है कि कायनात में तख़्लीक़ दो सतह पर हुई है। इस लिहाज़ से यह दो अलग-अलग आलम हैं, एक आलमे ख़ल्क़ है और दूसरा आलमे अम्र। आलमे अम्र में अदमे महज़ से तख़्लीक़ (creation ex nihilio) होती है और इसमें तख़्लीक़ के लिए बस “कुन” कहा जाता है तो वह चीज़ वजूद में आ जाती है (फ़-यकून)। इसके लिये ना वक़्त दरकार है और ना किसी माद्दे की ज़रूरत होती है। फ़रिश्तों, इंसानी अरवाह और वही का ताल्लुक़ आलमे अम्र से है। इसी लिये इनके सफ़र करने के लिये भी कोई वक़्त दरकार नहीं होता। फ़रिश्ता आँख झपकने में ज़मीन से सातवें आसमान पर पहुँच जाता है।
दूसरी तरफ़ आलमे ख़ल्क़ में एक शय से कोई दूसरी शय तबई क़वानीन और ज़वाबित (शर्तों) के मुताबिक़ बनती है। इसमें माद्दा भी दरकार होता है और वक़्त भी लगता है। जैसे रहमे मादर में बच्चे की तख़्लीक़ में कई महीने लगते हैं। आम की गुठली से पौधा उगने और बढ़ कर दरख़्त बनने के लिये कई साल का वक़्त दरकार होता है। आलमे ख़ल्क़ में जब ज़मीन और आसमानों की तख़्लीक़ हुई तो क़ुरान के मुताबिक़ यह छ: दिनों में मुकम्मल हुई (यह आयत भी अभी तक मुतशाबेहात में से है, अग़रचे इसके बारे में अब जल्द हक़ीक़त मुन्कशिफ़ होने के इम्कानात हैं)। इसकी हक़ीक़त के बारे में अल्लाह ही जानता है कि इन छ: दिनों से कितना ज़माना मुराद है। इसका दौरानिया कई लाख साल पर भी मुहीत हो सकता है। ख़ुद क़ुरान के मुताबिक़ अल्लाह का एक दिन हमारे नज़दीक एक-एक हज़ार साल का भी हो सकता है (सूरतुस्सज्दा, आयत 5) और पचास हज़ार साल का भी (सूरतुल मआरिज, आयत 4)।
यह क़ुरान मजीद का ऐजाज़ है कि इन्तहाई पेचीदा इल्मी नुक्ते को भी ऐसे अल्फ़ाज़ और ऐसे पैराय में बयान कर देता है कि एक अमूमी ज़हनी सतह का आदमी भी इसे पढ़ कर मुत्मईन हो जाता है, जबकि एक फ़लसफ़ी व हकीम इंसान को इसी नुक्ते के अंदर इल्म व मारफ़त का बहरे बेकराँ मौज्ज़न नज़र आता है। चुनाँचे पन्द्रह सौ साल पहले सहराये अरब के एक बददु को इस आयत का यह मफ़हूम समझने में कोई उलझन महसूस नहीं हुई होगी कि यह कायनात अल्लाह की तख़्लीक़ है और उसी को हक़ है कि इस पर अपना हुक्म चलाये। मग़र जब एक साहिबे इल्मे मुहक़्क़िक़ इस लफ़्ज़ “अम्र” पर ग़ौर करता है और फिर क़ुरान मजीद में गोताज़नी करता है कि यह लफ़्ज़ “अम्र” क़ुरान मजीद में कहाँ-कहाँ, किन-किन मायनो में इस्तेमाल हुआ है, और फिर इन तमाम मतालब व मफ़ाहीम को आपस में मरबूत (integrated) करके देखता है तो उस पर बहुत से इल्मी हक़ाइक मुन्कशिफ़ होते हैं। बहरहाल आलमे ख़ल्क़ एक अलग आलम है और आलमे अम्र अलग, और इन दोनों के क़वानीन व ज़वाबित भी अलग-अलग हैं।
“बहुत बा-बरकत है अल्लाह जो तमाम जहानों का रब है।” تَبٰرَكَ اللّٰهُ رَبُّ الْعٰلَمِيْنَ 54؀

आयत 55
“पुकारते रहा करो अपने रब को आजिज़ी के साथ और चुपके-चुपके, यक़ीनन वह हद से गुज़रने वालों को पसंद नहीं करता।” اُدْعُوْا رَبَّكُمْ تَضَرُّعًا وَّخُفْيَةً ۭاِنَّهٗ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ 55؀ۚ
गोया ज़्यादा बुलंद आवाज़ से दुआ माँगना अल्लाह के यहाँ पसंदीदा नहीं है।

आयत 56
“और ज़मीन में उसकी इस्लाह के बाद फ़साद मत मचाओ और अल्लाह को पुकारा करो ख़ौफ़ और उम्मीद के साथ।” وَلَا تُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ بَعْدَ اِصْلَاحِهَا وَادْعُوْهُ خَوْفًا وَّطَمَعًا ۭ
अल्लाह को पुकारने, उससे दुआ करने के दो पहलू (dimensions) पहले बताए गए कि अल्लाह को जब पुकारो तो गिड़गिड़ाते हुए और चुपके-चुपके दिल में पुकारो। अब इस ज़िमन में मज़ीद फ़रमाया गया कि अल्लाह के साथ तुम्हारा मामला हमेशा “बैयनल खौफ़ वर्रिजा” रहना चाहिये। एक तरफ़ ख़ौफ़ का अहसास भी हो कि अल्लाह पकड़ ना ले, कहीं सजा ना दे दे, और दूसरी तरफ़ उसकी मग़फ़िरत और रहमत की क़वी उम्मीद भी दिल में हो। लिहाज़ा फ़रमाया कि अल्लाह से दुआ करते हुए तुम्हारी दिली और रुहानी कैफ़ियत इन दोनों के बैन-बैन (दरमियान) होनी चाहिये।
“यक़ीनन अल्लाह की रहमत अहले अहसान बंदों के बहुत ही क़रीब है।” اِنَّ رَحْمَتَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ مِّنَ الْمُحْسِنِيْنَ 56؀

आयत 57
“और वही है जो भेजता है हवाएँ बशारत देती हुई, उसकी रहमत के आगे-आगे।” وَهُوَ الَّذِيْ يُرْسِلُ الرِّيٰحَ بُشْرًۢا بَيْنَ يَدَيْ رَحْمَتِهٖ ۭ
यानि अब्रे रहमत से पहले हवाओं के ठंडे झोंके गोया बशारत दे रहे होते हैं कि बारिश आने वाली है। इस कैफ़ियत का सही इदराक करने (समझने) के लिये किसी ऐसे ख़ित्ते का तसव्वुर कीजिये जहाँ ज़मीन मुर्दा और बे आबो ग्याह पड़ी है, लोग आसमान की तरफ़ नज़रें लगाये बारिश के मुन्तज़िर हैं। अग़र वक़्त पर बारिश ना हुई तो बीज और मेहनत दोनों ज़ाया हो जाएँगे। ऐसे में ठंड़ी-ठंड़ी हवा के झोंके जब बाराने रहमत की नवीद (ख़ुशख़बरी) सुनाते हैं तो वहाँ के वासियों के लिये इससे बड़ी बशारत और क्या होगी।
“यहाँ तक कि वह हवाएँ उठा लाती हैं बड़े-बड़े भारी बादल” ﱑ اِذَآ اَقَلَّتْ سَحَابًا ثِقَالًا
यह बादल किस क़द्र भारी होते होंगे, इनका वज़न इंसानी हिसाब व शुमार में आना मुमकिन नहीं। अल्लाह की क़ुदरत और उसकी हिकमत के सबब लाखों टन पानी को हवाएँ रुई के गालों की तरह उड़ाये फिरती हैं।
“तो हम हाँक देते हैं उस (बादल) को एक मुर्दा ज़मीन की तरफ़” سُقْنٰهُ لِبَلَدٍ مَّيِّتٍ
हवाएँ हमारे हुक्म से उस बादल को किसी बे आबो ग्याह वादी की तरफ़ ले जाती हैं और बाराने रहमत उस वादी में एक नई ज़िन्दगी की नवीद साबित होती है।
“फिर हम उससे पानी बरसाते हैं और फिर उससे हर तरह के मेवे निकाल लाते हैं।” فَاَنْزَلْنَا بِهِ الْمَاۗءَ فَاَخْرَجْنَا بِهٖ مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ ۭ
बारिश के बाद वह ख़ुश्क और मुर्दा ज़मीन घास, फ़सलों और फलदार पौधों की रुईदगी की शक्ल में अपने ख़जाने उग़ल देती है।
“इसी तरह हम मुर्दों को निकाल लाएँगे (ज़मीन से) ताकि तुम नसीहत अखज़ करो।” كَذٰلِكَ نُخْرِجُ الْمَوْتٰى لَعَلَّكُمْ تَذَكَّرُوْنَ 57؀
दरअसल बादलों और हवाओं के मज़ाहिर की तफ़सील बयान करके एक आम ज़हन को तशबीह के ज़रिये से बअसे बादल मौत की हक़ीक़त की तरफ़ मुतवज्जह करना मक़सूद है। यानि मुर्दा ज़मीन को देखो! इसके अंदर ज़िन्दगी के कुछ भी आसार बाक़ी नहीं रहे थे, हशरातुल अर्ज़ और परिंदे तक वहाँ नज़र नहीं आते थे, इस ज़मीन के वासी भी मायूस हो चुके थे, लेकिन इस मुर्दा ज़मीन पर जब बारिश हुई तो यकायक इसमें ज़िन्दगी फिर से उग कर आई और वह देखते ही देखते “मग़र अब ज़िन्दगी ही ज़िन्दगी है मौज्ज़न साक़ी!” की मुज्जसम तस्वीर बन गई। बंजर ज़मीन हरियाली की सब्ज़ पोशाक पहन कर दुल्हन की तरह सज गई। हशरातुल अर्ज़ का असद हाम! परिंदों की ज़मज़मा परदाज़ियाँ! इसके वासियों की रौनकें! गोया बारिश के तुफ़ैल ज़िन्दगी पूरी चहल-पहल के साथ वहाँ जलवागर हो गई। इस आसान तशबीह से एक आम ज़हनी इस्तअदाद रखने वाले इंसान को हयात बाद अल मौत की कैफ़ियत आसानी से समझ में आ जानी चाहिये कि ज़मीन के अंदर पड़े हुए मुर्दे भी गोया बीजों की मानिंद हैं। जब अल्लाह का हुक्म आयेगा, ये भी नबातात की मानिंद फूट कर बाहर निकल आएँगे।

आयत 58
“और ज़रख़ैज़ ज़मीन तो अपने रब के हुक्म से अपना सब्ज़ा निकालती है, और जो (ज़मीन) ख़राब है वह कुछ नहीं निकालती मग़र कोई नाक़िस सी चीज़।” وَالْبَلَدُ الطَّيِّبُ يَخْرُجُ نَبَاتُهٗ بِاِذْنِ رَبِّهٖ ۚ وَالَّذِيْ خَبُثَ لَا يَخْرُجُ اِلَّا نَكِدًا ۭ
सरायकी ज़बान में एक लफ़्ज़ “नख़द” इस्तेमाल होता है, यह इस अरबी लफ़्ज़ “نَكِدً” से मिलता-जुलता है। यानि बिल्कुल रद्दी और घटिया चीज़।
“इस तरह हम अपनी आयात को ग़र्दिश में लाते हैं उन लोगों के लिये जो (इनकी) क़द्र करने वाले हों।” كَذٰلِكَ نُصَرِّفُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّشْكُرُوْنَ 58؀ۧ
अल्लाह तआला इस क़ुरान के ज़रिये से अपनी निशानियाँ गोनागों पहलुओं से नुमाया करता है ताकि लोग उनको समझें, उनको पहचाने और उनकी क़द्र करें। यह तसरीफ़े आयात अल्लाह तआला का बहुत बड़ा अहसान है बशर्ते इसकी क़द्र करने वाले लोग हों।

आयात 59 से 64 तक
لَقَدْ اَرْسَلْنَا نُوْحًا اِلٰي قَوْمِهٖ فَقَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ اِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ 59؀ قَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِهٖٓ اِنَّا لَنَرٰكَ فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ 60؀ قَالَ يٰقَوْمِ لَيْسَ بِيْ ضَلٰلَةٌ وَّلٰكِنِّيْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ 61؀ اُبَلِّغُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَاَنْصَحُ لَكُمْ وَاَعْلَمُ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 62؀ اَوَعَجِبْتُمْ اَنْ جَاۗءَكُمْ ذِكْرٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَلٰي رَجُلٍ مِّنْكُمْ لِيُنْذِرَكُمْ وَلِتَتَّقُوْا وَلَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ 63؀ فَكَذَّبُوْهُ فَاَنْجَيْنٰهُ وَالَّذِيْنَ مَعَهٗ فِي الْفُلْكِ وَاَغْرَقْنَا الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۭاِنَّهُمْ كَانُوْا قَوْمًا عَمِيْنَ 64؀ۧ

इस रुकूअ से अत्तज़कीर बिय्यामिल्लाह के उस सिलसिले का आग़ाज़ हो रहा है जिसे कब्ल अज़ इस सूरत के मज़ामीन का “उमूद” क़रार दिया गया है। यहाँ इस सिलसिले का बहुत बड़ा हिस्सा “अन्बाअ अर्रुसुल (रसूलों की ख़बरें)” पर मुश्तमिल है। आगे बढ़ने से पहले इस इस्तलाह को अच्छी तरह समझना बहुत ज़रूरी है। क़ुरान मजीद में जहाँ कहीं नबियों का ज़िक्र आता है तो इसका मक़सद उनकी सीरत के रोशन पहलुओं मसलन उनका मक़ाम, तक़वा और इस्तक़ामत वग़ैरह को नुमाया करना होता है, जबकि रसूलों का ज़िक्र बिल्कुल मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में आता है। अल्लाह तआला की तरफ़ से जब भी कोई रसूल अलै. आया तो वह किसी क़ौम की तरफ़ भेजा गया, लिहाज़ा क़ुरान मजीद में रसूल अलै. के ज़िक्र के साथ लाज़िमन मुतलक्का क़ौम का ज़िक्र भी किया गया है। फिर रसूल की दावत के जवाब में उस क़ौम के रवैय्ये और रद्दे अमल की तफ़सील भी बयान की गई है। चुनाँचे पहली क़िस्म के वाक़्यात को “क़ससुल अम्बिया” कहा जा सकता है। इसकी मिसाल सूरह युसुफ़ है, जिसमें हज़रत युसुफ़ अलै. के हालात बहुत तफ़सील से बयान हुए हैं, मग़र कहीं भी आप अलै. की तरफ़ से इस नौइयत के ऐलान का ज़िक्र नहीं मिलता कि लोगो! मुझ पर ईमान लाओ, मेरी बात मानो, वरना तुम पर अज़ाब आयेगा और ना ही ऐसा कोई इशारा मिलता है कि उस क़ौम ने आप अलै. की दावत को रद्द कर दिया और फिर उन पर अज़ाब आ गया और उन्हें हलाक कर दिया गया।
दूसरी क़िस्म के वाक़्यात के लिये “अन्बाअ अर्रुसुल” की इस्तलाह इस्तेमाल होती है। (“अन्बाअ” जमा है “नबाअ” की, जिसके मायने ख़बर के हैं, यानि रसूलों की ख़बरे)। इन वाक़्यात से एक उसूल वाज़ेह होता है कि जब भी कोई रसूल किसी क़ौम की तरफ़ आया तो वह अल्लाह की अदालत बन कर आया। जिन लोगों ने उसकी दावत को मान लिया वो अहले ईमान ठहरे और आफ़ियत में रहे, जबकि इंकार करने वाले हलाक कर दिये गये। अन्बाअ अर्रुसुल के सिलसिले में आमतौर पर छ: रसूलों अलै. के हालात क़ुरान मजीद में तकरार के साथ आये हैं। इसकी वजह यह नहीं है कि रसूल सिर्फ़ छ: हैं, बल्कि ये छ: रसूल अलै. वो हैं जिनसे अहले अरब वाक़िफ़ थे। यह तमाम रसूल अलै. इसी जज़ीरा नुमाए अरब के अन्दर आये। यह रसूल जिन इलाक़ों में मबऊस हुए उनके बारे में जानने के लिये जज़ीरा नुमाए अरब (Arabian Peninsula) का नक़्शा अपने ज़हन में रखिये। नीचे जुनूब (दक्षिण/साउथ) की तरफ़ से इसकी चौड़ाई काफ़ी ज़्यादा है, जबकि यह चौड़ाई ऊपर शिमाल (उत्तर/नार्थ) की तरफ़ कम होती जाती है। इस जज़ीरा नुमा इलाक़े के मशरिक़ी (पूरब/ईस्ट) जानिब ख़लीज फ़ारस (Persian Gulf) है जबकि मग़रिबी (पश्चिम/वेस्ट) जानिब बहीरा-ए-अहमर (Red Sea) है जो शिमाल में जाकर दो घाटियों में तक़सीम हो जाता है। उनमें से एक (शिमाल मग़रिब की तरफ़) ख़लीज स्वेज़ है और दूसरी तरफ़ (शिमाल मशरिक़ की जानिब) ख़लीज अक़बह। ख़लीज अक़बह के ऊपर (शिमाल) वाले कोने से ख़लीज फ़ारस के शिमाली किनारे की तरफ़ सीधी लाइन लगाएँ तो नक़्शे पर एक मुसल्लस (Triangle) बन जाती है, जिसका क़ायदा (Base) नीचे जुनूब में यमन से सल्तनते ओमान तक है और ऊपर वाला कोना शिमाल में बहरे मुर्दार (Dead Sea) के इलाके में वाक़ेअ है।

मौजूदा दुनिया के नक़्शे के मुताबिक़ इस मुसल्लस में सऊदी अरब के अलावा इराक़ और शाम के मुमालिक भी शामिल हैं। यह मुसल्लस उस इलाक़े पर मुहीत है जहाँ अरब की क़दीम (पुरानी) क़ौमें आबाद थीं और यही वो क़ौमें थीं जिनकी तरफ़ वो छ: रसूल मबऊस हुए थे जिनका ज़िक्र क़ुरान मजीद में बार-बार आया है। उनमें से जो रसूल सबसे पहले आये वह हज़रत नूह अलै. थे। आप अलै. के ज़माने के बारे में यक़ीनी तौर पर तो कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन मुख़्तलिफ़ अंदाज़ों के मुताबिक़ आप अलै. का ज़माना हज़रत आदम अलै. से कोई दो हज़ार साल बाद का ज़माना बताया जाता है (वल्लाहु आलम)। उस वक़्त तक कुल नस्ले इंसानी बस इसी इलाक़े में आबाद थी। जब आप अलै. की क़ौम आपकी दावत पर ईमान ना लाई तो पानी के अज़ाब से उन्हें तबाह कर दिया गया। यही वह इलाक़ा है जहाँ वह तबाहकुन सैलाब आया था जो “तूफ़ाने नूह” के नाम से मौसूम है और यहीं कोहे जूदी में अरारात की पहाड़ी है जहाँ हज़रत नूह अलै. की कश्ती लंगर अंदाज़ हुई थी। फिर हज़रत नूह अलै. के तीन बेटों से दोबारा नस्ले इंसानी चली। आपका एक बेटा जिसका नाम साम था, उसकी नस्ल जुनूब में इराक़ की तरफ़ फैली। इस नस्ल से जो क़ौमे वजूद में आयीं उन्हें सामी क़ौमें कहा जाता है। इन्हीं क़ौमों में एक क़ौमे आद थी, जो जज़ीरा नुमाए अरब के बिल्कुल जुनूब में आबाद थी। आज-कल यह इलाक़ा बड़ा ख़तरनाक क़िस्म का रेगिस्तान है, लेकिन उस ज़माने में क़ौमे आद का मसकन यह इलाक़ा बहुत सरसब्ज़ व शादाब था। इस क़ौम की तरफ़ हज़रत हूद अलै. को रसूल बना कर भेजा गया। आपकी दावत को इस क़ौम ने रद्द किया तो यह भी हलाक कर दी गई। इस क़ौम के बचे-कुचे लोग और हज़रत हूद अलै. वहाँ से नक़ले मकानी करके मज़कूरा मुसल्लस की मग़रिबी सिम्त जज़ीरा नुमाए अरब के शिमाल मशरिक़ी कोने में ख़लीज अक़बह से नीचे मग़रिबी साहिल के इलाक़े में जा आबाद हुए। इन लोगों की नस्ल को क़ौमे समूद के नाम से जाना जाता है।
क़ौमे समूद की तरफ़ हज़रत सालेह अलै. को भेजा गया। इस क़ौम ने भी अपने रसूल अलै. की दावत को रद्द कर दिया, जिस पर इन्हें भी हलाक कर दिया गया। ये लोग पहाड़ों को तराश कर आलीशान इमारतें बनाने में माहिर थे। पहाड़ों के अंदर खुदे हुए उनके महलात और बड़े-बड़े हॉल आज भी मौजूद हैं। क़ौमे समूद के इस इलाक़े से ज़रा ऊपर ख़लीज अक़बह के दाहिनी तरफ़ मदयन का इलाक़ है जहाँ वह क़ौम आबाद थी जिनकी तरफ़ हज़रत शोएब अलै. को भेजा गया। मदयन के इलाक़े से थोड़ा आगे बहरे मुर्दार (Dead Sea) है, जिसके साहिल पर सदूम और आमूरह के शहर आबाद थे। इन शहरों में हज़रत लूत अलै. को भेजा गया। बहरहाल ये सारी क़ौमें जिनका ज़िक्र क़ुरान में बार-बार आया है मज़कूरा मुसल्लस के इलाक़े में ही आबाद थीं। सिर्फ़ क़ौमे फ़िरऔन इस मुसल्लस से बाहर मिस्र में आबाद थी जहाँ हज़रत मूसा अलै. मबऊस हुए। इन छ: रसूलों के हालात पढ़ने से पहले इनकी क़ौमों के इलाक़ों का यह नक़्शा अच्छी तरह ज़हन नशीन कर लीजिये। ज़मानी ऐतबार से हज़रत नूह अलै. सबसे पहले रसूल हैं, फिर हज़रत हूद अलै, फिर हज़रत सालेह अलै, फिर हज़रत इब्राहीम अलै। लेकिन हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र क़ुरान में अन्बाअ अर्रुसुल के अंदाज़ में नहीं बल्कि क़ससुल अम्बिया के तौर पर आया है। आप अलै. के भतीजे हज़रत लूत अलै. को सदूम और आमूरह की बस्तियों की तरफ़ भेजा गया।
हज़रत इब्राहीम अलै. के एक बेटे का नाम मदयन था, जिनकी औलाद में हज़रत शोएब अलै. की बेअसत हुई। हज़रत इब्राहीम अलै. ही के बेटे हज़रत इस्माईल हिजाज़ (मक्का) में आबाद हुए और फिर हिजाज़ में ही नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ की बेअसत हुई। हज़रत इब्राहीम अलै. के दूसरे बेटे हज़रत इस्हाक़ थे जिनको आप अलै. ने फ़लस्तीन में आबाद किया। हज़रत इस्हाक़ अलै. के बेटे हज़रत याक़ूब अलै. थे जिनसे बनी इस्राईल की नस्ल चली। क़ुरान हकीम में जब हम अम्बिया व रुसुल का तज़किरा पढ़ते हैं तो ये सारी तफ़सीलात ज़हन में होनी चाहियें।

आयत 59
“हमने भेजा था नूह अलै. को उसकी क़ौम की तरफ़ तो उसने कहा ऐ मेरी क़ौम के लोगों! अल्लाह की बंदगी करो, तुम्हारा कोई मअबूद उसके सिवा नहीं है, मुझे तुम्हारे बारे में अंदेशा है एक बड़े दिन के अज़ाब का।” لَقَدْ اَرْسَلْنَا نُوْحًا اِلٰي قَوْمِهٖ فَقَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ اِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ 59؀
यानि मुझे अंदेशा है कि अग़र तुम लोग यूँ ही मुशरिकाना अफ़आल और अल्लाह तआला की नाफ़रमानियों का इरतकाब करते रहोगे तो बहुत बड़े अज़ाब में पकड़े जाओगे।
आयत 60
“आप अलै. की क़ौम के सरदारों ने कहा कि हम तो तुम्हें एक खुली हुई ग़ुमराही में मुब्तला देख रहे हैं।” قَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِهٖٓ اِنَّا لَنَرٰكَ فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ 60؀

आयत 61
“आप अलै. ने कहा कि ऐ मेरी क़ौम के लोगों! मैं किसी ग़ुमराही में मुब्तला नहीं हूँ, बल्कि मैं तो रसूल हूँ तमाम जहानों के परवरदिगार की तरफ़ से।” قَالَ يٰقَوْمِ لَيْسَ بِيْ ضَلٰلَةٌ وَّلٰكِنِّيْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ 61؀

आयत 62
“मैं तो तुम्हें पहुँचा रहा हूँ अपने रब के पैग़ामात, और मैं तुम्हारी ख़ैरख़्वाही कर रहा हूँ, और मैं अल्लाह की तरफ़ से वह कुछ जानता हूँ जो तुम्हें मालूम नहीं।” اُبَلِّغُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَاَنْصَحُ لَكُمْ وَاَعْلَمُ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 62؀
मुझे तो तमाम जहानों के परवरदिग़ार ने इस ख़िदमत पर मामूर किया है कि मैं तुम्हें ख़बरदार कर दूँ, ताकि तुम लोग एक बड़े अज़ाब की लपेट में आने से बच जाओ। मैं तो तुम्हारी भलाई ही की फ़िक्र कर रहा हूँ। अग़र तुम्हारे मुशरिकाना अफ़आल इसी तरह जारी रहे तो इनकी पादाश में (वजह से) तुम्हारे ऊपर कितनी बड़ी तबाही आ सकती है तुम लोगों को इसका कुछ भी अंदाज़ा नहीं, मग़र मुझे अपने परवरदिग़ार की तरफ़ से इसके बारे में बराबर आगाह किया जा रहा है।

आयत 63
“क्या तुम्हें इस बात पर तअज्जुब हुआ कि तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से एक याद दिहानी तुम ही में से एक फ़र्द के ज़रिये से आई, ताकि वह तुम्हें ख़बरदार कर दे और तुम (गुनाहों से) बच सको और तुम पर रहम किया जाये।” اَوَعَجِبْتُمْ اَنْ جَاۗءَكُمْ ذِكْرٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَلٰي رَجُلٍ مِّنْكُمْ لِيُنْذِرَكُمْ وَلِتَتَّقُوْا وَلَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ 63؀

आयत 64
“तो उन्होंने उसको झुठलाया, तो बचा लिया हमने उसको और जो उसके साथी थे कश्ती में, और हमने ग़र्क़ कर दिया उन लोगों को जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया।” فَكَذَّبُوْهُ فَاَنْجَيْنٰهُ وَالَّذِيْنَ مَعَهٗ فِي الْفُلْكِ وَاَغْرَقْنَا الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۭ
“यक़ीनन वो अंधे लोग थे।” اِنَّهُمْ كَانُوْا قَوْمًا عَمِيْنَ 64؀ۧ
यानि वह ऐसी क़ौम थी जिसने आँखे होने के बावजूद अल्लाह की निशानियों को देखने और हक़ को पहचानने से इंकार कर दिया। हज़रत नूह अलै. के साथी अहले ईमान बहुत ही कम लोग थे। आप अलै. ने साढ़े नौ सौ बरस तक अपनी क़ौम को दावत दी थी इसके बावजूद बहुत थोड़े लोग ईमान लाये थे, जो आप अलै. के साथी कश्ती में सैलाब से महफ़ूज़ रहे। आप अलै. के तीन बेटों में से “आद” नाम के एक सरदार बड़े मशहूर हुए और फिर उन्हीं के नाम पर “क़ौमे आद” वजूद में आई। आगे इसी क़ौम का तज़किरा है।

आयात 65 से 72 तक
وَاِلٰي عَادٍ اَخَاهُمْ هُوْدًا ۭقَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ اَفَلَا تَتَّقُوْنَ 65؀ قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖٓ اِنَّا لَنَرٰكَ فِيْ سَفَاهَةٍ وَّاِنَّا لَنَظُنُّكَ مِنَ الْكٰذِبِيْنَ 66؀ قَالَ يٰقَوْمِ لَيْسَ بِيْ سَفَاهَةٌ وَّلٰكِنِّيْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ 67؀ اُبَلِّغُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَاَنَا لَكُمْ نَاصِحٌ اَمِيْنٌ 68؀ اَوَعَجِبْتُمْ اَنْ جَاۗءَكُمْ ذِكْرٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَلٰي رَجُلٍ مِّنْكُمْ لِيُنْذِرَكُمْ ۭ وَاذْكُرُوْٓا اِذْ جَعَلَكُمْ خُلَفَاۗءَ مِنْۢ بَعْدِ قَوْمِ نُوْحٍ وَّزَادَكُمْ فِي الْخَلْقِ بَصْۜطَةً ۚ فَاذْكُرُوْٓا اٰلَاۗءَ اللّٰهِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ 69؀ قَالُوْٓا اَجِئْتَنَا لِنَعْبُدَ اللّٰهَ وَحْدَهٗ وَنَذَرَ مَا كَانَ يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا ۚ فَاْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ 70؀ قَالَ قَدْ وَقَعَ عَلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ رِجْسٌ وَّغَضَبٌ ۭ اَتُجَادِلُوْنَنِيْ فِيْٓ اَسْمَاۗءٍ سَمَّيْتُمُوْهَآ اَنْتُمْ وَاٰبَاۗؤُكُمْ مَّا نَزَّلَ اللّٰهُ بِهَا مِنْ سُلْطٰنٍ ۭ فَانْتَظِرُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ 71؀ فَاَنْجَيْنٰهُ وَالَّذِيْنَ مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا وَقَطَعْنَا دَابِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَمَا كَانُوْا مُؤْمِنِيْنَ 72؀ۧ

आयत 65
“और क़ौमे आद की तरफ़ (हमने) उनके भाई हूद अलै. को भेजा।” وَاِلٰي عَادٍ اَخَاهُمْ هُوْدًا ۭ
“उस अलै. ने कहा ऐ मेरी क़ौम के लोगों! अल्लाह की बंदगी करो, तुम्हारा कोई इलाह उसके सिवा नहीं है, तो क्या तुम लोग डरते नहीं?” قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ اَفَلَا تَتَّقُوْنَ 65؀
हज़रत हूद अलै. ने भी अपनी क़ौम को वही पैग़ाम दिया जो हज़रत नूह अलै. ने अपनी क़ौम को दिया था।

आयत 66
“आप अलै. की क़ौम के सरदारों ने, जिन्होंने इंकार किया था, कहा कि हम तो तुम्हें किसी हिमाक़त में मुब्तला देखते हैं और हम तुमको झूठों में से गुमान करते हैं।” قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖٓ اِنَّا لَنَرٰكَ فِيْ سَفَاهَةٍ وَّاِنَّا لَنَظُنُّكَ مِنَ الْكٰذِبِيْنَ 66؀
यानि तुम झूठा दावा कर रहे हो, तुम पर कोई वही वग़ैरह नहीं आती।

आयत 67
“आप अलै. ने कहा ऐ मेरी क़ौम के लोगों! मुझ पर कोई हिमाक़त तारी नहीं हुई बल्कि मैं तो रसूल हूँ तमाम जहानों के परवरदिग़ार की जानिब से।” قَالَ يٰقَوْمِ لَيْسَ بِيْ سَفَاهَةٌ وَّلٰكِنِّيْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ 67؀

आयत 68
“मैं तो अपने परवरदिग़ार के पैग़ामात तुम्हें पहुँचा रहा हूँ और तुम्हारा दयानतदार ख़ैर ख्वाह हूँ।” اُبَلِّغُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَاَنَا لَكُمْ نَاصِحٌ اَمِيْنٌ 68؀
मैं तो वही बात हू-ब-हू तुम तक पहुँचा रहा हूँ जो अल्लाह की तरफ़ से आ रही है, इसलिये कि मुझे तुम्हारी ख़ैरख्वाही मतलूब है। मैं तुम्हारा ऐसा ख़ैरख़्वाह हूँ जिस पर भरोसा किया जा सकता है।

आयत 69
“क्या तुम्हें तअज्जुब है इस बात पर कि तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से नसीहत आ गई है तुम्हीं में से एक शख़्स के ज़रिये ताकि वह तुम्हें ख़बरदार कर दे।” اَوَعَجِبْتُمْ اَنْ جَاۗءَكُمْ ذِكْرٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَلٰي رَجُلٍ مِّنْكُمْ لِيُنْذِرَكُمْ ۭ
“और ज़रा याद करो जब अल्लाह ने तुम्हें क़ौमे नूह के बाद उनका जानशीन बनाया और तुम्हें जिस्मानी ऐतबार से बड़ी कुशादगी अता फ़रमाई।” وَاذْكُرُوْٓا اِذْ جَعَلَكُمْ خُلَفَاۗءَ مِنْۢ بَعْدِ قَوْمِ نُوْحٍ وَّزَادَكُمْ فِي الْخَلْقِ بَصْۜطَةً ۚ
क़ौमे नूह की सतूत (नस्ल) ख़त्म हुई और क़ौम तबाह व बर्बाद हो गई तो उसके बाद अल्लाह तआला ने क़ौमे आद को उरूज अता फ़रमाया। ये बड़े क़द्दावर और जसीम लोग थे। इस क़ौम को अल्लाह तआला ने दुनियावी तौर पर बड़ा उरूज बख़्शा था। शद्दाद इसी क़ौम का बादशाह था जिसने बहशते अरज़ी (ज़मीनी जन्नत) बनाई थी। अब उसकी जन्नत और उस शहर के खंडरात का सुराग भी मिल चुका है। जज़ीरा नुमाए अरब के जुनूबी सहरा में एक इलाक़ा है जहाँ की रेत बहुत बारीक है और उसके ऊपर कोई चीज़ टिक नहीं सकती। इस वजह से वहाँ आमद व रफ्त (आना-जाना) मुश्किल है, क्योंकि उस रेत पर चलने वाली हर चीज़ उसके अंदर धँस जाती है। इस इलाक़े में सैटेलाइट के ज़रिये ज़ेरे ज़मीन शद्दाद के उस शहर का सुराग मिला है, जिसकी फ़सील पर 35 बुर्ज थे।
“तो अल्लाह के अहसानात को याद करो ताकि तुम फ़लाह पाओ।” فَاذْكُرُوْٓا اٰلَاۗءَ اللّٰهِ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ 69؀

आयत 70
“उन्होंने कहा (ऐ हूद अलै.) क्या तुम हमारे पास इसलिये आये हो कि हम सिर्फ़ अल्लाह की बंदगी करें जो अकेला है” قَالُوْٓا اَجِئْتَنَا لِنَعْبُدَ اللّٰهَ وَحْدَهٗ
“और हम छोड़ बैठें उनको जिनको पूजते थे हमारे आबा व अजदाद!” وَنَذَرَ مَا كَانَ يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا ۚ
“तो हम पर ले आओ (वह अज़ाब) जिसकी तुम हमें धमकी दे रहे हो, अग़र तुम सच्चे हो।” فَاْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ 70؀
हमेशा से होता आया है कि जब भी किसी क़ौम पर ज़वाल आता था तो उनके अक़ीदे बिगड़ जाते थे। अल्लाह के रसूल के बताये हुए सीधे रास्ते को छोड़ कर वो क़ौम बुतपरस्ती और शिर्क में मुब्तला हो जाती थी। औलिया अल्लाह की अक़ीदत की वजह से उनके नामों के बुत बनाये जाते थे या फिर उनकी क़ब्रों की परस्तिश शुरू कर दी जाती। यह सामने के मअबूद उनको उस अल्लाह के मुक़ाबले में ज़्यादा अच्छे लगते थे जो उनकी नज़रों से ओझल था। इन हालात में जब भी कोई रसूल आकर ऐसी मुशरिक क़ौम को बुतपरस्ती से मना करता और उन्हें एक अल्लाह की बंदगी की तल्क़ीन करता, तो अपने माहौल के मुताबिक़ उनका पहला जवाब यही होता कि अपने सारे ख़ुदाओं को ठुकरा कर सिर्फ़ एक अल्लाह को कैसे अपना मअबूद बना लें।

आयत 71
“(हूद अलै. ने) फ़रमाया तुम पर तुम्हारे रब की तरफ़ से अज़ाब और उसका ग़जब वाक़ेअ हो ही चुका है।” قَالَ قَدْ وَقَعَ عَلَيْكُمْ مِّنْ رَّبِّكُمْ رِجْسٌ وَّغَضَبٌ ۭ
तुम्हारी इस हठधर्मी के बाइस अल्लाह का अज़ाब और उसका क़हर व गज़ब तुम पर मुसल्लत हो चुका है।
“क्या तुम मुझसे झगड़ रहे हो उन नामों के बारे में जो तुमने और तुम्हारे आबा व अजदाद ने रख लिये थे” اَتُجَادِلُوْنَنِيْ فِيْٓ اَسْمَاۗءٍ سَمَّيْتُمُوْهَآ اَنْتُمْ وَاٰبَاۗؤُكُمْ
यह जो तुमने मुख़्तलिफ़ नामों के बुत बना रखे हैं और उनकी पूजा करते हो, उनकी हक़ीक़त कुछ नहीं, महज़ चंद फ़र्ज़ी नाम हैं जो तुमने और तुम्हारे आबा व अजदाद ने बग़ैर किसी सनद के रखे हुए हैं।
“अल्लाह ने इसके लिये कोई सनद नहीं उतारी। तो (ठीक है) तुम भी इन्तेज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तेज़ार करने वालों में हूँ।” مَّا نَزَّلَ اللّٰهُ بِهَا مِنْ سُلْطٰنٍ ۭ فَانْتَظِرُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ 71؀
यानि देखें कब तक अल्लाह तुम्हें मोहलत देता है और कब अल्लाह की तरफ़ से तुम पर अज़ाबे इस्तेसाल आता है।

आयत 72
“तो हमने बचा लिया उस अलै. को और जो (अहले ईमान) लोग उस अलै. के साथ थे अपनी रहमत से, और हमने जड़ काट दी उस क़ौम की जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया था” فَاَنْجَيْنٰهُ وَالَّذِيْنَ مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا وَقَطَعْنَا دَابِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا
“और नहीं थे वो ईमान लाने वाले।” وَمَا كَانُوْا مُؤْمِنِيْنَ 72؀ۧ
सात दिन और आठ रातों तक एक तेज़ आँधी मुसलसल उन पर चलती रही और उन्हें पटक-पटक कर गिराती रही, उसी आँधी की वजह से वो सब हलाक हो गए। जब भी किसी क़ौम पर अज़ाबे इस्तेसाल का फ़ैसला हो जाता है तो अल्लाह के रसूल अलै. और अहले ईमान को वहाँ से हिजरत का हुक्म आ जाता है। चुनाँचे आँधी के इस अज़ाब से पहले हज़रत हूद अलै. और आपके साथी वहाँ से हिजरत करके चले गए थे।

आयात 73 से 84 तक
وَاِلٰي ثَمُوْدَ اَخَاهُمْ صٰلِحًا ۘ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭقَدْ جَاۗءَتْكُمْ بَيِّنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭهٰذِهٖ نَاقَةُ اللّٰهِ لَكُمْ اٰيَةً فَذَرُوْهَا تَاْكُلْ فِيْٓ اَرْضِ اللّٰهِ وَلَا تَمَسُّوْهَا بِسُوْۗءٍ فَيَاْخُذَكُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 73؀ وَاذْكُرُوْٓا اِذْ جَعَلَكُمْ خُلَفَاۗءَ مِنْۢ بَعْدِ عَادٍ وَّبَوَّاَكُمْ فِي الْاَرْضِ تَتَّخِذُوْنَ مِنْ سُهُوْلِهَا قُصُوْرًا وَّتَنْحِتُوْنَ الْجِبَالَ بُيُوْتًا ۚ فَاذْكُرُوْٓا اٰلَاۗءَ اللّٰهِ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ 74؀ قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ لِلَّذِيْنَ اسْتُضْعِفُوْا لِمَنْ اٰمَنَ مِنْهُمْ اَتَعْلَمُوْنَ اَنَّ صٰلِحًا مُّرْسَلٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۭقَالُوْٓا اِنَّا بِمَآ اُرْسِلَ بِهٖ مُؤْمِنُوْنَ 75؀ قَالَ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْٓا اِنَّا بِالَّذِيْٓ اٰمَنْتُمْ بِهٖ كٰفِرُوْنَ 76؀ فَعَقَرُوا النَّاقَةَ وَعَتَوْا عَنْ اَمْرِ رَبِّهِمْ وَقَالُوْا يٰصٰلِحُ ائْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الْمُرْسَلِيْنَ 77؀ فَاَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 78؀ فَتَوَلّٰى عَنْهُمْ وَقَالَ يٰقَوْمِ لَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ رِسَالَةَ رَبِّيْ وَنَصَحْتُ لَكُمْ وَلٰكِنْ لَّا تُحِبُّوْنَ النّٰصِحِيْنَ 79؀ وَلُوْطًا اِذْ قَالَ لِقَوْمِهٖٓ اَتَاْتُوْنَ الْفَاحِشَةَ مَا سَبَقَكُمْ بِهَا مِنْ اَحَدٍ مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ 80؀ اِنَّكُمْ لَتَاْتُوْنَ الرِّجَالَ شَهْوَةً مِّنْ دُوْنِ النِّسَاۗءِ ۭ بَلْ اَنْتُمْ قَوْمٌ مُّسْرِفُوْنَ 81؀ وَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهٖٓ اِلَّآ اَنْ قَالُوْٓا اَخْرِجُوْهُمْ مِّنْ قَرْيَتِكُمْ ۚاِنَّهُمْ اُنَاسٌ يَّتَطَهَّرُوْنَ 82؀ فَاَنْجَيْنٰهُ وَاَهْلَهٗٓ اِلَّا امْرَاَتَهٗ ڮ كَانَتْ مِنَ الْغٰبِرِيْنَ 83؀ وَاَمْطَرْنَا عَلَيْهِمْ مَّطَرًا ۭفَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُجْرِمِيْنَ 84؀ۧ

