Surah Ibrahim-सूरह इब्राहीम

सूरह इब्राहीम

तम्हीदी कलिमात

सूरह इब्राहीम का सूरतुल रअद के साथ जोड़े का ताल्लुक़ है। इन दोनों सूरतों मे कई ऐसी आयात हैं जो सूरतुल बक़रह की बाज़ आयात के साथ मुशाबिहत रखती हैं। सूरतुल रअद में किसी नबी या रसूल का ज़िक्र नाम के साथ नहीं आया, इसी तरह सूरह इब्राहीम में भी अम्बिया व रुसुल अलै. का तज़किरा क़द्रे मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में आया है। शुरू में हज़रत मूसा अलै. का ज़िक्र चंद आयात में करने के बाद ज़माना-ए-क़ब्ल के सब अम्बिया व रुसुल अलै. का ज़िक्र जमा के सीगे में एक साथ किया गया है, जबकि आख़िर में इख़्तसार (संक्षेप) के साथ हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र है। इसी वजह से इस सूरत का नाम भी आप अलै. से मन्सूब है।

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

आयात 1 से 4 तक

الۗرٰ  ۣ كِتٰبٌ اَنْزَلْنٰهُ اِلَيْكَ لِتُخْرِجَ النَّاسَ مِنَ الظُّلُمٰتِ اِلَي النُّوْرِ  ڏ بِاِذْنِ رَبِّھِمْ اِلٰي صِرَاطِ الْعَزِيْزِ الْحَمِيْدِ     Ǻ۝ۙ اللّٰهِ الَّذِيْ لَهٗ مَافِي السَّمٰوٰتِ وَمَافِي الْاَرْضِ ۭ وَوَيْلٌ لِّلْكٰفِرِيْنَ مِنْ عَذَابٍ شَدِيْدِۨ     Ą۝ۙ الَّذِيْنَ يَسْتَحِبُّوْنَ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا عَلَي الْاٰخِرَةِ وَيَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَيَبْغُوْنَھَا عِوَجًا  ۭ اُولٰۗىِٕكَ فِيْ ضَلٰلٍۢ بَعِيْدٍ    Ǽ۝ وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا بِلِسَانِ قَوْمِهٖ لِيُبَيِّنَ لَهُمْ ۭ فَيُضِلُّ اللّٰهُ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ    Ć۝

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आयत 1

“अलिफ़, लाम, रा”الۗرٰ  ۣ

इस मक़ाम पर हुरूफ़े मुक़त्तआत के बारे में एक अहम नुक्ता यह है कि मक्की सूरतों के इस सिलसिले के पहले ज़ेली ग्रुप की तीनों सूरतों (युनुस, हूद और युसुफ़) का आग़ाज अलिफ़, लाम, रा से हो रहा है, जबकि दूसरे ज़ेली ग्रुप की पहली सूरत (अल् रअद) अलिफ़, लाम, मीम, रा से और दूसरी दोनों सूरतें (इब्राहीम और अल् हिज्र) फिर अलिफ़, लाम, रा से ही शुरू हो रही हैं।

“(ऐ नबी !) यह किताब हमने नाज़िल की है आपकी तरफ़ ताकि आप निकालें लोगों को अंधेरों से रौशनी की तरफ़, उनके रब के इज़्न (हुक्म) से”الۗرٰ  ۣ كِتٰبٌ اَنْزَلْنٰهُ اِلَيْكَ لِتُخْرِجَ النَّاسَ مِنَ الظُّلُمٰتِ اِلَي النُّوْرِ  ڏ بِاِذْنِ رَبِّھِمْ

क़ुरान करीम में अंधेरे के लिए लफ़्ज़ “ज़ुलुमात” हमेशा जमा और इसके मुक़ाबले मे “नूर” हमेशा वाहिद इस्तेमाल हुआ है। चूँकि किसी फ़र्द की हिदायत के लिये फ़ैसला अल्लाह की तरफ़ से ही होता है, इसलिये फ़रमाया कि आप ﷺ का इन्हें अंधेरों से निकाल कर रौशनी में लाने का यह अमल अल्लाह के हुक्म और उसकी मंज़ूरी से होगा।

“उस हस्ती के रास्ते की तरफ़ जो सब पर ग़ालिब और अपनी ज़ात में खुद महमूद है।”اِلٰي صِرَاطِ الْعَزِيْزِ الْحَمِيْدِ     Ǻ۝ۙ

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आयत 2

“वो अल्लाह जिसकी मिल्कियत है हर वो शय जो आसमानों और ज़मीन में है।”اللّٰهِ الَّذِيْ لَهٗ مَافِي السَّمٰوٰتِ وَمَافِي الْاَرْضِ ۭ
“और बर्बादी है काफ़िरों के लिये एक सख्त अज़ाब से।”وَوَيْلٌ لِّلْكٰفِرِيْنَ مِنْ عَذَابٍ شَدِيْدِۨ     Ą۝ۙ

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आयत 3

“वो लोग जो पसंद करते हैं दुनिया की ज़िन्दगी को आख़िरत के मुक़ाबले में”الَّذِيْنَ يَسْتَحِبُّوْنَ الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا عَلَي الْاٰخِرَةِ

यह आयत हम सबको दावत देती है कि हम में से हर शख़्स अपने गिरेबान में झाँके और अपनी तरजीहात (Preferences) का तजज़िया (analysis) करे कि उसकी मोहलते ज़िन्दगी के अवक़ातकार की तक़सीम क्या है? उसकी बेहतरीन सलाहियतें कहाँ खप रही हैं? और उसने अपनी ज़िन्दगी का बुनियादी नस्बुलऐन (लक्ष्य) किस रुख़ पर मुतय्यन (निर्धारित) कर रखा है? फिर अपनी मश्गूलियात में से दुनिया और आख़िरत के हिस्से अलग-अलग करके देखे कि दुन्यवी ज़िन्दगी (مَتاعُ الغُرُوْر) को समेटने की इस भाग-दौड़ में से असल और हक़ीकी ज़िन्दगी (خَیْرٌ وَّاَبْقٰی) के लिये उसके दामन में क्या कुछ बचता है?

“और वो रोकते हैं अल्लाह के रास्ते से और उसके अंदर कजी (कमी) तलाश करते हैं। यक़ीनन यह लोग बहुत दूर की गुमराही में मुब्तला हो चुके हैं।”وَيَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَيَبْغُوْنَھَا عِوَجًا  ۭ اُولٰۗىِٕكَ فِيْ ضَلٰلٍۢ بَعِيْدٍ    Ǽ۝

अल्लाह के रास्ते से रोकने की मिसालें आज भी आपको क़दम-क़दम पर मिलेंगी। मसनल एक नौजवान को अगर अल्लाह की तरफ़ से दीन का शऊर और मता-ए-हिदायत नसीब हुई है और वह अपनी ज़िन्दगी को उसी रुख़ पर डालना चाहता है तो उसके वालिदैन और दोस्त अहबाब उसको समझाने लगते हैं, कि तुम अपने कैरियर को देखो, अपने मुस्तक़बिल की फ़िक्र करो, यह तुम्हारे दिमाग में क्या फ़तूर आ गया है? ग़र्ज वह किसी ना किसी तरह से उसे क़ायल करके अपने उसी रास्ते पर ले जाने की कोशिश करते हैं जिस पर वो ख़ुद अपनी ज़िन्दगियाँ बर्बाद कर रहे हैं।

आयत 4

“और हमने नहीं भेजा किसी रसूल को मगर उसकी क़ौम की ज़बान ही में ताकि वो उनके लिये (अल्लाह के अहकाम) अच्छी तरह वाज़ेह कर दे।”وَمَآ اَرْسَلْنَا مِنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا بِلِسَانِ قَوْمِهٖ لِيُبَيِّنَ لَهُمْ ۭ

यानि हर क़ौम की तरफ़ मबऊस रसूल पर वही उस क़ौम की अपनी ही ज़बान में आती थी ताकि बात के समझने और समझाने में किसी क़िस्म का अबहाम (अस्पष्टता) ना रह जाये, और इबलाग़ (पैगाम पहुँचाने) का हक़ अदा हो जाये। जैसे हज़रत मूसा अलै. को तौरात दी गई तो अबरानी ज़बान में दी गई जो आप अलै. की क़ौम की ज़बान थी।

“फिर अल्लाह ग़ुमराह करता है जिसको चाहता है और हिदायत देता है जिसको चाहता है।”فَيُضِلُّ اللّٰهُ مَنْ يَّشَاۗءُ وَيَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ

इसका तर्जुमा यूँ भी हो सकता है कि अल्लाह गुमराह करता है उसे जो चाहता है गुमराह होना और हिदायत देता है उसको जो चाहता है हिदायत हासिल करना।

“और वो ज़बरदस्त है, कमाल हिकमत वाला।”وَهُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ    Ć۝

आयात 5 से 8 तक

وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا مُوْسٰى بِاٰيٰتِنَآاَنْ اَخْرِجْ قَوْمَكَ مِنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ وَذَكِّرْهُمْ  ڏ بِاَيّٰىمِ اللّٰهِ  ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّكُلِّ صَبَّارٍ شَكُوْرٍ   Ĉ۝ وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهِ اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ اَنْجٰىكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ وَيُذَبِّحُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ  ۭ وَفِيْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ     Č۝ۧ وَاِذْ تَاَذَّنَ رَبُّكُمْ لَىِٕنْ شَكَرْتُمْ لَاَزِيْدَنَّكُمْ وَلَىِٕنْ كَفَرْتُمْ اِنَّ عَذَابِيْ لَشَدِيْدٌ    Ċ۝ وَقَالَ مُوْسٰٓى اِنْ تَكْفُرُوْٓا اَنْتُمْ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا  ۙ فَاِنَّ اللّٰهَ لَغَنِيٌّ حَمِيْدٌ    Ď۝

आयत 5

“और (इसी तरह) हमने भेजा था मूसा अलै. को अपनी निशानियों के साथ कि निकालो अपनी क़ौम को अंधेरों से उजाले की तरफ़ और उन्हें खबरदार करो अल्लाह के दिनों के हवाले से।”وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا مُوْسٰى بِاٰيٰتِنَآاَنْ اَخْرِجْ قَوْمَكَ مِنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ وَذَكِّرْهُمْ  ڏ بِاَيّٰىمِ اللّٰهِ  ۭ

यह “التذکیر بِاَیَّامِ اللہ” की वही इस्तलाह (term) है जिसका ज़िक्र शाह वलीउल्लाह देहलवी रहि. के हवाले से क़ब्ल अज़ बार-बार आ चुका है। शाह वलीउल्लाह ने अपनी मशहूर किताब “अल् फ़ौज़ुल कबीर” में मज़ामीन क़ुरान की तक़सीम के सिलसिले में “التذکیر بِاَیَّامِ اللہ” की यह इस्तलाह इस्तेमाल की है, यानि अल्लाह के उन दिनों के हवाले से लोगों को खबरदार करना जिन दिनों में अल्लाह ने बड़े-बड़े फ़ैसले किए और उन फ़ैसलों के मुताबिक़ कई क़ौमों को नेस्तोनाबूद कर दिया। इसके साथ शाह वलीउल्लाह रहि. ने दूसरी इस्तलाह “التذکیر بآلَاءِ اللہ” इस्तेमाल की है, यानि अल्लाह की नेअमतों और उसकी निशानियों के हवाले से तज़कीर और याद दिहानी।

“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं हर उस इंसान के लिए जो बहुत सब्र करने वाला और बहुत शुक्र करने वाला है।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّكُلِّ صَبَّارٍ شَكُوْرٍ   Ĉ۝

सब्बार और शकूर दोनों मुबालगे के सीगे हैं। सब्र और शुक्र ये दोनों सिफात आपस में एक-दूसरे के लिए तकमीली (complementary) नौइयत की हैं। चुनाँचे एक बंदा-ए-मोमिन को हर वक़्त इनमें से किसी एक हालत में ज़रूर होना चाहिए और अगर वह इनमें से एक हालत से निकले तो दूसरी हालत में दाख़िल हो जाये। अगर अल्लाह ने उसको नेअमतों और आसाइशों (सुखों) से नवाज़ा है तो वह शुक्र करने वाला हो और अगर कोई मुसीबत या तंगी उसे पहुँचती है तो सब्र करने वाला हो।

हज़रत सोहेब बिन सनान रुमी रज़िअल्लाहु अन्हु रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया:

عَجَبًا لِاَمْرِ الْمُؤْمِنِ اِنَّ اَمْرَہٗ کُلَّہٗ خَیْرٌ وَلَیْسَ ذَاکَ لِاَحَدٍ اِلاَّ لِلْمُؤْمِنِ‘ اِنْ اَصَابَتْہُ سَرَّاءُ شَکَرَ فَکَانَ خَیْرًا لَہٗ وَاِنْ اَصَابَتْہُ ضَرَّاءُ صَبَرَ فَکَانَ خَیْرًا لَہٗ

“मोमिन का मामला तो बहुत ही ख़ूब है, उसके लिए हर हाल में भलाई है, और यह बात मोमिन के सिवा किसी और के लिए नहीं है। अगर उसे कोई आसाइश (सुख) पहुँचती है तो शुक्र करता है, पस यह उसके लिए बेहतर है, और अगर उसे कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो सब्र करता है, पस यह उसके लिए बेहतर है।”(7)

