Suratul Hijr-सूरतुल हिज्र
सूरतुल हिज्र
तम्हीदी कलिमात
असलूब (pattern) के ऐतबार से सूरतुल हिज्र अपने ग्रुप की बाक़ी तीनों सूरतों से बिल्कुल मुनफ़रिद (unique) है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह पिछले ज़ेली ग्रुप में सूरह युसुफ़ बाक़ी दोनों सूरतों से मुनफ़रिद थी। चुनाँचे इस ज़ेली ग्रुप की पहली दोनों सूरतों (अल रअद और इब्राहीम) का ना सिर्फ़ मिज़ाज और असलूब एक सा है बल्कि दोनों में निस्बते ज़ौजियत भी है, जबकि सूरतुल हिज्र का मिज़ाज, अंदाज़ और असलूब उन दोनों सूरतों से मुख़्तलिफ़ है।
असलूब में एक बुनियादी फ़र्क़ तो आयात की तवालत (लम्बाई) के सिलसिले में हैं। दूसरी दोनों सूरतों की आयात के मुक़ाबले में सूरतुल हिज्र की आयात निस्बतन छोटी हैं। सूरह रअद के छ: रुकूअ हैं और इसकी आयात 43 हैं। गोया औसतन एक रुकूअ में सात आयात हैं। इसी तरह सूरह इब्राहीम के सात रुकूअ हैं और इसकी 52 आयात हैं। यानि इसके एक रुकूअ में भी औसतन तक़रीबन सात आयात ही हैं। अब जब हम इस हवाले से सूरतुल हिज्र को देखते हैं तो इसके छ: रुकूअ में 99 आयात हैं। यानि एक रुकूअ में औसतन 16 आयात हैं। आयात के छोटे होने का मतलब ये है कि इस सूरत का असलूब मक्की दौर की इब्तदाई सूरतों से मिलता है। इससे यह साबित होता है कि सूरतुल हिज्र इब्तदाई चार साल में नाज़िल होने वाली सूरतों में से एक है।
सूरतों के असलूब के बारे में एक बुनियादी नुक्ता बहुत अहम है कि बिल्कुल इब्तदाई दौर में नाज़िल होने वाली सूरतों की आयात छोटी और रिदम (rhythm) बहुत तेज़ है। इनमें सौती आहंग और ग़नाइयत (Sound Compatible & Humility) भी बहुत वाज़ेह है। जबकि बाद में नाज़िल होने वाली सूरतों के मिज़ाज और असलूब में इस लिहाज़ से हमें बतदरीज तब्दीली नज़र आती है और यह तब्दीली मदनी दौर में जाकर अपनी इन्तहा को पहुँच जाती है जहाँ आयात निस्बतन तवील हैं और रिदम बहुत धीमा। चुनाँचे मदनी दौर में आयात दैन, आयतल कुर्सी और आयतुलबिर्र जैसी ग़ैर मामूली तवालत की हामिल आयात भी हैं जो इब्तदाई दौर की बाज़ सूरतों से भी ज़्यादा तवील हैं। सूरतों के इस असलूब की मिसाल एक ऐसे दरिया की सी है जो पहाड़ों से निकलता है और बतदरीज सफ़र करते हुए मैदानी इलाक़े में पहुँचता है। पहाड़ी इलाक़े में उसका बहाव बहुत तेज़ और पाट मुख़्तसर होता है। लेकिन मैदानी इलाक़े में आकर उसके बहाव में ठहराव और पाट में वुसअत आ जाती है। जैसे दरिया-ए-सिंध, जो पहाड़ी इलाक़ों से गुज़रते हुए एक नदी का मंज़र पेश करता है, मैदानी इलाक़ों में दरियाखान वगैरह के क़रीब उसका पानी मीलों में फैला नज़र आता है।
इस मिसाल के मुताबिक़ इब्तदाई दौर की सूरतों का रिदम तेज़ और आयात मोहकम हैं, इनके मज़ामीन में जामियत और गहराई ज़्यादा है, जबकि बाद में नाज़िल होने वाली सूरतों में यह मज़ामिन बतदरीज फैलते गए हैं और फिर इस निस्बत से इबारत का रिदम भी मध्यम होता गया है। इस तदरीजी तब्दीली के हवाले से देखें तो मक्की दौर की आखरी सूरतों में भी हमें वह रिदम नुमाया महसूस नहीं होता जो इब्तदाई ज़माने की सूरतों, मसलन सूरह क़ॉफ़, सूरतुन्नजम, सूरतुर्ररहमान, सूरतुल वाक़या और सूरतुल मुल्क में नज़र आता है।
अब रहा यह सवाल कि इब्तदाई दौर में नाज़िल होने वाली सूरतुल हिज्र को मुस्हफ़ के वस्त (बीच) में और ऐसी सूरतों के दरमियान में क्यों रखा गया है जिनका ज़माना-ए-नुज़ूल बाद का है, तो इसका वाज़ेह और हत्मी (अंतिम) जवाब तो यही है कि इस मामले का ताल्लुक़ तौफ़ीक़ी अमूर से है और इसकी असल हिकमत भी अल्लाह तआला ही जानता है। मगर इस सिलसिले में मेरी एक अपनी राय है जिसका इज़हार करने की जसारत कर रहा हूँ, और वो यह कि यहाँ एक जैसी मक्की सूरतों का एक तवील सिलसिला है जो ग्याहरवें पारे से शुरू होकर अठ्ठाहरवें पारे तक चला गया है। इन सूरतों में एक जैसे मज़ामीन तकरार के साथ आ रहे हैं। चुनाँचे इस यकसानियत (समानता) को ख़त्म करने और एक तरह का तनूअ (विभिन्नता) पैदा करने के लिए इब्तदाई दौर की एक सूरत को यहाँ पर रखा गया है। वरना मिज़ाज और असलूब के ऐतबार से सूरतुल हिज्र की बहुत ज़्यादा मुशाबहत सूरतुल शौअरा के साथ है। वल्लाहु आलम!
यहाँ पर सूरतुल हिज्र की एक आयत को तेरहवें पारे में और बाक़ी सूरतों को चौदहवें पारे में देख कर पारों की तक़सीम की बुनियाद और उसके तरीक़े कार के बारे में भी सवाल उठता है। इस सिलसिले में बुनियादी तौर पर यह बात अहम है कि यह तक़सीम सहाबा रजि. के ज़माने में नहीं थी, बल्कि बाद में की गई, और ब-गर्ज़े-तिलावत क़ुरान मज़ीद को तीस बराबर अज्ज़ाअ में तक़सीम कर दिया गया, ताकि रोज़ाना एक पारे की तिलावत से महीने भर में क़ुरान ख़त्म कर लिया जाये। बहरहाल इस तक़सीम में कोई ख़ास हिकमत नज़र नहीं आती और ना ही इसमें मज़मून के तसलसुल का ख़्याल रखा गया है। इस तक़सीम में जा-बजा सूरतों की फ़सीलें टूटी नज़र आतीं हैं। कई मक़ामात पर किसी सूरत की चंद आयात एक पारे में और बाक़ी सूरह अगले पारे में शामिल की गई है। जैसे सूरह हूद की इब्तदाई पाँच आयात ग्यारहवें पारे में है जबकि बाक़ी पूरी सूरत बारहवें पारे में है। इसके बरअक्स क़ुरान हकीम की मंज़िलों की तक़सीम सहाबा रजि. के दौर में हुई और इस तक़सीम में बड़ा हुस्न नज़र आता है।
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 15 तक
الۗرٰ ۣ تِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ وَقُرْاٰنٍ مُّبِيْنٍ Ǻ رُبَمَا يَوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ كَانُوْا مُسْلِمِيْنَ Ą ذَرْهُمْ يَاْكُلُوْا وَيَتَمَتَّعُوْا وَيُلْهِهِمُ الْاَمَلُ فَسَوْفَ يَعْلَمُوْنَ Ǽ وَمَآ اَهْلَكْنَا مِنْ قَرْيَةٍ اِلَّا وَلَهَا كِتَابٌ مَّعْلُوْمٌ Ć مَا تَسْبِقُ مِنْ اُمَّةٍ اَجَلَهَا وَمَا يَسْتَاْخِرُوْنَ Ĉ وَقَالُوْا يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْ نُزِّلَ عَلَيْهِ الذِّكْرُ اِنَّكَ لَمَجْنُوْنٌ Čۭ لَوْ مَا تَاْتِيْنَا بِالْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ Ċ مَا نُنَزِّلُ الْمَلٰۗىِٕكَةَ اِلَّا بِالْحَقِّ وَمَا كَانُوْٓا اِذًا مُّنْظَرِيْنَ Ď اِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَاِنَّا لَهٗ لَحٰفِظُوْنَ Ḍ وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ فِيْ شِيَعِ الْاَوَّلِيْنَ 10 وَمَا يَاْتِيْهِمْ مِّنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ 11 كَذٰلِكَ نَسْلُكُهٗ فِيْ قُلُوْبِ الْمُجْرِمِيْنَ 12ۙ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ وَقَدْ خَلَتْ سُـنَّةُ الْاَوَّلِيْنَ 13 وَلَوْ فَتَحْنَا عَلَيْهِمْ بَابًا مِّنَ السَّمَاۗءِ فَظَلُّوْا فِيْهِ يَعْرُجُوْنَ 14ۙ لَقَالُوْٓا اِنَّمَا سُكِّرَتْ اَبْصَارُنَا بَلْ نَحْنُ قَوْمٌ مَّسْحُوْرُوْنَ 15ۧ
आयत 1
“अलिफ़, लाम, रा” | الۗرٰ ۣ |
हुरूफ़े मुक़त्ताआत का यह सिलसिला सूरह यूनुस से शुरु हुआ था। पाँच सूरतों के आग़ाज में अलिफ़, लाम, रा के हुरूफ़ हैं एक सूरह (अर् रअद) में अलिफ़, लाम, मीम, रा। यह इस सिलसिले की छठी और आखरी सूरत है।
“यह (अल्लाह की) किताब और क़ुराने मुबीन की आयात हैं।” | تِلْكَ اٰيٰتُ الْكِتٰبِ وَقُرْاٰنٍ مُّبِيْنٍ Ǻ |
आयत 2
“एक वक़्त ख़्वाहिश करेंगे वो लोग जिन्होंने कुफ़्र किया था कि काश वो मुसलमान होते।” | رُبَمَا يَوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَوْ كَانُوْا مُسْلِمِيْنَ Ą |
एक वक़्त आयेगा कि उन लोगों के लिए उनका कुफ़्र मुअजबे हसरत (पछतावा) बन जायेगा।
आयत 3
“(ऐ नबी ﷺ!) छोड़ दीजिए इनको, ये खा-पी लें और फ़ायदा उठा लें।” | ذَرْهُمْ يَاْكُلُوْا وَيَتَمَتَّعُوْا |
ज़मीन में जो मोहलत इन्हें मिली हुई है उसमें खूब मज़े कर लें।
“और (लंबी-लंबी) उम्मीदें इनको गाफ़िल किए रखें” | وَيُلْهِهِمُ الْاَمَلُ |
اَلْھٰی, یُلْھِی, اِلْھَاً के मायने हैं ग़ाफिल कर देना। सूरातुत्तकासुर में फ़रमाया गया: {اَلْهٰىكُمُ التَّكَاثُرُ} {حَتّٰى زُرْتُمُ الْمَقَابِرَ} (आयात 1-2) “ग़ाफिल किए रखा तुम्हें कसरत की ख़्वाहिश के मुक़ाबले ने, यहाँ तक कि तुमने क़ब्रें जा देखीं।” इंसान के लंबे-लंबे मन्सूबे बनाने को “तवले अमल (distant hopes)” कहते हैं। जब इंसान इस गोरख धंधे में पड़ जाये, तो ख़्वाहिशों और आरज़ूओं का यह सिलसिला ख़त्म होने में नहीं आता, मगर ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती है। हदीसे नबवी ﷺ है: ((مَا قَلَّ وَکَفٰی خَیْرٌ مِمَّا کَثُرَ وَاَلْھٰی))(11) यानि अगर कोई शय कम है लेकिन आपको किफ़ायत कर जाये, आपकी ज़रूरत उससे पूरी हो जाये तो यह उससे कहीं बेहतर है जो आपकी ज़रूरत से ज़्यादा हो और आपको अपने ख़ालिक़ और मालिक की याद से ग़ाफ़िल कर दे।
अगर माल व दौलत की रेल-पेल है, रिज़्क़ और सामाने आसाईश की फ़रावानी है, कभी कोई हाजत परेशान नहीं करती, कोई महरूमी, कोई नारसाई अल्लाह की याद ताज़ा करने का सबब नहीं बनती, तो ऐसी हालत में रफ्ता-रफ्ता इंसान के बिल्कुल ग़ाफ़िल हो जाने के इम्कानात होते हैं। इससे बेहतर है कि इतना मिले जिससे ज़रूरत पूरी हो जाये और किसी के सामने दस्ते सवाल-दराज़ ना करना पड़े। लेकिन इस क़द्र फ़रावानी ना हो कि ग़फ़लत गलबा पा ले।
“तो अनक़रीब उन्हें मालूम हो जायेगा।” | فَسَوْفَ يَعْلَمُوْنَ Ǽ |
आयत 4
“और हमने किसी भी बस्ती को हलाक नहीं किया, मगर उसके लिए एक मुअय्यन नौश्ता (एक वक़्त तय) था।” | وَمَآ اَهْلَكْنَا مِنْ قَرْيَةٍ اِلَّا وَلَهَا كِتَابٌ مَّعْلُوْمٌ Ć |
हर क़ौम पर आने वाला अज़ाब का एक वक़्त मुअय्यन था जो पहले से लिखा हुआ था।
आयत 5
“कोई उम्मत ना तो अपने वक़्ते मुअय्यन से आगे बढ़ सकती है और ना पीछे रह सकती है।” | مَا تَسْبِقُ مِنْ اُمَّةٍ اَجَلَهَا وَمَا يَسْتَاْخِرُوْنَ Ĉ |
आयत 6
“और उन्होंने कहा कि ऐ वो शख़्स जिस पर (उसके बक़ौल) यह ज़िक्र नाज़िल हुआ है (हमारे नज़दीक) तो तुम यक़ीनन दीवाने हो।” | وَقَالُوْا يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْ نُزِّلَ عَلَيْهِ الذِّكْرُ اِنَّكَ لَمَجْنُوْنٌ Čۭ |