आयत 73
“और क़ौमे समूद की तरफ़ (भेजा हमने) उनके भाई सालेह अलै. को” وَاِلٰي ثَمُوْدَ اَخَاهُمْ صٰلِحًا ۘ
हज़रत हूद अलै. और उनके अहले ईमान साथी जज़ीरा नुमाए अरब के जुनूबी इलाक़े से हिजरत करके शिमाल मग़रिबी कोने में जा आबाद हुए। यह “हजर” का इलाक़ा कहलाता है। यहाँ उनकी नस्ल आगे बढ़ी और फिर ग़ालिबन समूद नामी किसी बड़ी शख़्सियत की वजह से इस क़ौम का यह नाम मशहूर हुआ।
“उस अलै. ने कहा ऐ मेरी क़ौम इबादत करो अल्लाह की जिसके सिवा तुम्हारा कोई मअबूद नहीं है, तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से एक ख़ास निशानी आ गई है।” قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭقَدْ جَاۗءَتْكُمْ بَيِّنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ
हज़रत सालेह अलै. ने भी अपनी क़ौम को वही दावत दी जो इससे पहले हज़रत नूह अलै. और हज़रत हूद अलै. अपनी-अपनी क़ौमों को दे चुके थे। यहाँ बय्यिना से मुराद वह ऊँटनी है जो उनके मुतालबे पर मौज्ज़ाना तौर पर चट्टान से निकली थी। यहाँ यह बात भी क़ाबिले तवज्जोह है कि हज़रत नूह और हज़रत हूद अलै. के बारे में किसी मौज्ज़े का ज़िक्र क़ुरान में नहीं है। मौज्ज़े का ज़िक्र सबसे पहले हज़रत सालेह अलै. के बारे में आता है।
“यह अल्लाह की ऊँटनी है, तुम्हारे लिये एक निशानी, तो इसे छोड़े रखो कि यह अल्लाह की ज़मीन में चरती फिरे, और इसे ना छूना किसी बुरे इरादे से, (अग़र तुमने ऐसा किया) तो एक दर्दनाक अज़ाब तुम्हें आ पकड़ेगा।” هٰذِهٖ نَاقَةُ اللّٰهِ لَكُمْ اٰيَةً فَذَرُوْهَا تَاْكُلْ فِيْٓ اَرْضِ اللّٰهِ وَلَا تَمَسُّوْهَا بِسُوْۗءٍ فَيَاْخُذَكُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 73؀
यह ऊँटनी तुम्हारे मुतालबे पर तुम्हारी निगाहों के सामने एक चट्टान से बरामद हुई है। अब इसे कोई नुक़सान पहुँचाने की कोशिश ना करना, वरना अल्लाह का अज़ाब तुम्हें आ लेगा।

आयत 74
“और याद करो जब उसने तुम्हें जानशीन बनाया क़ौमे आद (की तबाही) के बाद और तुम्हें जगह दी ज़मीन में, तुम इसके नरम मैदानों में महल तामीर करते हो और पहाड़ों को तराश कर (भी अपने लिये) घर बना लेते हो।” وَاذْكُرُوْٓا اِذْ جَعَلَكُمْ خُلَفَاۗءَ مِنْۢ بَعْدِ عَادٍ وَّبَوَّاَكُمْ فِي الْاَرْضِ تَتَّخِذُوْنَ مِنْ سُهُوْلِهَا قُصُوْرًا وَّتَنْحِتُوْنَ الْجِبَالَ بُيُوْتًا ۚ
मैदानी इलाक़ो में वो आलीशान महलात तामीर करते थे और पहाड़ों को तराश कर बड़े ख़ूबसूरत घर बनाते थे। अब उन महलात का तो कोई नामो निशान उस इलाक़े में मौजूद नहीं, अलबत्ता पहाड़ों से तराश कर बनाये हुए घरों के खंडरात उस इलाक़े में आज भी मौजूद हैं। क़ौमे समूद हज़रत इब्राहीम अलै. से पहले गुज़री है और क़ौम आद उससे भी पहले थी। इस तरह क़ौमे समूद का ज़माना आज से तक़रीबन छ: हज़ार साल पहले का है जबकि क़ौमे आद को गुज़रे तक़रीबन सात हज़ार साल हो चुके हैं।
“तो अल्लाह की नेअमतों को याद रखो और मत फिरो ज़मीन में फ़साद मचाते।” فَاذْكُرُوْٓا اٰلَاۗءَ اللّٰهِ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ 74؀

आयत 75
“आप अलै. की क़ौम के मुतकब्बिर सरदारों ने उन लोगों से कहा जो दबा लिये गये थे (और) जो उनमें से ईमान ले आये थे कि (वाक़ई) क्या तुम लोगों का ख़्याल है कि यह सालेह अपने रब की तरफ़ से भेजा गया है?” قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ لِلَّذِيْنَ اسْتُضْعِفُوْا لِمَنْ اٰمَنَ مِنْهُمْ اَتَعْلَمُوْنَ اَنَّ صٰلِحًا مُّرْسَلٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۭ
“उन्होंने कहा कि (हाँ) हम तो जो कुछ उनको देकर भेजा गया है उस पर ईमान रखते हैं।” قَالُوْٓا اِنَّا بِمَآ اُرْسِلَ بِهٖ مُؤْمِنُوْنَ 75؀
हज़रत सालेह अलै. की क़ौम के जो गरीब, दबे हुए और कमज़ोर लोग थे मग़र ईमान ले आये थे, उनसे उनके सरदार बड़े मुतकब्बिराना अंदाज़ से मुख़ातिब होकर कहते थे कि क्या तुम्हें इस बात का यक़ीन है कि यह सालेह वाक़ई अपने रब की तरफ़ से भेजे गये हैं? इस पर वो लोग बड़े यक़ीन से जवाब देते थे कि जो कुछ आप अलै. के रब ने आप अलै. को दिया है हम उस पर ईमान ले आये हैं और इन सारे अहकाम को सच जानते हैं।

आयत 76
“(इस पर) वो इस्तकबार करने वाले कहते कि जिस चीज़ पर तुम ईमान लाये हो हम उसके मुन्किर हैं।” قَالَ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْٓا اِنَّا بِالَّذِيْٓ اٰمَنْتُمْ بِهٖ كٰفِرُوْنَ 76؀
आयत 77
“तो उन्होंने ऊँटनी की कून्चें काट डालीं और अपने रब के हुक्म से सरताबी की” فَعَقَرُوا النَّاقَةَ وَعَتَوْا عَنْ اَمْرِ رَبِّهِمْ
यह ऊँटनी उनकी फ़रमाईश पर चट्टान से बरामद हुई थी, मग़र फिर यह उनके लिये बहुत बड़ी आज़माईश बन गई थी। वह उनकी फ़सलों में जहाँ चाहती फिरती और जो चाहती खाती। उसकी खुराक ग़ैर मामूली हद तक ज़्यादा थी। पानी पीने के लिये भी उसकी बारी मुक़र्रर थी। एक दिन उनके तमाम ढ़ोर-डंगर पानी पीते थे, जबकि दूसरे दिन वह अकेली तमाम पानी पी जाती थी। रफ़्ता-रफ़्ता यह सब कुछ उनके लिये ना क़ाबिले बर्दाश्त हो गया और बिलआख़िर उन सरदारों ने एक साज़िश के ज़रिये उसे हलाक़ करवा दिया।
“और कहा कि ऐ सालेह, ले आओ हम पर वह (अज़ाब) जिससे तुम हमें डराते हो अग़र वाक़ई तुम रसूल हो।” وَقَالُوْا يٰصٰلِحُ ائْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الْمُرْسَلِيْنَ 77؀
हज़रत सालेह अलै. से उन्होंने चैलेंज के अंदाज़ में कहा कि हमने तुम्हारी ऊँटनी को तो मार डाला है, अब अग़र वाक़ई तुम अल्लाह के रसूल हो तो ले आओ हमारे ऊपर वह अज़ाब जिसका तुम हर वक़्त हमें डरावा देते रहते हो।

आयत 78
“तो उन्हें आ पकड़ा ज़लज़ले ने, फिर वह पड़े रह गए अपने घरों में औंधे।” فَاَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 78؀

आयत 79
“तो (सालेह अलै. ने) उनसे पीठ मोड़ ली और कहा कि ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैंने तो तुम्हें अपने रब का पैग़ाम पहुँचा दिया था और मैंने (इम्कान भर) तुम्हारी ख़ैरख्वाही की, लेकिन तुम तो ख़ैरख़्वाहों को पसंद नहीं करते।” فَتَوَلّٰى عَنْهُمْ وَقَالَ يٰقَوْمِ لَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ رِسَالَةَ رَبِّيْ وَنَصَحْتُ لَكُمْ وَلٰكِنْ لَّا تُحِبُّوْنَ النّٰصِحِيْنَ 79؀
इसके बाद हज़रत लूत अलै. का ज़िक्र आ रहा है। आप अलै. हज़रत इब्राहीम अलै. के भतीजे थे। आप अलै. इराक़ के रहने वाले थे और सामी उल नस्ल थे। आप अलै. ने हज़रत इब्राहीम अलै. के साथ हिजरत की थी। अल्लाह तआला ने हज़रत लूत अलै. को रिसालत से सरफ़राज़ फ़रमा कर सदूम और आमूराह की बस्तियों की तरफ़ मबऊस फ़रमाया। यह दोनों शहर बहरे मुर्दार (Dead Sea) के किनारे उस ज़माने के दो बड़े अहम तिजारती मरकज़ थे। उस ज़माने जो तिजारती क़ाफिले ईरान और इराक़ के रास्ते मशरिक से मग़रिब की तरफ़ जाते थे वह फ़लीस्तीन और मिस्र को जाते हुए सदूम और आमूराह के शहरों से होकर गुज़रते थे। इस अहम तिजारती शाहराह पर वाक़ेअ होने की वजह से इन शहरों में बड़ी ख़ुशहाली थी। मग़र इन लोगों में मर्दों के आपस में जिन्सी इख़्तलात की ख़बासत पैदा हो गई थी जिसकी वजह से इन पर अज़ाब आया।
हज़रत लूत अलै. इस क़ौम में से नहीं थे। सूरह अन्कबूत (आयत 26) में हमें आप अलै. की हिजरत का ज़िक्र मिलता है। आप अलै. इन शहरों की तरफ़ मबऊस होकर इराक़ से आये थे। यहाँ पर यह बात ख़ास तौर पर क़ाबिले तवज्जोह है कि हज़रत नूह, हज़रत हूद और हज़रत सालेह अलै. का ज़माना हज़रत इब्राहीम अलै. से पहले का है। जबकि हज़रत लूत अलै. हज़रत इब्राहीम अलै. के हम असर थे। यहाँ हज़रत इब्राहीम अलै. से पहले के ज़माने के तीन रसूलों का ज़िक्र किया गया है और फिर हज़रत इब्राहीम अलै. को छोड़ कर हज़रत लूत अलै. का ज़िक्र शुरू कर दिया गया है। इसकी क्या वजह है? इसकी वजह यह है कि यहाँ एक ख़ास अस्लूब से अन्बाअ अर्रुसुल का तज़किरा हो रहा है। यानि उन रसूलों का तज़किरा जो अल्लाह की अदालत बन कर क़ौमों की तरफ़ आये और उनके इंकार के बाद क़ौमें तबाह कर दी गईं। चूँकि हज़रत इब्राहीम अलै. के ज़िमन में इस नौइयत की कोई तफ़सील सराहत के साथ क़ुरान में नहीं मिलती इसलिये आप अलै. का ज़िक्र क़ससुल नबिय्यीन के ज़ेल में आता है। यही वजह है कि आप अलै. का तज़किरा सूरह आराफ़ के बजाय सूरतुल अन्आम में किया गया है और वहाँ यह तज़किरा क़ससुल नबिय्यीन ही के अंदाज़ में हुआ है, जबकि सूरतुल आराफ़ में तमाम अन्बाअ अर्रुसुल को इकठ्ठा कर दिया गया है। अन्बाअ अर्रुसुल और क़ससुल नबिय्यीन की तक़सीम के अंदर यह एक मन्तक़ी रब्त (कड़ी) है।

आयत 80
“और लूत अलै. (को भी हमने भेजा) जब उसने कहा अपनी क़ौम से” وَلُوْطًا اِذْ قَالَ لِقَوْمِهٖٓ
अग़रचे हज़रत लूत अलै. उस क़ौम में से नहीं थे, लेकिन उनकी तरफ़ मबऊस होने और वहाँ जाकर आबाद हो जाने की वजह से उन लोगों को आप अलै. की क़ौम क़रार दिया गया है।
“क्या तुम ऐसी बेहयाई का इरतकाब कर रहे हो जो तुमसे पहले तमाम जहान वालों में से किसी ने भी नहीं की।” اَتَاْتُوْنَ الْفَاحِشَةَ مَا سَبَقَكُمْ بِهَا مِنْ اَحَدٍ مِّنَ الْعٰلَمِيْنَ 80؀
यानि इजतमाई तौर पर पूरी क़ौम का एक शर्मनाक फ़अल को इस अंदाज़ से अपना लेना कि उसे अपना शआर (नारा) बना लेना, खुल्लम-खुल्ला उसका इरतकाब करना और उसमें शर्माने की बजाय फ़ख्र करना, इस सब कुछ की मिसाल तारीख़े इंसानी के अंदर कोई और नहीं मिलती।

आयत 81
“तुम मर्दों का रुख़ करते हो शहवत के साथ औरतों को छोड़ कर, बल्कि तुम तो हो ही हद से तजावुज़ करने वाली क़ौम।” اِنَّكُمْ لَتَاْتُوْنَ الرِّجَالَ شَهْوَةً مِّنْ دُوْنِ النِّسَاۗءِ ۭ بَلْ اَنْتُمْ قَوْمٌ مُّسْرِفُوْنَ 81؀
यानि तुम्हारा यह फ़अल उसूले फ़ितरत के ख़िलाफ है और क़ानूने तबई से भी मुतसादिम।

आयत 82
“तो नहीं था उसकी क़ौम का कोई जवाब सिवाय इसके कि उन्होंने कहा निकालो इनको अपनी बस्ती से, ये लोग बड़े पाकबाज़ बनते है।” وَمَا كَانَ جَوَابَ قَوْمِهٖٓ اِلَّآ اَنْ قَالُوْٓا اَخْرِجُوْهُمْ مِّنْ قَرْيَتِكُمْ ۚاِنَّهُمْ اُنَاسٌ يَّتَطَهَّرُوْنَ 82؀
उनके पास कोई माक़ूल जवाब तो था नहीं, शर्म व हया को वो लोग पहले ही बालाये ताक़ रख चुके थे। कोई दलील, कोई उज़र, कोई माज़रत, जब कुछ भी ना बन पड़ा तो वो हज़रत लूत अलै. और आप अलै. के घर वालों को शहर बदर करने के दर पे हो गये। हज़रत लूत अलै. की बीवी इस मक़ामी क़ौम से ताल्लुक़ रखती थी, इसलिये वह आख़िर वक़्त तक अपनी क़ौम से साथ मिली रही। हज़रत लूत अलै. अल्लाह के हुक्म से अपनी बेटियों को लेकर अज़ाब आने से पहले वहाँ से निकल गये।

आयत 83
“तो हमने निजात दे दी उस अलै. को और उसके घर वालों को, सिवाय उसकी बीवी के, वह हो गई पीछे रहने वालों ही में।” فَاَنْجَيْنٰهُ وَاَهْلَهٗٓ اِلَّا امْرَاَتَهٗ ڮ كَانَتْ مِنَ الْغٰبِرِيْنَ 83؀

आयत 84
“और हमने बरसाई उन पर एक बारिश, तो देखो क्या अंजाम हुआ मुजरिमों का!” وَاَمْطَرْنَا عَلَيْهِمْ مَّطَرًا ۭفَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُجْرِمِيْنَ 84؀ۧ
यह पत्थरों की बारिश थी और साथ शदीद ज़लज़ला भी था जिससे उनकी बस्तियाँ उलट कर बहरे मुर्दार के अंदर दफ़न हो गईं। क़ौमे लूत अहले मक्का से ज़मानी और मक़ानी लिहाज़ से ज़्यादा दूर नहीं थी, इस क़ौम के क़िस्से अहले अरब की तारीख़ी रिवायात के अंदर मौज़ूद थे। चुनाँचे अहले मक्का इस क़ौम के हसरतनाक अंजाम से ख़ूब वाक़िफ थे।

आयात 85 से 93 तक
وَاِلٰي مَدْيَنَ اَخَاهُمْ شُعَيْبًا ۭقَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭقَدْ جَاۗءَتْكُمْ بَيِّنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ فَاَوْفُوا الْكَيْلَ وَالْمِيْزَانَ وَلَا تَبْخَسُوا النَّاسَ اَشْـيَاۗءَهُمْ وَلَا تُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ بَعْدَ اِصْلَاحِهَا ۭذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ٨5؀ۚ وَلَا تَقْعُدُوْا بِكُلِّ صِرَاطٍ تُوْعِدُوْنَ وَتَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ مَنْ اٰمَنَ بِهٖ وَتَبْغُوْنَهَا عِوَجًا ۚ وَاذْكُرُوْٓا اِذْ كُنْتُمْ قَلِيْلًا فَكَثَّرَكُمْ ۠ وَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُفْسِدِيْنَ 86؀ وَاِنْ كَانَ طَاۗىِٕفَةٌ مِّنْكُمْ اٰمَنُوْا بِالَّذِيْٓ اُرْسِلْتُ بِهٖ وَطَاۗىِٕفَةٌ لَّمْ يُؤْمِنُوْا فَاصْبِرُوْا حَتّٰي يَحْكُمَ اللّٰهُ بَيْنَنَا ۚ وَهُوَ خَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ 87؀ قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ لَنُخْرِجَنَّكَ يٰشُعَيْبُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَكَ مِنْ قَرْيَتِنَآ اَوْ لَتَعُوْدُنَّ فِيْ مِلَّتِنَا ۭ قَالَ اَوَلَوْ كُنَّا كٰرِهِيْنَ 88؀ۣ قَدِ افْتَرَيْنَا عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا اِنْ عُدْنَا فِيْ مِلَّتِكُمْ بَعْدَ اِذْ نَجّٰىنَا اللّٰهُ مِنْهَا ۭوَمَا يَكُوْنُ لَنَآ اَنْ نَّعُوْدَ فِيْهَآ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ رَبُّنَا ۭوَسِعَ رَبُّنَا كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا ۭ عَلَي اللّٰهِ تَوَكَّلْنَا رَبَّنَا افْتَحْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ قَوْمِنَا بِالْحَقِّ وَاَنْتَ خَيْرُ الْفٰتِحِيْنَ 89؀ وَقَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ لَىِٕنِ اتَّبَعْتُمْ شُعَيْبًا اِنَّكُمْ اِذًا لَّـخٰسِرُوْنَ 90؀ فَاَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 91۝ٻ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا شُعَيْبًا كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ڔ اَلَّذِيْنَ كَذَّبُوْا شُعَيْبًا كَانُوْا هُمُ الْخٰسِرِيْنَ 92؀ فَتَوَلّٰي عَنْهُمْ وَقَالَ يٰقَوْمِ لَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَنَصَحْتُ لَكُمْ ۚ فَكَيْفَ اٰسٰي عَلٰي قَوْمٍ كٰفِرِيْنَ 93؀ۧ

आयत 85
“और क़ौमे मदयन की तरफ़ (हमने भेजा) उनके भाई शोएब अलै. को।” وَاِلٰي مَدْيَنَ اَخَاهُمْ شُعَيْبًا ۭ
हज़रत शोएब अलै. का ताल्लुक़ इसी क़ौम से था, इसलिये आप अलै. को उनका भाई क़रार दिया गया। जैसा कि पहले भी ज़िक्र हो चुका है कि हज़रत इब्राहीम अलै. की तीसरी बीवी का नाम “क़तूरा” था। उनसे आप अलै. के कई बेटे हुए, जिनमें से एक का नाम मदयन था जो अपनी औलाद के साथ ख़लीज उक़बा के मशरिकी साहिल पर आबाद हुए थे। यह इलाक़ा उन लोगों की वजह से बाद में “मदयन” ही के नाम से मारुफ़ हुआ। मदयन का इलाक़ा भी उस ज़माने की बैयनल अक़वामी तिजारती (world trade center) शाहराह पर वाक़ेअ था। यह शाहराह शिमालन जुनूबन फ़लस्तीन से यमन को जाती थी। इस लिहाज़ से अहले मदयन बहुत ख़ुशहाल लोग थे। नतीजतन उनमें बहुत सी कारोबारी और तिजारती बद्उनवानियाँ पैदा हो गई थीं। लिहाज़ा उनकी इस्लाह के लिये हज़रत शोएब अलै. को मबऊस किया गया।
“उस अलै. ने कहा ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बंदगी करो, तुम्हारा कोई मअबूद नहीं है उसके सिवा। तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से खुली दलील आ चुकी है” قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭقَدْ جَاۗءَتْكُمْ بَيِّنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ
“तो माप और तौल पूरा किया करो और लोगों से उनकी चीज़ें कम ना किया करो, और ज़मीन में उसकी इस्लाह के बाद फ़साद मत मचाओ, यही तुम्हारे लिये बेहतर है अग़र तुम मोमिन हो।” فَاَوْفُوا الْكَيْلَ وَالْمِيْزَانَ وَلَا تَبْخَسُوا النَّاسَ اَشْـيَاۗءَهُمْ وَلَا تُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ بَعْدَ اِصْلَاحِهَا ۭذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ٨5؀ۚ
अहले मदयन चूँकि कारोबारी लोग थे लिहाज़ा उनके यहाँ जो ख़ास ख़राबी इजतमाई तौर पर पैदा हो गई थी वह माप-तौल में कमी की आदत थी। यहाँ यह नुक्ता भी क़ाबिले तवज्जोह है कि हज़रत इब्राहीम अलै. से क़ब्ल ज़माने की जिन तीन अक़वाम का ज़िक्र क़ुरान में आया है, यानि क़ौमे नूह, क़ौमे हूद और क़ौमे सालेह उनमें सिवाय शिर्क के और किसी खराबी की तफ़सील नहीं मिलती। यानि उस ज़माने तक इंसानी तमद्दुन (संस्कृति) इतना सादा था कि अभी आमाल की ख़राबियाँ और गंदगियाँ राइज (प्रचलित) नहीं हुई थीं। तब तक इंसान फ़ितरत के ज़्यादा क़रीब था, इसलिये वह पेचेदगियाँ जो तमद्दुन के फैलने के साथ बढ़ती हैं और वह बद्उन्वानियाँ जो इस पेचीदा ज़िन्दगी की वजह से फैलती हैं वो अभी उन अक़वाम के अफ़राद में पैदा नहीं हुई थीं। इस लिहाज़ से देखा जाये तो जिन्सी बुराईयाँ सबसे पहले क़ौमे लूत में और माली बद्उन्वानियाँ सबसे पहले अहले मदयन में पैदा हुईं।
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आयत 86
“और ना बैठा करो हर रास्ते पर डराने-धमकाने के लिये” وَلَا تَقْعُدُوْا بِكُلِّ صِرَاطٍ تُوْعِدُوْنَ
यानि वो लोग राहज़नी भी करते थे और तिजारती क़ाफ़िलों को डरा-धमका कर उनसे भत्ता भी वसूल करते थे। इन हरकात से भी हज़रत शोएब अलै. ने उन्हें मना किया।
“और अल्लाह के रास्ते से रोकने के लिये (हर उस शख़्स को) जो ईमान लाता है और उस राह को कज करते हुए।” وَتَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ مَنْ اٰمَنَ بِهٖ وَتَبْغُوْنَهَا عِوَجًا ۚ
“और याद करो जबकि तुम कम तादाद में थे तो अल्लाह ने तुम्हारी तादाद ज़्यादा कर दी, और (यह भी) देखो कि मुफ़सिदों का कैसा कुछ अंजाम होता रहा है।” وَاذْكُرُوْٓا اِذْ كُنْتُمْ قَلِيْلًا فَكَثَّرَكُمْ ۠ وَانْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُفْسِدِيْنَ 86؀

आयत 87
“और अग़र तुम में से एक गिरोह ईमान ले आया है उस चीज़ पर जो मुझे देकर भेजा गया है और एक गिरोह ईमान नहीं लाया है” وَاِنْ كَانَ طَاۗىِٕفَةٌ مِّنْكُمْ اٰمَنُوْا بِالَّذِيْٓ اُرْسِلْتُ بِهٖ وَطَاۗىِٕفَةٌ لَّمْ يُؤْمِنُوْا
“तो तुम सब्र करो यहाँ तक कि अल्लाह हमारे माबैन फ़ैसला फ़रमा दे, और यक़ीनन वह बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है।” فَاصْبِرُوْا حَتّٰي يَحْكُمَ اللّٰهُ بَيْنَنَا ۚ وَهُوَ خَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ 87؀

आयत 88
“कहा उस अलै. की क़ौम के उन सरदारों ने जिन्होंने तकब्बुर की रविश इख़्तियार की कि ऐ शोएब! हम तुझे और जो तेरे साथ ईमान लाए हैं उन्हें अपनी बस्ती से निकाल बाहर करेंगे, या तुम वापस आ जाओ हमारी मिल्लत में।” قَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ اسْتَكْبَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ لَنُخْرِجَنَّكَ يٰشُعَيْبُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَكَ مِنْ قَرْيَتِنَآ اَوْ لَتَعُوْدُنَّ فِيْ مِلَّتِنَا ۭ
“(हज़रत शोएब अलै. ने) फ़रमाया: क्या अगर हमें (यह सब कुछ) नापसंद हो तब भी?” قَالَ اَوَلَوْ كُنَّا كٰرِهِيْنَ 88؀ۣ
हज़रत शोएब अलै. की क़ौम के मुतकब्बिर सरदारों ने आप और आप अलै. के मामने वालों से कहा कि अग़र तुम लोग हमारे यहाँ अमन और चैन से रहना चाहते हो तो तुम्हें हमारे ही तौर-तरीक़ों और रस्मो-रिवाज को अपनाना होगा, बसूरते दीग़र हम तुम लोगों को अपनी बस्ती से निकाल बाहर करेंगे। हज़रत शोएब अलै. ने फ़रमाया कि क्या तुम लोग ज़बरदस्ती हमें अपनी मिल्लत में वापस फेर लोगे जबकि हम तो इन तौर-तरीक़ों से नफ़रत करते हैं!

आयत 89
“हम अल्लाह पर झूठ गढ़ने वाले होंगे अग़र हम तुम्हारी मिल्लत में लौट आएँ, इसके बाद कि अल्लाह ने हमें उससे निजात दे दी है।” قَدِ افْتَرَيْنَا عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا اِنْ عُدْنَا فِيْ مِلَّتِكُمْ بَعْدَ اِذْ نَجّٰىنَا اللّٰهُ مِنْهَا ۭ
हज़रत शोएब अलै. का फ़रमाना था कि अग़र हम दोबारा तुम्हारे तौर-तरीक़ों पर वापस आ जायें तो इसका मतलब यह होगा कि मेरा नुबुवत का दावा ही गलत था और मैं यह दावा करके गोया अल्लाह पर इफ़तरा कर रहा था। लेकिन चूँकि मेरा यह दावा सच्चा है और मैं वाक़िअतन अल्लाह का फ़रस्तादा हूँ लिहाज़ा अब मेरे और मेरे साथियों के लिये तुम्हारी मिल्लत में वापस आना मुमकिन नहीं।
“और हमारे लिये क़तअन मुमकिन नहीं है कि हम इस मिल्लत में लौट आएँ, सिवाय इसके कि अल्लाह जो हमारा परवरदिगार हैं वह चाहे।” وَمَا يَكُوْنُ لَنَآ اَنْ نَّعُوْدَ فِيْهَآ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ رَبُّنَا ۭ
यह एक बंदा-ए-मोमिन की सोच और उसके तर्ज़े अमल की अक्कासी (reflection) है। वह ना अपने फ़िक्र व फ़लसफ़े पर भरोसा करता है और ना अपनी अक़्ल व इस्तक़ामत का सहारा लेता है, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह की तौफ़ीक और तैसीर पर तवक्कुल करता है। यही वह फ़लसफ़ा था जिसके मुताबिक़ हज़रत शोएब अलै. ने इस तरह फ़रमाया, हाँलाकि उनके वापस पलटने का कोई इम्कान नहीं था।
“और हमारे रब ने तो हर शय के इल्म का इहाता किया हुआ है, हमने अल्लाह ही पर तवक्कुल किया है।” وَسِعَ رَبُّنَا كُلَّ شَيْءٍ عِلْمًا ۭ عَلَي اللّٰهِ تَوَكَّلْنَا
“ऐ हमारे रब! फ़ैसला फ़रमा दे हमारे और हमारी क़ौम के दरमियान हक़ के साथ, और यक़ीनन तू बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है।” رَبَّنَا افْتَحْ بَيْنَنَا وَبَيْنَ قَوْمِنَا بِالْحَقِّ وَاَنْتَ خَيْرُ الْفٰتِحِيْنَ 89؀

आयत 90
“और कहा उस अलै. की क़ौम के उन सरदारों ने जिन्होंने कुफ़्र किया था कि अग़र तुमने शोएब की पैरवी की तो तुम खसारे वाले हो जाओगे।” وَقَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ لَىِٕنِ اتَّبَعْتُمْ شُعَيْبًا اِنَّكُمْ اِذًا لَّـخٰسِرُوْنَ 90؀
आयत 91
“तो उन्हें (भी) आ पकड़ा एक ज़लज़ले ने और वो (भी) पड़े रह गये अपने घरों में औंधे मुँह।” فَاَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 91۝ٻ
आयत 92
“वो लोग जिन्होंने शोएब अलै. को झुठलाया था ऐसे हो गए कि जैसे कभी उस बस्ती में बसे ही नहीं थे, जिन लोगों ने शोएब अलै. की तकज़ीब की वही हुए खसारे वाले।” الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا شُعَيْبًا كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ڔ اَلَّذِيْنَ كَذَّبُوْا شُعَيْبًا كَانُوْا هُمُ الْخٰسِرِيْنَ 92؀
आयत 93
“तो वह उनको छोड़ कर चल दिया यह कहते हुए कि ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैंने तो तुम्हें पहुँचा दिए थे अपने रब के पैग़ामात और मैंने तुम्हारी ख़ैरख्वाही की थी।” فَتَوَلّٰي عَنْهُمْ وَقَالَ يٰقَوْمِ لَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ رِسٰلٰتِ رَبِّيْ وَنَصَحْتُ لَكُمْ ۚ
“तो अब मैं कैसे अफ़सोस करुँ उस क़ौम पर जिसने कुफ़्र किया है!” فَكَيْفَ اٰسٰي عَلٰي قَوْمٍ كٰفِرِيْنَ 93؀ۧ
यानि हज़रत शोएब अलै. ने इम्कानी हद तक अपनी क़ौम को समझाने की कोशिश की। फिर भी अग़र क़ौम नहीं मानी तो गोया उन लोगों ने ख़ुद अपनी बर्बादी को दावत दी। अब ऐसे लोगों की हलाकत पर अफ़सोस करने का जवाज़ भी क्या है। लेकिन हज़रत शोएब अलै. के इन अल्फ़ाज़ से वाज़ेह हो रहा है कि आप अलै. को अपनी क़ौम के अंजाम पर शदीद रंज व ग़म और सदमा था और ऐसे मौक़े पर ऐसे अल्फ़ाज़ कहना अपने दिल की ढ़ाँढ़स बँधाने का अंदाज़ है। बहरहाल हक़ीक़त यह है कि नबी अपनी क़ौम और बनी नौए इंसानी के लिये बहुत शफ़ीक़, मेहरबान और हमदर्द होता है और अपनी क़ौम पर अज़ाब आने पर उसे बहुत सदमा होता है।

आयात 94 से 102 तक
وَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْ قَرْيَةٍ مِّنْ نَّبِيٍّ اِلَّآ اَخَذْنَآ اَهْلَهَا بِالْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ لَعَلَّهُمْ يَضَّرَّعُوْنَ 94؀ ثُمَّ بَدَّلْنَا مَكَانَ السَّيِّئَةِ الْحَسَنَةَ حَتّٰي عَفَوْا وَّقَالُوْا قَدْ مَسَّ اٰبَاۗءَنَا الضَّرَّاۗءُ وَالسَّرَّاۗءُ فَاَخَذْنٰهُمْ بَغْتَةً وَّهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ 95؀ وَلَوْ اَنَّ اَهْلَ الْقُرٰٓي اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَفَتَحْنَا عَلَيْهِمْ بَرَكٰتٍ مِّنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ وَلٰكِنْ كَذَّبُوْا فَاَخَذْنٰهُمْ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ 96؀ اَفَاَمِنَ اَهْلُ الْقُرٰٓي اَنْ يَّاْتِيَهُمْ بَاْسـُنَا بَيَاتًا وَّهُمْ نَاۗىِٕمُوْنَ 97؀ۭ اَوَاَمِنَ اَهْلُ الْقُرٰٓي اَنْ يَّاْتِيَهُمْ بَاْسُنَا ضُحًى وَّهُمْ يَلْعَبُوْنَ 98؀ اَفَاَمِنُوْا مَكْرَ اللّٰهِ ۚ فَلَا يَاْمَنُ مَكْرَ اللّٰهِ اِلَّا الْقَوْمُ الْخٰسِرُوْنَ 99۝ۧ اَوَلَمْ يَهْدِ لِلَّذِيْنَ يَرِثُوْنَ الْاَرْضَ مِنْۢ بَعْدِ اَهْلِهَآ اَنْ لَّوْ نَشَاۗءُ اَصَبْنٰهُمْ بِذُنُوْبِهِمْ ۚ وَنَطْبَعُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ فَهُمْ لَا يَسْمَعُوْنَ ١٠٠؁ تِلْكَ الْقُرٰي نَقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗىِٕهَا ۚ وَلَقَدْ جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ ۚ فَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا بِمَا كَذَّبُوْا مِنْ قَبْلُ ۭكَذٰلِكَ يَطْبَعُ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِ الْكٰفِرِيْنَ ١٠١؁ وَمَا وَجَدْنَا لِاَكْثَرِهِمْ مِّنْ عَهْدٍ ۚ وَاِنْ وَّجَدْنَآ اَكْثَرَهُمْ لَفٰسِقِيْنَ ١٠٢؁

आयत 94
“और हमने नहीं भेजा किसी भी बस्ती में किसी भी नबी को मग़र यह कि हमने पकड़ा उसके बसने वालों को सख़्तियों से और तकलीफ़ों से ताकि वो गिड़गिड़ाएँ (और उनमें आजिज़ी पैदा हो जाये)।” وَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْ قَرْيَةٍ مِّنْ نَّبِيٍّ اِلَّآ اَخَذْنَآ اَهْلَهَا بِالْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ لَعَلَّهُمْ يَضَّرَّعُوْنَ 94؀
यह अल्लाह के एक ख़ास क़ानून का तज़किरा है, जिसके बारे में हम सूरह अन्आम (आयात 42 से 45) में भी पढ़ आए हैं। अल्लाह तआला का यह तरीक़ा रहा है कि जब भी किसी क़ौम की तरफ़ किसी रसूल को भेजा जाता तो उस क़ौम को सख़्तियों और मुसीबतों में मुब्तला करके उनके लिये रसूल की दावत को क़ुबूल करने का माहौल पैदा किया जाता। क्योंकि ख़ुशहाली और ऐश की ज़िन्दगी गुज़ारते हुए इंसान ऐसी कोई नई बात सुनने की तरफ़ कम ही माइल होता है, अलबत्ता अग़र इंसान तकलीफ़ में मुब्तला हो तो वह ज़रूर अल्लाह की तरफ़ रुजूअ करता है। लिहाज़ा किसी रसूल की दावत के आगाज़ के साथ ही उस क़ौम पर ज़िन्दगी के हालात तंग कर दिए जाते थे, लेकिन अग़र वो लोग इसके बावजूद भी होश में ना आते, अपनी ज़िद पर अड़े रहते, और रसूल की दावत को रद्द करते चले जाते, तो उन पर से वह सख़्तियाँ और तकलीफ़ें दूर करके उनको ग़ैर मामूली आसाइशों और नेअमतों से नवाज़ दिया जाता था। यह अल्लाह तआला की तरफ़ से गोया ढ़ील देने का एक अंदाज़ है कि अब इस क़ौम ने बर्बाद तो होना ही है मग़र आख़री अंजाम को पहुँचने से पहले उनकी नाफ़रमानी की आख़री हुदूद देख ली जाएँ कि अपनी इस रविश पर वो कहाँ तक जा सकते हैं। यह है वह क़ानून या अल्लाह की सुन्नत, जिस पर हर रसूल के आने पर अमल दर आमद होता रहा है। सूरतुल सज्दा (आयत 21) में इस क़ानून की वज़ाहत इस तरह की गई है: {وَلَنُذِيْـقَنَّهُمْ مِّنَ الْعَذَابِ الْاَدْنٰى دُوْنَ الْعَذَابِ الْاَكْبَرِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ} “और हम उन्हें मज़ा चखायेंगे छोटे अज़ाब का बड़े अज़ाब से पहले शायद कि ये रुजूअ करें।” बड़ा अज़ाब तो अज़ाबे इस्तेसाल होता है जिसके बाद किसी क़ौम को तबाह व बर्बाद करके नस्यम मन्सिया कर दिया जाता है। इस बड़े अज़ाब की कैफ़ियत मक्की सूरतों में इस तरह बयान की गई है: {كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ڔ } (अल् आराफ़:92 और सूरह हूद:68, 95) “वो लोग ऐसे हो गये जैसे वहाँ बसते ही नहीं थे।” {فَقُطِعَ دَابِرُ الْقَوْمِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا ۭ} (अल् अन्आम:45) “पस ज़ालिम क़ौम की जड़ काट दी गई।” {لَا يُرٰٓى اِلَّا مَسٰكِنُهُمْ } (अल् अह्काफ़:25) “अब सिर्फ़ उनके मसकन (आवास) ही नज़र आ रहे हैं।” यानि अज़ाबे इस्तेसाल के बाद उनकी कैफ़ियत यह है कि उनके बनाये हुए आलीशान महल तो नज़र आ रहे हैं, लेकिन उनके मकीनों में से कोई भी बाक़ी नहीं रहा। क़ानूने क़ुदरत के तहत इस नौइयत के “अज़ाबुल अकबर” से पहले छोटी-छोटी तम्बीहात आती हैं ताकि लोग ख़्वाबे गफ़लत से जाग जायें, होश में आ जायें, इस्तकबार की रविश तर्क करके आजिज़ी इख़्तियार करें और रुजूअ करके अज़ाबे इस्तेसाल से बच सकें।

आयत 95
“फिर हमने उस बुराई को भलाई से बदल दिया, यहाँ तक कि वो लोग ख़ूब बढ़ गये और कहने लगे कि हमारे आबा व अजदाद पर भी तकलीफ़ और खुशी आती रही है” ثُمَّ بَدَّلْنَا مَكَانَ السَّيِّئَةِ الْحَسَنَةَ حَتّٰي عَفَوْا وَّقَالُوْا قَدْ مَسَّ اٰبَاۗءَنَا الضَّرَّاۗءُ وَالسَّرَّاۗءُ
“फिर हमने उनको अचानक पकड़ लिया और उन्हें उसका शऊर भी नहीं था।” فَاَخَذْنٰهُمْ بَغْتَةً وَّهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ 95؀
जब वो अपनी ज़िद्द और हठधर्मी पर अड़े रहे तो उन पर दुनियावी आसाइशों के दहाने खोल दिये गये कि अब खाओ, पियो और ऐश करो। फिर वो ऐशो इशरत की ज़िन्दगी में इस क़द्र मगन हुए कि सख़्तियों के दौर को बिल्कुल ही भूल गये और कहने लगे कि हमारे असलाफ़ पर भी अच्छे और बुरे दिन आते ही रहे हैं, इसमें इम्तिहान और आज़माईश की कौनसी बात है, हत्ता कि उनकी पकड़ की घड़ी आ पहुँची और उन्हें उसका शऊर ही नहीं था कि अल्लाह तआला की गिरफ़्त यूँ अचानक आ जायेगी।

आयत 96
“और अग़र ये बस्तियों वाले ईमान लाते और तक़वा की रविश इख़्तियार करते तो हम इन पर खोल देते आसमानों और ज़मीन की बरकतें।” وَلَوْ اَنَّ اَهْلَ الْقُرٰٓي اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَفَتَحْنَا عَلَيْهِمْ بَرَكٰتٍ مِّنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ
“लेकिन उन्होंने झुठलाया तो हमने उनको पकड़ लिया उनकी करतूतों की पादाश में।” وَلٰكِنْ كَذَّبُوْا فَاَخَذْنٰهُمْ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ 96؀
आयत 97
“तो क्या ये बस्तियों वाले इससे बेख़ौफ हो गये हैं कि उन पर आ जाये हमारा अज़ाब जबकि वो रात को सोए हुए हों।” اَفَاَمِنَ اَهْلُ الْقُرٰٓي اَنْ يَّاْتِيَهُمْ بَاْسـُنَا بَيَاتًا وَّهُمْ نَاۗىِٕمُوْنَ 97؀ۭ

आयत 98
“और क्या ये बस्तियों वाले बेख़ौफ हो गये हैं कि उन पर आ जाये हमारा अज़ाब दिन चढ़े, जबकि वो खेल रहे हो।” اَوَاَمِنَ اَهْلُ الْقُرٰٓي اَنْ يَّاْتِيَهُمْ بَاْسُنَا ضُحًى وَّهُمْ يَلْعَبُوْنَ 98؀

आयत 99
“क्या वह अमन में (या बेख़ौफ) हैं अल्लाह की चाल से? अल्लाह की चाल से कोई अपने आपको अमन में महसूस नहीं करता मग़र वही लोग जो ख़सारा पाने वाले हैं।” اَفَاَمِنُوْا مَكْرَ اللّٰهِ ۚ فَلَا يَاْمَنُ مَكْرَ اللّٰهِ اِلَّا الْقَوْمُ الْخٰسِرُوْنَ 99۝ۧ

आयत 100
“तो क्या उन लोगों को सबक़ नहीं मिला जो ज़मीन के वारिस हुए हैं इसके पहले रहने वालों के (हलाक़ होने के) बाद, कि हम चाहें तो उनको भी पकड़ लें उनके गुनाहों की पादाश में!” اَوَلَمْ يَهْدِ لِلَّذِيْنَ يَرِثُوْنَ الْاَرْضَ مِنْۢ بَعْدِ اَهْلِهَآ اَنْ لَّوْ نَشَاۗءُ اَصَبْنٰهُمْ بِذُنُوْبِهِمْ ۚ
क्या बाद में आने वाली क़ौम ने अपनी पेश रू क़ौम की तबाही व बर्बादी से कोई सबक़ हासिल नहीं किया? क़ौमे आद ने क्यों कोई सबक़ नहीं सिखा क़ौमे नूह के अज़ाब से? और क़ौमे समूद ने क्यों इबरत नहीं पकड़ी क़ौमें आद की बर्बादी से? और क़ौमे शोएब ने क्यों नसीहत हासिल नहीं की क़ौमे लूत के अंजाम से?
“और हम उनके दिलों पर मोहर कर दिया करते हैं, फिर वो कुछ सुनते ही नहीं।” وَنَطْبَعُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ فَهُمْ لَا يَسْمَعُوْنَ ١٠٠؁