आयत 6

“और याद करो जब मूसा ने अपनी क़ौम से कहा कि अपने ऊपर अल्लाह की उस नेअमत को याद रखो जब उसने तुम्हें निजात दी आले फ़िरऔन से”وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهِ اذْكُرُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ اَنْجٰىكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ
“वो तुम्हें मुब्तला किये हुए थे बदतरीन अज़ाब में, और वो लोग तुम्हारे बेटों को ज़िबह कर देते थे और तुम्हारी बेटियों को ज़िन्दा रखते थे।”يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ وَيُذَبِّحُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ  ۭ
“और उसमें यक़ीनन तुम्हारे लिए तुम्हारे रब की तरफ़ से बहुत बड़ी आज़माईश थी।”وَفِيْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ     Č۝ۧ

आयत 7

“और याद करो जब तुम्हारे रब ने ऐलान कर दिया था कि अगर तुम शुक्र करोगे तो मैं तुम्हें और ज़्यादा दूँगा”وَاِذْ تَاَذَّنَ رَبُّكُمْ لَىِٕنْ شَكَرْتُمْ لَاَزِيْدَنَّكُمْ

अगर तुम लोग मेरे अहकाम मानोगे और मेरी नेअमतों का हक़ अदा करोगे तो मेरे ख़जानों में कोई कमी नहीं है, मैं तुम लोगों को अपनी मज़ीद नेअमतें भी अता करुँगा।

“और अगर तुम कुफ़्र करोगे तो यक़ीनन मेरा अज़ाब भी बहुत सख़्त है।”وَلَىِٕنْ كَفَرْتُمْ اِنَّ عَذَابِيْ لَشَدِيْدٌ    Ċ۝

लेकिन अगर तुम कुफ़्राने नेअमत करोगे, मेरी नेअमतों की नाक़द्री और नाशुक्री करोगे और मेरे अहकाम से रूगर्दानी (अस्वीकार) करोगे तो याद रखो, मेरी सज़ा भी बहुत सख़्त होगी।

आयत 8

“और मूसा ने कहा कि अगर तुम कुफ़्र करो और जो भी लोग ज़मीन में हैं वो (सबके सब काफ़िर हो जायें) तो यक़ीनन अल्लाह ग़नी और अपनी ज़ात में ख़ुद महमूद है।”وَقَالَ مُوْسٰٓى اِنْ تَكْفُرُوْٓا اَنْتُمْ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا  ۙ فَاِنَّ اللّٰهَ لَغَنِيٌّ حَمِيْدٌ    Ď۝

वो बेनियाज़ है, उसको किसी की अहतियाज (ज़रुरत) या परवाह नहीं। वो अपनी ज़ात में सतूदह सिफ़ात है।

आयात 9 से 17 तक

اَلَمْ يَاْتِكُمْ نَبَؤُا الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ قَوْمِ نُوْحٍ وَّعَادٍ وَّثَمُوْدَ  ټ وَالَّذِيْنَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ ړ لَا يَعْلَمُهُمْ اِلَّا اللّٰهُ  ۭ جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَرَدُّوْٓا اَيْدِيَهُمْ فِيْٓ اَفْوَاهِهِمْ وَقَالُوْٓا اِنَّا كَفَرْنَا بِمَآ اُرْسِلْتُمْ بِهٖ وَاِنَّا لَفِيْ شَكٍّ مِّمَّا تَدْعُوْنَنَآ اِلَيْهِ مُرِيْبٍ     Ḍ۝ قَالَتْ رُسُلُهُمْ اَفِي اللّٰهِ شَكٌّ فَاطِرِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ يَدْعُوْكُمْ لِيَغْفِرَ لَكُمْ مِّنْ ذُنُوْبِكُمْ وَيُؤَخِّرَكُمْ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى ۭ قَالُوْٓا اِنْ اَنْتُمْ اِلَّا بَشَرٌ مِّثْلُنَا  ۭ تُرِيْدُوْنَ اَنْ تَصُدُّوْنَا عَمَّا كَانَ يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا فَاْتُوْنَا بِسُلْطٰنٍ مُّبِيْنٍ      10؀ قَالَتْ لَهُمْ رُسُلُهُمْ اِنْ نَّحْنُ اِلَّا بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَمُنُّ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ  ۭ وَمَا كَانَ لَنَآ اَنْ نَّاْتِيَكُمْ بِسُلْطٰنٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ     11 ؀ وَمَا لَنَآ اَلَّا نَتَوَكَّلَ عَلَي اللّٰهِ وَقَدْ هَدٰىنَا سُبُلَنَا  ۭ وَلَنَصْبِرَنَّ عَلٰي مَآ اٰذَيْتُمُوْنَا  ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُتَوَكِّلُوْنَ    12۝ۧ وَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لِرُسُلِهِمْ لَنُخْرِجَنَّكُمْ مِّنْ اَرْضِنَآ اَوْ لَتَعُوْدُنَّ فِيْ مِلَّتِنَا  ۭ فَاَوْحٰٓى اِلَيْهِمْ رَبُّهُمْ لَنُهْلِكَنَّ الظّٰلِمِيْنَ   13۝ۙ وَلَنُسْكِنَنَّكُمُ الْاَرْضَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ ۭ ذٰلِكَ لِمَنْ خَافَ مَقَامِيْ وَخَافَ وَعِيْدِ    14؀ وَاسْتَفْتَحُوْا وَخَابَ كُلُّ جَبَّارٍ عَنِيْدٍ    15۝ۙ مِّنْ وَّرَاۗىِٕهٖ جَهَنَّمُ وَيُسْقٰى مِنْ مَّاۗءٍ صَدِيْدٍ    16۝ۙ يَّتَجَرَّعُهٗ وَلَا يَكَادُ يُسِيْغُهٗ وَيَاْتِيْهِ الْمَوْتُ مِنْ كُلِّ مَكَانٍ وَّمَا هُوَ بِمَيِّتٍ  ۭ وَمِنْ وَّرَاۗىِٕهٖ عَذَابٌ غَلِيْظٌ    17؀

आयत 9

“क्या तुम्हारे पास आ नहीं  चुकी हैं ख़बरें उन लोगों की जो तुमसे पहले थे, यानि क़ौमे नूह और आद और समूद की”اَلَمْ يَاْتِكُمْ نَبَؤُا الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ قَوْمِ نُوْحٍ وَّعَادٍ وَّثَمُوْدَ  ټ
“और उनकी जो उनके बाद हुए, उन्हें अल्लाह के अलावा कोई नहीं जानता।”وَالَّذِيْنَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ ړ لَا يَعْلَمُهُمْ اِلَّا اللّٰهُ  ۭ
“उनके पास आये उनके रसूल वाज़ेह निशानियाँ लेकर, तो उन्होंने अपनी उँगलियाँ अपने मुँहों में ठूँस लीं”جَاۗءَتْهُمْ رُسُلُهُمْ بِالْبَيِّنٰتِ فَرَدُّوْٓا اَيْدِيَهُمْ فِيْٓ اَفْوَاهِهِمْ
“और कहा कि हम तो इंकार करते हैं उसका जिसके साथ तुम भेजे गये हो, और तुम हमें जिस चीज़ की दावत दे रहे हो उसके बारे में हम सख़्त उलझन में डाल देने वाले शक में मुब्तला हैं।”وَقَالُوْٓا اِنَّا كَفَرْنَا بِمَآ اُرْسِلْتُمْ بِهٖ وَاِنَّا لَفِيْ شَكٍّ مِّمَّا تَدْعُوْنَنَآ اِلَيْهِ مُرِيْبٍ     Ḍ۝

यहाँ तमाम रसूलों को एक जमाअत फ़र्ज़ करके उनका ज़िक्र इकठ्ठे किया जा रहा है, क्योंकि सबने अपनी-अपनी क़ौम को एक जैसी दावत दी और उस दावत के जवाब में सब रसूलों की क़ौमों का रद्दे अमल भी तक़रीबन एक जैसा था। उन सब अक़वाम ने अपने रसूलों की दावत को रद्द करते हुए कहा कि हमें तो उन बातों के मुताल्लिक़ बहुत से शक व शुब्हात लाहक़ हैं, जिनकी वजह से हम सख़्त उलझन में पड़ गये हैं।

आयत 10

“उनके रसूलों ने कहा कि क्या तुम लोगों को अल्लाह की ज़ात के बारे में शक है जो आसमानों और ज़मीन का पैदा करने वाला है?”قَالَتْ رُسُلُهُمْ اَفِي اللّٰهِ شَكٌّ فَاطِرِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ

यह searching question का सा अंदाज़ है जिसमें बात वहाँ से शरू की जा रही है जहाँ तक ख़ुद फ़रीज़े सानी (second party) को भी इत्तेफ़ाक़ है। मज़कूरा तमाम अक़वाम के कुफ्फ़ार व मुशरिकीन में एक अक़ीदा हमेशा मुशतरक रहा है कि वो तमाम लोग ना सिर्फ़ अल्लाह को मानते थे बल्कि उसे ज़मीन व आसमान का ख़ालिक़ भी तस्लीम करते थे। चुनाँचे जिस क़ौम के लोगों ने भी अपने रसूल की दावत को शक व शुब्हात की बिना पर रद्द करना चाहा उनको हमेशा यही जवाब दिया गया। यानि सबसे पहले अल्लाह की ज़ात का मामला हमारे-तुम्हारे दरमियान वाज़ेह होना चाहिए कि तुम्हें अल्लाह की ज़ात के बारे में शक है या उसके खालिक़ अर्द व समावात (Creator of Heaven & Earth होने में?

“वो (अल्लाह) तुम्हें बुला रहा है ताकि तुम्हारे गुनाहों को बख़्श दे और एक वक़्ते मुअय्यन तक तुम्हें मोहलत दे।”يَدْعُوْكُمْ لِيَغْفِرَ لَكُمْ مِّنْ ذُنُوْبِكُمْ وَيُؤَخِّرَكُمْ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى ۭ
“उन्होंने जवाब दिया कि नहीं हैं आप लोग मगर हमारी ही तरह के इंसान।”قَالُوْٓا اِنْ اَنْتُمْ اِلَّا بَشَرٌ مِّثْلُنَا  ۭ
“आप चाहते हैं कि रोक दें हमें उन (की परस्तिश) से जिनको पूजते थे हमारे आबा, तो लाइये आप हमारे सामने कोई खुला मौज्ज़ा!”تُرِيْدُوْنَ اَنْ تَصُدُّوْنَا عَمَّا كَانَ يَعْبُدُ اٰبَاۗؤُنَا فَاْتُوْنَا بِسُلْطٰنٍ مُّبِيْنٍ      10؀

सब क़ौमों के लोगों का यह जवाब भी एक जैसा था, सबने रसूलों के इंसान होने पर ऐतराज़ किया और सबने हिस्सी मौअज्ज़ा तलब किया।

आयत 11

“उनके रसूलों ने उनसे कहा कि वाक़ई हम कुछ नहीं हैं मगर तुम्हारी ही तरह के इंसान, लेकिन अल्लाह अहसान फ़रमाता है अपने बंदो में से जिस पर चाहता है।”قَالَتْ لَهُمْ رُسُلُهُمْ اِنْ نَّحْنُ اِلَّا بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَمُنُّ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ  ۭ

यह अल्लाह की मर्ज़ी का मामला है, वो जिसे चाहता है अपनी रहमत से नवाज़ देता है। उसने हमें अपनी रिसालत के लिए चुन लिया है, हमारी तरफ़ वही भेजी है और हमें मामूर किया है कि हम आप लोगों को ख़बरदार करें और उसके अहकाम आप तक पहुँचाएं।

“और हमारे लिए मुमकिन नहीं है कि हम ले आएँ तुम्हारे पास कोई मौअज्ज़ा अल्लाह के हुक्म के बगैर। और अल्लाह ही पर तवक्कुल करना चाहिए अहले ईमान को।”وَمَا كَانَ لَنَآ اَنْ نَّاْتِيَكُمْ بِسُلْطٰنٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُوْنَ     11 ؀

आयत 12

“और हमें क्या है कि हम अल्लाह पर तवक्कुल ना करें हालाँकि उसने हमें हमारे रास्तों की हिदायत बख़्शी है।”وَمَا لَنَآ اَلَّا نَتَوَكَّلَ عَلَي اللّٰهِ وَقَدْ هَدٰىنَا سُبُلَنَا  ۭ

अल्लाह ने हमें अपने तक़र्रुब के तरीक़े और अपनी तरफ़ आने के रास्ते बताए हैं, यह कैसे मुमकिन है कि हम उस पर तवक्कुल ना करें?

