Surah Raad-सूरह रअद
सूरह रअद
तम्हीदी कलिमात
सूरतुल रअद से मक्की-मदनी सूरतों के ज़ेरे मुताअला ग्रुप के दूसरे ज़ेली ग्रुप का आग़ाज़ हो रहा है। इस ज़ेली ग्रुप में इस सूरत के अलावा सूरह इब्राहीम और सूरतुल हिज्र शामिल हैं। यह तीनों सूरतें निस्बतन सबतन छोटी हैं, जबकि पहले ज़ेली ग्रुप में शामिल तीनों सूरतें इनके मुक़ाबले में तवील थीं। सूरतुल रअद और सूरह इब्राहीम का आपस में जोड़े का ताल्लुक़ है, इन दोनों के मज़ामीन में भी मुशाबहत है और तवालत (आकार) में भी यह तक़रीबन बराबर हैं, अलबत्ता सूरतुल हिज्र मुनफ़रिद है। जहाँ तक सूरतुल रअद के मौज़ू का ताल्लुक़ है यह सूरत “अत्तज़कीर बिआला इल्लाह” पर मुशतमिल है। इसमें अक़वामे गुज़िश्ता का तज़किरा किसी रसूल या क़ौम का नाम लिए बगैर बिल्कुल सरसरी अंदाज़ में आया है।
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 7 तक
الۗمّۗرٰ ۣتِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ ۭ وَالَّذِيْٓ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ الْحَقُّ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يُؤْمِنُوْنَ Ǻ اَللّٰهُ الَّذِيْ رَفَعَ السَّمٰوٰتِ بِغَيْرِ عَمَدٍ تَرَوْنَهَا ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ وَسَخَّرَ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ ۭ كُلٌّ يَّجْرِيْ لِاَجَلٍ مُّسَمًّى ۭ يُدَبِّرُ الْاَمْرَ يُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ بِلِقَاۗءِ رَبِّكُمْ تُوْقِنُوْنَ Ą وَهُوَ الَّذِيْ مَدَّ الْاَرْضَ وَجَعَلَ فِيْهَا رَوَاسِيَ وَاَنْهٰرًا ۭ وَمِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ جَعَلَ فِيْهَا زَوْجَيْنِ اثْنَيْنِ يُغْشِي الَّيْلَ النَّهَارَ ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ Ǽ وَفِي الْاَرْضِ قِطَعٌ مُّتَجٰوِرٰتٌ وَّجَنّٰتٌ مِّنْ اَعْنَابٍ وَّزَرْعٌ وَّنَخِيْلٌ صِنْوَانٌ وَّغَيْرُ صِنْوَانٍ يُّسْقٰى بِمَاۗءٍ وَّاحِدٍ ۣ وَنُفَضِّلُ بَعْضَهَا عَلٰي بَعْضٍ فِي الْاُكُلِ ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ Ć وَاِنْ تَعْجَبْ فَعَجَبٌ قَوْلُهُمْ ءَاِذَا كُنَّا تُرٰبًا ءَاِنَّا لَفِيْ خَلْقٍ جَدِيْدٍ ڛ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِرَبِّهِمْ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ الْاَغْلٰلُ فِيْٓ اَعْنَاقِهِمْ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ Ĉ وَيَسْتَعْجِلُوْنَكَ بِالسَّيِّئَةِ قَبْلَ الْحَسَنَةِ وَقَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِمُ الْمَثُلٰتُ ۭ وَاِنَّ رَبَّكَ لَذُوْ مَغْفِرَةٍ لِّلنَّاسِ عَلٰي ظُلْمِهِمْ ۚ وَاِنَّ رَبَّكَ لَشَدِيْدُ الْعِقَابِ Č وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۭ اِنَّمَآ اَنْتَ مُنْذِرٌ وَّلِكُلِّ قَوْمٍ هَادٍ Ċۧ
आयत 1
“अलिफ़, लाम, मीम, रा। ये (अल्लाह की) किताब की आतात हैं।” | الۗمّۗرٰ ۣتِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ ۭ |
“और (ऐ नबी ﷺ!) जो चीज़ आप पर नाज़िल की गई है आपके रब की तरफ़ से वह हक़ है लेकिन अक्सर लोग ईमान नहीं लाते (या ईमान लाने वाले नहीं हैं)।” | وَالَّذِيْٓ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ الْحَقُّ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يُؤْمِنُوْنَ Ǻ |
आयत 2
“अल्लाह ही है जिसने उठाया है आसमानों को बगैर ऐसे सतूनों के जिन्हें तुम देखते हो” | اَللّٰهُ الَّذِيْ رَفَعَ السَّمٰوٰتِ بِغَيْرِ عَمَدٍ تَرَوْنَهَا |
इस कायनात के अन्दर जो बुलन्दियाँ हैं उन्हें सतूनों या किसी तबई सहारे की ज़रूरत नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला की तरफ़ से बाहमी कशिश का एक अज़ीमुश्शान निज़ाम वज़अ किया गया है, जिसके तहत तमाम कहकशाएँ, सितारे और सय्यारे अपने-अपने मक़ाम पर रह कर अपने-अपने मदार में घूम रहे हैं।
“फिर वह मुतमक्किन हुआ अर्श पर और उसने (मुसलसल) काम में लगा दिया सूरज और चाँद को।” | ثُمَّ اسْتَوٰى عَلَي الْعَرْشِ وَسَخَّرَ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ ۭ |
“हर एक चल रहा है एक वक़्ते मुअय्यन के लिये।” | كُلٌّ يَّجْرِيْ لِاَجَلٍ مُّسَمًّى ۭ |
यानि इस कायनात की हर चीज़ मुतहर्रिक है, चल रही है, यहाँ पर सुकून और क़याम का कोई तस्सवुर नहीं। दूसरा अहम नुक्ता जो यहाँ बयान हुआ वह यह है कि इस कायनात की हर शय की उम्र या मोहलत मुक़र्रर है। हर सितारे, हर सय्यारे, हर निज़ामे शम्शी और हर कहकशां की मोहलते ज़िन्दगी मुक़र्रर व मुअय्यन है।
“वह तदबीर फ़रमाता है अपने अम्र की और तफ़सील बयान करता है अपनी आयात की, ताकि तुम अपने रब की मुलाक़ात का यक़ीन करो।” | يُدَبِّرُ الْاَمْرَ يُفَصِّلُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ بِلِقَاۗءِ رَبِّكُمْ تُوْقِنُوْنَ Ą |
आयत 3
“और वही है जिसने ज़मीन को फैलाया और बनाए उसमें लंगर (यानि पहाड़) और नदियाँ।” | وَهُوَ الَّذِيْ مَدَّ الْاَرْضَ وَجَعَلَ فِيْهَا رَوَاسِيَ وَاَنْهٰرًا ۭ |
अल्लाह तआला ने ज़मीन का तवाज़ुन बरक़रार रखने के लिये इस पर पहाड़ों के खूंटे गाड दिये हैं और पानी की फ़राहमी के लिये दरिया और नदियाँ बहा दी हैं।
“और उसने हर तरह के फलों में जोड़े बनाए” | وَمِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ جَعَلَ فِيْهَا زَوْجَيْنِ اثْنَيْنِ |
जोड़े बनाने के इस क़ानून को अल्लाह तआला ने सूरतुल ज़ारयात आयत 49 में इस तरह बयान फ़रमाया है: {….. وَمِنْ كُلِّ شَيْءٍ خَلَقْنَا زَوْجَيْنِ} “और हर चीज़ के हमने जोड़े बनाए…..।” गोया यह ज़ौजैन (नर और मादा) की तख्लीक़ और इनका क़ायदा व क़ानून अल्लाह तआला ने इस आलमे खल्क़ के अन्दर एक बाक़ायदा निज़ाम के तौर पर रखा है। यहाँ पर फलों के हवाले से इशारा है कि नबातात में भी नर और मादा का बाक़ायदा निज़ाम मौजूद है। कहीं नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं और कहीं एक ही फूल के अंदर एक हिस्सा नर और एक हिस्सा मादा होता है।
“वह ढाँप देता है दिन पर रात को।” | يُغْشِي الَّيْلَ النَّهَارَ ۭ |
“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं गौर व फ़िक्र करने वालों के लिये।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّتَفَكَّرُوْنَ Ǽ |
आयत 4
“और ज़मीन में क़तआत हैं एक-दूसरे से मुत्तसिल और बाग़ात अंगूरों के और खेतियाँ और खजूर के दरख़्त, जड़ों से मिले हुए भी और अलग-अलग भी, इन्हें एक ही पानी से सैराब किया जाता है” | وَفِي الْاَرْضِ قِطَعٌ مُّتَجٰوِرٰتٌ وَّجَنّٰتٌ مِّنْ اَعْنَابٍ وَّزَرْعٌ وَّنَخِيْلٌ صِنْوَانٌ وَّغَيْرُ صِنْوَانٍ يُّسْقٰى بِمَاۗءٍ وَّاحِدٍ ۣ |
“(इसके बावजूद) हम किसी को किसी पर फज़ीलत दे देते हैं ज़ायक़े में।” | وَنُفَضِّلُ بَعْضَهَا عَلٰي بَعْضٍ فِي الْاُكُلِ ۭ |
एक ही ज़मीन में एक ही जड़ से खजूर के दो दरख़्त उगते हैं, दोनों को एक ही पानी से सैराब किया जाता है, लेकिन दोनों के फलों का अपना-अपना ज़ायक़ा होता है।
“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं अक़्ल वालों के लिये।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ Ć |
यह अत्तज़कीर बिआला इल्लाह का अंदाज़ है, जिसमें बार-बार अल्लाह की क़ुदरतों, निशानियों और नेअमतों की तरफ़ तवज्जो दिलाई जाती है।
आयत 5
“और अगर तुम्हें तअज्जुब करना है तो क़ाबिले तअज्जुब है इनका ये क़ौल कि क्या जब हम (मर कर) मिट्टी हो जायेंगे तो क्या हम अज़ सरे नौ (दोबारा से) वजूद में आयेंगे?” | وَاِنْ تَعْجَبْ فَعَجَبٌ قَوْلُهُمْ ءَاِذَا كُنَّا تُرٰبًا ءَاِنَّا لَفِيْ خَلْقٍ جَدِيْدٍ ڛ |
यानि कुफ्फ़ार का मरने के बाद दोबारा जी उठने पर तअज्जुब करना, ब-ज़ाते खुद बाइसे तअज्जुब है। जिस अल्लाह ने पहली मर्तबा तुम लोगों को तख्लीक़ किया, पूरी कायनात और इसकी एक-एक चीज़ पुर हिकमत तरीक़े से बनाई उसके लिये यह तअज्जुब करना कि वह हमें दोबारा कैसे ज़िन्दा करेगा, ये सोच और ये नज़रिया अपनी जगह बहुत ही मज़हकाखेज़ (funny) और बाइसे तअज्जुब है।
“यही वह लोग हैं जिन्होंने अपने रब का इन्कार किया।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِرَبِّهِمْ ۚ |
दोबारा जी उठने के अक़ीदे से इनका ये इन्कार दरअसल अल्लाह के वजूद का इन्कार है। उसकी क़ुदरत और उसके अला कुल्ली शयइन क़दीर होने का इन्कार है।
“और यही वह लोग हैं जिनकी गर्दनों में तोक़ पड़े हुए हैं, और यही जहन्नमी हैं, उसमें रहेँगे हमेशा-हमेश।” | وَاُولٰۗىِٕكَ الْاَغْلٰلُ فِيْٓ اَعْنَاقِهِمْ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ هُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ Ĉ |
आयत 6
“और यह लोग जल्दी मचा रहे हैं आपसे बुराई (अज़ाब) के लिये भलाई से पहले” | وَيَسْتَعْجِلُوْنَكَ بِالسَّيِّئَةِ قَبْلَ الْحَسَنَةِ |
कुफ्फ़ारे मक्का हुज़ूर ﷺ से बड़ी जसारत और ढिटाई के साथ बार-बार मुतालबा करते थे कि ले आएँ हम पर वह अज़ाब जिसके बारे में आप हमें रोज़-रोज़ धमकियाँ देते हैं।
“हालाँकि इनसे पहले (बहुत सी) मिसालें गुज़र चुकी हैं।” | وَقَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهِمُ الْمَثُلٰتُ ۭ |
अल्लाह के अज़ाब की बहुत सी इबरतनाक मिसालें गुज़िश्ता अक़वाम की तारीख़ की सूरत में इनके सामने हैं।
“और यक़ीनन आपका रब लोगों के हक़ में माफ़ करने वाला है इनके ज़ुल्म के बावजूद।” | وَاِنَّ رَبَّكَ لَذُوْ مَغْفِرَةٍ لِّلنَّاسِ عَلٰي ظُلْمِهِمْ ۚ |
यह उसकी रहमत और शाने गफ्फ़ारी का मज़हर है कि इनके मुतालबे के बावजूद और इनके शिर्क व ज़ुल्म में इस हद तक बढ़ जाने के बावजूद अज़ाब भेजने में ताखीर (देर) फ़रमा रहा है।
“और यक़ीनन आपका रब सख्त सज़ा देने वाला भी है।” | وَاِنَّ رَبَّكَ لَشَدِيْدُ الْعِقَابِ Č |
आयत 7
“और काफ़िर लोग कहते हैं कि क्यों नहीं उतारी गई इस शख्स पर कोई निशानी इसके रब की तरफ़ से?” | وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۭ |
मुशरिकीने मक्का बार-बार इसी दलील को दोहराते थे कि अगर आप रसूल हैं तो आपके रब की तरफ़ से आपको कोई हिस्सी मौज्ज़ा क्यों नहीं दिया गया?