आयत 101
“यह वो बस्तियाँ है जिनकी कुछ ख़बरें हम आप (ﷺ) को सुना रहे हैं।” تِلْكَ الْقُرٰي نَقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗىِٕهَا ۚ
अन्बाअ अर्रुसुल के सिलसिले में अब तक पाँच रसूलों यानि हज़रत नूह, हज़रत हूद, हज़रत सालेह, हज़रत लूत और हज़रत शोएब अलै. का ज़िक्र हो चुका है। आगे हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र आ रहा है जो क़द्रे तवील है।
“और उनके पास उनके रसूल आये रोशन निशानियों के साथ, तो वो नहीं थे ईमान लाने वाले उस पर जिसका उन्होंने पहले इन्कार कर दिया था।” وَلَقَدْ جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ ۚ فَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا بِمَا كَذَّبُوْا مِنْ قَبْلُ ۭ
यानि जिसे ईमान लाना होता वह जैसे ही हक़ मुन्कशिफ होता है उसे क़ुबूल कर लेता है। जिसे क़ुबूल नहीं करना होता उसके लिये नसीहतें, दलीलें, निशानियाँ और मौज्ज़े सब बेअसर साबित होते हैं। यही नुक्ता सूरह अन्आम में इस तरह बयान हुआ है: { وَنُقَلِّبُ اَفْــــِٕدَتَهُمْ وَاَبْصَارَهُمْ كَمَا لَمْ يُؤْمِنُوْا بِهٖٓ اَوَّلَ مَرَّةٍ} (आयत:110) यानि हम उनके दिलों और उनकी निगाहों को उलट देते हैं, जैसे कि वो पहली मर्तबा ईमान नहीं लाये थे।
“इसी तरह अल्लाह मोहर कर दिया करता है काफ़िरों के दिलों पर।” كَذٰلِكَ يَطْبَعُ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِ الْكٰفِرِيْنَ ١٠١؁

आयत 102
“और हमने उनमें से अक्सर में अहद की पासदारी नहीं पाई।” وَمَا وَجَدْنَا لِاَكْثَرِهِمْ مِّنْ عَهْدٍ ۚ
दुनिया में जब भी कोई क़ौम उभरी, अपने रसूल के सहारे उभरी। हर क़ौम के इल्मी व अख्लाक़ी विरसे में अपने रसूल की तालीमात और वसीयतें भी मौजूद रही होंगी। उनके रसूल ने उन लोगों से कुछ अहद और मीसाक़ भी लिए होंगे, लेकिन उनमें से अक्सर ने कभी किसी अहद की पासदारी नहीं की।
“और हमने तो उनकी अक्सरियत को फ़ासिक़ ही पाया।” وَاِنْ وَّجَدْنَآ اَكْثَرَهُمْ لَفٰسِقِيْنَ ١٠٢؁
अब अन्बाअ अर्रुसुल के सिलसिले में हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र आ रहा है। इससे पहले एक रसूल का ज़िक्र औसतन एक रुकूअ में आया है लेकिन हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र सात-आठ रुकूओं पर मुश्तमिल है। इसकी वजह यह कि यह सूरतें हिजरत से मुत्तसलन क़ब्ल नाज़िल हुई थीं और हिजरत के फ़ौरन बाद क़ुरान की यह दावत बराहे रास्त अहले किताब (यहूदे मदीना) तक पहुँचने वाली थी। लिहाज़ा ज़रूरी था कि नबी अकरम ﷺ और आपके सहाबा रज़ि. मदीना पहुँचने से पहले यहूद से मकालमा करने के लिये ज़हनी और इल्मी तौर पर पूरी तरह तैयार हो जायें। यही वजह है कि हज़रत मूसा अलै. और बनी इस्राईल के वाक़्यात इन सूरतों में बहुत तफ़सील से बयान हुए हैं।

आयात 103 से 126 तक
ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِهِمْ مُّوْسٰي بِاٰيٰتِنَآ اِلٰى فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهٖ فَظَلَمُوْا بِهَا ۚ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُفْسِدِيْنَ ١٠٣؁ وَقَالَ مُوْسٰي يٰفِرْعَوْنُ اِنِّىْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ ١٠٤؀ۙ حَقِيْقٌ عَلٰٓي اَنْ لَّآ اَقُوْلَ عَلَي اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّ ۭقَدْ جِئْتُكُمْ بِبَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ فَاَرْسِلْ مَعِيَ بَنِيْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ ١٠٥؀ۭ قَالَ اِنْ كُنْتَ جِئْتَ بِاٰيَةٍ فَاْتِ بِهَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ ١٠٦؁ فَاَلْقٰى عَصَاهُ فَاِذَا ھِىَ ثُعْبَانٌ مُّبِيْنٌ ١٠٧؀ښ وَّنَزَعَ يَدَهٗ فَاِذَا ھِىَ بَيْضَاۗءُ لِلنّٰظِرِيْنَ ١٠٨؀ۧ قَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِ فِرْعَوْنَ اِنَّ هٰذَا لَسٰحِرٌ عَلِيْمٌ ١٠٩؀ۙ يُّرِيْدُ اَنْ يُّخْرِجَكُمْ مِّنْ اَرْضِكُمْ ۚ فَمَاذَا تَاْمُرُوْنَ ١١٠؁ قَالُوْٓا اَرْجِهْ وَاَخَاهُ وَاَرْسِلْ فِي الْمَدَاۗىِٕنِ حٰشِرِيْنَ ١١١۝ۙ يَاْتُوْكَ بِكُلِّ سٰحِرٍ عَلِيْمٍ ١١٢؁ وَجَاۗءَ السَّحَرَةُ فِرْعَوْنَ قَالُوْٓا اِنَّ لَنَا لَاَجْرًا اِنْ كُنَّا نَحْنُ الْغٰلِبِيْنَ ١١٣؁ قَالَ نَعَمْ وَاِنَّكُمْ لَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَ ١١٤؁ قَالُوْا يٰمُوْسٰٓي اِمَّآ اَنْ تُلْقِيَ وَاِمَّآ اَنْ نَّكُوْنَ نَحْنُ الْمُلْقِيْنَ ١١٥؁ قَالَ اَلْقُوْا ۚ فَلَمَّآ اَلْقَوْا سَحَرُوْٓا اَعْيُنَ النَّاسِ وَاسْتَرْهَبُوْهُمْ وَجَاۗءُوْ بِسِحْرٍ عَظِيْمٍ ١١٦؁ وَاَوْحَيْنَآ اِلٰى مُوْسٰٓي اَنْ اَلْقِ عَصَاكَ ۚ فَاِذَا هِىَ تَلْقَفُ مَا يَاْفِكُوْنَ ١١٧؀ۚ فَوَقَعَ الْحَقُّ وَبَطَلَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١١٨؀ۚ فَغُلِبُوْا هُنَالِكَ وَانْقَلَبُوْا صٰغِرِيْنَ ١١٩؀ۚ وَاُلْقِيَ السَّحَرَةُ سٰجِدِيْنَ ١٢٠؀ښ قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ ١٢١؀ۙ رَبِّ مُوْسٰي وَهٰرُوْنَ ١٢٢؁ قَالَ فِرْعَوْنُ اٰمَنْتُمْ بِهٖ قَبْلَ اَنْ اٰذَنَ لَكُمْ ۚ اِنَّ هٰذَا لَمَكْرٌ مَّكَرْتُمُوْهُ فِي الْمَدِيْنَةِ لِتُخْرِجُوْا مِنْهَآ اَهْلَهَا ۚ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ ١٢٣؁ لَاُقَطِّعَنَّ اَيْدِيَكُمْ وَاَرْجُلَكُمْ مِّنْ خِلَافٍ ثُمَّ لَاُصَلِّبَنَّكُمْ اَجْمَعِيْنَ ١٢٤؁ قَالُوْٓا اِنَّآ اِلٰى رَبِّنَا مُنْقَلِبُوْنَ ١٢٥؀ۧ وَمَا تَنْقِمُ مِنَّآ اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاٰيٰتِ رَبِّنَا لَمَّا جَاۗءَتْنَا ۭرَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًاوَّتَوَفَّنَا مُسْلِمِيْنَ ١٢٦؀ۧ

आयत 103
“फिर हमने भेजा उनके बाद मूसा अलै. को अपनी निशानियों के साथ फ़िरऔन और उसके सरदारों की तरफ़” ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِهِمْ مُّوْسٰي بِاٰيٰتِنَآ اِلٰى فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهٖ
अब तक जिन पाँच क़ौमों का ज़िक्र हुआ है वह जज़ीरा नुमाए अरब ही के मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में बस्ती थीं, लेकिन अब हज़रत मूसा अलै. के हवाले से बनी इस्राईल का ज़िक्र होगा जो मिस्र के वासी थे। मिस्र बर्रे अज़ीम अफ्रीक़ा के शिमाल मशरिक़ी कोने में वाक़ेअ है। इस क़िस्से में सहराए सीना का भी ज़िक्र आयेगा, जो मुसल्लस शक्ल में एक जज़ीरा नुमा (Sinai Peninsula) है, जो मिस्र और फ़लस्तीन के दरमियान वाक़ेअ है। मिस्र में उस वक़्त “फ़राअना” (फ़िरऔन की जमा) की हुकूमत थी। जिस तरह ईराक़ के क़दीम बादशाह “नमरूद” कहलाते थे उसी तरह मिस्र में उस दौर के बादशाह को “फ़िरऔन” कहा जाता था। चुनाँचे हज़रत मूसा अलै. को बराहे रास्त अपने वक़्त के बादशाह (फ़िरऔन) के पास भेजा गया था।
“तो उन्होंने उन (निशानियों) के साथ ज़ुल्म किया, तो देख लो कैसा अंजाम हुआ फ़साद करने वालों का!” فَظَلَمُوْا بِهَا ۚ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُفْسِدِيْنَ ١٠٣؁
यानि हमारी निशानियों का इंकार करके उनकी हक़ तलफ़ी की और उन्हें जादूगरी क़रार देकर टालने की कोशिश की।

आयत 104
“और मूसा अलै. ने कहा: ऐ फ़िरऔन! मैं रसूल हूँ तमाम जहानों के रब की तरफ़ से।” وَقَالَ مُوْسٰي يٰفِرْعَوْنُ اِنِّىْ رَسُوْلٌ مِّنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ ١٠٤؀ۙ

आयत 105
“मैं इस पर क़ायम हूँ कि हक़ के सिवा कोई बात अल्लाह से मन्सूब ना करुँ।” حَقِيْقٌ عَلٰٓي اَنْ لَّآ اَقُوْلَ عَلَي اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّ ۭ
फ़िरऔन के लिये हज़रत मूसा अलै. कोई अजनबी आदमी नहीं थे। आप उसके साथ ही शाही महल में पले-बढ़े थे। हज़रत मूसा अलै. की पैदाईश के वक़्त जो फ़िरऔन बरसरे इक़तदार था वह इस फ़िरऔन का बाप था और उसी ने हज़रत मूसा अलै. को बचपन में बचाया था। हज़रत मूसा अलै. की वालिदा ने आप अलै. को एक संदूक़ में बंद करके दरिया-ए-नील में डाल दिया था। वह संदूक़ फ़िरऔन के महल के पास साहिल पर आ लगा था और महल के मुलाज़िमों ने उसे उठा लिया था। फ़िरऔन को पता चला तो वह इस्राईली बच्चा समझ कर आप अलै. के क़त्ल के दर पे हुआ, मग़र उसकी बीवी ने उसे यह कह कर बाज़ रखा था कि हम इसको अपना बेटा बना लेंगे, यह हमारे लिये आँखों की ठंडक होगा: {قُرَّةُ عَيْنٍ لِّيْ وَلَكَ} (अल् क़सस:9) क्योंकि उस वक़्त तक उनके यहाँ कोई औलाद नहीं थी। चुनाँचे उसने हज़रत मूसा अलै. को अपना बेटा बना लिया। बाद में उसके यहाँ भी एक बेटा पैदा हुआ। हज़रत मूसा अलै. और फ़िरऔन का बेटा तक़रीबन हम उम्र थे, वो दोनों इकठ्ठे महल में पले-बढ़े थे और उनके दरमियान हक़ीक़ी भाईयों जैसी मोहब्बत थी, बल्कि हज़रत मूसा अलै. की हैसियत बड़े भाई की थी। जब बड़ा फ़िरऔन बूढ़ा हो गया तो उसने अपनी ज़िन्दगी में ही इक़तदार अपने बेटे को सुपुर्द कर दिया था। चुनाँचे जिस फ़िरऔन के दरबार में हज़रत मूसा अलै. ने अपनी नुबुवत का दावा किया था यह वही था जिसके साथ आप अलै. शाही महल में पले-बढ़े थे। अभी कुछ ही बरस पहले आप अलै. यहाँ से मदयन गये थे और फिर मदयन से वापस आ रहे थे तो आप अलै. को नुबुवत और रिसालत मिली (इसकी पूरी तफ़सील आगे जाकर सूरह ताहा और सूरह क़सस में आयेगी) इस पसेमंज़र में फ़िरऔन के साथ आप अलै. का बात करने का अंदाज़ भी किसी आम आदमी जैसा नहीं था। आप अलै. ने बड़े वाज़ेह और बेबाक अंदाज़ में फ़िरऔन को मुख़ातिब करके फ़रमाया कि देखो! मेरा यह मन्सब नहीं और यह बात मेरे शायाने शान नहीं कि मैं तुमसे कोई लायानी और झूठी बात करुँ।
“मैं लेकर आया हूँ तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से एक खुली निशानी, तो बनी इस्राईल को मेरे साथ भेज दो।” قَدْ جِئْتُكُمْ بِبَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ فَاَرْسِلْ مَعِيَ بَنِيْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ ١٠٥؀ۭ
बनी इस्राईल हज़रत युसुफ़ अलै. की वसातत से फ़लस्तीन से आकर मिस्र में उस वक़्त आबाद हुए थे जब यहाँ एक अरबी नस्ल ख़ानदान की हुकूमत थी। उस ख़ानदान के बादशाह “चरवाहे बादशाह” (Hiksos Kings) कहलाते थे। उनके दौरे हुकूमत में हज़रत युसुफ़ अलै. के एहतराम की वजह से बनी इस्राईल को मआशरे में एक ख़ुसूसी मक़ाम हासिल रहा और वह सदियों तक ऐशो इशरत की ज़िन्दगी गुज़ारते रहे। इसके बाद किसी दौर में मिस्र के अंदर क़ौम परस्त अनासिर के ज़ेरे असर इन्क़लाब आया। इस इन्क़लाब के नतीजे में हुक्मरान ख़ानदान को मुल्क बदर कर दिया गया और यहाँ क़िब्ती क़ौम की हुकूमत क़ायम हो गई। ये लोग मिस्र के असल बाशिन्दे थे। बनी इस्राईल के लिये यह तब्दीली बड़ी मन्हूस साबित हुई। साबिक़ शाही ख़ानदान के चहेते होने की वजह से वो क़िब्ती हुकुमत के ज़ेरे अताब (अधीन) आ गये और उनकी हैसियत और ज़िन्दगी बतदरीज पस्त से पस्त और सख्त से सख्त होती चली गई। हज़रत मूसा अलै. के ज़माने में यह लोग मिस्र में गुलामाना ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे, बल्कि फ़िरऔन की तरफ़ से आये रोज़ इन पर तरह-तरह के ज़ुल्म ढ़ाए जाते थे। यह वह हालात थे जिनमें हज़रत मूसा अलै. को मबऊस किया गया ताकि वह बनी इस्राईल को फ़िरऔन की गुलामी से निजात दिला कर वापस फ़लस्तीन लायें। चुनाँचे हज़रत मूसा अलै. ने फ़िरऔन से मुतालबा किया कि बनी इस्राईल को मेरे साथ जाने दिया जाये।

आयत 106
“उस (फ़िरऔन) ने कहा: अच्छा अगर तुम (वाक़ई) कोई निशानी लेकर आये हो तो उसे पेश करो, अगर तुम (अपने दावे में) सच्चे हो।” قَالَ اِنْ كُنْتَ جِئْتَ بِاٰيَةٍ فَاْتِ بِهَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ ١٠٦؁

आयत 107
“तो (मूसा अलै. ने) अपना असा (छड़ी) फेंका, तो उसी वक़्त वह एक हक़ीक़ी अज़दा बन गया।” فَاَلْقٰى عَصَاهُ فَاِذَا ھِىَ ثُعْبَانٌ مُّبِيْنٌ ١٠٧؀ښ

आयत 108
“और अपना हाथ (ग़िरेबान से) निकाला तो अचानक वह था देखने वालों के लिये सफ़ेद (चमकदार)।” وَّنَزَعَ يَدَهٗ فَاِذَا ھِىَ بَيْضَاۗءُ لِلنّٰظِرِيْنَ ١٠٨؀ۧ

आयत 109
“फ़िरऔन की क़ौम के सरदारों ने कहा कि यह तो वाक़िअतन कोई बहुत माहिर जादूगर है।” قَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِ فِرْعَوْنَ اِنَّ هٰذَا لَسٰحِرٌ عَلِيْمٌ ١٠٩؀ۙ
उन्होंने कहा होगा कि यह जो यहाँ से जान बचा कर भाग गया था और कई साल बाद वापस आया है तो कहीं से बहुत बड़ा जादू सीख कर आया है।

आयत 110
“यह चाहता है कि तुम्हें तुम्हारे मुल्क से निकाल बाहर करे, तो अब तुम्हारी क्या राय है?” يُّرِيْدُ اَنْ يُّخْرِجَكُمْ مِّنْ اَرْضِكُمْ ۚ فَمَاذَا تَاْمُرُوْنَ ١١٠؁
यह तो चाहता है कि जादू के ज़ोर पर तुम्हें इस मुल्क से निकाल कर यहाँ खुद अपनी हुकूमत क़ायम कर ले। इस नाज़ुक सूरते हाल से ओहदा बरा होने के लिये क्या हिकमते अमली इख़्तियार की जायेगी?

आयत 111
“(फिर मशवरा देते हुए) उन्होंने कहा कि (फ़िलहाल) मूसा और उसके भाई के मामले को मुअख्खर रखें और मुख्तलिफ़ शहरों में हरकारे भेज दें।” قَالُوْٓا اَرْجِهْ وَاَخَاهُ وَاَرْسِلْ فِي الْمَدَاۗىِٕنِ حٰشِرِيْنَ ١١١۝ۙ
यानि अभी फ़ौरी तौर पर इनके ख़िलाफ कोई रद्दे अमल ज़ाहिर ना किया जाये। इन्हें मुनासिब अंदाज़ में टालते हुए मुअस्सर जवाबी हिकमते अमली अपनाने के लिये वक़्त हासिल किया जाये और इस दौरान मुल्क के तमाम इलाक़ों की तरफ़ अपने अहलकार (अधिकारी) रवाना कर दिये जायें।

आयत 112
“जो आपके पास ले आएँ तमाम माहिर जादूगरों को।” يَاْتُوْكَ بِكُلِّ سٰحِرٍ عَلِيْمٍ ١١٢؁
मुल्क के कोने-कोने से चोटी के जादूगरों को बुला कर एक अवामी इज्तमा के सामने मुक़ाबले में इन्हें शिकस्त से दो-चार किया जाये ताकि लोगों के ज़हनों में जन्म लेने वाले ख़ौफ़ के असरात ज़ायल हो सकें।

आयत 113
“और वो जादूगर फ़िरऔन के पास आ पहुँचे, उन्होंने कहा यक़ीनन हमें अजर तो मिलेगा ही, अग़र हम ग़ालिब आ गये!” وَجَاۗءَ السَّحَرَةُ فِرْعَوْنَ قَالُوْٓا اِنَّ لَنَا لَاَجْرًا اِنْ كُنَّا نَحْنُ الْغٰلِبِيْنَ ١١٣؁
यहाँ पर ग़ैर ज़रूरी तफ़सील को छोड़ कर रिसालत के मक़ाम व मन्सब और दुनियादारों के माद्दा परस्ताना किरदार के फ़र्क़ को नुमाआ किया जा रहा है। अल्लाह के रसूल मूसा अलै. ने उनके मुतालबे के मुताबिक़ उन्हें निशानियाँ दिखाईं मग़र आप अलै. को इससे कोई मफ़ाद मतलूब नहीं था। आपने फ़िरऔन और अहले दरबार को मरऊब करके किसी ईनाम व इकराम का मुतालबा नहीं किया। जबकि दूसरी तरफ़ जादूगरों का किरदार ख़ालिस माद्दा परस्ताना सोच की अकासी करता है। उन्होंने आते ही जो मुतालबा किया वह माली मुन्फ़अत से मुताल्लिक़ था।

आयत 114
“उसने कहा हाँ और (ईनाम के अलावा) तुम मुक़र्रबीन में भी शामिल कर लिये जाओगे।” قَالَ نَعَمْ وَاِنَّكُمْ لَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَ ١١٤؁
तुम्हें माली फ़ायदा और ईनाम व इकराम से भी नवाज़ा जायेगा और दरबार में बड़े-बड़े मर्तबे व मंसब अता किये जायेंगे। इसके बाद एक खुले मैदान में बहुत बड़े अवामी इज्तमा के सामने यह मुक़ाबला शुरू हुआ। जब हज़रत मूसा अलै. और जादूगर एक दूसरे के सामने आ गये तो:

आयत 115
“(जादूगर) कहने लगे: ऐ मूसा! अब तुम पहले डालोगे या हम हो जाएँ पहले डालने वाले?” قَالُوْا يٰمُوْسٰٓي اِمَّآ اَنْ تُلْقِيَ وَاِمَّآ اَنْ نَّكُوْنَ نَحْنُ الْمُلْقِيْنَ ١١٥؁

आयत 116
“(हज़रत मूसा अलै. ने) फ़रमाया: तुम डालो!” قَالَ اَلْقُوْا ۚ
जादूगरों ने अपनी जादू की चीज़ें ज़मीन पर फेंक दीं। इस सिलसिले में क़ुरान मजीद में किसी जगह पर रस्सियों का ज़िक्र आया है और कहीं छड़ियों का। यानि अपनी जादू की वो चीज़ें ज़मीन पर फेंक दीं जो उन्होंने हज़रत मूसा अलै. के असा (छड़ी) का मुक़ाबला करने के लिये तैयार कर रखीं थीं।
“तो जब उन्होंने डाला तो लोगों की आँखो पर जादू कर दिया” فَلَمَّآ اَلْقَوْا سَحَرُوْٓا اَعْيُنَ النَّاسِ
उन्होंने जादू के ज़ोर से हाज़िरीन की नज़रबंदी कर दी जिसके नतीजे में लोगों को रस्सियों और छड़ियों के बजाय ज़मीन पर साँप और अज़दे रेंगते हुए नज़र आने लगे।
“और उन्होंने उन (हाज़िरीन) पर दहशत तारी कर दी और ज़ाहिर कर दिया बहुत बड़ा जादू।” وَاسْتَرْهَبُوْهُمْ وَجَاۗءُوْ بِسِحْرٍ عَظِيْمٍ ١١٦؁
वाक़िअतन उन्होंने भी अपने फन का भरपूर मुज़ाहिरा किया। यहाँ इस क़िस्से की कुछ तफ़सील छोड़ दी गई है, मगर क़ुरान हकीम के बाज़ दूसरे मक़ामात के मुताअले से पता चलता है कि हज़रत मूसा अलै. जादूगरों के इस मुजाहिरे के बाद आरज़ी तौर पर डर से गये थे कि जो मौज्ज़ा मेरे पास था इसी नौइयत का मुज़ाहिरा इन्होंने कर दिया दिखाया है, तो फिर फ़र्क़ क्या रह गया! तब अल्लाह ने फ़रमाया कि ऐ मूसा डरो नहीं, बल्कि तुम्हारे हाथ में जो असा है उसे ज़मीन पर फेंक दो!

आयत 117
“और हमने वही की मूसा को कि डालो (तो सही ज़रा) अपना असा, तो दफ्फ़तन वह (अज़दा बन कर) निगलने लगा उन सबको जो वो गढ़ लाए थे।” وَاَوْحَيْنَآ اِلٰى مُوْسٰٓي اَنْ اَلْقِ عَصَاكَ ۚ فَاِذَا هِىَ تَلْقَفُ مَا يَاْفِكُوْنَ ١١٧؀ۚ
मूसा अलै. का असा फेंकना था कि आन की आन में वह इस झूठे तिलस्म को निग़लता चला गया।

आयत 118
“पस हक़ ज़ाहिर हो गया और जो कुछ वो कर रहे थे वह बातिल होकर रह गया।” فَوَقَعَ الْحَقُّ وَبَطَلَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١١٨؀ۚ

आयत 119
“तो यह (जादूगर) उसी वक़्त मग़लूब हो गये और वह (फ़िरऔन और उसके सरदार) ज़लील होकर रह गये।” فَغُلِبُوْا هُنَالِكَ وَانْقَلَبُوْا صٰغِرِيْنَ ١١٩؀ۚ
यानि फ़िरऔन के बुलाए हुए बड़े-बड़े जादूगर हज़रत मूसा अलै. के सामने मग़लूब हो गये और नतीजतन फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदार ज़लील होकर रह गये।

आयत 120
“और जादूगर सजदे में गिरा दिए गये।” وَاُلْقِيَ السَّحَرَةُ سٰجِدِيْنَ ١٢٠؀ښ
यानि ऐसे लगा जैसे जादूगरों को किसी ने सजदे में गिरा दिया है। उन पर यह कैफ़ियत हक़ के मुन्कशिफ़ हो जाने के बाद तारी हुई। यह एक ऐसी सूरते हाल थी कि जब किसी बाज़मीर इंसान के सामने हक़ को मान लेने के अलावा दूसरा कोई रास्ता (option) रह ही नहीं जाता।

आयत 121
“वो (फ़ौरन) पुकार उठे कि हम ईमान ले आए तमाम जहानों के रब पर।” قَالُوْٓا اٰمَنَّا بِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ ١٢١؀ۙ
आयत 122
“मूसा अलै. और हारुन अलै. के रब पर।” رَبِّ مُوْسٰي وَهٰرُوْنَ ١٢٢؁
आख़िर क्या वजह थी कि जादूगर मग़लूब हुए तो फ़ौरन ईमान ले आए और वह भी इन्तहाई पुख़्ता, यक़ीन और इस्तक़ामत वाला ईमान! कहाँ वो फ़िरऔन से ईनाम की भीख माँग रहे थे और कहाँ अब उसे ख़ातिर में ना लाते हुए नताइज से बेपरवाह होकर डंके की चोट पर अपने ईमान का ऐलान कर दिया। जादूगरों के इस रवैय्ये की मन्तक़ी तौजीह (explanation) यह है कि जो शख़्स किसी फन का माहिर हो उसे उस फ़न के मुम्किनात की इन्तहा और उसके हुहूद व क़ुयूद (limitations) का बख़ूबी इल्म होता है। वह अपने फ़न के मख़्सूस मैदान (field of specialization) में किसी चीज़ की क़द्र, अहमियत, मैयार वग़ैरह को सही पहचान सकता है। जादूगर जो अपने फ़न की मंझे हुए माहिरीन थे वो फ़ौरन पहचान गये थे कि उनके जादू के मुक़ाबले में जो कुछ हज़रत मूसा अलै. ने पेश किया है वह जादू से मा वरा (above) कोई चीज़ है। लिहाज़ा जिस हक़ीकत का इदराक (समझ) फ़िरऔन और उसके अमराअ ना कर सके वह बिजली की एक कोंद (flash) की मानिन्द आनन-फानन जादूगरों के दिलों के तारीक गोशों को रोशन कर गई और उनको ऐसा ईमान नसीब हुआ जिसकी जुर्राते इज़हार और इस्तक़ामत ने फ़िरऔन और उसके लाव लश्कर को परेशान कर दिया।
आयत 123
“फ़िरऔन ने कहा (तुम्हारी ये जुर्रत कि) तुम ईमान ले आए हो उस पर इससे क़ब्ल कि मैं तुम्हे इजाज़त दूँ!” قَالَ فِرْعَوْنُ اٰمَنْتُمْ بِهٖ قَبْلَ اَنْ اٰذَنَ لَكُمْ ۚ
“यह तुम्हारी एक (सोची समझी) साज़िश है जो तुम सबने मिलकर चली है शहर के अंदर” اِنَّ هٰذَا لَمَكْرٌ مَّكَرْتُمُوْهُ فِي الْمَدِيْنَةِ
अब फ़िरऔन की जान पर बन गई कि लोगों पर जादूगरों की इस शिकस्त का क्या असर पड़ेगा, अवाम को कैसे मुत्मईन किया जा सकेगा? लेकिन वह बड़ा ज़हनी और genius शख़्स था, फ़ौरन पैंतरा बदला और बोला मुझे सब पता चल गया है, यह मूसा भी तुम्हारा ही साथी है, तुम्हारा गुरु घंटाल है। यह सब तुम्हारी आपस की मिली भगत का नतीजा है और तुम सबने मिल कर हमारे ख़िलाफ एक साज़िश का जाल बुना है।
“ताकि निकाल दो इस (शहर) में से इसके वासियों को, तो तुम्हें अनक़रीब पता चल जायेगा।” لِتُخْرِجُوْا مِنْهَآ اَهْلَهَا ۚ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ ١٢٣؁

आयत 124
“मैं काट डालूँगा तुम्हारे हाथ और पाँव मुख़ालिफ़ सिम्तों से और फिर मैं सूली पर चढ़ा दूँगा तुम सबको।” لَاُقَطِّعَنَّ اَيْدِيَكُمْ وَاَرْجُلَكُمْ مِّنْ خِلَافٍ ثُمَّ لَاُصَلِّبَنَّكُمْ اَجْمَعِيْنَ ١٢٤؁

आयत 125
“उन्होंने कहा (ठीक है) हमें तो अपने रब ही की तरफ़ लौट कर जाना है।” قَالُوْٓا اِنَّآ اِلٰى رَبِّنَا مُنْقَلِبُوْنَ ١٢٥؀ۧ
जादूगरों पर इन्कशाफ़े हक़ से हासिल होने वाली यक़ीन की पुख़्तगी और गहराई का यह आलम था कि एक मुतल्लक़ुल अल् आन बादशाह की इतनी बड़ी धमकी उनके पाए इस्तक़ामत में ज़रा भी लरज़िश पैदा ना कर सकी। उनके इस जवाब के एक-एक लफ़्ज़ से उनके दिल का इत्मिनान झलकता और छलकता हुआ महसूस हो रहा है।

आयत 126
“और तुम हमसे किस बात का इन्तेक़ाम ले रहे हो सिवाय इसके कि हम ईमान ले आए अपने रब की आयात पर जब वो हमारे पास आ गईं!” وَمَا تَنْقِمُ مِنَّآ اِلَّآ اَنْ اٰمَنَّا بِاٰيٰتِ رَبِّنَا لَمَّا جَاۗءَتْنَا ۭ
“ऐ हमारे रब! हम पर सब्र उंडेल दे और हमें वफ़ात दीजियो मुस्लिम ही की हैसियत से।” رَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًاوَّتَوَفَّنَا مُسْلِمِيْنَ ١٢٦؀ۧ
यानि ईमान के रास्ते में जो आज़माईश आने वाली है उसकी सख़्तियों को झेलते हुए कहीं दामने सब्र हमारे हाथ से छूट ना जाये और हम कुफ़्र में दोबारा लौट ना जायें। ऐ अल्लाह! हमें सब्र और इस्तक़ामत अता फ़रमा, और अगर हमें मौत आये तो तेरी इताअत और फ़रमाबरदारी की हालत में आये।
इस वाक़िये के बाद भी फ़िरऔन अमली तौर पर हज़रत मूसा अलै. के ख़िलाफ कोई ठोस अक़दाम ना कर सका। चुनाँचे हज़रत मूसा अलै. अब भी शहर में लोगो तक अल्लाह का पैग़ाम पहुँचाने और बनी इस्राईल को मुनज्ज़म करने में मसरूफ़ रहे। क़ौम के नौजवानों ने आप अलै. की दावत पर लब्बैक कहा और वो आप अलै. के गिर्द जमा होना शुरु हो गये। आप अलै. की इस तरह की सरगर्मियों से हुकूमती ओहदेदारों के अंदर बजा तौर पर तशवीश (चिंता) पैदा हुई और बिल्आख़िर उन्होंने फ़िरऔन से इस बारे में शिकायत की।

आयात 127 से 141 तक
وَقَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِ فِرْعَوْنَ اَتَذَرُ مُوْسٰي وَقَوْمَهٗ لِيُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ وَيَذَرَكَ وَاٰلِهَتَكَ ۭقَالَ سَنُقَتِّلُ اَبْنَاۗءَهُمْ وَنَسْتَحْيٖ نِسَاۗءَهُمْ ۚ وَاِنَّا فَوْقَهُمْ قٰهِرُوْنَ ١٢٧؁ قَالَ مُوْسٰي لِقَوْمِهِ اسْتَعِيْنُوْا بِاللّٰهِ وَاصْبِرُوْا ۚ اِنَّ الْاَرْضَ لِلّٰهِ ڐ يُوْرِثُهَا مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ ۭوَالْعَاقِبَةُ لِلْمُتَّقِيْنَ ١٢٨؁ قَالُوْٓا اُوْذِيْنَا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَاْتِيَنَا وَمِنْۢ بَعْدِ مَا جِئْتَنَا ۭ قَالَ عَسٰي رَبُّكُمْ اَنْ يُّهْلِكَ عَدُوَّكُمْ وَيَسْتَخْلِفَكُمْ فِي الْاَرْضِ فَيَنْظُرَ كَيْفَ تَعْمَلُوْنَ ١٢٩؀ۧ وَلَقَدْ اَخَذْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ بِالسِّنِيْنَ وَنَقْصٍ مِّنَ الثَّمَرٰتِ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُوْنَ ١٣٠؁ فَاِذَا جَاۗءَتْهُمُ الْحَسَنَةُ قَالُوْا لَنَا هٰذِهٖ ۚ وَاِنْ تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ يَّطَّيَّرُوْا بِمُوْسٰي وَمَنْ مَّعَهٗ ۭاَلَآ اِنَّمَا طٰۗىِٕرُهُمْ عِنْدَ اللّٰهِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ ١٣١؁ وَقَالُوْا مَهْمَا تَاْتِنَا بِهٖ مِنْ اٰيَةٍ لِّتَسْحَرَنَا بِهَا ۙ فَمَا نَحْنُ لَكَ بِمُؤْمِنِيْنَ ١٣٢؁ فَاَرْسَلْنَا عَلَيْهِمُ الطُّوْفَانَ وَالْجَرَادَ وَالْقُمَّلَ وَالضَّفَادِعَ وَالدَّمَ اٰيٰتٍ مُّفَصَّلٰتٍ فَاسْتَكْبَرُوْا وَكَانُوْاقَوْمًا مُّجْرِمِيْنَ ١٣٣؁ وَلَمَّا وَقَعَ عَلَيْهِمُ الرِّجْزُ قَالُوْا يٰمُوْسَى ادْعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِنْدَكَ ۚ لَىِٕنْ كَشَفْتَ عَنَّا الرِّجْزَ لَنُؤْمِنَنَّ لَكَ وَلَنُرْسِلَنَّ مَعَكَ بَنِيْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ ١٣٤؀ۚ فَلَمَّا كَشَفْنَا عَنْهُمُ الرِّجْزَ اِلٰٓي اَجَلٍ هُمْ بٰلِغُوْهُ اِذَا هُمْ يَنْكُثُوْنَ ١٣٥؁ فَانْتَقَمْنَا مِنْهُمْ فَاَغْرَقْنٰهُمْ فِي الْيَمِّ بِاَنَّهُمْ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَكَانُوْا عَنْهَا غٰفِلِيْنَ ١٣٦؁ وَاَوْرَثْنَا الْقَوْمَ الَّذِيْنَ كَانُوْا يُسْتَضْعَفُوْنَ مَشَارِقَ الْاَرْضِ وَمَغَارِبَهَا الَّتِيْ بٰرَكْنَا فِيْهَا ۭ وَتَمَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ الْحُسْنٰى عَلٰي بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ ڏ بِمَا صَبَرُوْا ۭوَدَمَّرْنَا مَا كَانَ يَصْنَعُ فِرْعَوْنُ وَقَوْمُهٗ وَمَا كَانُوْا يَعْرِشُوْنَ ١٣٧؁ وَجٰوَزْنَا بِبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ الْبَحْرَ فَاَتَوْا عَلٰي قَوْمٍ يَّعْكُفُوْنَ عَلٰٓي اَصْنَامٍ لَّهُمْ ۚ قَالُوْا يٰمُوْسَى اجْعَلْ لَّنَآ اِلٰـهًا كَمَا لَهُمْ اٰلِهَةٌ ۭقَالَ اِنَّكُمْ قَوْمٌ تَجْـهَلُوْنَ ١٣٨؁ اِنَّ هٰٓؤُلَاۗءِ مُتَبَّرٌ مَّا هُمْ فِيْهِ وَبٰطِلٌ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١٣٩؁ قَالَ اَغَيْرَ اللّٰهِ اَبْغِيْكُمْ اِلٰهًا وَّهُوَ فَضَّلَكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ ١٤٠؁ وَاِذْ اَنْجَيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ ۚ يُقَتِّلُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَ يَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ ۭوَفِيْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ ١٤١؀ۧ

आयत 127
“और कहा क़ौमे फ़िरऔन के सरदारों ने (फ़िरऔन से) क्या आप मूसा और उसकी क़ौम को इसी तरह छोड़े रखेगें कि वो ज़मीन के अन्दर फ़साद मचाएँ” وَقَالَ الْمَلَاُ مِنْ قَوْمِ فِرْعَوْنَ اَتَذَرُ مُوْسٰي وَقَوْمَهٗ لِيُفْسِدُوْا فِي الْاَرْضِ
“और आपको और आपके मअबूदों को छोड़ दें!” وَيَذَرَكَ وَاٰلِهَتَكَ ۭ
जिस नये नज़रिये का प्रचार वह कर रहे हैं अगर वह लोगों में मक़बूल होता गया और उस नज़रिये पर लोग इकठ्ठे और मुनज़्जम हो गये तो हमारे ख़िलाफ बग़ावत फूट पड़ेगी। इस तरह मुल्क में फ़साद फैलने का सख़्त अंदेशा है।
यहाँ पर क़ाबिले तवज्जोह नुक्ता यह है कि क़ौमे फ़िरऔन के मअबूद भी थे। उनका सबसे बड़ा इलाह तो सूरज था। लिहाज़ा मामला यह नहीं था कि वो ख़ुदा सिर्फ़ फ़िरऔन को मानते थे। फ़िरऔन की ख़ुदाई सियासी थी, उसका दावा था कि हुकूमत मेरी है, इक़तदार व इख़्तियार (sovereignty) का मालिक मैं हूँ। नमरूद की ख़ुदाई का दावा भी इसी तरह का था। बाकी पूजा-पाठ के लिये कुछ मअबूद फ़िरऔन और उसकी क़ौम ने भी बना रखे थे जिनके छूट जाने का उन्हें ख़दशा था।
“उसने कहा हम अनक़रीब क़त्ल करेंगे उनके बेटों को और ज़िन्दा रहने देंगे उनकी बेटियों को।” قَالَ سَنُقَتِّلُ اَبْنَاۗءَهُمْ وَنَسْتَحْيٖ نِسَاۗءَهُمْ ۚ
यह आज़माईश उन पर एक दफ़ा पहले भी आ चुकी थी। हज़रत मूसा अलै. की विलादत से क़ब्ल जो फ़िरऔन बरसरे इक़तदार था उसने एक ख़्वाब देखा था जिसकी ताबीर में उसके नजूमियों ने उसे बताया था कि बनी इस्राईल में एक बच्चे की पैदाईश होने वाली है जो बड़ा होकर आपकी हुकूमत ख़त्म कर देगा। चुनाँचे इस खदशे के पेशे नज़र फ़िरऔन ने हुक्म दिया था कि बनी इस्राईल के यहाँ पैदा होने वाले हर एक लड़के को पैदा होते ही क़त्ल कर दिया जाये और सिर्फ़ लड़कियों को ज़िन्दा रहने दिया जाये। तक़रीबन चालीस-पैंतालिस साल बाद अब फिर यह मरहला आ गया कि जब मौजूदा फ़िरऔन के सरदारों ने उसकी तवज्जोह इस तरह दिलाई कि जिसे तुम मशते ग़ुबार समझ रहे हो वह बढ़ते-बढ़ते अगर तूफ़ान बन गया तो फिर क्या करोगे? अगर इस (हज़रत मूसा अलै.) ने अपनी क़ौम को तुम्हारे ख़िलाफ़ एक तहरीक की शक्ल में मुनज़्ज़म कर लिया तो फिर उनको दबाना मुश्किल हो जायेगा। लिहाज़ा वो चाहते थे कि “nip the evil in the bud” के उसूल के तहत हज़रत मूसा अलै. को क़त्ल कर दिया जाये, लेकिन फ़िरऔन के दिल में अल्लाह ने हज़रत मूसा अलै. के लिये मुहब्बत डाली हुई थी। क्योंकि यह वही फ़िरऔन था जिसका हज़रत मूसा अलै. के साथ भाईयों का सा रिश्ता था, जिसकी वजह से उसके दिल में आप अलै. के लिये तबई मुहब्बत अभी भी मौजूद थी। यही वजह थी कि उसने आप अलै. को क़त्ल करने के बारे में नहीं सोचा, बल्कि इसके बजाय उसने बनी इस्राईल को दबाने के लिये फिर से अपने बाप का पुराना हुक्म नाफ़िज़ कराने का हुक्म दे दिया कि हम उनके लड़कों को क़त्ल करते रहेंगे ताकि मूसा अलै. को अपनी क़ौम से इज्तमाई अफ़रादी क़ुव्वत मुहैय्या ना हो सके।
“और यक़ीनन हम उन पर पूरी तरह ग़ालिब हैं।” وَاِنَّا فَوْقَهُمْ قٰهِرُوْنَ ١٢٧؁
गोया अब दरबारियों और अमराअ का हौसला बढ़ाने के अंदाज़ में कहा जा रहा है कि तुम क्यों घबराते हो, हम पूरी तरह उन पर छाए हुए हैं, यह हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते।