“और हम सब्र ही करेंगे उस ईज़ा (परेशानी) पर जो तुम हमें पहुँचा रहे हो, और अल्लाह ही पर तवक्कुल करना चाहिए तमाम तवक्कुल करने वालों को।”وَلَنَصْبِرَنَّ عَلٰي مَآ اٰذَيْتُمُوْنَا  ۭ وَعَلَي اللّٰهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُتَوَكِّلُوْنَ    12۝ۧ

आयत 13

“और कहा उन लोगों ने जो काफ़िर हुए थे अपने रसूलों से”وَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لِرُسُلِهِمْ

रसूलों की जमाअत और उनकी क़ौमों के दरमियान होने वाले सवालात व जवाबात का तज़किरा जारी है। यानि अपने-अपने ज़माने में अपने-अपने रसूलों से मुतालक़ा अक़वाम के लोगों ने कहा:

“हम लाज़िमन निकाल बाहर करेंगे तुम्हें अपनी ज़मीन से या तुम्हें लौटना होगा हमारे दीन में।”لَنُخْرِجَنَّكُمْ مِّنْ اَرْضِنَآ اَوْ لَتَعُوْدُنَّ فِيْ مِلَّتِنَا  ۭ
“तो वही की उनकी तरफ़ उनके रब ने कि हम इन ज़ालिमों को अब लाज़िमन हलाक कर देंगे।”فَاَوْحٰٓى اِلَيْهِمْ رَبُّهُمْ لَنُهْلِكَنَّ الظّٰلِمِيْنَ   13۝ۙ

आयत 14

“और हम आबाद करेंगे ज़मीन में तुम लोगों को उनके बाद।”وَلَنُسْكِنَنَّكُمُ الْاَرْضَ مِنْۢ بَعْدِهِمْ ۭ

यानि अल्लाह तआला ने रसूलों की तरफ़ वही भेजी कि अब तमाम काफ़िरों को हलाक कर दिया जायेगा और उसके बाद रसूल और उनके साथ बच जाने वाले तमाम अहले ईमान को फिर से ज़मीन में आबाद करने का सामान किया जायेगा।

“यह उन लोगों के लिए है जो मेरे सामने खड़े होने और मेरी वईद (चेतावनी) से डरते हैं।”ذٰلِكَ لِمَنْ خَافَ مَقَامِيْ وَخَافَ وَعِيْدِ    14؀

जो लोग अज़ाब की वईदों (चेतावनियों) से डरते हैं और रोज़े महशर अल्लाह की अदालत में खड़े होने के तसव्वर से लरज़ जाते हैं।

आयत 15

“और उन्होंने फ़ैसला तलब किया और नामुराद होकर रहा हर सरकश ज़िद्दी।”وَاسْتَفْتَحُوْا وَخَابَ كُلُّ جَبَّارٍ عَنِيْدٍ    15۝ۙ

जो लोग कुफ़्र व शिर्क में डटे रहते वो इस बात पर भी अपने रसूल से इसरार करते कि हमारे और तुम्हारे दरमियान आख़री फ़ैसला हो जाना चाहिए। फिर जब अल्लाह की तरफ़ से वह आख़री फ़ैसला अज़ाबे इस्तेसाल की सूरत में आता तो उसके नतीजे में सरकश और हठधर्म क़ौम को नस्तोनाबूद कर दिया जाता। ऐसे मुन्करीने हक़ की तबाही व बर्बादी का नक़्शा क़ुरान हकीम में इस तरह खींचा गया है: { كَاَنْ لَّمْ يَغْنَوْا فِيْهَا  ڔ } (अल्आराफ़:92) “वो ऐसे हो गये जैसे कभी थे ही नहीं” और { فَاَصْبَحُوْا لَا يُرٰٓى اِلَّا مَسٰكِنُهُمْ ۭ} (अल् अहक़ाफ़:25) यानि वो ऐसे हो गये कि उनके दयार व अमसार में सिर्फ़ उनके महलात व मसाकन ही नज़र आते थे जबकि उनके मकीनों का नामो-निशान तक बाक़ी ना रहा। और यह सब कुछ तो उन लोगों के साथ इस दुनिया में हुआ, जबकि आख़िरत की बड़ी सज़ा उसके अलावा है जिसको झेलते हुए उनमें से हर एक सरकश ज़िद्दी इस तरह निशाने इबरत बनेगा:

आयत 16

“उसके पीछे जहन्नम है और उसको पिलाया जायेगा पीप वाला पानी।”مِّنْ وَّرَاۗىِٕهٖ جَهَنَّمُ وَيُسْقٰى مِنْ مَّاۗءٍ صَدِيْدٍ    16۝ۙ

आयत 17

“वो उसको घूँट-घूँट पीने की कोशिश करेगा लेकिन उसे हलक़ से उतार नहीं पाएगा”يَّتَجَرَّعُهٗ وَلَا يَكَادُ يُسِيْغُهٗ
“और उसे हर तरफ़ से मौत (आती हुई नज़र) आयेगी लेकिन मर नहीं सकेगा।”وَيَاْتِيْهِ الْمَوْتُ مِنْ كُلِّ مَكَانٍ وَّمَا هُوَ بِمَيِّتٍ  ۭ

शदीद तकलीफ़ में मौत इंसान को राहत पहुँचा देती है। बाज़ बीमार ऐसे होते हैं कि तकलीफ़ की शिद्दत में ऐड़ियाँ रगड़ रहे होते हैं और मौत उनके लिए राहत का सामान बन जाती है। लेकिन जहन्नम ऐसी जगह है कि जहाँ इंसान को मौत नहीं आयेगी। सूरह ताहा में इस कैफ़ियत को इन अल्फ़ाज़ में बयान किया गया है: { لَا يَمُوْتُ فِيْهَا وَلَا يَحْيٰي} “ना वो उसमें मरेगा और ना जी पायेगा।” अहले जहन्नम शदीद ख़्वाहिश करेंगे कि मौत आ जाये और उनका क़िस्सा तमाम हो जाये मगर उनकी यह ख़्वाहिश पूरी नहीं होगी।

“और उसके बाद उसके लिये एक और सख्त अज़ाब होगा।”وَمِنْ وَّرَاۗىِٕهٖ عَذَابٌ غَلِيْظٌ    17؀

यानि उस सख्ती में मुसलसल इज़ाफ़ा होता जायेगा, अज़ाब की शिद्दत दर्जा-ब-दर्जा बढ़ती ही चली जायेगी।

आयत 18 से 21 तक

مَثَلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِرَبِّهِمْ اَعْمَالُهُمْ كَرَمَادِۨ اشْـتَدَّتْ بِهِ الرِّيْحُ فِيْ يَوْمٍ عَاصِفٍ ۭ لَا يَقْدِرُوْنَ مِمَّا كَسَبُوْا عَلٰي شَيْءٍ  ۭ ذٰلِكَ هُوَ الضَّلٰلُ الْبَعِيْدُ     18؀ اَلَمْ تَرَ اَنَّ اللّٰهَ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّ ۭ اِنْ يَّشَاْ يُذْهِبْكُمْ وَيَاْتِ بِخَلْقٍ جَدِيْدٍ    19۝ۙ وَّمَا ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ بِعَزِيْزٍ   20؀ وَبَرَزُوْا لِلّٰهِ جَمِيْعًا فَقَالَ الضُّعَفٰۗؤُا لِلَّذِيْنَ اسْـتَكْبَرُوْٓا اِنَّا كُنَّا لَكُمْ تَبَعًا فَهَلْ اَنْتُمْ مُّغْنُوْنَ عَنَّا مِنْ عَذَابِ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ ۭ قَالُوْا لَوْ هَدٰىنَا اللّٰهُ لَهَدَيْنٰكُمْ  ۭ سَوَاۗءٌ عَلَيْنَآ اَجَزِعْنَآ اَمْ صَبَرْنَا مَا لَنَا مِنْ مَّحِيْصٍ    21۝ۧ

आयत 18

“मिसाल उन लोगों की जिन्होंने कुफ़्र किया अपने रब के साथ (ऐसी है) कि उनके आमाल हों राख की मानिन्द, जिस पर ज़ोरदार हवा चले आँधी के दिन।”مَثَلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِرَبِّهِمْ اَعْمَالُهُمْ كَرَمَادِۨ اشْـتَدَّتْ بِهِ الرِّيْحُ فِيْ يَوْمٍ عَاصِفٍ ۭ

अल्लाह के यहाँ किसी भी नेक अमल की क़ुबूलियत के लिए ईमान लाज़मी और बुनियादी शर्त है। चुनाँचे जो लोग अपने रब का कुफ़्र करते हैं उनके नेक आमाल को यहाँ राख के ऐसे ढ़ेर से तशबीह दी गई है जिस पर तेज़ आँधी चली और उसका एक-एक ज़र्रा मुन्तशिर हो गया। यानि बज़ाहिर तो वो ढ़ेर नज़र आता था मगर अल्लाह के यहाँ उसकी कुछ भी हैसियत बाक़ी ना रही। यह बहुत अहम मज़मून है और क़ुरान करीम में मुख़्तलिफ़ मिसालों के साथ इसे तीन बार दोहराया गया है। सूरह नूर की आयत 39 में कुफ्फ़ार के आमाल को सराब से तशबीह दी गई है और सूरह अल् फ़ुरकान की आयत 23 में मुन्करीने आख़िरत के आमाल को {هَبَاۗءً مَّنْثُوْرًا} यानि “हवा में उड़ते हुए ज़र्रात” की मानिन्द क़रार दिया गया है।

दरअसल हर इंसान अपनी ज़हनी सतह के मुताबिक़ नेकी का एक तस्सवुर रखता है, क्योंकि नेकी हर इंसान की रूह की ज़रूरत है, मगर नेकी का ताल्लुक़ चूँकि बराहेरास्त अल्लाह तआला की मर्ज़ी और उसकी क़ुबूलियत के साथ है, चुनाँचे इसके लिए मैयार भी वही क़ाबिले क़ुबूल होगा जो अल्लाह ने खुद क़ायम किया है, और वह मैयार सूरतुल बक़रह की आयतुल बिर्र की रोशनी में यह है:

لَيْسَ الْبِرَّ اَنْ تُوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ قِـبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالْكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَ ۚ وَاٰتَى الْمَالَ عَلٰي حُبِّهٖ ذَوِي الْقُرْبٰى وَالْيَـتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَابْنَ السَّبِيْلِ ۙ وَالسَّاۗىِٕلِيْنَ وَفِي الرِّقَابِ ۚ وَاَقَامَ الصَّلٰوةَ وَاٰتَى الزَّكٰوةَ  ۚ وَالْمُوْفُوْنَ بِعَهْدِهِمْ اِذَا عٰھَدُوْا  ۚ وَالصّٰبِرِيْنَ فِي الْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَحِيْنَ الْبَاْسِ ۭ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُتَّقُوْنَ   ١٧٧؁

“नेकी यही नहीं है कि तुम अपने चेहरे मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर दो, बल्कि असल नेकी तो उसकी है जो ईमान लाया अल्लाह पर, यौमे आख़िरत पर, फरिश्तों पर, किताब पर और नबियों पर। और उसने ख़र्च किया माल उसकी मोहब्बत के बावजूद क़राबतदारों, यतीमों, मोहताजों, मुसाफ़िरों और माँगने वालों पर और गर्दनों के छुड़ाने में। और क़ायम की नमाज़ और अदा की ज़कात। और जो पूरा करने वाले हैं अपने अहद को जब कोई अहद कर लें। और सब्र करने वाले फ़क्र व फ़ाक़ा में, तकलीफ़ में और हलाते जंग में। यही वो लोग हैं जो सच्चे हैं और यही हक़ीकत में मुत्तक़ी हैं।”

अगर नेकी इस मैयार के मुताबिक़ है तो फिर यह वाक़ई नेकी है, लेकिन अगर ऐसा नहीं है तो नेकी की शक्ल में धोखा, सराब (भ्रम) व फ़रेब है, नेकी नहीं है। दरअसल जब इंसान की फ़ितरत मस्ख (बिगडैल) हो जाती है तो उसके साथ ही उसका नेकी का तसव्वुर भी मस्ख हो जाता है। नेकी चूँकि एक बुरे से बुरे इंसान के भी ज़मीर की ज़रुरत है इसलिये बजाय इसके कि एक बुरा इंसान अपनी इस्लाह करके अपने आमाल व किरदार को नेकी के मतलूबा मैयार पर ले आये, वो उल्टा नेकी के मैयार को घसीट कर अपने ख़्यालात व नज़रियात की गंदगी के ढ़ेर के अंदर उसकी जगह बनाने की कोशिश करता है। यही वजह है कि हमारे मआशरे में चोर, डाकू और लुटेरे सदक़ा व ख़ैरात करते और ख़िदमते ख़ल्क़ के बड़े-बड़े काम करते नज़र आते हैं और जिस्म फ़रोश औरतें मज़ारों पर धमाल डालती और नियाज़ बाँटती दिखाई देती हैं। इस तरह यह लोग अपने ज़मीर की तस्क़ीन का सामान करने की कोशिश करते हैं कि हमारे पेशे में क़द्रे क़बाहत का अंसर (element) पाया जाता है तो क्या हुआ, इसके साथ-साथ हम नेकी के फ़लाँ-फ़लाँ काम भी तो करते हैं!