“(ऐ नबी ﷺ!) आप तो बस ख़बरदार कर देने वाले हैं और हर क़ौम के लिये एक हादी है।” | اِنَّمَآ اَنْتَ مُنْذِرٌ وَّلِكُلِّ قَوْمٍ هَادٍ Ċۧ |
जिस तरह हमने हर क़ौम के लिये पैग़म्बर भेजे हैं इसी तरह आपको भी हमने इन लोगों की हिदायत के लिये मबऊस किया है। आपके ज़िम्मे इनकी तब्शीर, तंज़ीर और तज़कीर है। आप ﷺ अपना यह फ़र्ज़ अदा करते रहें।
आयात 8 से 18 तक
اَللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تَحْمِلُ كُلُّ اُنْثٰى وَمَا تَغِيْضُ الْاَرْحَامُ وَمَا تَزْدَادُ ۭ وَكُلُّ شَيْءٍ عِنْدَهٗ بِمِقْدَارٍ Ď عٰلِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ الْكَبِيْرُ الْمُتَعَالِ Ḍ سَوَاۗءٌ مِّنْكُمْ مَّنْ اَسَرَّ الْقَوْلَ وَمَنْ جَهَرَ بِهٖ وَمَنْ هُوَ مُسْتَخْفٍۢ بِالَّيْلِ وَسَارِبٌۢ بِالنَّهَارِ 10 لَهٗ مُعَقِّبٰتٌ مِّنْۢ بَيْنِ يَدَيْهِ وَمِنْ خَلْفِهٖ يَحْفَظُوْنَهٗ مِنْ اَمْرِ اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُغَيِّرُ مَا بِقَوْمٍ حَتّٰى يُغَيِّرُوْا مَا بِاَنْفُسِهِمْ ۭ وَاِذَآ اَرَادَ اللّٰهُ بِقَوْمٍ سُوْۗءًا فَلَا مَرَدَّ لَهٗ ۚ وَمَا لَهُمْ مِّنْ دُوْنِهٖ مِنْ وَّالٍ 11 هُوَ الَّذِيْ يُرِيْكُمُ الْبَرْقَ خَوْفًا وَّطَمَعًا وَّيُنْشِئُ السَّحَابَ الثِّقَالَ 12ۚ وَيُسَبِّحُ الرَّعْدُ بِحَمْدِهٖ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ مِنْ خِيْفَتِهٖ ۚ وَيُرْسِلُ الصَّوَاعِقَ فَيُصِيْبُ بِهَا مَنْ يَّشَاۗءُ وَهُمْ يُجَادِلُوْنَ فِي اللّٰهِ ۚ وَهُوَ شَدِيْدُ الْمِحَالِ 13ۭ لَهٗ دَعْوَةُ الْحَقِّ ۭ وَالَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖ لَا يَسْتَجِيْبُوْنَ لَهُمْ بِشَيْءٍ اِلَّا كَبَاسِطِ كَفَّيْهِ اِلَى الْمَاۗءِ لِيَبْلُغَ فَاهُ وَمَا هُوَ بِبَالِغِهٖ ۭ وَمَا دُعَاۗءُ الْكٰفِرِيْنَ اِلَّا فِيْ ضَلٰلٍ 14 وَلِلّٰهِ يَسْجُدُ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ طَوْعًا وَّكَرْهًا وَّظِلٰلُهُمْ بِالْغُدُوِّ وَالْاٰصَالِ 15۞ قُلْ مَنْ رَّبُّ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ قُلِ اللّٰهُ ۭ قُلْ اَفَاتَّخَذْتُمْ مِّنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۗءَ لَا يَمْلِكُوْنَ لِاَنْفُسِهِمْ نَفْعًا وَّلَا ضَرًّا ۭ قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الْاَعْمٰى وَالْبَصِيْرُ ڏ اَمْ هَلْ تَسْتَوِي الظُّلُمٰتُ وَالنُّوْرُ ڬ اَمْ جَعَلُوْا لِلّٰهِ شُرَكَاۗءَ خَلَقُوْا كَخَلْقِهٖ فَتَشَابَهَ الْخَلْقُ عَلَيْهِمْ ۭ قُلِ اللّٰهُ خَالِقُ كُلِّ شَيْءٍ وَّهُوَ الْوَاحِدُ الْقَهَّارُ 16 اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَسَالَتْ اَوْدِيَةٌۢ بِقَدَرِهَا فَاحْتَمَلَ السَّيْلُ زَبَدًا رَّابِيًا ۭ وَمِمَّا يُوْقِدُوْنَ عَلَيْهِ فِي النَّارِ ابْتِغَاۗءَ حِلْيَةٍ اَوْ مَتَاعٍ زَبَدٌ مِّثْلُهٗ ۭ كَذٰلِكَ يَضْرِبُ اللّٰهُ الْحَقَّ وَالْبَاطِلَ ڛ فَاَمَّا الزَّبَدُ فَيَذْهَبُ جُفَاۗءً ۚ وَاَمَّا مَا يَنْفَعُ النَّاسَ فَيَمْكُثُ فِي الْاَرْضِ ۭ كَذٰلِكَ يَضْرِبُ اللّٰهُ الْاَمْثَالَ 17ۭ لِلَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِرَبِّهِمُ الْحُسْنٰى ڼ وَالَّذِيْنَ لَمْ يَسْتَجِيْبُوْا لَهٗ لَوْ اَنَّ لَهُمْ مَّا فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا وَّمِثْلَهٗ مَعَهٗ لَافْتَدَوْا بِهٖ ۭاُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ سُوْۗءُ الْحِسَابِ ڏ وَمَاْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ ۭ وَبِئْسَ الْمِهَادُ 18ۧ
आयत 8
“अल्लाह ख़ूब जानता है कि हर मादा क्या उठाए हुए है” | اَللّٰهُ يَعْلَمُ مَا تَحْمِلُ كُلُّ اُنْثٰى |
हर मादा चाहे वह इन्सान है या हैवान, उसके रहम (गर्भाशय) में जो कुछ है अल्लाह के इल्म में है।
“और (वह जानता है) जिस क़दर रहम सिकुड़ते हैं या बढ़ते हैं।” | وَمَا تَغِيْضُ الْاَرْحَامُ وَمَا تَزْدَادُ ۭ |
जब हमल (गर्भ) ठहर जाता है तो रहम सिकुड़ता है और जब बच्चा बढ़ता है तो उसके बढ़ने से रहम फैलता है। एक-एक मादा के अन्दर होने वाली इस तरह की एक-एक तब्दीली को अल्लाह ख़ूब जानता है।
“और हर चीज़ उसके यहाँ अंदाज़े के मुताबिक़ है।” | وَكُلُّ شَيْءٍ عِنْدَهٗ بِمِقْدَارٍ Ď |
इस कायनात का पूरा निज़ाम एक तयशुदा हिकमते अमली के तहत चल रहा है जहाँ हर चीज़ की मिक़दार और हर काम के लिये क़ायदा और क़ानून मुक़र्रर है।
आयत 9
“वह जानने वाला है गैब और ज़ाहिर का, (वह) बहुत बड़ा, बहुत बुलंदी वाला है।” | عٰلِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ الْكَبِيْرُ الْمُتَعَالِ Ḍ |
आयत 10
“(उसके इल्म में) बराबर हैं तुम में से जो बात को (दिल में) छुपायें और जो उसे (बुलंद आवाज़ से) ज़ाहिर करें और वह जो रात की तारीकी में छुपे हुए हों और जो दिन की रौशनी में चलते-फिरते हों।” | سَوَاۗءٌ مِّنْكُمْ مَّنْ اَسَرَّ الْقَوْلَ وَمَنْ جَهَرَ بِهٖ وَمَنْ هُوَ مُسْتَخْفٍۢ بِالَّيْلِ وَسَارِبٌۢ بِالنَّهَارِ 10 |
ग्याब (absent) की सूरत हो या ज़हूर (appearance) का आलम, अल्लाह के इल्म के सामने सब बराबर हैं। हर चीज़ और उसकी हर कैफ़ियत हर आन उसके सामने हाज़िर व मौजूद है।
आयत 11
“उस (इंसान) के लिये बारी-बारी आने वाले (पहरेदार मुक़र्रर) हैं, वह उसके सामने और उसके पीछे से उसकी हिफ़ाज़त करते रहते हैं अल्लाह के हुक्म से।” | لَهٗ مُعَقِّبٰتٌ مِّنْۢ بَيْنِ يَدَيْهِ وَمِنْ خَلْفِهٖ يَحْفَظُوْنَهٗ مِنْ اَمْرِ اللّٰهِ ۭ |
यह मज़मून इससे पहले हम सूरतुल अनआम (आयत 61) में भी पढ़ चुके हैं: {وَيُرْسِلُ عَلَيْكُمْ حَفَظَةً ۭ} कि अल्लाह तआला अपनी तरफ़ से तुम्हारे ऊपर मुहाफ़िज़ भेजता है। अल्लाह के मुक़र्रर करदा ये फ़रिश्ते अल्लाह की मशीयत के मुताबिक़ हर वक़्त इंसान की हिफ़ाज़त करते रहते हैं, हत्ता की उसकी मौत का वक़्त आ पहुँचता है।
