Surah yousuf-सूरह युसुफ़
सूरह युसुफ़
तम्हीदी कलिमात
चौदह मक्की सूरतों (सूरह युनुस से सूरतुल मोमिनून) पर मुश्तमिल इस तवील सिलसिले में तीन-तीन सूरतों के जो ज़ेली ग्रुप्स हैं, सूरह युसुफ़ इनमें से पहले ज़ेली ग्रुप का हिस्सा है, लेकिन इस सूरत को अपने मज़मून और ख़ास अंदाज़ की बिना पर पहली दो सूरतों (सूरह युनुस और सूरह हूद) का ज़मीमा (complement) समझना चाहिए। बल्कि हक़ीक़त तो यह है कि सूरह युसुफ़ पूरे क़ुरान मजीद में अपने अंदाज़ की एक बिल्कुल मुनफ़रिद (अकेली) सूरत है। इसकी हल्की सी मुशाबहत (copy) सिर्फ़ सूरह ताहा के साथ है। सूरह ताहा भी सूरह युसुफ़ की तरह सिर्फ़ एक रसूल यानि हज़रत मूसा अलै. के तज़किरे पर मुश्तमिल है। इन दोनों सूरतों में इसके अलावा एक मअनवी निस्बत यह भी है कि हज़रत युसुफ़ अलै. के ज़माने में और आपकी वसातत (मध्यस्थता) से बनी इसराइल मिस्र में दाख़िल हुए थे, जबकि हज़रत मूसा अलै. के ज़माने में आपके ज़रिये से वह लोग वहाँ से निकले थे।
इससे पहले मक्की सूरतों में अंबिया अर्रुसुल का मज़मून बहुत शद्दो-मद्द के साथ बयान हुआ है, जबकि हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र क़ससुल नबिय्यीन के अंदाज़ में आया है, पहले सूरतुल अनआम में और फिर सूरह हूद में। मगर सूरह युसुफ़ क़ससुल नबिय्यीन के ऐतबार से भी यूँ मुनफ़रिद है कि पूरी सूरत एक ही नबी के हालात पर मुश्तमिल है। इस पूरे क़िस्से में अंबिया अर्रुसुल के अंदाज़ की हल्की सी झलक भी नज़र नहीं आती। यानि इस तरह का कोई इशारा कहीं भी नहीं मिलता कि हज़रत युसुफ़ अलै. मिस्र में इस क़ौम की तरफ़ मबऊस हुए थे, या फिर उन्होंने अपनी क़ौम को दावते तौहीद देने के बाद कहा हो कि अगर तुम मेरी इस दावत को नहीं मानोगे तो तुम पर अल्लाह का अज़ाब आएगा। पूरी सूरत में हमें इनकी तरफ़ से जा-बजा दावत की मिसालें मिलती हैं मगर वह एक मसलेह के अंदाज़ में तब्लीग करते नज़र आते हैं। इससे नबी और रसूल के माबैन फ़र्क़ भी वाज़ेह हो जाता है। रसूलों के हालात के ज़िमन में हम पढ़ आये हैं कि एक रसूल की बेअसत तअय्युन (संकल्प) के साथ जिस क़ौम की तरफ़ होती थी वह उन्हें अल्लाह वाहिद की बंदगी और अपनी इताअत का हुक्म देता था: {اَنِ اعْبُدُوا اللّٰهَ وَاتَّقُوْهُ وَاَطِيْعُوْنِ} (सूरह नूह:3) “कि तुम अल्लाह की बंदगी करो, उसका तक़वा इख्तियार करो और मेरी इताअत करो।” और अगर वह क़ौम अपने रसूल की दावत को रद्द करती चली जाती थी तो बिलआख़िर उस क़ौम पर अल्लाह की तरफ़ से अज़ाब नाज़िल हो जाता था और उसे सफ़हा-ए-हस्ती से मिटा दिया जाता था। लेकिन नबी का मामला औलिया अल्लाह की तरह होता था। वह अपने मआशरे में तौहीद की दावत देता, कुफ़्र व शिर्क और बिदआत से इजतनाब (बचने) की तलक़ीन (हिदायत) करता और उनकी इस्लाह की कोशिश करता। बनी इसराईल में अम्बिया किराम अलै. तसल्सुल के साथ (continue) आते रहे हैं, लेकिन रसूल मअदूदे चंद (गिनती के) थे। उम्मते मुस्लिमा में बड़े-बड़े औलिया किराम अलै. पैदा हुए हैं और उन्होंने अज़ीमुश्शान दावती और तजदीदी (पुनर्निर्माण) खिदमात अंजाम दी हैं, लेकिन वही का दरवाज़ा अम्बिया किराम अलै. के बाद बंद हो चुका है।
इस सूरत के नुज़ूल और इसमें हज़रत युसुफ़ अलै. के हालात की इस क़दर तफ़सील बयान करने का बुनियादी सबब तो यह है कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के दावा-ए-नबुवत की ख़बरें जब यहूद-ए-मदीना तक पहुँचीं तो उन्होंने तौरात की मालूमात की बुनियाद पर शरारतन मुशरिकीने मक्का को मुख्तलिफ़ सवालात भेजने शुरू कर दिए, जो वह हुज़ूर ﷺ से पूछते रहते थे। उन सवालात में एक अहम सवाल यह भी था कि बनी इसराईल के बारे में आप यह वाक़ियात तो बयान कर रहे हैं कि मिस्र में फ़िरऔन उन पर ज़ुल्म करता था और वहाँ वो गुलामाना ज़िन्दगी बसर कर रहे थे और फ़िर हज़रत मूसा अलै. उनको वहाँ से निकाल कर ले गए, मगर बनी इसराईल के जद्दे अमजद (forefather) हज़रत इब्राहीम, हज़रत इसहाक़ और हज़रत याक़ूब अलै. तो फ़लस्तीन में आबाद थे, उनके बारे में यह भी बताएँ कि वहाँ से यह लोग मिस्र में कैसे पहुँच गए? यह तारीख़ का एक सवाल था, जिसके जवाब में अल्लाह तआला ने ना सिर्फ़ यह पूरा वाक़िया इस सूरत में बहुत ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में बयान फ़रमा दिया, बल्कि इस क़िस्से को क़ुरैश के उस तर्ज़े अमल पर भी मुन्तबिक़ (logical) कर दिया जो वह बिरादराने युसुफ़ की मानिन्द (तरह) नब़ी आखिरुज्ज़माँ ﷺ के साथ रवा रखे हुए थे।
मैं यह भी अर्ज़ करता चलूँ कि क़ुरान हकीम के साथ मेरा जो ज़हनी व क़ल्बी रिश्ता और मअनवी रब्त (मानसिक लिंक) व ताल्लुक़ क़ायम हुआ उसका नुक़्ता-ए-आग़ाज़ यही सूरह युसुफ़ बनी, जब मैंने मौलाना अबुल आला मौदूदी रहि. के क़लम से इसकी तफ़सीर का मुताअला (study) किया। मैंने 1947 में मैट्रिक का इम्तिहान पास ही किया था कि मशरिक़ी पंजाब में फ़सादात शुरू हो गए और मुसलमानों का क़त्ले आम होने लगा। तक़रीबन डेढ़ माह तक हम अपने शहर हिसार में महसूर (घिरे) रहे। हमने अपनी हिफ़ाज़त के लिये मोर्चे क़ायम कर लिए थे, जिनमें शहर के नौजवान अपनी बारी से ड्यूटी देते। फ़ारिग वक़्त में, मैं और मेरे बड़े भाई इज़हार अहमद एक मस्जिद में बैठ कर मुताअला करते। उन दिनों मौलाना मौदूदी रहि. के माहनामा (monthly) तर्जुमानुल क़ुरान में “तफ़हीमुल क़ुरान” के सिलसिले में सूरह युसुफ़ की तफ़सीर शाया (publish) हो रही थी। मैंने भी मैट्रिक में अरबी का मज़मून (subject) रखा था और भाईजान ने भी जब मैट्रिक किया था तो अरबी पढ़ी थी। चुनाँचे हम मिल कर सूरह युसुफ़ की तफ़सीर का मुताअला करते और उस पर बाहम मुज़ाकरा करते। क़ुरान हकीम की तिलावत और तर्जुमे की मदद से उसको समझने का मामला तो पहले से ही था, लेकिन इस तफ़सीरी मुताअले और मुज़ाकरे से क़ुरान हकीम के साथ ज़हनी और क़ल्बी रिश्ता अस्तवार (solid) हुआ।
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 6 तक
الۗرٰ ۣ تِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ الْمُبِيْنِ Ǻۣ اِنَّآ اَنْزَلْنٰهُ قُرْءٰنًا عَرَبِيًّا لَّعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ Ą نَحْنُ نَقُصُّ عَلَيْكَ اَحْسَنَ الْقَصَصِ بِمَآ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ ھٰذَا الْقُرْاٰنَ ڰ وَاِنْ كُنْتَ مِنْ قَبْلِهٖ لَمِنَ الْغٰفِلِيْنَ Ǽ اِذْ قَالَ يُوْسُفُ لِاَبِيْهِ يٰٓاَبَتِ اِنِّىْ رَاَيْتُ اَحَدَ عَشَرَ كَوْكَبًا وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ رَاَيْتُهُمْ لِيْ سٰجِدِيْنَ Ć قَالَ يٰبُنَيَّ لَا تَقْصُصْ رُءْيَاكَ عَلٰٓي اِخْوَتِكَ فَيَكِيْدُوْا لَكَ كَيْدًا ۭ اِنَّ الشَّيْطٰنَ لِلْاِنْسَانِ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ Ĉ وَكَذٰلِكَ يَجْتَبِيْكَ رَبُّكَ وَيُعَلِّمُكَ مِنْ تَاْوِيْلِ الْاَحَادِيْثِ وَيُـــتِمُّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكَ وَعَلٰٓي اٰلِ يَعْقُوْبَ كَمَآ اَتَمَّــهَا عَلٰٓي اَبَوَيْكَ مِنْ قَبْلُ اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْحٰقَ ۭ اِنَّ رَبَّكَ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ Čۧ
आयत 1
“अलिफ़, लाम, रा। यह एक रौशन किताब की आयात हैं।” | الۗرٰ ۣ تِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ الْمُبِيْنِ Ǻۣ |
यह उस किताबे रौशन की आयात हैं जो अपना मुद्दा वाज़ेह तौर पर बयान करती है और कोई अबहाम (अस्पष्टता) बाक़ी नहीं रहने देती।
आयत 2
“हमने इसको नाज़िल किया है अरबी क़ुरान बना कर” | اِنَّآ اَنْزَلْنٰهُ قُرْءٰنًا عَرَبِيًّا |
यानि वह क़ुरान जो उम्मुल किताब और लौहे महफ़ूज़ में हमारे पास है, इसको हमने क़ुराने अरबी बना कर मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर नाज़िल किया है।
“ताकि तुम लोग इसे अच्छी तरह से समझ सको।” | لَّعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ Ą |
यह ख़िताब अरब के उम्मिय्यीन से है कि हमारे आखरी रसूल ﷺ की अव्वलीन बेअसत तुम्हारी तरफ़ हुई है। आप ﷺ के मुखातबीन अव्वलीन तुम लोग हो। चुनाँचे हमने क़ुरान को तुम्हारी अपनी ज़बान में नाज़िल किया है ताकि तुम लोग इसे अच्छी तरह समझ सको।
आयत 3
“(ए नबी ﷺ!) हम आपको सुनाने लगे हैं बेहतरीन बयान” | نَحْنُ نَقُصُّ عَلَيْكَ اَحْسَنَ الْقَصَصِ |
क़सस (क़ाफ़ की ज़बर के साथ) यहाँ बतौर मसदर आया है और इसके मायने हैं “बयान।” अगर लफ्ज़ क़िसस (क़ाफ़ की ज़ेर के साथ) होता तो क़िस्सा की जमा के मायने देता, और इस सूरत में इसका तर्जुमा यूँ होता कि हम आप ﷺ को बेहतरीन क़िस्सा सुना रहे हैं।
“इस क़ुरान के साथ जो हमने आपकी तरफ़ वही किया है, और यक़ीनन आप इससे पहले (इससे) नावाक़िफ़ थे।” | بِمَآ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ ھٰذَا الْقُرْاٰنَ ڰ وَاِنْ كُنْتَ مِنْ قَبْلِهٖ لَمِنَ الْغٰفِلِيْنَ Ǽ |
यानि क़ुरान में इस वही (सूरत) के नुज़ूल से पहले आप इस वाक़िये से वाक़िफ़ नहीं थे।
आयत 4
“जब युसुफ़ ने अपने वालिद (याक़ूब) से कहा” | اِذْ قَالَ يُوْسُفُ لِاَبِيْهِ |
हज़रत याक़ूब अलै. की बड़ी बीवी से आपके दस बेटे थे और वह सबके सब उस वक़्त तक जवानी की उम्र को पहुँच चुके थे, जबकि आपके दो बेटे (युसुफ़ अलै. और बिन यमीन) आपकी छोटी बीवी से थे। इनमें हज़रत युसुफ़ अलै. बड़े थे, मगर अभी यह दोनों ही कमसिन (teen) थे।
“अब्बा जान! मैंने ख्व़ाब में देखा है ग्यारह सितारों और सूरज और चाँद को, मैंने उनको देखा है कि वह मुझे सज्दा कर रहे हैं।” | يٰٓاَبَتِ اِنِّىْ رَاَيْتُ اَحَدَ عَشَرَ كَوْكَبًا وَّالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ رَاَيْتُهُمْ لِيْ سٰجِدِيْنَ Ć |
आयत 5
“याक़ूब अलै. ने फ़रमाया: ए मेरे प्यारे बेटे! अपना यह ख्व़ाब अपने भाईयों के सामने बयान ना करना” | قَالَ يٰبُنَيَّ لَا تَقْصُصْ رُءْيَاكَ عَلٰٓي اِخْوَتِكَ |
हज़रत याक़ूब अलै. ने समझ लिया कि इस ख्व़ाब में युसुफ़ के ग्यारह भाईयों और माँ-बाप के बारे में कोई इशारा है और शायद अल्लाह तआला मेरे इस बेटे के लिये कोई ख़ास फज़ीलत ज़ाहिर करने वाला है।
“वरना वह तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई साज़िश करेंगे।” | فَيَكِيْدُوْا لَكَ كَيْدًا ۭ |
मुमकिन है वह लोग ख्व़ाब सुन कर इसमें वाज़ेह इशारे को भाँप लें तो उनके अंदर हसद की आग भड़क उठे और फिर वह तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई साज़िश करें, तुम्हें गज़न्द (harm) पहुँचाने की कोशिश करें।
“यक़ीनन शैतान तो इंसान का खुला दुश्मन है।” | اِنَّ الشَّيْطٰنَ لِلْاِنْسَانِ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ Ĉ |
वह दुश्मनी में किसी को भी किसी भी वक़्त, कोई भी पट्टी पढ़ा सकता है।
आयत 6
“और इसी तरह तुम्हारा रब तुम्हें मुन्तखिब करेगा” | وَكَذٰلِكَ يَجْتَبِيْكَ رَبُّكَ |
हज़रत याक़ूब अलै. ने समझ लिया कि मेरे बेटों में से युसुफ़ को अल्लाह तआला ने नबुवत के लिये चुन लिया है।
“और तुम्हें सिखाएगा तावीलुल अहादीस में से (ईल्म)” | وَيُعَلِّمُكَ مِنْ تَاْوِيْلِ الْاَحَادِيْثِ |
यहाँ पर तावील हदीस के दो मायने हो सकते हैं, एक तो ख़्वाबों की ताबीर और दूसरे मामला फ़हमी और दूरबीनी, बातों की कुनह (तह) तक पहुँच जाना, हक़ीक़त तक रसाई हो जाना।
“और इत्माम फ़रमायेगा अपनी नेअमत का तुझ पर और आले याक़ूब पर जिस तरह उसने इससे पहले अपनी नेअमत का इत्माम फ़रमाया तेरे आबा व अजदाद इब्राहीम और इसहाक़ अलै. पर।” | وَيُـــتِمُّ نِعْمَتَهٗ عَلَيْكَ وَعَلٰٓي اٰلِ يَعْقُوْبَ كَمَآ اَتَمَّــهَا عَلٰٓي اَبَوَيْكَ مِنْ قَبْلُ اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْحٰقَ ۭ |
यहाँ हज़रत याक़ूब अलै. ने क़सरे नफ्सी के सबब हज़रत इब्राहीम और हज़रत इसहाक़ अलै. के साथ अपना नाम नहीं लिया।
“यक़ीनन तेरा रब जानने वाला, हिकमत वाला है।” | اِنَّ رَبَّكَ عَلِيْمٌ حَكِيْمٌ Čۧ |
आयात 7 से 20 तक
لَقَدْ كَانَ فِيْ يُوْسُفَ وَاِخْوَتِهٖٓ اٰيٰتٌ لِّلسَّاۗىِٕلِيْنَ Ċ اِذْ قَالُوْا لَيُوْسُفُ وَاَخُوْهُ اَحَبُّ اِلٰٓي اَبِيْنَا مِنَّا وَنَحْنُ عُصْبَةٌ ۭ اِنَّ اَبَانَا لَفِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنِۨ Ďښ اقْــتُلُوْا يُوْسُفَ اَوِ اطْرَحُوْهُ اَرْضًا يَّخْلُ لَكُمْ وَجْهُ اَبِيْكُمْ وَتَكُوْنُوْا مِنْۢ بَعْدِهٖ قَوْمًا صٰلِحِيْنَ Ḍ قَالَ قَاۗىِٕلٌ مِّنْهُمْ لَا تَـقْتُلُوْا يُوْسُفَ وَاَلْقُوْهُ فِيْ غَيٰبَتِ الْجُبِّ يَلْتَقِطْهُ بَعْضُ السَّـيَّارَةِ اِنْ كُنْتُمْ فٰعِلِيْنَ 10 قَالُوْا يٰٓاَبَانَا مَالَكَ لَا تَاْمَنَّا عَلٰي يُوْسُفَ وَاِنَّا لَهٗ لَنٰصِحُوْنَ 11 اَرْسِلْهُ مَعَنَا غَدًا يَّرْتَعْ وَيَلْعَبْ وَاِنَّا لَهٗ لَحٰفِظُوْنَ 12 قَالَ اِنِّىْ لَيَحْزُنُنِيْٓ اَنْ تَذْهَبُوْا بِهٖ وَاَخَافُ اَنْ يَّاْكُلَهُ الذِّئْبُ وَاَنْتُمْ عَنْهُ غٰفِلُوْنَ 13 قَالُوْا لَىِٕنْ اَكَلَهُ الذِّئْبُ وَنَحْنُ عُصْبَةٌ اِنَّآ اِذًا لَّخٰسِرُوْنَ 14 فَلَمَّا ذَهَبُوْا بِهٖ وَاَجْمَعُوْٓا اَنْ يَّجْعَلُوْهُ فِيْ غَيٰبَتِ الْجُبِّ ۚ وَاَوْحَيْنَآ اِلَيْهِ لَتُنَبِّئَنَّهُمْ بِاَمْرِهِمْ ھٰذَا وَهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ 15 وَجَاۗءُوْٓا اَبَاهُمْ عِشَاۗءً يَّبْكُوْنَ 16ۭ قَالُوْا يٰٓاَبَانَآ اِنَّا ذَهَبْنَا نَسْتَبِقُ وَتَرَكْنَا يُوْسُفَ عِنْدَ مَتَاعِنَا فَاَكَلَهُ الذِّئْبُ ۚ وَمَآ اَنْتَ بِمُؤْمِنٍ لَّنَا وَلَوْ كُنَّا صٰدِقِيْنَ 17 وَجَاۗءُوْ عَلٰي قَمِيْصِهٖ بِدَمٍ كَذِبٍ ۭ قَالَ بَلْ سَوَّلَتْ لَكُمْ اَنْفُسُكُمْ اَمْرًا ۭ فَصَبْرٌ جَمِيْلٌ ۭ وَاللّٰهُ الْمُسْتَعَانُ عَلٰي مَا تَصِفُوْنَ 18 وَجَاۗءَتْ سَيَّارَةٌ فَاَرْسَلُوْا وَارِدَهُمْ فَاَدْلٰى دَلْوَهٗ ۭ قَالَ يٰبُشْرٰي ھٰذَا غُلٰمٌ ۭ وَاَسَرُّوْهُ بِضَاعَةً ۭ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ 19 وَشَرَوْهُ بِثَمَنٍۢ بَخْسٍ دَرَاهِمَ مَعْدُوْدَةٍ ۚ وَكَانُوْا فِيْهِ مِنَ الزَّاهِدِيْنَ 20ۧ
आयत 7
“यक़ीनन युसुफ़ और आपके भाइयों (के क़िस्से) में (बहुत सी) निशानियाँ हैं पूछने वालों के लिये।” | لَقَدْ كَانَ فِيْ يُوْسُفَ وَاِخْوَتِهٖٓ اٰيٰتٌ لِّلسَّاۗىِٕلِيْنَ Ċ |
यानि जिन लोगों (क़ुरैशे मक्का) ने यह सवाल पूछा है और जिन लोगों (यहूदे मदीना) के कहने पर पूछा है, उन सबके लिये इस क़िस्से में बहुत सी निशानियाँ हैं। अगर वह सिर्फ़ इस क़िस्से को हक़ीक़त की नज़रों से देखें और इस पर ग़ौर करें तो बहुत से हक़ाइक़ निखर कर उनके सामने आ जायेंगे।
आयत 8
“जब उन्होंने कहा कि युसुफ़ और इसका भाई हमारे वालिद को हमसे ज़्यादा महबूब हैं जबकि हम एक ताक़तवर जमात हैं।” | اِذْ قَالُوْا لَيُوْسُفُ وَاَخُوْهُ اَحَبُّ اِلٰٓي اَبِيْنَا مِنَّا وَنَحْنُ عُصْبَةٌ ۭ |
बिरादराने युसुफ़ ने कहा कि हम पूरे दस लोग हैं, सबके सब जवान और ताक़तवर हैं, ख़ानदान की शान तो हमारे दम क़दम से है (क़बाईली ज़िंदगी में नौजवान बेटों की तादाद पर ही किसी ख़ानदान की शान व शौकत और क़ुव्वत व ताक़त का इन्हसार [dependent] होता है) लेकिन हमारे वालिद हमें नज़र अंदाज़ करके इन दो छोटे बच्चों को ज़्यादा अहमियत देते हैं।
“यक़ीनन हमारे वालिद सरीह गलती पर हैं।” | اِنَّ اَبَانَا لَفِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنِۨ Ďښ |
आयत 9
“(चुनाँचे) क़त्ल कर दो युसुफ़ को या इसे फेंक आओ (दूर) किसी इलाक़े में ताकि तुम्हारे वालिद की तवज्जो सिर्फ़ तुम्हारी तरफ़ हो जाए” | اقْــتُلُوْا يُوْسُفَ اَوِ اطْرَحُوْهُ اَرْضًا يَّخْلُ لَكُمْ وَجْهُ اَبِيْكُمْ |
युसुफ़ चूँकि इन दोनों में बड़ा है, इसलिये वही वालिद साहब की सारी तवज्जो और इनायात का मरकज़ व महवर (center & axis) बना हुआ है, चुनाँचे जब यह नहीं रहेगा तो ला-महाला (आनिवार्य रूप से) वालिद साहब की तमामतर शफक्क़त और मेहरबानी हमारे लिये ही होगी।
“और फिर इसके बाद नेक बन जाना।” | وَتَكُوْنُوْا مِنْۢ بَعْدِهٖ قَوْمًا صٰلِحِيْنَ Ḍ |
इस फिक़रे में उनके नफ्स और ज़मीर की कशमकश की झलक साफ़ नज़र आ रही है। ज़मीर तो मुसलसल मलामत कर रहा था कि यह क्या करने लगे हो? अपने भाई को क़त्ल करना चाहते हो? यह तुम्हारी सोच दुरुस्त नहीं है! लेकिन आमतौर पर ऐसे मौक़े पर इंसान का नफ्स उसके ज़मीर पर ग़ालिब आ जाता है, जैसा कि हमने सूरतुल मायदा, आयत 30 में हाबील और क़ाबील के सिलसिले में पढा था: {فَطَوَّعَتْ لَهٗ نَفْسُهٗ قَتْلَ اَخِيْهِ} “पस क़ाबील के नफ्स ने उसे आमादा कर ही लिया अपने भाई के क़त्ल करने पर।”
इसी तरह उन लोगों ने भी अपने ज़मीर की आवाज़ को दबा कर आपस में मशवरा किया कि एक दफ़ा यह कड़वा घूंट हलक़ से उतार लो, फिर इसके बाद तौबा करके और कफ्फ़ारा वगैरह अदा करके किसी ना किसी तरह इस जुर्म की तलाफ़ी कर देंगे और बाक़ी ज़िन्दगी नेक बन कर रहेँगे।
आयत 10
“कहा उनमें से एक कहने वाले ने कि युसुफ़ को क़त्ल मत करो” | قَالَ قَاۗىِٕلٌ مِّنْهُمْ لَا تَـقْتُلُوْا يُوْسُفَ |
यह शरीफुन्नफ्स इंसान उनके सबसे बड़े भाई थे जिन्होंने यह मशवरा दिया। इनका नाम यहूदा था, और इन्ही के नाम पर लफ्ज़ “यहूदी” बना है। इन्होंने कहा कि असल मसला तो इससे पीछा छुड़ाने का है, लिहाज़ा ज़रूरी नहीं कि क़त्ल जैसा गुनाह करके ही यह मक़सद हासिल किया जाए, इसके लिये कोई दूसरा तरीक़ा भी इख्तियार किया जा सकता है।