आयत 128
“मूसा अलै. ने अपनी क़ौम (अहले ईमान) से कहा कि अब तुम लोग अल्लाह से मदद चाहो और सब्र करो?” قَالَ مُوْسٰي لِقَوْمِهِ اسْتَعِيْنُوْا بِاللّٰهِ وَاصْبِرُوْا ۚ
“यक़ीनन यह ज़मीन अल्लाह की है, वह अपने बंदों में से जिसको चाहता है इसका वारिस बना देता है, लेकिन आक़बत (आख़िरत) तो तक़वा वालों के लिये ही है।” اِنَّ الْاَرْضَ لِلّٰهِ ڐ يُوْرِثُهَا مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ ۭوَالْعَاقِبَةُ لِلْمُتَّقِيْنَ ١٢٨؁
यानि इतनी बड़ी आज़माईश में साबित क़दम रहने के लिये अल्लाह से मदद की दुआ करते रहो और सब्र का दामन थामे रखो। अन्जामकार की कामयाबी अल्लाह ही के हाथ में है और वह अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करने वालों का मुक़द्दर है।
आयत 129
“वो कहने लगे (ऐ मूसा अलै.) हमें तो ईज़ा पहुँची आपके आने से क़ब्ल भी और आपके आने के बाद भी।” قَالُوْٓا اُوْذِيْنَا مِنْ قَبْلِ اَنْ تَاْتِيَنَا وَمِنْۢ بَعْدِ مَا جِئْتَنَا ۭ
इन अल्फ़ाज़ से उस मज़लूम क़ौम की बेबसी और बेचारगी टपक रही है, कि पहले भी हमारा यही हाल था कि हम बदतरीन ज़ुल्म व सितम का निशाना बन रहे थे, और अब आप अलै. के आने के बाद भी हमारे हालात में कोई तब्दीली नहीं आ सकी।
“(मूसा अलै. ने) फ़रमाया (घबराओ नहीं!) हो सकता है अनक़रीब अल्लाह तुम्हारे दुश्मन को हलाक कर दे और तुम्हें ख़िलाफ़त अता कर दे ज़मीन में, फिर देखे कि तुम कैसे अमल करते हो!” قَالَ عَسٰي رَبُّكُمْ اَنْ يُّهْلِكَ عَدُوَّكُمْ وَيَسْتَخْلِفَكُمْ فِي الْاَرْضِ فَيَنْظُرَ كَيْفَ تَعْمَلُوْنَ ١٢٩؀ۧ
यह आयत मुसलमाने पाकिस्तान के लिये भी ख़ास तौर पर लम्हा-ए-फिक्रिया है। बर्रे अज़ीम पाक-ओ-हिन्द के मुसलमान भी गुलामाना ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। उन्होंने सोचा कि मुत्तहिदा हिन्दुस्तान अगर एक वहदत की हैसियत से आज़ाद हो तो कसरते आबादी की वजह से हिन्दू हमेशा हम पर ग़ालिब रहेंगे, क्योंकि जदीद (नई) दुनिया का जम्हूरी उसूल “one man one vote” है। इस तरह हिन्दु हमें दबा लेंगे, हमारा इस्तेहसाल करेंगे, हमारे दीन व मज़हब, तहज़ीब व तमद्दुन, सियासत व मईशत और ज़बान व मआशरत हर चीज़ को बर्बाद कर देंगे। चुनाँचे उन्होंने एक अलग आज़ाद वतन हासिल करने के लिये तहरीक चलाई। इस तहरीक का नारा यही था कि मुसलमान क़ौम को अपने दीन व मज़हब, शक़ाफ़त और मआशरत वग़ैरह के मुताबिक़ ज़िन्दगी बसर करने के लिये एक अलग वतन की ज़रूरत है। इस तहरीक में अल्लाह ने उन्हें कामयाबी दी और उन्हें एक आज़ाद ख़ुद मुख़्तार मुल्क का मालिक बना दिया। अभी इस हवाले से इस आयत का दोबारा मुताअला कीजिये: {وَيَسْتَخْلِفَكُمْ فِي الْاَرْضِ فَيَنْظُرَ كَيْفَ تَعْمَلُوْنَ} कि वह तुम्हें ज़मीन में ताक़त और इक़तदार अता करेगा और फिर देखेगा कि तुम लोग कैसा तर्ज़े अमल इख़्तियार करते हो! इस मुल्क में अल्लाह की हुकूमत क़ायम करके दीन को ग़ालिब करते हो या अपनी मर्ज़ी की हुकूमत क़ायम करके अपनी ख़्वाहिशात के मुताबिक़ निज़ाम चलाते हो।

आयत 130
“और हमने पकड़ा आले फ़िरऔन को लगातार क़हत साली और फ़सलों की तबाही से ताकि वो नसीहत पकड़ें।” وَلَقَدْ اَخَذْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ بِالسِّنِيْنَ وَنَقْصٍ مِّنَ الثَّمَرٰتِ لَعَلَّهُمْ يَذَّكَّرُوْنَ ١٣٠؁
यह वही क़ानून है जिसका ज़िक्र इसी सूरह की आयत 94 में हो चुका है कि जब अल्लाह तआला किसी क़ौम की तरफ़ कोई रसूल भेजता है तो उन्हें आज़माईशों और मुसीबतों में मुब्तला करता है ताकि वो ख़्वाबे ग़फ़लत से जागें और दावते हक़ की तरफ़ मुतवज्जह हों। चुनाँचे हज़रत मूसा अलै. जब आले फ़िरऔन की तरफ़ मबऊस हुए और आपने अपनी दावत शुरू की तो उस दौरान में अल्लाह तआला ने क़ौमे फ़िरऔन पर भी छोटे-छोटे अज़ाब भेजने शुरू किये ताकि वो होश में आ जायें।

आयत 131
“तो जब भी हालात बेहतर हो जाते तो वो लोग कहते यह हमारे लिये है।” فَاِذَا جَاۗءَتْهُمُ الْحَسَنَةُ قَالُوْا لَنَا هٰذِهٖ ۚ
“और जब उन्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती तो उसे वो नहूसत समझते मूसा अलै. और आपके साथियों की।” وَاِنْ تُصِبْهُمْ سَيِّئَةٌ يَّطَّيَّرُوْا بِمُوْسٰي وَمَنْ مَّعَهٗ ۭ
“आगाह हो जाओ कि उनकी शौमी-ए-क़िस्मत अल्लाह के हाथ में है लेकिन उनमें से अक्सर लोग समझते नहीं।” اَلَآ اِنَّمَا طٰۗىِٕرُهُمْ عِنْدَ اللّٰهِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَهُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ ١٣١؁
जब उनके हालात क़द्रे बेहतर होते यानि फसलें वगैरह ठीक हो जातीं, ख़ुशहाली आती और उनको आसाईश हासिल होती तो वो कहते कि यह हमारी मेहनत, मन्सूबाबंदी और कोशिश का नतीज़ा है, यह हमारा इसतहक़ाक़ (privilege) है। और जब उनको फ़सलों में नुक़सान होता या किसी और क़िस्म के माली नुक़सानात का उन्हें सामना करना पड़ता तो वो इस सब कुछ की ज़िम्मेदारी हज़रत मूसा अलै. और आपके साथियों पर डाल देते कि हमारा यह नुक़सान इनकी नहूसत की वजह से हुआ है।

आयत 132
“और वो कहते कि (ऐ मूसा) तुम हमारे ऊपर ख़्वाह कोई भी निशानी ले आओ ताकि उससे हम पर जादू करो, मगर हम तुम्हारी बात मानने वाले नहीं हैं।” وَقَالُوْا مَهْمَا تَاْتِنَا بِهٖ مِنْ اٰيَةٍ لِّتَسْحَرَنَا بِهَا ۙ فَمَا نَحْنُ لَكَ بِمُؤْمِنِيْنَ ١٣٢؁
वो तहद्दी के अंदाज़ में कहते कि ऐ मूसा! यह तुम जो अपने जादू के ज़ोर से हम पर मुसीबतें ला रहे हो तो तुम्हारा क्या ख़्याल है कि हम तुम्हारे जादू के ज़ेरे असर अपने अक़ाइद से बरगश्ता हो जायेंगे? ऐसा हरग़िज नहीं हो सकता! हम तुम्हारी बात मानने वाले नहीं हैं!

आयत 133
“फिर हमने भेजे उनके ऊपर तूफ़ान और टिड्डी दल और चिचड़ियाँ और मेंढ़क और खून” فَاَرْسَلْنَا عَلَيْهِمُ الطُّوْفَانَ وَالْجَرَادَ وَالْقُمَّلَ وَالضَّفَادِعَ وَالدَّمَ
उन पर तूफान बाद व बारान भी आया। टिड्डी डाल उनकी फ़सलों को चट कर जाती थीं। चिचड़ियाँ, जुएँ, खटमल और पिस्सू उनको काटते थे और उनका खून चूसते थे और उनके अनाज में कसरत से सुरसुरियाँ पड़ जातीं। मेंढ़क उनके घरों, बिस्तरों और बर्तनों वगैरह में हर जगह पैदा हो जाते थे। इसी तरह उन पर ख़ून की बारिश भी होती थी और खाने-पीने की चीज़ों में भी खून शामिल हो जाता था।
“(हमने भेजीं ये) निशानियाँ वक़्फे-वक़्फे से” اٰيٰتٍ مُّفَصَّلٰتٍ
यह सारी मुसीबतें और आज़माईशें एक बार ही उन पर मुसल्लत नहीं हो गई थीं, बल्कि वक़्फ़े-वक़्फ़े से एक के बाद दीगर आती रहीं, कि शायद किसी एक मुसीबत को देख कर वो राहे रास्त पर आ जायें और हज़रत मूसा अलै. की दावत को क़ुबूल कर लें।
“(इसके बावजूद) वो तकब्बुर पर अड़े रहे और वो थे ही मुजरिम लोग।” فَاسْتَكْبَرُوْا وَكَانُوْاقَوْمًا مُّجْرِمِيْنَ ١٣٣؁
अगली आयत से पता चल रहा है कि बाद में उनकी यह अकड़ ख़त्म हो गई थी और अज़ाब को ख़त्म कराने के लिये वो लोग हज़रत मूसा अलै. की मिन्नत समाजत करने पर भी तैयार हो गये थे।

आयत 134
“और जब उन पर कोई अज़ाब आता था तो वो कहते कि ऐ मूसा अलै. अपने रब से दुआ करो उस अहद के वास्ते से जो उसने तुमसे कर रखा है।” وَلَمَّا وَقَعَ عَلَيْهِمُ الرِّجْزُ قَالُوْا يٰمُوْسَى ادْعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِنْدَكَ ۚ
“अगर तुमने हमसे इस अज़ाब को हटा दिया तो हम लाज़िमन तुम्हारी बात मान लेंगे” لَىِٕنْ كَشَفْتَ عَنَّا الرِّجْزَ لَنُؤْمِنَنَّ لَكَ
آمَنَ के साथ जब “ل” का सिला आता है (जैसे لَکَ) तो इससे मुराद अक़ीदे वाला “ईमान” नहीं होता, बल्कि इस तरह किसी की बात को सरसरी अंदाज़ में मानने के मायने पैदा हो जाते हैं। लिहाज़ा “لَنُؤْمِنَنَّ لَكَ” का मतलब है कि हम लाज़िमन तुम्हारी बात मान लेंगे। लेकिन इसके साथ जब “ب” का सिला आये, जैसा कि “آمَنْتُ بِاللہِ وَمَلآئِکَتِہٖ وَکُتُبِہٖ” में है तो इसके मायने पूरे वसूक़, यक़ीन और गहरे ऐतमाद के साथ मानने के होते हैं, यानि ईमान लाना।
“और हम बनी इस्राईल को भी लाज़िमन तुम्हारे साथ भेज देंगे।” وَلَنُرْسِلَنَّ مَعَكَ بَنِيْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ ١٣٤؀ۚ
मिस्र में बनी इस्राईल की हैसियत हुक्मरान ख़ानदान के गुलामों की सी थी। फ़राअना उनसे मुश्किल और भारी काम बेगार में करवाते थे। ऐहरामे मिस्र की तामीर के दौरान ना जाने कितने हज़ार इस्राईली इस बेरहम मुश्क़्क़त के सबब जान से हाथ धो बैठे और उनकी हड्डियाँ ऐहरामे मिस्र की बुनियादों में दफ़न हो गईं। ऐहरामों की तामीर के दौरान सैकड़ों मन वज़नी चट्टाने ऊपर खींची जाती थीं। इस दौरान अगर को चट्टान नीचे गिर जाती तो उसके नीचे सैकड़ों इस्राईली पिस जाते। क्योंकि वो लोग फ़िरऔन के मुफ़्त के कारिन्दे थे लिहाज़ा वह उनको आसानी से छोड़ने वाला नहीं था। लेकिन इन आयात से पता चलता है कि एक के बाद दीग़र आने वाले अज़ाब सह-सह कर फ़िरऔन और उसके अमराअ का ग़ुरूर व तकब्बुर कुछ कम हुआ था। चुनाँचे जब वो लोग ज़्यादा आज़िज आ जाते थे तो हज़रत मूसा अलै. से यह वादा भी करते थे कि अगर यह मुसीबत टल जाये तो हम आप अलै. की बात मान लेंगे और आप अलै. की क़ौम को आपके साथ भेज देंगे।

आयत 135
“लेकिन जब हम उनसे उस मुसीबत को दूर कर देते थे एक ख़ास मुद्दत के लिये कि जिस तक वह पहुँचने वाले होते तो वो दफ्फ़तन अहद तोड़ देते थे।” فَلَمَّا كَشَفْنَا عَنْهُمُ الرِّجْزَ اِلٰٓي اَجَلٍ هُمْ بٰلِغُوْهُ اِذَا هُمْ يَنْكُثُوْنَ ١٣٥؁

आयत 136
“पस हमने उनसे इन्तेक़ाम लिया और हमने उन्हें समुन्दर में ग़र्क़ कर दिया, इसलिये कि उन्होंने हमारी आयात को झुठलाया और वो उन (आयात) से तग़ाफ़ुल बरतते रहे।” فَانْتَقَمْنَا مِنْهُمْ فَاَغْرَقْنٰهُمْ فِي الْيَمِّ بِاَنَّهُمْ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَكَانُوْا عَنْهَا غٰفِلِيْنَ ١٣٦؁

आयत 137
“और जिन लोगों को दबा लिया गया था (अब) हमने उन्हें वारिस बना दिया उस ज़मीन के मशरिक़ व मग़रिब का जिसको हमने बाबरकत बनाया था।” وَاَوْرَثْنَا الْقَوْمَ الَّذِيْنَ كَانُوْا يُسْتَضْعَفُوْنَ مَشَارِقَ الْاَرْضِ وَمَغَارِبَهَا الَّتِيْ بٰرَكْنَا فِيْهَا ۭ
यहां पर مَشَارِقَ الْاَرْضِ وَ مَغَارِبَھَا की तरकीब की ख़ास अदबी (literary, साहित्यिक) अहमियत है जो फ़िक़रे में एक खूबसूरत rhythm पैदा कर रही है। इस आयत का सादा मफ़हूम यही है कि बनी इसराइल जो मिस्र में गुलामी की ज़िन्दगी बसर कर रहे थे उनको वहाँ से उठा कर पूरे फ़लस्तीन का वारिस बना दिया दिया। अर्ज़े फ़लस्तीन की ख़ुसूसी बरकत का ज़िक्र सूरह बनी इसराइल की पहली आयत में भी بٰرَكْنَا حَوْلَهٗ अल्फ़ाज़ के साथ हुआ है। यह सरज़मीन इसलिये भी मुतबर्रिक (बहुत मुबारक) है कि हज़रत इब्राहिम अलै. के बाद सैकड़ों अम्बिया का मस्कन (आवास) व मदफ़न रही है और इसलिये भी कि अल्लाह तआला ने इसे एक इम्तियाज़ी नौइयत की ज़रखेज़ी से नवाज़ा है।
“और तेरे रब का अच्छा वादा बनी इसराइल के हक़ में पूरा हुआ इस वजह से कि वह साबित क़दम रहे।” وَتَمَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ الْحُسْنٰى عَلٰي بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ ڏ بِمَا صَبَرُوْا ۭ
उनमें से जो लोग हज़रत मूसा अलै. पर ईमान लाये थे उन्होंने वाक़िअतन सख्त तरीन आज़माइशों पर सब्र किया और साबित क़दमी दिखाई और इस सबब से अल्लाह तआला ने उन पर ईनाम फ़रमाया।
“और हमने तबाह व बर्बाद कर डाला वह सब कुछ जो फ़िरऔन और उसकी क़ौम (ऊँचे महलात) बनाते थे और (बागात में अंगूर की बेलों वगैरह के लिये छतरियाँ) चढ़ाते थे।” وَدَمَّرْنَا مَا كَانَ يَصْنَعُ فِرْعَوْنُ وَقَوْمُهٗ وَمَا كَانُوْا يَعْرِشُوْنَ ١٣٧؁
यानी फ़िरऔन और उसकी क़ौम की सारी तामिरात और उनके सारे बाग व चमन मलियामेट कर दिए गये।
अब अगली आयात में बनी इसराइल के मिस्र से सहराए सीना तक के सफ़र का तज़किरा है। यह वाक़िआत मदनी सूरतों में भी मुतअद्दिद (बहुत) बार आ चुके हैं। ओल्ड टेस्टामेंट की किताबुल ख़ुरूज (Exodus) में भी इस सफ़र की कुछ तफ़सीलात मिलती हैं।

आयत 138
“और पार उतार दिया हमने बनी इस्राईल को समुन्दर के” وَجٰوَزْنَا بِبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ الْبَحْرَ
बनी इस्राईल ख़लीज स्वेज को उबूर (पार) करके जज़ीरा नुमाए सीना में दाखिल हुए थे।
“तो उनका गुज़र हुआ एक ऐसी क़ौम पर जो ऐतकाफ़ कर रही थी अपने बुतों का।” فَاَتَوْا عَلٰي قَوْمٍ يَّعْكُفُوْنَ عَلٰٓي اَصْنَامٍ لَّهُمْ ۚ
बुतों का ऐतकाफ़ करने से मुराद बुतों के सामने पूरी तवज्जोह और यक्सुई से बैठना है जो बुतपरस्तों का तरीक़ा है। बुतपरस्ती के इस फ़लसफ़े पर डॉक्टर राधा कृष्णन (1888 से 1975) ने तफ़सील से रोशनी डाली है। डॉक्टर राधा कृष्णन साठ की दहाई में हिन्दुस्तान के सदर भी रहे। उन्होंने अपनी तस्नीफ़ात के ज़रिये हिन्दुस्तान के फ़लसफ़े को ज़िन्दा किया। यह बर्ट्रेंड रसेल/Bertrand Russell (1872 से 1970) के हमअसर थे यह दोनों अपने ज़माने में चोटी के फ़लसफ़ी थे। बर्ट्रेंड रसेल मुल्हिद था जबकि डॉक्टर राधा कृष्णन मज़हबी था। इत्तेफ़ाक़ से इन दोनों ने कमो बेश 90 साल की उम्र पाई। बुतपरस्ती के बारे में डॉक्टर राधा कृष्णन के फ़लसफ़े का खुलासा यह है कि हम जो किसी देवी या देवता के नाम के बुत बनाते हैं तो हम उन बुतों को अपने नफ़ा या नुक़सान का मालिक नहीं समझते, बल्कि हमारा असल मक़सद एक मुजस्सम चीज़ के ज़रिये से तवज्जोह मरकूज़ करना होता है। क्योंकि तसव्वुराती अंदाज़ में उन देवताओं के बारे में मुराक़बा करना और पूरी तवज्जोह के साथ उनकी तरफ़ ध्यान करना बहुत मुश्किल है, जबकि मुजस्समा या तस्वीर सामने रख कर तवज्जोह मरकूज़ करना आसान हो जाता है। इसी इंसानी कमज़ोरी को अल्लामा इक़बाल ने अपनी नज़्म “शिकवा” में इस तरह बयान किया है।
खूग़र-ए-पैकर-ए-महसूस थी इंसान की नज़र
मानता फिर कोई अनदेखे ख़ुदा को क्योंकर!
बहरहाल बनी इस्राईल ने उस बुतपरस्त क़ौम को अपने बुतों की इबादत में मशगूल पाया तो उनका जी भी ललचाने लगा और उन्हें एक मसनूई खुदा की ज़रूरत महसूस हुई।
“उन्होंने कहा कि ऐ मूसा अलै. हमारे लिये भी कोई मअबूद बना दो जैसे उनके मअबूद हैं।” قَالُوْا يٰمُوْسَى اجْعَلْ لَّنَآ اِلٰـهًا كَمَا لَهُمْ اٰلِهَةٌ ۭ
उस क़ौम की हालत देख बनी इस्राईल का भी जी चाहा कि हमारे लिये भी कोई इस तरह का मअबूद हो जिसको सामने रख कर हम उसकी पूजा करें। चुनाँचे उन्होंने हज़रत मूसा अलै. से अपनी इसी ख़्वाहिश का इज़हार कर ही दिया। जवाब में हज़रत मूसा अलै. ने उन्हें सख़्त डाँट पिलाई:
“आप अलै. ने फ़रमाया कि तुम बड़े ही जाहिल लोग हो!” قَالَ اِنَّكُمْ قَوْمٌ تَجْـهَلُوْنَ ١٣٨؁
तुम कितनी बड़ी नादानी और जहालत की बात कर रहे हो!

आयत 139
“यह लोग जिस चीज़ में पड़े हैं वह सब कुछ बर्बाद होने वाला है और जो कुछ ये लोग कर रहे हैं वह सब बातिल है।” اِنَّ هٰٓؤُلَاۗءِ مُتَبَّرٌ مَّا هُمْ فِيْهِ وَبٰطِلٌ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١٣٩؁

आयत 140
“(हज़रत मूसा अलै. ने) फ़रमाया कि क्या मैं अल्लाह के सिवा तुम्हारे लिये कोई और मअबूद तलाश करुँ, जबकि उसने तुम्हें फ़जीलत दी है तमाम जहान वालों पर!” قَالَ اَغَيْرَ اللّٰهِ اَبْغِيْكُمْ اِلٰهًا وَّهُوَ فَضَّلَكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ ١٤٠؁

आयत 141
“और याद करो जब हमने तुम्हें निजात दी आले फ़िरऔन से, जो तुम्हें मुब्तला किए हुए थे बदतरीन अज़ाब में।” وَاِذْ اَنْجَيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ ۚ
“वो क़त्ल कर डालते थे तुम्हारे बेटों को और ज़िन्दा रखते थे तुम्हारी बेटियों को, और यक़ीनन इसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से बहुत बड़ी आज़माईश थी।” يُقَتِّلُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَ يَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ ۭوَفِيْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ ١٤١؀ۧ
तक़रीबन यही अल्फ़ाज़ सूरतुल बक़रह (आयत 49) में भी गुज़र चुके हैं।

आयात 142 से 147 तक
وَوٰعَدْنَا مُوْسٰي ثَلٰثِيْنَ لَيْلَةً وَّاَتْمَمْنٰهَا بِعَشْرٍ فَتَمَّ مِيْقَاتُ رَبِّهٖٓ اَرْبَعِيْنَ لَيْلَةً ۚ وَقَالَ مُوْسٰي لِاَخِيْهِ هٰرُوْنَ اخْلُفْنِيْ فِيْ قَوْمِيْ وَاَصْلِحْ وَلَا تَتَّبِعْ سَبِيْلَ الْمُفْسِدِيْنَ ١٤٢؁ وَلَمَّا جَاۗءَ مُوْسٰي لِمِيْقَاتِنَا وَكَلَّمَهٗ رَبُّهٗ ۙ قَالَ رَبِّ اَرِنِيْٓ اَنْظُرْ اِلَيْكَ ۭقَالَ لَنْ تَرٰىنِيْ وَلٰكِنِ انْظُرْ اِلَى الْجَبَلِ فَاِنِ اسْـتَــقَرَّ مَكَانَهٗ فَسَوْفَ تَرٰىنِيْ ۚ فَلَمَّا تَجَلّٰى رَبُّهٗ لِلْجَبَلِ جَعَلَهٗ دَكًّا وَّخَرَّ مُوْسٰي صَعِقًا ۚ فَلَمَّآ اَفَاقَ قَالَ سُبْحٰنَكَ تُبْتُ اِلَيْكَ وَاَنَا اَوَّلُ الْمُؤْمِنِيْنَ ١٤٣؁ قَالَ يٰمُوْسٰٓي اِنِّى اصْطَفَيْتُكَ عَلَي النَّاسِ بِرِسٰلٰتِيْ وَبِكَلَامِيْ ڮ فَخُذْ مَآ اٰتَيْتُكَ وَكُنْ مِّنَ الشّٰكِرِيْنَ ١٤٤؁ وَكَتَبْنَا لَهٗ فِي الْاَلْوَاحِ مِنْ كُلِّ شَيْءٍ مَّوْعِظَةً وَّتَفْصِيْلًا لِّكُلِّ شَيْءٍ ۚ فَخُذْهَا بِقُوَّةٍ وَّاْمُرْ قَوْمَكَ يَاْخُذُوْا بِاَحْسَنِهَا ۭ سَاُورِيْكُمْ دَارَ الْفٰسِقِيْنَ ١٤٥؁ سَاَصْرِفُ عَنْ اٰيٰتِيَ الَّذِيْنَ يَتَكَبَّرُوْنَ فِي الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۭ وَاِنْ يَّرَوْا كُلَّ اٰيَةٍ لَّا يُؤْمِنُوْا بِهَا ۚ وَاِنْ يَّرَوْا سَبِيْلَ الرُّشْدِ لَا يَتَّخِذُوْهُ سَبِيْلًا ۚ وَاِنْ يَّرَوْا سَبِيْلَ الْغَيِّ يَتَّخِذُوْهُ سَبِيْلًا ۭذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَكَانُوْا عَنْهَا غٰفِلِيْنَ ١٤٦؁ وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَلِقَاۗءِ الْاٰخِرَةِ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ ۭ هَلْ يُجْزَوْنَ اِلَّا مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١٤٧؀ۧ

आयत 142
“और हमने बुलाया मूसा अलै. को तीस रातों के लिये” وَوٰعَدْنَا مُوْسٰي ثَلٰثِيْنَ لَيْلَةً
यानि कोहे सीना (तूर) पर तलब किया। आमतौर पर इस तरह कहने से दिन-रात ही मुराद होते हैं, लेकिन अरबी मुहावरे में रात का तज़किरा किया जाता है।
“और मुकम्मल कर दिया हमने इस मुद्दत को दस (मज़ीद रातों) से, तो मुद्दत पूरी हो गई उसके रब की चालीस रातों की।” وَّاَتْمَمْنٰهَا بِعَشْرٍ فَتَمَّ مِيْقَاتُ رَبِّهٖٓ اَرْبَعِيْنَ لَيْلَةً ۚ
इस तरह हज़रत मूसा अलै. ने तूर पर “चिल्ला” मुकम्मल किया, जिसके दौरान आपने लगातार रोज़े भी रखे। हमारे यहाँ सूफ़िया ने चिल्ला काटने का तस्सवुर ग़ालिबन यहीं से लिया है।
“और (जाते हुए) कहा मूसा अलै. ने अपने भाई हारून अलै. से कि मेरी क़ौम के अंदर मेरी नयाबत के फ़राइज़ अदा करना, इस्लाह करते रहना और फ़साद करने वालों के रास्ते की पैरवी ना करना।” وَقَالَ مُوْسٰي لِاَخِيْهِ هٰرُوْنَ اخْلُفْنِيْ فِيْ قَوْمِيْ وَاَصْلِحْ وَلَا تَتَّبِعْ سَبِيْلَ الْمُفْسِدِيْنَ ١٤٢؁

आयत 143
“और जब मूसा अलै. पहुँचे हमारे वक़्ते मुक़र्ररा पर और उनसे कलाम किया उनके रब ने” وَلَمَّا جَاۗءَ مُوْسٰي لِمِيْقَاتِنَا وَكَلَّمَهٗ رَبُّهٗ ۙ
“उन्होंने दरख़्वास्त की कि ऐ मेरे रब! मुझे यारा-ए-नज़र दे कि मैं तुझे देखूँ। अल्लाह ने फ़रमाया कि तुम मुझे हरग़िज़ नहीं देख सकते” قَالَ رَبِّ اَرِنِيْٓ اَنْظُرْ اِلَيْكَ ۭقَالَ لَنْ تَرٰىنِيْ
“लेकिन ज़रा उस पहाड़ को देखो अगर वह अपनी जगह पर खड़ा रह जाये तो तुम भी मुझे देख सकोगे।” وَلٰكِنِ انْظُرْ اِلَى الْجَبَلِ فَاِنِ اسْـتَــقَرَّ مَكَانَهٗ فَسَوْفَ تَرٰىنِيْ ۚ
“तो जब उसके रब ने अपनी तजल्ली डाली पहाड़ पर तो कर दिया उसको रेज़ाह-रेज़ाह” فَلَمَّا تَجَلّٰى رَبُّهٗ لِلْجَبَلِ جَعَلَهٗ دَكًّا
جَلَا یَجْلُو جَلَاءً के मायने हैं ज़ाहिर करना, रोशन करना। इससे “تجلّی” बाब तफ़अ’उल है, यानि किसी चीज़ का ख़ुद रोशन हो जाना। यह अल्लाह तआला की ज़ात की तजल्ली थी जो पहाड़ पर डाली गई जिससे पहाड़ रेज़ाह-रेज़ाह हो गया।
“और मूसा अलै. गिर पड़े बेहोश होकर” وَّخَرَّ مُوْسٰي صَعِقًا ۚ
तजल्ली-ए-बारी तआला के इस बिलवास्ता मुशाहिदे को भी हज़रत मूसा अलै. बर्दाश्त ना कर सके। पहाड़ पर तजल्ली का पड़ना था कि आप अलै. बेहोश होकर गिर पड़े।
“फिर जब आप अलै. को अफ़ाक़ा हुआ तो कहा कि (ऐ अल्लाह!) तू पाक है, मैं तेरी जनाब में तौबा करता हूँ और मैं हूँ पहला ईमान लाने वाला!” فَلَمَّآ اَفَاقَ قَالَ سُبْحٰنَكَ تُبْتُ اِلَيْكَ وَاَنَا اَوَّلُ الْمُؤْمِنِيْنَ ١٤٣؁
जब हज़रत मूसा अलै. को होश आया तो आप अलै. ने अल्लाह तआला के हुज़ूर अपने सवाल की जसारत पर तौबा की और अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह! मैं तुझे देखे बग़ैर सबसे पहले तुझ पर ईमान लाने वाला हूँ।

आयत 144
“(अल्लाह ने) फ़रमाया: ऐ मूसा मैंने तुम्हें मुन्तख़ब किया है लोगों पर (तरजीह देकर) अपनी पैगम्बरी और अपनी हमकलामी के लिये।” قَالَ يٰمُوْسٰٓي اِنِّى اصْطَفَيْتُكَ عَلَي النَّاسِ بِرِسٰلٰتِيْ وَبِكَلَامِيْ ڮ
यह हज़रत मूसा अलै. का इम्तियाज़ी मक़ाम था, जैसे सूरतुन्निसा (आयत 164) में फ़रमाया: { وَكَلَّمَ اللّٰهُ مُوْسٰى تَكْلِــيْمًا }
“तो ले लो जो मैं तुम्हें दे रहा हूँ और हो जाओ शुक्र करने वालों मे।” فَخُذْ مَآ اٰتَيْتُكَ وَكُنْ مِّنَ الشّٰكِرِيْنَ ١٤٤؁
यानि यह अल्वाह जो हम आपको दे रहे हैं इन्हें ले लो और इनमें जो अहकाम लिखे हुए हैं उनका हक़ अदा करो।

आयत 145
“और हमने लिख दी उस अलै. के लिये तख़्तियों पर हर तरह की नसीहत और हर तरह (के अहकाम) की तफ़सील।” وَكَتَبْنَا لَهٗ فِي الْاَلْوَاحِ مِنْ كُلِّ شَيْءٍ مَّوْعِظَةً وَّتَفْصِيْلًا لِّكُلِّ شَيْءٍ ۚ
यानि शरीअत के तमाम बुनियादी अहकाम उन अल्वाह में दर्ज कर दिये गये थे। अल्लाह की उतारी हुई शरीअत के बुनियादी अहकाम शाहराहे हयात पर इंसान के लिये गोया danger signals की हैसियत रखते हैं। जैसे किसी पुरपेच पहाड़ी सड़क पर सफ़र को महफ़ूज़ बनाने के लिये जगह-जगह danger caution नसब किए जाते हैं इसी तरह इंसानी तमद्दुन के पेचीदा रास्ते पर आसमानी शरीअत अपने अहकामात के ज़रिये caution नसब करके इंसानी तगो-दो (भाग-दौड़) के लिये एक महफ़ूज़ दायरा मुक़र्रर कर देती है ताकि इंसान इस दायरे के अंदर रहते हुए, अपनी अक़्ल को बरूएकार लाकर अपनी मर्ज़ी और पसंद-नापसंद के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ार। इस दायरे के बाहर “मुहर्रमात” होते हैं जिनके बारे में अल्लाह का हुक्म है कि उनके क़रीब भी मत जाना: { تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَا تَقْرَبُوْھَا } (अल् बक़रह:187)
“तो (ऐ मूसा अलै.) इसको थाम लो मज़बूती के साथ और अपनी क़ौम को भी हुक्म दो कि वो इसको पकड़ें इसकी बेहतरीन सूरत पर।” فَخُذْهَا بِقُوَّةٍ وَّاْمُرْ قَوْمَكَ يَاْخُذُوْا بِاَحْسَنِهَا ۭ
किसी भी हुक्म पर अमल दरआमद के लिये मुख्तलिफ़ दर्जे होते हैं। यह अमल दरआमद अदना दर्जे में भी हो सकता है, औसत दर्जे में भी और आला दर्जे में भी। लिहाज़ा यहाँ मतलब यह है कि आप अलै. अपनी क़ौम को तरग़ीब दें कि वो अहकामे शरीअत पर अमल करते हुए आला से आला दर्जे की तरफ़ बढ़ने की कोशिश करें। यही नुक्ता हम मुसलमानों को भी क़ुरान में बताया गया: { الَّذِيْنَ يَسْتَمِعُوْنَ الْقَوْلَ فَيَتَّبِعُوْنَ اَحْسَنَهٗ ۭ} (अल् ज़ुमुर:18) यानि वो लोग कलामुल्लाह को सुनते हैं फिर जो उसकी बेहतरीन बात होती है उसको इख़्तियार करते हैं। एक तर्ज़े अमल यह होता है कि आदमी अपनी ज़िम्मेदारियों के बारे में ढ़ील और रिआयत हासिल करना चाहता है। वह सोचता है कि इम्तियाज़ी पोज़ीशन ना सही, फर्स्ट या सेकेंड डिवीज़न भी ना सही, बस पास मार्क्स काफ़ी हैं, लेकिन यह मामला “दीन” में नहीं होना चाहिये। दीनी उमूर में अमल का अच्छे से अच्छा और आला से आला मैयार क़ायम करने की कोशिश करने की हिदायत की गई है। जैसा कि हम सूरतुल मायदा में भी पढ़ आए हैं: { اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاَحْسَنُوْا ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ} (आयत:93) दुनियावी उमूर में तो हर शख़्स “है जुस्तजू कि ख़ूब से ख़ूब तर कहाँ!” के नज़रिये का हामिल नज़र आता ही है, लेकिन दीन के सिलसिले में भी हर मुसलमान को कोशिश होनी चाहिये कि उसका आज उसके कल से बेहतर हो। दीनी उमूर में भी वह तरक्क़ी के लिये हत्तल इम्कान हर घड़ी कोशाँ रहे।
“अनक़रीब मैं तुम्हें घर दिखाऊँगा (जिस पर उस वक़्त क़ब्ज़ा है) फ़ासिकों का।” سَاُورِيْكُمْ دَارَ الْفٰسِقِيْنَ ١٤٥؁
इससे मुराद फ़लस्तीन का इलाक़ा है जिस पर हमलावर होने का हुक्म हज़रत मूसा अलै. को मिलने वाला था। बनी इस्राईल का क़ाफिला मिस्र से निकलने के बाद ख़लीज स्वेज़ को उबूर करके सहरा-ए-सीना में दाख़िल हुआ तो ख़लीज स्वेज़ के साथ-साथ सफ़र करता रहा, यहाँ तक कि जज़ीरा नुमाए सीना के जुनूबी कोने में पहुँच गया जहाँ कोहे तूर वाक़ेअ है। यहाँ पर इस क़ाफिले का तवील अर्से तक क़याम रहा। यहीं पर हज़रत मूसा अलै. को कोहे तूर पर तलब किया गया और जब आप अलै. तौरात लेकर वापस आए तो आप अलै. को फ़लस्तीन पर हमलावर होने का हुक्म मिला। चुनाँचे यहाँ से यह क़ाफिला ख़लीज उक़्बा के साथ-साथ शिमाल की तरफ़ आज़मे सफ़र हुआ। बनी इस्राईल सात-आठ सौ साल क़ब्ल हज़रत यूसुफ़ अलै. की दावत पर फ़लस्तीन छोड़ कर मिस्र में आ बसे थे। अब फ़लस्तीन में वो मुशरिक और फ़ासिक़ क़ौम क़ाबिज़ थी जिसके बारे में उनका ख़्याल था कि वो सख़्त और ज़ोरावर लोग हैं। चुनाँचे जब उनको हुक्म मिला कि जाकर उस क़ौम से जिहाद करो तो उन्होंने यह कह कर माज़ूरी ज़ाहिर कर दी कि ऐसे ताक़तवर लोगों से जंग करना उनके बस की बात नहीं: { قَالُوْا يٰمُوْسٰٓى اِنَّ فِيْهَا قَوْمًا جَبَّارِيْنَ ڰ } (मायदा:22) इस वाक़िये की तफ़सील सूरह मायदा में गुज़र चुकी है। यहाँ उसी मुहिम का ज़िक्र हो रहा है कि मैं अनक़रीब तुम लोगों को उस सरज़मीन की तरफ़ ले जाऊँगा जो तुम्हारा असल वतन है लेकिन अभी उस फ़ासिक़ों का क़ब्ज़ा है। उन नाफ़रमान लोगों के साथ जंग करके तुमने अपने वतन को आज़ाद कराना है।

आयत 146
“मैं फेर दूँगा अपनी आयात से उन लोगों (के रुख़) को ज़मीन में नाहक़ तकब्बुर करते है।” سَاَصْرِفُ عَنْ اٰيٰتِيَ الَّذِيْنَ يَتَكَبَّرُوْنَ فِي الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۭ
यहाँ एक उसूल बयान फ़रमा दिया गया कि जिन लोगों के अंदर तकब्बुर होता है हम ख़ुद उनका रुख़ अपनी आयात की तरफ़ से फेर देते हैं, चुनाँचे वो हमारी आयात को समझ ही नहीं सकते, उन पर ग़ौर कर ही नहीं सकते। इसलिये कि तकब्बुर अल्लाह तआला को सबसे ज़्यादा नापसंद है। एक हदीसे क़ुदसी में अल्लाह तआला फ़रमाते हैं: ((اَلْکِبْرِیَاءُ رِدَائِیْ))(8) यानि तकब्बुर मेरी चादर है, अगर कोई इंसान तकब्बुर करता है तो वह गोया मेरी चादर मेरे शाने (कन्धे) से घसीट रहा है, लिहाज़ा ऐसे हर इन्सान के ख़िलाफ मेरा ऐलान-ए-जंग है। एक और हदीस में रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ((لَا یَدْخُلُ الْجَنَّۃَ مَنْ کَانَ فِیْ قَلْبِہٖ مِثْقَالُ حَبَّۃٍ مِنْ خَرْدَلٍ مِنْ کِبْرٍ))(9) “वह शख़्स जन्नत में दाख़िल नहीं हो सकेगा जिसके दिल में राई के दाने के बराबर भी तकब्बुर है।” चुनाँचे आयत ज़ेरे नज़र का मफ़हूम यह है कि जिन लोगों के अंदर तकब्बुर है हम ख़ुद उन्हें अपनी आयात से बरगश्ता कर देते हैं। ऐसे लोगों को हम इस लायक़ ही नहीं समझते कि वो हमारी आयात को देखें और समझें। ऐसे मग़रूर लोगों को हम सीधी राह की तरफ़ तवज्जोह मरकूज़ करने ही नहीं देते।
“और अग़र वो देख भी लें सारी निशानियाँ तब भी वो उन पर ईमान नहीं लाएँगे।” وَاِنْ يَّرَوْا كُلَّ اٰيَةٍ لَّا يُؤْمِنُوْا بِهَا ۚ
“और अग़र वो देख भी लें हिदायत का रास्ता तब भी उस रास्ते को इख़्तियार नहीं करगें।” وَاِنْ يَّرَوْا سَبِيْلَ الرُّشْدِ لَا يَتَّخِذُوْهُ سَبِيْلًا ۚ
“और अग़र वो देखें बुराई का रास्ता तो उसे वो (फ़ौरन) इख़्तियार कर लेंगे।” وَاِنْ يَّرَوْا سَبِيْلَ الْغَيِّ يَتَّخِذُوْهُ سَبِيْلًا ۭ
“यह इसलिये कि उन्होंने हमारी आयतों को झुठलाया और उनसे तग़ाफ़ुल बरतते रहे।” ذٰلِكَ بِاَنَّهُمْ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَكَانُوْا عَنْهَا غٰفِلِيْنَ ١٤٦؁
आयत 147
“और जो लोग भी झुठलाएँगे हमारी आयात को और आख़िरत की मुलाक़ात को, उनके आमाल ज़ाया हो जायेंगे।” وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَلِقَاۗءِ الْاٰخِرَةِ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ ۭ
ऐसे लोग अपने तैं बड़ी-बड़ी नेकियाँ कमा रहे होंगे, मग़र अल्लाह के यहाँ उनकी इन नेकियों का कोई सिला नहीं होगा। जैसे कि क़ुरैशे मक्का ख़ुद को “ख़ादिमीने काबा” समझते थे, वो काबा के सफ़ाई और सुथराई का खुसूसी अहतमाम करते, हाजियों की ख़िदमत करते, उनके लिये दूध और पानी की सबीलें लगाते, मग़र मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की दावत पर ईमान लाए बग़ैर उनके इन सारे आमाल की अल्लाह के नज़दीक कोई अहमियत नहीं थी।
“और उनको नहीं दिया जायेगा बदले में मग़र वही कुछ जो वो करते रहे थे।” هَلْ يُجْزَوْنَ اِلَّا مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١٤٧؀ۧ

