Surah Hood-सूरह हूद
सूरह हूद
तम्हीदी कलिमात
सूरह हूद के दस रुकूअ हैं, जिनमें से छ: रुकूअ अम्बिया अर्ररुसुल पर मुश्तमिल हैं। यह सूरत चूँकि सूरह युनुस के साथ मिलकर जोड़ा बनाती है इसलिये सूरह युनुस के बरअक्स इसमें हज़रत नूह अलै. का ज़िक्र बहुत तफ़सील के साथ हुआ है जबकि हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र बिल्कुल सरसरी अंदाज़ में है (सूरह युनुस में हज़रत नूह अलै. का ज़िक्र सरसरी अंदाज में है और हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र तफ़सील के साथ है) इन दोनों पैगम्बरों के ज़िक्र के दरमियान में बाक़ी रसूलों का ज़िक्र इस सूरत में बिल्कुल सूरतुल आराफ़ वाले अंदाज में है, यानि एक-एक रुकूअ में एक-एक रसूल का तज़किरा है।
हदीस में आता है कि हज़रत अबु बक्र सिद्दीक़ रज़ि. ने नबी मुकर्रम ﷺ से अर्ज़ किया: “या रसूल अल्लाह! आप पर बुढ़ापे के आसार नुमायाँ हो गये हैं” जवाब में हुज़ूर ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया: ((شَیَّبَتْنِیْ ھُوْدٌ وَاَخَوَاتُھَا))(2) “मुझे सूरह हूद और उसकी हम मज़मून सूरतों ने बूढ़ा कर दिया है।” इससे अंदाज़ा होता है कि जब इन सूरतों में पै दर पै तम्बीहात नाज़िल हो रही थीं तो आप ﷺ को हर वक़्त यह अंदेशा घुलाए देता होगा कि कहीं अल्लाह की दी हुई मोहलत ख़त्म ना हो जाये और वह आख़री साअत (घड़ी/वक़्त) ना आ जाये जब अल्लाह तआला किसी क़ौम को अज़ाब में पकड़ लेने का फ़ैसला सादर फ़रमा देता है।
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 8 तक
الۗرٰ ۣ كِتٰبٌ اُحْكِمَتْ اٰيٰتُهٗ ثُمَّ فُصِّلَتْ مِنْ لَّدُنْ حَكِيْمٍ خَبِيْرٍ Ǻۙ اَلَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّا اللّٰهَ ۭ اِنَّنِيْ لَكُمْ مِّنْهُ نَذِيْرٌ وَّبَشِيْرٌ Ąۙ وَّاَنِ اسْتَغْفِرُوْا رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ يُمَتِّعْكُمْ مَّتَاعًا حَسَنًا اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى وَّيُؤْتِ كُلَّ ذِيْ فَضْلٍ فَضْلَهٗ ۭ وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ كَبِيْرٍ Ǽ اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ ۚ وَھُوَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ Ć اَلَآ اِنَّھُمْ يَثْنُوْنَ صُدُوْرَھُمْ لِيَسْتَخْفُوْا مِنْهُ ۭ اَلَا حِيْنَ يَسْتَغْشُوْنَ ثِيَابَھُمْ ۙ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ ۚ اِنَّهٗ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ Ĉ وَمَا مِنْ دَاۗبَّةٍ فِي الْاَرْضِ اِلَّا عَلَي اللّٰهِ رِزْقُهَا وَيَعْلَمُ مُسْتَــقَرَّهَا وَمُسْـتَوْدَعَهَا ۭ كُلٌّ فِيْ كِتٰبٍ مُّبِيْنٍ Č وَهُوَ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِتَّةِ اَيَّامٍ وَّكَانَ عَرْشُهٗ عَلَي الْمَاۗءِ لِيَبْلُوَكُمْ اَيُّكُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا ۭ وَلَىِٕنْ قُلْتَ اِنَّكُمْ مَّبْعُوْثُوْنَ مِنْۢ بَعْدِ الْمَوْتِ لَيَقُوْلَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ ھٰذَآ اِلَّا سِحْــرٌ مُّبِيْنٌ Ċ وَلَىِٕنْ اَخَّرْنَا عَنْهُمُ الْعَذَابَ اِلٰٓى اُمَّةٍ مَّعْدُوْدَةٍ لَّيَقُوْلُنَّ مَا يَحْبِسُهٗ ۭ اَلَا يَوْمَ يَاْتِيْهِمْ لَيْسَ مَصْرُوْفًا عَنْهُمْ وَحَاقَ بِهِمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ Ďۧ
आयत 1
“अलिफ़, लाम, रा। यह वह किताब है जिसकी आयात (पहले) पुख़्ता की गई हैं, फिर उनकी तफ़सील बयान की गई है उस हस्ती की तरफ़ से जो हकीम है और ख़बीर है।” | الۗرٰ ۣ كِتٰبٌ اُحْكِمَتْ اٰيٰتُهٗ ثُمَّ فُصِّلَتْ مِنْ لَّدُنْ حَكِيْمٍ خَبِيْرٍ Ǻۙ |
इसका एक मफ़हूम यह भी हो सकता है कि क़ुरान मजीद में शुरू-शुरू में जो सूरतें नाज़िल हुई हैं वो हुज्म के ऐतबार से तो छोटी, लेकिन बहुत जामेअ और गहरे मफ़हूम की हामिल हैं, जैसे कूज़े में समुन्दर को बंद कर दिया गया हो। मसलन सूरतुल अस्र जिसके बारे में इमाम शाफ़ई रहिमुल्लाह फ़रमाते हैं: لَوْلَمْ یُنَزَّلْ مِنَ الْقُرْآنِ سِوَاھَا لَکَفَتِ النَّاسِ यानि “अग़र इस सूरत के अलावा क़ुरान मजीद में कुछ भी नाज़िल ना होता तो भी यह सूरत लोगों की हिदायत के लिये काफ़ी थी।” इमाम शाफ़ई रहि. सूरतुल अस्र के बारे में मज़ीद फ़रमाते हैं: لَوْ تَدَبَّرَ النَّاسُ ھٰذِہِ السُّوْرَۃَ لَوَسِعَتْھُمْ “अग़र लोग इस सूरत पर ही तदब्बुर करें तो यह उनकी हिदायत के लिये काफ़ी हो जायेगी।” चुनाँचे क़ुरान मजीद की इब्तदाई सूरतें और आयात बहुत मोहकम और जामेअ हैं और बाद में उन्हीं की तफ़सील बयान हुई है। और इस किताब का बुनियादी पैग़ाम यह है:
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आयत 2
“कि मत इबादत करो किसी की सिवाय अल्लाह के। यक़ीनन मैं हूँ तुम्हारे लिये उसी की जानिब से ख़बरदार करने वाला और बशारत देने वाला।” | اَلَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّا اللّٰهَ ۭ اِنَّنِيْ لَكُمْ مِّنْهُ نَذِيْرٌ وَّبَشِيْرٌ Ąۙ |
अम्बिया और रुसुल के लिये क़ुरान मजीद में बशीर और नज़ीर के अल्फ़ाज़ बार-बार आते हैं। जैसे सूरह अन्निसा की आयत नम्बर 168 में फ़रमाया: رُسُلًا مُّبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَي اللّٰهِ حُجَّــةٌۢ بَعْدَ الرُّسُلِ ۭوَكَانَ اللّٰهُ عَزِيْزًا حَكِيْمًا और सूरह अनआम में फ़रमाया: {وَمَا نُرْسِلُ الْمُرْسَلِيْنَ اِلَّا مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ ۚ } (आयत 48)।
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आयत 3
“और यह कि अपने रब से इस्तगफ़ार करो, फिर उसकी जनाब में तौबा करो, वह तुम्हें (दुनियवी ज़िन्दगी में) माल व मताअ देगा बहुत अच्छा एक वक़्ते मुअय्यन तक और हर साहिबे फ़ज़ल को उसके हिस्से का फ़ज़ल अता करेगा।” | وَّاَنِ اسْتَغْفِرُوْا رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ يُمَتِّعْكُمْ مَّتَاعًا حَسَنًا اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى وَّيُؤْتِ كُلَّ ذِيْ فَضْلٍ فَضْلَهٗ ۭ |
यहाँ ذِيْ فَضْلٍ से मुराद है ‘मुस्तहिक़े फ़ज़ल’। यानि जो भी फ़ज़ल का मुस्तहिक़ होगा, अल्लाह तआला उसे अपना फ़ज़ल ज़रूर अता फ़रमाएगा।
“और अग़र तुम फिर जाओगे तो मुझे अंदेशा है तुम पर एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब का।” | وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ كَبِيْرٍ Ǽ |
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आयत 4
“अल्लाह ही कि तरफ़ तुम्हें लौट कर जाना है और वह हर चीज़ पर क़ादिर है।” | اِلَى اللّٰهِ مَرْجِعُكُمْ ۚ وَھُوَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ Ć |
आयत 5
“आग़ाह हो जाओ यह लोग अपने सीनों को दुहरा करते हैं ताकि अल्लाह से छुप जायें।” | اَلَآ اِنَّھُمْ يَثْنُوْنَ صُدُوْرَھُمْ لِيَسْتَخْفُوْا مِنْهُ ۭ |
यह मक़ाम मुश्किलातुल क़ुरान में से है और इसके बारे में बहुत से अक़वाल हैं। یَثْنِیْ ثَنٰی के मायने फेरने, मोड़ने और लपेटने के हैं। मक्का में रसूल अल्लाह ﷺ की दावत के मुख़ालफ़ीन में से कुछ लोगों का रवैया ऐसा था कि आप ﷺ को आते देखते तो रुख़ बदल लेते या कपड़े की ओट में मुँह छुपा लेते, ताकि कहीं आमना-सामना ना हो जाये और आप ﷺ उन्हें मुख़ातिब करके कुछ अपनी बातें ना कहने लगें। यहाँ ऐसे लोगों की तरफ़ इशारा है कि यह लोग हक़ का सामना और हक़ीकत का मुवाजह (interface) करने से घबराते हैं, हालाँकि किसी के गुरेज़ करने से हक़ीक़त ग़ायब नहीं हो जाती। शुतुरमुर्ग तूफ़ान के दौरान अगर रेत में सर छुपा ले तो इससे तूफ़ान का रुख़ तब्दील नहीं हो जाता।
इसके अलावा एक राय वह है जो बुख़ारी शरीफ़ में हज़रत इब्ने अब्बास रज़ि. के हवाले से नकल हुई है कि कुछ अहले ईमान पर हया का बहुत ज़्यादा ग़लबा था (मसनल हज़रत उस्मान रज़ि. इन अस्हाब में बहुत नुमायाँ थे) ऐसे लोग कभी गुस्ल के वक़्त भी उरिया (नंगा) होना पसंद नहीं करते थे और ऐसे मौक़ो पर इस अंदाज़ से झुक जाते थे कि जहाँ तक मुम्किन हो सतर छुपा रहे। इसी तरह क़जाए हाजत (टॉयलेट में जाने) के वक़्त भी पूरे सतर का अहतमाम करते थे। इस हवाले से इस हुक्म का मंशा यह है कि तुम इस सिलसिले में जो कुछ भी कर लो, अल्लाह तआला की निगाहों से तो नहीं छुप सकते हो। लिहाज़ा सतर छुपाने के बारे में जो भी अहकमात हैं उनकी मारूफ़ तरीक़े से पैरवी करो। इस तरह के किसी भी मामले में गुलु की ज़रुरत नहीं है।
“आगाह हो जाओ कि जब वो अपने ऊपर अपने कपड़े लपेटते हैं तब भी अल्लाह जानता है जो कुछ वो छुपा रहे होते हैं और जो कुछ ज़ाहिर कर रहे होते हैं। वह तो उसको भी जानता है जो कुछ सीनों के अंदर है।” | اَلَا حِيْنَ يَسْتَغْشُوْنَ ثِيَابَھُمْ ۙ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ ۚ اِنَّهٗ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ Ĉ |
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आयत 6
“और नहीं है कोई भी चलने-फिरने वाला (जानदार) ज़मीन पर, मगर उसका रिज़्क़ अल्लाह के ज़िम्मे है।” | وَمَا مِنْ دَاۗبَّةٍ فِي الْاَرْضِ اِلَّا عَلَي اللّٰهِ رِزْقُهَا |
अल्लाह तआला ने इस कायनात के अंदर तक़सीम-ए-रिज़्क़ का जो निज़ाम वज़अ (प्रारूप तैयार) किया है उसमें उसने हर जानदार के लिये उसकी ज़रूरियाते ज़िन्दगी फ़राहम कर दी हैं। बच्चे की पैदाईश बाद में होती है मगर उसके लिये माँ की छातियों में दूध पहले पैदा हो जाता है। लेकिन जहाँ कोई इंसान या इंसानों का कोई गिरोह अल्लाह के इस निज़ाम और उसके क़वानीन को पसे पुस्त डाल कर कोई ऐसा निज़ाम या ऐसे क़वानीन वज़अ करे जिनके तहत एक फ़र्द के हिस्से का रिज़्क़ किसी दूसरे के झोली में चला जाये, तो रिज़्क़ या दौलत की तक़सीम का ख़ुदाई निज़ाम दरहम-बरहम हो जायेगा। इस लूट-खसोट का लाज़मी नतीजा यह होगा कि कहीं दौलत के बेजा अम्बार लगेंगे और कहीं बेशुमार इंसान फ़ाक़ों पर मजबूर हो जायेंगे। लिहाज़ा जहाँ कहीं भी रिज़्क़ की तक़सीम में कोई कमी-पेशी नज़र आये तो समझ लो कि इसका ज़िम्मेदार ख़ुद इंसान है।
“और वह जानता है उसके मुस्तक़िल ठिकाने को भी और उसके आरज़ी तौर पर सौंपे जाने की जगह को भी।” | وَيَعْلَمُ مُسْتَــقَرَّهَا وَمُسْـتَوْدَعَهَا ۭ |
मुस्तक़र और मुस्तवदअ दोनों अल्फ़ाज़ की तशरीह सूरतुल अनआम की आयत 98 में तफ़सील के साथ हो चुकी है। वहाँ इन अल्फ़ाज़ के बारे में तीन मुख़्तलिफ़ अक़वाल भी ज़ेरे बहस आ चुके हैं।
“यह सब कुछ एक रौशन किताब में (दर्ज) है।” | كُلٌّ فِيْ كِتٰبٍ مُّبِيْنٍ Č |
वही रौशन और वाज़ेह किताब जो इल्मे इलाही की किताब है।
आयत 7
“और वही है जिसने पैदा किया आसमानों और ज़मीन को छ: दिनों में और उसका तख़्त था पानी पर” | وَهُوَ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ فِيْ سِتَّةِ اَيَّامٍ وَّكَانَ عَرْشُهٗ عَلَي الْمَاۗءِ |
मेरे नज़दीक यह आयत आज भी मुतशाबेहात में से है, लेकिन शायद यह उस दौर की तरफ़ इशारा है जब यह दुनिया मअरिज़े वुजूद में आई। ज़मीन की तख़्लीक़ के बारे में साइंसी और तारीख़ी ज़राय से अब तक मिलने वाली मालूमात को मुज्तमा (इकट्ठा) करके जो आरा (बहुत सी राय) सामने आयी हैं उनके मुताबिक़ ज़मीन जब ठंडी होनी शुरु हुई तो उससे बुखारात और मुख़्तलिफ़ अक़साम की गैसें ख़ारिज हुईं। इन्हीं गैसों में से हाईड्रोजन और ऑक्सीजन के मिलने से पानी पैदा हुआ जो लाखों साल तक बारिशों की सूरत में ज़मीन पर बरसता रहा। फिर जब ज़मीन ठंडी होकर सुकड़ी तो उसकी सतह पर नशेब व फ़राज़ (उतार-चढ़ाव) पैदा होने से पहाड़ और समुद्र वुजूद में आये। उस वक़्त तक किसी क़िस्म की कोई मख्लूक़ पैदा नहीं हुई थी। यह वह दौर था जिसके बारे में कहा जा सकता है कि इस ज़मीन की हद तक अल्लाह तआला का तख़्ते हुकूमत (इसका तसव्वुर इंसानी ज़हन से मा वराअ [बहुत ऊपर] है) पानी पर था। फिर वह दौर आया जब ज़मीन की आबो-हवा ज़िन्दगी के लिये मुवाफ़िक़ हुई तो मिट्टी और पानी से वुजूद में आने वाले दलदली इलाक़ों में नबाताती (वनस्पति) या हैवानी (पशु) मख्लूक़ की इब्तदाई शक्लें पैदा हुईं (वल्लाहु आलम!)
“ताकि तुम्हें आज़माए कि कौन है तुममें से अच्छे अमल करने वाला।” | لِيَبْلُوَكُمْ اَيُّكُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا ۭ |
यानि इंसानी ज़िन्दगी का वह हिस्सा जो इस दुनिया में गुज़रता है उसका असल मक़सद इम्तिहान है। अल्लामा इक़बाल ने इस शेअर में इस आयत की बहुत खूबसूरत तर्जुमानी की है:
क़ुल्ज़ुम-ए-हस्ती से तू उभरा है मानिन्द-ए-हबाब
इस ज़ियाँ ख़ाने में तेरा इम्तिहान है ज़िन्दगी!
“और अग़र आप कहें कि तुम्हें उठाया जायेगा मरने के बाद तो कहेंगे वो लोग जिन्होंने कुफ्र किया कि यह तो खुला जादू है।” | وَلَىِٕنْ قُلْتَ اِنَّكُمْ مَّبْعُوْثُوْنَ مِنْۢ بَعْدِ الْمَوْتِ لَيَقُوْلَنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِنْ ھٰذَآ اِلَّا سِحْــرٌ مُّبِيْنٌ Ċ |
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आयत 8
“और अगर मुअख़्खर किए रखें हम उनसे अज़ाब को एक ख़ास मुद्दत तक तो वो कहते हैं कि किस चीज़ ने रोक रखा है उसे?” | وَلَىِٕنْ اَخَّرْنَا عَنْهُمُ الْعَذَابَ اِلٰٓى اُمَّةٍ مَّعْدُوْدَةٍ لَّيَقُوْلُنَّ مَا يَحْبِسُهٗ ۭ |
कि इतने अरसे से आप (ﷺ) हमें धमकियाँ दे रहे हैं कि तुम पर अज़ाब आने वाला है, मगर अब तक वह अज़ाब आया क्यों नहीं? आख़िर किस चीज़ ने उसे रोक रखा है?
“आगाह हो जाओ! जिस दिन यह उन पर आ जायेगा तो उनकी तरफ़ से फेरा नहीं जायेगा, और उनको घेरे में ले लेगी वही चीज़ जिसका यह लोग इस्तेहज़ा किया करते थे।” | اَلَا يَوْمَ يَاْتِيْهِمْ لَيْسَ مَصْرُوْفًا عَنْهُمْ وَحَاقَ بِهِمْ مَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ Ďۧ |
आयात 9 से 24 तक
وَلَىِٕنْ اَذَقْنَا الْاِنْسَانَ مِنَّا رَحْمَةً ثُمَّ نَزَعْنٰهَا مِنْهُ ۚ اِنَّهٗ لَيَـــُٔــوْسٌ كَفُوْرٌ Ḍ وَلَىِٕنْ اَذَقْنٰهُ نَعْمَاۗءَ بَعْدَ ضَرَّاۗءَ مَسَّتْهُ لَيَقُوْلَنَّ ذَهَبَ السَّـيِّاٰتُ عَنِّيْ ۭ اِنَّهٗ لَفَرِحٌ فَخُــوْرٌ 10 اِلَّا الَّذِيْنَ صَبَرُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ۭ اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّاَجْرٌ كَبِيْرٌ 11 فَلَعَلَّكَ تَارِكٌۢ بَعْضَ مَا يُوْحٰٓى اِلَيْكَ وَضَاۗىِٕقٌۢ بِهٖ صَدْرُكَ اَنْ يَّقُوْلُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ كَنْزٌ اَوْ جَاۗءَ مَعَهٗ مَلَكٌ ۭ اِنَّمَآ اَنْتَ نَذِيْرٌ ۭ وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ وَّكِيْلٌ 12ۭ اَمْ يَقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۭ قُلْ فَاْتُوْا بِعَشْرِ سُوَرٍ مِّثْلِهٖ مُفْتَرَيٰتٍ وَّادْعُوْا مَنِ اسْتَطَعْتُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 13 فَاِنْ لَّمْ يَسْتَجِيْبُوْا لَكُمْ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَآ اُنْزِلَ بِعِلْمِ اللّٰهِ وَاَنْ لَّآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ ۚ فَهَلْ اَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ 14 مَنْ كَانَ يُرِيْدُ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا وَزِيْنَتَهَا نُوَفِّ اِلَيْهِمْ اَعْمَالَهُمْ فِيْهَا وَهُمْ فِيْهَا لَا يُبْخَسُوْنَ 15 اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَيْسَ لَهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ اِلَّا النَّارُ ڮ وَحَبِطَ مَا صَنَعُوْا فِيْهَا وَبٰطِلٌ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 16 اَفَمَنْ كَانَ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّهٖ وَيَتْلُوْهُ شَاهِدٌ مِّنْهُ وَمِنْ قَبْلِهٖ كِتٰبُ مُوْسٰٓى اِمَامًا وَّرَحْمَةً ۭ اُولٰۗىِٕكَ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِهٖ مِنَ الْاَحْزَابِ فَالنَّارُ مَوْعِدُهٗ ۚ فَلَا تَكُ فِيْ مِرْيَةٍ مِّنْهُ ۤ اِنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يُؤْمِنُوْنَ 17 وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا ۭ اُولٰۗىِٕكَ يُعْرَضُوْنَ عَلٰي رَبِّهِمْ وَيَقُوْلُ الْاَشْهَادُ هٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ كَذَبُوْا عَلٰي رَبِّهِمْ ۚ اَلَا لَعْنَةُ اللّٰهِ عَلَي الظّٰلِمِيْنَ 18ۙ الَّذِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَيَبْغُوْنَهَا عِوَجًا ۭ وَهُمْ بِالْاٰخِرَةِ هُمْ كٰفِرُوْنَ 19 اُولٰۗىِٕكَ لَمْ يَكُوْنُوْا مُعْجِزِيْنَ فِي الْاَرْضِ وَمَا كَانَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ اَوْلِيَاۗءَ ۘ يُضٰعَفُ لَهُمُ الْعَذَابُ ۭ مَا كَانُوْا يَسْتَطِيْعُوْنَ السَّمْعَ وَمَا كَانُوْا يُبْصِرُوْنَ 20 اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 21 لَا جَرَمَ اَنَّهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ هُمُ الْاَخْسَرُوْنَ 22 اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاَخْبَتُوْٓا اِلٰي رَبِّهِمْ ۙاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَــنَّةِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 23 مَثَلُ الْفَرِيْقَيْنِ كَالْاَعْمٰى وَالْاَصَمِّ وَالْبَصِيْرِ وَالسَّمِيْعِ ۭ هَلْ يَسْتَوِيٰنِ مَثَلًا ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ 24ۧ
आयत 9
“और अगर हम मज़ा चखाते हैं इंसान को अपनी तरफ़ से रहमत का” | وَلَىِٕنْ اَذَقْنَا الْاِنْسَانَ مِنَّا رَحْمَةً |
“फिर (जब) हम उससे वह छीन लेते हैं तो वह हो जाता है बिल्कुल मायूस, निहायत नाशुक्रा।” | ثُمَّ نَزَعْنٰهَا مِنْهُ ۚ اِنَّهٗ لَيَـــُٔــوْسٌ كَفُوْرٌ Ḍ |
इंसान बुनियादी तौर पर कोताह नज़र और नाशुक्रा है। किसी नेअमत, कामयाबी या खुशी के बाद अगर उसे कोई मुश्किल पेश आती है तो उस वक़्त वह भूल जाता है कि उस पर कभी अल्लाह की नज़रे करम भी थी। चाहिये तो यह कि अच्छे हालात में इंसान अल्लाह का शुक्र अदा करे और जब कोई सख़्ती आ जाये तो उस पर सब्र करे और साथ ही साथ दिल में इत्मिनान रखे कि हर तरह के हालात अल्लाह तआला की तरफ़ से आते हैं, अगर आज सख़्ती है तो कल आसाइश भी तो थी।
आयत 10
“और अगर हम मज़ा चखाएँ उसे नेअमतों का किसी तकलीफ़ के बाद जो उसको पहुँची हुई थी तो ज़रूर कहेगा कि मेरे तो सारे दिलद्दर दूर हो गये।” | وَلَىِٕنْ اَذَقْنٰهُ نَعْمَاۗءَ بَعْدَ ضَرَّاۗءَ مَسَّتْهُ لَيَقُوْلَنَّ ذَهَبَ السَّـيِّاٰتُ عَنِّيْ ۭ |