“और डाल आओ इसे किसी बावली के ताक़चे में, उठा ले जाएगा इसको कोई काफ़िला” | وَاَلْقُوْهُ فِيْ غَيٰبَتِ الْجُبِّ يَلْتَقِطْهُ بَعْضُ السَّـيَّارَةِ |
पुराने ज़माने के कुओं की एक ख़ास क़िस्म को बावली कहा जाता था, इसका मुँह खुला होता था लेकिन गहराई में यह तदरीजन तंग होता जाता था। पानी की सतह के क़रीब इसकी दीवार में ताक़चे से बनाए जाते थे। इस तरह की बावलियाँ पुराने ज़माने में काफ़िलों के रास्तों पर बनाई जाती थी। चुनाँचे इस मशवरे पर अमल की सूरत में क़वी इम्कान था कि किसी काफ़िले का उधर से गुज़र होगा और काफ़िले वाले युसुफ़ को बावली से निकाल कर अपने साथ ले जायेंगे। बड़े भाई के इस मशवरे का मक़सद बज़ाहिर यह था कि इस तरह कम अज़ कम युसुफ़ की जान बच जाएगी और हम भी उसके खून से हाथ रंगने के जुर्म के मुरतकिब (दोषी) नहीं होंगे।
“अगर तुम कुछ करने ही वाले हो।” | اِنْ كُنْتُمْ فٰعِلِيْنَ 10 |
जब नौ भाई इस बात पर पूरी तरह तुल गए कि युसुफ़ से बहरहाल छुटकारा हासिल करना है तो दसवाँ भाई उनको इस हरकत से बिल्कुल मना तो नहीं कर सका, लेकिन उसने कोशिश की कि कम अज़ कम वह लोग युसुफ़ को क़त्ल करने से बाज़ रहें।
आयत 11
“उन्होंने कहा: अब्बाजान! क्या वजह है कि आप हम पर भरोसा नहीं करते युसुफ़ के मामले में, हालाँकि हम तो उसके बड़े खैर-ख्वाह हैं।” | قَالُوْا يٰٓاَبَانَا مَالَكَ لَا تَاْمَنَّا عَلٰي يُوْسُفَ وَاِنَّا لَهٗ لَنٰصِحُوْنَ 11 |
आयत 12
“कल ज़रा इसे हमारे साथ भेजिये, वह कुछ चर-चुग लेगा और खेले कूदेगा, और हम यक़ीनन इसकी हिफ़ाज़त करने वाले हैं।” | اَرْسِلْهُ مَعَنَا غَدًا يَّرْتَعْ وَيَلْعَبْ وَاِنَّا لَهٗ لَحٰفِظُوْنَ 12 |
उन्होंने कहा कि कल हम शिकार पर जा रहे हैं, आप युसुफ़ को भी हमारे साथ भेज दीजिये। वहाँ यह दरख्तों से फल वगैरह खाएगा और खेल-कूद से भी दिल बहलाएगा। आप इसकी तरफ़ से बिल्कुल फ़िक्रमंद ना हों, हम इसकी हिफ़ाज़त करेंगे।
आयत 13
“याक़ूब अलै. ने फ़रमाया: मुझे यह बात अंदेशे में डालती है कि तुम इसे ले जाओ, और मैं डरता हूँ कि कहीं इसे भेड़िया ना खा जाए जबकि तुम इससे ग़ाफिल हो जाओ।” | قَالَ اِنِّىْ لَيَحْزُنُنِيْٓ اَنْ تَذْهَبُوْا بِهٖ وَاَخَافُ اَنْ يَّاْكُلَهُ الذِّئْبُ وَاَنْتُمْ عَنْهُ غٰفِلُوْنَ 13 |
मुझे इस बात का डर है कि वह तुम्हारे साथ चला जाए, फ़िर तुम लोग अपनी मसरूफ़ियात में मुन्हमिक (मग्न) हो जाओ, इस तरह वह जंगल में अकेला रह जाए और कोई भेड़िया उसे फाड़ खाए।
आयत 14
“वह कहने लगे कि अगर (हमारे होते हुए) इसे भेड़िया खा गया जबकि हम एक ताक़तवर जमात हैं, तब तो हम बहुत ही निकम्मे साबित होंगे।” | قَالُوْا لَىِٕنْ اَكَلَهُ الذِّئْبُ وَنَحْنُ عُصْبَةٌ اِنَّآ اِذًا لَّخٰسِرُوْنَ 14 |
यह कैसे मुमकिन है कि हमारे जैसे दस कड़ियल जवानों के होते हुए उसे भेड़िया खा जाए, हम इतने भी गए गुज़रे नहीं हैं।
आयत 15
“फिर जब वह उसको ले गए और सब इस पर मुत्तफ़िक़ (agree) हो गए कि उसे डाल दें बावली के ताक़चे में।” | فَلَمَّا ذَهَبُوْا بِهٖ وَاَجْمَعُوْٓا اَنْ يَّجْعَلُوْهُ فِيْ غَيٰبَتِ الْجُبِّ ۚ |
यहाँ पर اَجْمَعُوْٓا के बाद عَلَىٰ का सिला महज़ूफ़ है, यानि इस मनसूबे पर वह सबके सब जमा हो गए, उन्होंने इस राय पर इत्तेफ़ाक़ कर लिया।
“और हमने (उस वक़्त) वही की युसुफ़ को कि तुम (एक दिन) उनको उनकी यह हरकत ज़रूर जतलाओगे और उन्हें इसका अंदाज़ा भी नहीं होगा।” | وَاَوْحَيْنَآ اِلَيْهِ لَتُنَبِّئَنَّهُمْ بِاَمْرِهِمْ ھٰذَا وَهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ 15 |
यह बात इल्हाम की सूरत में हज़रत युसुफ़ अलै. के दिल में डाली गई होगी, क्योंकि अभी आपकी उम्र नबुवत की तो नहीं थी कि बाक़ायदा वही होती। बहरहाल आप पर यह इल्हाम किया गया कि एक दिन तुम अपने इन भाइयों को यह बात उस वक़्त जतलाओगे जब इन्हें इसका ख्याल भी नहीं होगा। इस छोटे से फिक़रे में जो बलागत है इसका जवाब नहीं। चंद अल्फ़ाज़ के अंदर हज़रत युसुफ़ अलै. की तस्सली के लिये गोया पूरी दास्तान बयान कर दी गई है कि तुम्हारी जान को ख़तरा नहीं है, तुम ना सिर्फ़ इस मुश्किल सूरतेहाल से निकलने में कामयाब हो जाओगे बल्कि एक दिन ऐसा भी आएगा जब तुम इस क़ाबिल होगे कि अपने इन भाइयों को उनका यह सुलूक जतला सको।
आयत 16
“और वह आए अपने वालिद के पास शाम को रोते हुए।” | وَجَاۗءُوْٓا اَبَاهُمْ عِشَاۗءً يَّبْكُوْنَ 16ۭ |
आयत 17
“उन्होंने कहा: अब्बाजान! हम जाकर दौड़ का मुक़ाबला करने लगे और हमने छोड़ दिया था युसुफ़ को अपने सामान के पास” | قَالُوْا يٰٓاَبَانَآ اِنَّا ذَهَبْنَا نَسْتَبِقُ وَتَرَكْنَا يُوْسُفَ عِنْدَ مَتَاعِنَا |
हमने अपना इज़ाफ़ी सामान इकठ्ठा करके एक जगह रखा और उस सामान के पास हमने युसुफ़ को छोड़ दिया था। खुद हम एक-दूसरे से दौड़ में मुक़ाबला करते हुए दूर निकल गए।
“तो उसे खा लिया एक भेड़िये ने। और आप हमारी बात मानेंगे तो नहीं, ख्वाह हम कितने ही सच्चे हों।” | فَاَكَلَهُ الذِّئْبُ ۚ وَمَآ اَنْتَ بِمُؤْمِنٍ لَّنَا وَلَوْ كُنَّا صٰدِقِيْنَ 17 |
आयत 18
“और वह उसकी कमीज़ पर झूठ-मुठ का खून भी लगा लाए।” | وَجَاۗءُوْ عَلٰي قَمِيْصِهٖ بِدَمٍ كَذِبٍ ۭ |
“हज़रत याक़ूब ने फ़रमाया: (वाक़िया यूँ नहीं) बल्कि तुम्हारी नफ्सों ने तुम्हारे लिये एक बड़े काम को आसान बना दिया है।” | قَالَ بَلْ سَوَّلَتْ لَكُمْ اَنْفُسُكُمْ اَمْرًا ۭ |
उनकी बात सुनकर हज़रत याक़ूब अलै. ने फ़रमाया कि नहीं, बात कुछ और है। यह बात जो तुम बता रहे हो यह तो तुम्हारे जी की गढ़ी हुई एक बात है। तुम्हारे नफ्सों ने तुम्हारे लिये एक बड़ी बात को हल्का करके पेश किया है और तुम लोगों ने कोई बहुत बड़ा गलत अक़दाम किया है।
“अब सब्र ही बेहतर है, और अल्लाह ही की मदद तलब की जा सकती है उस पर जो तुम बयान कर रहे हो।” | فَصَبْرٌ جَمِيْلٌ ۭ وَاللّٰهُ الْمُسْتَعَانُ عَلٰي مَا تَصِفُوْنَ 18 |
हज़रत याक़ूब अलै. अकेले थे, बूढ़े थे और दूसरी तरफ़ दस जवान बेटे, इस सूरते हाल में और क्या कहते?
आयत 19
“और (कुछ अरसे बाद) एक क़ाफ़िला आया तो उन्होंने भेजा अपने आगे चलने वाले को” | وَجَاۗءَتْ سَيَّارَةٌ فَاَرْسَلُوْا وَارِدَهُمْ |
जब क़ाफ़िले चलते थे तो एक आदमी क़ाफ़िले के आगे-आगे चलता था। वह क़ाफ़िले के पड़ाव के लिये जगह का इन्तखाब (चुनाव) करता और पानी वगैरह के इंतेज़ाम का जायज़ा लेता। क़ाफ़िले वालों ने इस ड्यूटी पर मामूर शख्स को भेजा कि वह जाकर पानी का ख़ोज लगाए। उस शख्स ने बावली देखी तो पानी निकालने की तदबीर करने लगा।
“तो उसने लटकाया अपना डोल।” | فَاَدْلٰى دَلْوَهٗ ۭ |
हज़रत युसुफ़ ने उसके डोल को पकड़ लिया। उसने जब डोल खींचा और हज़रत युसुफ़ को देखा तो:
“वह पुकार उठा कि खुश ख़बरी हो! यह तो एक लड़का है। और उन्होंने उसे छुपा लिया, एक पूंजी समझ कर।” | قَالَ يٰبُشْرٰي ھٰذَا غُلٰمٌ ۭ وَاَسَرُّوْهُ بِضَاعَةً ۭ |
कि बहुत ख़ूबसूरत लड़का है, बेचेंगे तो अच्छे दाम मिलेंगे।
“और अल्लाह ख़ूब जानता था जो वो कर रहे थे।” | وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ 19 |
आयत 20
“और (मिस्र पहुँच कर) उन्होंने बेच दिया उसको बड़ी थोड़ी सी क़ीमत पर चंद दिरहम के एवज़, और वो थे उसके मामले में बहुत ही क़नाअत पसंद।” | وَشَرَوْهُ بِثَمَنٍۢ بَخْسٍ دَرَاهِمَ مَعْدُوْدَةٍ ۚ وَكَانُوْا فِيْهِ مِنَ الزَّاهِدِيْنَ 20ۧ |
अगरचे उन्होंने हज़रत युसुफ़ अलै. को माले तिजारत समझ कर छुपाया था, मगर मिस्र पहुँच कर बिल्कुल ही मामूली क़ीमत पर फ़रोख्त कर दिया। उस ज़माने में दिरहम एक दीनार का चौथा हिस्सा होता था। गोया उन्होंने चंद चवन्नियों के एवज़ आपको बेच दिया। इसलिये कि आपके बारे में उस वक़्त तक उन्हें कोई ख़ास दिलचस्पी नहीं रही थी। इसकी दो वजुहात थीं, एक तो आप उनके लिये मुफ्त का माल थे जिस पर उन लोगों का कोई सरमाया वगैरह नहीं लगा था, लिहाज़ा जो मिल गया उन्होंने उसे ग़नीमत जाना। दूसरे उन लोगों को आपकी तरफ़ से हर वक़्त यह धड़का लगा रहता था कि लड़के के वारिस आकर कहीं इसे पहचान ना लें और उन पर चोरी का इल्ज़ाम ना लग जाए। लिहाज़ा वह जल्द अज़ जल्द आपके मामले से जान छुड़ाना चाहते थे।
आयात 21 से 29 तक
وَقَالَ الَّذِي اشْتَرٰىهُ مِنْ مِّصْرَ لِامْرَاَتِهٖٓ اَكْرِمِيْ مَثْوٰىهُ عَسٰٓى اَنْ يَّنْفَعَنَآ اَوْ نَتَّخِذَهٗ وَلَدًا ۭ وَكَذٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوْسُفَ فِي الْاَرْضِ ۡ وَلِنُعَلِّمَهٗ مِنْ تَاْوِيْلِ الْاَحَادِيْثِ ۭ وَاللّٰهُ غَالِبٌ عَلٰٓي اَمْرِهٖ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 21 وَلَمَّا بَلَغَ اَشُدَّهٗٓ اٰتَيْنٰهُ حُكْمًا وَّعِلْمًا ۭ وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِيْنَ 22 وَرَاوَدَتْهُ الَّتِيْ هُوَ فِيْ بَيْتِهَا عَنْ نَّفْسِهٖ وَغَلَّقَتِ الْاَبْوَابَ وَقَالَتْ هَيْتَ لَكَ ۭ قَالَ مَعَاذَ اللّٰهِ اِنَّهٗ رَبِّيْٓ اَحْسَنَ مَثْوَايَ ۭ اِنَّهٗ لَا يُفْلِحُ الظّٰلِمُوْنَ 23 وَلَقَدْ هَمَّتْ بِهٖ ۚ وَهَمَّ بِهَا لَوْلَآ اَنْ رَّاٰ بُرْهَانَ رَبِّهٖ ۭ كَذٰلِكَ لِنَصْرِفَ عَنْهُ السُّوْۗءَ وَالْفَحْشَاۗءَ ۭ اِنَّهٗ مِنْ عِبَادِنَا الْمُخْلَصِيْنَ 24 وَاسْتَبَقَا الْبَابَ وَقَدَّتْ قَمِيْصَهٗ مِنْ دُبُرٍ وَّاَلْفَيَا سَيِّدَهَا لَدَا الْبَابِ ۭ قَالَتْ مَا جَزَاۗءُ مَنْ اَرَادَ بِاَهْلِكَ سُوْۗءًا اِلَّآ اَنْ يُّسْجَنَ اَوْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 25 قَالَ هِىَ رَاوَدَتْنِيْ عَنْ نَّفْسِيْ وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّنْ اَهْلِهَا ۚ اِنْ كَانَ قَمِيْصُهٗ قُدَّ مِنْ قُبُلٍ فَصَدَقَتْ وَهُوَ مِنَ الْكٰذِبِيْنَ 26 وَاِنْ كَانَ قَمِيْصُهٗ قُدَّ مِنْ دُبُرٍ فَكَذَبَتْ وَهُوَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ 27 فَلَمَّا رَاٰ قَمِيْصَهٗ قُدَّ مِنْ دُبُرٍ قَالَ اِنَّهٗ مِنْ كَيْدِكُنَّ ۭ اِنَّ كَيْدَكُنَّ عَظِيْمٌ 28 يُوْسُفُ اَعْرِضْ عَنْ ھٰذَا ۫وَاسْتَغْفِرِيْ لِذَنْۢبِكِ ښ اِنَّكِ كُنْتِ مِنَ الْخٰطِــِٕيْنَ 29ۧ
आयत 21
“और मिस्र के जिस शख्स ने युसुफ़ को ख़रीदा, (उसने) अपनी बीवी से कहा: इसको अच्छे तरीक़े से रखना, हो सकता है यह हमारे लिये नफ़ा बख्श हो या फिर हम इसे अपना बेटा ही बना लें।” | وَقَالَ الَّذِي اشْتَرٰىهُ مِنْ مِّصْرَ لِامْرَاَتِهٖٓ اَكْرِمِيْ مَثْوٰىهُ عَسٰٓى اَنْ يَّنْفَعَنَآ اَوْ نَتَّخِذَهٗ وَلَدًا ۭ |
वह शख्स मिस्र की हुकूमत में बहुत आला मंसब (अज़ीज़े मिस्र) पर फ़ाइज़ था। हज़रत युसुफ़ अलै. को बेटा बनाने की ख्वाहिश से मालूम होता है कि शायद उसके यहाँ औलाद नहीं थी।
“और इस तरह हमने युसुफ़ को उस मुल्क में तमक्कुन (take care) अता किया” | وَكَذٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوْسُفَ فِي الْاَرْضِ ۡ |
इस तरीक़े से अल्लाह तआला ने युसुफ़ अलै. को उस दौर की मुतमद्दन तरीन मम्लकत (Modern Civil Society) में पहुँचा दिया और वहाँ आपकी रिहाइश (रहने) का बंदोबस्त भी किया तो किसी झोंपड़ी में नहीं बल्कि मुल्क के एक बहुत बड़े, साहिबे हैसियत के घर में, और वह भी महज़ एक गुलाम के तौर पर नहीं बल्कि ख़ुसूसी इज्ज़त व इकराम के अंदाज़ में।
“और ताकि हम उसको सिखाएँ बातों की तह तक पहुँचने का इल्म।” | وَلِنُعَلِّمَهٗ مِنْ تَاْوِيْلِ الْاَحَادِيْثِ ۭ |
यानि अज़ीज़े मिस्र के घर में आपको जगह बना कर देने का बुनियादी मक़सद यह था कि वहाँ आप को “मामला फ़हमी” की तरबियत फ़राहम की जाए। अजीज़े मिस्र का घर एक तरह का सेक्रेटरियेट (सचिवालय) होगा जहाँ आए दिन इन्तहाई आला सतह के इजलास (मीटिंग्स) होते होंगे, और क़ौमी व बैनुल अक़वामी नौइयत के इन्तहाई अहम अमूर (इंटरनेशनल मामलों) पर बहस व तम्हीस (छानबीन) के बाद फ़ैसले किये जाते होंगे और हज़रत युसुफ़ को इन तमाम सरगर्मियों का बहुत क़रीब से मुशाहिदा करने के मौक़े मयस्सर आते होंगे। इस तरह बहुत आला सतह की तालीम व तरबियत का एक इंतेज़ाम था जो हज़रत युसुफ़ के लिये यहाँ पर कर दिया गया।
“और अल्लाह तो अपने फ़ैसले पर ग़ालिब है लेकिन अक्सर लोग जानते नहीं हैं।” | وَاللّٰهُ غَالِبٌ عَلٰٓي اَمْرِهٖ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 21 |
अल्लाह तआला अपने इरादे की तन्फीज़ पर ग़ालिब है, वह अपना काम करके रहता है।
आयत 22
“और जब आप अपनी जवानी को पहुँच गए तो हमने आप को हुक्म और इल्म अता किया।” | وَلَمَّا بَلَغَ اَشُدَّهٗٓ اٰتَيْنٰهُ حُكْمًا وَّعِلْمًا ۭ |
“और इसी तरह हम मोहसिनीन को बदला देते हैं।” | وَكَذٰلِكَ نَجْزِي الْمُحْسِنِيْنَ 22 |
हुक्म और इल्म से मुराद नबुवत है। हुक्म के मायने क़ुव्वते फ़ैसला के भी हैं और इक़तदार (ताक़त) के भी। इल्म से मुराद वही है।
आयत 23
“और आपको फ़ुसलाने की कोशिश की उस औरत ने जिसके घर में आप थे” | وَرَاوَدَتْهُ الَّتِيْ هُوَ فِيْ بَيْتِهَا عَنْ نَّفْسِهٖ |
यानि अज़ीज़े मिस्र की बीवी आप पर फ़रिफ्ता (मुग्ध) हो गई। क़ुरान में इसका नाम मज़कूर नहीं, अलबत्ता तौरात में इसका नाम ज़ुलेखा बताया गया है।
“और (एक मौक़े पर) उसने दरवाज़े बंद कर लिए और बोली जल्दी से आ जाओ!” | وَغَلَّقَتِ الْاَبْوَابَ وَقَالَتْ هَيْتَ لَكَ ۭ |
“आप ने फ़रमाया: मैं अल्लाह की पनाह तलब करता हूँ, वह मेरा रब है, उसने मुझे अच्छा ठिकाना दिया है।” | قَالَ مَعَاذَ اللّٰهِ اِنَّهٗ رَبِّيْٓ اَحْسَنَ مَثْوَايَ ۭ |
यहाँ पर “रब” के दोनों मायने लिये जा सकते हैं अल्लाह भी और आक़ा भी। चुनाँचे इस फिक़रे का एक मफ़हूम तो यह है कि वह अल्लाह मेरा रब है और उसने मेरे लिये बहुत अच्छे ठिकाने का इंतेज़ाम किया है, मैं उसकी नाफ़रमानी का कैसे सोच सकता हूँ! दूसरे मायने में इसका मफ़हूम यह है कि आपका खाविंद मेरा आक़ा है, वह मेरा मोहसिन और मुरब्बी भी है, उसने मुझे अपने घर में बहुत इज्ज़त व इकराम से रखा है, और मैं उसकी ख्यानत करके उसके ऐतमाद को ठेस पहुँचाऊँ, यह मुझसे नहीं हो सकता! यह दूसरा मफ़हूम इसलिये भी ज़्यादा मुनासिब है कि “रब” का लफ्ज़ इस सूरत में आक़ा और बादशाह के लिये मुतअद्दिद (कईं) बार इस्तेमाल हुआ है।
“बेशक ज़ालिम लोग फ़लाह नहीं पाया करते।” | اِنَّهٗ لَا يُفْلِحُ الظّٰلِمُوْنَ 23 |
आयत 24
“और उस औरत ने इरादा किया आपका, और आप भी इरादा कर लेते उसका अगर ना देख लेते अपने रब की एक दलील।” | وَلَقَدْ هَمَّتْ بِهٖ ۚ وَهَمَّ بِهَا لَوْلَآ اَنْ رَّاٰ بُرْهَانَ رَبِّهٖ ۭ |
हज़रत युसुफ़ अलै. जवान थे और मुमकिन था कि तबअ बशरी (इंसानी फ़ितरत) की बुनियाद पर आपके दिल में भी कोई ऐसा ख्याल जन्म लेता, मगर अल्लाह ने इस नाज़ुक मौक़े पर आपकी ख़ुसूसी मदद फ़रमाई और अपनी ख़ुसूसी निशानी दिखा कर आपको किसी मनफ़ी (negative) ख्याल से महफ़ूज़ रखा। यह निशानी क्या थी, इसका क़ुरान में कोई ज़िक्र नहीं, अलबत्ता तौरात में इसकी वज़ाहत यूँ बयान की गई है कि ऐन इस मौक़े पर हज़रत याक़ूब अलै. की शक्ल दीवार पर ज़ाहिर हुई और आपने ऊँगली का इशारा करके हज़रत युसुफ़ को बाज़ रहने के लिये कहा।
“यह इसलिये कि हम फ़ेर दें उससे बुराई और बेहयाई को।” | كَذٰلِكَ لِنَصْرِفَ عَنْهُ السُّوْۗءَ وَالْفَحْشَاۗءَ ۭ |
यानि हमने अपनी निशानी दिखा कर हज़रत युसुफ़ से बुराई और बेहयाई का रुख फ़ेर दिया और यूँ आपकी अस्मत व इफ्फ़त (Harmony and Chest) की हिफ़ाज़त का ख़ुसूसी अहतमाम किया।
“यक़ीनन वह हमारे चुने हुए बन्दों में से थे।” | اِنَّهٗ مِنْ عِبَادِنَا الْمُخْلَصِيْنَ 24 |
वाज़ेह रहे कि यहाँ लफ्ज़ मुख्लस (लाम की ज़बर के साथ) आया है। मुख्लिस और मुख्लस के फ़र्क़ को समझ लीजिए। मुख्लिस इस्मुल फ़ाइल है यानि ख़ुलूस व इख्लास से काम करने वाला और मुख्लस वह शख्स है जिसको ख़ालिस कर लिया गया हो। अल्लाह के मुख्लस वह हैं जिनको अल्लाह ने अपने लिये ख़ालिस कर लिया हो, यानि अल्लाह के ख़ास बरगज़ीदा (चुने हुए) और चहेते बन्दे।
आयत 25
“और वह दोनों आगे-पीछे दरवाज़े की तरफ़ दौड़े” | وَاسْتَبَقَا الْبَابَ |
यानि हज़रत युसुफ़ ने जब देखा कि इस औरत की नीयत ख़राब है और इस पर शैतानियत का भूत सवार है तो आप उससे बचने के लिये दरवाज़े की तरफ़ लपके और आपके पीछे वह भी भागी ताकि आपको क़ाबू कर सके।
“और फाड़ दी उस (औरत) ने आपकी क़मीज़ पीछे से” | وَقَدَّتْ قَمِيْصَهٗ مِنْ دُبُرٍ |
आपको दौड़ते हुए देख कर उस औरत ने आपकी तरफ़ तेज़ी से लपक कर पीछे से आपको पकड़ने की कोशिश की तो आपकी क़मीज़ उसके हाथ में आकर फट गई।
“और पाया उन दोनों ने उसके खाविंद को दरवाज़े के पास।” | وَّاَلْفَيَا سَيِّدَهَا لَدَا الْبَابِ ۭ |
उस औरत ने लाज़िमन ऐसे वक़्त का इंतखाब किया होगा जब उसका खाविंद घर से बाहर था और उसके जल्द घर आने का इम्कान नहीं था, मगर ज्योंहि वह दोनों आगे-पीछे दरवाज़े से बाहर निकले तो गैर-मुतवक्क़ो तौर पर उसका खाविंद ऐन दरवाज़े पर खड़ा था।
“वह (फ़ौरन) बोली क्या सज़ा होनी चाहिये ऐसे शख्स की जिसने इरादा किया तुम्हारी बीवी के साथ बुराई का, सिवाय इसके कि इसे जेल भेज दिया जाए या कोई और दर्दनाक सज़ा दी जाए!” | قَالَتْ مَا جَزَاۗءُ مَنْ اَرَادَ بِاَهْلِكَ سُوْۗءًا اِلَّآ اَنْ يُّسْجَنَ اَوْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 25 |