आयात 148 153 तक
وَاتَّخَذَ قَوْمُ مُوْسٰي مِنْۢ بَعْدِهٖ مِنْ حُلِيِّهِمْ عِجْلًا جَسَدًا لَّهٗ خُوَارٌ ۭ اَلَمْ يَرَوْا اَنَّهٗ لَا يُكَلِّمُهُمْ وَلَا يَهْدِيْهِمْ سَبِيْلًا ۘ اِتَّخَذُوْهُ وَكَانُوْا ظٰلِمِيْنَ ١٤٨؁ وَلَمَّا سُقِطَ فِيْٓ اَيْدِيْهِمْ وَرَاَوْا اَنَّهُمْ قَدْ ضَلُّوْا ۙ قَالُوْا لَىِٕنْ لَّمْ يَرْحَمْنَا رَبُّنَا وَيَغْفِرْ لَنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ ١٤٩؁ وَلَمَّا رَجَعَ مُوْسٰٓي اِلٰى قَوْمِهٖ غَضْبَانَ اَسِفًا ۙ قَالَ بِئْسَمَا خَلَفْتُمُوْنِيْ مِنْۢ بَعْدِيْ ۚ اَعَجِلْتُمْ اَمْرَ رَبِّكُمْ ۚ وَاَلْقَى الْاَلْوَاحَ وَاَخَذَ بِرَاْسِ اَخِيْهِ يَجُرُّهٗٓ اِلَيْهِ ۭ قَالَ ابْنَ اُمَّ اِنَّ الْقَوْمَ اسْتَضْعَفُوْنِيْ وَكَادُوْا يَقْتُلُوْنَنِيْ ڮ فَلَا تُشْمِتْ بِيَ الْاَعْدَاۗءَ وَلَا تَجْعَلْنِيْ مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ ١٥٠؁ قَالَ رَبِّ اغْفِرْ لِيْ وَلِاَخِيْ وَاَدْخِلْنَا فِيْ رَحْمَتِكَ ڮ وَاَنْتَ اَرْحَمُ الرّٰحِمِيْنَ ١٥١؀ۧ اِنَّ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ سَيَنَالُهُمْ غَضَبٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَذِلَّةٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُفْتَرِيْنَ ١٥٢؁ وَالَّذِيْنَ عَمِلُوا السَّيِّاٰتِ ثُمَّ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِهَا وَاٰمَنُوْٓا ۡ اِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِهَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٥٣؁
आयत 148
“और बना लिया मूसा अलै. की क़ौम ने आपके बाद अपने ज़ेवरों से बछड़े का सा एक जिस्म जिससे गाय की सी आवाज़ आती थी।” وَاتَّخَذَ قَوْمُ مُوْسٰي مِنْۢ بَعْدِهٖ مِنْ حُلِيِّهِمْ عِجْلًا جَسَدًا لَّهٗ خُوَارٌ ۭ
जब हज़रत मूसा अलै. कोहे तूर पर चले गये तो आप अलै. की क़ौम के एक फ़र्द ने यह फितना उठाया, जिसका नाम सामरी था। उसने सोने का एक मुजस्समा बनाने का मन्सूबा बनाया और इस गर्ज़ से उसने सब लोगों से ज़ेवरात इकट्ठे कर लिये। रिवायात के मुताबिक़ यह ज़ेवरात ज़्यादातर मिस्र के मक़ामी लोगों (क़िब्तियों) के थे जो उन्होंने बनी इस्राईल के लोगों के पास अमानतन रखवाये थे। फ़िरऔनियों के हाथों अपनी तमामतर ज़िल्लत व ख्वारी के बावजूद मआशरे में बनी इस्राईल की अख़्लाक़ी साख अभी तक किसी ना किसी सतह पर इस वजह से मौजूद थी कि यह लोग हज़रत इब्राहीम अलै. की औलाद में से थे। यही वजह थी कि बहुत से मक़ामी लोग अपनी क़ीमती चीज़ें इनके यहाँ बतौर अमानत रख दिया करते थे। जब यह लोग हज़रत मूसा अलै. के साथ मिस्र से निकले तो उस वक़्त भी उनके बहुत से लोगों के पास क़िब्तियों के बहुत से ज़ेवरात अमानतों के तौर पर मौजूद थे। चुनाँचे वो ज़ेवरात उनके मालिकों को वापिस करने के बजाय अपने साथ ले आये थे। सामरी ने एक मन्सूबे के तहत सारे क़ाफ़िले से वो ज़ेवरात इकठ्ठे किये। बक़ायदा एक भट्टी बना कर उन ज़ेवरात को गलाया और बछड़े की शक्ल और जसामत का एक मुजस्समा तैयार कर दिया। उसने एक माहिर कारीग़र की तरह उस मुजस्समे को बनाया, सँवारा और उसमें कुछ सुराख़ इस तरह से रखे कि जब उनमें से हवा गुज़रती थी तो गाय के डकारने जैसी आवाज़ सुनाई देती। यह सब कुछ करने के बाद सामरी ने ऐलान कर दिया कि यह बछड़ा तुम लोगों का ख़ुदा है और मूसा अलै. को दरअसल मुग़ालता हो गया है जो ख़ुदा से मिलने कोहे तूर पर चले गये हैं।
इसमें एक और नुक्ता क़ाबिले तवज्जोह है, वह यह कि हज़रत मूसा अलै. मोहब्बत और जज़्बा-ए-इश्तियाक़ (उत्सुकता) में वक़्ते मुक़र्ररा से पहले ही कोहे तूर पर चले गये थे। इस पर अल्लाह तआला की तरफ़ से जवाब तल्बी भी हुई थी, जिसके बारे में हमें कुछ इशारा सूरह ताहा (आयत:83) में मिलता है: {وَمَآ اَعْجَلَكَ عَنْ قَوْمِكَ يٰمُــوْسٰى} “ऐ मूसा! तुम अपनी क़ौम को छोड़ कर क़ब्ल अज़ वक़्त क्यों आ गये हो?” इस पर आपने जवाब दिया: {وَعَجِلْتُ اِلَيْكَ رَبِّ لِتَرْضٰى} (आयत:84) कि परवरदिग़ार! मैं तो तेरी मोहब्बत और तुझसे गुफ्तगू करने के शौक में इसलिये जल्दी आया था कि तू इससे ख़ुश होगा। गोया आप तो फ़रते इश्तियाक़ (उत्सुकता) में शाबाश की तवक्क़ो रखते थे। लेकिन यहाँ डाँट पड़ गई: { قَالَ فَاِنَّا قَدْ فَتَنَّا قَوْمَكَ مِنْۢ بَعْدِكَ وَاَضَلَّـهُمُ السَّامِرِيُّ} (आयत:85) “(अल्लाह तआला ने) फ़रमाया: तो (आपकी इस अजलियत की वजह से) आपके बाद हमने आपकी क़ौम को फ़ितने में डाल दिया है और सामरी ने उन्हें गुमराह कर दिया है।” गोया ख़ैर और भलाई के मामले में भी जल्दीबाज़ी नहीं करनी चाहिये और हर काम क़ायदे, कुल्लिये के मुताबिक़ करना चाहिये। इसी लिये मिसाल मशहूर है: “सहज पके सो मीठा हो!”
“क्या उन्होंने ग़ौर ना किया कि ना वह उनसे कोई बात कर सकता है और ना उन्हें रास्ता बता सकता है!” اَلَمْ يَرَوْا اَنَّهٗ لَا يُكَلِّمُهُمْ وَلَا يَهْدِيْهِمْ سَبِيْلًا ۘ
अग़रचे उस मुजस्समे से गाय की सी आवाज़ निकलती थी मग़र उन्होंने यह ना सोचा कि वह कोई बमायने बात करने के क़ाबिल नहीं है और ना ही किसी अंदाज़ में वह उनकी रहनुमाई कर सकता है। मग़र इसके बावजूद:
“उसी को वो (मअबूद) बना बैठे और वो थे बहुत ज़ालिम!” اِتَّخَذُوْهُ وَكَانُوْا ظٰلِمِيْنَ ١٤٨؁
बनी इस्राईल ने उसी बछड़े को अपना मअबूद मान कर उसकी परस्तिश शुरू कर दी और इस तरह शिर्क जैसे ज़ुल्मे अज़ीम के मुरतकिब हुए। ज़ालिम से यह भी मुराद है कि वो अपने ऊपर बड़े ज़ुल्म ढ़ाने वाले थे।

आयत 149
“और जब उनके हाथों के तोते उड़ गए (उनको पछतावा हुआ) और उन्हें अहसास हुआ कि वो तो गुमराह हो गये हैं” وَلَمَّا سُقِطَ فِيْٓ اَيْدِيْهِمْ وَرَاَوْا اَنَّهُمْ قَدْ ضَلُّوْا ۙ
“तो उन्होंने कहा कि अग़र हमारे रब ने हम पर रहम ना फ़रमाया और हमें बख़्श ना दिया तो हम हो जायेंगे बहुत ख़सारा पाने वालों में से।” قَالُوْا لَىِٕنْ لَّمْ يَرْحَمْنَا رَبُّنَا وَيَغْفِرْ لَنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ ١٤٩؁
इस मामले में वो लोग तीन गिरोहों में तक़सीम हो गये थे। क़ौम का एक बड़ा हिस्सा वो था जो इस गुनाह में बिल्कुल शरीक नहीं हुआ। दूसरे गिरोह में वो लोग थे जो कुछ देर के लिये इस गुनाह में शरीक हुए, लेकिन फ़ौरन उन्हें अहसास हो गया कि उनसे गलती हो गई है। तीसरा गिरोह हज़रत मूसा अलै. की वापसी तक इस शिर्क पर अड़ा रहा। यहाँ दरमियानी गिरोह के लोगों का ज़िक्र है कि गलती के बाद वो नादिम हुए और उन्हें समझ आ गई कि वो गुमराही का इरतकाब कर बैठे हैं।

आयत 150
“और जब मूसा अलै. लौटे अपनी क़ौम की तरफ़ सख़्त ग़जबनाक होकर अफ़सोस में” وَلَمَّا رَجَعَ مُوْسٰٓي اِلٰى قَوْمِهٖ غَضْبَانَ اَسِفًا ۙ
غَضْبَان, رَحْمٰن की तरह فَعْلان के वज़न पर मुबालगे का सीगा है। यानि आप अलै. निहायत ग़जबनाक थे। हज़रत मूसा अलै. का मिज़ाज भी जलाली था और क़ौम के जुर्म और गुमराही की नौइयत भी बहुत शदीद थी। फिर अल्लाह तआला ने कोहे तूर पर ही बता दिया था कि तुम्हारी क़ौम फ़ितने में पड़ चुकी है लिहाज़ा उनका ग़म व गुस्सा और रंज व अफ़सोस बिल्कुल बेजा था।
“आपने फ़रमाया बहुत बुरी है मेरी नयाबत जो तुमने की है मेरे बाद।” قَالَ بِئْسَمَا خَلَفْتُمُوْنِيْ مِنْۢ بَعْدِيْ ۚ
यह ख़िताब हज़रत हारुन अलै. से भी हो सकता है और अपनी पूरी क़ौम से भी।
“क्या तुमने अपने रब के मामले में जल्दी की?” اَعَجِلْتُمْ اَمْرَ رَبِّكُمْ ۚ
यानि अगर सामरी ने फ़ितना खड़ा कर ही दिया था तो तुम लोग इस क़द्र जल्द बग़ैर सोचे-समझे उसके कहने में आ गये? कम से कम मेरे वापस आने का ही इन्तेज़ार कर लेते!
“और आप अलै. ने वह तख़्तियाँ (एक तरफ़) डाल दीं” وَاَلْقَى الْاَلْوَاحَ
कोहे तूर से जो तौरात की तख़्तियाँ लेकर आये थे वो अभी तक आप अलै. के हाथ में ही थीं, तो आपने उन तख़्तियों एक तरफ़ ज़मीन पर रख दिया।
“और (गुस्से में) अपने भाई के सर के बाल पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचने लगे।” وَاَخَذَ بِرَاْسِ اَخِيْهِ يَجُرُّهٗٓ اِلَيْهِ ۭ
हज़रत मूसा अलै. ने गुस्से में हज़रत हारून अलै. को सर के बालों से पकड़ कर अपनी तरफ़ खींचा और कहा कि मैं तुम्हें अपना ख़लीफ़ा बना कर गया था, मेरे पीछे तुमने यह क्या किया? तुमने क़ौम के लोगों को इस बछड़े की पूजा करने से रोकने की कोशिश क्यों नहीं की?
“(हारुन अलै. ने) कहा कि ऐ मेरे माँ जाय (मेरी माँ के बेटे / भाई), हक़ीक़त में क़ौम ने मुझे दबा लिया था और वो मेरे क़त्ल पर आमादा हो गये थे” قَالَ ابْنَ اُمَّ اِنَّ الْقَوْمَ اسْتَضْعَفُوْنِيْ وَكَادُوْا يَقْتُلُوْنَنِيْ ڮ
मैंने तो इन लोगों को ऐसा करने से मना किया था, लेकिन इन्होंने मुझे बिल्कुल बेबस कर दिया था। इस मामले में इन लोगों ने इस हद तक जसारत की थी कि वो मेरी जान के दर पे हो गये थे।
“तो (देखें अब) दुश्मनों को मुझ पर हँसने का मौक़ा ना दें।” فَلَا تُشْمِتْ بِيَ الْاَعْدَاۗءَ
“شماتتِ اَعداء” का मुहावरा हमारे यहाँ उर्दू में भी इस्तेमाल होता है, यानि किसी की तौहीन और बेईज्ज़ती पर उसके दुश्मनों का खुश होना और हँसना। हज़रत हारून ने हज़रत मूसा अलै. से दरख्वास्त की कि अब इस तरह मेरे बाल खींच कर आप दुश्मनों को मुझ पर हँसने का मौक़ा ना दें।
“और मुझे इन ज़ालिमों के साथ शामिल ना कीजिए।” وَلَا تَجْعَلْنِيْ مَعَ الْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ ١٥٠؁
आप मुझे इन ज़ालिमों के साथ शुमार ना कीजिए। मैं इस मामले में हरग़िज़ इनके साथ नहीं हूँ। मैं तो इन्हें इस हरकत से मना करता रहा था।

आयत 151
“(तब हज़रत मूसा अलै. ने दुआ करते हुए) कहा कि ऐ मेरे परवरदिग़ार! बख़्श दे मुझे भी और मेरे भाई को भी और हमें दाखिल फ़रमा अपनी रहमत में, और तू तमाम रहम करने वालों में सबसे बढ़ कर रहम फ़रमाने वाला है।” قَالَ رَبِّ اغْفِرْ لِيْ وَلِاَخِيْ وَاَدْخِلْنَا فِيْ رَحْمَتِكَ ڮ وَاَنْتَ اَرْحَمُ الرّٰحِمِيْنَ ١٥١؀ۧ
इस दुआ के जवाब में अल्लाह तआला की तरफ़ से इर्शाद हुआ:

आयत 152
“यक़ीनन जिन लोगों ने बछड़े को मअबूद बना लिया, अनक़रीब उनको पहुँचेगा गज़ब उनके रब की तरफ़ से और ज़िल्लत दुनिया की ज़िन्दगी में।” اِنَّ الَّذِيْنَ اتَّخَذُوا الْعِجْلَ سَيَنَالُهُمْ غَضَبٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَذِلَّةٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا
“ग़ज़ब” से आख़िरत का गज़ब भी मुराद है और क़त्ले मुर्तद की वह सज़ा भी जिसका ज़िक्र हम सूरतुल बक़रह की आयत 54 में पढ़ आए हैं।
“और इसी तरह हम बदला देते हैं बोहतान बाँधने वालों को।” وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُفْتَرِيْنَ ١٥٢؁

आयत 153
“अलबत्ता जिन लोगों ने (कुछ देर के लिये) बुरे काम किये फिर तौबा कर ली उसके बाद और ईमान ले आये, तो यक़ीनन उसके बाद आप अलै. का रब बख़्शने वाला और रहम फ़रमाने वाला है।” وَالَّذِيْنَ عَمِلُوا السَّيِّاٰتِ ثُمَّ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِهَا وَاٰمَنُوْٓا ۡ اِنَّ رَبَّكَ مِنْۢ بَعْدِهَا لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٥٣؁
वो लोग जिनसे इस गलती का इरतकाब तो हुआ मगर उन्होंने इससे तौबा करके अपने ईमान की तजदीद कर ली, ऐसे तमाम लोगों का मामला उस अल्लाह के सुपुर्द है जो बख्शने वाला और इंसानो पर रहम करने वाला है। अलबत्ता जो लोग उस जुर्म पर अड़े रहे उन पर आखिरत से पहले दुनिया की ज़िन्दगी में भी अल्लाह का गज़ब मुसल्लत हुआ। इसकी तफ़सील सूरतुल बक़रह की आयत 54 के तहत गुज़र चुकी है कि हज़रत मूसा अलै. ने हर क़बीले के मोमिनीन मुख्लिसीन को हुक्म दिया कि वो अपने-अपने क़बीले के उन मुजरिमीन को क़त्ल कर दें जिन्होंने गौसाला परस्ती का इरतकाब किया। सिर्फ़ वो लोग क़त्ल से बचे जिन्होंने तौबा कर ली थी। यह बिल्कुल ऐसे ही है जैसे सूरतुल मायदा में आयाते मुहारबा (आयात 33 और 34) में हमने पढ़ा कि अगर डाकू, राहज़न वग़ैरह मुल्क में फ़साद मचा रहे हों, लेकिन मुतालक़ा हुक्काम (हाकिम) के क़ाबू में आने से पहले वो तौबा कर लें तो ऐसी सूरत में उनके साथ नरमी का बर्ताव हो सकता है बल्कि उन्हें माफ़ भी किया जा सकता है, लेकिन अग़र उन्हें उसी बग़ावत की कैफ़ियत में गिरफ़्तार कर लिया जाये तो फिर उनकी सज़ा बहुत सख़्त है।

आयात 154 से 157 तक
وَلَمَّا سَكَتَ عَنْ مُّوْسَى الْغَضَبُ اَخَذَ الْاَلْوَاحَ ښ وَفِيْ نُسْخَتِهَا هُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّلَّذِيْنَ هُمْ لِرَبِّهِمْ يَرْهَبُوْنَ ١٥٤؁ وَاخْتَارَ مُوْسٰي قَوْمَهٗ سَبْعِيْنَ رَجُلًا لِّمِيْقَاتِنَا ۚ فَلَمَّآ اَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ قَالَ رَبِّ لَوْ شِئْتَ اَهْلَكْتَهُمْ مِّنْ قَبْلُ وَاِيَّايَ ۭاَتُهْلِكُنَا بِمَا فَعَلَ السُّفَهَاۗءُ مِنَّا ۚ اِنْ هِىَ اِلَّا فِتْنَتُكَ ۭ تُضِلُّ بِهَا مَنْ تَشَاۗءُ وَتَهْدِيْ مَنْ تَشَاۗءُ اَنْتَ وَلِيُّنَا فَاغْفِرْ لَنَا وَارْحَمْنَا وَاَنْتَ خَيْرُ الْغٰفِرِيْنَ ١٥٥؁ وَاكْتُبْ لَنَا فِيْ هٰذِهِ الدُّنْيَا حَسَـنَةً وَّفِي الْاٰخِرَةِ اِنَّا هُدْنَآ اِلَيْكَ ۭقَالَ عَذَابِيْٓ اُصِيْبُ بِهٖ مَنْ اَشَاۗءُ ۚ وَرَحْمَتِيْ وَسِعَتْ كُلَّ شَيْءٍ ۭ فَسَاَكْتُبُهَا لِلَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَالَّذِيْنَ هُمْ بِاٰيٰتِنَا يُؤْمِنُوْنَ ١٥٦؀ۚ اَلَّذِيْنَ يَتَّبِعُوْنَ الرَّسُوْلَ النَّبِيَّ الْاُمِّيَّ الَّذِيْ يَجِدُوْنَهٗ مَكْتُوْبًا عِنْدَهُمْ فِي التَّوْرٰىةِ وَالْاِنْجِيْلِ ۡ يَاْمُرُهُمْ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهٰىهُمْ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُحِلُّ لَهُمُ الطَّيِّبٰتِ وَيُحَرِّمُ عَلَيْهِمُ الْخَـبٰۗىِٕثَ وَيَضَعُ عَنْهُمْ اِصْرَهُمْ وَالْاَغْلٰلَ الَّتِيْ كَانَتْ عَلَيْهِمْ ۭفَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِهٖ وَعَزَّرُوْهُ وَنَصَرُوْهُ وَاتَّبَعُوا النُّوْرَ الَّذِيْٓ اُنْزِلَ مَعَهٗٓ ۙ اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ ١٥٧؀ۧ
आयत 154
“और जब मूसा अलै. का गुस्सा कुछ ठंडा पड़ा तो उन्होंने वो तख़्तियाँ उठा लीं, और उसकी तहरीर में थी रहमत और हिदायत उन लोगों के लिये जो अपने रब से डरते हैं।” وَلَمَّا سَكَتَ عَنْ مُّوْسَى الْغَضَبُ اَخَذَ الْاَلْوَاحَ ښ وَفِيْ نُسْخَتِهَا هُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّلَّذِيْنَ هُمْ لِرَبِّهِمْ يَرْهَبُوْنَ ١٥٤؁
आयत 155
“और इन्तख़ाब किया मूसा अलै. ने अपनी क़ौम से सत्तर अफ़राद का हमारे वक़्ते मुक़र्ररा के लिये।” وَاخْتَارَ مُوْسٰي قَوْمَهٗ سَبْعِيْنَ رَجُلًا لِّمِيْقَاتِنَا ۚ
वो लोग जो आख़री वक़्त तक इस मुशरिकाना फ़अल पर क़ायम रहे उन्हें क़त्ल कर दिया गया। अब इस ततहीर (purge) के बाद इज्तमाई तौबा का मरहला था, जिसके लिये हज़रत मूसा अलै. के हुक्म के मुताबिक़ अपनी क़ौम के सत्तर (70) सरकर्दा अफ़राद को साथ लेकर कोहे तूर पर हाज़री के लिये रवाना हो गये।
“फिर उन्हें आ पकड़ा ज़लज़ले ने” فَلَمَّآ اَخَذَتْهُمُ الرَّجْفَةُ
कोहे तूर पर या उसके मज़ाफ़ात में उन लोगों के लिये जिस्मानी कपकपी या ज़मीनी ज़लजले जैसी ख़ौफनाक कैफ़ियत पैदा कर दी गई।
“(मूसा अलै. ने) अर्ज़ किया कि ऐ परवरदिग़ार! अगर तू चाहता तो हलाक कर देता पहले ही इन सबको भी और मुझे भी।” قَالَ رَبِّ لَوْ شِئْتَ اَهْلَكْتَهُمْ مِّنْ قَبْلُ وَاِيَّايَ ۭ
“तो क्या तू हमें हलाक कर देगा हममें से कुछ बेवक़ूफ़ लोगों की हरकत की वजह से?” اَتُهْلِكُنَا بِمَا فَعَلَ السُّفَهَاۗءُ مِنَّا ۚ
क़ौम के कुछ जाहिल लोगों ने जो हरकत की थी उन्हें उसकी सज़ा भी मिल गई है। हमने इतना बड़ा कफ्फ़ारा दे दिया है कि उन्हें अपने हाथों से क़त्ल भी कर दिया है। तो क्या उनकी वजह से तू पूरी क़ौम को हलाक कर देगा?
“मग़र यह तेरी तरफ़ से एक आज़माईश है, तू गुमराह करता है इसके ज़रिये से जिसको चाहता है और हिदायत देता है जिसको चाहता है।” اِنْ هِىَ اِلَّا فِتْنَتُكَ ۭ تُضِلُّ بِهَا مَنْ تَشَاۗءُ وَتَهْدِيْ مَنْ تَشَاۗءُ
“तू हमारा पुश्त पनाह है, पस हमें बख्श दे और हम पर रहम फ़रमा और यक़ीनन तमाम बख़्शने वालों में तू सबसे बेहतर बख्शने वाला है।” اَنْتَ وَلِيُّنَا فَاغْفِرْ لَنَا وَارْحَمْنَا وَاَنْتَ خَيْرُ الْغٰفِرِيْنَ ١٥٥؁
आयत 156
“और तू हमारे लिये इस दुनिया (की ज़िन्दगी) में भी भलाई लिख दे और आख़िरत में भी” وَاكْتُبْ لَنَا فِيْ هٰذِهِ الدُّنْيَا حَسَـنَةً وَّفِي الْاٰخِرَةِ
हज़रत मूसा अलै. ने अपनी क़ौम के लिये जो दुआ की, यह वही अल्फ़ाज़ हैं जो सूरतुल बक़रह (आयत 201) में मुसलमानों को सिखाए गये हैं: {رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَّفِي الْاٰخِرَةِ حَسَـنَةً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ}
“हम तेरी जनाब में रुजूअ करते हैं।” اِنَّا هُدْنَآ اِلَيْكَ ۭ
यानि हमसे जो ख़ता हो गई है उसका ऐतराफ़ करते हुए हम माफ़ी चाहते हैं।
“(अल्लाह ने) फ़रमाया कि मैं अज़ाब में मुब्तला करुँगा जिसको चाहूँगा, और मेरी रहमत हर शय पर छाई हुई है।” قَالَ عَذَابِيْٓ اُصِيْبُ بِهٖ مَنْ اَشَاۗءُ ۚ وَرَحْمَتِيْ وَسِعَتْ كُلَّ شَيْءٍ ۭ
यानि मेरी एक रहमत तो वह है जो हर शय के शामिल हाल है, हर शय पर मुहीत है। हर शय का वुजूद और बक़ा मेरी रहमत ही से मुमकिन है। यह पूरी कायनात और इसका तसल्सुल मेरी रहमत ही का मरहूने मिन्नत है। मेरी इस रहमते आम से मेरी तमाम मख़्लूक़ात हिस्सा पा रही हैं, लेकिन जहाँ तक मेरी रहमते ख़ास का ताल्लुक़ है जिसके लिये तुम लोग अभी सवाल कर रहे हो:
“तो उसे मैं लिख दूँगा उन लोगों के लिये जो तक़वा की रविश इख़्तियार करेंगे, ज़कात देते रहेंगे और जो लोग हमारी आयात पर पुख़्ता ईमान रखेंगे।” فَسَاَكْتُبُهَا لِلَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ وَيُؤْتُوْنَ الزَّكٰوةَ وَالَّذِيْنَ هُمْ بِاٰيٰتِنَا يُؤْمِنُوْنَ ١٥٦؀ۚ

आयत 157
“जो इत्तेबाअ करेंगे रसूले नबी उम्मी (ﷺ) का” اَلَّذِيْنَ يَتَّبِعُوْنَ الرَّسُوْلَ النَّبِيَّ الْاُمِّيَّ
यानि हमारे नबी उम्मी ﷺ का इत्तेबाअ करेंगे जिनको रसूल बना कर भेजा जायेगा। मुहम्मदे अरबी ﷺ ने दुनियावी ऐतबार से कोई तालीम हासिल नहीं की थी और ना आप ﷺ दुनियावी मैयार के मुताबिक़ पढ़ना-लिखना जानते थे। इस लिहाज़ से आप ﷺ भी उम्मी थे और जिन लोगों में आप ﷺ को मबऊस किया गया वो भी उम्मी थे, क्योंकि उन लोगों के पास इससे पहले कोई किताब थी ना कोई शरीयत।
“जिसे पायेंगे वो लिखा हुआ अपने पास तौरात और इंजील में” الَّذِيْ يَجِدُوْنَهٗ مَكْتُوْبًا عِنْدَهُمْ فِي التَّوْرٰىةِ وَالْاِنْجِيْلِ ۡ
यानि आख़री नबी ﷺ के बारे में पेशनगोईयाँ, आप ﷺ के हालात, और आप ﷺ के बारे में वाज़ेह अलामात उनको तौरात और इंजील दोनों में मिलेंगी।
“वो उन्हें नेकी का हुक्म देंगे, तमाम बुराईयों से रोकेंगे और उनके लिये तमाम पाक चीज़ें हलाल कर देंगे” يَاْمُرُهُمْ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهٰىهُمْ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُحِلُّ لَهُمُ الطَّيِّبٰتِ
बनी इस्राईल पर कुछ चीज़ें उनकी शरारतों की वजह से भी हराम कर दी गई थीं, जैसा कि सूरह निसा (आयत 160) में हम पढ़ आए हैं। इसलिये फ़रमाया कि नबी उम्मी ﷺ उन पर से ऐसी तमाम बंदिशें उठा देंगे और तमाम पाकीज़ा चीज़ों को उनके लिये हलाल कर देंगे।
“और हराम कर देंगे उन पर नापाक चीज़ों को, और उनसे उतार देंगे उनके बोझ और तौक़ जो उन (की गर्दनों) पर पड़े होंगे।” وَيُحَرِّمُ عَلَيْهِمُ الْخَـبٰۗىِٕثَ وَيَضَعُ عَنْهُمْ اِصْرَهُمْ وَالْاَغْلٰلَ الَّتِيْ كَانَتْ عَلَيْهِمْ ۭ
यह बोझ और तौक़ वो बेजा और ख़ुद साख़्ता पाबंदियाँ और रसुमात भी हैं जो मआशरे के अंदर किसी ख़ास तबक़े के मफ़ादात या नमूद व नुमाईश की ख्वाहिश की वजह से रिवाज पाती हैं, बाद में गरीब लोगों को इन्हें निभाना पड़ता है और फिर एक वक़्त आता है जब उनकी वजह से एक आम आदमी की ज़िन्दगी इन्तहाई मुश्किल हो जाती है। इसके अलावा मआशरे की बुलंद तरीन सतह पर भी बड़ी-बड़ी क़बाहतें और लानतें जन्म लेतीं हैं जिनके बोझ तले मुख़्तलिफ़ अक़वाम बुरी तरह पिस जाती हैं। मसलन बादशाहत का जबर, जागीरदारी का इस्तेहसाली निज़ाम, सियासी व मआशी गुलामी, रंग व नस्ल की बुनियाद पर इंसानियत में तफ़रीक़ वगैरह। तो इस आयत में बशारत दी जा रही है कि नबी आखिरुज्ज़ान ﷺ आएँगे और इंसानियत को ग़लत रसुमात, ख़ुदसाख़्ता अक़ाइद और निज़ाम हाय बातिला के बोझों से निजात दिला कर अदल और क़िस्त का निज़ाम क़ायम करेंगे।
इसके बाद हुज़ूर ﷺ के साथ ताल्लुक़ की शर्तें मज़कूर हैं जिनमें से हर शर्त पर ग़ौर करने की ज़रूरत है। इस मौज़ूअ को तफ़सीली तौर पर समझने के लिये मेरे किताबचे बाउन्वान: “नबी अकरम ﷺ से हमारे ताल्लुक़ की बुनियादें” का मुताअला मुफ़ीद रहेगा।
“तो जो लोग आप ﷺ पर ईमान लायेंगे” فَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِهٖ
यह पहली और बुनियादी शर्त है। आप ﷺ पर ईमान लाने के दो बुनियादी तक़ाज़े हैं, पहला तक़ाजा है आप ﷺ की इताअत और दूसरा तक़ाजा है आप ﷺ की मुहब्बत। इन दोनों तक़ाज़ों के बारे में दो अहादीस मुलाहिज़ा कीजिए। पहली हदीस के रावी हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन अल्आस रज़िअल्लाहु अन्हुमा हैं। वह कहते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया: ((لَا یُؤْمِنُ اَحَدُکُمْ حَتّٰی یَکُوْنَ ھَوَاہُ تَبَعًا لِمَا جِئْتُ بِہٖ))(10) “तुम में से कोई शख़्स मोमिन नहीं है जब तक कि उसकी ख़्वाहिशे नफ़्स ताबेअ ना हो जाये उस चीज़ के जो मैं (ﷺ) लेकर आया हूँ।” यानि जो अहकाम और शरीअत हुज़ूर ﷺ लेकर तशरीफ़ लाये हैं, अगर कोई शख़्स ईमान रखता है कि यह अल्लाह की तरफ़ से है तो इस सब कुछ को तस्लीम करके इस पर अमल करना होगा। दूसरी हदीस मुत्तफ़क़ अलैह है और उसके रावी हज़रत अनस बिन मालिक रज़ि. हैं। वह रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ((لَا یُؤمِنُ اَحَدُکُمْ حَتّٰی اَکُوْنَ اَحَبَّ اِلَیْہِ مِنْ وَّالِدِہٖ وَوَلَدِہٖ وَالنَّاسِ اَجْمَعِیْنَ))(11) “तुम में से कोई शख़्स मोमिन नहीं हो सकता जब तक कि मैं उस महबूबतर ना हो जाऊँ उसके बाप, बेटे और तमाम इंसानों से। चुनाँचे यह दोनों तक़ाज़े पूरे होंगे तो आप ﷺ पर ईमान का दावा हक़ीकत बनेगा। एक ग़ायत दर्जा में आप ﷺ का इत्तेबाअ और इताअत, दूसरे ग़ायत दर्जे में आप ﷺ की मुहब्बत।
“और आप (ﷺ) की ताज़ीम करेंगे और आपकी मदद करेंगे” وَعَزَّرُوْهُ وَنَصَرُوْهُ
जब मज़कूरा बाला दो तक़ाज़े पूरे होंगे तो उनके लाज़िमी नतीजे के तौर पर दिलों में रसूल अल्लाह ﷺ की ताज़ीम पैदा होगी, आप ﷺ की अज़मत दिलों पर राज करेगी। जब और जहाँ आप ﷺ का नाम मुबारक सुनाई देगा बेसाख़्ता ज़बान पर दरूदो सलाम आ जायेगा। आप ﷺ का फ़रमान सामने आने पर मन्तिक़ व दलीलों का सहारा छोड़ कर सरे तस्लीम ख़म कर दिया जायेगा। हुज़ूर ﷺ के अदब व अहतराम के सिलसिले में यह उसूल ज़हन नशीन कर लीजिए कि अग़र कहीं किसी मसले पर बहस हो रही हो, दोनों तरफ़ दलाइल को दलाइल काट रहे हों और ऐसे में अगर कोई कह दे कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इस ज़िमन में यूँ फ़रमाया है तो हदीस के सुनते ही फ़ौरन ज़बान बंद हो जानी चाहिये। एक मुसलमान को ज़ेब नहीं देता कि वह आप ﷺ का फ़रमान सुन लेने के बाद भी किसी मामले में रायज़नी करे। बाद में तहक़ीक़ की जा सकती है कि आप ﷺ से मन्सूब करके जो फ़रमान सुनाया गया है दरहक़ीक़त वह हदीस है भी या नहीं और अग़र हदीस है तो रिवायत है व दरायत के ऐतबार से उसका क्या मक़ाम है। हदीस सही है या ज़ईफ़! यह सब बाद की बाते हैं, लेकिन हदीस सुन कर वक़्ती तौर पर चुप हो जाना और सरे तस्लीम ख़म कर देना आप ﷺ के अदब का तक़ाज़ा है।
“وَنَصَرُوْهُ” के ज़िमन में यह नुक्ता अहम है कि नबी अकरम ﷺ को किस काम में मदद दरकार है? क्या आप ﷺ को अपने किसी ज़ाती काम के लिये मदद चाहिये? आप ﷺ ने कोई ज़ाती सल्तनत व हुकूमत तो क़ायम नहीं की, जिसके क़याम व इस्तहकाम के लिये आप ﷺ को मदद की ज़रुरत होती। आप ﷺ की कोई ज़ाती जागीर या जायदाद भी नहीं थी, जिसको सम्भालने के लिये आप ﷺ को मदद दरकार होती। दरअसल आप ﷺ को अपने उस मिशन की तकमील के लिये मदद चाहिये थी जिसके लिये आप ﷺ भेजे गये थे और वह था ग़लबा-ए-हक़ और अक़ामते दीन: (सूरतुस्सफ़ 9) { هُوَ الَّذِيْٓ اَرْسَلَ رَسُوْلَهٗ بِالْهُدٰى وَدِيْنِ الْحَقِّ لِيُظْهِرَهٗ عَلَي الدِّيْنِ كُلِّهٖ ۙ } दीने हक़ के ग़लबे के लिये की जाने वाली जाँ कसल जद्दो-जहद में आप ﷺ को मददगारों की ज़रुरत थी और उसके लिये आप ﷺ की तरफ़ से “مِنْ اَنْصَارِیْ اِلَی اللہِ؟” की सिला-ए-आम थी, कि मुझे अल्लाह का दीन ग़ालिब करना है, यह मेरा फ़र्ज़े मन्सबी है, कौन है जो इस काम में मेरा हाथ बटाये और मेरा मददगार बने? चुनाँचे आप ﷺ ने अपनी मेहनत, सहाबा किराम रज़ि. की क़ुर्बानियों और अल्लाह की नुसरत से जज़ीरा नुमाए अरब में दीन को गालिब करके अपने मिशन की तकमील कर दी। आप ﷺ के बाद कुछ अरसा दीन ग़ालिब रहा, फिर मग़लूब हो गया और आज तक मग़लूब है। आज दुनिया में कहीं भी दीन गा़लिब नहीं है। लिहाज़ा अब दीन को सारी दुनिया में ग़ालिब करना उम्मत की ज़िम्मेदारी है। इस ज़िम्मेदारी के हवाले से आप ﷺ का मिशन आज भी ज़िन्दा है, यह मैदान अब भी ख़ुला है। आज भी हुज़ूर ﷺ को हमारी मदद की ज़रूरत है। {يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُوْنُوْٓا اَنْصَارَ اللّٰهِ} (अस्सफ़ 14) का क़ुरानी हुक्म आज भी हमें पुकार रहा है।
“और पैरवी करेंगे उस नूर की जो आप ﷺ के साथ नाज़िल किया जायेगा” وَاتَّبَعُوا النُّوْرَ الَّذِيْٓ اُنْزِلَ مَعَهٗٓ ۙ
यह गोया उस कठिन मिशन की तकमील का रास्ता बताया गया है। दीन के ग़लबे की तकमील क़ुरान के ज़रिये से होगी, यानि तज़कीर बिल् क़ुरान, तबशीर बिल् क़ुरान, तब्लीग़ बिल् क़ुरान, इन्ज़ार बिल् क़ुरान, तालीम बिल् क़ुरान वग़ैरह। जैसे मुहम्मदे अरबी ﷺ ने क़ुरान के ज़रिये से लोगों का तज़किया किया: { يَتْلُوْا عَلَيْهِمْ اٰيٰتِهٖ وَيُزَكِّيْهِمْ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ } (अल् जुमा 2) इस तरह आज भी ज़रुरत है कि क़ुरान के ज़रिये से लोगों को तरग़ीब दी जाये, उनके दिलों की सफ़ाई की जाये, उन्हें जहालत के अंधेरों से हिदायत के उजाले की तरफ़ लाया जाये, तारीक दिलों के अंदर ईमान की शमाएँ रोशन की जाये। फिर उन लोगों को एक मिशन पर इकठ्ठा किया जाये, उन्हें मुनज़्ज़म किया जाये, उनमें मंज़िल की तड़प पैदा की जाये और फिर बातिल से टकरा कर उसको पाश-पाश कर दिया जाये। यह है आप ﷺ की मदद करने का सही तरीक़ा, और यह है उस नूर (क़ुरान) की पैरवी करने का मारूफ़ रास्ता। और जो लोग इस रास्ते पर चलेंगे उनके बारे में फ़रमाया:
“वही लोग होंगे फ़लाह पाने वाले।” اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْمُفْلِحُوْنَ ١٥٧؀ۧ

आयात 158 से 162 तक
قُلْ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اِنِّىْ رَسُوْلُ اللّٰهِ اِلَيْكُمْ جَمِيْعَۨا الَّذِيْ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ ۠ فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهِ النَّبِيِّ الْاُمِّيِّ الَّذِيْ يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَكَلِمٰتِهٖ وَاتَّبِعُوْهُ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ ١٥٨؁ وَمِنْ قَوْمِ مُوْسٰٓي اُمَّةٌ يَّهْدُوْنَ بِالْحَقِّ وَبِهٖ يَعْدِلُوْنَ ١٥٩؁ وَقَطَّعْنٰهُمُ اثْنَتَيْ عَشْرَةَ اَسْبَاطًا اُمَمًا ۭوَاَوْحَيْنَآ اِلٰي مُوْسٰٓي اِذِ اسْتَسْقٰىهُ قَوْمُهٗٓ اَنِ اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ ۚ فَانْۢبَجَسَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا ۭقَدْ عَلِمَ كُلُّ اُنَاسٍ مَّشْرَبَهُمْ ۭوَظَلَّلْنَا عَلَيْهِمُ الْغَمَامَ وَاَنْزَلْنَا عَلَيْهِمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوٰى ۭكُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ ۭوَمَا ظَلَمُوْنَا وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ ١٦٠؁ وَاِذْ قِيْلَ لَهُمُ اسْكُنُوْا هٰذِهِ الْقَرْيَةَ وَكُلُوْا مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ وَقُوْلُوْا حِطَّةٌ وَّادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطِيْۗـــٰٔــتِكُمْ ۭسَنَزِيْدُ الْمُحْسِنِيْنَ ١٦١؁ فَبَدَّلَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْهُمْ قَوْلًا غَيْرَ الَّذِيْ قِيْلَ لَهُمْ فَاَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۗءِ بِمَا كَانُوْا يَظْلِمُوْنَ ١٦٢؀ۧ

