Surah baqarah-सूरतुल बक़रह ayat 1-39
सूरतुल बक़रह
तम्हीदी कलिमात
क़ुरान हकीम की पहली सूरत सूरतुल फ़ातिहा है, जिसका मुतअला हम कर चुके हैं। यह बात आपके सामने आ चुकी है कि यह वह पहली सूरत है जो रसूल अल्लाह ﷺ पर पूरी की पूरी नाज़िल हुई। इससे पहले सिर्फ़ मुतफर्रिक़ (विभिन्न) आयात नाज़िल हुई थीं। यानि सूरतुल अलक़, सूरतुल क़लम, सूरतुल मुज़म्मिल और सूरतुल मुदस्सिर की इब्तदाई (शुरुआती) आयात।
यह बात भी आपके सामने आ चुकी है कि क़ुरान हकीम में मक्की और मदनी सूरतों के मजमुओं (जोड़ों) के ऐतबार से भी सात ग्रुप हैं। पहला ग्रुप वह है जिसका हम सूरतुल फ़ातिहा से आग़ाज़ कर चुके हैं। इस ग्रुप में जो मक्की सूरत है वह सिर्फ़
सूरतुल फ़ातिहा है। यह हुज्म (मात्रा) के ऐतबार से बहुत छोटी लेकिन अपने मक़ाम व मरतबा और फज़ीलत के ऐतबार से बहुत बड़ी है, यहाँ तक कि इसे “अल-क़ुरानुल अज़ीम” भी कहा गया है। गोया यह अपनी जगह पर ख़ुद एक अज़ीम क़ुरान है। इसके बाद मदनी सूरतें चार हैं। यह तवील तरीन मदनी सूरतें हैं और दो-दो सूरतों के दो जोड़ों पर मुश्तमिल हैं। मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि क़ुरान हकीम की अक्सर सूरतें जोड़ों की शक्ल में हैं, जबकि कुछ मुन्फ़रिद (अकेली) भी हैं। सूरतुल फ़ातिहा मुन्फ़रिद है, उसका कोई जोड़ा नहीं है, अगरचे उसकी मानवी मुनासबत क़ुरान मजीद की आखरी सूरत सूरतुन्नास के साथ जोड़ी जाती है, लेकिन बहरहाल उसका जोड़ा सूरतुल फ़लक़ है। قُلْ اَعُوْذُ بِرَبِّ الْفَلَقِ और قُلْ اَعُوْذُ بِرَبِّ النَّاسِ दोनों सूरतों पर मुश्तमिल एक जोड़ा है, लिहाज़ा सूरतुल फ़ातिहा का कोई जोड़ा नहीं है, या हम यह कह सकते हैं कि पूरा क़ुरआन ही उसका जोड़ा है।
सूरतुल फ़ातिहा के बाद जो चार सूरतें हैं यह जोड़ो की शक्ल में हैं। सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान एक जोड़ा है जबकि सूरतुन्निसा और सूरतुल मायदा दूसरा जोड़ा है। इसकी सबसे नुमाया अलामत यह है कि सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान दोनों का आग़ाज़ हर्फे मुक़त्तआत “الٓم” से होता है, जबकि सूरतुन्निसा और सूरतुल मायदा दोनों में बग़ैर किसी तम्हीद के गुफ्तुगू शुरू हो जाती है। सूरतुन्निसा का आग़ाज़ होता है: { يٰٓاَيُّھَا النَّاسُ اتَّقُوْا رَبَّكُمُ الَّذِيْ خَلَقَكُمْ مِّنْ نَّفْسٍ وَّاحِدَةٍ} और सूरतुल मायदा शुरू होती है: { يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَوْفُوْا بِالْعُقُوْدِ ڛ } । पहले कोई तम्हीदी बात नहीं की गयी।
सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान का यह जो जोड़ा है, इन दोनों को रसूल अल्लाह ﷺ ने “अज़्ज़हरावैन” का नाम अता फरमाया है। “ज़हरा” का मतलब है बहुत ताबनाक, रोशन। यह लफ्ज़ हज़रत फ़ातिमा रज़ि० के नाम का जुज़ (हिस्सा) बन चुका है और उन्हें फ़ातिमातुज़्ज़हरा कहा जाता है। रसूल अल्लाह ﷺ की लख़्ते जिगर, नूरे चश्म हज़रत फ़ातिमा बहुत ही रोशन चेहरे वाली ख़ातून थीं। हज़ूर ﷺ के अल्फ़ाज़ के मुताबिक़ सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान “अज़्ज़हरावैन” यानि दो इन्तहाई ताबनाक और रोशन सूरतें हैं। इसी तरह क़ुरान मजीद की आखरी दो सूरतों को “मुअव्वज़ातैन” का नाम दिया गया है।
पहले ग्रुप की इन मदनी सूरतों के मज़ामीन के बारे में जान लीजिये कि दो मज़मून हैं जो इनमें मुतवाज़ी (समानांतर) चलते हैं। पहला मज़मून शरीअते इस्लामी का है। इसलिये कि इससे पहले तक़रीबन दो तिहाई क़ुरान नाज़िल हो चुका है। सूरतुल बक़रह पहली मदनी सूरत है, इससे पहले ज़मानी ऐतबार से पूरा मक्की क़ुरान नाज़िल हो चुका था, अगरचे तरतीब में वह बाद में आयेगा। उसमें शरीअत के अहकाम नहीं थे। लिहाज़ा अब जबकि मदीना में मुस्लमानों का एक आज़ाद मआशरा क़ायम हो गया, या यूँ कह लीजिये कि मुस्लमानों की एक छोटी सी हुकूमत क़ायम हो गयी, जहाँ अपने क़वाइद, अपने क़वानीन, अपने उसूलों के मुताबिक़ सारे मामलात तय किये जा सकते थे, तब शरीअत का नुज़ूल शुरू हुआ। सूरतुल बक़रह में यूँ समझिये कि अहकामे शरीअत की इब्तदा होती है। कोई भी तामीर करनी हो तो पहले उसका इब्तदाई ख़ाका बनता है, उसके बाद उसके तफ्सीली नक़्शे बनते हैं। तो इब्तदाई ख़ाका जो है शरीअते मुहम्मदी अला सहाबाहुस्सलातु वस्सलाम का वह सूरतुल बक़रह में है। फिर सूरतुन्निसा में इसके अन्दर मज़ीद इज़ाफ़ा होता है, और सूरतुल मायदा में शरीअत के तकमीली अहकाम आते हैं। चुनाँचे सूरतुल मायदा तकमीले शरीअत की सूरत है। इसी में वह आयत है (आयत:3): {اَلْيَوْمَ اَ كْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا }।
दूसरा मज़मून जो इन सूरतों में चलता है वह है अहले किताब से ख़िताब। मक्की क़ुरान में सारा ख़िताब मुशरिकीन से था, यानि अरब के वो लोग जो मक्का में और उसके इर्द-गिर्द आबाद थे। वहाँ कोई यहूदी या कोई नसरानी नहीं था, सब के सब मुशरिकीने अरब थे। तो पूरे मक्की क़ुरान में उन्ही से रद्दो क़दाह है, गुफ्तुगू है, बहस व नज़ाअ है, उनके ऐतराज़ात के जवाबात हैं और उन पर इत्मामे हुज्जत किया गया है। अगरचे अहले किताब का तज़किरा हवाले के तौर पर मौजूद है, हज़रत मूसा और हज़रत ईसा अलै० का ज़िक्र मौजूद है, लेकिन बनी इसराइल से, यहूदियों से, या नसारा से कोई ख़िताब नहीं हुआ। उनसे ख़िताब मदीना में आकर शुरू हुआ है, क्योंकि वहाँ यहूदी आबाद थे। मदीना में यहूद के तीन मज़बूत क़बीले मौजूद थे। तो यह हैं दो बुनियादी मज़मून इस पहले ग्रुप के। इनमें आपको एक और तक़सीम नज़र आ जायेगी कि अहले किताब में से जिनसे “या बनी इसराइल” के अल्फ़ाज़ से ख़िताब हो रहा है यानि यहूद, उनसे सारी गुफ्तुगू सूरतुल बक़रह में है, जबकि जो नसारा हैं उनसे गुफ्तुगू सूरह आले इमरान में है।
सूरतुल बक़रह की अहमियत व फज़ीलत का अन्दाज़ा इससे भी होता है कि इसे हुजू़र ﷺ ने क़ुरान मजीद का ज़रवा-ए-सनाम यानि क्लाईमैक्स (Climax) क़रार दिया है। हदीस के अल्फ़ाज़ हैं: ((اَلْبَقَرَۃُ سَنَامُ الْقُرْآنِ وَ ذُرْوَتُہٗ)) (मसनद अहमद)। हुज्म के ऐतबार से भी क़ुरान की सबसे बड़ी सूरत यही है, 286 आयात पर मुश्तमिल ढ़ाई पारों पर फैली हुई है।
सूरतुल बक़रह को दो हिस्सो में तक़सीम किया जा सकता है और इस ऐतबार से मैंने इसका एक नाम तजवीज़ किया है “सूरतुल उम्मातैन” यानि दो उम्मतों की सूरत। इसके निस्फ़े अव्वल में असल रुए सुखन उम्मत साबिक़ यहूद की तरह है, जो उस वक़्त तक अल्लाह के नुमाइन्दा थे और ज़मीन पर वही उम्मते मुस्लिमा की हैसियत रखते थे। लेकिन उन्होंने अपनी बदआमाली की वजह से अपने आपको उस मक़ाम का नाअहल साबित किया, लिहाज़ा वह माज़ूल (बेदखल) किये गये और एक नयी उम्मत उम्मते मुहम्मद ﷺ उस मक़ाम पर फाइज़ की (रखी) गयी। तो निस्फे अव्वल में साबित उम्मत से गुफ्तुगू है और उन पर गोया फर्दे जुर्म आइद की (लगाई) गयी है कि तुमने यह किया, यह किया और यह किया। हमने तुम पर यह अहसानात किये, हमनें यह भलाईयाँ कीं, तुम्हारे ऊपर हमारी यह रहमतें हुईं, लेकिन तुम्हारा तर्ज़े अमल यह है, जिसकी बिना पर अब तुम माज़ूल किये जा रहे हो। यह मज़मून है पहले निस्फ़ का। और अब जो दूसरी उम्मत क़ायम हुई है यानि उम्मते मुहम्मद ﷺ, उससे ख़िताब है निस्फ़े सानी के अन्दर। तो इसकी यह तरतीब ज़हन में रखिये। पहला हिस्सा अट्ठारह रुकूओं पर मुश्तमिल है और उसकी आयात की तादाद 152 है। जबकि दूसरा हिस्सा बाईस रुकूओं पर मुश्तमिल है, लेकिन तादादे आयात 134 हैं। इस तरह यह दोनों हिस्से तक़रीबन बराबर बन जाते हैं।
निस्फ़े अव्वल के जो अट्ठारह रुकूअ हैं उनको भी तीन हिस्सों में तक़सीम कर लीजिये। पहले चार रुकूअ तम्हीदी हैं। फिर दस रुकूओं में बनी इसराइल से ख़िताब है। फिर चार रुकूअ तहवीली हैं। तम्हीदी रुकूओं में से पहले दो रुकूओं में तीन क़िस्म के इन्सानों की एक तक़सीम बयान कर दी गयी जो दुनिया में हमेशा पाये जायेंगे। जब भी कोई नयी दावत आयेगी तो कुछ लोग ऐसे होंगे जो उसे तहे दिल से क़ुबूल करेंगे और उसके लिये “हरचे बादाबाद मा कश्ती दराब अन्दाखतीम” के मिस्दाक़ सब कुछ करने को तैयार हो जायेंगे। कुछ लोग वह होंगे जो उसकी मुख़ालफ़त पर अव्वल रोज़ से कमर कस लेंगे और उसे हरगिज़ नहीं मानेंगे। और कुछ वह होंगे जो बैन-बैन (बीच में) रहेंगे। उनका तर्जे़ अमल यह रहेगा कि बात कुछ अच्छी लगती भी है लेकिन इसके लिये क़ुर्बानी देनी कठिन है, इसके तक़ाजे़ बडे़ मुश्किल हैं। बात अच्छी है क़ुबूल भी करते हैं, लेकिन अमालन उसके तक़ाज़े पूरे नहीं करते। उनके लिये सूरतुन्निसा (आयत:143) में {لَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ وَلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ } के अल्फ़ाज़ आये हैं। यह तफ़सील पहले दो रुकूओं में आयी है।
इसके बाद दूसरे दो रुकूओं में गोया मक्की क़ुरान का ख़ुलासा आ गया है। एक रुकूअ में क़ुरान मजीद की दावत का ख़ुलासा और एक रुकूअ में क़ुरान मजीद का फ़लसफ़ा बयान कर दिया गया। यह मज़ामीन असल में मक्की सूरतों के हैं और वहाँ तफ़सील से जे़रे बहस आ चुके हैं। सूरतुल बक़रह के नुज़ूल से पहले इन मज़ामीन पर बहुत मुफ़स्सल (विस्तृत) बहसें हो चुकी हैं, लेकिन चूँकि हिकमते खुदावन्दी में इस मुसहफ़ की तरतीब में सबसे पहले सूरतुल बक़रह है, लिहाज़ा सूरतुल बक़रह में इन मज़ामीन का ख़ुलासा दर्ज कर दिया गया, ताकि आगे बढ़ने से पहले वह मज़ामीन ज़हन नशीन कर लिये जायें।
अब बिस्मिल्लाह करके हम सुरतुल बक़रह के मुताअले का आग़ाज़ कर रहे हैं।
आयात 1 से 7 तक
اَعُوْذُ بِاللہِ مِنَ الشَّیْطٰنِ الرَّجِیْمِ
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
الۗمّۗ Ǻ ذٰلِكَ الْكِتٰبُ لَا رَيْبَ ٻ فِيْهِ ڔ ھُدًى لِّلْمُتَّقِيْنَ Ą الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِالْغَيْبِ وَ يُـقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ وَ مِمَّا رَزَقْنٰھُمْ يُنْفِقُوْنَ Ǽۙ وَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ ۚ وَبِالْاٰخِرَةِ ھُمْ يُوْقِنُوْنَ Ćۭ اُولٰۗىِٕكَ عَلٰي ھُدًى مِّنْ رَّبِّهِمْ ۤ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُفْلِحُوْنَ Ĉ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَوَاۗءٌ عَلَيْهِمْ ءَاَنْذَرْتَھُمْ اَمْ لَمْ تُنْذِرْھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ Č خَتَمَ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ وَعَلٰي سَمْعِهِمْ ۭ وَعَلٰٓي اَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ وَّلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ Ċۧ
आयत 1
“अलिफ़, लाम, मीम।” | الۗمّۗ Ǻ |
यह हुरूफ़े मुक़त्तआत हैं जिनके बारे में यह जान लीजिये कि इनके हक़ीक़ी, हतमी (निश्चित) और यक़ीनी मफ़हूम को कोई नहीं जानता सिवाय अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के। यह एक राज़ है अल्लाह और उसके रसूल ﷺ के माबैन (बीच)। हुरूफ़े मुक़त्तआत के बारे में अगरचे बहुत सी आरा (राय) ज़ाहिर की गयी हैं, लेकिन उनमें से कोई शय रसूल अल्लाह ﷺ से मनक़ूल नहीं है। अलबत्ता यह बात साबित है कि इस तरह के हुरूफ़े मुक़त्तआत का कलाम में इस्तेमाल अरब में मारूफ़ था, इसलिये किसी ने इन पर ऐतराज़ नहीं किया। क़ुरान मजीद की 114 में से 29 सूरतें ऐसी हैं जिनका आग़ाज़ हुरूफ़े मुक़त्तआत से हुआ है। सूरह क़ाफ़, सूरतुल क़लम और सूरह सुआद के आग़ाज़ में एक-एक हर्फ है। हा मीम, ताहा और यासीन दो-दो हर्फ हैं। अलिफ़ लाम मीम और अलिफ़ लाम रा तीन-तीन हुरूफ़ हैं जो कईं सूरतों के आग़ाज़ में आये हैं। अलिफ़ लाम मी सुआद और अलिफ़ लाम मीम रा चार-चार हुरूफ़ हैं। हुरूफ़े मुक़त्तआत में ज़्यादा से ज़्यादा पाँच हुरूफ़ यकजा (इकट्ठे) आते हैं। चुनाँचे काफ़ हा या अैन सुआद सूरह मरयम के आग़ाज़ में और हा मीम अैन सीन क़ाफ़ सूरतुल शौरा के आग़ाज़ में आये हैं। इनके बारे में इस वक़्त मुझे इससे ज़्यादा कुछ अर्ज़ नहीं करना है। अपने मुफ़स्सल दर्से क़ुरान में मैंने इन पर तफ़सील से बहसें की हैं।
आयत 2
“यह अल किताब है, इसमें कुछ शक नहीं।” या “यह वो किताब है जिसमें कोई शक नहीं।” | ذٰلِكَ الْكِتٰبُ لَا رَيْبَ ٻ فِيْهِ ڔ |
आयत के इस टुकड़े के दो तर्जुमे हो सकते हैं। पहले तर्जुमे की रू से यह है वह किताबे मौऊद (वादा की हुई) जिसकी ख़बर दी गयी थी कि नबी आखिरुज़्जमाँ ﷺ आयेंगे और उनको हम एक किताब देंगे। यह गोया हवाला है मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के बारे में पेशनगोईयों की तरफ कि जो तौरात में मौजूद थीं। आज भी “किताब मुक़द्दस” की किताबे इस्तसना (Deuteronomy) के अट्ठाहरवें बाब के अट्ठाहरवीं आयत के अन्दर यह अल्फ़ाज़ मौजूद हैं कि: “मैं इन (बनी इसराइल) के लिये इनके भाईयों (बनी इस्माईल) में से तेरी मानिन्द एक नबी बरपा करूँगा और अपना कलाम उसके मुँह में डालूँगा और जो कुछ मैं उसे हुक्म दूँगा वही वह उनसे कहेगा।” तो यह बाईबल में हज़रत मुहम्मद ﷺ की पेशनगोईयाँ थीं। आगे चल कर सूरतुल आराफ़ में हम इसे तफ़सील से पढ़ भी लेंगे। यहाँ इस बात की तरफ़ इशारा हो रहा है कि यही वह किताबे मौऊद है कि जो नाज़िल कर दी गयी है मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर। इसमें किसी शक व शुबह की गुन्जाईश नहीं है। इसमें हर शय अपनी जगह पर यक़ीनी है, हतमी है, अटल है, और यह दुनिया की वाहिद किताब है जो यह दावा लेकर उठी है कि इसमें कोई शक व शुबह नहीं। जो किताबें आसमानी कहलायी जाती हैं उनके अन्दर भी यह दावा कहीं मौजूद नहीं है, इन्सानी किताबों में तो इसका सवाल ही नहीं है। अल्लामा इक़बाल जैसे नाबगह अस्र (समकालीन प्रतिभाशाली) फ़लसफ़ी भी अपने लेक्चर्स की तम्हीद में लिखते है कि मैं यह नहीं कह सकता कि जो कुछ मैंने कहा है वह सब सही है, हो सकता है जैसे-जैसे इल्म आगे बढ़े मज़ीद नयी बातें सामने आयें। लेकिन क़ुरान का दावा है कि لَا رَيْبَ ٻ فِيْهِ ڔ “इसमें किसी शक व शुबह की गुंजाईश नहीं है।” पहले तर्जुमे की रू से “ذٰلِكَ الْكِتٰبُ” एक जुम्ला मुकम्मल हो गया और “لَا رَيْبَ ٻ فِيْهِ ڔ” दूसरा जुम्ला है। जबकि दूसरे तर्जुमे की रू से “ذٰلِكَ الْكِتٰبُ لَا رَيْبَ ٻ فِيْهِ ڔ” मुकम्मल जुम्ला है। यानि “यह वह किताब है जिसमें किसी शक व शुबह की गुंजाईश नहीं है।”
“हिदायत है परहेजगारों के लिये।” | ھُدًى لِّلْمُتَّقِيْنَ Ą |
यानि उन लोगों के लिये जो बचना चाहें। तक़वा का लफ्ज़ी मायना है बचना। “وَقٰی یَقِی” का मफ़हूम है “किसी को बचाना” जबकि तक़वा का मायना है खुद बचना। यानि कज रवी से बचना, गलत रवी से बचना और इफ़रात व तफ़रीत (inflation & deflation) के धोखों से बचना। जिन लोगों के अन्दर फ़ितरते सलीमा होती है उनके अन्दर यह अख्लाक़ी हिस्स (भावना) मौजूद होती है कि वह भलाई को हासिल करना चाहते हैं और हर बुरी चीज़ से बचना चाहते हैं। यहीं लोग हैं जो क़ुरान मजीद के असल मुख़ातिबीन (श्रोता) हैं। गोया जिसके अन्दर भी बचने की ख़्वाहिश है उसके लिये यह किताब हिदायत है। सूरतुल फ़ातिहा में हमारी फ़ितरत की तर्जुमानी की गयी थी और हमसे यह कहलवाया गया था: {اِھْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَـقِيْمَ} “(ऐ परवरदिगार!) हमें सीधे रास्ते की हिदायत बख़्श।” आयत ज़ेरे मुतआला गोया इसका जवाब है: {ذٰلِكَ الْكِتٰبُ لَا رَيْبَ ٻ فِيْهِ ڔ ھُدًى لِّلْمُتَّقِيْنَ} लो वह किताब मौजूद है कि जिसमें किसी शक व शुबह की गुंजाईश नहीं है और यह उन तमाम लोगों के लिये हिदायत के तक़ाज़ों के ऐतबार से किफ़ायत करती है जिनमें गलत रवी से बचने की ख़्वाहिश मौजूद है।
वह लोग कौन हैं? अब यहाँ देखिये तावीले खास का मामला आ जायेगा कि उस वक़्त रसूल अल्लाह ﷺ की तेरह बरस की मेहनत के नतीजे में मुहाजरीन व अन्सार की एक जमात वजूद में आ गयी थी, जिसमें हज़राते अबुबक्र, उमर, उस्मान, अली, तल्हा, ज़ुबैर, साद बिन उबादह और साद इब्ने मुआज़ (रज़िअल्लाहु अन्हुम) जैसे नफ़ूसे क़ुदसिया शामिल थे। तो गोया इशारा करके दिखाया जा रहा है कि देखो यह वो लोग हैं, देख लो इनमें क्या औसाफ़ (गुण) हैं।
आयत 3
“जो ईमान रखते हैं गैब पर” | الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِالْغَيْبِ |
यह मुत्तक़ीन के औसाफ़ में से पहला वसफ़ (गुण) है। वह यह नहीं समझते कि बस जो कुछ हमारी आँखों से नज़र आ रहा है, हवासे ख़म्सा (Five senses) की ज़द में है बस वही कुल हक़ीक़त है। नहीं! असल हक़ीक़त तो हमारे हवास की सरहदों से बहुत परे वाक़ेअ हुई है।
हिदायते क़ुरानी का नुक़्ता-ए-आगाज़ यह है कि इन्सान यह समझ ले कि जो असल हक़ीक़त है वह उसकी निगाहों से मुस्तविर (छुपी) है। इन्गलिस्तान के बहुत बड़े फ़लसफ़ी ब्रेडले (Bradley) की किताब का उन्वान है: “Appearance and Reality”। उसने लिखा है कि जो कुछ नज़र आ रहा है यह हक़ीक़त नहीं है, हक़ीक़त इसके पीछे है, कन्फ़यूसिस (551 से 479 ई०पू०) चीन का बहुत बड़ा हकीम और फ़लसफ़ी था, उसकी तालीमात में अख़्लाक़ी रंग बहुत नुमाया था। उसका एक जुम्ला है:
There is nothing more real than what can not be seen; and there is nothing more certain than what can not be heard.