अपने खाविंद को देखते ही उस औरत ने फ़ौरन पैंतरा बदला और उसकी गैरत को ललकारते हुए बोली कि इस लड़के ने मुझ पर दस्तदराज़ी (ज़बरदस्ती) की है और मैंने बड़ी मुश्किल से खुद को बचाया है। अब इससे आप ही समझें और इसे कोई इबरतनाक सज़ा दें।
आयत 26
“आपने फ़रमाया कि इसी ने मुझे फुसलाना चाहा था” | قَالَ هِىَ رَاوَدَتْنِيْ عَنْ نَّفْسِيْ |
सूरतेहाल बहुत नाज़ुक और ख़तरनाक रुख इख्तियार कर चुकी थी। हज़रत युसुफ़ को भी अपने दिफ़ा (बचाव) में कुछ ना कुछ तो कहना था। लिहाज़ा आपने साफ़-साफ़ बता दिया कि खुद इस औरत ने मुझे गुनाह पर आमादा करने की कोशिश की है।
“और गवाही दी औरत के ख़ानदान वालो में से एक गवाह ने।” | وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّنْ اَهْلِهَا ۚ |
उस औरत के अपने रिश्तेदारों से भी कोई शख्स मौक़े पर आ पहुँचा। उसने मौक़ा महल देख कर वक़ूआ (event) के बारे में बड़ी मुदल्लल (logical) और ख़ूबसूरत क़राइनी शहादत (circumstantial evidence) दी कि:
“अगर तो इसकी क़मीज़ फटी है सामने से, तो यह सच्ची है और वह झूठा है।” | اِنْ كَانَ قَمِيْصُهٗ قُدَّ مِنْ قُبُلٍ فَصَدَقَتْ وَهُوَ مِنَ الْكٰذِبِيْنَ 26 |
अगर औरत से दस्तदराज़ी की कोशिश हो रही थी और वह अपना तहफ्फुज़ कर रही थी तो ज़ाहिर है कि हमलावर की क़मीज़ सामने से फटनी चाहिए।
आयत 27
“और अगर इसकी क़मीज़ फटी है पीछे से, तो फिर यह झूठी है और वह सच्चा है।” | وَاِنْ كَانَ قَمِيْصُهٗ قُدَّ مِنْ دُبُرٍ فَكَذَبَتْ وَهُوَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ 27 |
इस आदिलाना और हकीमाना गवाही से मालूम होता है कि जहाँ उस मआशरे में बहुत सी खराबियाँ थीं (जिनमें से कुछ का ज़िक्र आगे आएगा) वहाँ इस गवाही देने वाले शख्स जैसे हक़ गो और इंसाफ़ पसंद लोग भी मौजूद थे जिसने क़राबतदार होते हुए भी हक़ और इंसाफ़ की बात की।
आयत 28
“फिर जब उस (अज़ीज़े मिस्र) ने देखा कि आपकी क़मीज़ फटी हुई है पीछे से, तो उसने कहा कि यह तुम औरतों की चालों में से (एक चाल) है, यक़ीनन तुम औरतों के फ़रेब बहुत बड़े होते हैं।” | فَلَمَّا رَاٰ قَمِيْصَهٗ قُدَّ مِنْ دُبُرٍ قَالَ اِنَّهٗ مِنْ كَيْدِكُنَّ ۭ اِنَّ كَيْدَكُنَّ عَظِيْمٌ 28 |
फ़िर अज़ीज़े मिस्र ने हज़रत युसुफ़ से कहा:
आयत 29
“युसुफ़! इस मामले से दरगुज़र करो।” | يُوْسُفُ اَعْرِضْ عَنْ ھٰذَا ۫ |
इसके बाद वह अपनी बीवी से मुखातिब हुआ और बोला:
“और तुम अपने गुनाह की माफ़ी माँगो, यक़ीनन क़सूरवार तुम ही हो।” | وَاسْتَغْفِرِيْ لِذَنْۢبِكِ ښ اِنَّكِ كُنْتِ مِنَ الْخٰطِــِٕيْنَ 29ۧ |
आयात 30 से 35 तक
وَقَالَ نِسْوَةٌ فِي الْمَدِيْنَةِ امْرَاَتُ الْعَزِيْزِ تُرَاوِدُ فَتٰىهَا عَنْ نَّفْسِهٖ ۚ قَدْ شَغَفَهَا حُبًّا ۭ اِنَّا لَنَرٰىهَا فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ 30 فَلَمَّا سَمِعَتْ بِمَكْرِهِنَّ اَرْسَلَتْ اِلَيْهِنَّ وَاَعْتَدَتْ لَهُنَّ مُتَّكَاً وَّاٰتَتْ كُلَّ وَاحِدَةٍ مِّنْهُنَّ سِكِّيْنًا وَّقَالَتِ اخْرُجْ عَلَيْهِنَّ ۚ فَلَمَّا رَاَيْنَهٗٓ اَكْبَرْنَهٗ وَقَطَّعْنَ اَيْدِيَهُنَّ ۡ وَقُلْنَ حَاشَ لِلّٰهِ مَا ھٰذَا بَشَرًا ۭ اِنْ ھٰذَآ اِلَّا مَلَكٌ كَرِيْمٌ 31 قَالَتْ فَذٰلِكُنَّ الَّذِيْ لُمْتُنَّنِيْ فِيْهِ ۭ وَلَقَدْ رَاوَدْتُّهٗ عَنْ نَّفْسِهٖ فَاسْتَعْصَمَ ۭ وَلَىِٕنْ لَّمْ يَفْعَلْ مَآ اٰمُرُهٗ لَيُسْجَنَنَّ وَلَيَكُوْنًا مِّنَ الصّٰغِرِيْنَ 32 قَالَ رَبِّ السِّجْنُ اَحَبُّ اِلَيَّ مِمَّا يَدْعُوْنَنِيْٓ اِلَيْهِ ۚ وَاِلَّا تَصْرِفْ عَنِّيْ كَيْدَهُنَّ اَصْبُ اِلَيْهِنَّ وَاَكُنْ مِّنَ الْجٰهِلِيْنَ 33 فَاسْتَجَابَ لَهٗ رَبُّهٗ فَصَرَفَ عَنْهُ كَيْدَهُنَّ ۭ اِنَّهٗ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 34 ثُمَّ بَدَا لَهُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا رَاَوُا الْاٰيٰتِ لَيَسْجُنُنَّهٗ حَتّٰي حِيْنٍ 35ۧ
आयत 30
“और शहर में औरतों ने (इस वाक़िये का ज़िक्र करते हुए) कहा कि अज़ीज़ की बीवी तो अपने गुलाम को फुसला रही है।” | وَقَالَ نِسْوَةٌ فِي الْمَدِيْنَةِ امْرَاَتُ الْعَزِيْزِ تُرَاوِدُ فَتٰىهَا عَنْ نَّفْسِهٖ ۚ |
“वह उसकी मोहब्बत में गिरफ़्तार हो चुकी है।” | قَدْ شَغَفَهَا حُبًّا ۭ |
“यक़ीनन हम देखते हैं कि वह बहुत भटक गई है।” | اِنَّا لَنَرٰىهَا فِيْ ضَلٰلٍ مُّبِيْنٍ 30 |
उसका अपने गुलाम के साथ इस तरह का मामला! यह तो बहुत ही घटिया बात है!
आयत 31
“फ़िर जब उसने सुनी उनकी मक्काराना बातें” | فَلَمَّا سَمِعَتْ بِمَكْرِهِنَّ |
अज़ीज़े मिस्र की बीवी ने जब सुना कि शहर में उसके ख़िलाफ़ इस तरह के चर्चे हो रहे हैं और मिस्र की औरतें ऐसी तअन आमेज़ बातें कर रही हैं तो उसने भी जवाबी कार्रवाई का मंसूबा बना लिया। यह उस मआशरे के इन्तहाई आला सतह के लोगों की बात थी और इसका चर्चा भी उसी सतह पर हो रहा था। उसे भी अपने इर्द-गिर्द सब लोगों के किरदार का पता था, कहाँ क्या खराबी है और किसके यहाँ कितनी गंदगी है वह सब जानती थी। चुनाँचे उसने उस आला सोसाइटी के इज्तमाई किरदार का भांडा बीच चौराहे में फोड़ने का फ़ैसला कर लिया।
“उसने दावत दी उन सबको और अहतमाम किया एक तकियेदार मजलिस का” | اَرْسَلَتْ اِلَيْهِنَّ وَاَعْتَدَتْ لَهُنَّ مُتَّكَاً |
उसने खाने की एक पुरतकल्लुफ़ तक़रीब का अहतमाम किया जिसमें मेहमान औरतों के लिये गाव तकिये लगे हुए थे।
“और उनमें से हर औरत को उसने एक छुरी दे दी” | وَّاٰتَتْ كُلَّ وَاحِدَةٍ مِّنْهُنَّ سِكِّيْنًا |
खाने की चीज़ों में फ़ल वगैरह भी होंगे, चुनाँचे हर मेहमान औरत के सामने एक-एक छुरी भी रख दी गई।
“और (युसुफ़ से) कहा कि अब तुम इनके सामने आओ!” | وَّقَالَتِ اخْرُجْ عَلَيْهِنَّ ۚ |
“फिर जब उन्होंने युसुफ़ को देखा तो उसे बहुत अज़ीम जाना (शशदर [हैरान] रह गईं)” | فَلَمَّا رَاَيْنَهٗٓ اَكْبَرْنَهٗ |
“और उन सबने अपने हाथ काट लिए” | وَقَطَّعْنَ اَيْدِيَهُنَّ ۡ |
औरतों ने जब पाकीज़गी और तक़द्दुस का पैकर एक जवाने रअना अपने सामने खड़ा देखा तो मबहूत होकर रह गईं। सबकी सब आपके हुस्न व जमाल पर ऐसी फ़रिफ्ता हुईं कि अपने-अपने हाथ ज़ख़्मी कर लिये। मुमकिन है किसी एक औरत का हाथ तो वाक़ई आलमे हैरत व महवियत में कट गया हो और उसकी तरफ़ हज़रत युसुफ़ बहैसियत खादिम के मुतवज्जा हुए हों कि खून साफ़ करके पट्टी वगैरह कर दें और यह देख कर बाक़ी सबने भी अपनी-अपनी उंगलियाँ दानिस्ता काट ली हों कि इस तरह यही इल्तफ़ात (तवज्जो) उन्हें भी मिलेगा। क़त्तअ बाबे तफ़ईल है, जिसमें किसी काम को पूरे अहतमाम और इरादे से करने के मायने पाए जाते हैं।
“और वह पुकार उठीं कि हाशा लिल्लाह यह कोई आदमी तो नहीं! यह तो कोई बहुत बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है।” | وَقُلْنَ حَاشَ لِلّٰهِ مَا ھٰذَا بَشَرًا ۭ اِنْ ھٰذَآ اِلَّا مَلَكٌ كَرِيْمٌ 31 |
आयत 32
“तो उस औरत ने कहा कि यह है वह जिसके बारे में तुम मुझे मलामत कर रही थीं।” | قَالَتْ فَذٰلِكُنَّ الَّذِيْ لُمْتُنَّنِيْ فِيْهِ ۭ |
“और यक़ीनन मैंने इसे फुसलाना चाहा था लेकिन वह बचा रहा।” | وَلَقَدْ رَاوَدْتُّهٗ عَنْ نَّفْسِهٖ فَاسْتَعْصَمَ ۭ |
“और अगर इसने वह ना किया जो मैं इसे हुक्म दे रही हूँ तो वह लाज़िमन क़ैद में पड़ेगा और ज़रूर ज़लील होकर रहेगा।” | وَلَىِٕنْ لَّمْ يَفْعَلْ مَآ اٰمُرُهٗ لَيُسْجَنَنَّ وَلَيَكُوْنًا مِّنَ الصّٰغِرِيْنَ 32 |
उस औरत का धडल्ले से ख़ुसूसी दावत का अहतमाम करना और उसमें सबको फ़ख्र से बताना कि देख लो यह है वह शख्स जिसके बारे में तुम मुझे मलामत करती थीं, और फिर पूरी बेहयाई से ऐलान करना कि एक दफ़ा तो यह मुझसे बच गया मगर कब तक? आख़िरकार इसे मेरी बात माननी होगी! इससे तस्सवुर किया जा सकता है कि उनकी इस इन्तहाई ऊँची सतह की सोसायटी की मजमूई तौर पर अखलाक़ी हालत क्या थी!
आयत 33
“युसुफ़ ने दुआ की: ऐ मेरे परवरदिगार! मुझे क़ैद ज़्यादा पसंद है उस चीज़ से जिसकी तरफ़ यह मुझे बुला रही हैं।” | قَالَ رَبِّ السِّجْنُ اَحَبُّ اِلَيَّ مِمَّا يَدْعُوْنَنِيْٓ اِلَيْهِ ۚ |
“और अगर तूने मुझसे दूर ना कर दिया इनकी चालों को तो (हो सकता है) मैं भी इनकी तरफ़ माइल हो जाऊँ और जाहिलों में से हो जाऊँ।” | وَاِلَّا تَصْرِفْ عَنِّيْ كَيْدَهُنَّ اَصْبُ اِلَيْهِنَّ وَاَكُنْ مِّنَ الْجٰهِلِيْنَ 33 |
आयत 34
“तो आपके रब ने आपकी दुआ क़ुबूल करली और उन औरतों की चालों को आपसे फेर दिया। यक़ीनन वही है सुनने वाला, जानने वाला।” | فَاسْتَجَابَ لَهٗ رَبُّهٗ فَصَرَفَ عَنْهُ كَيْدَهُنَّ ۭ اِنَّهٗ هُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 34 |
आयत 35
“फिर उन लोगों को यह बात सूझी सारी निशानियाँ देख लेने के बाद कि इसको कुछ अरसे के लिये जेल में डाल दिया जाए।” | ثُمَّ بَدَا لَهُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا رَاَوُا الْاٰيٰتِ لَيَسْجُنُنَّهٗ حَتّٰي حِيْنٍ 35ۧ |
उस तक़रीब (function) में जो कुछ हुआ उस मामले को पोशीदा (छुपा) रखना मुमकिन नहीं था, चुनाँचे अरबाबे इख्तियार ने जब यह सारे हालात देखे तो उन्हें आफ़ियत और मसलिहत इसी में नज़र आई कि हज़रत युसुफ़ को वक़्ती तौर पर मंज़र से हटा दिया जाए और इसके लिये मुनासिब यही है कि कुछ अरसे के लिये इन्हें जेल में डाल दिया जाए।
आयात 36 से 42 तक
وَدَخَلَ مَعَهُ السِّجْنَ فَتَيٰنِ ۭ قَالَ اَحَدُهُمَآ اِنِّىْٓ اَرٰىنِيْٓ اَعْصِرُ خَمْرًا ۚ وَقَالَ الْاٰخَرُ اِنِّىْٓ اَرٰىنِيْٓ اَحْمِلُ فَوْقَ رَاْسِيْ خُبْزًا تَاْكُلُ الطَّيْرُ مِنْهُ ۭ نَبِّئْنَا بِتَاْوِيْـلِهٖ ۚ اِنَّا نَرٰىكَ مِنَ الْمُحْسِنِيْنَ 36 قَالَ لَا يَاْتِيْكُمَا طَعَامٌ تُرْزَقٰنِهٖٓ اِلَّا نَبَّاْتُكُمَا بِتَاْوِيْـلِهٖ قَبْلَ اَنْ يَّاْتِيَكُمَا ۭ ذٰلِكُمَا مِمَّا عَلَّمَنِيْ رَبِّيْ ۭ اِنِّىْ تَرَكْتُ مِلَّةَ قَوْمٍ لَّا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَهُمْ بِالْاٰخِرَةِ هُمْ كٰفِرُوْنَ 37 وَاتَّبَعْتُ مِلَّةَ اٰبَاۗءِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ ۭ مَا كَانَ لَنَآ اَنْ نُّشْرِكَ بِاللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ ۭ ذٰلِكَ مِنْ فَضْلِ اللّٰهِ عَلَيْنَا وَعَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُوْنَ 38 يٰصَاحِبَيِ السِّجْنِءَاَرْبَابٌ مُّتَفَرِّقُوْنَ خَيْرٌ اَمِ اللّٰهُ الْوَاحِدُ الْقَهَّارُ 39ۭ مَا تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلَّآ اَسْمَاۗءً سَمَّيْتُمُوْهَآ اَنْتُمْ وَاٰبَاۗؤُكُمْ مَّآ اَنْزَلَ اللّٰهُ بِهَا مِنْ سُلْطٰنٍ ۭ اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلّٰهِ ۭ اَمَرَ اَلَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّآ اِيَّاهُ ۭ ذٰلِكَ الدِّيْنُ الْقَيِّمُ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 40 يٰصَاحِبَيِ السِّجْنِ اَمَّآ اَحَدُكُمَا فَيَسْقِيْ رَبَّهٗ خَمْرًا ۚ وَاَمَّا الْاٰخَرُ فَيُصْلَبُ فَتَاْكُلُ الطَّيْرُ مِنْ رَّاْسِهٖ ۭ قُضِيَ الْاَمْرُ الَّذِيْ فِيْهِ تَسْتَفْتِيٰنِ 41ۭ وَقَالَ لِلَّذِيْ ظَنَّ اَنَّهٗ نَاجٍ مِّنْهُمَا اذْكُرْنِيْ عِنْدَ رَبِّكَ ۡ فَاَنْسٰىهُ الشَّيْطٰنُ ذِكْرَ رَبِّهٖ فَلَبِثَ فِي السِّجْنِ بِضْعَ سِنِيْنَ 42ۧ
आयत 36
“और दाख़िल हुए आपके साथ जेल में दो नौजवान।” | وَدَخَلَ مَعَهُ السِّجْنَ فَتَيٰنِ ۭ |
जब हज़रत युसुफ़ अलै. को जेल भेजा गया तो इत्तेफ़ाक़न उसी मौक़े पर दो और क़ैदी भी आपके साथ जेल में दाख़िल किये गए।
“उनमें से एक ने कहा कि मैंने अपने आप को ख़्वाब में देखा है कि मैं शराब कशीद कर रहा हूँ।” | قَالَ اَحَدُهُمَآ اِنِّىْٓ اَرٰىنِيْٓ اَعْصِرُ خَمْرًا ۚ |
“और दूसरे ने कहा कि मैंने अपने आप को ख़्वाब में देखा है कि मैं सिर पर रोटियाँ उठाये हुए हूँ और परिंदे उसमें से खा रहे हैं।” | وَقَالَ الْاٰخَرُ اِنِّىْٓ اَرٰىنِيْٓ اَحْمِلُ فَوْقَ رَاْسِيْ خُبْزًا تَاْكُلُ الطَّيْرُ مِنْهُ ۭ |
“हमें इन ख़्वाबों की ताबीर बता दीजिये, हम आपको बहुत नेकोकार देखते हैं।” | نَبِّئْنَا بِتَاْوِيْـلِهٖ ۚ اِنَّا نَرٰىكَ مِنَ الْمُحْسِنِيْنَ 36 |
हम देख रहे हैं कि आप दूसरे क़ैदियों से बिल्कुल मुख्तलिफ़ हैं। आप आला अख्लाक़ और क़ाबिले रश्क किरदार के मालिक हैं। हमें उम्मीद है कि आप हमारे ख़्वाबों के सिलसिले में ज़रूर हमारी रहनुमाई फ़रमाएंगे।
आयत 37
“युसुफ़ ने फ़रमाया कि तुम लोगों को जो खाना दिया जाता है उसके आने से पहले-पहले मैं तुम दोनों को इसकी ताबीर बता दूँगा।” | قَالَ لَا يَاْتِيْكُمَا طَعَامٌ تُرْزَقٰنِهٖٓ اِلَّا نَبَّاْتُكُمَا بِتَاْوِيْـلِهٖ قَبْلَ اَنْ يَّاْتِيَكُمَا ۭ |
जेल में क़ैदियों के खाने के अवक़ात मुक़र्रर होंगे। आपने फ़रमाया कि आप लोग अब ताबीर के बारे में फ़िक्र मत करो, वह तो मैं खाना आने से पहले-पहले बता दूँगा, लेकिन मैं तुम लोगों से इसके अलावा भी बात करना चाहता हूँ, लिहाज़ा इस वक़्त तुम लोग मेरी बात सुनो। हज़रत युसुफ़ अलै. का यह तरीक़ा एक दाई-ए-हक़ के लिये रहनुमाई का ज़रिया है। एक दाई की हर वक़्त यह कोशिश होनी चाहिए कि तब्लीग के लिये, हक़ बात लोगों तक पहुँचाने के लिये जब और जहाँ मौक़ा मैयस्सर आए उससे फ़ायदा उठाये। चुनाँचे हज़रत युसुफ़ अलै. ने देखा कि लोग मेरी तरफ़ ख़ुद मुतवज्जा हुए हैं तो आपने इस मौक़े को ग़नीमत जाना और उनकी हाजत को मौअख्खर करके पहले उन्हें पैगामे हक़ पहुँचाना ज़रूरी समझा।
“यह उस इल्म में से है जो मेरे रब ने मुझे सिखाया है।” | ذٰلِكُمَا مِمَّا عَلَّمَنِيْ رَبِّيْ ۭ |
आपने उन्हीं की बात को आगे बढ़ाते हुए अपनी बात शुरू की और ख़्वाबों की ताबीर के हवाले से अल्लाह तआला का तआर्रुफ़ कराया, कि यह इल्म मुझे मेरे रब ने सिखाया है, इसमें मेरा अपना कोई कमाल नहीं है।
“(देखो!) मैंने तर्क कर दिया है उस क़ौम का रास्ता जो अल्लाह पर ईमान नहीं रखते और आख़िरत के यही लोग मुन्कर हैं।” | اِنِّىْ تَرَكْتُ مِلَّةَ قَوْمٍ لَّا يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَهُمْ بِالْاٰخِرَةِ هُمْ كٰفِرُوْنَ 37 |
आयत 38
“और मैंने पैरवी की है अपने आबा इब्राहीम, इस्हाक़ और याक़ूब (अलै.) के तरीक़े की।” | وَاتَّبَعْتُ مِلَّةَ اٰبَاۗءِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ ۭ |
आपकी इस बात से मौरूसी और शऊरी अक़ाएद (heritage & conscious beliefs) का फ़र्क़ समझ में आता है। यानि एक तो वह अक़ाएद व नज़रियात हैं जो बच्चा अपने वालिदैन से अपनाता है, जैसे एक मुसलमान घराने में बच्चे को मौरूसी (विरासती) तौर पर इस्लाम के अक़ाएद मिलते हैं। अल्लाह और रसूल का नाम वह बचपन ही से जानता है, इब्तदाई कलिमे उसको पढ़ा दिए जाते हैं, नमाज़ भी सिखा दी जाती है। लेकिन अगर वह शऊर (conscious) की उम्र को पहुँचने के बाद अपने आज़ादाना इन्तखाब के नतीजे में अपने इल्म और गौर व फ़िक्र से कोई अक़ीदा (belief) इख्तियार करेगा तो वह उसका शऊरी अक़ीदा होगा। चुनाँचे हज़रत युसुफ़ अलै. ने अपने इस शऊरी अक़ीदे का ज़िक्र किया कि अगरचे वह जिन लोगों के दरमियान ज़िन्दगी गुज़ार रहे हैं, वह अल्लाह, उसके किसी नबी और वही वगैरह के तसव्वुरात से नाबलद (unaware) हैं, सबके सब काफ़िर और मुशरिक हैं, मगर मुझे देखो मैंने इस माहौल का असर क़ुबूल नहीं किया, और अपने इर्द-गिर्द के लोगों के नज़रियात और अक़ाएद नहीं अपनाए, बल्कि पूरे शऊर के साथ अपने आबा व अजदाद के नज़रियात को सही मानते हुए उनकी पैरवी कर रहा हूँ, सिर्फ़ इसलिये नहीं कि वह मेरे आबा व अजदाद थे, बल्कि इसलिये कि यही सही रास्ता मेरे नज़दीक माक़ूल और अक़्ले सलीम के क़रीबतर है।
“(देखो!) हमारे लिये यह रवा नहीं है कि हम अल्लाह के साथ किसी भी शय को शरीक करें।” | وَيَعْقُوْبَ ۭ مَا كَانَ لَنَآ اَنْ نُّشْرِكَ بِاللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ ۭ |
“यह अल्लाह का बड़ा फ़ज़ल है हम पर और सब लोगों पर लेकिन अक्सर लोग शुक्र नहीं करते।” | ذٰلِكَ مِنْ فَضْلِ اللّٰهِ عَلَيْنَا وَعَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُوْنَ 38 |
यानि शिर्क से बचने और तौहीद को अपनाने का अक़ीदा दरअसल अल्लाह का अपने बन्दों पर बहुत बड़ा फ़ज़ल है, क्यूंकि अल्लाह तआला ने इंसान को अशरफ़ुल मख्लूक़ात बनाया है। इस हैसियत में इंसान के शायाने शान नहीं है कि वह उन चीज़ों की परस्तिश करता फिरे जिन्हें खुद उसकी ख़िदमत और इस्तफ़ादे (इस्तेमाल) के लिये पैदा किया गया है।
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आयत 39
“ऐ मेरे जेल के दोनों साथियों! क्या बहुत से मुतफ़र्रिक़ रब बेहतर हैं या अकेला अल्लाह जो सब पर हावी व ग़ालिब है?” | يٰصَاحِبَيِ السِّجْنِءَاَرْبَابٌ مُّتَفَرِّقُوْنَ خَيْرٌ اَمِ اللّٰهُ الْوَاحِدُ الْقَهَّارُ 39ۭ |
आयत 40
“नहीं पूजते तुम उस (अल्लाह) के सिवा मगर चंद नामों को जो मौसूम कर रखे हैं तुम लोगों ने और तुम्हारे आबा व अजदाद ने” | مَا تَعْبُدُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلَّآ اَسْمَاۗءً سَمَّيْتُمُوْهَآ اَنْتُمْ وَاٰبَاۗؤُكُمْ |