अब अगली आयत का मुताअला करने से पहले दो बातें अच्छी तरह समझ लीजिए। एक तो गुज़िश्ता आयात के मज़मून का इस आयत के साथ रब्त का मामला है। इस रब्त को यूँ समझना चाहिये कि हज़रत मूसा अलै. के ज़िक्र के बाद अन्बाअ अर्रुसुल के इस सिलसिले को नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ की बेअसत तक लाने में बहुत तफ़सील दरकार थी। उस तफ़सील को छोड़ कर अब बराहे रास्त आप ﷺ को मुख़ातिब करके फ़रमाया जा रहा है कि आप ﷺ लोगों को बता दें कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ तमाम बनी नौए इंसान की तरफ़। चुनाँचे पिछली आयात में हज़रत मूसा अलै. के ज़िक्र और तौरात व इंजील में नबी आखिरुज्ज़मान के बारे में बशारतों के हवाले से इस आयत का सयाक़ व सबाक़ गोया यूँ होगा कि ऐ मुहम्मद ﷺ अब आप अलल ऐलान कह दीजिए कि मैं ही वह रसूल हूँ जिसका ज़िक्र था तौरात और इंजील में, मुझ पर ही ईमान लाने की ताकीद हुई थी मूसा अलै. के पैरोकारों को, मेरी ही दावत पर लब्बैक कहने वालों के लिये वादा है अल्लाह की खुसूसी रहमत का, और मेरी नुसरत और इताअत का हक़ अदा करने वालों को ज़मानत मिलेगी अबदी व उख़रवी फ़लाह की!
दूसरी अहम बात यहाँ यह नोट करने की है कि इस सूरत में हमने अब तक जितने रसूलों का तज़किरा पढ़ा है, उनका ख़िताब “या क़ौमी” (ऐ मेरी क़ौम के लोगों!) के अल्फ़ाज़ से शुरू होता था, मगर मुहम्मदे अरबी ﷺ की यह इम्तियाज़ी शान है कि आप ﷺ किसी मख़्सूस क़ौम की तरफ़ मबऊस नहीं हुए बल्कि आप ﷺ की रिसालत आफ़ाक़ी और आलमी सतह की रिसालत है और आप ﷺ पूरी बनी नौए इंसानी की तरफ़ रसूल बना कर भेजा गये हैं। सूरतुल बक़रह की आयत 21 में “इबादते रब” का हुक्म जिस आफ़ाक़ी अंदाज़ में दिया गया है इसमें भी इसी हक़ीक़त की झलक नज़र आती है: {يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوْا رَبَّكُمُ الَّذِىْ خَلَقَكُمْ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ} इस पसमंज़र को समझ लेने के बाद अब हम इस आयत का मुताअला करते हैं:

आयत 158
“(ऐ नबी ﷺ!) कह दीजिए ऐ लोगों! मैं अल्लाह का रसूल हूँ तुम सबकी तरफ़” قُلْ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اِنِّىْ رَسُوْلُ اللّٰهِ اِلَيْكُمْ جَمِيْعَۨا
यह बात मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ और मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में क़ुरान हकीम के पाँच मक़ामात पर दोहराई गई है कि नबी अकरम ﷺ की बेअसत पूरी नौए इंसानी के लिये है। उनमें सूरह सबा की आयत नम्बर 28 सबसे नुमाया है: {وَمَآ اَرْسَلْنٰكَ اِلَّا كَاۗفَّةً لِّلنَّاسِ بَشِيْرًا وَّنَذِيْرًا} “हमने नहीं भेजा है (ऐ मुहम्मद ﷺ) आपको मगर पूरी नौए इंसानी के लिये बशीर और नज़ीर बना कर।”
“(उस अल्लाह का) जिसके लिये आसमानों और ज़मीन की बादशाही है, उसके सिवा कोई मअबूद नहीं, वही ज़िन्दा रखता है और वही मौत वारिद करता है।” الَّذِيْ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ ۠
“तो ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर जो नबी-ए-उम्मी है, जो ईमान रखता है अल्लाह पर और उसके सब कलामों पर, और उसकी पैरवी करो ताकि तुम हिदायत पाओ।” فَاٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهِ النَّبِيِّ الْاُمِّيِّ الَّذِيْ يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَكَلِمٰتِهٖ وَاتَّبِعُوْهُ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ ١٥٨؁
यह गोया ऐलाने आम है मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की तरफ़ से कि मेरी बेअसत उस वादे के मुताबिक़ हुई है जो अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलै. से किया था, हज़रत मूसा अलै. के ज़िक्र के बाद की यह आयात गोया उस ख़िताब की तम्हीद (प्रस्तावना) है जो यहूदे मदीना से होने वाला था। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि यह सूरत हिजरत से क़ब्ल नाज़िल हुई थी और इसके नुज़ूल के फ़ौरन बाद हिजरत का हुक्म आने को था, जिसके बाद दावत के सिलसिले में हुज़ूर ﷺ का मदीने के यहूदी क़बाइल से बराहे रास्त साबक़ा पेश आना वाला था। मक्की क़ुरान में अभी तक यहूद से बराहे रास्त ख़िताब नहीं हुआ था, अभी तक या तो अहले मक्का मुख़ातिब थे या हुज़ूर ﷺ या फिर आप ﷺ की वसातत से अहले ईमान। लेकिन अब अंदाज़े बयान में जो तब्दीली आ रही है उसका असल महल हिजरत के बाद का माहौल था।

आयत 159
“और मूसा अलै. की क़ौम में एक जमाअत ऐसे लोगों की भी थी जो हक़ की हिदायत देते थे और हक़ ही के साथ अदल व इंसाफ़ भी करते थे।” وَمِنْ قَوْمِ مُوْسٰٓي اُمَّةٌ يَّهْدُوْنَ بِالْحَقِّ وَبِهٖ يَعْدِلُوْنَ ١٥٩؁
अग़रचे हज़रत मूसा अलै. की क़ौम की अक्सरियत नाफ़रमानों पर मुश्तमिल थी मगर आप अलै. के पैरोकारों में हक़परस्त और इंसाफ पसंद अफ़राद भी मौजूद थे जो लोगों को हक़ बात की तल्क़ीन करते थे और उनके फ़ैसले भी अदल व इंसाफ पर मब्नी होते थे।

आयत 160
“और हमने उनको अलैहदा-अलैहदा कर दिया बारह क़बीलों की जमाअतों में।” وَقَطَّعْنٰهُمُ اثْنَتَيْ عَشْرَةَ اَسْبَاطًا اُمَمًا ۭ
उनकी नस्ल हज़रत याक़ूब अलै. के बारह बेटों से चली थी। अल्लाह तआला ने इसी लिहाज़ से उनमें एक मज़बूत क़बाइली निज़ाम को क़ायम रखा। हर बेटे की औलाद से एक क़बीला वजूद में आया और यह अलग-अलग बारह जमाअतें बन गयीं।
“और हमने वही की मूसा अलै. की तरफ़, जब पानी तलब किया आप अलै. से आपकी क़ौम ने, कि अपनी लाठी से चट्टान पर ज़र्ब (चोट) लगाइये।” وَاَوْحَيْنَآ اِلٰي مُوْسٰٓي اِذِ اسْتَسْقٰىهُ قَوْمُهٗٓ اَنِ اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ ۚ
“पस उसमें से बारह चश्में फूट पड़े, तो हर क़बीले ने जान लिया अपने-अपने घाट को।” فَانْۢبَجَسَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا ۭقَدْ عَلِمَ كُلُّ اُنَاسٍ مَّشْرَبَهُمْ ۭ
मशरब इस्मे ज़र्फ़ है, यानि पानी पीने की जगह। हर क़बीले ने अपना घाट मुअय्यन कर लिया ताकि पानी की तक़सीम में किसी क़िस्म का कोई तनाज़ाअ (विवाद) जन्म ना ले।
“और हमने उनके ऊपर बादल का सायबान बनाए रखा, और उतारा हमनें उन पर मन व सलवा।” وَظَلَّلْنَا عَلَيْهِمُ الْغَمَامَ وَاَنْزَلْنَا عَلَيْهِمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوٰى ۭ
“(और उनसे कहा कि) खाओ उन पाकीज़ा चीज़ों में से जो हमने तुम्हें रिज़्क़ में दी हैं।” كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ ۭوَمَا
“और उन्होंने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा, बल्कि वो ख़ुद अपनी ही जानों पर ज़ुल्म करते रहे।” وَمَا ظَلَمُوْنَا وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَهُمْ يَظْلِمُوْنَ ١٦٠؁
वो अल्लाह का कुछ नुक़सान कर भी कैसे सकते थे। अल्लाह का क्या बिगाड़ सकते थे? एक हदीसे क़ुदसी का मफ़हूम इस तरह से है:
“ऐ मेरे बंदों, अग़र तुम्हारे अव्वलीन भी और आखरीन भी, इंसान भी और जिन्न भी, सबके सब इतने मुत्तक़ी हो जायें जितना कि तुम में कोई बड़े से बड़ा मुत्तक़ी हो सकता है, तब भी मेरी सल्तनत और मेरे कारखाना-ए-क़ुदरत में कोई ईज़ाफ़ा नहीं होगा— और अग़र तुम्हारे अव्वलीन व आखरीन और इन्स व जिन्न सब के सब ऐसे हो जायें जितना कि तुम में कोई ज़्यादा से ज़्यादा सरकश व नाफ़रमान हो सकता है, तब भी मेरी सल्तनत में कोई कमी नहीं आयेगी।”(12)

आयत 161
“और याद करो जब उनसे कहा गया था कि आबाद हो जाओ उस बस्ती में और उसमें से खाओ (पियो) जहाँ से भी चाहो” وَاِذْ قِيْلَ لَهُمُ اسْكُنُوْا هٰذِهِ الْقَرْيَةَ وَكُلُوْا مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ
उस शहर का नाम “अरीहा” था, जो आज भी जेरिको (Jericho) के नाम से मौजूद है। यह फ़लस्तीन का पहला शहर था जो बनी इस्राईल ने हज़रत मूसा अलै. के ख़लीफ़ा हज़रत यूशा बिन नून की सरकरदगी में बाक़ायदा जंग करके फ़तह किया था।
“और अस्तग़फ़ार करते रहो, और शहर के दरवाज़े में सिर झुका कर दाख़िल होना” وَقُوْلُوْا حِطَّةٌ وَّادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا
उन्हें हुक्म दिया गया था कि जब शहर में दाख़िल हों तो “हित्ततुन” का विर्द करते हुए दाख़िल हों। इस लफ़्ज़ के मायने अस्तग़फ़ार करने के हैं। यानि अल्लाह तआला से अपनी लगज़िशों और कोताहियों की माफ़ी माँगते हुए शहर में दाख़िल होने का हुक्म दिया गया था। इस ज़िमन में दूसरा हुक्म यह था कि जब तुम फ़ातेह की हैसियत से शहर के दरवाज़े से दाख़िल हो तो उस वक़्त अल्लाह तआला के हुज़ूर आजिज़ी इख़्तियार करते हुए सजदा-ए-शुक्र अदा करना। कहीं ऐसा ना हो कि उस वक़्त तकब्बुर से तुम्हारी गर्दनें अकड़ी हुई हों।
“हम तुम्हारी ख़ताएँ बख़्श देंगे, और हम मोहसिनीन को और भी ज़्यादा अता करेंगे।” نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطِيْۗـــٰٔــتِكُمْ ۭسَنَزِيْدُ الْمُحْسِنِيْنَ ١٦١؁
इस तरह से हम ना सिर्फ़ यह कि तुम्हारी ख़ताएँ, लगज़िशें और फ़रगोज़ाशतें माफ़ कर देंगे, बल्कि तुम में से मुख़्लिस और नेक लोगों को मज़ीद नवाज़ेंगे, उनके दर्जात बुलंद करेंगे और उनको ऊँचे-ऊँचे मर्तबे अता करेंगे।

आयत 162
“तो बदल दी उन लोगों ने जो उनमें से ज़ालिम थे इस बात के बजाय जो उनसे कही गई थी एक (दूसरी) बात” فَبَدَّلَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْهُمْ قَوْلًا غَيْرَ الَّذِيْ قِيْلَ لَهُمْ
यानि उनको हित्ततुन, हित्ततुन का विर्द करते हुए शहर में दाख़िल होने का हुक्म दिया था, जबकि उन्होंने इसके बजाय हिन्ततुन, हिन्ततुन कहना शुरू कर दिया, जिसका मतलब था कि हमें गेंहू चाहिये, हमें गेंहू चाहिये!
“तो हमने भेज दिया उन पर एक अज़ाब आसमान से बसबब उस ज़ुल्म के जो वो अपने ऊपर करते थे।” فَاَرْسَلْنَا عَلَيْهِمْ رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۗءِ بِمَا كَانُوْا يَظْلِمُوْنَ ١٦٢؀ۧ
जिन लोगों ने वह लफ़्ज़ बदलने की हरकत की थी उनमें ताऊन की बीमारी फूट पड़ी और सबके सब हलाक हो गये।

आयात 163 से 171 तक
وَسْــــَٔـلْهُمْ عَنِ الْقَرْيَةِ الَّتِيْ كَانَتْ حَاضِرَةَ الْبَحْرِ ۘاِذْ يَعْدُوْنَ فِي السَّبْتِ اِذْ تَاْتِيْهِمْ حِيْتَانُهُمْ يَوْمَ سَبْتِهِمْ شُرَّعًا وَّيَوْمَ لَا يَسْبِتُوْنَ ۙ لَا تَاْتِيْهِمْ ڔ كَذٰلِكَ ڔ نَبْلُوْهُمْ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ ١٦٣؁ وَاِذْ قَالَتْ اُمَّةٌ مِّنْهُمْ لِمَ تَعِظُوْنَ قَوْمَۨا اللّٰهُ مُهْلِكُهُمْ اَوْ مُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا شَدِيْدًا قَالُوْا مَعْذِرَةً اِلٰى رَبِّكُمْ وَلَعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ ١٦٤؁ فَلَمَّا نَسُوْا مَا ذُكِّرُوْا بِهٖٓ اَنْجَيْنَا الَّذِيْنَ يَنْهَوْنَ عَنِ السُّوْۗءِ وَاَخَذْنَا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا بِعَذَابٍۢ بَىِٕيْــسٍۢ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ ١٦٥؁ فَلَمَّا عَتَوْا عَنْ مَّا نُهُوْا عَنْهُ قُلْنَا لَهُمْ كُوْنُوْا قِرَدَةً خٰسِـِٕـيْنَ ١٦٦؁ وَاِذْ تَاَذَّنَ رَبُّكَ لَيَبْعَثَنَّ عَلَيْهِمْ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ مَنْ يَّسُوْمُهُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ ۭ اِنَّ رَبَّكَ لَسَرِيْعُ الْعِقَابِ ښ وَاِنَّهٗ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٦٧؁ وَقَطَّعْنٰهُمْ فِي الْاَرْضِ اُمَمًا ۚمِنْهُمُ الصّٰلِحُوْنَ وَمِنْهُمْ دُوْنَ ذٰلِكَ ۡ وَبَلَوْنٰهُمْ بِالْحَسَنٰتِ وَالسَّيِّاٰتِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ ١٦٨؁ فَخَلَفَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ خَلْفٌ وَّرِثُوا الْكِتٰبَ يَاْخُذُوْنَ عَرَضَ هٰذَا الْاَدْنٰى وَيَقُوْلُوْنَ سَيُغْفَرُ لَنَا ۚ وَاِنْ يَّاْتِهِمْ عَرَضٌ مِّثْلُهٗ يَاْخُذُوْهُ ۭ اَلَمْ يُؤْخَذْ عَلَيْهِمْ مِّيْثَاقُ الْكِتٰبِ اَنْ لَّا يَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّ وَدَرَسُوْا مَا فِيْهِ ۭوَالدَّارُ الْاٰخِرَةُ خَيْرٌ لِّلَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ ١٦٩؁ وَالَّذِيْنَ يُمَسِّكُوْنَ بِالْكِتٰبِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ ۭاِنَّا لَا نُضِيْعُ اَجْرَ الْمُصْلِحِيْنَ ١٧٠؁ وَاِذْ نَتَقْنَا الْجَبَلَ فَوْقَهُمْ كَاَنَّهٗ ظُلَّـةٌ وَّظَنُّوْٓا اَنَّهٗ وَاقِعٌۢ بِهِمْ ۚ خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاذْكُرُوْا مَا فِيْهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ ١٧١؀ۧ

आयत 163
“और इनसे ज़रा पूछिये उस बस्ती के बारे में जो साहिले समुन्द्र पर थी।” وَسْــــَٔـلْهُمْ عَنِ الْقَرْيَةِ الَّتِيْ كَانَتْ حَاضِرَةَ الْبَحْرِ ۘ
अब यह असहाबे सब्त का वाक़िया आ रहा है। अक्सर मुफ़स्सरीन का ख़्याल है कि यह बस्ती उस मक़ाम पर वाक़ेअ थी जहाँ आज-कल “ऐलात” की बंदरगाह है। 1966 ई० की अरब-इस्राईल जंग में मिस्र ने इसी बंदरगाह का घेराव किया था, जिसके ख़िलाफ़ इस्राईल ने शदीद रद्दे अमल का इज़हार करते हुए मिस्र, शाम और उरदन पर हमला करके उनके वसीअ इलाक़ों पर क़ब्ज़ा कर लिया था। मिस्र से जज़ीरा नुमाए सीना, शाम से जौलान की पहाड़ियाँ और उरदन से पूरा मग़रिबी किनारा, जो फ़लस्तीन के ज़रख़ेज़ तरीन इलाक़ा है, हथिया लिया था। बहरहाल ऐलात की इस बंदरगाह के इलाक़े में मछियारों की वह बस्ती आबाद थी जहाँ यह वाक़िया पेश आया।
“जबकि वो सब्त के क़ानून में हद से तजावुज़ करने लगे” اِذْ يَعْدُوْنَ فِي السَّبْتِ
“जबकि आती थीं उनकी मछलियाँ उनके पास हफ़्ते के दिन छलाँगे लगाती हुई” اِذْ تَاْتِيْهِمْ حِيْتَانُهُمْ يَوْمَ سَبْتِهِمْ شُرَّعًا
شُرَّع के मायने हैं सीधे उठाए हुए नेज़े। यहाँ यह लफ़्ज़ मछलियों के लिये आया है तो इससे मुँह उठाए हुए मछलियाँ मुराद हैं। किसी जगह मछलियों की बहुतात हो और वो बेख़ौफ़ होकर बहुत ज़्यादा तादाद में पानी की सतह पर उभरती हैं, छलाँगे लगाती हैं। इस तरह के मंज़र को यहाँ شُرَّعًا से तशबीह दी गई है। यानि की मछलियों की इस बेख़ौफ़ उछल-कूद का मंज़र ऐसे था जैसे कि नेज़े चल रहे हों। दरअसल तमाम हैवानात को अल्लाह तआला ने छठी हिस्स से नवाज़ रखा है। उन मछलियों को भी अंदाज़ा हो गया था कि हफ़्ते के दिन ख़ास तौर पर हमें कोई हाथ नहीं लगाता। इसलिये उस दिन वो बेखौफ़ होकर हुजूम की सूरत में अठखेलियाँ करती थीं, जबकि वो लोग जिनका पेशा ही मछलियाँ पकड़ना था वो उन मछलियों को बेबसी से देखते थे, उनके हाथ बँधे हुए थे, क्योंकि यहूद की शरीअत के मुताबिक़ हफ़्ते के दिन उनके लिये कारोबारे दुनियवी की मुमानियत थी।
“और जिस दिन सब्त नहीं होता था वो उनके क़रीब नहीं आती थीं” وَّيَوْمَ لَا يَسْبِتُوْنَ ۙ لَا تَاْتِيْهِمْ ڔ
हफ़्ते के बाक़ी छ: दिन मछलियाँ साहिल से दूर गहरे पानी में रहती थीं, जहाँ से वो उन्हें पकड़ नहीं सकती थे, क्योंकि उस ज़माने में अभी ऐसे जहाज़ और आलात वग़ैरह ईजाद नहीं हुए थे कि वो लोग गहरे पानी में जाकर मछली का शिकार कर सकते।
“इस तरह हम उन्हें आज़माते थे बवजह इसके कि वो नाफ़रमानी करते थे।” كَذٰلِكَ ڔ نَبْلُوْهُمْ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ ١٦٣؁
आए दिन की नाफ़रमानियों की वजह से उनको इस आज़माईश में डाला गया कि शरीअत के हुक्म पर क़ायम रहते हुए फ़ाक़े बर्दाश्त करते हैं या फिर नाफ़रमानी करते हुए शरीअत के साथ तमस्खर की सूरत निकाल लेते हैं। चुनाँचे उन्होंने दूसरा रास्ता इख़्तियार किया और उनमें से कुछ लोगों ने इस क़ानून में चोर दरवाज़ा निकाल लिया। वो हफ़्ते के रोज़ साहिल पर जाकर गड्ढ़े खोदते और नालियों के ज़रिये से उन्हें समुन्द्र से मिला देते। अब वो समुन्द्र का पानी उन गड्ढों में लेकर आते तो पानी के साथ मछलियाँ गड्ढों में आ जातीं और फिर वो उनकी वापसी का रास्ता बंद कर देते। अगले रोज़ इतवार को जाकर उन मछलियों को आसानी से पकड़ लेते और कहते कि हम हफ़्ते के रोज़ तो मछलियों को हाथ नहीं लगाते। इस तरह शरीअत के हुक्म के साथ उन्होंने यह मज़ाक किया कि इस हुक्म की असल रूह को मस्ख़ कर दिया। हुक्म की असल रूह तो यह थी कि छ: दिन दुनिया के काम करो और सातवाँ दिन अल्लाह की इबादत के लिये वक़्फ़ रखो, जबकि उन्होंने यह दिन भी गड्ढ़े खोदने, पानी खोलने और बंद करने में सर्फ़ करना शुरू कर दिया।
अब उस आबादी के लोग इस मामले में तीन गिरोहों में तक़सीम हो गये। एक गिरोह तो बराहे रास्त इस घिनौने कारोबार में मुलव्विस था। जबकि दूसरे गिरोह में वो लोग शामिल थे जो इस गुनाह में मुलव्विस तो नहीं थे मग़र गुनाह करने वालों को मना भी नहीं करते थे, बल्कि इस मामले में ये लोग ख़ामोश और ग़ैर जाँबदार रहे। तीसरा गिरोह उन लोगों पर मुश्तमिल था जो गुनाह से बचे भी रहे और पहले गिरोह के लोगों को उनकी हरकतों से मना करके बाक़ायदा नही अनिल मुन्कर का फ़रीज़ा भी अदा करते रहे। अब अगली आयत में दूसरे और तीसरे गिरोह के अफ़राद के दरमियान मकालमा नक़ल हुआ है। ग़ैरजाँबदार रहने वाले लोग नही अनिल मुन्कर का फ़रीज़ा अदा करने वाले लोगों से कहते थे कि यह अल्लाह के नाफ़रमान लोग तो तबाही से दो-चार होने वाले हैं, इन्हें समझाने और नसीहत करने का क्या फ़ायदा?

आयत 164
“और जब कहा एक गिरोह ने उनमें से कि क्यों नसीहत कर रहे हो उन लोगों को जिन्हें या तो अल्लाह हलाक करने वाला है या फिर उन्हें अज़ाब देने वाला है बहुत सख़्त अज़ाब।” وَاِذْ قَالَتْ اُمَّةٌ مِّنْهُمْ لِمَ تَعِظُوْنَ قَوْمَۨا اللّٰهُ مُهْلِكُهُمْ اَوْ مُعَذِّبُهُمْ عَذَابًا شَدِيْدًا
दूसरे गिरोह के लोग तीसरे गिरोह के लोगों से कहते कि तुम ख्वाह मख्वाह अपने आपको इन मुज़रिमों के लिये हल्कान कर रहे हो। अब यह लोग मानने वाले नहीं। अल्लाह का अज़ाब और तबाही इनका मुक़द्दर बन चुकी है।
“उन्होंने कहा कि तुम्हारे रब के यहाँ माज़रत पेश करने के लिये” قَالُوْا مَعْذِرَةً اِلٰى رَبِّكُمْ
तीसरे गिरोह के लोग जवाब देते कि इस तरह हम अल्लाह के सामने उज़र पेश कर सकेंगे कि ऐ परवरदिग़ार! हम आख़री वक़्त तक नाफ़रमान लोगों को उनकी ग़लत हरकतों से बाज़ रहने की हिदायत करते हुए, नही अनिल मुन्कर का फ़र्ज़ अदा करते रहे। हम ना सिर्फ़ ख़ुद इस गुनाह से बचे रहे बल्कि उन ज़ालिमों को ख़बरदार भी करते रहे कि वो अल्लाह के क़ानून के सिलसिले में हद से तज़ावुज ना करें।
“और शायद कि वो तक़वा इख़्तियार कर ही लें।” وَلَعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ ١٦٤؁
फिर इस बात का इम्कान भी बहरहाल मौजूद है कि हमारी नसीहत उन पर असर करे और इस तरह समझाने-बुझाने से किसी ना किसी के दिल के अन्दर ख़ुदा ख़ौफ़ी का जज़्बा पैदा हो ही जाये। जैसा कि हुज़ूर अकरम ﷺ ने हज़रत अली रज़िअल्लाहु अन्हु से ख़िताब करते हुए फ़रमाया था: ((لَاَنْ یَھْدِیَ اللّٰہُ بِکَ رَجُلاً وَاحِدًا خَیْرٌ لَکَ مِنْ اَنْ یَکُوْنَ لَکَ حُمْرُ النَّعَمِ))(13) “(ऐ अली रज़ि.) अगर अल्लाह तुम्हारे ज़रिये से एक शख़्स को भी हिदायत दे दे तो यह दौलत तुम्हारे लिये सुर्ख ऊँटों से बढ़ कर है।”

आयत 165
“फिर जब उन्होंने नज़र अंदाज़ कर दिया उस नसीहत को जो उन्हें की जा रही थी, तो हमने बचा लिया उनको जो बुराई से रोकते थे” فَلَمَّا نَسُوْا مَا ذُكِّرُوْا بِهٖٓ اَنْجَيْنَا الَّذِيْنَ يَنْهَوْنَ عَنِ السُّوْۗءِ
“और पकड़ लिया हमने उनको जो ज़ुल्म के मुरतकिब हुए थे बहुत ही बुरे अज़ाब में, उनकी नाफ़रमानी के सबब।” وَاَخَذْنَا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا بِعَذَابٍۢ بَىِٕيْــسٍۢ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ ١٦٥؁

आयत 166
“तो जब वो बहुत बढ़ गये उसमें जिससे उनको रोका गया था, तो हमने उनसे कह दिया कि जाओ ज़लील बंदर बन जाओ!” فَلَمَّا عَتَوْا عَنْ مَّا نُهُوْا عَنْهُ قُلْنَا لَهُمْ كُوْنُوْا قِرَدَةً خٰسِـِٕـيْنَ ١٦٦؁
आख़िरकार उन पर अज़ाब इस सूरत में आया कि उनकी इंसानी शक्लें मस्ख़ करके उन्हें बंदर बना दिया गया और फिर उन्हें हलाक कर दिया गया। यह उस वाक़िये की तफ़सील है जिसका इज्माली ज़िक्र सूरतुल बक़रह और सूरतुल मायदा में भी आ चुका है।
बाज़ लोगों का ख़्याल है कि यह अज़ाब उन गिरोहों में से सिर्फ़ उस गिरोह पर आया था जो गुनाह में बराहे रास्त मुलव्विस था। उनकी दलील यह है कि नही अनिल मुन्कर करने वाले लोगों के बारे में वाज़ेह तौर पर बता दिया गया: { اَنْجَيْنَا الَّذِيْنَ يَنْهَوْنَ عَنِ السُّوْۗءِ } कि हमने उनको बचा लिया जो बदी से रोक रहे थे और जो गुनाहगार थे उनके बारे में भी सराहत से बता दिया गया: { وَاَخَذْنَا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا بِعَذَابٍۢ بَىِٕيْــسٍۢ } कि हमने पकड़ लिया उन लोगों को जो गुनाह में मुलव्विस थे एक बहुत ही बुरे अज़ाब में। जबकि तीसरे गिरोह के बारे में सुकूत (ख़ामोशी) इख़्तियार किया गया है। इस तरह उन लोगों ने यह साबित करने की कोशिश की है कि अगर कोई शख़्स बराहेरास्त किसी गुनाह का इरतकाब करने से बचा रहता है तो फ़रीज़ा नही अनिल मुन्कर में कोताही होने की सूरत में भी वह दुनिया में उस गुनाह की पादाश में आने वाले अज़ाब से बच जायेगा। यह नज़रिया दरअसल बहुत बड़ी गलतफ़हमी पर मब्नी है और इसके पीछे वह इंसानी नफ़्सियात कारफ़रमा है जिसके तहत इन्सान ज़िम्मेदारी से फ़रार चाहता है और फिर उसके लिये दलील ढूँढता और बहाने तराश्ता है। इसी तरह की बात का तज़किरा सूरतुल मायदा की आयत 105 की तशरीह के ज़िमन में भी हो चुका है। इस आयत के हवाले से हज़रत अबु बकर सिद्दीक़ रज़ि. को खुसूसी ख़ुत्बा इर्शाद फ़रमाना पड़ा था कि लोगों! तुम { عَلَيْكُمْ اَنْفُسَكُمْ ۚلَا يَضُرُّكُمْ مَّنْ ضَلَّ اِذَا اهْتَدَيْتُمْ ۭ } का बिल्कुल ग़लत मफ़हूम समझ रहे हो। इसका यह हरग़िज़ मतलब नहीं कि दावत व तब्लीग़, अम्र बिल् मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर तुम्हारी ज़िम्मेदारी नहीं है, बल्कि इसका तो यह मतलब है कि तुम इस सिलसिले में अपनी पूरी कोशिश करो, अपना फ़र्ज़ अदा करो, लेकिन इसके बावजूद भी अगर लोग कुफ़्र या गुनाह पर अड़े रहें तो फिर उनका बवाल तुम पर नहीं होगा। यहाँ इस नुक्ते को अच्छी तरह समझ लीजिए कि नही अनिल मुन्कर नसे क़ुरानी के मुताबिक़ फ़र्ज़ की हैसियत रखता है। जिस माहौल में अल्लाह तआला के किसी वाज़ेह हुक्म की ख़ुल्म-खुल्ला खिलाफ़ वर्ज़ी हो रही हो तो उन हालात में गुनाह का इरतकाब करने वालों को ना रोकना, नही अनिल मुन्कर का फ़र्ज़ अदा ना करना, ब-ज़ाते खुद एक जुर्म है। लिहाजा इस वाक़िये में “الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا” के ज़ुमरे में वो लोग भी शामिल हैं जो अग़रचे बराहेरास्त तो गुनाह में मुलव्विस नहीं थे, लेकिन मुज़रिमों को गुनाह करते हुए देख कर ख़मोश थे। इस तरह ये लोग अल्लाह की नाफ़रमानी से लोगों को ना रोकने के जुर्म के मुरतकिब हो रहे थे। इस ज़िमन में नस्से क़तई के तौर पर एक हदीस क़ुदसी भी मौजूद है और एक बहुत वाज़ेह क़ुरानी हुक्म भी। पहले हदीस मुलाहिज़ा फ़रमाएँ, यह हदीस मौलाना अशरफ़ अली थानवी रहिमुल्लाह ने अपने मुरत्तब करदा ख़ुत्बात-ए-जुमा में शामिल की है। हज़रत जाबिर रज़िअल्लाहु अन्हु से रिवायत है कि रसूल ﷺ ने फ़रमाया:
))اَوْحَی اللّٰہُ عَزَّوَجَلَّ اِلٰی جِبْرِیْلَ عَلَیْہِ السَّلاَمُ اَنِ اقْلِبْ مَدِیْنَۃَ کَذَا وَکَذَا بِاَھْلِھَا۔ قَالَ : یَا رَبِّ اِنَّ فِیْھِمْ عَبْدَکَ فُلاَناً لَمْ یَعْصِکَ طَرْفَۃَ عَیْنٍ ) قَالَ : (فَقَالَ : اِقْلِبْھَا عَلَیْہِ وَ عَلَیْہِمْ ‘ فَاِنَّ وَجْھَہٗ لَمْ یَتَعَمَّرْ فِیَّ سَاعَۃً قَطُّ (14)((
“अल्लाह तआला ने जिब्रील अलै. को वही की कि फलाँ-फलाँ शहर को उसके वासियों पर उलट दो। जिब्रील अलै. ने अर्ज़ किया कि परवरदिगार, उसमें तो तेरा फलाँ बंदा भी है जिसने कभी पलक झपकने की देर भी तेरी माअसियत में नहीं गुज़ारी।” हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया: “(इस पर) अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि उल्टो इस बस्ती को पहले उस पर और फिर दूसरों पर, इसलिये कि उसके चेहरे का रंग कभी एक लम्हे के लिये भी मेरी ग़ैरत की वजह से मुतगय्युर नहीं हुआ।”
यानि उसके सामने मेरे अहकाम पामाल होते रहे, शरीअत की धज्जियाँ बिखरती रहीं और यह अपनी ज़ाती परहेज़गारी को संभाल कर ज़िक्र-अज़कार, नवाफ़िल और मुराक़बों में मशरूफ़ रहा। यह दूसरों से बढ़ कर मुज़रिम है। अब इस सिलसिले में निस्से क़ुरानी के तौर पर सूरतुल अन्फ़ाल की आयत नम्बर 25 का यह वाज़ेह हुक्म भी मुलाहिज़ा कर लीजिए: { وَاتَّقُوْا فِتْنَةً لَّا تُصِيْبَنَّ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْكُمْ خَاۗصَّةً ۚ} “और डरो उस फ़ितने (अज़ाब) से जो खुसूसियत के साथ उन्हीं लोगों पर वाक़ेअ नहीं होगा जो तुम में से गुनहगार हैं।” यानि जब किसी क़ौम में बहैसियत-ए-मजमुई मुन्करात फैल जायें और इस वजह से उनके लिये इस दुनिया में किसी इज्तमाई सज़ा का फ़ैसला हो जाये तो फिर ऐसी सज़ा की लपेट में सिर्फ़ गुनहगार लोग ही नहीं आयेंगे। इस लिहाज़ से यह बहुत तशवीश नाक बात है। मगर आयत ज़ेरे मुताअला में
{ اَنْجَيْنَا الَّذِيْنَ يَنْهَوْنَ عَنِ السُّوْۗءِ } के अल्फ़ाज़ में उम्मीद दिलाई गई है कि जो लोग अपनी इस्तताअत के मुताबिक़, आख़री वक़्त तक अम्र बिल् मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर का फ़रीज़ा अदा करते रहेंगे अल्लाह तआला अपनी रहमत से उन्हें बचा लेगा।

आयत 167
“और (याद करो) जब आप ﷺ के रब ने यह ऐलान कर दिया कि वो लाज़िमन मुसल्लत करता रहेगा उन पर क़यामत के दिन तक ऐसे लोगों को जो उन्हें बदतरीन अज़ाब में मुब्तला करते रहेंगे।” وَاِذْ تَاَذَّنَ رَبُّكَ لَيَبْعَثَنَّ عَلَيْهِمْ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ مَنْ يَّسُوْمُهُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ ۭ
“यक़ीनन आपका रब सज़ा देने में बहुत जल्दी करता है और यक़ीनन वह ग़फूर भी है और रहीम भी।” اِنَّ رَبَّكَ لَسَرِيْعُ الْعِقَابِ ښ وَاِنَّهٗ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٦٧؁
अल्लाह तआला की एक शान तो यह है कि वह عَزِیْزٌ ذُو انْتِقَام और سَرِیْعُ الْعِقَاب है और उसकी दूसरी शान यह है कि वह غَفُوْرٌ رَّحِیْم है। अब इसका दारोमदार इंसानों के तर्ज़े अमल पर है कि वह अपने आपको उसकी किस शान का मुस्तहिक़ बनाते हैं। इस आयत में यहूद के बारे अल्लाह तआला के जिस क़ानून और फ़ैसले का ज़िक्र हो रहा है वह बनी इस्राईल की पूरी तारीख़ की सूरत में हमारी निगाहों के सामने है।

आयत 168
“और हमने उन्हें ज़मीन के अंदर मुन्तशिर कर दिया फ़िरक़ो की सूरत में।” وَقَطَّعْنٰهُمْ فِي الْاَرْضِ اُمَمًا ۚ
बनी इस्राईल का दौरे इन्तशार (Diaspora) 70 ईसवी में शुरू हुआ, जब रोमन जनरल टाइटस ने उनके मअबूदे सानी (Second Temple) को शहीद किया (जो हज़रत ऊज़ैर अलै. के ज़माने में दोबारा तामीर हुआ था) टाइटस के हुक्म से येरूशलम में एक लाख तैंतीस हज़ार यहूदियों को एक दिन में क़त्ल किया गया और बच जाने वालों को फ़लस्तीन से निकाल बाहर किया गया। चुनाँचे यहाँ से मुल्क बदर होने के बाद यह लोग मिस्र, हिन्दुस्तान, रूस और यूरोप के मुख़्तलिफ़ इलाक़ो में जा बसे। फिर जब अमेरिका दरयाफ्त हुआ तो बहुत से यहूदी ख़ानदान वहाँ जाकर आबाद हो गये। इस आयत में उनके इसी “इन्तशार” की तरफ़ इशारा है कि पूरी दुनिया में उन्हें मुन्तशिर कर दिया गया और इस तरह उनकी इज्तमाईयत ख़त्म होकर रह गई। दूसरी तरफ़ वो जहाँ कहीं भी गये वहाँ उनसे शदीद नफ़रत की जाती रही, जिसके बाइस उन पर यूरोप में बहुत ज़ुल्म हुए। ईसाइयों की उनसे नफ़रत और शदीद दुश्मनी का ज़िक्र क़ुरान में भी है: { فَاَغْرَيْنَا بَيْنَهُمُ الْعَدَاوَةَ وَالْبَغْضَاۗءَ اِلٰي يَوْمِ الْقِيٰمَةِ } (मायदा 14) “पस हमने उनके दरमियान अदावत और बुग़्ज क़यामत तक के लिये डाल दिया।” यह दुश्मनी यहूदियों के उन गुस्ताखाना अक़ाइद की वजह से थी जो वो हज़रत मसीह और हज़रत मरियम अलै. के बारे में रखते थे।
फिर जंगे अज़ीम दौम में हिटलर के हाथों तो यहूदियों पर ज़ुल्म की इन्तहा हो गई। उसके हुक्म पर पूरे मशरिक़ी यूरोप से यहूदियों को इकठ्ठा करके concentration camps में जमा किया गया और इनके इज्तमाई क़त्ल की बाक़ायदा मन्सूबाबंदी की गई, जिसके लिये लाखों लाशों को ठिकाने लगाने के लिये जदीद आटोमेटिक पलान्ट नसब (install) किये गये। चुनाँचे मर्दों, औरतों और बच्चों को इज्तमाई तौर पर एक बड़े हॉल में जमा किया जाता, वहाँ उनके कपड़े उतरवाये जाते और बाल मूंड दिये जाते (बाद में उन बालों से कालीन तैयार किये गये जो नाज़ियों ने अपने दफ़्तरों में बिछाये), और फिर उन्हें वहाँ से बड़े-बड़े गैस चेम्बरों में दाखिल कर दिया जाता। वहाँ मरने के बाद मशीनों के ज़रिये से लाशों का चूरा किया जाता और फिर ख़ास क़िस्म के कैमिकल की मदद से इंसानी गोश्त को एक स्याह रंग के सयाल माद्दे में तब्दील करके खेतों में बतौर खाद इस्तेमाल किया जाता। यह सब कुछ बीसवीं सदी में आज के इस महज़ब (civilized) दौर में हुआ। इस तरीक़े से हिटलर के हाथों साठ लाख यहूदी क़त्ल हुए। यहूद के इस क़त्ले आम को “Holocaust” का नाम दिया जाता है। बाज़ लोग कहते हैं कि साठ लाख की तादाद मुबालगे पर मब्नी है, असल तादाद चालीस लाख थी। चालीस लाख ही सही, इतनी बड़ी तादाद में क़त्ले आम क़ौमी सतह पर कितना दर्दनाक अज़ाब है! यह उनकी तारीख़ के अब तक के हालात व वाक़िआत में से {مَنْ يَّسُوْمُهُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ ۭ} की एक झलक हैं। और इस सिलसिले में क़यामत तक मज़ीद क्या कुछ होने वाला है उसकी ख़बर अभी पर्दा-ए-ग़ैब में है।
बहरहाल यहूदियों का आखरी वक़्त बहुत जल्द आने वाला है, मगर जैसे चिराग का शौला बुझने से पहले भड़कता है, बिल्कुल इसी अंदाज़ से आज-कल हमें उनकी हुकूमत और ताकत नज़र आ रही है। और शायद यह सब कुछ इसलिये भी हो रहा है कि अरबों (जो हुज़ूर अकरम ﷺ के मुखातिबे अव्वल और वारिसे अव्वल होने के बावजूद दीन से पीठ फेरने के जुर्म के मुरतकिब हुए हैं) को एक “مَغْضُوْبِ عَلَيْهِمْ” क़ौम के हाथों हज़ीमत से दो-चार करके सज़ा देना और “to add insult to injury” के मिस्दाक़ इस ज़लील क़ौम के हाथों अरबों की तज़लील मक़सूद है। अंदरूनी हालात ऐसे नज़र आते हैं कि वह दिन अब ज़्यादा दूर नहीं जब मस्जिदे अक़्सा शहीद कर दी जायेगी और उसके नतीजे में मशरिक़े वुस्ता में जो तूफ़ान उठेगा वह यहूदियों का सब कुछ बहा कर ले जायेगा, लेकिन उनके इस सिलसिला-ए-अज़ाब की आख़री शक़्ल हज़रत मसीह अलै. के ज़हूर के बाद सामने आयेगी। जैसे पहले तमाम रसूलों के मुन्करीन उनकी मौजूदगी में ख़त्म कर दिये गये थे (छ: रसूलों और उनकी क़ौमों के वाक़िआत तकरार के साथ क़ुरान में आये हैं) इसी तरह हज़रत ईसा अलै. के मुन्करीन को भी उनकी मौजूदगी में ख़त्म किया जायेगा। हज़रत ईसा अलै. बनी इसराइल की तरफ़ अल्लाह के रसूल थे: {……وَرَسُوْلًا اِلٰى بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ ڏ } (आले इमरान 49)। यहूदी ना सिर्फ आप अलै. के मुन्किर हुए बल्कि (बज़अमे ख़वीश) उन्होंने आप अलै. को क़त्ल भी कर दिया। लिहाज़ा बहैसियत क़ौम उनका इज्तमाई इस्तेसाल भी हज़रत मसीह अलै. ही के हाथों होगा।
“उनमें से कुछ लोग सालेह हैं और कुछ वह भी हैं जो दूसरी तरह के हैं।” مِنْهُمُ الصّٰلِحُوْنَ وَمِنْهُمْ دُوْنَ ذٰلِكَ ۡ
“हम उन्हें भलाई और बुराई से आज़माते रहे हैं कि शायद ये लोग लौट आएँ।” وَبَلَوْنٰهُمْ بِالْحَسَنٰتِ وَالسَّيِّاٰتِ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ ١٦٨؁