यानि वह हक़ाइक़ जो आँखों से देखे नहीं जा सकते और कानों से सुने नहीं जा सकते उनसे ज़्यादा यक़ीनी और वाक़ई हक़ाइक़ कोई और नहीं हैं।
“और नमाज़ क़ायम करते हैं” | وَ يُـقِيْمُوْنَ الصَّلٰوةَ |
अल्लाह के साथ अपना एक ज़हनी व क़ल्बी और रूहानी रिश्ता इस्तवार (मज़बूत) करने के लिये नमाज़ क़ायम करते हैं।
“और जो कुछ हमनें उन्हें दिया है उसमें से खर्च करते हैं।” | وَ مِمَّا رَزَقْنٰھُمْ يُنْفِقُوْنَ Ǽۙ |
यानि ख़ैर में, भलाई में, नेकी में, लोगों की तकालीफ़ दूर करने में और अल्लाह के दीन की सरबुलन्दी के लिये, अल्लाह तआला की रज़ाजोई के लिये
अपना माल खर्च करते हैं।
आयत 4
“और जो ईमान रखते हैं उस पर भी जो (ऐ नबी ﷺ) आपकी तरफ़ नाज़िल किया गया है।” | وَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ |
“और उस पर भी (ईमान रखते हैं) जो आप (ﷺ) से पहले नाज़िल किया गया।” | وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ ۚ |
यह बहुत अहम अल्फ़ाज़ हैं। आम तौर पर आज कल हमारे यहाँ यह ख्याल फैला हुआ है कि साबक़ा आसमानी किताब तौरात और इन्जील वगैरह के पढ़ने का कोई फ़ायदा नहीं, इसकी कोई ज़रूरत नहीं। “कोई ज़रूरत नहीं” की हद तक तो शायद बात सही हो, लेकिन “कोई फ़ायदा नहीं” वाली बात बिल्कुल गलत है। देखिये क़ुरान के आगाज़ ही में किस क़दर अहतमाम के साथ कहा जा रहा है कि ईमान सिर्फ़ क़ुरान पर ही नहीं, उस पर भी ज़रूरी है जो इससे पहले नाज़िल किया गया। सूरतुन्निसा कोई छः हिजरी में जाकर नाज़िल हुई है, और इसकी आयत 136 के अल्फ़ाज़ मुलाहिज़ा कीजिये:
“ऐ लोगो जो ईमान लाये हो! ईमान लाओ अल्लाह पर और उसके रसूल पर और उस किताब पर जो अल्लाह ने अपने रसूल मुहम्मद ﷺ पर नाज़िल की है और हर उस किताब पर जो इससे पहले वह नाज़िल कर चुका है।” | يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اٰمِنُوْا بِاللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْ نَزَّلَ عَلٰي رَسُوْلِهٖ وَالْكِتٰبِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ مِنْ قَبْلُ |
चुनाँचे तौरात, इन्जील, ज़बूर और सुहूफ़े इब्राहीम (अलै०) पर इज्माली ईमान की अहमियत को अच्छी तरह समझ लीजिये। अलबत्ता चूँकि हम समझते हैं और मानते हैं कि इन किताबों में तहरीफ़ हो गयी है लिहाज़ा इन किताबों की कोई शय क़ुरान पर हुज्जत (प्रमाण) नहीं होगी। जो चीज़ क़ुरान से टकरायेगी हम उसको रद्द कर देंगे और इन किताबों की किसी शय को दलील के तौर पर नहीं लायेंगे। लेकिन जहाँ क़ुरान मजीद की किसी बात की नफी ना हो रही हो वहाँ इनसे इस्तफ़ादह (फ़ायदा) में कोई हर्ज नहीं। बहुत से हक़ाइक़ ऐसे हैं जो हमें इन किताबों ही से मिलते हैं। मसलन अम्बिया (अलै०) के दरमियान ज़मानी तरतीब (Chronological Order) हमें तौरात से मिलती है, जो क़ुरान में नहीं है। क़ुरान में कभी हज़रत नूह (अलै०) का ज़िक्र बाद में और हज़रत मूसा (अलै०) का पहले आ जाता है। यहाँ तो किसी और पहलु से तरतीब आती है, लेकिन तौरात में हमें हज़राते इब्राहीम, इसहाक़, याक़ूब, अम्बिया-ए-बनी इसराइल मूसा और ईसा (अला नबिय्यिना व अलैहिमुस्सलातु वस्सलाम) की तारीख मिलती है। इस ऐतबार से साबक़ा किताबे समाविया की अहमियत पेशे नज़र रहनी चाहिये।
“और आख़िरत पर वह यक़ीन रखते हैं।” | وَبِالْاٰخِرَةِ ھُمْ يُوْقِنُوْنَ Ćۭ |
यहाँ नोट करने वाली बात यह है कि बाक़ी सब चीज़ों के लिये तो लफ्ज़ ईमान आया है जबकि आख़िरत के लिये “ईक़ान” आया है। वाक़िया यह है कि इन्सान के अमल के ऐतबार से सबसे ज़्यादा मौअस्सर (प्रभावी) शय ईमान बिल आख़िरा है। अगर इन्सान को यह यक़ीन है कि आख़िरत की ज़िन्दगी में मुझे अल्लाह के हुज़ूर हाज़िर होकर अपने आमाल की जवाबदेही करनी है तो उसका अमल सही होगा। लेकिन अगर इस यक़ीन में कमी वाक़ेअ हो गयी तो तौहीद भी महज़ एक अक़ीदा (Dogma) बन कर रह जायेगी और ईमान बिल रिसालत भी बिदआत को जन्म देगा। फिर ईमान बिल रिसालत के मज़ाहिर यह रह जायेंगे कि बस ईद मिलादुन्नबी ﷺ मना लीजिये और नाते अशआर कह दीजिये, अल्लाह-अल्लाह खैर सल्ला। इन्सान का अमल तो आख़िरत के यक़ीन के साथ दुरुस्त होता है।
{وَبِالْاٰخِرَةِ ھُمْ يُوْقِنُوْنَ} के अल्फ़ाज़ में यह मफ़हूम भी है कि “आख़िरत पर उन्ही का यक़ीन है।” यहाँ गोया हश्र भी है। इस ऐतबार से कि यहूदी भी मुद्दई थे कि हम आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं। यहाँ तज़ाद (Contrast) दिखाया जा रहा है कि आख़िरत पर यक़ीन रखने वाले तो यह लोग हैं! तावीले खास के ऐतबार से यह कहा जायेगा कि यह लोग तुम्हारी निगाहों के सामने मौजूद हैं जो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की तेरह बरस की कमाई हैं। जो इन्क़लाबे नबवी ﷺ के असासी मिन्हाज (Basic round) यानि तिलावते आयात, तज़किया और तालीमे किताब व हिकमत का नतीजा हैं।
आयत 5
“यही वह लोग हैं जो अपने रब की तरफ़ से हिदायत पर हैं” | اُولٰۗىِٕكَ عَلٰي ھُدًى مِّنْ رَّبِّهِمْ ۤ |
वह इब्तदाई हिदायत भी उनके पास थी और इस तकमीली हिदायत यानि क़ुरान पर भी उनका पूरा यक़ीन है, और मुहम्मद ﷺ का इत्तेबाअ भी वह कर रहे हैं।
“और यही वह लोग हैं जो फ़लाह पाने वाले हैं।” | وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُفْلِحُوْنَ Ĉ |
“फ़लाह” का लफ्ज़ भी क़ुरान मजीद की बहुत अहम इस्तलाह (मुहावरा) है। इसका मायना है मंज़िले मुराद को पहुँच जाना, किसी बातिनी हक़ीक़त का अयां (उजागर) हो जाना। इस पर इन्शा अल्लाह सूरतुल मौमिनून के शुरू में गुफ्तुगू होगी। यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि फ़लाह पाने वाले, कामयाब होने वाले, मंजिले मुराद को पहुँचने वाले असल में यही लोग हैं। तावीले खास के ऐतबार से यह सहाबा किराम (रजि०) की तरफ़ इशारा हो गया, जबकि तावीले आम के ऐतबार से हर शख्स को बता दिया गया कि अगर क़ुरान की हिदायत से मुस्तफ़ीद (फ़ायदेमन्द) होना है तो यह औसाफ़ अपने अन्दर पैदा करो।
आयत 6
“यक़ीनन जिन लोगों ने कुफ़्र किया (यानि वह लोग जो कुफ़्र पर अड़ गये) उनके लिये बराबर है (ऐ मुहम्मद ﷺ) कि आप उन्हें इन्ज़ार फ़रमायें या ना फ़रमायें वह ईमान लाने वाले नहीं हैं।” | اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَوَاۗءٌ عَلَيْهِمْ ءَاَنْذَرْتَھُمْ اَمْ لَمْ تُنْذِرْھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ Č |
“اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا” से मुराद यहाँ वह लोग हैं जो अपने कुफ़्र पर अड़ गये। इसको हम तावीले आम में नहीं ले सकते। इसलिये कि इस सूरत में तो इसके मायने यह होंगे कि जिस शख़्स ने किसी भी वक़्त कुफ़्र किया अब वह हिदायत पर आ ही नहीं सकता! यहाँ यह बात मुराद नहीं है। अगर कोई शख़्स किसी मुगालते की बिना पर या अदमे तौजीही (अनदेखी) की बिना पर कुफ़्र में है, हक़ उस पर वाज़ेह नहीं हुआ है तो इन्ज़ार व तब्शीर से उसे फ़ायदा हो जायेगा। आप उसे वाज़ व नसीहत करें तो वह उसका असर क़ुबूल कर लेगा। लेकिन जो लोग हक़ को हक़ समझने और पहचानने के बावजूद महज़ ज़िद, हठधर्मी और तास्सुब की वजह से या तकब्बुर और हसद की वजह से कुफ़्र पर अड़े रहे तो उनकी किस्मत में हिदायत नहीं है। ऐसे लोगों का मामला यह है कि ऐ नबी (ﷺ)! उनके लिये बराबर है ख्वाह आप (ﷺ) उन्हें समझायें या ना समझायें, ड़रायें या ना ड़रायें, इन्ज़ार फ़रमायें या ना फ़रमायें वह ईमान लाने वाले नहीं हैं। इसलिये कि सोते को तो जगाया जा सकता है, जागते को आप कैसे जगाऐंगे? यह गोया कि मक्का के सरदारों की तरफ इशारा हो रहा है कि उनके दिल और दिमाग़ गवाही दे चुके हैं कि मुहम्मद (ﷺ) अल्लाह के रसूल हैं और क़ुरान उन पर इत्मामे हुज्जत कर चुका है और वह मान चुके हैं कि क़ुरान का मुक़ाबला हम नहीं कर सकते, यह मुहम्मद (ﷺ) का मुकम्मल मौज्जज़ा है, इसके बावजूद वह ईमान नहीं लाये।
आयत 7
“अल्लाह ने मोहर कर दी है उनके दिलों पर और उनके कानों पर।” | خَتَمَ اللّٰهُ عَلٰي قُلُوْبِهِمْ وَعَلٰي سَمْعِهِمْ ۭ |
ऐसा क्यों हुआ? उनके दिलों पर और उनके कानों पर मोहर इब्तदा ही में नहीं लगा दी गयी, बल्कि जब उन्होंने हक़ को पहचानने के बाद रद्द कर दिया तो इसकी पादाश (इल्ज़ाम) में अल्लाह तआला ने उनके दिलों पर मोहर कर दी और उनकी समाअत पर भी।
“और उनकी आँखों के सामने परदा पड़ चुका है।” | وَعَلٰٓي اَبْصَارِهِمْ غِشَاوَةٌ |
यह मज़मून सूरह यासीन के शुरु में बहुत शरहो-बस्त (ज़्यादा विस्तार) के साथ दोबारा आयेगा।
“और उनके लिये बहुत बड़ा अज़ाब है।” | وَّلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ Ċۧ |
यह दूसरे गिरोह का तज़किरा हो गया। एक रुकूअ (कुल सात आयात) में दो गिरोहों का ज़िक्र समेट लिया गया। एक वह गिरोह जिसने क़ुरान करीम की दावत से सही-सही इस्तफ़ादह किया, उनमें तलबे हिदायत का माद्दा मौजूद था, उनकी फ़ितरतें सलीम थीं, उनके सामने दावत आयी तो उन्होंने क़ुबूल की और क़ुरान के बताये हुए रास्ते पर चले। वह गुलिस्ताने मुहम्मदी ﷺ के गुले सरसब्द हैं। वह शजरा-ए-क़ुरानी के निहायत मुबारक और मुक़द्दस फल हैं। दूसरा गिरोह वह है जिसने हक़ को पहचान भी लिया, लेकिन अपने तास्सुब या हठधर्मी की वजह से उसको रद्द कर दिया। उनका ज़िक्र भी बहुत इख्तसार (संक्षिप्ता) के साथ आ गया। उनका तफ़सीली ज़िक्र आपको मक्की सूरतों में मिलेगा। अब आगे तीसरे गिरोह का ज़िक्र आ रहा है।
आयात 8 से 20 तक
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَبِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَمَا ھُمْ بِمُؤْمِنِيْنَ Ďۘ يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۚ وَمَا يَخْدَعُوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ Ḍۭ فِىْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ ۙ فَزَادَھُمُ اللّٰهُ مَرَضًا ۚ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌۢ ڏ بِمَا كَانُوْا يَكْذِبُوْنَ 10 وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ لَا تُفْسِدُوْا فِى الْاَ رْضِ ۙ قَالُوْٓا اِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُوْنَ 11 اَلَآ اِنَّھُمْ ھُمُ الْمُفْسِدُوْنَ وَلٰكِنْ لَّا يَشْعُرُوْنَ 12 وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ اٰمِنُوْا كَمَآ اٰمَنَ النَّاسُ قَالُوْٓا اَنُؤْمِنُ كَمَآ اٰمَنَ السُّفَهَاۗءُ ۭ اَلَآ اِنَّھُمْ ھُمُ السُّفَهَاۗءُ وَلٰكِنْ لَّا يَعْلَمُوْنَ 13 وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا ښ وَاِذَا خَلَوْا اِلٰى شَيٰطِيْنِهِمْ ۙ قَالُوْٓا اِنَّا مَعَكُمْ ۙ اِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَهْزِءُوْنَ 14 اَللّٰهُ يَسْتَهْزِئُ بِهِمْ وَيَمُدُّھُمْ فِىْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَھُوْنَ 15 اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَةَ بِالْهُدٰى ۠ فَمَا رَبِحَتْ تِّجَارَتُھُمْ وَمَا كَانُوْا مُهْتَدِيْنَ 16 مَثَلُھُمْ كَمَثَلِ الَّذِى اسْـتَوْقَدَ نَارًا ۚ فَلَمَّآ اَضَاۗءَتْ مَا حَوْلَهٗ ذَھَبَ اللّٰهُ بِنُوْرِهِمْ وَتَرَكَھُمْ فِىْ ظُلُمٰتٍ لَّا يُبْصِرُوْنَ 17 ۻ بُكْمٌ عُمْىٌ فَھُمْ لَا يَرْجِعُوْنَ 18ۙ اَوْ كَصَيِّبٍ مِّنَ السَّمَاۗءِ فِيْهِ ظُلُمٰتٌ وَّرَعْدٌ وَّبَرْقٌ ۚ يَجْعَلُوْنَ اَصَابِعَھُمْ فِىْٓ اٰذَانِهِمْ مِّنَ الصَّوَاعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِ ۭ وَاللّٰهُ مُحِيْطٌۢ بِالْكٰفِرِيْنَ 19 يَكَادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ اَبْصَارَھُمْ ۭ كُلَّمَآ اَضَاۗءَ لَھُمْ مَّشَوْا فِيْهِ ڎ وَاِذَآ اَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قَامُوْا ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَذَھَبَ بِسَمْعِهِمْ وَاَبْصَارِهِمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَىْءٍ قَدِيْرٌ 20ۧ
आयत 8
“और लोगों मे से कुछ ऐसे भी हैं जो कहते तो यह हैं कि हम ईमान रखते हैं अल्लाह पर भी और यौमे आख़िर पर भी, मगर वह हक़ीक़त में मोमिन नहीं हैं।” | وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَبِالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَمَا ھُمْ بِمُؤْمِنِيْنَ Ďۘ |
यहाँ एक बात समझ लीजिये! अक्सर व बेशतर मुफ़स्सिरीन ने इस तीसरी क़िस्म (Category) के बारे में यही राय क़ायम की है कि यह मुनाफ़िक़ीन का तज़किरा है, अगरचे यहाँ लफ्ज़ मुनाफ़िक़ या लफ्ज़े निफ़ाक़ नहीं आया। लेकिन मौलाना अमीन अहसन इस्लाही साहब ने इसके बारे में एक राय ज़ाहिर की है जो बड़ी क़ीमती है। उनका कहना है कि यहाँ एक किरदार का नक़्शा खींच दिया गया है, ग़ौर करने वाले ग़ौर कर लें, देख लें कि वह किस पर चस्पा हो रहा है। और जब यह आयात नाज़िल हो रही थीं तो इनमें शख्सियात की किरदार निगारी का यह जो नक़्शा खींचा जा रहा है यह बिलफ़अल दो तबक़ात के ऊपर रास्त (सही) आ रहा था। एक तबक़ा उलमाये यहूद का था। वह भी कहते थे कि हम भी अल्लाह को मानते हैं, आख़िरत को भी मानते हैं। (इसीलिये यहाँ रिसालत का ज़िक्र नहीं है।) वह कहते थे कि अगर सवा लाख नबी आये हैं तो उन सवा लाख को तो हम मानते हैं, बस एक मुहम्मद (ﷺ) को हमने नहीं माना और एक ईसा (अलै०) को नहीं माना, तो हमें भी तस्लीम किया जाना चाहिये कि हम मुस्लमान हैं। और वाक़िया यह है कि यहाँ जिस अन्दाज़ में तज़किरा हो रहा है इससे उनका किरदार भी झलक रहा है और रुए सुखन भी उनकी तरफ़ जा रहा है। मुझे याद है दसवीं जमात के ज़माने में देल्ही में मैंने जूतों की एक दुकान पर देखा था कि एक बहुत बड़ा जूता लटकाया हुआ था और साथ लिखा था: Free to whom it fits यानि जिसके पाँव में यह ठीक-ठीक आ जाये वह इसे मुफ्त ले जाये! तो यहाँ भी एक किरदार का नक़्शा खींच दिया गया है। अब यह किरदार जिसके ऊपर भी फिट बैठ जाये वह इसका मिस्दाक़ (applicable) शुमार होगा।
जैसा कि मैंने अर्ज़ किया, ज़्यादातर मुफ़स्सिरीन की राय तो यही है कि यह मुनाफ़िक़ीन का तज़किरा है। लेकिन यह किरदार बैनहीं (इसी तरह) यहूद के उलमा पर भी मुन्तबिक़ (लागू) हो रहा है। यहाँ यह बात भी नोट कर लीजिये कि मदीना मुनव्वरा में निफ़ाक़ का पौदा, बल्कि सहीतर अल्फ़ाज़ में निफ़ाक़ का झाड़-झन्काड़ जो परवान चढ़ा है वह यहूदी उलमा के जे़रे असर परवान चढ़ा है। जैसे जंगल के अन्दर बड़े-बड़े दरख्त भी होते हैं और उनके नीचे झाड़ियाँ भी होती हैं। तो यह निफ़ाक़ का झाड़-झन्काड़ दरअसल यहूदी उलमा का जो बहुत बड़ा पौदा था उसके साये में परवान चढ़ा है और इन दोनों में मानवी रब्त (हू-ब-हू सम्पर्क) भी मौजूद है।
आयत 9
“वह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं अल्लाह को और अहले ईमान को।” | يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۚ |
یُخٰدِعُوْنَ बाब मुफ़ाअला है। इस बाब का खास्सा है कि इसमें एक कशमकश और कशाकश मौजूद होती है। लिहाज़ा मैंने इसका तर्जुमा किया: “वह धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं।”
“और नहीं धोखा दे रहे मगर सिर्फ़ अपने आप को।” | وَمَا يَخْدَعُوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ |
यह बात यक़ीनी है कि अपने आप को तो धोखा दे रहे हैं, लेकिन यह अल्लाह, उसके रसूल ﷺ को और अहले ईमान को धोखा नहीं दे सकते। सूरतुन्निसा की आयत 142 में मुनाफ़िक़ीन के बारे में यही बात बड़े वाज़ेह अन्दाज़ में बाअल्फाज़ आयी है: {اِنَّ الْمُنٰفِقِيْنَ يُخٰدِعُوْنَ اللّٰهَ وَھُوَ خَادِعُھُمْ ۚ} “यक़ीनन मुनाफ़िक़ीन अल्लाह को धोखा देने की कोशिश कर रहे हैं, हालाँकि अल्लाह ही उन्हें धोखे में ड़ालने वाला है।”
“और उन्हें इसका शऊर नहीं है।” | وَمَا يَشْعُرُوْنَ Ḍۭ |
यह बात बहुत अच्छी तरह नोट कर लीजिये कि मुनाफ़िक़ीन की भी अक्सरियत वह थी जिन्हें अपने निफ़ाक़ का शऊर नहीं था। वह अपने तै खुद को मुस्लमान समझते थे। वह मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के बारे में कहते थे कि इन्होंने ख्वाह माख्वाह अहले मक्का के साथ लड़ाई मोल ले ली है, इसकी क्या ज़रूरत है? हमें अमन के साथ रहना चाहिये और अमन व आश्ती (सुलह) के माहौल में उनसे बात करनी चाहिये। वह समझते थे कि हम खैर ख्वाह हैं, हम भली बात कह रहे हैं, जबकि यह बेवकूफ लोग हैं। देखते नहीं कि किससे टकरा रहे हैं! हाथ में अस्लाह नहीं है और लड़ाई के लिये जा रहे हैं। चुनाँचे यह तो बेवकूफ हैं। अपने बारे में वह समझते थे कि हम तो बड़े मुख्लिस हैं। जान लीजिये कि मुनाफ़िक़ीन में यक़ीनन बाज़ लोग ऐेसे भी थे कि जो इस्लाम में दाखिल ही धोखा देने की ख़ातिर होते थे और उन पर पहले दिन से यह वाज़ेह होता था कि हम मुस्लमान नहीं हैं, हमने मुस्लमानों को धोखा देने के लिये इस्लाम का महज़ लिबादा ओढ़ा है। ऐसे मुनाफ़िक़ीन का ज़िक्र सूरह आले इमरान की आयत 72 में आयेगा। लेकिन अक्सर व बेशतर मुनाफ़िक़ीन दूसरी तरह के थे, जिन्हें अपने निफ़ाक़ का शऊर हासिल नहीं था।
आयत 10
“उनके दिलों में एक रोग है।” | فِىْ قُلُوْبِهِمْ مَّرَضٌ ۙ |
यह रोग और बीमारी क्या है? एक लफ्ज़ में इसको “किरदार की कमज़ोरी” (weakness of character) से ताबीर किया जा सकता है। एक शख़्स वह होता है जो हक़ को हक़ समझ कर क़ुबूल कर लेता है और फिर “हरचे बादाबाद” (जो हो सो हो) की कैफ़ियत के साथ उसकी खातिर अपना सब कुछ क़ुर्बान कर देने को तैयार हो जाता है। दूसरा शख्स वह है जो हक़ को पहचान लेने के बावजूद रद्द कर देता है। उसे “काफ़िर” कहा जाता है। जबकि एक शख्स वह भी है जो हक़ को हक़ पहचान कर आया तो सही, लेकिन किरदार की कमज़ोरी की वजह से उसकी क़ुव्वते इरादी कमज़ोर है। ऐसे लोग आख़िरत भी चाहते हैं लेकिन दुनिया भी हाथ से देने के लिये तैयार नहीं। वह चाहते हैं कि यहाँ का भी कोई नुक़सान ना हो और आख़िरत का भी सारा भला हमें मिल जाये। दर हक़ीक़त यह वो लोग हैं कि जिनके बारे में कहा गया
कि इनके दिलों में एक रोग है।
“तो अल्लाह ने उनके रोग में इज़ाफ़ा कर दिया।” | فَزَادَھُمُ اللّٰهُ مَرَضًا ۚ |
यह अल्लाह की सुन्नत है। आप हक़ पर चलना चाहें तो अल्लाह तआला हक़ का रास्ता आप पर आसान कर देगा, लेकिन अगर आप बुराई की तरफ़ जाना चाहें तो बड़ी से बड़ी बुराई आपके लिये हल्की होती चली जायेगी। आप ख्याल करेंगे कि कोई ख़ास बात नहीं, जब यह कर लिया तो अब यह भी कर गुज़रु। और अगर कोई बैन-बैन (बीच में) लटकना चाहे तो अल्लाह उसको उसी राह पर छोड़ देता है। ठीक है, वह समझते हैं हम कामयाब हो रहे हैं कि हमने मुस्लमानों को भी धोखा दे लिया, वह हमें मुस्लमान समझते हैं और यहूदियों को भी धोखा दे लिया, वह समझते हैं कि हम उनके साथी हैं। तो उनका यह समझना कि हम कामयाब हो रहे हैं, बिल्कुल गलत है। हक़ीक़त में यह कामयाबी नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला ने वह तबाहकुन रास्ता उनके लिये आसान कर दिया है जो उन्होंने खुद मुन्तख़ब किया (चुना) था। उनके दिलों में जो रोग मौजूद था अल्लाह ने उसमें इज़ाफ़ा फ़रमा दिया।
“और उनके लिये तो दर्दनाक अज़ाब है। | وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌۢ ڏ |
ऊपर कुफ्फ़ार के लिये अल्फ़ाज़ आये थे: {وَّلَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ} और यहाँ عَذَابٌ اَلِيْمٌۢ ڏ का लफ्ज़ आया है कि उनके लिये दर्दनाक और अलमनाक अज़ाब है।
“ब-सबब उस झूठ के जो वह बोल रहे थे।” | بِمَا كَانُوْا يَكْذِبُوْنَ 10 |
आयत 11
“और जब उनसे कहा जाता है कि मत फ़साद करो ज़मीन में” | وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ لَا تُفْسِدُوْا فِى الْاَ رْضِ ۙ |
इससे मुराद यह है कि जब तुमने मुहम्मद ﷺ को अल्लाह का रसूल मान लिया तो अब उनकी ठीक-ठीक पैरवी करो, उन (ﷺ) के पीछे चलो। उन (ﷺ) का हुक्म है तो जंग के लिये निकलो। उन (ﷺ) की तरफ़ से तक़ाज़ा आता है तो माल पेश करो। और अगर तुम इससे कतराते हो तो फिर जमाती ज़िन्दगी के अन्दर फ़ितना व फ़साद फैला रहे हो।
“वह कहते हैं हम तो इस्लाह करने वाले हैं।” | قَالُوْٓا اِنَّمَا نَحْنُ مُصْلِحُوْنَ 11 |
हम तो सुलह कराने वाले हैं। हमारी नज़र में यह लड़ना-भिड़ना कोई अच्छी बात नहीं है, टकराव और तसादुम कोई अच्छे काम थोड़े ही हैं। बस लोगों को ठंडे-ठंडे दावत देते रहो, जो चाहे क़ुबूल कर ले और जो चाहे रद्द कर दे। यह ख्वाह माख्वाह दुश्मन से टकराना और जंग करना किस लिये? और अल्लाह के दीन को ग़ालिब करने के लिये क़ुर्बानियाँ देने, मुसीबतें झेलने और मशक़्क़तें बर्दाश्त करने के मुतालबे काहे के लिये?
आयत 12
“आगाह हो जाओ कि हक़ीक़त में यही लोग मुफ्सिद हैं, मगर इन्हें शऊर नहीं है।” | اَلَآ اِنَّھُمْ ھُمُ الْمُفْسِدُوْنَ وَلٰكِنْ لَّا يَشْعُرُوْنَ 12 |
यही तो हैं जो फ़साद फैलाने वाले हैं। इसलिये कि मुहम्मद ﷺ की दावत तो ज़मीन में इस्लाह के लिये है। इस इस्लाह के लिये कुछ ऑपरेशन करना पड़ेगा। इसलिये कि मरीज़ इस दर्जे को पहुँच चुका है कि ऑपरेशन के बग़ैर उसकी शिफ़ा मुमकिन नहीं है। अब अगर तुम इस ऑपरेशन के रास्ते में रुकावट बनते हो तो दर हक़ीक़त तुम फ़साद मचा रहे हो, लेकिन तुम्हें इसका शऊर नहीं। आयत के आख़री अल्फ़ाज़ { وَلٰكِنْ لَّا يَشْعُرُوْنَ } से यह बात वाज़ेह हो रही है कि शऊरी निफ़ाक़ और शय है, जबकि यहाँ सारा तज़किरा गैर शऊरी निफ़ाक़ का हो रहा है।
आयत 13
“और जब उनसे कहा जाता है कि ईमान लाओ, जिस तरह दूसरे लोग ईमान लाये हैं” | وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ اٰمِنُوْا كَمَآ اٰمَنَ النَّاسُ |
आख़िर देखो, यह दूसरे अहले ईमान हैं, जब बुलावा आता है तो फ़ौरन लब्बैक कहते हुए हाज़िर होते हैं, जबकि तुमने और ही रविश (तरीक़ा) इख्तियार कर रखी है।
“वह कहते हैं क्या हम ईमान लायें जैसे यह बेवकूफ़ लोग ईमान लाये हैं?” | قَالُوْٓا اَنُؤْمِنُ كَمَآ اٰمَنَ السُّفَهَاۗءُ ۭ |
मुनाफ़िक़ीन सच्चे अहले ईमान के बारे में कहते थे कि इन्हें तो अपने नफ़े की फ़िक्र है ना नुक़सान की, ना खतरात का कोई ख्याल है ना अन्देशों का कोई गुमान। जान, माल और औलाद की कोई परवाह नहीं। यह घरबार को छोड़ कर आ गये हैं, अपने बाल-बच्चे कुफ्फ़ारे मक्का के रहमो करम पर छोड़ आये हैं कि सरदाराने क़ुरैश उनके साथ जो चाहे सुलूक करें, तो यह तो बेवकूफ़ लोग हैं। (आज-कल आप ऐसे लोगों को fanatics कहते हैं) भई देख-भाल कर चलना चाहिये, दायें-बायें देख कर चलना चाहिये। अपने नफ़ा-नुक़सान का ख्याल करके चलना चाहिये। ठीक है, इस्लाम दीने हक़ है, लेकिन बहरहाल अपनी और अपने अहलो अयाल की मसलहतों (स्वार्थों) को भी देखना चाहिये। यह लोग तो मालूम होता है बिल्कुल दीवाने और fanatics हो गये हैं।
“आगाह हो जाओ कि वही बेवकूफ़ हैं, लेकिन उन्हें इल्म नहीं।” | اَلَآ اِنَّھُمْ ھُمُ السُّفَهَاۗءُ وَلٰكِنْ لَّا يَعْلَمُوْنَ 13 |
वह सादिक़ुल ईमान जो ईमान के हर तक़ाजे़ को पूरा करने के लिये हर वक़्त हाज़िर हैं, उनसे बड़ा अक़्लमन्द और उनसे बड़ा समझदार कोई नहीं। उन्होंने यह जान लिया है कि असल ज़िंदगी आख़िरत की ज़िंदगी है, यह ज़िंदगी तो आरज़ी है, तो अगर कल के बजाये आज ख़त्म हो जाये या अभी ख़त्म हो जाये तो क्या फर्क़ पडेगा? यहाँ से जाना तो है, आज नहीं तो कल, कल नहीं तो परसो, जाना तो है। तो अक़्ल तो उनके अन्दर है।
आयत 14
“और जब यह अहले ईमान से मिलते हैं तो कहते हैं हम भी ईमान रखते हैं।” | وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا ښ |
आम यहूदी भी कहते थे कि हम भी तो आख़िर अल्लाह को और आख़िरत को मानते हैं, जबकि मुनाफ़िक़ तो रसूल ﷺ को भी मानते थे।
“और जब यह ख़लवत (अकेले) में होते हैं अपने शैतानों के पास” | وَاِذَا خَلَوْا اِلٰى شَيٰطِيْنِهِمْ ۙ |
यहाँ “श्यातीन” से मुराद यहूद के उलमा भी हो सकते हैं और मुनाफ़िक़ीन के सरदार भी। अब्दुल्लाह बिन उबई मुनाफ़िक़ीने मदीना का सरदार था। अगर वह कभी उन्हें मलामत करता कि मालूम होता है तुम तो बिल्कुल पूरी तरह से मुस्लमानों में शामिल ही हो गये हो, तुम्हें क्या हो गया है तुम मुहम्मद (ﷺ) की हर बात मान रहे हो, तो अब उन्हें अपनी वफ़ादारी का यक़ीन दिलाने के लिये कहना पड़ता था कि नहीं नहीं, हम तो मुस्लमानों को बेवकूफ़ बना रहे हैं, हम उनसे ज़रा तमस्खुर (मज़ाक) कर रहें हैं, हम आप ही के साथ हैं, आप फिक्र ना करें। मुनाफ़िक़ तो होता ही दो रुखा है। “نفق” कहते हैं सुरंग को, जिसके दो रास्ते होते हैं। “نافقاء” गोह (रेगिस्तान में पाया जाने वाला छिपकली जैसा एक जीव) के बिल को कहा जाता है। गोह अपने बिल के दो मुँह रखता है कि अगर कुत्ता शिकार के लिये एक तरफ़ से दाखिल हो जाये तो वह दूसरी तरफ़ से निकल भागे। तो मुनाफ़िक़ भी ऐसा शख़्स है जिसके दो रुख़ होते हैं। सूरतुन्निसा में मुनाफ़िक़ीन के बारे में कहा गया है: (आयत:143) { مُّذَبْذَبِيْنَ بَيْنَ ذٰلِكَ ڰ لَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ وَلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ} यानि कुफ़्र व ईमान के दरमियान डाँवाडोल हैं, मुज़बज़ब होकर रह गये हैं। ना इधर के हैं ना उधर के हैं।
लफ्ज़ “शैतान” के बारे में दो राय हैं। एक यह कि इसका माद्दा “ش ط ن” है और दूसरी यह कि यह “ش و ط” माद्दे से है। شَطَنَ के मायने हैं تَبَعَّدَ यानि बहुत दूर हो गया। पस शैतान से मुराद है जो अल्लाह की रहमत से बहुत दूर हो गया। जबकि شَاطَ یَشُوْطُ के मायने हैं اِحْتَرَقَ غَضَبًا وَ حَسَدًاयानि कोई शख़्स गुस्से और हसद के अन्दर जल उठा। इससे فَعْلَان के वज़न पर “شَیطان” है, यानि वह जो हसद और ग़ज़ब की आग में जल रहा है। चुनाँचे एक तो शैतान वह है जो जिन्नात में से है, जिसका नाम पहले “अज़ाज़ील” था, अब हम उसे इब्लीस के नाम से जानते हैं। फिर यह कि दुनिया में जो भी उसके पैरोकार हैं और उसके मिशन में शरीकेकार हैं, ख़्वाह इन्सानों में से हों या जिन्नों में से, वह भी श्यातीन हैं। इसी तरह अहले कुफ़्र और अहले ज़ैग के जो बडे़-बडे़ सरदार होते हैं उनको भी श्यातीन से ताबीर किया गया। आयत ज़ेरे मुतआला में श्यातीन से यही सदरार मुराद हैं।
“कहते हैं कि हम तो आपके साथ हैं और उन लोगों से तो महज़ मज़ाक कर रहे हैं।” | قَالُوْٓا اِنَّا مَعَكُمْ ۙ اِنَّمَا نَحْنُ مُسْتَهْزِءُوْنَ 14 |
जब वह अलैहदगी में अपने शैतानों यानि सरदारों से मिलते हैं तो उनसे कहते हैं कि असल में तो हम आपके साथ हैं, उन मुस्लमानों को तो हम बेवकूफ़ बना रहे हैं, उनसे इस्तेहज़ा और तमस्खुर (हँसी-मज़ाक) कर रहें हैं जो उनके सामने “आमन्ना” कह देते हैं कि हम भी आपके साथ हैं।
आयत 15
“दर हक़ीक़त अल्लाह उनका मज़ाक उड़ा रहा है और उनको उनकी सरकशी में ढ़ील दे रहा है कि वह अपने अक़्ल के अन्धेपन में बढ़ते चले जायें।” | اَللّٰهُ يَسْتَهْزِئُ بِهِمْ وَيَمُدُّھُمْ فِىْ طُغْيَانِهِمْ يَعْمَھُوْنَ 15 |
अल्लाह तआला शरकशों की रस्सी दराज़ करता है। कोई शख़्स शरकशी के रास्ते पर चल पड़े तो अल्लाह तआला उसे फ़ौरन नहीं पकड़ता, बल्कि उसे ढ़ील देता है कि चलते जाओ जहाँ तक जाना चाहते हो। तो इनकी भी अल्लाह तआला रस्सी दराज़ कर रहा है, लेकिन यह समझते हैं कि हम मुस्लमानों का मज़ाक उड़ा रहे हैं। असल में मज़ाक तो अल्लाह के नज़दीक उनका उड़ रहा है।
लफ्ज़ “يَعْمَھُوْنَ” अक़्ल के अन्धेपन के लिये आया है। इसका माद्दा “ع م ﮬ” है। आगे आयत 18 में लफ्ज़ “عُمْیٌ” आ रहा है जो “ع م ی” से है। इन दोनों में फर्क़ यह है कि “عَمِہَ یَعْمَہُ” बसीरत से महरूमी के लिये आता है और “عَمِیَ یَعْمٰی” बसारत से महरूमी के लिये।
आयत 16
“यह वह लोग हैं कि जिन्होंने हिदायत के एवज़ (बदले) गुमराही खरीद ली है।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَةَ بِالْهُدٰى ۠ |
यह बड़ा प्यारा अन्दाज़े बयान है। इनके सामने दोनों options थे। एक शख़्स ने गुमराही को छोड़ा और हिदायत ले ली। उसे इसकी भारी कीमत देना पड़ी। उसे तक़लीफें उठानी पड़ीं, आज़माइशों में से गुज़रना पड़ा, क़ुरबानियाँ देनी पड़ीं। उसने यह सब कुछ मन्ज़ूर किया और हिदायत ले ली। जबकि एक शख़्स ने हिदायत देकर गुमराही ले ली। आसानी तो हो गई, फ़ौरी तकलीफ से तो बच गये, दोनों तरफ से अपने मफ़ादात को बचा लिया, लेकिन हक़ीक़त में सबसे ज़्यादा घाटे का सौदा यही है।
“सो नफ़ा ना हुई उनकी तिजारत उनके हक़ में और ना हुऐ राह पाने वाले।” | فَمَا رَبِحَتْ تِّجَارَتُھُمْ وَمَا كَانُوْا مُهْتَدِيْنَ 16 |
“رَبِحَ یَرْبَحُ” के मायने हैं तिजारत वगैरह में नफ़ा उठाना, जो एक सही और जायज़ नफ़ा है, जबकि “ر ب و” माद्दे से رَبَا یَرْبُوْ के मायने भी माल में इज़ाफा और बढोत्तरी के हैं, लेकिन वह हराम है। तिजारत के अन्दर जो नफ़ा हो जाये वह “رِبح” है, जो जायज़ नफ़ा है और अपना माल किसी को क़र्ज़ देकर उससे सूद वसूल करना “رِبا” है जो हराम है।
अब यहाँ दो बड़ी प्यारी तमसीलें (उदाहरण) आ रही हैं। पहली तमसील कुफ्फ़ार के बारे में और दूसरी तमसील मुनाफ़िक़ीन के बारे में।
आयत 17
“उनकी मिसाल ऐसी है जैसे एक शख़्स ने आग रोशन की।” | مَثَلُھُمْ كَمَثَلِ الَّذِى اسْـتَوْقَدَ نَارًا ۚ |
“फिर जब उस आग ने सारे माहौल को रोशन कर दिया” | فَلَمَّآ اَضَاۗءَتْ مَا حَوْلَهٗ |
“तो अल्लाह ने उनका नूरे बसारत सल्ब कर (छीन) लिया” | ذَھَبَ اللّٰهُ بِنُوْرِهِمْ |
“और छोड़ दिया उनको अन्धेरों के अन्दर कि वह कुछ नहीं देखते।” | وَتَرَكَھُمْ فِىْ ظُلُمٰتٍ لَّا يُبْصِرُوْنَ 17 |
यहाँ एक शबे तारीक का नक़्शा खींचा जा रहा है। अल्लामा इक़बाल के अल्फाज़ में:
अन्धेरी शब है जुदा अपने काफ़िले से है तू
तेरे लिये है मेरा शौला-ए-नवा कन्दील!
