Surah younus-सूरह युनुस
सूरह युनुस
तम्हीदी कलिमात
सूरह युनुस के आगाज़ के साथ ही क़ुरान हकीम की तीसरी मंज़िल भी शुरू हो रही है और यहीं से मक्की-मदनी सूरतों के तीसरे ग्रुप का आग़ाज़ भी हो रहा है। इस लिहाज़ से क़ुरान का यह मक़ाम गोया “क़िरानस्स साअदैन” है। मक्की सूरतों का यह सिलसिला जो सूरह युनुस से शुरू होकर सूरतुल मोमिनून (अट्ठारवें पारे) तक फैला हुआ है, हुज्म के ऐतबार से तवील तरीन है। (अलबत्ता तेईसवें पारे की सूरतें चूँकि छोटी-छोटी हैं इसलिये तादाद के लिहाज़ से सबसे ज़्यादा मक्की सूरतें आखरी ग्रुप में हैं।) इस ग्रुप में शामिल सूरतुल हिज्र और सूरतुल हज के बारे में बाज़ मुफ़स्सिरीन की राय है कि ये दोनों मदनियात हैं, मगर इस सिलसिले में मुझे उन मुफ़स्सिरीन से इत्तेफ़ाक़ है जो इन दोनों को मक्कियात मानते हैं।
इन पहले तीन ग्रुप्स में शामिल सूरतों की मक्की और मदनी तक़सीम के हवाले से बात की जाए तो जिस तरह पहले ग्रुप में सूरतुल बक़रह से लेकर सूरतुल मायदा तक सवा छ: पारों पर मुश्तमिल छ: सूरतें मदनी थीं, इसी तरह अब इस ग्रुप में आईन्दा सात पारों पर मुश्तमिल मुसलसल चौदह सूरतें मक्की हैं, जबकि दरमियानी ग्रुप दो मक्की (अल अनआम और अल आराफ़) और दो मदनी (अल अनफ़ाल और अत्तौबा) सूरतों पर मुश्तमिल था।
इस ग्रुप की इन चौदह सूरतों में अक्सर व बेशतर तीन-तीन सूरतों के ज़ेली ग्रुप भी बनते हैं, जिनमें से हर ग्रुप की पहली दी सूरतों के माबैन निस्बते ज़ौजियत पाई जाती है, जबकि तीसरी सूरत मुनफ़रिद है। पहले ज़ेली ग्रुप में शामिल तीन सूरतें निस्बतन तवील हैं, इनके बाद तीन निस्बतन छोटी सूरतों का एक ज़ेली ग्रुप है और इसके बाद फ़िर तीन सूरतों का एक ज़ेली ग्रुप है जो क़दरे तवील हैं। पहला ज़ेली ग्रुप सूरह युनुस, सूरह हूद और सूरह युसुफ़ पर मुश्तमिल है। इनमें सूरह युनुस और सूरह हूद का आपस में ज़ौजियत का बिल्कुल वैसा ही ताल्लुक़ है जैसा कि सूरतुल अनआम और सूरतुल आराफ़ में है। चुनाँचे सूरह युनुस के ग्यारह रुकुओं में से सिर्फ़ दो रुकूअ अम्बिया अर्रुसुल से मुताल्लिक़ हैं और बाक़ी नौ रुकूअ अल तज़कीर बि आला इल्लाह पर मुश्तमिल हैं, जबकि दूसरी तरफ़ सूरह हूद के दस रुकुओं में से साढ़े छ: रुकूअ अम्बिया अर्रुसुल (अत्तज़कीर बि अय्यामिल्लाह) से मुताल्लिक़ हैं और सिर्फ़ साढ़े तीन रुकुओं में दूसरे मज़ामीन हैं, जिनमें कुफ्फ़ार के साथ रद्दो क़दह भी है और अल तज़कीर बि आला इल्लाह का मज़मून भी है। इस ज़ेली ग्रुप में सूरह युसुफ़ की हैसियत गोया एक ज़मीमे की है, जो इनसे अलग और बिल्कुल मुनफ़रिद है।
सूरह युनुस और सूरह हूद में ज़ौजियत के ताल्लुक़ में एक अजीब मुतलज़िम (reciprocal) निस्बत भी है कि सूरह युनुस में अम्बिया अर्रुसुल के दो रुकुओं में से सिर्फ़ आधे रुकूअ (चंद आयात) में हज़रत नूह अलै. का ज़िक्र है और बाक़ी डेढ़ रुकूअ हज़रत मूसा अलै. के बारे में है, जबकि दरमियान के किसी रसूल का कोई ज़िक्र नहीं है। इसके बिल्कुल बरअक्स सूरह हूद में पूरे दो रुकूअ हज़रत नूह अलै. के ज़िक्र पर मुश्तमिल हैं। यह मक़ाम हज़रत नूह अलै. के ज़िक्र के ऐतबार से पूरे क़ुरान में जामेअ तरीन भी है और अफ़ज़ल भी। (अगरचे उनत्तीस्वें पारे में सूरह नूह मुकम्मल आप (अलै.) ही के ज़िक्र पर मुश्तमिल है, मगर वहाँ वह तफ़ासील नहीं हैं जो यहाँ पर हैं।) हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र इस सूरत में चंद आयात में सिर्फ़ हवाले के लिये ही आया है, जबकि दरमियान में अम्बिया अर्रुसुल के सिलसिले में एक-एक रुकूअ में एक-एक रसूल का ज़िक्र है।
اَعُوْذُ بِاللّٰھِ مِنَ الشَّیْطٰنِ الرَّجِیْمِ
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 10 तक
الۗرٰ ۣ تِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ الْحَكِيْمِ Ǻ اَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا اَنْ اَوْحَيْنَآ اِلٰى رَجُلٍ مِّنْھُمْ اَنْ اَنْذِرِ النَّاسَ وَبَشِّرِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنَّ لَھُمْ قَدَمَ صِدْقٍ عِنْدَ رَبِّهِمْ ڼ قَالَ الْكٰفِرُوْنَ اِنَّ ھٰذَا لَسٰحِرٌ مُّبِيْنٌ Ą اِنَّ رَبَّكُمُ اللّٰهُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِتَّةِ اَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ يُدَبِّرُ الْاَمْرَ ۭمَا مِنْ شَفِيْعٍ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ اِذْنِهٖ ۭ ذٰلِكُمُ اللّٰهُ رَبُّكُمْ فَاعْبُدُوْهُ ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ Ǽ اِلَيْهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا ۭوَعْدَ اللّٰهِ حَقًّا ۭ اِنَّهٗ يَبْدَؤُا الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ لِيَجْزِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ بِالْقِسْطِ ۭ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَھُمْ شَرَابٌ مِّنْ حَمِيْمٍ وَّعَذَابٌ اَلِيْمٌۢ بِمَا كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ Ć ھُوَ الَّذِيْ جَعَلَ الشَّمْسَ ضِيَاۗءً وَّالْقَمَرَ نُوْرًا وَّقَدَّرَهٗ مَنَازِلَ لِتَعْلَمُوْا عَدَدَ السِّـنِيْنَ وَالْحِسَابَ ۭ مَا خَلَقَ اللّٰهُ ذٰلِكَ اِلَّا بِالْحَقِّ ۚ يُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ Ĉ اِنَّ فِي اخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَمَا خَلَقَ اللّٰهُ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّتَّقُوْنَ Č اِنَّ الَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ لِقَاۗءَنَا وَرَضُوْا بِالْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَاطْمَاَنُّوْا بِهَا وَالَّذِيْنَ ھُمْ عَنْ اٰيٰتِنَا غٰفِلُوْنَ Ċۙ اُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمُ النَّارُ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ Ď اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ يَهْدِيْهِمْ رَبُّھُمْ بِاِيْمَانِهِمْ ۚ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمُ الْاَنْهٰرُ فِيْ جَنّٰتِ النَّعِيْمِ Ḍ دَعْوٰىھُمْ فِيْهَا سُبْحٰنَكَ اللّٰهُمَّ وَتَحِيَّتُھُمْ فِيْهَا سَلٰمٌ ۚ وَاٰخِرُ دَعْوٰىھُمْ اَنِ الْحَمْدُ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ ١0 ۧ
आयत 1
“अलिफ़, लाम, रा।” | الۗرٰ ۣ |
ये हुरूफ़-ए-मुक़त्तआत हैं। यहाँ पर एक क़ाबिले ज़िक्र नुक्ता यह है कि इससे पहले सूरतुल बक़रह, सूरह आले इमरान और सूरतुल आराफ़ तीन सूरतों का आगाज़ हुरूफ़-ए-मुक़त्तआत (अलिफ़ लाम मीम, अलिफ़ लाम मीम साद) से होता है और इन तीनों मक़ामात पर हुरूफ़-ए-मुक़त्तआत पर आयत मुकम्मल हो जाती है, मगर यहाँ इन हुरूफ़ पर आयत मुकम्मल नहीं हो रही है, बल्कि यह पहली आयत का हिस्सा है। बहरहाल ये तौफ़ीक़ी अमूर (हुज़ूर ﷺ के बताने पर मौक़ूफ़) हैं। ग्रामर, मन्तिक़, नह्व बयान वगैरह के किसी असूल या क़ायदे को यहाँ दख़ल नहीं है।
“ये बड़ी हिकमत भरी किताब की आयात हैं।” | تِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ الْحَكِيْمِ Ǻ |
आयत 2
“क्या लोगों को बहुत तअज्जुब हुआ है कि हमने वही भेज दी एक शख्स पर उन्हीं में से” | اَكَانَ لِلنَّاسِ عَجَبًا اَنْ اَوْحَيْنَآ اِلٰى رَجُلٍ مِّنْھُمْ |
“कि आप लोगों को ख़बरदार कर दीजिये और अहले ईमान को बशारत दे दीजिये कि उनके लिये उनके रब के पास बहुत ऊँचा मरतबा है।” | اَنْ اَنْذِرِ النَّاسَ وَبَشِّرِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنَّ لَھُمْ قَدَمَ صِدْقٍ عِنْدَ رَبِّهِمْ ڼ |
“(इस पर) काफ़िरों ने कहा कि यह तो एक खुला जादूगर है।” | قَالَ الْكٰفِرُوْنَ اِنَّ ھٰذَا لَسٰحِرٌ مُّبِيْنٌ Ą |
यानि यह तो अल्लाह की मर्ज़ी पर मुन्हसिर (depend) है। उसका फ़ैसला है कि वह इस मंसब (position) के लिये इंसानों में से जिसको चाहे पसंद फ़रमा कर मुन्तखिब कर ले। अगर उसने मोहम्मद ﷺ का इन्तेखाब करके आप ﷺ को ब-ज़रिया वही इन्ज़ार और तबशीर की ख़िदमत पर मामूर किया है तो इसमें तअज्जुब की कौनसी बात है!
आयत 3
“यक़ीनन तुम्हारा रब वह अल्लाह है जिसने आसमानों और ज़मीन की तख्लीक़ फ़रमाई छ: दिनों में” | اِنَّ رَبَّكُمُ اللّٰهُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِتَّةِ اَيَّامٍ |
“फ़िर वह अर्श पर मुतम्मकिन हो गया, (और) वह तदबीर करता है हर मामले की।” | ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ يُدَبِّرُ الْاَمْرَ ۭ |
अल्लाह तआला अपनी मशियत और मंसूबा बंदी के मुताबिक़ पूरी कायनात का इंतेज़ाम संभाले हुए है। क़ब्ल अज़ भी ज़िक्र हो चुका है कि शाह वलीउल्लाह देहलवी रह. ने अपनी शहरह-ए-आफ़ाक़ तसनीफ़ “हुज्जतुल्लाह अलबालगा” के बाबे अव्वल में अल्लाह तआला के तीन अफ़आल के बारे में बड़ी तफ़सील से बहस की है: (1) इब्दाअ (creation ex nehilo) यानि किसी चीज़ को अदम महज़ से वजूद बख्शना, (2) खल्क़, यानि किसी चीज़ से कोई दूसरी चीज़ बनाना, और (3) तदबीर, यानि अपनी मशियत और हिकमत के मुताबिक़ कायनाती निज़ाम की मंसूबा बंदी (प्लानिंग) फ़रमाना।
“नहीं है कोई भी शफ़ाअत करने वाला मगर उसकी इजाज़त के बाद।” | مَا مِنْ شَفِيْعٍ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ اِذْنِهٖ ۭ |
कोई उसका इज़्न हासिल किये बगैर उसके पास किसी की सिफ़ारिश नहीं कर सकता। इससे पहले आयतल कुर्सी (सूरतुल बक़रह) में भी शफ़ाअत के बारे में इसी नौइयत का इस्तशना आ चुका है।
“वह है अल्लाह तुम्हारा रब, पस तुम उसी की बंदगी करो। तो क्या तुम नसीहत अखज़ नहीं करते!” | ذٰلِكُمُ اللّٰهُ رَبُّكُمْ فَاعْبُدُوْهُ ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ Ǽ |
आयत 4
“तुम सबका लौटना उसी की जानिब है। यह वादा है अल्लाह का सच्चा।” | اِلَيْهِ مَرْجِعُكُمْ جَمِيْعًا ۭوَعْدَ اللّٰهِ حَقًّا ۭ |
“वही है जो खल्क़ का आग़ाज़ करता है, फ़िर वही उसका इआदा (repeat) कर देगा” | اِنَّهٗ يَبْدَؤُا الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ |
पहले पहल किसी काम का करना या इब्तदाई तौर पर किसी चीज़ को तख्लीक़ करना मुश्किल होता है जबकि उसका इआदा (repeat) करना निस्बतन आसान होता है। यह एक माक़ूल और मन्तक़ी बात है कि अगर अल्लाह तआला ही ने यह सब कुछ पैदा फ़रमाया है और पहली बार उसे इस तख्लीक़ में कोई मुश्किल पेश नहीं आई तो दोबारा पैदा करना उसके लिये क्यों कर मुश्किल हो जाएगा! बहरहाल वह तमाम इंसानों को दोबारा पैदा करेगा:
“ताकि वह उन लोगों को जज़ा दे जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे अमल किये इन्साफ़ के साथ।” | لِيَجْزِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ بِالْقِسْطِ ۭ |
वह अहले ईमान जिन्होंने अल्लाह और उसके दीन के लिये ईसार (त्याग) किया है, उनकी क़ुर्बानियों और मशक्क़तों के बदले में उन्हें ईनामात से नवाज़ा जाएगा और उनके इन आमाल की पूरी-पूरी क़दर की जाएगी।
“और जिन लोगों ने कुफ़्र किया उनके पीने के लिये होगा खौलता हुआ पानी और दर्दनाक अज़ाब, उस कुफ़्र की पादाश में जो वह करते रहे।” | وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَھُمْ شَرَابٌ مِّنْ حَمِيْمٍ وَّعَذَابٌ اَلِيْمٌۢ بِمَا كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ Ć |
आयत 5
“वही है जिसने बनाया सूरज को चमकदार और चाँद को नूर” | ھُوَ الَّذِيْ جَعَلَ الشَّمْسَ ضِيَاۗءً وَّالْقَمَرَ نُوْرًا |
यहाँ यह नुक्ता क़ाबिले गौर है कि सूरज के अन्दर जारी अहतराक़ यानि जलने (combustion) के अमल की वजह से रौशनी पैदा (generate) हो रही है इसके लिये “ज़िया” जबकि मनअक्स (reflect) होकर आने वाली रौशनी के लिये “नूर” का लफ्ज़ इस्तेमाल हुआ है। सूरज और चाँद की रौशनी के लिये क़ुरान हकीम ने दो मुख्तलिफ़ अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किये हैं, इसलिये कि सूरज की अपनी चमक है और चाँद की रौशनी एक इनअकास (reflection) है।
“और उसने उस (चाँद) की मंज़िलें मुक़र्रर कर दीं ताकि तुम्हें मालूम हो गिनती बरसों की और तुम (मामलाते ज़िंदगी में) हिसाब कर सको।” | وَّقَدَّرَهٗ مَنَازِلَ لِتَعْلَمُوْا عَدَدَ السِّـنِيْنَ وَالْحِسَابَ ۭ |
“अल्लाह ने ये सब कुछ पैदा नहीं किया मगर हक़ के साथ, और वह तफ़सील बयान करता है अपनी आयात की उन लोगों के लिये जो इल्म हासिल करना चाहें।” | مَا خَلَقَ اللّٰهُ ذٰلِكَ اِلَّا بِالْحَقِّ ۚ يُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ Ĉ |
यानि यह कायनात एक बेमक़सद तख्लीक़ नहीं बल्कि एक संजीदा, बामक़सद और नतीज़ाखेज़ तख्लीक़ है।
आयत 6
“यक़ीनन रात और दीन के अदलने-बदलने में और जो कुछ अल्लाह ने बनाया है आसमानों में और ज़मीन में, यक़ीनन निशानियाँ हैं उन लोगों के लिये जिनके अंदर तक़वा है।” | اِنَّ فِي اخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَمَا خَلَقَ اللّٰهُ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّتَّقُوْنَ Č |
इन निशानियों से वही लोग सबक़ हासिल करके मुसतफ़ीज़ (benefited) हो सकते हैं जिनके अंदर ख़ौफ़-ए-ख़ुदा है और उनकी अख्लाक़ी हिस्स बेदार होती है।
आयत 7
“बेशक़ वह लोग जो हमसे मुलाक़ात के उम्मीदवार नहीं हैं” | اِنَّ الَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ لِقَاۗءَنَا |
यहाँ पर यह नुक्ता नोट करें कि ये अल्फ़ाज़ इस सूरत में बार-बार दोहराए जायेंगे। असल में यह ऐसी इंसानी सोच और नफ़सियाती कैफ़ियत की तरफ़ इशारा है जिसके मुताबिक़ इंसानी ज़िंदगी ही असल ज़िंदगी है। इंसान को गौर करना चाहिये कि यह इंसानी ज़िंदगी जो हम इस दुनिया में गुज़ार रहे हैं इसकी असल हक़ीकत क्या है! इसे मुहावरतन “चार दिन की ज़िंदगी” क़रार दिया जाता है। बहादुर शाह ज़फर ने भी कहा है:
उम्र-ए-दराज़ माँग कर लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए, दो इंतेज़ार में!
अगर इंसान इस दुनिया में तवील तबई उम्र भी पाये तो उसका एक हिस्सा बचपन की नासमझी और खेल-कूद में ज़ाया हो जाता है। शऊर और जवानी की उम्र का थोडा सा वक़्फ़ा उसके लिये कारआमद होता है। इसके बाद जल्द ही बुढ़ापा उसे अपनी गिरफ़्त में ले लेता है और वह देखते ही देखते {لِكَيْ لَا يَعْلَمَ بَعْدَ عِلْمٍ شَـيْــــًٔـا ۭ} (सूरह नहल:70) की जीती-जागती तस्वीर बन कर रह जाता है। तो क्या इंसानी ज़िन्दगी की हक़ीक़त बस यही है? और क्या इतनी सी ज़िन्दगी के लिये ही इन्सान को अशरफ़ुल मख्लूक़ात का लक़ब दिया जाता है? इन्सान गौर करे तो उस पर यह हक़ीक़त वाज़ेह होगी कि इंसानी ज़िन्दगी महज़ हमारे सामने के चंद माह व साल का मज्मुआ नहीं है बल्कि यह एक कभी ना ख़त्म होने वाले सिलसिले का नाम है। अल्लामा इक़बाल के बक़ौल:
तू इसे पैमाना-ए-मर्ज़ो फ़र्दा से ना नाप
जावेदां, पैहम दवां, हर दम जवां है ज़िन्दगी!
और इक़बाल ही ने इस सिलसिले में इंसानी नासमझी और कमज़र्फी की तरफ़ इन अल्फ़ाज़ में तवज्जोह दिलाई है:
तू ही नादाँ चंद कलियों पर क़नाअत कर गया
वरना गुलशन में इलाजे तंगई दामाँ भी है!
इस लामतनाही (अन्तहीन) सिलसिला-ए-ज़िंदगी में से एक इन्तहाई मुख्तसर और आरज़ी वक़्फ़ा ये दुनियवी ज़िंदगी है जो अल्लाह ने इंसानों को आज़माने और जाँचने के लिये अता की है: {الَّذِيْ خَلَقَ الْمَوْتَ وَالْحَيٰوةَ لِيَبْلُوَكُمْ اَيُّكُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا ۭ} (सूरह मुल्क:2) जबकि असल ज़िंदगी तो आख़िरत की ज़िंदगी है और वह बहुत तवील है। जैसे कि फ़रमाया: {وَاِنَّ الدَّارَ الْاٰخِرَةَ لَھِىَ الْحَـيَوَانُ ۘ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ} (सूरह अनकबूत:64) “और यक़ीनन आख़िरत का घर ही असल ज़िंदगी है, काश कि इन्हें मालूम होता!” मगर वह लोग जिनका ज़हनी उफ़क़ तंग और सोच महदूद है, वह इसी आरज़ी और मुख़्तसर वक़्फ़ा-ए-ज़िंदगी को असल ज़िंदगी समझ कर इसकी रअनाईयों (चकाचौंध) पर फ़रयफ्ता (मुग्ध) और इसकी रंगीनियों में गुम रहते हैं। बक़ौल अल्लामा इक़बाल:
काफ़िर की यह पहचान कि आफ़ाक़ में गुम है
मोमिन की यह पहचान है कि गुम उसमें हैं आफ़ाक़!
असल और दाइमी ज़िंदगी की अज़मत और हक़ीक़त ऐसे लोगों की नज़रों से बिल्कुल ओझल हो चुकी है।
“और वह दुनिया की ज़िंदगी पर ही राज़ी और उसी पर मुत्मईन हैं, और जो हमारी आयात से गाफ़िल हैं।” | وَرَضُوْا بِالْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَاطْمَاَنُّوْا بِهَا وَالَّذِيْنَ ھُمْ عَنْ اٰيٰتِنَا غٰفِلُوْنَ Ċۙ |
इन्सानों के अन्दर और बाहर अल्लाह की बेशुमार निशानियाँ मौजूद हैं और उनकी फ़ितरत उन्हें बार-बार दावत-ए-फ़िक्र भी देती है:
खोल आँख, ज़मीं देख, फ़लक देख, फिज़ा देख!
मशरिक़ से उभरते हुए सूरज को ज़रा देख!