मआज़ अल्लाह! सुम्मा मआज़ अल्लाह!! मजनून “जिन्न” से मुशतक़ (व्युत्पन्न) है। अरबी में जिन्न के मायने मख्फ़ी चीज़ के हैं। इसी मायने मे रहमे मादर में बच्चे को जनीन कहा जाता है, क्योंकि वो नज़र से पोशीदा (छुपा) होता है। इस ऐतबार से लफ्ज़ “जन्नत” भी इस माद्दे से है और इससे मुराद ऐसी ज़मीन है जो दरख्तों और घास वगैरह से पूरी तरह ढ़की हुई हो। सूरतुल अनआम आयत 76 में हज़रत इब्राहीम अलै. के तज़किरे में यह लफ़्ज़ इस तरह आया है: {فَلَمَّا جَنَّ عَلَيْهِ الَّيْلُ} यानि जब रात की तारीकी ने उसे ढ़ाँप लिया। चुनाँचे मजनून उस शख़्स को भी कहा जाता है जिस पर जिन्न के असरात हों, आसेब का साया हो और उसको भी जिसका ज़हनी तवाज़ुन दुरुस्त ना हो।
रसूल अल्लाह ﷺ के बारे में यह बात वही के बिल्कुल इब्तदाई दौर में कही गई थी और इसके कहने वालों में वो लोग भी शामिल थे जो इस तरह के ख़्यालात का इज़हार मआनदाना (दुश्मनी के) अंदाज़ में नहीं बल्कि हमदर्दी में कर रहे थे। यानि जब इब्तदा में हुज़ूर ﷺ ने नुबूवत का दावा किया और बताया कि ग़ार-ए-हिरा में उनके पास फ़रिश्ता आया है तो बहुत से लोगों को गुमान हुआ कि शायद आप ﷺ को किसी बद् रूह वगैरह का असर हो गया है। चूँकि नुबूवत मिलने और फ़रिश्ते के आने का दावा उनके लिए बिल्कुल नई बात थी इसलिए उनका वाक़ई यह ख़्याल था कि अकेले कई-कई रातें ग़ार-ए-हिरा में रहने की वजह से ज़रूर आप ﷺ पर कसी बद् रूह या जिन्न के असरात हो गये हैं। चुनाँचे सूरह नून (इसका दूसरा नाम सूरतुल क़लम भी है) जो कि बिल्कुल इब्तदाई दौर की सूरत है, इसमें उन लोगों के ख़्यालात की तरदीद (इन्कार) करते हुए फ़रमाया गया: {مَآ اَنْتَ بِنِعْمَةِ رَبِّكَ بِمَجْنُوْنٍ} (आयत 2) “आप अपने रब के फ़ज़ल से मजनून नही हैं।”
आयत 7
“क्यों नहीं ले आते हमारे सामने फ़रिश्तों को अगर तुम सच्चे हो?” | لَوْ مَا تَاْتِيْنَا بِالْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنْ كُنْتَ مِنَ الصّٰدِقِيْنَ Ċ |
अब इसके बाद अल्लाह तआला की तरफ़ से उनकी इन बातों का जवाब आ रहा है:
आयत 8
“हम नहीं उतारा करते फ़रिश्तों को मगर हक़ के साथ” | مَا نُنَزِّلُ الْمَلٰۗىِٕكَةَ اِلَّا بِالْحَقِّ |
यानि यह लोग फ़रिश्तों को बुलाना चाहते हैं या अपनी शामत को? इन्हें मालूम होना चाहिए कि आद व समूद और क़ौमे लूत पर फ़रिश्ते नाज़िल हुए तो किस ग़र्ज़ से नाज़िल हुए! इन्हें मालूम होना चाहिए कि फ़रिश्ते जब किसी क़ौम पर नाज़िल होते हैं तो आखरी फ़ैसले के निफ़ाज़ के लिए नाज़िल होते हैं।
“और (अगर फ़रिश्ते नाज़िल हो गये तो) फिर इन्हें मोहलत नहीं दी जायेगी।” | وَمَا كَانُوْٓا اِذًا مُّنْظَرِيْنَ Ď |
आयत 9
“यक़ीनन हमने ही यह ज़िक्र नाज़िल किया है और बिलाशुबह हम ही इसके मुहाफ़िज़ हैं।” | اِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَاِنَّا لَهٗ لَحٰفِظُوْنَ Ḍ |
यह आयत मुबारका बहुत अहम है। जहाँ तक इसके पहले हिस्से का ताल्लुक़ है तो यह हुक्म तौरात पर भी सादिक़ आता है और इंजील पर भी। यानि यह दोनों किताबें भी अल्लाह ही की तरफ़ से नाज़िल हुई थीं। क़ुरान में इसकी बार-बार तस्दीक़ भी की गई है। सूरतुल मायदा में तौरात के मुनज़्ज़ल मिन अल्लाह होने की तस्दीक़ इस तरह की गई है: {اِنَّآ اَنْزَلْنَا التَّوْرٰىةَ فِيْهَا هُدًى وَّنُوْرٌ ۚ } (आयत 44)। सूरह आले इमरान की आयत 3 में इन दोनों किताबों का ज़िक्र फ़रमाया गया: {وَاَنْزَلَ التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ}। लेकिन इस आयत के दूसरे हिस्से में जो हुक्म आया है वो सिर्फ़ और सिर्फ़ क़ुरान की शान है। इससे पहले किसी इल्हामी किताब या सहीफ़ा-ए-आसमानी की हिफ़ाज़त की ज़मानत नहीं दी गई। इसकी वजह यह थी कि साबक़ा (पिछली) कुतुब की हिदायात व तालीमात हत्मी (अंतिम) और अब्दी (हमेशा क लिये) नहीं थीं। वो तो गोया अबूरी अदवार के लिए वक़्ती और आरज़ी हिदायात थीं और इस लिहाज से उन्हें हमेशा के लिए महफ़ूज़ रखने की ज़रूरत भी नहीं थी। अब जबकि हिदायत कामिल हो गई तो उसे ता-अबद (हमेशा तक के लिये) महफ़ूज़ कर दिया गया।
यह आयत ख़त्मे नुबूवत पर भी बहुत बड़ी दलील है। अगर सूरतुल मायदा की आयत 3 के मुताबिक़ क़ुरान हिदायत दर्जा-ए-कामिलियत तक पहुँच गई और आयत ज़ेरे नज़र के मुताबिक़ वो अब्दी तौर पर महफू़ज़ भी हो गई तो वही के जारी रहने की ज़रूरत भी ख़त्म हो गई। चुनाँचे क़ादयानियों के पास इन दोनों क़ुरानी हक़ायक़ को तस्लीम कर लेने के बाद (और उनके लिए इन्हें तस्लीम किये बग़ैर चारा भी नहीं) वही के जारी रहने के जवाज़ की कोई अक़्ली व मन्तक़ी दलील बाक़ी नहीं रह जाती। वही की ज़रूरत इन दोनों में से किसी एक सूरत में ही हो सकती है कि या तो अभी हिदायत कामिल नहीं हुई थी और उसकी तकमील के लिए वही के तसलसुल की ज़रूरत थी। या फिर हिदायत कामिल तो हो गई थी मगर बाद में ग़ैर महफ़ूज़ हो गई या गुम हो गई और इस वजह से पैदा हो जाने वाली कमी को पूरा करने के लिए वही की ज़रुरत थी। बहरहाल अगर इन दोनों में से कोई सूरत भी दरपेश नहीं है तो सिलसिला-ए-वही के जारी रहने का कोई जवाज़ नहीं। और अल्लाह तआला (मआज़ अल्लाह) अबस का काम नहीं करता कि ज़रूरत के बग़ैर ही सिलसिला-ए-वही को जारी किये रखे।
यहाँ दो दफ़ा (ज़ेरे नज़र आयत से क़ब्ल आयत 6 में भी) क़ुरान हकीम के लिए “अज़ ज़िक्र” का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। इसी तरह सूरह “नून” की आखरी दो आयात में भी क़ुरान हकीम के लिए यह लफ्ज़ आया है। ज़िक्र का मफ़हूम याद दिहानी है। क़ुरानी फ़लसफ़े के मुताबिक़ क़ुरान मजीद का “अज़ ज़िक्र” होना इस मफ़हूम में है कि ईमानी हक़ायक़ ख़ुसूसी तौर पर अल्लाह की ज़ात और उसकी सिफ़ात का इल्म इंसानी रूह के अंदर मौजूद है, मगर इस इल्म पर ज़हूल (भूल और गफ़लत) का पर्दा तारी हो जाता है। जैसे एक वक़्त में इंसान को एक चीज़ याद होती है मगर बाद में याद नहीं रहती। इसका मतलब यह है कि उस चीज़ के बारे में मालूमात उसकी याददाश्त के तहखाने में दब जाती है। फिर बाद में किसी वक़्त ज्योंहि कोई चीज़ उन मालूमात से मुताल्लिक़ सामने आती है तो इंसान के ज़हन में वो भूली-बिसरी मालूमात फिर से ताज़ा हो जाती हैं। इस तरह ज़हन में मौजूद मालूमात को फिर से ताज़ा करने वाली चीज़ गोया याद दिहानी (reminder) का काम करती है। मसलन एक दोस्त से आपकी सालहा-साल (सालों तक) से मुलाक़ात नहीं हुई और उसका ख्याल भी कभी नहीं आया, मगर एक दिन अचानक उसका दिया हुआ एक क़लम या रुमाल सामने आने से उस दोस्त की याद एकदम ज़हन में ताज़ा हो गई। इस क़लम या रुमाल की हैसियत गोया एक निशानी (या आयत) की है जिससे आपके ज़हन में एक भूली-बिसरी याद फिर से ताज़ा हो गई।
इसी तरह अल्लाह की ज़ात का इल्म इंसानी रूह में ख़फ्ता (dormant) हालत में मौजूद है। उस इल्म को फिर से जगा कर ताज़ा करने और उस पर पड़े हुए ज़हूल और निस्यान (भूल) के पर्दों को हटाने के लिए आयाते आफ़ाक़िया, आयाते अन्फ़ुसिया और आयाते क़ुरानिया गोया याद दिहानी का काम देती हैं और अल्लाह की याद को इंसान के ज़हन में ताज़ा करती हैं। इस लिहाज़ से क़ुरान को अज़ ज़िक्र (याद दिहानी) के नाम से मौसूम किया गया है।
आयत 10
“और (ऐ नबी ﷺ!) हमने आपसे पहले भी रसूल भेजे थे, पहली जमाअतों में।” | وَلَقَدْ اَرْسَلْنَا مِنْ قَبْلِكَ فِيْ شِيَعِ الْاَوَّلِيْنَ 10 |
شِيَع, شِیْعَۃ की जमा है और इसके मायने अलग होकर फैलने वाले गिरोह के हैं। जैसे हज़रत नूह अलै. के बेटों की नस्लें बढ़ती गईं तो उनके क़बीले और गिरोह अलैहदा होते गये और यूँ तक़सीम होकर रुए ज़मीन पर फैलते गये। उर्दू अल्फ़ाज़ “इशाअत” और “शाया” भी इसी माद्दे से मुश्तक़ हैं, चुनाँचे इन अल्फ़ाज़ में भी फैलने और फैलाने का मफ़हूम पाया जाता है।
आयत 11
“और नहीं आया उनके पास कोई भी रसूल, मगर वो उसके साथ इस्तहज़ा (हँसी-मज़ाक) ही करते रहे।” | وَمَا يَاْتِيْهِمْ مِّنْ رَّسُوْلٍ اِلَّا كَانُوْا بِهٖ يَسْتَهْزِءُوْنَ 11 |
आयत 12
“इसी तरह हम इसको चुभो देते हैं मुजरिमों के दिलों में।” | كَذٰلِكَ نَسْلُكُهٗ فِيْ قُلُوْبِ الْمُجْرِمِيْنَ 12ۙ |
हक़ की दावत अपनी तासीर की वजह से हमेशा मुखातबीन के दिलों में उतर जाती है। चुनाँचे जो लोग अंबिया की दावत को ठुकराते रहे, वो उसकी हक्क़ानियत को खूब पहचान लेने के बाद ठहराते रहे। इसलिए की हक़ को हक़ तस्लीम करने से उनके मफ़ादात पर ज़र्र (चोट) पड़ती थी।
आयत 13
“(तो ऐ नबी ﷺ!) यह लोग ईमान नहीं लायेंगे और पहले लोगों की सुन्नत गुज़र चुकी है।” | لَا يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ وَقَدْ خَلَتْ سُـنَّةُ الْاَوَّلِيْنَ 13 |
अंबिया व रुसुल के मुख़ातबीन का हमेशा से यही तरीक़ा रहा है। जिस तरह हमने अपने रसूल मुहम्मद ﷺ पर यह “अज्ज़िक्र” नाज़िल किया है इसी तरह पहले भी हम अपने रसूलों पर किताबें और सहीफ़े नाज़िल करते रहे हैं, मगर उनकी क़ौमों के लोग अक्सर इंकार ही करते रहे।
आयत 14
“और अगर हम उन पर आसमान का कोई दरवाज़ा खोल भी देते और वो उस पर चढ़ने लगते।” | وَلَوْ فَتَحْنَا عَلَيْهِمْ بَابًا مِّنَ السَّمَاۗءِ فَظَلُّوْا فِيْهِ يَعْرُجُوْنَ 14ۙ |
आयत 15
“तब भी वो यही कहते कि हमारी तो नज़र बंदी कर दी गई है, बल्कि हम पर तो जादू कर दिया गया है।” | لَقَالُوْٓا اِنَّمَا سُكِّرَتْ اَبْصَارُنَا بَلْ نَحْنُ قَوْمٌ مَّسْحُوْرُوْنَ 15ۧ |
आयात 16 से 25 तक
وَلَقَدْ جَعَلْنَا فِي السَّمَاۗءِ بُرُوْجًا وَّزَيَّنّٰهَا لِلنّٰظِرِيْنَ 16ۙ وَحَفِظْنٰهَا مِنْ كُلِّ شَيْطٰنٍ رَّجِيْمٍ 17ۙ اِلَّا مَنِ اسْتَرَقَ السَّمْعَ فَاَتْبَعَهٗ شِهَابٌ مُّبِيْنٌ 18 وَالْاَرْضَ مَدَدْنٰهَا وَاَلْقَيْنَا فِيْهَا رَوَاسِيَ وَاَنْۢبَتْنَا فِيْهَا مِنْ كُلِّ شَيْءٍ مَّوْزُوْنٍ 19 وَجَعَلْنَا لَكُمْ فِيْهَا مَعَايِشَ وَمَنْ لَّسْتُمْ لَهٗ بِرٰزِقِيْنَ 20 وَاِنْ مِّنْ شَيْءٍ اِلَّا عِنْدَنَا خَزَاۗىِٕنُهٗ ۡ وَمَا نُنَزِّلُهٗٓ اِلَّا بِقَدَرٍ مَّعْلُوْمٍ 21 وَاَرْسَلْنَا الرِّيٰحَ لَوَاقِحَ فَاَنْزَلْنَا مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَسْقَيْنٰكُمُوْهُ ۚ وَمَآ اَنْتُمْ لَهٗ بِخٰزِنِيْنَ 22 وَاِنَّا لَنَحْنُ نُـحْيٖ وَنُمِيْتُ وَنَحْنُ الْوٰرِثُوْنَ 23 وَلَقَدْ عَلِمْنَا الْمُسْتَقْدِمِيْنَ مِنْكُمْ وَلَقَدْ عَلِمْنَا الْمُسْتَاْخِرِيْنَ 24 وَاِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَحْشُرُهُمْ ۭ اِنَّهٗ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ 25ۧ
आयत 16