अन्धेरी शब है। काफ़िला भटक रहा है। कुछ लोग बड़ी हिम्मत करते हैं कि अन्धेरे में भी इधर-उधर से लकड़ियाँ जमा करते हैं और आग रोशन कर देते हैं। लेकिन ऐन उस वक़्त जब आग रोशन होती है तो कुछ लोगों की बीनाई सल्ब हो जाती है। पहले वह अन्धेरे में इसलिये थे कि खारिज में रोशनी नहीं थी। अब भी वह अन्धेरे ही में रह गये कि खारिज में तो रोशनी आ गई मगर उनके अन्दर की रोशनी गुल हो गई, उनकी बसारत सल्ब हो गई। यह मिसाल है उन कुफ्फ़ार की जो इस्लाम की रोशनी फैलने के बावजूद उससे महरूम (वंचित) रहे, मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की आमद से पहले हर सू (दिशा) तारीकी छाई हुई थी। कोई हक़ीक़त वाज़ेह नहीं थी। काफ़िला-ए-इन्सानियत अन्धेरी शब में भटक रहा था। मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ तशरीफ़ लाये और उन्होंने आग रोशन कर दी। इस तरह हिदायत वाज़ेह हो गयी। लेकिन कुछ ज़िद, तास्सुब, तकब्बुर या हसद की बुनियाद पर कुछ लोगों की अन्दर की बीनाई (नज़र) ज़ाइल (दूर) हो गयी। चुनाँचे वह तो वैसे के वैसे भटक रहे हैं। जैसे पहले अन्धेरे में थे वैसे ही अब भी अन्धेरे में हैं। रोशनी में आने वाले तो वह है जिनका ज़िक्र सबसे पहले “अल-मुत्ताक़ीन” के नाम से हुआ।
आयत 18
“यह बहरे हैं, गूँगे हैं, अन्धे हैं, सो अब यह नहीं लौटेंगे।” | ۻ بُكْمٌ عُمْىٌ فَھُمْ لَا يَرْجِعُوْنَ 18ۙ |
اَصَمُّ बहरे को कहते हैं, صُمٌّ इसकी जमा है, اَبْکَمُ गूँगे को कहा जाता है, بُکْمٌ इसकी जमा है। اَعْمٰی अन्धे को कहते हैं, عُمْیٌ इसकी जमा है। फ़रमाया कि यह बहरे हैं, गूँगे हैं, अन्धे हैं, अब यह लौटने वाले नहीं हैं। यह कौन हैं? अबु-जहल, अबु-लहब, वलीद बिन मुगीरा और उक़बा इब्ने अबी मुईत सबके सब अभी ज़िन्दा थे जब यह आयात नाज़िल हो रही थीं। यह सब तो ग़ज़वा-ए-बद्र में वासिले जहन्नम हुए जो सन 2 हिजरी में हुआ। तो यह लोग इस मिसाल का मिस्दाक़े कामिल थे। आगे अब दूसरी मिसाल बयान की जा रही है।
आयत 19
“या उनकी मिसाल ऐसी है जैसे बड़े ज़ोर की बारिश बरस रही है आसमान से, उसमें अन्धेरे भी हैं और गरज और बिजली (की चमक) भी।” | اَوْ كَصَيِّبٍ مِّنَ السَّمَاۗءِ فِيْهِ ظُلُمٰتٌ وَّرَعْدٌ وَّبَرْقٌ ۚ |
“यह अपनी उँगलियाँ अपने कानों के अन्दर ठूस लेते हैं मारे कड़क के, मौत के ड़र से।” | يَجْعَلُوْنَ اَصَابِعَھُمْ فِىْٓ اٰذَانِهِمْ مِّنَ الصَّوَاعِقِ حَذَرَ الْمَوْتِ ۭ |
यानि इस हैबतनाक कड़क से कहीं उनकी जानें ना निकल जायें।
“और अल्लाह ऐसे काफ़िरों का इहाता (cover) किये हुऐ है।” | وَاللّٰهُ مُحِيْطٌۢ بِالْكٰفِرِيْنَ 19 |
वह इन मुन्करीने हक़ को हर तरफ़ से घेरे में लिये हुए है, यह बच कर कहाँ जायेंगे।
आयत 20
“क़रीब है कि बिजली उचक ले उनकी आँखें।” | يَكَادُ الْبَرْقُ يَخْطَفُ اَبْصَارَھُمْ ۭ |
“जब चमकती है उन पर तो चलने लगते हैं उसकी रोशनी में।” | كُلَّمَآ اَضَاۗءَ لَھُمْ مَّشَوْا فِيْهِ ڎ |
ज्यों ही उन्हें ज़रा सी रोशनी महसूस होती है और दायें-बायें कुछ नज़र आता है तो कुछ दूर चल लेते हैं।
“और जब उन पर तारीकी तारी हो जाती है तो खड़े के खड़े रह जाते हैं।” | وَاِذَآ اَظْلَمَ عَلَيْهِمْ قَامُوْا ۭ |
यह एक नक़्शा खीचा गया है कि एक तरफ़ बारिश हो रही है। यानि क़ुरान मजीद आसमान से नाज़िल हो रहा है। बारिश को क़ुरान मजीद “مَاءً مُّبَارَکًا” क़रार देता है और यह खुद “کِتَابٌ مُّبَارَکٌ” है। लेकिन यह कि इसके साथ कड़के हैं, गरज है, कुफ़्र से मुक़ाबला है, कुफ़्र की तरफ़ से धमकियाँ हैं, अन्देशे और ख़तरात हैं, इम्तिहानात और आज़माईशें हैं। चुनाँचे मुनाफ़िक़ीन का मामला यह है कि ज़रा कही हालात कुछ बेहतर हुए, कुछ breething space मिली तो मुस्लमानों के शाना-ब-शाना थोड़ा सा चल लिये कि हम भी मुस्लमान हैं। जब वह देखते कि हालात कुछ पुर सकून हैं, किसी जंग के लिये बुलाया नहीं जा रहा है तो बढ़-चढ़ कर बातें करते और अपने ईमान का इज़हार भी करते, लेकिन जैसे ही कोई आज़माइश आती ठिठक कर खडे़ के खडे़ रह जाते।
“और अल्लाह चाहता तो उनकी समाअत और बसारत को सल्ब कर लेता।” | وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَذَھَبَ بِسَمْعِهِمْ وَاَبْصَارِهِمْ ۭ |
लेकिन अल्लाह का क़ानून यही है कि वह फ़ौरी गिरफ्त नहीं करता। उसने इन्सान को इरादे और अमल की आज़ादी दी है। तुम अगर मोमिन सादिक़ बन कर रहना चाहते हो तो अल्लाह तआला उस रविश (तरीक़े) को तुम्हारे लिये आसान कर देगा। और अगर तुमने अपने तास्सुब या तकब्बुर की वजह से कुफ़्र का रास्ता इख़्तियार किया तो अल्लाह उसी को तुम्हारे लिये खोल देगा। और अगर तुम बीच में लटकना चाहते हो {لَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ وَلَآ اِلٰى هٰٓؤُلَاۗءِ } तो लटके रहो। अल्लाह तआला ना किसी को जबरन हक़ पर लायेगा और ना ही किसी को जबरन बातिल की राह पर लेकर जायेगा। इसलिये कि अगर जब्र का मामला हो तो फिर इम्तिहान कैसा? फिर तो जज़ा और सज़ा का तसव्वुर गैर मन्तक़ी (illogical) और गैर माक़ूल (irrational) ठहरता है।
“यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।” | اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَىْءٍ قَدِيْرٌ 20ۧ |
सूरतुल बक़रह के यह इब्तदाई दो रुकूअ इस ऐतबार से बहुत अहम हैं कि इनमें इन्सानी शख्सियतों की तीन गिरोहों में तक़सीम कर दी गयी है, और तावीले आम ज़हन में रखिये कि जब भी कोई दावते हक़ उठेगी, अगर वह वाक़िअतन कुल की कुल हक़ की दावत हो और उसमें इन्क़लाबी रंग हो कि बातिल से पंजा आज़माई करके उसे नीचा दिखाना है और हक़ को गालिब करना है, तो यह तीन क़िस्म के अफ़राद लाज़िमन वजूद में आयेंगे। इनको पहचानना और इनके किरदार के पीछे जो असल पसमन्ज़र है उसको जानना बहुत ज़रूरी है।
आयात 21 से 29 तक
يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوْا رَبَّكُمُ الَّذِىْ خَلَقَكُمْ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ 21ۙ الَّذِىْ جَعَلَ لَكُمُ الْاَرْضَ فِرَاشًا وَّالسَّمَاۗءَ بِنَاۗءً ۠ وَّاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَخْرَجَ بِهٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ ۚ فَلَا تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا وَّاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ 22 وَاِنْ كُنْتُمْ فِىْ رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلٰي عَبْدِنَا فَاْتُوْا بِسُوْرَةٍ مِّنْ مِّثْلِهٖ ۠ وَادْعُوْا شُهَدَاۗءَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 23 فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا وَلَنْ تَفْعَلُوْا فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِىْ وَقُوْدُھَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ ښ اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ 24 وَبَشِّرِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اَنَّ لَھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِىْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۭ كُلَّمَا رُزِقُوْا مِنْهَا مِنْ ثَمَـــرَةٍ رِّزْقًا ۙ قَالُوْا ھٰذَا الَّذِىْ رُزِقْنَا مِنْ قَبْلُ ۙ وَاُتُوْا بِهٖ مُتَشَابِهًا ۭ وَلَھُمْ فِيْهَآ اَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ ڎ وَّھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 25 اِنَّ اللّٰهَ لَا يَسْتَحْىٖٓ اَنْ يَّضْرِبَ مَثَلًا مَّا بَعُوْضَةً فَمَا فَوْقَهَا ۭ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ وَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَيَقُوْلُوْنَ مَاذَآ اَرَادَ اللّٰهُ بِهٰذَا مَثَلًا ۘ يُضِلُّ بِهٖ كَثِيْرًا ۙ وَّيَهْدِىْ بِهٖ كَثِيْرًا ۭ وَمَا يُضِلُّ بِهٖٓ اِلَّا الْفٰسِقِيْنَ 26ۙ الَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِه ٖ ۠ وَ يَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيُفْسِدُوْنَ فِى الْاَرْضِ ۭ اُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْخٰسِرُوْنَ 27 كَيْفَ تَكْفُرُوْنَ بِاللّٰهِ وَكُنْتُمْ اَمْوَاتًا فَاَحْيَاكُمْ ۚ ثُمَّ يُمِيْتُكُمْ ثُمَّ يُحْيِيْكُمْ ثُمَّ اِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ 28 ھُوَ الَّذِىْ خَلَقَ لَكُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا ۤ ثُمَّ اسْتَوٰٓى اِلَى السَّمَاۗءِ فَسَوّٰىھُنَّ سَبْعَ سَمٰوٰتٍ ۭ وَھُوَ بِكُلِّ شَىْءٍ عَلِيْمٌ 29ۧ
सूरतुल बक़रह के तीसरे रुकूअ में क़ुरान की दावत का खुलासा आ गया है कि क़ुरान अपने मुख़ातिब को क्या मानने की दावत देता है और उसकी पुकार क्या है। जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ, सूरतुल बक़रह के नुज़ूल से क़ब्ल दो तिहाई क़ुरान नाज़िल हो चुका था। तरतीबे मुसहफ़ के ऐतबार से वह क़ुरान बाद में आयेगा, लेकिन तरतीबे नुज़ूली के ऐतबार से वह पसमन्ज़र में मौजूद है। लिहाज़ा सूरतुल बक़रह के पहले दो रुकूओं में मक्की क़ुरान के मुबाहिस का खुलासा बयान कर दिया गया है और तीसरे रुकूअ में क़ुरान मजीद की दावत का खुलासा और लुब्बे लुबाब (सारांश) आ गया है, जबकि क़ुरान मजीद का फ़लसफ़ा और बाज़ निहायत अहम मौज़ूआत व मसाइल का खुलासा चौथे रुकूअ में बयान हुआ है। अब हम तीसरे रुकूअ का मुतआला कर रहे हैं:
आयत 21
“ऐ लोगों! बन्दगी इख़्तियार करो अपने उस रब (मालिक) की जिसने तुमको पैदा किया और तुमसे पहले जितने लोग गुज़रे हैं (उन्हें भी पैदा किया) ताकि तुम बच सको।” | يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ اعْبُدُوْا رَبَّكُمُ الَّذِىْ خَلَقَكُمْ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ 21ۙ |
यह क़ुरान की दावत का खुलासा है और यही तमाम अम्बिया व रुसुल (अलै०) की दावत थी। सूरतुल आराफ़ और सूरह हूद में एक-एक रसूल का नाम लेकर उसकी दावत इन अल्फ़ाज़ में बयान की गयी है:
“ऐ मेरी क़ौम के लोगों! अल्लाह की बन्दगी करो, तुम्हारा कोई और इलाह उसके सिवा नहीं है।” | يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ |
सूरतुल शौरा में रसूलों की दावत के ज़िमन में बार-बार यह अल्फ़ाज़ आये हैं:
“पस अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और मेरी इताअत करो।” | فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوْنِ |
सूरह नूह में हज़रत नूह (अलै०) की दावत इन अल्फ़ाज़ में बयान हुई:
“कि अल्लाह की बन्दगी करो, उसका तक़वा इख़्तियार करो और मेरी इताअत करो!” | اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ وَاتَّقُوْهُ وَاَطِيْعُوْنِ Ǽۙ |
फिर अज़रुए क़ुरान यही इबादते रब इन्सान की गायत-ए-तख्लीक़ (utmost creation) है (अज़्ज़ारियात):
“और हमने जिन्नों और इंसानों को पैदा ही सिर्फ़ इसलिये किया है कि हमारी बन्दगी करें।” | وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالْاِنْسَ اِلَّا لِيَعْبُدُوْنِ 56 |
चुनाँचे तमाम रसूलों की दावत यही “इबादते रब” है और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की दावत भी यही है, लेकिन यहाँ एक बहुत बड़ा फ़र्क़ वाक़ेअ हो गया है। वह यह कि बाक़ी तमाम रसूलों की दावत के ज़िमन में सीगा-ए-ख़िताब “या क़ौमी” है। यानि “ऐ मेरी क़ौम के लोगों!” जबकि यहाँ सीगा-ए-ख़िताब है “या अय्युहन्नास” यानि “ऐ बनी नौऐ इन्सान!” मालूम हुआ कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ से पहले तमाम रसूल (अलै०) सिर्फ़ अपनी-अपनी क़ौमों की तरफ़ आये, जबकि पैगम्बर आखिरुज़्ज़मान हज़रत मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ अल्लाह तआला के आखरी और कामिल रसूल हैं जिनकी दावत आफाक़ी (universal) है।
आम तौर पर लोग जो गलत रास्ता इख़्तियार कर लेते हैं उस पर इस दलील से जमे रहते हैं कि हमारे आबा व अजदाद का रास्ता यही था। { الَّذِىْ خَلَقَكُمْ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ } के अल्फ़ाज़ में इस दलील का रद्द भी मौजूद है कि जैसे तुम मख्लूक़ हो वैसे ही तुम्हारे आबा व अजदाद भी मख्लूक़ थे, जैसे तुम ख़ता कर सकते हो इसी तरह वह भी तो ख़ता कर सकते थे। लिहाज़ा यह ना देखो कि आबा व अजदाद का रास्ता क्या था, बल्कि यह देखो कि हक़ क्या है।
{لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ 21ۙ} “ताकि तुम बच सको।” यानि दुनिया में इफ़रात व तफ़रीत (inflation & deflation) के धोखों से बच सको और आख़िरत में अल्लाह के अज़ाब से बच सको। इन दोनों से अगर बचना है तो अल्लाह की बन्दगी की रविश इख़्तियार करो।
आयत 22
“जिसने तुम्हारे लिये ज़मीन को फर्श बना दिया और आसमान को छत बना दिया।” | الَّذِىْ جَعَلَ لَكُمُ الْاَرْضَ فِرَاشًا وَّالسَّمَاۗءَ بِنَاۗءً ۠ |
“और आसमान से पानी बरसाया” | وَّاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً |
“फिर उस (पानी) के ज़रिये से (ज़मीन से) हर तरह की पैदावार निकाल कर तुम्हारे लिये रिज़्क़ बहम (provided) पहुँचाया।” | فَاَخْرَجَ بِهٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ ۚ |
“तो हरगिज़ अल्लाह के मद्दे मुक़ाबिल ना ठहराओ जानते-बूझते।” | فَلَا تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا وَّاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ 22 |
وَّاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ का एक मतलब यह भी है कि जब तुम भी मानते हो कि इस कायनात का ख़ालिक़ अल्लाह के सिवा कोई नहीं, तो फिर उसके शरीक क्यों ठहराते हो? अहले अरब यह बात मानते थे कि कायनात का ख़ालिक़ सिर्फ़ और सिर्फ़ अल्लाह है, अलबत्ता जो उनके देवी-देवता थे उन्हें वह समझते थे कि यह अल्लाह के अवतार हैं या अल्लाह के यहाँ बहुत पसन्दीदा हैं, उसके महबूब हैं, उसके औलिया हैं, उसकी बेटियाँ हैं, लिहाज़ा यह शफाअत करेंगे तो हमारा बेड़ा पार हो जायेगा। उनसे कहा जा रहा है कि जब तुम यह मानते हो कि कायनात का ख़ालिक़ एक अल्लाह है, वही इसका मुदब्बिर (planner) है तो अब किसी को उसका मद्दे मुक़ाबिल ना बनाओ।
اَنْدَاد “نِدّ” की जमा है, इसके मायने मद्दे मुक़ाबिल है। ख़ुत्बा-ए-जुमा में आपने यह अल्फ़ाज़ सुने होंगे: “لَا ضِدَّ لَہٗ وَلَا نِدَّ لَہٗ” हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद (रजि०) बयान करते हैं कि मैंने रसूल अल्लाह ﷺ से दरयाफ्त किया: अल्लाह के नज़दीक सबसे बड़ा गुनाह कौनसा है? आप ﷺ ने फरमाया: ((اَنْ تَجْعَلَ لِلہِ نِدًّا وَھُوَ خَلَقَکَ))(1) “यह कि तू उसका कोई मद्दे मुक़ाबिल ठहराये हालाँकि उसने तुझे पैदा किया है।” अल्लाह सुब्हाना व तआला का किसी दर्जे में कोई शरीक या मद्दे मुक़ाबिल नहीं है। इस ज़िमन में रसूल अल्लाह ﷺ उम्मत को इस दर्जे तौहीद की बारीकियों तक पहुँचा कर गये हैं कि ऐसे तसव्वुरात की बिल्कुल जड़ कट जाती है। एक सहाबी (रजि०) ने आप ﷺ के सामने ऐसे ही कह दिया: “مَا شَاءَ اللہُ وَمَا شِئْتَ” यानि जो अल्लाह चाहे और जो आप ﷺ चाहें। आप ﷺ ने उन्हें फ़ौरन टोक दिया और फरमाया: ((اَجَعَلْتَنِیْ لِلہِ نِدًّا؟ مَا شَاءَ اللہُ وَحْدَہٗ))(2) “क्या तूने मुझे अल्लाह का मद्दे मुक़ाबिल बना दिया है? (बल्कि वही होगा) जो तन्हा अल्लाह चाहे।” इस कायनात में मशीयत सिर्फ़ एक हस्ती की चलती है। किसी और की मशीयत उसकी मशीयत के ताबेअ पूरी हो जाये तो हो जाये, लेकिन मशीयते मुतलक़ सिर्फ़ उसकी है। यहाँ तक कि क़ुरान हकीम में रसूल अल्लाह ﷺ से फ़रमाया गया: {اِنَّكَ لَا تَهْدِيْ مَنْ اَحْبَبْتَ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ ۚ} (अल क़सस:56) “(ऐ नबी ﷺ!) यक़ीनन आप जिसे चाहें उसे हिदायत नहीं दे सकते, बल्कि अल्लाह जिसे चाहता है हिदायत देता है।” अगर हिदायत का मामला रसूल अल्लाह ﷺ के इख़्तियार में होता तो अबु तालिब दुनिया से ईमान लाये बगैर रुख्सत ना होते।
इन दो आयतों में तौहीद के दोनों पहलू बयान हो गये, तौहीद नज़री भी और तौहीद अमली भी। तौहीद अमली यह है कि बन्दगी सिर्फ़ उसी की है। अब अगली आयत में ईमान बिर्रिसालत का बयान आ रहा है।
आयत 23
“और अगर तुम वाक़िअतन शक में हो इस कलाम के बारे में जो हमने उतारा अपने बन्दे पर (कि यह हमारा नाज़िलकर्दा है कि नहीं)” | وَاِنْ كُنْتُمْ فِىْ رَيْبٍ مِّمَّا نَزَّلْنَا عَلٰي عَبْدِنَا |
“तो ले आओ एक ही सूरत इस जैसी।” | فَاْتُوْا بِسُوْرَةٍ مِّنْ مِّثْلِهٖ ۠ |
“तआरुफ़े क़ुरान” में यह बात तफ़सील से बयान की गयी थी कि क़ुरान हकीम में ऐसे पाँच मक़ामात है जहाँ पर यह चैलेंज मौजूद है कि अगर तुम्हारा यह ख्याल है कि यह कलाम मुहम्मद (ﷺ) की इख्तराअ (आविष्कार) है तो तुम भी मुक़ाबले में ऐसा ही कलाम पेश करो। सूरतुत्तूर की आयत 33, 34 में इरशाद हुआ: “क्या इनका यह कहना है कि इसे मुहम्मद (ﷺ) ने खुद गढ़ लिया है? बल्कि हक़ीक़त यह है कि यह मानने को तैयार नहीं। फिर चाहिये कि वह इसी तरह का कोई कलाम पेश करें अगर वह सच्चे हैं।” सूरह बनी इसराइल (आयत 88) में फ़रमाया गया कि “अगर तमाम जिन्न ओ इन्स जमा होकर भी इस क़ुरान जैसी किताब पेश करना चाहें तो हरगिज़ नहीं कर सकेंगे, चाहे वह सब एक दूसरे के मददगार ही क्यों न हो।” फिर सूरह हूद (आयत 13) में फ़रमाया गया कि “(ऐ नबी ﷺ) इनसे कह दीजिये (अगर पूरे क़ुरान की नज़ीर नहीं ला सकते) तो ऐसी दस सूरतें ही गढ़ कर ले आओ!” इसके बाद मज़ीद नीचे उतर कर जिसे बर सबीले तन्ज़ील कहा जाता है, सूरह यूनुस (आयत 38) में इस जैसी एक ही सूरत बना कर ले आने का चैलेंज दिया गया। मज़कूरा बाला (उपरोक्त) तमाम मक़ामात मक्की सूरतों में हैं। पहली मदनी सूरत “अल-बक़रह” की आयत जे़रे मुतआला में यही बात बड़े अहतमाम के साथ फ़रमायी गयी कि अगर तुम लोगों को इस कलाम के बारे में कोई शक है जो हमने अपने बन्दे पर नाज़िल किया है (कि यह अल्लाह का कलाम नहीं है) तो इस जैसी एक सूरत तुम भी मौज़ू करके ले आओ! यह एक एक सूरत सूरतुल अस्र के मसावी (बराबर) भी हो सकती थी, सूरतुल कौसर के मसावी भी हो सकती थी।
“और बुला लो अपने सारे मददगारों को अल्लाह के सिवा अगर तुम सच्चे हो।” | وَادْعُوْا شُهَدَاۗءَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 23 |
क़ुरैश का ख्याल यह था कि शौअरा (शायरों) के पास जिन्न होते हैं, जो उन्हें शेर सिखाते हैं, वरना आम आदमी तो शेर नहीं कह सकता। चुनाँचे फ़रमाया कि जो भी तुम्हारे मददगार हों, एक अल्लाह को छोड़ कर जिसकी भी तुम मदद हासिल कर सकते हो, जिन्नात हों या इन्सान हों, ख़तीब हों, शौअरा हों या अदीब (लेखक) हों, इन सबको जमा कर लो और इस क़ुरान जैसी एक ही सूरत बना कर ले आओ, अगर तुम सच्चे हो।
क़ुरान का अन्दाज़ यह है कि वह अपने अन्दर झाँकने की दावत देता है। चुनाँचे यहाँ गोया आँखों में आँखे ड़ाल कर यह कहा जा रहा है कि हक़ीक़त में तुम्हें इस क़ुरान के कलामे इलाही होने में कोई शक नहीं है, यह तो तुम महज़ बात बना रहे हो। अगर तुम्हें वाक़िअतन शक है, अगर तुम अपने दावे में सच्चे हो तो आओ मैदान में और इस जैसी एक ही सूरत बना लाओ!