मगर वह लोग शहवाते नफ़सानी के चक्करों में इस हद तक गलता व पेचा हैं कि उन्हें आँख खोल कर अन्नफ्स व आफ़ाक़ में बिखरी हुई लातादाद आयाते इलाही को एक नज़र देखने की फ़ुरसत है ना तौफ़ीक़।
आयत 8
“यही वह लोग हैं जिनका ठिकाना आग है, अपनी उस कमाई के सबब जो वह कर रहे हैं।” | اُولٰۗىِٕكَ مَاْوٰىھُمُ النَّارُ بِمَا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ Ď |
जिस शख्स ने अपनी पूरी दुनयवी ज़िंदगी में ना अल्लाह की तरफ़ रुजूअ किया और ना आख़िरत ही की कुछ फ़िक्र की, सारी उम्र ‘बाबर ब-ऐश कोश कि आलम दोबारा नीस्त’ जैसे नारे को अपना मोटो (moto) बनाए रखा, हलाल व हराम और ज़ायज़ व नाज़ायज़ की क़ैद से बेनियाज़ होकर झूठी मसरतें और आरज़ी खुशियाँ जहाँ से मिलें, जिस क़ीमत पर मिलें हासिल कर लें, तो ऐसे शख्स का आख़री ठिकाना आग के सिवा भला और कहाँ हो सकता है!
आयत 9
“यक़ीनन वह लोग जो ईमान लाए और उन्होंने नेक आमाल किये, उनका रब उनके ईमान के बाअस उनको पहुँचा देगा नेअमतों वाले बागात में, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी।” | اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ يَهْدِيْهِمْ رَبُّھُمْ بِاِيْمَانِهِمْ ۚ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمُ الْاَنْهٰرُ فِيْ جَنّٰتِ النَّعِيْمِ Ḍ |
आयत 10
“उसमें उनका तराना होगा: ऐ अल्लाह तू पाक है” | دَعْوٰىھُمْ فِيْهَا سُبْحٰنَكَ اللّٰهُمَّ |
वह लोग जन्नत के अन्दर भी अल्लाह तआला की तस्बीह व मुनाजात करेंगे कि ऐ हमारे परवरदिगार, तू हर ज़ौअफ़ (कमज़ोरी) से पाक है, हर ऐब और हर नुक़्स से मुबर्रा (रहित) है और अहतियाज के हर तसव्वुर से अरफ़अ व आला है।
“और उसमें उनकी (आपस की) दुआ ‘सलाम’ होगी।” | وَتَحِيَّتُھُمْ فِيْهَا سَلٰمٌ ۚ |
अहले जन्नत आपस में एक-दूसरे को मिलते हुए अस्सलामु अलैकुम के अल्फ़ाज़ कहेंगे, इस तरह वहाँ हर तरफ़ से सलाम, सलाम की आवाज़ें आ रही होंगी। जैसे सूरतुल वाक़िआ में फ़रमाया: {لَا يَسْمَعُوْنَ فِيْهَا لَغْوًا وَّلَا تَاْثِيْمًا} {اِلَّا قِيْلًا سَلٰمًا سَلٰمًا} (आयात: 25-26) “वहाँ ना बेहुदा बात सुनेंगे और ना गाली गलोच। वहाँ उनका कलाम सलाम-सलाम होगा।”
“और उनकी दुआ और मुनाजात का इख्तताम (हमेशा इन कलिमात पर) होगा कि कुल हम्द और कुल तारीफ़ उस अल्लाह के लिये है जो तमाम जहानों का रब है।” | وَاٰخِرُ دَعْوٰىھُمْ اَنِ الْحَمْدُ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ ١0ۧ |
आयात 11 से 20 तक
وَلَوْ يُعَجِّلُ اللّٰهُ لِلنَّاسِ الشَّرَّ اسْتِعْجَالَھُمْ بِالْخَيْرِ لَقُضِيَ اِلَيْهِمْ اَجَلُھُمْ ۭ فَنَذَرُ الَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ لِقَاۗءَنَا فِيْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُوْنَ 11 وَاِذَا مَسَّ الْاِنْسَانَ الضُّرُّ دَعَانَا لِجَنْۢبِهٖٓ اَوْ قَاعِدًا اَوْ قَاۗىِٕمًا ۚ فَلَمَّا كَشَفْنَا عَنْهُ ضُرَّهٗ مَرَّ كَاَنْ لَّمْ يَدْعُنَآ اِلٰى ضُرٍّ مَّسَّهٗ ۭ كَذٰلِكَ زُيِّنَ لِلْمُسْرِفِيْنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 12 وَلَقَدْ اَهْلَكْنَا الْقُرُوْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَمَّا ظَلَمُوْا ۙ وَجَاۗءَتْھُمْ رُسُلُھُمْ بِالْبَيِّنٰتِ وَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا ۭ كَذٰلِكَ نَجْزِي الْقَوْمَ الْمُجْرِمِيْنَ 13 ثُمَّ جَعَلْنٰكُمْ خَلٰۗىِٕفَ فِي الْاَرْضِ مِنْۢ بَعْدِهِمْ لِنَنْظُرَ كَيْفَ تَعْمَلُوْنَ 14 وَاِذَا تُتْلٰى عَلَيْهِمْ اٰيَاتُنَا بَيِّنٰتٍ ۙ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ لِقَاۗءَنَا ائْتِ بِقُرْاٰنٍ غَيْرِ ھٰذَآ اَوْ بَدِّلْهُ ۭ قُلْ مَا يَكُوْنُ لِيْٓ اَنْ اُبَدِّلَهٗ مِنْ تِلْقَاۗئِ نَفْسِيْ ۚ اِنْ اَتَّبِعُ اِلَّا مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّ ۚ اِنِّىْٓ اَخَافُ اِنْ عَصَيْتُ رَبِّيْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ 15 قُلْ لَّوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا تَلَوْتُهٗ عَلَيْكُمْ وَلَآ اَدْرٰىكُمْ بِهٖ ڮ فَقَدْ لَبِثْتُ فِيْكُمْ عُمُرًا مِّنْ قَبْلِهٖ ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ 16 فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِهٖ ۭ اِنَّهٗ لَا يُفْلِحُ الْمُجْرِمُوْنَ 17 وَيَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَضُرُّھُمْ وَلَا يَنْفَعُھُمْ وَيَقُوْلُوْنَ هٰٓؤُلَاۗءِ شُفَعَاۗؤُنَا عِنْدَاللّٰهِ ۭ قُلْ اَتُنَبِّـــــُٔوْنَ اللّٰهَ بِمَا لَا يَعْلَمُ فِي السَّمٰوٰتِ وَلَا فِي الْاَرْضِ ۭ سُبْحٰنَهٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يُشْرِكُوْنَ 18 وَمَا كَانَ النَّاسُ اِلَّآ اُمَّةً وَّاحِدَةً فَاخْتَلَفُوْا ۭ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيْنَھُمْ فِيْمَا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ 19 وَيَقُوْلُوْنَ لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۚ فَقُلْ اِنَّمَا الْغَيْبُ لِلّٰهِ فَانْتَظِرُوْا ۚ اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ 20ۧ
आयत 11
“और अगर अल्लाह जल्दी कर देता लोगों के लिए शर, जैसे कि वह जल्दी चाहते हैं खैर” | وَلَوْ يُعَجِّلُ اللّٰهُ لِلنَّاسِ الشَّرَّ اسْتِعْجَالَھُمْ بِالْخَيْرِ |
इंसान जल्दबाज़ है, वह चाहता है कि उसकी कोशिशों के नतीजे जल्द अज़ जल्द उसके सामने आ जाएँ। मगर अल्लह तो बड़ा हकीम है, उसने हर काम और हर वाक़िये के लिये अपनी मशियत और हिकमत के मुताबिक़ वक़्त मुक़र्रर कर रखा है। वह ख़ूब जानता है कि किस काम में खैर है और किसमें खैर नहीं है। अगर अल्लाह इंसान की गलतियों और बुराइयों के बदले और नतीजे भी फ़ौरन ही उनके सामने रख दिया करता और उनके जराएम (जुर्मों) की सज़ाएँ भी फ़ौरन ही उनको दे दिया करता तो:
“उनकी अजल पूरी हो चुकी होती” | لَقُضِيَ اِلَيْهِمْ اَجَلُھُمْ ۭ |
यानि उनकी मोहलत-ए-उम्र कभी की ख़त्म हो चुकी होती।
“फ़िर हम उन लोगों को छोड़ देंगे जो हमसे मुलाक़ात के उम्मीदवार नहीं, कि वह अपनी सरकशी में अंधे होकर बढ़ते चले जाएँ।” | فَنَذَرُ الَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ لِقَاۗءَنَا فِيْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَهُوْنَ 11 |
फिर वही बात दोहराई गई है। इस अंदाज़ में एक शान-ए-इस्तगना (mock) है कि अगर वह हमें मिलने के उम्मीदवार नहीं तो हमारी नज़रे अलतफ़ात को भी उनसे कोई दिलचस्पी नहीं।
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आयत 12
“और इन्सान को जब कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो वह हमें पुकारता है पहलु के बल (लेटे हुए) या बैठे हुए या खड़े हुए।” | وَاِذَا مَسَّ الْاِنْسَانَ الضُّرُّ دَعَانَا لِجَنْۢبِهٖٓ اَوْ قَاعِدًا اَوْ قَاۗىِٕمًا ۚ |
“फ़िर जब हम उससे उसकी तकलीफ़ को दूर कर देते हैं तो वह ऐसे चल देता है जैसे उसने हमें कभी पुकारा ही ना था कोई तकलीफ़ पहुँचने पर।” | فَلَمَّا كَشَفْنَا عَنْهُ ضُرَّهٗ مَرَّ كَاَنْ لَّمْ يَدْعُنَآ اِلٰى ضُرٍّ مَّسَّهٗ ۭ |
“ऐसे ही मुज़य्यन कर दिया गया है उन हद से बढ़ने वालों के लिये उनके आमाल को।” | كَذٰلِكَ زُيِّنَ لِلْمُسْرِفِيْنَ مَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 12 |
इनके अन्दर इतनी ढिठाई पैदा हो गई है कि ज़रा तकलीफ़ आ जाए तो गिडगिडा कर दुआएँ माँगेंगे, हर हाल में हमें पुकारेंगे और गिरया वज़ारी में रातें गुज़ार देंगे। लेकिन जब वह तकलीफ़ रफ़ा हो जाएगी तो ऐसे भूल जायेंगे गोया हमें जानते ही नहीं।
आयत 13
“और हम तुम लोगों से पहले भी बहुत सी नस्लों और क़ौमों को हलाक़ कर चुके हैं, जब उन्होंने ज़ुल्म की रविश इख्तियार की” | وَلَقَدْ اَهْلَكْنَا الْقُرُوْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَمَّا ظَلَمُوْا ۙ |
“और उनके पास (भी) आए थे उनके रसूल वाज़ेह तालीमात लेकर, लेकिन वह नहीं थे ईमान लाने वाले।” | وَجَاۗءَتْھُمْ رُسُلُھُمْ بِالْبَيِّنٰتِ وَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا ۭ |
“इसी तरह हम बदला दिया करते हैं मुजरिम लोगों को।” | كَذٰلِكَ نَجْزِي الْقَوْمَ الْمُجْرِمِيْنَ 13 |
आयत 14
“फिर उनके बाद हमने तुम्हें ज़मीन में जानशीन बना दिया, ताकि हम देखें कि तुम क्या करते हो!” | ثُمَّ جَعَلْنٰكُمْ خَلٰۗىِٕفَ فِي الْاَرْضِ مِنْۢ بَعْدِهِمْ لِنَنْظُرَ كَيْفَ تَعْمَلُوْنَ 14 |
यहाँ हर शख्स इन्फ़रादी तौर पर भी अपनी महदूद उम्र में इम्तेहान दे रहा है और क़ौमें और उम्मतें भी अपने-अपने वक़्फ़ा-ए-मोहलत में इस इम्तेहान गाह से गुज़र रही है। अल्लामा इक़बाल के बक़ौल:
क़ुलज़ुमे हस्ती से तू उभरा है मानिन्दे हबाब
इस ज़ियाखाने में तेरा इम्तेहान है ज़िन्दगी!
आयत 15
“और जब इनको पढ़ कर सुनाई जाती हैं हमारी रौशन आयात तो कहते हैं वह लोग जो हमसे मुलाक़ात के उम्मीदवार नहीं हैं कि (ऐ मोहम्मद ﷺ) इसके अलावा आप कोई और क़ुरान पेश करें या इसमें कोई तरमीम करें।” | وَاِذَا تُتْلٰى عَلَيْهِمْ اٰيَاتُنَا بَيِّنٰتٍ ۙ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَرْجُوْنَ لِقَاۗءَنَا ائْتِ بِقُرْاٰنٍ غَيْرِ ھٰذَآ اَوْ بَدِّلْهُ ۭ |
यहाँ वही अल्फ़ाज़ फिर दोहराए जा रहे हैं, यानि जो लोग हमसे मिलने की तवक्क़ो नहीं रखते वह हमारे कलाम को संजीदगी से सुनते ही नहीं और कभी सुन भी लेते हैं तो इस्तहज़ाइया (मज़ाकिया) अंदाज़ में जवाब देते हैं कि यह क़ुरान बहुत सख्त (rigid) है, इसके अहकाम हमारे लिये क़ाबिले क़ुबूल नहीं। इसमें कुछ मदाहनत (compromise) का अंदाज़ होना चाहिये, कुछ दो और कुछ लो (give and take) के असूल पर बात होनी चाहिये। चुनाँचे आप (ﷺ) इस किताब में कुछ कमी-बेशी करें तो फिर इसकी कुछ बातें हम भी मान लेंगे।
“(ऐ नबी ﷺ!) कह दीजिये कि मेरे लिये हरगिज़ यह मुमकिन नहीं कि मैं इसमें अपनी तरफ़ से कोई तब्दीली कर लूँ, मैं तो पैरवी करता हूँ उसी की जो मेरी तरफ़ वही किया जा रहा है।” | قُلْ مَا يَكُوْنُ لِيْٓ اَنْ اُبَدِّلَهٗ مِنْ تِلْقَاۗئِ نَفْسِيْ ۚ اِنْ اَتَّبِعُ اِلَّا مَا يُوْحٰٓى اِلَيَّ ۚ |
मैं तो खुद वही-ए-इलाही का पाबन्द हूँ। मैं अपनी तरफ़ से इसमें कोई कमी-बेशी, कोई तरमीम व तन्सीख़ करने का मजाज़ नही हूँ।
“मैं डरता हूँ बड़े दिन के अज़ाब से, अगर मैं अपने परवरदिगार की नाफ़रमानी करूँ।” | اِنِّىْٓ اَخَافُ اِنْ عَصَيْتُ رَبِّيْ عَذَابَ يَوْمٍ عَظِيْمٍ 15 |
आयत 16
“आप (इनसे) कहिये कि अगर अल्लाह चाहता तो मैं ना यह क़ुरान तुम्हें पढ़ कर सुनाता और ना वह तुम्हें इससे वाक़िफ़ करता” | قُلْ لَّوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا تَلَوْتُهٗ عَلَيْكُمْ وَلَآ اَدْرٰىكُمْ بِهٖ ڮ |
“मैं तुम्हारे दरमियान एक उम्र गुज़ार चुका हूँ इससे पहले। तो क्या तुम लोग अक़्ल से काम नहीं लेते!” | فَقَدْ لَبِثْتُ فِيْكُمْ عُمُرًا مِّنْ قَبْلِهٖ ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ 16 |
मैं पिछले चालीस बरस से तुम्हारे दरमियान ज़िंदगी बसर कर रहा हूँ। तुम मुझे अच्छी तरह से जानते हो। तुम जानते हो कि मै शायर नहीं हूँ, तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि मैं काहिन (priest) या जादूगर भी नहीं हूँ, तुम्हें यह भी इल्म है कि मुझे इन चीज़ों से कभी कोई दिलचस्पी नहीं रही और मैंने इन चीज़ों को सीखने के लिये कभी मश्क़ या रियाज़त भी नहीं की। तुम इस हक़ीक़त को भी ख़ूब समझते हो कि कोई शख्स एक दिन में कभी शायर या काहिन नहीं बन जाता। इन तमाम हक़ाइक़ का इल्म रखने के बावजूद भी तुम मुझे ऐसे इल्ज़ामात देते हो, तो क्या तुम लोग तअस्सुब की बिना पर अक़्ल से बिल्कुल ही आरी हो गए हो?
आयत 17
“तो उस शख्स से बढ़ कर कौन ज़ालिम होगा जिसने अल्लाह की तरफ़ झूठ बात मंसूब की या झुठलाया उसकी आयात को!” | فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا اَوْ كَذَّبَ بِاٰيٰتِهٖ ۭ |
यानि यह क़ुरान जो मैं तुम लोगों को सुना रहा हूँ, अगर यह अल्लाह की तरफ़ से नहीं है और मैं इसे अपनी तरफ़ से घड कर पेश कर रहा हूँ तो मुझसे बढ़ कर ज़ालिम कोई नहीं, और अगर ये वाक़िअतन अल्लाह की आयात हैं तो तुम लोगों को मालूम होना चाहिये कि जो शख्स अल्लाह की आयात को झुठला दे, उससे बढ़ कर ज़ालिम और गुनाहगार कोई दूसरा नहीं हो सकता। अब इस मैयार-ए-हक़ीक़त को सामने रखते हुए तुम में से हर शख्स को चाहिये कि वह अपनी सोच और अपने अमल का जायज़ा ले और देखे कि वह कौनसी रविश इख्तियार कर रहा है।
“यक़ीनन मुजरिम लोग फ़लाह नहीं पाया करते।” | اِنَّهٗ لَا يُفْلِحُ الْمُجْرِمُوْنَ 17 |
आयत 18
“और ये लोग परस्तिश करते हैं अल्लाह के सिवा ऐसी चीज़ों की जो ना इन्हें कोई नुक़सान पहुँचा सकती हैं और ना नफ़ा दे सकती हैं, और कहते हैं कि ये हमारे सिफारशी हैं अल्लाह के यहाँ।” | وَيَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَضُرُّھُمْ وَلَا يَنْفَعُھُمْ وَيَقُوْلُوْنَ هٰٓؤُلَاۗءِ شُفَعَاۗؤُنَا عِنْدَاللّٰهِ ۭ |
इससे मुशरिकीने मक्का का बुनियादी अक़ीदा ज़ाहिर हो रहा है। वह लोग मानते थे कि इस कायनात का खालिक़ और मालिक अल्लाह है। वह अपने बुतों को कायनात का खालिक़ व मालिक नहीं बल्कि अल्लाह के क़ुर्ब का वसीला समझते थे। उनका ईमान था कि जिन हस्तियों के नाम पर ये बुत बनाए गए हैं वह हस्तियाँ अल्लाह के यहाँ बहुत मुक़र्रब और महबूब होने के बाइस उसके यहाँ हमारी सिफारश करेंगी।
“आप कहिये कि क्या तुम अल्लाह को बताना चाहते हो वह शय जो वह नहीं जानता, ना आसमानों में और ना ज़मीन में?” | قُلْ اَتُنَبِّـــــُٔوْنَ اللّٰهَ بِمَا لَا يَعْلَمُ فِي السَّمٰوٰتِ وَلَا فِي الْاَرْضِ ۭ |
क्या तुम अल्लाह को ऐसी चीज़ की ख़बर देना चाहते हो जिसका उसको खुद पता नहीं? यह वही बात है जो आयतल कुर्सी (सूरह बक़रह: 255) की तशरीह के ज़िमन में बयान हो चुकी है कि ऐसी किसी शफ़ाअत का आख़िर जवाज़ क्या होगा? अल्लाह तो गायब और हाज़िर सब कुछ जानने वाला है: {يَعْلَمُ مَا بَيْنَ اَيْدِيْهِمْ وَمَا خَلْفَھُمْ ۚ وَلَا يُحِيْطُوْنَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهٖٓ اِلَّا بِمَا شَاۗءَ ۚ } तो फिर आख़िर कोई सिफ़ारशी अल्लाह के सामने खड़े होकर क्या कहेगा? किस बुनियाद पर वह किसी की सिफ़ारिश करेगा? क्या वह ये कहेगा कि ऐ अल्लाह! तू इस आदमी को ठीक से नहीं जानता, मैं इसे बहुत अच्छी तरह जानता हूँ, यह बहुत अच्छा और नेक आदमी है! तो क्या वह अल्लाह को वह कुछ बताना चाहेगा (माज़ अल्लाह) जिसको वह खुद नहीं जानता?