“यक़ीनन अल्लाह किसी क़ौम की हालात नहीं बदलता, जब तक कि वह खुद नहीं बदल देते उस (कैफ़ियत) को जो उनके दिलों में है।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يُغَيِّرُ مَا بِقَوْمٍ حَتّٰى يُغَيِّرُوْا مَا بِاَنْفُسِهِمْ ۭ |
आप अपनी बातिनी कैफ़ियत बदलेंगे, इसके लिये मेहनत करेंगे तो अल्लाह की तरफ़ से भी आपके मामले में तब्दीली कर दी जाएगी। मौलाना ज़फ़र अली खान ने इस आयत की तर्जुमानी इन ख़ूबसूरत अल्फ़ाज़ में की है:
ख़ुदा ने आज तक उस क़ौम की हालत नहीं बदली
ना हो जिसको ख्याल आप अपनी हालत के बदलने का
“और जब अल्लाह किसी क़ौम के लिये किसी बुरी शय (अज़ाब) का फ़ैसला कर लेता है तो फिर उसको लौटाने वाला कोई नहीं है, और नहीं है उनके लिये अल्लाह के सिवा कोई मददगार।” | وَاِذَآ اَرَادَ اللّٰهُ بِقَوْمٍ سُوْۗءًا فَلَا مَرَدَّ لَهٗ ۚ وَمَا لَهُمْ مِّنْ دُوْنِهٖ مِنْ وَّالٍ 11 |
आयत 12
“वही है जो तुम्हें दिखाता है बिजली (की चमक) खौफ़ से भी और उम्मीद से भी, और वह उठाता है बड़े बोझल बादल।” | هُوَ الَّذِيْ يُرِيْكُمُ الْبَرْقَ خَوْفًا وَّطَمَعًا وَّيُنْشِئُ السَّحَابَ الثِّقَالَ 12ۚ |
गहरे बादलों की गरज-चमक में खौफ़ के साए भी होते हैं और उम्मीद की रौशनी भी कि शायद इस बारिश से फ़सलें लहलहा उठें और हमारी क़हतसाली खुशहाली में बदल जाए। यानि ऐसी सूरतेहाल में खौफ़ व रजाअ (आशा) की कैफ़ियत एक साथ दिलों पर तारी होती है।
आयत 13
“और तस्बीह करती है कड़क उसकी हम्द के साथ और फ़रिश्ते (भी) उसके खौफ़ से” | وَيُسَبِّحُ الرَّعْدُ بِحَمْدِهٖ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ مِنْ خِيْفَتِهٖ ۚ |
ये गरज और कड़क की आवाज़ दरअसल अल्लाह की तस्बीह व तहमीद का एक अंदाज़ है।
“और वह भेजता है कड़कदार बिजलियाँ, फिर वह गिरा देता है उन्हें जिस पर चाहता है” | وَيُرْسِلُ الصَّوَاعِقَ فَيُصِيْبُ بِهَا مَنْ يَّشَاۗءُ |
“और वह (उस वक़्त) अल्लाह के बारे में झगड़ रहे होते हैं। और उसकी पकड़ बहुत सख्त है।” | وَهُمْ يُجَادِلُوْنَ فِي اللّٰهِ ۚ وَهُوَ شَدِيْدُ الْمِحَالِ 13ۭ |
आयत 14
“उसी का पुकारना हक़ है।” | لَهٗ دَعْوَةُ الْحَقِّ ۭ |
यानि अल्लाह ही एक हस्ती है जिसको पुकारना, जिससे दुआ करना बरहक़ है, क्योंकि एक वही है जो तुम्हारी पुकार को सुनता है, तुम्हारी हाजत को जानता है, तुम्हारी हाजत रवाई करने पर क़ादिर है, इसलिये उसको पुकारना हक़ भी है और सूदमंद (फ़ायदेमंद) भी। उसे छोड कर किसी और को पुकारोगे, चाहे वह कोई फ़रिश्ता हो, वली हो या नबी, कोई तुम्हारी पुकार और फ़रियाद को नहीं सुनेगा, जैसा कि अगली आयत में फ़रमाया गया है, तुम्हारी हर ऐसी पुकार अकारत जाएगी। इस फ़िक़रे का दूसरा मफ़हूम यह भी है कि “उसी की दावत हक़ है।” यानि जिस चीज़ की दावत वह दे रहा है, जिस रास्ते की तरफ़ वह बुला रहा है वही हक़ है।
“और जिनको ये लोग पुकार रहे हैं उसके सिवा, वह इनकी दुआ को किसी तरह भी क़ुबूल नहीं करते” | وَالَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ مِنْ دُوْنِهٖ لَا يَسْتَجِيْبُوْنَ لَهُمْ بِشَيْءٍ |
वह इनकी कोई भी दादरसी नहीं कर सकते।
“मगर जैसे कोई फैला दे अपने दोनों हाथ पानी की तरफ़ कि वह उसके मुँह तक पहुँच जाए, हालाँकि वह (उसके मुँह) तक पहुँचने वाला नहीं है।” | اِلَّا كَبَاسِطِ كَفَّيْهِ اِلَى الْمَاۗءِ لِيَبْلُغَ فَاهُ وَمَا هُوَ بِبَالِغِهٖ ۭ |
जैसे अपने हाथ फ़ैलाकर पानी को अपने मुँह की तरफ़ बुलाना एक कारे अबस (व्यर्थ काम) है, इसी तरह किसी ग़ैरुल्लाह को पुकारना, उसके सामने गिडगिडाना और उससे दादरसी की उम्मीद रखना भी कारे अबस है।
“और काफ़िरों की दुआ तो बिल्कुल बेकार है।” | وَمَا دُعَاۗءُ الْكٰفِرِيْنَ اِلَّا فِيْ ضَلٰلٍ 14 |
ये लोग जो अल्लाह के अलावा किसी और को पुकारते हैं इनकी ये पुकार ला-हासिल है, एक तीर बेहदफ़ (without aim) और सदा बे-सहरा है।
आयत 15
“अल्लाह ही को सज्दा करता है जो कोई भी आसमानों में और ज़मीन में है, आमादगी के साथ भी और मजबूरन भी, और उनके साए भी सुबह व शाम (उसी को सज्दा करते हैं)।” | وَلِلّٰهِ يَسْجُدُ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ طَوْعًا وَّكَرْهًا وَّظِلٰلُهُمْ بِالْغُدُوِّ وَالْاٰصَالِ 15۞ |
सुबह के वक़्त जब सूरज निकलता है और साए ज़मीन पर लम्बे होकर पड़े होते हैं वह इस हालत में अल्लाह को सज्दा कर रहे होते हैं और इसी तरह शाम को गुरूबे आफ़ताब के वक़्त भी ये साए हालते सज्दा में होते हैं।
आयत 16
“(इनसे) पूछिए कौन है आसमानों और ज़मीन का मालिक? कहिये अल्लाह ही है!” | قُلْ مَنْ رَّبُّ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ قُلِ اللّٰهُ ۭ |
“कहिये क्या तुमने उसको छोड़ कर ऐसे हिमायती बना लिये हैं जो खुद अपने लिये भी किसी नफ़ा व नुक़सान का इख्तियार नहीं रखते?” | قُلْ اَفَاتَّخَذْتُمْ مِّنْ دُوْنِهٖٓ اَوْلِيَاۗءَ لَا يَمْلِكُوْنَ لِاَنْفُسِهِمْ نَفْعًا وَّلَا ضَرًّا ۭ |
“(इनसे) पूछिये क्या बराबर है अँधा और देखने वाला? या क्या बराबर हैं अँधेरे और रौशनी?” | قُلْ هَلْ يَسْتَوِي الْاَعْمٰى وَالْبَصِيْرُ ڏ اَمْ هَلْ تَسْتَوِي الظُّلُمٰتُ وَالنُّوْرُ ڬ |
“क्या इन्होंने अल्लाह के ऐसे शरीक ठहरा लिये हैं जिन्होंने तख्लीक़ की है उसकी तख्लीक़ की तरह, तो ये तख्लीक़ उन पर मुशतबह (संदिग्ध) हो गई है?” | اَمْ جَعَلُوْا لِلّٰهِ شُرَكَاۗءَ خَلَقُوْا كَخَلْقِهٖ فَتَشَابَهَ الْخَلْقُ عَلَيْهِمْ ۭ |
यानि इन मुशरिकीन का मामला तो यूँ लगता है जैसे उनके मअबूदों ने भी कुछ मख्लूक़ पैदा कर रखी है और कुछ मख्लूक़ अल्लाह की है। अब वह बेचारे इस शशो-पंज में पड़े हुए हैं कि कौनसी मख्लूक़ को अल्लाह से मंसूब करें और किस-किस को अपने इन मअबूदों की मख्लूक़ मानें! जब ऐसा नहीं है और वह खुद तस्लीम करते हैं कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ भी है इसका खालिक़ और मालिक अल्लाह है तो फिर अल्लाह को अकेला और वाहिद मअबूद मानने में वह क्यों शकूक व शुब्हात का शिकार हो रहे हैं?