“और हमने आसमान में बुर्ज बनाए हैं और हमने उसे (आसमानों को और बुर्जों को) मुज़य्यन कर दिया है देखने वालों के लिए।” | وَلَقَدْ جَعَلْنَا فِي السَّمَاۗءِ بُرُوْجًا وَّزَيَّنّٰهَا لِلنّٰظِرِيْنَ 16ۙ |
इन बुर्जों की असल हक़ीक़त का हमें इल्म नहीं है, इस लिहाज़ से यह आयत भी आयाते मुतशाबेहात में से है। अलबत्ता रात के वक़्त आसमान पर सितारों की बहार वह दिलकश मंज़र पेश करती है जिससे हर देखने वाले की आँख महज़ूज़ (प्रसन्न) हुए बगैर नहीं रह सकती।
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आयत 17
“और हमने हिफ़ाज़त की है उसकी हर शैताने मरदूद से।” | وَحَفِظْنٰهَا مِنْ كُلِّ شَيْطٰنٍ رَّجِيْمٍ 17ۙ |
यह गोया हमारे ईमान बिल् ग़ैब का हिस्सा है कि इन सितारों के ज़रिये से अल्लाह तआला ने आसमानों में हिफ़ाज़ती इंतेज़ामात कर रखे हैं। इस कायनात की तख़्लीक़ के बारे में इंसान की जदीद तहक़ीक़ माज़ी क़रीब में हुई है, लेकिन अभी भी इस सिलसिले में इंसानी इल्म बहुत महदूद है। वायरस और बैक्टीरिया के बारे में कुछ ही अरसा पहले हमें मालूम हुआ कि यह भी कोई मख्लूक़ है। इस वसीअ व अरीज़ (विशाल) कायनात में यक़ीनन बहुत से ऐसे हक़ायक़ होंगे जिनके बारे में अब भी इंसान कुछ नहीं जानता। बहरहाल अब तक जितनी मख्लूक़ात के बारे में हमें इल्म है उनमें सिर्फ़ तीन क़िस्म की मख्लूक़ात ऐसी हैं जिनमें खुद शऊरी (self consciousness) पाई जाती है, यानि मलाइका (फ़रिश्ते), जिन्नात और इंसान। इनमें से पहले मलाइका को पैदा किया गया, फिर जिन्नात को और फिर इंसान को। गोया इंसान इस कायनात की तख्लीक़ के ऐतबार से recent दौर की मख्लूक़ है। अलबत्ता इंसानों की अरवाह उसी दौर में पैदा की ग़ईं जब मलाइका को पैदा किया गया। बहरहाल ख़ुदशऊरी सिर्फ़ इन तीन क़िस्म की मख्लूक़ात में ही पाई जाती है, बाक़ी जो भी मख्लूक़ात इस कायनात में मौजूद हैं, चाहे वो खुश्की और समुद्र के जानवर हो या हवा में उड़ने वाले परिन्दे, उनमें शऊर तो है मगर ख़ुदशऊरी नहीं है।
जिन्नात की तख़्लीक़ चूँकि आग से हुई है लिहाज़ा उनके अंदर मख्फ़ी क़ुव्वत (potential energy) इंसानों के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा है। मेरा गुमान है कि जिन्नात को सूरज की आग से पैदा किया गया है और इस लिहाज़ से उन्हें पूरे निज़ामे शम्सी (solar system) के दायरे में आमद व रफ्त की ताक़त और इस्तेदाद हासिल है और इसके लिए उन्हें किसी राकेट या मशीनी ज़राए की ज़रुरत नहीं है। अपनी इसी इस्तेदाद से नाजायज़ फ़ायदा उठाते हुए वो आलमे बाला से अल्लाह तआला के अहकाम और तदबीरात की तरसील (delivery) के दौरान मलाइका से कुछ ख़बरें उचकने की कोशिश करते हैं। फिर वो ऐसी ख़बरें इंसानों में अपने दोस्तदार आमिल और काहिन लोगों को बताते हैं ताकि वो अपनी दुकानें चमका सकें। इसकी मिसाल यूँ है जैसे ऐवाने सदर से अहकाम की तरसील व तक़सीम के दौरान कोई शख़्स मुतालक़ा अहलकारों से उन अहकाम के बारे में ख़बरें हासिल करके क़ब्ल अज़ वक़्त उन लोगों तक पहुँचा दे जो उनके ज़रिए से अपनी दुकानें चमकाना चाहते हैं।
जिन्नात को निज़ामे शम्सी की हुदूद फलांगने से रोकने के लिए अल्लाह तआला ने सितारों में मिसाइल नस्ब कर रखे हैं। जब भी कोई जिन्न अपनी हुदूद से तजावुज़ करते हुए ममनुअ इलाक़े में दाखिल होने की कोशिश करता है तो उस पर मिसाइल फेंका जाता है जिसे हम शहाबे साक़ब कहते हैं। इस पूरे निज़ाम पर हम “कुल्लुन मिन इंदी रब्बिना” के उसूल के तहत यक़ीन रखते हैं जो हमारे ईमान बिल् ग़ैब का हिस्सा है। बहरहाल साइंसी तरक्क़ी के सबब कायनात के बारे में अब तक सामने आने वाली मालूमात और ईजादात के साथ भी इन क़ुरानी मालूमात का किसी ना किसी हद तक तताबक़ (corroboration) मौजूद है।
आयत 18
“सिवाय उसके कि जो कोई चोरी-छिपे सुनना चाहे” | اِلَّا مَنِ اسْتَرَقَ السَّمْعَ |
जैसे एक फरिश्ता कुछ अहकाम लेकर आ रहा हो और कोई जिन्न उससे कोई सुन-गुन लेने की कोशिश करे। फरिश्ते नूरी हैं और जिन्न नारी (आग) मख़्लूक़ हैं, चुनाँचे नूर और नार (आग) के दरमियान ज़्यादा बुअद (फ़र्क़) ना होने की वजह से ऐसा होना मुम्किन है। अज़ाज़ील (इब्लीस) का भी एक जिन्न होने के बावजूद फरिश्तों के साथ उठना-बैठना था।
“तो उसका पीछा करता है एक अंगारा चमकता हुआ।” | فَاَتْبَعَهٗ شِهَابٌ مُّبِيْنٌ 18 |
ऐसी खिलाफ़वर्ज़ी की सूरत में उस जिन्न पर मिसाइल फेंका जाता है। यह मिसाइल अल्लाह तआला ने इसी मक़सद के लिए सितारों में नस्ब कर रखे हैं।
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आयत 19
“और ज़मीन को हमने फैला दिया और इसमें हमने लंगर डाल दिये” | وَالْاَرْضَ مَدَدْنٰهَا وَاَلْقَيْنَا فِيْهَا رَوَاسِيَ |
ज़मीन के यह लंगर पहाड़ हैं जिनके बारे में क़ुरान बार-बार कहता है कि यह ज़मीन की हरकत को मुतवाज़न रखने (Isostasy) का एक ज़रिया हैं।
“और उसमें उगा दी हमने हर शय ठीक अंदाज़े के मुताबिक़।” | وَاَنْۢبَتْنَا فِيْهَا مِنْ كُلِّ شَيْءٍ مَّوْزُوْنٍ 19 |
कायनात के इस ख़ुदाई निज़ाम में हर चीज़ की मिक़दार और तादाद उस हद तक ही रखी गई है जिस हद तक उसकी ज़रुरत है। अगर कोई चीज़ उस मुक़र्रर हद से बढ़ेगी तो इस निज़ाम में खलल का बाइस बनेगी। मसलन बाज़ मछलियों के अंडों की तादाद लाखों में होती है। यह तमाम अंडें अगर मछलियाँ बन जायें तो चंद ही सालों में एक मछली की औलाद इस ज़मीन के हुज्म (मात्रा) से भी कई गुना ज़्यादा बढ़ जाये। बहरहाल इस कायनात के निज़ाम को दुरुस्त रखने के लिए अल्लाह तआला की तरफ़ से हर चीज़ को एक तयशुदा अंदाज़े और ज़रुरत के मुताबिक़ रखा गया है।
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आयत 20
“और हमने बनाए हैं तुम्हारे लिए इस ज़मीन में ज़राए मआश (उनके लिए भी) जिन्हें तुम रिज्क़ नहीं देते।” | وَجَعَلْنَا لَكُمْ فِيْهَا مَعَايِشَ وَمَنْ لَّسْتُمْ لَهٗ بِرٰزِقِيْنَ 20 |
कुछ मख़्लूक़ तो ऐसी है जिसकी रोज़ी और खाने-पीने का इंतेज़ाम बज़ाहिर इंसानों के ज़िम्मेदारी है, जैसे पालतु जानवर, मगर बहुत सी मख्लूक़ात ऐसी हैं जिनके रिज़्क़ की ज़िम्मेदारी इंसानों पर नहीं है, मगर अल्लाह उन सबको उनके हिस्से का रिज़्क़ बाहम (परस्पर) पहुँचा रहा है।
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आयत 21
“और नहीं है कोई शय मगर हमारे पास हैं उसके ख़ज़ाने” | وَاِنْ مِّنْ شَيْءٍ اِلَّا عِنْدَنَا خَزَاۗىِٕنُهٗ ۡ |
कोई शय ऐसी नहीं है जिसके ख़ज़ाने हमारे पास ना हों। हमारे ख़ज़ाने और वसाइल ला-महदूद हैं, लेकिन:
“हम नाज़िल करते उसमें से मगर एक तयशुदा अंदाज़े के मुताबिक़।” | وَمَا نُنَزِّلُهٗٓ اِلَّا بِقَدَرٍ مَّعْلُوْمٍ 21 |
उन लामुतनाही और ला-महदूदी (Endless & Unlimited) ख़ज़ानों से सिर्फ़ ज़रुरत के मुताबिक़ अश्या (चीज़ें) दुनिया में भेजी जाती हैं। जैसे हमारे यहाँ बड़े-बड़े गोदामों से ज़रुरत के मुताबिक़ चीज़ों की तरसील की जाती है।
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आयत 22
“और हम भेजतें हैं हवाएँ जो बोझल होती हैं (या बोझल करने वाली होतीं हैं)” | وَاَرْسَلْنَا الرِّيٰحَ لَوَاقِحَ |
لَوَاقِحَ का मफ़हूम पहले तो यही समझा जाता था कि ये हवाएँ बादलों को उठा कर लाती हैं और बारिश का सबब बनती हैं, लेकिन अब जदीद साइंसी तहक़ीक़ से मालूम हुआ कि (polen grains) भी हवाओं के ज़रिए मुन्तक़िल होते हैं जिनसे फूलों की फर्टीलाइज़ेशन होती है, जिसके नतीजे में फ़सलें और फल पैदा होते हैं। यूँ यह सारा नबाताती निज़ाम (वनस्पति विज्ञान) भी हवाओं की वजह से चल रहा है।
“पस हमने उतारा आसमान से पानी फिर वो तुम लोगों को पिलाया।” | فَاَنْزَلْنَا مِنَ السَّمَاۗءِ مَاۗءً فَاَسْقَيْنٰكُمُوْهُ ۚ |
पानी मबदा-ए-हयात है। ज़मीन पर हर तरह की ज़िन्दगी के वजूद का मिम्बा और सरचश्मा भी पानी है और फिर पानी पर ही ज़िन्दगी की बक़ा का इन्हसार भी है। पानी की इस अहमियत के पेशेनज़र अल्लाह तआला ने इसकी तक़सीम व तरसील का एक लगा-बंधा निज़ाम वज़अ किया है जिसे आज की साइंस ने वाटर साइकिल का नाम दिया है। वाटर साइकिल का यह अज़ीमुश्शान निज़ाम अल्लाह तआला के अजाईबात मे से है। समुद्रों से हवाओं तक बुखारात पहुँचा कर बारिश और बर्फ़बारी का इंतेज़ाम, ग्लैशियर्स की शक्ल में बुलंद व बाला पहाड़ों पर वाटर स्टोरेज का अहतमाम, फिर चश्मों, नदी-नालों और दरियाओं के ज़रिए से इस पानी की वसीअ व अरीज़ मैदानी इलाक़ों तक रसाई और ज़ेरेज़मीन पानी का अज़ीमुश्शान ज़खीरा। यह अल्लाह तआला का वज़अ करदा वाटर साइकिल है जिस पर पूरी दुनिया में हर क़िस्म की ज़िन्दगी का दारोमदार है।
“और तुम इसके जमा करने वाले नहीं हो।” | وَمَآ اَنْتُمْ لَهٗ بِخٰزِنِيْنَ 22 |
यह तुम्हारे बस में ना था कि तुम पानी के इस ज़खीरे को जमा करते।
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आयत 23
“और यक़ीनन हम ही हैं जो ज़िन्दा भी रखते हैं और मौत भी वारिद करते हैं और हम ही वारिस होंगे।” | وَاِنَّا لَنَحْنُ نُـحْيٖ وَنُمِيْتُ وَنَحْنُ الْوٰرِثُوْنَ 23 |
यह कायनात और इसकी हर चीज़ अल्लाह ही की मिल्कियत है। एक वक़्त आयेगा जब ज़ाहिरी मिल्कियत का भी कोई दावेदार बाक़ी नहीं रहेगा।
आयत 24
“और हम जानते हैं तुममें से आगे बढ़ने वालों को भी और जानते हैं पीछे रहने वालों को भी।” | وَلَقَدْ عَلِمْنَا الْمُسْتَقْدِمِيْنَ مِنْكُمْ وَلَقَدْ عَلِمْنَا الْمُسْتَاْخِرِيْنَ 24 |
चूँकि यह नुबूवत के बिल्कुल इब्तदाई ज़माने की सूरत है इसलिए फ़रमाया जा रहा है कि हम जानते हैं उन लोगों को जो हक़ की इस दावत पर फ़ौरन लब्बैक कहेंगे और आगे बढ़ कर क़ुरान को सीनों से लगायेंगे। हम जानते हैं कि { وَالسّٰبِقُوْنَ الْاَوَّلُوْنَ مِنَ الْمُهٰجِرِيْنَ وَالْاَنْصَارِ وَالَّذِيْنَ اتَّبَعُوْھُمْ بِاِحْسَانٍ ۙ } (अत्तौबा:100) के मिस्दाक़ कौन लोग होंगे। हमें मालूम है कि अबुबकर (रज़ि.) क़ुबूले हक़ के लिए एक लम्हें की देर नहीं लगायेगा। हम यह भी जानते हैं कि उस्मान (रज़ि.) भी इस दावत को फ़ौरन क़ुबूल कर लेगा। यह भी हमारे इल्म में है कि अबुबकर (रज़ि.) की तब्लीग से तल्हा, ज़ुबैर, अब्दुर्रहमान बिन औफ़ और सईद बिन ज़ैद (रज़ि.) जैसे लोग फ़ौरन ईमान ले आयेंगे, और हमें यह भी मालूम है वह कि कौन-कौन बदनसीब हैं जो इस सआदत को समेटने में पीछे रह जायेंगे।
आयत 25