“वह बहुत पाक और बुलंद है उन चीज़ों से जिनको वह उसका शरीक ठहराते हैं।” | سُبْحٰنَهٗ وَتَعٰلٰى عَمَّا يُشْرِكُوْنَ 18 |
आयत 19
“और नहीं थे लोग मगर एक ही उम्मत, फिर (बाद में) उन्होंने इख्तलाफ़ किया।” | وَمَا كَانَ النَّاسُ اِلَّآ اُمَّةً وَّاحِدَةً فَاخْتَلَفُوْا ۭ |
यह मज़मून सूरतुल बक़रह में भी गुज़र चुका है। हज़रत आदम अलै. से इंसानों की नस्ल चली है, चुनाँचे जिस तरह तमाम इंसान नस्लन एक थे उसी तरह नज़रियाती तौर पर भी वह सब एक ही उम्मत थे। बनी नौए इंसानी के माबैन तमाम नज़रियाती इख्तलाफ़ात बाद की पैदावार हैं।
“और अगर एक बात तेरे रब की तरफ़ से पहले से तय ना पा चुकी होती” | وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَّبِّكَ |
अल्लाह तआला ने हर फ़र्द और हर क़ौम के लिये एक अजल (वक़्त) मुक़र्रर फरमा दी है। इसी तरह पूरी कायनात की अजल भी तय शुदा है। अगर ये सब कुछ तय ना हो चुका होता:
“तो फ़ैसला कर दिया जाता इनके माबैन उन तमाम चीज़ों में जिनमें ये इख्तलाफ़ कर रहे हैं।” | لَقُضِيَ بَيْنَھُمْ فِيْمَا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ 19 |
आयत 20
“और वह कहते हैं क्यों ना उतारी गई कोई निशानी (मौज्जज़ा) इस (रसूल) पर इसके रब की तरफ़ से?” | وَيَقُوْلُوْنَ لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۚ |
“आप कह दीजिये कि गैब का इल्म तो बस अल्लाह ही को है, पस इंतेज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इंतेज़ार कर रहा हूँ।” | فَقُلْ اِنَّمَا الْغَيْبُ لِلّٰهِ فَانْتَظِرُوْا ۚ اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ 20ۧ |
अपनी इस ज़िद और हठधर्मी के बाद इंतेज़ार करो कि मशियते इज़दी (divine orders) से कब, क्या शय ज़हूर में आती है।
आयात 21 से 24 तक
وَاِذَآ اَذَقْــنَا النَّاسَ رَحْمَةً مِّنْۢ بَعْدِ ضَرَّاۗءَ مَسَّتْھُمْ اِذَا لَھُمْ مَّكْرٌ فِيْٓ اٰيَاتِنَا ۭ قُلِ اللّٰهُ اَسْرَعُ مَكْرًا ۭ اِنَّ رُسُلَنَا يَكْتُبُوْنَ مَا تَمْكُرُوْنَ 21 ھُوَ الَّذِيْ يُسَيِّرُكُمْ فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ ۭ ﱑ اِذَا كُنْتُمْ فِي الْفُلْكِ ۚ وَجَرَيْنَ بِهِمْ بِرِيْحٍ طَيِّبَةٍ وَّفَرِحُوْا بِهَا جَاۗءَتْهَا رِيْحٌ عَاصِفٌ وَّجَاۗءَھُمُ الْمَوْجُ مِنْ كُلِّ مَكَانٍ وَّظَنُّوْٓا اَنَّھُمْ اُحِيْطَ بِهِمْ ۙ دَعَوُا اللّٰهَ مُخْلِصِيْنَ لَهُ الدِّيْنَ ڬ لَىِٕنْ اَنْجَيْـتَنَا مِنْ هٰذِهٖ لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الشّٰكِرِيْنَ 22 فَلَمَّآ اَنْجٰىھُمْ اِذَا ھُمْ يَبْغُوْنَ فِي الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۭ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اِنَّمَا بَغْيُكُمْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ ۙ مَّتَاعَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۡ ثُمَّ اِلَيْنَا مَرْجِعُكُمْ فَنُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ 23 اِنَّمَا مَثَلُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا كَمَاۗءٍ اَنْزَلْنٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ فَاخْتَلَطَ بِهٖ نَبَاتُ الْاَرْضِ مِمَّا يَاْكُلُ النَّاسُ وَالْاَنْعَامُ ۭﱑ اِذَآ اَخَذَتِ الْاَرْضُ زُخْرُفَهَا وَازَّيَّنَتْ وَظَنَّ اَهْلُهَآ اَنَّھُمْ قٰدِرُوْنَ عَلَيْهَآ ۙ اَتٰىھَآ اَمْرُنَا لَيْلًا اَوْ نَهَارًا فَجَعَلْنٰھَا حَصِيْدًا كَاَنْ لَّمْ تَغْنَ بِالْاَمْسِ ۭ كَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ 24
आयत 21
“और जब हम लोगों को रहमत का मज़ा चखाते हैं उस तकलीफ़ के बाद जो उन पर आ गई थी तो फ़ौरन ही वह हमारी आयात के बारे में साज़िशें करने लगते हैं।” | وَاِذَآ اَذَقْــنَا النَّاسَ رَحْمَةً مِّنْۢ بَعْدِ ضَرَّاۗءَ مَسَّتْھُمْ اِذَا لَھُمْ مَّكْرٌ فِيْٓ اٰيَاتِنَا ۭ |
पहली उम्मतों में भी ऐसा होता रहा है और हुज़ूर ﷺ की बेअसत के बाद अहले मक्का पर भी छोटी-छोटी तकालीफ़ आती रही हैं जैसे रिवायात में है कि आप ﷺ की बेअसत के बाद मक्का में शदीद नौईयत का क़हत पड़ गया था। ऐसे हालात में मुशरिकीने मक्का कुछ नरम पड़ जाते थे। हुज़ूर ﷺ के पास आकर बैठते भी थे और आप ﷺ की बातें भी सुनते थे। मगर ज्योंहि तकलीफ़ रफ़ा हो जाती तो वह फिर से अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के ख़िलाफ़ साज़िशें शुरू कर देते।
“आप कहिये कि अल्लाह अपनी तदबीरों में कहीं ज़्यादा तेज़ है। यक़ीनन हमारे फ़रिश्ते लिख रहे हैं जो कुछ भी साज़िशें तुम लोग कर रहे हो।” | قُلِ اللّٰهُ اَسْرَعُ مَكْرًا ۭ اِنَّ رُسُلَنَا يَكْتُبُوْنَ مَا تَمْكُرُوْنَ 21 |
आयत 22
“वही है जो तुम्हें सैर कराता है खुश्की और समन्दर में।” | ھُوَ الَّذِيْ يُسَيِّرُكُمْ فِي الْبَرِّ وَالْبَحْرِ ۭ |
यानि अल्लाह तआला ने मुख्तलिफ़ क़वानीन तबई के तहत मुख्तलिफ़ चीज़ों को सवारियों के तौर पर इन्सानों के लिये मुसख्खर कर दिया है।
“यहाँ तक कि जब तुम किश्तियों में होते हो, और वह चल रही होती हैं उन्हें (सवारों को) लेकर खुशगवार (मुवाफिक़) हवा के साथ और वह बहुत खुश होते हैं” | ﱑ اِذَا كُنْتُمْ فِي الْفُلْكِ ۚ وَجَرَيْنَ بِهِمْ بِرِيْحٍ طَيِّبَةٍ وَّفَرِحُوْا بِهَا |
“कि अचानक तेज़ हवा का झकड़ चल पड़ता है और हर तरफ़ से मौजें उनकी तरफ़ बढ़ने लगती हैं और वह गुमान करने लगते हैं कि वह इन (लहरों) में घेर लिये गए हैं” | جَاۗءَتْهَا رِيْحٌ عَاصِفٌ وَّجَاۗءَھُمُ الْمَوْجُ مِنْ كُلِّ مَكَانٍ وَّظَنُّوْٓا اَنَّھُمْ اُحِيْطَ بِهِمْ ۙ |
हर तरफ़ पहाड़ जैसी लहरों को अपनी तरफ़ बढ़ते देख कर उन्हें यक़ीन हो जाता है कि बस अब वह लहरों में घिर गए हैं और उनका आख़री वक़्त आन पहुँचा है।
“(उस वक़्त) वह पुकारते हैं अल्लाह को, उसके लिये अपनी इताअत को ख़ालिस करते हुए कि (ऐ अल्लाह!) अगर तूने हमें इस मुसीबत से निजात दे दी तो हम लाज़िमन हो जायेंगे बहुत शुक्र करने वालों में से।” | دَعَوُا اللّٰهَ مُخْلِصِيْنَ لَهُ الدِّيْنَ ڬ لَىِٕنْ اَنْجَيْـتَنَا مِنْ هٰذِهٖ لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الشّٰكِرِيْنَ 22 |
ऐसे मुश्किल वक़्त में उन्हें सिर्फ़ अल्लाह ही याद आता है, किसी देवी या देवता का ख्याल नहीं आता। इस सिलसिले में अबु जहल के बेटे अकरमा के बारे में बहुत अहम वाक़िया तारीख़ में मिलता है कि फ़तह मक्का के बाद वह हिजाज़ से फरार होकर हब्शा जाने के लिये बाज़ दूसरे लोगों के साथ कश्ती में सवार थे कि कश्ती अचानक तूफ़ान में घिर गई। कश्ती में तमाम लोग मुशरिकीन थे, लेकिन इस मुसीबत की घडी में किसी को भी लात, मनात, उज्ज़ा और हुबल याद ना आए और उन्होंने मदद के लिये पुकारा तो अल्लाह को पुकारा। इसी लम्हे अकरमा को इस हक़ीक़त के इन्कशाफ़ ने चौंका दिया कि यही तो वह पैग़ाम है जो मोहम्मद (ﷺ) हमें दे रहे हैं। चुनाँचे वह वापस लौट आए और रसूल अल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर होकर हल्क़ा बगोश-ए-इस्लाम हो गए और शर्फ़े सहाबियत से मुशरफ़ हुए। इसके बाद यही अकरमा रज़ि. इस्लाम के ज़बरदस्त मुजाहिद साबित हए, और हज़रत अबु बकर सिद्दीक़ रज़ि. के दौरे खिलाफत में मुन्करीने ज़कात और मुरतदीन के ख़िलाफ़ जिहाद में इन्होंने कारहाये नुमाया अंजाम दिये।
दरअसल अल्लाह की मारफ़त (पहचान) इंसान की फ़ितरत के अन्दर समो दी गई है। बाज़ अवक़ात बातिल ख्यालात व नज़रियात का मलमअ (मिश्रण) इस मारफ़त की क़ुबूलियत में आड़े आ जाता है, लेकिन जब ये मलमअ उतरने का कोई सबब पैदा होता है तो अन्दर से इंसानी फ़ितरत अपनी असली हालत में नुमाया हो जाती है जो हक़ को पहचानने में लम्हा भर को देर नहीं करती।
आयत 23
“फ़िर जब वह इन्हें निजात दे देता है तो फ़ौरन ही बग़ावत करने लगते हैं ज़मीन में ना हक़।” | فَلَمَّآ اَنْجٰىھُمْ اِذَا ھُمْ يَبْغُوْنَ فِي الْاَرْضِ بِغَيْرِ الْحَقِّ ۭ |
ज्योंहि ख़तरे की घड़ी टल जाती है तो फिर इन्हें देवियाँ, देवता याद आ जाते हैं और फिर से अल्लाह से सरकशी शुरू हो जाती है।
“ऐ लोगों! तुम्हारी इस बग़ावत का वबाल तुम्हारी अपनी ही जानों पर आएगा, यह दुनिया की ज़िंदगी का साज़ो-सामान है (इसे बरत लो), फिर हमारी ही तरफ़ तुम सबको लौटना है, फिर हम तुमको बतला देंगे जो कुछ तुम करते रहे थे।” | يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اِنَّمَا بَغْيُكُمْ عَلٰٓي اَنْفُسِكُمْ ۙ مَّتَاعَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۡ ثُمَّ اِلَيْنَا مَرْجِعُكُمْ فَنُنَبِّئُكُمْ بِمَا كُنْتُمْ تَعْمَلُوْنَ 23 |
आयत 24
“इस दुनिया की ज़िंदगी की मिसाल तो ऐसे है जैसे पानी, जो हम बरसाते हैं आसमान से, फिर उसके साथ निकल आता है ज़मीन का सब्ज़ा, जिसमें से खाते हैं इंसान भी और चौपाये भी।” | اِنَّمَا مَثَلُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا كَمَاۗءٍ اَنْزَلْنٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ فَاخْتَلَطَ بِهٖ نَبَاتُ الْاَرْضِ مِمَّا يَاْكُلُ النَّاسُ وَالْاَنْعَامُ ۭ |
पानी के बगैर ज़मीन बंजर और मुर्दा होती है, उसमें घास, हरियाली वगैरह कुछ भी नहीं होता। ज्योंहि बारिश होती है उसमें से तरह-तरह का सब्ज़ा निकल आता है, फ़सलें लहलहाने लगती हैं, बाग़ात हरे-भरे हो जाते हैं।
“यहाँ तक कि जब ज़मीन अच्छी तरह अपना सिंगार कर लेती है और ख़ूब मुज़य्यन हो जाती है” | ﱑ اِذَآ اَخَذَتِ الْاَرْضُ زُخْرُفَهَا وَازَّيَّنَتْ |
यहाँ पर बहुत ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में ज़मीन की शादाबी की तस्वीरकशी की गई है। छोटे-बड़े नबातात की नुमाइश, सब्ज़ पोश खूबसूरती की बहार और रंगा-रंग फूलों की ज़ेबाईश के साथ जब ज़मीन पूरी तरह अपना बनाव-सिंगार कर लेती है, फ़सलें अपने जोबन (यौवन) पर आ जाती हैं और बाग़ात फलों से लद जाते हैं:
“और इसके मालिक समझते हैं कि अब हम इस पर क़ादिर हैं” | وَظَنَّ اَهْلُهَآ اَنَّھُمْ قٰدِرُوْنَ عَلَيْهَآ ۙ |
ज़मीन वाले लहलहाती फसलों को देख कर खुश होते हैं और समझते हैं कि बस अब चंद दिन की बात है, हम अपनी फ़सलों की कटाई करेंगे, फलों को पेड़ों से उतारेंगे और हमारी ज़मीन की ये पैदावार हमारी खुशहाली का ज़रिया बनेगी। मगर होता क्या है:
“तो अचानक हमारा एक हुक्म आता है इस (खेत या बाग़) पर रात के वक़्त या दिन के वक़्त और हम इसे कर देते हैं कटा हुआ जैसे कि कल वहाँ कुछ था ही नहीं।” | اَتٰىھَآ اَمْرُنَا لَيْلًا اَوْ نَهَارًا فَجَعَلْنٰھَا حَصِيْدًا كَاَنْ لَّمْ تَغْنَ بِالْاَمْسِ ۭ |
अल्लाह के हुक्म से ऐसी आफ़त आई कि देखते ही देखते सारी फ़सल तबाह हो गई, बाग़ उजड़ गया, सारी मेहनत अकारत गई, तमाम सरमाया डूब गया। दुनिया की बेसबाती की इस मिसाल से वाज़ेह किया गया है कि यही मामला इंसान का है। इंसान इस दुनिया में दिन-रात मेहनत व मशक्क़त और भाग-दौड़ करता है। अगर इंसान की यह सारी मेहनत और तगो-दो अल्लाह की मर्ज़ी के दायरे में नहीं है, इससे शरियत के तक़ाज़े पूरे नहीं हो रहे हैं तो यह सब कुछ इसी दुनिया की हद तक ही है, आख़िरत में इनमें से कुछ भी उसके हाथ नहीं आएगा। मौत के बाद जब उसकी आँख खुलेगी तो वह देखेगा कि उसकी ज़िंदगी भर की सारी मेहनत अकारत चली गई: “जब आँख खुली गुल की तो मौसम था खज़ा का!”
“इसी तरह हम अपनी आयात की तफ़सील करते हैं उन लोगों के लिये जो गौर व फ़िक्र से काम लेते हैं।” | كَذٰلِكَ نُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ 24 |
आयात 25 से 30 तक
وَاللّٰهُ يَدْعُوْٓا اِلٰى دَارِ السَّلٰمِ ۭ وَيَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَــقِيْمٍ 25 لِلَّذِيْنَ اَحْسَـنُوا الْحُسْنٰى وَزِيَادَةٌ ۭ وَلَا يَرْهَقُ وُجُوْهَھُمْ قَتَرٌ وَّلَا ذِلَّةٌ ۭ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 26 وَالَّذِيْنَ كَسَبُوا السَّيِّاٰتِ جَزَاۗءُ سَـيِّئَةٍۢ بِمِثْلِهَا ۙ وَتَرْهَقُھُمْ ذِلَّةٌ ۭ مَا لَھُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ عَاصِمٍ ۚ كَاَنَّمَآ اُغْشِيَتْ وُجُوْهُھُمْ قِطَعًا مِّنَ الَّيْلِ مُظْلِمًا ۭ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 27 وَيَوْمَ نَحْشُرُھُمْ جَمِيْعًا ثُمَّ نَقُوْلُ لِلَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا مَكَانَكُمْ اَنْتُمْ وَشُرَكَاۗؤُكُمْ ۚفَزَيَّلْنَا بَيْنَھُمْ وَقَالَ شُرَكَاۗؤُھُمْ مَّا كُنْتُمْ اِيَّانَا تَعْبُدُوْنَ 28 فَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًۢا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ اِنْ كُنَّا عَنْ عِبَادَتِكُمْ لَغٰفِلِيْنَ 29 هُنَالِكَ تَبْلُوْا كُلُّ نَفْسٍ مَّآ اَسْلَفَتْ وَرُدُّوْٓا اِلَى اللّٰهِ مَوْلٰىھُمُ الْحَقِّ وَضَلَّ عَنْھُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 30ۧ
आयत 25
“और अल्लाह बुला रहा है तुम्हें सलामती के घर की तरफ़, और वह हिदायत देता है जिसको चाहता है सीधे रास्ते की तरफ़।” | وَاللّٰهُ يَدْعُوْٓا اِلٰى دَارِ السَّلٰمِ ۭ وَيَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَــقِيْمٍ 25 |
आयत 26
“जो लोग अहसान की रविश इख्तियार करेंगे, उनके लिये हसना (भलाई) है और मज़ीद भी।” | لِلَّذِيْنَ اَحْسَـنُوا الْحُسْنٰى وَزِيَادَةٌ ۭ |
उन्हें नेकी का बदला भी बहुत अच्छा मिलेगा और मज़ीद बराआँ उन्हें ईनामात से भी नवाज़ा जाएगा।
“और नहीं मुसल्लत होगी उनके चेहरों पर स्याही और ना ज़िल्लत।” | وَلَا يَرْهَقُ وُجُوْهَھُمْ قَتَرٌ وَّلَا ذِلَّةٌ ۭ |
“यही होंगे जन्नत वाले, और रहेँगे उसमें हमेशा-हमेश।” | اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 26 |
आयत 27
“और जिन लोगों ने बुराईयाँ कमाईं तो (उनके लिये) बदला होगा बुराई का वैसा ही” | وَالَّذِيْنَ كَسَبُوا السَّيِّاٰتِ جَزَاۗءُ سَـيِّئَةٍۢ بِمِثْلِهَا ۙ |
यानि जैसी उनकी बुराई होगी वैसा ही उसका बदला होगा, उसमें कुछ इज़ाफ़ा नहीं किया जाएगा।
“और उन पर ज़िल्लत छा जाएगी। नहीं होगा उन्हें अल्लाह (की पकड़) से कोई भी बचाने वाला।” | وَتَرْهَقُھُمْ ذِلَّةٌ ۭ مَا لَھُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ عَاصِمٍ ۚ |
“गोया उनके चेहरों पर तारीक रात के टुकड़े उढ़ा दिये गए हों।” | كَاَنَّمَآ اُغْشِيَتْ وُجُوْهُھُمْ قِطَعًا مِّنَ الَّيْلِ مُظْلِمًا ۭ |
“यही लोग होंगे जहन्नमी, ये रहेँगे उसी में हमेशा-हमेश।” | اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 27 |
आयत 28
“और जिस दिन हम इन सबको जमा करेंगे, फ़िर हम कहेंगे उन लोगों से जिन्होंने शिर्क किया था कि खड़े रहो अपनी जगह पर तुम भी और तुम्हारे शरीक भी।” | وَيَوْمَ نَحْشُرُھُمْ جَمِيْعًا ثُمَّ نَقُوْلُ لِلَّذِيْنَ اَشْرَكُوْا مَكَانَكُمْ اَنْتُمْ وَشُرَكَاۗؤُكُمْ ۚ |
यूँ मालुम होता है कि यह लात, मनात, उज्ज़ा वगैरह की बात नहीं हो रही जिनके बारे में किसी को पता नहीं कि उनकी असल क्या थी, बल्कि यह औलिया अल्लाह, नेक और बरगज़ीदा बन्दों की बात हो रही है जिनके नामों पर मूर्तियाँ और बुत बना कर उनकी पूजा की गई होगी। जैसे क़ौमे नूह ने वुद, सवाअ और यगोश वगैरह औलिया अल्लाह की पूजा के लिये उनके बुत बना रखे थे (इस बारे में तफ़सील सूरतुल नूह में आएगी)। हमारे यहाँ सिर्फ़ यह फ़र्क़ है कि बुत नहीं बनाए जाते, क़ब्रें पूजी जाती हैं।
इस सिलसिले में हज़रत ईसा अलै. से अल्लाह तआला के ख़िताब की एक झलक हम सूरतुल मायदा के आखरी रुकूअ में देख आए हैं। इसलिये यहाँ यह ख्याल नहीं आना चाहिये कि ऐसे बुलंद मरतबा लोगों को इस तरह का हुक्म क्यों कर दिया जाएगा कि ठहरे रहो अपनी जगह पर तुम भी और तुम्हारे शरीक भी! बहरहाल अल्लाह तआला की शान बहुत बलंद है, जबकि एक बंदा तो बंदा ही है, चाहे जितनी भी तरक्क़ी कर ले: अर्रब्बु रब्बुन वइन तनज्ज़ल! वल अब्दु अब्दुन वइन तरक्क़ा!
“तो हम उनके दरमियान रिश्ते मुनक़तअ कर देंगे और कहेंगे उनके शरीक (उनसे) कि तुम हमको तो नहीं पूजा करते थे।” | فَزَيَّلْنَا بَيْنَھُمْ وَقَالَ شُرَكَاۗؤُھُمْ مَّا كُنْتُمْ اِيَّانَا تَعْبُدُوْنَ 28 |
वह नेक लोग जिन्हें अल्लाह का शरीक बनाया गया वह इस शिर्क से बरी हैं, क्यूंकि उन्होंने तो अपनी ज़िन्दगियाँ अल्लाह की इताअत में गुज़ारी थी। जैसे सूरतुल बक़रह (आयत: 134) में बहुत वाज़ेह अंदाज़ में फ़रमाया गया है: {تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ } “वह एक जमात थी जो गुज़र गई, उनके लिये है जो उन्होंने कमाया और तुम्हारे लिये है जो तुमने कमाया।” अगर कोई शेख़ अब्दुल क़ादिर जिलानी रह. को पुकारता है या किसी मज़ार पर जाकर मुशरिकाना हरकतें करता है तो इसका वबाल साहिबे मज़ार पर क़तअन नहीं होगा। उन पर तो उल्टा ज़ुल्म हो रहा है कि उन्हें अल्लाह के साथ शिर्क में मुलव्विस किया जा रहा है। चुनाँचे अल्लाह के वह नेक बन्दे अल्लाह के यहाँ इन शिर्क करने वालों के ख़िलाफ़ इस्तगासा (शिकायत) करेंगे, कि वह लोग अल्लाह को छोड़ कर उन्हें पुकारते थे और उनके नामों की दुहाइयाँ देते थे। वह उन शिर्क करने वालों से कहेंगे:
आयत 29
“पस अल्लाह काफ़ी है (बतौर) गवाह हमारे और तुम्हारे माबैन, हम तो तुम्हारी इस इबादत से बिल्कुल बेख़बर थे।” | فَكَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًۢا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ اِنْ كُنَّا عَنْ عِبَادَتِكُمْ لَغٰفِلِيْنَ 29 |
यानि अगर तुम हमारी पूजा करते भी रहे हो तो हमें बिल्कुल इसकी ख़बर नहीं, हम पर इसका कुछ इल्ज़ाम नहीं। हम तुम्हारे इन घिनौने फ़अल से बिल्कुल बरी हैं।
आयत 30
“उस वक़्त हर जान को पता चल जाएगा कि उसने क्या आगे भेजा था, और वह लौटा दिए जाएँगे अल्लाह की तरफ़ जो उनका बरहक़ मौला है, और ग़ुम हो जाएगा उनसे वह सब कुछ जो वह इफ़तरा (मानहानि) करते थे।” | هُنَالِكَ تَبْلُوْا كُلُّ نَفْسٍ مَّآ اَسْلَفَتْ وَرُدُّوْٓا اِلَى اللّٰهِ مَوْلٰىھُمُ الْحَقِّ وَضَلَّ عَنْھُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 30ۧ |
यानि उस दिन जब शफ़ाअत की उम्मीदों के सारे सहारे हवा हो जायेंगे तो उनके हाथों के तोते उड़ जायेंगे। तब उन्हें मालूम होगा कि: “ख्व़ाब था जो कुछ कि देखा, जो सुना अफ़साना था!”
