Surah Kahaf n Refrences-सूरतुल कहफ़

सूरतुल कहफ़

तम्हीदी कलिमात

सूरतुल कहफ़ और सूरह बनी इसराइल का आपस में जोड़े और ज़ौजियत का ताल्लुक़ है। दोनों सूरतों के बारह-बारह रुकूअ हैं और आयात की तादाद भी तक़रीबन बराबर है। दोनों के ऐन वस्त में हज़रत आदम अलै. और इब्लीस का वाक़िया बयान हुआ है और इस ज़िमन में इस हद तक मुशाबेहत है कि ना सिर्फ़ दोनों सूरतों के सातवें रुकूअ का आग़ाज़ इस वाक़िये से होता है बल्कि दोनों जगहों पर वाक़िये की इब्तदा भी एक ही आयत से हो रही है। इनकी निस्बते ज़ौजियत से मुताल्लिक़ अहम निकात का ज़िक्र सूरह बनी इसराइल के आग़ाज़ में भी हो चुका है, जबकि मेरी किताब “क़ुरान हकीम ले सूरतों के मज़ामीन का इज्माली तजज़िया” में इस मज़मून को मज़ीद जामियत के साथ पेश करने की कोशिश की गई है। सूरह बनी इसराइल की आख़री आयत और सूरतुल कहफ़ की इब्तदाई आयत में एक ख़ास रब्त व ताल्लुक़ है, जिससे ज़ाहिर होता है कि दोनों सूरतें एक साथ क़ुरान में वारिद हुई हैं और रेल के डिब्बों की तरह बाहम inter locked हैं। सूरह बनी इसराइल की आख़री आयत का आग़ाज़ {….وَقُلِ الْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ } के अल्फ़ाज़ से हो रहा है, यानि इसमें अल्लाह तआला की हम्द का हुक्म दिया जा रहा है, जबकि सूरतुल कहफ़ का आग़ाज़ {….اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْٓ } के अल्फ़ाज़ से हो रहा है। गोया यहाँ इस हुक्म की तामील हो रही है।

بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ

आयात 1 से 8 तक

اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ عَلٰي عَبْدِهِ الْكِتٰبَ وَلَمْ يَجْعَلْ لَّهٗ عِوَجًا     Ǻ۝ڸ قَـيِّمًا لِّيُنْذِرَ بَاْسًا شَدِيْدًا مِّنْ لَّدُنْهُ وَيُبَشِّرَ الْمُؤْمِنِيْنَ الَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ الصّٰلِحٰتِ اَنَّ لَهُمْ اَجْرًا حَسَـنًا    Ą۝ۙ مَّاكِثِيْنَ فِيْهِ اَبَدًا   Ǽ۝ۙ وَّيُنْذِرَ الَّذِيْنَ قَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا   Ć۝ۤ مَا لَهُمْ بِهٖ مِنْ عِلْمٍ وَّلَا لِاٰبَاۗىِٕهِمْ ۭ كَبُرَتْ كَلِمَةً تَخْرُجُ مِنْ اَفْوَاهِهِمْ ۭ اِنْ يَّقُوْلُوْنَ اِلَّا كَذِبًا    Ĉ۝ فَلَعَلَّكَ بَاخِعٌ نَّفْسَكَ عَلٰٓي اٰثَارِهِمْ اِنْ لَّمْ يُؤْمِنُوْا بِهٰذَا الْحَدِيْثِ اَسَفًا     Č۝ اِنَّا جَعَلْنَا مَا عَلَي الْاَرْضِ زِيْنَةً لَّهَا لِنَبْلُوَهُمْ اَيُّهُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا   Ċ۝ وَاِنَّا لَجٰعِلُوْنَ مَا عَلَيْهَا صَعِيْدًا جُرُزًا   Ď۝ۭ

आयत 1

“कुल हम्द व सना और कुल शुक्र अल्लाह ही के लिये है जिसने नाज़िल की अपने बन्दे पर किताब”اَلْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ عَلٰي عَبْدِهِ الْكِتٰبَ

रसूल अल्लाह ﷺ को अल्लाह तआला के साथ जो ताल्लुक़ और निस्बत है उसे यहाँ लफ्ज़ “अब्द” से नुमायाँ फ़रमाया गया है।

“और इसमें उसने कोई कजी नहीं रखी।”وَلَمْ يَجْعَلْ لَّهٗ عِوَجًا     Ǻ۝ڸ

आयत 2

“(ये किताब) बिल्कुल सीधी है, ताकि वह ख़बरदार करे एक बहुत बडी आफ़त से उसकी तरफ़ से”قَـيِّمًا لِّيُنْذِرَ بَاْسًا شَدِيْدًا مِّنْ لَّدُنْهُ

यानि नबी अकरम ﷺ पर नुज़ूले क़ुरान के मक़ासिद में से एक मक़सद यह भी है कि आप लोगों को एक बहुत बड़ी आफ़त के बारे में ख़बरदार कर दें। यहाँ लफ्ज़ بَاْسًا बहुत अहम है। यह लफ्ज़ वाहिद हो तो इसका मतलब जंग होता है और जब बतौर जमा आए तो इसके मायने सख्ती, मुसीबत, भूख, तकलीफ़ वगैरह के होते हैं। जैसे सूरतुल बक़रह में यह लफ्ज़ बतौर वाहिद भी आया है और बतौर जमा भी: {وَالصّٰبِرِيْنَ فِي الْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَحِيْنَ الْبَاْسِ ۭ} (आयतुल बिर्र, 177) चुनाँचे वहाँ दोनों सूरतों में इस लफ्ज़ के मायने मुख्तलिफ़ हैं: “الْبَاْسَاۗءِ” के मायने फक़र व तंगदस्ती और मसाएब (मुसीबतें) व तकालीफ़ के हैं जबकि “وَحِيْنَ الْبَاْسِ” से मुराद जंग का वक़्त है।

बहरहाल आयत ज़ेरे नज़र में “بَاْسًا شَدِيْدًا” से एक बड़ी आफ़त भी मुराद हो सकती है और बहुत शदीद क़िस्म की जंग भी। आफ़त के मायने में इस लफ्ज़ का इशारा उस दज्जाली फ़ितने की तरफ़ है जो क़यामत से पहले ज़ाहिर होगा। हदीस में है कि कोई नबी और रसूल ऐसा नहीं गुज़रा जिसने अपनी क़ौम को दज्जाल के फ़ितने से ख़बरदार ना किया हो, क्योंकि यह फ़ितना एक मोमिन के लिये सख्त तरीन इम्तिहान होगा और पूरी इंसानी तारीख़ में इस फ़ितने से बड़ा कोई फ़ितना नहीं है।

दूसरी तरफ़ इस लफ्ज़ (بَاْسًا شَدِيْدًا) को अगर ख़ास तौर पर जंग के मायने में लिया जाए तो इससे “अल मलहमतुल उज़मा” मुराद है और इसका ताल्लुक़ भी फ़ितना-ए-दजाल ही से है। कुतुब अहादीस (किताबुल फ़ितन, किताब आसारुल क़ियामत, किताबुल मलाहिम वगैरह) में इस खौफ़नाक जंग का ज़िक्र बहुत तफ़सील से मिलता है। ईसाई रिवायात में इस जंग को “हर मजदौन” (Armageddon) का नाम दिया गया है। बहरहाल हज़रत मसीह अलै. के तशरीफ़ लाने और उनके हाथों दज्जाल के क़त्ल के बाद इस फ़ितने या जंग का ख़ात्मा होगा।

बहुत सी अहादीस में हमें यह वज़ाहत भी मिलती है कि दज्जाली फ़ितने के साथ सूरतुल कहफ़ की एक ख़ास मुनासबत है और इस फ़ितने के असरात से महफ़ूज़ रहने के लिये इस सूरत के साथ ज़हनी और क़ल्बी ताल्लुक़ क़ायम करना बहुत मुफ़ीद है। इस मक़सद के लिये अहादीस में जुमे के रोज़ सूरतुल कहफ़ की तिलावत करने की तल्क़ीन फ़रमाई गई है, और अगर पूरी सूरत की तिलावत ना की जा सके तो कम अज़ कम इसकी इब्तदाई और आख़री आयात की तिलावत करना भी मुफ़ीद बताया गया है।

यहाँ पर दज्जाली फ़ितने की हक़ीक़त के बारे में कुछ वज़ाहत भी ज़रूरी है। ‘दजल’ के लफ्ज़ी मायने धोखा और फ़रेब के हैं। इस मफ़हूम के मुताबिक़ “दज्जाल” ऐसे शख्स को कहा जाता है जो बहुत बड़ा धोखेबाज़ हो, जिसने दूसरों को धोखा देने के लिये झूठ और फ़रेब का लिबादा ओढ़ रखा हो। इसलिये नबुवत के झूठे दावेदारों को भी दज्जाल कहा गया है। चुनाँचे नबी अकरम ﷺ ने जिन तीस दज्जालों की पैदाइश की ख़बर दी है उनसे झूठे नबी ही मुराद हैं।

दज्जालियत के इस अमूमी मफ़हूम को मद्देनज़र रखा जाए तो आज के दौर में माद्दापरस्ती भी एक बहुत बड़ा दज्जाली फ़ितना है। आज लोगों के अज़हान व क़ुलूब, नज़रियात व अफ़कार और अख्लाक़ व अक़दार पर माद्दियत का इस क़दर ग़लबा हो गया है कि इंसान अल्लाह को भूल चुका है। आज वह मुसब्बबुल असबाब को भूल कर माद्दी असबाब पर तवक्कुल करता है। वह क़ुरान (आले इमरान:185) के इस फ़रमान को यकसर फ़रामोश कर चुका है कि: { وَمَا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَآ اِلَّا مَتَاعُ الْغُرُوْرِ} यानि दुनियवी ज़िंदगी महज़ धोखे का सामान है, जबकि असल ज़िंदगी आख़िरत की ज़िंदगी है। आख़िरत की ज़िंदगी पर पड़े हुए दुनिया और उसकी माद्दियत के परदे से धोखा खाकर इंसान ने दुनियवी ज़िंदगी ही को असल समझ लिया है, लिहाज़ा इसकी तमाम दौड़-धूप इसी ज़िंदगी के लिये है। इसी ज़िंदगी के मुस्तक़बिल को सँवारने की इसको फ़िक्र है, और यूँ वह माद्दापरस्ती के दज्जाली फ़ितने में गिरफ्तार हो चुका है।

इसके अलावा दज्जाल और दज्जाली फ़ितने का एक ख़ुसूसी मफ़हूम भी है। इस मफ़हूम में इससे मुराद एक मख्सूस फ़ितना है जो क़रीब क़यामत के ज़माने में एक ख़ास शख्सियत की वजह से ज़हूर पज़ीर होगा। इस बारे में कुतुबे अहादीस में बड़ी तफ़सीलात मौजूद हैं, लेकिन बाज़ रिवायात में कुछ पेचीदगियाँ भी हैं और तज़ादात भी। इनको समझने के लिये आला इल्मी सतह पर गौर व फ़िक्र की ज़रूरत है, क्योंकि ज़ाहिरी तौर पर नज़र आने वाले तज़ादात में मुताबक़त के पहलुओं को तलाश करना अहले इल्म का काम है। बहरहाल यहाँ उन तफ़ासील का ज़िक्र और उन पर तबसिरा करना मुमकिन नहीं। इस मौज़ू के बारे में यहाँ सिर्फ़ इस क़दर जान लेना ही काफ़ी है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने क़रीब क़यामत के ज़माने में दज्जाल के ज़ाहिर होने और एक बहुत बड़ा फ़ितना उठाने के बारे में ख़बरें दी हैं। जो हज़रात इस हवाले से तफ़सीली मालूमात चहाते हों वह मौलाना मनाज़िर अहसन गिलानी की किताब “तफ़सीर सूरतुल कहफ़” का मुताअला कर सकते हैं। इस मौज़ू पर “दुनिया की हक़ीक़त” के उन्वान से मेरी एक तक़रीर की रिकॉर्डिंग भी दस्तयाब है, जिसमें मैंने सूरतुल कहफ़ के मज़ामीन का ख़ुलासा बयान किया है।

“और (ताकि) वह बशारत दे उन अहले ईमान को जो नेक अमल करते हों कि उनके लिये होगा बहुत अच्छा बदला।” وَيُبَشِّرَ الْمُؤْمِنِيْنَ الَّذِيْنَ يَعْمَلُوْنَ الصّٰلِحٰتِ اَنَّ لَهُمْ اَجْرًا حَسَـنًا    Ą۝ۙ

आयत 3

“वह उसमें रहेंगे हमेशा-हमेश।”مَّاكِثِيْنَ فِيْهِ اَبَدًا   Ǽ۝ۙ

आयत 4

“और ख़बरदार कर दे उन लोगों को जिन्होंने कहा कि अल्लाह ने बेटा बनाया है।”وَّيُنْذِرَ الَّذِيْنَ قَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا   Ć۝ۤ

दौरे हाज़िर की दज्जालियत की असल जड़ मौजूदा मसीहियत है जिसकी बुनियाद तसलीस पर रखी गई है और अब इसे मसीहियत के बजाय Paulism कहना ज़्यादा दुरुस्त है। इसमें सबसे पहले हज़रत मसीह अलै. को अल्लाह का बेटा क़रार दिया गया। फ़िर इसमें कफ्फ़ारे का अक़ीदा शामिल किया गया कि जो कोई भी हज़रत मसीह अलै. पर ईमान लाएगा उसे तमाम गुनाहों से पेशगी माफ़ी मिल जाएगी। इसके बाद शरीअत को साक़ित करके इस सिलसिले में तमाम इख़्तियारात पॉप को दे दिये गए, कि वह जिस चीज़ को चाहे हलाल क़रार दे और जिसको चाहे हराम। इन तहरिफ़ात की वजह से यूरोप में आम लोगों को लफ्ज़ “मज़हब” से ही शदीद नफ़रत हो गई। फ़िर जब हस्पानिया में मुसलमानों के ज़ेरे असर जदीद उलूम को फ़रोग़ मिला तो फ्रांस, इटली, जर्मनी वगैरह के बेशुमार नौजवानों ने क़रतबा, गरनाता और तलियतला की यूनिवर्सिटियों में दाखला लिया। ये नौजवान हुसूल तालीम के बाद जब अपने-अपने मुमालिक में वापस गए तो यूरोप में इनकी नई फ़िक्र की वजह से इस्लाहे मज़हब (Reformation) और अहयाए उलूम (Renaissa-nce) की तहरीकात शुरू हुईं। इनकी वजह से यूरोप के आम लोग जदीद उलूम की तरफ़ रागिब तो हुए मगर मआशरे में पहले से मौजूद मज़हब मुखालिफ़ जज़्बात की वजह से मज़हब दुश्मनी खुद-ब-खुद इस तहरीक में शामिल हो गई। नतीजतन जदीद उलूम के साथ मज़हब से बेज़ारी, रुहानियत से ला-ताल्लुक़ी, आख़िरत से इन्कार और ख़ुदा के तस्सवुर से बेगानगी जैसे ख़यालात भी यूरोपी मआशरे में मुस्तक़िलन जड़ पकड़ गए, और यह सब कुछ ईसाईयत में की जाने वाली मज़कूरा तहरिफ़ात का रद्दे अमल था। आयत ज़ेरे नज़र में उन्हीं लोगों की तरफ़ इशारा है जिन्होंने ये अक़ीदा ईजाद किया था कि मसीह अलै. (नाउज़ुबिल्लाह) अल्लाह का बेटा है।

आयत 5

“इन्हें इसके बारे में कुछ भी इल्म नहीं और ना ही इनके आबा व अजदाद को था।”مَا لَهُمْ بِهٖ مِنْ عِلْمٍ وَّلَا لِاٰبَاۗىِٕهِمْ ۭ

इन्होंने ये जो अक़ीदा ईजाद किया है इसकी ना तो इनके पास कोई इल्मी सनद है और ना ही इनके आबा व अजदाद के पास थी।

“बहुत बुरी बात है जो इनके मुँहों से निकल रही है।”كَبُرَتْ كَلِمَةً تَخْرُجُ مِنْ اَفْوَاهِهِمْ ۭ

ये लोग अल्लाह तआला से औलाद मंसूब करके उसकी शान में बहुत बड़ी गुस्ताखी का इरतकाब कर रहे हैं।

“वह नहीं कहते मगर सरासर झूठ।”اِنْ يَّقُوْلُوْنَ اِلَّا كَذِبًا    Ĉ۝

आयत 6

“तो (ऐ नबी!) आप शायद अपने आपको गम से हलाक कर लेंगे उनके पीछे, अगर वह ईमान ना लाये इस बात (क़ुरान) पर।”فَلَعَلَّكَ بَاخِعٌ نَّفْسَكَ عَلٰٓي اٰثَارِهِمْ اِنْ لَّمْ يُؤْمِنُوْا بِهٰذَا الْحَدِيْثِ اَسَفًا     Č۝

तसलीस जैसे ग़लत अक़ाइद के जो भयानक नताइज मुस्तक़बिल में नस्ले इंसानी के लिये मुतवक्क़ो थे उनके तस्सवुर और इदराक से रसूल अल्लाह ﷺ पर शदीद दबाव था। आप खूब समझते थे कि अगर ये लोग क़ुरान पर ईमान ना लाए और अपने मौजूदा मज़हब पर ही क़ायम रहे तो इनके ग़लत अक़ाइद के सबब दुनिया में दज्जालियत का फ़ितना जन्म लेगा, जिसके असरात नस्ले इंसानी के लिये तबाहकुन होंगे। यही गम था जो आपकी जान को घुलाए जा रहा था।

आयत 7

“यक़ीनन हमने बना दिया है जो कुछ ज़मीन पर है उसे उसका बनाव सिंघार”اِنَّا جَعَلْنَا مَا عَلَي الْاَرْضِ زِيْنَةً لَّهَا

यहाँ ये नुक्ता ज़हन नशीन कर लीजिये कि लफ्ज़ “ज़ीनत” और दुनियवी आराइश व ज़ेबाइश का मौज़ू इस सूरत के मज़ामीन का अमूद है। यानि दुनिया की रौनक़, चमक-दमक और ज़ेब व ज़ीनत में इन्सान इस क़दर खो जाता है कि आख़िरत का उसे बिल्कुल ख्याल ही नहीं रहता। दुनिया की ये रंगीनियाँ अमेरिका और यूरोप में इस हद तक बढ़ चुकी हैं कि उन्हें देख कर अक़्ल दंग रह जाती है और इंसान इस सब कुछ से मुतास्सिर हुए बगैर नहीं रह सकता। यही वजह है कि आज हम अमेरिकी और यूरोपी अक़वाम की इल्मी तरक्क़ी से मुतास्सिर और उनके माद्दी असबाब व वसाइल से मरऊब हैं। अपनी इसी मरऊबियत के बाइस हम उनकी ला-दीनी तहज़ीब व सक़ाफ़त के भी दिलदादाह हैं और उनके तर्ज़े मआशरत को अपनाने के भी दर पे हैं।

“ताकि उन्हें हम आज़मायें कि उनमें कौन बेहतर है अमल में।”لِنَبْلُوَهُمْ اَيُّهُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا   Ċ۝

दुनिया के ये ज़ाहिरी ठाठ-बाठ दरअसल इंसान की आज़माइश के लिये पैदा किये गए हैं। एक तरफ़ दुनिया की यह सब दिलचास्पियाँ और रंगीनियाँ हैं और दूसरी तरफ़ अल्लाह और उसके अहकाम हैं। इंसान के सामने ये दोनों रास्ते खुले छोड़ कर दरअसल यह देखना मक़सूद है कि वह इनमें से किसका इंतखाब करता है। दुनिया की रंगीनियों में खो जाता है या अपने खालिक़ व मालिक को पहचानते हुए उसके अहकाम की तामील को अपनी ज़िंदगी का असल मक़सूद समझता है। इस सिलसिले में किसी शायर का ये शेर अगरचे शाने बारी तआला के लायक़ तो नहीं मगर इस मज़मून की वज़ाहत के लिये बहुत ख़ूब है:

रुख-ए-रौशन के आगे शमा रख कर वह यह कहते हैं

इधर आता है देखें या उधर परवाना जाता है!