इसी तरह जब मज़हबी मिज़ाज रखने वाले लोगों की फ़ितरत मस्ख़ होती है तो वो कबीरा गुनाहों की तरफ़ से बेहिस्स और सगीरा के बारे में बहुत हस्सास (serious) हो जाते हैं। ऐसे लोग को सगाइर के बारे में तो बड़े ज़ोरदार मुबाहिसे और मुनाज़रे कर रहे होते हैं, मगर कबीरा को वो लायक़-ए-ऐतनाअ (worthy of acceptance) ही नहीं समझते। इस पसमंज़र में सही तर्ज़े अमल यह है कि पहले कबाइर से कुल्ली तौर पर इज्तनाब (बचाव) किया जाये और फिर उसके बाद सगीरा की तरफ़ तवज्जो की जाये। बहरहाल क़यामत के दिन बेशुमार ऐसे लोग होंगे जो अपने ज़अम में बहुत ज़्यादा नेकियाँ लेकर आये होंगे, मगर अल्लाह के नजदीज़ उनकी नेकियों की कोई हैसियत और वक़अत नहीं होगी।

“उन्हें कुछ भी हाथ ना आयेगा उसमें से जो कमाई उन्होंने की होगी। यही तो है दूर की गुमराही।”لَا يَقْدِرُوْنَ مِمَّا كَسَبُوْا عَلٰي شَيْءٍ  ۭ ذٰلِكَ هُوَ الضَّلٰلُ الْبَعِيْدُ     18؀

उनको ज़अम (गुमान) होगा कि उन्होंने दुनिया में बहुत नेक काम किए थे, ख़िदमते ख़ल्क के बड़े-बड़े प्रोजेक्ट शुरु कर रखे थे, मगर उस दिन वहाँ उनमें से कोई नेकी भी उनके काम आने वाली नहीं होगी।

आयत 19

“क्या तुमने देखा नहीं कि अल्लाह ने आसमानों और ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है?”اَلَمْ تَرَ اَنَّ اللّٰهَ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ بِالْحَقِّ ۭ
“अगर वो चाहे तो तुम लोगों को ले जाये (हलाक कर दे) और एक नई मख़्लूक़ को ले आये।”اِنْ يَّشَاْ يُذْهِبْكُمْ وَيَاْتِ بِخَلْقٍ جَدِيْدٍ    19۝ۙ

उसकी क़ुदरत, क़ुव्वते तख़्लीक़ और तख़्लीक़ी महारत ख़त्म तो नहीं होगी, वो अपनी मख़्लूक़ में से जिसको चाहे ख़त्म कर दे और जब चाहे कोई नई मख़्लूक़ पैदा कर दे।

आयत 20

“और यह काम अल्लाह पर कोई भारी नहीं है।”وَّمَا ذٰلِكَ عَلَي اللّٰهِ بِعَزِيْزٍ   20؀

आयत 21

“और वो अल्लाह के सामने खड़े होंगे सबके सब, तो कहेंगे कमज़ोर लोग मुतकब्बरीन से कि हम आप लोगों के पैरोकार थे, तो क्या आप अल्लाह के अज़ाब में से हमारे लिए कुछ कमी कर सकते हैं?”وَبَرَزُوْا لِلّٰهِ جَمِيْعًا فَقَالَ الضُّعَفٰۗؤُا لِلَّذِيْنَ اسْـتَكْبَرُوْٓا اِنَّا كُنَّا لَكُمْ تَبَعًا فَهَلْ اَنْتُمْ مُّغْنُوْنَ عَنَّا مِنْ عَذَابِ اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ ۭ

कमज़ोर लोग ताक़तवर लोगों से, जिन्हें वो दुनिया में अपने सरदार और लीडर मानते थे, कहेंगे कि हम आपके फ़रमाबरदार थे, आपका हर हुक्म मानते थे, आपकी ख़िदमत करते थे, आपके झंड़े उठाते थे, आपके लिए ज़िन्दाबाद के नारे लगाते थे, तो क्या आप हमारी उन ख़िदमात के एवज़ आज इस अज़ाब से हमें कुछ रियायत दिला सकते हैं?

“वो कहेंगे कि अगर अल्लाह ने हमें हिदायत दी होती तो हम तुम्हें भी हिदायत की राह दिखाते।”قَالُوْا لَوْ هَدٰىنَا اللّٰهُ لَهَدَيْنٰكُمْ  ۭ

वो कोरा जवाब दे देंगे कि हम खुद गुमराह थे, सो हमने तुम्हें भी गुमराह किया।

“अब हमारे हक़ में बराबर है, ख्वाह हम जज़अ-फ़ज़अ करें या सब्र करें, हमारे लिए खलासी की कोई सूरत नहीं।”سَوَاۗءٌ عَلَيْنَآ اَجَزِعْنَآ اَمْ صَبَرْنَا مَا لَنَا مِنْ مَّحِيْصٍ    21۝ۧ

अब तो यक्साँ है, ख़्वाह हम बेक़रारी का मुज़ाहिरा करें, चीखें-चिल्लायें या सब्र करें, हमारे लिए कोई मफ़र नहीं, हमारे बचने की कोई सूरत नहीं।

आयात 22 से 23 तक

وَقَالَ الشَّيْطٰنُ لَمَّا قُضِيَ الْاَمْرُ اِنَّ اللّٰهَ وَعَدَكُمْ وَعْدَ الْحَقِّ وَوَعَدْتُّكُمْ فَاَخْلَفْتُكُمْ ۭ وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيْكُمْ مِّنْ سُلْطٰنٍ اِلَّآ اَنْ دَعَوْتُكُمْ فَاسْتَجَبْتُمْ لِيْ ۚ فَلَا تَلُوْمُوْنِيْ وَلُوْمُوْٓا اَنْفُسَكُمْ ۭ مَآ اَنَا بِمُصْرِخِكُمْ وَمَآ اَنْتُمْ بِمُصْرِخِيَّ  ۭ اِنِّىْ كَفَرْتُ بِمَآ اَشْرَكْتُمُوْنِ مِنْ قَبْلُ  ۭ اِنَّ الظّٰلِمِيْنَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     22؁ وَاُدْخِلَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا بِاِذْنِ رَبِّهِمْ  ۭ تَحِيَّتُهُمْ فِيْهَا سَلٰمٌ   23؀

आयत 22

“और शैतान कहेगा (उस वक़्त) जब फ़ैसला चुका दिया जायेगा”وَقَالَ الشَّيْطٰنُ لَمَّا قُضِيَ الْاَمْرُ

जब तमाम बनी नौए इंसान की क़िस्मत का फ़ैसला हो जायेगा और अहले जन्नत को जन्नत की तरफ़ और अहले जहन्नम को जहन्नम की तरफ़ ले जाया जा रहा होगा तो शैतान कहेगा:

“(देखो लोगो!) अल्लाह ने तुमसे एक वादा किया था सच्चा वादा, और मैंने भी तुमसे वादे किए थे तो मैंने तुमसे (अपने वादों की) खिलाफ़वर्ज़ी की।”اِنَّ اللّٰهَ وَعَدَكُمْ وَعْدَ الْحَقِّ وَوَعَدْتُّكُمْ فَاَخْلَفْتُكُمْ ۭ
“लेकिन मेरे पास तुम पर कोई इख़्तियार नहीं था”وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيْكُمْ مِّنْ سُلْطٰنٍ

मैं तुम पर किसी क़िस्म का जबर नहीं कर सकता था और तुम्हें ज़बरदस्ती बुराई की तरफ़ नहीं ला सकता था। यह इख़्तियार मुझे अल्लाह ने दिया ही नहीं था।

“सिवाय इसके कि मैंने तुम लोगों को दावत दी और तुमने मेरी दावत को क़ुबूल कर लिया।”اِلَّآ اَنْ دَعَوْتُكُمْ فَاسْتَجَبْتُمْ لِيْ ۚ

मैंने तुम लोगों को वरगलाया, मासियत (गुनाह) की दावत दी, अल्लाह की नाफ़रमानियों और बेहयाई के कामों की तरगीब दी और तुम लोगों ने मेरा कहा मान लिया।

“तो अब तुम लोग मुझे मलामत ना करो, बल्कि अपने आपको मलामत करो।”فَلَا تَلُوْمُوْنِيْ وَلُوْمُوْٓا اَنْفُسَكُمْ ۭ

क्योंकि अल्लाह तआला के सारे अहकाम तुम्हारे सामने थे, उसके रास्ते के तमाम निशानात तुम पर वाज़ेह थे। उनसे रूगरदानी करके तुम लोगों ने अपनी मर्ज़ी से मेरे रास्ते को इख़्तियार किया। मैं तुम्हें ज़बरदस्ती खींच कर इस तरफ़ नहीं लेकर आया। चुनाँचे आज मुझे कोसने के बजाय अपने आपको लअन-तअन करो।

“अब ना मैं तुम्हारी फ़रियाद रसी कर सकता हूँ, ना तुम मेरी फ़रियाद को पहुँच सकते हो।”مَآ اَنَا بِمُصْرِخِكُمْ وَمَآ اَنْتُمْ بِمُصْرِخِيَّ  ۭ
“बिलाशुबह मैं इंकार करता हूँ उसका जो क़ब्ल अज़ तुम मुझे (अल्लाह का) शरीक ठहराते रहे थे।”اِنِّىْ كَفَرْتُ بِمَآ اَشْرَكْتُمُوْنِ مِنْ قَبْلُ  ۭ

तुमने दुनिया में जो कुछ भी किया था इंतहाई गलत किया था। तुम लोगों को अल्लाह के अहकाम पर अमल करना चाहिए था और उसके वादे पर ऐतबार करना चाहिए था। तुम लोग ना सिर्फ़ अल्लाह के अहकाम को पसेपुश्त डाल कर मेरा कहना मानते रहे बल्कि मुझे उसके बराबर का दर्जा भी देते रहे। आज मैं तुम्हारे उन सब ऐतक़ादात (मान्यताओं) से ऐलाने बराअत करता हूँ।

“यक़ीनन ज़ालिमों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।”اِنَّ الظّٰلِمِيْنَ لَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ     22؁

आयत 23

“और दाखिल किए जायेंगे वो लोग जो ईमान लाये होंगे और जिन्होंने नेक अमल किए होंगे ऐसे बागात में जिनके नीचे नदियाँ बहती होंगी, वो उसमें रहेंगे हमेशा-हमेश अपने रब के हुक्म से। वहाँ उनकी मुलाक़ात की दुआ (एक-दूसरे पर) सलाम होगी।”وَاُدْخِلَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ جَنّٰتٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا بِاِذْنِ رَبِّهِمْ  ۭ تَحِيَّتُهُمْ فِيْهَا سَلٰمٌ   23؀  

आयात 24 से 27 तक

اَلَمْ تَرَ كَيْفَ ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا كَلِمَةً طَيِّبَةً كَشَجَرَةٍ طَيِّبَةٍ اَصْلُهَا ثَابِتٌ وَّفَرْعُهَا فِي السَّمَاۗءِ     24؀ۙ تُؤْتِيْٓ اُكُلَهَا كُلَّ حِيْنٍۢ بِاِذْنِ رَبِّهَا  ۭ وَيَضْرِبُ اللّٰهُ الْاَمْثَالَ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَذَكَّرُوْنَ    25؁ وَمَثَلُ كَلِمَةٍ خَبِيْثَةٍ كَشَجَرَةٍ خَبِيْثَةِۨ اجْتُثَّتْ مِنْ فَوْقِ الْاَرْضِ مَا لَهَا مِنْ قَرَارٍ    26؁ يُثَبِّتُ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِالْقَوْلِ الثَّابِتِ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَفِي الْاٰخِرَةِ  ۚ وَيُضِلُّ اللّٰهُ الظّٰلِمِيْنَ  ڐ وَيَفْعَلُ اللّٰهُ مَا يَشَاۗءُ      27؀ۧ

आयत 24

“क्या तुमने गौर नहीं किया कि अल्लाह ने कैसी मिसाल बयान की है कलिमा-ए-तैय्यबा की!”اَلَمْ تَرَ كَيْفَ ضَرَبَ اللّٰهُ مَثَلًا كَلِمَةً طَيِّبَةً

कलिमा-ए-तैय्यबा से आमतौर पर तो कलिमा-ए-तौहीद “ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुन रसूल अल्लाह” मुराद लिया जाता है। इसमें कुछ शक नहीं कि ला इलाहा इल्लल्लाह अफ़ज़ल ज़िक्र है, लेकिन यहाँ कलिमा-ए-तैय्यबा से तौहीद पर मब्नी अक़ाइद व नज़रियात, भलाई की हर बात, कलामे तैय्यब और हक़ की दावत मुराद है।

“(इसकी मिसाल ऐसी है) जैसे एक पाकीज़ा दरख़्त, उसकी जड़ मज़बूत और शाखें आसमान में हैं।”كَشَجَرَةٍ طَيِّبَةٍ اَصْلُهَا ثَابِتٌ وَّفَرْعُهَا فِي السَّمَاۗءِ     24؀ۙ

आयत 25

“यह (दरख़्त) हर फ़सल में अपना फल लाता है अपने रब के हुक्म से।”تُؤْتِيْٓ اُكُلَهَا كُلَّ حِيْنٍۢ بِاِذْنِ رَبِّهَا  ۭ

इस दरख़्त की जड़ें ज़मीन में मज़बूती से जमी हुई हैं, उसकी शाखें आसमान से बातें कर रही हैं और उसका फल भी मुतवातर (लगातार) आ रहा है।