“कह दीजिये कि अल्लाह ही खालिक़ है हर शय का, और वह है यक्ता (The Only), सब पर हावी।” | قُلِ اللّٰهُ خَالِقُ كُلِّ شَيْءٍ وَّهُوَ الْوَاحِدُ الْقَهَّارُ 16 |
आयत 17
“वह आसमान से पानी बरसाता है, फिर तमाम नदियाँ बहने लगती हैं अपनी-अपनी वुसअत के मुताबिक़” | اَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَسَالَتْ اَوْدِيَةٌۢ بِقَدَرِهَا |
क़ुरान चूँकि हिजाज़ में नाज़िल हो रहा था इसलिये इसमें ज़्यादातर मिसालें भी उसी सरज़मीन से दी गई हैं। इस मिसाल में भी इलाक़ा हिजाज़ के पहाड़ी सिलसिलों और वादियों का ज़िक्र है, कि जब बारिश होती है तो हर वादी में उसकी वुसअत (capacity) के मुताबिक़ सैलाबी कैफ़ियत पैदा हो जाती है। किसी वादी का catchment area ज़्यादा है तो वहाँ ज़्यादा ज़ोरदार सैलाब आ जाता है जिसका कम है वहाँ थोड़ा सैलाब आ जाता है।
“फिर उठा लाता है सैलाब उभरते झाग को।” | فَاحْتَمَلَ السَّيْلُ زَبَدًا رَّابِيًا ۭ |
पानी जब ज़ोर से बहता है तो उसके ऊपर झाग सा बन जाता है। लेकिन इस झाग की कोई हक़ीक़त और वक़अत नहीं होती।
“और जिन (धातुओं) को ये लोग आग पर तपाते हैं ज़ेवर या दूसरी चीज़ें बनाने के लिये उन पर भी इसी तरह का झाग उभरता है।” | وَمِمَّا يُوْقِدُوْنَ عَلَيْهِ فِي النَّارِ ابْتِغَاۗءَ حِلْيَةٍ اَوْ مَتَاعٍ زَبَدٌ مِّثْلُهٗ ۭ |
“इसी तरह अल्लाह हक़ व बातिल को टकराता है।” | كَذٰلِكَ يَضْرِبُ اللّٰهُ الْحَقَّ وَالْبَاطِلَ ڛ |
इसका दूसरा तर्जुमा यूँ होगा: “इसी तरह अल्लाह हक़ व बातिल की मिसाल बयान करता है।”
“तो जो झाग है वह खुश्क हो कर ज़ाएल हो जाता है।” | فَاَمَّا الزَّبَدُ فَيَذْهَبُ جُفَاۗءً ۚ |
झाग की कोई हक़ीक़त और हैसियत नहीं होती, असल नताइज के ऐतबार से इसका होना या ना होना गोया बराबर है।
“और जो चीज़ लोगों के लिये मुफ़ीद होती है वह ठहर जाती है ज़मीन में।” | وَاَمَّا مَا يَنْفَعُ النَّاسَ فَيَمْكُثُ فِي الْاَرْضِ ۭ |
सैलाब का पानी ज़मीन में जज़्ब होकर फ़ायदेमंद साबित होता है जबकि झाग ज़ाया हो जाता है, इसी तरह पिघली हुई धात के ऊपर फूला हुआ झाग और मैल-कुचैल फ़ुज़ूल चीज़ है, असल ख़ालिस धात उस झाग के नीचे कठाली की तह में मौजूद होती है जिससे ज़ेवर या कोई दूसरी क़ीमती चीज़ बनाई जाती है।
“इसी तरह अल्लाह मिसालें बयान करता है।” | كَذٰلِكَ يَضْرِبُ اللّٰهُ الْاَمْثَالَ 17ۭ |
ये आयत कार्ल मार्क्स के dialectical materialism के फ़लसफ़े के हवाले से बहुत अहम है। इस फ़लसफ़े का जितना हिस्सा दुरुस्त है वह इस आयत में मौजूद है। दौरे जदीद के ये जितने भी नज़रिये (theories) हैं इनमें से हर एक में कुछ ना कुछ सच्चाई मौजूद है। डारविन का नज़रिया-ए-इरतक़ाअ (Evolution Theory) हो या फ़्राईड और मार्क्स के नज़रियात, इनमें से कोई भी सौ फ़ीसद गलत नहीं है। बल्कि हक़ीक़त ये है कि इन नज़रियात में गलत और दुरुस्त ख्यालात गडमड हैं। जहाँ तक मार्क्स के नज़रिये जदलियाती मादियत (dialectical) materialism) का ताल्लुक़ है इसके मुताबिक़ किसी मआशरे में एक ख्याल या नज़रिया जन्म लेता है जिसको thesis कहा जाता है। इसके रद्देअमल के तौर पर एंटी थेसिस (antithesis) वजूद में आता है। फिर ये थेसिस और एंटी थेसिस टकराते हैं और इनके टकराने से एक नई शक्ल पैदा होती है जिसे सिंथेसिस (synthesis) कहा जाता है। ये अगरचे इस नज़रिये की बेहतर शक्ल होती है मगर ये भी अपनी जगह कामिल नहीं होती, इसके अंदर भी नक़ाइस (faults) मौजूद होते हैं। चुनाँचे इसी सिंथेसिस की कोख़ से एक और एंटी थेसिस जन्म लेता है। इनका फिर आपस में इसी तरह टकराव होता है और फिर एक नया सिंथेसिस वजूद में आता है। ये अमल (process) इसी तरह बतदरीज (step by step) आगे बढता चला जाता है। इस तसादुम (टकराव) में जो चीज़ फ़ज़ूल, गलत और बेकार होती है वह ज़ाया होती रहती है, मगर जो इल्म और ख्याल मआशरे और नस्ले इंसानी के लिये फ़ायदेमंद होता है वह किसी ना किस शक्ल में मौजूद रहता है।
दौरे जदीद के बेशतर नज़रिये (theories) ऐसे लोगों की तख्लीक़ हैं जिनके इल्म और सोच का इन्हसार (depend) कुल्ली तौर पर माद्दे (material) पर था। ये लोग रूह और इसकी हक़ीकत से बिल्कुल नाबलद थे। बुनियादी तौर पर यही वजह थी कि इन लोगों के अखज़करदा नताइज अक्सर व बेशतर गलत और गुमराहकुन थे। बहरहाल इस सारे अमल (process) में गलत और बातिल ख्यालात व मफ़रुज़ात (मान्यताएँ) खुद-ब-खुद छटते रहते हैं और नस्ले इंसानी के लिये मुफ़ीद उलूम (useful science) की ततहीर (purification) होती रहती है। सूरतुल अम्बिया में ये हक़ीक़त इस तरह वाज़ेह की गई है: {بَلْ نَقْذِفُ بِالْحَقِّ عَلَي الْبَاطِلِ فَيَدْمَغُهٗ فَاِذَا هُوَ زَاهِقٌ ۭ } (आयत 18) “हम दे मारते हैं हक़ को बातिल पर, तो वह बातिल का भेजा निकाल देता है, फिर वह (बातिल) गायब हो जाता है।” हक़ व बातिल और खैर व शर की इस कशमकश के ज़रिये से गोया नस्ले इंसानी तदरीजन तमद्दुन (civilization) और इरतक़ाअ के मराहिल तय करते हुए रफ़्ता-रफ़्ता बेहतरी की तरफ़ आ रही है।
अल्लामा इक़बाल के मुताबिक़ नस्ले इंसानी के लिये कामिल बेहतरी या हतमी कामयाबी अल्लाह तआला के उस पैग़ाम की तामील में पोशीदा है जिसका कामिल अमली नमूना इस दुनिया में पन्द्रह सौ साल पहले नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ ने पेश किया था। इरताक़ाअ-ए-फ़िक्रे इंसानी के सफ़र के नाम पर इंसानी तमद्दुन के छोटे-बड़े तमाम क़ाफ़िले शऊरी या ग़ैरशऊरी तौर पर इसी मीनारे नूर (light house) की तरफ़ रवां-दवां हैं। अगर किसी माहौल में रौशनी की कोई किरण उजाला बिखेरती नज़र आती है तो वह इसी मिन्बा-ए-नूर की मरहूने मन्नत है। और अगर किसी माहौल के हिस्से की तारीकियाँ अभी तक गहरी हैं तो जान लीजिये कि वह अपनी इस फ़ितरी और हतमी मंज़िल से हनूज़ दूर है। इस सिलसिले में इक़बाल के अपने अल्फ़ाज़ मुलाहिज़ा हों:
हर कज़ा बीनी जहाने रंगों बू,
ज़ान्का-ए-अज़ खाकश बरवीद आरज़ू
या ज़नूरे मुस्तफ़ा अव रा बहास्त,
या हनूज़ अंदर तलाशे मुस्तफ़ा अस्त
आयत 18
“जिन लोगों ने अपने रब की दावत पर लब्बैक कहा उनके लिये भलाई है।” | لِلَّذِيْنَ اسْتَجَابُوْا لِرَبِّهِمُ الْحُسْنٰى ڼ |
“और जिन्होंने उसकी दावत को क़ुबूल नहीं किया, अगर उनके पास हो जो कुछ है ज़मीन में सबका सब और इसके साथ उतना ही और भी तो वह (ये सब कुछ) ज़रूर बदले में दे डालें।” | وَالَّذِيْنَ لَمْ يَسْتَجِيْبُوْا لَهٗ لَوْ اَنَّ لَهُمْ مَّا فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا وَّمِثْلَهٗ مَعَهٗ لَافْتَدَوْا بِهٖ ۭ |
“यही लोग हैं जिनके लिये बुरा हिसाब है और इनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बहुत बुरा ठिकाना है।” | اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ سُوْۗءُ الْحِسَابِ ڏ وَمَاْوٰىهُمْ جَهَنَّمُ ۭ وَبِئْسَ الْمِهَادُ 18ۧ |
यानि इनके हिसाब का जो नतीजा निकलने वाला है वह इनके हक़ में बहुत बुरा होगा।
आयात 19 से 26 तक
اَفَمَنْ يَّعْلَمُ اَنَّمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ الْحَقُّ كَمَنْ هُوَ اَعْمٰى ۭ اِنَّمَا يَتَذَكَّرُ اُولُوا الْاَلْبَابِ 19ۙ الَّذِيْنَ يُوْفُوْنَ بِعَهْدِ اللّٰهِ وَلَا يَنْقُضُوْنَ الْمِيْثَاقَ 20ۙ وَالَّذِيْنَ يَصِلُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيَخْشَوْنَ رَبَّهُمْ وَيَخَافُوْنَ سُوْۗءَ الْحِسَابِ 21ۭ وَالَّذِيْنَ صَبَرُوا ابْتِغَاۗءَ وَجْهِ رَبِّهِمْ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰهُمْ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً وَّيَدْرَءُوْنَ بِالْحَسَنَةِ السَّيِّئَةَ اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ عُقْبَى الدَّارِ 22ۙ جَنّٰتُ عَدْنٍ يَّدْخُلُوْنَهَا وَمَنْ صَلَحَ مِنْ اٰبَاۗىِٕهِمْ وَاَزْوَاجِهِمْ وَذُرِّيّٰــتِهِمْ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ يَدْخُلُوْنَ عَلَيْهِمْ مِّنْ كُلِّ بَابٍ 23ۚ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ بِمَا صَبَرْتُمْ فَنِعْمَ عُقْبَى الدَّارِ 24ۭ وَالَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِهٖ وَيَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيُفْسِدُوْنَ فِي الْاَرْضِ ۙ اُولٰۗىِٕكَ لَهُمُ اللَّعْنَةُ وَلَهُمْ سُوْۗءُ الدَّارِ 25 اَللّٰهُ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيَــقْدِرُ ۭ وَفَرِحُوْا بِالْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۭ وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا فِي الْاٰخِرَةِ اِلَّا مَتَاعٌ 26ۧ
आयत 19
“(ऐ नबी ﷺ!) क्या वह शख्स जो जानता है कि जो कुछ आप पर आपके रब की तरफ़ से नाज़िल किया गया वह हक़ है, भला उस जैसा हो सकता है जो अँधा है?” | اَفَمَنْ يَّعْلَمُ اَنَّمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ مِنْ رَّبِّكَ الْحَقُّ كَمَنْ هُوَ اَعْمٰى ۭ |