अब जिस परवाने (इंसान) को इस शमा की ज़ाहिरी रौशनी और चमक अपनी तरफ़ खींच ले गई तो वह { فَقَدْ خَسِرَ خُسْرَانًا مُّبِيْنًا} (निसा:119) के मिस्दाक़ तबाह व बरबाद हो गया और जो इसकी ज़ाहिरी और वक़्ती चकाचौंद को नज़रअंदाज़ करके हुस्ने अज़्ली और अल्लाह के जलाल व कमाल की तरफ़ मुतवज्जह हो गया वह हक़ीक़ी कामयाबी और दाइमी नेअमतों का मुस्तहिक़ ठहरा।

आयत 8

“और यक़ीनन हम बना कर रख देंगे जो कुछ इस (ज़मीन) पर है उसे एक चटियल मैदान।”وَاِنَّا لَجٰعِلُوْنَ مَا عَلَيْهَا صَعِيْدًا جُرُزًا   Ď۝ۭ

क़यामत बरपा होने के बाद इस ज़मीन की तमाम आराइश व ज़ेबाइश ख़त्म करके इसे एक साफ़ हमवार मैदान में तब्दील कर दिया जाएगा। ना पहाड़ और समुन्दर बाक़ी रहेंगे और ना यह हसीन व दिलकश इमारात। उस वक़्त ज़मीन की सतह एक ऐसे खेत का मंज़र पेश कर रही होगी जिसकी फ़सल कट चुकी हो और इसमें सिर्फ़ बचा-ख़ुचा सूखा चूरा इधर-उधर बिखरा पड़ा हो।

आयात 9 से 16 तक

اَمْ حَسِبْتَ اَنَّ اَصْحٰبَ الْكَهْفِ وَالرَّقِيْمِ ۙ كَانُوْا مِنْ اٰيٰتِنَا عَجَبًا    Ḍ۝ اِذْ اَوَى الْفِتْيَةُ اِلَى الْكَهْفِ فَقَالُوْا رَبَّنَآ اٰتِنَا مِنْ لَّدُنْكَ رَحْمَةً وَّهَيِّئْ لَنَا مِنْ اَمْرِنَا رَشَدًا     10؀ فَضَرَبْنَا عَلٰٓي اٰذَانِهِمْ فِي الْكَهْفِ سِنِيْنَ عَدَدًا    11۝ۙ ثُمَّ بَعَثْنٰهُمْ لِنَعْلَمَ اَيُّ الْحِزْبَيْنِ اَحْصٰى لِمَا لَبِثُوْٓا اَمَدًا    12۝ۧ نَحْنُ نَقُصُّ عَلَيْكَ نَبَاَهُمْ بِالْحَقِّ  ۭ اِنَّهُمْ فِتْيَةٌ اٰمَنُوْا بِرَبِّهِمْ وَزِدْنٰهُمْ هُدًى   13۝ڰ وَّرَبَطْنَا عَلٰي قُلُوْبِهِمْ اِذْ قَامُوْا فَقَالُوْا رَبُّنَا رَبُّ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ لَنْ نَّدْعُوَا۟ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلٰـهًا لَّقَدْ قُلْنَآ اِذًا شَطَطًا    14؀ هٰٓؤُلَاۗءِ قَوْمُنَا اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِهٖٓ اٰلِهَةً  ۭ لَوْلَا يَاْتُوْنَ عَلَيْهِمْ بِسُلْطٰنٍۢ بَيِّنٍ ۭ فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰى عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا   15۝ۭ وَاِذِ اعْتَزَلْتُمُوْهُمْ وَمَا يَعْبُدُوْنَ اِلَّا اللّٰهَ فَاْوٗٓا اِلَى الْكَهْفِ يَنْشُرْ لَكُمْ رَبُّكُمْ مِّنْ رَّحْمَتِهٖ وَيُهَــيِّئْ لَكُمْ مِّنْ اَمْرِكُمْ مِّرْفَقًا    16؀

आयत 9

“क्या तुम समझते हो कि ग़ार और रक़ीम (तख्ती) वाले असहाब हमारी बहुत अजीब निशानियों में से थे?”اَمْ حَسِبْتَ اَنَّ اَصْحٰبَ الْكَهْفِ وَالرَّقِيْمِ ۙ كَانُوْا مِنْ اٰيٰتِنَا عَجَبًا    Ḍ۝

अब असहाबे कहफ़ के मुताल्लिक़ उस सवाल के जवाब का आग़ाज़ हो रहा है जो यहूदे मदीना ने क़ुरैशे मक्का के ज़रिये हुज़ूर ﷺ से पूछा था। कहफ़ के मायने ग़ार के हैं और रक़ीम से मुराद वह तख्ती है जिस पर असहाबे कहफ़ के हालात लिख कर उसे ग़ार के दहाने पर लगा दिया गया था। इस निस्बत से उन्हें असहाबे कहफ़ भी कहा जाता है और असहाबे रक़ीम भी। मुराद यह है कि तुम लोग असहाबे कहफ़ के वाक़िये को एक बहुत ग़ैर मामूली वाक़िया और हमारी एक बड़ी अजीब निशानी समझते हो, मगर तुम्हें मालूम होना चाहिये कि हमारी तख्लीक़ और सन्नाई में तो इससे भी बड़े-बड़े अजाइबात मौजूद हैं।

इस क़िस्से के बारे में अब तक जो ठोस हक़ाइक हमारे सामने आए हैं उनका ख़ुलासा यह है: हज़रत मसीह अलै. की फ़लस्तीन में बेअसत के वक़्त बज़ाहिर यहाँ एक यहूदी बादशाह की हुक्मरानी थी मगर उस बादशाह की हैसियत एक कठपुतली से ज़्यादा ना थी और अमली तौर पर यह पूरा इलाक़ा रोमन एम्पायर ही का हिस्सा था। रोमी हुक्मरान मज़हबी बुतपरस्त थे जबकि फ़लस्तीन के मक़ामी बाशिंदे अहले किताब (यहूदी) थे। हज़रत मसीह अलै. के रफ़अ-ए-समावी का वाक़िया 30 और 33 ईस्वी के लगभग पेश आया। इसके बाद यहूदियों की एक बग़ावत के जवाब में रोमी जनरल टाईटस ने 70 ईस्वी में येरुशलम पर हमला करके इस शहर को बिल्कुल तबाह व बरबाद कर दिया, हेकले सुलेमानी मस्मार कर दिया गया, यहूदियों का क़त्ले आम हुआ और जो यहूदी क़त्ल होने से बच गए उन्हें मुल्क बदर कर दिया गया। मक़ामी ईसाइयों को अगरचे इलाक़े से बेदख़ल तो ना किया गया मगर  हज़रत ईसा अलै. के पेरोकार और मुवह्हिद होने की वजह से उन्हें रोमियों की तरफ़ से अक्सर ज़ुल्म व सितम का निशाना बनाया जाता रहा। इसी हवाले से रोमी बादशाह दक़यानूस (Decius) के दरबार में चंद रासिखुल अक़ीदा मुवह्हिद नौजवानों की पेशी हुई। बादशाह की तरफ़ से उन नौजवानों पर वाज़ेह किया गया कि वह अपने अक़ाइद को छोड़ कर बुतपरस्ती इख्तियार कर लें वरना उन्हें सूली पर चढ़ा दिया जाएगा। बादशाह की तरफ़ से उन्हें इस फ़ैसले के लिये मुनासिब मोहलत दी गई। इसी मोहलत के दौरान उन्होंने शहर से निकल कर किसी ग़ार में पनाह लेने का फ़ैसला किया। जब यह लोग ग़ार में पनाह गुज़ी हुए तो अल्लाह तआला ने अपनी क़ुदरत से उन पर ऐसी नींद तारी कर दी कि वह तक़रीबन तीन सौ साल तक सोते रहे। (सूरतुल बक़रह आयत 259 में भी इसी नौइयत के एक वाक़िये का ज़िक्र है कि हज़रत उज़ेर अलै. को उनकी मौत के सौ साल बाद ज़िन्दा कर दिया गया) और उनकी नींद के दौरान उनकी करवटें बदलने का भी बाक़यदा अहतमाम रहा। जिस ग़ार में असहाबे कहफ़ सो रहे थे वह ऐसी जगह पर वाक़ेअ थी जहाँ लोगों का आना-जाना बिल्कुल नहीं था। उस ग़ार का दहाना शिमाल की जानिब था जिसकी वजह से उसके अंदर रौशनी मिनअक्स होकर तो आती थी, लेकिन बराहेरास्त रौशनी या धूप नहीं आती थी। इस तरह के गारों का एक सिलसिला अफ़सस शहर (मौजूदा तुर्की) के इलाक़े में पाया जाता है जबकि हिन्दुस्तान में (अजन्ता) में भी ऐसे ग़ार मौजूद हैं।

बादअज़ा क़ुस्तन्तीन (Constantine) नामी फ़रमानरवा ने ईसाइयत क़ुबूल कर ली और उसकी वजह से पूरी रोमन एम्पायर भी ईसाई हो गई। फ़िर 400 ईस्वी के लगभग Theodosius के अहदे हुकूमत में अल्लाह तआला ने असहाबे कहफ़ को जगाया। जागने के बाद उन्होंने अपने एक साथी को चाँदी का एक सिक्का देकर खाना लेने के लिये शहर भेजा और साथ हिदायत की कि वह मोहतात रहे, ऐसा ना हो उनके ग़ार में छिपने की ख़बर बादशाह तक पहुँच जाए। (वह अपनी नींद को मामूल की नींद समझ रहे थे और उनके वहम व गुमान में भी नहीं था कि वह तीन सौ साल तक सोये रहे थे।) बहरहाल खाना लाने के लिये जाने वाला उनका साथी अपनी तीन सौ साल पुरानी वज़अ-क़तअ और करन्सी की वजह से पकड़ा गया और यूँ उनके बारे में तमाम मालूमात लोगों तक पहुँच गईं। जब लोगों को हक़ीक़त हाल का इल्म हुआ तो हम मज़हब होने की वजह से ईसाई आबादी की तरफ़ से उनकी बहुत इज्ज़त अफ़ज़ाई की गई। इसके बाद वह लोग ग़ार में फ़िर से सो गए या अल्लाह तआला ने उन पर मौत तारी कर दी। उन लोगों की तबई मौत के बाद ग़ार के दहाने को बंद कर दिया गया और एक तख्ती पर उन लोगों का अहवाल लिख कर उसे उस जगह पर नसब कर दिया गया। असहाबे कहफ़ का यह क़िस्सा गबन की किताब The Decline and fall of Roman Empire में भी Seven Sleepers के उन्वान से मौजूद है। इस क़िस्से का ज़िक्र चूँकि रोमन लिटरेचर में था और यहूदी इन तमाम तफ़सीलात से आगाह थे, इसलिए उन्होंने यह सवाल हुज़ूर ﷺ से इम्तेहानन पूछ भेजा था।

आयत 10

“जबकि उन नौजवानों ने ग़ार में पनाह ली और उन्होंने कहा: ऐ हमारे रब! तू हमें अता फ़रमा अपने पास से रहमत और आसान फ़रमा दे हमारे लिये हमारे मामलात में आफ़ियत का रास्ता।”اِذْ اَوَى الْفِتْيَةُ اِلَى الْكَهْفِ فَقَالُوْا رَبَّنَآ اٰتِنَا مِنْ لَّدُنْكَ رَحْمَةً وَّهَيِّئْ لَنَا مِنْ اَمْرِنَا رَشَدًا     10؀

अपने ख़ास ख़ज़ाना-ए-फ़ज़ल से हमारे लिये रहमत का बंदोबस्त फ़रमा दे।

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आयत 11

“तो हमनी थपकी दे दी उनके कानों पर ग़ार में कई साल के लिये।”فَضَرَبْنَا عَلٰٓي اٰذَانِهِمْ فِي الْكَهْفِ سِنِيْنَ عَدَدًا    11۝ۙ

यानि हमने ग़ार के अंदर मुतअद्दिद साल तक उन्हें सुलाए रखा। यहाँ पर यह बहस नहीं छेड़ी गई कि कितने साल तक उन्हें नींद की हालत में रखा गया।

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आयत 12

“फ़िर हमने उन्हें उठाया ताकि हम देखें कि दो गिरोहों में से किसको बेहतर मालूम है कि कितना अरसा वह वहाँ रहे थे।”ثُمَّ بَعَثْنٰهُمْ لِنَعْلَمَ اَيُّ الْحِزْبَيْنِ اَحْصٰى لِمَا لَبِثُوْٓا اَمَدًا    12۝ۧ

इन दो गिरोहों से कौन लोग मुराद हैं, इसका ज़िक्र आगे आएगा।

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आयत 13

“हम सुना रहे हैं आपको उनका क़िस्सा हक़ के साथ।”نَحْنُ نَقُصُّ عَلَيْكَ نَبَاَهُمْ بِالْحَقِّ  ۭ

यह वाक़िया जैसे वक़ुअ पज़ीर हुआ था बिल्कुल वैसे ही हम आपको बिला कम व कास्त सुनाने जा रहे हैं।

“वह चंद नौजवान थे जो ईमान लाए अपने रब पर और हमने ख़ूब बढ़ाया था उन्हें हिदायत में।”اِنَّهُمْ فِتْيَةٌ اٰمَنُوْا بِرَبِّهِمْ وَزِدْنٰهُمْ هُدًى   13۝ڰ

आयत 14

“और हमने मज़बूत कर दिया उनके दिलों को जब वह (बादशाह के सामने) खड़े हुए”وَّرَبَطْنَا عَلٰي قُلُوْبِهِمْ اِذْ قَامُوْا
“तो उन्होंने कहा कि हमारा रब तो वह है जो आसमानों और ज़मीन का रब है, हम हरगिज़ नहीं पुकारेंगे उसके सिवा किसी और को मअबूद, (अगर ऐसा हुआ) तब तो हम बहुत गलत बात कहेंगे।”فَقَالُوْا رَبُّنَا رَبُّ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ لَنْ نَّدْعُوَا۟ مِنْ دُوْنِهٖٓ اِلٰـهًا لَّقَدْ قُلْنَآ اِذًا شَطَطًا    14؀

जिस तरह हज़रत इब्राहीम अलै. ने नमरूद के दरबार में डट कर हक़ बात कही थी वैसे ही इन नौजवानों ने भी अलल ऐलान कहा कि हम रब्बे कायनात को छोड कर किसी देवी या देवता को अपना रब मानने को तैयार नहीं हैं।

आयत 15

“हमारी इस क़ौम ने बना लिये हैं उसके सिवा दूसरे मअबूद।”هٰٓؤُلَاۗءِ قَوْمُنَا اتَّخَذُوْا مِنْ دُوْنِهٖٓ اٰلِهَةً  ۭ
“तो क्यों नहीं पेश करते वह उनके बारे में कोई वाज़ेह दलील?”لَوْلَا يَاْتُوْنَ عَلَيْهِمْ بِسُلْطٰنٍۢ بَيِّنٍ ۭ

अल्लाह तआला की तरफ़ से नाज़िल शुदा कोई दलील या सनद वह अपने इस दावे के साथ क्यों पेश नहीं करते?

“तो उस शख्स से बढ़ कर कौन ज़ालिम होगा जिसने अल्लाह पर झूठ बाँधा!”فَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنِ افْتَرٰى عَلَي اللّٰهِ كَذِبًا   15۝ۭ

शाही दरबार में इस तुंद व तेज़ मकालमे के बाद जब उन्हें चंद दिन की मोहलत के साथ अपना दीन छोड़ने या मौत का सामना करने के बारे में फ़ैसला करने का इख्तियार दे दिया गया तो वह आपस में यूँ मशवरा करने लगे:

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आयत 16

“और अब जबकि तुमने ख़ुद को उन लोगों से और जिनकी वह अल्लाह के सिवा परस्तिश करते हैं, उनसे अलैहदा कर लिया है तो अब किसी ग़ार में पनाह ले लो, तुम्हारा रब फैला देगा तुम्हारे लिये अपनी रहमत और तुम्हारे मामले में तुम्हारे लिये सहुलत का सामान पैदा फ़रमा देगा।”وَاِذِ اعْتَزَلْتُمُوْهُمْ وَمَا يَعْبُدُوْنَ اِلَّا اللّٰهَ فَاْوٗٓا اِلَى الْكَهْفِ يَنْشُرْ لَكُمْ رَبُّكُمْ مِّنْ رَّحْمَتِهٖ وَيُهَــيِّئْ لَكُمْ مِّنْ اَمْرِكُمْ مِّرْفَقًا    16؀

आयात 17 से 26 तक

وَتَرَى الشَّمْسَ اِذَا طَلَعَتْ تَّزٰوَرُ عَنْ كَهْفِهِمْ ذَاتَ الْيَمِيْنِ وَاِذَا غَرَبَتْ تَّقْرِضُهُمْ ذَاتَ الشِّمَالِ وَهُمْ فِيْ فَجْــوَةٍ مِّنْهُ  ۭ ذٰلِكَ مِنْ اٰيٰتِ اللّٰهِ  ۭ مَنْ يَّهْدِ اللّٰهُ فَهُوَ الْمُهْتَدِ ۚ وَمَنْ يُّضْلِلْ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ وَلِيًّا مُّرْشِدًا   17۝ۧ وَتَحْسَبُهُمْ اَيْقَاظًا وَّهُمْ رُقُوْدٌ ڰ وَّنُقَلِّبُهُمْ ذَاتَ الْيَمِيْنِ وَذَاتَ الشِّمَالِ ڰ وَكَلْبُهُمْ بَاسِطٌ ذِرَاعَيْهِ بِالْوَصِيْدِ ۭ لَوِ اطَّلَعْتَ عَلَيْهِمْ لَوَلَّيْتَ مِنْهُمْ فِرَارًا وَّلَمُلِئْتَ مِنْهُمْ رُعْبًا    18؀ وَكَذٰلِكَ بَعَثْنٰهُمْ لِيَتَسَاۗءَلُوْا بَيْنَهُمْ ۭ قَالَ قَاۗىِٕلٌ مِّنْهُمْ كَمْ لَبِثْتُمْ   ۭ قَالُوْا لَبِثْنَا يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍ  ۭ قَالُوْا رَبُّكُمْ اَعْلَمُ بِمَا لَبِثْتُمْ ۭ فَابْعَثُوْٓا اَحَدَكُمْ بِوَرِقِكُمْ هٰذِهٖٓ اِلَى الْمَدِيْنَةِ فَلْيَنْظُرْ اَيُّهَآ اَزْكٰى طَعَامًا فَلْيَاْتِكُمْ بِرِزْقٍ مِّنْهُ وَلْيَتَلَطَّفْ وَلَا يُشْعِرَنَّ بِكُمْ اَحَدًا   19؀ اِنَّهُمْ اِنْ يَّظْهَرُوْا عَلَيْكُمْ يَرْجُمُوْكُمْ اَوْ يُعِيْدُوْكُمْ فِيْ مِلَّتِهِمْ وَلَنْ تُفْلِحُوْٓا اِذًا اَبَدًا    20؀ وَكَذٰلِكَ اَعْثَرْنَا عَلَيْهِمْ لِيَعْلَمُوْٓا اَنَّ وَعْدَ اللّٰهِ حَقٌّ وَّاَنَّ السَّاعَةَ لَا رَيْبَ فِيْهَاڥ اِذْ يَتَنَازَعُوْنَ بَيْنَهُمْ اَمْرَهُمْ فَقَالُوا ابْنُوْا عَلَيْهِمْ بُنْيَانًا  ۭ رَبُّهُمْ اَعْلَمُ بِهِمْ ۭ قَالَ الَّذِيْنَ غَلَبُوْا عَلٰٓي اَمْرِهِمْ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيْهِمْ مَّسْجِدًا   21؀ سَيَقُوْلُوْنَ ثَلٰثَةٌ رَّابِعُهُمْ كَلْبُهُمْ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ خَمْسَةٌ سَادِسُهُمْ كَلْبُهُمْ رَجْمًۢا بِالْغَيْبِ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ سَبْعَةٌ وَّثَامِنُهُمْ كَلْبُهُمْ ۭ قُلْ رَّبِّيْٓ اَعْلَمُ بِعِدَّتِهِمْ مَّا يَعْلَمُهُمْ اِلَّا قَلِيْلٌ ڢ فَلَا تُمَارِ فِيْهِمْ اِلَّا مِرَاۗءً ظَاهِرًا  ۠ وَّلَا تَسْتَفْتِ فِيْهِمْ مِّنْهُمْ اَحَدًا    22؀ۧ وَلَا تَقُوْلَنَّ لِشَايْءٍ اِنِّىْ فَاعِلٌ ذٰلِكَ غَدًا   23؀ۙ اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ  ۡ وَاذْكُرْ رَّبَّكَ اِذَا نَسِيْتَ وَقُلْ عَسٰٓي اَنْ يَّهْدِيَنِ رَبِّيْ لِاَقْرَبَ مِنْ هٰذَا رَشَدًا  24؀ وَلَبِثُوْا فِيْ كَهْفِهِمْ ثَلٰثَ مِائَةٍ سِنِيْنَ وَازْدَادُوْا تِسْعًا   25؀ قُلِ اللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا لَبِثُوْا  ۚ لَهٗ غَيْبُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ  ۭ اَبْصِرْ بِهٖ وَاَسْمِعْ  ۭ مَا لَهُمْ مِّنْ دُوْنِهٖ مِنْ وَّلِيٍّ  ۡ وَّلَا يُشْرِكُ فِيْ حُكْمِهٖٓ اَحَدًا    26؀