“नहीं उतारी अल्लाह ने उनके लिये सनद। इख्तियारे मुतलक़ तो सिर्फ़ अल्लाह ही का है।” | مَّآ اَنْزَلَ اللّٰهُ بِهَا مِنْ سُلْطٰنٍ ۭ اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلّٰهِ ۭ |
क़ानून बनाने और उसके मुताबिक़ हुक्म चलाने का इख्तियार सिर्फ़ अल्लाह का है।
“उसने हुक्म दिया है कि तुम उसके सिवा किसी की बंदगी मत करो!” | اَمَرَ اَلَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّآ اِيَّاهُ ۭ |
“यही है दीन सीधा (और हमेशा से क़ायम व दायम) लेकिन अक्सर लोग इल्म नहीं रखते।” | ذٰلِكَ الدِّيْنُ الْقَيِّمُ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 40 |
आयत 41
“ऐ मेरे जेल के दोनों साथियों! तुम में से एक तो अपने आक़ा को शराब पिलाएगा।” | يٰصَاحِبَيِ السِّجْنِ اَمَّآ اَحَدُكُمَا فَيَسْقِيْ رَبَّهٗ خَمْرًا ۚ |
यहाँ पर रब का लफ्ज़ बादशाह के लिये इस्तेमाल हुआ है। यह उस शख्स के ख्व़ाब की ताबीर है जिसने खुद को शराब कशीद करते हुए देखा था। यह शख्स पहले भी बादशाह का साक़ी था मगर इस पर कोई इल्ज़ाम लगा और इसे जेल भेज दिया गया। हज़रत युसुफ़ अलै. ने ख़बर दे दी कि इसके ख्व़ाब के मुताबिक़ वह इस इल्ज़ाम से बरी होकर अपने पुराने ओहदे पर बहाल हो जाएगा।
“और जो दूसरा है उसे सूली दे दी जाएगी और परिंदे उसके सिर में से (नोंच-नोंच कर) खायेंगे।” | وَاَمَّا الْاٰخَرُ فَيُصْلَبُ فَتَاْكُلُ الطَّيْرُ مِنْ رَّاْسِهٖ ۭ |
“फ़ैसला कर दिया गया है उस मामले का जिसके बारे में तुम दोनों मुझसे पूछ रहे थे।” | قُضِيَ الْاَمْرُ الَّذِيْ فِيْهِ تَسْتَفْتِيٰنِ 41ۭ |
आयत 42
“और युसुफ़ ने कहा उस शख्स से जिसके बारे में आपने गुमान किया कि वह उन दोनों में से निजात पाएगा कि अपने आक़ा से मेरा ज़िक्र भी करना।” | وَقَالَ لِلَّذِيْ ظَنَّ اَنَّهٗ نَاجٍ مِّنْهُمَا اذْكُرْنِيْ عِنْدَ رَبِّكَ ۡ |
यानि तुम्हें कभी मौक़ा मिले तो बादशाह को बताना कि जेल में एक ऐसा क़ैदी भी है जिसका कोई क़सूर नहीं और उसे ख्वाह मख्वाह जेल में डाल दिया गया है।
“तो उसे भुलाए रखा शैतान ने ज़िक्र करना अपने आक़ा से, तो आप रहे जेल में कईं बरस तक।” | فَاَنْسٰىهُ الشَّيْطٰنُ ذِكْرَ رَبِّهٖ فَلَبِثَ فِي السِّجْنِ بِضْعَ سِنِيْنَ 42ۧ |
بِضْعَ का लफ्ज़ अरबी ज़बान में दो से लेकर नौ तक (दस से कम) की तादाद के लिये इस्तेमाल होता है।
आयात 43 से 49 तक
وَقَالَ الْمَلِكُ اِنِّىْٓ اَرٰي سَبْعَ بَقَرٰتٍ سِمَانٍ يَّاْكُلُهُنَّ سَبْعٌ عِجَافٌ وَّسَبْعَ سُنْۢبُلٰتٍ خُضْرٍ وَّاُخَرَ يٰبِسٰتٍ ۭ يٰٓاَيُّهَا الْمَلَاُ اَفْتُوْنِيْ فِيْ رُءْيَايَ اِنْ كُنْتُمْ لِلرُّءْيَا تَعْبُرُوْنَ 43 قَالُوْٓا اَضْغَاثُ اَحْلَامٍ ۚ وَمَا نَحْنُ بِتَاْوِيْلِ الْاَحْلَامِ بِعٰلِمِيْنَ 44 وَقَالَ الَّذِيْ نَجَا مِنْهُمَا وَادَّكَرَ بَعْدَ اُمَّةٍ اَنَا اُنَبِّئُكُمْ بِتَاْوِيْـلِهٖ فَاَرْسِلُوْنِ 45 يُوْسُفُ اَيُّهَا الصِّدِّيْقُ اَفْتِنَا فِيْ سَبْعِ بَقَرٰتٍ سِمَانٍ يَّاْكُلُهُنَّ سَبْعٌ عِجَافٌ وَّسَبْعِ سُنْۢبُلٰتٍ خُضْرٍ وَّاُخَرَ يٰبِسٰتٍ ۙ لَّعَلِّيْٓ اَرْجِعُ اِلَى النَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَعْلَمُوْنَ 46 قَالَ تَزْرَعُوْنَ سَبْعَ سِنِيْنَ دَاَبًا ۚ فَمَا حَصَدْتُّمْ فَذَرُوْهُ فِيْ سُنْۢبُلِهٖٓ اِلَّا قَلِيْلًا مِّمَّا تَاْكُلُوْنَ 47 ثُمَّ يَاْتِيْ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ سَبْعٌ شِدَادٌ يَّاْكُلْنَ مَا قَدَّمْتُمْ لَهُنَّ اِلَّا قَلِيْلًا مِّمَّا تُحْصِنُوْنَ 48 ثُمَّ يَاْتِيْ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ عَامٌ فِيْهِ يُغَاثُ النَّاسُ وَفِيْهِ يَعْصِرُوْنَ 49ۧ
आयत 43
“और बादशाह ने कहा है कि मैं ख्व़ाब में देखता हूँ कि सात मोटी गायें हैं, जिनको खा रही हैं सात दुबली गायें” | وَقَالَ الْمَلِكُ اِنِّىْٓ اَرٰي سَبْعَ بَقَرٰتٍ سِمَانٍ يَّاْكُلُهُنَّ سَبْعٌ عِجَافٌ |
अब यहाँ से इस क़िस्से का नया बाब शुरू हो रहा है। उस वक़्त मिस्र पर फ़राअना (फ़िरऔन) की हुकूमत नहीं थी, बल्कि वहाँ चरवाहे बादशाह हुक्मरान थे। तारीख़ में अक्सर ऐसे वाक़ियात मिलते हैं कि कुछ सहराई क़बीलों ने क़ुव्वत हासिल करके मुतमद्दन (moderate) इलाक़ों पर चढ़ाई की, फिर या तो वो लूट-मार करके वापस चले गए या उन इलाक़ों पर अपनी हुकूमतें क़ायम कर लीं। ऐसी ही एक मिसाल मिस्र के चरवाहे बादशाहों की है जो सहराई क़बीलों से ताल्लुक़ रखते थे। उन्होंने किसी ज़माने में मिस्र पर हमला किया और मक़ामी लोगों (क़िब्ती क़ौम) को गुलाम बना कर वहाँ अपनी हुकूमत क़ायम कर ली। यहाँ जिस बादशाह का ज़िक्र है वह इसी ख़ानदान से था। इस बादशाह के किरदार और रवैय्ये की जो झलक इस क़िस्से में दिखाई गई है इससे मालूम होता है कि वह अगरचे तौहीद व रिसालत से नाबलद (unaware) था मगर एक नेक सरश्त इंसान था।
“और सात बालियाँ हैं हरी और दूसरी (सात) खुश्क।” | وَّسَبْعَ سُنْۢبُلٰتٍ خُضْرٍ وَّاُخَرَ يٰبِسٰتٍ ۭ |
“तो ऐ मेरे दरबारियों! मुझे बताओ ताबीर मेरे ख्व़ाब की अगर तुम लोग ख्व़ाबों की ताबीर कर सकते हो।” | يٰٓاَيُّهَا الْمَلَاُ اَفْتُوْنِيْ فِيْ رُءْيَايَ اِنْ كُنْتُمْ لِلرُّءْيَا تَعْبُرُوْنَ 43 |
आयत 44
“उन्होंने कहा कि यह तो परेशान ख्यालात हैं, और ऐसे ख़्वाबों की ताबीर हम नहीं जानते।” | قَالُوْٓا اَضْغَاثُ اَحْلَامٍ ۚ وَمَا نَحْنُ بِتَاْوِيْلِ الْاَحْلَامِ بِعٰلِمِيْنَ 44 |
बादशाह के ख्व़ाब को सुन कर उन्होंने जवाब दिया कि यह कोई मअनवी ख्व़ाब नहीं, ऐसे ही बेमअनी और मुन्तशिर क़िस्म के ख़यालात हैं जिनकी हम कोई ताबीर नहीं कर सकते। फ़्राईड का भी यही ख़याल है कि ख्व़ाब में इंसान अपने श्हवानी (कामुक) ख्यालात और दूसरी दबी हुई नफ़सानी ख्वाहिशात की तस्कीन (satisfaction) करना चाहता है, मगर इस्लामी नुक्ता-ए-नज़र से ख्व़ाब तीन क़िस्म के होते हैं। पहली क़िस्म “रुअया-ए-सादक़ा” की है यानि सच्चे ख्व़ाब, यह अल्लाह की तरफ़ से होते हैं और ऐसे ख़्वाबों के बारे में हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया है कि यह नबुवत के अज्ज़ाअ (घटकों) में से है। दूसरी क़िस्म के ख्व़ाब वह हैं जो शैतान की तरफ़ से होते हैं और इनमें बाज़ अवक़ात श्यातीने जिन्न अपनी तरफ़ से ख्यालात इंसानों के ज़हनों में इल्हाम भी करते हैं। तीसरी क़िस्म के ख्व़ाब वह हैं जिनका ज़िक्र फ़्राईड ने किया है। यानि इंसान के अपने ही ख्यालात मुन्तशिर अंदाज़ में मुख्तलिफ़ वजुहात की बिना पर सोते वक़्त इंसान के ज़हन में आते हैं और इनमें कोई मायने या रब्त होना ज़रूरी नहीं होता।
आयत 45
“और कहा उस शख्स ने जो उन दोनों (क़ैदियों) में से निज़ात पा गया था और एक तवील अरसे के बाद उसे (अचानक) याद आ गया” | وَقَالَ الَّذِيْ نَجَا مِنْهُمَا وَادَّكَرَ بَعْدَ اُمَّةٍ |
वह शख्स जेल से रिहा होकर फिर र से साक़ीगिरी कर रहा था। उसे बादशाह के ख्व़ाब के ज़िक्र से अचानक हज़रत युसुफ़ अलै. याद आ गए कि हाँ जेल में एक शख्स है जो ख्वाबों की ताबीर बताने में बड़ा माहिर है।
“(उसने कहा) मैं बता दूँगा तुम लोगों को इसकी ताबीर, बस मुझे ज़रा (क़ैदखाने में युसुफ़ के पास) भेज दें।” | اَنَا اُنَبِّئُكُمْ بِتَاْوِيْـلِهٖ فَاَرْسِلُوْنِ 45 |
इस तरह वह शख्स जेल में हज़रत युसुफ़ अलै. के पास पहुँच कर आपसे मुखातिब हुआ:
आयत 46
“ऐ युसुफ़! ऐ रास्तबाज! हमें ताबीर बताइये सात मोटी गायों के बारे में कि उन्हें खा रही हैं सात दुबली, और सात सब्ज़ बालियों और दूसरी (सात) खुश्क बालियों के बारे में” | يُوْسُفُ اَيُّهَا الصِّدِّيْقُ اَفْتِنَا فِيْ سَبْعِ بَقَرٰتٍ سِمَانٍ يَّاْكُلُهُنَّ سَبْعٌ عِجَافٌ وَّسَبْعِ سُنْۢبُلٰتٍ خُضْرٍ وَّاُخَرَ يٰبِسٰتٍ ۙ |
“ताकि मैं वापस जाऊँ (ताबीर) लेकर उन लोगों के पास, ताकि उन्हें भी मालूम हो जाए।” | لَّعَلِّيْٓ اَرْجِعُ اِلَى النَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَعْلَمُوْنَ 46 |
आयत 47
“युसुफ़ अलै. ने (ताबीर बताते हुए) फ़रमाया कि तुम सात साल तक ख़ूब ज़राअत (कृषि) करोगे लगातार।” | قَالَ تَزْرَعُوْنَ سَبْعَ سِنِيْنَ دَاَبًا ۚ |
“तो (इस दौरान में) जो फ़सल भी तुम काटो उसे रहने देना उसकी बालियों में ही, सिवाय उस क़लील तादाद के जो तुम खाओ।” | فَمَا حَصَدْتُّمْ فَذَرُوْهُ فِيْ سُنْۢبُلِهٖٓ اِلَّا قَلِيْلًا مِّمَّا تَاْكُلُوْنَ 47 |
आपने सिर्फ़ इस ख्व़ाब की ताबीर ही नहीं बताई बल्कि मसले की तदबीर भी बता दी और तदबीर भी ऐसी जो शाही मुशीरों (सलाहकारों) के वहम व गुमान में भी नहीं आ सकती थी। आज के साइंसी तजुर्बात से यह बात साबित होती है कि अनाज को महफ़ूज़ करने का बेहतरीन तरीक़ा यही है कि उसे सिट्टों के अंदर ही रहने दिया जाए और इन सिट्टों को महफ़ूज़ कर लिया जाए। इस तरह से अनाज ख़राब नहीं होता और उसे कीड़े-मकोड़ों से बचाने के लिये किसी इज़ाफ़ी preservative की ज़रूरत भी नहीं होती।
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आयत 48
“फिर इसके बाद सात साल आयेंगे बहुत सख्त” | ثُمَّ يَاْتِيْ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ سَبْعٌ شِدَادٌ |
खुशहाली के सात सालों के बाद सात साल तक खुश्कसाली का समाँ होगा जिसकी वजह से मुल्क में शदीद क़हत पड़ जाएगा।
“वह (सात साल) चट कर जायेंगे उसको जो कुछ तुमने उनके लिये बचा रखा होगा सिवाय उसके जो तुम (बीज के लिये) महफ़ूज़ कर लोगे।” | يَّاْكُلْنَ مَا قَدَّمْتُمْ لَهُنَّ اِلَّا قَلِيْلًا مِّمَّا تُحْصِنُوْنَ 48 |
हज़रत युसुफ़ अलै. ने ख्व़ाब की ताबीर यह बताई कि सात साल तक मुल्क में बहुत खुशहाली होगी, फ़सलें बहुत अच्छी होंगी, मगर इन सात सालों के बाद सात साल ऐसे आएँगे जिनमें खुश्कसाली के सबब शदीद क़हत पड़ जाएगा। इस मसले की तदबीर आपने यह बताई कि पहले सात साल के दौरान सिर्फ़ ज़रूरत का अनाज इस्तेमाल करना, और बाक़ी सिट्टों के अंदर ही महफ़ूज़ करते जाना और जब क़हत का ज़माना आए तो इन सिट्टों से निकाल कर ब-क़दरे ज़रूरत अनाज इस्तेमाल करना।
आयत 49
“फिर आएगा इसके बाद एक साल कि उसमें ख़ूब बारिशें होंगी लोगों पर और उसमें वह (अंगूर का) रस निचोड़ेंगे।” | ثُمَّ يَاْتِيْ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ عَامٌ فِيْهِ يُغَاثُ النَّاسُ وَفِيْهِ يَعْصِرُوْنَ 49ۧ |
जब ख़ूब बारिशें होंगी तो अंगूर की बेलें ख़ूब फलें-फूलेंगी, अंगूर की पैदावार भी ख़ूब होगी, लोग ख़ूब अंगूर निचोड़ेंगे और शराब कशीद करेंगे।
आयात 50 से 57 तक
وَقَالَ الْمَلِكُ ائْتُوْنِيْ بِهٖ ۚ فَلَمَّا جَاۗءَهُ الرَّسُوْلُ قَالَ ارْجِعْ اِلٰي رَبِّكَ فَسْـــَٔـلْهُ مَا بَالُ النِّسْوَةِ الّٰتِيْ قَطَّعْنَ اَيْدِيَهُنَّ ۭ اِنَّ رَبِّيْ بِكَيْدِهِنَّ عَلِيْمٌ 50 قَالَ مَا خَطْبُكُنَّ اِذْ رَاوَدْتُّنَّ يُوْسُفَ عَنْ نَّفْسِهٖ ۭ قُلْنَ حَاشَ لِلّٰهِ مَا عَلِمْنَا عَلَيْهِ مِنْ سُوْۗءٍ ۭ قَالَتِ امْرَاَتُ الْعَزِيْزِ الْــٰٔنَ حَصْحَصَ الْحَقُّ ۡ اَنَا رَاوَدْتُّهٗ عَنْ نَّفْسِهٖ وَاِنَّهٗ لَمِنَ الصّٰدِقِيْنَ 51 ذٰلِكَ لِيَعْلَمَ اَنِّىْ لَمْ اَخُنْهُ بِالْغَيْبِ وَاَنَّ اللّٰهَ لَايَهْدِيْ كَيْدَ الْخَاۗىِٕنِيْنَ 52 وَمَآ اُبَرِّئُ نَفْسِيْ ۚ اِنَّ النَّفْسَ لَاَمَّارَةٌۢ بِالسُّوْۗءِ اِلَّا مَارَحِمَ رَبِّيْ ۭ اِنَّ رَبِّيْ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 53 وَقَالَ الْمَلِكُ ائْتُوْنِيْ بِهٖٓ اَسْتَخْلِصْهُ لِنَفْسِيْ ۚ فَلَمَّا كَلَّمَهٗ قَالَ اِنَّكَ الْيَوْمَ لَدَيْنَا مَكِيْنٌ اَمِيْنٌ 54 قَالَ اجْعَلْنِيْ عَلٰي خَزَاۗىِٕنِ الْاَرْضِ ۚ اِنِّىْ حَفِيْظٌ عَلِيْمٌ 55 وَكَذٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوْسُفَ فِي الْاَرْضِ ۚ يَتَبَوَّاُ مِنْهَا حَيْثُ يَشَاۗءُ ۭ نُصِيْبُ بِرَحْمَتِنَا مَنْ نَّشَاۗءُ وَلَا نُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِـنِيْنَ 56 وَلَاَجْرُ الْاٰخِرَةِ خَيْرٌ لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَكَانُوْا يَتَّقُوْنَ 57ۧ
आयत 50
“(यह सुनकर) बादशाह ने कहा कि उस शख्स को मेरे पास ले आओ!” | وَقَالَ الْمَلِكُ ائْتُوْنِيْ بِهٖ ۚ |
बादशाह अपने ख्व़ाब की ताबीर और फिर उसकी ऐसी आला तदबीर सुनकर यक़ीनन बहुत मुतास्सिर (impress) हुआ होगा और उसने सोचा होगा कि ऐसे ज़हीन, फ़तीन शख्स को जेल में नहीं बल्कि बादशाह का मुशीर होना चाहिये। चुनाँचे उसने हुक्म दिया कि उस क़ैदी को फ़ौरन मेरे पास लेकर आओ।
“फिर जब आया आपके पास ऐलची (दूत), तो आपने फ़रमाया कि तुम वापस चले जाओ अपने आक़ा के पास” | فَلَمَّا جَاۗءَهُ الرَّسُوْلُ قَالَ ارْجِعْ اِلٰي رَبِّكَ |
बादशाह का पैग़ाम लेकर जब क़ासिद (पैगाम लाने वाला) आपके पास पहुँचा तो आपने उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया कि मैं इस तरह अभी जेल से बाहर नहीं आना चाहता। पहले पूरे मामले की छान-बीन की जाए कि मुझे किस जुर्म की पादाश में जेल भेजा गया था। अगर मुझ पर कोई इल्ज़ाम है तो उसकी मुकम्मल तफ़तीश हो और अगर मेरा कोई क़सूर नहीं है तो मुझे अलल ऐलान बेगुनाह और बरी क़रार दिया जाए। चुनाँचे आपने उस क़ासिद से फ़रमाया कि तुम अपने बादशाह के पास वापस जाओ:
“और उससे पूछो कि उन औरतों का क्या मामला था जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे?” | فَسْـــَٔـلْهُ مَا بَالُ النِّسْوَةِ الّٰتِيْ قَطَّعْنَ اَيْدِيَهُنَّ ۭ |
“यक़ीनन मेरा रब उनकी चालों से ख़ूब वाक़िफ़ है।” | اِنَّ رَبِّيْ بِكَيْدِهِنَّ عَلِيْمٌ 50 |
बादशाह तक यह बात पहुँची तो उसने सब बेगमात को तलब कर लिया।
आयत 51
“उसने पूछा कि क्या मामला था तुम्हारा जब तुम सबने फुसलाना चाहा था युसुफ़ को?” | قَالَ مَا خَطْبُكُنَّ اِذْ رَاوَدْتُّنَّ يُوْسُفَ عَنْ نَّفْسِهٖ ۭ |
“उन्होंने कहा कि अल्लाह गवाह है, हमारे इल्म में उसके बारे में कोई भी बुराई नहीं है।” | قُلْنَ حَاشَ لِلّٰهِ مَا عَلِمْنَا عَلَيْهِ مِنْ سُوْۗءٍ ۭ |
उस वक़्त जो कुछ भी हुआ था वह सब हमारी तरफ़ से था, युसुफ़ की तरफ़ से कोई गलत बात हमने महसूस नहीं की।
“(इस पर) अज़ीज़ की बीवी भी बोल उठी कि अब हक़ीक़त तो वाज़ेह हो ही गई है, मैंने ही उसको फुसलाने की कोशिश की थी और वह बिल्कुल सच्चा है।” | قَالَتِ امْرَاَتُ الْعَزِيْزِ الْــٰٔنَ حَصْحَصَ الْحَقُّ ۡ اَنَا رَاوَدْتُّهٗ عَنْ نَّفْسِهٖ وَاِنَّهٗ لَمِنَ الصّٰدِقِيْنَ 51 |
इस तरह अज़ीज़ की बीवी को उस हक़ीक़त का बरमला इज़हार करना पड़ा कि युसुफ़ अलै. ने ना तो ज़बान से कोई गलत बयानी की है और ना ही उसके किरदार में कोई खोट है।
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आयत 52
“यह इसलिये कि वह जान ले कि मैंने उसकी ग़ैरमौजूदगी में उसकी ख्यानत नहीं की” | ذٰلِكَ لِيَعْلَمَ اَنِّىْ لَمْ اَخُنْهُ بِالْغَيْبِ |
यह फ़िक़रा स्याक़े इबारत में किसी की ज़बान से अदा हुआ है इसके बारे में मुफ़स्सरीन के बहुत से अक़वाल हैं। इसलिये कि इस फ़िक़रे के मौक़ा महल और अल्फ़ाज़ में मुतअद्दिद इम्कानात की गुंजाईश है। उन अक़वाल में से एक क़ौल यह है कि यह फ़िक़रा अज़ीज़ की बीवी की ज़बान ही से अदा हुआ है कि मैंने सारी बात इसलिये सच-सच बयान कर दी है ताकि युसुफ़ को मालूम हो जाए कि मैंने उसकी अदम मौजूदगी में उससे कोई गलत बात मंसूब करके उसकी ख्यानत नहीं की।
“और यह कि यक़ीनन अल्लाह ख्यानत करने वालों की चाल को कामयाब नहीं करता।” | وَاَنَّ اللّٰهَ لَايَهْدِيْ كَيْدَ الْخَاۗىِٕنِيْنَ 52 |
आयत 53
“और मैं अपने नफ्स को बरी क़रार नहीं देती यक़ीनन (इंसान का) नफ्स तो बुराई ही का हुक्म देता है” | وَمَآ اُبَرِّئُ نَفْسِيْ ۚ اِنَّ النَّفْسَ لَاَمَّارَةٌۢ بِالسُّوْۗءِ |
“सिवाय उसके जिस पर मेरा रब रहम फ़रमाए। यक़ीनन मेरा रब बहुत बख्शने वाला, निहायत रहम करने वाला है।” | اِلَّا مَارَحِمَ رَبِّيْ ۭ اِنَّ رَبِّيْ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 53 |
अगर गुज़िश्ता आयत में नक़ल होने वाले बयान को अज़ीज़े मिस्र की बीवी का बयान माना जाए तो इस सूरत में आयत ज़ेरे नज़र भी उसी के कलाम का तसल्सुल क़रार पाएगी और इसका तर्जुमा वही होगा जो ऊपर किया गया है। यह तर्जुमा दरअसल उस नज़रिये के मुताबिक़ है जिसके तहत हमारे बहुत से मुफ़स्सरीन और क़िस्सा गो हज़रात ने माई ज़ुलेखा को वली अल्लाह के दर्जे तक पहुँचा दिया है। और कुछ बईद भी नहीं कि उसका इश्क़े मिजाज़ी वक़्त के साथ-साथ इश्क़े हक़ीक़ी में तब्दील हो गया हो और वह हक़ीक़तन हिदायत पर आ गई हो। बहरहाल जो लोग इस बात को दुरुस्त तस्लीम करते हैं वह इन आयात का तर्जुमा इसी तरह करते हैं, क्योंकि उसने ऐतराफ़े जुर्म करके तौबा कर ली थी और इस लिहाज़ से मज़कूरा मुफ़स्सरीन का मौक़फ़ यह है कि ऐतराफ़े गुनाह से लेकर आयत 53 के इख्तताम तक उसी का बयान है।