आयात 31 से 39 तक
قُلْ مَنْ يَّرْزُقُكُمْ مِّنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ اَمَّنْ يَّمْلِكُ السَّمْعَ وَالْاَبْصَارَ وَمَنْ يُّخْرِجُ الْـحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَيُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْحَيِّ وَمَنْ يُّدَبِّرُ الْاَمْرَ ۭ فَسَيَقُوْلُوْنَ اللّٰهُ ۚ فَقُلْ اَفَلَا تَتَّقُوْنَ 31 فَذٰلِكُمُ اللّٰهُ رَبُّكُمُ الْحَقُّ ۚ فَمَاذَا بَعْدَ الْحَقِّ اِلَّا الضَّلٰلُ ښ فَاَنّٰى تُصْرَفُوْنَ 32 كَذٰلِكَ حَقَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَي الَّذِيْنَ فَسَقُوْٓا اَنَّھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ 33 قُلْ هَلْ مِنْ شُرَكَاۗىِٕكُمْ مَّنْ يَّبْدَؤُا الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ ۭ قُلِ اللّٰهُ يَبْدَؤُا الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ فَاَنّٰى تُؤْفَكُوْنَ 34 قُلْ هَلْ مِنْ شُرَكَاۗىِٕكُمْ مَّنْ يَّهْدِيْٓ اِلَى الْحَقِّ ۭ قُلِ اللّٰهُ يَهْدِيْ لِلْحَقِّ ۭ اَفَمَنْ يَّهْدِيْٓ اِلَى الْحَقِّ اَحَقُّ اَنْ يُّتَّبَعَ اَمَّنْ لَّا يَهِدِّيْٓ اِلَّآ اَنْ يُّهْدٰى ۚ فَمَا لَكُمْ ۣ كَيْفَ تَحْكُمُوْنَ 35 وَمَا يَتَّبِعُ اَكْثَرُھُمْ اِلَّا ظَنًّا ۭ اِنَّ الظَّنَّ لَا يُغْنِيْ مِنَ الْحَقِّ شَـيْــــًٔـا ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِمَا يَفْعَلُوْنَ 36 وَمَا كَانَ هٰذَا الْقُرْاٰنُ اَنْ يُّفْتَرٰي مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلٰكِنْ تَصْدِيْقَ الَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْهِ وَتَفْصِيْلَ الْكِتٰبِ لَا رَيْبَ فِيْهِ مِنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ 37ۣ اَمْ يَــقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۭ قُلْ فَاْتُوْا بِسُوْرَةٍ مِّثْلِهٖ وَادْعُوْا مَنِ اسْتَــطَعْتُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 38 بَلْ كَذَّبُوْا بِمَا لَمْ يُحِيْطُوْا بِعِلْمِهٖ وَلَمَّا يَاْتِهِمْ تَاْوِيْلُهٗ ۭ كَذٰلِكَ كَذَّبَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الظّٰلِمِيْنَ 39
आयत 31
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) पूछिए कि कौन है जो तुम्हें रिज़्क़ पहुँचाता है आसमान और ज़मीन से या कौन है जिसके क़बज़ा-ए-क़ुदरत में है तुम्हारे कान और तुम्हारी आँखें?” | قُلْ مَنْ يَّرْزُقُكُمْ مِّنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ اَمَّنْ يَّمْلِكُ السَّمْعَ وَالْاَبْصَارَ |
“और कौन है जो निकालता है ज़िन्दा को मुर्दा से, और मुर्दा को ज़िन्दा से, और कौन है तदबीरे अम्र करने वाला?” | وَمَنْ يُّخْرِجُ الْـحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَيُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْحَيِّ وَمَنْ يُّدَبِّرُ الْاَمْرَ ۭ |
“तो वह कहेंगे अल्लाह!” | فَسَيَقُوْلُوْنَ اللّٰهُ ۚ |
मुशरिकीने मक्का अल्लाह को इन तमाम सिफ़ात के साथ मानते थे और इस बारे में उनके ज़हनों में कोई अबहाम (doubt) नहीं था। वह इस हक़ीक़त को तस्लीम करते थे कि अल्लाह सुबहाना व तआला ना सिर्फ़ इस कायनात का खालिक़ है बल्कि इसका निज़ाम भी वही चला रहा है।
“तो आप फ़रमाइये कि क्या फिर तुम (उस अल्लाह से) डरते नहीं हो?” | فَقُلْ اَفَلَا تَتَّقُوْنَ 31 |
जब तुम लोग अल्लाह तआला को अपना खालिक़, मालिक और राज़िक़ मानते हो, जब तुम मानते हो कि कायनात का यह सारा निज़ाम अल्लाह ही अपने हुस्ने तदबीर से चला रहा है तो फिर इसके बाद तुम्हारे इन मुशरिकाना नज़रियात और देवी देवताओं की इस पूजा-पाठ का क्या जवाज़ है? क्या तुम्हें कुछ भी खौफ़-ए-ख़ुदा नहीं है?
आयत 32
“तो वही है अल्लाह तुम्हारा रब बरहक़। तो हक़ के बाद क्या रह जाता है सिवाय गुमराही के? तो कहाँ से तुम फेरे जा रहे हो?” | فَذٰلِكُمُ اللّٰهُ رَبُّكُمُ الْحَقُّ ۚ فَمَاذَا بَعْدَ الْحَقِّ اِلَّا الضَّلٰلُ ښ فَاَنّٰى تُصْرَفُوْنَ 32 |
यही हक़ है जिसको तुम अपनी फ़ितरत की नज़र से पहचान चुके हो। अब इसी को मज़बूती से थाम लो और फिर से गुमराही में मुब्तला होने से बच जाओ। यानि तुम्हारी फ़ितरत के अन्दर हक़ की पहचान मौजूद है। इसकी गवाही खुद तुम्हारी अपनी ज़बानें दे रही हैं। तुम अल्लाह को अपना और इस कायनात का खालिक़ व मालिक मानते हो, ज़बान से इसका इक़रार करते हो। तो यहाँ तक पहुँच कर फिर क्यों गुमराही में औंधे मुँह गिर जाते हो। तुम्हारी अक़्ल कहाँ उलट जाती है?
आयत 33
“इसी तरह तेरे रब की बात सच साबित हुई नाफ़रमान लोगों पर कि वह ईमान नहीं लाएँगे।” | كَذٰلِكَ حَقَّتْ كَلِمَتُ رَبِّكَ عَلَي الَّذِيْنَ فَسَقُوْٓا اَنَّھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ 33 |
आयत 34
“इनसे पूछिए क्या तुम्हारे शरीकों में से कोई ऐसा भी है जो तख्लीक़ करता हो पहली मरतबा और फिर उसे दोबारा भी बनाए?” | قُلْ هَلْ مِنْ شُرَكَاۗىِٕكُمْ مَّنْ يَّبْدَؤُا الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ ۭ |
“आप कहिये सिर्फ़ अल्लाह ही है जो पहली मरतबा भी पैदा करता है, फिर वह उसे दोबारा भी बनाएगा, तो फिर तुम कहाँ से पलटाए जा रहे हो?” | قُلِ اللّٰهُ يَبْدَؤُا الْخَلْقَ ثُمَّ يُعِيْدُهٗ فَاَنّٰى تُؤْفَكُوْنَ 34 |
फिर तुम यह किस उल्टी राह पर चलाए जा रहे हो? तुम कहाँ औंधे हुए जाते हो?
आयत 35
“इनसे पूछिए कि है कोई तुम्हारे शरीकों में से जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई कर सके?” | قُلْ هَلْ مِنْ شُرَكَاۗىِٕكُمْ مَّنْ يَّهْدِيْٓ اِلَى الْحَقِّ ۭ |
“आप कहिये कि अल्लाह ही है जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है।” | قُلِ اللّٰهُ يَهْدِيْ لِلْحَقِّ ۭ |
“तो क्या जो हक़ की तरफ़ रहनुमाई करता है वह ज़्यादा मुस्तहिक़ है इसका कि उसकी पैरवी की जाए या वह जो खुद हिदायत नहीं पा सकता, इल्ला यह कि उसकी रहनुमाई की जाए?” | اَفَمَنْ يَّهْدِيْٓ اِلَى الْحَقِّ اَحَقُّ اَنْ يُّتَّبَعَ اَمَّنْ لَّا يَهِدِّيْٓ اِلَّآ اَنْ يُّهْدٰى ۚ |
तमाम मख्लूक़ को हिदायत देने वाला अल्लाह है। चुनाँचे हिदायत व रहनुमाई के लिये सब उसी के सामने दस्ते सवाल दराज़ करते हैं। खुद नबी मुकर्रम ﷺ भी अल्लाह ही से यह दुआ माँगते थे {اِھْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَـقِيْمَ} । तो भला वह जो हिदायत देता है उसकी बात मानी जानी चाहिये या उनकी जो खुद हिदायत के मोहताज हों?
“तुम्हें क्या हो गया है, तुम कैसे फ़ैसले करते हो!” | فَمَا لَكُمْ ۣ كَيْفَ تَحْكُمُوْنَ 35 |
आयत 36
“और नहीं पैरवी कर रहे इनमें से अक्सर मगर गुमान की, और यह गुमान किसी भी दर्जे में (इंसान को) हक़ से मुस्तगना नहीं कर सकता। यक़ीनन अल्लाह जानता है जो कुछ ये कर रहे हैं।” | وَمَا يَتَّبِعُ اَكْثَرُھُمْ اِلَّا ظَنًّا ۭ اِنَّ الظَّنَّ لَا يُغْنِيْ مِنَ الْحَقِّ شَـيْــــًٔـا ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِمَا يَفْعَلُوْنَ 36 |
आयत 37
“और यह क़ुरान ऐसी शय नहीं है जिसको अल्लाह के सिवा (कहीं और) घड लिया गया हो” | وَمَا كَانَ هٰذَا الْقُرْاٰنُ اَنْ يُّفْتَرٰي مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ |
यह क़ुरान किसी इंसान के हाथों तसनीफ़ (publish) की जाने वाली किताब नहीं है।
“बल्कि यह तो तस्दीक़ (करते हुए आया) है उसकी जो इसके सामने है और (इसमें तमाम) शरीअत की तफ़सील है, इसमें कोई शुबह नहीं है कि यह तमाम जहानों के रब की तरफ़ से है।” | وَلٰكِنْ تَصْدِيْقَ الَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْهِ وَتَفْصِيْلَ الْكِتٰبِ لَا رَيْبَ فِيْهِ مِنْ رَّبِّ الْعٰلَمِيْنَ 37ۣ |
आयत 38
“क्या ये कहते हैं कि इसको पैगम्बर ने ख़ुद घड लिया है?” | اَمْ يَــقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۭ |
ये लोग इस क़ुरान के बारे में कहते हैं कि यह मोहम्मद (ﷺ) की अपनी तसनीफ़ है। इन्होंने ख़ुद ये कलाम मौज़ूं कर लिया है।
“आप (इनसे) कहिये कि ले आओ तुम भी एक सूरत इस जैसी और (इसके लिये) बुला लो जिसको बुला सकते हो अल्लाह के सिवा, अगर तुम सच्चे हो।” | قُلْ فَاْتُوْا بِسُوْرَةٍ مِّثْلِهٖ وَادْعُوْا مَنِ اسْتَــطَعْتُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 38 |
यह चैलेंज सूरतुल बक़रह में भी है जो कि मदनी है, जबकि मक्की सूरतों में तो इसे मुतअद्दिद बार दोहराया गया है। सूरह हूद में इस जैसी दस सूरतें बना कर ले आने का चैलेंज दिया गया है और यहाँ इस सूरत में यह चैलेंज गोया बरसबीले तनज्ज़ल आख़री दर्जे में पेश किया गया है कि चलो इस जैसी एक सूरत ही बना कर दिखा दो।
आयत 39
“(नहीं) बल्कि इन्होंने तकज़ीब की है उस चीज़ की जिसके इल्म का ये इहाता नहीं कर सके और अभी नहीं आई इनके पास इसकी तावील।” | بَلْ كَذَّبُوْا بِمَا لَمْ يُحِيْطُوْا بِعِلْمِهٖ وَلَمَّا يَاْتِهِمْ تَاْوِيْلُهٗ ۭ |
यानि ये लोग क़ुरान के उलूम का इदराक और इसके पैग़ाम का शऊर हासिल नहीं कर सके। इसके अलावा अज़ाब के बारे में इनको दी गई धमकियों का मिस्दाक़े खारज़ी भी अभी इन पर ज़ाहिर नहीं हुआ, इसलिये वह इस सब कुछ को महज़ डरावा और झूठ समझ रहे हैं। क़ुरान में इन लोगों को बार-बार धमकियाँ दी गई थीं कि अल्लाह का इन्कार करोगे तो उसकी पकड़ में आ जाओगे, उसकी तरफ़ से बहुत सख्त अज़ाब तुम पर आएगा। यह अज़ाबे मौऊद चूँकि ज़ाहिरी तौर पर उन पर नहीं आया, इसी लिये वह क़ुरान को भी झुठला रहे हैं।
“इसी तरह झुठलाया था उन लोगों ने भी जो इनसे पहले थे, तो देखो कैसा अंजाम हुआ ज़ालिमों का!” | كَذٰلِكَ كَذَّبَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الظّٰلِمِيْنَ 39 |
आयात 40 से 52 तक
وَمِنْھُمْ مَّنْ يُّؤْمِنُ بِهٖ وَمِنْھُمْ مَّنْ لَّا يُؤْمِنُ بِهٖ ۭ وَرَبُّكَ اَعْلَمُ بِالْمُفْسِدِيْنَ 40ۧ وَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقُلْ لِّيْ عَمَلِيْ وَلَكُمْ عَمَلُكُمْ ۚ اَنْتُمْ بَرِيْۗـــــُٔوْنَ مِمَّآ اَعْمَلُ وَاَنَا بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تَعْمَلُوْنَ 41 وَمِنْھُمْ مَّنْ يَّسْتَمِعُوْنَ اِلَيْكَ ۭاَفَاَنْتَ تُسْمِعُ الصُّمَّ وَلَوْ كَانُوْا لَا يَعْقِلُوْنَ 42 وَمِنْھُمْ مَّنْ يَّنْظُرُ اِلَيْكَ ۭ اَفَاَنْتَ تَهْدِي الْعُمْيَ وَلَوْ كَانُوْا لَا يُبْصِرُوْنَ 43 اِنَّ اللّٰهَ لَا يَظْلِمُ النَّاسَ شَيْـــًٔـا وَّلٰكِنَّ النَّاسَ اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ 44 وَيَوْمَ يَحْشُرُھُمْ كَاَنْ لَّمْ يَلْبَثُوْٓا اِلَّا سَاعَةً مِّنَ النَّهَارِ يَتَعَارَفُوْنَ بَيْنَھُمْ ۭ قَدْ خَسِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِلِقَاۗءِ اللّٰهِ وَمَا كَانُوْا مُهْتَدِيْنَ 45 وَاِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعْضَ الَّذِيْ نَعِدُھُمْ اَوْ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَاِلَيْنَا مَرْجِعُھُمْ ثُمَّ اللّٰهُ شَهِيْدٌ عَلٰي مَا يَفْعَلُوْنَ 46 وَلِكُلِّ اُمَّةٍ رَّسُوْلٌ ۚ فَاِذَا جَاۗءَ رَسُوْلُھُمْ قُضِيَ بَيْنَھُمْ بِالْقِسْطِ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ 47 وَيَقُوْلُوْنَ مَتٰى هٰذَا الْوَعْدُ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 48 قُلْ لَّآ اَمْلِكُ لِنَفْسِيْ ضَرًّا وَّلَا نَفْعًا اِلَّا مَا شَاۗءَ اللّٰهُ ۭ لِكُلِّ اُمَّةٍ اَجَلٌ ۭاِذَا جَاۗءَ اَجَلُھُمْ فَلَا يَسْتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ 49 قُلْ اَرَءَيْتُمْ اِنْ اَتٰىكُمْ عَذَابُهٗ بَيَاتًا اَوْ نَهَارًا مَّاذَا يَسْتَعْجِلُ مِنْهُ الْمُجْرِمُوْنَ 50 اَثُمَّ اِذَا مَا وَقَعَ اٰمَنْتُمْ بِهٖ ۭ اٰۗلْــٰٔنَ وَقَدْ كُنْتُمْ بِهٖ تَسْتَعْجِلُوْنَ 51 ثُمَّ قِيْلَ لِلَّذِيْنَ ظَلَمُوْا ذُوْقُوْا عَذَابَ الْخُلْدِ ۚ هَلْ تُجْزَوْنَ اِلَّا بِمَا كُنْتُمْ تَكْسِبُوْنَ 52
आयत 40
“इनमें वह भी हैं जो इस पर ईमान ले आयेंगे और वह भी हैं जो ईमान नहीं लायेंगे, और आपका रब इन मुफ़सिदों से ख़ूब वाक़िफ़ है।” | وَمِنْھُمْ مَّنْ يُّؤْمِنُ بِهٖ وَمِنْھُمْ مَّنْ لَّا يُؤْمِنُ بِهٖ ۭ وَرَبُّكَ اَعْلَمُ بِالْمُفْسِدِيْنَ 40ۧ |
आयत 41
“और अगर ये लोग आपको झुठला दें तो आप कहिये कि मेरे लिये मेरा अमल है और तुम्हारे लिये तुम्हारा अमल।” | وَاِنْ كَذَّبُوْكَ فَقُلْ لِّيْ عَمَلِيْ وَلَكُمْ عَمَلُكُمْ ۚ |
“तुम बरी हो मेरे अमल की ज़िम्मेदारी से और मै बरी हूँ तुम्हारे आमाल की ज़िम्मेदारी से।” | اَنْتُمْ بَرِيْۗـــــُٔوْنَ مِمَّآ اَعْمَلُ وَاَنَا بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تَعْمَلُوْنَ 41 |
ना मेरे अमल की कोई ज़िम्मेदारी तुम लोगों पर है और ना तुम्हारे किये का मैं ज़िम्मेदार हूँ।
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आयत 42
“और इनमें ऐसे लोग भी हैं जो बड़ी तवज्जोह से सुनते हैं आप (की बातों) को।” | وَمِنْھُمْ مَّنْ يَّسْتَمِعُوْنَ اِلَيْكَ ۭ |
“तो क्या आप बहरों को सुना सकते हैं चाहे वह अक़्ल से काम ना लेते हों!” | اَفَاَنْتَ تُسْمِعُ الصُّمَّ وَلَوْ كَانُوْا لَا يَعْقِلُوْنَ 42 |
ये लोग तो पहले से ही ना सुनने का तहिया (निश्चय) किये हुए हैं, इसलिये इनके कान हक़ की तरफ़ से बहरे हो चुके हैं। इनका आपकी बातों को सुनना सिर्फ़ दिखावे का सुनना है ताकि दूसरे लोगों को बता सकें कि हाँ जी हम तो मोहम्मद (ﷺ) की महफ़िल में भी जाते हैं, सारी बातें भी सुनते हैं मगर इनमें ऐसी कोई बात है ही नहीं जिसे माना जाए।
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आयत 43
“और इनमें ऐसे भी हैं जो आपको देखते हैं।” | وَمِنْھُمْ مَّنْ يَّنْظُرُ اِلَيْكَ ۭ |
“तो क्या आप अंधों को हिदायत देंगे ख्वाह वह देखते ना हों!” | اَفَاَنْتَ تَهْدِي الْعُمْيَ وَلَوْ كَانُوْا لَا يُبْصِرُوْنَ 43 |
चुनाँचे जब इन लोगों की नीयत ही हिदायत हासिल करने की नहीं है, जब इनके दिल ही अंधे हो चुके हैं तो आपकी मजलिस में आना और आपकी सोहबत में बैठना, उनके लिये हरगिज़ मुफ़ीद नहीं हो सकता।
आयत 44
“यक़ीनन अल्लाह इंसानों पर कुछ भी ज़ुल्म नहीं करता, बल्कि लोग ख़ुद ही अपनी जानों पर ज़ुल्म ढाते हैं।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَظْلِمُ النَّاسَ شَيْـــًٔـا وَّلٰكِنَّ النَّاسَ اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ 44 |
आयत 45
“और जिस दिन वह उन्हें जमा करेगा (तो वह महसूस करेंगे) जैसे नहीं रहे वह मगर दिन की एक घड़ी, वह एक-दूसरे को पहचान रहे होंगे।” | وَيَوْمَ يَحْشُرُھُمْ كَاَنْ لَّمْ يَلْبَثُوْٓا اِلَّا سَاعَةً مِّنَ النَّهَارِ يَتَعَارَفُوْنَ بَيْنَھُمْ ۭ |
उन्हें दुनिया और आलम-ए-बरज़ख़ में गुज़रा हुआ वक़्त ऐसे महसूस होगा जैसे कि वह एक दिन का कुछ हिस्सा था।
“वह लोग बड़े ख़सारे का शिकार हुए जिन्होंने झुठला दिया अल्लाह की मुलाक़ात को और ना हुए वह हिदायत पाने वाले।” | قَدْ خَسِرَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِلِقَاۗءِ اللّٰهِ وَمَا كَانُوْا مُهْتَدِيْنَ 45 |
आगे अज़ाब की उस धमकी का ज़िक्र आ रहा है जिसके बारे में आयत 39 में फ़रमाया गया था {وَلَمَّا يَاْتِهِمْ تَاْوِيْلُهٗ ۭ } कि इसकी तावील अभी उनके पास नहीं आई।
आयत 46
“और अगर हम दिखा दें आपको उसमें से कुछ (अज़ाब) जिसका हम उनसे वादा कर रहे हैं या (इससे पहले ही) हम आपको वफ़ात दे दें” | وَاِمَّا نُرِيَنَّكَ بَعْضَ الَّذِيْ نَعِدُھُمْ اَوْ نَتَوَفَّيَنَّكَ |
“पस इन्हें हमारी ही तरफ़ लौट कर आना है, फिर अल्लाह गवाह है उस पर जो वह कर रहे हैं।” | فَاِلَيْنَا مَرْجِعُھُمْ ثُمَّ اللّٰهُ شَهِيْدٌ عَلٰي مَا يَفْعَلُوْنَ 46 |
यानि आख़री मुहासबा तो इनका क़यामत के दिन होना ही है, मगर हो सकता है कि यहाँ दुनिया में भी सज़ा का कुछ हिस्सा इनके लिये मुख़तस कर दिया जाए। जैसा कि बाद में मुशरिकीने मक्का पर अज़ाब आया। उन पर आने वाले इस अज़ाब का अंदाज़ पहली क़ौमों के अज़ाब से मुख्तलिफ़ था। इस अज़ाब की पहली क़िस्त जंगे बदर में इनके सत्तर सरदारों के क़त्ल और ज़िल्लत आमेज़ शिकस्त की सूरत में सामने आई, जबकि दूसरी और आख़री क़िस्त 9 हिजरी में वारिद हुई जब इन्हें अल्टीमेटम दे दिया गया: (सूरह तौबा: 2) {…..فَسِيْحُوْا فِي الْاَرْضِ اَرْبَعَةَ اَشْهُرٍ } कि अब तुम्हारे लिये सिर्फ़ चंद माह की मोहलत है, इसमें ईमान ले आओ वरना क़त्ल कर दिए जाओगे। अहले मक्का के साथ अज़ाब का मामला पहली क़ौमों के मुक़ाबले में शायद इसलिये भी मुख्तलिफ़ रहा कि पहली क़ौमों की निस्बत इनके यहाँ ईमान लाने वालों की तादाद काफ़ी बेहतर रही। मसलन अगर हज़रत नूह अलै. की साढ़े नौ सौ साल की तब्लीग से अस्सी लोग ईमान लाए (मेरी राय में वह लोग अस्सी भी नहीं थे) तो यहाँ मक्का में हुज़ूर ﷺ की बारह साल की मेहनत के नतीजे में अहले ईमान की तादाद इससे दो गुना थी और इनमें हज़रत अबु बकर, हज़रत तल्हा, हज़रत ज़ुबैर, हज़रत उस्मान, हज़रत अब्दुर्रहमान बिन औफ़, हज़रत उमर और हज़रत हम्ज़ा रज़ि. जैसे बड़े-बड़े लोग भी शामिल थे।
आयत 47
“और हर उम्मत के लिये एक रसूल (भेजा गया) है।” | وَلِكُلِّ اُمَّةٍ رَّسُوْلٌ ۚ |
“फिर जब आया उनका रसूल तो उनके माबैन अद्ल के साथ फ़ैसला कर दिया गया और उन पर कोई ज़ुल्म नहीं किया गया।” | فَاِذَا جَاۗءَ رَسُوْلُھُمْ قُضِيَ بَيْنَھُمْ بِالْقِسْطِ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ 47 |
इसकी वज़ाहत के लिये हज़रत नूह, हज़रत हूद, हज़रत सालेह, हज़रत शोएब, हज़रत लूत और हज़रत मूसा अलै. की क़ौमों के मामलात को ज़हन में रखिये।
आयत 48
“और वह कहते हैं कि कब यह (अज़ाब का) वादा पूरा होगा अगर तुम सच्चे हो?” | وَيَقُوْلُوْنَ مَتٰى هٰذَا الْوَعْدُ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 48 |
आयत 49
“(ऐ नबी ﷺ!) आप कह दीजिये कि मैं तो ख़ुद अपनी जान के लिये भी कोई इख्तियार नहीं रखता, ना किसी ज़र्र का ना नफ़े का, सिवाय इसके जो अल्लाह चाहे।” | قُلْ لَّآ اَمْلِكُ لِنَفْسِيْ ضَرًّا وَّلَا نَفْعًا اِلَّا مَا شَاۗءَ اللّٰهُ ۭ |
“हर उम्मत के लिये एक वक़्त मुअय्यन है।” | لِكُلِّ اُمَّةٍ اَجَلٌ ۭ |
जैसे हर उम्मत के लिये एक रसूल है, इसी तरह हर उम्मत के लिये उसकी अजल (मोहलत की मुद्दत) भी मुक़र्रर कर दी गई है। अल्लाह की मशियत और हिकमत के मुताबिक़ उनके लिये मुक़र्रर करदा वक़्त बहरहाल पूरा होकर रहता है।
“जब उनका वक़्त आ जाता है तो फिर ना तो वह उसको एक घड़ी मौअख्खर कर सकते हैं और ना ही उसे पहले ला सकते हैं।” | اِذَا جَاۗءَ اَجَلُھُمْ فَلَا يَسْتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ 49 |
आयत 50
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कहिये क्या तुमने गौर किया कि अगर तुम्हारे ऊपर अल्लाह का अज़ाब (नागहाँ) आ धमके रात को या दिन के वक़्त, तो वह क्या शय है जिसके बल पर यह मुजरिम जल्दी मचा रहे हैं?” | قُلْ اَرَءَيْتُمْ اِنْ اَتٰىكُمْ عَذَابُهٗ بَيَاتًا اَوْ نَهَارًا مَّاذَا يَسْتَعْجِلُ مِنْهُ الْمُجْرِمُوْنَ 50 |
यानि यह जो तुम सीना तान कर कहते हो कि ले आओ अज़ाब! और फिर कहते हो कि आ क्यों नहीं जाता हम पर अज़ाब! और फिर इस्तहज़ाइया (मज़ाकिया) अंदाज़ में इस्तफ़सार (सवाल) करते हो कि यह अज़ाब का वादा कब पूरा होने जा रहा है? तो कभी तुम लोगों ने इस पहलु पर भी गौर किया है कि अगर वह अज़ाब किसी वक़्त अचानक तुम पर आ ही गया, रात की किसी घड़ी में या दिन के किसी लम्हे में, तो उससे हिफ़ाज़त के लिये तुमने क्या बंदोबस्त कर रखा है? आख़िर तुम लोग किस बल बूते पर अज़ाब को ललकार रहे हो? किस चीज़ के भरोसे पर तुम इस तरह जसारतें कर रहे हो?