आयत 17

“और तुम सूरज लो देखते कि जब वह तुलूअ होता तो उनकी ग़ार से दाहिनी तरफ़ हट जाता”وَتَرَى الشَّمْسَ اِذَا طَلَعَتْ تَّزٰوَرُ عَنْ كَهْفِهِمْ ذَاتَ الْيَمِيْنِ
“और जब वह गुरूब होता तो बाएँ जानिब उनसे कन्नी कतरा जाता”وَاِذَا غَرَبَتْ تَّقْرِضُهُمْ ذَاتَ الشِّمَالِ

यानि उस ग़ार का मुँह शिमाल की तरफ़ था जिसकी वजह से सूरज की बराहेरास्त रौशनी या धूप उसमें दिन के किसी वक़्त भी नहीं पड़ती थी। हमारे यहाँ भी धूप और साए का यही असूल कारफ़रमा है। सूरज किसी भी मौसम में शिमाल की तरफ़ नहीं जाता। इसी असूल के तहत कारखानों वगैरह की बड़ी-बड़ी इमारात में यहाँ north light shells का अहतमाम किया जाता है ताकि ऐसे shells से रौशनी तो बिलडिंग में आए मगर धूप बराहेरास्त ना आए।

“और वह उसकी खुली जगह में (लेटे हुए) थे।”وَهُمْ فِيْ فَجْــوَةٍ مِّنْهُ  ۭ

यानि ग़ार अंदर से काफ़ी कुशादा थी और असहाबे कहफ़ उसके अंदर खुली जगह में सोए हुए थे।

“यह अल्लाह की निशानियों में से है।”ذٰلِكَ مِنْ اٰيٰتِ اللّٰهِ  ۭ
“जिसे अल्लाह हिदायत देता है वही हिदायत याफ़ता होता है, और जिसे वह गुमराह कर दे तो उसके लिये तुम नहीं पाओगे कोई मददगार राह पर लाने वाला।”مَنْ يَّهْدِ اللّٰهُ فَهُوَ الْمُهْتَدِ ۚ وَمَنْ يُّضْلِلْ فَلَنْ تَجِدَ لَهٗ وَلِيًّا مُّرْشِدًا   17۝ۧ

आयत 18

“और (अगर तुम उन्हें देखते तो) तुम समझते कि वह जाग रहे हैं हालाँकि वह सो रहे थे, और हम उनकी करवटें भी बदलते रहे दायें और बायें”وَتَحْسَبُهُمْ اَيْقَاظًا وَّهُمْ رُقُوْدٌ ڰ وَّنُقَلِّبُهُمْ ذَاتَ الْيَمِيْنِ وَذَاتَ الشِّمَالِ ڰ

गोया अल्लाह तआला ने फ़रिश्तों को उनकी देख-भाल के लिये नर्सिंग ड्यूटी पर मामूर कर रखा था, जो वक़्फ़े-वक़्फ़े से उनकी करवटें बदलते रहे ताकि सालहा-साल तक एक ही पहलु पर लेटे रहने से वह bed sores जैसी किसी तक़लीफ़ से महफ़ूज़ रहें।

“और उनका कुत्ता अपने दोनों हाथ फैलाए हुए (बैठा) था देहलीज़ पर”وَكَلْبُهُمْ بَاسِطٌ ذِرَاعَيْهِ بِالْوَصِيْدِ ۭ

इस दौरान उनका कुत्ता अपनी अगली दोनों टाँगें सामने फैला कर कुत्तों के बैठने के मखसूस अंदाज़ में ग़ार के दहाने पर बैठा रहा।

“अगर तुम उन पर झाँकते तो उनसे पीठ फ़ेर कर भाग जाते और तुम पर उनकी तरफ़ से हैबत तारी हो जाती।” لَوِ اطَّلَعْتَ عَلَيْهِمْ لَوَلَّيْتَ مِنْهُمْ فِرَارًا وَّلَمُلِئْتَ مِنْهُمْ رُعْبًا    18؀

एक वीराने में अँधेरी ग़ार और उसके सामने अपने बाज़ू फैलाए बैठा हुआ एक खौफ़नाक कुता! यह एक ऐसा मंज़र था जिसे जो भी देखता डर के मारे वहाँ से भागने में ही आफ़ियत समझता।

आयत 19

“और इसी तरह हमने उन्हें उठाया ताकि वह आपस में एक-दूसरे से पूछें।”وَكَذٰلِكَ بَعَثْنٰهُمْ لِيَتَسَاۗءَلُوْا بَيْنَهُمْ ۭ
“उनमें से एक कहने वाले ने कहा कि तुम कितना अरसा यहाँ रहे होगे?”قَالَ قَاۗىِٕلٌ مِّنْهُمْ كَمْ لَبِثْتُمْ   ۭ
“कुछ बोले कि हम रहे हैं एक दिन या दिन का कुछ हिस्सा। कुछ (दूसरे) बोले कि तुम्हारा रब ख़ूब जानता है तुम कितना अरसा रहे हो!”قَالُوْا لَبِثْنَا يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍ  ۭ قَالُوْا رَبُّكُمْ اَعْلَمُ بِمَا لَبِثْتُمْ ۭ

जब कुछ साथियों ने अपनी राय का इज़हार किया कि उन्होंने एक दिन या उससे कुछ कम वक़्त नींद में गुज़ारा है तो उनके जवाब पर कुछ दूसरे साथी बोल पड़े कि इस बहस को छोड़ दो, अल्लाह को सब पता है कि तुम लोग यहाँ कितना अरसा सोए रहे हो।

“अब तुम भेजो अपने में से एक (साथी) को अपने इस चाँदी के सिक्के के साथ शहर की तरफ़”فَابْعَثُوْٓا اَحَدَكُمْ بِوَرِقِكُمْ هٰذِهٖٓ اِلَى الْمَدِيْنَةِ
“तो वह देखे कि शहर के किस हिस्से से ज़्यादा पाकीज़ा खाना मिलता है और वह वहाँ से तुम्हारे लिये कुछ खाना ले आए।”فَلْيَنْظُرْ اَيُّهَآ اَزْكٰى طَعَامًا فَلْيَاْتِكُمْ بِرِزْقٍ مِّنْهُ

ज़ाहिर है कि अपने ऐतक़ाद और नज़रिये के मुताबिक़ उन्हें पाकीज़ा खाना ही चाहिए था।

“और वह नरमी का मामला करे”وَلْيَتَلَطَّفْ

यानि जो साथी खाना लेने के लिये जाए वह लोगों से बात-चीत और लेन-देन करते हुए ख़ुसूसी तौर पर अपना रवैय्या नरम रखे। ऐसा ना हो कि वह किसी से झगड़ पड़े और इस तरह हम सबके लिये कोई मसला खड़ा हो जाए।

यहाँ पर नोट कर लीजिए कि क़ुरान के हुरूफ़ की गिनती के ऐतबार से लफ्ज़ وَلْيَتَلَطَّفْ की “ت” पर क़ुरान का निस्फ़े अव्वल पूरा हो गया है और इसके बाद लफ्ज़ “ل” से निस्फ़े सानी शुरू हो रहा है।

“और वह आगाह ना कर दे तुम्हारे बारे में किसी को।”وَلَا يُشْعِرَنَّ بِكُمْ اَحَدًا   19؀

आयत 20

“क्योंकि अगर उन्होंने तुम पर क़ाबू पा लिया तो वह तुम्हे संगसार कर देंगे या तुम्हें वापस ले जायेंगे अपने दीन में, और तब तो तुम कभी भी फ़लाह नहीं पा सकोगे।”اِنَّهُمْ اِنْ يَّظْهَرُوْا عَلَيْكُمْ يَرْجُمُوْكُمْ اَوْ يُعِيْدُوْكُمْ فِيْ مِلَّتِهِمْ وَلَنْ تُفْلِحُوْٓا اِذًا اَبَدًا    20؀

अगर उन्होंने तुम्हें मजबूर कर दिया कि तुम फ़िर से उनका दीन क़ुबूल कर लो तो ऐसी सूरत में तुम हमेशा के लिये हिदायत से दूर हो जाओगे।

आयत 21

“और इस तरह हमने मुत्तलाअ कर दिया (लोगों को) उन पर”وَكَذٰلِكَ اَعْثَرْنَا عَلَيْهِمْ

चुनाँचे असहाबे कहफ़ का एक साथी जब खाना लेने के लिये शहर गया तो अपने लिबास, हुलिये और करन्सी वगैरह के बाइस फ़ौरी तौर पर पहचान लिया गया कि वह मौजूदा ज़माने का इंसान नहीं है। फ़िर जब उससे तफ़तीश की गई तो सारा राज़ खुल गया। उस वक़्त अगरचे इस वाक़िये को तीन सौ साल से ज़ाएद का अरसा गुज़र चुका था मगर इसके बावजूद यह बात अभी तक लोगों के इल्म में थी कि फलां बादशाह के डर से इस शहर से सात आदमी कहीं रूपोश हो गए थे और पूरी ममलिकत में तलाश बसयार के बावजूद कहीं उनका सुराग ना मिल सका था। इसी तरह यह बात भी लोगों के इल्म में थी कि इस पूरे वाक़िये को एक तख्ती पर लिख कर रिकॉर्ड के तौर पर शाही खज़ाने में महफूज़ कर लिया गया था। लिहाज़ा असहाबे कहफ़ के साथी से मिलने वाली मालूमात की तस्दीक़ के लिये जब मज़कूरह तख्ती रिकॉर्ड से निकलवाई गई तो उस पर इस वाक़िये की तमाम तफ़सीलात लिखी हुई मिल गईं और यूँ ये वाक़िया पूरी वज़ाहत के साथ लोगों के सामने आ गया।

“ताकि वह जान लें कि अल्लाह का वादा सच्चा है और यह कि क़यामत के बारे में हरगिज़ कोई शक नहीं।”لِيَعْلَمُوْٓا اَنَّ وَعْدَ اللّٰهِ حَقٌّ وَّاَنَّ السَّاعَةَ لَا رَيْبَ فِيْهَاڥ

ये वाक़िया गोया बाअसे बाद अल मौत के बारे में एक वाज़ेह दलील था कि जब अल्लाह तआला ने तीन सौ साल तक इन लोगों को सुलाए रखा और फ़िर उठा खड़ा किया तो उसके लिये मुर्दों का दोबारा ज़िन्दा करना क्यों कर मुमकिन नहीं होगा?

“जब वह लोग आपस में झगड़ रहे थे उनके मामले में”اِذْ يَتَنَازَعُوْنَ بَيْنَهُمْ اَمْرَهُمْ

इसके बाद असहाबे कहफ़ तो अपनी ग़ार में पहले की तरह सो गए और अल्लाह तआला ने उन पर हक़ीक़ी मौत वारिद कर दी, लेकिन लोगों के दरमियान इस बारे में इख्तलाफ़ पैदा हो गया कि उनके बारे में हतमी तौर पर क्या मामला किया जाए।

“चुनाँचे कुछ लोगों ने कहा कि तामीर कर दो इन पर एक इमारत (बतौर यादगार), इनका रब इनसे बेहतर वाक़िफ़ है।”فَقَالُوا ابْنُوْا عَلَيْهِمْ بُنْيَانًا  ۭ رَبُّهُمْ اَعْلَمُ بِهِمْ ۭ

कुछ लोगों ने राय दी कि इस मामले की अहमियत के पेशे नज़र यहाँ एक शानदार यादगार तामीर की जानी चाहिये।

“जो लोग ग़ालिब आए अपनी राय के ऐतबार से उन्होंने कहा कि हम बनाएँगे इन (की ग़ार) पर एक मस्जिद।”قَالَ الَّذِيْنَ غَلَبُوْا عَلٰٓي اَمْرِهِمْ لَنَتَّخِذَنَّ عَلَيْهِمْ مَّسْجِدًا   21؀

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आयत 22

“अब यह लोग कहेंगे कि वह तीन थे, उनका चौथा उनका कुत्ता था, और कुछ लोग कहेंगे कि वह पाँच थे, उनका छठा उनका कुत्ता था, ये सब तीर तुक्के चला रहे हैं अँधेरे में, और कुछ लोग कहेंगे कि वह सात थे और उनका आठवाँ उनका कुत्ता था।”سَيَقُوْلُوْنَ ثَلٰثَةٌ رَّابِعُهُمْ كَلْبُهُمْ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ خَمْسَةٌ سَادِسُهُمْ كَلْبُهُمْ رَجْمًۢا بِالْغَيْبِ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ سَبْعَةٌ وَّثَامِنُهُمْ كَلْبُهُمْ ۭ
“आप कहिये: मेरा रब बेहतर जानता है उनकी तादाद को, नहीं जानते (उनके मामले) को मगर बहुत थोड़े लोग।”قُلْ رَّبِّيْٓ اَعْلَمُ بِعِدَّتِهِمْ مَّا يَعْلَمُهُمْ اِلَّا قَلِيْلٌ ڢ

क़ुरान मजीद में उनकी तादाद के बारे में सराहत तो नहीं की गई मगर अक्सर मुफ़स्सरीन के मुताबिक़ बैनुल सतूर में आख़री राय के दुरुस्त होने के शवाहिद मौजूद हैं। इसमें एक नुक्ता तो ये है कि पहले फिक़रे { ثَلٰثَةٌ رَّابِعُهُمْ كَلْبُهُمْ ۚ } और दूसरे फिक़रे { خَمْسَةٌ سَادِسُهُمْ كَلْبُهُمْ } के दरमियान में “و” नहीं है, जबकि तीसरे फिक़रे में { سَبْعَةٌ وَّثَامِنُهُمْ كَلْبُهُمْ ۭ} के दरमियान में “و” मौजूद है। चुनाँचे पहले दो कलिमात के मुक़ाबले में तीसरे कलमे के बयान में “و” की वजह से ज़्यादा ज़ोर है।

इस ज़िमन में दूसरा नुक्ता यह है कि जब वह लोग जागे थे तो उनमें से एक ने सवाल किया था: {كَمْ لَبِثْتُمْ ۭ} (आयत 19)कि तुम यहाँ कितनी दर सोए रहे हो? इस सवाल का जवाब क़ुरान हकीम में बा-अल्फ़ाज़ नक़ल हुआ है: {قَالُوْا لَبِثْنَا يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍ  ۭ} (आयत 19) उन्होंने कहा कि हम एक दिन या एक दिन से कुछ कम अरसा तक सोए रहे हैं। यहाँ पर قَالُو चूँकि जमा का सीगा है इसलिये यह जवाब देने वाले कम अज़ कम तीन लोग थे, जबकि इस सवाल के जवाब में उनके जिन साथियों ने दूसरी राय दी थी वह भी कम अज़ कम तीन ही थे, क्योंकि उनके लिये भी قَالُو जमा का सीगा ही इस्तेमाल हुआ है: {قَالُوْا رَبُّكُمْ اَعْلَمُ بِمَا لَبِثْتُمْ ۭ}। इस तरह उनकी तादाद सात ही दुरुस्त मालूम होती है। यानि एक पूछने वाला, तीन लोग एक राय देने वाले और उनके जवाब में तीन लोग दूसरी राय का इज़हार करने वाले।

इसके अलावा क़दीम रोमन लिट्रेचर में भी जहाँ इनका ज़िक्र मिलता है वहाँ इनकी तादाद सात ही बताई गई है। क़ब्ल अज़ गबन की किताब का हवाला भी दिया जा चुका है जिसमें Seven Sleepers का ज़िक्र है। लेकिन यहाँ जिस बात की तरफ़ ख़ास तौर पर तव्वजो दिलाई गई है वह यह है कि इस मामले में बहस करने और झगड़ने की ज़रूरत ही नहीं है:

“तो ऐ (नबी !) आप इनके बारे में झगड़ा मत करें सिवाय सरसरी बहस के, और ना ही आप पूछिए इनके बारे में इनमें से किसी से।”فَلَا تُمَارِ فِيْهِمْ اِلَّا مِرَاۗءً ظَاهِرًا  ۠ وَّلَا تَسْتَفْتِ فِيْهِمْ مِّنْهُمْ اَحَدًا    22؀ۧ

यानि जो बात दावते दीन और इक़ामते दीन के हवाले से अहम ना हो उसमें बे-मक़सद छान-बीन करना और बहस व नज़ाअ में पड़ना, गोया वक़्त ज़ाया करने और अपनी जद्दो-जहद को नुक़सान पहुँचाने के मुतरादिफ़ है।

आयत 23

“और किसी चीज़ के बारे में कभी ये ना कहा करें कि मैं ये काम कल ज़रूर कर दूँगा।”وَلَا تَقُوْلَنَّ لِشَايْءٍ اِنِّىْ فَاعِلٌ ذٰلِكَ غَدًا   23؀ۙ

इस आयत में एक बहुत अहम वाक़िये का हवाला है। जब अहले मक्का ने रसूल अल्लाह ﷺ से सवालात किए तो आपने फ़रमाया कि मैं आप लोगों को इन सवालात के जवाबात कल दे दूँगा। इस मौक़े पर आप ﷺ ने सहवन “इंशा अल्लाह” नहीं फ़रमाया। इसके बाद कई रोज़ तक वही ना आई। ये सूरते हाल आपके लिए इन्तहाई परेशान कुन थी। मुखालफ़ीन खुशी में तालियाँ पीट रहे होंगे, आपको नाकामी के ताने दे रहे होंगे और आपको ये सब कुछ बरदास्त करना पड़ रहा होगा। इससे अंदाज़ा होता है कि अल्लाह तआला अपने महबूब को कैसी-कैसी सख्त आज़माइशों से दो-चार करता है: “जिनके रुतबे हैं सवा उनकी सवा मुश्किल है!”