“बेशक वह इतराने वाला और फ़ख्र जताने वाला है।” | اِنَّهٗ لَفَرِحٌ فَخُــوْرٌ 10 |
जब किसी सख़्ती के बाद इंसान को आसाइश या कोई नेअमत मिल जाती है तो बजाय इसके कि उसे अल्लाह की रहमत और उसका ईनाम समझते हुए सजदा-ए-शुक्र बजा लाए, वह उस पर इतराना और डींगे मारना शुरू कर देता है और उसे अपनी तदबीर का नतीजा और अपनी मेहनत का सिला क़रार देता है।
आयत 11
“सिवाय उन लोगों के जिन्होंने सब्र की रविश इख़्तियार की और नेक आमाल किये।” | اِلَّا الَّذِيْنَ صَبَرُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ ۭ |
यानि सब इंसान एक जैसे नहीं, कुछ ऐसे भी हैं जिनको अल्लाह ने हक़ीकी ईमान की नेअमत से नवाज़ रखा है और ईमान के नतीजे में उनके दिल सब्र की दौलत से मालामाल हैं और उनके किरदार से आमाले सालेहा के नूर की किरणें फूटती हैं।
“उन्हीं के लिये मग़फिरत और बहुत बड़ा अज्र है।” | اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ مَّغْفِرَةٌ وَّاَجْرٌ كَبِيْرٌ 11 |
आयत 12
“तो (ऐ नबी ﷺ!) शायद आप कुछ चीज़ें छोड़ दें उसमें से जो आपकी तरफ़ वही की जा रही है” | فَلَعَلَّكَ تَارِكٌۢ بَعْضَ مَا يُوْحٰٓى اِلَيْكَ |
“और आपका सीना उससे तंग हो रहा है जो वो कह रहे हैं, कि क्यों नहीं उनके ऊपर उतार दिया गया कोई ख़जाना या क्यों नहीं आया उनके पास कोई फ़रिश्ता।” | وَضَاۗىِٕقٌۢ بِهٖ صَدْرُكَ اَنْ يَّقُوْلُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ كَنْزٌ اَوْ جَاۗءَ مَعَهٗ مَلَكٌ ۭ |
यह मज़मून इससे पहले बड़ी वज़ाहत के साथ सूरतुल अनआम में आ चुका है, लेकिन ज़ेरे मुताअला ग्रुप की मक्की सूरतों में भी जा-बजा मुशरिकीन की ऐसी बातों का ज़िक्र मिलता है। इसलिये कि इन दोनों ग्रुप्स में शामिल यह तमाम मक्की सूरतें एक ही दौर में नाज़िल हुई हैं।
यहाँ मक्की सूरतों की तरतीब-ए-मुस्हफ़ के बारे में एक अहम नुक्ता समझ लें। रसूल अल्लाह ﷺ के क़याम-ए-मक्का के बारह साल के अरसे को अग़र चार-चार साल के तीन हिस्सों में तक़सीम करें तो पहले हिस्से यानि पहले चार साल में जो सूरतें नाज़िल हुईं वो क़ुरान मजीद के आखरी दो ग्रुपों में शामिल हैं, यानि सूरह क़ॉफ़ से लेकर आख़िर तक। दरमियानी चार साल के दौरान नाज़िल होने वाली सूरतें दरमियानी ग्रुपों में शामिल हैं और आखरी चार साल में जो सूरतें नाज़िल हुई हैं वो शुरू के दो ग्रुपों में शामिल हैं। एक ग्रुप में सूरतुल अनआम और सूरतुल आराफ़ जबकि इस दूसरे ग्रुप में सूरह यूनुस से सूरतुल मोमिनून (इसमें सिर्फ़ एक इस्तसना [exception] है जिसका ज़िक्र बाद में आयेगा)।
“(ऐ नबी ﷺ!) आप तो सिर्फ़ खबरदार करने वाले हैं, और हर चीज़ का ज़िम्मेदार अल्लाह है।” | اِنَّمَآ اَنْتَ نَذِيْرٌ ۭ وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ وَّكِيْلٌ 12ۭ |
इस दौर की सूरतों में मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में बार-बार हुज़ूर ﷺ को तसल्ली दी जा रही है कि आप ﷺ का फ़र्ज़े मन्सबी यही है कि आप ﷺ इन लोगों को ख़बरदार कर दें। इसके बाद तमाम मामलात अल्लाह के हवाले हैं। वह बेहतर जानता है कि ईमान या हिदायत की तौफ़ीक़ किसे देनी है और किसे नहीं देनी। कोई मौजज्ज़ा दिखाना है या नहीं, नाफ़रमानों को कब तक मोहलत देनी है और कब उन पर अज़ाब भेजना है। यह सब कुछ अल्लाह तआला ही के इख़्तियार में है।
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आयत 13
“क्या वो कहते हैं कि यह (क़ुरान) उस ﷺ ने ख़ुद गढ़ लिया है।” | اَمْ يَقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۭ |
“आप ﷺ कहिए कि अच्छा तुम लोग भी ले आओ इस जैसी दस सूरतें गढ़ी हुई” | قُلْ فَاْتُوْا بِعَشْرِ سُوَرٍ مِّثْلِهٖ مُفْتَرَيٰتٍ |
मुशरिकीन को यह चैलेंज मुख़्तलिफ़ दर्जों में बार-बार दिया गया था। इससे पहले उन्हें कहा गया था कि इस जैसा क़ुरान तुम भी बनाकर दिखाओ (बनी इस्राईल:88) यहाँ दूसरे दर्जे में 10 सूरतों का चैलेंज दिया गया। फिर इसके बाद बर सबीले तनज़्ज़ुल सिर्फ़ एक सूरत बनाकर लाने को कहा गया, जिसका तज़किरा सूरह युनुस (आयत 38) में भी है और सूरतुल बक़रह (आयत 23) में भी।
“और (इसके लिये) बुला लो तुम जिसको भी बुला सकते हो अल्लाह के सिवा, अगर तुम सच्चे हो।” | وَّادْعُوْا مَنِ اسْتَطَعْتُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ 13 |
आयत 14
“फिर अगर वो (तुम्हारे मददगार) तुम्हारी इस दुआ को क़ुबूल ना करें” | فَاِنْ لَّمْ يَسْتَجِيْبُوْا لَكُمْ |
यानि अगर वो इस चैलेंज को क़ुबूल करने की जुर्रत ना कर सकें और तुम्हारी मदद को ना पहुँच सकें:
“तो जान लो कि यह अल्लाह ही के इल्म से नाज़िल हुआ है और यह कि कोई मअबूद नहीं है सिवाय उसके। तो क्या अब तुम सरे तस्लीम खम करते हो?” | فَاعْلَمُوْٓا اَنَّمَآ اُنْزِلَ بِعِلْمِ اللّٰهِ وَاَنْ لَّآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ ۚ فَهَلْ اَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ 14 |
यह कुफ्फ़ार ही से ख़िताब है कि तुम लोग इस चैलेंज का जवाब देने के लिये अपने मअबूदों को पुकार देखो, कुछ खुद मेहनत करो और कुछ उनसे कहो कि वो अल्क़ाअ और इल्हाम करें और इस तरह मिल-जुल कर 10 सूरतें बना लाओ। और अगर तुम्हारे यह मअबूद तुम्हारी इस दरख़्वास्त को क़ुबूल ना कर सकें तो जान लो कि ना सिर्फ़ यह क़ुरान अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुआ है बल्कि अल्लाह के सिवा कोई और मअबूद भी नहीं। तो इस सब कुछ के बाद भी क्या तुम मानने वाले नहीं हो? ज़ोरे इस्तदलाल मुलाहिज़ा हो कि एक ही दलील से क़ुराने हकीम के कलामे इलाही होने का सुबूत भी दिया गया है और अल्लाह तआला की तौहीद का भी।
आयत 15
“जो लोग दुनिया की ज़िन्दगी और उसकी ज़ेब व ज़ीनत के तालिब हों” | مَنْ كَانَ يُرِيْدُ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا وَزِيْنَتَهَا |
जिन लोगों का मक़सदे हयात ही दुन्यवी माल व मताअ को हासिल करना हो और उसी के लिये वो रात-दिन दौड़-धूप में लगे हों तो:
“हम उनके आमाल का पूरा-पूरा बदला उन्हें इसी (दुनिया की ज़िन्दगी) में दे देते हैं और इसमें उनकी हक़तल्फ़ी नहीं की जाती।” | نُوَفِّ اِلَيْهِمْ اَعْمَالَهُمْ فِيْهَا وَهُمْ فِيْهَا لَا يُبْخَسُوْنَ 15 |
इन लोगों के दिल व दिमाग पर दुनिया परस्ती छाई हुई है, और इन्होंने अपनी तमामतर सलाहियतें दुन्यवी ज़िन्दगी को हसीन व दिलकश बनाने के लिये ही सर्फ़ कर दी हैं। उनकी सारी मन्सूबाबंदी इसी दुनिया के माल व मताअ के हसूल के लिये है। चुनाँचे उनकी ऊँची-ऊँची इमारतें भी बन गई हैं, कारोबार भी खूब वसीअ हो गये हैं, हर क़िस्म का सामाने असाइश भी उनकी दस्तरस में हैं, ऐशो इशरत के मौक़े भी हस्बे ख़्वाहिश उन्हें मयस्सर हैं। लेकिन उन्हें मालूम होना चाहिये कि:
आयत 16
“यही लोग हैं जिनके लिये आख़िरत में कुछ नहीं है सिवाय आग के।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ لَيْسَ لَهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ اِلَّا النَّارُ ڮ |
इनकी सारी मेहनत और भाग-दौड़ इसी दुनिया के लिये थी, लिहाज़ा हमने इनकी मेहनत का सिला इसी दुनिया में देकर इनका हिसाब चुका दिया है।
“और इस (दुनिया) में उन्होंने जो कुछ किया वो सब हब्त हो जायेगा और जो आमाल उन्होंने किए वो भी ज़ाया हो जायेंगे।” | وَحَبِطَ مَا صَنَعُوْا فِيْهَا وَبٰطِلٌ مَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 16 |
रोज़े महशर उन्हें मालूम होगा कि जो कुछ उन्होंने दुनिया में बनाया और जिसके लिये अपनी तमामतर इस्तअदादात (कोशिशें) और सलाहियतें सर्फ़ कीं वो सब मलिया-मेट हो चुका है, और अगर उन्होंने अपने दिल को बहलाने के लिये कोई झूठी-सच्ची नेकी की होगी तो वह भी बे-बुनियाद साबित होगी।
आयत 17
“तो भला वह शख़्स जो अपने रब की तरफ़ से एक वाज़ेह दलील पर हो” | اَفَمَنْ كَانَ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّهٖ |
बय्यिना (वाज़ेह दलील) से मुराद इंसान की फ़ितरते सलीमा है। इंसान के अंदर जो रूहे रब्बानी फूँकी गई है उसकी वजह से अल्लाह की मारफ़त उसके अंदर मौजूद है। मगर यह मारफ़ते इलाही इंसान के अंदर ख़्वाबीदा (dormant) होती है। फिर जब वही के ज़रिये वाज़ेह हिदायत उस तक पहुँचती है तो ख़्वाबीदा मारफ़त फौरन जाग जाती है।
“और उसके पीछे आए अल्लाह की तरफ़ से एक गवाह भी” | وَيَتْلُوْهُ شَاهِدٌ مِّنْهُ |
यानि एक सलीमुल फ़ितरत शख़्स जिसको ख़ुद अपने वुजूद में और ज़मीन व आसमान की साख़्त और कायनात के नज़्म व नस्क़ में तौहीद बारी तआला की वाज़ेह शहादत मिल रही थी, जब उसके पास क़ुरान की सूरत में अल्लाह की तरफ़ से एक गवाही भी आ गई, तो यह “नूरुन अला नूर” वाला मामला हो गया। और फिर उस पर मुस्तज़ाद तौरात की तस्दीक़।
“और उससे पहले किताबे मूसा भी मौजूद थी जो इमाम (रहनुमा) भी थी और रहमत भी।” | وَمِنْ قَبْلِهٖ كِتٰبُ مُوْسٰٓى اِمَامًا وَّرَحْمَةً ۭ |
ऐसा सलीमुल फ़ितरत शख़्स क्योंकर ईमान नहीं लाएगा? यह तम्सील ज़्यादा वज़ाहत के साथ सूरतुन्नूर में बयान हुई है।
“यही लोग हैं जो इस (क़ुरान) पर ईमान लाएँगे।” | اُولٰۗىِٕكَ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ ۭ |
“और जो इसका इंकार करेगा उन गिरोहों में से तो आग ही उसके वादे की जगह है।” | وَمَنْ يَّكْفُرْ بِهٖ مِنَ الْاَحْزَابِ فَالنَّارُ مَوْعِدُهٗ ۚ |
तो अब जो भी इस किताब के मुन्कर हों चाहे वो मुशरिकीने मक्का में से हों, दूसरे कुफ्फ़ार में से, या अहले किताब में से, उनका मौऊद (वादा किया हुआ) ठिकाना बस दोजख़ है।
“तो आप इसके बारे में किसी शक में ना पड़ें” | فَلَا تَكُ فِيْ مِرْيَةٍ مِّنْهُ ۤ |
“यक़ीनन यह हक़ है आप के रब की तरफ़ से लेकिन अक्सर लोग ईमान लाने वाले नहीं हैं।” | اِنَّهُ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يُؤْمِنُوْنَ 17 |
आयत 18
“और उस शख़्स से बढ़ कर कौन ज़ालिम होगा जिसने अल्लाह पर झूठ बाँधा।” | وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰي عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا ۭ |
जिसने ख़ुद कोई चीज़ गढ़ कर अल्लाह की तरफ मन्सूब कर दी।
“यह वो लोग हैं जो पेश किए जायेंगे अपने रब के सामने” | اُولٰۗىِٕكَ يُعْرَضُوْنَ عَلٰي رَبِّهِمْ |
“और गवाही देने वाले कहेंगे कि यह हैं वो लोग जिन्होंने झूठ कहा था अपने रब पर।” | وَيَقُوْلُ الْاَشْهَادُ هٰٓؤُلَاۗءِ الَّذِيْنَ كَذَبُوْا عَلٰي رَبِّهِمْ ۚ |
“अगाह हो जाओ! ऐसे ज़ालिमों पर अल्लाह की लानत है।” | اَلَا لَعْنَةُ اللّٰهِ عَلَي الظّٰلِمِيْنَ 18ۙ |
उन झूठ गढ़ने वालों में गुलाम अहमद क़ादयानी आँजहानी और उस जैसे दूसरे मुद्दईयाने नुबूवत भी शामिल होंगे।
आयत 19
“जो अल्लाह के रास्ते से रोकते हैं और उसमें कजी तलाश करते हैं।” | الَّذِيْنَ يَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَيَبْغُوْنَهَا عِوَجًا ۭ |
तालिमाते हक़ और तरीक़े हिदायत पर ख़्वाह-म-ख़्वाह के ऐतराज़ात करते हैं ताकि लोग इस रास्ते को इख़्तियार ना करें।
“और यही लोग आख़िरत के मुन्कर हैं।” | وَهُمْ بِالْاٰخِرَةِ هُمْ كٰفِرُوْنَ 19 |
यह वही बात है जो हम सूरह युनुस में बार-बार पढ़ आए हैं: {لَاْ یَرْجُوْنَ لِقَاءَ نَا} कि उन्हें हमसे मुलाक़ात की उम्मीद ही नहीं और उनकी असल बीमारी भी यही है कि वो दिल से आख़िरत के मुन्कर हैं और इसी वजह से उनकी अक़्लों पर पर्दे पड़े हुए हैं।
आयत 20
“यह लोग ज़मीन में (अल्लाह को) हरग़िज आजिज़ करने वाले नहीं हैं” | اُولٰۗىِٕكَ لَمْ يَكُوْنُوْا مُعْجِزِيْنَ فِي الْاَرْضِ |
यह लोग अल्लाह के क़ाबू से बाहर नहीं हैं और अल्लाह और उसके रसूल ﷺ को हरग़िज शिकस्त नहीं दे सकते।
“और ना ही अल्लाह के सिवा उनका कोई हिमायती है।” | وَمَا كَانَ لَهُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ اَوْلِيَاۗءَ ۘ |
“उनके लिये अज़ाब दोगुना किया जाता रहेगा।” | يُضٰعَفُ لَهُمُ الْعَذَابُ ۭ |
“(इसलिये कि) ना तो वो सुनने की सलाहियत रखते थे और ना ही देखते थे।” | مَا كَانُوْا يَسْتَطِيْعُوْنَ السَّمْعَ وَمَا كَانُوْا يُبْصِرُوْنَ 20 |
वो बिल्कुल अंधे और बहरे हो गये थे। सूरतुल बक़रह में ऐसे लोगों की कैफ़ियत इस तरह बयान की गई है: {صُمٌّ بُکْمٌ عُمْیٌ فَہُمْ لاَ یَرْجِعُوْنَ}। हक़ के लिये उन लोगों के इसी रवैय्ये की वजह से उनका अज़ाब बढ़ाया जाता रहेगा।
आयत 21
“यह वो लोग हैं जिन्होंने अपने आपको बरबाद कर लिया और उनसे गुम हो गया जो कुछ वो इफ़तरा किया करते थे।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ خَسِرُوْٓا اَنْفُسَهُمْ وَضَلَّ عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 21 |
तब उन्हें अपने झूठे मअबूद और सिफ़ारशी, मनघड़त अक़ाइद व नज़रियात और अल्लाह तआला पर इफ़्तरा परदाज़ियों में से कुछ भी नहीं सूझेगा। यह सब कुछ पादर हवा हो जायेगा।
आयत 22
“कुछ शक नहीं कि आख़िरत में सबसे बढ़ कर ख़सारा पाने वाले यही लोग होंगे।” | لَا جَرَمَ اَنَّهُمْ فِي الْاٰخِرَةِ هُمُ الْاَخْسَرُوْنَ 22 |
वाजेह रहे कि “अख्सरु” अफ़आले तफ़सील का सीगा है।
अहले जहन्नम के तज़किरे के बाद फ़ौरी तक़ाबुल (simultaneous contrast) के लिये अब अहले जन्नत का ज़िक्र किया जा रहा है।
आयत 23
“(इसके बरअक्स) वो लोग जो ईमान लाए और उन्होंने नेक आमाल किए और अपने रब के सामने आजिज़ी की, वो होंगे जन्नत वाले और उसमें रहेंगे हमेशा-हमेश।” | اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاَخْبَتُوْٓا اِلٰي رَبِّهِمْ ۙاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَــنَّةِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ 23 |
आयत 24
“इन दोनों गिरोहों की मिसाल ऐसे है जैसे एक शख़्स अंधा और बहरा हो और दूसरा देखने और सुनने वाला।” | مَثَلُ الْفَرِيْقَيْنِ كَالْاَعْمٰى وَالْاَصَمِّ وَالْبَصِيْرِ وَالسَّمِيْعِ ۭ |
“क्या यह दोनों बराबर हैं मिसाल के ऐतबार से? तो क्या तुम नसीहत अख़ज़ नहीं करते!” | هَلْ يَسْتَوِيٰنِ مَثَلًا ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ 24ۧ |
भला दोनों का हाल यक्सा हो सकता है? क्या तुम इस मिसाल से कोई सबक़ हासिल नहीं करते?
अब अगले छ: रुकूअ अम्बिया अर्रुसुल पर मुश्तमिल हैं। इनमें उन्हीं छ: रसूलों और उनकी क़ौमों के हालात बयान हुए हैं जिनका ज़िक्र हम सूरतुल आराफ़ में पढ़ आए हैं। यानि हज़रत नूह, हज़रत हूद, हज़रत सालेह, हज़रत शुऐब, हज़रत लूत और हज़रत मूसा अला नबिय्यिना व अलैहिम अस्सलातु वस्सलाम। यह छ: रसूल हैं जिनका ज़िक्र क़ुरान हकीम में बहुत तकरार के साथ आया है। इस तकरार की वजह यह है कि क़ुरान के अव्वलीन मुख़ातिब (अहले अरब) इन सब रसूलों और इनकी क़ौमों के हालात से बख़ूबी वाक़िफ़ थे। जिस ख़ित्ते में यह रसूल अपने-अपने ज़माने में मबऊस हुए उसके बारे में कुछ तफ़सील हम सूरतुल आराफ़ में पढ़ आए हैं। यहाँ इनमें से चीदह-चीदह (arranged) मालूमात ज़हन में फिर से ताज़ा कर लें।
अगले सफ़े पर जो नक़्शा दिया गया है यह गोया “अर्ज़ल क़ुरान” का नक़्शा है। क़ुरान मजीद में जिन रसूलों के हालात का तज़किरा है वो सबके सब इसी ख़ित्ते के अंदर मबऊस किए गये। नक़्शे में जज़ीरा नुमाए अरब के दाएँ तरफ़ ख़लीज फ़ारस और बाएँ तरफ़ बहरा-ए-क़ुल्ज़म (बहरा-ए-अहमर /Red Sea) है, जो ऊपर जाकर ख़लीज अक़बा और ख़लीज स्वेज़ में तक़सीम हो जाता है।
नक़्शे पर ख़लीज फ़ारस से ऊपर सीधी लकीर खींची जाये और ख़लीज अक़बा के शिमाली कोने से भी एक लकीर खींची जाये तो जहाँ यह दोनों लकीरें आपस में मिलेंगी, यह वह इलाक़ा है जहाँ पर हज़रत नूह अलै. की क़ौम आबाद थी। यहीं से ऊपर शिमाल की जानिब अरारात का पहाड़ी सिलसिला है, जिसमें कोहे जूदी पर आपकी कश्ती लंगर अंदाज़ हुई थी। इस इलाक़े में सैलाब की सूरत में हज़रत नूह अलै. की क़ौम पर अज़ाब आया, जिससे पूरी क़ौम हालाक़ हो गई। उस वक़्त तक पूरी नस्ले इंसानी बस यहीं पर आबाद थी, चुनाँचे सैलाब के बाद नस्ले इंसानी हज़रत नूह की औलाद ही से आगे चली।
हज़रत नूह अलै. के एक बेटे का नाम साम था, वह अपनी औलाद के साथ ईराक़ के इलाक़े में आबाद हो गये। उस इलाक़े में उनकी नस्ल से बहुत सी क़ौमें पैदा हुईं। उन्हीं में से एक क़ौम अपने मशहूर सरदार “आद” के नाम की वजह से मशहूर हुई। क़ौमे आद जज़ीरा नुमाए अरब के जुनूब में अहक़ाफ़ के इलाक़े में आबाद थी। इस क़ौम में जब शिर्क आम हो गया तो अल्लाह तआला ने उनकी इस्लाह के लिये बहुत से नबी भेजे।
नक़्शा “अर्ज़ल क़ुरान”
(उन क़ौमों के इलाक़े जिनका ज़िक्र क़ुरान में बार-बार आया है)
इन अम्बिया के आखिर में हज़रत हूद अलै. उनकी तरफ़ रसूल मबऊस होकर आये। आपकी दावत को रद्द करके जब यह क़ौम भी अज़ाबे इलाही की मुस्तहिक़ हो गई तो हज़रत हूद अलै. अपने अहले ईमान साथियों को साथ लेकर अरब के वस्ती इलाक़े हिज्र की तरफ़ हिजरत कर गये। यहाँ फिर उन लोगों की नस्ल आगे बढ़ी। इनमें से क़ौमे समूद ने ख़ुसूसी तौर पर बहुत तरक्क़ी की। इस क़ौम का नाम भी समूद नामी किसी बड़ी शख़्सियत के नाम पर मशहूर हुआ। ये लोग फ़ने तामीर के बहुत माहिर थे। चुनाँचे इन्होंने मैदानी इलाक़ों में भी आलीशान महलात तामीर किए और Granite Rocks पर मुश्तमिल इन्तहाई सख़्त पहाड़ों को तराश कर ख़ूबसूरत मकानात भी बनाए। इस क़ौम की तरफ़ हज़रत सालेह अलै. मबऊस किए गये। यह तीनों अक़वाम (क़ौमे नूह, क़ौमे आद और क़ौमे समूद) हज़रत इब्राहीम अलै. के ज़माने से पहले की हैं।
दूसरी तरफ़ ईराक़ में जो सामी उल नस्ल लोग आबाद थे उनमें हज़रत इब्राहीम अलै. मबऊस हुए। आपका तज़किरा क़ुरान में कहीं भी “अम्बिया अर्रुसुल” के अंदाज़ में नहीं किया गया। यहाँ सूरह हूद में भी आपका ज़िक्र “क़ससुल नबिय्यीन” की तर्ज़ पर आया है। फिर हज़रत इब्राहीम अलै. ने ईराक़ से हिजरत की और बहुत बड़ा सहराई इलाका अबूर करके शाम चले गये। वहाँ आपने फ़लस्तीन के इलाक़े में अपने बेटे हज़रत इस्हाक़ अलै. को आबाद किया जबकि इससे पहले अपने बड़े बेटे हज़रत इस्माईल अलै. को आप मक्का में आबाद कर चुके थे। हज़रत लूत अलै. आपके भतीजे थे। शाम की तरफ़ हिजरत करते हुए वो भी आपके साथ थे। हज़रत लूत अलै. को अल्लाह तआला ने रिसालत से नवाज़ कर आमूरा और सदुम के शहरों की तरफ़ मबऊस फ़रमाया। यह शहर बहरा-ए-मुरदार (Dead Sea) के किनारे पर आबाद थे। लिहाज़ा क़ौमे समूद के बाद अम्बिया अर्रुसुल के अंदाज़ में हज़रत लूत अलै. ही का ज़िक्र आयेगा।