“यक़ीनन नसीहत तो अक़्ल वाले ही हासिल करते हैं।” | اِنَّمَا يَتَذَكَّرُ اُولُوا الْاَلْبَابِ 19ۙ |
आयत 20
“वह लोग जो अल्लाह के (साथ किये गए) अहद को पूरा करते हैं और क़ौल व क़रार को तोड़ते नहीं हैं।” | الَّذِيْنَ يُوْفُوْنَ بِعَهْدِ اللّٰهِ وَلَا يَنْقُضُوْنَ الْمِيْثَاقَ 20ۙ |
क़ब्ल अज़ सूरतुल बक़रह की आयत 177 में भी हम इनसे मिलते-जुलते ये अल्फ़ाज़ पढ़ते आए हैं: { وَالْمُوْفُوْنَ بِعَهْدِهِمْ اِذَا عٰھَدُوْا ۚ } अल्लाह के साथ किये गए मुआहिदों में से एक तो वह अहदे अलस्त है (ब-हवाला अल आराफ़ 172) जो हमने आलमे अरवाह में अल्लाह के साथ किया है, फिर हर बंदा-ए-मोमिन का मीसाक़ शरीअत है कि मैं अल्लाह के तमाम अहकामात की तामील करूँगा। फिर अल्लाह का मोमिन के साथ किया गया वह सौदा भी एक अहद है जिसका ज़िक्र सूरत्तुतौबा आयत 111 में है और जिसके मुताबिक़ अल्लाह ने मोमिनीन के जान व माल जन्नत के बदले ख़रीद लिये हैं। आयत ज़ेरे नज़र में ये उन खुशकिस्मत लोगों का ज़िक्र है जो अल्लाह के साथ किये गए तमाम अहद दरजा-ब-दरजा पूरे करते हैं।
आयत 21
“और जो लोग जोड़ते हैं उसको जिसको जोड़ने का अल्लाह ने हुक्म दिया है, और जो डरते रहते हैं अपने रब से और अंदेशा रखते हैं बुरे हिसाब का।” | وَالَّذِيْنَ يَصِلُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيَخْشَوْنَ رَبَّهُمْ وَيَخَافُوْنَ سُوْۗءَ الْحِسَابِ 21ۭ |
वह लोग क़राबत के रिश्तों को जोड़ते हैं, यानि सिला रहमी करते हैं और हिसाबे आख़िरत के नताइज की बुराई से हमेशा खौफ़ज़दा रहते हैं कि उस दिन हिसाब के नाताइज़ मनफ़ी (negative) होने की सूरत में कहीं हमारी शामत ना आ जाए।
आयत 22
“और वह लोग जिन्होंने सब्र किया अपने रब की रज़ा जोई के लिये, और नमाज़ क़ायम की, और खर्च किया उसमें से जो हमने उन्हें दिया था पोशीदा तौर पर भी और ऐलानिया भी” | وَالَّذِيْنَ صَبَرُوا ابْتِغَاۗءَ وَجْهِ رَبِّهِمْ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاَنْفَقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰهُمْ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً |
“और वह भलाई से बुराई को दूर करते हैं, यही लोग हैं जिनके लिये दारे आख़िरत की कामयाबी है।” | وَّيَدْرَءُوْنَ بِالْحَسَنَةِ السَّيِّئَةَ اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ عُقْبَى الدَّارِ 22ۙ |
वह बुराई का जवाब बुराई से नहीं देते, बल्कि कोई शख्स अगर उनके साथ बुराई करता है तो वह जवाबन उसके साथ भलाई से पेश आते हैं ताकि उसके अन्दर अगर नेकी का जज़्बा मौजूद है तो वह जाग जाए। (اللھم ربنا اجعلنا منھم)
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आयत 23
“(आख़िरत का घर) वह बाग़ात हैं हमेशा रहने के, जिनमें वह दाख़िल होंगे और जो भी सालेह होंगे उनके आबा, उनकी बीवियों और उनकी औलाद में से, और हर दरवाज़े से जन्नत के फ़रिश्ते उनके सामने हाज़िर होंगे।” | جَنّٰتُ عَدْنٍ يَّدْخُلُوْنَهَا وَمَنْ صَلَحَ مِنْ اٰبَاۗىِٕهِمْ وَاَزْوَاجِهِمْ وَذُرِّيّٰــتِهِمْ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ يَدْخُلُوْنَ عَلَيْهِمْ مِّنْ كُلِّ بَابٍ 23ۚ |
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आयत 24
“(और कहेंगे) सलामती हो आप पर बसबब उसके जो आप लोगों ने सब्र किया, तो क्या ही अच्छा है यह आख़िरत का घर!” | سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ بِمَا صَبَرْتُمْ فَنِعْمَ عُقْبَى الدَّارِ 24ۭ |
जन्नत में अपने आबा व अजदाद और अहलो अयाल में से सालेह लोगों की मअयत (साथ) गोया अल्लाह की तरफ़ से अपने नेक बन्दों के लिये एक ऐज़ाज़ होगा, और इसके लिये अगर ज़रूरत हुई तो उनके उन रिश्तेदारों के दरजात भी बढ़ा दिये जायेंगे। मगर यहाँ यह नुक्ता बहुत अहम है कि अहले जन्नत के जो क़राबतदार कुफ्फ़ार और मुशरिकीन थे, उनके लिये रिआयत की कोई गुंजाइश नहीं होगी, बल्कि इस रिआयत से सिर्फ़ वह अहले ईमान मुस्तफ़ीज़ होंगे जो “सालेहीन” की baseline पर पहुँच चुके होंगे। यानि सूरतुन्निसा आयत 69 में जो मदारज (दर्जे) बयान हुए हैं उनके ऐतबार से जो मुसलमान कमसे कम दरजे की जन्नत में दाखले का मुस्तहिक़ हो चुका होगा, उसके मदारज (दर्जे) उसके किसी क़राबतदार की वजह से बढ़ा दिये जायेंगे जो जन्नत में आला मरातिब पर फ़ाइज़ होगा। मसलन एक शख्स को जन्नत में बहुत आला मरतबा अता हुआ है, अब उसका बाप एक सालेह मुसलमान की baseline पर पहुँच कर जन्नत में दाख़िल होने का मुस्तहिक़ तो हो चुका है मगर जन्नत में उसका दर्जा बहुत नीचे है, तो ऐसे शख्स के मरातिब बढ़ा कर उसे अपने बेटे के साथ आला दर्जे की जन्नत में पहुँचा दिया जाएगा।
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आयत 25
“और (इसके बरअक्स) वह लोग जो तोड़ते हैं अल्लाह के अहद को उसको मज़बूती से बाँधने के बाद और काटते हैं उन (रिश्तों) को जिनको जोड़ने का अल्लाह ने हुक्म दिया है और ज़मीन में फ़साद मचाते हैं।” | وَالَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِهٖ وَيَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيُفْسِدُوْنَ فِي الْاَرْضِ ۙ |
क़ब्ल अज़ सूरतुल बक़रह आयत 27 में भी हम बैयन ही ये अल्फ़ाज़ पढ़ आए हैं: { الَّذِيْنَ يَنْقُضُوْنَ عَهْدَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مِيْثَاقِه ٖ ۠ وَ يَقْطَعُوْنَ مَآ اَمَرَ اللّٰهُ بِهٖٓ اَنْ يُّوْصَلَ وَيُفْسِدُوْنَ فِى الْاَرْضِ ۭ } वहाँ इस हवाले से कुछ वज़ाहत भी हो चुकी है।
“यही लोग हैं जिनके लिये लानत होगी और इनके लिये बुरा घर (जहन्नम) है।” | اُولٰۗىِٕكَ لَهُمُ اللَّعْنَةُ وَلَهُمْ سُوْۗءُ الدَّارِ 25 |
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आयत 26
“अल्लाह जिसके लिये चाहता है रिज़्क़ क़ुशादा कर देता है और जिसे चाहता है नपा-तुला रिज़्क़ देता है।” | اَللّٰهُ يَبْسُطُ الرِّزْقَ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيَــقْدِرُ ۭ |
“और यह लोग मगन है दुनिया की ज़िन्दगी पर, हालाँकि दुनिया की ज़िन्दगी आख़िरत के मुक़ाबले में कुछ भी नहीं है सिवाय थोड़े से फ़ायदे के।” | وَفَرِحُوْا بِالْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۭ وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا فِي الْاٰخِرَةِ اِلَّا مَتَاعٌ 26ۧ |
जो लोग उखरवी ज़िन्दगी के ईनामात के उम्मीदवार नहीं हैं इनकी जुहद व कोशिश की जौलानगाह यही दुनियवी ज़िन्दगी है। उनकी तमामतर सलाहियतें इसी ज़िन्दगी की असाइशों के हसूल में सर्फ़ होती हैं और वह इसकी ज़ेब व ज़ीनत पर फ़रिफ्ता और इसमें पूरी तरह मगन हो जाते हैं। वह अपने इस तर्ज़े अमल पर बहुत खुश और मुतमईन होते हैं, हालाँकि दुनिया की ज़िन्दगी आख़िरत के मुक़ाबले में एक मताए क़लील व हक़ीर के सिवा कुछ भी नहीं।
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आयत 27 से 31 तक
وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۭ قُلْ اِنَّ اللّٰهَ يُضِلُّ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَهْدِيْٓ اِلَيْهِ مَنْ اَنَابَ 27ڻ اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَتَطْمَىِٕنُّ قُلُوْبُهُمْ بِذِكْرِ اللّٰهِ ۭ اَلَا بِذِكْرِ اللّٰهِ تَـطْمَىِٕنُّ الْقُلُوْبُ 28ۭ اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ طُوْبٰى لَهُمْ وَحُسْنُ مَاٰبٍ 29 كَذٰلِكَ اَرْسَلْنٰكَ فِيْٓ اُمَّةٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهَآ اُمَمٌ لِّتَتْلُوَا۟ عَلَيْهِمُ الَّذِيْٓ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ وَهُمْ يَكْفُرُوْنَ بِالرَّحْمٰنِ ۭ قُلْ هُوَ رَبِّيْ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ ۚ عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَاِلَيْهِ مَتَابِ 30 وَلَوْ اَنَّ قُرْاٰنًا سُيِّرَتْ بِهِ الْجِبَالُ اَوْ قُطِّعَتْ بِهِ الْاَرْضُ اَوْ كُلِّمَ بِهِ الْمَوْتٰى ۭ بَلْ لِّلّٰهِ الْاَمْرُ جَمِيْعًا ۭاَفَلَمْ يَايْــــــَٔـسِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْ لَّوْ يَشَاۗءُ اللّٰهُ لَهَدَى النَّاسَ جَمِيْعًا ۭ وَلَا يَزَالُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا تُصِيْبُهُمْ بِمَا صَنَعُوْا قَارِعَةٌ اَوْ تَحُلُّ قَرِيْبًا مِّنْ دَارِهِمْ حَتّٰى يَاْتِيَ وَعْدُ اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ 31 ۧ
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आयत 27
“और कहते हैं यह काफ़िर लोग कि क्यों नहीं उतारी गई इस शख्स पर कोई निशानी इसके रब की तरफ़ से?” | وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْلَآ اُنْزِلَ عَلَيْهِ اٰيَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ ۭ |
मुशरिकीने मक्का की हठधर्मी मुलाहिज़ा हो, बार-बार उनकी इसी बात और इसी दलील का ज़िक्र हो रहा है कि मोहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर कोई हिस्सी मौज्ज़ा क्यों नहीं उतारा गया?