आयत 169
“लेकिन उनके बाद ऐसे (नाख़लफ़) जाँनशीन किताब (तौरात) के वारिस हो गये जो इस हक़ीर दुनिया के साज़ो सामान ही को हासिल करते हैं” فَخَلَفَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ خَلْفٌ وَّرِثُوا الْكِتٰبَ يَاْخُذُوْنَ عَرَضَ هٰذَا الْاَدْنٰى
वो ऐसे लोग है जो हलाल और हराम से बेनियाज़ होकर दुनिया के फ़ायदे के पीछे पड़े हुए हैं। उनको आख़िरत के बारे में किसी क़िस्म का ख़ौफ और डर नहीं है।
“और कहते यह हैं कि हमें तो बख्श़ ही दिया जायेगा।” وَيَقُوْلُوْنَ سَيُغْفَرُ لَنَا ۚ
उनका कहना है कि हम हज़रत इब्राहीम अलै. की नस्ल से हैं, पैग़म्बरों की औलाद हैं, अल्लाह के चहेते हैं, हमारी बख़्शिश तो यक़ीनी है। हमारे लिये सब माफ़ कर दिया जायेगा।
“अग़र ऐसा ही और सामान भी उनको दे दिया जाये तो (वो भी) ले लेंगे।” وَاِنْ يَّاْتِهِمْ عَرَضٌ مِّثْلُهٗ يَاْخُذُوْهُ ۭ
“क्या उनसे अहद नहीं लिया गया था किताब (तौरात) की निस्बत, कि नहीं मन्सूब करेंगे अल्लाह से कोई बात मगर हक़, और उन्होंने पढ़ भी लिया जो कुछ उसमें था।” اَلَمْ يُؤْخَذْ عَلَيْهِمْ مِّيْثَاقُ الْكِتٰبِ اَنْ لَّا يَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ اِلَّا الْحَقَّ وَدَرَسُوْا مَا فِيْهِ ۭ
“और यक़ीनन आख़िरत का घर तो बेहतर है उन लोगों के लिये जिन्होंने तक़वा की रविश इख़्तियार की, तो क्या तुम अक़्ल से काम नहीं लेते?” وَالدَّارُ الْاٰخِرَةُ خَيْرٌ لِّلَّذِيْنَ يَتَّقُوْنَ ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ ١٦٩؁

आयत 170
“और जिन लोगों ने किताब को मज़बूती के साथ थामे रखा और नमाज़ क़ायम की, तो यक़ीनन ऐसे मुस्लिहीन का अज्र हम ज़ाया नहीं करेंगे।” وَالَّذِيْنَ يُمَسِّكُوْنَ بِالْكِتٰبِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ ۭاِنَّا لَا نُضِيْعُ اَجْرَ الْمُصْلِحِيْنَ ١٧٠؁
बनी इस्राईल में नेक लोग आख़री वक़्त तक ज़रूर मौजूद रहे होंगे। उनके बारे में फ़रमाया जा रहा है कि उनका अज्र हम किसी सूरत में ज़ाया नहीं करेंगे।

आयत 171
“और याद करो जबकि हमने पहाड़ को उनके ऊपर ऐसे उठा दिया था जैसे सायबान हो, और उन्हें लगता था कि अब यह उन पर गिरने ही वाला है।” وَاِذْ نَتَقْنَا الْجَبَلَ فَوْقَهُمْ كَاَنَّهٗ ظُلَّـةٌ وَّظَنُّوْٓا اَنَّهٗ وَاقِعٌۢ بِهِمْ ۚ
“(हमने उस वक़्त उनसे कहा था कि) थाम लो इसको मज़बूती से जो हमने तुम्हें दिया है और जो कुछ इसमें है इसको याद रखो ताकि तुम (ग़लत रवी से) बचते रहो।” خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاذْكُرُوْا مَا فِيْهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ ١٧١؀ۧ
अब आख़री तीन रुकूअ में फ़लसफ़ा-ए-दीन के ऐतबार से बहुत अहम मज़ामीन आ रहे हैं।

आयात 172 से 174 तक
وَاِذْ اَخَذَ رَبُّكَ مِنْۢ بَنِيْٓ اٰدَمَ مِنْ ظُهُوْرِهِمْ ذُرِّيَّتَهُمْ وَاَشْهَدَهُمْ عَلٰٓي اَنْفُسِهِمْ ۚ اَلَسْتُ بِرَبِّكُمْ ۭ قَالُوْا بَلٰي ڔ شَهِدْنَا ڔ اَنْ تَقُوْلُوْا يَوْمَ الْقِيٰمَةِ اِنَّا كُنَّا عَنْ هٰذَا غٰفِلِيْنَ ١٧٢؀ۙ اَوْ تَقُوْلُوْٓا اِنَّمَآ اَشْرَكَ اٰبَاۗؤُنَا مِنْ قَبْلُ وَكُنَّا ذُرِّيَّةً مِّنْۢ بَعْدِهِمْ ۚ اَفَتُهْلِكُنَا بِمَا فَعَلَ الْمُبْطِلُوْنَ ١٧٣؁ وَكَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ وَلَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ ١٧٤؁

आयत 172
“और याद करो जब निकाला आप ﷺ के रब ने तमाम बनी आदम की पीठों से उनकी नस्ल को” وَاِذْ اَخَذَ رَبُّكَ مِنْۢ بَنِيْٓ اٰدَمَ مِنْ ظُهُوْرِهِمْ ذُرِّيَّتَهُمْ
यह वाक़िया आलम-ए-अरवाह में वक़ूअ पज़ीर हुआ था जबकि इंसानी जिस्म अभी पैदा भी नहीं हुए थे। अहले अरब जो उस वक़्त क़ुरान के मुख़ातिब थे उनकी उस वक़्त की ज़हनी इस्तअदाद के मुताबिक़ यह सक़ील (भारी) मज़मून था। एक सूरत तो यह थी कि उन्हें पहले तफ़सील से बताया जाता कि इंसानों की पहली तख़लीक़ आलमे अरवाह में हुई थी और दुनिया में तबई अज्साम (जिस्मों) के साथ यह दूसरी तख़लीक़ है और फिर बताया जाता कि यह मीसाक़ आलमे अरवाह में लिया गया था। लेकिन इसके बजाय इस मज़मून को आसान पैराये में बयान करने के लिये आम फ़हम अल्फ़ाज़ आम फ़हम अंदाज़ में इस्तेमाल किए गये कि जब हमने नस्ले आदम की तमाम ज़ुर्रियत (औलाद) को उनकी पीठों से निकाल लिया। यानि क़यामत तक इस दुनिया में जितने भी इंसान आने वाले थे, उन सबकी अरवाह वहाँ मौजूद थीं।
“और उनको गवाह बनाया ख़ुद उनके ऊपर, (और सवाल किया) क्या मैं तुम्हारा रब नहीं हूँ?” وَاَشْهَدَهُمْ عَلٰٓي اَنْفُسِهِمْ ۚ اَلَسْتُ بِرَبِّكُمْ ۭ
यानि पूरी तरह होशो-हवास और ख़ुद शऊरी (self conciousness) के साथ यह इक़रार हुआ था। इस नुक्ते की वज़ाहत इससे पहले भी हो चुकी है कि इंसान की ख़ुद शऊरी (self conciousness) ही उसे हैवानात से मुमताज़ करती है जिनमें शऊर (conciousness) तो होता है। लेकिन ख़ुद शऊरी नहीं होती। इंसान की इस ख़ुद शऊरी का ताल्लुक़ उसकी रूह से है जो अल्लाह तआला ने बतौर ख़ास सिर्फ़ इंसान में फूँकी है। चुनाँचे जब यह अहद लिया गया तो वहाँ तमाम अरवाह मौजूद थीं और उन्हें अपनी ज़ात का पूरा शऊर था। अल्लाह तआला ने तमाम अरवाहे इंसानिया से यह सवाल किया कि क्या मैं तुम्हारा रब, तुम्हारा मालिक, तुम्हारा आक़ा नहीं हूँ?
“उन्होंने कहा क्यों नहीं! हम इस पर गवाह हैं।” قَالُوْا بَلٰي ڔ شَهِدْنَا ڔ
तमाम अरवाह ने यही जवाब दिया कि तू ही हमारा रब है, हम इक़रार करते हैं, हम इस पर गवाह हैं। अब यहाँ नोट कीजिए कि यह इक़रार तमाम इंसानों पर अल्लाह की तरफ़ से हुज्जत है। जैसे कि इससे पहले सूरतुल मायदा की आयत 19 में आ चुका है: “ऐ अहले किताब! तुम्हारे पास आ चुका है हमारा रसूल जो तुम्हारे लिये (दीन को) वाज़ेह कर रहा है, रसूलों के एक वक़्फ़े के बाद, मबादा तुम यह कहो कि हमारे पास तो आया ही नहीं था कोई बशारत देने वाला और ना कोई ख़बरदार करने वाला।” तो यह गोया इम्तामे हुज्जत थी अहले किताब पर। इसी तरह सूरतुल अन्आम की आयत 156 में फ़रमाया: “मबादा तुम यह कहो कि किताबें तो दी गई थीं हमसे पहले दो गिरोहों को और हम तो उन किताबों को (ग़ैर ज़बान होने की वजह से) पढ़ भी नहीं सकते थे।” तो यह इम्तामे हुज्जत किया गया बनी इस्माईल पर कि अब तुम्हारे लिये हमने अपना एक रसूल (ﷺ) तुम ही में से भेज दिया है और वह तुम्हारे लिये एक किताब लेकर आया है जो तुम्हारी अपनी ज़बान ही में है। लिहाज़ा अब तुम यह नहीं कह सकते कि अल्लाह ने अपनी किताबें तो हमसे पहले वाली उम्मतों पर नाज़िल की थीं, और यह कि अगर हम पर भी कोई ऐसी किताब नाज़िल होती तो हम उनसे कहीं बढ़ कर हिदायत याफ़्ता होते। आयत ज़ेरे नज़र में जिस गवाही का ज़िक्र है वह पूरी नौए इंसानी के लिये हुज्जत है। यह अहद हर रूहे इंसानी अल्लाह से करके दुनिया में आई है और उख़रवी मुवाख़जे कि असल बुनियाद यही गवाही फ़राहम करती है। नुबुवत, वही और इल्हामी कुतुब के ज़रिये जो इत्मामे हुज्जत किया गया, वह ताकीद मज़ीद और तकरार के लिये और लोगों के इम्तिहान को मज़ीद आसान करने के लिये किया गया। लेकिन हक़ीक़त में अगर कोई हिदायत बज़रिये नुबुवत, वही वगैरह ना भी आती तो रोज़े महशर के अज़ीम मुहासबे (accountability) के लिये आलमे अरवाह में लिया जाने वाला यह अहद ही काफ़ी था जिसका अहसास और शऊर हर इंसान की फ़ितरत में समो दिया गया है।
“मबादा तुम यह कहो क़यामत के दिन कि हम तो इससे ग़ाफ़िल थे।” اَنْ تَقُوْلُوْا يَوْمَ الْقِيٰمَةِ اِنَّا كُنَّا عَنْ هٰذَا غٰفِلِيْنَ ١٧٢؀ۙ

आयत 173
“या तुम यह कहो कि शिर्क को पहले हमारे आबा व अजदाद ने किया था, और हम उनके बाद उनकी नस्ल में से थे।” اَوْ تَقُوْلُوْٓا اِنَّمَآ اَشْرَكَ اٰبَاۗؤُنَا مِنْ قَبْلُ وَكُنَّا ذُرِّيَّةً مِّنْۢ بَعْدِهِمْ ۚ
“तो (परवरदिग़ार!) क्या तू हमें हलाक करेगा उन बातिल पसंद लोगों के फ़अल के बदले में?” اَفَتُهْلِكُنَا بِمَا فَعَلَ الْمُبْطِلُوْنَ ١٧٣؁
हमारे बड़े जो रास्ता, जो तौर-तरीक़े छोड़ गये थे, हम तो उन पर चलते रहे, लिहाज़ा हमारा कोई क़सूर नहीं, असल मुजरिम तो वो हैं जो हमें इस दलदल में फँसा कर चले गये। यह बातिल तौर-तरीके़ उन्होंने ही ईजाद किए थे, हम तो सिर्फ़ उसके मुक़ल्लिद थे।

आयत 174
“और हम इसी तरह अपनी आयात को तफ़सील से बयान कर देते हैं ताकि वो रुजूअ करें।” وَكَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ وَلَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ ١٧٤؁
अब आइंदा आयात में एक शख़्सियत का वाक़िया तम्सीली अंदाज़ में बयान हुआ है, मगर हक़ीक़त में यह महज़ तश्बीह नहीं है बल्कि हक़ीकी वाक़िया है। यह क़िस्सा दरअसल हमारे लिये दर्से इबरत है, जिसका खुलासा यह है कि बहुत बदनसीब है वह फ़र्द या क़ौम जिसको अल्लाह तआला अपने बेशबहा ईनाम व इकराम और क़ुर्बे ख़ास से नवाज़े, मगर वह उसकी नाफ़रमानी का इरतकाब करके ख़ुद को उन तमाम फ़ज़ीलतों से महरूम कर ले और अल्लाह की बंदगी से निकल कर शैतान का चेला बन जाये।

आयात 175 से 178 तक
وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ الَّذِيْٓ اٰتَيْنٰهُ اٰيٰتِنَا فَانْسَلَخَ مِنْهَا فَاَتْبَعَهُ الشَّيْطٰنُ فَكَانَ مِنَ الْغٰوِيْنَ ١٧٥؁ وَلَوْ شِئْنَا لَرَفَعْنٰهُ بِهَا وَلٰكِنَّهٗٓ اَخْلَدَ اِلَى الْاَرْضِ وَاتَّبَعَ هَوٰىهُ ۚ فَمَثَلُهٗ كَمَثَلِ الْكَلْبِ ۚ اِنْ تَحْمِلْ عَلَيْهِ يَلْهَثْ اَوْ تَتْرُكْهُ يَلْهَثْ ۭ ذٰلِكَ مَثَلُ الْقَوْمِ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۚ فَاقْصُصِ الْقَصَصَ لَعَلَّهُمْ يَتَفَكَّرُوْنَ ١٧٦؁ سَاۗءَ مَثَلَۨا الْقَوْمُ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاَنْفُسَهُمْ كَانُوْا يَظْلِمُوْنَ ١٧٧؁ مَنْ يَّهْدِ اللّٰهُ فَهُوَ الْمُهْتَدِيْ ۚ وَمَنْ يُّضْلِلْ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ ١٧٨؁

आयत 175
“और सुनाइये इन्हें ख़बर उस शख़्स की जिसको हमने अपनी आयात अता की थीं” وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ الَّذِيْٓ اٰتَيْنٰهُ اٰيٰتِنَا
यहाँ पर उस वाक़िये के लिये लफ़्ज़ “नबा” इस्तेमाल हुआ है जिसके लुग्वी मायने “ख़बर” के हैं। इससे वाज़ेह होता है कि यह कोई तम्सील नहीं बल्कि हक़ीक़ी वाक़िया है। दूसरे जो यह फ़रमाया गया कि उस शख़्स को हमने अपनी आयात अता की थीं, इससे यह वाज़ेह होता है कि वह शख़्स साहिबे करामत बुज़ुर्ग था। इस वाक़िये की तफ़सील हमें तौरात में भी मिलती है जिसके मुताबिक़ यह शख़्स बनी इस्राईल में से था। उसका नाम बलअम बिन बाऊरा था और यह एक बहुत बड़ा आबिद, ज़ाहिद और आलिम था।
“तो वह उनसे निकल भागा तो शैतान उसके पीछे लग गया” فَانْسَلَخَ مِنْهَا فَاَتْبَعَهُ الشَّيْطٰنُ
यहाँ पर यह नुक्ता बहुत अहम है कि पहले इंसान ख़ुद गलती करता है, शैतान उसे किसी बुराई में मजबूर नहीं कर सकता, क्योंकि अल्लाह तआला के फ़ैसले के मुताबिक़ { اِنَّ عِبَادِيْ لَيْسَ لَكَ عَلَيْهِمْ سُلْطٰنٌ اِلَّا مَنِ اتَّبَعَكَ مِنَ الْغٰوِيْنَ } (अल् हिज्र 42) शैतान को किसी बन्दे पर कोई इख़्तियार हासिल नहीं, लेकिन जब बंदा अल्लाह की नाफ़रमानी की तरफ़ लपकता है और बुराई कर बैठता है तो वह शैतान का आसान शिकार बन जाता है। शैतान ऐसे शख़्स के पीछे लग जाता है और वह तौबा करके रुजूअ ना करे तो उसे तदरीजन दूर से दूर ले जाता है यहाँ तक कि उसे बुराई की आख़री मंज़िल तक पहुँचा कर दम लेता है।
“तो वह हो गया गुमराहों में से।” فَكَانَ مِنَ الْغٰوِيْنَ ١٧٥؁

आयत 176
“और अगर हम चाहते तो इन (आयात) के ज़रिये से उसे और बुलंद करते मगर वह तो ज़मीन की तरफ़ ही धँसता चला गया” وَلَوْ شِئْنَا لَرَفَعْنٰهُ بِهَا وَلٰكِنَّهٗٓ اَخْلَدَ اِلَى الْاَرْضِ
यानि अल्लाह की आयात और जो भी इल्म उसको अता हुआ था उसके ज़रिये से उसको बड़ा बुलंद मक़ाम मिल सकता था मगर वह तो ज़मीन ही की तरफ़ धँसता चला गया। यहाँ पर ज़मीन की तरफ़ धँसने के इस्तआरे को भी अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है। इंसान दरअसल हैवानी जिस्म और मलकूती रूह से मुरक्कब (मिला हुआ) है। जिस्म अजज़ा-ए-तरकीबी का ताल्लुक़ ज़मीन से है, जैसा कि सूरह ताहा की आयत 55 में फ़रमाया गया: {مِنْهَا خَلَقْنٰكُمْ} यानि हमने तुम्हें इस ज़मीन से पैदा किया। इसके बरअक्स इंसानी रूह का ताल्लुक़ आलमे बाला से है और वह अल्लाह से { اَلَسْتُ بِرَبِّكُمْ ۭ} वाला अहद करके आई है। चुनाँचे असल के इस तज़ाद की बुनियाद पर जिस्म और रूह में मुतवातिर कशमकश रहती है। “کُلُّ شَیْءٍ یَرْجِعُ اِلٰی اَصْلِہٖ” (हर चीज़ अपने मिम्बा [असल] की तरफ़ लौटती है) के मिस्दाक़ रूह ऊपर उठना चाहती है ताकि अल्लाह से क़ुर्ब हासिल कर सके, जबकि जिस्म की सारी क़शिश ज़मीन की तरफ़ होती है। चूँकि जिस्म की तक़वियत का सारा सामान, ग़िजा वगैरह ज़मीन ही के मरहूने मिन्नत है, इसलिये ज़मीनी और दुनियावी लज़्जतों में ही उसे सुकून मिलता है और “बाबर बा-ऐश कोश कि आलम दोबारा नीस्त” का नारा उसे अच्छा लगता है। अब अग़र कोई शख़्स फ़ैसला कर लेता है कि जिस्मानी ज़रूरतों और लज़्जतों के हुसूल के लिये उसने ज़मीन के साथ ही चिमट कर रहना है तो गोया अब उसने अपने आप को अल्लाह की तौफ़ीक़ से महरूम कर लिया। अब उसकी रूह सिसकती रहेगी, ऐहतजाज करती रहेगी और अगर ज़्यादा मुद्दत तक उसकी रुहानी ग़िजा का बंदोबस्त नहीं किया जायेगा तो रूह की मौत भी वाक़ेअ हो सकती है। अगर किसी इंसान के जीते जी उसकी रूह के साथ यह हादसा हो जाये, यानि उसकी रूह की मौत वाक़ेअ हो जाये तो गोया वह चलता-फिरता हैवान बन जाता है, जो अपने सारे हैवानी तक़ाज़े हैवानी अंदाज़ में पूरे करता रहता है। फिर ज़मीनी ग़िजाएँ, सिफ़ली आरज़ुएँ और माद्दी उमंगे ही उसकी ज़िन्दगी का मक़सद व महवर क़रार पाती हैं। नतीजतन उसे फ़ैजाने समावी और तौफ़ीक़े इलाही से कुल्ली तौर पर महरूम कर दिया जाता है।
“और उसने पैरवी की अपनी ख़्वाहिशात की।” وَاتَّبَعَ هَوٰىهُ ۚ
“तो उसकी मिसाल कुत्ते की सी है, अगर तुम उसके ऊपर बोझ रखो तब भी हाँफेगा और अगर छोड़ भी दो तब भी हाँफता रहेगा।” فَمَثَلُهٗ كَمَثَلِ الْكَلْبِ ۚ اِنْ تَحْمِلْ عَلَيْهِ يَلْهَثْ اَوْ تَتْرُكْهُ يَلْهَثْ ۭ
यानि उस शख़्स ने अल्लाह की नेअमतों की क़द्र करने के बजाय ख़ुद को कुत्ते से मुशाबा कर लिया, जो हर वक़्त ज़बान निकाले हाँफता रहता है और हिर्स व तमअ के ग़लबे की वजह से हर वक़्त ज़मीन को सूँघते रहना उसकी फ़ितरत में शामिल है।
“यही मिसाल है उस क़ौम की (भी) जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया।” ذٰلِكَ مَثَلُ الْقَوْمِ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۚ
ऊपर तफ़सील के साथ यहूद की जो सरगुज़श्त बयान हुई है उससे वाज़ेह होता है कि यह क़ौम शुरू से ही बलअम बिन बाऊरा बनी रही है। आज इसकी सबसे बड़ी मिसाल पाकिस्तानी क़ौम है। पाकिस्तान का बन जाना और इसका क़ायम रहना एक मौअज्ज़ा था। अंग्रेज़ों और हिन्दुओं को यक़ीन था कि पाकिस्तान की बक़ा बहैसियत एक आज़ाद और ख़ुदमुख़्तार मुल्क के मुमकिन नहीं है, इसलिये यह जल्द ही ख़त्म हो जायेगा। लेकिन यह मुल्क ना सिर्फ़ क़ायम रहा बल्कि 1965 ई. की जंग जैसी बड़ी-बड़ी आज़माईशों से भी सुर्खरू होकर निकला। इसलिये कि हमने इस मुल्क को हासिल किया था इस्लाम के नाम पर कि इसे इस्लामी निज़ाम की तजुर्बा गाह बनायेंगे, ताकि पूरी दुनिया इस्लामी निज़ाम के अमली नमूने और उसकी बरकात का मुशाहिदा कर सके। क़ायदे आज़म ने भी फ़रमाया था कि हम पाकिस्तान इसलिये चाहते हैं कि हम अहदे हाज़िर में इस्लाम के उसूले हुर्रियत व अख़ुवत व मसावात का एक नमूना दुनिया के सामने पेश कर सकें, लेकिन अमली तौर पर आज हमारा तर्ज़े अमल “فَانْسَلَخَ مِنْهَا” की इबरतनाक तस्वीर बन चुका है। हम उन तमाम वादों से पीछा छुड़ा कर निकल भागे और शैतान की पैरवी इख़्तियार की। फिर हमारा जो हाल हुआ और मुसलसल हो रहा है वह सामने रखें और इस पसमंज़र में इस आयत को दोबारा पढ़ें।
“सो (ऐ नबी ﷺ!) आप यह वाक़िआत सुना दीजिए, शायद कि ये तफ़क्कुर (ग़ौर व फ़िक्र) करें।” فَاقْصُصِ الْقَصَصَ لَعَلَّهُمْ يَتَفَكَّرُوْنَ ١٧٦؁

आयत 177
“क्या ही बुरी मिसाल है उस क़ौम की जिन्होंने हमारी आयात को झुठलाया और वो ख़ुद अपनी ही जानों पर ज़ुल्म ढ़ाते रहे।” سَاۗءَ مَثَلَۨا الْقَوْمُ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا وَاَنْفُسَهُمْ كَانُوْا يَظْلِمُوْنَ ١٧٧؁

आयत 178
“जिसे अल्लाह हिदायत देता है वही हिदायत याफ्ता होता है, और जिन्हें वह गुमराह कर दे तो वही लोग तबाह होने वाले हैं।” مَنْ يَّهْدِ اللّٰهُ فَهُوَ الْمُهْتَدِيْ ۚ وَمَنْ يُّضْلِلْ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْخٰسِرُوْنَ ١٧٨؁
“अहदे अलस्त” के हवाले से हम पर यह बात वाज़ेह हो गई कि इंसान का एक वुजूद रुहानी है और दूसरा माद्दी यानि हैवानी। अगर इंसान की तवज्जोह और सारी दिलचस्पियाँ हैवानी वुजूद की ज़रुरियात पूरी करने तक महदूद रहेंगी तो फिर वह बलअम बिन बाऊरा की मिसाल बन जायेगा। यह इन्फ़रादी सतह पर भी हो सकता है और क़ौमी व इज्तमाई सतह पर भी। इस ज़िमन में हिकमते क़ुरानी का तीसरा नुक्ता अगली आयत में बयान हो रहा है कि इंसानों में से अक्सर वो हैं जो सिर्फ़ अपने हैवानी जिस्म की परवरिश में मसरूफ़ हैं। वो अग़रचे बज़ाहिर तो इंसान ही नज़र आते हैं मगर हक़ीक़त में हैवानों की सतह पर ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं।

आयात 179 से 183 तक
وَلَقَدْ ذَرَاْنَا لِجَهَنَّمَ كَثِيْرًا مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ ڮ لَهُمْ قُلُوْبٌ لَّا يَفْقَهُوْنَ بِهَا ۡ وَلَهُمْ اَعْيُنٌ لَّا يُبْصِرُوْنَ بِهَا ۡ وَلَهُمْ اٰذَانٌ لَّا يَسْمَعُوْنَ بِهَا ۭاُولٰۗىِٕكَ كَالْاَنْعَامِ بَلْ هُمْ اَضَلُّ اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْغٰفِلُوْنَ ١٧٩؁ وَلِلّٰهِ الْاَسْمَاۗءُ الْحُسْنٰى فَادْعُوْهُ بِهَا ۠ وَذَرُوا الَّذِيْنَ يُلْحِدُوْنَ فِيْٓ اَسْمَاۗىِٕهٖ ۭ سَيُجْزَوْنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١٨٠؁ وَمِمَّنْ خَلَقْنَآ اُمَّةٌ يَّهْدُوْنَ بِالْحَقِّ وَبِهٖ يَعْدِلُوْنَ ١٨١؀ۧ وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا سَنَسْـتَدْرِجُهُمْ مِّنْ حَيْثُ لَا يَعْلَمُوْنَ ١٨٢؀ښ وَاُمْلِيْ لَهُمْ ڵ اِنَّ كَيْدِيْ مَتِيْنٌ ١٨٣؁

आयत 179
“और हमने जहन्नम के लिये पैदा किये हैं बहुत से जिन्न और इंसान।” وَلَقَدْ ذَرَاْنَا لِجَهَنَّمَ كَثِيْرًا مِّنَ الْجِنِّ وَالْاِنْسِ ڮ
“उनके दिल तो हैं लेकिन उनसे ग़ौर नहीं करते, उनकी आँखे हैं मगर उनसे देखते नहीं, और उनके कान हैं लेकिन उनसे सुनते नहीं।” لَهُمْ قُلُوْبٌ لَّا يَفْقَهُوْنَ بِهَا ۡ وَلَهُمْ اَعْيُنٌ لَّا يُبْصِرُوْنَ بِهَا ۡ وَلَهُمْ اٰذَانٌ لَّا يَسْمَعُوْنَ بِهَا ۭ
“यह चौपायों की मानिन्द हैं, बल्कि उनसे भी गये गुज़रे हैं। यही वो लोग हैं जो गाफ़िल हैं।” اُولٰۗىِٕكَ كَالْاَنْعَامِ بَلْ هُمْ اَضَلُّ اُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْغٰفِلُوْنَ ١٧٩؁
यानि जब इंसान हिदायत से मुँह मोड़ता है और हठधर्मी पर उतर आता है तो नतीजतन अल्लाह तआला ऐसे लोगों के दिलों पर मोहर कर देता है। उसके बाद उनके दिल तफ़क्क़ो (गौरो फ़िक्र) से यक्सर (बिल्कुल) खाली हो जाते हैं, उनकी आँखे इंसानी आँखें नहीं रहतीं और ना उनके कान इंसानी कान रहते हैं। अब उनका देखना हैवानों जैसा देखना रह जाता है और उनका सुनना हैवानों जैसा सुनना। जैसे कुत्ता भी देख लेता है कि गाड़ी आ रही है मुझे उससे बचना है। जबकि इंसानी देखना तो यह है कि इंसान किसी चीज़ को देखे, उसकी हक़ीक़त को समझे और फिर दुरुस्त नतीज़े अख़ज़ करे। इसी फ़लसफ़े को अल्लामा इक़बाल ने इन अल्फ़ाज़ में बयान किया है।
ऐ अहले नज़र ज़ौक़-ए-नज़र खूब है लेकिन
जो शय की हक़ीक़त को ना देखे वह नज़र क्या!
चुनाँचे अल्लामा इक़बाल कहते हैं “दीदन दीग़र आमोज़, शुनीदन दीग़र आमोज़!” यानि दूसरी तरह का देखना सीखो, दूसरी तरह का सुनना सीखो! वह देखना जो दिल की आँख से देखा जाता है और वह सुनना जो दिल से सुना जाता है। लेकिन जब उनके दिलों और उनके कानों पर मोहर हो गई और उनकी आँखों पर परदे डाल दिये गये तो अब उनका हाल यह है कि यह चौपायों की मानिन्द हैं बल्कि उनसे भी गये गुज़रे।
ऐसे लोगों को चौपायों से बदतर इसलिये कहा गया है कि चौपायों को तो अल्लाह तआला ने पैदा ही कमतर सतह पर किया है, जबकि इंसान का तख़्लीक़ी मक़ाम बहुत आला है, लेकिन जब इंसान उस आला मक़ाम से गिरता है तो फिर वह ना सिर्फ़ शर्फ़े इंसानियत को खो देता है बल्कि जानवरों से भी बदतर हो जाता है। यही मज़मून है जो सूरह अत्तीन में इस तरह बयान हुआ है: {لَقَدْ خَلَقْنَا الْاِنْسَانَ فِيْٓ اَحْسَنِ تَقْوِيْمٍ} {ثُمَّ رَدَدْنٰهُ اَسْفَلَ سٰفِلِيْنَ } (आयत 4 व 5) यानि इंसान को पैदा किया गया बेहतरीन अंदाज़े पर, बुलंदतरीन सतह पर, यहाँ तक कि अपने तख़्लीक़ी मैयार के मुताबिक़ वह मस्जूदे मलाइक ठहरा, लेकिन जब वह इस मक़ाम से नीचे गिरा तो कम तरीन सतह की मख्लूक़ से भी कम तरीन हो गया। फिर उसकी ज़िन्दगी महज़ हैवानी ज़िन्दगी बन कर रह गई, हैवानों की तरह खाया-पिया, दुनिया की लज़्जतें हासिल कीं और मर गया। ना ज़िन्दगी के मक़सद का इदराक, ना अपने ख़ालिक व मालिक की पहचान, ना अल्लाह के सामने हाज़िरी का डर और ना आख़िरत में अहतसाब की फ़िक्र। यह वह इंसानी ज़िन्दगी है जो इंसान के लिये बाइसे शर्म है। बक़ौले सअदी शिराज़ी:
ज़िन्दगी आमद बराए बंदगी
ज़िन्दगी बेबंदगी शर्मिन्दगी!
.
आयत 180
“और तमाम अच्छे नाम अल्लाह ही के हैं, तो पुकारो उसे उन (अच्छे नामों) से।” وَلِلّٰهِ الْاَسْمَاۗءُ الْحُسْنٰى فَادْعُوْهُ بِهَا ۠
अल्लाह तआला की सिफ़ात के ऐतबार से उसके बेशुमार नाम हैं। उनमें से कुछ क़ुरान में आये हैं और कुछ हदीसों में। एक हदीस जो हज़रत अबु हुरैरा रज़ि. से मरवी है, उसमें हुज़ूर अकरम ﷺ ने अल्लाह तआला के 99 नाम गिनवाये हैं। उन नामों में “अल्लाह” सबसे बड़ा और अहम तरीन नाम है। यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह तआला के सब नाम अच्छे हैं, उन नामों के हवाले से उसको पुकारा करो, उन नामों के ज़रिये से दुआ किया करो जैसे या सत्तार, या ग़फ़्फ़ार, या करीम, या अलीम। ज़िमनी तौर पर यहाँ एक नुक्ता नोट कर लें कि क़ुरान मजीद में अल्लाह के लिये लफ़्ज़ “सिफ़त” कहीं इस्तेमाल नहीं हुआ, अलबत्ता हदीस में यह लफ़्ज़ आया है। क़ुरान में अल्लाह के लिये इस हवाले से अस्मा (नाम) का लफ़्ज़ ही इस्तेमाल हुआ है।
“और छोड़ दो उन लोगों को जो उसके नामों में कजी निकालते हैं।” وَذَرُوا الَّذِيْنَ يُلْحِدُوْنَ فِيْٓ اَسْمَاۗىِٕهٖ ۭ
‘लहद’ कहते हैं टेढ़ को। ‘लहद’ बमायने क़ब्र का मफ़हूम यह है कि क़ब्र के लिये एक सीधा गड्ढ़ा खोद कर उसके अंदर एक बगली गड्ढ़ा खोदा जाता है। उस गड्ढ़े को सीधे रास्ते से हटे हुए होने की वजह से ‘लहद’ कहते हैं। अस्माए इलाही के सिलसले में ‘इल्हाद’ एक तो यह है कि उनका गलत इस्तेमाल किया जाये। अल्लाह के हर नाम की अपनी तासीर है, इस लिहाज़ से मुराक़बों वग़ैरह के ज़रिये से अल्लाह के नामों की तासीर से किसी को कोई नुक़सान पहुँचाने की कोशिश की जाये। और दुसरे यह कि अल्लाह तआला के बाज़ नाम जोड़ों की शक्ल में हैं, किसी सिफ़त के दो रुख़ हैं तो उस सिफ़त से नाम भी दो होंगें, जैसे अल्मुइज़्ज़ु और अल्मुज़िल्लु, अर्राफ़िऊ और अल्हाफ़िज़ु, अल्हय्यु और अल्मुमीतु वग़ैरह। चुनाँचे अल्लाह तआला के जो अस्मा इस तरह के जोड़ों की शक्ल में हैं उनमें से अगर एक ही नाम बार-बार पुकारा जाये और दूसरे को छोड़ दिया जाये तो यह भी इल्हाद होगा। मसलन अल्मुइज़्ज़ु और अल्मुज़िल्लु दो नाम एक जोड़े में हैं, यानि वही इज़्ज़त देने वाला और वही ज़िल्लत देने वाला है। लेकिन अगर कोई शख़्स या मुज़िल्लु, या मुज़िल्लु, या मुज़िल्लु का विर्द शुरू कर दे तो यह इल्हाद हो जायेगा। क्योंकि “ऐ ज़लील करने वाले! ऐ ज़लील करने वाले! मुनासिब विर्द नहीं है। लिहाज़ा ऐसे तमाम नाम जब पुकारे जायें तो हमेशा जोड़ों ही की सूरत में पुकारे जायें।
“अनक़रीब वो बदला पायेंगे अपने आमाल का।” سَيُجْزَوْنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ ١٨٠؁

आयत 181
“और जो इंसान हमने पैदा किये हैं उनमें कुछ लोग वो हैं जो हक़ की हिदायत करते हैं और हक़ के साथ अदल करते हैं।” وَمِمَّنْ خَلَقْنَآ اُمَّةٌ يَّهْدُوْنَ بِالْحَقِّ وَبِهٖ يَعْدِلُوْنَ ١٨١؀ۧ
यक़ीनन हर दौर में कुछ लोग हक़ के अलम्बरदार रहे हैं और ऐसे लोग हमेशा रहेंगे। जैसे हुज़ूर ﷺ ने ज़मानत दी है: ((لَا تَزَالُ طَاءِفَۃٌ مِنْ اُمَّتِیْ ظَاھِرِیْنَ عَلَی الْحَقِّ))(15) “मेरी उम्मत में एक गिरोह ज़रूर हक़ पर क़ायम रहेगा।”

आयत 182
“रहे वो लोग जिन्होंने हमारी आयात की तकज़ीब की है, तो हम रफ़्ता-रफ़्ता उन्हें ऐसे पकड़ेगें कि उनको पता भी नहीं चलेगा।” وَالَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا سَنَسْـتَدْرِجُهُمْ مِّنْ حَيْثُ لَا يَعْلَمُوْنَ ١٨٢؀ښ
बाज़ अवक़ात यूँ होता है कि एक शख़्स कुफ़्र के रास्ते पर बढ़ता जाता है तो साथ ही उसकी दुनियावी कामयाबियाँ भी बढ़ती जाती हैं, जिसकी वजह से वह समझता है कि वह जो कुछ कर रहा है, ठीक कर रहा है और यह दुनियावी कामयाबियाँ उसकी इसी रविश का नतीजा हैं। लिहाज़ा वह कुफ़्र और मअसियत के रास्ते में मज़ीद आगे बढ़ता चला जाता है। यह कैफ़ियत किसी इंसान के लिये बहुत बड़ा फ़ितना है और इसको इस्तदराज कहा जाता है। यानि कोई इंसान जो पूरी दीदा दिलेरी और ढ़िटाई के साथ अल्लाह तआला की आयात से ऐराज़ और उसके अहकाम से नाफ़रमानी करता है तो अल्लाह उसको ढ़ील देता है और उसकी रस्सी दराज़ कर देता है, जिसकी वजह से वह गुनाहों कि दलदल में धँसता चला जाता है।

आयत 183
“और मैं उनको ढ़ील दूँगा, यक़ीनन मेरी चाल बहुत मज़बूत है।” وَاُمْلِيْ لَهُمْ ڵ اِنَّ كَيْدِيْ مَتِيْنٌ ١٨٣؁
ऐसे मुजरिमों को ढ़ील देने की मिसाल मछली के शिकार की सी है। जब काँटा मछली के हलक़ में फँस जाये तो अब वह कहीं जा नहीं सकती, जितनी डोर चाहे ढ़ीली छोड़ दें। जब आप चाहेंगे उसे खींच कर क़ाबू कर लेंगे।

आयात 184 से 188 तक
اَوَلَمْ يَتَفَكَّرُوْا ۫مَا بِصَاحِبِهِمْ مِّنْ جِنَّةٍ ۭاِنْ هُوَ اِلَّا نَذِيْرٌ مُّبِيْنٌ ١٨٤؁ اَوَلَمْ يَنْظُرُوْا فِيْ مَلَكُوْتِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا خَلَقَ اللّٰهُ مِنْ شَيْءٍ ۙ وَّاَنْ عَسٰٓي اَنْ يَّكُوْنَ قَدِ اقْتَرَبَ اَجَلُهُمْ ۚ فَبِاَيِّ حَدِيْثٍۢ بَعْدَهٗ يُؤْمِنُوْنَ ١٨٥؁ مَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَا هَادِيَ لَهٗ ۭ وَيَذَرُهُمْ فِيْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُوْنَ ١٨٦؁ يَسْــــَٔـلُوْنَكَ عَنِ السَّاعَةِ اَيَّانَ مُرْسٰىهَا ۭقُلْ اِنَّمَا عِلْمُهَا عِنْدَ رَبِّيْ ۚ لَا يُجَلِّيْهَا لِوَقْتِهَآ اِلَّا هُوَ ۂ ثَقُلَتْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ لَا تَاْتِيْكُمْ اِلَّا بَغْتَةً ۭ يَسْــــَٔـلُوْنَكَ كَاَنَّكَ حَفِيٌّ عَنْهَا قُلْ اِنَّمَا عِلْمُهَا عِنْدَ اللّٰهِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ ١٨٧؁ قُلْ لَّآ اَمْلِكُ لِنَفْسِيْ نَفْعًا وَّلَا ضَرًّا اِلَّا مَا شَاۗءَ اللّٰهُ ۭوَلَوْ كُنْتُ اَعْلَمُ الْغَيْبَ لَاسْتَكْثَرْتُ مِنَ الْخَيْر ِ ٻ وَمَا مَسَّنِيَ السُّوْۗءُ ڔ اِنْ اَنَا اِلَّا نَذِيْرٌ وَّبَشِيْرٌ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ١٨٨؀ۧ

आयत 184
“क्या उन्होंने ग़ौर नहीं किया कि उनके साथी (मुहम्मद ﷺ) को कोई जिन्नून नहीं हैं।” اَوَلَمْ يَتَفَكَّرُوْا ۫مَا بِصَاحِبِهِمْ مِّنْ جِنَّةٍ ۭ
यानि रसूल ﷺ पर किसी तरह के जिन्नों के असरात या किसी जिन्न का साया वग़ैरह कुछ नहीं है। यह भी मुतजस्साना सवाल (searching question) का अंदाज़ है कि ज़रा ग़ौर करो, कभी तुमने सोचा है कि हमारे रसूल ﷺ तुम्हारी निगाहों के सामने पले-बढ़े हैं। आप ﷺ की सीरत, शख़्सियत, तहारत, नज़ाफ़त और आप ﷺ का किरदार, क्या यह सब कुछ आप लोगों के सामने नहीं है? इसके बावजूद तुम्हारा इस क़दर भोंडा दावा कि आप ﷺ पर जिन्नों के असरात हैं! कभी तुमने अपने इस दावे के बोदेपन पर भी ग़ौर किया है?
“वह नहीं हैं मगर वाज़ेह तौर पर ख़बरदार कर देने वाले।” اِنْ هُوَ اِلَّا نَذِيْرٌ مُّبِيْنٌ ١٨٤؁

आयत 185
“और क्या उन लोगों ने ग़ौरो फ़िक्र नहीं किया आसमानों और ज़मीन की सल्तनत में और अल्लाह ने जो चीज़ें बनाई हैं (उनमें)” اَوَلَمْ يَنْظُرُوْا فِيْ مَلَكُوْتِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَمَا خَلَقَ اللّٰهُ مِنْ شَيْءٍ ۙ
“और यह (नहीं सोचा) कि हो सकता है उनका मुक़र्रर वक़्त क़रीब पहुँच गया हो।” وَّاَنْ عَسٰٓي اَنْ يَّكُوْنَ قَدِ اقْتَرَبَ اَجَلُهُمْ ۚ
इससे पहले इसी सूरत में हम पढ़ आए हैं: { وَلِكُلِّ اُمَّةٍ اَجَلٌ ۚ } (आयत 34) “और हर क़ौम के लिये एक वक़्त मुअय्यन है।” जिसका इल्म सिर्फ़ अल्लाह को है। लिहाज़ा यह लोग क्योंकर बेफ़िक्र हो सकते हैं!
“और अब इसके बाद वो और किस बात पर ईमान लायेंगे?” فَبِاَيِّ حَدِيْثٍۢ بَعْدَهٗ يُؤْمِنُوْنَ ١٨٥؁