हज़रत इब्राहीम अलै. की जो औलाद आपकी तीसरी बीवी क़तूरा से हुई वो ख़लीज अक़बा के मशरिक़ी इलाक़े में आबाद हुई। अपने किसी मशहूर सरदार के नाम पर इस क़ौम और इस इलाक़े का नाम “मदयन” मशहूर हुआ। इस क़ौम की तरफ़ हज़रत शुऐब अलै. को मबऊस किया गया। अम्बिया अर्रुसुल के इस सिलसिले में हज़रत शुऐब अलै. के बाद हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र आता है। हज़रत मूसा अलै. को मिस्र में मबऊस किया गया जो जज़ीरा नुमाए अरब से बाहर जज़ीरा नुमाए सीना (Senai Peninsula) के दूसरी तरफ़ वाक़ेअ (situated) है आपकी बेअसत बनी इस्राईल में हुई थी, जो हज़रत युसुफ़ अलै. की वसातत से फ़लस्तीन से हिजरत करके मिस्र में आबाद हुए थे। (सूरह युसुफ़ में इस हिजरत की पूरी तफ़सील मौजूद है।)
बनी नौए इंसान की हिदायत के लिये अल्लाह तआला ने बहुत से अम्बिया अर्रुसुल दुनिया के मुख्तलिफ़ इलाक़ों में मबऊस फ़रमाए। उन तमाम पैगम्बरों की तारीख़ बयान करना क़ुरान का मौज़ू नहीं है। क़ुरान तो किताबे हिदायत है और अम्बिया व रुसुल के वाक़िआत भी हिदायत के लिये ही बयान किए जाते हैं। इस हिदायत के तमाम पहलु किसी एक रसूल के क़िस्से में भी मौजूद होते हैं मगर मज़कूरा छ: रसूलों (अलै.) का ज़िक्र बार-बार इसलिये क़ुरान में आया है कि उनके नामों से अहले अरब वाक़िफ़ थे और उनकी हिकायात (दास्तान) व रिवायात में भी उनके तज़किरे मौजूद थे।
आयात 25 से 35 तक
وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا نُوْحًا اِلٰي قَوْمِهٖٓ ۡ اِنِّىْ لَكُمْ نَذِيْرٌ مُّبِيْنٌ 25ۙ اَنْ لَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّا اللّٰهَ ۭ اِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ اَلِيْمٍ 26 فَقَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ مَا نَرٰىكَ اِلَّا بَشَرًا مِّثْلَنَا وَمَا نَرٰىكَ اتَّبَعَكَ اِلَّا الَّذِيْنَ هُمْ اَرَاذِلُـنَا بَادِيَ الرَّاْيِ ۚ وَمَا نَرٰي لَكُمْ عَلَيْنَا مِنْ فَضْلٍۢ بَلْ نَظُنُّكُمْ كٰذِبِيْنَ 27 قَالَ يٰقَوْمِ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كُنْتُ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ وَاٰتٰىنِيْ رَحْمَةً مِّنْ عِنْدِهٖ فَعُمِّيَتْ عَلَيْكُمْ ۭ اَنُلْزِمُكُمُوْهَا وَاَنْتُمْ لَهَا كٰرِهُوْنَ 28 وَيٰقَوْمِ لَآ اَسْـــَٔـلُكُمْ عَلَيْهِ مَالًا ۭ اِنْ اَجْرِيَ اِلَّا عَلَي اللّٰهِ وَمَآ اَنَا بِطَارِدِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۭ اِنَّهُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّهِمْ وَلٰكِنِّيْٓ اَرٰىكُمْ قَوْمًا تَجْـهَلُوْنَ 29 وَيٰقَوْمِ مَنْ يَّنْصُرُنِيْ مِنَ اللّٰهِ اِنْ طَرَدْتُّهُمْ ۭ اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ 30 وَلَآ اَقُوْلُ لَكُمْ عِنْدِيْ خَزَاۗىِٕنُ اللّٰهِ وَلَآ اَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَآ اَقُوْلُ اِنِّىْ مَلَكٌ وَّلَآ اَقُوْلُ لِلَّذِيْنَ تَزْدَرِيْٓ اَعْيُنُكُمْ لَنْ يُّؤْتِيَهُمُ اللّٰهُ خَيْرًا ۭ اَللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ ښ اِنِّىْٓ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ 31 قَالُوْا يٰنُوْحُ قَدْ جٰدَلْتَنَا فَاَكْثَرْتَ جِدَالَنَا فَاْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ 32 قَالَ اِنَّمَا يَاْتِيْكُمْ بِهِ اللّٰهُ اِنْ شَاۗءَ وَمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ 33 وَلَا يَنْفَعُكُمْ نُصْحِيْٓ اِنْ اَرَدْتُّ اَنْ اَنْصَحَ لَكُمْ اِنْ كَانَ اللّٰهُ يُرِيْدُ اَنْ يُّغْوِيَكُمْ ۭ هُوَ رَبُّكُمْ ۣ وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ 34ۭ اَمْ يَقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۭ قُلْ اِنِ افْتَرَيْتُهٗ فَعَلَيَّ اِجْرَامِيْ وَاَنَا بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُجْرِمُوْنَ 35ۧ
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आयत 25
“और हमने भेजा नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ (तो आपने कहा) कि मैं तुम्हारे लिये एक ख़ुला ख़बरदार करने वाला हूँ।” | وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا نُوْحًا اِلٰي قَوْمِهٖٓ ۡ اِنِّىْ لَكُمْ نَذِيْرٌ مُّبِيْنٌ 25ۙ |
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आयत 26
“कि मत पूजो किसी को सिवाय अल्लाह के। मुझे अंदेशा है तुम पर एक बड़े दर्दनाक दिन के अज़ाब का।” | اَنْ لَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّا اللّٰهَ ۭ اِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ اَلِيْمٍ 26 |
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आयत 27
“तो उसकी क़ौम के उन सरदारों ने कहा जिन्होंने कुफ़्र की रविश इख़्तियार की थी कि हम नहीं देखते (ऐ नूह) आपको मगर अपने जैसा एक इंसान” | فَقَالَ الْمَلَاُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ قَوْمِهٖ مَا نَرٰىكَ اِلَّا بَشَرًا مِّثْلَنَا |
उन्होंने कहा कि आप तो बिल्कुल हमारे जैसे इंसान हैं। आपमें हमें कोई ऐसी बात नज़र नहीं आती कि हम आपको अल्लाह का फ़रसतादा (भेजा हुआ) मान लें।
“और हम नहीं देखते मगर यह कि आपकी पैरवी करने वाले बज़ाहिर हम में अदना दर्जे के लोग हैं।” | وَمَا نَرٰىكَ اتَّبَعَكَ اِلَّا الَّذِيْنَ هُمْ اَرَاذِلُـنَا بَادِيَ الرَّاْيِ ۚ |
हमें बिला तामिल नज़र आ रहा है कि चंद मुफ़लिस, नादार और निचले तबक़े के लोग आपके गिर्द इकठ्ठे हो गये हैं, जबकि हमारे मआशरे का कोई भी मौअज़ज़ और माक़ूल आदमी आपसे मुतास्सिर नहीं हुआ।
“और हमें नज़र नहीं आती अपने मुक़ाबले में तुम लोगों में कोई भी फ़जीलत, बल्कि हमारा गुमान तो यही है कि तुम लोग झूठे हो।” | وَمَا نَرٰي لَكُمْ عَلَيْنَا مِنْ فَضْلٍۢ بَلْ نَظُنُّكُمْ كٰذِبِيْنَ 27 |
आयत 28
“नूह ने कहा: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! ज़रा ग़ौर करो अगर मैं (पहले से ही) अपने रब की तरफ़ से बय्यिना पर था” | قَالَ يٰقَوْمِ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كُنْتُ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ |
यह लफ़्ज बय्यिना इस सूरत में बार-बार आयेगा। यानि मैंने अपनी ज़िन्दगी तुम्हारे दरमियान गुज़ारी है, मेरा किरदार, मेरा अख्लाक़ और मेरा रवैय्या सब कुछ तुम अच्छी तरह जानते हो। तुम लोग जानते हो कि मैं एक शरीफ़ अन्नफ़्स और सलीमुल फ़ितरत इंसान हूँ। लिहाज़ा तुम लोग ग़ौर करो कि पहले भी अगर मैं ऐसी शख़्सियत का हामिल इंसान था:
“और (अब) उसने मुझे अपने पास से ख़ास रहमत भी अता फ़रमा दी है (और यह वह चीज़ है) जिसको तुम्हारी नज़रों से पोशीदा रखा गया है।” | وَاٰتٰىنِيْ رَحْمَةً مِّنْ عِنْدِهٖ فَعُمِّيَتْ عَلَيْكُمْ ۭ |
यानि मेरे ऊपर अल्लाह की रहमत से वही आती है जिसकी कैफ़ियत और हक़ीकत का इदराक तुम लोग नहीं कर सकते। मैं इसके बारे में तुम लोगों को बता ही सकता हूँ, दिखा तो नहीं सकता।
“तो क्या हम चिपका दें तुम पर इसको (ज़बरदस्ती) जबकि तुम लोग इसको नापसंद करते हो?” | اَنُلْزِمُكُمُوْهَا وَاَنْتُمْ لَهَا كٰرِهُوْنَ 28 |
अब अगर एक बात आप लोगों को पसंद नहीं आ रही तो हम ज़बरदस्ती उसको तुम्हारे सिर नहीं थोप सकते। हम आप लोगों को मजबूर तो नहीं कर सकते कि आप ज़रूर ही अल्लाह को अपना मअबूद और मुझे उसका रसूल मानो।
आयत 29
“और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं तुमसे इसके बदले कोई माल तलब नहीं करता। मेरा अज्र तो अल्लाह ही के ज़िम्मे है, और जो लोग ईमान लाए हैं मैं उनको धुत्कारने वाला भी नहीं हूँ।” | وَيٰقَوْمِ لَآ اَسْـــَٔـلُكُمْ عَلَيْهِ مَالًا ۭ اِنْ اَجْرِيَ اِلَّا عَلَي اللّٰهِ وَمَآ اَنَا بِطَارِدِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۭ |
जिन लोगों के बारे में तुम कहते हो कि वो अदना तबक़े से ताल्लुक़ रखते हैं, वो सब अहले ईमान हैं, इस लिहाज़ से मेरे नज़दीक वो बहुत अहम और मौअज़ज़ लोग हैं। अब मैं तुम्हारे कहने पर उनको ख़ुद से दूर नहीं हटा सकता।
“वो यक़ीनन अपने रब से मिलने वाले हैं, लेकिन मैं तुम्हें देखता हूँ कि तुम लोग जहालत में मुब्तला हो गये हो।” | اِنَّهُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّهِمْ وَلٰكِنِّيْٓ اَرٰىكُمْ قَوْمًا تَجْـهَلُوْنَ 29 |
आयत 30
“और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! (ज़रा सोचो कि) अगर मैं इनको अपने यहाँ से भगा दूँगा तो कौन मेरी मदद करेगा अल्लाह के मुक़ाबले में?” | وَيٰقَوْمِ مَنْ يَّنْصُرُنِيْ مِنَ اللّٰهِ اِنْ طَرَدْتُّهُمْ ۭ |
यह सब सच्चे मोमिनीन, अल्लाह का ज़िक्र करने वाले और उससे दुआ माँगने वाले लोग हैं। अगर मैं तुम्हारे कहने पर इनको धुत्कार दूँ तो अल्लाह की नाराज़गी से मुझे कौन बचाएगा।
“तो क्या तुम लोग नसीहत अख़ज नहीं करते?” | اَفَلَا تَذَكَّرُوْنَ 30 |
आयत 31
“और मैं तुमसे यह नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़जाने हैं” | وَلَآ اَقُوْلُ لَكُمْ عِنْدِيْ خَزَاۗىِٕنُ اللّٰهِ |
मैंने कब दावा किया है कि अल्लाह के ख़जानों पर मेरा इख़्तियार है। यह वही बात है जो हम सूरतुल अनआम आयत 50 में मुहम्मदुन रसूल अल्लाह ﷺ के हवाले से पढ़ चुके हैं।
“और ना मैं ग़ैब का इल्म रखता हूँ, ना मैं कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ” | وَلَآ اَعْلَمُ الْغَيْبَ وَلَآ اَقُوْلُ اِنِّىْ مَلَكٌ |
“और ना मैं यह कह सकता हूँ उन लोगों के बारे में जिन्हें तुम्हारी आँखें हक़ीर देख रही हैं कि अल्लाह उन्हें कोई ख़ैर नहीं देगा।” | وَّلَآ اَقُوْلُ لِلَّذِيْنَ تَزْدَرِيْٓ اَعْيُنُكُمْ لَنْ يُّؤْتِيَهُمُ اللّٰهُ خَيْرًا ۭ |
क्या मालूम अल्लाह के यहाँ वो बहुत महबूब हों, अल्लाह उन्हें बहुत बुलंद मरातिब अता करे और उखरवी ज़िन्दगी में {فَرَوْحٌ وَّرَيْحَانٌ ڏ وَّجَنَّتُ نَعِيْمٍ} (अल् वाक़या:89) का मुस्तहिक़ ठहराए।
“अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ उनके दिलों में है (अगर मैं उनको दूर कर दूँ) तब तो यक़ीनन मैं खुद ज़ालिमों में से हो जाऊँगा।” | اَللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا فِيْٓ اَنْفُسِهِمْ ښ اِنِّىْٓ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ 31 |
यह तो अल्लाह ही बेहतर जानता है कि कौन अपने ईमान के दावे में कितना मुख़लिस है और किसके दिल में अल्लाह के लिये कितनी मोहब्बत है। अगर मैं तुम्हारे तानों से तंग आकर इन अहले ईमान को अपने पास से उठा दूँ तो मेरा शुमार ज़ालिमों में होगा।
आयत 32
“उन्होंने कहा: ऐ नूह! तुमने हमसे झगड़ा किया और खूब झगड़ा किया” | قَالُوْا يٰنُوْحُ قَدْ جٰدَلْتَنَا فَاَكْثَرْتَ جِدَالَنَا |
जब हज़रत नूह अलै. की इन तमाम बातों का इल्मी, अक़्ली और मन्तक़ी सतह पर कोई जवाब उन लोगों से ना बन पड़ा तो वो ख्वाह-म-ख़्वाह ज़िद और हठधर्मी पर उतर आये कि बस जी बहुत हो गया बहस-मुबाहसा, अब छोड़ें इन दलीलों को और:
“पस ले आओ हम पर वह अज़ाब जिसकी तुम हमें धमकी दे रहे हो, अगर तुम सच्चे हो।” | فَاْتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ 32 |
आयत 33
“आपने फ़रमाया कि वह (अज़ाब) तो अल्लाह ही लायेगा तुम्हारे ऊपर अगर वह चाहेगा और फिर तुम उसको शिकस्त नहीं दे सकोगे।” | قَالَ اِنَّمَا يَاْتِيْكُمْ بِهِ اللّٰهُ اِنْ شَاۗءَ وَمَآ اَنْتُمْ بِمُعْجِزِيْنَ 33 |
अगर उसने तुम्हें अज़ाब देने का फ़ैसला कर लिया तो फिर तुम लोग उसका मुक़ाबला करके उसके अज़ाब से बच कर भाग नहीं सकोगे।
आयत 34
“और तुम लोगों को मेरी नसीहत कुछ फ़ायदा नहीं दे सकती अगर मैं तुम्हें नसीहत करना भी चाहूँ, अगर अल्लाह ही तुम्हारी गुमराही का फ़ैसला कर चुका है।” | وَلَا يَنْفَعُكُمْ نُصْحِيْٓ اِنْ اَرَدْتُّ اَنْ اَنْصَحَ لَكُمْ اِنْ كَانَ اللّٰهُ يُرِيْدُ اَنْ يُّغْوِيَكُمْ ۭ |
अगर तुम्हारी ख्वाह-म-ख़्वाह की ज़िद और हठधर्मी के बाइस अल्लाह ने तुम्हारी गुमराही के फ़ैसले पर मुहर सब्त कर (लगा) दी हो तो फिर नसीहत और ख़ैरख्वाही तुम्हारे हक़ में कुछ भी मुफ़ीद नहीं हो सकती।
“वही तुम्हारा रब है, और उसी की तरफ़ तुम लौटा दिए जाओगे।” | هُوَ رَبُّكُمْ ۣ وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ 34ۭ |
आयत 35
“क्या यह कहते हैं कि इस (मुहम्मद ﷺ) ने इस (क़ुरान) को गढ़ लिया है? आप ﷺ कहिए कि अगर मैंने इसे गढ़ लिया है तो इसका वबाल मुझ ही पर आयेगा, और मैं बरी हूँ उससे जो जुर्म तुम कर रहे हो।” | اَمْ يَقُوْلُوْنَ افْتَرٰىهُ ۭ قُلْ اِنِ افْتَرَيْتُهٗ فَعَلَيَّ اِجْرَامِيْ وَاَنَا بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُجْرِمُوْنَ 35ۧ |
यह एक जुमला-ए-मौतरज़ा (सहानुभूतिशील बात) है जो हज़रत नूह अलै. के ज़िक्र के दरमियान आ गया है। इसमें रसूल अल्लाह ﷺ को मुख़ातिब करके फ़रमाया जा रहा है कि ऐ नबी ﷺ! यह तमाम बातें जो हम आपको बज़रिया-ए-वही बताते हैं, जैसे हज़रत नूह और आपकी क़ौम की ग़फ्त व शनीद नक़ल हुई, तो मुशरिकीने मक्का कहते हैं कि यह बातें और क़िस्से आप ख़ुद अपनी तरफ़ से बनाकर उन्हें सुनाते हैं। आप उन पर वाज़ेह कर दें कि मैं अगर वाक़ई यह जुर्म कर रहा हूँ तो इसका वबाल भी मुझ ही पर आयेगा। मगर आप लोग इसके दूसरे पहलु पर भी ग़ौर करें कि अगर यह क़लाम वाक़ई अल्लाह की तरफ़ से है तो इसको झुठला कर तुम लोग जिस जुर्म के मुरतकिब हो रहे हो, उसके नतीजे भी फिर तुम लोगों को ही भुगतना हैं। बहरहाल मैं अलल ऐलान कह देता हूँ कि मैं तुम्हारे इस जुर्म से बिल्कुल बरी हूँ। इस जुमला-ए-मौतरज़ा के बाद हज़रत नूह अलै. के ज़िक्र का सिलसिला दोबारा वहीं से जोड़ा जा रहा है।
आयात 36 से 49 तक
وَاُوْحِيَ اِلٰي نُوْحٍ اَنَّهٗ لَنْ يُّؤْمِنَ مِنْ قَوْمِكَ اِلَّا مَنْ قَدْ اٰمَنَ فَلَا تَبْتَىِٕسْ بِمَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ 36ښ وَاصْنَعِ الْفُلْكَ بِاَعْيُنِنَا وَوَحْيِنَا وَلَا تُخَاطِبْنِيْ فِي الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا ۚ اِنَّهُمْ مُّغْرَقُوْنَ 37 وَيَصْنَعُ الْفُلْكَ ۣ وَكُلَّمَا مَرَّ عَلَيْهِ مَلَاٌ مِّنْ قَوْمِهٖ سَخِرُوْا مِنْهُ ۭقَالَ اِنْ تَسْخَرُوْا مِنَّا فَاِنَّا نَسْخَرُ مِنْكُمْ كَمَا تَسْخَرُوْنَ 38ۭ فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ ۙ مَنْ يَّاْتِيْهِ عَذَابٌ يُّخْزِيْهِ وَيَحِلُّ عَلَيْهِ عَذَابٌ مُّقِيْمٌ 39 ﱑ اِذَا جَاۗءَ اَمْرُنَا وَفَارَ التَّنُّوْرُ ۙ قُلْنَا احْمِلْ فِيْهَا مِنْ كُلٍّ زَوْجَيْنِ اثْنَيْنِ وَاَهْلَكَ اِلَّا مَنْ سَبَقَ عَلَيْهِ الْقَوْلُ وَمَنْ اٰمَنَ ۭ وَمَآ اٰمَنَ مَعَهٗٓ اِلَّا قَلِيْلٌ 40 وَقَالَ ارْكَبُوْا فِيْهَا بِسْمِ اللّٰهِ مَجْــرٖ۩ىهَا وَمُرْسٰىهَا ۭ اِنَّ رَبِّيْ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 41 وَهِىَ تَجْرِيْ بِهِمْ فِيْ مَوْجٍ كَالْجِبَالِ ۣ وَنَادٰي نُوْحُۨ ابْنَهٗ وَكَانَ فِيْ مَعْزِلٍ يّٰبُنَيَّ ارْكَبْ مَّعَنَا وَلَا تَكُنْ مَّعَ الْكٰفِرِيْنَ 42 قَالَ سَاٰوِيْٓ اِلٰي جَبَلٍ يَّعْصِمُنِيْ مِنَ الْمَاۗءِ ۭ قَالَ لَا عَاصِمَ الْيَوْمَ مِنْ اَمْرِ اللّٰهِ اِلَّا مَنْ رَّحِمَ ۚ وَحَالَ بَيْنَهُمَا الْمَوْجُ فَكَانَ مِنَ الْمُغْرَقِيْنَ 43 وَقِيْلَ يٰٓاَرْضُ ابْلَعِيْ مَاۗءَكِ وَيٰسَمَاۗءُ اَقْلِعِيْ وَغِيْضَ الْمَاۗءُ وَقُضِيَ الْاَمْرُ وَاسْـتَوَتْ عَلَي الْجُوْدِيِّ وَقِيْلَ بُعْدًا لِّلْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ 44 وَنَادٰي نُوْحٌ رَّبَّهٗ فَقَالَ رَبِّ اِنَّ ابْنِيْ مِنْ اَهْلِيْ وَاِنَّ وَعْدَكَ الْحَقُّ وَاَنْتَ اَحْكَمُ الْحٰكِمِيْنَ 45 قَالَ يٰنُوْحُ اِنَّهٗ لَيْسَ مِنْ اَهْلِكَ ۚ اِنَّهٗ عَمَلٌ غَيْرُ صَالِحٍ ڶ فَلَا تَسْـــَٔـلْنِ مَا لَيْسَ لَكَ بِهٖ عِلْمٌ ۭ اِنِّىْٓ اَعِظُكَ اَنْ تَكُوْنَ مِنَ الْجٰهِلِيْنَ 46 قَالَ رَبِّ اِنِّىْٓ اَعُوْذُ بِكَ اَنْ اَسْـــَٔـلَكَ مَا لَيْسَ لِيْ بِهٖ عِلْمٌ ۭ وَاِلَّا تَغْفِرْ لِيْ وَتَرْحَمْنِيْٓ اَكُنْ مِّنَ الْخٰسِرِيْنَ 47 قِيْلَ يٰنُوْحُ اهْبِطْ بِسَلٰمٍ مِّنَّا وَبَرَكٰتٍ عَلَيْكَ وَعَلٰٓي اُمَمٍ مِّمَّنْ مَّعَكَ ۭ وَاُمَمٌ سَنُمَتِّعُهُمْ ثُمَّ يَمَسُّهُمْ مِّنَّا عَذَابٌ اَلِيْمٌ 48 تِلْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهَآ اِلَيْكَ ۚ مَا كُنْتَ تَعْلَمُهَآ اَنْتَ وَلَا قَوْمُكَ مِنْ قَبْلِ ھٰذَا ړ فَاصْبِرْ ړاِنَّ الْعَاقِبَةَ لِلْمُتَّقِيْنَ 49ۧ
आयत 36
“और वही कर दी गई नूह की तरफ़ कि अब कोई शख़्स ईमान नहीं लाएगा तुम्हारी क़ौम में से सिवाय उन लोगों के जो ईमान ला चुके हैं, तो जो कुछ वो कर रहे हैं आप उसकी वजह से ग़मगीन ना हों।” | وَاُوْحِيَ اِلٰي نُوْحٍ اَنَّهٗ لَنْ يُّؤْمِنَ مِنْ قَوْمِكَ اِلَّا مَنْ قَدْ اٰمَنَ فَلَا تَبْتَىِٕسْ بِمَا كَانُوْا يَفْعَلُوْنَ 36ښ |
आयत 37
“और (अब) आप कश्ती बनाइये हमारी निगाहों के सामने और हमारी हिदायत के मुताबिक़” | وَاصْنَعِ الْفُلْكَ بِاَعْيُنِنَا وَوَحْيِنَا |
इस हुक्म से यूँ लगता है कि कश्ती की तैयारी के हर मरहले पर हज़रत नूह अलै. को अल्लाह तआला की तरफ़ से हिदायात मिल रही थीं, मसलन लम्बाई इतनी हो, चौड़ाई इतनी हो, लकड़ियाँ यूँ तैयार करो, वगैरह।
“और जो ज़ालिम हैं उनके बारे में अब मुझसे बात ना कीजिएगा।” | وَلَا تُخَاطِبْنِيْ فِي الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا ۚ |
अब इन मुन्करीन में से किसी के बारे में कोई दरख़्वास्त, दुआ या सिफ़ारिश वग़ैरह आपकी तरफ से ना आए, अब उसका वक़्त गुज़र चुका है।
“(अब) यह सबके सब गर्क़ किए जायेंगे।” | اِنَّهُمْ مُّغْرَقُوْنَ 37 |
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आयत 38
“और आप कश्ती बना रहे थे और जब भी आपके पास से गुज़रते आपकी क़ौम के सरदार तो वो आपका मज़ाक उड़ाते।” | وَيَصْنَعُ الْفُلْكَ ۣ وَكُلَّمَا مَرَّ عَلَيْهِ مَلَاٌ مِّنْ قَوْمِهٖ سَخِرُوْا مِنْهُ ۭ |
हज़रत नूह अलै. और आपके अहले ईमान साथी जिस जगह और जिस इलाक़े में यह कश्ती बना रहे थे ज़ाहिर है कि वहाँ हर तरफ़ ख़ुश्की थी, समुद्र या दरिया का कहीं दूर-दूर तक नामो निशान नहीं था। इन हालात में तसव्वुर करें कि क्या-क्या बातें और कैसे-कैसे तमस्खुर आमेज़ फ़िक़रे कहे जाते होंगे कि अब तो मालूम होता है कि इनकी बिल्कुल ही मत मारी गई है कि ख़ुश्की पर कश्ती चलाने का इरादा है!