इस सिलसिले में दूसरा मौक़फ़ (जो दौरे हाज़िर के ज़्यादातर मुफ़स्सरीन ने इख्तियार किया है) यह है कि अज़ीज़े मिस्र की बीवी का बयान इस आयत पर ख़त्म हो गया: {اَنَا رَاوَدْتُّهٗ عَنْ نَّفْسِهٖ وَاِنَّهٗ لَمِنَ الصّٰدِقِيْنَ} (आयत 51) और इसके बाद हज़रत युसुफ़ अलै. का बयान नक़ल हुआ है। इस सूरत में आयत 52 और 53 का मफ़हूम यूँ होगा कि जब बादशाह की तफ़तीशी कार्रवाई और अज़ीज़े मिस्र की बीवी के बरमला ऐतराफ़े जुर्म के बारे में हज़रत युसुफ़ को बताया गया तो आपने फ़रमाया कि इस सब कुछ से मेरा यह मक़सूद नहीं था कि किसी की इज्ज़त व नामूस का परदा चाक हो, बल्कि मैं तो चाहता था कि अज़ीज़े मिस्र यह जान ले कि अगर उसने मुझे अपने घर में इज्ज़त व इकराम से रखा था और मुझ पर ऐतमाद किया था तो मैंने भी उसकी अदम मौजूदगी में उसकी ख्यानत करके उसके ऐतमाद को ठेस नहीं पहुँचाई, और मेरा ईमान है कि अल्लाह ख्यानत करने वालों को राहयाब नहीं करता। बाक़ी मैं खुद को बहुत पारसा नहीं समझता बल्कि समझता हूँ कि नफ्से इंसानी तो इंसान को बुराई पर उभारता ही है और इसके हमले से सिर्फ़ वही बच सकता है जिस पर मेरा रब अपनी ख़ुसूसी नज़रे रहमत फ़रमाए। अल्लाह तआला की तरफ़ से मेरी हिफ़ाज़त का भी अगर ख़ुसूसी इंतेज़ाम ना फ़रमाया जाता तो मुझसे भी ग़लती सरज़द हो सकती थी। मगर चूँकि मेरा रब बख्शने वाला बहुत ज़्यादा रहम फ़रमाने वाला है इसलिये उसने मुझ पर अपनी ख़ुसूसी रहमत फ़रमाई।
आयत 54
“और बादशाह ने (अब फ़ैसलाकुन अंदाज़ में) कहा कि उसको मेरे पास ले आओ, मैं उसको अपना मुसाहिबे ख़ास बनाऊँगा।” | وَقَالَ الْمَلِكُ ائْتُوْنِيْ بِهٖٓ اَسْتَخْلِصْهُ لِنَفْسِيْ ۚ |
“तो जब बादशाह ने आपसे बात-चीत की तो कहा कि आज के दिन से आप हमारे नज़दीक बड़े बाइज्ज़त और मौअतबर इंसान हैं।” | فَلَمَّا كَلَّمَهٗ قَالَ اِنَّكَ الْيَوْمَ لَدَيْنَا مَكِيْنٌ اَمِيْنٌ 54 |
आज से आपका शुमार हमारे ख़ास मुक़र्रबीन में होगा और इस लिहाज़ से ममलिकत के अंदर आपका एक ख़ास मुक़ाम होगा। आपकी अमानत व दयानत पर हमें पूरा-पूरा भरोसा है।
आयत 55
“आपने फ़रमाया कि मुझे मुल्क के ख़ज़ानों पर मुक़र्रर कर दें, मैं हिफ़ाज़त करने वाला भी हूँ और जानने वाला भी हूँ।” | قَالَ اجْعَلْنِيْ عَلٰي خَزَاۗىِٕنِ الْاَرْضِ ۚ اِنِّىْ حَفِيْظٌ عَلِيْمٌ 55 |
हज़रत युसुफ़ अलै. जान चुके थे कि इस मुल्क पर बहुत बड़ी आफ़त आने वाली है और अगर इस मुम्किना सूरते हाल का मुक़ाबला करने के लिये बर वक़्त दुरुस्त और मौसर अक़दाम ना किये गए तो ना सिर्फ़ खुद मिस्र एक ख़ौफ़नाक क़हत की ज़द में आ जाएगा बल्कि आस-पास के इलाक़ों के लिये भी बहुत भयानक हालात पैदा हो जायेंगे। इस पूरे ख़ित्ते में मिस्र ही एक ऐसा मुल्क था जहाँ गल्ला और दूसरी अश्याए ख़ुराक (खाने-पीने की चीज़ें) पैदा होती थीं। इसके हमसाया में चारों तरफ़ ख़ुश्क सहराई इलाक़े थे और अनाज वगैरह के सिलसिले में इन इलाक़ों का इन्हसार भी मिस्र की ज़राअत पर था। यही वजह थी कि आपने मौक़ा देखा तो फ़ौरन अपनी ख़िदमात पेश कर दीं कि अगर खज़ाने और ख़ुराक व ज़राअत का पूरा इंतेज़ाम व इन्सराम (अनुरूप) मेरे पास होगा तो मैं इस आफ़त का सामना करने के लिये जामेअ और ठोस मंसूबा बंदी कर सकूँगा।
आयत 56
“और इस तरह हमने युसुफ़ को तमक्कुन अता किया (मिस्र की) ज़मीन में, कि वह उसमें जहाँ चाहे अपना ठिकाना बना ले।” | وَكَذٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوْسُفَ فِي الْاَرْضِ ۚ يَتَبَوَّاُ مِنْهَا حَيْثُ يَشَاۗءُ ۭ |
हज़रत युसुफ़ अलै. को अल्लाह तआला की तरफ़ से तमक्कुन अता होने का यह दूसरा मरहला था। पहले मरहले में आपको बदवी और सहराई माहौल से उठा कर उस दौर के एक निहायत मुत्मद्दीन मुल्क की आला तरीन सतह की सोसाइटी में पहुँचाया गया, जबकि दूसरे मरहले में आपको उसी मुल्क के अरबाबे इख्तियार व इक़तदार की सफ़ में एक निहायत मुमताज़ मक़ाम अता कर दिया गया, जिसके बाद आप पूरे इख्तियार के साथ अज़ीज़ के ओहदे पर मुतमक्किन हो गए।
“हम अपनी रहमत से नवाज़ते हैं जिसको चाहते हैं और हम नेकोकारों का अज्र ज़ाया नहीं करते।” | نُصِيْبُ بِرَحْمَتِنَا مَنْ نَّشَاۗءُ وَلَا نُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِـنِيْنَ 56 |
आयत 57
“और आख़िरत का अज्र तो बहुत ही बेहतर है उनके लिये जो ईमान लाएँ और तक़वे की रविश इख्तियार किये रखें।” | وَلَاَجْرُ الْاٰخِرَةِ خَيْرٌ لِّلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَكَانُوْا يَتَّقُوْنَ 57ۧ |
अब यहाँ से आगे इस क़िस्से का एक नया बाब शुरू होने जा रहा है। वाज़ेह रहे कि आईंदा रुकूअ के मज़ामीन और गुज़िश्ता मज़मून के दरमियान ज़मानी ऐतबार से तक़रीबन दस साल का बुअद (distance) है। अब बात उस ज़माने से शुरू हो रही है जब मिस्र में बेहतर फ़सलों के सात साला दौर के बाद क़हत पड़ चुका था। यहाँ पर जो तफ़सीलात छोड़ दी गई हैं उनका खुलासा यह है कि हज़रत युसुफ़ अलै. की ताबीर के ऐन मुताबिक़ सात साल तक मिस्र में खुशहाली का दौर दौरा रहा और फ़सलों की पैदावार मामूल (normal) से कहीं बढ़ कर हुई। इस दौरान हज़रत युसुफ़ अलै. ने बाक़ायदा मंसूबा बंदी के तहत अनाज के बड़े-बड़े ज़खाइर (ज़खीरे) जमा कर लिए थे। चुनाँचे जब यह पूरा इलाक़ा क़हत की लपेट में आया तो मिस्र की हुकूमत के पास ना सिर्फ़ अपने अवाम के लिये बल्कि मल्हक़ा (सहयोगी) इलाक़ों के लोगों की ज़रूरत पूरी करने के लिये भी अनाज वाफ़र मिक़दार (थोक मात्रा) में मौजूद था। चुनाँचे हज़रत युसुफ़ अलै. ने इस ग़ैर मामूली सूरतेहाल के पेशेनज़र “राशन बंदी” का एक ख़ास निज़ाम मुतआरिफ़ (introduce) करवाया। इस निज़ाम के तहत एक ख़ानदान को एक साल के लिये सिर्फ़ इस क़दर गल्ला दिया जाता था जिस क़दर एक ऊँट उठा सकता था और उसकी क़ीमत इतनी वसूल की जाती थी जो वह आसानी से अदा कर सकें। इन हालात में फ़लस्तीन में भी क़हत का समां था और वहाँ से भी लोग क़ाफ़िलों की सूरत में मिस्र की तरफ़ गल्ला लेने के लिये आते थे। ऐसे ही एक क़ाफ़िले में हज़रत युसुफ़ अलै. के दस भाई भी गल्ला लेने मिस्र पहुँचे, जबकि आपका माँ जाया (सगा) भाई उनके साथ नहीं था। इसलिये कि हज़रत याक़ूब अलै. अपने उस बेटे तो किसी तरह भी उनके साथ कहीं भेजने पर आमादा नहीं थे।
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आयात 58 से 68 तक
وَجَاۗءَ اِخْوَةُ يُوْسُفَ فَدَخَلُوْا عَلَيْهِ فَعَرَفَهُمْ وَهُمْ لَهٗ مُنْكِرُوْنَ 58 وَلَمَّا جَهَّزَهُمْ بِجَهَازِهِمْ قَالَ ائْتُوْنِيْ بِاَخٍ لَّكُمْ مِّنْ اَبِيْكُمْ ۚ اَلَا تَرَوْنَ اَنِّىْٓ اُوْفِي الْكَيْلَ وَاَنَا خَيْرُ الْمُنْزِلِيْنَ 59 فَاِنْ لَّمْ تَاْتُوْنِيْ بِهٖ فَلَا كَيْلَ لَكُمْ عِنْدِيْ وَلَا تَقْرَبُوْنِ 60 قَالُوْا سَنُرَاوِدُ عَنْهُ اَبَاهُ وَاِنَّا لَفٰعِلُوْنَ 61 وَقَالَ لِفِتْيٰنِهِ اجْعَلُوْا بِضَاعَتَهُمْ فِيْ رِحَالِهِمْ لَعَلَّهُمْ يَعْرِفُوْنَهَآ اِذَا انْقَلَبُوْٓا اِلٰٓى اَهْلِهِمْ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ 62 فَلَمَّا رَجَعُوْٓا اِلٰٓى اَبِيْهِمْ قَالُوْا يٰٓاَبَانَا مُنِعَ مِنَّا الْكَيْلُ فَاَرْسِلْ مَعَنَآ اَخَانَا نَكْتَلْ وَاِنَّا لَهٗ لَحٰفِظُوْنَ 63 قَالَ هَلْ اٰمَنُكُمْ عَلَيْهِ اِلَّا كَمَآ اَمِنْتُكُمْ عَلٰٓي اَخِيْهِ مِنْ قَبْلُ ۭ فَاللّٰهُ خَيْرٌ حٰفِظًا ۠ وَّهُوَ اَرْحَمُ الرّٰحِمِيْنَ 64 وَلَمَّا فَتَحُوْا مَتَاعَهُمْ وَجَدُوْا بِضَاعَتَهُمْ رُدَّتْ اِلَيْهِمْ ۭ قَالُوْا يٰٓاَبَانَا مَا نَبْغِيْ ۭهٰذِهٖ بِضَاعَتُنَا رُدَّتْ اِلَيْنَا ۚ وَنَمِيْرُ اَهْلَنَا وَنَحْفَظُ اَخَانَا وَنَزْدَادُ كَيْلَ بَعِيْرٍ ۭ ذٰلِكَ كَيْلٌ يَّسِيْرٌ 65 قَالَ لَنْ اُرْسِلَهٗ مَعَكُمْ حَتّٰى تُؤْتُوْنِ مَوْثِقًا مِّنَ اللّٰهِ لَتَاْتُنَّنِيْ بِهٖٓ اِلَّآ اَنْ يُّحَاطَ بِكُمْ ۚ فَلَمَّآ اٰتَوْهُ مَوْثِقَهُمْ قَالَ اللّٰهُ عَلٰي مَا نَقُوْلُ وَكِيْلٌ 66 وَقَالَ يٰبَنِيَّ لَا تَدْخُلُوْا مِنْۢ بَابٍ وَّاحِدٍ وَّادْخُلُوْا مِنْ اَبْوَابٍ مُّتَفَرِّقَةٍ ۭ وَمَآ اُغْنِيْ عَنْكُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ ۭ اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلّٰهِ ۭعَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ ۚ وَعَلَيْهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُتَوَكِّلُوْنَ 67 وَلَمَّا دَخَلُوْا مِنْ حَيْثُ اَمَرَهُمْ اَبُوْهُمْ ۭ مَا كَانَ يُغْنِيْ عَنْهُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ اِلَّا حَاجَةً فِيْ نَفْسِ يَعْقُوْبَ قَضٰىهَا ۭ وَاِنَّهٗ لَذُوْ عِلْمٍ لِّمَا عَلَّمْنٰهُ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 68ۧ
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आयत 58
“और आए युसुफ़ के भाई और आपके सामने पेश हुए” | وَجَاۗءَ اِخْوَةُ يُوْسُفَ فَدَخَلُوْا عَلَيْهِ |
“तो आपने उन्हें पहचान लिया मगर वह आपको नहीं पहचान पाए।” | فَعَرَفَهُمْ وَهُمْ لَهٗ مُنْكِرُوْنَ 58 |
इन हालात में यह इम्कान उनके वहम व गुमान में भी नहीं था कि अज़ीज़े मिस्र जिसके दरबार में उनकी पेशी हो रही है वह उनका भाई युसुफ़ है।
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आयत 59
“फिर जब आपने उनका सामान तैयार करवा दिया तो फ़रमाया कि (आईन्दा) अपने उस भाई को भी मेरे पास लेकर आना जो तुम्हारे वालिद से (तुम्हारा भाई) है।” | وَلَمَّا جَهَّزَهُمْ بِجَهَازِهِمْ قَالَ ائْتُوْنِيْ بِاَخٍ لَّكُمْ مِّنْ اَبِيْكُمْ ۚ |
गल्ला चूँकि राशन बंदी के तहत दिया जाता था इसलिये उन्होंने दरख्वास्त की होगी कि हमारा एक भाई और भी है, उसके अहलखाना भी हैं, उसे हम अपने वालिद की ख़िदमत के लिये पीछे छोड़ आए हैं, उसके हिस्से का गल्ला भी हमें दे दिया जाए। इस सिलसिले में सवाल व जवाब के दौरान उन्होंने यह भी बताया होगा कि हम दस हक़ीक़ी भाई हैं जबकि वह ग्यारहवाँ भाई बाप की तरफ़ से सगा लेकिन वालिदा की तरफ़ से सौतेला है। हज़रत युसुफ़ ने यह सारा माजरा सुनने के बाद फ़रमाया होगा कि ठीक है मैं आपके ग्यारहवें भाई के हिस्से का इज़ाफ़ी गल्ला तुम लोगों को इस शर्त पर दे देता हूँ कि आईन्दा जब तुम लोग गल्ला लेने के लिये आओगे तो अपने उस भाई को साथ लेकर आओगे ताकि मैं तस्दीक़ कर सकूँ कि तुम लोगों ने गलत बयानी करके मुझसे इज़ाफ़ी गल्ला तो नहीं लिया।
“क्या तुम देखते नहीं हो कि मैं पैमाना पूरा भर कर देता हूँ और बेहतरीन मेहमान नवाज़ी करने वाला भी हूँ!” | اَلَا تَرَوْنَ اَنِّىْٓ اُوْفِي الْكَيْلَ وَاَنَا خَيْرُ الْمُنْزِلِيْنَ 59 |
आयत 60
“और अगर तुम उसे मेरे पास लेकर नहीं आओगे तो मेरे पास तुम्हारे लिये कोई गल्ला नहीं है, और तुम मेरे क़रीब भी ना फटकना।” | فَاِنْ لَّمْ تَاْتُوْنِيْ بِهٖ فَلَا كَيْلَ لَكُمْ عِنْدِيْ وَلَا تَقْرَبُوْنِ 60 |
आयत 61
“उन्होंने कहा कि हम उसके बारे में उसके वालिद को आमादा करने की कोशिश करेंगे और हम यह ज़रूर करके रहेंगे।” | قَالُوْا سَنُرَاوِدُ عَنْهُ اَبَاهُ وَاِنَّا لَفٰعِلُوْنَ 61 |
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आयत 62
“और युसुफ़ ने अपने नौजवानों से कहा कि इनकी पूंजी (भी वापस) उनके कजावों (थैलों) में रख दो” | وَقَالَ لِفِتْيٰنِهِ اجْعَلُوْا بِضَاعَتَهُمْ فِيْ رِحَالِهِمْ |
उस ज़माने में चीज़ों के एवज़ ही चीज़ें ख़रीदी जाती थीं। चुनाँचे वह लोग भी अपने यहाँ से कुछ चीज़ें (भेड़-बकरियों की ऊन वगैरह) इस मक़सद के लिये लेकर आए थे और गल्ले की क़ीमत के तौर पर अपनी वह चीज़ें उन्होंने पेश कर दी थीं। मगर हज़रत युसुफ़ अलै. ने अपने मुलाज़मीन को हिदायत कर दी कि जब इनके कजावों (थैलों) में गन्दुम (गेंहूँ) भरी जाए तो इन लोगों की यह चीज़ें भी जो इन्होंने गल्ले की क़ीमत के तौर पर अदा की हैं चुपके से वापस इनके कजावों में ही रख दी जाएँ।
“ताकि वह पहचाने इनको जब लौटे अपने अहलो अयाल की तरफ़, शायद कि (इस तरह) वह दोबारा आएँ।” | لَعَلَّهُمْ يَعْرِفُوْنَهَآ اِذَا انْقَلَبُوْٓا اِلٰٓى اَهْلِهِمْ لَعَلَّهُمْ يَرْجِعُوْنَ 62 |
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आयत 63
“फिर जब वह लौटे अपने वालिद के पास तो कहने लगे: अब्बाजान! हमसे (एक) पैमाना रोक लिया गया है” | فَلَمَّا رَجَعُوْٓا اِلٰٓى اَبِيْهِمْ قَالُوْا يٰٓاَبَانَا مُنِعَ مِنَّا الْكَيْلُ |
यानि उन्होंने आईन्दा के लिये हमारे छोटे भाई के हिस्से का गल्ला रोक दिया है और वह तभी मिलेगा जब हम इसको वहाँ लेकर जायेंगे।
“तो (आईन्दा) हमारे भाई को हमारे साथ भेजियेगा ताकि हम (इसके हिस्से का भी) गल्ला लेकर आएँ, और हम इसकी पूरी हिफ़ाज़त करेंगे।” | فَاَرْسِلْ مَعَنَآ اَخَانَا نَكْتَلْ وَاِنَّا لَهٗ لَحٰفِظُوْنَ 63 |
आयत 64
“याक़ूब अलै. ने फ़रमाया कि क्या मैं इसके बारे में उसी तरह तुम पर ऐतबार कर लूँ जैसे मैंने इसके भाई (युसुफ़) के बारे में तुम पर ऐतबार किया था?” | قَالَ هَلْ اٰمَنُكُمْ عَلَيْهِ اِلَّا كَمَآ اَمِنْتُكُمْ عَلٰٓي اَخِيْهِ مِنْ قَبْلُ ۭ |
“(वैसे तो) अल्लाह ही बेहतरीन मुहाफ़िज़ है और वही तमाम रहम करने वालों में सबसे बढ़ कर रहम करने वाला है।” | فَاللّٰهُ خَيْرٌ حٰفِظًا ۠ وَّهُوَ اَرْحَمُ الرّٰحِمِيْنَ 64 |
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आयत 65
“और जब उन्होंने खोला अपना सामान तो उन्होंने देखा कि उनकी पूंजी उन्हें लौटा दी गई है।” | وَلَمَّا فَتَحُوْا مَتَاعَهُمْ وَجَدُوْا بِضَاعَتَهُمْ رُدَّتْ اِلَيْهِمْ ۭ |
“वह पुकार उठे: अब्बाजान! हमें और क्या चाहिये? यह हमारी पूंजी भी हमें लौटा दी गई है।” | قَالُوْا يٰٓاَبَانَا مَا نَبْغِيْ ۭهٰذِهٖ بِضَاعَتُنَا رُدَّتْ اِلَيْنَا ۚ |
“(अब हम जायेंगे) और अपने अहलो अयाल के लिये गल्ला लाएँगे और अपने भाई की हिफ़ाज़त करेंगे, और एक ऊँट का बोझ ज़्यादा लाएँगे। यह (एक इज़ाफ़ी) बोझ (लाना तो अब) बहुत आसान है।” | وَنَمِيْرُ اَهْلَنَا وَنَحْفَظُ اَخَانَا وَنَزْدَادُ كَيْلَ بَعِيْرٍ ۭ ذٰلِكَ كَيْلٌ يَّسِيْرٌ 65 |
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आयत 66
“याक़ूब अलै. ने फ़रमाया: मैं इसे (वापस) हरगिज़ नहीं भेजूँगा तुम्हारे साथ, यहाँ तक कि तुम मेरे सामने पुख्ता क़सम खाओ अल्लाह की कि तुम लाज़िमन इसे लेकर आओगे मेरे पास, सिवाय इसके कि तुम सबको घेरे में ले लिया जाए।” | قَالَ لَنْ اُرْسِلَهٗ مَعَكُمْ حَتّٰى تُؤْتُوْنِ مَوْثِقًا مِّنَ اللّٰهِ لَتَاْتُنَّنِيْ بِهٖٓ اِلَّآ اَنْ يُّحَاطَ بِكُمْ ۚ |
हाँ अगर कोई एसी मुसीबत आ जाए कि तुम सबके सब घेर लिए जाओ और वहाँ से ग्लूखलासी (छुटकारा पाना) मुश्किल हो जाए तो और बात है, मगर आम हालात में तुम लोग इसे वापस मेरे पास लाने के पाबन्द हो गए।
“फिर जब उन्होंने आपको अपना पुख्ता क़ौल व क़रार दे दिया तो याक़ूब ने फ़रमाया कि जो कुछ हम कह रहे हैं अल्लाह इस पर निगेहबान है।” | فَلَمَّآ اٰتَوْهُ مَوْثِقَهُمْ قَالَ اللّٰهُ عَلٰي مَا نَقُوْلُ وَكِيْلٌ 66 |
आयत 67
“और आपने कहा: ऐ मेरे बेटो! तुम लोग एक दरवाज़े से (शहर में) दाख़िल ना होना बल्कि मुतफ़र्रिक़ (अलग-अलग) दरवाज़ों से दाख़िल होना।” | وَقَالَ يٰبَنِيَّ لَا تَدْخُلُوْا مِنْۢ بَابٍ وَّاحِدٍ وَّادْخُلُوْا مِنْ اَبْوَابٍ مُّتَفَرِّقَةٍ ۭ |
हसद और नज़रे बद वगैरह के असरात से बचने के लिये बेहतर है कि आप तमाम भाई इकट्ठे एक दरवाज़े से शहर में दाख़िल होने के बजाय मुख्तलिफ़ दरवाज़ों से दाख़िल हों।
“और मैं तुमको बचा नहीं सकता अल्लाह (के फ़ैसले) से कुछ भी।” | وَمَآ اُغْنِيْ عَنْكُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ ۭ |
मैं अल्लाह के किसी फ़ैसले को तुम लोगों से नहीं टाल सकता। अगर अल्लाह की मशीयत में तुम लोगों को कोई गज़न्द (नुक़सान) पहुँचना मंज़ूर है तो मैं उसको रोक नहीं सकता। यह सिर्फ़ इंसानी कोशिश की हद तक अहतियाती तदबीर है जो हम इख्तियार कर सकते हैं।
“इख्तियारे मुतलक़ तो सिर्फ़ अल्लाह ही का है, उसी पर मैंने तवक्कुल किया है, और तमाम तवक्कुल करने वालों को उसी पर तवक्कुल करना चाहिए।” | اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلّٰهِ ۭعَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ ۚ وَعَلَيْهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُتَوَكِّلُوْنَ 67 |
आयत 68
“तो जब वह दाख़िल हुए जहाँ से उन्हें हुक्म दिया था उनके वालिद ने।” | وَلَمَّا دَخَلُوْا مِنْ حَيْثُ اَمَرَهُمْ اَبُوْهُمْ ۭ |
“वह (याक़ूब) बचाने वाला नहीं था उनको अल्लाह (के फ़ैसले) से कुछ भी, सिवाय इसके कि याक़ूब के दिल में एक ख्याल था जो उसने उसे पूरा कर लिया।” | مَا كَانَ يُغْنِيْ عَنْهُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ اِلَّا حَاجَةً فِيْ نَفْسِ يَعْقُوْبَ قَضٰىهَا ۭ |
हज़रत याक़ूब अलै. के दिल में एक खटक थी जिसे दूर करने के लिये आपने यह तदबीर इख्तियार की कि अपने बेटों को हिदायत कर दी कि वह एक दरवाज़े से दाख़िल होने के बजाय मुख्तलिफ़ दरवाज़ों से दाख़िल हों, लेकिन आपकी यह तदबीर अल्लाह के किसी फ़ैसले पर असर अंदाज़ नहीं हो सकती थी।
“और यक़ीनन आप साहिबे इल्म थे उस इल्म के ऐतबार से जो हमने आपको सिखाया था, लेकिन अक्सर लोग जानते नहीं हैं।” | وَاِنَّهٗ لَذُوْ عِلْمٍ لِّمَا عَلَّمْنٰهُ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 68ۧ |
आयात 69 से 79 तक