आयत 24
“फिर अगर तुम ऐसा ना कर सको, और हरगिज़ ना कर सकोगे!” | فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا وَلَنْ تَفْعَلُوْا |
ज़रा अन्दाज़ देखिये, कैसा तहदी (चुनौतीपूर्ण) और चैलेंज का है! और यह चैलेंज अल्लाह के सिवा कोई नहीं दे सकता। यह अन्दाज़ दुनिया की किसी किताब का नहीं है, यह दावा सिर्फ़ क़ुरान का है। कैसा दो टूक अन्दाज़ है: “फिर अगर तुम ना कर पाओ, और तुम हरगिज़ नहीं कर पाओगे।”
“तो फिर बचो उस आग से जिसका ईंधन बनेंगे इन्सान और पत्थर।” | فَاتَّقُوا النَّارَ الَّتِىْ وَقُوْدُھَا النَّاسُ وَالْحِجَارَةُ ښ |
जहन्नम के ईंधन के तौर पर पत्थरों का ज़िक्र ख़ास तौर पर किया गया है। इसके दो इमकानात हैं। एक तो यह कि आपको मालूम है पत्थर के कोयले की आग आम लकड़ी के कोयले के मुक़ाबले में बड़ी सख़्त होती है। लिहाज़ा जहन्नम की आग बहुत बड़े-बड़े पत्थरों से दहकायी जायेगी। दूसरे यह कि मुशरिकीन ने जो मअबूद तराश रखे थे वह पत्थर के होते थे। मुशरिकीन को आगाह किया जा रहा है कि तुम्हारे साथ तुम्हारे इन मअबूदों को भी जहन्नम में झोंका जायेगा ताकि तुम्हारी हसरत के अन्दर इज़ाफ़ा हो कि यह हैं वह मअबूदाने बातिल जिनसे हम दुआऐं माँगा करते थे, जिनके सामने माथे टेकते थे, जिनके सामने दण्डवत करते थे, जिनको चढ़ावे चढ़ाते थे!
“तैयार की गयी है काफ़िरों के लिये।” | اُعِدَّتْ لِلْكٰفِرِيْنَ 24 |
यह जहन्नम मुनकिरीने हक़ के लिये तैयार की गयी है। अब यहाँ गोया ईमान बिल्लाह और ईमान बिर्रिसालत के बाद ईमान बिलआख़िरत का ज़िक्र आ गया।
आयत 25
“और बशारत दे दीजिये (ऐ नबी ﷺ!) उन लोगों को जो ईमान लाये और जिन्होंने नेक अमल किये” | وَبَشِّرِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ |
“कि उनके लिये ऐसे बाग़ात हैं जिनके नीचे नदियाँ बहती होगी।” | اَنَّ لَھُمْ جَنّٰتٍ تَجْرِىْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۭ |
यह लफ्ज़ी तर्जुमा है। मुराद इससे यह है कि जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी। इसलिये कि फ़ितरी बाग़ आम तौर पर ऐसा होता है कि जिसमें ज़रा ऊँचाई पर दरख़्त लगे हुए हैं और दामन में नदी बह रही है, जिससे खु़द-ब-ख़ुद आबपाशी हो रही है और दरख़्तों की जड़ों तक पानी पहुँच रहा है।
“जब भी उन्हें दिया जायेगा वहाँ का कोई भी फल रिज़्क़ के तौर पर (यानि खाने के लिये)” | كُلَّمَا رُزِقُوْا مِنْهَا مِنْ ثَمَـــرَةٍ رِّزْقًا ۙ |
“वे कहेंगे यह तो वही है जो हमें पहले भी मिलता था” | قَالُوْا ھٰذَا الَّذِىْ رُزِقْنَا مِنْ قَبْلُ ۙ |
“और दिये जायेंगे उनको फल एक सूरत के।” | وَاُتُوْا بِهٖ مُتَشَابِهًا ۭ |
इसका एक मफ़हूम तो यह है कि जन्नत में अहले जन्नत की जो इब्तदाई दावत या इब्तदाई ज़ियाफ़त (नुज़ुल) होगी उसमें उन्हें वही फल पेश किये जायेंगे जो दुनिया में मारूफ़ हैं, मसलन अनार, अंगूर, सेब, खजूर वगैरह। अहले जन्नत उन्हें देख कर कहेंगे कि यह तो वही फल हैं जो हम दुनिया में खाते आये हैं, लेकिन जब उन्हें चखेंगे तो ज़ाहिरी मुशाबिहत (समानता) के बावजूद ज़ायके़ में ज़मीन व आसमान का फर्क़ पायेंगे। और एक मफ़हूम यह भी लिया गया है कि अहले जन्नत को जन्नत में भी वही फल मिलते रहेंगे, लेकिन हर बार उनका ज़ायक़ा बदलता रहेगा। उनकी शक्ल व सूरत वही रहेगी, लेकिन ज़ायक़ा वह नहीं रहेगा। लिहज़ा यह दुनिया वाला मामला नहीं होगा कि एक ही शय को खाते-खाते इन्सान की तबीयत भर जाती है।
“और उनके लिये उस (जन्नत) में निहायत पाकबाज़ बीवियाँ होंगी।” | وَلَھُمْ فِيْهَآ اَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ ڎ |
“और वह उसमें रहेंगे हमेशा-हमेश।” | وَّھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 25 |
इन पाँच आयात (21 से 25) में ईमानियाते सलासा यानि ईमान बिल्लाह, ईमान बिर्रसूल और ईमान बिलआखिरा की दावत आ गयी। अब आगे कुछ ज़िमनी (incidental) मसाईल जे़रे बहस आयेंगे।
आयत 26
“यक़ीनन अल्लाह इससे नहीं शरमाता कि बयान करे कोई मिसाल मच्छर की या उस चीज़ की जो उससे बढ़ कर है।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَسْتَحْىٖٓ اَنْ يَّضْرِبَ مَثَلًا مَّا بَعُوْضَةً فَمَا فَوْقَهَا ۭ |
कुफ्फ़ार की तरफ़ से क़ुरान के बारे में कईं ऐतराज़ात उठाये जाते थे। वह कभी भी उस चैलेंज का मुक़ाबला तो ना कर सके जो क़ुरान ने उन्हें فَاْتُوْا بِسُوْرَۃٍ مِّنْ مِّثْلِہٖ के अल्फ़ाज़ में दिया था, लेकिन ख्वाह माख्वाह के ऐतराज़ात उठाते रहे। यह बिल्कुल ऐसी ही बात है जैसे किसी मुसव्विर की तस्वीर पर ऐतराज़ करने वाले तो बहुत थे लेकिन जब कहा गया कि यह ब्रुश लीजिये और ज़रा इसको ठीक कर दीजिये तो सब पीछे हट गये। क़ुरान के मुक़ाबले में कोई सूरत लाना तो उनके लिये मुमकिन नहीं था लेकिन इधर-उधर से ऐतराज़ात करने के लिये उनकी ज़बानें खुलती थीं। उनमें से उनका एक ऐतराज़ यहाँ नकल किया जा रहा है कि क़ुरान मजीद में मक्खी की तशबीह (तुलना) आयी है, यह तो बहुत हक़ीर शय (छोटी/तुच्छ चीज़) है। कोई आला मुतकल्लिम अपने आला कलाम में ऐसी हक़ीर चीज़ों का तज़किरा नहीं करता। क़ुरान मजीद में मकड़ी जैसी हक़ीर शय का भी ज़िक्र है, चुनाँचे यह कोई आला कलाम नहीं है। यहाँ इसका जवाब दिया जा रहा है। दरअसल तशबीह और तमसील के अन्दर मुमसिल लहू और मुमसिल बिही में मुनासबत और मुताबक़त होनी चाहिये। यानि कोई तमसील या तशबीह बयान करनी हो तो जिस शय के लिये तशबीह दी जा रही है उससे मुताबक़त और मुनासबत रखने वाली शय से तशबीह दी जानी चाहिये। कोई शय अगर बहुत हक़ीर है तो उसे किसी अज़मत वाली शय से आखिर कैसे तशबीह दी जायेगी? उसे तो किसी हक़ीर शय ही से तशबीह दी जायेगी तो तशबीह का असल मक़सद पूरा होगा। चुनाँचे फ़रमाया कि अल्लाह तआला के लिये यह कोई शर्म या आर (लज्जा) की बात नहीं है कि वह मच्छर की मिसाल बयान करे या उस चीज़ की जो उससे बढ़ कर है। लफ्ज़ “فَوْقَھَا” (उससे ऊपर) में दोनो मायने मौजूद हैं। यानि कमतर और हक़ीर होने में उससे भी बढ़ कर या यह कि उससे ऊपर की कोई शय। इसलिये कि मक्खी या मकड़ी बहरहाल मच्छर से ज़रा बड़ी शय है।
“तो जो लोग साहिबे ईमान हैं वह जानते हैं कि यह यक़ीनन हक़ है उनके रब की तरफ से।” | فَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا فَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ |
“और जिन्होंने कुफ़्र किया सो वह कहते हैं कि क्या मतलब था अल्लाह का इस मिसाल से?” | وَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَيَقُوْلُوْنَ مَاذَآ اَرَادَ اللّٰهُ بِهٰذَا مَثَلًا ۘ |
हक़ के मुन्कर नाक भौं चढ़ा रहे हैं और ऐतराज़ कर रहे हैं कि इस मिसाल से अल्लाह ने क्या मुराद ली है? इस ज़िमन में अगला जुम्ला बहुत अहम है।
“गुमराह करता है अल्लाह तआला इसके ज़रिये से बहुतों को और हिदायत देता है इसी के ज़रिये से बहुतों को।” | يُضِلُّ بِهٖ كَثِيْرًا ۙ وَّيَهْدِىْ بِهٖ كَثِيْرًا ۭ |
इन मिसालों के ज़रिये अल्लाह तआला बहुत सों को गुमराही में मुब्तला कर देता है और बहुत सों को राहे रास्त दिखा देता है। मालूम हुआ कि हिदायत और गुमराही का दारोमदार इन्सान की अपनी दाखिली कैफ़ियत (subjective condition) पर है। आपके दिल में ख़ैर है, भलाई है, आपकी नीयत तलबे हिदायत और तलबे इल्म की है तो आपको इस क़ुरान से हिदायत मिल जायेगी, और दिल में ज़ेग है, कजी है, नीयत में टेढ़ और फ़साद है तो इसी के ज़रिये से अल्लाह आपकी गुमराही में इज़ाफा कर देगा। लेकिन अल्लाह तआला का किसी को हिदायत देना और किसी को गुमराही में मुब्तला कर देना अललटप नहीं है, किसी क़ायदे और क़ानून के बगैर नहीं है।
“और नहीं गुमराह करता वह इसके ज़रिये से मगर सिर्फ़ सरकश लोगों को।” | وَمَا يُضِلُّ بِهٖٓ اِلَّا الْفٰسِقِيْنَ 26ۙ |
इससे गुमराही में वह सिर्फ़ उन्ही को मुब्तला करता है जिनमें सरकशी है, ताअद्दी (उल्लंघन) है, तकब्बुर है। अगली आयत में उनके औसाफ़ बयान कर दिये गये।
आयत 27
“जो तोड़ देते हैं अल्लाह के (साथ किये हुए) अहद को मज़बूत बाँध लेने के बाद।” | الَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِه ٖ ۠ |
अल्लाह तआला और बन्दे के दरमियान सबसे बड़ा अहद “अहदे अलस्त” है, जिसका ज़िक्र सूरतुल आराफ़ में आयेगा। यह अहद आलमे अरवाह में तमाम अरवाहे इन्सानिया ने किया था, इनमें मैं भी था, आप भी थे, सब थे। अलगर्ज़ तमाम के तमाम इन्सान जितने आज तक दुनिया में आ चुके हैं और जो क़यामत तक अभी आने वाले हैं, इस अहद के वक़्त मौजूद थे, लेकिन सिर्फ़ अरवाह की शक्ल में थे, जिस्म मौजूद नहीं थे। और यह बात याद रखिये कि इन्सान का रूहानी वजूद मुकम्मल वजूद है और अव्वलन तख़्लीक़ उसी की हुई थी। “अहदे अलस्त” में तमाम बनी आदम से अल्लाह तआला ने दरयाफ्त फरमाया: अलस्तु बिरब्बिकुम (क्या मैं ही तुम्हारा रब्ब नहीं हूँ?) सबने एक ही जवाब दिया: बला (क्यों नहीं!) तो यह जो फ़ासिक़ हैं, नाफ़रमान हैं, सरकश हैं, इन्होंने इस अहद को तोड़ा और अल्लाह को अपना मालिक, अपना ख़ालिक़ और अपना हाकिम मानने की बजाय खुद हाकिम बन कर बैठ गये और इस तरह के दावे किये: {اَلَیْسَ لِیْ مُلْکُ مِصْرَ} “क्या मिस्र की बादशाही मेरी नहीं है?” गैरुल्लाह की हाकिमियत (sovereignty) को तस्लीम करना सबसे बड़ी बग़ावत, सरकशी, फिस्क़ (भ्रष्टाचार) और नाफ़रमानी है, ख्वाह वह मलूकियत की सूरत में हो या अवामी हाकिमियत (Popular Soverignty) की सूरत में।
“और काटते हैं उस चीज़ को जिसे अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है” | وَ يَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ |
अल्लाह ने सिला रहमी (रिश्तेदारी जोड़ने) का हुक्म दिया है, यह क़ता रहमी (रिश्तेदारी ख़त्म) करते हैं। माल की तलब में, उसके माल को हथियाने के लिये भाई-भाई को ख़त्म कर देता है। इन्सान अपनी ज़ाती अगराज़ (ज़रूरतों) के लिये, अपने तकब्बुर और तअल्ली (बड़प्पन) की ख़ातिर तमाम अख़्लाक़ी हुदूद को पसे पुश्त ड़ाल देता है। हमारी शरीअत का फ़लसफ़ा यह है कि हमें दो तरह के ताल्लुक़ात जोड़ने का हुक्म दिया गया है। एक ताल्लुक़ है बन्दे का अल्लाह के साथ। उसका ताल्लुक़ “हुक़ूक़ुल्लाह” से है। जबकि एक ताल्लुक़ है बन्दों को बन्दों के साथ। यह “हुक़ूक़ुलइबाद” से मुताल्लिक़ है। अल्लाह का हक़ यह है कि उसे हाकिम और मालिक समझो और ख़ुद उसके बन्दे बनो। जबकि इन्सानों का हक़ यह है कि: ((کُوْنُوْا عِبَادَاللہِ اِخْوَانًا))(3) “सब आपस में भाई-भाई होकर अल्लाह के बन्दे बन जाओ।” इस ज़िमन में अहमतरीन रहमी रिश्ता है, यानि सगे बहन-भाई। फिर दादा-दादी की औलाद में तमाम चचाज़ाद वगैरह (cousins) आ जायेंगे। इसके ऊपर परदादा-परदादी की औलाद का दायरा मज़ीद वसी (बड़ा) हो जायेगा। इसी तरह ऊपर चलते जायें यहाँ तक कि आदम और हव्वा पर तमाम इन्सान जमा हो जायेंगे। तो रहमी रिश्ते की बड़ी अहमियत है। यहाँ फ़ासिक़ीन की दो सिफ़ात बयान कर दी गयीं। एक यह कि वह अल्लाह के अहद को मज़बूती से बाँधनें के बाद तोड़ देते हैं और दूसरे यह कि जिन रिश्तों को अल्लाह ने जोड़ने का हुक्म दिया है यह उन्हें क़ता करते (काटते) हैं।
“और ज़मीन में फ़साद बरपा करते हैं।“ | وَيُفْسِدُوْنَ فِى الْاَرْضِ ۭ |
मुताज़क्किरा बाला दोनों चीज़ों के नतीजे में ज़मीन में फसाद पैदा होता है। इन्सान अल्लाह की इताअत से बाग़ी हो जायें या आपस में एक-दूसरे की गरदनें काटने लगें तो इसका नतीजा फ़साद फिल अर्द (ज़मीन में फ़साद) की सूरत में निकलता है।
“यही लोग नुक़सान उठाने वाले हैं।” | اُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْخٰسِرُوْنَ 27 |
यही लोग हैं जो बिलआखिर आखरी और दाईमी खसारे में रहने वाले हैं।
आयत 28
“तुम कैसे कुफ़्र करते हो अल्लाह का हालाँकि तुम मुर्दा थे, फिर उसने तुम्हें ज़िन्दा किया।” | كَيْفَ تَكْفُرُوْنَ بِاللّٰهِ وَكُنْتُمْ اَمْوَاتًا فَاَحْيَاكُمْ ۚ |
“फिर वह तुम्हें मारेगा, फिर जिलायेगा, फिर तुम उसी की तरफ लौटा दिये जाओगे।” | ثُمَّ يُمِيْتُكُمْ ثُمَّ يُحْيِيْكُمْ ثُمَّ اِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ 28 |
इस मक़ाम पर एक बड़ी गहरी हिकमत और फ़लसफ़े की बात बयान की गयी है जो आज निगाहों से बिल्कुल ओझल हो चुकी है। वह यह कि हम दुनिया में आने से पहले मुर्दा थे (كُنْتُمْ اَمْوَاتًا)। इसके क्या मायने हैं?