“नूह फ़रमाते कि अगर (आज) तुम हमसे तमस्खुर कर रहे हो तो (वो वक़्त क़रीब आने वाला है कि) हम भी तुमसे तमस्खुर करेंगे जैसे कि अब तुम तमस्खुर कर रहे हो।” | قَالَ اِنْ تَسْخَرُوْا مِنَّا فَاِنَّا نَسْخَرُ مِنْكُمْ كَمَا تَسْخَرُوْنَ 38ۭ |
आयत 39
“तो अनक़रीब तुम जान लोगे के किस पर आता है वह अज़ाब जो उसे रुसवा कर देगा, और किस पर इतराता है वह अज़ाब जो क़ायम रहने वाला (दाइमी) होगा।” | فَسَوْفَ تَعْلَمُوْنَ ۙ مَنْ يَّاْتِيْهِ عَذَابٌ يُّخْزِيْهِ وَيَحِلُّ عَلَيْهِ عَذَابٌ مُّقِيْمٌ 39 |
आयत 40
“यहाँ तक कि जब हमारा हुक्म आ गया और तनवर जोश से उबल पड़ा” | ﱑ اِذَا جَاۗءَ اَمْرُنَا وَفَارَ التَّنُّوْرُ ۙ |
मशरिक़े वुस्ता के उस पूरे इलाक़े में एक बहुत बड़े सैलाब के वाज़ेह आसार भी मिलते हैं, इस बारे में तारीखी शहादतें भी मौजूद हैं और आज का इल्मे तबक़ातुल अर्द (Geology) भी इसकी तस्दीक़ करता है। H.G. Wells ने इस सैलाब की तावील यूँ की है कि यह इलाक़ा बहरा-ए-रोम (Mediterran-ean) की सतह से बहुत नीचा था, मगर समुद्र के मशरिक़ी साहिल यानि शाम और फ़लस्तीन के साथ-साथ मौजूद पहाड़ी सिलसिलों की वजह से समुद्र का पानी खुश्की की तरफ नहीं आ सकता था। (जैसे कराची के बाज़ इलाक़ों के बारे में भी कहा जाता है कि वो सतह समुद्र से बहुत नीचे हैं मगर साहिली इलाक़े की सतह चूँकी बुलंद है इसलिये समुद्र का पानी इस तरफ़ नहीं आ सकता।) H.G. Wells का ख़्याल है कि इस इलाक़े में समुद्र से किसी वजह से पानी के लिये कोई रास्ता बन गया होगा जिसकी वजह से यह पूरा इलाक़ा समुद्र की शक़्ल इख़्तियार कर गया। क़ुरान मजीद के अल्फ़ाज़ के मुताबिक़ इस सैलाब का आग़ाज एक ख़ास तनवर से हुआ था जिसके नीचे से पानी का चश्मा फूट पड़ा। उसके साथ ही आसमान से ग़ैर मामूली अंदाज़ में लगातार बारिशें हुईं और ज़मीन ने भी अपने चश्मों के दहाने खोल दिये। फिर आसमान और ज़मीन के यह दोनों पानी मिल कर अज़ीम सैलाब की सूरत इख़्तियार कर गये। सूरह अल क़मर में इसकी तफ़सील बाँ अल्फ़ाज़ बयान की गई है: {فَفَتَحْنَآ اَبْوَابَ السَّمَاۗءِ بِمَاۗءٍ مُّنْهَمِرٍ } { وَّفَجَّــرْنَا الْاَرْضَ عُيُوْنًا فَالْتَقَى الْمَاۗءُ عَلٰٓي اَمْرٍ قَدْ قُدِرَ } (आयत:11-12) “पस हमने आसमान के दरवाज़े खोल दिये जिनसे लगातार बारिश बरसने लगी और ज़मीन को फाड़ दिया कि हर तरफ़ चश्मे फूट पड़े और यह दोनों तरह के पानी उस काम को पूरा करने के लिये मिल गये जो मुक़द्दर कर दिया गया था।”
“हमने कहा: (ऐ नूह अलै.!) अपनी क़श्ती में तमाम जानदारों का एक-एक जोड़ा रख लो और अपने अहलो अयाल को भी, सिवाय उनके जिनके में बारे में पहले हुक्म गुज़र चुका है” | قُلْنَا احْمِلْ فِيْهَا مِنْ كُلٍّ زَوْجَيْنِ اثْنَيْنِ وَاَهْلَكَ اِلَّا مَنْ سَبَقَ عَلَيْهِ الْقَوْلُ |
यह इस्तसनाई हुक्म हज़रत नूह अलै. की एक बीवी और आपके बेटे “याम” (कुन्आन) के बारे में था, जो उसी बीवी से था, जबकि आपके तीन बेटे हाम, साम और याफ़िस ईमान ला चुके थे और आपके साथ क़श्ती में सवार हुए थे। हज़रत साम और उनकी औलाद बाद में इसी इलाक़े में आबाद हुई थी। चुनाँचे क़ौमे आद, क़ौमे समूद और हज़रत इब्राहीम अलै. सब सामीउल नस्ल थे। हाम और याफ़िस दूसरे इलाक़ों में जाकर आबाद हुए और अपने-अपने इलाक़ों में उनकी नस्ल भी आगे चली।
“और उन लोगों को भी (सवार कर लें) जो ईमान लाये हैं, और नहीं ईमान लाये थे आपके साथ मगर बहुत ही कम।” | وَمَنْ اٰمَنَ ۭ وَمَآ اٰمَنَ مَعَهٗٓ اِلَّا قَلِيْلٌ 40 |
यहाँ पर लफ़्ज़ क़लील अँग्रेज़ी मुहावरे “the little” के हम मायने है, यानि बहुत ही थोड़े, ना होने के बराबर।
आयत 41
“और नूह ने फ़रमाया: सवार हो जाओ इसमें, अल्लाह के नाम के साथ ही है इसका चलना भी और इसका लंगर अंदाज़ होना भी।” | وَقَالَ ارْكَبُوْا فِيْهَا بِسْمِ اللّٰهِ مَجْــرٖ۩ىهَا وَمُرْسٰىهَا ۭ |
जब तक अल्लाह चाहेगा और जिस सिम्त को इसे चलायेगा यह चलेगी और जब और जहाँ उसकी मशीयत होगी यह लंगर अंदाज हो जायेगी।
“यक़ीनन मेरा रब बख्शने वाला, बहुत रहम करने वाला है।” | اِنَّ رَبِّيْ لَغَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 41 |
आयत 42
“और वह चल रही थी उन सबको लेकर पहाड़ जैसी मौजों के दरमियान से” | وَهِىَ تَجْرِيْ بِهِمْ فِيْ مَوْجٍ كَالْجِبَالِ ۣ |
“और नूह ने पुकारा अपने बेटे को और वह एक किनारे की तरफ़ था, कि ऐ मेरे बेटे आओ हमारे साथ (कश्ती में) सवार हो जाओ और काफ़िरों के साथ मत रहो।” | وَنَادٰي نُوْحُۨ ابْنَهٗ وَكَانَ فِيْ مَعْزِلٍ يّٰبُنَيَّ ارْكَبْ مَّعَنَا وَلَا تَكُنْ مَّعَ الْكٰفِرِيْنَ 42 |
आयत 43
“उसने कहा मैं अभी किसी पहाड़ पर चढ़ जाऊँगा जो मुझे पानी से बचा लेगा।” | قَالَ سَاٰوِيْٓ اِلٰي جَبَلٍ يَّعْصِمُنِيْ مِنَ الْمَاۗءِ ۭ |
“नूह ने कहा: आज के दिन कोई बचाने वाला नहीं है अल्लाह के अम्र से, सिवाय उसके जिस पर अल्लाह ही रहम फ़रमा दे।” | قَالَ لَا عَاصِمَ الْيَوْمَ مِنْ اَمْرِ اللّٰهِ اِلَّا مَنْ رَّحِمَ ۚ |
“और हाइल हो गई उन दोनों के दरमियान एक मौज और वह हो गया ग़र्क़ होने वालों में।” | وَحَالَ بَيْنَهُمَا الْمَوْجُ فَكَانَ مِنَ الْمُغْرَقِيْنَ 43 |
इस गुफ्तगू के दौरान एक बड़ी मौज आई और उसकी ज़द में आकर आपकी नज़रों के सामने आपका वह बेटा ग़र्क़ हो गया।
आयत 44
“और हुक्म हुआ कि ऐ ज़मीन तू अपने पानी को निगल जा” | وَقِيْلَ يٰٓاَرْضُ ابْلَعِيْ مَاۗءَكِ |
ज़मीन को अल्लाह तआला का हुक्म हुआ कि तू अपने इस पानी को अपने अंदर जज़्ब कर ले। अल्लाह बेहतर जानता है कि इस अमल में कितना वक़्त लगा होगा। बहरहाल हुक्मे इलाही के मुताबिक़ पानी ज़मीन में जज़्ब हो गया।
“और ऐ आसमान तू भी अब थम जा, और पानी सुखा दिया गया, और फ़ैसला चुका दिया गया” | وَيٰسَمَاۗءُ اَقْلِعِيْ وَغِيْضَ الْمَاۗءُ وَقُضِيَ الْاَمْرُ |
“और कश्ती जूदी पहाड़ पर जा ठहरी” | وَاسْـتَوَتْ عَلَي الْجُوْدِيِّ |
कोहे अरारात में “जूदी” एक चोटी का नाम है। यह दुश्वार गुज़ार पहाड़ी सिलसिला आज़र बायजान के इलाक़े और तुर्की की सरहद के करीब है। किसी ज़माने में एक ऐसी ख़बर भी मशहूर हुई थी कि इस पहाड़ी सिलसिले की एक चोटी पर किसी जहाज़ के पायलट ने कोई क़श्तीनुमा चीज़ देखी थी। बहरहाल क़ुरान का फ़रमान है कि हम उस क़श्ती को महफ़ूज़ रखेंगे और एक ज़माने में यह निशानी बन कर दुनिया के सामने आयेगी (अल्अन्कबूत :15)। चुनाँचे मालूम होता है कि वह कश्ती अब भी कोहे जूदी की चोटी पर मौजूद है और एक वक़्त आयेगा जब इंसान उस तक रसाई हासिल कर लेगा।
“और कह दिया गया दूरी (हलाकत) है उस क़ौम के लिये जो ज़ालिम थी।” | وَقِيْلَ بُعْدًا لِّلْقَوْمِ الظّٰلِمِيْنَ 44 |
यानि उस क़ौम का नामो निशान मिटाकर हमेशा के लिये नस्यम मन्सिया कर दिया गया।
आयत 45
“और पुकारा नूह ने अपने रब को और कहा कि ऐ मेरे परवरदिगार! मेरा बेटा मेरे अहल में से था” | وَنَادٰي نُوْحٌ رَّبَّهٗ فَقَالَ رَبِّ اِنَّ ابْنِيْ مِنْ اَهْلِيْ |
“और यक़ीनन तेरा वादा सच्चा है और तू तमाम हाकिमों में सबसे बड़ा और सबसे अच्छा फ़ैसला करने वाला हाकिम है।” | وَاِنَّ وَعْدَكَ الْحَقُّ وَاَنْتَ اَحْكَمُ الْحٰكِمِيْنَ 45 |
परवरदिगार तूने वादा किया था कि तू मेरे अहल को बचा लेगा, जबकि मेरा बेटा तो मेरी आँखों के सामने डूब गया।
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आयत 46
“अल्लाह ने फ़रमाया कि ऐ नूह! वह तुम्हारे अहल में से नहीं है, उसके आमाल ग़ैर सालेह हैं।” | قَالَ يٰنُوْحُ اِنَّهٗ لَيْسَ مِنْ اَهْلِكَ ۚ اِنَّهٗ عَمَلٌ غَيْرُ صَالِحٍ ڶ |
उसके नज़रियात, उसके अक़ाइद, उसका किरदार सब काफ़िराना थे। वह आपके अहल में कैसे शुमार हो सकता है? नबी का घराना सिर्फ़ नसब से नहीं बनता बल्कि ईमान व अमले सालेह से बनता है। चुनाँचे वह आपके नस्बी ख़ानदान का एक रुकन होने के अलल रग़म आपके ईमानी व अख्लाक़ी ख़ानदान का फ़र्द नहीं था।
“तो आप मुझसे उस चीज़ का सवाल ना करें जिसके बारे में आपको इल्म नहीं।” | فَلَا تَسْـــَٔـلْنِ مَا لَيْسَ لَكَ بِهٖ عِلْمٌ ۭ |
“मैं आपको नसीहत करता हूँ कि आप जज़्बात से मग़लूब हो जाने वालों में से ना बनें।” | اِنِّىْٓ اَعِظُكَ اَنْ تَكُوْنَ مِنَ الْجٰهِلِيْنَ 46 |
यह बहुत सख़्त अंदाज़ है। याद कीजिए कि सूरतुल अनआम की आयत 35 में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ से भी इसी तरह के अल्फ़ाज़ फ़रमाए गये हैं।
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आयत 47
“नूह ने अर्ज़ किया: ऐ मेरे परवरदिगार! मैं तेरी पनाह तलब करता हूँ इससे कि मैं तुझसे ऐसी बात का सवाल करुँ जिसके बारे में मेरे पास कोई इल्म नहीं है।” | قَالَ رَبِّ اِنِّىْٓ اَعُوْذُ بِكَ اَنْ اَسْـــَٔـلَكَ مَا لَيْسَ لِيْ بِهٖ عِلْمٌ ۭ |
“और अगर तूने मुझे माफ़ ना फ़रमा दिया और मुझ पर रहम ना फ़रमाया तो मैं हो जाऊँगा ख़सारा पाने वालों में।” | وَاِلَّا تَغْفِرْ لِيْ وَتَرْحَمْنِيْٓ اَكُنْ مِّنَ الْخٰسِرِيْنَ 47 |
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आयत 48
“हुक्म हुआ ऐ नूह उतर जाओ हमारी तरफ़ से सलामती और बरकतों के साथ, जो आप पर भी होंगी और उन उम्मतों पर भी जो आपके साथियों की नस्लों से वुजूद में आयेंगी।” | قِيْلَ يٰنُوْحُ اهْبِطْ بِسَلٰمٍ مِّنَّا وَبَرَكٰتٍ عَلَيْكَ وَعَلٰٓي اُمَمٍ مِّمَّنْ مَّعَكَ ۭ |
आम ख़्याल यही है कि इस तूफ़ान के बाद नस्ले इंसानी हज़रत नूह अलै. के इन तीनों बेटों से चली थी। इस सिलसिले में माहिरीन इल्मुल इन्साब की मुख़्तलिफ़ आरा (राय) का ख़ुलासा यह है कि आपके बेटे हज़रत साम उस इलाक़े में आबाद हो गये, जबकि हज़रत याफ़िस की औलाद वस्ती एशिया के पहाड़ी सिलसिले को अबूर करके रूस के मैदानी इलाक़ों में जा बसी। फिर वहाँ से उनमें से कुछ लोग सहराए गोबी को अबूर करके चीन की तरफ़ चले गये। चुनाँचे वस्ती एशिया के मुमालिक से लेकर चीन, उसके मल्हक़ा इलाक़ों और पूरे यूरोप में इसी नस्ल के लोग आबाद हैं। इनके अलावा Anglo Saxons और शुमाली अक़वाम के लोग भी इसी नस्ल से ताल्लुक़ रखते हैं।
दूसरी तरफ़ हज़रत हाम की नस्ल के कुछ लोग मशरिक़ की तरफ़ कूच करके ईरान और फिर हिन्दुस्तान में आ बसे। जबकि इनमें से बाज़ दूसरे क़बाईल जज़ीरा नुमाए सीना को अबूर करके मग़रिब में सूडान और मिस्र की तरफ़ चले गये। चुनाँचे आरयाई अक़वाम, रोमन, जर्मन, यूनानी और मशरिक़ी यूरोप के तमाम लोग हज़रत हाम ही की नस्ल से ताल्लुक़ रखते हैं, वल्लाहु आलम।
“और कुछ और क़ौमें (भी होंगी) जिन्हें हम (दुनिया के) कुछ फ़ायदे देंगे, फिर उनको हमारी तरफ़ से एक दर्दनाक अज़ाब आ पकड़ेगा।” | وَاُمَمٌ سَنُمَتِّعُهُمْ ثُمَّ يَمَسُّهُمْ مِّنَّا عَذَابٌ اَلِيْمٌ 48 |
जैसा कि बाद में क़ौमे आद व क़ौमे समूद पर अज़ाब आया है।
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आयत 49
“(ऐ मुहम्मद ﷺ!) यह ग़ैब की चीज़ों में से है जो हम वही कर रहे हैं आपकी तरफ़।” | تِلْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهَآ اِلَيْكَ ۚ |
“इससे पहले ना आप इनको जानते थे और ना आपकी क़ौम।” | مَا كُنْتَ تَعْلَمُهَآ اَنْتَ وَلَا قَوْمُكَ مِنْ قَبْلِ ھٰذَا ړ |
“तो आप सब्र कीजिए, यक़ीनन अंजामकार भला होगा अहले तक़वा ही का।” | فَاصْبِرْ ړاِنَّ الْعَاقِبَةَ لِلْمُتَّقِيْنَ 49ۧ |
आप हिम्मत और सब्र व इस्तक़ामत के साथ अपना काम किए चले जायें। यक़ीनन अंजामेकार की कामयाबी अहले तक़वा ही के लिये है।
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आयात 50 से 60 तक
وَاِلٰي عَادٍ اَخَاهُمْ هُوْدًا ۭ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ اِنْ اَنْتُمْ اِلَّا مُفْتَرُوْنَ 50 يٰقَوْمِ لَآ اَسْـــَٔـلُكُمْ عَلَيْهِ اَجْرًا ۭ اِنْ اَجْرِيَ اِلَّا عَلَي الَّذِيْ فَطَرَنِيْ ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ 51 وَيٰقَوْمِ اسْتَغْفِرُوْا رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ يُرْسِلِ السَّمَاۗءَ عَلَيْكُمْ مِّدْرَارًا وَّيَزِدْكُمْ قُوَّةً اِلٰي قُوَّتِكُمْ وَلَا تَتَوَلَّوْا مُجْرِمِيْنَ 52 قَالُوْا يٰهُوْدُ مَا جِئْتَنَا بِبَيِّنَةٍ وَّمَا نَحْنُ بِتَارِكِيْٓ اٰلِهَتِنَا عَنْ قَوْلِكَ وَمَا نَحْنُ لَكَ بِمُؤْمِنِيْنَ 53 اِنْ نَّقُوْلُ اِلَّا اعْتَرٰىكَ بَعْضُ اٰلِهَتِنَا بِسُوْۗءٍ ۭ قَالَ اِنِّىْٓ اُشْهِدُ اللّٰهَ وَاشْهَدُوْٓا اَنِّىْ بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ 54ۙ مِنْ دُوْنِهٖ فَكِيْدُوْنِيْ جَمِيْعًا ثُمَّ لَا تُنْظِرُوْنِ 55 اِنِّىْ تَوَكَّلْتُ عَلَي اللّٰهِ رَبِّيْ وَرَبِّكُمْ ۭ مَا مِنْ دَاۗبَّةٍ اِلَّا هُوَ اٰخِذٌۢ بِنَاصِيَتِهَا ۭ اِنَّ رَبِّيْ عَلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ 56 فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ مَّآ اُرْسِلْتُ بِهٖٓ اِلَيْكُمْ ۭ وَيَسْتَخْلِفُ رَبِّيْ قَوْمًا غَيْرَكُمْ ۚ وَلَا تَضُرُّوْنَهٗ شَـيْـــًٔـا ۭ اِنَّ رَبِّيْ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ حَفِيْظٌ 57 وَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا نَجَّيْنَا هُوْدًا وَّالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا ۚ وَنَجَّيْنٰهُمْ مِّنْ عَذَابٍ غَلِيْظٍ 58 وَتِلْكَ عَادٌ ڐ جَحَدُوْا بِاٰيٰتِ رَبِّهِمْ وَعَصَوْا رُسُلَهٗ وَاتَّبَعُوْٓا اَمْرَ كُلِّ جَبَّارٍ عَنِيْدٍ 59 وَاُتْبِعُوْا فِيْ هٰذِهِ الدُّنْيَا لَعْنَةً وَّيَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ اَلَآ اِنَّ عَادًا كَفَرُوْا رَبَّهُمْ ۭ اَلَا بُعْدًا لِّعَادٍ قَوْمِ هُوْدٍ 60 ۧ
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आयत 50
“और क़ौमे आद की तरफ़ (हमने भेजा) उनके भाई हूद अलै. को।” | وَاِلٰي عَادٍ اَخَاهُمْ هُوْدًا ۭ |
क़ौमे आद हज़रत साम की नस्ल से थी। यह क़ौम अपने ज़माने में जज़ीरा नुमाए अरब के जुनूब में आबाद थी। आज-कल यह इलाक़ा लक़ व दक़ सहरा है।
“आप अलै. ने कहा: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की इबादत करो, तुम्हारा कोई मअबूद नहीं अल्लाह के सिवा। (इस सिलसिले में) तुम महज़ झूठ गढ़ते हो।” | قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ اِنْ اَنْتُمْ اِلَّا مُفْتَرُوْنَ 50 |
यह जो तुमने मुख़्तलिफ़ नामों से मअबूद गढ़ रखे हैं इनकी कोई हक़ीक़त नहीं है, यह तुम महज़ इफ़तरा कर रहे हो।
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आयत 51
“ऐ मेरी क़ौम के लोगो! मैं तुमसे किसी अज्र का तालिब नहीं हूँ। नहीं है मेरा अज्र मगर उसी के ज़िम्मे जिसने मुझे पैदा फ़रमाया है। तो क्या तुम लोग अक़्ल से काम नहीं लेते?” | يٰقَوْمِ لَآ اَسْـــَٔـلُكُمْ عَلَيْهِ اَجْرًا ۭ اِنْ اَجْرِيَ اِلَّا عَلَي الَّذِيْ فَطَرَنِيْ ۭ اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ 51 |
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आयत 52
“और मेरी क़ौम के लोगो! अपने परवरदिगार से इस्तग़फ़ार करो, फिर उसी की तरफ़ रुजूअ करो” | وَيٰقَوْمِ اسْتَغْفِرُوْا رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ |
शिर्क, बुतपरस्ती को छोड़ दो और अल्लाह से अपने इस गुनाह की माफ़ी माँगो।
“वह आसमान से तुम पर ख़ूब पानी बरसाएगा, और तुम्हारी मौजूदा क़ुव्वत में मज़ीद क़ुव्वत का इज़ाफ़ा फ़रमाएगा, और तुम रूगरदानी ना करो मुजरिम बन कर।” | يُرْسِلِ السَّمَاۗءَ عَلَيْكُمْ مِّدْرَارًا وَّيَزِدْكُمْ قُوَّةً اِلٰي قُوَّتِكُمْ وَلَا تَتَوَلَّوْا مُجْرِمِيْنَ 52 |
क़ुरान हकीम के कई मक़ामात से यह बात मालूम होती है कि जब अल्लाह तआला किसी क़ौम की तरफ़ अपना रसूल अपने पैग़ाम के साथ भेजता है तो अब उस क़ौम की क़िस्मत उस पैग़ाम के साथ मुअल्लक़ हो जाती है। अगर वो क़ौम रसूल पर ईमान ले आती है और उस पैग़ाम को क़ुबूल कर लेती है तो अल्लाह तआला उस पर अपनी नेअमतों के दरवाज़े खोल देता है, ब-सूरते दीगर उसे तबाह व बर्बाद कर दिया जाता है।
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आयत 53
“उन्होंने कहा कि ऐ हूद! तुम हमारे पास कोई सनद लेकर नहीं आये” | قَالُوْا يٰهُوْدُ مَا جِئْتَنَا بِبَيِّنَةٍ |
यानि आप जो दावा करते हैं कि आप अल्लाह के रसूल हैं तो इसके सबूत के तौर पर आपके पास कोई खुली निशानी, सनद या मौअज्ज़ा नहीं है।
“और हम नहीं हैं छोड़ने वाले अपने मअबूदों को सिर्फ़ तुम्हारे कहने पर, और हम तुम्हारी बात मानने वाले नहीं हैं।” | وَّمَا نَحْنُ بِتَارِكِيْٓ اٰلِهَتِنَا عَنْ قَوْلِكَ وَمَا نَحْنُ لَكَ بِمُؤْمِنِيْنَ 53 |
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आयत 54
“हम तो यहीं कहते हैं कि तुम पर हमारे मअबूदों में से किसी की मार पड़ी है।” | اِنْ نَّقُوْلُ اِلَّا اعْتَرٰىكَ بَعْضُ اٰلِهَتِنَا بِسُوْۗءٍ ۭ |
यानि हमारा ख़्याल तो यही है कि आप जो हमारे मअबूदों का इन्कार करते हैं और उनकी शान में गुस्ताखी करते रहते हैं इसकी वजह से आपको उनकी तरफ़ से सज़ा मिली है और आपका दिमागी तवाज़ुन ठीक नहीं रहा। इसी लिये आप बहकी-बहकी बातें करने लगे हैं।
“हूद अलै. ने कहा कि मैं अल्लाह को गवाह ठहराता हूँ और तुम भी गवाह रहो कि मैं बरी हूँ उनसे जिन्हें तुम शरीक ठहरा रहे हो, उसके सिवा” | قَالَ اِنِّىْٓ اُشْهِدُ اللّٰهَ وَاشْهَدُوْٓا اَنِّىْ بَرِيْۗءٌ مِّمَّا تُشْرِكُوْنَ 54ۙ مِنْ دُوْنِهٖ |
मैं तुम्हारे इन झूठे मअबूदों और तुम्हारे शिर्क के इस जुर्म से बिल्कुल बरी और बेज़ार हूँ। यह वही बात है जो हज़रत इब्राहीम अलै. ने अपनी क़ौम से फ़रमाई थी।
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आयत 55
“पस तुम सब मिलकर मेरे ख़िलाफ जो चालें चल सकते हो चल लो, फिर मुझे ज़रा मोहलत ना दो।” | فَكِيْدُوْنِيْ جَمِيْعًا ثُمَّ لَا تُنْظِرُوْنِ 55 |
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आयत 56
“मैंने तो तव्वकुल किया है अल्लाह पर जो मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है।” | اِنِّىْ تَوَكَّلْتُ عَلَي اللّٰهِ رَبِّيْ وَرَبِّكُمْ ۭ |
“नहीं है कोई जानदार मगर उसकी पेशानी उसकी गिरफ्त में है।” | مَا مِنْ دَاۗبَّةٍ اِلَّا هُوَ اٰخِذٌۢ بِنَاصِيَتِهَا ۭ |
यानि हर जानदार की क़िस्मत और तक़दीर अल्लाह के हाथ में है। हुज़ूर ﷺ से भी एक मशहूर दुआ में ये अल्फ़ाज़ मन्क़ूल हैं: (فِیْ قَبْضَتِکَ‘ نَاصِیَتِیْ بِیَدِکَ)(3) यानि ऐ अल्लाह! मैं तेरे ही क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में हूँ, मेरी पेशानी तेरे ही हाथ में है।
“यक़ीनन मेरा रब तो सीधी राह पर है।” | اِنَّ رَبِّيْ عَلٰي صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ 56 |
अगर अल्लाह तक रसाई हासिल करनी है, अगर उसे पाना है तो वह तौहीद और अदल व इंसाफ़ की सीधी राह पर ही मिलेगा।
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आयत 57