आयत 51
“फिर क्या जब वह (अज़ाब) वाक़ेअ हो जाएगा तब तुम लोग इस पर ईमान लाओगे? (उस वक़्त कहा जाएगा) क्या अब (ईमान ला रहे हो)? और इसी की तो तुम जल्दी मचा रहे थे।” | اَثُمَّ اِذَا مَا وَقَعَ اٰمَنْتُمْ بِهٖ ۭ اٰۗلْــٰٔنَ وَقَدْ كُنْتُمْ بِهٖ تَسْتَعْجِلُوْنَ 51 |
अज़ाब जब वाक़िअतन ज़ाहिर हो जाएगा तो उस वक़्त ईमान लाने का कोई फ़ायदा नहीं होगा।
आयत 52
“फिर कहा जाएगा इन ज़ालिमों से कि अब दाइमी अज़ाब का मज़ा चखो। तुम्हें बदला नहीं दिया जा रहा है मगर तुम्हारे अपने ही करतूतों का।” | ثُمَّ قِيْلَ لِلَّذِيْنَ ظَلَمُوْا ذُوْقُوْا عَذَابَ الْخُلْدِ ۚ هَلْ تُجْزَوْنَ اِلَّا بِمَا كُنْتُمْ تَكْسِبُوْنَ 52 |
आयात 53 से 60 तक
وَيَسْتَنْۢبِـــُٔـوْنَكَ اَحَقٌّ ھُوَ ڼ قُلْ اِيْ وَرَبِّيْٓ اِنَّهٗ لَحَقٌّ ې وَمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ 53ۧ وَلَوْ اَنَّ لِكُلِّ نَفْسٍ ظَلَمَتْ مَا فِي الْاَرْضِ لَافْـــتَدَتْ بِهٖ ۭ وَاَسَرُّوا النَّدَامَةَ لَمَّا رَاَوُا الْعَذَابَ ۚ وَقُضِيَ بَيْنَھُمْ بِالْقِسْطِ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ 54 اَلَآ اِنَّ لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ اَلَآ اِنَّ وَعْدَ اللّٰهِ حَقٌّ وَّلٰكِنَّ اَكْثَرَھُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ 55 ھُوَ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ 56 يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَتْكُمْ مَّوْعِظَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَشِفَاۗءٌ لِّمَا فِي الصُّدُوْرِ ڏ وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّلْمُؤْمِنِيْنَ 57 قُلْ بِفَضْلِ اللّٰهِ وَبِرَحْمَتِهٖ فَبِذٰلِكَ فَلْيَفْرَحُوْا ۭ ھُوَ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ 58 قُلْ اَرَءَيْتُمْ مَّآ اَنْزَلَ اللّٰهُ لَكُمْ مِّنْ رِّزْقٍ فَجَــعَلْتُمْ مِّنْهُ حَرَامًا وَّحَلٰلًا ۭ قُلْ اٰۗللّٰهُ اَذِنَ لَكُمْ اَمْ عَلَي اللّٰهِ تَفْتَرُوْنَ 59 وَمَا ظَنُّ الَّذِيْنَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَذُوْ فَضْلٍ عَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَھُمْ لَا يَشْكُرُوْنَ 60ۧ
आयत 53
“और (ऐ नबी ﷺ!) ये लोग आपसे पूछते हैं कि क्या ये वाक़ई हक़ है?” | وَيَسْتَنْۢبِـــُٔـوْنَكَ اَحَقٌّ ھُوَ ڼ |
जैसे क़ुरान बार-बार अपने मुखाल्फ़ीन से मुतजस्साना अंदाज़ में सवाल (searching questions) करता है, इसी तरह मुशरिकीन भी हुज़ूर ﷺ से searching अंदाज़ में सवाल करते थे। यहाँ उनका यह सवाल नक़ल किया गया है कि जो कुछ आप कह रहे हैं क्या वाक़ई यह सच है? क्या आपको खुद भी इसका पूरा-पूरा यक़ीन है?
“आप कह दीजिये कि हाँ मेरे रब की क़सम! यक़ीनन वह हक़ है, और तुम (अल्लाह को) आजिज़ नहीं कर सकते।” | قُلْ اِيْ وَرَبِّيْٓ اِنَّهٗ لَحَقٌّ ې وَمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ 53ۧ |
इन अल्फ़ाज़ में बहुत ज़्यादा ताकीद और शिद्दत है।
आयत 54
“और अगर किसी गुनाहगार जान के पास ज़मीन की सारी दौलत भी हो तो वह उसे उस (अज़ाब) के बदले में दे डाले।” | وَلَوْ اَنَّ لِكُلِّ نَفْسٍ ظَلَمَتْ مَا فِي الْاَرْضِ لَافْـــتَدَتْ بِهٖ ۭ |
“और वह अपनी नदामत को छुपायेंगे जब वह देखेंगे अज़ाब को।” | وَاَسَرُّوا النَّدَامَةَ لَمَّا رَاَوُا الْعَذَابَ ۚ |
“और उनके दरमियान इन्साफ के साथ फ़ैसला कर दिया जाएगा और उन पर कोई ज़ुल्म नहीं होगा।” | وَقُضِيَ بَيْنَھُمْ بِالْقِسْطِ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ 54 |
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आयत 55
“आगाह हो जाओ! जो कुछ भी है आसमानों और ज़मीन में वह अल्लाह ही की मिलकियत है।” | اَلَآ اِنَّ لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ |
“आगाह हो जाओ! यक़ीनन अल्लाह का वादा हक़ है लेकिन इनकी अक्सरियत इल्म नहीं रखती।” | اَلَآ اِنَّ وَعْدَ اللّٰهِ حَقٌّ وَّلٰكِنَّ اَكْثَرَھُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ 55 |
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आयत 56
“वही है जो ज़िन्दा करता है और मारता है और उसी की तरफ़ तुम्हें लौट कर जाना है।” | ھُوَ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ 56 |
अगली दो आयात अज़मते क़ुरान के ज़िमन में एक बेश बहा ख़ज़ाना और इफ़ादियत (उपयोगिता) के ऐतबार से निहायत जामेअ आतात हैं।
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आयत 57
“ऐ लोगों! आ गई है तुम्हारे पास नसीहत तुम्हारे रब की तरफ़ से और तुम्हारे सीनों (के अमराज़) की शिफ़ा” | يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَتْكُمْ مَّوْعِظَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَشِفَاۗءٌ لِّمَا فِي الصُّدُوْرِ ڏ |
“और अहले ईमान के लिये हिदायत और (बहुत बड़ी) रहमत।” | وَهُدًى وَّرَحْمَةٌ لِّلْمُؤْمِنِيْنَ 57 |
इस आयत के अल्फ़ाज़ की तरतीब (मौएज़ा, शिफ़ा, हिदायत और रहमत) बहुत पुर हिकमत है। सूरह बक़रह की आयत 74 में इन्सान के दिल की सख्ती का ज़िक्र इस तरह किया गया है: {….ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ}। दरअसल दिल की सख्ती ही वह बुनियादी मर्ज़ है जिसके बाइस आला से आला कलाम भी किसी इन्सान पर बेअसर होकर रह जाता है: “मर्दे नादाँ पर कलामे नर्म व नाज़ुक बेअसर।” चुनाँचे क़ुबूले हिदायत के लिये सबसे पहले दिलों की सख्ती को दूर करना ज़रूरी है। जैसे बारिश से फ़ायदा उठाने के लिये ज़मीन को नर्म करना पड़ता है, सख्त ज़मीन बारिश से कुछ फ़ायदा नहीं उठा सकती, बारिश का पानी ऊपर ही ऊपर से बह जाता है, उसके अंदर जज़्ब नहीं होता। इसी तरह अगर इन्सान का माअदा (पेट) ही ख़राब हो तो कोई दूसरी दवाई अपना असर नहीं दिखाती। लिहाज़ा इन्सान की किसी भी बीमारी के इलाज के लिये पहले उसके माअदे को दुरुस्त करना ज़रूरी है।
दिलों की सख्ती को दूर करने के लिये मौअस्सर तरीन नुस्खा वाअज़ व नसीहत (मौअज़ा) है। जब वाअज़ और नसीहत से दिलों में गुदाज़ पैदा होगा तो फिर क़ुरान उन पर दवाई की मानिन्द असर करके तकब्बुर, हसद, बुग्ज़, हुब्बे दुनिया वगैरह तमाम अमराज़ को दूर कर देगा। हुब्बे दुनिया में दौलत, औलाद, बीवी, शोहरत वगैरह की तमाम मोहब्बतें शामिल हैं। मुलाहेज़ा हो सूरह आले इमरान की आयत 14:
زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ الشَّهَوٰتِ مِنَ النِّسَاۗءِ وَالْبَنِيْنَ وَالْقَنَاطِيْرِ الْمُقَنْطَرَةِ مِنَ الذَّھَبِ وَالْفِضَّةِ وَالْخَيْلِ الْمُسَوَّمَةِ وَالْاَنْعَامِ وَالْحَرْثِ ۭ
आयत ज़ेरे मुताअला में अल्फ़ाज़ की तरतीब पर गौर किया जाए तो यह हक़ीकत सामने आती है कि एक इन्सान के हक़ में क़ुरान सबसे पहले वाअज़ और नसीहत है, फिर तमाम अमराज़े क़ल्ब के लिये शिफ़ा और फिर हिदायत। क्योंकि जब दिल से बीमारी निकल जाएगी, दिल शिफ़ायाब होगा तब ही इंसान क़ुरान की हिदायत और रहनुमाई को अमलन इख्तियार करेगा, और जब इंसान ये सारे मराहिल तय करके क़ुरान की हिदायत के मुताबिक़ अपनी ज़िंदगी को ढाल लेगा तो फिर उसको ईनामे ख़ास से नवाज़ा जाएगा और वह है अल्लाह की ख़ुसूसी रहमत। क्योंकि यह क़ुरान रब्बे रहमान की रहमानियत का मज़हरे अतम है: { اَلرَّحْمٰنُ } { عَلَّمَ الْقُرْاٰنَ }।
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आयत 58
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कह दीजिये कि यह (क़ुरान) अल्लाह के फ़ज़ल और उसकी रहमत से (नाज़िल हुआ) है।” | قُلْ بِفَضْلِ اللّٰهِ وَبِرَحْمَتِهٖ |
यह क़ुरान अल्लाह के फ़ज़ल और रहमत का मज़हर और बनी नौए इंसान पर उसका बहुत बड़ा अहसान है। यह सबसे बड़ी दौलत है जो अल्लाह तआला ने नौए इंसानी को अता की है।
“तो चाहिये कि लोग इस पर खुशियाँ मनाएँ!” | فَبِذٰلِكَ فَلْيَفْرَحُوْا ۭ |
“फ़रह” के मायने हैं ख़ुशी से फूले ना समाना, यानि ख़ुशी के जज़्बे में हद से बढ़ जाना, इस लिहाज़ से यह जज़्बा शरीअत-ए-इस्लामी में क़ाबिले मज़म्मत है और यही वज़ह है कि यह लफ्ज़ क़ुरान में ज़्यादातर मनफ़ी मफ़हूम में आया है। जैसे सूरह अल क़सस (आयत: 76) में क़ारून के ज़िक्र में ये अल्फ़ाज़ आए हैं: { اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْفَرِحِيْنَ}। लेकिन यहाँ पर तो ऐलाने आम हो रहा है कि अगर “फ़रह” करना ही है तो दौलते क़ुरान पर करो! अगर तुम्हें इतराना ही है तो नेअमते क़ुरान पर इतराओ! और अगर जश्न ही मनाना है तो जश्ने क़ुरान मनाओ!
“वह कहीं बेहतर है उन चीज़ों से जो वह जमा करते हैं।” | ھُوَ خَيْرٌ مِّمَّا يَجْمَعُوْنَ 58 |
ये माल व दौलते दुनिया, ये सामाने अराईश व ज़ेबाईश, ये आश्याए आसाईश, ये रंगा-रंग नेअमतें, गर्ज़ इस दुनिया में इंसान अपने लिये जो कुछ भी इकठ्ठा करता है, उस सब कुछ से कहीं बेहतर क़ुरान की दौलत है।
इन दो आयात में क़ुरान की अहमियत व अज़मत के बयान में जो ताकीद और जलाल है उसकी क़दरदानी का तक़ाज़ा है कि तमाम मुसलमान इस तस्सवुर को हर्ज़े जान बना लें, इन आयात को ज़बानी याद करें, अल्फ़ाज़ की तरतीब को मद्देनज़र रखते हुए इनसे इस्तफ़ादा की कोशिश करें और क़ुरान की तालीम व तफ़हीम के ज़रिये से दिल को नर्म और गुदाज़ करने का सामान करें, ताकि इसके असरात दिल के अन्दर जज़्ब होकर अपना रंग जमाएँ (चूं बजां दर रफ्त जां दीगर शूद)। और इस तरह क़ुरान के ज़रिये अपनी दुनिया-ए-दिल व जान में इन्क़लाब बरपा करें, ताकि यह इनके लिये शिफ़ा, हिदायत और रहमत बन जाए। आमीन!
आयत 59
“इनसे कहिये कि तुमने कभी गौर किया कि अल्लाह ने तुम्हारे लिये जो रिज़्क़ उतारा है तुमने उसमे से (अज़ ख़ुद) किसी को हराम क़रार दे दिया और किसी को हलाल!” | قُلْ اَرَءَيْتُمْ مَّآ اَنْزَلَ اللّٰهُ لَكُمْ مِّنْ رِّزْقٍ فَجَــعَلْتُمْ مِّنْهُ حَرَامًا وَّحَلٰلًا ۭ |
“इनसे पूछिये क्या अल्लाह ने तुम्हें इसका हुक्म दिया है या तुम अल्लाह पर इफ़तरा कर रहे हो?” | قُلْ اٰۗللّٰهُ اَذِنَ لَكُمْ اَمْ عَلَي اللّٰهِ تَفْتَرُوْنَ 59 |
सूरतुल अनआम में उन चीज़ों की तफ़सील बयान हुई है जिन्हें वह लोग अज़ ख़ुद हराम या हलाल क़रार दे लेते थे। सूरतुल मायदा में भी उनकी ख़ुद साख्ता शरीअत का ज़िक्र है।
आयत 60
“और जो लोग अल्लाह से झूठी बातें मंसूब करते हैं, क़यामत के दिन के बारे में उनका क्या गुमान है?” | وَمَا ظَنُّ الَّذِيْنَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ |
वह क्या ख्याल रखते हैं कि उस दिन इस जुर्म के बदले में उनके साथ कैसा सुलूक होगा?