“और अल्लाह मिसालें बयान करता है लोगों के लिए ताकि वो नसीहत अख़ज़ करें।”وَيَضْرِبُ اللّٰهُ الْاَمْثَالَ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَذَكَّرُوْنَ    25؁

कोई भलाई का काम हो, नेकी की दावत हो, राहे हक़ की कोई तहरीक हो, जिसने भी ऐसी किसी नेकी की इब्तदा की उसने गोया अपने लिए एक बहुत उम्दाह फलदार दरख़्त लगा लिया। यह दरख़्त जब तक बाक़ी रहेगा अपने असरात व समरात से ना मालूम किस-किस को फैज़याब करेगा। जैसे किसी ने भलाई की दावत दी और उस दावत को कुछ लोगों ने क़ुबूल किया, उन्होंने उस दावत को मज़ीद आगे फैलाया, यूँ उसकी नेकी का हल्का-ए-असर वसीअ से वसीअतर होता जायेगा और ना मालूम मुस्तक़बिल में ऐसे नेक असरात मज़ीद कहाँ-कहाँ तक पहुँचेंगे। हज़रत जरीर बिन अब्दुलल्लाह बिन जाबिर रज़ि. रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया:

مَنْ سَنَّ فِی الْاِسْلَامِ سُنَّۃً حَسَنَۃً فَلَہٗ اَجْرُھَا وَاَجْرُ مَنْ عَمِلَ بِھَا بَعْدَہٗ مِنْ غَیْرِ اَنْ یَنْقُصَ مِنْ اُجُوْرِھِمْ شَیْءٌ ‘ وَمَنْ سَنَّ فِی الْاِسْلَامِ سُنَّۃً سَیِّءَۃً کَانَ عَلَیْہِ وِزْرُھَا وَوِزْرُ مَنْ عَمِلَ بِھَا مِنْ بَعْدِہٖ مِنْ غَیْرِ اَنْ یَنْقُصَ مِنْ اَوْزَارِھِمْ شَیْءٌ

“जिस किसी ने इस्लाम में किसी नेकी काम का आग़ाज़ किया तो उसके लिए उस काम अज्र भी होगा और बाद में जो कोई भी उस पर अमल करेगा उसका अज्र भी उसको मिलेगा, लेकिन उनके अज्र व सबाब में कोई कमी नहीं होगी। और जिस किसी ने इस्लाम में किसी बुरी शय का आग़ाज़ किया तो उस पर उसका गुनाह भी होगा और बाद में जो कोई भी उस पर अमल करेगा उसके गुनाहों का बोझ भी उस पर डाला जायेगा, मगर उनके गुनाहों में कोई कमी नहीं होगी।”(8)

आयत 26

“और कलिमा-ए-ख़बीस की मिसाल ऐसी है जैसे एक घटिया दरख़्त (झाड़-झन्काड़), जिसे ज़मीन के ऊपर से ही उखाड़ लिया जाये, उसके लिए कोई क़रार नहीं।”وَمَثَلُ كَلِمَةٍ خَبِيْثَةٍ كَشَجَرَةٍ خَبِيْثَةِۨ اجْتُثَّتْ مِنْ فَوْقِ الْاَرْضِ مَا لَهَا مِنْ قَرَارٍ    26؁

भलाई और उसके असरात के मुक़ाबले में बुराई, बुराई की दावत और बुराई के असरात की मिसाल ऐसी है जैसे एक बहुत उम्दा, मज़बूत और फलदार दरख़्त के मुक़ाबले में झाड़-झंकाड़। ना उसकी जड़ों में मज़बूती, ना वजूद को सबात (stability), ना साया, ना फल। बुराई बाज़ अवक़ात लोगों में रिवाज भी पा जाती है, उन्हें भली भी लगती है और उसकी ज़ाहिरी खूबसूरती में लोगों के लिए वक़्ती तौर पर कशिश भी होती है। जैसे माले हराम कसरत और चमक-दमक लोगों को मुतास्सिर करती है मगर हक़ीक़त में ना तो बुराई को सबात (stability) और दवाम (continuous) हासिल है और ना उसके असरात में लोगों के लिए फ़ायदा!

आयत 27

“अल्लाह सबात अता करता है अहले ईमान को क़ौले साबित के ज़रिये से दुनिया की ज़िन्दगी में भी और आखिरत में भी।”يُثَبِّتُ اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا بِالْقَوْلِ الثَّابِتِ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَفِي الْاٰخِرَةِ  ۚ

यहाँ क़ौले साबित से मुराद ईमान है। आखिरत पर पुख्ता ईमान रखने वाला शख़्स दुनिया के अंदर अपने किरदार और नज़रियात में मज़बूत और साबित क़दम होता है। उसके हौसले, उसके मौक़फ़ और उसकी सलाहियतों को अल्लाह तआला इस्तक़ामत बख़्शता है। ऐसे लोगों को इसी तरह का सबात आखिरत में भी अता होगा।

“और गुमराह कर देता है अल्लाह ज़ालिमों को, और अल्लाह करता है जो चाहता है।”وَيُضِلُّ اللّٰهُ الظّٰلِمِيْنَ  ڐ وَيَفْعَلُ اللّٰهُ مَا يَشَاۗءُ      27؀ۧ

आयात 28 से 34 तक

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ بَدَّلُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ كُفْرًا وَّاَحَلُّوْا قَوْمَهُمْ دَارَ الْبَوَارِ   28؀ۙ جَهَنَّمَ  ۚ  يَصْلَوْنَهَا  ۭ وَبِئْسَ الْقَرَارُ    29؁ وَجَعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا لِّيُضِلُّوْا عَنْ سَبِيْلِهٖ  ۭ قُلْ تَمَتَّعُوْا فَاِنَّ مَصِيْرَكُمْ اِلَى النَّارِ   30؁ قُلْ لِّعِبَادِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَيُنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰهُمْ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّاْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْهِ وَلَا خِلٰلٌ     31؁ اَللّٰهُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَخْرَجَ بِهٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ ۚ وَسَخَّــرَ لَكُمُ الْفُلْكَ لِتَجْرِيَ فِي الْبَحْرِ بِاَمْرِهٖ  ۚ وَسَخَّرَ لَكُمُ الْاَنْهٰرَ    32؀ۚ وَسَخَّــرَ لَكُمُ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ دَاۗىِٕـبَيْنِ ۚ وَسَخَّرَ لَكُمُ الَّيْلَ وَالنَّهَارَ   33؀ۚ وَاٰتٰىكُمْ مِّنْ كُلِّ مَا سَاَلْتُمُوْهُ  ۭ وَاِنْ تَعُدُّوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ لَا تُحْصُوْهَا  ۭ اِنَّ الْاِنْسَانَ لَظَلُوْمٌ كَفَّارٌ     34؀ۧ

आयत 28

“क्या तुमने ग़ौर नहीं किया उन लोगों के हाल पर जिन्होंने अल्लाह की नेअमत को बदल दिया कुफ़्र से”اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ بَدَّلُوْا نِعْمَةَ اللّٰهِ كُفْرًا

अल्लाह तआला ने उन्हें हिदायत की नेअमत से नवाज़ा था, मगर उन्होंने हिदायत हाथ से देकर ज़लालत और गुमराही खरीद ली। अल्लाह, उसके रसूल और उसकी किताब से कुफ़्र करके उन्होंने अल्लाह की नेअमत से खुद को महरूम कर लिया।

“और उन्होंने अपनी क़ौम को ला उतारा तबाही के घर में।”وَّاَحَلُّوْا قَوْمَهُمْ دَارَ الْبَوَارِ   28؀ۙ

जैसे सूरह हूद, आयत 98 में फ़िरऔन के बारे में फ़रमाया गया है कि रोज़े महशर वह अपनी क़ौम की क़यादत करता हुआ आयेगा और उस पूरे जुलूस को लाकर जहन्नम के घाट उतार देगा। इसी तरह तमाम क़ौमों और तमाम  मआशरों के गुमराह लीडर अपने-अपने पैरोकारों को जहन्नम में पहुँचाने का बाइस बनते हैं।

आयत 29

“यह (दारुल ब्वार) जहन्नम है, वो इसमें दाखिल होंगे, और वो बहुत ही बुरी जगह है ठहरने की।”جَهَنَّمَ  ۚ  يَصْلَوْنَهَا  ۭ وَبِئْسَ الْقَرَارُ    29؁

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आयत 30

“और इन्होंने अल्लाह के मद्दे-मुक़ाबिल (शरीक) ठहरा दिये हैं ताकि गुमराह करें लोगों को उसके रास्ते से।”وَجَعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا لِّيُضِلُّوْا عَنْ سَبِيْلِهٖ  ۭ

यानि इन्होंने झूठे मअबूदों का ढ़ोंग इसलिये रचाया है ताकि लोगों को अल्लाह की बंदगी से हटाकर गुमराह कर दें। “انداد” जमा है “نِد” की, इसके मायने मद्दे-मुक़ाबिल के हैं। सूरतुल बक़रह की आयत 22 में भी हम पढ़ आये हैं: {فَلَا تَجْعَلُوْا لِلّٰهِ اَنْدَادًا} “तो अल्लाह के मद्दे-मुक़ाबिल ना ठहराया करो।” इस मामले की नज़ाकत का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि एक सहाबी रज़ि. ने हुज़ूर ﷺ से मुहावरतन अर्ज़ किया: مَاشَاءَ اللّٰہُ وَمَا شِئْتَ “जो अल्लाह चाहे और जो आप चाहें” तो आप ﷺ ने उन्हें फ़ौरन टोक दिया और फ़रमाया: ((أَجَعَلْتَنِیْ لِلّٰہِ نِدًّا؟ مَا شَاءَ اللّٰہُ وَحْدَہٗ))(9) “क्या तूने मुझे अल्लाह का मद्दे-मुक़ाबिल बना दिया? (बल्कि वही होगा) जो तन्हा अल्लाह चाहे!” यानि मशियत तो अल्लाह ही की है, जो होगा उसी की मशियत और मर्ज़ी से होगा। इख़्तियार सिर्फ़ उसी का है, और किसी का कोई इख़्तियार नहीं।

“आप कहिये कि (दुनिया की ज़िन्दगी में) तमाम फ़ायदा उठा लो, फिर यक़ीनन तुम्हारा लौटना आग ही की तरफ़ है।”قُلْ تَمَتَّعُوْا فَاِنَّ مَصِيْرَكُمْ اِلَى النَّارِ   30؁

आयत 31

“आप कहिए मेरे उन बंदों से जो ईमान लाये हैं कि वो नमाज़ क़ायम करें”قُلْ لِّعِبَادِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا يُقِيْمُوا الصَّلٰوةَ

यहाँ यह नुक्ता लायक़-ए-तवज्जो है कि قُلْ لِّعِبَادِيَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا के अल्फ़ाज़ से रसूल अल्लाह ﷺ को मुख़ातिब करके अहले ईमान को बिल्वास्ता हुक्म दिया जा रहा है और يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا के अल्फ़ाज़ से अहले ईमान को बराहेरास्त मुख़ातिब नहीं किया गया। इस सिलसिले में पहले भी बताया जा चुका है कि पूरे मक्की क़ुरान में يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا के अल्फ़ाज़ से बराहेरास्त मुसलमानों से खिताब नहीं किया गया। (सूरह हज में एक मक़ाम पर यह अल्फ़ाज़ आये हैं मगर इस सूरह को मक्की या मदनी होने के बारे में इख़्तलाफ़ है।) इसमें जो हिकमत है वो अल्लाह ही बेहतर जानता है। जहाँ तक मुझे इसकी वजह समझ में आयी है वो मैं आपको बता चुका हूँ कि يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا का तर्ज़े ख़िताब उम्मत के लिए है और मक्की दौर में मुसलमान अभी एक उम्मत नहीं बने थे। मुसलमानों को उम्मत का दर्जा मदीने में आकर तहवीले क़िब्ला के बाद मिला। पिछले दो हज़ार बरस से उम्मते मुस्लिमा के मन्सब पर यहूदी फ़ाइज़ थे। उन्हें इस मन्सब से माज़ूल करके मुहम्मदुन रसूल अल्लाह ﷺ की उम्मत को उम्मते मुस्लिमा का दर्जा दिया गया और तहवीले क़िब्ला इस तब्दीली की ज़ाहिरी अलामत क़रार पाया। यानि यहूदियों के क़िब्ले की हैसियत बतौर क़िब्ला खत्म करने का मतलब यह क़रार पाया कि उन्हें उम्मते मुस्लिमा के मन्सब से माज़ूल कर दिया गया है। चुनाँचे क़ुरान में يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا के अल्फ़ाज़ के ज़रिये मुसलमानों से ख़िताब उसके बाद शुरू हुआ।

“और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से ख़र्च करते रहें ख़ुफ़िया और ऐलानिया, इससे पहले-पहले कि वो दिन आ जाये जिसमें ना कोई ख़रीद व फ़रोख्त होगी और ना कोई दोस्ती काम आयेगी।”وَيُنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰهُمْ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّاْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْهِ وَلَا خِلٰلٌ     31؁