यह मज़मून सूरह ग़ाफ़िर/सूरतुल मोमिन में ज़्यादा वज़ाहत से आया है, जो सूरतुल बक़रह से पहले नाज़िल हो चुकी थी। लिहाज़ा यहाँ इज्माली (संक्षिप्त) तज़किरा है। वहाँ अहले जहन्नम का क़ौल बाअल्फ़ाज़ नक़ल हुआ है:
“ऐ हमारे रब! तूने दो मर्तबा हम पर मौत वारिद की और दो मर्तबा हमें ज़िन्दा किया, अब हमने अपने गुनाहों का ऐतराफ़ कर लिया है, तो अब यहाँ से निकलने का भी कोई रास्ता है?” | رَبَّنَآ اَمَتَّنَا اثْنَتَيْنِ وَاَحْيَيْتَنَا اثْنَتَيْنِ فَاعْتَرَفْنَا بِذُنُوْبِنَا فَهَلْ اِلٰى خُرُوْجٍ مِّنْ سَبِيْلٍ 11 |
इससे यह हक़ीक़त वाज़ेह हुई कि इन्सान की तख़्लीके़ अव्वल आलमे अरवाह में सिर्फ़ अरवाह की हैसियत से हुई थी। अहादीस में अल्फ़ाज़ वारिद हुए हैं: ((اَلْاَرْوَاحُ جُنُوْدٌ مُجَنَّدَۃٌ)) (मुत्तफिक़ अलै०) यानि अरवाह जमाशुदा लश्करों की सूरत में थीं। इन अरवाह से वह अहद लिया गया जो “अहदे अलस्त” कहलाता है। फिर इन्हें सुला दिया गया। यह गोया पहली मौत थी जो हम गुज़ार आये हैं। (आप जानते हैं कि मुर्दा मादूम (अस्तित्वहीन) नहीं होता, बेजान होता है, एक तरह से सोया हुआ होता है। क़ुरान हकीम में मौत और नींद को बाहम तशबीह दी गयी है।) फिर दुनिया में आलमे ख़ल्क़ का मरहला आया, जिसमें तनासुल (प्रजनन) के ज़रिये से अज्सादे इन्सानिया (Human bodies) की तख़्लीक़ होती है और उनमें अरवाह फूँकी जाती हैं। हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसूद (रजि०) से मरवी मुत्तफिक़ अलै हदीस के मुताबिक़ रहमे मादर (गर्भ) में जनीन (भ्रूण) जब चार माह का हो जाता है तो उसमें वह रूह लाकर फूँक दी जाती है। यह गोया पहली मर्तबा का ज़िन्दा किया जाना हो गया। हम इस दुनिया में अपने जसद (जिस्म) के साथ ज़िन्दा हो गये, हमें पहली मौत की नींद से जगा दिया गया। अब हमें जो मौत आयेगी वह हमारी दूसरी मौत होगी और इसके नतीजे में हमारा जसद वहीं चला जायेगा जहाँ से आया था (यानि मिट्टी में) और हमारी रूह भी जहाँ से आयी थी वहीं वापस चली जायेगी। यह फ़लसफ़ा व हिकमते क़ुरानी का बहुत गहरा नुक्ता है।
आयत 29
“वही है जिसने पैदा किया तुम्हारे लिये जो कुछ भी ज़मीन में हैं।” | ھُوَ الَّذِىْ خَلَقَ لَكُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا ۤ |
इस आयत में ख़िलाफ़त का मज़मून शुरू हो गया है। हदीस में आता है: ((اِنَّ الدُّنْیَا خُلِقَتْ لَلُمْ وَاَنْتُم خُلِقْتُمْ لِلْآخِرَۃِ))(4) “यह दुनिया तुम्हारे लिये बनायी गयी है और तुम आख़िरत के लिये बनाये गये हो।” अगली आयत में हज़रत आदम (अलै०) की ख़िलाफ़ते अर्ज़ी का ज़िक्र है। गोया ज़मीन में जो कुछ भी पैदा किया गया है वह इन्सान की ख़िलाफ़त के लिये पैदा किया गया है।
“फिर वह मुतवज्जा हुआ आसमानों की तरफ़ और उन्हें ठीक-ठीक सात आसमानों की शक्ल में बना दिया।” | ثُمَّ اسْتَوٰٓى اِلَى السَّمَاۗءِ فَسَوّٰىھُنَّ سَبْعَ سَمٰوٰتٍ ۭ |
यह आयत ताहाल (अभी तक) आयाते मुताशाबेहात में से है। सात आसमानों की क्या हक़ीक़त है, हम अभी तक पूरे तौर पर इससे वाक़िफ़ नहीं हैं।
“और वह हर चीज़ का इल्म रखने वाला है।” | وَھُوَ بِكُلِّ شَىْءٍ عَلِيْمٌ 29ۧ |
उसे हर शय का इल्मे हक़ीक़ी हासिल है।
आयात 30 से 39 तक
وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنِّىْ جَاعِلٌ فِى الْاَرْضِ خَلِيْفَةً ۭ قَالُوْٓا اَتَجْعَلُ فِيْهَا مَنْ يُّفْسِدُ فِيْهَا وَيَسْفِكُ الدِّمَاۗءَ ۚ وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ ۭ قَالَ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 30 وَعَلَّمَ اٰدَمَ الْاَسْمَاۗءَ كُلَّهَا ثُمَّ عَرَضَھُمْ عَلَي الْمَلٰۗىِٕكَةِ ۙ فَقَالَ اَنْۢبِــُٔـوْنِىْ بِاَسْمَاۗءِ ھٰٓؤُلَاۗءِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 31 قَالُوْا سُبْحٰــنَكَ لَاعِلْمَ لَنَآ اِلَّا مَا عَلَّمْتَنَا ۭ اِنَّكَ اَنْتَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ 32 قَالَ يٰٓاٰدَمُ اَنْۢبِئْـھُمْ بِاَسْمَاۗىِٕهِمْ ۚ فَلَمَّآ اَنْۢبَاَھُمْ بِاَسْمَاۗىِٕهِمْ ۙ قَالَ اَلَمْ اَقُلْ لَّكُمْ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ غَيْبَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاَعْلَمُ مَا تُبْدُوْنَ وَمَا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ 33 وَاِذْ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ اَبٰى وَاسْتَكْبَرَ ڭ وَكَانَ مِنَ الْكٰفِرِيْنَ 34 وَقُلْنَا يٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ وَكُلَامِنْهَا رَغَدًا حَيْثُ شِـئْتُمَـا ۠ وَلَا تَـقْرَبَا ھٰذِهِ الشَّجَرَةَ فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِمِيْنَ 35 فَاَزَلَّهُمَا الشَّيْطٰنُ عَنْهَا فَاَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيْهِ ۠ وَقُلْنَا اھْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ ۚ وَلَكُمْ فِى الْاَرْضِ مُسْـتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰى حِيْنٍ 36 فَتَلَـقّيٰٓ اٰدَمُ مِنْ رَّبِّهٖ كَلِمٰتٍ فَتَابَ عَلَيْهِ ۭ اِنَّهٗ ھُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ 37 قُلْنَا اھْبِطُوْا مِنْهَا جَمِيْعًا ۚ فَاِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ مِّـنِّىْ ھُدًى فَمَنْ تَبِعَ ھُدَاىَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ 38 وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 39ۧ
आयत 30
“और याद करो जबकि कहा था तुम्हारे रब ने फ़रिश्तों से कि मैं बनाने वाला हूँ ज़मीन में एक ख़लीफ़ा।” | وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنِّىْ جَاعِلٌ فِى الْاَرْضِ خَلِيْفَةً ۭ |
ख़लीफ़ा दर हक़ीक़त नायब को कहते हैं। आमतौर पर लोगों को मुग़ालता लाहक़ होता है कि ख़लीफ़ा और जानशीन किसी की मौत के बाद मुक़र्रर होता है, ज़िन्दगी में नहीं होता। लेकिन इस दुनिया में इन्सान की असल हक़ीक़त को समझने के लिये वायसराय का तसव्वुर ज़हन में रखिये। 1947 ई० से पहले हम अंग्रेज़ के गुलाम थे। हमारा असल हाकिम (बादशाह या मलिका) इन्गलिस्तान में था, जबकि देहली में वायसराय होता था। वायसराय का काम यह था कि His Majesty या Her Majesty की हुकूमत का जो भी हुकुम मौसूल (प्राप्त) हो उसे बिला चूं व चरा बगैर किसी तगय्युर (परिवर्तन) और तब्दील के नाफ़िज़ करे। अलबत्ता वायसराय को इख़्तियार हासिल था कि अगर किसी मामले में इन्गलिस्तान से हुकुम ना आये तो वह यहाँ के हालात के मुताबिक़ अपनी बेहतरीन राय क़ायम करे। वह गौरो फ़िक्र करे कि यहाँ की मसलहतें क्या हैं और जो चीज़ भी सल्तनत की मसलहत में हो उसके मुताबिक फ़ैसला करे। बैयन ही यही रिश्ता कायनात के असल हाकिम और ज़मीन पर उसके ख़लीफ़ा के माबैन है। कायनात का असल हाकिम और मालिक अल्लाह तआला है, लेकिन उसने अपने आप को ग़ैब के परदे में छुपा लिया है। ज़मीन पर इन्सान उसका ख़लीफ़ा है। अब इन्सान का काम यह है कि जो हिदायत अल्लाह की तरफ़ से आ रही है उस पर तो बे चूं व चरा अमल करे और जिस मामलें में कोई वाज़ेह हिदायत नहीं है वहाँ गौरो फिक्र और सोच-विचार करे और इस्तमबात (अनुमान) व इज्तहाद (राय) से काम लेते हुए जो बात रूहे दीन से ज़्यादा से ज़्यादा मुताबक़त रखने वाली (मिलती) हो उसे इख़्तियार करे। यही दर हक़ीक़त रिश्ता-ए-ख़िलाफ़त है जो अल्लाह और इन्सान के माबैन है।
यह हैसियत तमाम इन्सानों को दी गयी है और बिलक़ुव्वा (Potentially) हर इन्सान अल्लाह का ख़लीफ़ा है, लेकिन जो अल्लाह का बागी हो जाये, जो खुद हाकिमियत का मुद्दई हो जाये तो वह इस ख़िलाफ़त के हक़ से महरूम हो जाता है। अगर किसी बादशाह का वली अहद अपने बाप की ज़िदगी ही में बग़ावत कर दे और हुकूमत हासिल करना चाहे तो अब वह वाजिबुल क़त्ल है। इसी तरह जो लोग भी इस दुनिया में अल्लाह तआला की हाकिमियते आला के मुन्कर होकर खुद हाकिमियत के मुद्दई हो गये अगरचे वह वाजिबुल क़त्ल हैं, लेकिन दुनिया में उन्हें मोहलत दी गयी है। इसलिये कि यह दुनिया दारुल इम्तिहान है। चुनाँचे अल्लाह तआला उन्हें फौरन ख़त्म नहीं करता। अज़रूए अल्फ़ाज़े क़ुरानी {وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَّبِّكَ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّي لَّقُضِيَ بَيْنَهُمْ } (अश्शूरा:14) “और अगर एक बात पहले से तय ना हो चुकी होती एक वक़्ते मुअय्यन तक तुम्हारे रब की तरफ़ से तो इनके दरमियान फ़ैसला चुका दिया जाता।” चूँकि अल्लाह तआला ने उन्हें एक वक़्ते मुअय्यन तक के लिये मोहलत दी है लिहाज़ा उन्हें फ़ौरी तौर पर ख़त्म नहीं किया जाता, लेकिन कम से कम इतनी सज़ा ज़रूर मिलती है कि अब वह ख़िलाफ़त के हक़ से महरूम कर दिये गये हैं। गोया कि अब दुनिया में ख़िलाफ़त सिर्फ़ ख़िलाफ़तुल मुस्लिमीन होगी। सिर्फ़ वह शख़्स जो अल्लाह को अपना हाकिमे मुतलक़ (पूर्ण) माने, वही ख़िलाफ़त का अहल है। तो यह चन्द बातें ख़िलाफ़त की असल हक़ीक़त के ज़िमन में यहीं पर समझ लीजिये। {وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنِّىْ جَاعِلٌ فِى الْاَرْضِ خَلِيْفَةً ۭ } “और याद करो जब तुम्हारे रब ने कहा था फ़रिश्तों से कि मैं ज़मीन में एक ख़लीफ़ा बनाने वाला हूँ।”
“उन्होंने कहा: क्या आप ज़मीन में किसी ऐसे को मुक़र्रर करने वाले हैं जो उसमें फ़साद मचायेगा और ख़ूँरेज़ी करेगा?” | قَالُوْٓا اَتَجْعَلُ فِيْهَا مَنْ يُّفْسِدُ فِيْهَا وَيَسْفِكُ الدِّمَاۗءَ ۚ |
“और हम आपकी हम्दो सना के साथ तस्बीह और आपकी तक़दीस में लगे हुए हैं।” | وَنَحْنُ نُسَبِّحُ بِحَمْدِكَ وَنُقَدِّسُ لَكَ ۭ |
“फ़रमाया: मैं जानता हूँ जो कुछ तुम नहीं जानते।” | قَالَ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 30 |
अब यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि फ़रिश्तों को इन्सान के बारे में यह गुमान या यह ख्याल कैसे हुआ? इसके ज़िमन में दो आरा (रायें) हैं। एक तो यह कि इन्सान की तख़्लीक़ से पहले इस ज़मीन पर जिन्नात मौजूद थे और उन्हें भी अल्लाह ने कुछ थोड़ा सा इख़्तियार दिया था और उन्होंने यहाँ फ़साद बरपा कर रखा था। उन्ही पर क़यास (अनुमान) करते हुए फ़रिश्तों ने समझा कि इन्सान भी ज़मीन में फ़साद मचायेगा और खूँरेज़ी करेगा। एक दूसरी उसूली बात यह कही गयी है कि जब ख़िलाफ़त का लफ्ज़ इस्तेमाल हुआ तो फ़रिश्ते समझ गये कि इन्सान को ज़मीन में कोई ना कोई इख़्तियार भी मिलेगा। जिन्नात के बारे में ख़िलाफ़त का लफ्ज़ कहीं नहीं आया, यह सिर्फ़ इन्सान के बारे में आ रहा है। और ख़लीफा बिल्कुल बे इख़्तियार नहीं होता। जैसा कि मैंने अर्ज़ किया जहाँ वाज़ेह हुक्म है उसका काम उसकी तन्फ़ीज़ है और जहाँ नहीं है वहाँ अपने ग़ौरो फिक्र और सोच-विचार की सलाहियतों को बरवयेकार लाकर उसे बेहतर से बेहतर राय क़ायम करनी होती है। ज़ाहिर बात है जहाँ इख़्तियार होगा वहाँ उसके सही इस्तेमाल का भी इम्कान है और गलत का भी। पॉलिटिकल साइन्स का तो यह मुसल्लमा उसूल (Axiom) है: “Authority tends to corrupt and absolute authority corrupts absolutely.” चुनाँचे इख़्तियार के अन्दर बदउन्वानी (भ्रष्टाचार) का रुझान मौजूद है। इस बिना पर उन्होंने क़यास किया कि इन्सान को ज़मीन में इख़्तियार मिलेगा तो यहाँ फसाद होगा, खूँरेज़ी होगी। अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि अपनी हिकमतों से मैं ख़ुद वाक़िफ़ हूँ। मैं इन्सान को ख़लीफ़ा क्यों बना रहा हूँ, यह मैं जानता हूँ तुम नहीं जानते।
आयत 31
“और अल्लाह ने सिखा दिये आदम को तमाम के तमाम नाम” | وَعَلَّمَ اٰدَمَ الْاَسْمَاۗءَ كُلَّهَا |
मुफ़स्सिरीन का तक़रीबन इज्मा है कि इससे मुराद तमाम अशिया (चीज़ों) के नाम हैं और तमाम अशिया के नामों से मुराद उनकी हक़ीक़त का इल्म है। आप इन्सानी इल्म (Human Knowledge) का तजज़िया करें तो वह यही है कि इन्सान एक चीज़ को पहचानता है, फिर उसका एक नाम रखता है या उसके लिये कोई इस्तलाह (term) क़ायम करता है। वह उस नाम और उस इस्तलाह के हवाले से उस चीज़ के बारे में बहुत से हक़ाइक़ को अपने ज़हन में महफूज़ करता है। तो अल्लाह तआला ने इन्सान को तमाम नाम सिखा दिये। गोया कुल माद्दी कायनात (Material World) के अन्दर जो कुछ वजूद में आने वाला था, उन सबकी हक़ीक़त से हज़रत आदम (अलै०) को इम्कानी तौर पर (Potentially) आगाह कर दिया। यह इन्सान का इकतसाबी इल्म (Acquired Knowledge) है जो उसे सम-ओ-बसर और अक़्ल व दिमाग से हासिल होता है।
इन्सान को हासिल होने वाले इल्म के दो हिस्से हैं। एक इल्हामी (Revealed Knowledge) है जो अल्लाह तआला वही के ज़रिये से भेजता है, जबकि एक इल्म बिलहवास या इकतसाबी इल्म (Acquired Knowledge) है जो इन्सान खुद हासिल करता है। उसने आँखों से देखा, कानों से सुना, नतीजा निकाला और दिमाग़ के कम्प्यूटर ने उसको प्रोसेस करके उस नतीजे को कहीं हाफजे़ (memory) के अन्दर महफ़ूज़ कर लिया। फिर कुछ और देखा, कुछ और सुना, कुछ छू कर, कुछ चख कर, कुछ सूँघ कर मालूम हुआ और कुछ और नतीजा निकाला तो उसे साबक़ा याद्दाश्त के साथ टैली करके नतीजा निकाला। अज़रूए अल्फाज़ क़ुरानी (बनी इसराइल:36): {اِنَّ السَّمْعَ وَالْبَصَرَ وَالْفُؤَادَ كُلُّ اُولٰۗىِٕكَ كَانَ عَنْهُ مَسْــــُٔــوْلًا} इन्सान को यह इकतसाबी इल्म (Acquired Knowledge) तीन चीज़ों से हासिल हो रहा है: समाअत, बसारत और अक़्ल। अक़्ल उस तमाम sense data को जो उसे मुहैय्या होता है, हवास (sense organs) के ज़रिये से प्रोसेस करती है और फ़ायदा अख़ज़ करती है। यह इल्म है जो बिलक़ुव्वा (Potentially) हज़रत आदम (अलै०) को दे दिया गया। अब इसकी exfoliation हो रही है और दर्जा-ब-दर्जा वह इल्म फैल रहा है, बढ़ रहा है। बढ़ते-बढ़ते यह कहाँ तक पहुँचेगा, हम कुछ नहीं कह सकते। इन्सान कहाँ से कहाँ पहुँच गया है! इस निस्फ़े सदी में इल्मे इन्सानी में जो explosion हुआ है मैं और आप उसका तसव्वुर तक नहीं कर सकते। अक्सर बड़े-बड़े साइन्सदानों को भी इसका इदराक (अहसास) व शऊर नहीं है कि इन्सानी इल्म ने कितनी बड़ी ज़क़न्द (छलांग) लगायी है। इसलिये कि एक शख़्स अपनी लाईन के बारे में तो जानता है कि इसमें क्या कुछ हो गया। मसलन एक साइन्सदान सिर्फ़ फिज़िक्स या इसकी भी किसी शाख के बारे में जानता है, बाक़ी दूसरी शाखों के बारे में उसे कुछ मालूम नहीं। यह दौर स्पेशलाइजेशन का दौर है, लिहाज़ा इल्म के मैदान में जो बड़ा धमाका (explosion) हुआ है उसका हमें कोई अन्दाज़ा नहीं है। एक चीज़ जो आज ईजाद होती है चन्द दिनों के अन्दर-अन्दर उसका नया version आ जाता है और यह चीज़ मतरूक (outdated) हो जाती है। इब्लाग और मवासलात (Communication) के अन्दर इन्क़लाबे अज़ीम बरपा हुआ है। आप यह समझिये कि इक़बाल ने जो यह शेर कभी कहा था, उसकी ताबीर क़रीब से क़रीब तर आ रही है:
उरूजे आदमे ख़ाकी से अन्जुमन सहमे जाते हैं
कि यह टूटा हुआ तारा मय कामिल ना बन जाये!