“यक़ीनन अल्लाह तो इन्सानों के हक़ में बहुत फज़ल वाला है, लेकिन उनकी अक्सरियत शुक्र गुज़ार नही है।” | اِنَّ اللّٰهَ لَذُوْ فَضْلٍ عَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَھُمْ لَا يَشْكُرُوْنَ 60ۧ |
आयात 61 से 70 तक
وَمَا تَكُوْنُ فِيْ شَاْنٍ وَّمَا تَتْلُوْا مِنْهُ مِنْ قُرْاٰنٍ وَّلَا تَعْمَلُوْنَ مِنْ عَمَلٍ اِلَّا كُنَّا عَلَيْكُمْ شُهُوْدًا اِذْ تُفِيْضُوْنَ فِيْهِ ۭ وَمَا يَعْزُبُ عَنْ رَّبِّكَ مِنْ مِّثْقَالِ ذَرَّةٍ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ وَلَآ اَصْغَرَ مِنْ ذٰلِكَ وَلَآ اَكْبَرَ اِلَّا فِيْ كِتٰبٍ مُّبِيْنٍ 61 اَلَآ اِنَّ اَوْلِيَاۗءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ 62ښ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَكَانُوْا يَتَّقُوْنَ 63ۭ لَھُمُ الْبُشْرٰي فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَفِي الْاٰخِرَةِ ۭ لَا تَبْدِيْلَ لِكَلِمٰتِ اللّٰهِ ۭ ذٰلِكَ ھُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ 64ۭ وَلَا يَحْزُنْكَ قَوْلُھُمْ ۘ اِنَّ الْعِزَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا ۭ ھُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 65 اَلَآ اِنَّ لِلّٰهِ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ ۭ وَمَا يَتَّبِعُ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ شُرَكَاۗءَ ۭ اِنْ يَّتَّبِعُوْنَ اِلَّا الظَّنَّ وَاِنْ ھُمْ اِلَّا يَخْرُصُوْنَ 66 ھُوَ الَّذِيْ جَعَلَ لَكُمُ الَّيْلَ لِتَسْكُنُوْا فِيْهِ وَالنَّهَارَ مُبْصِرًا ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّسْمَعُوْنَ 67 قَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا سُبْحٰنَهٗ ۭ ھُوَ الْغَنِيُّ ۭ لَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ اِنْ عِنْدَكُمْ مِّنْ سُلْطٰنٍۢ بِهٰذَا ۭ اَتَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 68 قُلْ اِنَّ الَّذِيْنَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ لَا يُفْلِحُوْنَ 69 مَتَاعٌ فِي الدُّنْيَا ثُمَّ اِلَيْنَا مَرْجِعُھُمْ ثُمَّ نُذِيْقُھُمُ الْعَذَابَ الشَّدِيْدَ بِمَا كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ 70ۧ
आयत 61
“और (ऐ नबी ﷺ!) नहीं होते आप किसी भी कैफ़ियत में और नहीं पढ़ रहे होते आप क़ुरान में से कुछ और (ऐ मुसलमानों!) तुम नहीं कर रहे होते कोई भी (अच्छा) अमल” | وَمَا تَكُوْنُ فِيْ شَاْنٍ وَّمَا تَتْلُوْا مِنْهُ مِنْ قُرْاٰنٍ وَّلَا تَعْمَلُوْنَ مِنْ عَمَلٍ |
“मगर यह कि हम तुम्हारे पास मौज़ूद होते हैं जब तुम उसमें मसरूफ़ होते हो।” | اِلَّا كُنَّا عَلَيْكُمْ شُهُوْدًا اِذْ تُفِيْضُوْنَ فِيْهِ ۭ |
इस अंदाज़े तखातब (speech) में एक ख़ास कैफ़ है। पहले वाहिद के सीगे (एकवचन) में हुज़ूर अकरम ﷺ से ख़िताब है और आप ﷺ को ख़ुशख़बरी सुनाई जा रही है कि आप जिस कैफ़ियत में भी हों, क़ुरान पढ़ रहे हों या पढ़ कर सुना रहे हों, हम ब-ज़ाते ख़ुद आपको देख रहे होते हैं, आपकी आवाज़ सुन रहे होते हैं। फिर इसी खुशख़बरी को जमा के सीगे (बहुवचन) में तमाम मुसलमानों के लिये आम कर दिया गया है कि तुम लोग जो भी भलाई कमाते हो, क़ुर्बानियाँ देते हो, ईसार (त्याग) करते हो, हम खुद उसे देख रहे होते हैं। हम तुम्हारे एक-एक अमल के गवाह और क़दरदान हैं। हमारे यहाँ अपने बन्दों के बारे में तगाफ़िल या नाक़दरी नहीं है।
“और नहीं गायब होती आपके रब से ज़मीन में एक ज़र्रा के बराबर भी कोई शय और ना आसमानों में, और ना ही इससे कमतर कोई शय और ना बड़ी, मगर यह कि वह एक रौशन किताब में दर्ज है।” | وَمَا يَعْزُبُ عَنْ رَّبِّكَ مِنْ مِّثْقَالِ ذَرَّةٍ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ وَلَآ اَصْغَرَ مِنْ ذٰلِكَ وَلَآ اَكْبَرَ اِلَّا فِيْ كِتٰبٍ مُّبِيْنٍ 61 |
कोई ज़र्रा बराबर चीज़ या उससे छोटी या बड़ी आसमानों और ज़मीन में ऐसी नहीं है जो कभी रब्बे ज़ुल जलाल की नज़रों से पोशीदा हो गई हो और वह एक रौशन किताब में दर्ज ना हो। यह रौशन किताब अल्लाह तआला का इल्मे क़दीम है।
आयत 62
“आगाह हो जाओ! अल्लाह के दोस्तों पर ना कोई खौफ़ है और ना वह ग़मगीन होंगे।” | اَلَآ اِنَّ اَوْلِيَاۗءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ 62ښ |
ये औलिया अल्लाह कौन लोग हैं? ये कोई अलैहदा नौअ (species) नहीं हैं, और ना ही इसके लिये कोई ख़ास लिबास ज़ेब तन करने या कोई मख्सूस हुलिया बनाने की ज़रूरत है, बल्कि औलिया अल्लाह वह लोग हैं जो ईमाने हक़ीकी से बहरामंद हों, उनके दिलों में यक़ीन पैदा हो चुका हो और वह अल्लाह के फ़ज़लो करम से दर्जा-ए-“अहसान” पर फ़ाएज़ हो चुके हों, जिसका ज़िक्र “हदीसे जिब्राइल” में हुआ है:((اَنْ تَعْبُدَ اللہَ کَاَنَّکَ تَرَاہُ، فَاِنْ لَمْ تَکُنْ تَرَاہُ فَاِنَّہٗ یَرَاکَ))(1) अल्लाह तआला अपने इन ख़ास बन्दों की जिस तरह पज़ीराई फ़रमाता है इसका अंदाज़ सूरतुल बक़रह, आयत नम्बर 257 में इस तरह बयान हुआ है: { اَللّٰهُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۙيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ ڛ } “अल्लाह वली है अहले ईमान का, उन्हें निकालता है अंधेरों से रोशनी की जानिब।” आयत ज़ेरे नज़र में भी उन्हें खुशख़बरी सुनाई गई है कि ऐसे लोग खौफ़ और हुज़्न से बिल्कुल बेनियाज़ होंगे। बहरहाल इस सिलसिले में एक बहुत अहम नुक्ता लायक़-ए-तव्वजो है कि जो अल्लाह का दोस्त होगा उसके अंदर अल्लाह की गैरत व हमियत भी होगी। वह अल्लाह के दीन को पामाल होते देख कर तड़प उठेगा। वह अल्लाह के शाएर की बेहुरमती को कभी बर्दाश्त नहीं कर सकेगा। वह अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने के लिये अपना तन-मन-धन क़ुर्बान कर देगा। गोया दुनियवी ज़िंदगी में ये मैयार और तर्ज़े अमल औलिया अल्लाह की पहचान है। अगली आयत में मज़ीद वज़ाहत फरमा दी गई कि ये औलिया अल्लाह कौन लोग हैं:
आयत 63
“वह लोग जो साहिबे ईमान हों और तक़वा की रविश इख्तियार करें।” | الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَكَانُوْا يَتَّقُوْنَ 63ۭ |
और यह तक़वा किस तरह अहले ईमान को दर्जा-ब-दर्जा बुलंद करता चला जाता है इसकी तफ़सील हम सूरतुल मायदा की इस आयत के ज़िमन में पढ़ चुके हैं:{ اِذَا مَا اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاٰمَنُوْا ثُمَّ اتَّقَوْا وَّاَحْسَنُوْا ۭ وَاللّٰهُ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ} (आयत 93)।
आयत 64
“उनके लिये दुनिया की ज़िन्दगी में भी बशारतें हैं और आख़िरत में भी।” | لَھُمُ الْبُشْرٰي فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَفِي الْاٰخِرَةِ ۭ |
इन बशारतों के बारे में हम सूरतुल तौबा की आयत नम्बर 52 में पढ़ चुके हैं: { قُلْ هَلْ تَرَبَّصُوْنَ بِنَآ اِلَّآ اِحْدَى الْحُسْنَيَيْنِ ۭ } यानि हमारे लिये तो दो अच्छाईयों के सिवा किसी तीसरी चीज़ का तस्सवुर ही नहीं है, हमारे लिये तो बशारत ही बशारत है। अगर बिलफर्ज़ दुनिया में कोई तकलीफ़ आ भी जाए तो भी कोई गम नहीं, क्योंकि हमारे ऊपर जो भी तकलीफ़ आती है वह हमारे रब ही की तरफ़ से आती है। जैसे फ़रमाया गया: { قُلْ لَّنْ يُّصِيْبَنَآ اِلَّا مَا كَتَبَ اللّٰهُ لَنَا ۚ هُوَ مَوْلٰىنَا ۚ } (सूरह तौबा:51) चुनाँचे इसमें घबराने की क्या बात है? वह हमारा दोस्त है, और दोस्त की तरफ़ से अगर कोई तकलीफ़ भी आ जाए तो सिर आँखों पर। हमें मालूम है कि इस तकलीफ़ में भी हमारे लिये खैर और भलाई ही होगी।
“अल्लाह की बातों में कोई तब्दीली नहीं हो सकती। यही तो है बहुत बड़ी कामयाबी।” | لَا تَبْدِيْلَ لِكَلِمٰتِ اللّٰهِ ۭ ذٰلِكَ ھُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيْمُ 64ۭ |
आयत 65
“और (ऐ नबी ﷺ!) इनकी बातें आपको रंजीदा ना करें।” | وَلَا يَحْزُنْكَ قَوْلُھُمْ ۘ |
“इज्ज़त कुल की कुल अल्लाह के इख्तियार में है, वह सब कुछ सुनने वाला और जानने वाला है।” | اِنَّ الْعِزَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا ۭ ھُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 65 |
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आयत 66
“आगाह हो जाओ! अल्लाह ही के (ममलूक) हैं जो कोई भी आसमानों में हैं और ज़मीन में हैं।” | اَلَآ اِنَّ لِلّٰهِ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ ۭ |
“और ये लोग जो अल्लाह के अलावा (उसके) शरीकों को पुकार रहे हैं वह किसी चीज़ का इत्तेबाअ नहीं कर रहे।” | وَمَا يَتَّبِعُ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ شُرَكَاۗءَ ۭ |
“वह तो ज़न्न व तखमीन ही के पीछे पड़े हैं और सिर्फ़ अटकल से काम लेते हैं।” | اِنْ يَّتَّبِعُوْنَ اِلَّا الظَّنَّ وَاِنْ ھُمْ اِلَّا يَخْرُصُوْنَ 66 |
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आयत 67
“वही है जिसने तुम्हारे लिये रात बनाई ताकि तुम उसमें सुकून हासिल करो और दिन को बना दिया रौशन।” | ھُوَ الَّذِيْ جَعَلَ لَكُمُ الَّيْلَ لِتَسْكُنُوْا فِيْهِ وَالنَّهَارَ مُبْصِرًا ۭ |
रात को पुरसुकून बनाया ताकि रात के वक़्त आराम करो, और दिन को रौशन बनाया ताकि उसमें अपनी मआशी ज़िम्मेदारियाँ निभाओ और दूसरे काम-काज निपटाओ।
“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सुनते हैं।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّسْمَعُوْنَ 67 |
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आयत 68
“इन्होंने कहा कि अल्लाह ने औलाद इख्तियार की है, (वह ऐसी बातों से) पाक है। वह बेनियाज़ है।” | قَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا سُبْحٰنَهٗ ۭ ھُوَ الْغَنِيُّ ۭ |
अल्लाह की शान इससे बहुत बुलंद है कि उसे औलाद की हाजत हो। यहाँ “गनी” का लफ्ज़ इस लिहाज़ से बहुत अहम है। औलाद की तमन्ना आदमी इसलिये करता है कि उसका सहारा बने और मरने के बाद उसके ज़रिये दुनिया में उसका नाम बाक़ी रह जाए। अल्लाह तआला ऐसी हाजतों से पाक है। वह हमेशा बाक़ी रहने वाला है, वह हर हाजत से गनी और बेनियाज़ है, उसे औलाद समेत किसी चीज़ की ज़रूरत और हाजत नहीं।
“उसी का है जो कुछ है आसमानों में और जो कुछ है ज़मीन में।” | لَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ |
“नहीं है तुम्हारे पास कोई सनद (दलील) इसके लिये।” | اِنْ عِنْدَكُمْ مِّنْ سُلْطٰنٍۢ بِهٰذَا ۭ |
“क्या तुम अल्लाह की तरफ़ मंसूब कर रहे हो वह चीज़ जिसके मुतल्लिक़ तुम्हें इल्म ही नहीं!” | اَتَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 68 |
तुम्हारे पास कोई इल्मी सनद या अक़्ली दलील इस बात के हक़ में नहीं है जो तुम अल्लाह की तरफ़ मंसूब कर रहे हो।
आयत 69
“(ऐ नबी ﷺ!) आप कह दीजिये कि जो लोग अल्लाह की तरफ़ झूठ बातें मंसूब करते हैं वह कभी फ़लाह नहीं पायेंगे।” | قُلْ اِنَّ الَّذِيْنَ يَفْتَرُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ لَا يُفْلِحُوْنَ 69 |
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आयत 70
“दुनिया में (इनके लिये) बरतने की कुछ चीज़ें हैं, फिर हमारी ही तरफ़ इनका लौटना है” | مَتَاعٌ فِي الدُّنْيَا ثُمَّ اِلَيْنَا مَرْجِعُھُمْ |
दुनिया की चंद रोज़ा ज़िंदगी का फायदा उठाने के लिये इन्हें कुछ साज़ो-सामान दे दिया गया है, फिर हमारी ही तरफ़ इनकी वापसी होगी।
“फिर हम इन्हें मज़ा चखाएंगे बहुत सख्त अज़ाब का, उस कुफ़्र की वजह से जो वह करते रहे हैं।” | ثُمَّ نُذِيْقُھُمُ الْعَذَابَ الشَّدِيْدَ بِمَا كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ 70ۧ |
आयात 71 से 74 तक
وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ نُوْحٍ ۘ اِذْ قَالَ لِقَوْمِهٖ يٰقَوْمِ اِنْ كَانَ كَبُرَ عَلَيْكُمْ مَّقَامِيْ وَتَذْكِيْرِيْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَعَلَي اللّٰهِ تَوَكَّلْتُ فَاَجْمِعُوْٓا اَمْرَكُمْ وَشُرَكَاۗءَكُمْ ثُمَّ لَا يَكُنْ اَمْرُكُمْ عَلَيْكُمْ غُمَّةً ثُمَّ اقْضُوْٓا اِلَيَّ وَلَا تُنْظِرُوْنِ 71 فَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ فَمَا سَاَلْتُكُمْ مِّنْ اَجْرٍ ۭ اِنْ اَجْرِيَ اِلَّا عَلَي اللّٰهِ ۙ وَاُمِرْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْمُسْلِمِيْنَ 72 فَكَذَّبُوْهُ فَنَجَّيْنٰهُ وَمَنْ مَّعَهٗ فِي الْفُلْكِ وَجَعَلْنٰھُمْ خَلٰۗىِٕفَ وَاَغْرَقْنَا الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۚ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُنْذَرِيْنَ 73 ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِهٖ رُسُلًا اِلٰى قَوْمِهِمْ فَجَاۗءُوْھُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا بِمَا كَذَّبُوْا بِهٖ مِنْ قَبْلُ ۭ كَذٰلِكَ نَطْبَعُ عَلٰي قُلُوْبِ الْمُعْتَدِيْنَ 74
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अब अम्बिया रुसुल के बारे में दो रुकूअ आ रहे हैं, जिनका आगाज़े सूरत में ज़िक्र हुआ था कि इनमें पहले हज़रत नूह अलै. का ज़िक्र बहुत इख्तेसार (संक्षेप) के साथ (आधे रुकूअ में) है बाद में हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र क़दरे तफ़सील से (डेढ़ रुकूअ में) आया है। दरमियान में सिर्फ़ हवाला दिया गया है कि हमने मुख्तलिफ़ क़ौमों की तरफ़ रसूलों को भेजा, इस सिलसिले में किसी रसूल का नाम नहीं लिया गया।
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आयत 71
“और इनको सुनाइये नूह अलै. की ख़बर।” | وَاتْلُ عَلَيْهِمْ نَبَاَ نُوْحٍ ۘ |
“जब उसने कहा अपनी क़ौम से कि ऐ मेरी क़ौम के लोगों! अगर तुम पर बड़ा भारी गुज़र रहा है मेरा खड़ा होना और अल्लाह की आयात के साथ नसीहत करना” | اِذْ قَالَ لِقَوْمِهٖ يٰقَوْمِ اِنْ كَانَ كَبُرَ عَلَيْكُمْ مَّقَامِيْ وَتَذْكِيْرِيْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ |
मेरा दावते हक़ के साथ खड़ा होना और तब्लीग व तज़कीर का मेरा ये अमल अगर तुम पर बहुत शाक़ गुज़र रहा है कि तुम मेरा मज़ाक़ उड़ाते हो और मुझ पर आवाज़े कसते हो तो मुझे तुम्हारी मुखालफ़त की कोई परवाह नहीं।
“तो मैंने बस अल्लाह पर तवक्कुल कर लिया है, पस तुम जमा करलो अपने सारे ज़राए और अपने शरीकों को (भी बुला लो)” | فَعَلَي اللّٰهِ تَوَكَّلْتُ فَاَجْمِعُوْٓا اَمْرَكُمْ وَشُرَكَاۗءَكُمْ |
“फिर तुम पर तुम्हारा मामला किसी इश्तेबाह (error) में ना रह जाए, फिर जो फ़ैसला मेरे बारे में करना है कर गुज़रो और मुझे कोई मोहलत ना दो।” | ثُمَّ لَا يَكُنْ اَمْرُكُمْ عَلَيْكُمْ غُمَّةً ثُمَّ اقْضُوْٓا اِلَيَّ وَلَا تُنْظِرُوْنِ 71 |
इस तर्ज़े तखातब से अंदाज़ा हो रहा है कि हज़रत नूह अलै. का दिल अपनी क़ौम के रवैये की वजह से किस क़दर दुखा हुआ था, और ऐसा होना बिल्कुल फ़ितरी अमल था। अल्लाह के उस बन्दे ने साढ़े नौ सौ साल तक अपनी क़ौम को समझाने और नसीहत करने में दिन-रात एक कर दिया था, अपना आराम व सुकून तक क़ुर्बान कर दिया था, मगर वह क़ौम थी कि टस से मस नहीं हुई थी। बहरहाल इन अल्फ़ाज़ में अल्लाह के रसूल की तरफ़ से एक आखरी बात चैलेन्ज के अंदाज़ में कही जा रही है कि तुम लोग अपनी सारी क़ुव्वतें मुजतमा कर लो, तमाम वसाइल इकट्ठे कर लो और फिर मेरे साथ जो कर सकते हो कर गुज़रो!