“आप कह दीजिये कि अल्लाह जिसको चाहता है गुमराह करता है और अपनी तरफ़ हिदायत उसी को देता है जो खुद (उसकी तरफ़) रुजूअ करे।” | قُلْ اِنَّ اللّٰهَ يُضِلُّ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَهْدِيْٓ اِلَيْهِ مَنْ اَنَابَ 27ڻ |
जो लोग खुद हिदायत के तालिब होते हैं और अल्लाह तआला की तरफ़ मुतवज्जो होते हैं, वह उन्हें नेअमते हिदायत से सरफ़राज़ फ़रमाता है।
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आयत 28
“वह लोग जो ईमान लाए और उनके दिल अल्लाह के ज़िक्र से मुतमईन होते हैं।” | اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَتَطْمَىِٕنُّ قُلُوْبُهُمْ بِذِكْرِ اللّٰهِ ۭ |
दिल और रूह के लिये तस्कीन (सुकून) का सबसे बड़ा ज़रिया अल्लाह का ज़िक्र है इसलिये कि इंसान की रूह उसके दिल की मकीन (दिल में रहती) है और रूह का ताल्लुक़ बराहेरास्त अल्लाह तआला की ज़ात के साथ है। जैसा कि सूरह बनी इसराइल में फ़रमाया गया: { وَيَسْــــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الرُّوْحِ ۭ قُلِ الرُّوْحُ مِنْ اَمْرِ رَبِّيْ } (आयत 85) “और (ऐ नबी ﷺ!) यह लोग आपसे रूह के बारे में सवाल करते हैं, आप फ़रमाएँ कि रूह मेरे परवरदिगार के अम्र (हुक्म) में से है।” लिहाज़ा जिस तरह इंसानी जिस्म की हयात का मिम्बा (source) ये ज़मीन है और जिस्म की नशो नुमा (growth) और तक़वियत (ताक़त) का सारा सामान ज़मीन ही से मुहैय्या होता है इसी तरह इंसानी रूह का मिम्बा ज़ाते बारी तआला है और इसकी नशो नुमा और तक़वियत के लिये गिज़ा का सामान भी वहीं से आता है। चुनाँचे रूह अमरुल्लाह (अल्लाह का हुक्म) है और इसकी गिज़ा ज़िक्रुल्लाह और कलामुल्लाह है।
“आगाह हो जाओ! अल्लाह के ज़िक्र के साथ ही दिल मुतमईन होते हैं।” | اَلَا بِذِكْرِ اللّٰهِ تَـطْمَىِٕنُّ الْقُلُوْبُ 28ۭ |
दुनियवी मालो-मता और सामाने ऐशो-आसाइश की बहुतात से नफ्स और जिस्म की तस्कीन का सामान तो हो सकता है, यह चीज़ें दिल के सुकून और इत्मिनान का बाइस नहीं बन सकतीं। दिल को यह दौलत नसीब होगी तो अल्लाह के ज़िक्र से होगी।
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आयत 29
“जो लोग ईमान लाए और उन्होंने नेक अमल किये उनके लिये मुबारकबाद है और लौटने का बहुत अच्छा मुक़ाम है।” | اَلَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ طُوْبٰى لَهُمْ وَحُسْنُ مَاٰبٍ 29 |
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आयत 30
“(ऐ नबी ﷺ!) इसी तरह हमने आपको भेजा है एक ऐसी उम्मत में जिससे पहले बहुत सी उम्मतें गुज़र चुकी हैं ताकि आप तिलावत करके सुनाएँ इन लोगों को वह (किताब) जो हमने वही की है आपकी तरफ़ दर हालाँकि यह लोग रहमान का इन्कार कर रहे हैं।” | كَذٰلِكَ اَرْسَلْنٰكَ فِيْٓ اُمَّةٍ قَدْ خَلَتْ مِنْ قَبْلِهَآ اُمَمٌ لِّتَتْلُوَا۟ عَلَيْهِمُ الَّذِيْٓ اَوْحَيْنَآ اِلَيْكَ وَهُمْ يَكْفُرُوْنَ بِالرَّحْمٰنِ ۭ |
अगरचे अल्लाह तआला का नाम “अर्रहमान” अरब में पहले से मुतारफ़ था मगर मुशरिकीने मक्का “अल्लाह” ही को जानते और मानते थे, इसलिये वह इस नाम से बिदकते थे और अजीब अंदाज़ में पूछते थे कि ये रहमान कौन है? (अल फुरक़ान 60)
“कह दीजिये कि वह मेरा रब है, उसके सिवा और कोई मअबूद नहीं।” | قُلْ هُوَ رَبِّيْ لَآ اِلٰهَ اِلَّا هُوَ ۚ |
“उसी पर मैंने भरोसा किया है और उसी की तरफ़ मेरा लौटना है।” | عَلَيْهِ تَوَكَّلْتُ وَاِلَيْهِ مَتَابِ 30 |
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आयत 31
“और अगर होता कोई ऐसा क़ुरान जिसके ज़रिये से पहाड़ चल पड़ते, या ज़मीन के टुकड़े-टुकड़े हो जाते या कलाम करते उसके ज़रिये मुर्दे (तब भी ये ईमान लाने वाले नहीं थे)।” | وَلَوْ اَنَّ قُرْاٰنًا سُيِّرَتْ بِهِ الْجِبَالُ اَوْ قُطِّعَتْ بِهِ الْاَرْضُ اَوْ كُلِّمَ بِهِ الْمَوْتٰى ۭ |
यहाँ फिर हिस्सी मौज़्ज़ों के बारे में मुशरिकीन के मुतालबे का जवाब दिया जा रहा है। सूरतुल अनआम में ये मज़मून तफ़सील से गुज़र चुका है। यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि अगर हमने कोई ऐसा क़ुरान उतारा होता जिसकी तासीर से तरह-तरह के हिस्सी मौज्ज़ात का ज़हूर होता तब भी ये ईमान लाने वाले नहीं थे। ये क़ुरान हर उस शख्स के लिये सरापा मौज्ज़ा है जो वाक़ई हिदायत का ख्वाहिशमंद है। ये तालिबाने हक़ के दिलों को गुदाज़ करता है, उनको रूह को ताज़गी बख्शता है, उनके ला-शऊर के अन्दर ख्वाबेदा ईमानी हक़ाइक़ को जगाता है। ऐसे लोग अपनी हिदायत का तमाम सामान इस क़ुरान के अन्दर मौजूद पाते हैं।
“बल्कि इख्तियार तो कुल का कुल अल्लाह के हाथ में है। क्या अहले ईमान इस पर मुतमईन नहीं हो जाते कि अगर अल्लाह चाहता तो तमाम इंसानों को हिदायत दे देता?” | بَلْ لِّلّٰهِ الْاَمْرُ جَمِيْعًا ۭاَفَلَمْ يَايْــــــَٔـسِ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْ لَّوْ يَشَاۗءُ اللّٰهُ لَهَدَى النَّاسَ جَمِيْعًا ۭ |
अहले ईमान को तो ये यक़ीन है ना कि अगर अल्लाह चाहता तो दुनिया के तमाम इंसानों को हिदायत दे सकता था, और अगर उसने ऐसा नहीं किया तो ये ज़रूर उसी की मशीयत है। लिहाज़ा इस यक़ीन से उनको तो दिल जमई और इत्मिनान हासिल हो जाना चाहिये।
“और जो काफ़िर हैं उनको बराबर पहुँचती रहेगी उनके आमाल के सबब कोई ना कोई आफ़त, या उनके घरों के क़रीब उतरती रहेगी, यहाँ तक कि अल्लाह का वादा आ जाए।” | وَلَا يَزَالُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا تُصِيْبُهُمْ بِمَا صَنَعُوْا قَارِعَةٌ اَوْ تَحُلُّ قَرِيْبًا مِّنْ دَارِهِمْ حَتّٰى يَاْتِيَ وَعْدُ اللّٰهِ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी नहीं करता।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ 31 ۧ |
इन लोगों के करतूतों की पादाश में इन पर कोई ना कोई आफ़त और मुसीबत नाज़िल होती रहेगी। वह मुसलसल खौफ़ की कैफ़ियत में मुब्तला रहेंगे, यहाँ तक कि अल्लाह का वादा पूरा हो जाए।
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आयात 32 से 37 तक
وَلَقَدِ اسْتُهْزِئَ بِرُسُلٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَاَمْلَيْتُ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا ثُمَّ اَخَذْتُهُمْ ۣ فَكَيْفَ كَانَ عِقَابِ 32 اَفَمَنْ هُوَ قَاۗىِٕمٌ عَلٰي كُلِّ نَفْسٍۢ بِمَا كَسَبَتْ ۚ وَجَعَلُوْا لِلّٰهِ شُرَكَاۗءَ ۭ قُلْ سَمُّوْهُمْ ۭ اَمْ تُنَبِّــــــُٔـوْنَهٗ بِمَا لَا يَعْلَمُ فِي الْاَرْضِ اَمْ بِظَاهِرٍ مِّنَ الْقَوْلِ ۭ بَلْ زُيِّنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا مَكْرُهُمْ وَصُدُّوْا عَنِ السَّبِيْلِ ۭوَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَمَا لَهٗ مِنْ هَادٍ 33 لَهُمْ عَذَابٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَلَعَذَابُ الْاٰخِرَةِ اَشَقُّ ۚ وَمَا لَهُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ وَّاقٍ 34 مَثَلُ الْجَنَّةِ الَّتِيْ وُعِدَ الْمُتَّقُوْنَ ۭ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۭ اُكُلُهَا دَاۗىِٕمٌ وَّظِلُّهَا ۭ تِلْكَ عُقْبَى الَّذِيْنَ اتَّقَوْاڰ وَّعُقْبَى الْكٰفِرِيْنَ النَّارُ 35 وَالَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يَفْرَحُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمِنَ الْاَحْزَابِ مَنْ يُّنْكِرُ بَعْضَهٗ ۭ قُلْ اِنَّمَآ اُمِرْتُ اَنْ اَعْبُدَ اللّٰهَ وَلَآ اُشْرِكَ بِهٖ ۭ اِلَيْهِ اَدْعُوْا وَاِلَيْهِ مَاٰبِ 36 وَكَذٰلِكَ اَنْزَلْنٰهُ حُكْمًا عَرَبِيًّا ۭ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَهْوَاۗءَهُمْ بَعْدَمَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ مَا لَكَ مِنَ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا وَاقٍ 37ۧ
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आयत 32
“और (ऐ नबी ﷺ!) आपसे पहले भी रसूलों का मज़ाक़ उड़ाया गया, तो मैंने ढील दी (कुछ अरसे के लिये) काफ़िरों को, फिर मैंने उनको पकड़ लिया।” | وَلَقَدِ اسْتُهْزِئَ بِرُسُلٍ مِّنْ قَبْلِكَ فَاَمْلَيْتُ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا ثُمَّ اَخَذْتُهُمْ ۣ |
“तो कैसा रहा मेरा अज़ाब!” | فَكَيْفَ كَانَ عِقَابِ 32 |
ज़रा तस्सवुर करें क़ौमे नूह, क़ौमे हूद, क़ौमे सालेह, क़ौमे लूत, क़ौमे शोएब और आले फ़िरऔन के अंजाम का और फ़िर सोंचे कि इन नाफ़रमान क़ौमों की जब गिरफ़्त हुई तो वह किस क़दर इबरतनाक थी।
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आयत 33
“तो क्या वह हस्ती जो हर जान से मुहासबा करने वाली है जो उसने कमाई की है (औरों की तरह हो सकती है?)” | اَفَمَنْ هُوَ قَاۗىِٕمٌ عَلٰي كُلِّ نَفْسٍۢ بِمَا كَسَبَتْ ۚ |
अल्लाह तआला हर आन हर शख्स के साथ मौजूद है और उसकी एक-एक हरकत और उसके एक-एक अमल पर नज़र रखता है। क्या ऐसी क़ुदरत किसी और को हासिल है?