आम लोग अपनी रोज़मर्रा की गुफ्तगू में कैसी-कैसी ला-यानि बातें करते रहते हैं लेकिन अल्लाह के यहाँ उनकी पकड़ नहीं होती, इसलिये कि वह अल्लाह की यहाँ अहम नहीं होते, मगर यहाँ एक इन्तहाई मुक़र्रब हस्ती से सहवन एक कलमा अदा होने से रह गया तो बावजूद इसके कि मामला बेहद हस्सास था, वहि रोक ली गई। बिलआख़िर कई रोज़ के बाद जब अल्लाह को मंज़ूर हुआ तो हज़रत जिब्राइल अलै. सवालात के जवाबात भी लेकर आए और साथ ये हिदायत भी कि कभी किसी चीज़ के बारे में यूँ ना कहें कि मैं कल ये करूँगा:

आयत 24

“मगर ये कि अल्लाह चाहे!”اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ  ۡ

यानि मुस्तक़बिल के बारे में जब भी कोई बात करें तो “इन्शा अल्लाह” ज़रूर कहें कि अगर अल्लाह ने चाहा तो मैं यूँ करूँगा। अल्लाह तआला का मुसलमानों पर ये ख़ुसूसी फ़ज़ल है कि उन्हें अपनी मआशरती ज़िंदगी में रोज़मर्रा के मामुलात के लिये ऐसे कलिमात सिखाए गए जिनमें तौहीद कूट-कूट कर भरी हुई है। आपने कोई खूबसूरत चीज़ देखी जिससे आपका दिल खुश हुआ, आपने कहा: सुब्हान अल्लाह! गोया आपने इक़रार किया कि ये इस चीज़ का कमाल नहीं और ना ही ये चीज़ ब-ज़ाते खुद लायक़-ए-तारीफ़ है बल्कि तारीफ़ तो अल्लाह की है जिसने ये खूबसूरत चीज़ बनाई। आपकी कोई तकलीफ़ दूर हुई तो मुँह से निकला: अल्हम्दुलिल्लाह! यानि जो भी मुश्किल आसान हुई अल्लाह की मदद, उसकी मेहरबानी और उसके हुक्म से हुई, लिहाज़ा शुक्र भी उसी का अदा किया जाएगा। आप अपने घर में दाख़िल हुए, अहलो अयाल को खुश व ख़ुर्रम पाया, आपने कहा: माशा अल्लाह! कि इसमें मेरा या किसी और का कोई कमाल नहीं, ये सब अल्लाह की मर्ज़ी और मशीयत से है। इसी तरह मुस्तक़बिल में किसी काम के करने के बारे में इज़हार किया तो साथ इंशाअल्लाह कहा। यानि मेरा इरादा तो यूँ है मगर सिर्फ़ मेरे इरादे से क्या होता है, हक़ीक़त में ये काम तभी होगा और मैं इसे तभी कर पाउँगा जब अल्लाह को मंज़ूर होगा, क्योंकि अल्लाह की मशीयत और मर्ज़ी के बगैर कुछ नहीं हो सकता। गोया इन कलिमात के ज़रिये क़दम क़दम पर और बात-बात में हमें तौहीद का सबक़ याद दिलाया जाता है। अल्लाह के इल्म, उसके हुक्म, उसके इख्तियार व इक़तदार, उसकी क़ुदरत, उसकी मशीयत के मुताल्लिक़ और फ़ाएक़ होने के इक़रार की तरगीब दी जाती है। इनमें से ज़्यादा तर कलिमात (अल्हम्दुलिल्लाह, इंशाअल्लाह, माशा अल्लाह) इस सूरत में मौजूद हैं।

“और अपने रब को याद कर लिया कीजिये जब आप भूल जायें”وَاذْكُرْ رَّبَّكَ اِذَا نَسِيْتَ

अगर किसी वक़्त भूल जायें तो याद आने पर दोबारा अल्लाह की तरफ़ अपना ध्यान लगा लीजिये।

“और कहिये: हो सकता है कि मेरा रब मेरी रहनुमाई करदे इससे बेहतर भलाई की तरफ़।”وَقُلْ عَسٰٓي اَنْ يَّهْدِيَنِ رَبِّيْ لِاَقْرَبَ مِنْ هٰذَا رَشَدًا  24؀

यानि किसी भी काम के लिये कोशिश करते हुए इंसान को “तफ़वीज़ुल अम्र इलाल्लाह” की कैफ़ियत में रहना चाहिये कि अगर अल्लाह को मंज़ूर हुआ तो मैं इस कोशिश में कामयाब हो जाऊँगा, वरना हो सकता है मेरा रब मेरे लिये इससे भी बेहतर किसी काम के लिये अस्बाब पैदा फ़रमा दे। गोया इंसान अपने तमाम मामलात हर वक़्त अल्लाह तआला के सुपुर्द किये रखे:

सुपुर्दम बतो माया-ए-ख्वीश रा, तू दानी हिसाबे कम व बेशरा!

आयत 25

“और वह रहे अपनी ग़ार में तीन सौ बरस और इसके ऊपर नौ बरस।”وَلَبِثُوْا فِيْ كَهْفِهِمْ ثَلٰثَ مِائَةٍ سِنِيْنَ وَازْدَادُوْا تِسْعًا   25؀

यानि ग़ार में उनके सोने की मुद्दत शम्सी कैलेंडर में तीन सौ साल जबकि क़मरी कैलेंडर के मुताबिक़ तीन सौ नौ साल बनती है।

आयत 26

“आप कहिये कि अल्लाह बेहतर जानता है उसमें जितना (अरसा) वह रहे”قُلِ اللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا لَبِثُوْا  ۚ

यानि इस बहस में भी पड़ने की ज़रूरत नहीं कि वह ग़ार में कितना अरसा सोए रहे। इसका जवाब भी आप इनको यही दें कि इस मुद्दत के बारे में भी अल्लाह ही बेहतर जानता है।

“उसी के लिये है आसमानों और ज़मीन का गैब। क्या ही ख़ूब है वह उसको देखने वाला और क्या ही ख़ूब है वह सुनने वाला!”لَهٗ غَيْبُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ  ۭ اَبْصِرْ بِهٖ وَاَسْمِعْ  ۭ
“उसके सिवा उनका कोई मददगार नहीं, और वह शरीक़ नहीं करता अपने हुक्म में किसी को भी।”مَا لَهُمْ مِّنْ دُوْنِهٖ مِنْ وَّلِيٍّ  ۡ وَّلَا يُشْرِكُ فِيْ حُكْمِهٖٓ اَحَدًا    26؀

उसके सिवाए उनका कोई साथी, कारसाज़, मददगार, हिमायती और पुश्त पनाह नहीं है। लफ्ज़ “वली” इन सब मायनों का इहाता करता है।

वह अपने इख्तियार और अपनी हाकिमियत के हक़ में किसी दूसरे को शरीक नहीं करता। यह तैहिदे हाकिमियत है। इस बारे में सूरह युसुफ़ (आयत 40, 67) में इस तरह इरशाद हुआ: { اِنِ الْحُكْمُ اِلَّا لِلّٰهِ  ۭ } “इख्तियारे मुतलक़ तो सिर्फ़ अल्लाह ही का है।” जबकि सूरह बनी इसराइल की आख़री आयत में यूँ फ़रमाया गया: { وَّلَمْ يَكُنْ لَّهٗ شَرِيْكٌ فِي الْمُلْكِ } “और उसका कोई शरीक नहीं है बादशाहत में।”

आयात 27 से 31 तक

وَاتْلُ مَآ اُوْحِيَ اِلَيْكَ مِنْ كِتَابِ  رَبِّكَ  ڝ لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمٰتِهٖ  ڟ وَلَنْ تَجِدَ مِنْ دُوْنِهٖ مُلْتَحَدًا  27؀ وَاصْبِرْ نَفْسَكَ مَعَ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ رَبَّهُمْ بِالْغَدٰوةِ وَالْعَشِيِّ يُرِيْدُوْنَ وَجْهَهٗ وَلَا تَعْدُ عَيْنٰكَ عَنْهُمْ  ۚ تُرِيْدُ زِيْنَةَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا  ۚ وَلَا تُطِعْ مَنْ اَغْفَلْنَا قَلْبَهٗ عَنْ ذِكْرِنَا وَاتَّبَعَ هَوٰىهُ وَكَانَ اَمْرُهٗ فُرُطًا   28؀ وَقُلِ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكُمْ   ۣ فَمَنْ شَاۗءَ فَلْيُؤْمِنْ وَّمَنْ شَاۗءَ فَلْيَكْفُرْ  ۙ اِنَّآ اَعْتَدْنَا لِلظّٰلِمِيْنَ نَارًا  ۙ اَحَاطَ بِهِمْ سُرَادِقُهَا  ۭ وَاِنْ يَّسْتَغِيْثُوْا يُغَاثُوْا بِمَاۗءٍ كَالْمُهْلِ يَشْوِي الْوُجُوْهَ  ۭ بِئْسَ الشَّرَابُ  ۭ وَسَاۗءَتْ مُرْتَفَقًا    29؀ اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اِنَّا لَا نُضِيْعُ اَجْرَ مَنْ اَحْسَنَ عَمَلًا   30؀ۚ اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ جَنّٰتُ عَدْنٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمُ الْاَنْهٰرُ يُحَلَّوْنَ فِيْهَا مِنْ اَسَاوِرَ مِنْ ذَهَبٍ وَّيَلْبَسُوْنَ ثِيَابًا خُضْرًا مِّنْ سُنْدُسٍ وَّاِسْتَبْرَقٍ مُّتَّكِــِٕـيْنَ فِيْهَا عَلَي الْاَرَاۗىِٕكِ  ۭ نِعْمَ الثَّوَابُ  ۭ وَحَسُنَتْ مُرْتَفَقًا    31؀ۧ

आयत 27

“और (ऐ नबी !) आप तिलावत कीजिये जो आपकी तरफ़ वहि की गई है आपके रब की किताब में से।”وَاتْلُ مَآ اُوْحِيَ اِلَيْكَ مِنْ كِتَابِ  رَبِّكَ  ڝ

यानि इस वक़्त आप बहुत मुश्किल सूरते हाल का सामना कर रहे हैं। इस कैफ़ियत में आपको सब्र व इस्तक़ामत की सख्त ज़रूरत है: {وَاصْبِرْ وَمَا صَبْرُكَ اِلَّا بِاللّٰهِ} (सूरह नहल: 127) “और (ऐ नबी ﷺ!) आप सब्र कीजिये और आपका सब्र तो अल्लाह के सहारे पर ही है।” यह सहारा आपको अल्लाह के साथ अपना क़ल्बी ताल्लुक़ और ज़हनी रिश्ता अस्तवार करने से मयस्सर होगा और ये ताल्लुक़ मज़बूत करने का सबसे मौअस्सर ज़रिया क़ुरान मजीद की तिलावत है। तमस्सक बिल क़ुरान का ये मज़मून सूरतुल अनकबूत में (इक्कीसवें पारे के आग़ाज़ में) दोबारा आएगा। हक़ व बातिल की कशमकश में जब भी कोई मुश्किल वक़्त आया तो रसूल अल्लाह ﷺ को ख़ुसूसी तौर पर तमस्सक बिल क़ुरान की हिदायत की गई, और आपकी वसातत से तमाम मुसलमानों को हुक्म दिया गया कि वह क़ुरान की तिलावत को अपना मामूल बनायें, क़ुरान के साथ अपना ताल्लुक़ मज़बूत बनाने के लिये ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त इसके साथ सर्फ़ करें। इसी तरह वह मुश्किलात व शदाइद को बरदाश्त करने और अपने दुश्मनों का मुक़ाबला करने के क़ाबिल हो सकेंगे।

“उसकी बातों को बदलने वाला कोई नहीं है, और आप नहीं पायेंगे उसके सिवा कोई जाए पनाह।”لَا مُبَدِّلَ لِكَلِمٰتِهٖ  ڟ وَلَنْ تَجِدَ مِنْ دُوْنِهٖ مُلْتَحَدًا  27؀

यक़ीनन यह रास्ता बहुत कठिन है और इस रास्ते के मुसाफिरों ने सख्तियों को बहरहाल बरदाश्त करना है। ये अल्लाह का क़ानून है जो किसी के लिये तब्दील नहीं किया जाता। इस मुहिम में वाहिद सहारा अल्लाह की मदद और नुसरत है। चुनाँचे अगर आपको कहीं पनाह मिलेगी तो अल्लाह ही के दामन में मिलेगी, उस दर के सिवा कोई जाए पनाह नहीं है। अल्लामा इक़बाल ने इसी मज़मून की तर्जुमानी अपने इस शेर में की है:

ना कहीं जहाँ में अमाँ मिली, जो अमाँ मिली तो कहाँ मिली

मेरे जुर्मे खाना ख़राब को, तेरे अफ़व बन्दा नवाज़ में!

आयत 28

“और अपने आपको रोके रखिये उन लोगों के साथ जो अपने रब को पुकारते हैं सुबह व शाम”وَاصْبِرْ نَفْسَكَ مَعَ الَّذِيْنَ يَدْعُوْنَ رَبَّهُمْ بِالْغَدٰوةِ وَالْعَشِيِّ

यह बिलाल हब्शी, अब्दुल्लाह बिन उम्मे मकतूम, अम्मार बिन यासिर और खब्बाब रज़ि. जैसे लोग अगरचे मुफ़लिस और नादार हैं मगर अल्लाह की नज़र में बहुत अहम हैं। आप इन लोगों की रफ़ाक़त तो गनीमत समझिये, और अपने दिल को इन लोगों की मईयत (साथ) पर मुतमईन कीजिये।

“वह अल्लाह की रज़ा के तालिब हैं और आपकी निगाहें उनसे हटने ना पायें, (जिससे लोगों को ये गुमान होने लगे कि) आप दुनियवी ज़िंदगी की आराईश व ज़ेबाईश चाहते हैं!”يُرِيْدُوْنَ وَجْهَهٗ وَلَا تَعْدُ عَيْنٰكَ عَنْهُمْ  ۚ تُرِيْدُ زِيْنَةَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا  ۚ

इन गुलामों और बे-आसरा लोगों से आपकी तवज्जो हट कर कहीं मक्का के सरदारों और अमराअ की तरह ना होने पाए, जिससे लोगों को ये गुमान हो कि आप भी दुनिया की ज़ेब व ज़ीनत ही को अहमियत देते हैं। लिहाज़ा वलीद बिन मुगीराह बज़ाहिर कितना ही बा-असर और साहिबे सरवत सही, आप अब्दुल्लाह बिन उम्मे मकतूम रज़ि. को नज़रअंदाज़ करके उसे हरगिज़ अहमियत ना दें। तर्जुमे के ऐतबार से ये आयत मुश्किल आयात में से है। यहाँ अल्फ़ाज़ के ऐन मुताबिक़ तर्जुमा मुमकिन नहीं। हुज़ूर ﷺ की ये शान हरगिज़ ना थी कि आप ﷺ की नज़रें गुरबाअ से हट कर अमराअ की तरफ़ उठतीं। चुनाँचे इन अल्फ़ाज़ से यही मफ़हूम समझ में आता है कि दरअसल आपको ये बताना मक़सूद है कि आप दावत व तबलीग की गर्ज़ से भी इन अमराअ की तरफ़ इस अंदाज़ में इलतफ़ात ना फ़रमाएँ जिससे किसी को मुगालता हो कि आप ﷺ की निगाह में दुनियवी माल व असबाब की भी कुछ वक़अत और अहमियत है। सूरतुल हिज्र में यही मज़मून इस तरह बयान हुआ है: { لَا تَمُدَّنَّ عَيْنَيْكَ اِلٰى مَا مَتَّعْنَا بِهٖٓ اَزْوَاجًا مِّنْهُمْ وَلَا تَحْزَنْ عَلَيْهِمْ وَاخْفِضْ جَنَاحَكَ لِلْمُؤْمِنِيْنَ} “आप आँख उठा कर भी ना देखें उस माल व मताअ की तरफ़ जो हमने इनके मुख्तलिफ़ गिरोहों को दे रखा है और आप इन (अमराअ) के बारे में फ़िक्रमंद ना हों और अहले ईमान के लिये अपने बाज़ू झुका कर रखें!”

किसी भी दाई-ए-हक़ के लिये ये मामला बहुत नाज़ुक होता है। मआशरे के ऊँचे तबक़े के लोगों का बहरहाल अपना एक हल्क़ा असर होता है। उनमें से अगर कोई अहले हक़ की सफ़ में शामिल होता है तो वह अकेला बहुत से अफ़राद के बराबर शुमार होता है और उसकी वजह से कई दूसरे लोग खुद-ब-खुद खिंचे आते हैं और पहले से मौजूद लोगों के लिये भी ऐसे शख्स की शमूलियत तक़वियत और इत्मिनान का बाइस होती है। जैसे हुज़ूर ﷺ ने अल्लाह तआला से अपनी इस ख्वाहिश का इज़हार किया था कि उमर बिन खत्ताब रज़ि. या उमर बिन हश्शाम (अबु जहल) में से किसी एक को ज़रूर मेरी झोली में डाल दे! इस दोनों में से कोई एक ईमान ले आए। ज़ाहिर है कि इन जैसी बा-असर शख्सियात में से किसी का ईमान लाना इस्लाम के लिये बाइसे तक़वियत होगा और उसकी रफ़ाक़त से इन कमज़ोर मुसलमानों को सहारा मिलेगा जिन पर क़ाफ़िया-ए-हयात तंग हुआ जा रहा है। और फिर वाक़िअतन ऐसा हुआ भी कि हज़रत उमर और हज़रत हमज़ा रज़ि. के ईमान लाने के बाद मक्का में कमज़ोर मुसलमानों पर क़ुरैश के ज़ुल्म व तअदी में काफ़ी हद तक कमी आ गई।

बहरहाल इस सिलसिले में मअरूज़ी हक़ाएक़ (objective truth) किसी भी दाई को इस तरफ़ रागिब करते हैं कि मआशरे के मतमूल तबक़ों और अरबाबे इख्तियार व इक़तदार तक पैग़ामे हक़ तरजीही बुनियादों पर पहुँचाया जाए और उन्हें अपनी तहरीक में शामिल करने के लिये तमाम मुमकिना वसाइल बरवेकार लाए जाएँ। मगर दूसरी तरफ़ इस हिकमते अमली से तहरीक के नादार और आम अरकान को ये तअस्सुर मिलने का अंदेशा होता है कि उन्हें कम हैसियत समझ कर नज़र अंदाज़ किया जा रहा है और इस तरह उनकी हौसला शकनी होने का इम्कान पैदा होता है। इस मामले का एक पहलु ये भी है कि जब कोई दाई-ए-हक़ असर व रसूख़ के हामिल अफ़राद की तरफ़ तरजीही अंदाज़ में मुतवज्जा होगा तो अवाम में उसकी ज़ात उसकी तहरीक के बारे में ये तअस्सुर उभरने का अंदेशा होगा कि ये लोग भी अमराअ और अरबाबे इख्तियार से मरऊब हैं और इनके यहाँ भी दुनियवी ठाठ-बाठ को ही तरजीह दी जाती है। चुनाँचे दौलत मंद और असर व रसूख के हामिल अफ़राद तक दीन की दावत को फ़ैलाने की कोशिश के साथ-साथ इस सिलसिले में मज़कूरा बाला दो अवामिल के मनफ़ी असरात से बचना भी निहायत ज़रूरी है। चुनाँचे हुज़ूर ﷺ को इस आयत में हुक्म दिया जा रहा है कि आप इस सिलसिले में अहतियात करें, कहीं लोग ये तअस्सुर ना ले लें कि मोहम्मद (ﷺ) के यहाँ भी दौलतमंद लोगों ही को ख़ुसूसी अहमियत दी जाती है।

“और मत कहना मानिये ऐसे शख्स का जिसका दिल हमने अपनी याद से ग़ाफिल कर दिया है और जो अपनी ख्वाहिशात के पीछे पड़ा है और उसका मामला हद से मुतजाविज़ हो चुका है।”وَلَا تُطِعْ مَنْ اَغْفَلْنَا قَلْبَهٗ عَنْ ذِكْرِنَا وَاتَّبَعَ هَوٰىهُ وَكَانَ اَمْرُهٗ فُرُطًا   28؀