“और यक़ीनन आपका रब ही है जो इन सब को जमा करेगा। यक़ीनन वो कमाल हिकमत वाला, खूब इल्म रखने वाला है।” | وَاِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَحْشُرُهُمْ ۭ اِنَّهٗ حَكِيْمٌ عَلِيْمٌ 25ۧ |
आयात 26 से 48 तक
وَلَقَدْ خَلَقْنَا الْاِنْسَانَ مِنْ صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ 26ۚ وَالْجَاۗنَّ خَلَقْنٰهُ مِنْ قَبْلُ مِنْ نَّارِ السَّمُوْمِ 27 وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنِّىْ خَالِقٌۢ بَشَرًا مِّنْ صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ 28 فَاِذَا سَوَّيْتُهٗ وَنَفَخْتُ فِيْهِ مِنْ رُّوْحِيْ فَقَعُوْا لَهٗ سٰجِدِيْنَ 29 فَسَجَدَ الْمَلٰۗىِٕكَةُ كُلُّهُمْ اَجْمَعُوْنَ 30ۙ اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ اَبٰٓى اَنْ يَّكُوْنَ مَعَ السّٰجِدِيْنَ 31 قَالَ يٰٓـاِبْلِيْسُ مَا لَكَ اَلَّا تَكُوْنَ مَعَ السّٰجِدِيْنَ 32 قَالَ لَمْ اَكُنْ لِّاَسْجُدَ لِبَشَرٍ خَلَقْتَهٗ مِنْ صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ 33 قَالَ فَاخْرُجْ مِنْهَا فَاِنَّكَ رَجِيْمٌ 34ۙ وَّاِنَّ عَلَيْكَ اللَّعْنَةَ اِلٰى يَوْمِ الدِّيْنِ 35 قَالَ رَبِّ فَاَنْظِرْنِيْٓ اِلٰى يَوْمِ يُبْعَثُوْنَ 36 قَالَ فَاِنَّكَ مِنَ الْمُنْظَرِيْنَ 37ۙ اِلٰى يَوْمِ الْوَقْتِ الْمَعْلُوْمِ 38 قَالَ رَبِّ بِمَآ اَغْوَيْتَنِيْ لَاُزَيِّنَنَّ لَهُمْ فِي الْاَرْضِ وَلَاُغْوِيَنَّهُمْ اَجْمَعِيْنَ 39ۙ اِلَّا عِبَادَكَ مِنْهُمُ الْمُخْلَصِيْنَ 40 قَالَ ھٰذَا صِرَاطٌ عَلَيَّ مُسْتَــقِيْمٌ 41 اِنَّ عِبَادِيْ لَيْسَ لَكَ عَلَيْهِمْ سُلْطٰنٌ اِلَّا مَنِ اتَّبَعَكَ مِنَ الْغٰوِيْنَ 42 وَاِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوْعِدُهُمْ اَجْمَعِيْنَ 43ڐ لَهَا سَبْعَةُ اَبْوَابٍ ۭ لِكُلِّ بَابٍ مِّنْهُمْ جُزْءٌ مَّقْسُوْمٌ 44ۧ اِنَّ الْمُتَّقِيْنَ فِيْ جَنّٰتٍ وَّعُيُوْنٍ 45ۭ اُدْخُلُوْهَا بِسَلٰمٍ اٰمِنِيْنَ 46 وَنَزَعْنَا مَا فِيْ صُدُوْرِهِمْ مِّنْ غِلٍّ اِخْوَانًا عَلٰي سُرُرٍ مُّتَقٰبِلِيْنَ 47 لَا يَمَسُّهُمْ فِيْهَا نَصَبٌ وَّمَا هُمْ مِّنْهَا بِمُخْرَجِيْنَ 48
आयत 26
“और यक़ीनन हमने बनाया है इंसान को सने हुए गारे की खनखनाती हुई मिट्टी से।” | وَلَقَدْ خَلَقْنَا الْاِنْسَانَ مِنْ صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ 26ۚ |
حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ से सना हुआ गारा मुराद है, जिससे बदबु भी उठ रही हो। इस रुकूअ में यह सक़ील इस्तलाह तीन मर्तबा इस्तेमाल हुई है। इंसान के माद्दा-ए-तख़्लीक़ के हवाले से क़ुरान में जो मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, उन पर ग़ौरो-फिक्र करने की ज़रूरत है। सबसे पहले मरहले पर तुराब यानि मिट्टी का ज़िक्र है, चुनाँचे फ़रमाया { وَمِنْ اٰيٰتِهٖٓ اَنْ خَلَقَكُمْ مِّنْ تُرَابٍ} (रूम:20)। मिट्टी में पानी मिलकर गारा बन जाये तो इस गारे को अरबी में “طِین” कहते हैं। लिहाज़ा इंसान की तख़्लीक़ के सिलसले में तीन का ज़िक्र भी क़ुरान में मुतअद्दिद बार हुआ है। सूरतुल आराफ़ में हम शैतान का यह क़ौल पढ़ आये हैं: { خَلَقْتَنِيْ مِنْ نَّارٍ وَّخَلَقْتَهٗ مِنْ طِيْنٍ} (आयत 12) “मुझे तूने बनाया आग से और इस (आदम) को बनाया मिट्टी से।” तीन के बाद “طِین لازب” का मरहला है। सूरह अस्साफ्फ़ात में फ़रमाया गया: { اِنَّا خَلَقْنٰهُمْ مِّنْ طِيْنٍ لَّازِبٍ} (आयत 11) “طِین لازب” असल में वह गारा है जो अमल-ए-तख़मीर (fermentation) की वजह से लेसदार हो चुका हो। आम तौर पर गारे में कोई organic matter भूसा वगैरह मिलाने से उसकी यह शक्ल बनती है। “طِین لازب” के बाद अगला मरहला “حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ” का है। अगर लेसदार गारा ज़्यादा देर तक पड़ा रहे और उसमें सड़ेंध पैदा हो जाये तो इसको “حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ” कहा जाता है। फिर अगर यह सना हुआ गारा (حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ) ख़ुश्क होकर सख़्त हो जाये तो यह खनकने लगता है। आपने किसी दरिया के साहिल के क़रीब या किसी दलदली इलाक़े में देखा होगा कि ज़मीन के ऊपर खुश्क पपड़ी सी आ जाती है, जिस पर चलने से यह आवाज़ पैदा करके टूटती है। ऐसी मिट्टी के लिए क़ुरान ने “صَلْصَالٍ كَالْفَخَّارِ” (अर्रहमान:14) की इस्तलाह इस्तेमाल की है, यानि ठीकरे जैसी खनखनाती मिट्टी।
इंसान के माद्दा-ए-तख़्लीक़ के लिये मन्दर्जा बाला तमाम अल्फ़ाज़ में से एक बुनियादी लफ़्ज़ ही किफ़ायत कर सकता था कि हमने इंसान को मिट्टी से बनाया, लेकिन इस ज़िमन में इन मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ (तुराब, तीन, तीने लाज़िब, सलसालिन मिन हमाइन मसनून और सलसालिन कलफख्खार) के इस्तेमाल में यक़ीनन कोई हिकमत कारफ़रमा होगी। मुमकिन है यह तख़्लीक़ के मुख़्तलिफ़ मराहिल (stages) का ज़िक्र हो और अगर ऐसा है तो नज़रिया -ए-इरतक़ाअ (Evolution Theory) के साथ भी इसकी तत्बीक़ (corroboration) होती नज़र आ रही है। इंसान की तख़्लीक़ अगर खुसूसी तौर पर भी अमल में आई हो तो हो सकता है कि बाक़ी हैवानात इरतक़ाई अंदाज़ में पैदा किए गये हों। बहरहाल ज़मीन की हैवानी हयात के बारे में साइंस भी क़ुरान से मुत्तफ़िक़ है कि यह तमाम मख़्लूक़ मिट्टी और पानी से बनी है। इधर क़ुरान फ़रमाता है कि मब्दा-ए-हयात पानी है और इस सिलसिले में साइंस का नज़रिया भी यही है कि साहिली इलाक़ों में मिट्टी और पानी के इतसाल (मिलने) से दलदल बनी, फिर उस दलदल के अंदर अमल-ए-तखमीर (fermentation) के ज़रिये सड़ेंध पैदा हुई तो वहाँ एलजी (Algai) या अमीबा (Amoeba) की सूरत में नबाताती या हैवानी हयात का आग़ाज़ हुआ। चुनाँचे साइंसी तहक़ीक़ यहाँ क़ुरान से इत्तेफ़ाक़ करती नज़र आती है, गोया: “मुत्तफ़िक़ गर दीद राए बू अली बाराए मन!”
आयत 27
“और जिन्नात को हमने पैदा किया था उससे पहले आग की लपट से।” | وَالْجَاۗنَّ خَلَقْنٰهُ مِنْ قَبْلُ مِنْ نَّارِ السَّمُوْمِ 27 |
यह लफ्ज़ “समूम” उर्दू में भी मारूफ़ है। मौसम गर्मा में सहरा में चलने वाली तेज़ गर्म हवा को बादे समूम कहते हैं। आग के शोले का वो हिस्सा जो बज़ाहिर नज़र आता है उसके गिर्द हाले की शक्ल में उसका वो हिस्सा होता है जो आमतौर पर नज़र नहीं आता। शोले के इस नज़र ना आने वाले हिस्से का दर्जा-ए-हरारत निस्बतन ज़्यादा होता है। यहाँ “नारे समूम” से मुराद आग की वही लपट या लौ मुराद है जो शदीद गर्म होती है और उसी से जिन्नात को पैदा किया गया है। यहाँ एक नुक्ता यह भी मद्देनज़र रहना चाहिए कि जिन्नात को अगरचे आग से पैदा किया गया है मगर वो आग नहीं हैं। बिल्कुल इसी तरह जैसे हमें मिट्टी से पैदा किया गया है मगर हम मिट्टी नहीं हैं। दूसरी अहम बात यहाँ यह वाज़ेह हुई कि जिन्नात को इंसानों से बहुत पहले पैदा किया गया था।
आयत 28
“और याद करो जब कहा था आप ﷺ के रब ने फ़रिश्तों से कि मैं बनाने वाला हूँ एक बशर को सने हुए गारे की खनखनाती मिट्टी से।” | وَاِذْ قَالَ رَبُّكَ لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اِنِّىْ خَالِقٌۢ بَشَرًا مِّنْ صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ 28 |
यहाँ फिर वही सक़ील इस्तलाह (صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ) इस्तेमाल हुई है। इंसानी तख्लीक़ की इब्तदा के बारे में एक नुक्ता यह भी लायक़-ए-तवज्जोह है कि क़ुरान में जहाँ भी तख्लीक़ के इन इब्तदाई मराहिल का ज़िक्र आया है, वहाँ लफ्ज़ आदम इस्तेमाल नहीं हुआ, बल्कि बशर और इंसान के अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। पूरे क़ुरान में सिर्फ़ सूरह आले इमरान की आयत 59 ऐसी है जहाँ इब्तदाई तख्लीक़ के ज़िमन में आदम अलै० का ज़िक्र इस तरह आया है: { اِنَّ مَثَلَ عِيْسٰى عِنْدَ اللّٰهِ كَمَثَلِ اٰدَمَ ۭخَلَقَهٗ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ} “यक़ीनन ईसा अलै० की मिसाल अल्लाह के नज़दीक आदम की सी है। उसको मिट्टी से बनाया, फिर कहा हो जा तो वह हो गया।”
आयत 29
“फिर जब मैं उसे पूरी तरह दुरुस्त कर दूँ” | فَاِذَا سَوَّيْتُهٗ |
किसी भी तख्लीक़ के बाद उसका तस्विया ज़रुरी होता है। पहले बुनियादी ढाँचा बनाया जाता है और फिर उसकी नोक पलक सँवारी जाती है। जैसे एक इमारत का ढ़ाँचा खड़ा करने के बाद उसकी आराईश व ज़ेबाईश की जाती है और रंग व रोगन का अहतमाम किया जाता है।
“और फूँक दूँ मैं उसमें अपनी रूह में से, तो गिर पड़ना उसके लिए सज्दे में।” | وَنَفَخْتُ فِيْهِ مِنْ رُّوْحِيْ فَقَعُوْا لَهٗ سٰجِدِيْنَ 29 |
आयत 30
“तो सज्दा किया तमाम फरिश्तों ने मिल कर।” | فَسَجَدَ الْمَلٰۗىِٕكَةُ كُلُّهُمْ اَجْمَعُوْنَ 30ۙ |
كُلُّهُمْ اَجْمَعُوْنَ में बहुत ताकीद पाई जाती है कि सबके सब ने इकठ्ठे होकर सज्दा किया, और उनमें से कोई भी मुस्तस्ना (अलग) ना रहा। जिब्रील, मीकाईल, इसराफ़ील, अज़राईल समेत सब झुक गये, कोई भी पीछे ना रहा। फ़रिश्तों के साथ ज़िक्र आने की वजह से गुमान होता है कि जैसे इब्लीस भी फरिश्ता था, मगर वह फरिश्ता नहीं था, जैसा कि सूरतुल कहफ़ की आयत 50 में “كَانَ مِنَ الْجِنِّ” फ़रमा कर वाज़ेह कर दिया गया कि वह जिन्नात में से था।
आयत 31
“सिवाय इब्लीस के, उसने इंकार किया सज्दा करने वालों के साथ होने से।” | اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ اَبٰٓى اَنْ يَّكُوْنَ مَعَ السّٰجِدِيْنَ 31 |
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आयत 32
“अल्लाह ने फ़रमाया: ऐ इब्लीस क्या हुआ तुझे कि तू नहीं हुआ सज्दा करने वालों के साथ?” | قَالَ يٰٓـاِبْلِيْسُ مَا لَكَ اَلَّا تَكُوْنَ مَعَ السّٰجِدِيْنَ 32 |
आयत 33
“उसने कहा: मेरे लिए रवा नहीं है कि सज्दा करूँ उस बशर को जिसे तूने पैदा किया है सने हुए गारे की खनखनाती मिट्टी से।” | قَالَ لَمْ اَكُنْ لِّاَسْجُدَ لِبَشَرٍ خَلَقْتَهٗ مِنْ صَلْصَالٍ مِّنْ حَمَاٍ مَّسْنُوْنٍ 33 |
आयत 34
“अल्लाह ने फ़रमाया: बस निकल जा इसमें से, तू यक़ीनन मरदूद हो चुका है।” | قَالَ فَاخْرُجْ مِنْهَا فَاِنَّكَ رَجِيْمٌ 34ۙ |
आदम को सज्दा करने के हुक्मे इलाही का इंकार करके तू रानदाह-ए-दरगाह हो चुका है। अब यहाँ से फ़िल फ़ौर निकल जा!