“फिर अगर तुम पीठ मोड़ मोड़ लो (इंकार करो) तो मैंने पहुँचा दिया है तुम्हें (वह पैगाम) जो मुझे देकर तुम्हारी तरफ़ भेजा गया है।” | فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقَدْ اَبْلَغْتُكُمْ مَّآ اُرْسِلْتُ بِهٖٓ اِلَيْكُمْ ۭ |
“और मेरा रब तुम्हारी जगह किसी और क़ौम को ले आयेगा, और तुम उसका कुछ बिगाड़ नहीं सकोगे। यक़ीनन मेरा रब हर चीज़ पर निगहबान है।” | وَيَسْتَخْلِفُ رَبِّيْ قَوْمًا غَيْرَكُمْ ۚ وَلَا تَضُرُّوْنَهٗ شَـيْـــًٔـا ۭ اِنَّ رَبِّيْ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ حَفِيْظٌ 57 |
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आयत 58
“और जब हमारा (अज़ाब का) फ़ैसला आ गया तो हमने बचा लिया हूद अलै. को और आपके अहले ईमान साथियों को अपनी रहमत से।” | وَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا نَجَّيْنَا هُوْدًا وَّالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا ۚ |
“और हमने उन्हें निजात दे दी एक बहुत ही भारी अज़ाब से।” | وَنَجَّيْنٰهُمْ مِّنْ عَذَابٍ غَلِيْظٍ 58 |
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आयत 59
“यह थी क़ौमे आद, जिन्होंने इंकार किया अपने रब की आयात का और नाफ़रमानी की उसके रसूलों की” | وَتِلْكَ عَادٌ ڐ جَحَدُوْا بِاٰيٰتِ رَبِّهِمْ وَعَصَوْا رُسُلَهٗ |
यहाँ पर उन तमाम अंबिया को भी रसूल कहा गया है जो हज़रत हूद अलै. से पहले इस क़ौम में मबऊस हुए। अक्सर इस तरह होता रहा है कि किसी क़ौम में पहले बहुत से अम्बिया किराम अलै. उनके मुअल्लिमीन (अध्यापक) की हैसियत से आते रहे और फिर आखिर में एक रसूल आया। और जैसा कि क़ब्ल अज़ भी नबी और रसूल के फ़र्क़ के ज़िमन में बयान हो चुका है कि क़ुरान में यह दोनों अल्फ़ाज़ अगर अलग-अलग आयें तो एक दूसरे की जगह पर आ सकते हैं, लेकिन अगर यह दोनों अल्फ़ाज़ इकठ्ठे एक जगह आयें तो फिर इनमें से हर लफ़्ज़ अपने ख़ास मायने देता है।
“और उन्होंने पैरवी की हर सरकश व दुश्मने हक़ के हुक्म की।” | وَاتَّبَعُوْٓا اَمْرَ كُلِّ جَبَّارٍ عَنِيْدٍ 59 |
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आयत 60
“और उनके पीछे लगा दी गई लानत इस दुनिया में भी और क़यामत के दिन (के लिये) भी।” | وَاُتْبِعُوْا فِيْ هٰذِهِ الدُّنْيَا لَعْنَةً وَّيَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ |
“आगाह हो जाओ, क़ौमे आद ने अपने रब का कुफ़्र किया था। सुन लो, फटकार है आद पर जो क़ौमे हूद थी!” | اَلَآ اِنَّ عَادًا كَفَرُوْا رَبَّهُمْ ۭ اَلَا بُعْدًا لِّعَادٍ قَوْمِ هُوْدٍ 60 ۧ |
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आयात 61 से 68 तक
وَاِلٰي ثَمُوْدَ اَخَاهُمْ صٰلِحًا ۘ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ هُوَ اَنْشَاَكُمْ مِّنَ الْاَرْضِ وَاسْتَعْمَرَكُمْ فِيْهَا فَاسْتَغْفِرُوْهُ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ ۭ اِنَّ رَبِّيْ قَرِيْبٌ مُّجِيْبٌ 61 قَالُوْا يٰصٰلِحُ قَدْ كُنْتَ فِيْنَا مَرْجُوًّا قَبْلَ ھٰذَآ اَتَنْهٰىنَآ اَنْ نَّعْبُدَ مَا يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا وَاِنَّنَا لَفِيْ شَكٍّ مِّمَّا تَدْعُوْنَآ اِلَيْهِ مُرِيْبٍ 62 قَالَ يٰقَوْمِ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كُنْتُ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ وَاٰتٰىنِيْ مِنْهُ رَحْمَةً فَمَنْ يَّنْصُرُنِيْ مِنَ اللّٰهِ اِنْ عَصَيْتُهٗ ۣ فَمَا تَزِيْدُوْنَنِيْ غَيْرَ تَخْسِيْرٍ 63 وَيٰقَوْمِ هٰذِهٖ نَاقَــةُ اللّٰهِ لَكُمْ اٰيَةً فَذَرُوْهَا تَاْكُلْ فِيْٓ اَرْضِ اللّٰهِ وَلَا تَمَسُّوْهَا بِسُوْۗءٍ فَيَاْخُذَكُمْ عَذَابٌ قَرِيْبٌ 64 فَعَقَرُوْهَا فَقَالَ تَمَتَّعُوْا فِيْ دَارِكُمْ ثَلٰثَةَ اَيَّامٍ ۭذٰلِكَ وَعْدٌ غَيْرُ مَكْذُوْبٍ 65 فَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا نَجَّيْنَا صٰلِحًا وَّالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا وَمِنْ خِزْيِ يَوْمِىِٕذٍ ۭ اِنَّ رَبَّكَ هُوَ الْقَوِيُّ الْعَزِيْزُ 66 وَاَخَذَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوا الصَّيْحَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دِيَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 67ۙ كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ۭ اَلَآ اِنَّ ثَمُــوْدَا۟كَفَرُوْا رَبَّهُمْ ۭ اَلَا بُعْدًا لِّثَمُوْدَ 68ۧ
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आयत 61
“और समूद की तरफ़ (हमने भेजा) उनके भाई सालेह को।” | وَاِلٰي ثَمُوْدَ اَخَاهُمْ صٰلِحًا ۘ |
क़ौमे आद में से जो लोग बचे थे वो अपने इलाक़े से आगे वस्ती इलाक़े की तरफ़ जाकर “हजर” में आबाद हुए और उन लोगों की नस्ल में से समूद नाम की एक बड़ी क़ौम उभरी। फिर वक़्त के साथ-साथ जब उस क़ौम के अंदर भी वही खराबियाँ पैदा हो गईं और वो लोग भी जब बुतपरस्ती और शिर्क की लानत में मुब्तला हो गये तो उनकी इस्लाह के लिये हज़रत सालेह अलै. को मबऊस किया गया।
“आप अलै. ने फ़रमाया: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बंदगी करो, तुम्हारा कोई मअबूद उसके सिवा नहीं है।” | قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ |
“उसने तुम्हें ज़मीन से पैदा किया और उसमें तुमको आबाद किया, तो उससे अपने गुनाह को बख़्शवाओ, फिर उसी की जनाब में रुजूअ करो।” | هُوَ اَنْشَاَكُمْ مِّنَ الْاَرْضِ وَاسْتَعْمَرَكُمْ فِيْهَا فَاسْتَغْفِرُوْهُ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ ۭ |
“यक़ीनन मेरा रब क़रीब है और दुआ का क़ुबूल करने वाला है।” | اِنَّ رَبِّيْ قَرِيْبٌ مُّجِيْبٌ 61 |
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आयत 62
“उन्होंने कहा कि ऐ सालेह! आपसे तो हमारी बड़ी उम्मीदें वाबस्ता थीं इससे पहले” | قَالُوْا يٰصٰلِحُ قَدْ كُنْتَ فِيْنَا مَرْجُوًّا قَبْلَ ھٰذَآ |
यानि आप तो अपने अख्लाक़ व किरदार की वजह से पूरी क़ौम की उम्मीदों का मरकज़ थे। हमें तो तवक्क़ो थी कि आप अपनी सलाहियतों के सबब अपने आबा व अजदाद और पूरी क़ौम का नाम रौशन करेंगे, मगर आपने यह क्या किया? आपने तो अपने बाप-दादा के दीन और उनके तौर-तरीक़ों पर ही तन्क़ीद (आलोचना) शुरू कर दी। आपकी इन बातों से तो पूरी क़ौम की उम्मीदों पर पानी फिर गया है।
“क्या आप हमें रोक रहे हैं उनको पूजने से जिनको हमारे आबा व अजदाद पूजते थे? और यक़ीनन जिस चीज़ की तरफ़ आप हमें बुला रहे हैं उसके बारे में हमें बहुत शकूक व शुबहात हैं।” | اَتَنْهٰىنَآ اَنْ نَّعْبُدَ مَا يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا وَاِنَّنَا لَفِيْ شَكٍّ مِّمَّا تَدْعُوْنَآ اِلَيْهِ مُرِيْبٍ 62 |
आपकी इस दावते तौहीद के बारे में हमें सख़्त शुबह है जिसने हमें खलजान में डाल दिया है। हमारा दिल आपकी इस दावत पर मुत्मईन नहीं है।
आयत 63
“सालेह अलै. ने कहा: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! ज़रा सोचो तो सही, अगर मैं (पहले से ही) अपने रब की तरफ़ से बय्यिना पर था” | قَالَ يٰقَوْمِ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كُنْتُ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ |
हज़रत सालेह अलै. ने भी वही बात कही कि देखो मेरी गुज़िश्ता ज़िन्दगी तुम्हारे सामने है। मेरा किरदार और मेरा अख्लाक़ गवाह है कि मैं इससे पहले तुम्हारे मआशरे का एक सालेह किरदार और सलीमुल फ़ितरत इंसान था।
“और अल्लाह ने मुझे अपने पास से ख़ास रहमत भी अता कर दी” | وَاٰتٰىنِيْ مِنْهُ رَحْمَةً |
और अब मेरे पास अल्लाह की तरफ़ से वही भी आ गई है, अल्लाह ने अपनी रहमते ख़ास से मुझे नुबुवत से भी सरफ़राज़ फ़रमा दिया है।
“तो अब अगर मैं उसकी नाफ़रमानी करूँ तो मुझे अल्लाह (की पकड़) से कौन बचायेगा? तुम तो इज़ाफ़ा नहीं करोगे मेरे लिये मगर ख़सारे ही में!” | فَمَنْ يَّنْصُرُنِيْ مِنَ اللّٰهِ اِنْ عَصَيْتُهٗ ۣ فَمَا تَزِيْدُوْنَنِيْ غَيْرَ تَخْسِيْرٍ 63 |
यानि अगर मैं अपनी फ़ितरते सलीम और वही-ए-इलाही की रहनुमाई के बावजूद इस दावते हक़ को छोड़ कर तुम्हें खुश करने के लिये गुमराही का तरीक़ा इख़्तियार कर लूँ तो मुझे अल्लाह तआला क गिरफ़्त से कौन बचायेगा? तुम्हारी इस तरह की बातों से तो मालूम होता है कि तुम लोग मेरी तबाही के दर पे हो।
आयत 64
“और (देखो) मेरी क़ौम के लोगों! यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिये एक निशानी है, इसे छोड़े रखो कि यह चरती फिरे अल्लाह की ज़मीन में” | وَيٰقَوْمِ هٰذِهٖ نَاقَــةُ اللّٰهِ لَكُمْ اٰيَةً فَذَرُوْهَا تَاْكُلْ فِيْٓ اَرْضِ اللّٰهِ |
“और (देखना) किसी बुरे इरादे से इसे हाथ ना लगाना, वरना तुम्हें आ पकड़ेगा एक क़रीबी अज़ाब।” | وَلَا تَمَسُّوْهَا بِسُوْۗءٍ فَيَاْخُذَكُمْ عَذَابٌ قَرِيْبٌ 64 |
वह अज़ाब अब दूर नहीं है और उसे आते कुछ देर ना लगेगी।
आयत 65
“तो उन्होंने उसकी कून्चें काट डालीं” | فَعَقَرُوْهَا |
उन्होंने बाक़ायदा मन्सूबाबंदी करके ऊँटनी को हलाक कर डाला।
“तो सालेह अलै. ने फ़रमाया: अब तुम अपने घरों में तीन दिन तक रह बस लो। यह वह वादा है जो झूठा साबित नहीं होगा।” | فَقَالَ تَمَتَّعُوْا فِيْ دَارِكُمْ ثَلٰثَةَ اَيَّامٍ ۭذٰلِكَ وَعْدٌ غَيْرُ مَكْذُوْبٍ 65 |
आयत 66
“तो जब हमारा फ़ैसला आ गया तो हमने निजात दी सालेह अलै. को और उनको जो आपके साथ ईमान लाए थे, अपनी रहमत से” | فَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا نَجَّيْنَا صٰلِحًا وَّالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا |
“और उस दिन की रुसवाई से (उन्हें बचा लिया)। यक़ीनन आपका परवरदिगार बहुत ताक़तवर, ज़बरजस्त है।” | وَمِنْ خِزْيِ يَوْمِىِٕذٍ ۭ اِنَّ رَبَّكَ هُوَ الْقَوِيُّ الْعَزِيْزُ 66 |
आयत 67
“और उन ज़ालिमों को पकड़ लिया एक चिंघाड़ ने तो वो अपने घरों के अंदर औंधे पड़े रह गये।” | وَاَخَذَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوا الصَّيْحَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دِيَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 67ۙ |
आयत 68
“गोया वो कभी उनमें बसे ही नहीं थे।” | كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ۭ |
“आगाह हो जाओ, यक़ीनन समूद ने अपने रब का कुफ़्र किया। आगाह हो जाओ फिटकार है समूद पर!” | اَلَآ اِنَّ ثَمُــوْدَا۟كَفَرُوْا رَبَّهُمْ ۭ اَلَا بُعْدًا لِّثَمُوْدَ 68ۧ |
आयात 69 से 83 तक
وَلَقَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُنَآ اِبْرٰهِيْمَ بِالْبُشْرٰي قَالُوْا سَلٰمًا ۭ قَالَ سَلٰمٌ فَمَا لَبِثَ اَنْ جَاۗءَ بِعِجْلٍ حَنِيْذٍ 69 فَلَمَّا رَآٰ اَيْدِيَهُمْ لَا تَصِلُ اِلَيْهِ نَكِرَهُمْ وَاَوْجَسَ مِنْهُمْ خِيْفَةً ۭ قَالُوْا لَا تَخَفْ اِنَّآ اُرْسِلْنَآ اِلٰي قَوْمِ لُوْطٍ 70ۭ وَامْرَاَتُهٗ قَاۗىِٕمَةٌ فَضَحِكَتْ فَبَشَّرْنٰهَا بِاِسْحٰقَ ۙ وَمِنْ وَّرَاۗءِ اِسْحٰقَ يَعْقُوْبَ 71 قَالَتْ يٰوَيْلَتٰٓى ءَاَلِدُ وَاَنَا عَجُوْزٌ وَّھٰذَا بَعْلِيْ شَيْخًا ۭ اِنَّ ھٰذَا لَشَيْءٌ عَجِيْبٌ 72 قَالُوْٓا اَتَعْجَبِيْنَ مِنْ اَمْرِ اللّٰهِ رَحْمَتُ اللّٰهِ وَبَرَكٰتُهٗ عَلَيْكُمْ اَهْلَ الْبَيْتِ ۭ اِنَّهٗ حَمِيْدٌ مَّجِيْدٌ 73 فَلَمَّا ذَهَبَ عَنْ اِبْرٰهِيْمَ الرَّوْعُ وَجَاۗءَتْهُ الْبُشْرٰي يُجَادِلُنَا فِيْ قَوْمِ لُوْطٍ 74ۭ اِنَّ اِبْرٰهِيْمَ لَحَلِيْمٌ اَوَّاهٌ مُّنِيْبٌ 75 يٰٓـــاِبْرٰهِيْمُ اَعْرِضْ عَنْ ھٰذَا ۚ اِنَّهٗ قَدْ جَاۗءَ اَمْرُ رَبِّكَ ۚ وَاِنَّهُمْ اٰتِيْهِمْ عَذَابٌ غَيْرُ مَرْدُوْدٍ 76 وَلَمَّا جَاۗءَتْ رُسُلُنَا لُوْطًا سِيْۗءَ بِهِمْ وَضَاقَ بِهِمْ ذَرْعًا وَّقَالَ ھٰذَا يَوْمٌ عَصِيْبٌ 7 وَجَاۗءَهٗ قَوْمُهٗ يُهْرَعُوْنَ اِلَيْهِ ۭ وَمِنْ قَبْلُ كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ السَّيِّاٰتِ ۭ قَالَ يٰقَوْمِ هٰٓؤُلَاۗءِ بَنَاتِيْ هُنَّ اَطْهَرُ لَكُمْ فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَلَا تُخْزُوْنِ فِيْ ضَيْفِيْ ۭ اَلَيْسَ مِنْكُمْ رَجُلٌ رَّشِيْدٌ 78 قَالُوْا لَقَدْ عَلِمْتَ مَا لَنَا فِيْ بَنٰتِكَ مِنْ حَقٍّ ۚ وَاِنَّكَ لَتَعْلَمُ مَا نُرِيْدُ 79 قَالَ لَوْ اَنَّ لِيْ بِكُمْ قُوَّةً اَوْ اٰوِيْٓ اِلٰي رُكْنٍ شَدِيْدٍ 80 قَالُوْا يٰلُوْطُ اِنَّا رُسُلُ رَبِّكَ لَنْ يَّصِلُوْٓا اِلَيْكَ فَاَسْرِ بِاَهْلِكَ بِقِطْعٍ مِّنَ الَّيْلِ وَلَا يَلْتَفِتْ مِنْكُمْ اَحَدٌ اِلَّا امْرَاَتَكَ ۭ اِنَّهٗ مُصِيْبُهَا مَآ اَصَابَهُمْ ۭ اِنَّ مَوْعِدَهُمُ الصُّبْحُ ۭ اَلَيْسَ الصُّبْحُ بِقَرِيْبٍ 81 فَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا جَعَلْنَا عَالِيَهَا سَافِلَهَا وَاَمْطَرْنَا عَلَيْهَا حِجَارَةً مِّنْ سِجِّيْلٍ ڏ مَّنْضُوْدٍ 2ۙ مُّسَوَّمَةً عِنْدَ رَبِّكَ ۭ وَمَا ھِيَ مِنَ الظّٰلِمِيْنَ بِبَعِيْدٍ 83ۧ
अब इन आयात में हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र आ रहा है, मगर आपका ज़िक्र अंबिया अर्रुसुल के तौर पर नहीं बल्कि बिल्कुल मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में है। यहाँ रसूलों के ज़िक्र में एक ख़ूबसूरत तक़सीम को मद्देनज़र रखें, कि इस सूरत में पहले तीन रसूल जिनका ज़माना हज़रत इब्राहीम अलै. से पहले का है (हज़रत नूह, हज़रत हूद और हज़रत सालेह अलै.) इनका ज़िक्र करने के बाद हज़रत इब्राहीम अलै. का मुख़्तसरन क़ससुल नबिय्यीन के अंदाज़ में आया है, आपके ज़िक्र के बाद फिर तीन रसूलों का तज़किरा है जो आप ही की नस्ल में से थे, बल्कि उनमें से हज़रत लूत अलै. तो आपके भतीजे और हम असर भी थे। यहाँ पर हज़रत लूत अलै. का ज़िक्र अंबिया अर्रुसुल के अंदाज़ में आया है और इसी के ज़ेल में हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र है। जब हज़रत लूत अलै. की क़ौम पर अज़ाब भेजने का फ़ैसला हुआ तो अज़ाब के फ़रिश्ते बराहेरास्त हज़रत लूत अलै. के पास जाने के बजाय पहले हज़रत इब्राहीम अलै. के पास गये और वहाँ ना सिर्फ़ क़ौमे लूत पर अज़ाब के बारे में उनका हज़रत इब्राहीम अलै. के साथ मकालमा (बातचीत) हुआ बल्कि फ़रिश्तों ने हज़रत सारह अलै. को हज़रत इस्हाक़ अलै. की विलादत की ख़ुशखबरी भी दी।
याद रहे कि सूरतुल आराफ़ में भी जब इन छ: रसूलों का तज़किरा अंबिया अर्रुसुल के अंदाज़ में हुआ तो वहाँ भी हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र नहीं किया गया और जब सूरतुल अनआम (जो सूरतुल आराफ़ की जुड़वाँ सूरत है) में हज़रत इब्राहीम का तज़किरा आया तो अंबिया अर्रुसुल के अंदाज़ में नहीं बल्कि क़ससुल नबिय्यीन के अंदाज़ में आया है। यानि हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र क़ुरान हकीम में इस तरह कहीं भी नहीं आया कि आपको अपनी क़ौम की तरफ़ मबऊस किया गया हो, आपने अपनी क़ौम को दावते तौहीद दी हो, क़ौम उस दावत से मुन्कर हुई हो और फिर उस पर अज़ाब भेज दिया गया हो।
आयत 69
“और इब्राहीम के पास हमारे फ़रस्तादे (फ़रिश्ते) बशारत लेकर आये। उन्होंने कहा: सलाम!” | وَلَقَدْ جَاۗءَتْ رُسُلُنَآ اِبْرٰهِيْمَ بِالْبُشْرٰي قَالُوْا سَلٰمًا ۭ |
“इब्राहीम ने भी (जवाब में) सलाम कहा, फिर कुछ देर ना गुज़री कि आप ले आये एक बछड़ा भुना हुआ।” | قَالَ سَلٰمٌ فَمَا لَبِثَ اَنْ جَاۗءَ بِعِجْلٍ حَنِيْذٍ 69 |
महमानों की आमद के फ़ौरन बाद हज़रत इब्राहीम अलै. ने उनकी ज़ियाफ़त के लिये एक बछड़ा ज़िबह किया और उसे भून कर उनके सामने पेश कर दिया।
आयत 70
“फिर जब आपने देखा कि उनके हाथ उसकी तरफ़ नहीं बढ़ रहे हैं” | فَلَمَّا رَآٰ اَيْدِيَهُمْ لَا تَصِلُ اِلَيْهِ |
“तो आपने उनमें अजनबियत पाई और उनकी तरफ़ से एक ख़ौफ महसूस किया।” | نَكِرَهُمْ وَاَوْجَسَ مِنْهُمْ خِيْفَةً ۭ |
जब हज़रत इब्राहीम अलै. ने महसूस किया कि रस्मी इसरार के बावजूद भी मेहमान किसी तौर खाने की दावत क़ुबूल करने पर आमादा नहीं हो रहे तो अब आप बजा तौर पर खटके कि यह पुर इसरार (रहस्यमय) लोग कौन हैं और यहाँ किस इरादे से आए हैं? उस ज़माने में यह रिवाज भी था कि अगर कोई शख़्स दुश्मनी की ग़र्ज़ से किसी के पास जाता तो उसके यहाँ का खाना नहीं खाता था। इसी लिये हज़रत इब्राहीम अलै. को उनकी तरफ़ से ख़द्शा (डर) महसूस हुआ। जब उन्होंने आपका यह ख़ौफ़ महसूस किया तो:
“उन्होंने कहा: आप डरिये नहीं, असल में तो हम भेजे गये हैं क़ौमे लूत की तरफ।” | قَالُوْا لَا تَخَفْ اِنَّآ اُرْسِلْنَآ اِلٰي قَوْمِ لُوْطٍ 70ۭ |
यानि हम फ़रिश्ते हैं और हमें क़ौमे लूत की तरफ़ अज़ाब की ग़र्ज़ से भेजा गया है।
आयत 71
“और आपकी बीवी (कहीं क़रीब) खड़ी थी तो वह हँस पड़ी” | وَامْرَاَتُهٗ قَاۗىِٕمَةٌ فَضَحِكَتْ |
हज़रत सारह अलै. क़रीब ही कहीं पर्दे के पीछे खड़ी यह सारी बातें सुन रही थीं तो आप शायद हज़रत इब्राहीम अलै. की हालत पर हँस पड़ी कि मेरे शौहर फ़रिश्तों से ख़ौफज़दा हो गये थे।
“तो हमने उसे बशारत दी इस्हाक़ अलै. की और इस्हाक़ के बाद याक़ूब अलै. की” | فَبَشَّرْنٰهَا بِاِسْحٰقَ ۙ وَمِنْ وَّرَاۗءِ اِسْحٰقَ يَعْقُوْبَ 71 |
यानि फ़रिश्तों ने हज़रत सारह अलै. को हज़रत इस्हाक़ की विलादत की ख़ुश ख़बरी दी और साथ ही हज़रत याक़ूब यानि पोते की भी। उस वक़्त हज़रत हाजरा के यहाँ हज़रत इस्माईल अलै. की विलादत हो चुकी थी। हज़रत सारह हज़रत इब्राहीम अलै. की पहली बीवी थीं जबकि हज़रत हाजरा को आपकी ख़िदमत में बादशाहे मिस्र ने पेश किया था। यहूदियों के यहाँ हज़रत हाजरा को कनीज़ समझा जाता है, हाँलाकि आप मिस्र के शाही ख़ानदान की ख़ातून थीं। आपके यहाँ हज़रत इस्माईल की विलादत हुई तो हज़रत इब्राहीम उन दोनों (माँ और बेटे) को अल्लाह के हुक्म से हिजाज़ में उस जगह छोड़ आये जहाँ बाद में बैतुल्लाह तामीर होना था। बहरहाल हज़रत सारह के यहाँ उस वक़्त तक कोई औलाद नहीं थी। चुनाँचे फ़रिश्तों ने आपको बेटे की और फिर उस बेटे के बेटे की विलादत की बशारत दी।
आयत 72
“उसने कहा: हाय मेरी शामत! क्या अब मैं बच्चा जनूंगी जबकि मैं निहायत बूढ़ी हो चुकी हूँ और यह मेरे शौहर भी बूढ़े हैं! यह तो बहुत अजीब बात है।” | قَالَتْ يٰوَيْلَتٰٓى ءَاَلِدُ وَاَنَا عَجُوْزٌ وَّھٰذَا بَعْلِيْ شَيْخًا ۭ اِنَّ ھٰذَا لَشَيْءٌ عَجِيْبٌ 72 |
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आयत 73
“फ़रिश्तों ने कहा: क्या आप तअज्जुब करती हैं अल्लाह के फ़ैसले पर?” | قَالُوْٓا اَتَعْجَبِيْنَ مِنْ اَمْرِ اللّٰهِ |
यानि यह तो अल्लाह का फ़ैसला है और हम अल्लाह की तरफ़ से आपको ख़ुश ख़बरी दे रहे हैं।
“अल्लाह की रहमतें और उसकी बरकतें हों तुम पर ऐ नबी के घर वालो!” | رَحْمَتُ اللّٰهِ وَبَرَكٰتُهٗ عَلَيْكُمْ اَهْلَ الْبَيْتِ ۭ |