यह आयत सूरतुल बक़रह की आयत 254 से बहुत मिलती-जुलती है। वहाँ बैय (खरीदो-फ़रोख्त) और दोस्ती के अलावा शफ़ाअत की भी नफ़ी की गई है: { يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّاْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْهِ وَلَا خُلَّةٌ وَّلَا شَفَاعَةٌ  ۭ} “यानि उस दिन से पहले-पहले हमारे अता करदा रिज़्क़ में से ख़र्च करलो जिसमें ना कोई बैय (खरीद-फ़रोख़्त) होगी, ना कोई दोस्ती काम आयेगी और ना ही किसी की शफ़ाअत फ़ायदेमंद होगी।

आयत 32

“अल्लाह ही है जिसने पैदा किया आसमानों और ज़मीन को और उतारा आसमान से पानी, फिर निकाला उसके ज़रिये से फलों की शक्ल में तुम्हारे लिए रिज़्क़।”اَللّٰهُ الَّذِيْ خَلَقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَاَنْزَلَ مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَخْرَجَ بِهٖ مِنَ الثَّمَرٰتِ رِزْقًا لَّكُمْ ۚ
“और मुसख्खर कर दिया तुम्हारे लिये कश्ती को कि वो चले समुन्दर में उसके हुक्म से, और उसने मुसख्खर कर दिए तुम्हारे लिये दरिया (और नहरें वगैरह)।”وَسَخَّــرَ لَكُمُ الْفُلْكَ لِتَجْرِيَ فِي الْبَحْرِ بِاَمْرِهٖ  ۚ وَسَخَّرَ لَكُمُ الْاَنْهٰرَ    32؀ۚ

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आयत 33

“और मुसख़्खर कर दिया तुम्हारे लिए सूरज और चाँद को, कि मुसलसल चल रहे हैं, और मुसख़्खर कर दिया तुम्हारे लिए रात को और दिन को।”وَسَخَّــرَ لَكُمُ الشَّمْسَ وَالْقَمَرَ دَاۗىِٕـبَيْنِ ۚ وَسَخَّرَ لَكُمُ الَّيْلَ وَالنَّهَارَ   33؀ۚ

इन तमाम चीज़ों के गिनवाने से इंसान को यह जतलाना मक़सूद है कि ज़मीन के दामन और आसमान की वुसअतों में अल्लाह की तमाम तख्लीक़ात और फ़ितरत की तमाम क़ुव्वतें मुसलसल इंसान की ख़िदमत में उसकी नफ़ा रसानी के लिए मसरूफ़ेकार हैं और वो इसलिये कि इस कायनात में इंसान ही एक ऐसी मख्लूक़ है जो सब मख्लूक़ात से आला है। अल्लाह ने यह बिसात-ए-कौन व मकान इंसान ही के लिए बिछाई है और बाक़ी तमाम अशया (चीज़ों) को इसलिये पैदा किया है कि वो बिलवास्ता या बिलावास्ता उसकी ज़रूरियात पूरी करें। यही बात सूरतुल बक़रह की आयत 29 में इस तरह बयान फ़रमाई गई है: {ھُوَ الَّذِىْ خَلَقَ لَكُمْ مَّا فِى الْاَرْضِ جَمِيْعًا    ۤ  } यानि ये ज़मीन पर जो कुछ भी नज़र आ रहा है यह अल्लाह ने तुम्हारे (इंसानो के) लिए पैदा किया है। और उन चीज़ों को तुम्हारी ज़रूरतें पूरी करने के लिए मुसख़्खर कर दिया है।

आयत 34

“और उसने तुम्हें वो सब कुछ दिया जो तुमने उससे माँगा।”وَاٰتٰىكُمْ مِّنْ كُلِّ مَا سَاَلْتُمُوْهُ  ۭ

यह माँगना शऊरी भी और ग़ैरशऊरी भी। यानि वो तमाम चीज़ें भी अल्लाह ने हमारे लिए फ़राहम की हैं जिनका तक़ाज़ा हमारा वजूद करता है और हमें अपनी ज़िन्दगी को क़ायम रखने के लिए उनकी ज़रूरत है। क्योंकि इंसान को पूरी तरह शऊर नहीं है कि उसे किस-किस अंदाज़ में किस-किस चीज़ की ज़रूरत है और उसकी ज़रूरत की यह चीज़ें उसे कहाँ-कहाँ से दस्तयाब होंगी।

अल्लाह तआला ने इंसान की दुन्यवी ज़िन्दगी की ज़रूरतें पूरी करने लिए असबाब व नताइज के ऐसे-ऐसे सिलसिले पैदा कर दिए हैं जिनका अहाता करना इंसानी अक़्ल के बस में नहीं है। अल्लाह ने बहुत सी ऐसी चीज़ें भी पैदा कर रखी हैं जिनसे इंसान की ज़रूरतें अनजाने में पूरी हो रही हैं। मसलन एक वक़्त तक इंसान को कब पता था कि कौनसी चीज़ में कौनसा विटामिन पाया जाता है। मगर वो विटामिन्स मुख़्तलिफ़ ग़िज़ाओं के ज़रिये से इंसान की ज़रूरतें इस तरह पूरी कर रहे थे कि इंसान को इसकी ख़बर तक ना थी। बहरहाल अल्लाह हमें वो चीज़ें भी अता करता है जो हम उससे शऊरी तौर पर माँगते हैं और वो भी जो हमारी ज़िन्दगी और बक़ा का फ़ितरी तक़ाज़ा हैं।

“और अगर तुम अल्लाह की नेअमतों को गिनना चाहोगे तो नहीं गिन सकोगे। यक़ीनन इंसान बड़ा ही ज़ालिम और बहुत नाशुक्रा है।”وَاِنْ تَعُدُّوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ لَا تُحْصُوْهَا  ۭ اِنَّ الْاِنْسَانَ لَظَلُوْمٌ كَفَّارٌ     34؀ۧ

इंसान के लिए यह मुम्किन ही नहीं कि वो अल्लाह की नेअमतों को गिन सके। कफ्फ़ार (काफ़ की ज़बर के साथ) यहाँ فَعّال के वज़न पर मुबालगे का सीगा है, यानि नाशुक्री में बहुत बढ़ा हुआ।

आयात 35 से 41 तक

وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهِيْمُ رَبِّ اجْعَلْ هٰذَا الْبَلَدَ اٰمِنًا وَّاجْنُبْنِيْ وَبَنِيَّ اَنْ نَّعْبُدَ الْاَصْنَامَ 35؀ۭ رَبِّ اِنَّهُنَّ اَضْلَلْنَ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ ۚ  فَمَنْ تَبِعَنِيْ فَاِنَّهٗ مِنِّىْ ۚ وَمَنْ عَصَانِيْ فَاِنَّكَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ      36؀ رَبَّنَآ اِنِّىْٓ اَسْكَنْتُ مِنْ ذُرِّيَّتِيْ بِوَادٍ غَيْرِ ذِيْ زَرْعٍ عِنْدَ بَيْتِكَ الْمُحَرَّمِ ۙ رَبَّنَا لِيُقِيْمُوا الصَّلٰوةَ فَاجْعَلْ اَفْىِٕدَةً مِّنَ النَّاسِ تَهْوِيْٓ اِلَيْهِمْ وَارْزُقْهُمْ مِّنَ الثَّمَرٰتِ لَعَلَّهُمْ يَشْكُرُوْنَ     37؀ رَبَّنَآ اِنَّكَ تَعْلَمُ مَا نُخْفِيْ وَمَا نُعْلِنُ ۭ وَمَا يَخْفٰى عَلَي اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ    38؁ اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ وَهَبَ لِيْ عَلَي الْكِبَرِ اِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ   ۭ اِنَّ رَبِّيْ لَسَمِيْعُ الدُّعَاۗءِ     39؁ رَبِّ اجْعَلْنِيْ مُقِيْمَ الصَّلٰوةِ وَمِنْ ذُرِّيَّتِيْ  ڰ رَبَّنَا وَتَقَبَّلْ دُعَاۗءِ    40؁ رَبَّنَا اغْفِرْ لِيْ وَلِوَالِدَيَّ وَلِلْمُؤْمِنِيْنَ يَوْمَ يَقُوْمُ الْحِسَابُ     41؀ۧ

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आयत 35

“और याद करो जब कहा इब्राहीम ने कि ऐ मेरे रब इस शहर (मक्का) को बना दे अमन की जगह और बचाए रख मुझे और मेरी औलाद को इससे कि हम बुतों की परस्तिश करें।”وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهِيْمُ رَبِّ اجْعَلْ هٰذَا الْبَلَدَ اٰمِنًا وَّاجْنُبْنِيْ وَبَنِيَّ اَنْ نَّعْبُدَ الْاَصْنَامَ 35؀ۭ

यह मज़मून सूरतुल बक़रह के पन्द्रहवें रुकूअ के मज़मून से मिलता-जुलता है। हज़रत इब्राहीम अलै. से मा-क़ब्ल ज़माने की जो तारीख़ हमें मालूम हुई है उसके मुताबिक़ उस दौर की सबसे बड़ी गुमराही बुतपरस्ती थी। आप अलै. से पहले की तमाम अक़वाम गुमराही में मुब्तला थीं। आपकी अपनी क़ौम का इस सिलसिले में यह हाल था कि उन्होंने एक बहुत बड़े बुतखाने में बहुत से बुत सजा रखे थे। इन्हीं बुतों का सूरतुल अम्बिया में ज़िक्र मिलता है कि हज़रत इब्राहीम अलै. ने उनको तोड़ा था। इसके अलावा आपकी क़ौम सितारों की पूजा भी करती थी, जबकि नमरूद ने उन्हें सियासी शिर्क में भी मुब्तला कर रखा था। वह इख़्तियारे मुतलक़ का दावेदार था और जिस चीज़ को वह चाहता जायज़ क़रार देता और जिसको चाहता ममनूअ (नाजायज़)।

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आयत 36

“ऐ मेरे परवरदिगार! इन बुतों ने (पहले भी) बहुत से लोगों को गुमराह किया है। तो जो कोई मेरी पैरवी करे वो तो बिलाशुबह मुझसे है”رَبِّ اِنَّهُنَّ اَضْلَلْنَ كَثِيْرًا مِّنَ النَّاسِ ۚ  فَمَنْ تَبِعَنِيْ فَاِنَّهٗ مِنِّىْ ۚ

मैंने खुद को हर क़िस्म के शिर्क से पाक कर लिया है, अब जो लोग मेरी पैरवी करें, शिर्क से दूर रहें, तौहीद के रास्ते पर चलें, ऐसे लोग तो मेरे ही साथी हैं, उनके साथ तो मेरा वादा पूरा होगा।

“और जो मेरी नाफ़रमानी करे तो बिलाशुबह तू बख्शने वाला मेहरबान है।”وَمَنْ عَصَانِيْ فَاِنَّكَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ      36؀

हज़रत इब्राहीम अलै. की तबीयत के बारे में हम सूरह हूद में अल्लाह तआला का यह फ़रमान पढ़ चुके हैं: { اِنَّ اِبْرٰهِيْمَ لَحَلِيْمٌ اَوَّاهٌ مُّنِيْبٌ} (आयत 75) कि आप बहुत ही नरम दिल, हलीमुल तबीअ और हर वक़्त अल्लाह की तरफ़ रुजूअ करने वाले थे। चुनाँचे जब गुनहगारों का ज़िक्र हुआ तो आपने अल्लाह की सिफ़ाते ग़फ्फ़ारी और रहीमी का ज़िक्र करने पर ही इकतफ़ा (संतोष) किया है। बिल्कुल इसी अंदाज़ में हज़रत ईसा अलै. की इल्तजा (request) का ज़िक्र सूरह मायदा में आया है: { اِنْ تُعَذِّبْهُمْ فَاِنَّهُمْ عِبَادُكَ ۚ وَاِنْ تَغْفِرْ لَهُمْ فَاِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ } (आयत 118) यानि परवरदिगार! अगर तू उन्हें अज़ाब देगा तो वो तेरे ही बंदे हैं, तू जिस तरह चाहे उन्हें अज़ाब दे, तेरा इख़्तियार मुतलक़ है। लेकिन अगर तू उन्हें माफ़ कर दे तो भी तेरे इख़्तियार और तेरी हिकमत पर कोई ऐतराज़ करने वाला नहीं है।

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आयत 37

“ऐ हमारे रब! मैंने अपनी औलाद (की एक शाख) को आबाद कर दिया है इस बे-आब-ओ-गयाह वादी (बंजर भूमी) में तेरे मोहतरम घर के पास”رَبَّنَآ اِنِّىْٓ اَسْكَنْتُ مِنْ ذُرِّيَّتِيْ بِوَادٍ غَيْرِ ذِيْ زَرْعٍ عِنْدَ بَيْتِكَ الْمُحَرَّمِ ۙ