आयत 35
“और यक़ीनन तुझ पर लानत रहेगी रोज़-ए-जज़ा तक।” | وَّاِنَّ عَلَيْكَ اللَّعْنَةَ اِلٰى يَوْمِ الدِّيْنِ 35 |
आयत 36
“उसने अर्ज़ की कि ऐ मेरे परवरदिग़ार! मुझे मोहलत दे दे उस दिन तक जब यह दोबारा उठाए जायेंगे।” | قَالَ رَبِّ فَاَنْظِرْنِيْٓ اِلٰى يَوْمِ يُبْعَثُوْنَ 36 |
आयत 37
“अल्लाह ने फ़रमाया (जा) तुझे मोहलत दे दी गई।” | قَالَ فَاِنَّكَ مِنَ الْمُنْظَرِيْنَ 37ۙ |
आयत 38
“वक़्ते मुअय्यन के दिन तक।” | اِلٰى يَوْمِ الْوَقْتِ الْمَعْلُوْمِ 38 |
यानि रोज़े क़यामत तक तू ज़िन्दा रहेगा। वैसे तो जिन्नों की उम्रें इंसानों से काफ़ी ज़्यादा होती होंगी मगर ऐसा कोई जिन्न भी नहीं है जो इस इब्तदाई तख्लीक़ के वक़्त से लेकर आज तक ज़िन्दा हो, मा सिवाय उस एक जिन्न के जिसका नाम अज़ाज़ील है। बाक़ी उसकी औलाद और ज़ुर्रियत अपनी जगह है।
आयत 39
“उसने कहा: ऐ मेरे परवरदिगार! चूँकि तूने मुझे गुमराह किया है।” | قَالَ رَبِّ بِمَآ اَغْوَيْتَنِيْ |
यहाँ यह नुक्ता क़ाबिले ग़ौर है कि इब्लीस अपनी इस गुमराही को अल्लाह तआला की तरफ़ मन्सूब कर रहा है।
“मैं यक़ीनन मुज़य्यन कर दूँगा इनके लिए ज़मीन में (दुनिया को) और मैं ज़रूर गुमराह करूँगा इन सबको।” | لَاُزَيِّنَنَّ لَهُمْ فِي الْاَرْضِ وَلَاُغْوِيَنَّهُمْ اَجْمَعِيْنَ 39ۙ |
कि मैं औलादे आदम के लिए ज़मीन में दुनिया की रौनाक़ों और उसकी आराईश व ज़ेबाईश को इस हद तक पुरकशिश बना दूँगा कि वो उसमें गुम होकर आपको और आपके अहकाम को भूल जायेंगे। इस तरह मैं उन सबको आपके सीधे रास्ते से गुमराह करके छोडूँगा।
आयत 40
“सिवाय तेरे उन बंदों के जिनको तू उनमें से (अपने लिए) ख़ालिस कर ले।” | اِلَّا عِبَادَكَ مِنْهُمُ الْمُخْلَصِيْنَ 40 |
مُخْلَصِيْنَ (लाम की ज़बर के साथ) से मुराद वो बंदे हैं जिन्हें अल्लाह ख़ास अपने लिए चुन ले, यानि अल्लाह के महबूब और बरगज़ीदा बंदे। अल्लाह के ऐसे बन्दों के बारे में शैतान का ऐतराफ़ है कि उन पर मेरा ज़ोर नहीं चलेगा।
आयत 41
“अल्लाह ने फ़रमाया कि यह एक सीधा रास्ता है जो मुझ तक पहुँचाने वाला है।” | قَالَ ھٰذَا صِرَاطٌ عَلَيَّ مُسْتَــقِيْمٌ 41 |
यानि मेरे और तुम्हारे दरमियान यह मामला तय हो गया, तुम्हें मोहलत दे दी गई। मुझ तक पहुँचने का रास्ता बिल्कुल वाज़ेह है। तुम औलादे आदम को इस रास्ते से बहकाने के लिए अपना ज़ोर आज़मा लो।
आयत 42
“यक़ीनन मेरे बंदों पर तुझे कोई इख़्तियार नहीं होगा” | اِنَّ عِبَادِيْ لَيْسَ لَكَ عَلَيْهِمْ سُلْطٰنٌ |
यानि सिर्फ़ “مُخْلَصِيْنَ” ही की तख्सीस नहीं है बल्कि किसी इंसान पर भी तुझे इख़्तियार नहीं होगा।
“सिवाय उनके जो खुद तेरी पैरवी करें गुमराहों में से।” | اِلَّا مَنِ اتَّبَعَكَ مِنَ الْغٰوِيْنَ 42 |
जो लोग “गावीन” में से होंगे, खुद उनके अंदर सरकशी होगी, वो खुद अपनी नफ्सपरस्ती की तरफ़ मायल होकर तेरी पैरवी करेंगे, उनको ले जाकर तू गुमराही के जिस गड्ढ़े में चाहे फेंक दे और जहन्नम की जिस वादी में चाहे उनको गिरा दे, मुझे उनसे कोई दिलचस्पी नहीं। लेकिन मेरे किसी फ़रमा-बरदार बंदे पर तुझे कोई इख़्तियार हासिल नहीं होगा।
आयत 43
“और यक़ीनन जहन्नम ही उन सबका मौऊद (वादा किया हुआ) ठिकाना है।” | وَاِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوْعِدُهُمْ اَجْمَعِيْنَ 43ڐ |
जो लोग भी तेरी पैरवी करेंगे, उन सबके लिए जहन्नम का वादा है।
आयत 44
“इस (जहन्नम) के सात दरवाज़े हैं, उनमें से हर दरवाज़े का एक हिस्सा है मुक़र्रर शुदा।” | لَهَا سَبْعَةُ اَبْوَابٍ ۭ لِكُلِّ بَابٍ مِّنْهُمْ جُزْءٌ مَّقْسُوْمٌ 44ۧ |
जहन्नम के हर दरवाज़े में से दाखिल होने वाले जिन्नों और इंसानों को मख़सूस कर दिया गया है। मुमकिन है दरवाज़ों की यह तक़्सीम व तख्सीस गुनाहों की नौइयत के ऐतबार से हो। वल्लाहु आलम!
अहले जहन्नम के ज़िक्र के बाद अब अहले जन्नत का ज़िक्र होने जा रहा है। मुवाज़ने और फ़ौरी तक़ाबुल (simultaneos contrast) का यह अंदाज़ व असलूब क़ुरान में हमें जगह-जगह मिलता है।
आयत 45
“(इसके बरअक्स) यक़ीनन मुत्तक़ी लोग होंगे बागात और चश्मों में।” | اِنَّ الْمُتَّقِيْنَ فِيْ جَنّٰتٍ وَّعُيُوْنٍ 45ۭ |
आयत 46
“(उनसे कहा जायेगा कि) तुम दाख़िल हो जाओ इन (बागात) में सलामती के साथ बेख़ौफ व ख़तर।” | اُدْخُلُوْهَا بِسَلٰمٍ اٰمِنِيْنَ 46 |
यहाँ तुम हर तरह से अमन में रहोगे, तुम्हें किसी क़िस्म का कोई अंदेशा नहीं होगा।
आयत 47
“और हम निकाल देंगे उनके सीनों में से जो कुछ भी कदूरत होगी” | وَنَزَعْنَا مَا فِيْ صُدُوْرِهِمْ مِّنْ غِلٍّ |
यह मज़मून बिल्कुल इन्हीं अल्फ़ाज़ में सूरतुल आराफ़ (आयत 43) में भी आ चुका है। अहले ईमान की आपस की रंजिश, कदूरतें और शिकायतें ख़त्म करके उनके दिलों को हर क़िस्म के तकद्दुर से पाक कर दिया जायेगा।
“भाई-भाई (बन कर वो बैठे होंगे) तख़्तों पर आमने-सामने।” | اِخْوَانًا عَلٰي سُرُرٍ مُّتَقٰبِلِيْنَ 47 |
जब किसी से नाराज़गी हो तो आदमी आँखे चार नहीं करता, लेकिन अहले जन्नत के दिल चूँकि एक-दूसरे की तरफ़ से बिल्कुल साफ होंगे, इसलिए वो आमने-सामने बैठ कर एक-दूसरे से बातें कर रहे होंगे।
आयत 48
“नहीं पहुँचेगी उन्हें उसमें कोई थकान, और ना ही वो उसमें से निकाले जायेंगे।” | لَا يَمَسُّهُمْ فِيْهَا نَصَبٌ وَّمَا هُمْ مِّنْهَا بِمُخْرَجِيْنَ 48 |
अहले जन्नत को जन्नत में दाख़िल होने के बाद वहाँ से निकाले जाने का खटका नहीं होगा और ना ही उसमें उन्हें किसी क़िस्म की कोई तकलीफ़ या परेशानी होगी।
आयात 49 से 84 तक
نَبِّئْ عِبَادِيْٓ اَنِّىْٓ اَنَا الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ 49ۙ وَاَنَّ عَذَابِيْ هُوَ الْعَذَابُ الْاَلِيْمُ 50 وَنَبِّئْهُمْ عَنْ ضَيْفِ اِبْرٰهِيْمَ 51ۘ اِذْ دَخَلُوْا عَلَيْهِ فَقَالُوْا سَلٰمًا ۭ قَالَ اِنَّا مِنْكُمْ وَجِلُوْنَ 52 قَالُوْا لَا تَوْجَلْ اِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلٰمٍ عَلِيْمٍ 53 قَالَ اَبَشَّرْتُمُوْنِيْ عَلٰٓي اَنْ مَّسَّنِيَ الْكِبَرُ فَبِمَ تُبَشِّرُوْنَ 54 قَالُوْا بَشَّرْنٰكَ بِالْحَقِّ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْقٰنِطِيْنَ 55 قَالَ وَمَنْ يَّقْنَطُ مِنْ رَّحْمَةِ رَبِّهٖٓ اِلَّا الضَّاۗلُّوْنَ 56 قَالَ فَمَا خَطْبُكُمْ اَيُّهَا الْمُرْسَلُوْنَ 57 قَالُوْٓا اِنَّآ اُرْسِلْنَآ اِلٰى قَوْمٍ مُّجْرِمِيْنَ 58ۙ اِلَّآ اٰلَ لُوْطٍ ۭ اِنَّا لَمُنَجُّوْهُمْ اَجْمَعِيْنَ 59ۙ اِلَّا امْرَاَتَهٗ قَدَّرْنَآ ۙاِنَّهَا لَمِنَ الْغٰبِرِيْنَ 60ۧ فَلَمَّا جَاۗءَ اٰلَ لُوْطِۨ الْمُرْسَلُوْنَ 61ۙ قَالَ اِنَّكُمْ قَوْمٌ مُّنْكَرُوْنَ 62 قَالُوْا بَلْ جِئْنٰكَ بِمَا كَانُوْا فِيْهِ يَمْتَرُوْنَ 63 وَاَتَيْنٰكَ بِالْحَقِّ وَاِنَّا لَصٰدِقُوْنَ 64 فَاَسْرِ بِاَهْلِكَ بِقِطْعٍ مِّنَ الَّيْلِ وَاتَّبِعْ اَدْبَارَهُمْ وَلَا يَلْتَفِتْ مِنْكُمْ اَحَدٌ وَّامْضُوْا حَيْثُ تُؤْمَرُوْنَ 65 وَقَضَيْنَآ اِلَيْهِ ذٰلِكَ الْاَمْرَ اَنَّ دَابِرَ هٰٓؤُلَاۗءِ مَقْطُوْعٌ مُّصْبِحِيْنَ 66 وَجَاۗءَ اَهْلُ الْمَدِيْنَةِ يَسْـتَبْشِرُوْنَ 67 قَالَ اِنَّ هٰٓؤُلَاۗءِ ضَيْفِيْ فَلَا تَفْضَحُوْنِ 68ۙ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَلَا تُخْــزُوْنِ 69 قَالُوْٓا اَوَلَمْ نَــنْهَكَ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ 70 قَالَ هٰٓؤُلَاۗءِ بَنٰتِيْٓ اِنْ كُنْتُمْ فٰعِلِيْنَ 71ۭ لَعَمْرُكَ اِنَّهُمْ لَفِيْ سَكْرَتِهِمْ يَعْمَهُوْنَ 72 فَاَخَذَتْهُمُ الصَّيْحَةُ مُشْرِقِيْنَ 73ۙ فَجَعَلْنَا عَالِيَهَا سَافِلَهَا وَاَمْطَرْنَا عَلَيْهِمْ حِجَارَةً مِّنْ سِجِّيْلٍ 74ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّلْمُتَوَسِّمِيْنَ 75 وَاِنَّهَا لَبِسَبِيْلٍ مُّقِيْمٍ 76 اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّلْمُؤْمِنِيْنَ 77ۭ وَاِنْ كَانَ اَصْحٰبُ الْاَيْكَةِ لَظٰلِمِيْنَ 78ۙ فَانْتَقَمْنَا مِنْهُمْ ۘ وَاِنَّهُمَا لَبِاِمَامٍ مُّبِيْنٍ 79ۉ وَلَقَدْ كَذَّبَ اَصْحٰبُ الْحِـجْرِ الْمُرْسَلِيْنَ 80ۙ وَاٰتَيْنٰهُمْ اٰيٰتِنَا فَكَانُوْا عَنْهَا مُعْرِضِيْنَ 81ۙ وَكَانُوْا يَنْحِتُوْنَ مِنَ الْجِبَالِ بُيُوْتًا اٰمِنِيْنَ 82 فَاَخَذَتْهُمُ الصَّيْحَةُ مُصْبِحِيْنَ 83ۙ فَمَآ اَغْنٰى عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ 84ۭ
आयत 49
“(ऐ नबी! ﷺ) मेरे बंदों को बता दीजिए कि मैं यक़ीनन बहुत बख़्शने वाला, निहायत रहम करने वाला हूँ।” | نَبِّئْ عِبَادِيْٓ اَنِّىْٓ اَنَا الْغَفُوْرُ الرَّحِيْمُ 49ۙ |
आयत 50
“और यह कि मेरा अज़ाब भी बहुत दर्दनाक अज़ाब है।” | وَاَنَّ عَذَابِيْ هُوَ الْعَذَابُ الْاَلِيْمُ 50 |
यक़ीनन मैं गफ़ूर और रहीम हूँ, मगर दूसरी तरफ़ मेरा अज़ाब भी बहुत सख़्त होता है। लिहाज़ा कोई शख्स निडर और निश्चिन्त भी ना हो जाये, बल्कि मेरे बंदों को हर वक़्त “बैयनल खौफ़ वर्रिजा” की कैफ़ियत में रहना चाहिए। वो मेरी रहमत और मग़फ़िरत की उम्मीद भी रखें और मेरे अज़ाब से डरते भी रहें।
आयत 51
“और इन्हें ज़रा बताइये इब्राहीम अलै० के मेहमानों के बारे में।” | وَنَبِّئْهُمْ عَنْ ضَيْفِ اِبْرٰهِيْمَ 51ۘ |
यह वाक़िया थोड़े बहुत फर्क़ के साथ हम सूरह हूद के सातवें रुकूअ में भी पढ़ चुके हैं।
आयत 52
“जब वो दाख़िल हुए आप अलै. के यहाँ तो उन्होंने सलाम किया, आप अलै. ने कहा कि हमें तो तुमसे ख़ौफ़ आ रहा है।” | اِذْ دَخَلُوْا عَلَيْهِ فَقَالُوْا سَلٰمًا ۭ قَالَ اِنَّا مِنْكُمْ وَجِلُوْنَ 52 |
आपके अजनबी होने की वजह से हमें आपसे ख़द्शा है। लिहाज़ा बेहतर होगा आप लोग अपनी शिनाख़्त करवा दें।
आयत 53
“उन्होंने कहा कि डरिये नहीं, हम आपको एक साहिबे इल्म बेटे की बशारत देते हैं।” | قَالُوْا لَا تَوْجَلْ اِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلٰمٍ عَلِيْمٍ 53 |
फ़रिश्तों ने हज़रत इब्राहीम अलै. को हज़रत इस्हाक़ अलै. की विलादत की खुशख़बरी दी। हज़रत इस्माईल अलै. की विलादत इससे चंद बरस क़ब्ल हो चुकी थी। वाज़ेह रहे कि क़ुरान हकीम में हज़रत इस्माईल अलै. के लिये “गुलामुन हलीम” और हज़रत इस्हाक़ अलै. के लिये “गुलामुन अलीम” के अल्फ़ाज़ आते हैं।
आयत 54
“आप अलै. ने कहा कि क्या तुम मुझे खुशख़बरी दे रहे हो बावजूद इसके कि मुझ पर बुढ़ापा तारी हो चुका है, तो तुम मुझे यह कैसी खुशख़बरी दे रहे हो!” | قَالَ اَبَشَّرْتُمُوْنِيْ عَلٰٓي اَنْ مَّسَّنِيَ الْكِبَرُ فَبِمَ تُبَشِّرُوْنَ 54 |
अला यहाँ पर “अलल रग्म” के मफ़हूम में इस्तेमाल हुआ है कि मेरे बुढ़ापे के बावजूद तुम मुझे जो बेटे की खुशख़बरी दे रहे हो तो कहीं तुम लोगों को कोई मुगालता तो नहीं हो रहा?