आयत 186
“जिसको अल्लाह गुमराह कर दे उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं है।” مَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَلَا هَادِيَ لَهٗ ۭ
जिसकी गुमराही पर अल्लाह की तरफ़ से मोहरे तस्दीक़ सब्त हो जाये, फिर इसके बाद उसे कोई राहे रास्त पर नहीं ला सकता।
“और वह छोड़ देगा उनको उनकी सरकशी में, अँधे होकर आगे बढ़ते हुए।” وَيَذَرُهُمْ فِيْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُوْنَ ١٨٦؁

आयत 187
“(ऐ नबी ﷺ) ये आपसे क़यामत के बारे में पूछते हैं कि इसका वक़ूअ (समय) कब होगा? आप कहिये कि इसका इल्म तो मेरे रब ही के पास है।” يَسْــــَٔـلُوْنَكَ عَنِ السَّاعَةِ اَيَّانَ مُرْسٰىهَا ۭقُلْ اِنَّمَا عِلْمُهَا عِنْدَ رَبِّيْ ۚ
यह लोग आप ﷺ से क़यामत के बारे में सवाल करते हैं कि कब लंगर अंदाज़ होगी? आप इनसे कह दीजिये कि इसके बारे मे सिवाय मेरे अल्लाह के कोई नहीं जानता। किसी के पास इस बारे में कोई इल्म नहीं है। “مُرْسٰى” जहाज़ के लंगर अंदाज़ होने को कहा जाता है। जैसे “بِسْمِ اللہِ مَجْرٖھَا وَ مُرْسٰھَا”।
“वही ज़ाहिर करेगा उसे उसके वक़्त पर।” لَا يُجَلِّيْهَا لِوَقْتِهَآ اِلَّا هُوَ ۂ
“और आसमानों और ज़मीन के अंदर बड़ा भारी बोझ है।” ثَقُلَتْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ
आसमान व ज़मीन उससे बोझल हैं। जैसे एक मादा अपना हमल लिए फिरती है, इसी तरह यह कायनात भी क़यामत को यानि अपनी फ़ना को लिए फिरती है। हर शय जो तख़्लीक़ की गई है उसकी एक “अजल-ए-मुसम्मा (निश्चित समय)” उसके अंदर मौजूद है। गोया हर मख़्लूक़ की मौत उसके वजूद के अंदर समो दी गई है। चुनाँचे हर इंसान अपनी मौत को साथ-साथ लिए फिर रहा है और इसी लिहाज़ से पूरी कायनात भी।
“वो नहीं आयेगी तुम पर मगर अचानक।” لَا تَاْتِيْكُمْ اِلَّا بَغْتَةً ۭ
“(ऐ नबी ﷺ) आपसे तो यह इस तरह पूछते हैं गोया आप उसकी खोज में लगे हुए हैं।” يَسْــــَٔـلُوْنَكَ كَاَنَّكَ حَفِيٌّ عَنْهَا
आप ﷺ से तो वो ऐसे पूछते हैं जैसे समझतें हों कि आपको तो बस क़यामत की तारीख़ ही के बारे में फ़िक्र दामनगीर है और आप उसकी तहक़ीक़ व जुस्तुजू में लगे हुए हैं। हालाँकि आपका उससे कोई सरोकार नहीं, यह तो हमारा मामला है।
“आप कह दीजिए कि इसका इल्म तो बस अल्लाह ही के पास है, लेकिन अक्सर लोग इल्म नहीं रखते।” قُلْ اِنَّمَا عِلْمُهَا عِنْدَ اللّٰهِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ ١٨٧؁

आयत 188
“कह दीजिए कि मुझे कोई इख़्तियार नहीं है अपनी जान के बारे में किसी भी नफ़े का और ना किसी नुक़सान का, सिवाय उसके जो अल्लाह चाहे।” قُلْ لَّآ اَمْلِكُ لِنَفْسِيْ نَفْعًا وَّلَا ضَرًّا اِلَّا مَا شَاۗءَ اللّٰهُ ۭ
आप ﷺ इन्हें बताएँ कि मेरे पास इल्मे ग़ैब नहीं है। जैसा कि सूरतुल अनआम की आयत 50 में फ़रमाया गया कि ऐ नबी ﷺ कह दीजिए कि मैं ना तुमसे यह कहता हूँ कि अल्लाह के ख़ज़ाने मेरे क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में हैं, ना मैं इल्मे ग़ैब जानता हूँ और ना मैं यह कहता हूँ कि मैं फरिश्ता हूँ।
“और अगर मुझे इल्मे ग़ैब हासिल होता तो मैं बहुत सा ख़ैर जमा कर लेता और मुझे कभी कोई तकलीफ़ ना आती।” وَلَوْ كُنْتُ اَعْلَمُ الْغَيْبَ لَاسْتَكْثَرْتُ مِنَ الْخَيْر ِ ٻ وَمَا مَسَّنِيَ السُّوْۗءُ ڔ
“नहीं हूँ मैं मगर बशारत देने वाला और ख़बरदार करने वाला, उन लोगों के लिये जो ईमान वाले हों।” اِنْ اَنَا اِلَّا نَذِيْرٌ وَّبَشِيْرٌ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ١٨٨؀ۧ

आयात 189 से 202 तक
هُوَ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ وَّجَعَلَ مِنْهَا زَوْجَهَا لِيَسْكُنَ اِلَيْهَا ۚ فَلَمَّا تَغَشّٰىهَا حَمَلَتْ حَمْلًا خَفِيْفًا فَمَرَّتْ بِهٖ ۚ فَلَمَّآ اَثْقَلَتْ دَّعَوَا اللّٰهَ رَبَّهُمَا لَىِٕنْ اٰتَيْتَنَا صَالِحًا لَّنَكُوْنَنَّ مِنَ الشّٰكِرِيْنَ ١٨٩؁ فَلَمَّآ اٰتٰىهُمَا صَالِحًا جَعَلَا لَهٗ شُرَكَاۗءَ فِيْمَآ اٰتٰىهُمَا ۚ فَتَعٰلَى اللّٰهُ عَمَّا يُشْرِكُوْنَ ١٩٠؁ اَيُشْرِكُوْنَ مَا لَا يَخْلُقُ شَـيْــــًٔـا وَّهُمْ يُخْلَقُوْنَ ١٩١؀ڮ وَلَا يَسْتَطِيْعُوْنَ لَهُمْ نَصْرًا وَّلَآ اَنْفُسَهُمْ يَنْصُرُوْنَ ١٩٢؁ وَاِنْ تَدْعُوْهُمْ اِلَى الْهُدٰى لَا يَتَّبِعُوْكُمْ ۭ سَوَاۗءٌ عَلَيْكُمْ اَدَعَوْتُمُوْهُمْ اَمْ اَنْتُمْ صَامِتُوْنَ ١٩٣؁ اِنَّ الَّذِيْنَ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ عِبَادٌ اَمْثَالُكُمْ فَادْعُوْهُمْ فَلْيَسْتَجِيْبُوْا لَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ ١٩٤؁ اَلَهُمْ اَرْجُلٌ يَّمْشُوْنَ بِهَآ ۡ اَمْ لَهُمْ اَيْدٍ يَّبْطِشُوْنَ بِهَآ ۡ اَمْ لَهُمْ اَعْيُنٌ يُّبْصِرُوْنَ بِهَآ ۡ اَمْ لَهُمْ اٰذَانٌ يَّسْمَعُوْنَ بِهَا ۭقُلِ ادْعُوْا شُرَكَاۗءَكُمْ ثُمَّ كِيْدُوْنِ فَلَا تُنْظِرُوْنِ ١٩٥؁ اِنَّ وَلِيّۦ اللّٰهُ الَّذِيْ نَزَّلَ الْكِتٰبَ ڮ وَهُوَ يَتَوَلَّى الصّٰلِحِيْنَ ١٩٦؁ وَالَّذِيْنَ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ نَصْرَكُمْ وَلَآ اَنْفُسَهُمْ يَنْصُرُوْنَ ١٩٧؁ وَاِنْ تَدْعُوْهُمْ اِلَى الْهُدٰى لَا يَسْمَعُوْا ۭوَتَرٰىهُمْ يَنْظُرُوْنَ اِلَيْكَ وَهُمْ لَا يُبْصِرُوْنَ ١٩٨؁ خُذِ الْعَفْوَ وَاْمُرْ بِالْعُرْفِ وَاَعْرِضْ عَنِ الْجٰهِلِيْنَ ١٩٩؁ وَاِمَّا يَنْزَغَنَّكَ مِنَ الشَّيْطٰنِ نَزْغٌ فَاسْتَعِذْ بِاللّٰهِ ۭاِنَّهٗ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ٢٠٠؁ اِنَّ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا اِذَا مَسَّهُمْ طٰۗىِٕفٌ مِّنَ الشَّيْطٰنِ تَذَكَّرُوْا فَاِذَا هُمْ مُّبْصِرُوْنَ ٢٠١؀ۚ وَاِخْوَانُهُمْ يَمُدُّوْنَهُمْ فِي الْغَيِّ ثُمَّ لَا يُقْصِرُوْنَ ٢٠٢؁
आयत 189
“वही है जिसने तुम्हें पैदा किया एक जान से और उसी से बनाया उसका जोड़ा, ताकि वह उसके पास सुकून हासिल करे।” هُوَ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ وَّجَعَلَ مِنْهَا زَوْجَهَا لِيَسْكُنَ اِلَيْهَا ۚ
इस नुक्ते की वज़ाहत सूरतुल बक़रह की आयत 187 { وَابْتَغُوْا مَا كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ ۠} के मुताअले के दौरान गुज़र चुकी है। शौहर और बीबी के ताल्लुक़ात में जहाँ औलाद का मामला है वहाँ तस्कीन और सुकून का भी पहलु भी है।
“तो जब वह (शौहर) ढ़ाँप लेता है उस (अपनी बीवी) को तो उसे हमल हो जाता है हल्का सा हमल, तो वह उसके साथ चलती-फिरती रहती है।” فَلَمَّا تَغَشّٰىهَا حَمَلَتْ حَمْلًا خَفِيْفًا فَمَرَّتْ بِهٖ ۚ
इब्तदा में हमल इतना ख़फ़ीफ़ होता है कि पता भी नहीं चलता कि कोई हमल ठहर गया है।
“फिर जब बोझल हो जाती है तो वह दोनो अपने रब को पुकारते हैं, कि अगर तू हमें सही सालिम बच्चा अता कर देगा तो हम तेरे शुक्र गुज़ारों में से होंगे।” فَلَمَّآ اَثْقَلَتْ دَّعَوَا اللّٰهَ رَبَّهُمَا لَىِٕنْ اٰتَيْتَنَا صَالِحًا لَّنَكُوْنَنَّ مِنَ الشّٰكِرِيْنَ ١٨٩؁

आयत 190
“फिर जब अल्लाह ने उन्हें अता कर दिया सही सालिम बच्चा, तो ठहरा लिए उन्होंने उसके शरीक उसमें जो अल्लाह ने उनको अता किया था।” فَلَمَّآ اٰتٰىهُمَا صَالِحًا جَعَلَا لَهٗ شُرَكَاۗءَ فِيْمَآ اٰتٰىهُمَا ۚ
कि फलाँ बुज़ुर्ग के मज़ार पर गये थे, उनकी निगाहें करम हुई है, या फलाँ देवी या देवता कि कृपा की वजह से हमें औलाद मिल गई है।
“अल्लाह बहुत बुलंद व बाला है उनके इस शिर्क से।” فَتَعٰلَى اللّٰهُ عَمَّا يُشْرِكُوْنَ ١٩٠؁

आयत 191
“क्या वो उनको शरीक कर रहे हैं (अल्लाह के साथ) जो कोई शय तख़्लीक़ करते ही नहीं बल्कि वो ख़ुद मख़लूक़ हैं।” اَيُشْرِكُوْنَ مَا لَا يَخْلُقُ شَـيْــــًٔـا وَّهُمْ يُخْلَقُوْنَ ١٩١؀ڮ
फ़रिश्ते, जिन्नात, अम्बिया और औलिया अल्लाह सबके सब ख़ुद अल्लाह की मख़्लूक़ हैं।

आयत 192
“और ना वो उनकी मदद कर सकते हैं और ना वो अपनी मदद पर क़ादिर हैं।” وَلَا يَسْتَطِيْعُوْنَ لَهُمْ نَصْرًا وَّلَآ اَنْفُسَهُمْ يَنْصُرُوْنَ ١٩٢؁
वो तो सबके सब ख़ुद अल्लाह के बंदे हैं। अब यहाँ बात तदरीजन बुतों की तरफ़ लाई जा रही है। नज़रियाती तौर पर तो उनके फ़लसफ़ी बुतपरस्ती का जवाज़ यह बताते हैं कि वो उन पत्थर के बुतों की पूजा नहीं करते बल्कि उन मूर्तियों की हैसियत अलामती है। असल देवता और देवियाँ चूँकि हमारे सामने मौजूद नहीं हैं इसलिये उनके बारे में तवज्जोह के इरतकाज़ के लिये हम बुतों को अलामत के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। यह उस फ़लसफ़े का ख़ुलासा है जो इंडिया के डॉक्टर राधाकृष्णन वग़ैरह बयान करते रहे हैं, मगर उनके अवाम तो उन बुतों ही को मअबूद मानते हैं, उन्हीं की पूजा करते हैं, बुतों ही के आगे झुकते हैं, नज़राने देते हैं और उन्हीं से अपनी हाजात माँगते हैं।

आयत 193
“और अग़र तुम उन्हें पुकारो रहनुमाई के लिये (कि तुम्हें रास्ता दिखा दें) तो वो तुम्हारी तरफ़ तवज्जोह ही नहीं कर सकेगें।” وَاِنْ تَدْعُوْهُمْ اِلَى الْهُدٰى لَا يَتَّبِعُوْكُمْ ۭ
“बराबर है तुम्हारे लिये कि तुम उन्हें पुकारो या खामोश रहो।” سَوَاۗءٌ عَلَيْكُمْ اَدَعَوْتُمُوْهُمْ اَمْ اَنْتُمْ صَامِتُوْنَ ١٩٣؁

आयत 194
“यक़ीनन जिन्हें तुम पुकारते हो अल्लाह के मा-सिवा वो भी तुम्हारी तरह के बंदे हैं” اِنَّ الَّذِيْنَ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ عِبَادٌ اَمْثَالُكُمْ
वो फ़रिश्ते हों या जिन्नात, देवी-देवता हों या औलिया अल्लाह, सब तुम्हारी तरह अल्लाह ही के बंदे हैं।
“उनको पुकार कर देखो, फिर वो तुम्हें जवाब दें अगर तुम सच्चे हो।” فَادْعُوْهُمْ فَلْيَسْتَجِيْبُوْا لَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ ١٩٤؁
अगर तुम अपने इस दावे में सच्चे हो कि वो लायक़ परस्तिश हैं और कुछ इख़्तियार भी रखते हैं तो तुम्हारी पुकार या दुआ पर उनकी तरफ़ से कुछ ना कुछ जवाब तो ज़रूर मिलना चाहिये। बल्कि सूरह युनूस में तो यहाँ तक वाज़ेह किया गया है कि रोज़े महशर वो कहेंगे कि हमें तो ख़बर ही नहीं थी कि तुम लोग हमारी पूजा-पाठ करते रहे हो: {اِنْ كُنَّا عَنْ عِبَادَتِكُمْ لَغٰفِلِيْنَ} (आयत 29) यानि हम तो इस सब कुछ से ग़ाफ़िल थे कि तुम लोग हमें पुकारते रहे हो, हमारी दुहाईयाँ देते रहे हो। “या शेख़ अब्दुल क़ादिर जीलानी शयअन लिल्लाह” जैसे मुशरिकाना विर्द करते रहे हो। अब अग़ली आयत में ख़ास तौर पर बुतों की तरफ़ इशारा है।

आयत 195
“क्या इनके पाँव है जिनसे ये चलते हों?” اَلَهُمْ اَرْجُلٌ يَّمْشُوْنَ بِهَآ ۡ
तुमने उनके पाँव अगर बना भी दिये हैं तो क्या वो एक क़दम चलने की सकत (ताक़त) भी रखते हैं?
“या इनके हाथ हैं जिनसे ये पकड़ते हों?” اَمْ لَهُمْ اَيْدٍ يَّبْطِشُوْنَ بِهَآ ۡ
“या इनकी आँखे हैं जिनसे ये देखते हों?” اَمْ لَهُمْ اَعْيُنٌ يُّبْصِرُوْنَ بِهَآ ۡ
“या इनके कान हैं जिनसे ये सुनते हों?” اَمْ لَهُمْ اٰذَانٌ يَّسْمَعُوْنَ بِهَا ۭ
“(ऐ नबी ﷺ!) आप कह दीजिए कि पुकार लो अपने सब शरीकों को, फिर मेरे ख़िलाफ़ चालें चलो (जो चल सकते हो) और मुझे कोई मोहलत ना दो।” قُلِ ادْعُوْا شُرَكَاۗءَكُمْ ثُمَّ كِيْدُوْنِ فَلَا تُنْظِرُوْنِ ١٩٥؁
रसूल ﷺ से डंके की चोट पर यह ऐलान कराया जा रहा है कि मैं तुमसे कोई दरख़्वास्त नहीं करता कि मेरे साथ नरमी करो या मुझे मोहलत दे दो। तुम अपने तमाम मअबूदों को बुला लो और मेरे ख़िलाफ़ जो भी अक़दाम कर सकते हो कर गुज़रो। यह इसी तहर का क़ौले फ़ैसल है जैसे हज़रत इब्राहीम अलै. से ऐलाने बराअत कराया गया था: {اِنِّىْ بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ } (अन्आम 78)।

आयत 196
“यक़ीनन मेरा मददगार तो वह अल्लाह है जिसने यह किताब नाज़िल की, और सालेह बंदों का वही पुश्त पनाह है।” اِنَّ وَلِيّۦ اللّٰهُ الَّذِيْ نَزَّلَ الْكِتٰبَ ڮ وَهُوَ يَتَوَلَّى الصّٰلِحِيْنَ ١٩٦؁
आयत 197
“और जिन्हें तुम पुकार रहे हो उस (अल्लाह) को छोड़ कर वो तुम्हारी मदद की इस्तताअत ही नहीं रखते, और ना वो ख़ुद अपनी मदद कर सकते हैं।” وَالَّذِيْنَ تَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ نَصْرَكُمْ وَلَآ اَنْفُسَهُمْ يَنْصُرُوْنَ ١٩٧؁

आयत 198
“और अगर तुम उन्हें रहनुमाई कि लिये पुकारो तो वो सुन ना सकेगें।” وَاِنْ تَدْعُوْهُمْ اِلَى الْهُدٰى لَا يَسْمَعُوْا ۭ
“और तुम्हें ऐसा नज़र आता है कि वो तुम्हारी तरफ़ देख रहे हैं जबकि वो कुछ भी नहीं देखते।” وَتَرٰىهُمْ يَنْظُرُوْنَ اِلَيْكَ وَهُمْ لَا يُبْصِرُوْنَ ١٩٨؁

आयत 199
“(ऐ नबी ﷺ!) आप दरगुज़र को थाम लीजिए और भली बात का हुक्म देते रहिये” خُذِ الْعَفْوَ وَاْمُرْ بِالْعُرْفِ
जैसा कि मक्की सूरतों के आखिर में अक्सर हुज़ूर ﷺ से ख़िताब और इल्तफ़ात (अनुग्रह) होता है यहाँ भी वही अंदाज़ है कि आप ﷺ इन लोगों से बहुत ज़्यादा बहस-मुबाहिसा में ना पड़ें, इनके रवैये से दरगुज़र करें और अपनी दावत जारी रखें।
“और जाहिलों से ऐराज़ करें।” وَاَعْرِضْ عَنِ الْجٰهِلِيْنَ ١٩٩؁
यह जाहिल लोग आप ﷺ से उलझना चाहें तो आप ﷺ इनसे किनारा कशी कर लें। जैसा कि सूरह फ़ुरकान में फ़रमाया: { وَّاِذَا خَاطَبَهُمُ الْجٰهِلُوْنَ قَالُوْا سَلٰمًا } (आयत 63) “और जब जाहिल लोग इन (रहमान के बंदों) से उलझना चाहते हैं तो वो उनको सलाम कहते (हुए गुज़र जाते) हैं। सूरह अल् क़सस में भी अहले ईमान का यही तरीक़ा बयान किया गया है: {سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ ۡ لَا نَبْتَغِي الْجٰهِلِيْنَ} (आयत 55) “तुम्हें सलाम हो, हम जाहिलों के मुँह नहीं लगना चाहते।” आयत ज़ेरे नज़र में एक दाई के लिये तीन बड़ी बुनियादी बातें बताई गई हैं। अफ़ू दरगुज़र से काम लेना, नेकी और भलाई की बात का हुक्म देते रहना और जाहिल यानि जज़्बाती और मुश्तइल (उग्र) मिज़ाज लोगों से ऐराज़ करना।

आयत 200
“और अगर कभी आपको कोई चूक लग ही जाये शैतान की तरफ़ से तो अल्लाह की पनाह तलब करें, यक़ीनन वह सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।” وَاِمَّا يَنْزَغَنَّكَ مِنَ الشَّيْطٰنِ نَزْغٌ فَاسْتَعِذْ بِاللّٰهِ ۭاِنَّهٗ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ٢٠٠؁
نزع और نزغ मिलते-जुलते हुरूफ़ वाले दो माद्दे हैं, इनमें सिर्फ़ “ع” और “غ” का फ़र्क़ है। نزع खींचने के मायने देता है जबकि نزغ के मायने हैं कचूका लगाना, उकसाना, वसवसा अंदाज़ी करना। यानि अगर बर-बनाए-तबअ-ए-बशरी कभी जज़्बात में इश्तआल (उत्तेजक) और गुस्सा आ ही जाये तो फ़ौरन भाँप लें कि यह शैतान की जानिब से एक चूक है, चुनाँचे फ़ौरन अल्लाह की पनाह माँगें। जैसा कि ग़जवा-ए-ओहद में हुज़ूर ﷺ को गुस्सा आ गया था और आप ﷺ की ज़बान मुबारक से ऐसे अल्फ़ाज़ निकले गये थे: ((کَیْفَ یُفْلِحُ قَوْمٌ خَضَبُوْا وَجْہَ نَبِیِّھِمْ بالدَّمِ وَھُوَ یَدْعُوْھُمْ اِلَی اللّٰہِ))(16) “यह क़ौम कैसे फ़लाह (कामयाबी) पायेगी जिसने अपने नबी के चेहरे को खून से रंग दिया जबकि वह उन्हें अल्लाह की तरफ बुला रहा था!” यह आयत आगे चल कर सूरह हा मीम सजदा (आयत 36) में एक लफ़्ज़ (हुवा) के इज़ाफ़े के साथ दोबारा आयेगी: {اِنَّهٗ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ } कि यक़ीनन वही है सब कुछ सुनने वाला और सब कुछ जानने वाला।

आयत 201
“जिन लोगों के अंदर तक़वा है उनको जब कोई बुरा ख़्याल छू जाता है शैतान के असर से तो वो चौकन्ने हो जाते हैं” اِنَّ الَّذِيْنَ اتَّقَوْا اِذَا مَسَّهُمْ طٰۗىِٕفٌ مِّنَ الشَّيْطٰنِ تَذَكَّرُوْا
यानि जिनके दिलों में अल्लाह का तक़वा जागुज़ीं होता है वो हर घड़ी अपने फ़िक्र व अमल का अहतसाब करते रहते हैं और अगर कभी आरज़ी तौर पर ग़फ़लत या शैतानी वसवसों से कोई मन्फ़ी असरात दिल व दिमाग़ में ज़ाहिर हों तो वो फ़ौरन सम्भल कर अल्लाह की तरफ़ रुजुअ करते हैं। जैसे ख़ुद नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया: ((اِنَّہٗ لَیُغَانُ عَلٰی قَلْبِیْ وَاِنِّیْ لَاَسْتَغْفِرُ اللّٰہَ فِی الْیَوْمِ ماءَۃَ مَرَّۃٍ))(17) “मेरे दिल पर भी कभी-कभी हिजाब सा आ जाता है और मैं रोज़ाना सौ-सौ मर्तबा अल्लाह से मग़फ़िरत तलब करता हूँ।” लेकिन यह समझ लीजिए कि हमारे दिल पर हिजाब और शय है जबकि रसूल ﷺ के क़ल्बे मुबारक पर हिजाब बिल्कुल और शय है। यह हिजाब भी उस हुज़ूरी के दर्जे में होगा जो हमारी लाखों हुज़ूरियों से बढ़ कर है। यहाँ सिर्फ़ बात की वज़ाहत के लिये इस हदीस का ज़िक्र किया गया है वरना जिस हिजाब का ज़िक्र हुजूर ﷺ ने फ़रमाया है हम ना तो उसका अंदाज़ा कर सकते हैं कि इसकी नौइयत क्या होगी और ना ही उसकी मुशाबेहत हमारी किसी भी क़िस्म की क़ल्बी कैफ़ियात के साथ हो सकती है। हम ना तो हुज़ूर ﷺ के ताल्लुक़ मय अल्लाह की कैफ़ियत का तस्सवुर कर सकते हैं और ना ही मज़कूरा हिजाब की कैफ़ियत का। बस उस ताल्लुक़ मय अल्लाह की शिद्दत (intensity) में कभी ज़रा सी भी कमी आ गई तो हुज़ूर ﷺ ने उसे हिजाब से ताबीर फ़रमाया।
“और दफ्फ़तन उनकी आँखें खुल जाती हैं।” فَاِذَا هُمْ مُّبْصِرُوْنَ ٢٠١؀ۚ
जब वो चौकन्ने हो जाते हैं तो उनकी वक़्ती ग़फ़लत दूर हो जाती है, आरज़ी मन्फ़ी असरात का बोझ ख़त्म हो जाता है और हक़ाइक फिर से वाज़ेह नज़र आने लगते हैं।

आयत 202
“और जो उन (शैतानों) के भाई हैं उन्हें वो घसीट कर ले जाते हैं दूर तक गुमराही में, फिर वो कुछ कमी नहीं करते।” وَاِخْوَانُهُمْ يَمُدُّوْنَهُمْ فِي الْغَيِّ ثُمَّ لَا يُقْصِرُوْنَ ٢٠٢؁
शैतान का जो दोस्त बनेगा फिर उस पर शैतान का हुक्म तो चलेगा। श्यातीन अपने भाई बंदों को गुमराही में घसीटते हुए दूर तक ले जाते हैं और उसमें कोई कसर उठा नहीं रखते। यानि गुमराही की आखरी हद तक पहुँचा कर रहते हैं। जैसे बलअल बिन बाऊरा को शैतान ने अपना शिकार बनाया था और उसे गुमराही की आखरी हद तक पहुँचा कर दम लिया, लेकिन जो अल्लाह के मुख़्लिस और मुत्तक़ी बंदे हैं उन पर शैतान का इख़्तियार नहीं चलता। उनकी कैफ़ियत वह होती है जो इससे पिछली आयत में बयान हुई है, यानि ज्योंहि मन्फ़ी असरात का साया उनको अपनी तरफ़ बढ़ता हुआ महसूस होता है वो एकदम चौंक कर अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जह हो जाते हैं।

आयात 203 से 206 तक
وَاِذَا لَمْ تَاْتِهِمْ بِاٰيَةٍ قَالُوْا لَوْلَا اجْتَبَيْتَهَا ۭقُلْ اِنَّمَآ اَتَّبِعُ مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّ مِنْ رَّبِّيْ ۚ هٰذَا بَصَاۗىِٕرُ مِنْ رَّبِّكُمْ وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ٢٠٣؁ وَاِذَا قُرِئَ الْقُرْاٰنُ فَاسْتَمِعُوْا لَهٗ وَاَنْصِتُوْا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ ٢٠٤؁ وَاذْكُرْ رَّبَّكَ فِيْ نَفْسِكَ تَضَرُّعًا وَّخِيْفَةً وَّدُوْنَ الْجَــهْرِ مِنَ الْقَوْلِ بِالْغُدُوِّ وَالْاٰصَالِ وَلَا تَكُنْ مِّنَ الْغٰفِلِيْنَ ٢٠٥؁ اِنَّ الَّذِيْنَ عِنْدَ رَبِّكَ لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ عَنْ عِبَادَتِهٖ وَيُسَبِّحُوْنَهٗ وَلَهٗ يَسْجُدُوْنَ ٢٠٦؀ڙ

आखिर में इन दोनों सूरतों के मज़ामीन के उमूद का ख़ुलासा बयान किया जा रहा है। जिस ज़माने में ये दो सूरतें नाज़िल हुईं उस वक़्त कुफ्फ़ारे मक्का की तरफ़ से यह मुतालबा तकरार के साथ किया जा रहा था कि कोई निशानी लाओ, कोई मौअज्ज़ा दिखाओ। जिस तरह की हिस्सी मौअज्ज़ात हज़रत ईसा और हज़रत मूसा अलै. को मिले थे, उसी नौइयत के मौअज्ज़ात अहले मक्का भी देखना चाहते थे। जैसे-जैसे उनकी तरफ़ से मुतालबात आते रहे, साथ-साथ उनके जवाबात भी दिये जाते रहे। अब इस सिलसिले में आखरी बात हो रही है।

आयत 203
“(ऐ नबी ﷺ) जब आप इनके पास कोई मौअज्ज़ा नहीं लाते तो ये कहते हैं कि आप क्यों ना उसे चुन कर ले आए?” وَاِذَا لَمْ تَاْتِهِمْ بِاٰيَةٍ قَالُوْا لَوْلَا اجْتَبَيْتَهَا ۭ
कुफ्फ़ारे मक्का का कहना था कि जब आप (ﷺ) का दावा है कि आप अल्लाह के रसूल हैं, उसके महबूब हैं तो आपके लिये मौअज्ज़ा दिखाना कौन सा मुश्किल काम है? आप हमारे इत्मिनान के लिये कोई मौअज्ज़ा छाँट कर ले आएँ! इस सिलसले में तफ़्सीर कबीर में इमाम राज़ी रहि. ने एक वाक़या नक़ल किया है कि नबी अकरम ﷺ का एक फूफी ज़ाद भाई था, जो अग़रचे ईमान तो नहीं लाया था मगर अक्सर आप ﷺ के साथ रहता और आप ﷺ से तआवुन (सहयोग) भी करता था। उसके इस तरह के रवैय्ये से उम्मीद थी कि एक दिन वह ईमान भी ले आयेगा। एक दफ़ा किसी महफ़िल में सरदाराने क़ुरैश ने मौअज्ज़ात के बारे में आप ﷺ से बहुत बहस व तकरार की कि आप नबी हैं तो अभी मौअज्ज़ा दिखायें, यह नहीं तो वह दिखा दें, ऐसे नहीं तो वैसे करके दिखा दें! (इसकी तफ़सील सूरह बनी इस्राईल में भी आयेगी) मगर आप ﷺ ने उनकी हर बात पर यही फ़रमाया कि मौअज्ज़ा दिखाना मेरे इख़्तियार में नहीं है, यह तो अल्लाह का फ़ैसला है, जब अल्लाह तआला चाहेगा दिखा देगा। इस पर उन्होंने गोया अपने ज़अम (ख्याल) में मैदान मार लिया और आप ﷺ पर आखरी हुज्जत क़ायम कर दी। इसके बाद जब हुज़ूर ﷺ वहाँ से उठे तो वहाँ शोर मच गया। उन लोगों ने क्या-क्या और किस-किस अंदाज़ में बातें नहीं की होंगी और उसके अवाम पर क्या असरात हुए होंगे। इसका अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि आप ﷺ के उस फूफी ज़ाद भाई ने कहा कि आज तो गोया आपकी क़ौम ने आप पर हुज्जत क़ायम कर दी है, अब मैं आपका साथ नहीं दे सकता।
इस वाक़िये से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यह मौज़ूअ उस माहौल में किस क़द्र अहमियत इख़्तियार कर गया था और उस तरह की सूरते हाल में आप ﷺ किस क़द्र दिल गिरफ्ता हुए होंगे। इसका कुछ नक़्शा सूरतुल अनआम आयत 35 में इस तरह खींचा गया है:
“और (ऐ नबी ﷺ) अगर आप पर बहुत शाक़ गुज़र रहा है इनका ऐराज़ तो अगर आप में ताक़त है तो ज़मीन में कोई सुरंग बना लीजिए या आसमान पर सीढ़ी लगा लीजिए और इनके लिये कहीं से कोई निशानी ले आइये! (हम तो नहीं दिखायेगें!) وَاِنْ كَانَ كَبُرَ عَلَيْكَ اِعْرَاضُهُمْ فَاِنِ اسْتَطَعْتَ اَنْ تَبْتَغِيَ نَفَقًا فِي الْاَرْضِ اَوْ سُلَّمًا فِي السَّمَاۗءِ فَتَاْتِيَهُمْ بِاٰيَةٍ ۭ
यह पसमंज़र है उन हालात का जिसमें फ़रमाया जा रहा है कि मौअज्ज़ात के मुतालबात में आप ﷺ उनको बताएँ कि मौज्ज़ा दिखाने या ना दिखाने का फ़ैसला अल्लाह ने करना है, मुझे इसका इख़्तियार नहीं है।
“कह दीजिए कि मैं तो सिर्फ़ पैरवी कर रहा हूँ उसकी जो मेरी तरफ़ वही की जा रही है मेरे रब की तरफ़ से।” قُلْ اِنَّمَآ اَتَّبِعُ مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّ مِنْ رَّبِّيْ ۚ
“यह तुम्हारे रब की तरफ़ से बसीरत अफ़रोज़ बातें हैं, और यह हिदायत और रहमत है उन लोगों के हक़ में जो ईमान ले आएँ।” هٰذَا بَصَاۗىِٕرُ مِنْ رَّبِّكُمْ وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ٢٠٣؁
मैं आप लोगों के सामने जो पेश कर रहा हूँ, यह वही कुछ है जो अल्लाह ने मुझ पर वही किया है और मैं खुद भी इसी की पैरवी कर रहा हूँ। इससे बढ़ कर मैंने कभी कोई दावा किया ही नहीं।

आयत 204
“और जब क़ुरान पढ़ा जा रहा हो तो उसे पूरी तवज्जोह के साथ सुना करो और ख़ामोश रहा करो ताकि तुम पर रहम किया जाये।” وَاِذَا قُرِئَ الْقُرْاٰنُ فَاسْتَمِعُوْا لَهٗ وَاَنْصِتُوْا لَعَلَّكُمْ تُرْحَمُوْنَ ٢٠٤؁
سَمِعَ, یَسْمَعُ के मायने हैं सुनना, जबकि اِسْتِمَاع के मायने हैं पूरी तवज्जोह के साथ सुनना, कान लगा कर सुनना। जो हज़रात जहरी नमाज़ों में इमाम के पीछे क़िराअत ना करने के क़ायल हैं वो इसी आयत को बतौर दलील पेश करते हैं, क्योंकि इस आयत की रू से तिलावते क़ुरान को पूरी तरह इरतकाज़े तवज्जोह के साथ सुनना फ़र्ज़ है और साथ ही ख़ामोश रहने का हुक्म भी है। जबकि नमाज़ के दौरान ख़ुद तिलावत करने की सूरत में सुनने की तरफ़ तवज्जोह नहीं रहेगी और ख़ामोश रहने के हुक्म पर भी अमल नहीं होगा।

आयत 205
“और अपने रब को याद करते रहा करो अपने जी ही जी में, आजिज़ी और ख़ौफ के साथ” وَاذْكُرْ رَّبَّكَ فِيْ نَفْسِكَ تَضَرُّعًا وَّخِيْفَةً
इस आजिज़ी की इन्तहा और अब्दियत कामिला का मज़हर तो वह दुआ-ए-मासूर है जो मैंने नक़ल की है “मुसलमानों पर क़ुरान मजीद के हुक़ूक़” नामी अपने किताबचे के आख़िर में। इन दोनों आयात (क़ुरान की अज़मत और दुआ में आजिज़ी) के हवाले से इस दुआ के मन्दर्जा ज़ेल (निम्नलिखित) अल्फ़ाज़ को अपने क़ल्ब की गहराईयों में उतारने की कोशिश करें:
“ऐ अल्लाह मैं तेरा बंदा हूँ!” اَللّٰھُمَّ اِنِّیْ عَبْدُکَ
“तेरे एक नाचीज़ गुलाम और अदना कनीज़ का बेटा हूँ!” وَابْنُ عَبْدِکَ وَابْنُ اَمَتِکَ
“और मुझ पर तेरा ही कामिल इख़्तियार है, मेरी पेशानी तेरे ही हाथ है।” وَفِیْ قَبْضَتِکَ ‘ نَا صِیَتِیْ بِیَدِکَ
“नाफ़िज़ है मेरे बारे में तेरा हर हुक्म, और अदल है मेरे बारे में तेरा हर फ़ैसला।” مَاضٍ فِیَّ حُکْمُکَ ‘ عَدْلٌ فِیَّ قَضَاءُ کَ
“मैं तुझसे दरख़्वास्त करता हूँ तेरे हर उस इस्म (नाम) के वास्ते से जिससे तूने अपनी ज़ाते मुक़द्दस को मौसूम फ़रमाया” اَسْئَلُکَ بِکُلِّ اسْمٍ ھُوَ لَکَ ‘ سَمَّیْتَ بہٖ نَفْسَکَ
“या अपनी किसी किताब में नाज़िल फ़रमाया” اَوْ اَنْزَلْتَہٗ فِیْ کِتَابِکَ
“या अपनी मख़्लूक़ में से किसी को तल्क़ीन फ़रमाया” اَوْ عَلَّمْتَہٗ اَحَدً ا مِنْ خَلْقِکَ
“या उसे अपने मख़्सूस ख़जाना-ए-ग़ैब ही में महफ़ूज़ रखा” اَوِاسْتَأثَرْتَ بِہٖ فِیْ مَکْنُوْنِ الْغَیْبِ عِنْدَکَ
“कि तू बना दे क़ुरान मजीद को मेरे दिल की बहार और मेरे सीने का नूर और मेरे रंज व हज़्न की जिला और मेरे तफ़क़्क़ुरात और गमों के इज़ाले का सबब!” (18) اَنْ تَجْعَلَ الْقُرْاٰنَ رَبِیْعَ قَلْبِیْ وَ نُوْرَ صَدْرِیْ وَجِلَا ءَ حُزْنِیْ وَ ذَھَابَ ھَمِّیْ وَ غَمِّیْ
“ऐसा ही हो ऐ तमाम जहानों के परवरदिगार!” آمِیْن یَا رَبَّ الْعَالَمِیْنَ !

“और बुलंद आवाज़ से नहीं (पस्त आवाज़ से)” وَّدُوْنَ الْجَــهْرِ مِنَ الْقَوْلِ
अलबत्ता जब आदमी दुआ माँगे तो इस तरह माँगे कि ख़ुद सुन सके ताकि उसकी समाअत भी उससे इस्तफ़ादा करे। इसी तरह अगर कोई शख़्स अकेला नमाज़ पढ़ रहा हो तो क़िरात ऐसे करे कि ख़ुद सुन सके, अग़रचे सिर्री नमाज़ ही क्यों ना हो।
“(और इस तरह आप अपने रब का ज़िक्र करते रहें) सुबह के वक़्त भी और शाम के अवक़ात में भी” بِالْغُدُوِّ وَالْاٰصَالِ
जैसे सूरह अल् अनआम की पहली आयत की तशरीह के ज़िमन में ज़िक्र आया था कि लफ़्ज़ नूर क़ुरान में हमेशा वाहिद आता है जबकि ज़ुल्मात हमेशा जमा ही आता है, इसी तरह लफ़्ज़ ग़ुदुव्व (सुबह) भी हमेशा वाहिद और आसाल (शाम) हमेशा जमा ही आता है। यह असील की जमा है। इसमें इशारा है कि सुबह की नमाज़ तो एक ही है यानि फ़जर, जबकि सूरज ज़रा मग़रिब की तरफ़ ढ़लना शुरू होता है तो पै दर पै नमाज़ें हैं, जो रात तक पढ़ी जाती रहती हैं, यानि ज़ोहर, अस्र, मग़रिब और इशा। सूरह बनी इस्राईल की आयत 78 {اَقِمِ الصَّلٰوةَ لِدُلُوْكِ الشَّمْسِ اِلٰى غَسَقِ الَّيْلِ} में भी इसी तरफ़ इशारा है।
“और ग़ाफिलों में से ना हो जाइये।” وَلَا تَكُنْ مِّنَ الْغٰفِلِيْنَ ٢٠٥؁

आयत 206
“बेशक वो जो आपके रब के पास हैं” اِنَّ الَّذِيْنَ عِنْدَ رَبِّكَ
यानि मलाउलआला जो मलाइका मुक़र्ररबीन पर मुश्तमिल है, जिसका नक़्शा अमीर खुसरो रहि. ने अपने इस ख़ूबसूरत शेअर में इस तरह बयान किया है:
ख़ुदा ख़ुद मीरे महफ़िल बूद अंदर ला मकाँ ख़ुसरो
मुहम्मद ﷺ शमा-ए-महफफ़िल बूद शब जाये कि मन बूदम!
यानि ला मकाँ कि वह महफ़िल जिसका मीर-ए-महफ़िल ख़ुद अल्लाह तआला है और जहाँ शुरकाए महफ़िल मलाइका मुक़र्ररबीन हैं और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ (रूहे मुहम्मदी ﷺ) को उस महफ़िल में गोया चिराग और शमा की हैसियत हासिल है। अमीर ख़ुसरो कहते हैं कि रात मुझे भी उस महफ़िल में हाज़री का शर्फ़ हासिल हुआ।
“वो उसकी इबादत से इस्तकबार नहीं करते, और उसकी तस्बीह करते रहते हैं, और उसके लिए सज्दे करते रहते हैं।” لَا يَسْتَكْبِرُوْنَ عَنْ عِبَادَتِهٖ وَيُسَبِّحُوْنَهٗ وَلَهٗ يَسْجُدُوْنَ ٢٠٦؀ڙ

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔
बारक अल्लाहु ली व लकुम फ़िल क़ुरानुल अज़ीम, व नफ़ाअनी, व इय्याकुम बिल्आयाति वल् ज़िकरुल हकीम!!

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