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आयत 72
“फिर अगर तुम (इससे) ऐराज़ करो” | فَاِنْ تَوَلَّيْتُمْ |
“तो मैंने तुम लोगों से (कभी) कोई अज्र तो नहीं माँगा।” | فَمَا سَاَلْتُكُمْ مِّنْ اَجْرٍ ۭ |
यानि फिर अगर तुम इस चैलेंज का सामना ना कर सको और मेरे ख़िलाफ़ आखरी अक़दाम करने का हौसला भी ना कर पाओ तो फिर ज़रा ठंडे दिमाग से सोचो तो सही कि मैं पिछले साढ़े नौ सौ साल से तुम्हें राहे रास्त पर लाने की जो जद्दो-जहद कर रहा हूँ उसके एवज़ मैंने तुम लोगों से कोई मुआवज़ा, कोई उजरत, कोई तारीफ़ व तौसीफ़, कोई शाबाश, अलगर्ज़ कुछ भी तलब नहीं किया। तो क्या मेरे इस तर्ज़े अमल से तुम लोगों को इतनी सी बात भी समझ में नहीं आती कि इसमें मेरा कोई ज़ाती मफ़ाद नहीं है? मालूम होता है कि वह लोग हज़रत नूह अलै. का चैलेंज क़ुबूल करके उनके ख़िलाफ़ अक़दाम करने से गुरेज़ाँ (अनिच्छुक) थे। उन्हें डर था कि अगर हमने इन्हें क़त्ल कर दिया तो हम पर कोई बड़ी मुसीबत नाज़िल हो जाएगी।
“मेरा अज्र तो अल्लाह ही के ज़िम्मे है और मुझे हुक्म हुआ है कि मैं उसके फ़रमाबरदार बन्दों में से रहूँ।” | اِنْ اَجْرِيَ اِلَّا عَلَي اللّٰهِ ۙ وَاُمِرْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْمُسْلِمِيْنَ 72 |
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आयत 73
“तो इन्होंने (फिर भी) झुठला दिया उसको, तो हमने निजात दे दी उसको और जो भी उसके साथ थे कश्ती में और उनको बना दिया जानशीन” | فَكَذَّبُوْهُ فَنَجَّيْنٰهُ وَمَنْ مَّعَهٗ فِي الْفُلْكِ وَجَعَلْنٰھُمْ خَلٰۗىِٕفَ |
उन्ही लोगों को हमने ज़मीन में ख़िलाफ़त अता की।
“और गर्क़ कर दिया हमने उन लोगों को जिन्होंने हमारी आयात की तकज़ीब की थी, तो देखो कैसा अंजाम हुआ उन लोगों का जिन्हें ख़बरदार कर दिया गया था!” | وَاَغْرَقْنَا الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۚ فَانْظُرْ كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الْمُنْذَرِيْنَ 73 |
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आयत 74
“फिर हमने भेजा उनके बाद बहुत से रसूलों को उनकी (अपनी-अपनी) क़ौमों की तरफ़, तो वह (सबके सब) आए उनके पास रौशन दलीलें लेकर” | ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِهٖ رُسُلًا اِلٰى قَوْمِهِمْ فَجَاۗءُوْھُمْ بِالْبَيِّنٰتِ |
“लेकिन वह (सारी रौशन दलीलें देखने के बावजूद भी) उस चीज़ पर ईमान लाने वाले ना बने जिसका पहले इन्कार कर चुके थे। इसी तरह हम मुहर कर दिया करते हैं हद से तजावुज़ करने वालों के दिलों पर।” | فَمَا كَانُوْا لِيُؤْمِنُوْا بِمَا كَذَّبُوْا بِهٖ مِنْ قَبْلُ ۭ كَذٰلِكَ نَطْبَعُ عَلٰي قُلُوْبِ الْمُعْتَدِيْنَ 74 |
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आयात 75 से 82 तक
ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِهِمْ مُّوْسٰى وَھٰرُوْنَ اِلٰى فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهٖ بِاٰيٰتِنَا فَاسْتَكْبَرُوْا وَكَانُوْا قَوْمًا مُّجْرِمِيْنَ 75 فَلَمَّا جَاۗءَھُمُ الْحَقُّ مِنْ عِنْدِنَا قَالُوْٓا اِنَّ هٰذَا لَسِحْرٌ مُّبِيْنٌ 76 قَالَ مُوْسٰٓى اَتَقُوْلُوْنَ لِلْحَقِّ لَمَّا جَاۗءَكُمْ ۭ اَسِحْرٌ هٰذَا ۭ وَلَا يُفْلِحُ السّٰحِرُوْنَ 77 قَالُوْٓا اَجِئْتَنَا لِتَلْفِتَنَا عَمَّا وَجَدْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۗءَنَا وَتَكُوْنَ لَكُمَا الْكِبْرِيَاۗءُ فِي الْاَرْضِ ۭ وَمَا نَحْنُ لَكُمَا بِمُؤْمِنِيْنَ 78 وَقَالَ فِرْعَوْنُ ائْتُوْنِيْ بِكُلِّ سٰحِرٍ عَلِيْمٍ 79 فَلَمَّا جَاۗءَ السَّحَرَةُ قَالَ لَھُمْ مُّوْسٰٓى اَلْقُوْا مَآ اَنْتُمْ مُّلْقُوْنَ 80 .فَلَمَّآ اَلْقَوْا قَالَ مُوْسٰى مَا جِئْتُمْ بِهِ ۙ السِّحْرُ ۭ اِنَّ اللّٰهَ سَيُبْطِلُهٗ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُصْلِحُ عَمَلَ الْمُفْسِدِيْنَ 81 وَيُحِقُّ اللّٰهُ الْحَقَّ بِكَلِمٰتِهٖ وَلَوْ كَرِهَ الْمُجْرِمُوْنَ 82ۧ
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आम तौर पर क़ुरान हकीम में अम्बिया अर्रुसुल के ज़िमन में छ: रसूलों का तज़किरा बार-बार आया है, लेकिन यहाँ इख्तसार (संक्षेप) के साथ हज़रत नूह अलै. का सिर्फ़ तीन आयात में ज़िक्र किया गया है। फिर इस एक आयत (74) में बाक़ी तमाम रसूलों का नाम लिए बगैर सिर्फ़ हवाला दे दिया गया है और इसके बाद हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र क़दरे तफ़सील से हुआ है।
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आयत 75
“फिर भेजा हमने इनके बाद मूसा और हारून (अलै.) को फ़िरऔन और उसके सरदारों की जानिब अपनी निशानियों के साथ” | ثُمَّ بَعَثْنَا مِنْۢ بَعْدِهِمْ مُّوْسٰى وَھٰرُوْنَ اِلٰى فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهٖ بِاٰيٰتِنَا |
“तो उन्होंने तकब्बुर किया और वह थे मुजरिम लोग।“ | فَاسْتَكْبَرُوْا وَكَانُوْا قَوْمًا مُّجْرِمِيْنَ 75 |
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आयत 76
“तो जब उनके पास हक़ आया हमारी तरफ़ से तो उन्होंने कहा यह तो खुला जादू है।” | فَلَمَّا جَاۗءَھُمُ الْحَقُّ مِنْ عِنْدِنَا قَالُوْٓا اِنَّ هٰذَا لَسِحْرٌ مُّبِيْنٌ 76 |
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आयत 77
“मूसा ने कहा कि क्या तुम लोग हक़ के बारे में यह कह रहे हो जबकि वह तुम्हारे पास आ पहुँचा है।” | قَالَ مُوْسٰٓى اَتَقُوْلُوْنَ لِلْحَقِّ لَمَّا جَاۗءَكُمْ ۭ |
“क्या यह जादू है? और जादूगर तो कभी फ़लाह नहीं पाया करते।” | اَسِحْرٌ هٰذَا ۭ وَلَا يُفْلِحُ السّٰحِرُوْنَ 77 |
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आयत 78
“उन्होंने कहा कि क्या तुम हमारे पास इसलिये आए हो कि हमें फेर दो उन तरीक़ों से जिन पर पाया हमने अपने आबा व अजदाद को” | قَالُوْٓا اَجِئْتَنَا لِتَلْفِتَنَا عَمَّا وَجَدْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۗءَنَا |
“और तुम दोनों की बड़ाई क़ायम हो जाए ज़मीन में? और हम हरगिज़ तुम दोनों की बात मानने वाले नहीं हैं।” | وَتَكُوْنَ لَكُمَا الْكِبْرِيَاۗءُ فِي الْاَرْضِ ۭ وَمَا نَحْنُ لَكُمَا بِمُؤْمِنِيْنَ 78 |
यानि तुम दोनों (हज़रत मूसा और हारून अलै.) यहाँ अपनी बादशाही क़ायम करना चाहते हो। इस अंदेशे की वजह यह थी कि हज़रत मूसा अलै. अहले मिस्र को बंदगी-ए-रब की जो दावत दे रहे थे उससे वह मुशरिकाना निज़ाम ख़तरे में था जिस पर फिरऔन की बादशाही, उसके सरदारों की सरदारी और मज़हबी पेशवाओं की पेशवाई क़ायम थी।
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आयत 79
“और फ़िरऔन ने कहा कि ले आओ मेरे पास तमाम माहिर जादूगरों को।” | وَقَالَ فِرْعَوْنُ ائْتُوْنِيْ بِكُلِّ سٰحِرٍ عَلِيْمٍ 79 |
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आयत 80
“और जब वह जादूगर आ गए तो मूसा ने उनसे फ़रमाया कि डालो जो तुम डालने वाले हो।” | فَلَمَّا جَاۗءَ السَّحَرَةُ قَالَ لَھُمْ مُّوْسٰٓى اَلْقُوْا مَآ اَنْتُمْ مُّلْقُوْنَ 80 |
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आयत 81
“और जब उन्होंने डाल दिया तो मूसा ने फ़रमाया कि तुम लोग जो कुछ लाए हो ये जादू है।” | .فَلَمَّآ اَلْقَوْا قَالَ مُوْسٰى مَا جِئْتُمْ بِهِ ۙ السِّحْرُ ۭ |
यानि जादू वह ना था जो मैंने दिखाया था, बल्कि जादू यह है जो तुम दिखा रहे हो।
“यक़ीनन अल्लाह इसे अभी बातिल कर देगा। बेशक अल्लाह मुफ़सिदों के अमल को कामयाब नहीं करता।” | اِنَّ اللّٰهَ سَيُبْطِلُهٗ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُصْلِحُ عَمَلَ الْمُفْسِدِيْنَ 81 |
अल्लाह तआला अभी तुम्हारी शअब्दाबाज़ी (magic trick) का बातिल होना साबित कर देगा. इसे नेस्तोनाबूद कर देगा, مَنْثُوْرًا ھَبَاءً कर देगा। अल्लाह तआला फ़साद बरपा करने वालों के अमल को नतीजा खेज़ नहीं होने देता।
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आयत 82
“और अल्लाह तो हक़ को हक़ साबित करता है अपने कलिमात से, ख्वाह यह मुजरिमों को कितना ही नागवार हो।” | وَيُحِقُّ اللّٰهُ الْحَقَّ بِكَلِمٰتِهٖ وَلَوْ كَرِهَ الْمُجْرِمُوْنَ 82ۧ |
आयात 83 से 93 तक
فَمَآ اٰمَنَ لِمُوْسٰٓى اِلَّا ذُرِّيَّةٌ مِّنْ قَوْمِهٖ عَلٰي خَوْفٍ مِّنْ فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهِمْ اَنْ يَّفْتِنَھُمْ ۭ وَاِنَّ فِرْعَوْنَ لَعَالٍ فِي الْاَرْضِ ۚ وَاِنَّهٗ لَمِنَ الْمُسْرِفِيْنَ 83 وَقَالَ مُوْسٰى يٰقَوْمِ اِنْ كُنْتُمْ اٰمَنْتُمْ بِاللّٰهِ فَعَلَيْهِ تَوَكَّلُوْٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّسْلِمِيْنَ 84 فَقَالُوْا عَلَي اللّٰهِ تَوَكَّلْنَا ۚ رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِّلْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ 85ۙ وَنَجِّنَا بِرَحْمَتِكَ مِنَ الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ 86 وَاَوْحَيْنَآ اِلٰى مُوْسٰى وَاَخِيْهِ اَنْ تَبَوَّاٰ لِقَوْمِكُمَا بِمِصْرَ بُيُوْتًا وَّاجْعَلُوْا بُيُوْتَكُمْ قِبْلَةً وَّاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ ۭ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ 87 وَقَالَ مُوْسٰى رَبَّنَآ اِنَّكَ اٰتَيْتَ فِرْعَوْنَ وَمَلَاَهٗ زِينَةً وَّاَمْوَالًا فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۙرَبَّنَا لِيُضِلُّوْا عَنْ سَبِيْــلِكَ ۚ رَبَّنَا اطْمِسْ عَلٰٓي اَمْوَالِهِمْ وَاشْدُدْ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ فَلَا يُؤْمِنُوْا حَتّٰى يَرَوُا الْعَذَابَ الْاَلِيْمَ 88 قَالَ قَدْ اُجِيْبَتْ دَّعْوَتُكُمَا فَاسْتَــقِيْمَا وَلَا تَتَّبِعٰۗنِّ سَبِيْلَ الَّذِيْنَ لَايَعْلَمُوْنَ 89 وَجٰوَزْنَا بِبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ الْبَحْرَ فَاَتْبَعَھُمْ فِرْعَوْنُ وَجُنُوْدُهٗ بَغْيًا وَّعَدْوًا ۭﱑ اِذَآ اَدْرَكَهُ الْغَرَقُ ۙقَالَ اٰمَنْتُ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا الَّذِيْٓ اٰمَنَتْ بِهٖ بَنُوْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ وَاَنَا مِنَ الْمُسْلِمِيْنَ 90 اٰۗلْئٰنَ وَقَدْ عَصَيْتَ قَبْلُ وَكُنْتَ مِنَ الْمُفْسِدِيْنَ 91 فَالْيَوْمَ نُنَجِّيْكَ بِبَدَنِكَ لِتَكُوْنَ لِمَنْ خَلْفَكَ اٰيَةً ۭ وَاِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ عَنْ اٰيٰتِنَا لَغٰفِلُوْنَ 92ۧ وَلَقَدْ بَوَّاْنَا بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ مُبَوَّاَ صِدْقٍ وَّرَزَقْنٰھُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ ۚ فَمَا اخْتَلَفُوْا حَتّٰى جَاۗءَھُمُ الْعِلْمُ ۭ اِنَّ رَبَّكَ يَقْضِيْ بَيْنَھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ 93
आयत 83
“तो कोई ईमान नहीं लाया मूसा पर मगर चंद नौजवान उसकी क़ौम में से” | فَمَآ اٰمَنَ لِمُوْسٰٓى اِلَّا ذُرِّيَّةٌ مِّنْ قَوْمِهٖ |
“डरते हुए फ़िरऔन और अपने सरदारों से कि वह उनको मुसीबत में मुब्तला ना कर दें।” | عَلٰي خَوْفٍ مِّنْ فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهِمْ اَنْ يَّفْتِنَھُمْ ۭ |
उस वक़्त मिस्र पर क़िब्ती क़ौम हुक्मरान थी, जिसे क़ुरान ने “आले फ़िरऔन” कहा है और इसराइली उनके महकूम (वश में) थे। हज़रत मूसा अलै. अपनी क़ौम बनी इसराइल की आज़ादी के अलम्बरदार थे, लेकिन इसके बावजूद बनी इसराइल में से भी सिर्फ़ चंद नौजवान लड़कों ने ही आपकी दावत पर लब्बैक कहा था। दरअसल गुलाम होने की वजह से वह लोग फ़िरऔन और उसके सरदारों के मज़ालिम से खौफ़ज़दा थे। आम तौर पर हर महकूम क़ौम के साथ इसी तरह होता है कि उसके कुछ लोग अपनी क़ौम से गद्दारी करके हुक्मरानों से मिल जाते हैं और हुक्मरान उन्हें मराआत (प्रोत्साहन) और खिताबात से नवाज़ कर उनकी वफ़ादारियाँ ख़रीद लेते हैं। चुनाँचे बनी इसराइल में से भी कुछ लोग फ़िरऔन के एजेंट बन चुके थे। इसकी सबसे बड़ी मिसाल क़ारून की है। वह हज़रत मूसा अलै. की क़ौम में से था, मगर फ़िरऔन का दरबारी और उसका एजेंट था। यही वजह थी कि वह हज़रत मूसा अलै. के ख़िलाफ़ साज़िशें करता रहता था (इसका तफ्सीली ज़िक्र सूरतुल क़सस में है)। बहरहाल बनी इसराइल के आम लोग ऐसे मुखबिरों के डर से हज़रत मूसा अलै. के क़रीब होने से गुरेज़ करते थे। नौजवान चूँकि बाहिम्मत और पुरजोश होते हैं, इसलिये वह इस तरह की इन्क़लाबी आवाज़ पर लब्बैक कहने का ख़तरा मोल ले लेते हैं, जबकि इसी क़ौम के अधेड़ उम्र लोग कम हिम्मती और मसलहतों का शिकार होते हैं। यह पूरा फ़लसफ़ा इस आयत में मौजूद है। इन आयात के नुज़ूल के वक़्त अहले मक्का में से भी मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ का साथ देने के लिये जो लोग आगे बढ़ रहे थे वह चंद बाहिम्मत नौजवान ही थे, ना कि मसलहत कोश बूढ़े।
“और यक़ीनन फ़िरऔन ज़मीन में बहुत सरकशी कर रहा था, और वह यक़ीनन हद से बढ़ जाने वालों में से था।” | وَاِنَّ فِرْعَوْنَ لَعَالٍ فِي الْاَرْضِ ۚ وَاِنَّهٗ لَمِنَ الْمُسْرِفِيْنَ 83 |
आयत 84
“और मूसा ने कहा कि ऐ मेरी क़ौम के लोगों! अगर तुम अल्लाह पर ईमान ले आए हो तो अब उसी पर तवक्कुल भी करो अगर तुम वाक़िअतन फ़रमाबरदार बन गए हो।” | وَقَالَ مُوْسٰى يٰقَوْمِ اِنْ كُنْتُمْ اٰمَنْتُمْ بِاللّٰهِ فَعَلَيْهِ تَوَكَّلُوْٓا اِنْ كُنْتُمْ مُّسْلِمِيْنَ 84 |
आयत 85
“तो उन्होंने कहा कि हमने अल्लाह पर तवक्कुल किया। ऐ हमारे रब! तू हमें इन ज़ालिमों के लिये तख्ता-ए-मश्क़ ना बना दे।” | فَقَالُوْا عَلَي اللّٰهِ تَوَكَّلْنَا ۚ رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِّلْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ 85ۙ |
अल्लाह पर तवक्कुल करते हुए हम अपना मामला उसी के हवाले करते हैं। परवरदिगार! अब ऐसा ना हो कि हमारे ज़रिये से तू इनको आज़माए। जैसे अबु जहल अगर आले यासिर पर ज़ुल्म ढहाता था तो अल्लाह के यहाँ यह उसकी भी आज़माइश हो रही थी, लेकिन इस आज़माइश में तख्ता-ए-मश्क़ हज़रत यासिर और हज़रत सुमैय्या रज़ि. बन रहे थे।
आयत 86
“और हमें अपनी रहमत से इस काफ़िर क़ौम से निजात अता फ़रमा।” | وَنَجِّنَا بِرَحْمَتِكَ مِنَ الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ 86 |
आयत 87
“और हमने वही की मूसा और उसके भाई (हारून) को कि तुम अपनी क़ौम के लिये मिस्र में कुछ घर मुअय्यन कर लो” | وَاَوْحَيْنَآ اِلٰى مُوْسٰى وَاَخِيْهِ اَنْ تَبَوَّاٰ لِقَوْمِكُمَا بِمِصْرَ بُيُوْتًا |
इन घरों में जमा होकर तुम लोग अल्लाह की इबादत किया करो। इसी तरह का इंतेज़ाम हुज़ूर ﷺ ने भी अपनी दावत के इब्तदाई ज़माने में किया था जब आप ﷺ ने दारे अरक़म को दावती और तन्ज़ीमी सरगरमियों के लिये मुख्तस (allocated) फ़रमाया था।
“और बनाओ अपने घरों को क़िब्ला रुख” | وَّاجْعَلُوْا بُيُوْتَكُمْ قِبْلَةً |
फ़िरऔन के डर से वह लोग मस्जिद तो बना नहीं सकते थे, इसलिये उन्हें हुक्म दिया गया कि अपने घरों को तामीर ही क़िब्ला रुख करो, ताकि वहाँ तुम नमाज़ें पढ़ा करो। इससे यह भी मालूम होता है कि हज़रत मूसा अलै. के ज़माने में भी क़िब्ला मुअय्यन था जबकि बैतुल मक़दस तो अभी बना ही नहीं था। बैतुल मक़दस तो हज़रत मूसा अलै. के ज़माने से एक हज़ार साल बाद हज़रत सुलेमान अलै. ने तामीर फ़रमाया था। चुनाँचे हज़रत मूसा अलै. और आपकी क़ौम का क़िब्ला यही बैतुल्लाह था। तौरात में उनकी क़ुरबान गाहों के खैमों के बारे में तफ़सील मिलती है कि यह खैमे इस तरह नसब (installed) किये जाते थे कि जब कोई शख्स क़ुर्बानी पेश करता था तो उसका रुख सीधा क़िब्ले की तरफ़ होता था।
“और नमाज़ क़ायम रखो, और अहले ईमान को बशारत दे दो।” | وَّاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ ۭ وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ 87 |
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आयत 88
“और मूसा ने अर्ज़ किया कि ऐ हमारे परवरदिगार! तूने फ़िरऔन और उसके सरदारों को सामाने ज़ेव व ज़ीनत और अमवाल अता कर दिये हैं दुनिया की ज़िंदगी में” | وَقَالَ مُوْسٰى رَبَّنَآ اِنَّكَ اٰتَيْتَ فِرْعَوْنَ وَمَلَاَهٗ زِينَةً وَّاَمْوَالًا فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۙ |
“परवरदिगार! इसलिये कि वह लोगों को गुमराह करे तेरे रास्ते से!” | رَبَّنَا لِيُضِلُّوْا عَنْ سَبِيْــلِكَ ۚ |
इनके पास ताक़त है, इक़तदार है, इख्तियार है, दौलत है, जाह व हश्म है। लोग उनके रौब व दबदबे के खौफ़ और माल व दौलत के लालच से गुमराह हो रहे हैं। परवरदिगार! क्या तूने उन्हें यह सब कुछ इसलिये दे रखा है कि वह तेरे बन्दों को तेरे सीधे राते से गुमराह करें?
“ऐ हमारे रब! इनके अमवाल को बरबाद कर दे और इनके दिलों में सख्ती पैदा कर दे” | رَبَّنَا اطْمِسْ عَلٰٓي اَمْوَالِهِمْ وَاشْدُدْ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ |
“कि ये ईमान ना लाये, जब तक कि ये खुल्लम-खुल्ला देख ना लें अज़ाबे अलीम को।” | فَلَا يُؤْمِنُوْا حَتّٰى يَرَوُا الْعَذَابَ الْاَلِيْمَ 88 |
और जब वह अज़ाब को देख लेंगे तो फिर इनका ईमान इन्हें कुछ फ़ायदा नहीं देगा, क्योंकि उस वक़्त का ईमान अल्लाह के यहाँ मौअतबर नहीं है। यह हज़रत मूसा अलै. की आले फ़िरऔन से बेज़ारी की आखरी हद है। अगरचे नबी एक-एक फ़र्द के लिये ईमान का ख्वाहिशमंद होता है, मगर फ़िरऔन और उसके सरदार अहले ईमान को सताने और अज़ीयतें देने में इस हद तक आगे जा चुके थे कि हज़रत मूसा अलै. ख़ुद अल्लाह तआला से दुआ माँग रहे हैं कि ऐ अल्लाह! अब इन लोगों के दिलों को सख्त कर दे, इनके दिलों पर मुहर लगा दे, ताकि तेरा अज़ाब आने तक इन्हें ईमान नसीब ही ना हो। इसलिये कि जो कुछ इन्होंने अल्लाह और अहले ईमान की दुश्मनी में किया है उसकी सज़ा इन्हें मिल जाए।
आयत 89
“अल्लाह ने फ़रमाया कि (ठीक है) तुम दोनों की दुआ क़ुबूल कर ली गई, अब तुम दोनों भी क़ायम रहो” | قَالَ قَدْ اُجِيْبَتْ دَّعْوَتُكُمَا فَاسْتَــقِيْمَا |
ऐसा ना हो कि वक़्त आने पर तुम्हारा दिल पसीज जाए और फिर दुआ करने लगो कि ऐ अल्लाह अब इनको माफ़ फ़रमा दे!