ये बात मुतअद्दिद बार बयान हो चुकी है कि कुफ्फ़ारे मक्का रसूल अल्लाह ﷺ के साथ मदाहनत पर असर थे और वह आपके साथ कुछ दो और कुछ लो कि बुनियाद पर मुज़ाकरात करना चाहते थे। इस सिलसिले में सरदाराने क़ुरैश की तरफ़ से आप पर शदीद दबाव था। इस पसमंज़र में यहाँ फ़िर मुतनब्बा (ख़बरदार) किया जा रहा है कि जिन लोगों के दिलों को हमने अपनी याद से गाफिल और महरूम कर दिया है आप ऐसे लोगों की बातों की तरफ़ ध्यान भी मत दीजिए।

आयत 29

“और आप कह दीजिये कि यही हक़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से, तो अब जो चाहे ईमान लाए और जो चाहे कुफ़्र करे।”وَقُلِ الْحَقُّ مِنْ رَّبِّكُمْ   ۣ فَمَنْ شَاۗءَ فَلْيُؤْمِنْ وَّمَنْ شَاۗءَ فَلْيَكْفُرْ  ۙ

कुफ्फ़ारे मक्का की तरफ़ से कोई दरमियानी रास्ता निकालने की कोशिशों के जवाब में यहाँ हुज़ूर ﷺ की ज़बाने मुबारक से वाज़ेह और दो टूक अंदाज़ में ऐलान कराया जा रहा है कि तुम्हारे रब की तरफ़ से जो हक़ मेरे पास आया है वह मैंने तुम लोगों के सामने पेश कर दिया है। अब तुम्हारे सामने दो ही रास्ते हैं, इसे मन-व-अन क़ुबूल कर लो या इसे रद्द कर दो। लेकिन याद रखो इसमें कुछ लो और कुछ दो के असूल पर तुमसे कोई सौदेबाज़ी मुमकिन नहीं। ये वही मज़मून है जो सूरतुल दहर (आयत नम्बर 3) में इस तरह बयान हुआ है: {اِنَّا هَدَيْنٰهُ السَّبِيْلَ اِمَّا شَاكِرًا وَّاِمَّا كَفُوْرًا} यानि हमने इंसान के लिये हिदायत का रास्ता वाज़ेह कर दिया है और उसको इख्तियार दे दिया है कि अब चाहे वह शुक्रगुज़ार बने और चाहे नाशुक्रा।

“हमने ज़ालिमों के लिये आग तैयार कर रखी है, उसकी क़नातें उनका अहाता कर लेंगी।” اِنَّآ اَعْتَدْنَا لِلظّٰلِمِيْنَ نَارًا  ۙ اَحَاطَ بِهِمْ سُرَادِقُهَا  ۭ

ज़हन्नम की आग़ क़नातों की शक्ल में होगी और वह अल्लाह के मुनकरीन और मुशरिकीन को घेरे में ले लेगी।

“और अगर वह पानी के लिये फ़रयाद करेंगे तो उनकी फ़रयादरसी ऐसे पानी से की जाएगी जो (खौलते हुए) तेल की तलछट जैसा होगा, जो चेहरों को भून डालेगा।”وَاِنْ يَّسْتَغِيْثُوْا يُغَاثُوْا بِمَاۗءٍ كَالْمُهْلِ يَشْوِي الْوُجُوْهَ  ۭ
“बहुत ही बुरी चीज़ होगी पीने की, और वह (जहन्नन) बहुत ही बुरी जगह है आराम की!”بِئْسَ الشَّرَابُ  ۭ وَسَاۗءَتْ مُرْتَفَقًا    29؀

“مُهْل” का तर्जुमा तेल की तलछट के अलावा लावा भी किया गया है और पिघला हुआ ताँबा भी। सूरह इब्राहीम की आयत 16 में जहन्नमियों को पिलाये जाने वाले पानी को “مَآءٍ صَدِیْدٍ” कहा गया है जिसके मायने ज़ख्मों से रिसने वाले पीप के हैं। बहरहाल ये सयाल माद्दा जो उन्हें पानी के तौर पर दिया जाएगा इस क़दर ग़रम होगा कि उनके चेहरों को भून कर रख देगा। अब आइन्दा आयात में फ़ौरी तक़ाबुल के लिये अहले जन्नत का ज़िक्र आ रहा है।

आयत 30

“यक़ीनन जो लोग ईमान लाए और उन्होंने अच्छे अमल किये तो हम नहीं ज़ाया करेंगे अज्र उस शख्स का जिसने अच्छा अमल किया।”اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اِنَّا لَا نُضِيْعُ اَجْرَ مَنْ اَحْسَنَ عَمَلًا   30؀ۚ

आयत 31

“उन्हीं लोगों के लिये हैं रहने के ऐसे बाग़ात जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी”اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ جَنّٰتُ عَدْنٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهِمُ الْاَنْهٰرُ
“उन्हें पहनाए जायेंगे उसमें सोने के कंगन और वह पहनेंगे सब्ज़ रंग के कपड़े बारीक रेशम के और मोटे रेशम के”يُحَلَّوْنَ فِيْهَا مِنْ اَسَاوِرَ مِنْ ذَهَبٍ وَّيَلْبَسُوْنَ ثِيَابًا خُضْرًا مِّنْ سُنْدُسٍ وَّاِسْتَبْرَقٍ

यानि उनका ऊपर का लिबास बारीक रेशम का होगा जबकि नीचे का लिबास मोटे रेशम का होगा।

“टेक लगाए बैठे होंगे तख्तों पर।”مُّتَّكِــِٕـيْنَ فِيْهَا عَلَي الْاَرَاۗىِٕكِ  ۭ
“क्या ही अच्छा बदला होगा (उनके लिये) और क्या ही ख़ूब आरामगाह होगी!”نِعْمَ الثَّوَابُ  ۭ وَحَسُنَتْ مُرْتَفَقًا    31؀ۧ

आयात 32 से 44 तक

وَاضْرِبْ لَهُمْ مَّثَلًا رَّجُلَيْنِ جَعَلْنَا لِاَحَدِهِمَا جَنَّتَيْنِ مِنْ اَعْنَابٍ وَّحَفَفْنٰهُمَا بِنَخْلٍ وَّجَعَلْنَا بَيْنَهُمَا زَرْعًا   32؀ۭ كِلْتَا الْجَنَّتَيْنِ اٰتَتْ اُكُلَهَا وَلَمْ تَظْلِمْ مِّنْهُ شَـيْــــًٔـا  ۙ وَّفَجَّرْنَا خِلٰلَهُمَا نَهَرًا  33؀ۙ وَّكَانَ لَهٗ ثَمَــــرٌ ۚ فَقَالَ لِصَاحِبِهٖ وَهُوَ يُحَاوِرُهٗٓ اَنَا اَكْثَرُ مِنْكَ مَالًا وَّاَعَزُّ نَفَرًا  34؀ وَدَخَلَ جَنَّتَهٗ وَهُوَ ظَالِمٌ لِّنَفْسِهٖ  ۚ قَالَ مَآ اَظُنُّ اَنْ تَبِيْدَ هٰذِهٖٓ اَبَدًا  35؀ۙ وَّمَآ اَظُنُّ السَّاعَةَ قَاۗىِٕمَةً   ۙ  وَّلَىِٕنْ رُّدِدْتُّ اِلٰى رَبِّيْ لَاَجِدَنَّ خَيْرًا مِّنْهَا مُنْقَلَبًا  36؀ قَالَ لَهٗ صَاحِبُهٗ وَهُوَ يُحَاوِرُهٗٓ اَكَفَرْتَ بِالَّذِيْ خَلَقَكَ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ مِنْ نُّطْفَةٍ ثُمَّ سَوّٰىكَ رَجُلًا 37؀ۭ لٰكِنَّا۟ هُوَ اللّٰهُ رَبِّيْ وَلَآ اُشْرِكُ بِرَبِّيْٓ اَحَدًا  38؀ وَلَوْلَآ اِذْ دَخَلْتَ جَنَّتَكَ قُلْتَ مَا شَاۗءَ اللّٰهُ ۙ لَا قُوَّةَ اِلَّا بِاللّٰهِ ۚ اِنْ تَرَنِ اَنَا اَقَلَّ مِنْكَ مَالًا وَّوَلَدًا  39؀ۚ فَعَسٰي رَبِّيْٓ اَنْ يُّؤْتِيَنِ خَيْرًا مِّنْ جَنَّتِكَ وَيُرْسِلَ عَلَيْهَا حُسْـبَانًا مِّنَ السَّمَاۗءِ فَتُصْبِحَ صَعِيْدًا زَلَقًا   40؀ۙ اَوْ يُصْبِحَ مَاۗؤُهَا غَوْرًا فَلَنْ تَسْتَطِيْعَ لَهٗ طَلَبًا    41؀ وَاُحِيْطَ بِثَمَرِهٖ فَاَصْبَحَ يُقَلِّبُ كَفَّيْهِ عَلٰي مَآ اَنْفَقَ فِيْهَا وَھِيَ خَاوِيَةٌ عَلٰي عُرُوْشِهَا وَيَـقُوْلُ يٰلَيْتَنِيْ لَمْ اُشْرِكْ بِرَبِّيْٓ اَحَدًا   42؀ وَلَمْ تَكُنْ لَّهٗ فِئَةٌ يَّنْصُرُوْنَهٗ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَمَا كَانَ مُنْتَصِرًا  43؀ۭ هُنَالِكَ الْوَلَايَةُ لِلّٰهِ الْحَقِّ  ۭ هُوَ خَيْرٌ ثَوَابًا وَّخَيْرٌ عُقْبًا   44؀ۧ

इस रुकूअ में दो अश्खास के बाहमी मकालमे की तफ़सील बयान हुई है। इनमें से एक शख्स को अल्लाह तआला ने माल व दौलत और बहुत सी दूसरी दुनियवी नेअमतों से नवाज़ रखा था। वह शख्स अपनी खुशहाली में इस क़दर मग्न हुआ कि उसकी निगाह अल्लाह से हट कर माद्दी वसाएल पर ही जम कर रह गई और उन्हीं असबाब व वसाएल को वह अपने तवक्कुल और भरोसे का मरकज़ बना बैठा। उसके साथ एक दूसरा शख्स था जो दुनियवी लिहाज़ से ख़ुशहाल तो नहीं था मगर उसे अल्लाह की मअरफ़त हासिल थी। उसने उस दौलतमंद शख्स को नसीहत की कि अल्लाह ने तुम्हें बहुत सी नेअमतों से नवाज़ा है मगर तुम उसे बिल्कुल ही भूले हुए हो। तुम्हें चाहिये कि तुम अल्लाह का शुक्र अदा करो। दौलतमंद शख्स ने घमंड में आकर उसकी नसीहत का बहुत तल्ख़ जवाब दिया और कहा कि मुझे तो ये सारी नेअमतें इसलिये मिली हैं कि मैं अल्लाह का चहेता हूँ जबकि मेरे मुक़ाबले में तुम्हारी कोई हैसियत नहीं। अल्लाह के इस बन्दे ने उसे फ़िर समझाया कि देखो अपने दुनियवी माल व असबाब पर मत इतराओ, क्योंकि अल्लाह अगर चाहे तो तुम्हारे ये सारे ठाठ-बाठ पल भर में ख़त्म करके रख दे। वह चाहे तो तुम्हारी सारी दौलत और माल व असबाब को ज़ाया कर सकता है। उसने जवाबन कहा कि ये कैसे हो सकता है? मैंने अपने माल व असबाब की हिफ़ाज़त का ख़ूब बंदोबस्त कर रखा है। अलगर्ज़ इन तमाम नसीहतों का उस शख्स पर कुछ भी असर ना हुआ। दुनियवी असबाब के नशे ने उसको इस क़दर अँधा कर रखा था कि उसे हक़ीक़ी मुसब्बबुल असबाब की क़ुदरत का कुछ अंदाज़ा ही ना रहा। बिलआख़िर उसके इस रवैय्ये का नतीजा ये निकला कि अल्लाह तआला ने उसका सब कुछ बरबाद करके रख दिया और वह अपने रवैय्ये पर कफ़ अफ़सोस मलता रह गया। अपनी बरबादी के बाद जब उस शख्स की आँखे खुलीं तो तब बहुत देर हो चुकी थी।

यहाँ उस दौलतमंद शख्स का वह फ़िक़रा ख़ासतौर पर क़ाबिले गौर है जो अपनी बरबादी के बाद पछताते हुए उसकी ज़बान से निकला था कि “काश मैंने अपने रब के साथ शिर्क ना किया होता!” देखा जाए तो इस सारे वाक़िये में किसी ज़ाहिरी शिर्क का इरतकाब नज़र नहीं आता। किसी देवी या देवता की पूजा-पाट का भी कोई हवाला यहाँ नहीं आया, अल्लाह के सिवा किसी दूसरे मअबूद का भी ज़िक्र नहीं हुआ, तो फिर सवाल पैदा होता है कि वह कौनसा अक़दाम था जिस पर वह शख्स पछताया कि काश मैंने अपने रब से शिर्क ना किया होता! इस पहलु से आगे इस सारे वाक़िये का बारीक-बीनी से जायज़ा लिया जाए तो ये नुक्ता समझ में आता है कि यहाँ जिस शिर्क का ज़िक्र हुआ है वह “माद्दा परस्ती” का शिर्क है। उस शख्स ने अपने माद्दी असबाब व वसाएल को ही अपना सब कुछ समझ लिया था। जो भरोसा और तवक्कुल उसे हक़ीक़ी मुसब्बबुल असबाब पर करना चाहिये था वह भरोसा और तवक्कुल उसने अपने माद्दी वसाएल पर कर लिया था और इस तरह उन माद्दी वसाएल को मअबूद का दर्जा दे दिया था। यही रवैय्या और यही सोच माद्दा परस्ती है और यही मौजूदा दौर का सबसे बड़ा शिर्क है।

मौजूदा दौर सितारा परस्ती और बुत परस्ती का दौर नहीं। आज का इंसान सितारों की असल हक़ीक़त जान लेने और चाँद पर क़दम रख लेने के बाद इनकी पूजा क्योंकर करेगा? चुनाँचे आज के दौर में अल्लाह को छोड़ कर इंसान ने जो मअबूद बनाए हैं उनमें माद्दा परस्ती और वतन परस्ती सबसे अहम हैं। आज दौलत को मअबूद का दर्जा दे दिया गया है और माद्दी वसाएल और ज़राए को मुसब्बबुल असबाब समझ लिया गया है। यह मौजूदा दौर का बहुत ख़तरनाक शिर्क है और इससे महफूज़ रहने के लिये इसे बहुत बारीक-बीनी से समझने की ज़रूरत है।

आयत 32

“(ऐ नबी !) आप बयान कीजिये इनके लिये दो अश्खास की मिसाल”وَاضْرِبْ لَهُمْ مَّثَلًا رَّجُلَيْنِ
“उनमें से एक को हमने दिये थे दो बाग़ अंगूरों के और उन दोनों का घेर दिया था हमने खजूरों के दरख्तों के साथ”جَعَلْنَا لِاَحَدِهِمَا جَنَّتَيْنِ مِنْ اَعْنَابٍ وَّحَفَفْنٰهُمَا بِنَخْلٍ

अंगूरों की बेलों के गिर्दा-गिर्द खजूरों के दरख्तों की बाड़ थी ताकि नाज़ुक बेलें आँधी, तूफ़ान वगैरह से महफूज़ रहें।

“और हमने इन दोनों (बागों) के दरमियान खेती का इंतेजाम भी कर रखा था।”وَّجَعَلْنَا بَيْنَهُمَا زَرْعًا   32؀ۭ

बुनियादी तौर पर वह अंगूरों के बाग़ात थे। उनके ऐतराफ़ में खजूरों के दरख़्त थे, जिनकी दोहरी अफ़ादियत थी। इन दरख्तों से खज़ूरें भी हासिल होती थीं और हिफ़ाज़ती बाड़ का काम भी देते थे। दरमियान में कुछ ज़मीन काश्तकारी के लिये भी थी, जिससे अनाज वगैरह हासिल होता था। गोया हर लिहाज़ से मिसाली बाग़ात थे।

आयत 33

“दोनों बाग़ात अपना फ़ल ख़ूब देते और उसमें से कुछ भी कम ना करते थे”كِلْتَا الْجَنَّتَيْنِ اٰتَتْ اُكُلَهَا وَلَمْ تَظْلِمْ مِّنْهُ شَـيْــــًٔـا  ۙ

वह दोनों बाग़ात हर साल मौसम के मुताबिक़ ख़ूब फलते थे और उनकी पैदावार में कभी कोई कमी नहीं आती थी। उन बागों का मालिक शख्स सालहा-साल से उनकी पैदावार से मुसलसल फ़ायदा उठाते-उठाते उन्हें दाइमी समझ बैठा और वह बिल्कुल ही भूल गया कि ये सब कुछ अल्लाह की मशीयत और इजाज़त ही से मुमकिन है।

“और हमने जारी कर दी थी उनके दरमियान एक नहर।”وَّفَجَّرْنَا خِلٰلَهُمَا نَهَرًا  33؀ۙ

उन दोनों बागों के बीचो-बीच एक नहर बहती थी। गोया उनकी आबपाशी का निज़ाम भी मिसाली था।

आयत 34

“और उसके लिये फ़ल भी था।”وَّكَانَ لَهٗ ثَمَــــرٌ ۚ

इसका एक मफ़हूम तो यही है कि जब उन दोनों का आपस में मुकालमा हो रहा था उस वक़्त वह दोनों बाग़ात फलों से ख़ूब लदे हुए थे, जबकि दूसरा मफ़हूम जो मेरे नज़दीक राजेह है, ये है कि उस शख्स को अल्लाह ने औलाद भी ख़ूब दे रखी थी। इसलिये कि इंसान के लिये उसकी औलाद की वही हैसियत है जो किसी दरख़्त की लिये उसके फ़ल की होती है।

“तो कहा उसने अपने साथी से, और वह आपस में गुफ़्तगू कर रहे थे, कि मैं तुमसे बहुत ज़्यादा हूँ माल में और बहुत बढ़ा हुआ हूँ नफ़री में।”فَقَالَ لِصَاحِبِهٖ وَهُوَ يُحَاوِرُهٗٓ اَنَا اَكْثَرُ مِنْكَ مَالًا وَّاَعَزُّ نَفَرًا  34؀

यहाँ जिस फ़ख्र से उस शख्स ने अपनी नफ़री का ज़िक्र किया है उसके इस अंदाज़ से तो { وَّكَانَ لَهٗ ثَمَــــرٌ ۚ} का यही तर्जुमा बेहतर महसूस होता है कि उस शख्स को औलाद ख़ुसूसन बेटों से भी नवाज़ा गया था।

आयत 35

“और वह दाख़िल हुआ अपने बाग़ में इस हाल में कि वह अपनी जान पर ज़ुल्म कर रहा था।”وَدَخَلَ جَنَّتَهٗ وَهُوَ ظَالِمٌ لِّنَفْسِهٖ  ۚ
“उसने कहा: मैं नहीं समझता कि ये (बाग़) कभी भी बरबाद हो सकता है।”قَالَ مَآ اَظُنُّ اَنْ تَبِيْدَ هٰذِهٖٓ اَبَدًا  35؀ۙ

यानि मेरा यह बाग़ हर लिहाज़ से मिसाली है। इसे मैंने बाक़ायदा मंसूबा बंदी के तहत हर क़िस्म के ख़तरात से महफूज़ बना रखा है। अंगूरों की नाज़ुक बेलों के गिर्दा-गिर्द खजूरों के बुलंद व बाला दरख़्त संतरियों की तरह खड़े हर क़िस्म के तूफ़ान और बाद-ए-सरसर के थपेड़ों से इसकी हिफ़ाज़त कर रहे हैं। आबपाशी के लिये नहर का वाफ़र पानी हर वक़्त मौजूद है। लिहाज़ा मैं नहीं समझता कि इसे कभी किसी क़िस्म का ख़तरा लाहक़ हो सकता है।

आयत 36

“और मैं यह गुमान नहीं करता कि क़यामत क़ायम होने वाली है”وَّمَآ اَظُنُّ السَّاعَةَ قَاۗىِٕمَةً   ۙ