ऐ हमारे परवरदिगार! तेरे हुक्म के मुताबिक़ मैंने यहाँ तेरे इस मोहतरम घर के पास अपनी औलाद को लाकर आबाद कर दिया है। हज़रत इब्राहीम अलै. की दुआ में पहले रब्बी, रब्बी (ऐ मेरे परवरदिगार!) का सीगा आ रहा था मगर अब “रब्बना” जमा का सीगा आ गया है। मालूम होता है कि इस मौक़े पर आप अलै. के साथ हज़रत इस्माईल अलै. भी शामिल हो गये हैं। यहाँ पर عِنْدَ بَيْتِكَ الْمُحَرَّمِ के अल्फ़ाज़ से उन रिवायात को भी तक़्वियत (मज़बूती) मिलती है जिनके मुताबिक़ बैतुल्लाह की तामीर सबसे पहले हज़रत आदम अलै. ने की थी। उन रिवायात में यह भी मज़कूर है कि हज़रत आदम अलै. का तामीर करदा बैतुल्लाह इब्तदाई ज़माने में गिर गया और सैलाब के सबब उसकी दीवारें वगैरह भी बह गयीं, सिर्फ़ बुनियादें बाक़ी रह गयीं। उन्हीं बुनियादों पर फिर हज़रत इब्राहीम अलै. और हज़रत इस्माईल अलै. ने उसकी तामीर की जिसका ज़िक्र सूरतुल बक़रह की आयत 127 में मिलता है: { وَاِذْ يَرْفَعُ اِبْرٰھٖمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَاِسْمٰعِيْلُ ۭ } बहरहाल हज़रत इब्राहीम अलै. अर्ज़ कर रहे हैं:

“ऐ हमारे परवरदिगार! ताकि ये नमाज़ क़ायम करें, तू तो लोगों के दिलों को उनकी तरफ़ माइल कर दे”رَبَّنَا لِيُقِيْمُوا الصَّلٰوةَ فَاجْعَلْ اَفْىِٕدَةً مِّنَ النَّاسِ تَهْوِيْٓ اِلَيْهِمْ

लोगों के दिलों में उनके लिए मुहब्बत पैदा हो जाये, लोग ऐतराफ़ व जवानिब से उनके पास आयें, ताकि इस तरह उनके लिए यहाँ रहने और बसने का बंदोबस्त हो सके।

“और उनको रिज़्क अता कर फलों से, ताकि वो शुक्र अदा करें।”وَارْزُقْهُمْ مِّنَ الثَّمَرٰتِ لَعَلَّهُمْ يَشْكُرُوْنَ     37؀

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आयत 38

“ऐ हमारे परवरदिगार! तू खूब जानता है जो कुछ हम छुपाते हैं और जो कुछ हम ज़ाहिर करते हैं।”رَبَّنَآ اِنَّكَ تَعْلَمُ مَا نُخْفِيْ وَمَا نُعْلِنُ ۭ
“और अल्लाह पर तो कोई शय मख़्फ़ी (छुपी) नहीं ज़मीन में और ना आसमान में।”وَمَا يَخْفٰى عَلَي اللّٰهِ مِنْ شَيْءٍ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ    38؁

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आयत 39

“कुल शुक्र और कुल सना उस अल्लाह के लिए है जिसने मुझे अता फ़रमाये, बावजूद बुढ़ापे के इस्माईल और इस्हाक़ अलै. (जैसे बेटे)।”اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ وَهَبَ لِيْ عَلَي الْكِبَرِ اِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ   ۭ

जब हज़रत इस्माईल अलै. की वलादत हुई तो हज़रत इब्राहीम अलै. की उम्र 81 बरस थी और उसके कई साल बाद हज़रत इसहाक़ अलै. पैदा हुए।

“यक़ीनन मेरा परवरदिगार दुआओं को सुनने वाला है।”اِنَّ رَبِّيْ لَسَمِيْعُ الدُّعَاۗءِ     39؁

आयत 40

“ऐ मेरे परवरदिगार! मुझे बना दे नमाज़ क़ायम करने वाला और मेरी औलाद में से भी”رَبِّ اجْعَلْنِيْ مُقِيْمَ الصَّلٰوةِ وَمِنْ ذُرِّيَّتِيْ  ڰ

यानि मुझे तौफ़ीक़ अता फ़रमा दे कि मैं नमाज़ को पूरी तरह क़ायम रखूँ और मेरी औलाद को भी तौफ़ीक़ बख़्श दे कि वो लोग भी नमाज़ क़ायम करने वाले बनकर रहें।

“ऐ हमारे परवरदिगार! मेरी इस दुआ को क़ुबूल फ़रमा।”رَبَّنَا وَتَقَبَّلْ دُعَاۗءِ    40؁

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आयत 41

“ऐ हमारे परवरदिगार! मुझे, मेरे वालिदैन और तमाम मोमिनीन को बख़्श दे, जिस दिन हिसाब क़ायम हो।”رَبَّنَا اغْفِرْ لِيْ وَلِوَالِدَيَّ وَلِلْمُؤْمِنِيْنَ يَوْمَ يَقُوْمُ الْحِسَابُ     41؀ۧ

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आयात 42 से 52 तक

وَلَا تَحْسَبَنَّ اللّٰهَ غَافِلًا عَمَّا يَعْمَلُ الظّٰلِمُوْنَ ڛ اِنَّمَا يُؤَخِّرُهُمْ لِيَوْمٍ تَشْخَصُ فِيْهِ الْاَبْصَارُ   42۝ۙ   مُهْطِعِيْنَ مُقْنِعِيْ رُءُوْسِهِمْ لَا يَرْتَدُّ اِلَيْهِمْ طَرْفُهُمْ  ۚ وَاَفْــِٕدَتُهُمْ هَوَاۗءٌ     43؀ۭ وَاَنْذِرِ النَّاسَ يَوْمَ يَاْتِيْهِمُ الْعَذَابُ فَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا رَبَّنَآ اَخِّرْنَآ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍ ۙنُّجِبْ دَعْوَتَكَ وَنَتَّبِعِ الرُّسُلَ ۭ اَوَلَمْ تَكُوْنُوْٓا اَقْسَمْتُمْ مِّنْ قَبْلُ مَا لَكُمْ مِّنْ زَوَالٍ   44۝ۙ وَّسَكَنْتُمْ فِيْ مَسٰكِنِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ وَتَبَيَّنَ لَكُمْ كَيْفَ فَعَلْنَا بِهِمْ وَضَرَبْنَا لَكُمُ الْاَمْثَالَ   45 ؀ وَقَدْ مَكَرُوْا مَكْرَهُمْ وَعِنْدَ اللّٰهِ مَكْرُهُمْ ۭ وَاِنْ كَانَ مَكْرُهُمْ لِتَزُوْلَ مِنْهُ الْجِبَالُ    46؁ فَلَا تَحْسَبَنَّ اللّٰهَ مُخْلِفَ وَعْدِهٖ رُسُلَهٗ  ۭاِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ   47؀ۭ يَوْمَ تُبَدَّلُ الْاَرْضُ غَيْرَ الْاَرْضِ وَالسَّمٰوٰتُ وَبَرَزُوْا لِلّٰهِ الْوَاحِدِ الْقَهَّارِ 48؁ وَتَرَى الْمُجْرِمِيْنَ يَوْمَىِٕذٍ مُّقَرَّنِيْنَ فِي الْاَصْفَادِ     49؀ۚ   سَرَابِيْلُهُمْ مِّنْ قَطِرَانٍ وَّتَغْشٰى وُجُوْهَهُمُ النَّارُ    50؀ۙ لِيَجْزِيَ اللّٰهُ كُلَّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ  ۭ اِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ     51۝ هٰذَا بَلٰغٌ لِّلنَّاسِ وَلِيُنْذَرُوْا بِهٖ وَلِيَعْلَمُوْٓا اَنَّمَا هُوَ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ وَّلِيَذَّكَّرَ اُولُوا الْاَلْبَابِ  52۝ۧ

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आयत 42

“और आप हरगिज़ ना समझें अल्लाह को गाफ़िल उससे जो ये ज़ालिम कर रहे हैं।”وَلَا تَحْسَبَنَّ اللّٰهَ غَافِلًا عَمَّا يَعْمَلُ الظّٰلِمُوْنَ ڛ
“यक़ीनन वो उन्हें मोहलत दे रहा है उस दिन तक जिसमें निगाहें फटी की फटी रह जायेंगी।”اِنَّمَا يُؤَخِّرُهُمْ لِيَوْمٍ تَشْخَصُ فِيْهِ الْاَبْصَارُ   42۝ۙ

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आयत 43

“वो दौड़ते होंगे (महशर की तरफ़) अपने सरों को ऊपर उठाए, नहीं लौटेगी उनकी तरफ़ उनकी निगाह, और उनके दिल उड़े हुए होंगे।”  مُهْطِعِيْنَ مُقْنِعِيْ رُءُوْسِهِمْ لَا يَرْتَدُّ اِلَيْهِمْ طَرْفُهُمْ  ۚ وَاَفْــِٕدَتُهُمْ هَوَاۗءٌ     43؀ۭ

ख़ौफ और दहशत के सबब नज़रें एक जगह जम कर रह जायेंगी और इधर-उधर हरकत करना भी भूल जायेंगी। यह मैदाने हश्र में लोगो की कैफ़ियत का नक़्शा खींचा गया है।

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आयत 44

“और (ऐ नबी !) ख़बरदार कर दीजिए लोगों को उस दिन से जब उन पर अज़ाब आयेगा”وَاَنْذِرِ النَّاسَ يَوْمَ يَاْتِيْهِمُ الْعَذَابُ
“तो कहेंगे वो लोग जिन्होंने ज़ुल्म की रविश इख़्तियार की थी: ऐ हमारे परवरदिगार! हमें मोहलत दे दे बस थोड़ी सी मुद्दत तक, हम तेरी दावत क़ुबूल कर लेंगे और रसूलों की पैरवी करेंगे।”فَيَقُوْلُ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا رَبَّنَآ اَخِّرْنَآ اِلٰٓى اَجَلٍ قَرِيْبٍ ۙنُّجِبْ دَعْوَتَكَ وَنَتَّبِعِ الرُّسُلَ ۭ
“(जवाब में कहा जायेगा) क्या तुम वही लोग नहीं हो जो पहले क़समें खाया करते थे कि तुम्हारे लिए कोई ज़वाल नहीं है।”اَوَلَمْ تَكُوْنُوْٓا اَقْسَمْتُمْ مِّنْ قَبْلُ مَا لَكُمْ مِّنْ زَوَالٍ   44۝ۙ

कि हमारा इक़तदार, हमारी यह शान व शौकत, हमारी यह जागीरें, यह सब कुछ हमारी बड़ी सोची-समझी मन्सूबा बंदियों का नतीजा है, इन्हें कहाँ से ज़वाल आयेगा!

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आयत 45

“और तुम आबाद थे उन्हीं लोगो के मस्कानों (घरों) में जिन्होंने अपनी जानों पर ज़ुल्म किया था”وَّسَكَنْتُمْ فِيْ مَسٰكِنِ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَهُمْ

तुम्हारे आस-पास के इलाक़ों में वो क़ौमें आबाद थीं जो माज़ी (past) में अल्लाह के अज़ाब का निशाना बनीं। क़ौमे आद भी इसी जज़ीरा नुमाए अरब में आबाद थी, क़ौमे समूद के मसाकिन भी तुम्हें दावते इबरत देते रहे, क़ौमे मदयन का इलाक़ा भी तुमसे कुछ ज़्यादा दूर नहीं था और क़ौमे लूत के शहरों के आसार से भी तुम लोग खूब वाक़िफ़ थे।

“और तुम पर अच्छी तरह वाज़ेह हो गया था कि हमने उनके साथ क्या सुलूक किया था, और हमने तुम्हारे लिए मिसालें भी बयान कर दी थीं।”وَتَبَيَّنَ لَكُمْ كَيْفَ فَعَلْنَا بِهِمْ وَضَرَبْنَا لَكُمُ الْاَمْثَالَ   45 ؀

उनके हालात पूरी तरह खोल कर तुम लोगों को सुना दिए गये थे। यह तज़किरा बि-अय्यामिल्लाह की तफ़सीलात की तरफ इशारा है जो क़ुरान में बयान हुई हैं और इस सिलसिले में हुज़ूर ﷺ से इसी सूरत की आयत 5 में ख़ुसूसी तौर पर फ़रमाया गया: {وَذَكِّرْهُمْ  ڏ بِاَيّٰىمِ اللّٰهِ  ۭ } “कि आप अल्लाह के दिनों (अक़वामे गुज़िश्ता के वाक़िआते अज़ाब) के हवाले से इन लोगों को खबरदार करें।”

आयत 46

“और उन्होंने अपनी सी चालें चलीं”وَقَدْ مَكَرُوْا مَكْرَهُمْ

ऐ क़ुरैशे मक्का! जिस तरह आज तुम हमारे नबी ﷺ के ख़िलाफ़ अपनी चालें चल रहे हो, इसी तरह तुमसे पहले वाले लोगों ने भी कुछ कमी नहीं की थी। जहाँ तक उनका बस चला था उन्होंने अपनी चालें चली थीं। क़ौमे नूह, क़ौमे हूद, क़ौमे सालेह और क़ौमे लूत के सरदारों ने अपने रसूलों के ख़िलाफ़ जो कुछ किया और जो कुछ कहा उसकी तफ़सीलात हम तुम्हें सुना चुके हैं। और क़ौमे शुऐब के सरदारों की मजबूरी का ज़िक्र भी हम कर चुके हैं जो तुम लोगों की मजबूरी से मिलती-जुलती थी। यानि उनका बेचारगी से यह कहना कि अगर तुम्हारा क़बीला तुम्हारी पुश्त पर ना होता तो हम अब तक तुम्हें संगसार कर चुके होते। चुनाँचे हमारे लिए और हमारे नबी ﷺ के लिए तुम्हारी ये चालें, यह साज़िशें और ये रेशा दवानियाँ कोई अनहोनी नहीं हैं। अलबत्ता तुम लोग अपनी पेशरू अक़वाम (पहली क़ौमों) के वाक़िआत के आइने में अपने मुस्तक़बिल और अन्जाम की झलक देखना चाहो तो साफ़ देख सकते हो। तुम लोग अंदाज़ा कर सकते हो कि तुमसे पहले उन मुशरिकीने हक़ की चालें किस हद तक कामयाब हुईं और तुम तजज़िया (analysis) कर सकते हो कि हर बार हक़ व बातिल की कशमकश का आखिरी नतीजा क्या निकला।