इस आयत में “अहले बैत” का मफ़हूम बहुत वाज़ेह होकर सामने आता है। यहाँ पर इसका मिस्दाक़ हज़रत सारह के अलावा कोई और नहीं, लिहाज़ा यहाँ लाज़मी तौर पर आप ही अहले बैत हैं। चुनाँचे मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के मामले में भी अहले बैते रसूल ﷺ, आपकी अज़वाजे मुतह्हरात रज़ि. ही हैं। और आप ﷺ का फ़रमान जो हज़रत फ़ातिमा, हज़रत अली, हज़रत हसन और हज़रत हुसैन रज़ि. के बारे में है: ((اَللّٰھُمَّ ھؤُلاَءِ اَہْلُ بَیْتِیْ))(4) तो गोया आप ﷺ ने अपने अहले बैत के दायरे को वुसअत देते हुए फ़रमाया कि यह लोग भी मेरे अहले बैत में शामिल हैं।
“यक़ीनन अल्लाह लायक़-ए-हम्द और बुज़ुर्गी वाला है।” | اِنَّهٗ حَمِيْدٌ مَّجِيْدٌ 73 |
अल्लाह तआला ने अपनी ज़ात में सतूदाह (सराहनीय) सिफ़ात है और वह बहुत अज़मतों वाला है।
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आयत 74
“फिर जब इब्राहीम अलै. का ख़ौफ़ जाता रहा और यह बशारत भी पहुँच गई, तो आपने झगड़ना शुरु कर दिया हमसे क़ौमे लूत के बारे में।” | فَلَمَّا ذَهَبَ عَنْ اِبْرٰهِيْمَ الرَّوْعُ وَجَاۗءَتْهُ الْبُشْرٰي يُجَادِلُنَا فِيْ قَوْمِ لُوْطٍ 74ۭ |
हज़रत इब्राहीम अलै. का यह मुजादला (बहस) तौरात में बड़ी तफ़सील से बयान हुआ है। इसका खुलासा यह है कि हज़रत इब्राहीम अलै. ने फ़रिश्तों से कहा कि अगर इन बस्तियों में पचास आदमी भी रास्तबाज़ हुए तो क्या फिर भी उनको हलाक कर दिया जायेगा? फ़रिश्तों ने जवाब दिया कि नहीं, फिर उन्हें हलाक नहीं किया जायेगा। फिर हज़रत इब्राहीम अलै. ने चालीस आदमियों का पूछा, तो उन्होंने कहा कि फिर भी उनको तबाह नहीं किया जायेगा। चुनाँचे इस तरह बात होते-होते पाँच आदमियों पर आ गई। इस पर हज़रत इब्राहीम अलै. को बताया गया कि आप इस बहस को छोड़ दें। अब तो आपके रब का फ़ैसला आ चुका है, क्योंकि उन बस्तियों में ख़ुद हज़रत लूत अलै. और उनकी दो बेटियों के अलावा कोई एक मुतनफ्फ़िस भी रास्तबाज़ नहीं है।
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आयत 75
“यक़ीनन इब्राहीम बहुत ही बुर्दबार, नरम दिल और अल्लाह की जनाब में रुजूअ करने वाले थे।” | اِنَّ اِبْرٰهِيْمَ لَحَلِيْمٌ اَوَّاهٌ مُّنِيْبٌ 75 |
यहाँ हज़रत इब्राहीम अलै. की यह तीन सिफ़ात एक साथ जमा फ़रमा कर आपकी बहुत क़द्र अफ़ज़ाई भी फ़रमाई गई है और आपके मुजादला करने की वजह भी बयान फ़रमा दी गई है कि चूँकि आप बहुत हलीमुल तबअ (नर्म स्वभाव) और दिल के नर्म थे, इसी वजह से आपने आख़री हद तक कोशिश की कि अज़ाब के टलने की कोई सूरत पैदा हो जाये। इसी तरह मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की तबीयत मुबारक में भी ख़ुसूसी नर्मी थी और हज़रत अबुबक्र सिद्दीक़ रज़ि. को भी अल्लाह ने तबीयत की ख़ास नर्मी अता कर रखी थी।
आयत 76
“ऐ इब्राहीम छोड़िये इस मामले को, अब तो आपके रब का फ़ैसला आ चुका है।” | يٰٓـــاِبْرٰهِيْمُ اَعْرِضْ عَنْ ھٰذَا ۚ اِنَّهٗ قَدْ جَاۗءَ اَمْرُ رَبِّكَ ۚ |
“और उन पर वह अज़ाब आकर ही रहेगा जिसे लौटाया नहीं जा सकेगा।” | وَاِنَّهُمْ اٰتِيْهِمْ عَذَابٌ غَيْرُ مَرْدُوْدٍ 76 |
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आयत 77
“और जब आये हमारे फ़रस्तादे लूत अलै. के पास तो आप उनकी वजह से बड़े ग़मगीन हुए, और आपका दिल बहुत तंग हुआ” | وَلَمَّا جَاۗءَتْ رُسُلُنَا لُوْطًا سِيْۗءَ بِهِمْ وَضَاقَ بِهِمْ ذَرْعًا |
“और आप कहने लगे कि आज तो बहुत सख़्ती का दिन है।” | وَّقَالَ ھٰذَا يَوْمٌ عَصِيْبٌ 7 |
चूँकि उन बस्तियों के लोगों में आमर्द परस्ती आम थी, लिहाज़ा उनकी आख़री आज़माईश के लिये फरिश्तों को उनके पास नौजवान ख़ूबसूरत लड़कों के रूप में भेजा गया था। हज़रत लूत अलै. उन ख़ूबसूरत मेहमान लड़कों को देख कर इसी लिये परेशान हुए कि अब वह अपने इन मेहमानों का दिफ़ाअ (बचाव) कैसे करेंगे। इसलिये कि आप जानते थे कि उनकी क़ौम के लोग किसी अपील या दलील से बाज़ आने वाले नहीं थे और आप अकेले ज़बरदस्ती उन्हें रोक नहीं सकते थे।
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आयत 78
“और आये आपकी क़ौम के लोग दीवानावार दौड़ते हुए आप (के घर) की तरफ़, और वो पहले से ही गंदे कामों में मुलव्विस थे।” | وَجَاۗءَهٗ قَوْمُهٗ يُهْرَعُوْنَ اِلَيْهِ ۭ وَمِنْ قَبْلُ كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ السَّيِّاٰتِ ۭ |
“लूत ने फ़रमाया: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! यह मेरी बेटियाँ (मौजूद) हैं, वो तुम्हारे लिये ज़्यादा पाकीज़ा हैं” | قَالَ يٰقَوْمِ هٰٓؤُلَاۗءِ بَنَاتِيْ هُنَّ اَطْهَرُ لَكُمْ |
मुफ़स्सिरीन ने इसके एक मायने तो यह मुराद लिये हैं कि तुम्हारे घरों मे तुम्हारी बीवियाँ मौजूद हैं जो मेरी बेटियों ही की मानिन्द हैं, क्योंकि नबी अपनी पूरी क़ौम के लिये बाप की तरह होता है। जैसे सूरतुल अहज़ाब आयत 6 में हुज़ूर ﷺ के बारे में फ़रमाया गया है: { وَاَزْوَاجُهٗٓ اُمَّهٰتُهُمْ ۭ } कि आपकी तमाम अज़वाजे मुतह्हरात रज़ि. मोमिनीन की माँए हैं। इसके दूसरे मायने यह भी हो सकते हैं कि हज़रत लूत अलै. ने अपनी बेटियों के बारे में फ़रमाया कि ये मेरी बेटियाँ हैं, उनसे जायज़ और पाकीज़ा तरीक़े से निकाह कर लो, मैं इसके लिये तैयार हूँ, लेकिन मेरे इन मेहमानों के बारे में मुझे रुसवा ना करो।
“तो अल्लाह का ख़ौफ करो और मुझे मेरे मेहमानों के मामले में रुसवा ना करो। क्या तुम में कोई एक आदमी भी नेक चलन नहीं है?” | فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَلَا تُخْزُوْنِ فِيْ ضَيْفِيْ ۭ اَلَيْسَ مِنْكُمْ رَجُلٌ رَّشِيْدٌ 78 |
क्या तुम लोगों में कोई एक भी शरीफ़ अन्नफ़्स इन्सान नहीं है जो मेरा साथ दे और इन सब लोगों को बद्अख्लाक़ी और बेहयाई से रोके।
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आयत 79
“उन्होंने कहा कि तुम्हें तो मालूम ही है कि तुम्हारी इन बेटियों पर हमारा कोई हक़ नहीं है, और तुम ख़ूब जानते हो जो हम चाहते हैं।” | قَالُوْا لَقَدْ عَلِمْتَ مَا لَنَا فِيْ بَنٰتِكَ مِنْ حَقٍّ ۚ وَاِنَّكَ لَتَعْلَمُ مَا نُرِيْدُ 79 |
क़ौम के लोगों ने कहा कि अब आप इधर-उधर की बातें मत कीजिए, आप ख़ूब समझते हैं कि हमारा यहाँ आने का मक़सद क्या है।
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आयत 80
“लूत ने कहा: काश मेरे पास तुम्हारे मुक़ाबले के लिये कोई ताक़त होती या कोई मज़बूत सहारा होता जिसकी मैं पनाह ले लेता।” | قَالَ لَوْ اَنَّ لِيْ بِكُمْ قُوَّةً اَوْ اٰوِيْٓ اِلٰي رُكْنٍ شَدِيْدٍ 80 |
इस ज़िमन में नबी ﷺ ने फ़रमाया: ((یَرْحَمُ اللّٰہُ لُوْطًا لَقَدْ کَانَ یَاْوِیْ اِلٰی رُکْنٍ شَدِیْدٍ))(5) “अल्लाह रहम फ़रमाए लूत पर, वो एक मज़बूत क़िले में ही तो थे।” यानि अल्लाह तआला की पुश्त पनाही और हिफ़ाज़त तो हज़रत लूत अलै. को हासिल थी। लेकिन उस वक़्त जो सूरते हाल बन गई थी उसमें बरबनाए तबअ बशरी परेशानी और ख़ौफ़ का तारी हो जाना नबुवत की अस्मत के मनाफ़ी नहीं है। जैसे हज़रत मूसा अलै. भी वक़्ती तौर पर जादूगरों के साँपों से डर गये थे।
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आयत 81
“फ़रिश्तों ने कहा: ऐ लूत! हम आपके रब के भेजे हुए (फ़रिश्ते) हैं, यह लोग आप तक नहीं पहुँच पायेंगे” | قَالُوْا يٰلُوْطُ اِنَّا رُسُلُ رَبِّكَ لَنْ يَّصِلُوْٓا اِلَيْكَ |
फ़रिश्तों ने अपना तआरुफ़ कराते हुए आपको तसल्ली दी कि आप इत्मिनान रखें, यह लोग आपको कोई गज़न्द (नुक़सान) नहीं पहुँचा सकेगें। फिर फ़रिश्ते ने अपना हाथ हिलाया तो वो सब नाबकार (दुष्ट) अंधे हो गये।
“पस आप रात के (उस बक़िया) हिस्से में अपने घर वालों को लेकर निकल जायें और कोई भी आप में से पीछे मुड़ कर ना देखें।” | فَاَسْرِ بِاَهْلِكَ بِقِطْعٍ مِّنَ الَّيْلِ وَلَا يَلْتَفِتْ مِنْكُمْ اَحَدٌ |
यानि यहाँ से जाते हुए आप लोगों को पीछे रह जाने वालों की तरफ़ किसी क़िस्म की कोई तवज्जोह करने की ज़रुरत नहीं है।
“सिवाय आपकी बीवी के, उस पर भी वही मुसीबत आयेगी जो सब पर आने वाली है।” | اِلَّا امْرَاَتَكَ ۭ اِنَّهٗ مُصِيْبُهَا مَآ اَصَابَهُمْ ۭ |
यानि जब आप अपने घर वालों को लेकर यहाँ से निकलेंगे तो अपनी बीवी को साथ लेकर नहीं जायेंगे। आपकी उस बीवी का ज़िक्र सूरतुल तहरीम (आयत 10) में हज़रत नूह अलै. की मुशरिक बीवी के साथ इस तरह हुआ है:
ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا لِّلَّذِيْنَ كَفَرُوا امْرَاَتَ نُوْحٍ وَّامْرَاَتَ لُوْطٍ ۭ كَانَتَا تَحْتَ عَبْدَيْنِ مِنْ عِبَادِنَا صَالِحَيْنِ فَخَانَتٰهُمَا فَلَمْ يُغْنِيَا عَنْهُمَا مِنَ اللّٰهِ شَيْــــًٔا وَّقِيْلَ ادْخُلَا النَّارَ مَعَ الدّٰخِلِيْنَ 10
“अल्लाह काफ़िरों के लिये मिसाल बयान करता है नूह की बीवी और लूत की बीवी की। वो दोनों औरतें हमारे दो बरगज़ीदा (चुने हुए) बंदों के तहत थीं लेकिन उन्होंने अपने शौहरों से ख्यानत की, चुनाँचे उनके शौहर उन्हें अल्लाह के अज़ाब से बचा नहीं सके। और (उन दोनों औरतों से) कह दिया गया कि तुम भी (जहन्नम में) दाखिल होने वालों के साथ जहन्नम में दाख़िल हो जाओ।”
“उनके वादे का वक़्त सुबह का है, क्या सुबह क़रीब नहीं है!” | اِنَّ مَوْعِدَهُمُ الصُّبْحُ ۭ اَلَيْسَ الصُّبْحُ بِقَرِيْبٍ 81 |
फ़रिश्तों ने हज़रत लूत अलै. से कहा कि अब आप लोगों के पास ज़्यादा वक़्त नहीं है। आप फ़ौरी तौर पर अपनी बच्चियों को लेकर यहाँ से निकल जायें, सुबह होते ही इन बस्तियों पर अज़ाब आ जायेगा। और सुबह होने में अब देर ही कितनी है!
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आयत 82
“फिर जब हमारा हुक्म आ पहुँचा तो हमने उसके ऊपर (के हिस्से) को नीचा कर दिया” | فَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا جَعَلْنَا عَالِيَهَا سَافِلَهَا |
यानि उन बस्तियों को तलपट कर दिया गया। जब इमारतें तबाह होती हैं तो छत ज़मीनबोस हो जाती हैं और दीवारें उसके ऊपर गिरती हैं, बुनियादें भी ऊपर आ जाती हैं।
“और (मज़ीद) हमने उन पर बारिश बरसाई तह बर तह कंकरियों की।” | وَاَمْطَرْنَا عَلَيْهَا حِجَارَةً مِّنْ سِجِّيْلٍ ڏ مَّنْضُوْدٍ 2ۙ |
सिज्जील असल में फ़ारसी लफ़्ज़ है। फ़ारसी में यह “संगे गिल” था जो अरबी में आकर सिज्जील का तलफ्फ़ुज़ इख़्तियार कर गया। संग के मायने पत्थर और गिल के मायने मिट्टी के हैं। यानि मिट्टी के पत्थर जो गीली मिट्टी के धूप में गर्म होकर पुख़्ता हो जाने के बाद बनते हैं, जैसे ईंटों को भट्टे में पकाया जाता है। उन बस्तियों पर अज़ाब दो सूरतों में आया, एक ज़मीन के अंदर कोई ज़ोरदार धमाका हुआ, जिसके नतीज़े में ज़बरदस्त ज़लज़ला आया और यह बस्तियाँ उलट-पलट हो गईं। फिर ऊपर से कंकरियों की बारिश हुई और इस तरह उन्हें उन पत्थरों के अंदर दफ़न कर दिया गया।
आयत 83
“वो निशानज़दा थे तुम्हारे रब की तरफ़ से।” | مُّسَوَّمَةً عِنْدَ رَبِّكَ ۭ |
यानि हर पत्थर एक आदमी के लिये निशानज़दा और मख़सूस था।
“और यह इन ज़ालिमों से कोई ज़्यादा दूर नहीं।” | وَمَا ھِيَ مِنَ الظّٰلِمِيْنَ بِبَعِيْدٍ 83ۧ |
यानि मुशरिकीने मक्का से क़ौमे लूत की यह बस्तियाँ ज़्यादा दूर नहीं हैं। कु़रैश के क़ाफिले जब फ़लस्तीन की तरफ़ जाते थे तो पहले क़ौमे समूद और क़ौमे मदयन के इलाक़े से गुजरते थे, फिर क़ौमे लूत की बस्तियों के आसार भी उनके रास्ते में आते थे।
आयात 84 से 95 तक
وَاِلٰي مَدْيَنَ اَخَاهُمْ شُعَيْبًا ۭ قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ وَلَا تَنْقُصُوا الْمِكْيَالَ وَالْمِيْزَانَ اِنِّىْٓ اَرٰىكُمْ بِخَيْرٍ وَّاِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ مُّحِيْطٍ 84 وَيٰقَوْمِ اَوْفُوا الْمِكْيَالَ وَالْمِيْزَانَ بِالْقِسْطِ وَلَا تَبْخَسُوا النَّاسَ اَشْيَاۗءَهُمْ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ 85 بَقِيَّتُ اللّٰهِ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ڬ وَمَآ اَنَا عَلَيْكُمْ بِحَفِيْظٍ 86 قَالُوْا يٰشُعَيْبُ اَصَلٰوتُكَ تَاْمُرُكَ اَنْ نَّتْرُكَ مَا يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَآ اَوْ اَنْ نَّفْعَلَ فِيْٓ اَمْوَالِنَا مَا نَشٰۗؤُا ۭ اِنَّكَ لَاَنْتَ الْحَلِيْمُ الرَّشِيْدُ 87 قَالَ يٰقَوْمِ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كُنْتُ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ وَرَزَقَنِيْ مِنْهُ رِزْقًا حَسَـنًا ۭ وَمَآ اُرِيْدُ اَنْ اُخَالِفَكُمْ اِلٰي مَآ اَنْهٰىكُمْ عَنْهُ ۭ اِنْ اُرِيْدُ اِلَّا الْاِصْلَاحَ مَا اسْتَطَعْتُ ۭ وَمَا تَوْفِيْقِيْٓ اِلَّا بِاللّٰهِ ۭ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَاِلَيْهِ اُنِيْبُ 88 وَيٰقَوْمِ لَا يَجْرِمَنَّكُمْ شِقَاقِيْٓ اَنْ يُّصِيْبَكُمْ مِّثْلُ مَآ اَصَابَ قَوْمَ نُوْحٍ اَوْ قَوْمَ هُوْدٍ اَوْ قَوْمَ صٰلِحٍ ۭ وَمَا قَوْمُ لُوْطٍ مِّنْكُمْ بِبَعِيْدٍ 89 وَاسْتَغْفِرُوْا رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ ۭ اِنَّ رَبِّيْ رَحِيْمٌ وَّدُوْدٌ 90 قَالُوْا يٰشُعَيْبُ مَا نَفْقَهُ كَثِيْرًا مِّمَّا تَقُوْلُ وَاِنَّا لَنَرٰىكَ فِيْنَا ضَعِيْفًا ۚ وَلَوْلَا رَهْطُكَ لَرَجَمْنٰكَ ۡ وَمَآ اَنْتَ عَلَيْنَا بِعَزِيْزٍ 91 قَالَ يٰقَوْمِ اَرَهْطِيْٓ اَعَزُّ عَلَيْكُمْ مِّنَ اللّٰهِ ۭ وَاتَّخَذْتُمُوْهُ وَرَاۗءَكُمْ ظِهْرِيًّا ۭ اِنَّ رَبِّيْ بِمَا تَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ 92 وَيٰقَوْمِ اعْمَلُوْا عَلٰي مَكَانَتِكُمْ اِنِّىْ عَامِلٌ ۭ سَوْفَ تَعْلَمُوْنَ ۙ مَنْ يَّاْتِيْهِ عَذَابٌ يُّخْزِيْهِ وَمَنْ هُوَ كَاذِبٌ ۭ وَارْتَقِبُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ رَقِيْبٌ 93 وَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا نَجَّيْنَا شُعَيْبًا وَّالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا وَاَخَذَتِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوا الصَّيْحَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دِيَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 94ۙ كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ۭ اَلَا بُعْدًا لِّمَدْيَنَ كَمَا بَعِدَتْ ثَمُوْدُ 95ۧ
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आयत 84
“और मदयन की तरफ़ (हमने भेजा) उनके भाई शोएब को।” | وَاِلٰي مَدْيَنَ اَخَاهُمْ شُعَيْبًا ۭ |
इस क़ौम के बारे में हम सूरतुल आराफ़ के मुताअले के दौरान पढ़ चुके हैं कि यह लोग बनी क़तूरा में से थे और ख़लीज उक़बा के दाहिनी (मशरिक़ी) तरफ़ के इलाक़े में आबाद थे। इस इलाक़े में यह लोग एक बड़ी मज़बूत क़ौम बन कर उभरे थे। यह इलाक़ा उस वक़्त की दो बहुत अहम बैयनुल अक़वामी शाहराहों के मक़ामे इन्क़ताअ (intersection) पर वाक़ेअ था। एक शाहराह शिमालन-जुनूबन (उत्तरी-दक्षिणी) थी जो शाम से यमन जाती थी और दूसरी मशरिक़न-गुरूबन (पूर्वी-पश्चिमी) थी जो इराक़ से मिस्र को जाती थी। चुनाँचे तमाम तिजारती क़ाफिले यहीं से गुज़रते थे जिसकी वजह से यह इलाक़ा उस ज़माने का बहुत बड़ा तिजारती मरकज़ बन गया था। नतीजतन यहाँ के लोग बहुत ख़ुशहाल हो गये थे, मगर साथ ही नाप-तौल में कमी और राहज़नी जैसे क़बीह जरायम (घिनौने अपराध) में भी मुलव्विस थे।
“आपने कहा: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बंदगी करो, तुम्हारा कोई मअबूद नहीं उसके सिवा।” | قَالَ يٰقَوْمِ اعْبُدُوا اللّٰهَ مَا لَكُمْ مِّنْ اِلٰهٍ غَيْرُهٗ ۭ |
“और ना कम करो माप और तौल में” | وَلَا تَنْقُصُوا الْمِكْيَالَ وَالْمِيْزَانَ |
“मैं तुम्हें आसूदा हाल देखता हूँ, लेकिन (अगर तुम लोग इन ग़लतकारियों से बाज़ ना आये तो) मुझे अंदेशा है तुम पर एक ऐसे दिन के अज़ाब का जो तुम्हें घेर लेगा।” | وَالْمِيْزَانَ اِنِّىْٓ اَرٰىكُمْ بِخَيْرٍ وَّاِنِّىْٓ اَخَافُ عَلَيْكُمْ عَذَابَ يَوْمٍ مُّحِيْطٍ 84 |
आयत 85
“और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! पूरा-पूरा दिया करो पैमाना और तौल, अदल और इंसाफ़ के साथ” | وَيٰقَوْمِ اَوْفُوا الْمِكْيَالَ وَالْمِيْزَانَ بِالْقِسْطِ |
“और मत कम दिया करो लोगों को उनकी चीज़ें और ना ही ज़मीन में फ़साद मचाते फिरो।” | وَلَا تَبْخَسُوا النَّاسَ اَشْيَاۗءَهُمْ وَلَا تَعْثَوْا فِي الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ 85 |
आयत 86
“अल्लाह की अता करदा बचत ही तुम्हारे लिये बेहतर है अगर तुम मोमिन हो।” | بَقِيَّتُ اللّٰهِ خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ ڬ |
इंसाफ़ के साथ पूरा-पूरा नापो और तौलो, और लोगों की चीज़ों में कमी करके उनकी हक़ तलफ़ी ना किया करो। अगर तुम लोग दियानतदारी से तिजारत करो, और इस तरह अल्लाह तआला तुम्हें जो मुनाफ़ा अता करे, उसी पर क़नाअत (सन्तुष्टि) करो तो यह तुम्हारी दुनिया व आख़िरत के लिये बहुत बेहतर होगा।
“लेकिन मैं तुम्हारे ऊपर कोई निग़रान नहीं हूँ।” | وَمَآ اَنَا عَلَيْكُمْ بِحَفِيْظٍ 86 |
मैं तो तुम्हें समझा सकता हूँ, नेकी की तल्क़ीन कर सकता हूँ, तुम पर मेरा कोई ज़ोर नहीं है।
आयत 87
“उन्होंने कहा: ऐ शोएब! क्या तुम्हारी नमाज़ तुम्हें इस बात का हुक्म देती है कि हम छोड़ दें उनको जिनको पूजते आये हैं हमारे आबा व अजदाद?” | قَالُوْا يٰشُعَيْبُ اَصَلٰوتُكَ تَاْمُرُكَ اَنْ نَّتْرُكَ مَا يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَآ |
अग़रचे हज़रत शोएब अलै. की गुफ़्तगू में उनके शिर्क का तज़किरा नहीं है, मगर उनके इस जवाब से मालूम हुआ कि वो बुनियादी तौर पर इस मर्ज़े शिर्क में भी मुब्तला थे जो तमाम गुमराह क़ौमों का मुशतरक (common) मर्ज़ रहा है।
“या (तुम्हारी नमाज़ यह सिखाती है कि) हम अपने अम्वाल में अपनी मर्ज़ी के मुताबिक़ तसर्रुफ़ (व्यवस्थित) ना करें?” | اَوْ اَنْ نَّفْعَلَ فِيْٓ اَمْوَالِنَا مَا نَشٰۗؤُا ۭ |
यानि हमारी मिल्कियत में जो सामान और माल है क्या हम उसके इस्तेमाल में भी अपनी मर्ज़ी नहीं कर सकते? यह वही तसव्वुर है जो आज के जदीद ज़माने में sacred right of ownership के ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में पेश किया जाता है, जबकि इस्लाम में मिल्कियत का ऐसा तसव्वुर नहीं है। इस्लाम की रू से हर चीज़ का मालिक अल्लाह है और दुनिया का यह माल और साज़ो सामान इंसानों के पास अल्लाह की अमानत है, जिसमें अल्लाह की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ तसर्रुफ़ करने की इजाज़त नहीं है। लिहाज़ा इस्लाम मिल्कियत के किसी “मुक़द्दस हक़” को तस्लीम नहीं करता, क्योंकि:
ईं अमानत चंद रोज़ा नज़्दे मास्त
दर हक़ीक़त मालिके हर शय ख़ुदास्त
यानि यह माल व दौलत हमारे पास चंद दिन की अमानत है, वरना हक़ीक़त में हर शय का मालिक हक़ीक़ी तो अल्लाह ही है। बहरहाल जब इंसान ख़ुद को मालिक समझता है तो फिर वो वही कुछ कहता है जो हज़रत शोएब अलै. की क़ौम ने कहा था कि हमारा माल है, हम जैसे चाहें इसमें तसर्रुफ़ करें!