यह क़यामत वगैरह बातें बातें सब ढ़कोसले हैं। मैं नहीं समझता कि ऐसा कोई वाक़िया हक़ीक़त में रूनुमा होने वाला है।

“और अगर मुझे लौटा ही दिया गया अपने रब की तरफ़ तो मैं लाज़िमन पाऊँगा इससे भी बेहतर पलटने की जगह।”وَّلَىِٕنْ رُّدِدْتُّ اِلٰى رَبِّيْ لَاَجِدَنَّ خَيْرًا مِّنْهَا مُنْقَلَبًا  36؀

क़यामत व आख़िरत का अव्वल तो मैं क़ायल ही नहीं, लेकिन क़यामत अगर हुई भी तो मैं बहरहाल वहाँ इससे भी बेहतर ज़िंदगी पाउँगा। इन अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर होता है कि ये शख्स अल्लाह का मुन्किर नहीं था मगर दुनियवी माल व दौलत और माद्दी असबाब व ज़राए पर भरोसा करके शिर्क का इरतकाब कर रहा था। ये शख्स यहाँ पर जो फ़लसफ़ा बयान कर रहा है वह अक्सर माद्दा परस्त लोगों के यहाँ बहुत मक़बूल है। यानि अगर मुझे दुनिया में अल्लाह तआला ने खुशहाली व फ़ारिगुल बाली से नवाज़ रखा है तो इसका मतलब ये है कि अल्लाह मुझसे खुश है। इसी लिये उसने मुझे ख़ुसूसी सलाहियतें अता की हैं जिनकी वजह से मैंने ये असबाब व वसाएल इकठ्ठे किये हैं। चुनाँचे वह आख़िरत में भी ज़रूर अपनी नेअमतों से मुझे नवाज़ेगा। और जो लोग यहाँ दुनिया में जूतियाँ चटकाते फ़िर रहे हैं वह आख़िरत में भी इसी तरह बेयार-ओ-मददगार होंगे।

आयत 37

“उसके साथी ने उससे कहा और वह उससे गुफ्तगू कर रहा था”قَالَ لَهٗ صَاحِبُهٗ وَهُوَ يُحَاوِرُهٗٓ
“क्या तूने कुफ़्र किया उस हस्ती का जिसने पैदा किया तुझे मिट्टी से, फिर गंदे पानी की बूंद से, फिर तुझे सही सलामत इंसान बना दिया?”اَكَفَرْتَ بِالَّذِيْ خَلَقَكَ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ مِنْ نُّطْفَةٍ ثُمَّ سَوّٰىكَ رَجُلًا 37؀ۭ

यहाँ ये नुक्ता बहुत अहम है कि वह शख्स बज़ाहिर अल्लाह का मुन्किर नहीं था मगर फ़िर भी उसे अल्लाह से कुफ़्र का मुरतकिब बताया गया है। वह इसलिये कि इससे पहले वह आख़िरत का इन्कार कर चुका था और आख़िरत का इन्कार दरअसल अल्लाह का इन्कार है। गोया जो शख्स आख़िरत का मुन्किर हो उसका ईमान बिल्लाह का दावा भी क़ाबिले क़ुबूल नहीं।

आयत 38

“लेकिन (मैं तो मानता हूँ कि) वह अल्लाह मेरा रब है और मैं अपने रब के साथ किसी को शरीक़ नहीं ठहराता।”لٰكِنَّا۟ هُوَ اللّٰهُ رَبِّيْ وَلَآ اُشْرِكُ بِرَبِّيْٓ اَحَدًا  38؀

आयत 39

“और जब तू अपने बाग़ में दाख़िल हुआ तो तूने यूँ क्यों ना कहा: माशा अल्लाह! (यानि ये सब अल्लाह के फ़ज़ल व करम से है।) अल्लाह के बदून किसी को कोई ताक़त हासिल नहीं।”وَلَوْلَآ اِذْ دَخَلْتَ جَنَّتَكَ قُلْتَ مَا شَاۗءَ اللّٰهُ ۙ لَا قُوَّةَ اِلَّا بِاللّٰهِ ۚ

तुझे बाग़ में हर तरफ़ खुशकुन मनाज़िर देखने को मिले और पूरा बाग़ फलों से लदा हुआ नज़र आया तो तेरी ज़बान से “माशा अल्लाह” क्यों ना निकला और तूने ये क्यों ना कहा कि ये मेरा कमाल नहीं है बल्कि अल्लाह की देन है जो असल ताक़त और इख्तियार का मालिक है, उसकी इजाज़त और मर्ज़ी के बगैर कुछ नहीं हो सकता। ये “माशा अल्लाह” वह कलमा है जिसमें तौहीद कूट-कूट कर भरी है, कि जो अल्लाह चाहता है वही होता है, किसी और के चाहने से या असबाब व वसाएल के होने से कुछ नहीं होता।

“मगर तू मुझे देखता है कि मैं तुमसे माल व औलाद में कम हूँ।”اِنْ تَرَنِ اَنَا اَقَلَّ مِنْكَ مَالًا وَّوَلَدًا  39؀ۚ

आयत 40

“तो उम्मीद है कि मेरा रब तेरे बाग़ से बेहतर बाग़ मुझे दे दे”فَعَسٰي رَبِّيْٓ اَنْ يُّؤْتِيَنِ خَيْرًا مِّنْ جَنَّتِكَ

मुझे यक़ीन है कि मेरा रब अगर चाहे तो तुम्हारे इन बागों से बेहतर नेअमतों से मुझे नवाज़ दे।

“और वह भेज दे इस (तेरे बाग़) पर कोई आफ़त आसमान से तो वह साफ़ चटियल मैदान होकर रह जाए।”وَيُرْسِلَ عَلَيْهَا حُسْـبَانًا مِّنَ السَّمَاۗءِ فَتُصْبِحَ صَعِيْدًا زَلَقًا   40؀ۙ

यह भी मुमकिन है कि तुम्हारे इस कुफ़्र व तकब्बुर के बाइस अल्लाह तआला तुम्हारे बागों पर कोई ऐसी आफ़त नाज़िल कर दे कि इस क़तअ ज़मीन पर किसी दरख़्त या किसी बेल वगैरह का नामो निशान तक ना रहे।

आयत 41

“या इसका पानी गहराई में उतर जाए, फ़िर तुम इस (पानी) को किसी तरह हासिल ना कर सको।”اَوْ يُصْبِحَ مَاۗؤُهَا غَوْرًا فَلَنْ تَسْتَطِيْعَ لَهٗ طَلَبًا    41؀

अल्लाह तुम्हारे बाग़ पर कोई आसमानी आफ़त ना भी भेजे तो यूँ भी हो सकता है कि उसके हुक्म से इसका ज़ेरे ज़मीन पानी ग़ैर मामूली गहराई में चला जाए। इसके नतीजे में तुम्हारा बनाया हुआ निज़ाम आबपाशी ख़त्म होकर रह जाए और इस तरह पानी के बगैर ये बाग़ खुद-ब-खुद ही उजड़ जाए। यानि हक़ीक़ी मुसब्बबुल असबाब तो अल्लाह ही है। उसी मुख्तलिफ़ असबाब मुहैय्या कर रखे हैं जिससे ये कारोबारे दुनिया चल रहा है। वह जब चाहे किसी सबब को सल्ब करले या उसकी हैइयत को बदल दे और उसकी वजह से ये सारा निज़ाम दरहम-बरहम होकर रह जाए। ये मामला तो गोया शीश महल की तरह का है कि एक ही पत्थर इसको चकना चूर करके रख देगा।

आयत 42

“और उसका सारा समर (फ़ल) समेट लिया गया”وَاُحِيْطَ بِثَمَرِهٖ

उस शख्स को अल्लाह तआला की तरफ़ से जो नेअमतें दी गई थीं वह सब उससे सल्ब कर ली गईं। बाग़ भी उजड़ गया और औलाद भी छिन गई। इससे अंदाज़ा होता है कि दूसरा शख्स अल्लाह का ख़ास मुक़र्रब बंदा था। मालदार शख्स ने उसे उसकी नादारी का ताना दिया था: {اَنَا اَكْثَرُ مِنْكَ مَالًا وَّاَعَزُّ نَفَرًا} कि माल व दौलत में भी मुझे तुम पर फ़ौक़ियत हासिल है और नफ़री में भी मैं तुमसे बढ़ कर हूँ। इस ताने से अल्लाह के उस नेक बन्दे का दिल दुखा होगा, जिसकी सज़ा उसे फ़ौरी तौर पर मिली और अल्लाह ने उससे सब कुछ छीन लिया। इस सिलसिले में एक हदीस क़ुदसी है: ((مَنْ عَادٰی لِیْ وَلِیاًّ فَقَدْ آذَنْتُہٗ بِالْحَرْبِ)) “जो शख्स मेरे किसी वली के साथ दुश्मनी करे तो मेरी तरफ़ से उसके ख़िलाफ़ ऐलाने जंग है।”(24) किसी शायर ने इस मज़मून को इस तरह अदा किया है:

तादले साहिब दिले नालद ब दर्द, हैच क़ौमे राखुदा रुसवा ना कर्द!

यानि किसी साहिबे दिल वली अल्लाह के दिल को जब ठेस लगती है तो उसके बदले में अल्लाह तआला की तरफ़ से पूरी क़ौम गिरफ़्त में आ जाती है।

“तो वह हाथ मलता रह गया उस पर जो कुछ उसने उसमें ख़र्च किया था”فَاَصْبَحَ يُقَلِّبُ كَفَّيْهِ عَلٰي مَآ اَنْفَقَ فِيْهَا

यक़ीनन उन बागों की मंसूबा बंदी करने, पौदे लगाने और उनकी नशो-नुमा करने में उसने ज़रे केसर ख़र्च किया था, मुसलसल मेहनत की थी और अपना क़ीमती वक़्त उसमें खपाया था। इसका ये तमाम सरमाया आन की आन में नेस्तो नाबूद हो गया और वह उसकी बरबादी पर कफ़े अफ़सोस मलने के अलावा कुछ ना कर सका।

“और वह (बाग़) गिर पड़ा था अपनी छतरियों पर”وَھِيَ خَاوِيَةٌ عَلٰي عُرُوْشِهَا

अंगूरों की बेलें जिन छतरियों पर चढ़ाई गई थीं वह सबकी सब औंधी पड़ी थीं।

“और वह कह रहा था: हाय मेरी शामत, काश मैंने अपने रब के साथ किसी को शरीक ना ठहराया होता।”وَيَـقُوْلُ يٰلَيْتَنِيْ لَمْ اُشْرِكْ بِرَبِّيْٓ اَحَدًا   42؀

उस मालदार शख्स के मकालमे से ये हक़ीक़त पूरी तरह वाज़ेह हो जाती है कि उस शख्स ने अल्लाह तआला की क़ुदरत और उसके इख्तियार को भुला कर ज़ाहिरी असबाब और माद्दी वसाएल पर तवक्कुल कर लिया था, और यही वह शिर्क था जिसका खुद उसने यहाँ ऐतराफ़ किया है। आज की माद्दा परस्ताना ज़ेहनियत का मुकम्मल नक़्शा इस रुकूअ में पेश कर दिया गया है। यह शिर्क की जदीद क़िस्म है जिसको पहचानने और जिससे मोहतात रहने की आज हमें अशद ज़रूरत है। (इस हवाले से मेरी किताब “हक़ीक़त व अक़साम-ए-शिर्क” का मुताअला मुफ़ीद रहेगा, जिसमें शिर्क और उसकी अक़साम को तफ़सील से बयान किया गया है।)

आयत 43

“और ना हुई उसके लिये कोई जमाअत जो अल्लाह के मुक़ाबले में उसकी मदद को आती और ना वह खुद ही इन्तेक़ाम लेने वाला बन सका।”وَلَمْ تَكُنْ لَّهٗ فِئَةٌ يَّنْصُرُوْنَهٗ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَمَا كَانَ مُنْتَصِرًا  43؀ۭ

अल्लाह के मुक़ाबले में भला कौन उसकी मदद कर सकता था और इस सूरते हाल में वह किससे इंतेक़ाम ले सकता था?

आयत 44

“यहाँ तो तमाम इख्तियार अल्लाह ही का है जो अल हक़ है।”هُنَالِكَ الْوَلَايَةُ لِلّٰهِ الْحَقِّ  ۭ

वलायत के मायने यहाँ हुकूमत और इक़तदार के हैं। “वाली” किसी मुल्क या इलाक़े के मालिक या हुक्मरान को कहते हैं और इसी से ये लफ्ज़ वलायत (वाव की ज़बर के साथ) बना है। इस लिहाज़ से आयत के अल्फ़ाज़ का मफ़हूम ये है कि कुल का कुल इक़तदार व इख्तियार अल्लाह के लिये है जो “अल हक़” है। इसी माद्दे से लफ्ज़ “वली” भी है जिसके मायने दोस्त और पुश्तपनाह के हैं। इसी माद्दे से विलायत (वाव की ज़ेर के साथ) बना है और ये दोस्ती और मोहब्बत के मायने देता है। दर्जा ज़ेल आयात में इसी विलायत का ज़िक्र है: (अल बक़रह 257) {اَللّٰهُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا  ۙيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ ڛ } और (युनुस :62) {اَلَآ اِنَّ اَوْلِيَاۗءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ}

“वही बेहतर है ईनाम देने में और वही बेहतर है आक़बत के ऐतबार से।”هُوَ خَيْرٌ ثَوَابًا وَّخَيْرٌ عُقْبًا   44؀ۧ

ईनाम वही बेहतर है जो वह बख्शे और अंजाम वही बखैर है जो वह दिखाए।

आयात 45 से 49 तक

وَاضْرِبْ لَهُمْ مَّثَلَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا كَمَاۗءٍ اَنْزَلْنٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ فَاخْتَلَطَ بِهٖ نَبَاتُ الْاَرْضِ فَاَصْبَحَ هَشِيْمًا تَذْرُوْهُ الرِّيٰحُ  ۭ   وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ مُّقْتَدِرًا   45؀ اَلْمَالُ وَالْبَنُوْنَ زِيْنَةُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ وَالْبٰقِيٰتُ الصّٰلِحٰتُ خَيْرٌ عِنْدَ رَبِّكَ ثَوَابًا وَّخَيْرٌ اَمَلًا    46؀ وَيَوْمَ نُسَيِّرُ الْجِبَالَ وَتَرَى الْاَرْضَ بَارِزَةً  ۙ وَّحَشَرْنٰهُمْ فَلَمْ نُغَادِرْ مِنْهُمْ اَحَدًا   47؀ۚ وَعُرِضُوْا عَلٰي رَبِّكَ صَفًّا  ۭ لَقَدْ جِئْتُمُوْنَا كَمَا خَلَقْنٰكُمْ اَوَّلَ مَرَّةٍۢ ۡ بَلْ زَعَمْتُمْ اَلَّنْ نَّجْعَلَ لَكُمْ مَّوْعِدًا  48؀ وَوُضِـعَ الْكِتٰبُ فَتَرَى الْمُجْرِمِيْنَ مُشْفِقِيْنَ مِمَّا فِيْهِ وَيَقُوْلُوْنَ يٰوَيْلَتَنَا مَالِ هٰذَا الْكِتٰبِ لَا يُغَادِرُ صَغِيْرَةً وَّلَا كَبِيْرَةً اِلَّآ اَحْصٰىهَا  ۚ وَوَجَدُوْا مَا عَمِلُوْا حَاضِرًا  ۭ وَلَا يَظْلِمُ رَبُّكَ اَحَدًا    49؀ۧ

आयत 45

“और बयान कीजिये इनके लिये मिसाल दुनिया की ज़िंदगी की”وَاضْرِبْ لَهُمْ مَّثَلَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا
“जैसे पानी कि हमने उसे उतारा आसमान से, फ़िर उसके साथ मिल-जुल कर निकल आया ज़मीन का सब्ज़ा”كَمَاۗءٍ اَنْزَلْنٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ فَاخْتَلَطَ بِهٖ نَبَاتُ الْاَرْضِ
“फ़िर वह हो गया चूरा-चूरा, उड़ाए फिरती हैं उसे हवाएँ।”فَاَصْبَحَ هَشِيْمًا تَذْرُوْهُ الرِّيٰحُ  ۭ 
“और अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है।”وَكَانَ اللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ مُّقْتَدِرًا   45؀

सब्ज़े के उगने, उसके नशो-नुमा पाने और फ़िर खुश्क होकर खसो-खाशाक की शक्ल इख्तियार कर लेने के अमल को इन्सानी ज़िन्दगी की मुशाबहत की बिना पर यहाँ बयान किया गया है। बारिश के बरसते ही ज़मीन से तरह-तरह के नबातात निकल आते हैं। फ़िर देखते ही देखते ज़मीन सरसब्ज़ व शादाब हो जाती है। जब ये सब्ज़ा अपने जोबन (यौवन) पर होता है तो बड़ा खुश कुन मंज़र पेश करता है। मगर फ़िर ज़ल्द ही उस पर ज़र्दी छाने लगती है और चंद ही दिनों में लहलहाता हुआ सब्ज़ा खसो-खाशाक का ढेर बन जाता है और ज़मीन फ़िर से चटियल मैदान की सूरत इख्तियार कर लेती है। सब्ज़े या किसी फ़सल के उगने, बढ़ने और खुश्क होने का ये दौरानिया चंद हफ़्तों पर मुहीत हो या चंद महीनों पर, इसकी असल हक़ीक़त और कैफ़ियत बस यही है।

इस मिसाल को मद्दे नज़र रखते हुए देखा जाए तो बिल्कुल यही कैफ़ियत इन्सानी ज़िंदगी की भी है। जिस तरह नबाताती ज़िंदगी का आग़ाज़ आसमान से बारिश के बरसने से होता है इसी तरह रूह के नुज़ूल से इन्सानी ज़िंदगी का आग़ाज़ होता है। इंसानी रूह का ताल्लुक़ आलमे अम्र से है: {قُلِ الرُّوْحُ مِنْ اَمْرِ رَبِّيْ} (बनी इसराइल 85) शक्कम मादर में जसद-ए-खाक़ी के अन्दर रूह फूँकी गई, बच्चा पैदा हुआ, खुशियाँ मनाई गईं, जवान और ताक़तवर हुआ, तमाम सलाहियतों को उरूज मिला, फ़िर अधेड़ उम्र को पहुँचा, जिस्म और उसकी सलाहियतें रोज़-ब-रोज़ ज़वाल पज़ीर होने लगीं, बालों में सफ़ेदी आ गई, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ गईं, मौत वारिद हुई, क़ब्र में उतारा गया और मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो गया। इस cycle का दौरानिया मुख्तलिफ़ अफ़राद के साथ मुख्तलिफ़ सही मगर इन्सानी ज़िंदगी के आग़ाज़ व अंजाम की हक़ीक़त बस यही कुछ है। चुनाँचे इन्सान को ये बात किसी वक़्त नहीं भूलनी चाहिये कि दुनिया का अरसा-ए-हैयात एक वक़्फ़ा-ए-इम्तिहान है जिसे हर इन्सान अपने-अपने अंदाज़ में गुज़ार रहा है।

आयत 46

“माल और बेटे दुनियवी ज़िंदगी की ज़ीनत हैं”اَلْمَالُ وَالْبَنُوْنَ زِيْنَةُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ

इस सूरत में दुनियवी ज़िन्दगी की ज़ेबो-ज़ीनत का ज़िक्र यहाँ तीसरी मर्तबा आया है। इससे पहले हम आयत सात में पढ़ आए हैं कि रुए ज़मीन की आराईश व ज़ेबाईश और तमाम रौनक़े इन्सानों के इम्तिहान के लिये बनाई गई हैं: { اِنَّا جَعَلْنَا مَا عَلَي الْاَرْضِ زِيْنَةً لَّهَا لِنَبْلُوَهُمْ اَيُّهُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا} फिर आयत 28 में रसूल अल्लाह ﷺ को मुखातिब करके फ़रमाया गया: { تُرِيْدُ زِيْنَةَ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا  } कि ऐ नबी (ﷺ) कहीं इन लोगों को ये गुमान ना हो कि आपका मतलूब व मक़सूद भी दुनियवी ज़िंदगी की आराईश व ज़ेबाईश ही है (मआज़ अल्लाह!)। गोया ये मौज़ू इस सूरत के मज़ामीन का अमूद है। लिहाज़ा ये हक़ीक़त हर वक़्त हमारे ज़हन में मुस्तहज़र रहनी चाहिये कि ये ज़िंदगी और दुनियवी माल व मताअ सब आरज़ी हैं। यहाँ के रिश्ते नाते और तमाम ताल्लुक़ात भी इसी चार रोज़ा ज़िंदगी तक महदूद हैं। इंसान की आँख बंद होते ही तमाम रिश्ते और ताल्लुक़ात मुन्क़तअ (disconnect) हो जाएँगे और अल्लाह की अदालत में हर इन्सान को तन-तन्हा पेश होना होगा: {وَكُلُّهُمْ اٰتِيْهِ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فَرْدًا} (सूरह मरियम 95) वहाँ ना बाप औलाद की मदद करेगा, ना बेटा वालिदैन को सहारा देगा, और ना बीवी शौहर का साथ देगी। उस दिन के मुहासबे का सामना हर शख्स को अकेले ही करना होगा।

“और बाक़ी रहने वाली नेकियाँ बहुत बेहतर हैं तेरे रब के नज़दीक, सवाब के लिहाज़ से भी और उम्मीद के ऐतबार से भी।”  وَالْبٰقِيٰتُ الصّٰلِحٰتُ خَيْرٌ عِنْدَ رَبِّكَ ثَوَابًا وَّخَيْرٌ اَمَلًا    46؀

इस मुख़्तसर ज़िन्दगी की कमाई में अगर किसी चीज़ को बक़ा हासिल है तो वह नेक आमाल हैं। आख़िरत में सिर्फ़ वही काम आयेंगे। चुनाँचे दुनियवी माल व असबाब से उम्मीदें ना लगाओ, औलाद से तवक्क़ुआत मत वाबस्ता करो। ये सब आरज़ी चीज़ें हैं जो तुम्हारी मौत के साथ ही तुम्हारे लिये बे-वक़अत हो जाएँगी। आख़िरत का सहारा चाहिये तो नेक आमाल का तौशा जमा करो और इसी पूंजी से अपनी उम्मीदें वाबस्ता करो।

आयत 47

“और जिस दिन हम चलायेंगे पहाड़ों को और तुम देखोगे ज़मीन को साफ़ चटियल”وَيَوْمَ نُسَيِّرُ الْجِبَالَ وَتَرَى الْاَرْضَ بَارِزَةً  ۙ

अब क़यामत का नक्शा खींचा जा रहा है कि उस दिन पहाड़ अपनी जगह छोड़ देंगे, ज़मीन के तमाम नशेबो-फ़राज़ ख़त्म हो जायेंगे और पूरा कुर्रा-ए-अर्ज़ एक साफ़ चटियल मैदान की शक्ल इख्तियार कर लेगा।

“और हम सबको जमा कर लेंगे और उनमें से किसी एक को भी नहीं छोड़ेंगे।”وَّحَشَرْنٰهُمْ فَلَمْ نُغَادِرْ مِنْهُمْ اَحَدًا   47؀ۚ

हज़रत आदम अलै. से लेकर आख़री इन्सान तक पैदा होने वाले नौए इन्सानी के तमाम अफ़राद को उस दिन इकट्ठा कर लिया जायेगा।

आयत 48

“और वह पेश किये जायेंगे आपके रब के सामने सफें बाँधे हुए। (तब उन्हें कहा जाएगा) आ गए हो ना हमारे पास, जैसे हमने तुम्हें पहली मरतबा पैदा किया था!”وَعُرِضُوْا عَلٰي رَبِّكَ صَفًّا  ۭ لَقَدْ جِئْتُمُوْنَا كَمَا خَلَقْنٰكُمْ اَوَّلَ مَرَّةٍۢ ۡ

यहाँ “पहली मरतबा” पैदा करने से मुराद आलमे अरवाह में इन्सानी अरवाह की तख्लीक़ है, जबकि इस ज़मीन पर जिस्म और रूह के मिलाप से की जाने वाली इन्सानी तख्लीक़ दरअसल तख्लीक़-ए-सानी है। फ़र्ज़ करें इस दुनिया की उम्र पन्द्रह हज़ार बरस है, तो इन पन्द्रह हज़ार बरसों में वह तमाम इन्सान इस दुनिया में आ चुके हैं जिनकी अरवाह अल्लाह तआला ने पैदा की थीं। इन तमाम इन्सानों को क़यामत के दिन फ़िर से इकठ्ठा कर लिया जाएगा। चुनाँचे आयत का मफ़हूम ये है कि तमाम इन्सान जैसे आलमे अरवाह में ब-यक वक़्त एक जगह इकट्ठे थे, इसी तरह क़यामत के दिन भी मैदाने हश्र में सबके सब बयक वक़्त मौजूद होंगे।

“बल्कि तुमने तो समझ रखा था कि हम तुम्हारे लिये वादे का कोई वक़्त मुक़र्रर ही नहीं करेंगे।”بَلْ زَعَمْتُمْ اَلَّنْ نَّجْعَلَ لَكُمْ مَّوْعِدًا  48؀

ये उन लोगों का ज़िक्र है जो क़ुरान के अल्फ़ाज़ में {اَلَّذِیْنَ لَا یَرْجُوْنَ لِقَاءَ نَا} (वह लोग जिन्हें हमारी मुलाक़ात की उम्मीद नहीं) के ज़ुमरे में आते हैं। ऐसे लोग जब अल्लाह के हुज़ूर पेश होंगे तो उन्हें उनका वादा-ए-अलस्त {اَلَسْتُ بِرَبِّکُمْ} (आराफ़ 172) भी याद दिलाया जाएगा, कि तुम लोगों ने मुझे अपना रब तस्लीम किया था, फिर तुम दुनिया की ज़िंदगी में इस हक़ीक़त को बिल्कुल ही भूल गए कि तुमने वापस हमारे पास भी आना है। तुम्हें गुमान तक नहीं था कि हम तुम्हारे लिये अपने सामने पेशी का कोई वक़्त मुक़र्रर करेंगे।

आयत 49

“और रख दिया जाएगा आमाल नामा”وَوُضِـعَ الْكِتٰبُ

ये पूरी नौए इन्सानी के एक-एक फ़र्द की ज़िन्दगी के एक-एक लम्हे और एक-एक अमल की तफ़सील पर मुश्तमिल रिकॉर्ड होगा। गोया एक बहुत बड़ा कंप्यूटर सिस्टम है जो किसी जगह पर नस्ब किया गया है और वहाँ से लाकर मैदाने हश्र में रख दिया जाएगा। आज से सौ बरस पहले तो ऐसी तफ़सीलात को तस्लीम करने के लिये सिर्फ़ ईमान बिल गैब का ही सहारा लेना पड़ता था मगर आज के दौर में इस सब कुछ पर यक़ीन करना बहुत आसान हो गया है। आज हम इन्सान के बनाए हुए कंप्यूटर के कमालात अपनी आँखों से देख रहे हैं और अपने मामलाते ज़िंदगी में इनसे इस्तफ़ादा कर रहे हैं। आज जब हम एक बटन जितनी जसामत की चिप में मुफ़स्सल मालूमात पर मुश्तमिल रिकॉर्ड अपनी आँखों से देखते हैं तो हमें अल्लाह तआला की वज़अ करदा डेटा बेस (अल किताब) के बारे में कोई शक नहीं रह जाता कि उसमें किसी तरह एक-एक फ़र्द की एक-एक हरकत की रिकॉर्डिंग महफ़ूज़ होगी और पलक झपकने की देर भी नही लगेगी कि उसका प्रिंट मुतअलक़ा फ़र्द के हाथ में थमा दिया जाएगा।

“चुनाँचे तुम देखोगे मुजरिमों को कि डर रहे होंगे उससे जो कुछ उसमें होगा”فَتَرَى الْمُجْرِمِيْنَ مُشْفِقِيْنَ مِمَّا فِيْهِ

मुजरिम लोग अपनी किताबे ज़िंदगी के अंदर अजात से लरज़ा व तरसाँ होंगे।

“और कहेंगे: हाए हमारी शामत! ये कैसा आमाल नामा है? इसने तो ना किसी छोटी चीज़ को छोड़ा है और ना किसी बड़ी को, मगर उसको महफ़ूज़ कर रखा है।”وَيَقُوْلُوْنَ يٰوَيْلَتَنَا مَالِ هٰذَا الْكِتٰبِ لَا يُغَادِرُ صَغِيْرَةً وَّلَا كَبِيْرَةً اِلَّآ اَحْصٰىهَا  ۚ
“और वह पायेंगे जो अमल भी उन्होंने किया होगा उसे मौजूद। और आपका रब ज़ुल्म नहीं करेगा किसी पर भी।”وَوَجَدُوْا مَا عَمِلُوْا حَاضِرًا  ۭ وَلَا يَظْلِمُ رَبُّكَ اَحَدًا    49؀ۧ

आयात 50 से 53 तक

وَاِذْ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ كَانَ مِنَ الْجِنِّ فَفَسَقَ عَنْ اَمْرِ رَبِّهٖ  ۭ اَفَتَتَّخِذُوْنَهٗ وَذُرِّيَّتَهٗٓ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِيْ وَهُمْ لَكُمْ عَدُوٌّ  ۭ بِئْسَ لِلظّٰلِمِيْنَ بَدَلًا  50؀ مَآ اَشْهَدْتُّهُمْ خَلْقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَلَا خَلْقَ اَنْفُسِهِمْ  ۠وَمَا كُنْتُ مُتَّخِذَ الْمُضِلِّيْنَ عَضُدًا    51؀ وَيَوْمَ يَقُوْلُ نَادُوْا شُرَكَاۗءِيَ الَّذِيْنَ زَعَمْتُمْ فَدَعَوْهُمْ فَلَمْ يَسْتَجِيْبُوْا لَهُمْ وَجَعَلْنَا بَيْنَهُمْ مَّوْبِقًا   52؀ وَرَاَ الْمُجْرِمُوْنَ النَّارَ فَظَنُّوْٓا اَنَّهُمْ مُّوَاقِعُوْهَا وَلَمْ يَجِدُوْا عَنْهَا مَصْرِفًا   53؀ۧ

आयत 50

“और याद करो जबकि हमने फ़रिश्तों से कहा था कि सज्दा करो आदम को, तो उन्होंने सज्दा किया मगर इब्लीस ने (ना किया)।”وَاِذْ قُلْنَا لِلْمَلٰۗىِٕكَةِ اسْجُدُوْا لِاٰدَمَ فَسَجَدُوْٓا اِلَّآ اِبْلِيْسَ ۭ

यहाँ सूरह बनी इसराइल और सूरतुल कहफ़ की मुशाबेहत के सिलसिले में ये अहम बात नोट कीजिये कि सूरतुल कहफ़ के सातवें रुकूअ की पहली आयत के अल्फ़ाज़ बैयन ही वही हैं जो सूरह बनी इसराइल के सातवें रुकूअ की पहली आयत के हैं। हज़रत आदम अलै. और इब्लीस का ये क़िस्सा क़ुरान में सात मक़ामात पर बयान हुआ है। बाक़ी छ: मक़ामात पर तो इसका ज़िक्र नहीं मगर यहाँ ये हक़ीक़त वाज़ेह की गई है कि इब्लीस जिन्नात में से था:

“वह जिन्नात में से था, चुनाँचे उसने ना-फ़रमानी की अपने रब के हुक्म की।”كَانَ مِنَ الْجِنِّ فَفَسَقَ عَنْ اَمْرِ رَبِّهٖ  ۭ

यहाँ पर “فَ” इल्लत को ज़ाहिर कर रहा है कि चूँकि वह जिन्नात में से था इसलिये नाफ़रमानी का मुरतकिब हुआ। वरना फ़रिश्ते कभी अपने रब के हुक्म से सरताबी नहीं करते: { لَّا يَعْصُوْنَ اللّٰهَ مَآ اَمَرَهُمْ وَيَفْعَلُوْنَ مَا يُؤْمَرُوْنَ} (सूरह तहरीम 6) “वह (फ़रिश्ते) अल्लाह की नाफ़रमानी नहीं करते वह जो भी हुक्म उन्हें दे और वह वही कुछ करते हैं जिसका उन्हें हुक्म दिया जाता है।”

“तो क्या तुम बनाते हो उसे और उसकी औलाद को दोस्त मेरे सिवा, दर हालाँकि वह तुम्हारे दुश्मन हैं?”اَفَتَتَّخِذُوْنَهٗ وَذُرِّيَّتَهٗٓ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِيْ وَهُمْ لَكُمْ عَدُوٌّ  ۭ

ऐ औलादे आदम! ज़रा सोचो, तुम मुझे छोड कर उस इब्लीस को अपना वली और कारसाज़ बनाते हो जिसने यूँ मेरी नाफ़रमानी की थी। तुम्हारा खालिक़ और मालिक मैं हूँ, मैंने तुम्हे अशरफ़ुल मख्लूक़ात के मरतबे पर फ़ाइज़ किया, मैंने फ़रिश्तों को तुम्हारे सामने सर-नगों किया, तुम्हें खिलाफ़ते अर्ज़ी से नवाज़ा, और तुम हो कि मेरे मुक़ाबले में इब्लीस और उसकी सल्बी व मअन्वी औलाद से दोस्तियाँ गाँठते फ़िरते हो, जबकि फ़िलवाक़ेअ वह तुम्हारे दुश्मन हैं।

“क्या ही बुरा बदल हैं इन ज़ालिमों के लिये!”بِئْسَ لِلظّٰلِمِيْنَ بَدَلًا  50؀

अल्लाह को छोड़ कर अपने दुश्मन शैतान और उसके चेलों की रफ़ाक़त इख्तियार करके इन ज़ालिमों में अपने लिये किस क़दर बुरा बदल इख्तियार कर रखा है।

आयत 51

“मैंने इन्हें गवाह नहीं बनाया था आसमानों और ज़मीन की तख्लीक़ का और ना ही इनकी अपनी तख्लीक़ का”مَآ اَشْهَدْتُّهُمْ خَلْقَ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَلَا خَلْقَ اَنْفُسِهِمْ  ۠
“और मैं बहकाने वालों को अपना मददगार बनाने वाला ना था।”وَمَا كُنْتُ مُتَّخِذَ الْمُضِلِّيْنَ عَضُدًا    51؀

ये जो तुम शैतान और उसके गिरोह को मेरे बराबर ला रहे हो और मुझे छोड़ कर उन्हें अपना दोस्त बना रहे हो तो तुम्हें मालूम होना चाहिये कि वह ज़मीन व आसमान की तख्लीक़ और ख़ुद अपनी तख्लीक़ के मौक़े के गवाह नहीं हैं।

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आयत 52

“और जिस दिन वह कहेगा कि पुकारो मेरे उन शरीकों को जिनका तुम्हे ज़अम था”وَيَوْمَ يَقُوْلُ نَادُوْا شُرَكَاۗءِيَ الَّذِيْنَ زَعَمْتُمْ
“तो वह उन्हें पुकारेंगे मगर वह उन्हें कोई जवाब नहीं देंगे और हम इनके दरमियान हलाकत (की घाटी) हाइल कर देंगे।”فَدَعَوْهُمْ فَلَمْ يَسْتَجِيْبُوْا لَهُمْ وَجَعَلْنَا بَيْنَهُمْ مَّوْبِقًا   52؀

ये शरीक ठहराई जाने वाली शख्सियात चाहे अंबिया हों, औलिया अल्लाह हों या फ़रिश्ते, रोज़े क़यामत इनके और इन्हें शरीक मानने वालों के दरमियान हलाकत खैज़ खलीज हाइल कर दी जाएगी ताकि इन्हें मालूम हो जाए कि वह इनकी मदद को नहीं आ सकते।

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आयत 53

“और मुजरिम लोग आग को देखेंगे और जान जायेंगे कि वह उसमें डाले जाने वाले हैं और वह नहीं पायेंगे उससे बचने की कोई जगह।”وَرَاَ الْمُجْرِمُوْنَ النَّارَ فَظَنُّوْٓا اَنَّهُمْ مُّوَاقِعُوْهَا وَلَمْ يَجِدُوْا عَنْهَا مَصْرِفًا   53؀ۧ

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आयात 54 से 59 तक

وَلَقَدْ صَرَّفْــنَا فِيْ هٰذَا الْقُرْاٰنِ لِلنَّاسِ مِنْ كُلِّ مَثَلٍ  ۭ وَكَانَ الْاِنْسَانُ اَكْثَرَ شَيْءٍ جَدَلًا   54؀ وَمَا مَنَعَ النَّاسَ اَنْ يُّؤْمِنُوْٓا اِذْ جَاۗءَهُمُ الْهُدٰى وَيَسْتَغْفِرُوْا رَبَّهُمْ اِلَّآ اَنْ تَاْتِيَهُمْ سُنَّةُ الْاَوَّلِيْنَ اَوْ يَاْتِيَهُمُ الْعَذَابُ قُبُلًا   55؀ وَمَا نُرْسِلُ الْمُرْسَلِيْنَ اِلَّا مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ  ۚ  وَيُجَادِلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِالْبَاطِلِ لِيُدْحِضُوْا بِهِ الْحَقَّ وَاتَّخَذُوْٓا اٰيٰتِيْ وَمَآ اُنْذِرُوْا هُزُوًا   56؀ وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ ذُكِّرَ بِاٰيٰتِ رَبِّهٖ فَاَعْرَضَ عَنْهَا وَنَسِيَ مَا قَدَّمَتْ يَدٰهُ  ۭ اِنَّا جَعَلْنَا عَلٰي قُلُوْبِهِمْ اَكِنَّةً اَنْ يَّفْقَهُوْهُ وَفِيْٓ اٰذَانِهِمْ وَقْرًا  ۭ وَاِنْ تَدْعُهُمْ اِلَى الْهُدٰى فَلَنْ يَّهْتَدُوْٓا اِذًا اَبَدًا  57؀ وَرَبُّكَ الْغَفُوْرُ ذُو الرَّحْمَةِ  ۭ لَوْ يُؤَاخِذُهُمْ بِمَا كَسَبُوْا لَعَجَّلَ لَهُمُ الْعَذَابَ  ۭ بَلْ لَّهُمْ مَّوْعِدٌ لَّنْ يَّجِدُوْا مِنْ دُوْنِهٖ مَوْىِٕلًا  58؀ وَتِلْكَ الْقُرٰٓى اَهْلَكْنٰهُمْ لَمَّا ظَلَمُوْا وَجَعَلْنَا لِمَهْلِكِهِمْ مَّوْعِدًا    59؀ۧ

आयत 54

“और हमने फ़ेर-फ़ेर कर बयान कर दी हैं इस क़ुरान में लोगों (की हिदायत) के लिये हर क़िस्म की मिसालें।”وَلَقَدْ صَرَّفْــنَا فِيْ هٰذَا الْقُرْاٰنِ لِلنَّاسِ مِنْ كُلِّ مَثَلٍ  ۭ

अल्फ़ाज़ के मामूली फ़र्क़ के साथ ये आयत सूरह बनी इसराइल में भी (आयत 89) मौजूद है।

“लेकिन इन्सान तमाम मख्लूक़ से बढ़ कर झगलाडू है।”وَكَانَ الْاِنْسَانُ اَكْثَرَ شَيْءٍ جَدَلًا   54؀

सूरह बनी इसराइल की आयत 89 के पहले हिस्से के अल्फ़ाज़ ज्यों के त्यों वही हैं जो इस आयत के पहले हिस्से के हैं, सिर्फ़ लफ़्ज़ों की तरतीब में मामूली सा फ़र्क़ है। अलबत्ता दोनों आयात के आख़री हिस्सों के अल्फ़ाज़ मुख्तलिफ़ हैं। सूरह बनी इसराइल की मज़कूरा आयत (नम्बर 89) का आखरी हिस्सा यूँ है: {فَاَبٰٓى اَكْثَرُ النَّاسِ اِلَّا كُفُوْرًا} “मगर अक्सर लोग कुफ्राने नेअमत पर ही अड़े रहते हैं।”