“और अल्लाह ही के क़ब्ज़ा-ए-कुदरत में हैं उनकी तमाम चालें। और उनकी चालें ऐसी तो ना थीं कि उनसे पहाड़ टल जाते।”(10)وَعِنْدَ اللّٰهِ مَكْرُهُمْ ۭ وَاِنْ كَانَ مَكْرُهُمْ لِتَزُوْلَ مِنْهُ الْجِبَالُ    46؁

अल्लाह तआला उनकी तमाम चालों का अहाता किए हुए था और यह मुमकिन नहीं था कि अल्लाह की मर्ज़ी और मशियत के खिलाफ़ उनका कोई मन्सूबा कामयाब हो जाता। बहरहाल उनकी चालें और मन्सूबेबंदियाँ अल्लाह तआला के मुक़ाबले में कुछ ऐसी नहीं थीं कि उनके सबब पहाड़ अपनी जगह बदलने पर मजबूर हो जाते।

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आयत 47

“तो आप यह मत समझें कि अल्लाह अपने उस वादे के खिलाफ़ करेगा जो उसने अपने रसूलों से किया।”فَلَا تَحْسَبَنَّ اللّٰهَ مُخْلِفَ وَعْدِهٖ رُسُلَهٗ  ۭ

यहाँ पर रसूल के बजाय रुसुल जमा का सीगा इस्तेमाल हुआ है, यानि तमाम रसूलों के साथ अल्लाह का यह मुस्तक़िल वादा रहा कि तुम्हारी मदद की जायेगी और आखरी कामयाबी तुम्हारी ही होगी। जैसा कि सूरतुल मुजादला की आयत 21 में फ़रमाया: {كَتَبَ اللّٰهُ لَاَغْلِبَنَّ اَنَا وَرُسُلِيْ ۭ} यानि अल्लाह ने तय किया हुआ है, लिख कर रखा हुआ है कि मैं और मेरे रसूल ग़ालिब आकर रहेंगे। दरमियान में कुछ ऊँच-नीच होगी, तकलीफ़ें भी आएँगी, आज़माईशों का सामना भी करना होगा, मगर फ़तह हमेशा हिज़बुल्लाह ही की होगी। आज़माईशों के उन मरहलों के बारे में सूरतुल बक़रह में फ़रमाया:

وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ ۭ وَبَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَ   ١٥٥؁ۙ

“और हम ज़रूर तुम्हारी आज़माईश करेंगे किसी क़द्र ख़ौफ और भूख से और माल और जानों और समरात (फलों) के नुक़सान से, तो आप सब्र करने वालों को बशारत सुना दें।”

इसके बाद सूरतुल बक़रह में ही फ़रमाया:

اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا يَاْتِكُمْ مَّثَلُ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ ۭ مَسَّتْهُمُ الْبَاْسَاۗءُ وَالضَّرَّاۗءُ وَزُلْزِلُوْا حَتّٰى يَقُوْلَ الرَّسُوْلُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ مَتٰى نَصْرُ اللّٰهِ  ۭ اَلَآ اِنَّ نَصْرَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ   ٢١٤؁

“क्या तुम समझते हो कि यूँ ही जन्नत में दाखिल हो जाओगे और अभी तुमको पहले लोगों जैसी (मुश्किलात) तो पेश आई ही नहीं। उनको तो (बड़ी-बड़ी) सख़्तियाँ और तकलीफ़ें पहुँची थीं और वो हिला डाले गये थे, यहाँ तक कि पैगम्बर और उनके साथ जो मोमिनीन थे सब पुकार उठे कि कब आयेगी अल्लाह की मदद, आगाह हो जाओ! अल्लाह की मदद क़रीब है।”

बहरहाल अल्लाह तआला का अपने रसूलों से यह पुख़्ता वादा रहा है कि हक़ व बातिल की इस कशमकश में बिल्आखिर फ़तह उन्हीं की होगी और उन्हें झुठलाने वालों को उनके सामने सज़ा दी जायेगी। यह सारी बातें तफ़सील से क़ुरान में बयान की जा चुकी हैं ताकि उन लोगों को कोई शक ना रहे।

“यक़ीनन अल्लाह ज़बरदस्त है इन्तेक़ाम लेने वाला।”اِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ   47؀ۭ

आयत 48

“जिस दिन ज़मीन बदल दी जायेगी इस ज़मीन के सिवा (किसी और शक्ल में) और आसमानों को भी (बदल दिया जायेगा)”يَوْمَ تُبَدَّلُ الْاَرْضُ غَيْرَ الْاَرْضِ وَالسَّمٰوٰتُ

यह रोज़े महशर के मन्ज़र की तरफ इशारा है। इस सिलसिले में क़ब्ल अज़ भी कई दफ़ा ज़िक्र किया गया है कि क़ुरान की फ़राहम करदा तफ़्सीलात के मुताबिक़ यूँ लगता है जैसे महशर का मैदान इसी ज़मीन को बनाया जायेगा। उसके लिए ज़मीन की शक्ल में मुनासिब तब्दीली की जायेगी, जैसा कि इस आयत में फ़रमाया गया है। सूरतुल फ़ज्र आयत 21 में इस तब्दीली की एक सूरत इस तरह बताई गई है: {اِذَا دُكَّتِ الْاَرْضُ دَكًّا دَكًّا} “जब ज़मीन को कूट-कूट कर हमवार (smooth) कर दिया जायेगा।” फिर सूरतुल इन्शक़ाक़ आयत 3 में फ़रमाया गया: {وَاِذَا الْاَرْضُ مُدَّتْ} “और जब ज़मीन को खींचा जायेगा।” इस तरह तमाम तफ़सीलात को जमा करके जो सूरतेहाल मुमकिन होती महसूस होती है वो यह है कि ज़मीन के तमाम नशैब व फ़राज़ (ऊँच-नीच) को ख़त्म करके इसे बिल्कुल हमवार भी किया जायेगा और वसीअ (बड़ा) भी। इस तरह इसे एक बहुत बड़े मैदान की शक्ल दे दी जायेगी। जब ज़मीन को हमवार किया जायेगा तो पहाड़ रेज़ा-रेज़ा हो जाएँगे, ज़मीन के पिचकने से इसके अन्दर का सारा लावा बहार निकाल आयेगा और समुन्दर भाप बन कर उड़ जाएँगे। इसी तरह निज़ामे समावी में भी ज़रुरी रद्दो-बदल किया जायेगा, जिसके बारे में सूरतुल क़ियामा में इस तरह बताया गया है: {وَجُمِعَ الشَّمْسُ وَالْقَمَرُ} (आयत 9) यानि सूरज और चाँद को यक्जा (एक) कर दिया जायेगा। वल्लाहु आलम!

हाल ही में एक साहब ने “The Machanics of the Doom’s Day” के नाम से एक किताब लिखी है। यह साहब माहिरे तबीअयात (expert ऑफ़ physics) हैं। मैंने इस किताब का पेश लफ्ज़ भी लिखा है। इसमें उन्होंने बहुत सी ऐसी बातें लिखी हैं जिनकी तरफ़ इससे पहले तवज्जो नहीं की गई। इस लिहाज़ से उनकी यह बातें यक़ीनन क़ाबिले ग़ौर हैं। उन्होंने ने इस ख़्याल का इज़हार किया है कि क़यामत का यह मतलब हरग़िज़ नहीं कि उस वक़्त पूरी कायनात ख़त्म हो जायेगी, बल्कि यह वाक़्या सिर्फ़ हमारे निज़ामे शम्सी में रू नुमा होगा। जिस तरह इस कायनात के अंदर किसी गैलेक्सी या किसी गैलेक्सी के किसी हिस्से की मौत वाक़ेअ होती रहती है इसी तरह एक वक़्त आयेगा जब हमारा निज़ामे शम्सी तबाह हो जायेगा और तबाह होने के बाद कुछ और शक्ल इख़्तियार कर लेगा। हमारी ज़मीन भी चूँकि इस निज़ाम का हिस्सा है, लिहाज़ा इस पर भी हर चीज़ तबाह हो जायेगी, और यही क़यामत होगी। वल्लाहु आलम!

“और ये हाज़िर हो जायेंगे अल्लाह के सामने जो वाहिद और क़ह्हार है।”وَبَرَزُوْا لِلّٰهِ الْوَاحِدِ الْقَهَّارِ 48؁

सूरतुल फ़ज्र आयत 22-23 में उस वक़्त का मंज़र बैन अल्फ़ाज़ बयान हुआ है: {وَّجَاۗءَ رَبُّكَ وَالْمَلَكُ صَفًّا صَفًّا} {وَجِايْۗءَ يَوْمَىِٕذٍۢ بِجَهَنَّمَ ڏ} “और अल्लाह तआला उस वक़्त नुज़ूल फ़रमाएगा, फ़रिश्ते भी क़तार दर क़तार आयेंगे और जहन्नम भी सामने पेश कर दी जायेगी….” अल्लाह तआला के नुज़ूल फ़रमाने की कैफ़ियत का हम तसव्वुर नहीं कर सकते। जिस तरह हमारा ईमान है कि अल्लाह तआला रात के आखरी हिस्से में आसमाने दुनिया पर नुज़ूल फ़रमाता है, लेकिन हम यह नहीं जानते कि इस नुज़ूल की कैफ़ियत क्या होती है, इसी तरह आज हम नहीं जान सकते कि रोज़े क़यामत जब अल्लाह तआला ज़मीन पर नुज़ूल फ़रमाएगा तो उसकी कैफ़ियत क्या होगी। मुमकिन है तब इसकी हक़ीक़त हम पर मुन्कशिफ़ (disclosure) कर दी जाये।

आयत 49

“और तुम देखोगे मुजरिमों को उस रोज़ कि वो जकड़े हुए होंगे बाहम ज़ंजीरों में।”وَتَرَى الْمُجْرِمِيْنَ يَوْمَىِٕذٍ مُّقَرَّنِيْنَ فِي الْاَصْفَادِ     49؀ۚ

आयत 50

“उनके कुरते होंगे गंधक के और ढ़ाँपे हुए होगी उनके चेहरों को आग।”  سَرَابِيْلُهُمْ مِّنْ قَطِرَانٍ وَّتَغْشٰى وُجُوْهَهُمُ النَّارُ    50؀ۙ

आयत 51

“ताकि अल्लाह बदला दे दे हर जान को जो कुछ भी उसने कमाया। यक़ीनन अल्लाह बहुत जल्द हिसाब लेने वाला है।”لِيَجْزِيَ اللّٰهُ كُلَّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ  ۭ اِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ     51۝

उस दिन अल्लाह तआला को इतने ज़्यादा लोगों का हिसाब लेते हुए देर नहीं लगेगी।

आयत 52

“यह पहुँचा देना है लोगों के लिए”هٰذَا بَلٰغٌ لِّلنَّاسِ

इस क़ुरान और इसके अहकाम को लोगों तक पहुँचाने की ज़िम्मेदारी हमने मुहम्मदूँ रसूल अल्लाह ﷺ पर डाली थी। आप ﷺ ने यह ज़िम्मेदारी अहसन तरीक़े से पूरी कर दी है। अब यह ज़िम्मेदारी आप ﷺ की उम्मत के हर फ़र्द पर आयद होती है कि वो ये पैगाम तमाम इंसानों तक पहुँचाये।

“ताकि वो इसके ज़रिये से ख़बरदार कर दिये जायें”وَلِيُنْذَرُوْا بِهٖ

यानि इस क़ुरान के ज़रिये से तमाम इंसानों की तज़कीर व तनज़ीर का हक़ अदा हो जाये। इस हवाले से सूरतुल अनआम की आयत 19 के यह अल्फ़ाज़ भी याद कर लीजिए: {وَاُوْحِيَ اِلَيَّ هٰذَا الْقُرْاٰنُ لِاُنْذِرَكُمْ بِهٖ وَمَنْۢ بَلَغَ  ۭ } “यह क़ुरान मेरी तरफ़ वही किया गया है ताकि मैं ख़बरदार करूँ इसके ज़रिये से तुम्हें भी और (हर उस शख्स को) जिस तक भी यह पहुँच जाये।”

“और ताकि वो जान लें कि सिर्फ़ वही मअबूद है अकेला, और इसलिये कि नसीहत अख़ज़ करें अक़्ल वाले लोग।”وَلِيَعْلَمُوْٓا اَنَّمَا هُوَ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ وَّلِيَذَّكَّرَ اُولُوا الْاَلْبَابِ  52۝ۧ

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔

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