“हाँ एक तुम ही तो हो जो बड़े बावक़ार और नेकचलन हो!” | اِنَّكَ لَاَنْتَ الْحَلِيْمُ الرَّشِيْدُ 87 |
क़ौम का हज़रत शोएब अलै. को हलीम और रशीद कहना किसी ताज़ीम और तकरीम के लिये नहीं था, बल्कि तअन और इस्तहज़ा (हँसी) के तौर पर था।
आयत 88
“आपने फ़रमाया: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! ज़रा सोचो कि अगर मैं (पहले भी) अपने रब की तरफ़ से बय्यिना पर था” | قَالَ يٰقَوْمِ اَرَءَيْتُمْ اِنْ كُنْتُ عَلٰي بَيِّنَةٍ مِّنْ رَّبِّيْ |
हज़रत शोएब अलै. ने वही बात फ़रमाई जो दूसरे अंबिया व रुसुल अपनी-अपनी क़ौम से फ़रमाते आये थे कि तुम्हारे दरमियान रहते हुए मेरा किरदार और अख़्लाक़ पहले भी मिसाली था, मैं इस मआशरे में एक शरीफ़ुन्नफ़्स और सलीमुल फ़ितरत इंसान के तौर पर मारूफ़ था।
“और अल्लाह ने अपने पास से मुझे अच्छा रिज़्क़ भी अता किया है” | وَرَزَقَنِيْ مِنْهُ رِزْقًا حَسَـنًا ۭ |
यानि फिर मुझे अल्लाह ने नुबुवत और रिसालत से भी सरफ़राज़ फ़रमा दिया है।
“और मैं हरगिज़ नहीं चाहता कि जिस चीज़ से तुम लोगों को मना करुँ ख़ुद वही काम करुँ।” | وَمَآ اُرِيْدُ اَنْ اُخَالِفَكُمْ اِلٰي مَآ اَنْهٰىكُمْ عَنْهُ ۭ |
“मैं तो कुछ नहीं चाहता सिवाय इस्लाह के जिस क़दर मुझमें इस्तताअत है, और मेरी तौफ़ीक़ तो अल्लाह ही की तरफ़ से है।” | اِنْ اُرِيْدُ اِلَّا الْاِصْلَاحَ مَا اسْتَطَعْتُ ۭ وَمَا تَوْفِيْقِيْٓ اِلَّا بِاللّٰهِ ۭ |
मेरा मक़सद तुम लोगों की इस्लाह है और इस सिलसिले में जो कुछ भी मैं कर रहा हूँ वह अल्लाह की तौफ़ीक़ ही से कर रहा हूँ। उसी ने मुझे हिम्मत और इस्तक़ामत से नवाज़ा है।
“उसी पर मैंने तवक्कुल किया है और उसी की तरफ़ मैं रुजूअ करता हूँ।” | عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَاِلَيْهِ اُنِيْبُ 88 |
आयत 89
“और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! (देखो) मेरी दुश्मनी तुम्हें उस अंजाम तक ना ले जाये कि तुम पर भी वही अज़ाब आ जाये जैसा कि आया था क़ौमे नूह, क़ौमे हूद या क़ौमे सालेह पर।” | وَيٰقَوْمِ لَا يَجْرِمَنَّكُمْ شِقَاقِيْٓ اَنْ يُّصِيْبَكُمْ مِّثْلُ مَآ اَصَابَ قَوْمَ نُوْحٍ اَوْ قَوْمَ هُوْدٍ اَوْ قَوْمَ صٰلِحٍ ۭ |
“और क़ौमे लूत तो तुमसे ज़्यादा दूर भी नहीं है।” | وَمَا قَوْمُ لُوْطٍ مِّنْكُمْ بِبَعِيْدٍ 89 |
हज़रत शोएब अलै. से पहले इन चारों क़ौमों पर अज़ाबे इस्तेसाल आ चुका था। और यह जो फ़रमाया गया कि क़ौमे लूत तुमसे “बईद (दूर)” नहीं है, यह ज़मानी और मकानी दोनों ऐतबार से है। जियोग्राफ़ियाई ऐतबार से ख़लीज उक़बा के मशरक़ी साहिल से मुत्तसल (connect) इलाक़े में क़ौमे मदयन आबाद थी। इस इलाक़े से ज़रा हट कर मशरिक़ की जानिब बहरे मुर्दार (Dead Sea) है जिसके साहिल पर आमूरा और सदूम की वह बस्तियाँ थीं जिनमें हज़रत लूत अलै. मबऊस हुए थे। ज़मानी ऐतबार से भी इन दोनों अक़वाम में हज़ारों साल का नहीं बल्कि सिर्फ़ चंद सौ साल का बुअद (gap) था। बहरहाल मुझे उन मुफ़स्सिरीन से इख़्तिलाफ़ है जो हज़रत शोएब अलै. को हज़रत मूसा अलै. के हमअस्र समझते हैं। इस ज़िमन में मुझे उन उल्मा की राय से इत्तेफ़ाक़ है जिनका ख़्याल है कि हज़रत मूसा अलै. मदयन में जिस शख़्स के मेहमान बने थे और जिनकी बेटी के साथ बाद में आपने निकाह किया था वह मदयन के उन लोगों की नस्ल से कोई नेक बुज़ुर्ग थे जो शोएब अलै. के साथ अज़ाबे इस्तेसाल से बच गये थे।
दूसरा अहम नुक्ता इस आयत में यह बयान हुआ है कि बाज़ अवक़ात किसी दाई के साथ ज़ाती अनाद (नफ़रत) और दुश्मनी की बुनियाद पर कोई शख़्स या कोई गिरोह उसकी असूली दावत को भी ठुकरा देता है। यह इंसानी रवैय्ये का एक बहुत ख़तरनाक पहलु है क्योंकि इसमें उस दाई का तो कोई नुक़सान नहीं होता मगर सिर्फ़ ज़ाती तअस्सुब की बुनियाद पर उसकी दावत को ठुकराने वाले ख़ुद को बर्बाद कर लेते हैं।
आयत 90
“और इस्तग़फ़ार करो अपने रब से, फिर उसकी तरफ़ रुजूअ करो। यक़ीनन मेरा रब रहीम भी है, मुहब्बत फ़रमाने वाला भी।” | وَاسْتَغْفِرُوْا رَبَّكُمْ ثُمَّ تُوْبُوْٓا اِلَيْهِ ۭ اِنَّ رَبِّيْ رَحِيْمٌ وَّدُوْدٌ 90 |
अपने रब से अपने गुनाहों की माफ़ी तलब करो और उसकी तरफ़ पलट आओ। उसकी इबादत और इताअत शआरी (आज्ञाकारिता) इख़्तियार करो तो तुम उसके दामने रहमत को अपने लिये वसीअ पाओगे। वह इन्तहाई रहम करने वाला और अपनी मख़लूक़ से मुहब्बत रखने वाला है।
आयत 91
“उन्होंने कहा: ऐ शोएब! तुम जो कुछ कहते हो उसमें से अक्सर बातें हमारी समझ में नहीं आतीं” | قَالُوْا يٰشُعَيْبُ مَا نَفْقَهُ كَثِيْرًا مِّمَّا تَقُوْلُ |
जब ज़हनों के साँचे बिगड़ जाये और सोचों के ज़ाविये (एंगल) बदल जायें तो फिर सीधी बात भी समझ में नहीं आती।
“और हम तो देखते हैं तुम्हें अपने दरमियान एक कमज़ोर आदमी। और अगर तुम्हारा ख़ानदान ना होता तो हम तुम्हें (कभी का) संगसार कर चुके होते, और तुम हम पर ग़ालिब नहीं हो।” | وَاِنَّا لَنَرٰىكَ فِيْنَا ضَعِيْفًا ۚ وَلَوْلَا رَهْطُكَ لَرَجَمْنٰكَ ۡ وَمَآ اَنْتَ عَلَيْنَا بِعَزِيْزٍ 91 |
यहाँ पर एक अहम नुक्ता यह समझ लें कि जिस ज़माने में जो सूरत नाज़िल हुई है उसमें नबी अकरम ﷺ और आपके सहाबा किराम रज़ि. को पेश आने वाले मअरूज़ी (specifically) हालात के साथ तताबक़ (matching) पैदा किया गया है। यानि गुज़िश्ता अक़वाम के वाक़यात जो मुख़्तलिफ़ सूरतों में तवातर (frequency) के साथ बार-बार आये हैं यह तकरारे महज़ नहीं है, बल्कि हुज़ूर ﷺ की दावत व तहरीक को जिस दौर में जिन मसाईल का सामना होता था उस ख़ास दौर में नाज़िल होने वाली सूरतों में इन मसाईल की मुनास्बत से पिछली अक़वाम के हालात व वाक़यात से वो बातें नुमाया की जाती थीं जिनमें हुज़ूर ﷺ और अहले ईमान के लिये रहनुमाई और दिलजोई का सामान मौजूद था। चुनाँचे आयत ज़ेरे नज़र में हज़रत शोएब अलै. के ख़ानदान और क़बीले की हिमायत की बात इसलिये हुई है कि इधर मक्का में हुज़ूर ﷺ को भी कुछ ऐसे ही हालात का सामना था। उस ज़माने में बनु हाशिम के सरदार आपके चचा अबु तालिब थे जिन्हें हुज़ूर ﷺ से बहुत मुहब्बत थी और आपने अपने बचपन का कुछ अरसा उनके साया-ए-आतफ़त (influenced) में गुज़ारा था। उन्हीं की वजह से आपको पूरे क़बीले बनु हाशिम की पुस्त पनाही हासिल थी। अगर उस वक़्त बनु हाशिम की सरदारी कहीं अबु लहब के पास होती तो आप ﷺ को अपने ख़ानदान और क़बीले की यह हिमायत हासिल ना होती, इस तरह मुशरिकीने मक्का को आपके ख़िलाफ़ (मआज़ अल्लाह) कोई इन्तहाई अक़दाम करने का मौक़ा मिल जाता। लिहाज़ा यहाँ हालात में तताबक़ इस तरह पैदा किया गया है कि जिस तरह अल्लाह तआला ने आज मक्के में बनु हाशिम की हिमायत से मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को एक महफ़ूज़ क़िला मुहैय्या फ़रमा दिया है, बिल्कुल इसी नौईयत की हिफ़ाज़त उस वक़्त अल्लाह तआला ने हज़रत शोएब अलै. को उनके ख़ानदान की हिमायत की सूरत में भी अता फ़रमाई थी।
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आयत 92
“आपने फ़रमाया: ऐ मेरी क़ौम के लोगो! क्या मेरा ख़ानदान तुम पर अल्लाह से ज़्यादा भारी है?” | قَالَ يٰقَوْمِ اَرَهْطِيْٓ اَعَزُّ عَلَيْكُمْ مِّنَ اللّٰهِ ۭ |
हक़ीक़त में मेरा पुश्तपनाह तो अल्लाह है। तुम अल्लाह से नहीं डरते, लेकिन मेरे ख़ानदान से डरते हो। क्या तुम्हारे नज़दीक मेरा ख़ानदान अल्लाह से ज़्यादा ताक़तवर है?
“और उस (अल्लाह) को तो तुमने अपनी पीठों के पीछे डाल रखा है।” | وَاتَّخَذْتُمُوْهُ وَرَاۗءَكُمْ ظِهْرِيًّا ۭ |
यानि अल्लाह को तो तुम लोगों ने बिल्कुल ही भुला छोड़ा है, पसे पुश्त डाल दिया है। यह इंसानी नफ्सियात का एक अहम पहलु है। अग़रचे आज हम भी अल्लाह को अपना खालिक़, मालिक और मअबूद मानने का दावा करते हैं मगर साथ ही दुनिया और इसके झमेलों में इस क़दर मगन रहते हैं कि अल्लाह का तसव्वुर मुस्तहज़र (stabilizer) नहीं रहता। यही वजह है हम कारोबार-ए-दुनिया में हक़ीक़ी मुसब्बब अल असबाब को भुला कर असबाब व हक़ायक (cause and fact) की मन्तक़ी भूल-भुलय्यों में गुम रहते हैं:
काफ़िर की यह पहचान की आफ़ाक़ में गुम है
मोमिन की यह पहचान कि गुम उसमें हैं आफ़ाक़!
यहाँ हज़रत शोएब अलै. का अपने ख़ानदान के मुक़ाबले मे अल्लाह का ज़िक्र करना यह ज़ाहिर कर रहा है कि वो लोग अल्लाह को बख़ूबी जानते थे, इसी तरह मुशरिकीने मक्का भी अल्लाह को मानते थे। गोया अल्लाह का मामला ऐसे लोगों के नज़दीक आँख ओझल पहाड़ ओझल वाला होता है। इसी लिये तो हज़रत शोएब अलै. ने फ़रमाया था कि तुम लोग मेरे खानदान से डरते हो मगर अल्लाह से नहीं डरते! हज़रत शोएब अलै. के इस जवाब में क़ुरैश के लिये यह पैग़ाम मुज़मर (मौजूद) है कि तुम्हें भी मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की तरफ़ से यही जवाब है।
“यक़ीनन मेरा रब तो उस सबका इहाता किए हुए है जो कुछ तुम कर रहे हो।” | اِنَّ رَبِّيْ بِمَا تَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ 92 |
अल्लाह तुम्हारा और तुम्हारे आमाल का घेराव किए हुए है। तुम उसकी गिरफ़्त से निकल कर कहीं नहीं जा सकते हो।
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आयत 93
“और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम करो जो कुछ कर सकते हो अपनी जगह पर, मैं भी कर रहा हूँ जो मैं (अपनी जगह पर) कर सकता हूँ।” | وَيٰقَوْمِ اعْمَلُوْا عَلٰي مَكَانَتِكُمْ اِنِّىْ عَامِلٌ ۭ |
तुम मेरे ख़िलाफ जो भी रेशा दवानियाँ कर सकते हो, जो भी चालें चल सकते हो, और जो अक़दामात भी कर सकते हो, कर गुज़रो। अपने तौर पर जो कुछ मैं कर सकता हूँ, जो कोशिश मुझसे बन आ रही है मैं कर रहा हूँ। यह चैलेंज करने का अंदाज़ सूरतुल अनआम से चला आ रहा है। यह गोया मक्का के हालात के साथ तताबक़ (matching) किया जा रहा है। मक्के में हक़ व बातिल की कशमकश भी अब इन्तहा को पहुँच चुकी थी और उसकी वजह से आपकी तबीयत के अंदर एक तरह की बेज़ारी पैदा हो चुकी थी कि अब जो कुछ तुम कर सकते हो कर लो!
“अनक़रीब तुम जान लोगे कि किस पर अज़ाब आता है जो उसे रुसवा कर देगा और कौन है जो झूठा है!” | سَوْفَ تَعْلَمُوْنَ ۙ مَنْ يَّاْتِيْهِ عَذَابٌ يُّخْزِيْهِ وَمَنْ هُوَ كَاذِبٌ ۭ |
“तुम भी इन्तेज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ मुन्तज़िर हूँ।” | وَارْتَقِبُوْٓا اِنِّىْ مَعَكُمْ رَقِيْبٌ 93 |
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आयत 94
“फिर जब हमारा हुक्म आ गया तो हमने अपनी रहमत से निजात दे दी शोएब को और उन लोगों को जो आपके साथ ईमान लाये थे” | وَلَمَّا جَاۗءَ اَمْرُنَا نَجَّيْنَا شُعَيْبًا وَّالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ بِرَحْمَةٍ مِّنَّا |
“और ज़ालिमों को आ पकड़ा एक ज़बरदस्त कड़क ने, तो वो अपने घरों में औंधे पड़े रह गये।” | وَاَخَذَتِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوا الصَّيْحَةُ فَاَصْبَحُوْا فِيْ دِيَارِهِمْ جٰثِمِيْنَ 94ۙ |
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आयत 95
“जैसे कि वो कभी उनमें आबाद ही नहीं थे। आगाह हो जाओ फटकार है मदयन पर, जैसे कि समूद पर फटकार हुई थी।” | كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا ۭ اَلَا بُعْدًا لِّمَدْيَنَ كَمَا بَعِدَتْ ثَمُوْدُ 95ۧ |
अहले मदयन भी अल्लाह तआला की फटकार का निशाना बन कर उसी तरह हलाक हो गये जैसे क़ौमे समूद हलाक हुई थी।
अब आखिर पर बहुत मुख़्तसर अंदाज में हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र किया जा रहा है।
आयात 96 से 99 तक
وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا مُوْسٰى بِاٰيٰتِنَا وَسُلْطٰنٍ مُّبِيْنٍ 96ۙ اِلٰي فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهٖ فَاتَّبَعُوْٓا اَمْرَ فِرْعَوْنَ ۚ وَمَآ اَمْرُ فِرْعَوْنَ بِرَشِيْدٍ 97 يَـقْدُمُ قَوْمَهٗ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فَاَوْرَدَهُمُ النَّارَ ۭ وَبِئْسَ الْوِرْدُ الْمَوْرُوْدُ 98 وَاُتْبِعُوْا فِيْ هٰذِهٖ لَعْنَةً وَّيَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ بِئْسَ الرِّفْدُ الْمَرْفُوْدُ 99
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आयत 96
“और हमने भेजा मूसा को अपनी आयात और वाज़ेह सनद के साथ।” | وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا مُوْسٰى بِاٰيٰتِنَا وَسُلْطٰنٍ مُّبِيْنٍ 96ۙ |
आयत 97
“फ़िरऔन और उसके सरदारों की तरफ़, लेकिन उन्होंने फ़िरऔन ही की पैरवी की। हाँलाकि फ़िरऔन का मामला रास्ती (धर्म) वाला नहीं था।” | اِلٰي فِرْعَوْنَ وَمَلَا۟ىِٕهٖ فَاتَّبَعُوْٓا اَمْرَ فِرْعَوْنَ ۚ وَمَآ اَمْرُ فِرْعَوْنَ بِرَشِيْدٍ 97 |
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आयत 98
“क़यामत के दिन वह आएगा आगे चलता हुआ अपनी क़ौम के” | يَـقْدُمُ قَوْمَهٗ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ |
दुनिया की तरह क़यामत के दिन भी उसे क़यादत का मौक़ा फ़राहम किया जायेगा। वह आगे-आगे होगा और उसकी क़ौम पीछे-पीछे आ रही होगी, जैसे वो लोग दुनिया में उसके पीछे चलते थे।
“फिर वह आग के घाट पर उन्हें उतार देगा। और वह बहुत ही बुरा घाट है जिस पर वो उतारे जायेंगे।” | فَاَوْرَدَهُمُ النَّارَ ۭ وَبِئْسَ الْوِرْدُ الْمَوْرُوْدُ 98 |
जिस तरह जानवरों का कोई गिरोह पानी पीने के लिये घाट पर आता है और उनका लीडर आगे-आगे जा रहा होता है, ऐसे ही फ़िरऔन अपनी क़ौम को जहन्नम के घाट पर ला उतारेगा।
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आयत 99
“और इस दुनिया में भी लानत उनके पीछे लगा दी गई और क़यामत के दिन भी। बहुत ही बुरा है वह ईनाम जो उनको मिलने वाला है।” | وَاُتْبِعُوْا فِيْ هٰذِهٖ لَعْنَةً وَّيَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ بِئْسَ الرِّفْدُ الْمَرْفُوْدُ 99 |
आयात 100 से 109 तक
ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْقُرٰي نَقُصُّهٗ عَلَيْكَ مِنْهَا قَاۗىِٕمٌ وَّحَصِيْدٌ ١٠٠ وَمَا ظَلَمْنٰهُمْ وَلٰكِنْ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ فَمَآ اَغْنَتْ عَنْهُمْ اٰلِهَتُهُمُ الَّتِيْ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ لَّمَّا جَاۗءَ اَمْرُ رَبِّكَ ۭ وَمَا زَادُوْهُمْ غَيْرَ تَتْبِيْبٍ ١٠١ وَكَذٰلِكَ اَخْذُ رَبِّكَ اِذَآ اَخَذَ الْقُرٰي وَهِىَ ظَالِمَةٌ ۭ اِنَّ اَخْذَهٗٓ اَلِيْمٌ شَدِيْدٌ ١٠٢ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّمَنْ خَافَ عَذَابَ الْاٰخِرَةِ ۭ ذٰلِكَ يَوْمٌ مَّجْمُوْعٌ ۙ لَّهُ النَّاسُ وَذٰلِكَ يَوْمٌ مَّشْهُوْدٌ ١٠٣ وَمَا نُؤَخِّرُهٗٓ اِلَّا لِاَجَلٍ مَّعْدُوْدٍ ١٠٤ۭ يَوْمَ يَاْتِ لَا تَكَلَّمُ نَفْسٌ اِلَّا بِاِذْنِهٖ ۚ فَمِنْهُمْ شَقِيٌّ وَّسَعِيْدٌ ١٠٥ فَاَمَّا الَّذِيْنَ شَقُوْا فَفِي النَّارِ لَهُمْ فِيْهَا زَفِيْرٌ وَّشَهِيْقٌ ١٠٦ۙ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا مَا دَامَتِ السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ اِلَّا مَا شَاۗءَ رَبُّكَ ۭ اِنَّ رَبَّكَ فَعَّالٌ لِّمَا يُرِيْدُ ١٠٧ وَاَمَّا الَّذِيْنَ سُعِدُوْا فَفِي الْجَنَّةِ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا مَا دَامَتِ السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ اِلَّا مَا شَاۗءَ رَبُّكَ ۭ عَطَاۗءً غَيْرَ مَجْذُوْذٍ ١٠٨ فَلَا تَكُ فِيْ مِرْيَةٍ مِّمَّا يَعْبُدُ هٰٓؤُلَاۗءِ ۭ مَا يَعْبُدُوْنَ اِلَّا كَمَا يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُهُمْ مِّنْ قَبْلُ ۭ وَاِنَّا لَمُوَفُّوْهُمْ نَصِيْبَهُمْ غَيْرَ مَنْقُوْصٍ ١٠٩ۧ
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आयत 100
“ये हैं उन बड़ी-बड़ी बस्तियों की कुछ अहम ख़बरें जो हम आपको सुना रहे हैं, उनमें ऐसी भी हैं जो अभी क़ायम हैं और ऐसी भी हैं जो बिल्कुल ख़त्म हो गईं।” | ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْقُرٰي نَقُصُّهٗ عَلَيْكَ مِنْهَا قَاۗىِٕمٌ وَّحَصِيْدٌ ١٠٠ |
हसीदुन का लफ़्ज़ उस खेत के लिये इस्तेमाल होता जिसकी फ़सल काट ली गई हो। फ़सल के कटने के बाद खेत में जो वीरानी का मंज़र होता है उसके साथ अज़ाबे इस्तेसाल से तबाह शुदा बस्तियों को तश्बीह दी गई है। फिर उन बस्तियों में कुछ तो ऐसी हैं जिनका नामो-निशान तक मिट चुका है मगर बाज़ ऐ भी हैं जिनके आसार को बाक़ी रखा गया है। मसलन क़ौमे आद की आबादियों का कोई नामो-निशान तक नहीं मिलता जिससे मालूम हो सके कि यह क़ौम कहाँ आबाद थी (अग़रचे हाल ही में सेटेलाइट के ज़रिये उनके शहर और शद्दाद की जन्नत के कुछ आसार ज़ेरे ज़मीन मिलने का दावा सामने आया है)। दूसरी तरफ़ क़ौमे समूद के मकानात के खन्डरात आज तक मौजूद हैं।
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आयत 101
“और हमने उन पर कोई ज़ुल्म नहीं किया बल्कि उन्होंने अपनी जानों पर ख़ुद ज़ुल्म ढहाया” | وَمَا ظَلَمْنٰهُمْ وَلٰكِنْ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ |
“तो उनके कुछ भी काम ना आ सके उनके वो मअबूद जिन्हें वो अल्लाह के सिवा पुकारा करते थे, जब आपके रब का हुक्म आ पहुँचा।” | فَمَآ اَغْنَتْ عَنْهُمْ اٰلِهَتُهُمُ الَّتِيْ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ لَّمَّا جَاۗءَ اَمْرُ رَبِّكَ ۭ |
“और उन्होंने कुछ इज़ाफ़ा नहीं किया उनके हक़ में मगर बर्बादी ही का।” | وَمَا زَادُوْهُمْ غَيْرَ تَتْبِيْبٍ ١٠١ |
जब अल्लाह तआला की तरफ़ से अज़ाबे इस्तेसाल का हुक्म आ गया तो उनके वो मअबूद जिन्हें वो अल्लाह को छोड़ कर पुकारा करते थे उनके कुछ काम ना आ सके और उन्होंने उनकी हलाकत व बर्बादी के सिवा और किसी चीज़ में इज़ाफ़ा नहीं किया।
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आयत 102
“और (ऐ नबी ﷺ!) ऐसे ही होती है पकड़ आपके रब की, जब वह पकड़ता है बस्तियों को जबकि वो ज़ालिम होती हैं।” | وَكَذٰلِكَ اَخْذُ رَبِّكَ اِذَآ اَخَذَ الْقُرٰي وَهِىَ ظَالِمَةٌ ۭ |
जब किसी बस्ती में गुनाह और मअसियत (लापरवाही) का चलन आम हो जाता है तो वो गोया “ज़ुल्म” की मुरतकिब (दोषी) होकर अज़ाब की मुस्तहिक़ (हक़दार) हो जाती है।
“यक़ीनन उसकी पकड़ बड़ी दर्दनाक भी है और बड़ी सख़्त भी।” | اِنَّ اَخْذَهٗٓ اَلِيْمٌ شَدِيْدٌ ١٠٢ |
अल्लाह की पकड़ के बारे में सूरतुल बुरूज (आयत नम्बर:12) में फ़रमाया गया: {اِنَّ بَطْشَ رَبِّكَ لَشَدِيْدٌ} “यक़ीनन तेरे रब की पकड़ बहुत सख़्त है।”
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आयत 103
“यक़ीनन इसमें निशानी है उन लोगों के लिये जो आख़िरत के अज़ाब से डरते हों।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّمَنْ خَافَ عَذَابَ الْاٰخِرَةِ ۭ |
“वह एक ऐसा दिन है जिसमें लोगों को जमा किया जायेगा और वह दिन है पेशी का।” | ذٰلِكَ يَوْمٌ مَّجْمُوْعٌ ۙ لَّهُ النَّاسُ وَذٰلِكَ يَوْمٌ مَّشْهُوْدٌ ١٠٣ |
आयत 104
“और हम उसे एक वक़्ते मुअय्यन तक के लिये मौअख्खर किए हुए हैं।” | وَمَا نُؤَخِّرُهٗٓ اِلَّا لِاَجَلٍ مَّعْدُوْدٍ ١٠٤ۭ |
उसके आने की एक घड़ी मुअय्यन है, जिसको बाक़ायदा गिन कर और हिसाब लगा कर तय किया गया है।
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आयत 105
“जब वह दिन आ जायेगा तो कोई मुतनफ़्फ़स बात नहीं कर सकेगा मगर अल्लाह के इज़्न से, तो उन (इंसानों) में से कुछ शक़ी होंगे और कुछ सईद।” | يَوْمَ يَاْتِ لَا تَكَلَّمُ نَفْسٌ اِلَّا بِاِذْنِهٖ ۚ فَمِنْهُمْ شَقِيٌّ وَّسَعِيْدٌ ١٠٥ |
यानि कुछ इंसान बद् बख़्त होंगे और कुछ नेक बख़्त।
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आयत 106
“तो वो लोग जो बद् बख़्त हैं वो आग में होंगे जिसमें उन्हें चीखना है और दहाड़ना है।” | فَاَمَّا الَّذِيْنَ شَقُوْا فَفِي النَّارِ لَهُمْ فِيْهَا زَفِيْرٌ وَّشَهِيْقٌ ١٠٦ۙ |
वो लोग दर्द और कर्ब (पीड़ा) की वजह से चीख व पुकार करेंगे और फुन्कारे मारेंगे।
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आयत 107
“उसी में वो हमेशा रहेंगे जब तक कि रहे आसमान और ज़मीन, सिवाय उसके जो तेरा रब चाहे।” | خٰلِدِيْنَ فِيْهَا مَا دَامَتِ السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ اِلَّا مَا شَاۗءَ رَبُّكَ ۭ |
यह मक़ाम मुश्किलातुल कु़रान में से है। यह क़ुरान का वाहिद मक़ाम है जहाँ {خٰلِدِيْنَ فِيْهَا} के साथ कुछ इस्तसनात (exceptions) भी आये हैं। जहन्नम और जन्नत कब तक रहेंगी या जहन्नमी और जन्नती लोग उनमें कब तक रहेंगे? इसके बारे में फ़रमाया: { مَا دَامَتِ السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ } कि जब तक आसमान और ज़मीन क़ायम रहेंगे। इससे मुराद अबदियत भी हो सकती है और इस तरह का कोई इशारा भी हो सकता है कि शायद कभी कोई ऐसा वक़्त आये जब ज़मीन व आसमान का वह निज़ाम बदल भी जाये और कोई दूसरा निज़ाम इसकी जगह ले ले। वाज़ेह रहे कि इस “ज़मीन व आसमान” से मुराद भी मौजूदा ज़मीन व आसमान नहीं हो सकते, इसलिये कि अज़रुए अल्फ़ाज़े कु़रानी यह तो क़यामत के रोज़ बदल डाले जायेंगे और यहाँ क़यामत के बाद पेश आने वाले हालात व वाक़यात का ज़िक्र हो रहा है। फिर इसमें भी एक इस्तसना बयान किया गया है: { اِلَّا مَا شَاۗءَ رَبُّكَ ۭ} “सिवाय उसके जो तेरा रब चाहे।” यानि अगर अल्लाह तआला ख़ुद ही किसी के अज़ाब में तख़्फ़ीफ़ (छूट) करना चाहे या किसी को एक मुद्दत तक अज़ाब देकर जहन्नम से निकालने का फ़ैसला फ़रमाए तो उसे इसका पूरा इख़्तियार है। ज़जा व सज़ा के बारे में भी अहले सुन्नत का अक़ीदा है कि अल्लाह तआला का इख़्तियार मुत्लक़ (पक्का) है, लेकिन यह भी अल्लाह तआला का तयशुदा फ़ैसला है कि कुफ्फ़ार के लिये जहन्नम अब्दी (हमेशा रहने वाला) ठिकाना है। वल्लाहु आलम!