आयत 55
“उन्होंने कहा कि हम आप अलै. को हक़ के साथ बशारत दे रहे हैं, तो आप नाउम्मीद लोगों में से ना हों।” | قَالُوْا بَشَّرْنٰكَ بِالْحَقِّ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْقٰنِطِيْنَ 55 |
उन्होंने बताया कि हम आपके रब की तरफ़ से भेजे गये हैं और यह जो बशारत हमने आपको दी है यह हक़ीक़ी और क़तई बात है, बिल्कुल ऐसा ही होगा।
आयत 56
“आप अलै. ने कहा कि कौन होगा जो अपने रब की रहमत से मायूस हो, सिवाय गुमराहों के!” | قَالَ وَمَنْ يَّقْنَطُ مِنْ رَّحْمَةِ رَبِّهٖٓ اِلَّا الضَّاۗلُّوْنَ 56 |
चुनाँचे अल्लाह तआला ने अपनी क़ुदरत और रहमत से हज़रत इब्राहीम अलै. को सत्तासी (87) बरस की उम्र में बेटा अता किया। इसी तरह का मामला हज़रत ज़करिया अलै. के साथ भी पेश आया। हज़रत ज़करिया अलै. की ज़ौजह-ए-मुहतरमा सारी उम्र बाँझ रहीं, मगर जब वो दोनों मियाँ-बीवी बहुत बूढ़े हो चुके थे तो अल्लाह ने उन्हें बेटा (हज़रत याहिया अलै.) अता किया।
आयत 57
“आप अलै. ने पूछा: फरिस्तादो! तुम्हारी क्या मुहिम है?” | قَالَ فَمَا خَطْبُكُمْ اَيُّهَا الْمُرْسَلُوْنَ 57 |
अब हज़रत इब्राहीम अलै. ने उनसे पूछ ही लिया कि आप लोगों के यहाँ आने का क्या मक़सद है? आपको क्या मुहिम दरपेश है?
आयत 58
“उन्होंने कहा कि हमें भेजा गया है एक मुज़रिम क़ौम की तरफ़।” | قَالُوْٓا اِنَّآ اُرْسِلْنَآ اِلٰى قَوْمٍ مُّجْرِمِيْنَ 58ۙ |
आयत 59
“सिवाय आले लूत अलै. के, उन सबको हम ज़रूर बचा लेंगे।” | اِلَّآ اٰلَ لُوْطٍ ۭ اِنَّا لَمُنَجُّوْهُمْ اَجْمَعِيْنَ 59ۙ |
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आयत 60
“सिवाय उनकी बीवी के, हमने अंदाज़ा ठहरा लिया है कि वो यक़ीनन पीछे रहने वालों में से होगी।” | اِلَّا امْرَاَتَهٗ قَدَّرْنَآ ۙاِنَّهَا لَمِنَ الْغٰبِرِيْنَ 60ۧ |
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आयत 61
“तो जब लूत अलै. के घर पहुँचे वो भेजे हुए।” | فَلَمَّا جَاۗءَ اٰلَ لُوْطِۨ الْمُرْسَلُوْنَ 61ۙ |
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आयत 62
“उस (लूत अलै.) ने कहा कि यक़ीनन तुम अजनबी लोग हो।” | قَالَ اِنَّكُمْ قَوْمٌ مُّنْكَرُوْنَ 62 |
हज़रत लूत अलै. ने देखा कि यह बिल्कुल अजनबी लोग हैं, तो उन्होंने पूछा कि आप लोग कौन हैं, और कहाँ से तशरीफ़ लाये हैं? आपकी तशरीफ़ आवरी का मक़सद क्या है?
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आयत 63
“उन्होंने कहा: बल्कि हम तो आपके पास वो शय लेकर आये हैं जिसके बारे में यह लोग शक में पड़े हुए थे।” | قَالُوْا بَلْ جِئْنٰكَ بِمَا كَانُوْا فِيْهِ يَمْتَرُوْنَ 63 |
हज़रत लूत अलै. जब अपनी क़ौम को मुतन्ब्बा (warn) करते थे कि अगर तुम लोग शिर्क से और इस फ़अले ख़बीस से बाज़ नहीं आओगे तो तुम पर अल्लाह का अज़ाब आयेगा, तो वो आप अलै. का मज़ाक उड़ाते थे, क्योकि उन्हें यक़ीन नहीं था कि उन पर वाक़ई अज़ाब आ जायेगा। फ़रिश्तों ने कहा कि आज हम वही अज़ाब लेकर आ गये हैं जिसके बारे में यह लोग शक में थे।
आयत 64
“और हम आये हैं आपके पास हक़ (क़तई फ़ैसले) के साथ और यक़ीनन हम सच्चे हैं।” | وَاَتَيْنٰكَ بِالْحَقِّ وَاِنَّا لَصٰدِقُوْنَ 64 |
आयत 65
“तो आप अपने घर वालों को ले जाइये रात के एक हिस्से में, और आप उनके पीछे-पीछे जाइये, और आप लोगों में से कोई भी पीछे मुड़ कर ना देखें” | فَاَسْرِ بِاَهْلِكَ بِقِطْعٍ مِّنَ الَّيْلِ وَاتَّبِعْ اَدْبَارَهُمْ وَلَا يَلْتَفِتْ مِنْكُمْ اَحَدٌ |
यानि आप लोग सुबह होने से पहले-पहले यहाँ से निकल जायें। पीछे रह जाने वालों के लिए अब दोस्ती और हमदर्दी जैसे जज़्बात का इज़हार किसी भी शक्ल में नहीं होनी चाहिए।
“और आप चले जाइये जहाँ आपको हुक्म हुआ है।” | وَّامْضُوْا حَيْثُ تُؤْمَرُوْنَ 65 |
आयत 66
“और हमने लूत अलै. को अपने इस फ़ैसले से आगाह कर दिया कि सुबह होते ही उन लोगों की जड़ काट दी जायेगी।” | وَقَضَيْنَآ اِلَيْهِ ذٰلِكَ الْاَمْرَ اَنَّ دَابِرَ هٰٓؤُلَاۗءِ مَقْطُوْعٌ مُّصْبِحِيْنَ 66 |
वहाँ से निकलने से पहले हज़रत लूत अलै. को बता दिया गया कि इस पूरी क़ौम को तहस-नहस कर दिया जायेगा और यहाँ कोई एक मुतनफ्फ़स भी नहीं बचेगा।
आयत 67
“और आये अहले शहर खुशियाँ मनाते हुए।” | وَجَاۗءَ اَهْلُ الْمَدِيْنَةِ يَسْـتَبْشِرُوْنَ 67 |
हज़रत लूत अलै. के यहाँ ख़ूबसूरत लड़कों को देख कर बद्क़माश क़िस्म के लोगों ने खुशी-खुशी आप अलै. के घर पर यलग़ार कर दी।
आयत 68
“लूत अलै. ने कहा: यह मेरे मेहमान हैं, चुनाँचे तुम लोग मुझे रुसवा ना करो।” | قَالَ اِنَّ هٰٓؤُلَاۗءِ ضَيْفِيْ فَلَا تَفْضَحُوْنِ 68ۙ |
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आयत 69
“अल्लाह से डरो और मुझे बेआबरू मत करो।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَلَا تُخْــزُوْنِ 69 |
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आयत 70
“उन्होंने कहा: क्या हमने आपको सब दुनिया वालों (की हिमायत में खड़े होने) से मना नहीं किया था?” | قَالُوْٓا اَوَلَمْ نَــنْهَكَ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ 70 |
क्या हम आपको मना नहीं कर चुके कि आप हर किसी की तरफ़दारी करते हुए हमारे मामले में दख़लअंदाज़ी ना किया करें। हम जिसके साथ जो चाहें करें, आप बीच में आने वाले कौन होते हैं?
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आयत 71
“आप अलै. ने कहा: यह मेरी बेटियाँ हैं अगर तुम्हें कुछ करना ही है।” | قَالَ هٰٓؤُلَاۗءِ بَنٰتِيْٓ اِنْ كُنْتُمْ فٰعِلِيْنَ 71ۭ |
क़ब्ल अज़ इस फ़िक़रे की वज़ाहत हो चुकी है। यानि मेरी क़ौम की बेटियाँ जो तुम्हारे घरों में मौजूद हैं उनकी तरफ़ रुजूअ करो। अल्लाह तआला ने उन्हें तुम्हारे लिए फ़ितरी साथी बनाया है। इस फ़िक़रे का दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि आप अलै. ने इत्मामे हुज्जत के लिए उनमें से दो सरदारों को यहाँ तक कह दिया हो कि अगर ऐसी ही बात है तो मैं अपनी बेटियों का निकाह तुमसे किए देता हूँ।
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आयत 72
“क़सम है आप अलै. की जान की, वो लोग अपनी इस बदमस्ती में बिल्कुल अंधे हो गये थे।” | لَعَمْرُكَ اِنَّهُمْ لَفِيْ سَكْرَتِهِمْ يَعْمَهُوْنَ 72 |
عمہ के माद्दे में दिल के अंधेपन का मफ़हूम पाया जाता है, यानि उन लोगों के दिल भलाई और बुराई की तमीज़ से बिल्कुल आरी हो गये थे।
आयत 73
“तो उन्हें आ पकड़ा एक चिंघाड़ ने उजाला होने के वक़्त।” | فَاَخَذَتْهُمُ الصَّيْحَةُ مُشْرِقِيْنَ 73ۙ |
यानि पौ फटते ही उन पर अल्लाह के अज़ाब का कौड़ा एक ज़बरदस्त चिंघाड़ के साथ टूट पड़ा।
आयत 74
“फिर हमने उसके ऊपर वाले हिस्से को बना दिया उसके निचले वाला, और हमने बरसाए उनके ऊपर पकी हुई मिट्टी के कंकर।” | فَجَعَلْنَا عَالِيَهَا سَافِلَهَا وَاَمْطَرْنَا عَلَيْهِمْ حِجَارَةً مِّنْ سِجِّيْلٍ 74ۭ |
यानि उन आबादियों को पूरी तरह तलपट कर दिया गया और उन पर संगे-गिल की बारिश बरसाई गई।
आयत 75
“यक़ीनन इसमें निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो हक़ के मुतलाशी होते हैं।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيٰتٍ لِّلْمُتَوَسِّمِيْنَ 75 |
مُتَوَسِّمِيْنَ से मुराद वो लोग हैं जो आयाते आफ़ाक़िया, आयाते तारीखिया, आयाते अन्फुसिया या आयाते क़ुरानिया के ज़रिये से हक़ीक़त को जानना और पहचानना चाहें। इस्म (असल मादा “و م س” है, अलिफ़ इसके हुरूफ़े असलिया में से नहीं है) के मायने अलामत के हैं। उर्दू में लफ्ज़ “इस्म” को नाम के मुतरादिफ़ के तौर पर जाना जाता है, इसलिये कि किसी चीज़ या शख़्स का नाम भी एक अलामत का काम देता है, जिससे उसकी पहचान होती है। लिहाज़ा जो असहाबे बसीरत अलामतों से मुतवस्सम (बाब तफ़अ्उल) होते हैं, उनके लिए ऐसे वाक़िआत में सामाने इबरत मौजूद है।
आयत 76
“और यह बस्तियाँ एक सीधी राह पर वाक़ेअ थीं।” | وَاِنَّهَا لَبِسَبِيْلٍ مُّقِيْمٍ 76 |
क़ौमे लूत की यह बस्तियाँ उस शाहराहे आम पर वाक़ेअ थीं जो यमन (बहीरह-ए-अरब) और शाम (बहीरह-ए-रोम) के साहिलों को आपस में मिलाती थी। मशरक़ी मुमालिक (हिन्दुस्तान, चीन, जावा, मलाया वग़ैरह) से यूरोप जाने के लिए जो सामान आता था वो यमन के साहिल पर उतारा जाता था और फिर उस रास्ते से तिजारती क़ाफिले उसे शाम और फ़लस्तीन के साहिल पर पहुँचा देते थे। इसी तरह यूरोप से मशरक़ी मुमालिक के लिए आने वाला सामान शाम के साहिल पर उतरता था और यही क़ाफिले उसे यमन के साहिल पर पहुँचाने का ज़रिया बनते थे। उस वक़्त नहर स्वेज़ भी नहीं बनी थी और “रास उम्मीद” वाला रास्ता (Around the Cape of Good Hope) भी दरयाफ्त नहीं हुआ था, जो वास्कोडिगामा ने 1498 ईस्वी मे तलाश किया। चुनाँचे यह शाहराह उस ज़माने में मशरिक़ और मग़रिब के दरमियान तिजारती राब्ते का वाहिद ज़रिया थी।
आयत 77
“यक़ीनन इसमें निशानी है अहले ईमान के लिए।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لِّلْمُؤْمِنِيْنَ 77ۭ |
आयत 78
“और बेशक बन वाले भी ज़ालिम थे।” | وَاِنْ كَانَ اَصْحٰبُ الْاَيْكَةِ لَظٰلِمِيْنَ 78ۙ |
“अस्हाबुल अयका” से अहले मदयन मुराद हैं। यह हज़रत शुऐब अलै. की क़ौम थी मगर यहाँ इस क़ौम का ज़िक्र करते हुए आप अलै. का नाम नहीं लाया गया। इन सब अक़वाम का तज़किरा यहाँ पर अंबिया अर्रुसुल के अंदाज़ में हो रहा है।
आयत 79