“और उन लोगों के रास्ते की पैरवी मत करना जो इल्म नहीं रखते।” | وَلَا تَتَّبِعٰۗنِّ سَبِيْلَ الَّذِيْنَ لَايَعْلَمُوْنَ 89 |
आयत 90
“और हमने बनी इसराइल को पार उतार दिया समंदर (या दरिया) के” | وَجٰوَزْنَا بِبَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ الْبَحْرَ |
“फिर उनका पीछा किया फ़िरऔन और उसके लश्करों ने सरकशी और ज़्यादती के गर्ज़ से।” | فَاَتْبَعَھُمْ فِرْعَوْنُ وَجُنُوْدُهٗ بَغْيًا وَّعَدْوًا ۭ |
“यहाँ तक कि जब पा लिया उसे ग़र्क ने” | ﱑ اِذَآ اَدْرَكَهُ الْغَرَقُ ۙ |
यानि जब फ़िरऔन ग़र्क होने लगा तो:
“कहने लगा कि मैं ईमान लाया कि कोई मअबूद नहीं सिवाय उसके जिस पर बनी इसराइल ईमान लाए हैं, और मैं (उसके) फ़रमा बरदारों में से हूँ।” | قَالَ اٰمَنْتُ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا الَّذِيْٓ اٰمَنَتْ بِهٖ بَنُوْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ وَاَنَا مِنَ الْمُسْلِمِيْنَ 90 |
आयत 91
“क्या अब (तू ईमान ला रहा है)? हालाँकि इससे पहले तू नाफ़रमानी करता रहा है और तू फ़साद बरपा करने वालों में से था।” | اٰۗلْئٰنَ وَقَدْ عَصَيْتَ قَبْلُ وَكُنْتَ مِنَ الْمُفْسِدِيْنَ 91 |
आयत 92
“तो आज हम तुम्हारे बदन को बचायेंगे ताकि तू अपने बाद वालों के लिये एक निशानी बना रहे।” | فَالْيَوْمَ نُنَجِّيْكَ بِبَدَنِكَ لِتَكُوْنَ لِمَنْ خَلْفَكَ اٰيَةً ۭ |
यानि तुम्हारे जिस्म तो महफूज़ रखा जाएगा, इसको गलने-सड़ने नहीं दिया जाएगा ताकि बाद में आने वाले इसे देख कर इबरत हासिल कर सकें। चुनाँचे गर्क़ होने के कुछ अरसे बाद फ़िरऔन की लाश किनारे पर पाई गई थी, सिर्फ़ उसके नाक को किसी मछली वगैरह ने काटा था, बाक़ी लाश सही सलामत थी और आज तक क़ाहेरा के अजाएब घर (म्यूजियम) में मौजूद है।
“और यक़ीनन बहुत से लोग हमारी आयात से गफ़लत ही बरतते रहते हैं।” | وَاِنَّ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ عَنْ اٰيٰتِنَا لَغٰفِلُوْنَ 92ۧ |
आयत 93
“और हमने बनी इसराइल को बहुत ही उम्दा जगह फ़राहम कर दी और हमने उन्हें पाकीज़ा रोज़ी दी।” | وَلَقَدْ بَوَّاْنَا بَنِيْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ مُبَوَّاَ صِدْقٍ وَّرَزَقْنٰھُمْ مِّنَ الطَّيِّبٰتِ ۚ |
“फिर उन्होंने इख्तलाफ़ नहीं किया यहाँ तक कि उनके पास इल्म आ गया।” | فَمَا اخْتَلَفُوْا حَتّٰى جَاۗءَھُمُ الْعِلْمُ ۭ |
यानि उन्होंने उस वक़्त इख्तलाफ़ किया और तफ़रक़े बरपा किये जबकि उनके पास इल्म आ चुका था। उन्होंने ऐसा नावाक़फ़ियत की बुनियाद पर मजबूरन नहीं किया था, बल्कि ये सब कुछ उनके अपने नफ्स की शरारतों का नतीजा था।
“यक़ीनन आपका रब फ़ैसला करेगा उनके माबैन क़यामत के दिन, जिन चीज़ों में वह इख्तलाफ़ करते रहे थे।” | اِنَّ رَبَّكَ يَقْضِيْ بَيْنَھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ 93 |
आयात 94 से 103 तक
فَاِنْ كُنْتَ فِيْ شَكٍّ مِّمَّآ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ فَسْــــَٔـلِ الَّذِيْنَ يَقْرَءُوْنَ الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكَ ۚ لَقَدْ جَاۗءَكَ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ 94ۙ وَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَتَكُوْنَ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ 95 اِنَّ الَّذِيْنَ حَقَّتْ عَلَيْهِمْ كَلِمَتُ رَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ 96ۙ وَلَوْ جَاۗءَتْھُمْ كُلُّ اٰيَةٍ حَتّٰى يَرَوُا الْعَذَابَ الْاَلِيْمَ 97 فَلَوْلَا كَانَتْ قَرْيَةٌ اٰمَنَتْ فَنَفَعَهَآ اِيْمَانُهَآ اِلَّا قَوْمَ يُوْنُسَ ۭ لَمَّآ اٰمَنُوْا كَشَفْنَا عَنْھُمْ عَذَابَ الْخِزْيِ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَمَتَّعْنٰھُمْ اِلٰى حِيْنٍ 98 وَلَوْ شَاۗءَ رَبُّكَ لَاٰمَنَ مَنْ فِي الْاَرْضِ كُلُّھُمْ جَمِيْعًا ۭ اَفَاَنْتَ تُكْرِهُ النَّاسَ حَتّٰى يَكُوْنُوْا مُؤْمِنِيْنَ 99 وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تُؤْمِنَ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ وَيَجْعَلُ الرِّجْسَ عَلَي الَّذِيْنَ لَا يَعْقِلُوْنَ ١٠٠ قُلِ انْظُرُوْا مَاذَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ وَمَا تُغْنِي الْاٰيٰتُ وَالنُّذُرُ عَنْ قَوْمٍ لَّا يُؤْمِنُوْنَ ١٠١ فَهَلْ يَنْتَظِرُوْنَ اِلَّا مِثْلَ اَيَّامِ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِهِمْ ۭ قُلْ فَانْتَظِرُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ ١٠٢ ثُمَّ نُنَجِّيْ رُسُلَنَا وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كَذٰلِكَ ۚ حَقًّا عَلَيْنَا نُنْجِ الْمُؤْمِنِيْنَ ١٠٣ۧ
आयत 94
“फिर अगर आपको कोई शक है उस चीज़ के बारे में जो हमने आप पर नाज़िल की है” | فَاِنْ كُنْتَ فِيْ شَكٍّ مِّمَّآ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ |
यहाँ ख़िताब बज़ाहिर मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ से है, लेकिन इस बात का तो क़तअन कोई इम्कान नहीं कि आप ﷺ को इसमें कोई शक होता, लिहाज़ा असल में रुए सुखन अहले मक्का की तरफ़ है। बाज़ अवक़ात जिससे बात करना मक़सूद होता है उसके रवैय्ये की वजह से उससे इस क़दर नफ़रत हो जाती है कि उसे बराहे रास्त मुखातिब करना मुनासिब नहीं समझा जाता। ऐसी सूरत में किसी दूसरे शख्स से बात की जाती है ताकि असल मुखातिब बिलवास्ता तौर पर उसे सुन ले। चुनाँचे इसका मतलब यही है कि ऐ मुशरिकीने मक्का! अगर तुम लोगों को इस किताब के बारे में कोई शक है जो हमने अपने रसूल ﷺ पर नाज़िल की है:
“तो पूछ लीजिये उन लोगों से जिनको किताब दी गई थी आप से पहले।” | فَسْــــَٔـلِ الَّذِيْنَ يَقْرَءُوْنَ الْكِتٰبَ مِنْ قَبْلِكَ ۚ |
“(ऐ नबी ﷺ!) आपके पास हक़ आया है आपके रब की तरफ़ से, तो हरगिज़ ना हो जाएँ आप शक करने वालों में से।” | لَقَدْ جَاۗءَكَ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ 94ۙ |
यह उसी अंदाज़े तखातब का तसल्सुल है कि हुज़ूर ﷺ को मुखातिब करके मुशरिकीने मक्का को सुनाया जा रहा है।
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आयत 95
“और मत हो जाना उन लोगों में से जिन्होंने अल्लाह की आयात को झुठलाया, वरना तुम हो जाओगे ख़सारा पाने वालों में से।” | وَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الَّذِيْنَ كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَتَكُوْنَ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ 95 |
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आयत 96
“यक़ीनन जिन लोगों पर तेरे रब की बात साबित हो चुकी है वह ईमान नहीं लायेंगे।” | اِنَّ الَّذِيْنَ حَقَّتْ عَلَيْهِمْ كَلِمَتُ رَبِّكَ لَا يُؤْمِنُوْنَ 96ۙ |
जो लोग अपनी ज़िद और हठधर्मी की वजह से क़ानूने ख़ुदावंदी की ज़द में आ चुके हैं और उनके दिलों पर आखरी मोहर लग चुकी है, अब ऐसे लोगों को ईमान नसीब नहीं होगा।
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आयत 97
“और चाहे उनके पास सारी ही निशानियाँ आ जाएँ (अब वह ईमान नहीं लाएंगे) जब तक कि अज़ाबे अलीम को देख ना लें।” | وَلَوْ جَاۗءَتْھُمْ كُلُّ اٰيَةٍ حَتّٰى يَرَوُا الْعَذَابَ الْاَلِيْمَ 97 |
जैसा कि फ़िरऔन का मामला हुआ कि जब गर्क़ होने लगा तब ईमान लाया।
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आयत 98
“तो क्यों ना हुई कोई बस्ती ऐसी जो ईमान लाती और उसे उसका ईमान नफ़ा पहुँचाता सिवाय क़ौम-ए-युनुस के?” | فَلَوْلَا كَانَتْ قَرْيَةٌ اٰمَنَتْ فَنَفَعَهَآ اِيْمَانُهَآ اِلَّا قَوْمَ يُوْنُسَ ۭ |
हज़रत युनुस अलै. नैनवा की तरफ़ मबऊस हुए थे। आपकी दावत के मुक़ाबले में आपकी क़ौम इन्कार पर अड़ी रही। जब आखरी हुज्जत के बाद उन लोगों पर अज़ाब का फ़ैसला हो गया तो हज़रत युनुस अलै. हमियते दीनी के जोश में उन्हें छोड़ कर चले गए और जाते-जाते उन्हें यह ख़बर दे गए कि अब तीन दिन के अंदर-अंदर तुम पर अज़ाब आ जाएगा, जबकि अल्लाह की तरफ़ से आपको अपनी क़ौम को छोड़ कर जाने की अभी बाज़ाबता (officially) तौर पर इजाज़त नहीं दी गई थी। अल्लाह तआला की सुन्नत यह रही है कि ऐसे मौक़ों पर रसूल अपनी मरज़ी से अपनी बस्ती को नहीं छोड़ सकता जब तक कि अल्लाह तआला की तरफ़ से बाक़ायदा हिजरत का हुक्म ना आ जाए (नबी का मामला इस तरह से नहीं होता)। मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की मिसाल हमारे सामने है कि आप ﷺ ने मुसलमानों को मदीना हिजरत करने का हुक्म दे दिया था मगर आप ﷺ ने ख़ुद उस वक़्त तक हिजरत नहीं फ़रमाई जब तक आपको अल्लाह तआला की तरफ़ से बाज़ाबता तौर पर इसकी इजाज़त नही मिल गई थी। सीरत की किताबों में यहाँ तक तफ़सील मिलती है कि हज़रत अबु बकर रज़ि. ने दो ऊँटनियाँ इस मक़सद के लिये तैयार कर रखी थीं और रोज़ाना आपसे इस्तफ़सार करते थे कि हुज़ूर! इजाज़त मिली या नहीं?
बहरहाल हज़रत युनुस अलै. के जाने के बाद अज़ाब के आसार पैदा हुए तो पूरी बस्ती के लोग अपने बच्चों, औरतों और माल-मवेशी को लेकर बाहर निकल आए और अल्लाह के हुज़ूर गिडगिडा कर तौबा की। अल्लाह के क़ानून की मुताबिक़ तो अज़ाब के आसार ज़ाहिर हो जाने के बाद ना ईमान फायदामंद होता है और ना तौबा क़ुबूल की जाती है, मगर हज़रत युनुस अलै. के वक़्त से पहले हिजरत कर जाने की वजह से उस क़ौम के मामले में नरमी इख्तियार की गई और उनकी तौबा क़ुबूल करते हुए उन पर से अज़ाब को टाल दिया गया। यूँ इंसानी तारीख़ में एक इस्तसना (exception) क़ायम हुआ कि उस क़ौम के लिये क़ानूने खुदावंदी में रियायत दी गई।
“जब वह ईमान ले आए तो हमने हटा दिया उनसे दुनिया की ज़िंदगी में वह रुसवाकुन अज़ाब और एक वक़्ते मुअय्यन के लिये हमने उन्हें (फ़वायदे दुनियवी से) बहरामंद होने का मौक़ा दे दिया।” | لَمَّآ اٰمَنُوْا كَشَفْنَا عَنْھُمْ عَذَابَ الْخِزْيِ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَمَتَّعْنٰھُمْ اِلٰى حِيْنٍ 98 |
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आयत 99
“और (ऐ नबी ﷺ!) अगर आपका रब चाहता तो ज़मीन में जितने लोग भी हैं सबके सब ईमान ले लाते।” | وَلَوْ شَاۗءَ رَبُّكَ لَاٰمَنَ مَنْ فِي الْاَرْضِ كُلُّھُمْ جَمِيْعًا ۭ |
ये मज़मून सूरतुल अनआम में बड़े शद्दो-मद्द के साथ आ चुका है। हुज़ूर ﷺ की शदीद ख्वाहिश थी कि यह सब लोग ईमान ले आएँ, मगर अल्लाह तआला फ़रमाते हैं कि इस सिलसिले में हमारा अपना क़ानून है और वह यह कि जो हक़ का तालिब होगा उसे हक़ मिल जाएगा और जो तअस्सुब, ज़िद और हठधर्मी पर उतर आएगा, उसे हिदायत नसीब नहीं होगी। अगर लोगों को मुसलमान बनाना ही मक़सूद होता तो अल्लाह के लिये यह कौनसा मुश्किल काम था। वह सबको पैदा ही ऐसे करता कि सब मोमिन, मुत्तक़ी और परहेज़गार होते। आख़िर उसने फ़रिश्ते भी तो पैदा किये हैं जो कभी गलती करते हैं ना उसकी मअसियत (अवहेलना)। जैसा कि सूरतुल तहरीम में फ़रमाया: { لَّا يَعْصُوْنَ اللّٰهَ مَآ اَمَرَهُمْ وَيَفْعَلُوْنَ مَا يُؤْمَرُوْنَ } (आयत:6) “वह अल्लाह के अहकाम की नाफ़रमानी नहीं करते और वही करते हैं जो उन्हें हुक्म दिया जाता है।” लेकिन इंसानों को उसने पैदा ही इम्तिहान के लिये किया है। सूरतुल मुल्क के आग़ाज़ में ज़िन्दगी और मौत की तख्लीक़ का यही मक़सद बताया गया है: { خَلَقَ الْمَوْتَ وَالْحَيٰوةَ لِيَبْلُوَكُمْ اَيُّكُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا ۭ} (आयत:2) “उसने ज़िन्दगी और मौत को पैदा किया ताकि तुम्हें आज़माए कि तुम में से कौन हुस्ने अमल का रवैय्या इख्तियार करता है।” लिहाज़ा ऐ नबी (ﷺ) आप इस मामले में अपना फ़र्ज़ अदा करते जाएँ, कोई ईमान लाए या ना लाए इसकी परवाह ना करें, किसी को हिदायत देने या ना देने का मामला हमसे मुताल्लिक़ है।
“तो क्या आप लोगों को मजबूर कर देंगे कि वह ज़रूर ईमान ले आएँ!” | اَفَاَنْتَ تُكْرِهُ النَّاسَ حَتّٰى يَكُوْنُوْا مُؤْمِنِيْنَ 99 |
असल में यह सारी बातें हुज़ूर ﷺ के दिल का बोझ हल्का करने के लिये की जा रही हैं कि आप हर वक़्त दावत व तब्लीग की जद्दो-जहद में मसरूफ़ हैं, फिर आप ﷺ को यह अंदेशा भी रहता है कि कहीं इस ज़िमन में मेरी तरफ़ से कोई कोताही तो नहीं हो रही। जैसे सूरतुल आराफ़ (आयत 2) में फ़रमाया: {فَلَا يَكُنْ فِيْ صَدْرِكَ حَرَجٌ مِّنْهُ} कि आप ﷺ के दिल में फराएज़ रिसालत के सिलसिले में किसी क़िस्म की तंगी नहीं होनी चाहिए। और इन लोगों के पीछे आप ﷺ अपने आपको हलकान ना करें।
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आयत 100
“किसी जान के लिये मुमकिन नहीं है कि वह ईमान लाए मगर अल्लाह के इज़्न से।” | وَمَا كَانَ لِنَفْسٍ اَنْ تُؤْمِنَ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ |
“और वह गंदगी मुसल्लत कर देता है उन लोगों पर जो अक़्ल से काम नहीं लेते।” | وَيَجْعَلُ الرِّجْسَ عَلَي الَّذِيْنَ لَا يَعْقِلُوْنَ ١٠٠ |
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आयत 101
“इनसे कहिये कि देखो जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है।” | قُلِ انْظُرُوْا مَاذَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ |
ज़मीन व आसमान में अल्लाह तआला की बेशुमार निशानियाँ हैं, इनको ब-नज़र-ए-ग़ाएर देखने की ज़रूरत है।
“लेकिन यह निशानियाँ और डरावे उन लोगों के कुछ काम नहीं आते जो ईमान नहीं लाना चाहते।” | وَمَا تُغْنِي الْاٰيٰتُ وَالنُّذُرُ عَنْ قَوْمٍ لَّا يُؤْمِنُوْنَ ١٠١ |
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आयत 102
“तो क्या ये मुंतज़िर हैं उसी तरह के दिनों के जैसे इनसे पहले लोगों पर गुज़र चुके हैं?” | فَهَلْ يَنْتَظِرُوْنَ اِلَّا مِثْلَ اَيَّامِ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِهِمْ ۭ |
रसूलों की तकज़ीब करने वाली क़ौमों पर आने वाले अज़ाबे इस्तेसाल वाले दिनों को क़ुराने हकीम में “अय्यामुल्लाह” क़रार दिया गया है। तो क्या ये लोग ऐसे दिनों के मुंतज़िर हैं जो क़ौमे नूह या क़ौमे हूद या क़ौमे सालेह या क़ौमे लूत को देखने पड़े थे?
“कह दीजिये कि पस इंतेज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इंतेज़ार करने वालों में हूँ।” | قُلْ فَانْتَظِرُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ مِّنَ الْمُنْتَظِرِيْنَ ١٠٢ |
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आयत 103
“फिर निजात देते रहे हैं अपने रसूलों को और अहले ईमान को। इसी तरह हमारे ऊपर हक़ है कि हम अहले ईमान को निजात दें।” | ثُمَّ نُنَجِّيْ رُسُلَنَا وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كَذٰلِكَ ۚ حَقًّا عَلَيْنَا نُنْجِ الْمُؤْمِنِيْنَ ١٠٣ۧ |
जैसे हज़रत नूह, हज़रत हूद और हज़रत सालेह अलै. की क़ौमों में से जो लोग ईमान ले आए उन्हें बचा लिया गया। आमुरा और सदुम की बस्तियों में से कोई एक खुश किस्मत भी ना निकला कि उसे बचाया जाता। हज़रत लूत अलै. सिर्फ़ अपनी दो बेटियों को लेकर वहाँ से निकले थे, जबकि उनकी अपनी बीवी भी पीछे रह जाने वालों के साथ रह गई और अज़ाब का निशाना बनी।
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आयात 104 से 109 तक
قُلْ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اِنْ كُنْتُمْ فِيْ شَكٍّ مِّنْ دِيْنِيْ فَلَآ اَعْبُدُ الَّذِيْنَ تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلٰكِنْ اَعْبُدُ اللّٰهَ الَّذِيْ يَتَوَفّٰىكُمْ ښ وَاُمِرْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ ١٠٤ۙ وَاَنْ اَقِمْ وَجْهَكَ لِلدِّيْنِ حَنِيْفًا ۚ وَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ ١٠٥ وَلَا تَدْعُ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَنْفَعُكَ وَلَا يَضُرُّكَ ۚ فَاِنْ فَعَلْتَ فَاِنَّكَ اِذًا مِّنَ الظّٰلِمِيْنَ ١٠6 وَاِنْ يَّمْسَسْكَ اللّٰهُ بِضُرٍّ فَلَا كَاشِفَ لَهٗٓ اِلَّا ھُوَ ۚ وَاِنْ يُّرِدْكَ بِخَيْرٍ فَلَا رَاۗدَّ لِفَضْلِهٖ ۭ يُصِيْبُ بِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ ۭ وَھُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ ١٠٧ قُلْ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكُمْ ۚ فَمَنِ اهْتَدٰى فَاِنَّمَا يَهْتَدِيْ لِنَفْسِهٖ ۚ وَمَنْ ضَلَّ فَاِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيْهَا ۭ وَمَآ اَنَا عَلَيْكُمْ بِوَكِيْلٍ ١٠٨ۭ وَاتَّبِعْ مَا يُوْحٰٓى اِلَيْكَ وَاصْبِرْ حَتّٰى يَحْكُمَ اللّٰهُ ښ وَھُوَ خَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ ١٠٩ۧ
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आयत 104
“(ऐ नबी ﷺ!) कह दीजिये कि ऐ लोगों! अगर तुम्हें मेरे दीन के बारे में कोई शक है” | قُلْ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اِنْ كُنْتُمْ فِيْ شَكٍّ مِّنْ دِيْنِيْ |
अब सूरत के आख़िर में फ़ैसलाकुन अंदाज़ में ख़िताब किया जा रहा है कि ऐ लोगों! ये जो तुम मुझ पर दबाव डाल रहे हो, कि मैं अपने मौक़फ़ में कुछ नरमी पैदा कर लूँ या तुम्हारे साथ किसी हद तक मदाहनत (compromise) का रवैय्या इख्तियार करूँ, तो इसका मतलब तो यह है कि तुम्हें मेरे दीन के बारे में अभी तक शक है। अगर ऐसा है तो तुम लोग अपना यह शक दूर कर लो:
“तो (जान लो कि) मैं हरगिज़ नहीं पूजने वाला उनको जिनको तुम पूजते हो अल्लाह के सिवा, बल्कि मैं तो पूजूंगा उसी अल्लाह को जो तुम्हें क़ब्ज़ करेगा।” | فَلَآ اَعْبُدُ الَّذِيْنَ تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلٰكِنْ اَعْبُدُ اللّٰهَ الَّذِيْ يَتَوَفّٰىكُمْ ښ |
“और मुझे हुक्म हुआ है कि मैं ईमान लाने वालों में से हो जाऊँ।” | وَاُمِرْتُ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ ١٠٤ۙ |
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आयत 105
“और यह कि आप अपना रुख सीधा रखिये दीन की तरफ़ यक्सु होकर।” | وَاَنْ اَقِمْ وَجْهَكَ لِلدِّيْنِ حَنِيْفًا ۚ |
पूरे हनीफ़ यानि यक्सु होकर दीन की तरफ़ मुतवज्जह हों।
“और हरगिज़ ना हों इन मुशरिकों में से।” | وَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ ١٠٥ |
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आयत 106
“और मत पुकारिये अल्लाह के सिवा उसको जो ना तुम्हें नफ़ा दे सके ना नुक़सान, और अगर (बिलफ़र्ज़) आपने ऐसा किया तो फिर आप भी जालिमों में से हो जायेंगे।” | وَلَا تَدْعُ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مَا لَا يَنْفَعُكَ وَلَا يَضُرُّكَ ۚ فَاِنْ فَعَلْتَ فَاِنَّكَ اِذًا مِّنَ الظّٰلِمِيْنَ ١٠6 |
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आयत 107
“और अगर अल्लाह आपको कोई ज़रर पहुँचाये, तो कोई नहीं है उसको दूर करने वाला सिवाय अल्लाह के।” | وَاِنْ يَّمْسَسْكَ اللّٰهُ بِضُرٍّ فَلَا كَاشِفَ لَهٗٓ اِلَّا ھُوَ ۚ |
“और अगर वह इरादा कर ले आपके साथ भलाई का तो उसके फ़ज़ल को लौटाने वाला कोई नहीं।” | وَاِنْ يُّرِدْكَ بِخَيْرٍ فَلَا رَاۗدَّ لِفَضْلِهٖ ۭ |
“वह पहुँचाता है इस (फ़ज़ल) को अपने बन्दों में से जिसे चाहे, और वह बख्शने वाला, रहम करने वाला है।” | يُصِيْبُ بِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ ۭ وَھُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ ١٠٧ |
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आयत 108
“कह दीजिये कि ऐ लोगों! तुम्हारे पास हक़ आ चुका है तुम्हारे रब की तरफ़ से। तो अब जो कोई भी हिदायत पायेगा वह अपने भले को ही हिदायत पायेगा।” | قُلْ يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ قَدْ جَاۗءَكُمُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكُمْ ۚ فَمَنِ اهْتَدٰى فَاِنَّمَا يَهْتَدِيْ لِنَفْسِهٖ ۚ |
इस हिदायत का फ़ायदा उसी को होगा, आक़बत (आख़िरत) उसी की सँवरेगी और अल्लाह की रहमत उसके शामिले हाल होगी।
“और जो कोई भटक जाएगा तो वह भी अपनी जान पर ही वबाल लेगा। और मैं तुम्हारा ज़िम्मेदार नहीं हूँ।” | وَمَنْ ضَلَّ فَاِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيْهَا ۭ وَمَآ اَنَا عَلَيْكُمْ بِوَكِيْلٍ ١٠٨ۭ |
मुझे तुम्हारे ऊपर कोई दरोगा मुक़र्रर नहीं किया गया। मैं तुम्हारे बारे में मसऊल नहीं हूँ। अल्लाह के यहाँ तुम्हारे बारे में मुझसे बाज़पुर्स नहीं होगी कि ये ईमान क्यो नहीं लाये थे? {وَّلَا تُسْـــَٔـلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ} (सूरह बक़रह:119) “और आपसे नहीं पूछा जाएगा जहन्नमियों के बारे में!”
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आयत 109
“और (ऐ नबी ﷺ!) आप पैरवी करते जाइये उसकी जो आपकी तरफ़ वही किया जा रहा है और सब्र कीजिये” | وَاتَّبِعْ مَا يُوْحٰٓى اِلَيْكَ وَاصْبِرْ |
अपने मौक़फ़ पर जमे रहिये और डटे रहिये, मुश्किलात के दबाव को बर्दाश्त कीजिये।
“यहाँ तक कि अल्लाह फ़ैसला कर दे, और यक़ीनन वह बहतरीन फ़ैसला करने वाला है।” | حَتّٰى يَحْكُمَ اللّٰهُ ښ وَھُوَ خَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ ١٠٩ۧ |
بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