وَلَمَّا دَخَلُوْا عَلٰي يُوْسُفَ اٰوٰٓى اِلَيْهِ اَخَاهُ قَالَ اِنِّىْٓ اَنَا اَخُوْكَ فَلَا تَبْتَىِٕسْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 69 فَلَمَّا جَهَّزَهُمْ بِجَهَازِهِمْ جَعَلَ السِّقَايَةَ فِيْ رَحْلِ اَخِيْهِ ثُمَّ اَذَّنَ مُؤَذِّنٌ اَيَّــتُهَا الْعِيْرُ اِنَّكُمْ لَسٰرِقُوْنَ 70 قَالُوْا وَاَقْبَلُوْا عَلَيْهِمْ مَّاذَا تَفْقِدُوْنَ 71 قَالُوْا نَفْقِدُ صُوَاعَ الْمَلِكِ وَلِمَنْ جَاۗءَ بِهٖ حِمْلُ بَعِيْرٍ وَّاَنَا بِهٖ زَعِيْمٌ 72 قَالُوْا تَاللّٰهِ لَقَدْ عَلِمْتُمْ مَّا جِئْنَا لِنُفْسِدَ فِي الْاَرْضِ وَمَا كُنَّا سٰرِقِيْنَ 73 قَالُوْا فَمَا جَزَاۗؤُهٗٓ اِنْ كُنْتُمْ كٰذِبِيْنَ 74 قَالُوْا جَزَاۗؤُهٗ مَنْ وُّجِدَ فِيْ رَحْلِهٖ فَهُوَ جَزَاۗؤُهٗ ۭ كَذٰلِكَ نَجْزِي الظّٰلِمِيْنَ 75 فَبَدَاَ بِاَوْعِيَتِهِمْ قَبْلَ وِعَاۗءِ اَخِيْهِ ثُمَّ اسْتَخْرَجَهَا مِنْ وِّعَاۗءِ اَخِيْهِ ۭ كَذٰلِكَ كِدْنَا لِيُوْسُفَ ۭ مَا كَانَ لِيَاْخُذَ اَخَاهُ فِيْ دِيْنِ الْمَلِكِ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ ۭ نَرْفَعُ دَرَجٰتٍ مَّنْ نَّشَاۗءُ ۭ وَفَوْقَ كُلِّ ذِيْ عِلْمٍ عَلِيْمٌ 76 قَالُوْٓا اِنْ يَّسْرِقْ فَقَدْ سَرَقَ اَخٌ لَّهٗ مِنْ قَبْلُ ۚ فَاَسَرَّهَا يُوْسُفُ فِيْ نَفْسِهٖ وَلَمْ يُبْدِهَا لَهُمْ ۚ قَالَ اَنْتُمْ شَرٌّ مَّكَانًا ۚ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا تَصِفُوْنَ 77 قَالُوْا يٰٓاَيُّهَا الْعَزِيْزُ اِنَّ لَهٗٓ اَبًا شَيْخًا كَبِيْرًا فَخُذْ اَحَدَنَا مَكَانَهٗ ۚ اِنَّا نَرٰىكَ مِنَ الْمُحْسِنِيْنَ 78 قَالَ مَعَاذَ اللّٰهِ اَنْ نَّاْخُذَ اِلَّا مَنْ وَّجَدْنَا مَتَاعَنَا عِنْدَهٗٓ ۙ اِنَّآ اِذًا لَّظٰلِمُوْنَ 79ۧ
आयत 69
“और जब वह आए युसुफ़ के पास तो आपने अपने भाई को अपने पास अलग बुला लिया और उसे बता दिया कि मैं तुम्हारा भाई हूँ” | وَلَمَّا دَخَلُوْا عَلٰي يُوْسُفَ اٰوٰٓى اِلَيْهِ اَخَاهُ قَالَ اِنِّىْٓ اَنَا اَخُوْكَ |
आपने अपने भाई बिन यामिन को अलैहदगी में अपने पास बुला लिया और उन पर अपनी शनाख्त ज़ाहिर कर दी कि मैं तुम्हारा भाई युसुफ़ हूँ जो बचपन में खो गया था।
“तो अब मत ग़मगीन होना उस पर जो यह लोग करते रहे हैं।” | فَلَا تَبْتَىِٕسْ بِمَا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 69 |
हज़रत युसुफ़ अलै. ने अपने छोटे भाई को तसल्ली देते हुए फ़रमाया कि मुझे अल्लाह ने इस आला मक़ाम तक पहुँचाया है और हमें आपस में मिला भी दिया है। चुनाँचे अब इन बड़े भाइयों के रवैय्ये पर तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं है। अब सख्ती के दिन ख़त्म हो गए हैं।
आयत 70
“फिर जब आपने उनके लिये उनका सामान तैयार करा दिया तो रख दिया पीने का प्याला अपने भाई के सामान में” | فَلَمَّا جَهَّزَهُمْ بِجَهَازِهِمْ جَعَلَ السِّقَايَةَ فِيْ رَحْلِ اَخِيْهِ |
यह बादशाह का ख़ुसूसी जाम था जो सोने का बना हुआ था।
“फिर एक पुकारने वाले ने पुकार लगाई कि ऐ क़ाफ़िले वालो! तुम लोग चोर हो।” | ثُمَّ اَذَّنَ مُؤَذِّنٌ اَيَّــتُهَا الْعِيْرُ اِنَّكُمْ لَسٰرِقُوْنَ 70 |
जब वह क़ाफ़िला चल पड़ा तो उसे रोक लिया गया कि हमारे यहाँ से कोई चीज़ चोरी हुई है और हमें इस बारे में तुम लोगों पर शक है।
आयत 71
“उन्होंने पूछा उनकी तरफ़ मुड़ कर कि आपकी क्या चीज़ गुम हुई है?” | قَالُوْا وَاَقْبَلُوْا عَلَيْهِمْ مَّاذَا تَفْقِدُوْنَ 71 |
आयत 72
“उन्होंने जवाब दिया कि हमें बादशाह का जामे ज़र्रे नहीं मिल रहा और जो उसे ले आएगा उसे एक ऊँट के बोझ के बराबर गल्ला दिया जाएगा, और मैं इसका ज़िम्मेदार हूँ।” | قَالُوْا نَفْقِدُ صُوَاعَ الْمَلِكِ وَلِمَنْ جَاۗءَ بِهٖ حِمْلُ بَعِيْرٍ وَّاَنَا بِهٖ زَعِيْمٌ 72 |
आयत 73
“उन्होंने कहा: अल्लाह की क़सम आप लोग ख़ूब जानते हैं कि हम ज़मीन में फ़साद मचाने नहीं आए और हम चोरी करने वाले हरगिज़ नहीं हैं।” | قَالُوْا تَاللّٰهِ لَقَدْ عَلِمْتُمْ مَّا جِئْنَا لِنُفْسِدَ فِي الْاَرْضِ وَمَا كُنَّا سٰرِقِيْنَ 73 |
आप लोग अच्छी तरह जानते हैं कि हम क़हत के मारे लोग यहाँ इतनी दूर से गल्ला लेने आए हैं, हम कोई चोर-डाकू नहीं हैं। उनके इस फ़िक़रे और अंदाज़े गुफ्तगू में बड़ी लजाजत पाई जाती है।
आयत 74
“उन्हों (शाही मुलाज़मीन) ने कहा कि फिर उस (चोर) की क्या सज़ा होगी अगर तुम लोग झूठे हुए?” | قَالُوْا فَمَا جَزَاۗؤُهٗٓ اِنْ كُنْتُمْ كٰذِبِيْنَ 74 |
यानि अगर तुम लोग अपने इस दावे में झूठे निकले और तुममें से ही कोई शख्स चोर हुआ तो फिर उस शख्स की क्या सज़ा होनी चाहिए?
आयत 75
“उन्होंने कहा कि उसकी सज़ा यही है कि जिसके सामान में वह (जामे ज़र्रे) पाया जाए वह खुद ही उसका बदला होगा। हम तो इसी तरीक़े से ज़ालिमों को सज़ा दिया करते हैं।” | قَالُوْا جَزَاۗؤُهٗ مَنْ وُّجِدَ فِيْ رَحْلِهٖ فَهُوَ جَزَاۗؤُهٗ ۭ كَذٰلِكَ نَجْزِي الظّٰلِمِيْنَ 75 |
उन्होंने कहा कि हाँ अगर ऐसा हुआ तो फिर जिसके सामान में से आपका जाम निकल आए, सज़ा के तौर पर आप लोग उसे अपने पास रख लें, वह आपका गुलाम बन जाएगा। हमारे यहाँ तो (शरीअते इब्राहीमी की रू से) चोरी के जुर्म की यही सज़ा राएज है।
आयत 76
“तो आपने (तलाशी) शुरू की उनके बोरों की अपने भाई के बोरे से पहले, फिर आपने निकाल लिया वह (जाम) अपने भाई के सामान से।” | فَبَدَاَ بِاَوْعِيَتِهِمْ قَبْلَ وِعَاۗءِ اَخِيْهِ ثُمَّ اسْتَخْرَجَهَا مِنْ وِّعَاۗءِ اَخِيْهِ ۭ |
“इस तरह से हमने तदबीर की युसुफ़ के लिये।” | كَذٰلِكَ كِدْنَا لِيُوْسُفَ ۭ |
यह एक ऐसी तदबीर थी जिसमें तौरिये का सा अंदाज़ था और इससे मक़सूद किसी को नुक़सान पहुँचाना नहीं बल्कि उस पूरे ख़ानदान को आपस में मिलाना था। इस तदबीर की ज़िम्मेदारी अल्लाह ने खुद ली है कि हज़रत युसुफ़ ने अपनी तरफ़ से ऐसा नहीं किया था बल्कि अल्लाह ने आपके लिये यह एक राह निकाली थी। यह वज़ाहत इसलिये ज़रूरी थी ताकि किसी के ज़हन में यह अश्काल (त्रुटी) पैदा ना हो कि ऐसी तदबीर इख्तियार करना तो शाने नबुवत के मनाफ़ी है। यहाँ पर यह नुक्ता लायक़-ए-तवज्जो है कि अल्लाह तआला का इख्तियार भी मुतलक़ है और उसका इल्म भी हर शय पर मुहीत है। अल्लाह को तो इल्म था कि यह आरज़ी सा मामला है और इससे किसी को कोई नुक़सान नहीं पहुँचेगा।
“आपके लिये मुमकिन नहीं था कि अपने भाई को रोकते बादशाह के क़ानून के मुताबिक़ सिवाय इसके कि अल्लाह चाहे।” | مَا كَانَ لِيَاْخُذَ اَخَاهُ فِيْ دِيْنِ الْمَلِكِ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ ۭ |
लफ्ज़ “दीन” की तारीफ़ (definition) के ऐतबार से क़ुरान की यह आयत बहुत अहम है। यहाँ دِيْنِ الْمَلِكِ (बादशाह के दीन) से मुराद वह निज़ाम है जिसके तहत बादशाह उस पूरे मुल्क तो चला रहा था, जिसमें बादशाह इक़तदारे आला (sovereignty) का मालिक था। उसका इख्तियार मुतलक़ था, उसका हर हुक्म क़ानून था और पूरा निज़ामे सल्तनत व ममलिकत उसके ताबेअ था। इस हवाले से “दीनुल्लाह” की इस्तलाह बहुत आसानी से वाज़ेह हो जाती है। चुनाँचे अगर अल्लाह के इक़तदार (sovereignty) और इख्तियार मुतलक़ को तस्लीम करके पूरा निज़ामे ज़िन्दगी उसके ताबेअ कर दिया जाए तो यही “दीनुल्लाह” का अमली ज़हूर होगा। यही वह कैफ़ियत थी जो “दीनुल्लाह” के गलबे के बाद जज़ीरा नुमाए अरब में पैदा हुई थी और जिसकी गवाही सूरतुल नस्र में इस तरह दी गई है: {اِذَا جَاۗءَ نَصْرُ اللّٰهِ وَالْفَتْحُ} (आयत 1) { وَرَاَيْتَ النَّاسَ يَدْخُلُوْنَ فِيْ دِيْنِ اللّٰهِ اَفْوَاجًا} (आयत 2)। इसी तरह आज का दीन जिसे अवाम की फ़लाह का ज़ामिन क़रार दिया जा रहा है “दीनुल जम्हूर” है। इस दीन या निज़ाम में क़ानून साज़ी का इख्तियार जम्हूर यानि अवाम या अवाम के नुमाइंदों को हासिल है, वह जिसे चाहें जायज़ क़रार दें और जिसे चाहें नाजायज़, और यही सबसे बड़ा कुफ़्र और शिर्क है।
बहरहाल उस वक़्त मिस्र में बादशाही निज़ाम राएज़ था जिसको हज़रत युसुफ़ अलै. बदल नहीं सकते थे, क्योंकि आप बादशाह तो नहीं थे। आपको जो इख्तियार हासिल था वह उसी निज़ाम के मुताबिक़ अपने शौबे और महकमे की हद तक था जिसके वह इंचार्ज थे। इसी लिये अल्लाह तआला ने आपके लिये यह तदबीर निकाली। आपके भाइयों से पहले यह इक़रार करा लिया गया कि जिसके सामान से वह प्याला बरामद होगा, सज़ा के तौर पर उसे खुद ही गुलाम बनना पड़ेगा और इस तरह हज़रत युसुफ़ के लिये जवाज़ पैदा हो गया कि वह अपने भाई को अपने पास रोक सकें।
“हम दर्जे बुलंद करते हैं जिसके चाहते हैं। और हर साहिबे इल्म के ऊपर कोई और साहिबे इल्म भी है।” | نَرْفَعُ دَرَجٰتٍ مَّنْ نَّشَاۗءُ ۭ وَفَوْقَ كُلِّ ذِيْ عِلْمٍ عَلِيْمٌ 76 |
यानि इल्म के लिहाज़ से उलमा के दरजात हैं। हर आलिम के ऊपर उससे बड़ा आलिम है और यह दरजात अल्लाह तआला की ज़ात पर जाकर इख्तताम पज़ीर होते हैं, जो सबसे बड़ा आलिम है।
आयत 77
“उन्होंने कहा कि अगर इसने चोरी की है तो इससे पहले इसका भाई भी चोरी कर चुका है।” | قَالُوْٓا اِنْ يَّسْرِقْ فَقَدْ سَرَقَ اَخٌ لَّهٗ مِنْ قَبْلُ ۚ |
बिरादराने युसुफ़ की तबीयत का हल्कापन मुलाहिज़ा हो कि इस पर उन्होंने फ़ौरन कहा कि अगर इसने चोरी की है तो इससे यह बईद नहीं था, क्योंकि एक ज़माने में इसके माँजाए भाई (युसुफ़) ने भी इसी तरह की हरकत की थी।
“इसको छुपाये रखा युसुफ़ ने अपने जी में और उन पर ज़ाहिर नहीं होने दिया।” | فَاَسَرَّهَا يُوْسُفُ فِيْ نَفْسِهٖ وَلَمْ يُبْدِهَا لَهُمْ ۚ |
“आपने (दिल ही दिल में) कहा कि तुम बजाए खुद बहुत बुरे लोग हो, और जो कुछ तुम बयान कर रहे हो अल्लाह इससे ख़ूब वाक़िफ़ है।” | قَالَ اَنْتُمْ شَرٌّ مَّكَانًا ۚ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا تَصِفُوْنَ 77 |
उन्होंने आप पर भी फ़ौरन चोरी का बेबुनियाद इल्ज़ाम लगा दिया, मगर आपने कमाले हिकमत और सब्र से इसे बरदाश्त किया और इस पर किसी क़िस्म का कोई रद्दे अमल ज़ाहिर नहीं किया।
आयत 78
“वह कहने लगे: ऐ अज़ीज़ (साहिबे इख्तियार)! इसका वालिद जो है बहुत बूढ़ा है, तो आप इसकी जगह हम में से किसी एक को रख लें।” | قَالُوْا يٰٓاَيُّهَا الْعَزِيْزُ اِنَّ لَهٗٓ اَبًا شَيْخًا كَبِيْرًا فَخُذْ اَحَدَنَا مَكَانَهٗ ۚ |
“हम देख रहे हैं कि आप बड़े ही नेक इंसान हैं।” | اِنَّا نَرٰىكَ مِنَ الْمُحْسِنِيْنَ 78 |
यह सूरतेहाल उन लोगों के लिये बहुत परेशानकुन थी। बाप का ऐतमाद वह पहले ही खो चुके थे। इस दफ़ा अल्लाह के नाम पर अहद करके बिन यामिन को अपने साथ लाए थे। अब ख्याल आता था कि अगर इसे यहाँ छोड़ कर वापस जाते हैं तो वालिद को जाकर क्या मुँह दिखाएँगे। चुनाँचे वह गिडगिडाने पर आ गए और हज़रत युसुफ़ अलै. की मिन्नत समाजत करने लगे कि आप बहुत शरीफ़ और नेक इंसान हैं, आप हम में से किसी एक को इसकी जगह अपने पास रख लें, मगर इसको जाने दें।
आयत 79
“युसुफ़ ने फ़रमाया: अल्लाह की पनाह इस बात से कि हम पकड़ लें किसी और को उस शख्स के बजाए जिसके पास से हमने अपना माल बरामद किया है, यक़ीनन इस सूरत में तो हम ज़ालिम होंगे।” | قَالَ مَعَاذَ اللّٰهِ اَنْ نَّاْخُذَ اِلَّا مَنْ وَّجَدْنَا مَتَاعَنَا عِنْدَهٗٓ ۙ اِنَّآ اِذًا لَّظٰلِمُوْنَ 79ۧ |
आयात 80 से 93 तक
فَلَمَّا اسْتَيْـــَٔـسُوْا مِنْهُ خَلَصُوْا نَجِيًّا ۭ قَالَ كَبِيْرُهُمْ اَلَمْ تَعْلَمُوْٓا اَنَّ اَبَاكُمْ قَدْ اَخَذَ عَلَيْكُمْ مَّوْثِقًا مِّنَ اللّٰهِ وَمِنْ قَبْلُ مَا فَرَّطْتُّمْ فِيْ يُوْسُفَ ۚ فَلَنْ اَبْرَحَ الْاَرْضَ حَتّٰى يَاْذَنَ لِيْٓ اَبِيْٓ اَوْ يَحْكُمَ اللّٰهُ لِيْ ۚ وَهُوَ خَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ 80 اِرْجِعُوْٓا اِلٰٓى اَبِيْكُمْ فَقُوْلُوْا يٰٓاَبَانَآ اِنَّ ابْنَكَ سَرَقَ ۚ وَمَا شَهِدْنَآ اِلَّا بِمَا عَلِمْنَا وَمَا كُنَّا لِلْغَيْبِ حٰفِظِيْنَ 81 وَسْـــَٔـلِ الْقَرْيَةَ الَّتِيْ كُنَّا فِيْهَا وَالْعِيْرَ الَّتِيْٓ اَقْبَلْنَا فِيْهَا ۭ وَاِنَّا لَصٰدِقُوْنَ 82 قَالَ بَلْ سَوَّلَتْ لَكُمْ اَنْفُسُكُمْ اَمْرًا ۭ فَصَبْرٌ جَمِيْلٌ ۭ عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّاْتِيَنِيْ بِهِمْ جَمِيْعًا ۭ اِنَّهٗ هُوَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ 83 وَتَوَلّٰى عَنْهُمْ وَقَالَ يٰٓاَسَفٰى عَلٰي يُوْسُفَ وَابْيَضَّتْ عَيْنٰهُ مِنَ الْحُزْنِ فَهُوَ كَظِيْمٌ 84 قَالُوْا تَاللّٰهِ تَفْتَؤُا تَذْكُرُ يُوْسُفَ حَتّٰى تَكُوْنَ حَرَضًا اَوْ تَكُوْنَ مِنَ الْهٰلِكِيْنَ 85 قَالَ اِنَّمَآ اَشْكُوْا بَثِّيْ وَحُزْنِيْٓ اِلَى اللّٰهِ وَاَعْلَمُ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 86 يٰبَنِيَّ اذْهَبُوْا فَتَحَسَّسُوْا مِنْ يُّوْسُفَ وَاَخِيْهِ وَلَا تَايْـــــَٔـسُوْا مِنْ رَّوْحِ اللّٰهِ ۭ اِنَّهٗ لَا يَايْـــــَٔـسُ مِنْ رَّوْحِ اللّٰهِ اِلَّا الْقَوْمُ الْكٰفِرُوْنَ 87 فَلَمَّا دَخَلُوْا عَلَيْهِ قَالُوْا يٰٓاَيُّهَا الْعَزِيْزُ مَسَّنَا وَاَهْلَنَا الضُّرُّ وَجِئْنَا بِبِضَاعَةٍ مُّزْجٰىةٍ فَاَوْفِ لَنَا الْكَيْلَ وَتَصَدَّقْ عَلَيْنَا ۭ اِنَّ اللّٰهَ يَجْزِي الْمُتَصَدِّقِيْنَ 88 قَالَ هَلْ عَلِمْتُمْ مَّا فَعَلْتُمْ بِيُوْسُفَ وَاَخِيْهِ اِذْ اَنْتُمْ جٰهِلُوْنَ 89 قَالُوْٓا ءَاِنَّكَ لَاَنْتَ يُوْسُفُ ۭ قَالَ اَنَا يُوْسُفُ وَهٰذَآ اَخِيْ ۡ قَدْ مَنَّ اللّٰهُ عَلَيْنَا ۭ اِنَّهٗ مَنْ يَّتَّقِ وَيَصْبِرْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِنِيْنَ 90 قَالُوْا تَاللّٰهِ لَقَدْ اٰثَرَكَ اللّٰهُ عَلَيْنَا وَاِنْ كُنَّا لَخٰطِــــِٕيْنَ 91 قَالَ لَا تَثْرِيْبَ عَلَيْكُمُ الْيَوْمَ ۭ يَغْفِرُ اللّٰهُ لَكُمْ ۡ وَهُوَ اَرْحَمُ الرّٰحِمِيْنَ 92 اِذْهَبُوْا بِقَمِيْصِيْ هٰذَا فَاَلْقُوْهُ عَلٰي وَجْهِ اَبِيْ يَاْتِ بَصِيْرًا ۚ وَاْتُوْنِيْ بِاَهْلِكُمْ اَجْمَعِيْنَ 93ۧ
आयत 80
“फिर जब वह युसुफ़ से मायूस हो गए तो अलैहदगी में जाकर मशवरा करने लगे।” | فَلَمَّا اسْتَيْـــَٔـسُوْا مِنْهُ خَلَصُوْا نَجِيًّا ۭ |
“उनके बड़े ने कहा: क्या तुम्हें मालूम नहीं कि तुम्हारे वालिद ने तुमसे अल्लाह के नाम पर पुख्ता अहद लिया हुआ है” | قَالَ كَبِيْرُهُمْ اَلَمْ تَعْلَمُوْٓا اَنَّ اَبَاكُمْ قَدْ اَخَذَ عَلَيْكُمْ مَّوْثِقًا مِّنَ اللّٰهِ |
उनके सबसे बड़े भाई का नाम यहूदा था, यह वही थे जिन्होंने मशवरा देकर हज़रत युसुफ़ की जान बचाई थी कि अगर तुम उसकी जान के दरपे हो गए हो तो उसे क़त्ल मत करो बल्कि किसी दूर दराज़ इलाक़े में फेंक आओ।
“और (क्या तुम नहीं जानते) जो ज़्यादती इससे पहले तुम युसुफ़ के मामले में कर चुके हो!” | وَمِنْ قَبْلُ مَا فَرَّطْتُّمْ فِيْ يُوْسُفَ ۚ |
“अब तो मैं इस सरज़मीन से नहीं हिलूँगा, यहाँ तक कि मेरे वालिद खुद मुझे इजाज़त दे दें” | فَلَنْ اَبْرَحَ الْاَرْضَ حَتّٰى يَاْذَنَ لِيْٓ اَبِيْٓ |
तुम लोग जाकर वालिद साहब को सारा वाक़िया बताओ, फिर अगर वह मुतमईन होकर मुझे इजाज़त दे दें तो तब मैं वापस जाऊँगा वरना मैं इधर ही रहूँगा।
“या फिर अल्लाह ही मेरे बारे में कोई फ़ैसला कर दे, और यक़ीनन वह बेहतरीन फ़ैसला करने वाला है।” | اَوْ يَحْكُمَ اللّٰهُ لِيْ ۚ وَهُوَ خَيْرُ الْحٰكِمِيْنَ 80 |
आयत 81
“तुम लौट जाओ अपने वालिद के पास और (जाकर) कहो कि अब्बाजान! आपके बेटे ने चोरी की है।” | اِرْجِعُوْٓا اِلٰٓى اَبِيْكُمْ فَقُوْلُوْا يٰٓاَبَانَآ اِنَّ ابْنَكَ سَرَقَ ۚ |
“और हम गवाही नहीं दे सकते मगर उसी चीज़ की जिसके बारे में हमें इल्म है, और हम गैब के निगेहबान नहीं हैं।” | وَمَا شَهِدْنَآ اِلَّا بِمَا عَلِمْنَا وَمَا كُنَّا لِلْغَيْبِ حٰفِظِيْنَ 81 |
अब्बाजान! हमने उसे चोरी करते हुए नहीं देखा, हम तो आपको वही हक़ीक़त बता रहे हैं जो हमारे इल्म में आई है और वह यह है कि बिन यामिन ने चोरी की है और इस जुर्म में वह वहाँ पकड़ा गया है।
आयत 82
“आप इस बस्ती (वालों) से पूछ लें जिसमें हम थे, और उस क़ाफ़िले (वालों) से जिनके साथ हम आए हैं। और हम (अपने बयान में) बिल्कुल सच्चे हैं।” | وَسْـــَٔـلِ الْقَرْيَةَ الَّتِيْ كُنَّا فِيْهَا وَالْعِيْرَ الَّتِيْٓ اَقْبَلْنَا فِيْهَا ۭ وَاِنَّا لَصٰدِقُوْنَ 82 |
आप मिस्र से भी हक़ीक़ते हाल मालूम करा सकते हैं या फिर जिस क़ाफ़िले के साथ हम गए थे उसके सब लोग वहाँ मौजूद थे, उनके सामने यह सब कुछ हुआ था। आप उनमें से किसी से भी पूछ लें, वह सारा माजरा आपको बता देंगे।
आयत 83
“आपने फ़रमाया: (नहीं!) बल्कि तुम्हारे लिये तुम्हारे नफ्सों ने एक काम आसान कर दिया है, पस सब्र ही बेहतर है।” | قَالَ بَلْ سَوَّلَتْ لَكُمْ اَنْفُسُكُمْ اَمْرًا ۭ فَصَبْرٌ جَمِيْلٌ ۭ |
हज़रत याक़ूब अलै. ने यहाँ पर फिर वही फ़िक़रा बोला जो हज़रत युसुफ़ अलै. की मौत के बारे में ख़बर मिलने पर बोला था। उन्हें यक़ीन था कि हक़ीक़त वह नहीं है जो वह बयान कर रहे हैं। उन्होंने कहा: बहरहाल मैं इस पर भी सब्र करूँगा और बखूबी करूँगा।
“हो सकता है अल्लाह उन सबको ले आए मेरे पास। यक़ीनन वह सब कुछ जानने वाला, हिकमत वाला है।” | عَسَى اللّٰهُ اَنْ يَّاْتِيَنِيْ بِهِمْ جَمِيْعًا ۭ اِنَّهٗ هُوَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ 83 |
हज़रत याक़ूब अलै. के लिये हज़रत युसुफ़ अलै. का गम ही क्या कम था कि अब दयारे ग़ैर में दूसरे बेटे के मुसीबत में गिरफ़्तार होने की ख़बर मिल गई, और फिर तीसरे बेटे यहूदा का दुःख इस पर मुस्तज़ाद जिसने मिस्र से वापस आने से इन्कार कर दिया था, मगर फिर भी आप सब्र का दामन थाम रहे। रंज व आलम के सेल बेपनाह का सामना है मगर पाए इस्तक़ामत में लग्ज़िश नहीं आई। बस अल्लाह तआला की ज़ात पर भरोसा है और उसी की रहमत से उम्मीद!