“तो उनसे भी हमने इन्तेक़ाम लिया। और यह दोनों बस्तियाँ भी खुले रास्ते पर वाक़ेअ थीं।” | فَانْتَقَمْنَا مِنْهُمْ ۘ وَاِنَّهُمَا لَبِاِمَامٍ مُّبِيْنٍ 79ۉ |
इससे मुराद वही तिजारती शाहराह है जिसका ज़िक्र अभी हुआ है। यह अस्हाबे हिज्र के मसाकन से भी होकर गुज़रती थी जबकि अहले मदयन की आबादियाँ और क़ौमे लूत अलै. की बस्तियाँ भी इसी शाहराह पर वाक़ेअ थीं।
आयत 80
“और (इसी तरह) हिज्र वालों ने भी मुर्सलीन को झुठलाया।” | وَلَقَدْ كَذَّبَ اَصْحٰبُ الْحِـجْرِ الْمُرْسَلِيْنَ 80ۙ |
अस्हाबे हिज्र से मुराद क़ौमे समूद है। क़ौमे समूद हिज्र के इलाक़े में आबाद थी और उनकी तरफ़ हज़रत सालेह अलै. मबऊस किए गये थे। जैसे हज़रत हूद अलै. की क़ौमे आद का ज़िक्र “अहक़ाफ़” के हवाले से भी हुआ है (मुलाहिज़ा हो सूरतुल अहक़ाफ़) जो उस क़ौम का इलाक़ा था, इसी तरह क़ौमे समूद का ज़िक्र यहाँ “अस्हाबुल हिज्र” के नाम से हुआ है। यहाँ पर “मुरसलीन” के लफ्ज़ से यह भी मालूम होता है कि इस क़ौम में पहले बहुत से अंबिया आये और फिर आखिर में रसूल की हैसियत से हज़रत सालेह अलै. तशरीफ़ लाये।
आयत 81
“और उन्हें हमने अपनी आयात अता कीं लेकिन वो उनसे ऐराज़ ही करते रहे।” | وَاٰتَيْنٰهُمْ اٰيٰتِنَا فَكَانُوْا عَنْهَا مُعْرِضِيْنَ 81ۙ |
क़ौमे समूद को बतौर ख़ास ऊँटनी की सूरत में हिस्सी मौअज्ज़ा दिखाया गया था कि एक चट्टान शक़ (फटी) हुई और उसके अंदर से एक खूबसूरत गाभिन ऊँटनी बरामद हो गई।
आयत 82
“और वो पहाड़ों को तराश कर घर बनाते थे, अमन व सुकून के साथ।” | وَكَانُوْا يَنْحِتُوْنَ مِنَ الْجِبَالِ بُيُوْتًا اٰمِنِيْنَ 82 |
क़ौमे समूद के यह घर आज भी मौजूद हैं और देखने वालों को दावते इबरत दे रहे हैं। मैंने खुद भी उनका मुशाहिदा किया है।
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आयत 83
“तो उन्हें आ पकड़ा एक चिंघाड़ ने सुबह के वक़्त।” | فَاَخَذَتْهُمُ الصَّيْحَةُ مُصْبِحِيْنَ 83ۙ |
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आयत 84
“तो कुछ काम ना आ सका उनके जो वो कमाते थे।” | فَمَآ اَغْنٰى عَنْهُمْ مَّا كَانُوْا يَكْسِبُوْنَ 84ۭ |
वो खुशहाल क़ौम थी मगर उन्होंने जो माल व असबाब जमा कर रखा था वो उन्हें अज़ाबे इलाही से बचाने के लिए कुछ भी मुफ़ीद साबित ना हो सका।
इस सूरह मुबारक में अब तक तीन रसूलों का ज़िक्र “अम्बिया अर्रुसुल” के अंदाज़ में हुआ है। उनमें से हज़रत शोऐब और हज़रत सालेह अलै. का नाम लिए बग़ैर उनकी क़ौमों का ज़िक्र किया गया है, जबकि हज़रत लूत अलै. का ज़िक्र नाम लेकर किया गया है। इसके बरअक्स हज़रत इब्राहीम अलै. का ज़िक्र यहाँ भी क़ससुन्नबिय्यीन के अंदाज़ में आया है, बिल्कुल उसी तरह जिस तरह सूरह हूद में आया था।
इस सूरह की आख़री पन्द्रह आयात दावते दीन के ऐतबार से बहुत अहम हैं।
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आयात 85 से 99 तक
وَمَا خَلَقْنَا السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَآ اِلَّا بِالْحَقِّ ۭ وَاِنَّ السَّاعَةَ لَاٰتِيَةٌ فَاصْفَحِ الصَّفْحَ الْجَمِيْلَ 85 اِنَّ رَبَّكَ هُوَ الْخَلّٰقُ الْعَلِيْمُ 86 وَلَقَدْ اٰتَيْنٰكَ سَبْعًا مِّنَ الْمَثَانِيْ وَالْقُرْاٰنَ الْعَظِيْمَ 87 لَا تَمُدَّنَّ عَيْنَيْكَ اِلٰى مَا مَتَّعْنَا بِهٖٓ اَزْوَاجًا مِّنْهُمْ وَلَا تَحْزَنْ عَلَيْهِمْ وَاخْفِضْ جَنَاحَكَ لِلْمُؤْمِنِيْنَ 88 وَقُلْ اِنِّىْٓ اَنَا النَّذِيْرُ الْمُبِيْنُ 89ۚ كَمَآ اَنْزَلْنَا عَلَي الْمُقْتَسِمِيْنَ 90ۙ الَّذِيْنَ جَعَلُوا الْقُرْاٰنَ عِضِيْنَ 91 فَوَرَبِّكَ لَنَسْــَٔـلَنَّهُمْ اَجْمَعِيْنَ 92ۙ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 93 فَاصْدَعْ بِمَا تُؤْمَرُ وَاَعْرِضْ عَنِ الْمُشْرِكِيْنَ 94 اِنَّا كَفَيْنٰكَ الْمُسْتَهْزِءِيْنَ 95ۙ الَّذِيْنَ يَجْعَلُوْنَ مَعَ اللّٰهِ اِلٰـهًا اٰخَرَ ۚ فَسَوْفَ يَعْلَمُوْنَ 96 وَلَقَدْ نَعْلَمُ اَنَّكَ يَضِيْقُ صَدْرُكَ بِمَا يَقُوْلُوْنَ 97ۙ فَسَبِّحْ بِحَمْدِ رَبِّكَ وَكُنْ مِّنَ السّٰجِدِيْنَ 98ۙ وَاعْبُدْ رَبَّكَ حَتّٰى يَاْتِيَكَ الْيَقِيْنُ 99ۧ
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आयत 85
“और हमने नहीं तख्लीक़ किया आसमानों और ज़मीन को और जो कुछ इन दोनों के दरमियान हैं मगर हक़ के साथ।” | وَمَا خَلَقْنَا السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَآ اِلَّا بِالْحَقِّ ۭ |
यह कायनात एक बा-मक़सद तख्लीक़ है, कोई खेल-तमाशा नहीं। हिन्दु मैथालॉजी की तर्ज़ पर यह कोई राम की लीला नहीं है कि राम जी जिसको चाहें राजा बना कर तख्त पर बैठा दें और जिसे चाहें तख्त से नीचे पटक दें, बल्कि यह कायनात और इसकी एक-एक चीज़ की तख्लीक़ बा-मायने और बा-मक़सद है। इस हक़ीक़त को सूरह आले इमरान (आयत:91) में इस तरह बयान फ़रमाया गया है: {رَبَّنَا مَا خَلَقْتَ هٰذَا بَاطِلًا ۚ سُبْحٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ النَّارِ} “ऐ हमारे रब! तूने यह कायनात बे-मक़सद नहीं बनाई, तेरी ज़ात इससे बहुत आला और पाक है, लिहाज़ा हमें आग के अज़ाब से बचा ले।”
“और यक़ीनन क़यामत आकर रहेगी” | وَاِنَّ السَّاعَةَ لَاٰتِيَةٌ |
चूँकि यह कायनात और इसकी हर चीज़ हक़ के साथ तख्लीक़ की गई है, लिहाज़ा इस हक़ का मन्तक़ी तक़ाज़ा है कि एक यौमे हिसाब आए, लिहाज़ा क़यामत आकर रहेगी। इस कायनात का ब-गौर जायज़ा लेने से यह हक़ीक़त अयाँ (उजागर) होती है कि इसकी तमाम चीज़ें इंसान के लिए पैदा की गई हैं। अगर वाक़ई ऐसा है तो मन्तक़ी सवाल उठता है कि फिर इंसान को किसलिये पैदा किया गया है? और इंसान के अंदर जो अख़्लाक़ी हिस्स (moral sense) पैदा की गई है, उसे पैदाइशी तौर पर नेकी और बदी की जो तमीज़ दी गई है यहाँ दुनिया में उससे क्या नताइज बरामद हो रहे हैं? इस दुनिया में तो अख़्लाक़ियात के उसूलों के बरअक्स नतीजे सामने आते हैं। यहाँ चोर डाकू और लुटेरे ऐश करते नज़र आते हैं और नेक सीरत लोग फ़ाक़े करने पर मजबूर हैं। लिहाज़ा उस सूरते हाल का मन्तक़ी तक़ाज़ा है कि इस दुनिया के बाद एक और दुनिया हो जिसमें हर शख़्स का पूरा-पूरा हिसाब हो और हर शख्स को ऐसा सिला और बदला मिले जो उसके आमाल के ऐन मुताबिक़ हो।
“तो (ऐ नबी ﷺ) आप इनसे खूबसूरती के साथ दरगुज़र करें।” | فَاصْفَحِ الصَّفْحَ الْجَمِيْلَ 85 |
यह मुजरिम लोग हमारी पकड़ से बच नहीं सकेंगे। क़यामत आयेगी और यह लोग ज़रूर कैफ़रे-किरदार को पहुँचेंगे, मगर अभी हम इन्हें ढ़ील देना चाहते हैं, मज़ीद कुछ देर के लिये मोहलत देना चाहते हैं। चुनाँचे आप ﷺ फ़िलहाल इनकी दिल आज़ार बातें बर्दाश्त करें, इनकी मआन्दाना सरगर्मियों (enmity activities) के जवाब में सब्र करें और अहसन अंदाज़ में इस सब कुछ को नज़र अंदाज़ करें। इस रवैय्ये और ऐसे तर्ज़े अमल से आप ﷺ के दर्जात बुलंद होंगे।
आयत 86
“यक़ीनन आप ﷺ का रब पैदा करने वाला, खूब जानने वाला है।” | اِنَّ رَبَّكَ هُوَ الْخَلّٰقُ الْعَلِيْمُ 86 |
वह जो पैदा करने वाला है, अपनी मख़्लूक़ को खूब जानता भी है। सूरतुल मुल्क में फ़रमाया गया: { اَلَا يَعْلَمُ مَنْ خَلَقَ ۭ وَهُوَ اللَّطِيْفُ الْخَبِيْرُ} (आयत:14) “क्या उसी के इल्म में नहीं होगा जिसने पैदा किया? बल्कि वो तो निहायत बारीक-बीन बाख़बर है।” किसी मशीन को बनाने वाला उसके तमाम कलपुर्ज़ों से खूब वाक़िफ़ होता है।
आयत 87
“और हमने आप ﷺ को दी हैं सात बार-बार पढ़ी जाने वाली आयात और अज़मत वाला क़ुरान।” | وَلَقَدْ اٰتَيْنٰكَ سَبْعًا مِّنَ الْمَثَانِيْ وَالْقُرْاٰنَ الْعَظِيْمَ 87 |
इस पर तक़रीबन तमाम उम्मत का इज्माअ है कि यहाँ सात बार-बार दोहराए जाने वाली आयात से मुराद सूरतुल फ़ातिहा है। हदीस में सूरतुल फ़ातिहा को नमाज़ का लाज़मी जुज़्व (component) क़रार दिया गया है: ((لَا صَلاَۃَ لِمَنْ لَمْ یَقْرَأْ بِفَاتِحَۃِ الْکِتَابِ)) (मुत्तफ़िक़ अलैह) यानि जो शख़्स (नमाज़ में) सूरतुल फ़ातिहा नहीं पढ़ता उसकी नमाज़ नहीं। क़ब्ल अज़ सूरतुल फ़ातिहा के मुताअले के दौरान हम वह हदीसे क़ुद्सी भी पढ़ चुके हैं जिसमें सूरतुल फ़ातिहा ही को नमाज़ क़रार दिया गया है: ((قَسَمْتُ الصَّلَاۃَ بَیْنِیْ وَبَیْنَ عَبْدِیْ نِصْفَیْنِ)) (रवाहु मुस्लिम) अब जबकि हर नमाज़ी अपनी नमाज़ की हर रकअत मे सूरतुल फ़ातिहा की तिलावत कर रहा है तो अंदाज़ा करें कि दुनिया भर में इन सात आयात की तिलावत कितनी मर्तबा होती होगी। इसके अलावा आयत ज़ेरे नज़र में इस सूरत को “क़ुराने अज़ीम” का नाम भी दिया गया है। यानि अहमियत और फ़ज़ीलत के ऐतबार से सूरतुल फ़ातिहा क़ुरान अज़ीम का दर्जा रखती है। इसी बुनियाद पर इस सूरत को असासुल क़ुरान और उम्मुल क़ुरान क़रार दिया गया है। इसके अलावा इसे अल काफ़िया (किफ़ायत करने वाली) और अल शाफ़िया (शिफ़ा देने वाली) जैसे नाम भी दिये गये हैं।
एक हदीस के मुताबिक़ सूरतुल फ़ातिहा जैसी कोई सूरत ना तौरात में है, ना इंजील में और ना ही क़ुरान में। चुनाँचे यहाँ हुज़ूर ﷺ की दिलजोई के लिए फ़रमाया जा रहा है कि ऐ नबी ﷺ देखें हमने आप ﷺ को इतना बड़ा ख़जाना अता फ़रमाया है। अबु जहल अगर खुद को मालदार समझता है, वलीद बिन मुगीरा अपने ज़अम (ख्याल) में अगर बहुत बड़ा सरदार है तो आप ﷺ मुत्लक़ परवाह ना करें। इन लोगों की सोच के अपने पैमाने हैं। इन बदबख्तों को क्या मालूम कि हमने आपको कितनी बड़ी दौलत से नवाज़ा है!