और यह “मयकामिल” उस वक़्त बनेगा जब दज्जाल की शक्ल इख़्तियार करेगा। दज्जाल वह शख़्स होगा जो इन तमाम क़वाइदे तबीइया (Physical Laws) के ऊपर काबू पा लेगा। जब चाहेगा, जहाँ चाहेगा बारिश बरसायेगा। वह रिज़्क़ के तमाम खज़ाने अपने हाथ में ले लेगा और ऐलान कर देगा कि जो उस पर ईमान लायेगा उसी को रिज़्क़ मिलेगा, किसी और को नहीं मिलेगा। उसकी आवाज़ पूरी दुनिया में सुनायी देगी। वह चन्द दिनों के अन्दर पूरी दुनिया का चक्कर लगा लेगा। यह सारी बातें हदीस में दज्जाल के बारे में आयी हैं। वह आदम के उस इकतसाबी इल्म (Acquired Knowledge) की उस हद को पहुँच जायेगा कि फ़ितरत के तमाम इसरार (mysteries) उस पर मुन्कशिफ़ हो जायें और उसे क़वाइदे तबीइया पर तसर्रुफ (ज़ब्त) हासिल हो जाये, वह इन्हें harness कर ले, क़ाबू में ले आये और उन्हें इस्तेमाल करे।
इन्सान ने जो सबसे पहला ज़रिया-ए-तवानाई (source of energy) दरयाफ्त किया वह आग था। आज से हज़ारों साल पहले हमारे किसी जद्दे अमजद ने देखा कि कोई चट्टान ऊपर से गिरी, पत्थर से पत्थर टकराया तो उसमें से आग का शोला निकला। उसका यह मुशाहिदा आग पैदा करने के लिये काफी हो गया कि पत्थरों को आपस में टकराओ और आग पैदा कर लो। चुनाँचे आग उस दौर की सबसे बड़ी ईजाद और अव्वलीन ज़रिया-ए-तवानाई थी। अब वह तवानाई (energy) कहाँ से कहाँ पहुँची! पहले उस आग ने भाप की शक्ल इख़्तियार की, फिर हमनें बिजली ईजाद की और अब एटमी तवानाई (Atomic Energy) हासिल कर ली है और अभी ना मालूम क्या-क्या हासिल होना है। वल्लाहु आलम! इन तमाम चीज़ों का ताल्लुक़ ख़िलाफ़ते अरज़ी के साथ है। लिहाज़ा फ़रिश्तों को बताया गया कि आदम को सिर्फ़ इख़्तियार ही नहीं, इल्म भी दिया जा रहा है।
“फिर उन (तमाम अशया) को पेश किया फ़रिश्तों के सामने” | ثُمَّ عَرَضَھُمْ عَلَي الْمَلٰۗىِٕكَةِ ۙ |
“और फ़रमाया कि बताओ मुझे इन चीज़ों के नाम अगर तुम सच्चे हो।” | فَقَالَ اَنْۢبِــُٔـوْنِىْ بِاَسْمَاۗءِ ھٰٓؤُلَاۗءِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 31 |
अगर तुम्हारा यह ख्याल सही है कि किसी ख़लीफ़ा के तक़र्रुर (नियुक्ति) से ज़मीन का इन्तेज़ाम बिगड़ जायेगा।
आयत 32
“उन्होंने कहा (परवरदिगार!) नुक़्स से पाक तो आप ही की ज़ात है” | قَالُوْا سُبْحٰــنَكَ |
आप हर नुक़्स से, हर ऐब से, हर ज़ौफ़ से, हर अहतियाज (ग़रीबी) से मुबर्रा (रहित) और मुनज़्ज़ाह हैं, आला और अरफ़ाअ हैं।
“हमें कोई इल्म हासिल नहीं सिवाय उसके जो आपने हमें सिखा दिया है।” | لَاعِلْمَ لَنَآ اِلَّا مَا عَلَّمْتَنَا ۭ |
इसकी यही ताबीर बेहतर मालूम होती है कि अल्लाह तआला की इस कायनाती हुकूमत में मलाइका की हैसियत दर हक़ीक़त उसके कारिन्दों (या Civil Servants) की है। चुनाँचे हर एक को सिर्फ़ उसके शौबे (क्षेत्र) के मुताल्लिक़ इल्म दिया गया है, उनका इल्म जामेअ नहीं है और उनके पास तमाम चीज़ों का मज्मुई इल्म हासिल करने की इस्तेअदाद
(क्षमता) नहीं है। मसलन कोई फ़रिश्ता बारिश के इन्तेज़ाम पर मामूर है, कोई पहाड़ों पर मामूर है, जिसका ज़िक्र सीरत में आता है कि जब ताईफ़ में रसूल अल्लाह ﷺ पर पथराव हुआ तो उसके बाद एक फ़रिश्ता हाज़िर हुआ कि मैं मलाकुल जिबाल हूँ, अल्लाह ने मुझे पहाड़ों पर मामूर किया हुआ है, अगर आप ﷺ फ़रमायें तो मैं इन दो पहाड़ों को आपस में टकरा दूँ जिनके दरमियान ताईफ़ की यह वादी वाके़अ है और इस तरह अहले ताईफ़ पिस कर सुरमा बन जायें। आप ﷺ ने फ़रमाया कि नहीं, क्या अजब कि अल्लाह तआला इनकी आईन्दा नस्लों को हिदायत दे दे। तो फरिश्ते अल्लाह तआला की तरफ़ से मुख़्तलिफ़ ख़िदमात पर मामूर हैं और उनको जो इल्म दिया गया है वह सिर्फ़ उनके अपने फराइज़े मनसबी और उनके अपने-अपने शौबे से मुताल्लिक़ दिया गया है, जबकि हज़रत आदम (अलै०) को इल्म की जामियत बिलक़ुव्वा (Potentially) दे दी गयी, जो बढ़ते-बढ़ते अब एक बहुत तनावर दरख़्त बन चुका है।
“यक़ीनन आप ही हैं जो सब कुछ जानने वाले कामिल हिकमत वाले है।” | اِنَّكَ اَنْتَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ 32 |
आप ही की ज़ात है जो कुल के कुल इल्म की मालिक है और जिसकी हिकमत भी कामिल है। बाक़ी तो मख़लूक़ में से हर एक का इल्म नाक़िस (अधूरा) है।
आयत 33
“अल्लाह ने फ़रमाया कि ऐ आदम! इनको बताओ इन चीज़ों के नाम।” | قَالَ يٰٓاٰدَمُ اَنْۢبِئْـھُمْ بِاَسْمَاۗىِٕهِمْ ۚ |
“तो जब उसने बता दिये उनको उन सबके नाम” | فَلَمَّآ اَنْۢبَاَھُمْ بِاَسْمَاۗىِٕهِمْ ۙ |
“तो (अल्लाह ने) फ़रमाया: क्या मैंने तुमसे कहा ना था कि मैं जानता हूँ आसमानों और ज़मीन की तमाम छुपी हुई चीज़ों को” | قَالَ اَلَمْ اَقُلْ لَّكُمْ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ غَيْبَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ |
जो तुम्हारी निगाहों से ओझल और मख़्फ़ी हैं।
“और मैं जानता हूँ जो कुछ तुम ज़ाहिर कर रहे थे और जो कुछ तुम छुपा रहे थे।” | مَا تُبْدُوْنَ وَمَا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ 33 |
इन अल्फ़ाज़ से महसूस होता है कि फ़रिश्तों की ख़्वाहिश यह थी कि ख़िलाफ़त हमें मिले, हम खुद्दामे अदब हैं, हर वक़्त तस्बीह व तहमीद और तक़दीस में मसरूफ़ हैं, जो हुक्म मिलता है बजा लाते हैं, तो यह ख़िलाफ़त किसी और मख्लूक़ को क्यों दी जा रही है।
अब आगे चूँकि तीसरी मख्लूक़ का ज़िक्र भी आयेगा लिहाज़ा यहाँ नोट कर लीजिये कि अल्लाह तआला की तीन मख्लूक़ात ऐसी हैं जो साहिबे तशख्खुस (पहचान) और साहिबे शऊर हैं और जिनमें “अना” (मैं) का शऊर है। एक मलाका हैं, उनकी तख़्लीक़ नूर से हुई है। दूसरे इन्सान हैं, जिनकी तख़्लीक़ गारे से हुई है और तीसरे जिन्नात हैं, जिनकी तख़्लीक़ आग से हुई है। बाक़ी हैवानात हैं, उनमें शऊर (consciousness) तो है, खुद शऊरी (self consciousness) नहीं है। इन्सान जब देखता है तो उसको यह भी मालूम होता है कि मैं देख रहा हूँ, जबकि कुत्ता या बिल्ला देखता है तो उसे यह अन्दाज़ा नहीं होता कि मैं देख रहा हूँ। हैवानात में “मैं” का शऊर नहीं है। यह अना, Self या Ego सिर्फ़ फ़रिश्तों में, इन्सान में और जिन्नात में है। इनमें से एक नूरी मख्लूक़ है, एक नारी मख्लूक़ है और एक ख़ाकी है, जो ज़मीन के इस क़शर (crust) में मिट्टी और पानी के मलगूबे यानि गारे से वजूद में आयी है।
आयत 34
“और याद करो जब हमने कहा फ़रिश्तों से कि सज्दा करो आदम को तो सब सज्दे में गिर पड़े सिवाय इब्लीस के।” | وَاِذْ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ |
यहाँ एक बात तो यह समझिये कि आदम (अलै०) को तमाम मलाइका के सज्दे की ज़रूरत क्या थी? क्या यह सिर्फ़ ताज़ीमन था? और अगर ताज़ीमन था तो क्या आदमे ख़ाकी की ताज़ीम मक़सूद थी या किसी और शय की ताज़ीम थी? मक्की सूरतों मे यह बात दो जगह बाअल्फ़ाज़ वाजे़ह की गयी है: {فَاِذَا سَوَّيْتُهٗ وَنَفَخْتُ فِيْهِ مِنْ رُّوْحِيْ فَقَعُوْا لَهٗ سٰجِدِيْنَ} (अल हिज्र: 29 व सुआद:72) “फिर जब मैं इस (आदम) की तख़्लीक़ मुकम्मल कर लूँ और इसमें अपनी रूह में से फूँक दू तब गिर पड़ना उसके सामने सज्दे में।” चुनाँचे ताज़ीम अगर है तो आदमे ख़ाकी की नहीं है, उसके अन्दर मौजूद “रूहे रब्बानी” की है, जो एक Divine Element या Divine Spark है, जिसे खुद ख़ालिक़ ने “मिन रूही” से ताबीर फ़रमाया है।
दूसरे यह कि इस सज्दे की हिकमत क्या है? इसकी इल्लत (कारण) और गरज़ (इरादा) व गायत (अंत) क्या है? जैसा कि मैंने अर्ज़ किया, इस कायनात यानि इस आफ़ाक़ी हुकूमत के कारिन्दे तो फ़रिश्ते हैं और ख़लीफ़ा बनाया जा रहा है इन्सान को। लिहाज़ा जब तक यह सारी सिविल सर्विस उसके ताबेअ ना हो जाये वह ख़िलाफ़त कैसे करेगा! जब हम किसी काम का इरादा करते हैं और कोई फ़अल करना चाहते हैं तो उस फ़अल के पूरा होने में, उसके ज़हूर पज़ीर होने में नामालूम कौन-कौन से अवामिल कारफ़रमा होते हैं और फ़ितरत की कौन-कौन सी क़ुव्वतें (forces) हमारे साथ मुवाफ़क़त (अनुकूलन) करती हैं तो हम वह काम कर सकते हैं, और उन सब पर फ़रिश्ते मामूर हैं। हर एक की अपनी अक़लीम (domain) है। अगर वह इन्सान के ताबेअ ना हो तो ख़िलाफ़त के कोई मायने ही नहीं हैं। इसे ख़िलाफ़त दी गयी है, यह जिधर जाना चाहता है जाने दो, यह नमाज़ के लिये मस्जिद में जाना चाहता है जाने दो, यह चोरी के लिये निकला है निकलने दो। इन्सान को जो इख़्तियार दिया गया है उसके इस्तेमाल में यह तमाम क़ुव्वतें उसके साथ मुवाफ़क़त करती हैं तब ही उसका कोई इरादा, ख्वाह अच्छा हो या बुरा, पाये तकमील को पहुँच सकता है। इस मुवाफ़क़त की अलामत के तौर पर तमाम फ़रिश्तों को इन्सान के आगे झुका दिया गया।
इस आयत में “اِلَّآ اِبْلِيْسَ” (सिवाय इब्लीस के) से यह मुगालता पैदा हो सकता है कि शायद इब्लीस भी फ़रिश्ता था। इसलिये कि सज्दे का हुक्म तो फ़रिश्तों को दिया गया था। इस मुगालते का इज़ाला (निवारण) सूरतुल कहफ़ में कर दिया गया जो सूरतुल बक़रह से बहुत पहले नाज़िल हो चुकी थी। वहाँ अल्फ़ाज़ आये हैं: {كَانَ مِنَ الْجِنِّ فَفَسَقَ عَنْ اَمْرِ رَبِّهٖ} (आयत:50) “वह जिन्नों में से था, पस उसने सरकशी की अपने रब के हुक्म से।” फ़रिश्तों मे से होता तो नाफ़रमानी कर ही ना सकता। फ़रिश्तों की शान तो यह है कि वह अल्लाह के किसी हुक्म से सरताबी (हठधर्मी) नहीं कर सकते। अज़रूए अल्फ़ाज़ कुरानी: {لَّا يَعْصُوْنَ اللّٰهَ مَآ اَمَرَهُمْ وَيَفْعَلُوْنَ مَا يُؤْمَرُوْنَ} (अल तहरीम:6) “वह अल्लाह के किसी हुक्म की नाफ़रमानी नहीं करते और जो हुक्म भी उन्हें दिया जाता है उसे बजा लाते हैं।” जिन्नात भी इन्सानों की तरह एक ज़ी इख़्तियार (सक्षम प्राधिकारी) मख़्लूक़ है जिसे ईमान-ओ-कुफ़्र और इताअत-ओ-माअसियत (आज्ञा व अवहेलना) दोनों की क़ुदरत बख़्शी गयी है। चुनाँचे जिन्नात में नेक भी हैं बद भी हैं, आला भी हैं, अदना भी हैं, जैसे इन्सानों में हैं। लेकिन यह “अज़ाज़ील” जो जिन्न था, इल्म व इबादत दोनों के ऐतबार से बहुत बुलन्द हो गया था और फ़रिश्तों का हमनशीन था। यह फ़रिश्तों के साथ इस तौर पर शामिल था जैसे बहुत से इन्सान भी अगर अपनी बन्दगी में, ज़ुहद में, नेकी में तरक़्क़ी करें तो उनका आलमे अरवाह के साथ, आलमे मलाइका के साथ और मला-ए-आला के साथ एक राब्ता क़ायम होता है। इसी तरह अज़ाज़ील भी जिन्न होने के बावजूद अपनी नेकी, इबादत, पारसाई (धार्मिकता) और अपने इल्म में फ़रिश्तों से बहुत आगे था, इसलिये “मुअल्लिमुल मलाकूत” की हैसियत इख़्तियार कर चुका था और उसे अपनी इस हैसियत का बड़ा ज़अम (गुरूर) था।
जैसा कि अर्ज़ किया गया, क़ुरान हकीम में क़िस्सा आदम व इब्लीस के ज़िमन में यह बात सात मर्तबा आयी है कि फ़रिश्तों को हुक्म हुआ कि आदम को सज्दा करो, सब झुक गये मगर इब्लीस ने सज्दे से इन्कार कर दिया। आयत ज़ेरे मुतआला में क़िस्सा आदम व इब्लीस सातवीं मर्तबा आ रहा है। अगरचे मुसहफ़ में यह पहली मर्तबा आ रहा है लेकिन तरतीबे नुज़ूली के ऐतबार से यहाँ सातवीं मर्तबा आ रहा है। आदम व इब्लीस का यह क़िस्सा सूरतुल बक़रह के बाद सूरतुल आराफ़ में, फिर सूरतुल हिज्र में, फिर सूरह बनी इसराइल में, फिर सूरतुल कहफ़ में, फिर सूरह ताहा में और फिर सूरह सुआद में आयेगा। यानि यह क़िस्सा क़ुरान हकीम में छ: मर्तबा मक्की सूरतों में आया है और एक मर्तबा मदनी सूरत सूरतुल बक़रह में आया है।
इब्लीस का असल नाम “अज़ाज़ील” था, इब्लीस अब इसका सिफ़ाती नाम है। इसलिये कि اَبْلَسَ، یُبْلِسُ के मायने होते हैं मायूस हो जाना। यह अल्लाह की रहमत से बिल्कुल मायूस है और जो अल्लाह की रहमत से मायूस हो जाये वह शैतान हो जाता है। वह सोचता है कि अब मेरा तो छुटकारा नहीं है, मेरी तो आक़बत (परिणाम) खराब हो ही चुकी है, लिहाज़ा मैं अपने साथ और जितनों को बरबाद कर सकता हूँ कर लूँ। “हम तो डूबे हैं सनम तुमको भी ले डूबेंगे!” अब वह शैतान इस मायने में है कि इन्सान की अदावत (दुश्मनी) उसकी घुट्टी में पड़ गयी। उसने अल्लाह से इजाज़त भी ले ली कि मुझे मोहलत दे दे क़यामत के दिन तक के लिये {اِلٰی یَوْمِ یُبْعَثُوْنَ} तो मैं साबित कर दूँगा कि यह आदम उस रुतबे का हक़दार ना था जो इसे दिया गया।
“उसने इन्कार किया और तकब्बुर किया।” | اَبٰى وَاسْتَكْبَرَ ڭ |
क़ुरान हकीम में दूसरे मक़ामात पर उसके यह अल्फ़ाज़ नक़ल हुए हैं: {اَنَا خَيْرٌ مِّنْهُ ۚ خَلَقْتَنِيْ مِنْ نَّارٍ وَّخَلَقْتَهٗ مِنْ طِيْنٍ } (अल आराफ़:12 व सुआद:76) “मैं उससे बेहतर हूँ, तूने मुझे आग से बनाया और उसे गारे से बनाया।” दर हक़ीक़त यही वह तकब्बुर है जिसने उसे रान्दाह दरगाहे हक़ कर दिया।
तकब्बुर अज़ाज़ील रा ख्वार कर्द, कि दर तौक़े लानत गिरफ्तार कर्द!
“और हो गया वह काफ़िरों में से।” या “और था वह काफ़िरों में से।” | وَكَانَ مِنَ الْكٰفِرِيْنَ 34 |
کَانَ अरबी ज़बान में दो तरह का होता है: “ताम्मा” और “नाक़िसा।” کَانَ नाक़िसा के ऐतबार से यह मायने हो सकते हैं कि अपने उस इस्तकबार और इन्कार की वजह से वह काफ़िरों में से हो गया। जबकि کَانَ ताम्मा के ऐतबार से यह मायने होंगे कि वह था ही काफ़िरों में से। यानि उसके अन्दर सरकशी छुपी हुई थी, अब ज़ाहिर हो गयी। ऐसा मामला कभी हमारे मुशाहिदे (अनुभव) में भी आता है कि किसी शख्स की बदनियती पर नेकी और ज़ुहद के परदे पड़े रहते हैं और किसी ख़ास वक़्त में आकर वह नंगा हो जाता है और उसकी बातिनी हक़ीक़त सामने आ जाती है।
आयत 35
“और हमने कहा ऐ आदम! रहो तुम और तुम्हारी बीवी जन्नत में” | وَقُلْنَا يٰٓاٰدَمُ اسْكُنْ اَنْتَ وَزَوْجُكَ الْجَنَّةَ |
सवाल पैदा होता है कि यह जन्नत कौनसी है? अक्सर हज़रात के नज़दीक यह जन्नत कहीं आसमान ही में थी और आसमान ही में हज़रत आदम (अलै०) की तख़्लीक़ हुई। अलबत्ता यह सब मानते हैं कि यह वह जन्नतुल फ़िरदौस नहीं थी जिसमें जाने के बाद निकलने का कोई सवाल नहीं। उस जन्नत में तो आख़िरत में लोगों को जाकर दाखिल होना है और उसमें दाखिले के बाद फिर वहाँ से निकलने का कोई इम्कान नहीं है। एक राय यह भी है, और मेरा रुझान इसी राय की तरफ है, कि तख़्लीक़े आदम (अलै०) इसी ज़मीन पर हुई है। वह तख़्लीक़ जिन मराहिल से गुज़री वह इस वक़्त हमारा मौज़ू-ए-बहस नहीं है। बायोलॉजी और वही दोनों इस पर मुत्तफिक़ हैं कि क़शरे अर्द़ (Crust of the Earth) यानि मिट्टी से इन्सान की तख़्लीक़ हुई है। इसके बाद किसी ऊँचे मक़ाम पर किसी सरसब्ज़ व शादाब इलाक़े में हज़रत आदम (अलै०) को रखा गया, जहाँ हर क़िस्म के मेवे थे, हर शय बाफ़रागत (आराम से) मयस्सर थी। अज़रूए अल्फ़ाज़ क़ुरानी (सूरह ताहा):
“यहाँ तुम्हारे लिये यह आसाईशें (सुविधायें) मौजूद हैं कि ना तुम्हें इसमें भूख लगेगी ना उरयानी (नग्नता) लाहक़ होगी। और यह कि ना तुम्हें इसमें प्यास तंग करेगी ना धूप सतायेगी।” | اِنَّ لَكَ اَلَّا تَجُوْعَ فِيْهَا وَلَا تَعْرٰى ١١٨ۙ وَاَنَّكَ لَا تَظْمَؤُا فِيْهَا وَلَا تَضْحٰي ١١٩ |
हज़रत आदम (अलै०) और उनकी बीवी को वहाँ हर तरह की आसाईशें हासिल थीं। अलबत्ता यह जन्नत यह सिर्फ़ एक demonstration के लिये थी कि उन्हें नज़र आ जाये कि शैतान उनका और उनकी औलाद का अज़ली (अनन्त काल से) दुश्मन है, वह उन्हें वरगलायेगा और तरह-तरह से वसवसा अन्दाज़ी करेगा। इसकी मिसाल यूँ समझिये कि किसी शख्स का इन्तख़ाब तो हो गया और वह CSP cadre में आ गया, लेकिन उसकी तैनाती (Posting) से पहले उसे सिविल सर्विस अकेडमी में ज़ेरे तरतीब रखा जाता है। वाजे़ह रहे कि यहाँ जो लफ्ज़ ھبوط (उतरना) आ रहा है वह सिर्फ़ इसी एक मायने में नहीं आता, इसके दूसरे मायने भी हैं। यह चीजे़ं फिर मुतशाबेहात में से रहेंगी। इसलिये इनके बारे में ग़ौरो फिक्र से कोई एक या दूसरी राय इख़्तियार की जा सकती है। वल्लाहु आलम!