आयत 84
“और आपने उनसे रुख फेर लिया और कहने लगे हाए अफ़सोस युसुफ़ पर! (और रोना शुरू कर दिया)” | وَتَوَلّٰى عَنْهُمْ وَقَالَ يٰٓاَسَفٰى عَلٰي يُوْسُفَ |
“और सदमे से आपकी आँखे सफ़ेद पड़ गई थीं क्योंकि आप गम को (अंदर ही अंदर) पीते रहते थे।” | وَابْيَضَّتْ عَيْنٰهُ مِنَ الْحُزْنِ فَهُوَ كَظِيْمٌ 84 |
हज़रत याक़ूब अलै. को हज़रत युसुफ़ अलै. से बहुत मोहब्बत थी। बेटे के हिज्र व फ़राक (जुदाई) में आपके दिल पर जो गुज़री थी खुद क़ुरान के यह अल्फ़ाज़ इस पर गवाह हैं। यह इंसानी फ़ितरत का एक नागुज़ीर तक़ाज़ा है जिसे यहाँ अच्छी तरह समझने की ज़रूरत है। किसी के बच्चे का फ़ौत हो जाना यक़ीनन बहुत बड़ा सदमा है, लेकिन बच्चे का गुम हो जाना इससे कई गुना बड़ा सदमा है। फ़ौत होने की सूरत में अपने सामने तजहीज़ व तकफ़ीन (अंतिम संस्कार) होने से, अपने हाथों दफ़न करने और क़ब्र बना लेने से किसी क़दर सब्र का दामन हाथ में रहता है और फिर रफ़्ता-रफ़्ता उस सब्र में सबात (दृढ़ता) पैदा होता जाता है। मगर बच्चे के गुम होने की सूरत में उसकी याद मुस्तक़िल तौर पर इंसान के लिये सोहाने रूह बन जाती है। यह ख्याल किसी वक़्त चैन नहीं लेने देता कि ना मालूम बच्चा ज़िन्दा है या फ़ौत हो गया है। और अगर ज़िन्दा है तो कहाँ है? और किस हाल में है? यही दुःख था जो हज़रत याक़ूब अलै. को अन्दर ही अन्दर खा गया था और रो-रो कर आपकी आँखे सफ़ेद हो चुकी थीं। आपको वही के ज़रिये यह तो बतला दिया गया था कि युसुफ़ ज़िन्दा है और आपसे ज़रूर मिलेंगे, मगर कहाँ हैं? किस हाल में हैं? और कब मिलेंगे? ये वह सवालात थे जो आपको सालाह साल से मुसलसल कर्ब (दर्द) में मुब्तला किये हुए थे। अब बिन यामिन की जुदाई पर युसुफ़ का गम पूरी शिद्दत से औद (लौट) कर आया।
आयत 85
“उन्होंने कहा: (अब्बाजान!) अल्लाह की क़सम आप तो युसुफ़ ही को याद करते रहेँगे यहाँ तक कि आप या तो (इसी सदमे में) घुल जायेंगे या फ़ौत हो जायेंगे।” | قَالُوْا تَاللّٰهِ تَفْتَؤُا تَذْكُرُ يُوْسُفَ حَتّٰى تَكُوْنَ حَرَضًا اَوْ تَكُوْنَ مِنَ الْهٰلِكِيْنَ 85 |
आयत 86
“याक़ूब ने फ़रमाया: मैं अपनी परेशानी और अपने ग़म की फ़रियाद अल्लाह ही से करता हूँ” | قَالَ اِنَّمَآ اَشْكُوْا بَثِّيْ وَحُزْنِيْٓ اِلَى اللّٰهِ |
मैंने तुम लोगों से तो कुछ नहीं कहा, मैंने तुम्हें तो कोई लअन-तअन (तानाकशी) नहीं की, तुमसे तो मैंने कोई बाज़पुर्स नहीं की। यही अल्फ़ाज़ थे जो नबी अकरम ﷺ ने ताएफ़ के दिन अपनी दुआ में इस्तेमाल फ़रमाए थे: ((….اَللّٰھُمَّ اِلَیْکَ اَشْکُوْ ضُعْفَ قُوَّتِیْ وَقِلَّۃَ حِیْلَتِیْ وَھَوَانِیْ عَلَی النَّاسِ‘ اِلٰی مَنْ تَکِلُنِیْ؟))(6) “ऐ अल्लाह मैं तेरी जनाब में फ़रियाद लेकर आया हूँ अपनी क़ुव्वत की कमज़ोरी और अपने वसाइल की कमी की, और लोगों के सामने मेरी जो तौहीन हो रही है उसकी। ऐ अल्लाह! तूने मुझे किसके हवाले कर दिया है?…..”
“और मैं अल्लाह की तरफ़ वह कुछ जानता हूँ जो तुम लोग नहीं जानते हो।” | وَاَعْلَمُ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 86 |
यानि अल्लाह तआला के दिए हुए इल्म से मैं जानता हूँ कि युसुफ़ ज़िन्दा है फ़ौत नहीं हुए।
आयत 87
“ऐ मेरे बेटों! जाओ और तलाश करो युसुफ़ को भी और उसके भाई को भी, और अल्लाह की रहमत से मायूस ना होना।” | يٰبَنِيَّ اذْهَبُوْا فَتَحَسَّسُوْا مِنْ يُّوْسُفَ وَاَخِيْهِ وَلَا تَايْـــــَٔـسُوْا مِنْ رَّوْحِ اللّٰهِ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह की रहमत से मायूस तो बस काफ़िर ही होते हैं।” | اِنَّهٗ لَا يَايْـــــَٔـسُ مِنْ رَّوْحِ اللّٰهِ اِلَّا الْقَوْمُ الْكٰفِرُوْنَ 87 |
साहिबे ईमान लोग कभी अल्लाह की रहमत से मायूस नहीं होते।
आयत 88
“फिर जब वह लोग युसुफ़ के यहाँ पहुँचे” | فَلَمَّا دَخَلُوْا عَلَيْهِ |
अगले साल जब वह लोग अपने वालिद के हुक्म के मुताबिक़ मिस्र पहुँचे और फिर हज़रत युसुफ़ के सामने पेश हुए।
“उन्होंने कहा: ऐ अज़ीज़ (साहिबे इख्तियार)! हम पर और हमारे अहलो अयाल पर बड़ी सख्ती आ गई है” | قَالُوْا يٰٓاَيُّهَا الْعَزِيْزُ مَسَّنَا وَاَهْلَنَا الضُّرُّ |
कई साल से लगातार क़हत का समां था। आहिस्ता-आहिस्ता उसके असरात ज़्यादा शिद्दत के साथ ज़ाहिर हो रहे होंगे। भेड़-बकरियाँ भी ख़त्म हो चुकी होंगी। अब तो उनकी ऊन भी नहीं होगी जो अनाज की क़ीमत के एवज दे सकें।
“और हम बहुत हक़ीर सी पूंजी लेकर आए हैं, लेकिन (इसके बावजूद) आप हमारे लिये पैमाने पूरे भर कर दीजिये” | وَجِئْنَا بِبِضَاعَةٍ مُّزْجٰىةٍ فَاَوْفِ لَنَا الْكَيْلَ |
इस दफ़ा हम जो चीज़ें गल्ले की क़ीमत अदा करने के लिये लेकर आए हैं वह बहुत कम और नाक़िस हैं। हम जानते हैं कि इनसे गल्ले की क़ीमत पूरी नहीं हो सकती।
“और हमें खैरात भी दीजिये।” | وَتَصَدَّقْ عَلَيْنَا ۭ |
अपने इन्तहाई ख़राब हालात की वजह से हम चूँकि खैरात के मुस्तहिक़ हो चुके हैं, इसलिये आपसे दरख्वास्त है कि इस दफ़ा कुछ गल्ला आप हमें खैरात में भी दें।
“यक़ीनन अल्लाह सदक़ा देने वालों को जज़ा देता है।” | اِنَّ اللّٰهَ يَجْزِي الْمُتَصَدِّقِيْنَ 88 |
चूँकि हज़रत युसुफ़ अलै. के लिये यह सारी सूरतेहाल बहुत रक़्तअंगेज़ (दयनीय) थी, इसलिये आप मज़ीद ज़ब्त नहीं कर सके और आपने उन्हें अपने बारे में बताने का फ़ैसला कर लिया।
आयत 89
“आपने पूछा: क्या तुम लोगों को याद है कि तुमने क्या किया था युसुफ़ और उसके भाई के साथ जबकि तुम नादान थे!” | قَالَ هَلْ عَلِمْتُمْ مَّا فَعَلْتُمْ بِيُوْسُفَ وَاَخِيْهِ اِذْ اَنْتُمْ جٰهِلُوْنَ 89 |
आपका अपने भाईयों से यह सवाल करना गोया अल्लाह तआला के इस वादे का हर्फ़-ब-हर्फ़ अयफ़ा (प्रदर्शन) था जिसका ज़िक्र सूरत के आग़ाज़ में इन अल्फ़ाज़ में हुआ था: { وَاَوْحَيْنَآ اِلَيْهِ لَتُنَبِّئَنَّهُمْ بِاَمْرِهِمْ ھٰذَا وَهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ} (आयत 15)। यह तब की बात है जब वह सब भाई मिल कर आपको बावली में फेंकने की तैयारी कर रहे थे। अल्लाह तआला ने उस वक़्त इन अल्फ़ाज़ में आपके दिल पर इल्हाम किया था कि एक वक़्त आएगा जब आप अपने भाईयों को यह बात ज़रूर जतलायेंगे, और यह ऐसे वक़्त और ऐसी सूरतेहाल में होगा जब यह बात उनके वहम व गुमान में भी नहीं होगी।
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आयत 90
“उन्होंने कहा: तो क्या आप युसुफ़ हैं? युसुफ़ ने फ़रमाया: हाँ! मैं युसुफ़ हूँ और यह मेरा भाई है” | قَالُوْٓا ءَاِنَّكَ لَاَنْتَ يُوْسُفُ ۭ قَالَ اَنَا يُوْسُفُ وَهٰذَآ اَخِيْ ۡ |
“अल्लाह ने हम पर बड़ा अहसान किया है। यक़ीनन जो शख्स तक़वा की रविश इख्तियार करता है और सब्र करता है तो अल्लाह ऐसे नेकोकारों के अज्र को ज़ाया नहीं करता।” | قَدْ مَنَّ اللّٰهُ عَلَيْنَا ۭ اِنَّهٗ مَنْ يَّتَّقِ وَيَصْبِرْ فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُضِيْعُ اَجْرَ الْمُحْسِنِيْنَ 90 |
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आयत 91
“उन्होंने कहा: अल्लाह की क़सम! अल्लाह ने आपको हम पर फज़ीलत बख्शी है, यक़ीनन हम ही खताकार थे।” | قَالُوْا تَاللّٰهِ لَقَدْ اٰثَرَكَ اللّٰهُ عَلَيْنَا وَاِنْ كُنَّا لَخٰطِــــِٕيْنَ 91 |
यक़ीनन हम खताकार हैं, बिलाशुबह ज़ुल्म व ज़्यादती के मुरतकिब हम ही हुए थे।
आयत 92
“युसुफ़ ने फ़रमाया: आज के दिन तुम लोगों पर कोई मलामत नहीं।” | قَالَ لَا تَثْرِيْبَ عَلَيْكُمُ الْيَوْمَ ۭ |
यह इस क़दर मामूली बात नहीं थी जिसे एक फ़िक़रे में ख़त्म कर दिया जाता, मगर हज़रत युसुफ़ अलै. की शख्सियत के तरफ़अ (पदोन्नति) और अख्लाक़ की अज़मत की दलील है कि आपने अपने उन खताकार भाईयों को फ़ौरन ग़ैर मशरूत (unconditional) तौर पर माफ़ कर दिया।
यहाँ ये बात भी नोट कर लें कि नबी अकरम ﷺ ने फ़तह मक्का के मौक़े पर अपने मुखाल्फ़ीन, जिनके जराएम (जुर्मों) की फ़ेहरिस्त बड़ी तवील और संगीन थी, को माफ़ करते हुए हज़रत युसुफ़ अलै. के इसी क़ौल का तज़किरा किया था। आपने फ़रमाया: ((اَنَا اَقُوْلُ کَمَا قَالَ اَخِیْ یُوْسُفُ : لَا تَثْرِیْبَ عَلَیْکُمُ الْیَوْمَ)) “मैं आज (तुम्हारे बारे में) वही कहूँगा जो मेरे भाई हज़रत युसुफ़ अलै. ने (अपने भाईयों से) कहा था: (जाओ) तुम पर आज कोई गिरफ़्त नहीं है!”
“अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, और वह तमाम रहम करने वालों से बढ़ कर रहम करने वाला है।” | يَغْفِرُ اللّٰهُ لَكُمْ ۡ وَهُوَ اَرْحَمُ الرّٰحِمِيْنَ 92 |
आयत 93
“तुम मेरी यह क़मीज़ ले जाओ और (जाकर) इसे मेरे वालिद के चेहरे पर डाल दो, आपकी बसारत लौट आएगी।” | اِذْهَبُوْا بِقَمِيْصِيْ هٰذَا فَاَلْقُوْهُ عَلٰي وَجْهِ اَبِيْ يَاْتِ بَصِيْرًا ۚ |
“और तुम ले आओ मेरे पास अपने तमाम अहल खाना (घर वालों) को।” | وَاْتُوْنِيْ بِاَهْلِكُمْ اَجْمَعِيْنَ 93ۧ |
आयात 94 से 101 तक
وَلَمَّا فَصَلَتِ الْعِيْرُ قَالَ اَبُوْهُمْ اِنِّىْ لَاَجِدُ رِيْحَ يُوْسُفَ لَوْلَآ اَنْ تُفَنِّدُوْنِ 94 قَالُوْا تَاللّٰهِ اِنَّكَ لَفِيْ ضَلٰلِكَ الْقَدِيْمِ 95 فَلَمَّآ اَنْ جَاۗءَ الْبَشِيْرُ اَلْقٰىهُ عَلٰي وَجْهِهٖ فَارْتَدَّ بَصِيْرًا ۚ قَالَ اَلَمْ اَقُلْ لَّكُمْ ڌ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 96 قَالُوْا يٰٓاَبَانَا اسْـتَغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَآ اِنَّا كُنَّا خٰطِـــِٕـيْنَ 97 قَالَ سَوْفَ اَسْتَغْفِرُ لَكُمْ رَبِّيْ ۭ اِنَّهٗ هُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ 98 فَلَمَّا دَخَلُوْا عَلٰي يُوْسُفَ اٰوٰٓى اِلَيْهِ اَبَوَيْهِ وَقَالَ ادْخُلُوْا مِصْرَ اِنْ شَاۗءَ اللّٰهُ اٰمِنِيْنَ 99ۭ وَرَفَعَ اَبَوَيْهِ عَلَي الْعَرْشِ وَخَرُّوْا لَهٗ سُجَّدًا ۚ وَقَالَ يٰٓاَبَتِ هٰذَا تَاْوِيْلُ رُءْيَايَ مِنْ قَبْلُ ۡ قَدْ جَعَلَهَا رَبِّيْ حَقًّا ۭ وَقَدْ اَحْسَنَ بِيْٓ اِذْ اَخْرَجَنِيْ مِنَ السِّجْنِ وَجَاۗءَ بِكُمْ مِّنَ الْبَدْوِ مِنْۢ بَعْدِ اَنْ نَّزَغَ الشَّيْطٰنُ بَيْنِيْ وَبَيْنَ اِخْوَتِيْ ۭ اِنَّ رَبِّيْ لَطِيْفٌ لِّمَا يَشَاۗءُ ۭ اِنَّهٗ هُوَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ ١٠٠ رَبِّ قَدْ اٰتَيْتَنِيْ مِنَ الْمُلْكِ وَعَلَّمْتَنِيْ مِنْ تَاْوِيْلِ الْاَحَادِيْثِ ۚ فَاطِرَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۣ اَنْتَ وَلِيّٖ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚ تَوَفَّنِيْ مُسْلِمًا وَّاَلْحِقْنِيْ بِالصّٰلِحِيْنَ ١٠١
आयत 94
“और जब क़ाफ़िला चला (मिस्र से तो) उनके वालिद ने फ़रमाया: मुझे युसुफ़ की ख़ुशबू आ रही है, अगर तुम लोग यह ना कहो कि मैं सठिया गया हूँ।” | وَلَمَّا فَصَلَتِ الْعِيْرُ قَالَ اَبُوْهُمْ اِنِّىْ لَاَجِدُ رِيْحَ يُوْسُفَ لَوْلَآ اَنْ تُفَنِّدُوْنِ 94 |
यहाँ पर यह बात क़ाबिले गौर है कि ज्योंहि हज़रत युसुफ़ अलै. की क़मीज़ ले कर क़ाफ़िला मिस्र से चला उसी लम्हे कनआन में हज़रत याक़ूब अलै. को अपने बेटे की खुशबू पहुँच गई। मगर इससे पहले एक तवील अरसे तक आपने अपने बेटे के हिज्र में रो-रो कर अपनी आँखे सफ़ेद कर लीं, मगर यह ख़ुशबू नहीं आई। इससे यह नुक्ता वाज़ेह होता है कि कोई नबी हो या वली, किसी मौज्ज्ज़े या करामात का ज़हूर किसी भी शख्सियत का ज़ाती कमाल नहीं है, बल्कि यह अल्लाह तआला की ख़ास इनायत है। वह जिसको, जिस वक़्त जो इल्म चाहे अता फ़रमा दे या उसके हाथों जो चाहे दिखा दे। जैसे एक दफ़ा हज़रत उमर रज़ि. को मस्जिदे नबवी में ख़ुत्बे के दौरान अल्लाह तआला ने शाम के इलाक़े में वाक़ेअ उस मैदाने जंग का नक़्शा दिखा दिया जहाँ उस वक़्त इस्लामी अफ़वाज़ बरसर पैकार थीं, और आपने फ़ौज के कमान्डर सारया को एक हरबी तदबीर इख्तियार करने की बा-आवाज़े बुलंद तलक़ीन फ़रमाई। जनाब सारया ने मैदाने जंग में हज़रत उमर रज़ि. की आवाज़ सुनी और आपकी हिदायत पर अमल किया। लेकिन इसका यह मतलब हरगीज़ नहीं कि हज़रत उमर रज़ि. को इख्तियार था कि जब चाहते ऐसा मंज़र देख लेते।
आयत 95
“उन्होंने (घरवालों) ने कहा: अल्लाह की क़सम! आप तो अपने उसी पुराने खब्त (धुन) में मुबतला हैं।” | قَالُوْا تَاللّٰهِ اِنَّكَ لَفِيْ ضَلٰلِكَ الْقَدِيْمِ 95 |
आपको शुरू ही से यह वहम है कि युसुफ़ ज़िन्दा है और आपको उसके दोबारा मिलने का यक़ीन है। यह आपके ज़हन पर उसी वहम के ग़लबे का असर है जो आप इस तरह की बातें कर रहे हैं। वही पुराने ख्यालात युसुफ़ की खुशबू बन कर आपके दिमाग़ में आ रहे हैं।
आयत 96
“तो जब आया बशारत देने वाला और उसने डाला उस (क़मीज़) को याक़ूब के चेहरे पर तो आप फिर से हो गए देखने वाले।” | فَلَمَّآ اَنْ جَاۗءَ الْبَشِيْرُ اَلْقٰىهُ عَلٰي وَجْهِهٖ فَارْتَدَّ بَصِيْرًا ۚ |
युसुफ़ अलै. की क़मीज़ चेहरे पर डालते ही हज़रत याक़ूब अलै. की बशारत लौट आई। यहाँ यह बात क़ाबिले ज़िक्र है कि हज़रत याक़ूब अलै. के सामने ज़िन्दगी का सबसे अन्दुहनाक (भयानक) गम भी हज़रत युसुफ़ अलै. के कुरते ही की सूरत में सामने आया था जब बिरादाराने युसुफ़ ने उस पर खून लगा कर उनके सामने पेश कर दिया था कि युसुफ़ को भेड़िया खा गया और अब ज़िंदगी की सबसे बड़ी ख़ुशी भी युसुफ़ के कुरते ही की सूरत में नमूदार हो गई।
“आपने फ़रमाया: क्या मैं तुमसे कहता नहीं था कि मुझे अल्लाह की तरफ़ से उन चीज़ों का इल्म है जो तुम नहीं जानते?” | قَالَ اَلَمْ اَقُلْ لَّكُمْ ڌ اِنِّىْٓ اَعْلَمُ مِنَ اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 96 |
आयत 97
“उन्होंने कहा: अब्बाजान! हमारे लिये हमारे गुनाहों की मगफ़िरत तलब कीजिये, यक़ीनन हम ही खताकार थे।” | قَالُوْا يٰٓاَبَانَا اسْـتَغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَآ اِنَّا كُنَّا خٰطِـــِٕـيْنَ 97 |
आयत 98
“आपने फ़रमाया: अनक़रीब मैं मगफ़िरत तलब करूँगा तुम्हारे लिये अपने रब से, यक़ीनन वही है बख्शीश वाला, बहुत रहम करने वाला।” | قَالَ سَوْفَ اَسْتَغْفِرُ لَكُمْ رَبِّيْ ۭ اِنَّهٗ هُوَ الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ 98 |
यहाँ पर “سَوْفَ” का लफ्ज़ बहुत अहम है। यानि आपने फ़ौरी तौर पर उनके लिये इस्तगफ़ार नहीं किया बल्कि वादा किया कि मैं अनक़रीब तुम लोगों के लिये अपने रब से इस्तगफ़ार करूँगा। इसका मतलब यह है कि अभी अपने बेटों के बारे में आपके दिल में रंज व गुस्सा बरक़रार था। शायद आपका ख्याल हो कि मैं युसुफ़ से मिल कर सारी तफ़सीलात मालूम करूँगा, इसके बाद जब तमाम मामलात की सफ़ाई हो जाएगी तो फिर मैं अपने रब से इन के लिये माफ़ी की दरख्वास्त करूँगा।
आयत 99
“फिर जब वह सब युसुफ़ के पास पहुँच गए तो उन्होंने जगह दी अपने पास अपने वालिदैन को” | فَلَمَّا دَخَلُوْا عَلٰي يُوْسُفَ اٰوٰٓى اِلَيْهِ اَبَوَيْهِ |
कनआन से चलकर बनी इसराइल का यह पूरा ख़ानदान जब हज़रत युसुफ़ अलै. के पास मिस्र पहुँचा तो आपने ख़ुसूसी ऐज़ाज़ के साथ उनका इस्तक़बाल किया और अपने वालिदैन को अपने पास इम्तियाज़ी नाशिस्तें पेश कीं।
“और कहा कि अब आप लोग मिस्र में दाख़िल हो जाएँ, अल्लाह ने चाहा तो पूरे अमन व चैन के साथ (यहाँ रहें)।” | وَقَالَ ادْخُلُوْا مِصْرَ اِنْ شَاۗءَ اللّٰهُ اٰمِنِيْنَ 99ۭ |
अब आप लोगों को कोई परेशानी नहीं होगी। अगर अल्लाह ने चाहा तो यहाँ आपके लिये अमन व चैन और सुकून व राहत ही है।
आयत 100
“और आपने अपने वालिदैन को ऊँचे तख़्त पर बैठाया, और वह सबके सब युसुफ़ के सामने सज्दे में गिर गए।” | وَرَفَعَ اَبَوَيْهِ عَلَي الْعَرْشِ وَخَرُّوْا لَهٗ سُجَّدًا ۚ |
यह सज्दा-ए-ताज़ीमी था जो पहली शरीअतों मे जायज़ था। शरीअते मोहम्मदी ﷺ में जहाँ दीन की तकमील हो गई वहाँ तौहीद का मामला भी आख़री दरजे में तकमील को पहुँचा दिया गया। चुनाँचे यह सज्दा-ए-ताज़ीमी अब हरामे मुतलक़ है। जो लोग अपने बुज़ुर्गों या क़ब्रों को सज्दा करते हैं वह सरीह शिर्क का इरतकाब करते हैं। साबक़ा अम्बिया किराम अलै. के हालात व वाक़िआत से आज इसके लिये कोई दलील अखज़ करना क़तअन दुरुस्त नहीं।