“और इन्होंने अल्लाह के शरीक बना लिये हैं।” | وَجَعَلُوْا لِلّٰهِ شُرَكَاۗءَ ۭ |
इन्होंने ऐसी बसीर, खबीर और अला कुल्ली शयइन क़दीर हस्ती के मुक़ाबले में कुछ मअबूद गढ़ लिये हैं, जिनकी कोई हैसियत नहीं।
“आप कहिये! ज़रा इनके नाम तो बताओ! क्या तुम अल्लाह को जताना चाहते हो वह शय जो वह नहीं जानता ज़मीन में?” | قُلْ سَمُّوْهُمْ ۭ اَمْ تُنَبِّــــــُٔـوْنَهٗ بِمَا لَا يَعْلَمُ فِي الْاَرْضِ |
यानि अल्लाह जो इस क़दर अलीम और बसीर हस्ती है कि अपने हर बन्दे के हर ख्याल और हर फ़अल (काम) से वाक़िफ़ है, तो तुम लोगों ने जो भी मअबूद बनाए हैं क्या उनके पास अल्लाह से ज़्यादा इल्म है? क्या तुम अल्लाह को एक नई बात की ख़बर दे रहे हो जिससे वह ना-वाक़िफ़ है?
“या तुम सिर्फ़ सतही सी बात करते हो?” | اَمْ بِظَاهِرٍ مِّنَ الْقَوْلِ ۭ |
यानि यूँही जो मुँह में आता है तुम लोग कह डालते हो और इन शरीकों के बारे में तुम्हारे अपने दावे खोखले हैं। तुम्हारे इन दावों की बुनियादों में यक़ीन की पुख्तगी नहीं है। इनके बारे में तुम्हारी सारी बातें सतही नौइयत की हैं, अक़्ली और मन्तक़ी (logical) तौर पर तुम खुद भी उनके क़ायल नहीं हो।
“बल्कि इन काफ़िरों के लिये इनकी मक्कारियाँ मुज़य्यन कर दी गई हैं, और वह रोक दिये गए हैं (सीधे) रास्ते से।” | بَلْ زُيِّنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوْا مَكْرُهُمْ وَصُدُّوْا عَنِ السَّبِيْلِ ۭ |
“और जिसे अल्लाह गुमराह कर दे तो उसे कोई हिदायत देने वाला नहीं है।” | وَمَنْ يُّضْلِلِ اللّٰهُ فَمَا لَهٗ مِنْ هَادٍ 33 |
अब गोया इनके दिल उलट दिये गए हैं, इनके दिलों पर मुहर कर दी गई है और इनके आमाल को देखते हुए अल्लाह ने इनकी गुमराही के बारे में आख़री फ़ैसला दे दिया है। अब इनको कोई राहेरास्त पर नहीं ला सकता।
आयत 34
“इनके लिये अज़ाब है दुनिया की ज़िंदगी में भी, और आख़िरत का अज़ाब तो इससे भी ज़्यादा सख्त होगा।” | لَهُمْ عَذَابٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَلَعَذَابُ الْاٰخِرَةِ اَشَقُّ ۚ |
“और नहीं होगा कोई भी इनको अल्लाह से बचाने वाला।” | وَمَا لَهُمْ مِّنَ اللّٰهِ مِنْ وَّاقٍ 34 |
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आयत 35
“मिसाल उस जन्नत की जिसका वादा किया गया है मुत्तक़ियों से, उसके दामन में नदियाँ बहती होंगी, उसके फल भी हमेशा क़ायम रहने वाले होंगे और उसके साये भी।” | مَثَلُ الْجَنَّةِ الَّتِيْ وُعِدَ الْمُتَّقُوْنَ ۭ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۭ اُكُلُهَا دَاۗىِٕمٌ وَّظِلُّهَا ۭ |
“यह है अंजाम उन लोगों का जिन्होंने तक़वा की रविश इख्तियार की, और काफ़िरों का अंजाम तो आग है।” | تِلْكَ عُقْبَى الَّذِيْنَ اتَّقَوْاڰ وَّعُقْبَى الْكٰفِرِيْنَ النَّارُ 35 |
आयत 36
“और जिन लोगों को तो हमने किताब दी थी वह खुश हो रहे हैं इस (क़ुरान) से जो (ऐ नबी ﷺ!) आपकी तरफ़ नाज़िल किया गया है।” | وَالَّذِيْنَ اٰتَيْنٰهُمُ الْكِتٰبَ يَفْرَحُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ |
यह मदीने के अहले किताब में से नेक सरिश्त लोगों का ज़िक्र है। उनको जब ख़बरें मिलती थीं कि मक्के में आख़री नबी ﷺ का ज़हूर हो चुका है तो वह इन ख़बरों से ख़ुश होते थे।
“और बाज़ गिरोहों में से कुछ ऐसे भी हैं जो इसके बाज़ हिस्सों का इन्कार करते हैं।” | وَمِنَ الْاَحْزَابِ مَنْ يُّنْكِرُ بَعْضَهٗ ۭ |
“आप कहिये कि मुझे तो हुक्म हुआ है कि मैं अल्लाह की बंदगी करूँ और उसके साथ शिर्क न करूँ, उसी की तरफ़ मैं बुला रहा हूँ और उसी की तरफ़ मेरा लौटना है।” | قُلْ اِنَّمَآ اُمِرْتُ اَنْ اَعْبُدَ اللّٰهَ وَلَآ اُشْرِكَ بِهٖ ۭ اِلَيْهِ اَدْعُوْا وَاِلَيْهِ مَاٰبِ 36 |
आयत 37
“और इसी तरह हमने इसको उतारा है अरबी में क़ौले फ़ैसल बना कर।” | وَكَذٰلِكَ اَنْزَلْنٰهُ حُكْمًا عَرَبِيًّا ۭ |
“हुक्म” ब मायने “फ़ैसला” यानि यह क़ुराने अरबी क़ौले फ़ैसल बन कर आया है। जैसा कि सूरतुल तारिक़ में फ़रमाया है: {اِنَّهٗ لَقَوْلٌ فَصْلٌ} {وَّمَا هُوَ بِالْهَزْلِ} (आयात 13-14) “ये कलाम (हक़ को बातिल से) जुदा करने वाला है और कोई बेहुदा बात नहीं है।”
“और (ऐ नबी ﷺ!) अगर आपने इनकी ख्वाहिशात की पैरवी की इसके बाद कि आपके पास सही इल्म आ चुका है तो नहीं होगा आपके लिये भी अल्लाह की तरफ़ से ना कोई हिमायती और ना कोई बचाने वाला।” | وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَهْوَاۗءَهُمْ بَعْدَمَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ مَا لَكَ مِنَ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا وَاقٍ 37ۧ |
आयात 38 से 43 तक
وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا رُسُلًا مِّنْ قَبْلِكَ وَجَعَلْنَا لَهُمْ اَزْوَاجًا وَّذُرِّيَّةً ۭ وَمَا كَانَ لِرَسُوْلٍ اَنْ يَّاْتِيَ بِاٰيَةٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ لِكُلِّ اَجَلٍ كِتَابٌ 38 يَمْحُوا اللّٰهُ مَا يَشَاۗءُ وَيُثْبِتُ ښ وَعِنْدَهٗٓ اُمُّ الْكِتٰبِ 39 وَاِنْ مَّا نُرِيَنَّكَ بَعْضَ الَّذِيْ نَعِدُهُمْ اَوْ نَتَوَفَّيَنَّكَ فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ وَعَلَيْنَا الْحِسَابُ 40 اَوَلَمْ يَرَوْا اَنَّا نَاْتِي الْاَرْضَ نَنْقُصُهَا مِنْ اَطْرَافِهَا ۭوَاللّٰهُ يَحْكُمُ لَا مُعَقِّبَ لِحُكْمِهٖ ۭ وَهُوَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ 41 وَقَدْ مَكَرَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ فَلِلّٰهِ الْمَكْرُ جَمِيْعًا ۭ يَعْلَمُ مَا تَكْسِبُ كُلُّ نَفْسٍ ۭ وَسَيَعْلَمُ الْكُفّٰرُ لِمَنْ عُقْبَى الدَّارِ 42 وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَسْتَ مُرْسَلًا ۭ قُلْ كَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًۢا بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ ۙ وَمَنْ عِنْدَهٗ عِلْمُ الْكِتٰبِ 43ۧ
आयत 38
“और हमने भेजा रसूलों को आपसे पहले भी और हमने बनाईं उनके लिये बीवियाँ भी और औलाद भी।” | وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا رُسُلًا مِّنْ قَبْلِكَ وَجَعَلْنَا لَهُمْ اَزْوَاجًا وَّذُرِّيَّةً ۭ |
आप ﷺ से पहले जितने भी रसूल आए हैं वह सब आम इंसानों की तरह पैदा हुए (सिवाय हज़रत ईसा अलै. के), फिर उन्होंने निकाह भी किये और उनकी औलादें भी हुईं।
“और किसी रसूल के लिये मुमकिन नहीं था कि वह कोई निशानी (मौज्ज़ा) ले आता मगर अल्लाह के इज़्न से। हर शय के लिये एक मुक़र्रर वक़्त लिखा हुआ है।” | وَمَا كَانَ لِرَسُوْلٍ اَنْ يَّاْتِيَ بِاٰيَةٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ لِكُلِّ اَجَلٍ كِتَابٌ 38 |
आयत 39
“अल्लाह जिस चीज़ को चाहता है मिटा देता है और (जिस को चाहता है) क़ायम रखता है, और उसी के पास है उम्मुल किताब।” | يَمْحُوا اللّٰهُ مَا يَشَاۗءُ وَيُثْبِتُ ښ وَعِنْدَهٗٓ اُمُّ الْكِتٰبِ 39 |