“बेशक आपका रब जो इरादा करे उसे कर गुज़रने वाला है।” | اِنَّ رَبَّكَ فَعَّالٌ لِّمَا يُرِيْدُ ١٠٧ |
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आयत 108
“और जो लोग नेकबख़्त होंगे वो जन्नत में रहेंगे हमेशा-हमेश जब तक रहे आसमान और ज़मीन, सिवाय उसके जो आपका रब चाहे।” | وَاَمَّا الَّذِيْنَ سُعِدُوْا فَفِي الْجَنَّةِ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا مَا دَامَتِ السَّمٰوٰتُ وَالْاَرْضُ اِلَّا مَا شَاۗءَ رَبُّكَ ۭ |
“यह ऐसी बख़्शिश है जो कभी ख़त्म नहीं होगी।” | عَطَاۗءً غَيْرَ مَجْذُوْذٍ ١٠٨ |
इन आयात में जन्नत और जहन्नम का जो मुवाज़ना (compare) किया गया है इसमें जन्नत के लिये { عَطَاۗءً غَيْرَ مَجْذُوْذٍ } के अल्फ़ाज़ इज़ाफ़ी तौर पर इस्तेमाल किए गये हैं। इस तरह के लफ़्ज़ी फ़र्क़ व तफ़ावुत (अंतर) का जब उल्मा व मुफ़स्सरीन बारीक बीनी से जायज़ा लेते हैं तो इनसे बड़े-बड़े फ़लसफ़ियाना नुकात (टिप्स) पैदा होते हैं। चुनाँचे जन्नत और जहन्नम के बारे में हाफ़िज़ इब्ने तैमिया रहि. और शेख़ इब्ने अरबी रहि. दोनों ने एक राय पेश की है जो अहले सुन्नत के आम इज्माई अक़ीदे से मुख़्तलिफ़ है। इन दोनों बुज़ुर्गों के दरमियान अग़रचे बड़ा नज़रियाती बुअद (फ़ासला) है (इमाम इब्ने तैमिया रहि. बाज़ अवक़ात शेख़ मोयहिद्दीन इब्ने अरबी पर तन्क़ीद [आलोचना] करते हुए बहुत सख़्त अल्फ़ाज़ इस्तेमाल करते हैं) मगर इस राय में दोनों का इत्तेफ़ाक़ है कि जन्नत तो अब्दी है मगर जहन्नम अब्दी नहीं है। एक वक़्त आयेगा, चाहे वह अरबों साल के बाद आये, जब जहन्नम ख़त्म कर दी जायेगी। इसके बरअक्स अहले सुन्नत का इज्माई अक़ीदा यही है कि जन्नत और जहन्नम दोनों अब्दी हैं। वल्लाहु आलम!
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आयत 109
“पस (ऐ नबी ﷺ!) आप किसी शक में ना रहें उनके बारे में जिनकी यह लोग पूजा कर रहे हैं।” | فَلَا تَكُ فِيْ مِرْيَةٍ مِّمَّا يَعْبُدُ هٰٓؤُلَاۗءِ ۭ |
“यह लोग नहीं पूजा कर रहे हैं मगर ऐसे ही जैसे कि इनके आबा व अजदाद पूजा करते रहे हैं इससे पहले।” | مَا يَعْبُدُوْنَ اِلَّا كَمَا يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُهُمْ مِّنْ قَبْلُ ۭ |
यह तो बस लकीर के फ़क़ीर बने हुए हैं।
“और यक़ीनन हम उनको देने वाले हैं उनका हिस्सा बग़ैर किसी कमी के।” | وَاِنَّا لَمُوَفُّوْهُمْ نَصِيْبَهُمْ غَيْرَ مَنْقُوْصٍ ١٠٩ۧ |
आयात 110 से 123 तक
وَلَقَدْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ فَاخْتُلِفَ فِيْهِ ۭ وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ ۭ وَاِنَّهُمْ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْهُ مُرِيْبٍ ١١٠ وَاِنَّ كُلًّا لَّمَّا لَيُوَفِّيَنَّهُمْ رَبُّكَ اَعْمَالَهُمْ ۭ اِنَّهٗ بِمَا يَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ ١١١ فَاسْتَقِمْ كَمَآ اُمِرْتَ وَمَنْ تَابَ مَعَكَ وَلَا تَطْغَوْا ۭ اِنَّهٗ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ ١١٢ وَلَا تَرْكَنُوْٓا اِلَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا فَتَمَسَّكُمُ النَّارُ ۙ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ اَوْلِيَاۗءَ ثُمَّ لَا تُنْصَرُوْنَ ١١٣ وَاَقِمِ الصَّلٰوةَ طَرَفَيِ النَّهَارِ وَزُلَفًا مِّنَ الَّيْلِ ۭ اِنَّ الْحَسَنٰتِ يُذْهِبْنَ السَّـيِّاٰتِ ۭ ذٰلِكَ ذِكْرٰي لِلذّٰكِرِيْنَ ١١٤ۚ وَاصْبِرْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِنِيْنَ ١١٥ فَلَوْلَا كَانَ مِنَ الْقُرُوْنِ مِنْ قَبْلِكُمْ اُولُوْا بَقِيَّةٍ يَّنْهَوْنَ عَنِ الْفَسَادِ فِي الْاَرْضِ اِلَّا قَلِيْلًا مِّمَّنْ اَنْجَيْنَا مِنْهُمْ ۚ وَاتَّبَعَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مَآ اُتْرِفُوْا فِيْهِ وَكَانُوْا مُجْرِمِيْنَ ١١٦ وَمَا كَانَ رَبُّكَ لِـيُهْلِكَ الْقُرٰي بِظُلْمٍ وَّاَهْلُهَا مُصْلِحُوْنَ ١١٧ وَلَوْ شَاۗءَ رَبُّكَ لَجَعَلَ النَّاسَ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلَا يَزَالُوْنَ مُخْتَلِفِيْنَ ١١٨ۙ اِلَّا مَنْ رَّحِمَ رَبُّكَ ۭ وَلِذٰلِكَ خَلَقَهُمْ ۭ وَتَمَّتْ كَلِمَةُ رَبِّكَ لَاَمْلَــــَٔنَّ جَهَنَّمَ مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ ١١٩ وَكُلًّا نَّقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الرُّسُلِ مَا نُثَبِّتُ بِهٖ فُؤَادَكَ ۚ وَجَاۗءَكَ فِيْ هٰذِهِ الْحَقُّ وَمَوْعِظَةٌ وَّذِكْرٰي لِلْمُؤْمِنِيْنَ ١٢٠ وَقُلْ لِّلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ اعْمَلُوْا عَلٰي مَكَانَتِكُمْ ۭ اِنَّا عٰمِلُوْنَ ١٢١ۙ وَانْتَظِرُوْا ۚ اِنَّا مُنْتَظِرُوْنَ ١٢٢ وَلِلّٰهِ غَيْبُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاِلَيْهِ يُرْجَعُ الْاَمْرُ كُلُّهٗ فَاعْبُدْهُ وَتَوَكَّلْ عَلَيْهِ ۭ وَمَا رَبُّكَ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ ١٢٣ۧ
आयत 110
“और मूसा को हमने किताब दी थी फिर उसमें इख़्तलाफ़ पैदा कर दिए गये।” | وَلَقَدْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ فَاخْتُلِفَ فِيْهِ ۭ |
“और अगर तय ना हो चुकी होती एक बात तेरे रब की तरफ़ से पहले ही से तो उनके माबैन फ़ैसला कर दिया जाता।” | وَلَوْلَا كَلِمَةٌ سَبَقَتْ مِنْ رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيْنَهُمْ ۭ |
“और (अब तो) यह लोग इस (तौरात) के बारे में उलझा देने वाले शक में मुब्तला हो गये हैं।” | وَاِنَّهُمْ لَفِيْ شَكٍّ مِّنْهُ مُرِيْبٍ ١١٠ |
यह बात सूरतुल शौरा में वज़ाहत से बयान की गई है कि हर रसूल की उम्मत अपनी इल्हामी (Almighty) किताब की वारिस होती है। फिर जब उस उम्मत पर ज़वाल (गिरावट) आता है तो अपनी उस किताब के बारे में भी उनके यहाँ शकूक व शुब्हात पैदा हो जाते हैं कि वाक़िअतन यह किताब अल्लाह की तरफ़ से है भी या नहीं!
आयत 111
“और (ऐ नबी ﷺ!) आपका रब इन सबको इनके आमाल का लाज़िमन पूरा-पूरा बदला देगा।” | وَاِنَّ كُلًّا لَّمَّا لَيُوَفِّيَنَّهُمْ رَبُّكَ اَعْمَالَهُمْ ۭ |
“यक़ीनन वह बा-ख़बर है उससे जो अमल यह लोग कर रहे हैं।” | اِنَّهٗ بِمَا يَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ ١١١ |
आयत 112
“तो (ऐ नबी ﷺ!) आप डटे रहें जैसा कि आपको हुक्म हुआ है और वो भी जिन्होंने तौबा की है आपके साथ” | فَاسْتَقِمْ كَمَآ اُمِرْتَ وَمَنْ تَابَ مَعَكَ |
आप ﷺ के साथ वो लोग भी सब्र व इस्तक़ामत (stability) के साथ डटे रहें जो शिर्क से बाज़ आए हैं, जिन्होंने कुफ़्र को छोड़ा है और आपके साथ ईमान लाये हैं।
“और तुम लोग हद से तजावुज़ (हद पार) ना करो।” | وَلَا تَطْغَوْا ۭ |
तजावुज़ की एक शक्ल यह भी हो सकती है कि मुन्करीने हक़ पर जल्द अज़ाब ले आने की ख़्वाहिश करें और यह भी कि चारों तरफ़ से उन लोगों की मुख़ालफ़त के सबब किसी लम्हें गुस्से में आ जायें और हिल्म (नम्रता) व बुर्दबारी (सब्र) का दामन हाथ से छोड़ बैठें।
“यक़ीनन वह तुम लोगों के सब आमाल देख रहा है।” | اِنَّهٗ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ ١١٢ |
अल्लाह तआला तुम्हारे आमाल भी देख रहा है और जो कुछ तुम्हारे मुख़ालफ़ीन कर रहे हैं उनकी तमाम हरकतें भी उसके इल्म में हैं। इसलिये उसके यहाँ से तुम्हें तुम्हारा अज्र व सवाब मिलेगा, और उन लोगों को उनके करतूतों की सज़ा मिलेगी।
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आयत 113
“और कोई झुकाव पैदा ना करना उन लोगों की तरफ़ जिन्होंने ज़ुल्म किया” | وَلَا تَرْكَنُوْٓا اِلَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا |
यह ख़ालिस हक़ और बातिल की कशमकश है, इसमें कहीं कोई रिश्तेदारी का मामला, कोई पुराने मरासिम (रिवाज़), क़बीले की मुहब्बत वगैरह अवामिल तुम लोगों को किसी लम्हे उनकी तरफ़ झुकने पर माइल (इच्छुक) ना करें।
“(अगर ऐसा हुआ) तो तुम्हें आग पकड़ लेगी, फिर तुम्हारे लिये अल्लाह के सिवा कोई हिमायती नहीं होंगे, फिर तुम्हारी मदद नहीं की जायेगी।” | فَتَمَسَّكُمُ النَّارُ ۙ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ اَوْلِيَاۗءَ ثُمَّ لَا تُنْصَرُوْنَ ١١٣ |
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आयत 114
“और (ऐ नबी ﷺ!) नमाज़ को क़ायम रखिये दिन के दोनों सिरों पर और रात की कुछ घड़ियों में।” | وَاَقِمِ الصَّلٰوةَ طَرَفَيِ النَّهَارِ وَزُلَفًا مِّنَ الَّيْلِ ۭ |
दिन के दोनों सिरों पर फज्र और अस्र के अवक़ात हैं जबकि रात में मगरिब और इशा शामिल हैं। लेकिन यह याद रहे कि पाँच नमाज़ों का मौजूदा निज़ाम ग्यारह नबवी में मेराज के बाद क़ायम हुआ है। इससे पहले मक्की दौर में तक़रीबन साढ़े दस बरस तक नमाज़ों के बारे में जो अहकाम नाज़िल हुए वो इसी नौइयत (nature) के है। यहाँ एक नुक्ता फिर से ज़हन में ताज़ा कर लें कि हुज़ूर ﷺ से इस अंदाज़ में सीगा-ए-वाहिद में जो ख़िताब किया जाता है, वो दरअसल आप ﷺ की वसातत (मध्यस्थता) से उम्मत को हुक्म देना मक़सूद होता है।
“यक़ीनन नेकियाँ बदियों को दूर कर देती हैं। यह याद दिहानी है याद रखने वालों के लिये।” | اِنَّ الْحَسَنٰتِ يُذْهِبْنَ السَّـيِّاٰتِ ۭ ذٰلِكَ ذِكْرٰي لِلذّٰكِرِيْنَ ١١٤ۚ |
आयत 115
“और सब्र कीजिए, यक़ीनन अल्लाह नेकी करने वालों का अज्र ज़ाया नहीं करता।” | وَاصْبِرْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِنِيْنَ ١١٥ |
आयत 116
“तो क्यों ना ऐसा हुआ कि तुमसे पहले की क़ौमों में हक़ के ऐसे अलम्बरदार होते जो (अपनी-अपनी क़ौमों के लोगों को) रोकते ज़मीन में फ़साद मचाने से” | فَلَوْلَا كَانَ مِنَ الْقُرُوْنِ مِنْ قَبْلِكُمْ اُولُوْا بَقِيَّةٍ يَّنْهَوْنَ عَنِ الْفَسَادِ فِي الْاَرْضِ |
“मगर बहुत थोड़े लोग ऐसे थे, जिन्हें हमने उनमें से बचा लिया।” | اِلَّا قَلِيْلًا مِّمَّنْ اَنْجَيْنَا مِنْهُمْ ۚ |
यह बात क़ुरान में बार-बार दोहराई गई है कि हक़ के अल्मबरदार, अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुन्कर का हक़ अदा करने वाले लोग जहाँ भी हों, जिस क़ौम से भी हों, अल्लाह तआला हमेशा उन्हें अपनी रहमते खास से बचा लेता है।
“और पीछे पड़े रहे वो ज़ालिम उन ऐश व आराम की चीज़ों के जो उन्हें दी गई थीं और वो मुजरिम थे।” | وَاتَّبَعَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مَآ اُتْرِفُوْا فِيْهِ وَكَانُوْا مُجْرِمِيْنَ ١١٦ |
आयत 117
“और आपका रब ऐसा नहीं कि बस्तियों को ज़ुल्म के साथ हलाक कर दे जबकि उनमें बसने वाले लोग इस्लाह करने वाले हों।” | وَمَا كَانَ رَبُّكَ لِـيُهْلِكَ الْقُرٰي بِظُلْمٍ وَّاَهْلُهَا مُصْلِحُوْنَ ١١٧ |
ऐसा नहीं होता कि किसी इलाक़े, किसी मुल्क या शहर में अच्छे किरदार के हामिल, अपनी और दूसरों की इस्लाह में सरगर्म लोगों की अक्सरियत हो और अल्लाह फिर भी उस बस्ती पर अज़ाब भेज दे।
आयत 118
“और अग़र आपका रब चाहता तो तमाम नौए इंसानी को एक ही उम्मत बना देता, लेकिन वो तो इख़्तलाफ़ करते ही रहेंगे।” | وَلَوْ شَاۗءَ رَبُّكَ لَجَعَلَ النَّاسَ اُمَّةً وَّاحِدَةً وَّلَا يَزَالُوْنَ مُخْتَلِفِيْنَ ١١٨ۙ |
जहाँ कहीं भी लोग इकठ्ठा मिल-जुल कर रह रहे होंगे उनमें इख़्तलाफ़े राय का होना बिल्कुल फ़ितरी बात है। मुख़्तलिफ़ लोगों की मुख़्तलिफ़ सोच है, हर एक का अपना-अपना नुक़्ता-ए-नज़र है और इसके लिये अपना-अपना इस्तदलाल (तर्क) है। उसी के मुताबिक़ उनके नज़रियात हैं और उसी के मुताबिक़ उनके आमाल व अफ़आल। जब तक यह इस्तदलाल इल्म और क़ुरान व सुन्नत की बुनियाद पर है तो इसमें कोई क़बाहत (संकोच) नहीं, बशर्ते कि यह इख़्तलाफ़ की हद तक रहे और तिफ़र्क़े की सूरत इख़्तियार ना करे और “मन दीगरम तू दीगरी” वाला मामला ना हो।
इस नुक्ते को यूँ भी समझना चाहिये कि इमाम अबु हनीफ़ा और इमाम शाफ़ई रहि. दोनों ने क़ुरान व सुन्नत से इस्तदलाल किया है, मग़र बाज़ अवक़ात दोनों बुज़ुर्गों की आराअ (राय) में बहुत ज़्यादा इख़्तलाफ़ पाया जाता है। मगर ऐसे अहले इल्म हज़रात के यहाँ ऐसा इख़्तलाफ़ कभी भी नज़ाअ (विवाद) व तिफ़र्क़े बाज़ी का बाइस नहीं बनता। एक दूसरे ज़ाविये (एंगल) से देखा जाये तो दुनिया की रौनक और खूबसूरती भी इसी तनूअ (विविधता) और इख़्तलाफ़ से क़ायम है।
गुलहाए रंगारंग से है रौनक़े चमन
ऐ ज़ौक़ इस चमन को है ज़ेब इख़्तलाफ़ से!
अगर दुनिया में यक्सानियत (monotany) ही हो तो इंसान की तबीयत उससे उकता जाये।
आयत 119
“सिवाय उसके कि जिस पर आपका रब रहम फ़रमा दे। और इसी लिये उसने उन्हें पैदा किया है।” | اِلَّا مَنْ رَّحِمَ رَبُّكَ ۭ وَلِذٰلِكَ خَلَقَهُمْ ۭ |
अल्लाह तआला ने इंसानों की तख़्लीक़ के अंदर यह इख़्तलाफ़ और तनूअ ख़ुद रखा है। दुनिया में अरबों इंसान हैं मगर उनमें कोई से दो इंसानों के मिज़ाज, शक्ल व सूरत और आवाज़ हत्ता कि ऊँगलियों के निशानात आपस में नहीं मिलते। लिहाज़ा अल्लाह इंसानों को पैदा ही इसी अंदाज़ पर करता है कि उनमें तनूअ और इन्फ़रादियत क़ायम रहे। एक हदीसे नबवी की रू से इंसान भी मअदनियात (minerals) की तरह हैं। चुनाँचे जिस तरह मअदनियात की बेशुमार अक़साम (क़िस्मे) हैं मगर हर एक की अपनी खुसूसितात और अपनी पहचान है, यही मामला इंसानों का है।
“और आपके रब की यह बात पूरी होकर रहेगी कि मैं जहन्नम को जिन्नों और इंसानों सबसे भर कर रहूँगा।” | وَتَمَّتْ كَلِمَةُ رَبِّكَ لَاَمْلَــــَٔنَّ جَهَنَّمَ مِنَ الْجِنَّةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ ١١٩ |
यानि तमाम मुशरिक, सरकश (विद्रोही), नाफ़रमान और गुनहगार जिन्नों और इंसानों को उठा कर के जहन्नम का ईंधन बनाऊँगा और यूँ उनसे जहन्नम को भर दूँगा। उसने जन्नत बनाई है तो उसे भी आबाद करना है और जहन्नम बनाई है तो उसे भी ईंधन फ़राहम (provide) करना है।
आयत 120
“और (ऐ नबी ﷺ!) हम रसूलों की ख़बरों में से हर एक आपको सुना रहे हैं” | وَكُلًّا نَّقُصُّ عَلَيْكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الرُّسُلِ |
यह “अंबिया अर्रुसुल” की वही इस्तलाह (term) है जिसका ज़िक्र क़ब्ल अज़ें बार-बार हुआ है। हज़रत नूह, हज़रत हूद, हज़रत सालेह, हज़रत लूत, हज़रत शोएब और हज़रत मूसा अलै. के हालात हम आपको बार-बार इसलिये सुना रहे हैं:
“(ताकि) मज़बूत रखें हम इसके साथ आपका दिल।” | مَا نُثَبِّتُ بِهٖ فُؤَادَكَ ۚ |
ताकि इन वाक़्यात को सुन कर आप और आपके साथियों के दिलों में इत्मिनान बढ़े और इस्तक़ामत में इज़ाफ़ा हो। इन वाक़्यात के ज़रिये से हम यह बात वाज़ेह करना चाहते हैं कि मक्का में आप पर और आपके साथियों पर मसाइब (मुसीबतों) के जो पहाड़ टूट रहे हैं, यह कोई नई बात नहीं है, बल्कि जब भी कोई रसूल किसी क़ौम की तरफ़ मबऊस हुआ और उसे दावते हक़ पेश की तो उसकी मुख़ालफ़त इसी शद्दो-मद से हुई। अंबिया व रुसुल और उनके साथियों को हमेशा ऐसे ही हालात का सामना करना पड़ा। मगर जिस तरह हमने हर बार अहले हक़ की मदद की और बिल्आख़िर कामयाब वही हुए, इसी तरह अब भी हक़ व बातिल की इस जाँ कसल कशमकश में बोल-बाला हक़ ही का होगा, और आख़िरकार फ़तह आपकी और आपके साथियों ही की होगी।
“और इसमें आपके पास हक़ आया है और मोमिनीन के लिये इसमें नसीहत और याद दिहानी है।” | وَجَاۗءَكَ فِيْ هٰذِهِ الْحَقُّ وَمَوْعِظَةٌ وَّذِكْرٰي لِلْمُؤْمِنِيْنَ ١٢٠ |
यानि इस क़ुरान में या इस सूरत में या इन वाक़्यात में हक़ और बातिल को बिल्कुल वाज़ेह कर दिया गया है और मोमिनीन के लिये नसीहत और याद दिहानी का सामान भी फ़राहम कर दिया गया है।
आयत 121
“और कह दीजिए उन लोगों से जो ईमान नहीं लाते कि तुम अपनी जगह पर करो (जो कर सकते हो) हम भी कर रहे हैं (जो कुछ हम कर सकते हैं)।” | وَقُلْ لِّلَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ اعْمَلُوْا عَلٰي مَكَانَتِكُمْ ۭ اِنَّا عٰمِلُوْنَ ١٢١ۙ |
यानि तुम मेरी मुखालफ़त और दुश्मनी में कोई दक़ीक़ा फ़रो गुज़ाश्त (थोड़ी सी भी गुंजाइश) ना करो, इस ज़िमन में जो कर सकते हो बेशक मेरे खिलाफ़ कर गुज़रो, तुम अपने तरीक़े पर चलते रहो, हम अपनी रविश पर चलते रहेंगे।
आयत 122
“और तुम भी इन्तेज़ार करो, हम भी मुन्तज़िर हैं।” | وَانْتَظِرُوْا ۚ اِنَّا مُنْتَظِرُوْنَ ١٢٢ |
कि अल्लाह की तरफ़ से आख़िरी फ़ैसला क्या आता है।
आयत 123
“और अल्लाह ही के लिये हैं आसमानों और ज़मीन की तमाम छुपी चीज़ें और कुल का कुल मामला उसी की जानिब लौटा दिया जायेगा” | وَلِلّٰهِ غَيْبُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاِلَيْهِ يُرْجَعُ الْاَمْرُ كُلُّهٗ |
“तो आप उसी की इबादत करें और उसी पर तवक्कुल करें। और यक़ीनन आपका रब ग़ाफिल नहीं है उससे जो तुम लोग कर रहे हो।” | فَاعْبُدْهُ وَتَوَكَّلْ عَلَيْهِ ۭ وَمَا رَبُّكَ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ ١٢٣ۧ |
بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔
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