“और युसुफ़ ने कहा: अब्बाजान! यह है ताबीर उस ख्व़ाब की जो मैंने पहले (बचपन में) देखा था” | وَقَالَ يٰٓاَبَتِ هٰذَا تَاْوِيْلُ رُءْيَايَ مِنْ قَبْلُ ۡ |
हज़रत युसुफ़ अलै. के इस ख्व़ाब का ज़िक्र आयत 4 में है कि ग्यारह सितारे और सूरज और चाँद मुझे सज्दा कर रहे हैं। इसमें ग्यारह भाई सितारे की मानिन्द जबकि वालिदैन सूरज और चाँद के हुक्म में हैं।
“मेरे रब ने उसको सच्चा कर दिखाया।” | قَدْ جَعَلَهَا رَبِّيْ حَقًّا ۭ |
“और उसने मुझ पर बहुत अहसान किया जब मुझे क़ैदखाने से निकलवाया” | وَقَدْ اَحْسَنَ بِيْٓ اِذْ اَخْرَجَنِيْ مِنَ السِّجْنِ |
“और आप लोगों को (यहाँ) ले आया सहरा से” | وَجَاۗءَ بِكُمْ مِّنَ الْبَدْوِ |
आप लोगों को सहरा की पुर मशक्क़त ज़िन्दगी से निजात दिला कर यहाँ मिस्र के मुतमद्दिन और तरक्क़ी याफ्ता माहौल में पहुँचा दिया, जहाँ ज़िंदगी की हर सहुलत मयस्सर है।
“इसके बाद कि शैतान ने मेरे और मेरे भाइयों के दरमियान दुश्मनी डाल दी थी।” | مِنْۢ بَعْدِ اَنْ نَّزَغَ الشَّيْطٰنُ بَيْنِيْ وَبَيْنَ اِخْوَتِيْ ۭ |
“यक़ीनन मेरा रब ग़ैर महसूस तौर पर तदबीर करता है जो चाहता है। यक़ीनन वही है हर शय का इल्म रखने वाला, हिकमत वाला।” | اِنَّ رَبِّيْ لَطِيْفٌ لِّمَا يَشَاۗءُ ۭ اِنَّهٗ هُوَ الْعَلِيْمُ الْحَكِيْمُ ١٠٠ |
अल्लाह तआला अपनी मशियत के मुताबिक़ बारीक बीनी से तदबीर करता है और उसकी तदबीर बिलआखिर कामयाब होती है। इसके बाद हज़रत युसुफ़ अलै. अल्लाह के हुज़ूर दुआ करते हैं:
आयत 101
“ऐ मेरे रब! तूने मुझे हुकूमत भी अता की है और मुझे ख़्वाबों की ताबीर (या मामला फ़हमी) का इल्म भी सिखाया है।” | رَبِّ قَدْ اٰتَيْتَنِيْ مِنَ الْمُلْكِ وَعَلَّمْتَنِيْ مِنْ تَاْوِيْلِ الْاَحَادِيْثِ ۚ |
“ऐ वह हस्ती जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया है, तू ही मेरा कारसाज़ है, दुनिया में भी और आख़िरत में भी।” | فَاطِرَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۣ اَنْتَ وَلِيّٖ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚ |
“मुझे वफ़ात दीजियो फ़रमाबदारी की हालत में और मुझे शामिल कर दीजियो अपने सालेह बन्दों में।” | تَوَفَّنِيْ مُسْلِمًا وَّاَلْحِقْنِيْ بِالصّٰلِحِيْنَ ١٠١ |
आयात 102 से 111 तक
ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهِ اِلَيْكَ ۚ وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ اَجْمَعُوْٓا اَمْرَهُمْ وَهُمْ يَمْكُرُوْنَ ١٠٢ وَمَآ اَكْثَرُ النَّاسِ وَلَوْ حَرَصْتَ بِمُؤْمِنِيْنَ ١٠٣ وَمَا تَسْــــَٔـلُهُمْ عَلَيْهِ مِنْ اَجْرٍ ۭ اِنْ هُوَ اِلَّا ذِكْرٌ لِّلْعٰلَمِيْنَ ١٠٤ۧ وَكَاَيِّنْ مِّنْ اٰيَةٍ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ يَمُرُّوْنَ عَلَيْهَا وَهُمْ عَنْهَا مُعْرِضُوْنَ ١٠٥ وَمَا يُؤْمِنُ اَكْثَرُهُمْ بِاللّٰهِ اِلَّا وَهُمْ مُّشْرِكُوْنَ ١٠٦ اَفَاَمِنُوْٓا اَنْ تَاْتِيَهُمْ غَاشِيَةٌ مِّنْ عَذَابِ اللّٰهِ اَوْ تَاْتِيَهُمُ السَّاعَةُ بَغْتَةً وَّهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ ١٠٧ قُلْ هٰذِهٖ سَبِيْلِيْٓ اَدْعُوْٓا اِلَى اللّٰهِ ۷ عَلٰي بَصِيْرَةٍ اَنَا وَمَنِ اتَّبَعَنِيْ ۭ وَسُبْحٰنَ اللّٰهِ وَمَآ اَنَا مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ ١٠٨ وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ اِلَّا رِجَالًا نُّوْحِيْٓ اِلَيْهِمْ مِّنْ اَهْلِ الْقُرٰى ۭ اَفَلَمْ يَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ فَيَنْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۭ وَلَدَارُ الْاٰخِرَةِ خَيْرٌ لِّـلَّذِيْنَ اتَّقَوْا ۭاَفَلَا تَعْقِلُوْنَ ١٠٩ ﱑ اِذَا اسْتَيْــــَٔـسَ الرُّسُلُ وَظَنُّوْٓا اَنَّهُمْ قَدْ كُذِبُوْا جَاۗءَهُمْ نَصْرُنَا ۙ فَنُجِّيَ مَنْ نَّشَاۗءُ ۭ وَلَا يُرَدُّ بَاْسُـنَا عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِيْنَ ١١٠ لَقَدْ كَانَ فِيْ قَصَصِهِمْ عِبْرَةٌ لِّاُولِي الْاَلْبَابِ ۭ مَا كَانَ حَدِيْثًا يُّفْتَرٰى وَلٰكِنْ تَصْدِيْقَ الَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْهِ وَتَفْصِيْلَ كُلِّ شَيْءٍ وَّهُدًى وَّرَحْمَةً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ١١١ۧ
आयत 102
“ये हैं गैब की ख़बरों में से जो हम वही करते हैं (ऐ मोहम्मद ﷺ) आपकी तरफ़।” | ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهِ اِلَيْكَ ۚ |
“और आप उनके पास मौजूद नहीं थे जब उन्होंने इत्तेफ़ाक़े राय किया था अपने मामले पर और जब वह लोग साज़िश कर रहे थे।” | وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ اَجْمَعُوْٓا اَمْرَهُمْ وَهُمْ يَمْكُرُوْنَ ١٠٢ |
आयत 103
“और बहुत से लोग ईमान लाने वाले नहीं हैं, चाहे आप कितनी ही ख्वाहिश रखें।” | وَمَآ اَكْثَرُ النَّاسِ وَلَوْ حَرَصْتَ بِمُؤْمِنِيْنَ ١٠٣ |
इन मुन्करीने हक़ ने अपनी तरफ़ से एक सवाल किया था, हमने इसका मुफ़स्सल (विस्तृत) जवाब दे दिया है। मगर इसका यह मतलब नहीं है कि इस क़दर उम्दा और ख़ूबसूरत जवाब पाकर वह लोग ईमान भी ले आयेंगे। नहीं ऐसा नहीं होगा। इनमें से अक्सर लोग़ आप ﷺ की शदीद ख्वाहिश के बावजूद भी ईमान नहीं लाएंगे।
आयत 104
“और (ऐ नबी ﷺ!) आप इस पर इनसे कोई अज्र तो नहीं माँग रहे, यह (क़ुरान) तो तमाम जहाँ वालों के लिये एक याददिहानी है।” | وَمَا تَسْــــَٔـلُهُمْ عَلَيْهِ مِنْ اَجْرٍ ۭ اِنْ هُوَ اِلَّا ذِكْرٌ لِّلْعٰلَمِيْنَ ١٠٤ۧ |
आयत 105
“और कितनी ही निशानियाँ हैं आसमानों और ज़मीन में जिन पर से ये गुज़रते रहते हैं, लेकिन ये उनसे ऐराज़ ही करते हैं।” | وَكَاَيِّنْ مِّنْ اٰيَةٍ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ يَمُرُّوْنَ عَلَيْهَا وَهُمْ عَنْهَا مُعْرِضُوْنَ ١٠٥ |
ये लोग ज़मीन व आसमान की वुसअतों (extensions) में अल्लाह तआला की बेशुमार निशानियों को बार-बार देखते हैं मगर कभी इन पर गौर करके सबक़ हासिल नहीं करते।
आयत 106
“और इनमें से अक्सर लोग अल्लाह पर ईमान नहीं रखते मगर इस तरह कि (किसी ना किसी नौअ का) शिर्क भी करते हैं।” | وَمَا يُؤْمِنُ اَكْثَرُهُمْ بِاللّٰهِ اِلَّا وَهُمْ مُّشْرِكُوْنَ ١٠٦ |
ये आयत हमारे लिये बहुत ज़्यादा लायक़-ए-तवज्जो है और हम सबको इस पर बहुत गौर व खौज़ करने की ज़रूरत है। शिर्क का मामला उन लोगों का तो बिल्कुल वाज़ेह है जो एक अल्लाह के साथ बेशुमार दूसरे मअबूदों पर ईमान रखते हैं और मुख्तलिफ़ नामों से उनकी पूजा करते हैं। लेकिन जो लोग खुद को मुवह्हिद (Monotheism) समझते हैं और अपने ख्याल में वह इम्कानी हद तक मुवह्हिद होते भी हैं, बसा औक़ात ग़ैर शऊरी तौर पर वह भी किसी ना किसी नौअ (type) के शिर्क में मुलव्विस हो जाते हैं। इस सूरतेहाल को समझने के लिये बड़ी गहरी बसीरत की ज़रूरत है, और ऐसी बसीरत और ऐसा इल्म हासिल करना हर साहिबे शऊर मुसलमान पर फ़र्ज़ है ताकि वह खुद को इस मोहलक (घातक) और तबाहकुन गुनाह से बचा सके।
शिर्क को क़ुरान मजीद में बदतरीन गुनाह और सबसे बड़ा जुर्म क़रार दिया गया है। इस गुनाह की शिद्दत का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि सूरतुन्निसा में वह आयत दो मरतबा आई है जिसमें शिर्क का इरतकाब (commit) करने वाले फ़र्द के लिये माफ़ी और मगफ़िरत के किसी भी इम्कान को सख्ती से रद्द कर दिया गया है: {اِنَّ اللّٰهَ لَا يَغْفِرُ اَنْ يُّشْرَكَ بِهٖ وَيَغْفِرُ مَا دُوْنَ ذٰلِكَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ ۭ} (आयत 116 व 148) इस ऐतबार से मैं यहाँ पर एक दफ़ा फिर ज़िक्र करना ज़रूरी समझता हूँ कि “हक़ीक़त व अक़साम शिर्क” के मौज़ू पर मेरी छ: घंटे की तक़ारीर की रिकार्डिंग आप ज़रूर सुनें (अब इसी नाम से एक किताब भी दस्तयाब है, जिसका मुताअला कर लें) और समझने की कोशिश करें कि शिर्क की हक़ीक़त और इसकी अक़साम क्या है? माज़ी में शिर्क की क्या सूरतें थीं और आज के दौर का सबसे बड़ा शिर्क कौनसा है? शिर्क फ़िल-ज़ात क्या है? शिर्क फ़िल-सिफ़ात क्या है? शिर्क फ़िल-हुक़ूक़ क्या है? नज़रियाती शिर्क क्या है? साइंस में ये शिर्क किस तौर से आया है? क़ौम परस्ती, माद्दा परस्ती, नफ्स परस्ती और दौलत परस्ती किस ऐतबार से शिर्क के ज़ुमरे (श्रेणी) में आती है? कौन-कौन से बड़े शिर्क है जिनमें आज हमारे मुलव्विस होने का इम्कान (संभावना) है? शिर्क के बारे में ये तमाम तफ़सीलात जानना एक बंदा-ए-मुसलमान के लिये इन्तहाई ज़रूरी हैं।
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आयत 107
“क्या वह इससे बेखौफ़ हो चुके हैं कि आ धमके उन पर ढाँप लेने वाली आफ़त अल्लाह के अज़ाब की” | اَفَاَمِنُوْٓا اَنْ تَاْتِيَهُمْ غَاشِيَةٌ مِّنْ عَذَابِ اللّٰهِ |
“या (उनको ये डर भी नहीं रहा कि) आ जाए उन पर क़यामत अचानक और उन्हें इसका अहसास तक ना हो!” | اَوْ تَاْتِيَهُمُ السَّاعَةُ بَغْتَةً وَّهُمْ لَا يَشْعُرُوْنَ ١٠٧ |
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आयत 108
“(ऐ नबी ﷺ!) आप कह दीजिये कि ये मेरा रास्ता है, मैं अल्लाह की तरफ़ बुला रहा हूँ, पूरी बसीरत के साथ, मैं भी और वह लोग भी जिन्होंने मेरी पैरवी की है।” | قُلْ هٰذِهٖ سَبِيْلِيْٓ اَدْعُوْٓا اِلَى اللّٰهِ ۷ عَلٰي بَصِيْرَةٍ اَنَا وَمَنِ اتَّبَعَنِيْ ۭ |
यानि मेरा इस रास्ते को इख्तियार करना और फिर इसकी तरफ़ लोगों को दावत देना, यूँही कोई अँधेरे में टामक टोईयाँ मारने के मुतरादिफ़ नहीं है, बल्कि मैं अपनी बसीरते बातिनी के साथ, पूरी सूझ-बूझ और पूरे शऊर के साथ इस रास्ते पर खुद भी चल रहा हूँ और इस रास्ते की तरफ़ दूसरों को भी बुला रहा हूँ। इसी तरह मेरे पैरोकार भी कोई अंधे बहरे मुक़ल्लिद नहीं हैं बल्कि पूरे शऊर के साथ मेरी पैरवी कर रहे हैं।
आज के दौर में इस शऊरी ईमान की बहुत ज़रूरत है। अगरचे blind faith भी अपनी जगह बहुत क़ीमती चीज़ है और ये भी इंसान की ज़िंदगी और ज़िंदगी की इक़दार में इन्क़लाब ला सकता है, लेकिन आज ज़रूरत चूँकि निज़ाम बदलने की है और निज़ाम पर मआशरे के intelligentsia का तसल्लुत (शासन) है, इसलिये जब तक इस तबक़े के अंदर शऊर और बसीरत वाला ईमान पैदा नहीं होगा, ये निज़ाम तब्दील नहीं हो सकता।
“और अल्लाह पाक है और मैं हरगिज़ शिर्क करने वालों में से नहीं हूँ।” | وَسُبْحٰنَ اللّٰهِ وَمَآ اَنَا مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ ١٠٨ |
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आयत 109
“और (ऐ नबी ﷺ!) हम नहीं भेजते रहे आपसे पहले (रसूल बनाकर) मगर मर्दों ही को बस्तियों वालों में से, जिनकी तरफ़ हम वही करते थे।” | وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ اِلَّا رِجَالًا نُّوْحِيْٓ اِلَيْهِمْ مِّنْ اَهْلِ الْقُرٰى ۭ |
यानि आप ﷺ से पहले मुख्तलिफ़ अदवार (समय) में और मुख्तलिफ़ इलाक़ों में जो अंबिया व रुसुल आए वह सब आदमी ही थे और उन ही बस्तियों के रहने वालों में से थे।
“तो क्या ये लोग ज़मीन में घूमे-फिरे नहीं हैं कि वह देखते कि क्या अंजाम हुआ उन लोगों का जो इनसे पहले थे।” | اَفَلَمْ يَسِيْرُوْا فِي الْاَرْضِ فَيَنْظُرُوْا كَيْفَ كَانَ عَاقِبَةُ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۭ |
ये उन्ही अक़वाम के अंजाम की तरफ़ इशारा है जिनका ज़िक्र अम्बिया अर्रुसुल के तहत क़ुरान में बार-बार आया है।
“और यक़ीनन आख़िरत का घर बेहतर है उन लोगों के लिये जो तक़वे की रविश इख्तियार करें। तो क्या तुम अक़्ल से काम नहीं लेते?” | وَلَدَارُ الْاٰخِرَةِ خَيْرٌ لِّـلَّذِيْنَ اتَّقَوْا ۭاَفَلَا تَعْقِلُوْنَ ١٠٩ |
अगली आयत मुश्किलातुल क़ुरान में से है और इसके बारे में बहुत सी आरा (राय) हैं। मेरे नज़दीक जो राय सहीतर है, सिर्फ़ वह यहाँ बयान की जा रही है।
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आयत 110
“यहाँ तक कि जब रसूल मायूस हो गए” | ﱑ اِذَا اسْتَيْــــَٔـسَ الرُّسُلُ |
यानि मुतलक़ा क़ौम में जिस क़दर फ़ितरते सलीमा की इस्तेदाद (potential) थी उस लिहाज़ से नताइज सामने आ चुके। उनमें से जिन लोगों ने ईमान लाना था वह ईमान ला चुके और मज़ीद किसी के ईमान लाने की तवक्क़ो ना रही। ब-अल्फ़ाज़े दीगर इस चाटी में से जिस क़दर मक्खन निकलना था निकल चुका, अब इसे मज़ीद बिलौने का कोई फ़ायदा नज़र नहीं आ रहा।
“और लोग यह समझ बैठे कि उनसे झूठ बोला गया था” | وَظَنُّوْٓا اَنَّهُمْ قَدْ كُذِبُوْا |
यहाँ وَظَنُّوْٓا का फ़ाइल मुतलक़ा क़ौम के लोग हैं, यानि अब तक जो लोग ईमान नहीं लाए थे वह मज़ीद दिलेर हो गए। उन्होंने ये समझा कि ये सब-कुछ वाक़ई झूठ था। क्योंकि अगर सच होता तो इतने अरसे से हमें जो अज़ाब की धमकियाँ मिल रही थीं वह पूरी हो जातीं। हम ईमान भी नहीं लाए और अज़ाब भी नहीं आया तो इसका मतलब ये है कि नबुवत का दावा और अज़ाब के ये डरावे सब झूठ ही था।
“तो उनको हमारी मदद आ पहुँची” | جَاۗءَهُمْ نَصْرُنَا ۙ |
यानि अम्बिया व रुसुल की दावत और हक़ व बातिल की कशमकश के दौरान हमेशा ऐसा हुआ कि जब दोनों तरफ़ की सोच अपनी-अपनी आखरी हद तक पहुँचती (पैग़म्बर समझते कि अब मज़ीद कोई शख्स ईमान नहीं लाएगा और मुन्किर समझते कि अब कोई अज़ाब वगैरह नहीं आएगा, ये सब ढोंग था) तो ऐन ऐसे मौक़े पर नबियों और रसूलों के पास हमारी तरफ़ से मदद पहुँच जाती।
“पस बचा लिया गया उनको जिनको हमने चाहा। और हमारा अज़ाब फेरा नहीं जा सकता मुजरिम क़ौम से।” | فَنُجِّيَ مَنْ نَّشَاۗءُ ۭ وَلَا يُرَدُّ بَاْسُـنَا عَنِ الْقَوْمِ الْمُجْرِمِيْنَ ١١٠ |
यानि अपने अंबिया व रुसुल के लिये हमारी ये मदद मुन्करीने हक़ पर अज़ाब की सूरत में आती और इस अज़ाब से जिसे हम चाहते बचा लेते, लेकिन इस सिलसिले की अटल हक़ीक़त ये है कि ऐसे मौक़े पर मुजरिमीन पर हमारा अज़ाब आकर ही रहता है। उनकी तरफ़ से इसका रुख किसी तौर से मोड़ा नहीं जा सकता।
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आयत 111
“यक़ीनन इन (साबक़ा अक़वाम) के वाक़िआत में होशमंद लोगों के लिये इबरत है।” | لَقَدْ كَانَ فِيْ قَصَصِهِمْ عِبْرَةٌ لِّاُولِي الْاَلْبَابِ ۭ |
“ये (क़ुरान) ऐसी बात नहीं जिसे गढ़ लिया गया हो, बल्कि ये तो तस्दीक़ (करते हुए आया) है उसकी जो इससे पहले मौजूद है” | مَا كَانَ حَدِيْثًا يُّفْتَرٰى وَلٰكِنْ تَصْدِيْقَ الَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْهِ |
यानि ये वाक़िआत तौरात में भी हैं और क़ुरान उन्ही वाक़िआत की तस्दीक़ कर रहा है। हज़रत युसुफ़ अलै. के क़िस्से के सिलसिले में मौलाना अबुल आला मौदूदी रह. ने बहुत उमदगी के साथ तौरात और क़ुरान का तक़ाबली मुताअला पेश किया है, जिसका खुलासा ये है कि क़ुरान के हुस्ने बयान और इसके हकीमाना अंदाज़ का मैयार इस क़दर बुलंद है कि तौरात में इसका अशरे अशीर (दसवां हिस्सा) भी नहीं है। इसकी वज़ह यह है कि असल तौरात तो गुम हो गई थी। बाद में हाफ़ज़े की मदद से जो तहरीरें मुरत्तब की गईं, इनमें ज़ाहिर है वह मैयार तो पैदा नहीं हो सकता था जो अल्लाह तआला की तरफ़ से नाज़िलशुदा तौरात में था।
“और (इसमें) तफ़सील है हर चीज़ की और हिदायत और रहमत है उन लोगों के लिये जो (इस पर) ईमान लाते हैं।” | وَتَفْصِيْلَ كُلِّ شَيْءٍ وَّهُدًى وَّرَحْمَةً لِّقَوْمٍ يُّؤْمِنُوْنَ ١١١ۧ |
यानि वह इल्म जो इस दुनिया में इंसान के लिये ज़रूरी है और वह रहनुमाई जो दुनियवी जिंदगी में उसे दरकार है सब-कुछ इस क़ुरान में मौजूद है।
بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