आयत 88
“आप ﷺ आँख उठा कर भी ना देखें उस माल व मताअ की तरफ़ जो हमने उनके मुख़्तलिफ़ गिरोहों को दे रखा है” | لَا تَمُدَّنَّ عَيْنَيْكَ اِلٰى مَا مَتَّعْنَا بِهٖٓ اَزْوَاجًا مِّنْهُمْ |
अबु जहल की दौलत व शौकत, वलीद बिन मुगीरा के बागात और उन जैसे दूसरे काफिरों की जागीरें आप ﷺ को हरग़िज़ मुतास्सिर ना करें। आप ﷺ उनकी इन चीज़ों की तरफ़ आँख उठा कर भी ना देखें। एक हदीस में है कि अगर दुनिया व मा-फ़ीहा (जो दुनिया में है) की हैसियत अल्लाह की निगाह में मच्छर के एक पर के बराबर भी होती तो अल्लाह तआला किसी काफ़िर को एक घूँट पानी तक ना देता। चुनाँचे इन कुफ्फ़ार को जो माल व मताअ इस दुनिया में दिया गया है अल्लाह तआला के नज़दीक इसकी कुछ अहमियत नहीं है। अहले ईमान को भी चाहिए कि वो भी माल व दौलते दुनिया को उसी नज़र से देखें।
“और आप ﷺ उनकी हालत पर ग़म ना करें” | وَلَا تَحْزَنْ عَلَيْهِمْ |
यह लोग आपकी दावत को ठुकरा कर अज़ाब के मुस्तहिक़ हो रहें हैं। इनमें आप ﷺ के क़बीले के अफ़राद भी शामिल हैं और अबु लहब जैसे अज़ीज़ व अक़ारब भी, मगर आप अब इन लोगों के अंजाम के बारे में बिल्कुल परेशान ना हों।
“और अहले ईमान के लिए अपने बाज़ू झुका कर रखें।” | وَاخْفِضْ جَنَاحَكَ لِلْمُؤْمِنِيْنَ 88 |
अहले ईमान के साथ आप ﷺ शफक्क़त और मेहरबानी से पेश आयें। इन लोगों में फ़ुक़रा व मसाकीन भी हैं और गुलाम भी। यह लोग जब आपके पास हाज़िर हों तो कमाल तवाज़अ (विनय) से इनका इस्तक़बाल कीजिए और इनकी दिल जोई फ़रमाइये। इससे क़ब्ल यही बात इस अंदाज़ में बयान फ़रमाई गई है: {فَقُلْ سَلٰمٌ عَلَيْكُمْ كَتَبَ رَبُّكُمْ عَلٰي نَفْسِهِ الرَّحْمَةَ } (अनआम:54) सूरतुल शौरा (आयत:215) में भी इस मज़मून को इन अल्फ़ाज़ में दोहराया गया है: {وَاخْفِضْ جَنَاحَكَ لِمَنِ اتَّبَعَكَ مِنَ الْمُؤْمِنِيْنَ } कि अहले ईमान जो आप ﷺ की पैरवी कर रहे हैं, आप अपने कंधे उनके लिए झुका कर रखिये। सूरह बनी इस्राईल में वालिदैन के अदब व अहतराम के सिलसिले में भी यही अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए गये हैं कि औलाद अपने वालिदैन के साथ अदब, मुहब्बत, आजिज़ी और इन्कसारी (विनम्रता) का मामला करें।
आयत 89
“और कह दीजिए कि मैं तो खुल्लम-खुल्ला ख़बरदार करने वाला हूँ।” | وَقُلْ اِنِّىْٓ اَنَا النَّذِيْرُ الْمُبِيْنُ 89ۚ |
मेरी इसके सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है कि आप लोगों को वाज़ेह तौर पर ख़बरदार कर दूँ।
आयत 90
“जैसे कि हमने नाज़िल किया इन तक़सीम करने वालों पर।” | كَمَآ اَنْزَلْنَا عَلَي الْمُقْتَسِمِيْنَ 90ۙ |
आयत 91
“जिन्होंने (अपने) क़ुरान को टुकड़े-टुकड़े कर दिया।” | الَّذِيْنَ جَعَلُوا الْقُرْاٰنَ عِضِيْنَ 91 |
इस आयत के मफ़हूम के सिलसिले में मुफ़स्सरीन ने मुख़्तलिफ़ राय बयान की हैं। इस ज़िमन में ज़्यादा क़रीने-क़यास राय यह है कि यहाँ लफ़्ज “क़ुरान” का इत्लाक़ तौरात पर हुआ है। जैसा कि सूरह सबा की आयत 31 में फ़रमाया गया: {وَقَالَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ نُّؤْمِنَ بِھٰذَا الْقُرْاٰنِ وَلَا بِالَّذِيْ بَيْنَ يَدَيْهِ ۭ } यानि कुफ्फ़ार कहते हैं कि ना इस क़ुरान पर ईमान लाओ और ना उस पर जो इससे पहले था। तो गोया तौरात भी क़ुरान ही था और यहूद ने अपने मफ़ादात के लिए अपने उस क़ुरान को टुकड़े-टुकड़े कर दिया था। उनके इस कारनामे का तज़किरा सूरह अनआम की आयत 91 में इस तरह हुआ है: {تَجْعَلُوْنَهٗ قَرَاطِيْسَ تُبْدُوْنَهَا وَتُخْفُوْنَ كَثِيْرًا } “तुमने इस (तौरात) को वर्क़-वर्क़ कर दिया है, इनमें से किसी हिस्से को ज़ाहिर करते हो और अक्सर को छुपा कर रखते हो।”
आयत 92
“तो (ऐ मुहम्मद ﷺ!) आपके रब की क़सम! हम इन सबसे पूछ कर रहेंगे।” | فَوَرَبِّكَ لَنَسْــَٔـلَنَّهُمْ اَجْمَعِيْنَ 92ۙ |
इस आयत का मज़मून और अंदाज़ वही है जो इससे पहले हम सूरतुल आराफ़ में पढ़ चुके हैं: {فَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الَّذِيْنَ اُرْسِلَ اِلَيْهِمْ وَلَنَسْــــَٔـلَنَّ الْمُرْسَلِيْنَ} (आयत:6) “हम लाज़िमन पूछ कर रहेंगे उनसे भी जिनकी तरफ़ रसूलों को भेजा गया और उनसे भी जिनको रसूल बना कर भेजा गया।” चुनाँचे ऐ नबी ﷺ यह थोड़े वक़्त की बात है, हम इनसे एक-एक चीज़ का हिसाब लेकर रहेंगे।
आयत 93
“जो कुछ यह लोग करते रहे हैं।” | عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ 93 |
आयत 94
“अब आप ﷺ अलल ऐलान बयान करें जिसका आपको हुक्म दिया जा रहा है और इन मुशरिकों की ज़रा परवाह ना करें।” | فَاصْدَعْ بِمَا تُؤْمَرُ وَاَعْرِضْ عَنِ الْمُشْرِكِيْنَ 94 |
इस हुक्म को रसूल अल्लाह ﷺ की दावती तहरीक में एक नए मोड़ की हैसियत हासिल है। इससे क़ब्ल आप ﷺ अपने क़रीबी साथियों और रिश्तेदारों को इन्फ़रादी तौर पर दावत दे रहे थे, जैसे आप ﷺ ने अपनी ज़ौजा मोहतरमा हज़रत ख़दीजा रज़ि. से बात की, अपने पुराने दोस्त हज़रत अबुबक्र सिद्दीक़ रज़ि. को दावत दी, अपने चचा ज़ाद भाई हज़रत अली रज़ि. को ऐतमाद में लिया जो आपके ज़ेरे किफ़ालत भी थे और अपने आज़ाद करदा गुलाम और मुँह बोले बेटे हज़रत ज़ैद रज़ि. से भी बात की। आप ﷺ की इस इन्फ़रादी दावत का सिलसिला इब्तदाई तौर पर तक़रीबन तीन साल पर मुहीत नज़र आता है। बाज़ लोग इस दौर की दावत को एक ख़ुफ़िया (underground) तहरीक से ताबीर करते हैं मगर यह दुरुस्त नहीं। ऐलाने नबुवत के बाद आप ﷺ की सीरत में कोई दिन भी ऐसा नहीं आया जिसमें आप ﷺ ने अपनी इस दावत को ख़ुफ़िया रखा हो, मगर ऐसा ज़रूर है कि आप ﷺ की दावत फ़ितरी और तदरीजी अंदाज़ में आगे बढ़ी और आहिस्ता-आहिस्ता इरतक़ा पज़ीर हुई।
इस दावत का आग़ाज़ घर से हुआ, फिर आप ﷺ ताल्लुक़ और क़राबत दारी की बुनियाद पर मुख़्तलिफ़ अफ़राद को इन्फ़रादी अंदाज़ में दावत देते रहे और फिर तक़रीबन तीन साल के बाद आप ﷺ को हुक्म हुआ कि अब आप ﷺ अलल ऐलान यह दावत देना शुरू कर दें। इस हुक्म के बाद आप ﷺ ने एक दिन अरब के रिवाज़ के मुताबिक़ कोहे सफ़ा पर चढ़ कर लोगों को ऊँची आवाज़ से अपनी तरफ़ बुलाना शुरू किया। अरब में रिवाज़ था कि किसी अहम ख़बर का ऐलान करना होता तो एक आदमी अपना पूरा लिबास उतारता, बिल्कुल नंगा होकर किसी ऊँची जगह पर चढ़ जाता और “वा-सबाहा” का नारा लगाता, कि हाय वो सुबह जो आया चाहती है! यानि मैं तुम लोगों को आने वाली सुबह की ख़बर देने वाला हूँ! उस ज़माने में ऐसी ख़बर आमतौर पर किसी मुख़ालिफ़ क़बीले के शबखून मारने के बारे में होती थी कि फलाँ क़बीला आज सुबह-सवेरे तुम पर हमलावर होना चाहता है। ऐसे शख़्स को “नज़ीर-ए-उरयाँ” कहा जाता था। इस रिवाज़ के मुताबिक़ (लिबास उतारने की बेहुदा रस्म को छोड़ कर) आप ﷺ ने कोहे सफ़ा पर खड़े होकर “वा-सबाहा” का नारा लगाया। जिस जिसने आप ﷺ की आवाज़ सुनी वो भागम-भाग आप ﷺ के पास आ पहुँचा कि आप ﷺ कोई अहम ख़बर देने वाले हैं। जब सब लोग इकठ्ठे हो गये तो आप ﷺ ने उनके सामने अल्लाह का पैगाम पेश किया, जिस के जवाब में आपके बदबख्त चचा अबु लहब ने कहा: تَبًّا لَکَ اَلِھٰذَا جَمَعْتَنَا “तुम्हारे लिए हलाकत हो (नऊज़ुबिल्लाह) इस काम के लिये तुमने हमें जमा किया था?”(12) दावत को डंके की चोट बयान करने इस हुक्म और इस वाक़िये से मालूम होता है कि यह सूरत नबुवत के इब्तदाई ज़माने में नाज़िल हुई थी।
आयत 95
“हम आप ﷺ की तरफ़ से काफ़ी हैं इन इस्तहज़ा करने वालों (से निपटने) के लिए।” | اِنَّا كَفَيْنٰكَ الْمُسْتَهْزِءِيْنَ 95ۙ |
आप ﷺ इनकी मुख़ालफ़त की परवाह ना करें, हम इनसे अच्छी तरह निपट लेंगे। यह लोग आप ﷺ का बाल भी बाँका नहीं कर सकेगें।
आयत 96
“जो अल्लाह के साथ दूसरे मअबूद गढ़े बैठे हैं। तो अनक़रीब उन्हें मालूम हो जायेगा।” | الَّذِيْنَ يَجْعَلُوْنَ مَعَ اللّٰهِ اِلٰـهًا اٰخَرَ ۚ فَسَوْفَ يَعْلَمُوْنَ 96 |
ऐसे लोगों को बहुत जल्द मालूम हो जायेगा कि असल हक़ीक़त क्या थी और वो किन गुमराहियों में पड़े हुए थे।
आयत 97
“और हम जानते हैं कि आप ﷺ का सीना तंग होता है उनकी बातों से।” | وَلَقَدْ نَعْلَمُ اَنَّكَ يَضِيْقُ صَدْرُكَ بِمَا يَقُوْلُوْنَ 97ۙ |
अलल ऐलान दावत की वजह से मुख़ालफ़त का एक तूफ़ान आप ﷺ पर उमड़ आया था। पहले मरहले में यह मुख़ालफ़त अगरचे ज़बानी तअन व तशनीअ और बद् गोई तक महदूद थी मगर बहुत तकलीफ़ देह थी। किसी ने मजनून और काहिन कह दिया, किसी ने शायर का ख़िताब दे दिया। कोई दूर की कौड़ी लाया कि आप ﷺ ने घर में एक अजमी गुलाम छुपा रखा है, उससे मालूमात लेकर हम पर धौंस जमाते हैं। कुछ ऐसे लोग भी थे जो वाक़ई समझते थे कि आप ﷺ पर आसेब वग़ैरह के असरात हो गये हैं। ऐसे लोग अज़राहे हमदर्दी ऐसी बातों का इज़हार करते रहते थे। एक दफ़ा उतबा बिन रबीहा ने इसी तरह आप ﷺ से इज़हारे हमदर्दी किया। वह क़बीले का मामूर बुज़ुर्ग था। उसने कहा: ऐ मेरे भतीजे, बड़े-बड़े आमिलों और काहिनों से मेरे ताल्लुक़ात हैं, आप ﷺ कहें तो मैं उनमें से किसी को बुला लाऊँ और आपका इलाज कराऊँ? इन सब बातों से आपको बहुत तकलीफ़ होती थी और आपकी इसी तकलीफ़ और दिल की घुटन का यहाँ तज़किरा किया जा रहा है कि ऐ नबीﷺ इन लोगों की बेहुदा बातों से आपको जो तकलीफ़ होती है वह हमारे इल्म में है। यह मज़मून सूरतुल अन्आम की आयत 33 में भी गुज़र चुका है।
आयत 98
“बस आप तस्बीह कीजिए अपने रब की हम्द के साथ और सज्दा करने वालों में से हो जायें।” | فَسَبِّحْ بِحَمْدِ رَبِّكَ وَكُنْ مِّنَ السّٰجِدِيْنَ 98ۙ |
आप अपने रब की तस्बीह व तहमीद में मशगूल रहें। उसी के आगे झुके रहें और इस तरह अपने ताल्लुक़ मअ अल्लाह को मज़ीद मज़बूत करें। अल्लाह से अपने इस क़ल्बी और ज़हनी रिश्ते को जितना मज़बूत करेंगे उसी क़द्र आप ﷺ के दिल को सुकून व इत्मिनान मिलेगा और सब्र व इस्तक़ामत के रास्ते पर चलना और इन सख़्तियों को झेलना आप ﷺ के लिए आसान होगा।
आयत 99
“और अपने रब की बंदगी में लगे रहें यहाँ तक कि यक़ीनी शय वक़ूअ पज़ीर हो जाये।” | وَاعْبُدْ رَبَّكَ حَتّٰى يَاْتِيَكَ الْيَقِيْنُ 99ۧ |
आम तौर पर यहाँ “यक़ीन” से मौत मुराद ली गई है। यानि अपनी ज़िन्दगी की आखरी घड़ी तक उसकी बंदगी में लगे रहिये और इस सिलसिले में लम्हा भर के लिए भी ग़फ़लत ना कीजिए:
ता दमे आख़िर दमे फ़ारग मुबाश
अंदरे रह मे तराश व मे ख़राश!
बाज़ लोग यहाँ “यक़ीन” से अल्लाह तआला की नुसरत भी मुराद लेते हैं कि कुफ्फ़ार के ख़िलाफ़ अल्लाह का फ़ैसला आ जाये, उसकी मदद अहले हक़ के शामिले हाल हो जाये और उन्हें कुफ्फ़ार पर गलबा हासिल हो जाये।
بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔
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