“और खाओ इसमें से बाफ़रागत (आराम से) जहाँ से चाहो।” | وَكُلَامِنْهَا رَغَدًا حَيْثُ شِـئْتُمَـا ۠ |
यहाँ हर तरह के फल मौजूद हैं, जो चाहो बिला रोक-टोक खाओ।
“मगर उस दरख़्त के क़रीब मत जाना।” | وَلَا تَـقْرَبَا ھٰذِهِ الشَّجَرَةَ |
यहाँ पर उस दरख़्त का नाम नहीं लिया गया, इशारा कर दिया गया कि उस दरख़्त के क़रीब भी मत जाना।
“वरना तुम ज़ालिमों में से हो जाओगे।” | فَتَكُوْنَا مِنَ الظّٰلِمِيْنَ 35 |
तुम हद से गुज़रने वालों में से शुमार होगे।
अब इसकी भी हिकमत समझिये कि यह उस demonstration का हिस्सा है कि दुनिया में खाने-पीने की हज़ारों चीजे़ं मुबाह (permissible) हैं, सिर्फ़ चन्द चीज़ें हराम हैं। अब अगर तुम हज़ारों मुबाह चीज़ों को छोड़ कर हराम में मुँह मारते हो तो यह नाफ़रमानी शुमार होगी। अल्लाह ने मुबाहात का दायरा बहुत वसी रखा है। चन्द रिश्ते हैं जो बयान कर दिये गये कि यह हराम हैं, मुहर्रमाते अब्दिया हैं, इनसे तो शादी नहीं हो सकती, बाक़ी एक मुस्लमान मर्द किसी मुस्लमान औरत से दुनिया के किसी भी कोने में शादी कर सकता है, उसके लिये करोड़ों options खुले हैं। फिर एक नहीं, दो-दो, तीन-तीन, चार-चार तक औरतों से शादी की इजाज़त दी गयी है। इसके बावजूद इन्सान शादी ना करे और ज़िना करे, तो यह गोया उसकी अपनी खबासते नफ्स है। चुनाँचे आदम व हव्वा (अलै०) को बता दिया गया कि यह पूरा बाग़ तुम्हारे लिये मुबाह है, बस यह एक दरख़्त है, उसके पास ना जाना। दरख़्त का नाम लेने की कोई ज़रूरत नहीं थी। यह तो सिर्फ़ एक आज़माईश और उसकी demonstration थी।
आयत 36
“फिर फिसला दिया उन दोनों को शैतान ने उस दरख़्त के बारे में” | فَاَزَلَّهُمَا الشَّيْطٰنُ عَنْهَا |
इसकी तफ़सील सूरह ताहा में आयी है कि शैतान ने उन्हें किस-किस तरीक़े से फिसलाया और उन्हें उस दरख़्त का फल चखने पर आमादा किया।
“तो निकलवा दिया उन दोनों को उस कैफ़ियत में से जिसमें वह थे।” | فَاَخْرَجَهُمَا مِمَّا كَانَا فِيْهِ ۠ |
वह क्या कैफ़ियत थी कि ना कोई मशक़्क़त है, ना कोई मेहनत है और इन्सान को हर तरह का अच्छे से अच्छा फल मिल रहा है, तमाम ज़रूरियात फ़राहम (प्रदान) हैं और ख़ास ख़लअते फ़ाख़रह (आलीशान पहनावे) से भी नवाज़ा गया है, जन्नत का खास लिबास अता किया गया है। लेकिन इन कैफ़ियात से निकाल कर उन्हें कहा गया कि अच्छा अब जाओ और ज़िन्दगी के तल्ख हक़ाइक़ का सामना करो। याद रखना कि शैतान तुम्हारा और तुम्हारी नस्ल का दुश्मन है और वह तुम्हें फिसलायेगा जैसे आज फिसलाया है, तुम उसकी शरारतों से होशियार रहना: {اِنَّ الشَّيْطٰنَ لَكُمْ عَدُوٌّ فَاتَّخِذُوْهُ عَدُوًّا ۭ } (फ़ातिर:6) “यक़ीनन शैतान तुम्हारा दुश्मन है, इसलिये तुम भी उसे अपना दुश्मन ही समझो।” लेकिन अगर कुछ लोग उसे अपना दोस्त बना लें और उसके एजेन्ट और कारिन्दे बन जायें तो यह उनका इख़्तियार है जिसकी सज़ा उन्हें मिलेगी।
“और हमने कहा तुम सब उतरो, तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो गये।” | وَقُلْنَا اھْبِطُوْا بَعْضُكُمْ لِبَعْضٍ عَدُوٌّ ۚ |
नोट कीजिये यहाँ जमा का सीगा आया है कि तुम एक-दूसरे के दुश्मन हो गये। तो एक दुश्मनी तो शैतान और आदम और ज़ुर्रियते (औलाद) आदम की है, जबकि एक और दुश्मनी इन्सानों में मर्द और औरत के माबैन है। औरत मर्द को फिसलाती है और गलत रास्ते पर ड़ालती है और मर्द औरतों को गुमराह करते हैं। क़ुरान मजीद में फ़रमाया गया है: (सूरह तगाबुन:14) {يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنَّ مِنْ اَزْوَاجِكُمْ وَاَوْلَادِكُمْ عَدُوًّا لَّكُمْ فَاحْذَرُوْهُمْ ۚ } “ऐ अहले ईमान! यक़ीनन तुम्हारी बीवियों और तुम्हारी औलाद में तुम्हारे दुश्मन हैं, इनसे होशियार रहो।” कहीं इनकी मोहब्बत तुम्हें राहे हक़ से मुनहरिफ़ (गुमराह) ना कर दे। शौहर एक अच्छा काम करना चाहता है लेकिन बीवी रुकावट बन गयी या बीवी कोई अच्छा काम करना चाहती है और शौहर रुकावट बन गया तो यह मोहब्बत नहीं अदावत है।
“और तुम्हारे लिये अब ज़मीन में ठिकाना है और नफ़ा उठाना है एक ख़ास वक़्त तक।” | وَلَكُمْ فِى الْاَرْضِ مُسْـتَقَرٌّ وَّمَتَاعٌ اِلٰى حِيْنٍ 36 |
अब ज़मीन तुम्हारी जाये क़याम है और यहाँ ज़रूरत की तमाम चीज़ें हमने फ़राहम कर दी हैं, लेकिन यह एक वक़्ते मुअय्यन तक के लिये है, यह अब्दी (हमेशा के लिये) नहीं है, एक वक़्त आयेगा कि हम यह बिसात लपेट देंगे। {يَوْمَ نَطْوِي السَّمَاۗءَ كَـطَيِّ السِّجِلِّ لِلْكُتُبِ ۭ} (सूरह अम्बिया:104) “जिस दिन कि हम तमाम आसमानों को इस तरह लपेट लेंगे जैसे औवराक़ का तूमार (कागज़ों का स्क्रॉल) लपेट लिया जाता है।” यह तख़्लीक़ अब्दी नहीं है, “اِلٰی اَجَلٍ مُّسَمَّی” है “اِلٰی حِیْنٍ” है।
आयत 37
“फिर सीख लिये आदम ने अपने रब से चन्द कलिमात, तो अल्लाह ने उसकी तौबा क़ुबूल कर ली।” | فَتَلَـقّيٰٓ اٰدَمُ مِنْ رَّبِّهٖ كَلِمٰتٍ فَتَابَ عَلَيْهِ ۭ |
इसकी वज़ाहत सूरतुल आराफ़ में है। जब हज़रत आदम (अलै०) ने अल्लाह तआला का हुक्मे अताब आमेज़ (अपमानजनक दोष) सुना और जन्नत से बाहर आ गये तो सख़्त पशेमानी (पछतावा) और नदामत (लज्जा) पैदा हुई कि यह मैंने क्या किया, मुझसे कैसी ख़ता सरज़द हो गयी कि मैंने अल्लाह के हुक्म की खिलाफ वर्ज़ी कर डाली। लेकिन उनके पास तो तौबा व इस्तगफ़ार के लिये अल्फ़ाज़ नहीं थे। वह नहीं जानते थे कि किन अल्फ़ाज़ में अल्लाह तआला से माफी चाहें। अल्लाह की रहमत यह हुई कि उसने अल्फ़ाज़ उन्हें खुद तल्क़ीन फ़रमा दिये। यह अल्लाह की शाने रहीमी है। तौबा की असल हक़ीक़त इन्सान के अन्दर गुनाह पर नदामत का पैदा हो जाना है। इक़बाल ने अन्फ़वाने शबाब में जो अशआर कहे थे उनमें से एक शेर को सुन कर उस वक़्त के उस्ताज़ाह भी फड़क उठे थे:
मोती समझ के शाने करीमी ने चुन लिये क़तरे जो थे मेरे अर्क़े इन्फ़िआल के!
यानि शर्मिन्दगी के बाइस मेरी पेशानी पर पसीने के जो क़तरे नमूदार (हाज़िर) हो गये मेरे परवरदिगार को वह इतने अज़ीज़ हुए कि उसने उन्हें मोतियों की तरह चुन लिया। हज़रत आदम व हव्वा अलै० को जब अपनी गलती पर नदामत हुई तो गिरया व ज़ारी (शोक-विलाप) में मशगूल हो गये। इस हालत में अल्लाह तआला ने अपनी रहमत से उन्हें चन्द कलिमात इलक़ा फ़रमाये (सिखाये) जिनसे उनकी तौबा क़ुबूल हुई। वह कलिमात सूरतुल आराफ़ में बयान हुए हैं: {رَبَّنَا ظَلَمْنَآ اَنْفُسَنَا ۫وَاِنْ لَّمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُوْنَنَّ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ} (आयत:23) “ऐ हमारे रब! हमने अपनी जानों पर ज़ुल्म किया है, और अगर तूने हमें बख़्श ना दिया और हम पर रहम ना फ़रमाया तो हम ज़रूर ख़सारा पाने वालों में हो जायेंगे।” तबाह व बर्बाद हो जायेंगे।
इस मक़ाम पर शैतानियत और आदमियत का फ़ौरी तक़ाबुल मौजूद है। गलती इब्लीस से भी हुई, अल्लाह के हुक्म से सरताबी हुई, लेकिन उसे उस पर नदामत नहीं हुई बल्कि वह तकब्बुर की बिना पर मज़ीद अड़ गया कि “اَنَا خَیْرٌ مِّنْہُ” और सरकशी का रास्ता इख़्तियार किया। दूसरी तरफ़ गलती आदम से भी हुई, नाफ़रमानी हुई, लेकिन वह उस पर पशेमान हुए और तौबा की। वह तर्जे़ अमल शैतानियत है और यह आदमियत है। वरना कोई इन्सान गुनाह से और माअसियत (गलती) से मुबर्रा (वंचित) नहीं है। रसूल अल्लाह ﷺ की एक हदीस है: ((کُلُّ بَنِیْ آدَمَ خَطَّاءٌ وَ خَیْرُ الْخَطَّائِیْنَ التَّوَّابُوْنَ))(5) “आदम (अलै०) की तमाम औलाद ख़ताकार है, और उन ख़ताकारो में बेहतर वह हैं जो तौबा कर लें।” हज़रत आदम (अलै०) से गलती हुई। उन्हें उस पर नदामत हुई, उन्होंने तौबा की तो अल्लाह तआला ने उनकी तौबा क़ुबूल फ़रमा ली।
“यक़ीनन वही तो है तौबा का बहुत क़ुबूल करने वाला, बहुत रहम फ़रमाने वाला।” | اِنَّهٗ ھُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ 37 |
तौबा का लफ्ज़ दोनों तरफ़ से आता है। बन्दा भी तव्वाब है। अज़रूए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: {اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ التَّـوَّابِيْنَ وَيُحِبُّ الْمُتَطَهِّرِيْنَ} (सूरतुल बक़रह:222) जबकि तव्वाब अल्लाह तआला भी है। इसकी असल हक़ीक़त समझ लीजिये। बन्दे ने ख़ता की और अल्लाह से दूर हो गया तो अल्लाह ने अपनी रहमत की निगाह उससे फेर ली। बन्दे ने तौबा की तो अल्लाह फिर अपनी रहमत के साथ उसकी तरफ मुतवज्जा हो गया। तौबा के मायने हैं पलटना। बन्दा माअसियत से तौबा करके अपनी इस्लाह की तरफ़, बन्दगी की तरफ़, इताअत की तरफ़ पलट आया, और अल्लाह ने जो अपनी नज़रे रहमत बन्दे से फेर ली थी, फिर अपनी शाने गफ्फ़ारी और रहीमी के साथ बन्दे की तरफ़ तवज्जो फ़रमा ली। इसके लिये हदीस में अल्फ़ाज़ आते हैं:
((…. وَاِنْ تَقَرَّبَ اِلَیَّ بِشِبْرٍ تَقَرَّبْتُ اِلَیْہِ ذِرَاعًا وَاِنْ تَقَرَّبَ اِلَیَّ ذِرَاعًا تَقَرَّبْتُ اِلَیْہِ بَاعًا، وَاِنْ اَتَانِیْ یَمْشِیْ اَتَیْتُہٗ ھَرْوَلَۃً )) (6)
“…..और अगर वह (मेरा बन्दा) बालिश्त भर मेरी तरफ़ आता है तो मैं हाथ भर उसकी तरफ़ आता हूँ, और अगर वह हाथ भर मेरी तरफ़ आता है तो मैं दो हाथ उसकी तरफ़ आता हूँ, और अगर वह चल कर मेरी तरफ़ आता है तो मैं दौड़ कर उसकी तरफ़ आता हूँ।”
हम तो माइल बा करम है कोई साइल ही नहीं
राह दिखलायें किसे राह रवे मंज़िल ही नहीं!
वह तो तव्वाब है। बस फ़र्क़ यह है कि “تَابَ” बन्दे के लिये आयेगा तो “اِلٰی” के सिला के साथ आयेगा। जैसे: {اِنِّیْ تُبْتُ اِلَیْکَ} और जब अल्लाह के लिये आयेगा तो “عَلٰی” के सिला के साथ “تَابَ عَلٰی” आयेगा, जैसे आयत ज़ेरे मुतआला में आया: { فَتَابَ عَلَيْهِ}। अल्लाह की शान बहुत बुलन्द है। इन्सान तौबा करता है तो उसकी तरफ़ तौबा करता है, जबकि अल्लाह की शान यह है कि वह बन्दे पर तौबा करता है।
आयत 38
“हमने कहा: तुम सबके सब यहाँ से उतर जाओ।” | قُلْنَا اھْبِطُوْا مِنْهَا جَمِيْعًا ۚ |
अब यहाँ लफ्ज़ “اھْبِطُوْا” आया है जो इससे पहले भी आया है। जो हज़रात यह समझते हैं कि तख़्लीक़े आदम (अलै०) आसमानों पर हुई है और वह जन्नत भी आसमानों पर ही थी जहाँ हज़रत आदम (अलै०) आज़माइश या तरबियत के लिये रखे गये थे वह “اھْبِطُوْا” का तर्जुमा करेंगे कि उन्हें आसमान से ज़मीन पर उतरने का हुक्म दिया गया। लेकिन जो लोग समझते हैं कि हज़रत आदम (अलै०) को ज़मीन पर ही किसी बुलन्द मक़ाम पर रखा गया था वह कहते हैं कि “اھْبِطُوْا” से मुराद बुलन्द जगह से नीचे उतरना है ना कि आसमान से ज़मीन पर उतरना। वह वह आज़माइशी जन्नत किसी ऊँची सतह मरतफ़अ (पठार) पर थी। वहाँ पर हुक्म दिया गया कि नीचे उतरो और जाओ, अब तुम्हें ज़मीन में हल चलाना पड़ेगा और रोटी हासिल करने के लिये मेहनत करना पड़ेगी। यह नेअमतों के दस्तरख्वान जो यहाँ बिछे हुए थे अब तुम्हारे लिये नहीं हैं। इस मायने में इस लफ्ज़ का इस्तेमाल इसी सूरतुल बक़रह के सातवें रुकूअ में हुआ है: {اِھْبِطُوْا مِصْرًا فَاِنَّ لَكُمْ مَّا سَاَلْتُمْ } (आयत:61)
“तो जब भी आये तुम्हारे पास मेरी जानिब से कोई हिदायत, तो जो लोग मेरी उस हिदायत की पैरवी करेंगे उनके लिये ना कोई खौफ़ होगा और ना वह हुज़्न से दो-चार होंगे।” | فَاِمَّا يَاْتِيَنَّكُمْ مِّـنِّىْ ھُدًى فَمَنْ تَبِعَ ھُدَاىَ فَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ 38 |
यह है इल्मे इन्सानी का दूसरा गोशा, यानि इल्म बिलवही (Revealed Knowledge)। इस चौथे रुकूअ का हुस्न मुलाहिज़ा कीजिये कि इसके शुरू में इल्म बिलहवास या इकतसाबी इल्म (Acquired Knowledge) का ज़िक्र है जो बिलक़ुव्वा (Potentially) हज़रत आदम (अलै०) में रख दिया गया और जिसे इन्सान ने फिर अपनी मेहनत से, अपने हवास और अक़्ल के ज़रिये से आगे बढ़ाया। यह इल्म मुसलसल तरक़्क़ी पज़ीर है और आज मग़रबी अक़वाम इसमें हमसे बहुत आगे हैं। कभी एक ज़माने में मुस्लमान बहुत आगे निकल गये थे, लेकिन ज़ाहिर है कि इस दुनिया में उरूज तो उन्हीं को होगा जिन्हें सबसे ज़्यादा उसकी आगही (जागरूकता) हासिल होगी। अलबत्ता वह इल्म जो आसमान से नाज़िल होता है वह अताई (given) है, जो वही पर मब्नी है। और इन्सान के मक़ामे ख़िलाफ़त का तक़ाज़ा यह है कि अल्लाह तआला के जो अहकाम उसके पास आयें, वह जो हिदायात भी भेजे उनकी पूरे-पूरे तौर पर पैरवी करे। अल्लाह तआला ने वाज़ेह फ़रमा दिया कि जो लोग मेरी इस हिदायत की पैरवी करेंगे उनके लिये किसी खौफ़ और रंज का मौक़ा ना होगा।
आयत 39
“और जो कुफ़्र करेंगे” | وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْا |
हमारी इस हिदायत को क़ुबूल करने से इन्कार करेंगे, नाशुक्री करेंगे।
“और हमारी आयात को झुठलायेंगे।” | وَكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَآ |
“वह आग वाले (जहन्नमी) होंगे, उसमें वह हमेशा-हमेश रहेंगे।” | اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 39ۧ |
यह गोया अल्लाह तआला की तरफ़ से नौए इन्सानी को अब्दी मन्शूर (charter) अता कर दिया गया जब ज़मीन पर ख़लीफ़ा की हैसियत से इन्सान का तक़र्रुर (नियुक्ति) किया गया।
जैसा कि पहले अर्ज़ किया जा चुका है, सूरतुल बक़रह के यह इब्तदाई चार रुकूअ क़ुरान की दावत और क़ुरान के बुनियादी फ़लसफ़े पर मुश्तमिल हैं, और इनमें मक्की सूरतों के मज़ामीन का खुलासा आ गया है।