उम्मुल किताब यानि असल किताब अल्लाह के पास है। सूरतुल ज़ुखरुफ़ में इसके मुताल्लिक़ यूँ फ़रमाया गया है: { وَاِنَّهٗ فِيْٓ اُمِّ الْكِتٰبِ لَدَيْنَا لَعَلِيٌّ حَكِيْمٌ } (आयत 4) “और यह असल किताब (यानि लौहे महफ़ूज़) में हमारे पास है जो बड़ी फज़ीलत और हिकमत वाली है।” आप इसे लौहे महफ़ूज़ कहें, उम्मुल किताब कहें या किताबे मकनून कहें, असल क़ुरान इसके अन्दर है। ये क़ुरान जो हमारे पास है ये उसकी मुसद्दक़ा नक़ल है जो अल्लाह तआला ने अपनी ख़ास इनायत और मेहरबानी से हुज़ूर ﷺ की वसातत से हमें दुनिया में अता कर दिया है।
आयत 40
“और ख्वाह हम दिखा दें आपको इसका कुछ हिस्सा जिसकी हम इनको धमकी दे रहे हैं, या हम आपको वफ़ात दे दें” | وَاِنْ مَّا نُرِيَنَّكَ بَعْضَ الَّذِيْ نَعِدُهُمْ اَوْ نَتَوَفَّيَنَّكَ |
यानि ये भी हो सकता है कि आपकी ज़िंदगी ही में इनको अज़ाबे इलाही में से कुछ हिस्सा मिल जाए, और ये भी हो सकता है कि आप ﷺ की ज़िन्दगी में इन पर ऐसा वक़्त ना आए, बल्कि अज़ाब के ज़हूर में आने से पहले हम आपको वफ़ात दे दें।
“पस आपके ज़िम्मे तो पहुँचाना ही है और हमारे ज़िम्मे हिसाब लेना है।” | فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ وَعَلَيْنَا الْحِسَابُ 40 |
आप ﷺ पर हमारा पैग़ाम पहुँचाने की ज़िम्मेदारी थी, सो आप ﷺ ने ये ज़िम्मेदारी अहसन तरीक़े से अदा कर दी। अब उनको हिदायत देना या ना देना, उन पर अज़ाब भेजना या ना भेजना और उनका हिसाब लेना, ये सब कुछ हमारे ज़िम्मे है और हम ये फ़ैसले अपनी मशियत ले मुताबिक़ करेंगे।
आयत 41
“क्या ये लोग देखते नहीं कि हम ज़मीन को घटाते चले आ रहे हैं इसके किनारों से?” | اَوَلَمْ يَرَوْا اَنَّا نَاْتِي الْاَرْضَ نَنْقُصُهَا مِنْ اَطْرَافِهَا ۭ |
“और अल्लाह ही फ़ैसला करता है, कोई नहीं पीछे डालने वाला उसके हुक्म को, और वह जल्द हिसाब लेने वाला है।” | وَاللّٰهُ يَحْكُمُ لَا مُعَقِّبَ لِحُكْمِهٖ ۭ وَهُوَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ 41 |
ये मज़मून सूरतुल अंबिया की आयत नम्बर 44 में इस तरह बयान हुआ है: {اَفَلَا يَرَوْنَ اَنَّا نَاْتِي الْاَرْضَ نَنْقُصُهَا مِنْ اَطْرَافِهَا ۭ اَفَـهُمُ الْغٰلِبُوْنَ} “क्या ये लोग देखते नहीं कि हम ज़मीन को इसके किनारों से घटाते चले आ रहे हैं, तो क्या अब ये गालिब आने वाले हैं?” ये उस दौर की तरफ़ इशारा है जब मुशरिकीने मक्का ने मक्का के अंदर रसूल अल्लाह ﷺ और मुसलमानों के ख़िलाफ़ दुश्मनी की भट्टी पूरे ज़ोर-शोर से धहका रखी थी और वह लोग इसमें अपने सारे वसाइल इस उम्मीद पर झोंके जा रहे थे कि एक दिन मोहम्मद ﷺ और आपकी इस तहरीक को नीचा दिखा कर रहेँगे। इस सूरतेहाल में इन्हें मक्का के मज़ाफ़ाती इलाक़ों (उम्मुल क़ुराअ व मन हवलहा) के मअरूज़ी हालात के हवाले से मुस्तक़बिल की एक इम्कानी झलक दिखाई जा रही है कि बेशक अभी तक मक्के के अंदर तुम्हारी हिकमते अमली किसी हद तक कामयाब है, लेकीन क्या तुम देख नहीं रहे हो कि मक्के के आस-पास के क़बाइल के अंदर इस दावत के असर व नफ़ूज़ में ब-तदरीज़ इज़ाफ़ा हो रहा है और इसके मुक़ाबले में तुम्हारा हल्क़ा-ए-असर रोज़-ब-रोज़ सिकुड़ता चला जा रहा है। जैसे क़बीला बनी गिफ़ार के एक नौजवान अबु ज़र रज़ि. ये दावत क़ुबूल करके अपने क़बीले में एक मुबल्लिग़ की हैसियत से वापस गए हैं और आपकी वसातत से ये दावत उस क़बीले में भी पहुँच गई है। यही हाल इर्द-गिर्द के दूसरे क़बाइल का है। इन हालात में क्या तुम्हें नज़र नहीं आ रहा कि ये दावत रफ़्ता-रफ़्ता तुम्हारे चारों तरफ़ से तुम्हारे गिर्द घेरा तंग करती चली जा रही है? अब वह वक़्त बहुत क़रीब नज़र आ रहा है जब तुम्हारे इर्द-गिर्द का माहौल इस्लाम क़ुबूल कर लेगा और तुम लोग इसके दायरा-ए-असर के अंदर महसूर (क़ैद) होकर रह जाओगे।
इस आयत में जिस सूरते हाल का ज़िक्र है इसका अमली मुज़ाहिरा हिजरत के बाद बहुत तेज़ी के साथ सामने आया। हुज़ूर ﷺ ने मदीना तशरीफ़ लाने के बाद एक तरफ़ क़ुरैशे मक्का के लिये उनकी तिजारती शाहराहों को मखदूश (तबाह) बना दिया तो दूसरी तरफ़ मदीना के आस-पास के क़बाइल के साथ सियासी मुआहिदात करके इस पूरे इलाक़े से क़ुरैशे मक्का के असर व रसूख की बिसात लपेट दी। मदीना के मज़ाफ़ात में आबाद बेशतर क़बाइल क़ुरैशे मक्का के हलीफ़ (इत्तेहादी) थे मगर अब इनमें से अक्सर या तो मुसलमानों के हलीफ़ बन गए या इन्होंने गैर-जानिबदार रहने का ऐलान कर दिया। क़ुरैशे मक्का की मआशी नाकाबंदी (economic blockade) और सियासी इन्क़ताअ (political isolation) के लिये रसूल अल्लाह ﷺ के ये अक़दामात इस क़दर मौअस्सर थे कि इसके बाद इन्हें अपने इर्द-गिर्द से सिकुडती हुई ज़मीन बहुत वाज़ेह अंदाज़ में दिखाई देने लगी।
दरअसल फ़लसफ़ा-ए-सीरत के ऐतबार से ये बहुत अहम मौज़ू है मगर बहुत कम लोगों ने इस पर तव्वजो दी है। मैंने अपनी किताब “मन्हज-ए-इंक़लाब-ए-नबवी ﷺ” में इस पर तफ़सील से बहस की है।
आयत 42
“और जो इनसे पहले थे उन्होंने भी बड़ी चालें चली थीं” | وَقَدْ مَكَرَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ |
अपने-अपने दौर में मुन्करीने हक़ ने अम्बिया व रुसुल की दावते हक़ को रोकने के लिये साज़िशों के ख़ूब जाल फैलाए थे और बड़ी-बड़ी मंसूबा बंदियाँ की थीं।
“लेकिन सारी की सारी तदबीरें अल्लाह ही के इख्तियार में है।” | فَلِلّٰهِ الْمَكْرُ جَمِيْعًا ۭ |
अल्लाह तआला ऐसे लोगों की तदबीरों और साज़िशों का मुकम्मल तौर पर इहाता किये हुए है। उसकी मशियत के ख़िलाफ़ इनकी कोई तदबीर कामयाब नहीं हो सकती।
“वह जानता है हर जान जो कुछ कमाती है। और अनक़रीब मालूम हो जाएगा काफ़िरों को कि दारे आख़िरत की कामयाबी किसके लिये है!” | يَعْلَمُ مَا تَكْسِبُ كُلُّ نَفْسٍ ۭ وَسَيَعْلَمُ الْكُفّٰرُ لِمَنْ عُقْبَى الدَّارِ 42 |
दारे आख़िरत की भलाई और उसका आराम किसके लिये है, इन्हें बहुत जल्द मालूम हो जाएगा।
आयत 43
“और ये काफ़िर कहते हैं कि आप (अल्लाह के) रसूल नहीं हैं।” | وَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَسْتَ مُرْسَلًا ۭ |
“आप कह दीजिये कि अल्लाह काफ़ी है गवाह मेरे और तुम्हारे दरमियान” | قُلْ كَفٰى بِاللّٰهِ شَهِيْدًۢا بَيْنِيْ وَبَيْنَكُمْ ۙ |
अल्लाह जानता है कि मैं उसका रसूल हूँ और उसका जानना मेरे लिये काफ़ी है।
“और जिनके पास किताब का इल्म है (वह भी इस पर शाहिद हैं)।” | وَمَنْ عِنْدَهٗ عِلْمُ الْكِتٰبِ 43ۧ |
मेरे और तुम्हारे दरमियान अल्लाह की गवाही काफ़ी है कि मैं उसका रसूल हूँ और फिर हर उस शख्स की गवाही जो किताबे आसमानी का इल्म रखता है। अल्लाह तो जानता ही है जिसने मुझे भेजा है और मेरा मामला उसी के साथ है। इसके अलावा ये अहले किताब भी बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि मैं अल्लाह का रसूल हूँ। अहले किताब के इस मामले को सूरतुल बक़रह की आयत 146 और सूरतुल अनआम की आयत 20 में इस तरह वाज़ेह फ़रमाया गया है: { يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَهُمْ } कि ये आप ﷺ को ब-हैसियत रसूल ऐसे पहचानते हैं जैसे अपने बेटों को पहचानते हैं।
بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔
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