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आयत 55

“और नहीं रोका लोगों को (किसी चीज़ ने) जब उनके पास हिदायत आ गई कि वह ईमान लायें और अपने रब से मगफिरत माँगें”وَمَا مَنَعَ النَّاسَ اَنْ يُّؤْمِنُوْٓا اِذْ جَاۗءَهُمُ الْهُدٰى وَيَسْتَغْفِرُوْا رَبَّهُمْ

इस आयत की मुशाबेहत सूरह बनी इसराइल की आयत 94 के साथ है। दोनों आयात के पहले हिस्सों के अल्फ़ाज़ हू-ब-हू एक जैसे हैं।

“मगर ये कि उनसे पहलों का तरीक़ बरता जाए”اِلَّآ اَنْ تَاْتِيَهُمْ سُنَّةُ الْاَوَّلِيْنَ

ये लोग जो हिदायत आ जाने के बाद भी ईमान नहीं ला रहे और अल्लाह के हुज़ूर अस्तगफार नहीं कर रहे हैं तो इसकी वजह सिवाय इसके और कुछ नहीं कि इनके लिये भी पहली क़ौमों का सा अंजाम लिखा जा चुका है।

“या अज़ाब उनके सामने आ मौजूद हो।”اَوْ يَاْتِيَهُمُ الْعَذَابُ قُبُلًا   55؀

आयत 56

“और हम नहीं भेजते रसूलों को मगर खुश ख़बरी देने वाले और ख़बरदार करने वाले (बनाकर)”وَمَا نُرْسِلُ الْمُرْسَلِيْنَ اِلَّا مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ  ۚ 

ये मज़मून जो यहाँ सब रसूलों के मुताल्लिक़ जमा के सीगे में आया है, सूरह बनी इसराइल (आयत 105) में हुज़ूर ﷺ के लिये सीगा-ए-वाहिद में यूँ आया है: {وَمَآ اَرْسَلْنٰكَ اِلَّا مُبَشِّرًا وَّنَذِيْرًا} “और (ऐ मोहम्मद ﷺ!) हमने नहीं भेजा आपको मगर मुब्बशिर और नज़ीर बना कर।”

“और ये काफ़िर लोग झगड़ते हैं झूठ की तरफ़ से ताकि बिचला दे इसके साथ हक़ को”وَيُجَادِلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِالْبَاطِلِ لِيُدْحِضُوْا بِهِ الْحَقَّ

ये लोग बातिल के साथ खड़े होकर हक़ को शिकस्त देने के लिये मनाज़रे और कट-हुज्जतियाँ कर रहे हैं।

“और इन्होंने मेरी आयात को और (उस चीज़ को) जिसके साथ इन्हें ख़बरदार किया गया था मज़ाक़ बना लिया है।”وَاتَّخَذُوْٓا اٰيٰتِيْ وَمَآ اُنْذِرُوْا هُزُوًا   56؀

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आयत 57

“और उस शख्स से बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जिसे नसीहत की गई हो उसके रब की आयात के ज़रिये, तो उसने ऐराज़ किया उनसे और वह भूल गया कि क्या आगे भेजा है उसके दोनों हाथों ने।”وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ ذُكِّرَ بِاٰيٰتِ رَبِّهٖ فَاَعْرَضَ عَنْهَا وَنَسِيَ مَا قَدَّمَتْ يَدٰهُ  ۭ

बजाए ईमान लाने के और अपने साबक़ा गुनाहों से तौबा करने के उसने अल्लाह की आयात से रूगरदानी की रविश अपनाए रखी। इस ज़िद और हठधर्मी में वह अपने आमाल के उस झाड़-झंकाड़ को भी भूल गया जो उसने अपनी आख़िरत के लिये तैयार कर रखा था।

“यक़ीनन हमने इनके दिलों पर परदे डाल दिये हैं कि वह इस (क़ुरान) को समझ ना पायें और इनके कानों में बोझ (डाल दिया है)।”اِنَّا جَعَلْنَا عَلٰي قُلُوْبِهِمْ اَكِنَّةً اَنْ يَّفْقَهُوْهُ وَفِيْٓ اٰذَانِهِمْ وَقْرًا  ۭ

ये मज़मून सूरह बनी इसराइल (आयत नम्बर 45) में इस तरह आ चुका है: {وَاِذَا قَرَاْتَ الْقُرْاٰنَ جَعَلْنَا بَيْنَكَ وَبَيْنَ الَّذِيْنَ لَا يُؤْمِنُوْنَ بِالْاٰخِرَةِ حِجَابًا مَّسْتُوْرًا} “और जब आप क़ुरान पढ़ते हैं तो हम आपके और आख़िरत पर ईमान ना रखने वाले लोगों के दरमियान पर्दा हाइल कर देते हैं।”

“और अगरचे आप बुलायें उन्हें हिदायत की तरफ़ तब भी वह कभी हिदायत नहीं पायेंगे।”وَاِنْ تَدْعُهُمْ اِلَى الْهُدٰى فَلَنْ يَّهْتَدُوْٓا اِذًا اَبَدًا  57؀

क्योंकि हक़ वाज़ेह हो जाने के बाद इनकी मुसलसल हठधर्मी के सबब इनके दिलों पर मोहरें लग चुकी हैं और इस तरह वह अल्लाह के क़ानूने हिदायत व ज़लालत की आख़री दफ़ा की ज़द में आ चुके हैं जिसके तहत जान-बूझ कर हक़ से ऐराज़ करने वाले को हमेशा के लिये हिदायत से महरूम कर दिया जाता है।

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आयत 58

“और आपका रब बहुत बख्शने वाला, बहुत रहमत वाला है। अगर वह मुआख्ज़ा करता इनका ब-सबब इनके आमाल के तो बहुत जल्दी भेज देता इन पर अज़ाब।”وَرَبُّكَ الْغَفُوْرُ ذُو الرَّحْمَةِ  ۭ لَوْ يُؤَاخِذُهُمْ بِمَا كَسَبُوْا لَعَجَّلَ لَهُمُ الْعَذَابَ  ۭ

ये मज़मून सूरतुल नहल आयत 61 और सूरह फ़ातिर आयत 45 में भी बड़ी वज़ाहत से बयान हुआ है कि अगर अल्लाह तआला लोगों के ज़ुल्म और बुरे आमाल के सबब उनका मुआख्ज़ा करता तो रुए ज़मीन पर कोई मुतनफ्फिस ज़िन्दा ना बचता।

“बल्कि इनके लिये वादे का एक वक़्त मुअय्यन है और वह हरगिज़ नहीं पायेंगे उसके सिवा बचने की कोई जगह।”بَلْ لَّهُمْ مَّوْعِدٌ لَّنْ يَّجِدُوْا مِنْ دُوْنِهٖ مَوْىِٕلًا  58؀

जब किसी के वादे की मुक़र्रर घड़ी (अज्ल) आ पहुँचेगी तो उसे कोई जाए पनाह नहीं मिलेगी और उसके लिये उससे सरक कर इधर-उधर होने की कोई गुंजाईश नहीं होगी: {فَاِذَا جَاۗءَ اَجَلُهُمْ لَا يَسْتَاْخِرُوْنَ سَاعَةً وَّلَا يَسْتَقْدِمُوْنَ} (नहल 61) “फ़िर जब आ जाता है उनका वक़्ते मुअय्यन तो ना वह पीछे रह सकते हैं एक लम्हा और ना आगे बढ़ सकते हैं।”

आयत 59

“और ये हैं वह बस्तियाँ जिन (के वासियों) को हमने हलाक कर दिया जब उन्होंने ज़ुल्म इख्तियार किया”وَتِلْكَ الْقُرٰٓى اَهْلَكْنٰهُمْ لَمَّا ظَلَمُوْا

अहक़ाफ़ में आबाद क़ौमे आद के अफ़राद हों या इलाक़ा-ए-हिज्र के बाशिंदे, अस्हाबुल एयका हों या आमूरा और सदुम के वासी, सब इसी क़ानूने इलाही के मुताबिक़ हलाकत से दो-चार हुए।

“और हमने मुक़र्रर कर दिया था उनकी हलाकत के लिये वादे का एक वक़्त।”وَجَعَلْنَا لِمَهْلِكِهِمْ مَّوْعِدًا    59؀ۧ

वादे के इस तयशुदा वक़्त से पहले किसी क़ौम या बस्ती पर कभी कोई अज़ाब नहीं आया।

आयात 60 से 82 तक

وَاِذْ قَالَ مُوْسٰي لِفَتٰىهُ لَآ اَبْرَحُ ﱑ اَبْلُغَ مَجْـمَعَ الْبَحْرَيْنِ اَوْ اَمْضِيَ حُقُبًا   60؀ فَلَمَّا بَلَغَا مَجْمَعَ بَيْنِهِمَا نَسِيَا حُوْتَهُمَا فَاتَّخَذَ سَبِيْلَهٗ فِي الْبَحْرِ سَرَبًا     61؀ فَلَمَّا جَاوَزَا قَالَ لِفَتٰىهُ اٰتِنَا غَدَاۗءَنَا  ۡ لَقَدْ لَقِيْنَا مِنْ سَفَرِنَا هٰذَا نَصَبًا    62؀ قَالَ اَرَءَيْتَ اِذْ اَوَيْنَآ اِلَى الصَّخْرَةِ فَاِنِّىْ نَسِيْتُ الْحُوْتَ ۡ وَمَآ اَنْسٰنِيْهُ اِلَّا الشَّيْطٰنُ اَنْ اَذْكُرَهٗ  ۚ وَاتَّخَذَ سَبِيْلَهٗ فِي الْبَحْرِڰ عَجَبًا   63؀ قَالَ ذٰلِكَ مَا كُنَّا نَبْغِ ڰ فَارْتَدَّا عَلٰٓي اٰثَارِهِمَا قَصَصًا    64؀ۙ فَوَجَدَا عَبْدًا مِّنْ عِبَادِنَآ اٰتَيْنٰهُ رَحْمَةً مِّنْ عِنْدِنَا وَعَلَّمْنٰهُ مِنْ لَّدُنَّا عِلْمًا    65؀ قَالَ لَهٗ مُوْسٰي هَلْ اَتَّبِعُكَ عَلٰٓي اَنْ تُعَلِّمَنِ مِمَّا عُلِّمْتَ رُشْدًا    66؀ قَالَ اِنَّكَ لَنْ تَسْتَطِيْعَ مَعِيَ صَبْرًا   67؀ وَكَيْفَ تَصْبِرُ عَلٰي مَا لَمْ تُحِطْ بِهٖ خُبْرًا    68؀ قَالَ سَتَجِدُنِيْٓ اِنْ شَاۗءَ اللّٰهُ صَابِرًا وَّلَآ اَعْصِيْ لَكَ اَمْرًا     69؀ قَالَ فَاِنِ اتَّبَعْتَنِيْ فَلَا تَسْــــَٔـلْنِيْ عَنْ شَيْءٍ ﱑ اُحْدِثَ لَكَ مِنْهُ ذِكْرًا  70؀ۧ فَانْطَلَقَا   ۪ﱑ اِذَا رَكِبَا فِي السَّفِيْنَةِ خَرَقَهَا    ۭ قَالَ اَخَرَقْتَهَا لِتُغْرِقَ اَهْلَهَا  ۚ لَقَدْ جِئْتَ شَيْــــًٔـا اِمْرًا   71؀ قَالَ اَلَمْ اَقُلْ اِنَّكَ لَنْ تَسْتَطِيْعَ مَعِيَ صَبْرًا    72؀ قَالَ لَا تُؤَاخِذْنِيْ بِمَا نَسِيْتُ وَلَا تُرْهِقْنِيْ مِنْ اَمْرِيْ عُسْرًا    73؀ فَانْطَلَقَا    ۪حَتّىٰٓ اِذَا لَقِيَا غُلٰمًا فَقَتَلَهٗ  ۙ قَالَ اَقَتَلْتَ نَفْسًا زَكِيَّةًۢبِغَيْرِ نَفْسٍ ۭ لَقَدْ جِئْتَ شَـيْــــًٔـا نُّكْرًا  74؀ قَالَ اَ لَمْ اَقُلْ لَّكَ اِنَّكَ لَنْ تَسْتَطِيْعَ مَعِيَ صَبْرًا 75؀ قَالَ اِنْ سَاَلْتُكَ عَنْ شَيْءٍۢ  بَعْدَهَا فَلَا تُصٰحِبْنِيْ ۚ قَدْ بَلَغْتَ مِنْ لَّدُنِّىْ عُذْرًا   76؀ فَانْطَلَقَا      ۪ﱑ  اِذَآ اَتَيَآ اَهْلَ قَرْيَـةِۨ اسْـتَطْعَمَآ اَهْلَهَا فَاَبَوْا اَنْ يُّضَيِّفُوْهُمَا فَوَجَدَا فِـيْهَا جِدَارًا يُّرِيْدُ اَنْ يَّنْقَضَّ فَاَقَامَهٗ  ۭ قَالَ لَوْ شِئْتَ لَتَّخَذْتَ عَلَيْهِ اَجْرًا   77؀ قَالَ ھٰذَا فِرَاقُ بَيْنِيْ وَبَيْنِكَ ۚ سَاُنَبِّئُكَ بِتَاْوِيْلِ مَا لَمْ تَسْتَطِعْ عَّلَيْهِ صَبْرًا  78؀ اَمَّا السَّفِيْنَةُ فَكَانَتْ لِمَسٰكِيْنَ يَعْمَلُوْنَ فِي الْبَحْرِ فَاَرَدْتُّ اَنْ اَعِيْبَهَا وَكَانَ وَرَاۗءَهُمْ مَّلِكٌ يَّاْخُذُ كُلَّ سَفِيْنَةٍ غَصْبًا   79؀ وَاَمَّا الْغُلٰمُ فَكَانَ اَبَوٰهُ مُؤْمِنَيْنِ فَخَشِيْنَآ اَنْ يُّرْهِقَهُمَا طُغْيَانًا وَّكُفْرًا   80؀ۚ فَاَرَدْنَآ اَنْ يُّبْدِلَهُمَا رَبُّهُمَا خَيْرًا مِّنْهُ زَكٰوةً وَّاَقْرَبَ رُحْمًا   81؀ وَاَمَّا الْجِدَارُ فَكَانَ لِغُلٰمَيْنِ يَتِيْمَيْنِ فِي الْمَدِيْنَةِ وَكَانَ تَحْتَهٗ كَنْزٌ لَّهُمَا وَكَانَ اَبُوْهُمَا صَالِحًا ۚ فَاَرَادَ رَبُّكَ اَنْ يَّبْلُغَآ اَشُدَّهُمَا وَيَسْتَخْرِجَا كَنْزَهُمَا  ڰ رَحْمَةً مِّنْ رَّبِّكَ ۚ وَمَا فَعَلْتُهٗ عَنْ اَمْرِيْ ۭ ذٰلِكَ تَاْوِيْلُ مَا لَمْ تَسْطِعْ عَّلَيْهِ صَبْرًا   82؀ۄ

इन दो रुकुओं में हज़रत मूसा अलै. के एक सफ़र का ज़िक्र है। इस वाक़िये का ज़िक्र अहादीस में भी मिलता है और क़दीम इसराइली रिवायात में भी, जिनमें से बहुत सी रिवायात क़ुरान के बयान से मुताबक़त भी रखती हैं। बहरहाल इन रिवायात से जो मालूमात हासिल होती हैं उनके मुताबिक़ अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा अलै. को हुक्म दिया कि आप फ़लाँ जगह जायें, वहाँ पर आपको हमारा एक साहिबे इल्म बंदा मिलेगा, आप कुछ अरसा उसके साथ रह कर उसके इल्म से इस्तफ़ादा करें। मुम्किन है ये हज़रत मूसा अलै. की नबूवत का इब्तदाई ज़माना हो और इस तरीक़े से आपकी तरबियत मक़सूद हो, जिस तरह बाज़ रिवायात से साबित है कि हुज़ूर ﷺ की तरबियत लिये एक फ़रिश्ता तीन साल तक मुसलसल आपके साथ रहा।

इस वाक़िये में अलाह तआला ने अपने जिस बन्दे का ज़िक्र किया है उनके बारे में क़तई मालूमात दस्तयाब नहीं। इस ज़िमन में एक राय तो ये है कि वह एक फ़रिश्ता थे, जबकि एक दूसरी राय के मुताबिक़ वह इंसान ही थे जिन्हें अल्लाह तआला ने बहुत लम्बी उम्र दे रखी है। जैसे जिन्नों में से इब्लीस को अल्लाह तआला ने तवील उम्र अता कर रखी है ऐसे ही उसने इंसानों में से अपने एक नेक और बरग़ज़ीदा बन्दे को भी बहुत तवील उम्र से नवाज़ा है और उनका नाम हज़रत खिज़र है। (वल्लाह आलम!)

रिवायात से ये भी मालूम होता है कि हज़रत मूसा अलै. को किसी वक़्त ये ख़याल आया कि अल्लाह तआला ने शायद मुझे रुए ज़मीन के तमाम इंसानों से बढ़ कर इल्म अता फ़रमाया है। चुनाँचे अल्लाह तआला ने आप पर ये वाज़ेह करने के लिये कि {وَفَوْقَ کُلِّ ذِیْ عِلْمٍ عَلِیْمٌ} आपको हिदायत फ़रमाई कि आप फ़लाँ जगह हमारे एक बंदा-ए-ख़ास से मुलाक़ात करें और कुछ अरसा उसके साथ रह कर उससे इल्म व हिकमत सीखें। इस हुक्म की तामील में आप अपने नौजवान साथी हज़रत यूशा बिन नून को साथ लेकर सफ़र पर रवाना हो गए।

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आयत 60

“और याद करो जब मूसा ने अपने नौजवान (साथी) से कहा कि मैं (चलना) नहीं छोडूँगा, यहाँ तक कि दो दरियाओं के मिलने के मक़ाम पर पहुँच जाऊँ या मैं बरसों चलता ही रहूँगा।”وَاِذْ قَالَ مُوْسٰي لِفَتٰىهُ لَآ اَبْرَحُ ﱑ اَبْلُغَ مَجْـمَعَ الْبَحْرَيْنِ اَوْ اَمْضِيَ حُقُبًا   60؀

इससे मालूम होता है कि आपको बताया गया था कि वह शख्स मज्मअ-अल-बहरीन (दो दरियाओं के संगम) पर मिलेगा। मज्मअ-अल-बहरीन के इस मक़ाम के बारे में भी मुफ़स्सरीन के यहाँ इख्तिलाफ़ पाया जाता है। इस सिलसिले में एक राय तो ये है कि बहरा-ए-अहमर (red sea) के शुमाली कोने से निकलने वाली दो खाड़ियों (खलीज स्वेज़ और खलीज उक़बा) के मुक़ामे इत्तेसाल को मज्मअ-अल-बहरीन कहा गया है, जबकि एक दूसरी राय के मुताबिक़ (और ये राय ज़्यादा सही मालूम होती है) ये मक़ाम दरिया-ए-नील पर वाक़ेअ है। दरिया-ए-नील दो दरियाओं यानि अलनील अल अज़रक़ और अल नील अल बैज़ से मिल कर बना है। ये दोनों दरिया सूडान की तरफ़ से मिस्र में दाख़िल होते हैं। एक दरिया के पानी का रंग नीला है और जबकि दूसरे का सफ़ेद है (पाकिस्तान में भी अटक के मक़ाम पर दरिया-ए-सिंध के साफ़ पानी और दरिया-ए-काबुल के गदले पानी का मिलाप ऐसा ही मंज़र पेश करता है)। चुनाँचे इस राय के मुताबिक़ जिस मक़ाम पर ये दोनों दरिया मिल कर एक दरिया (मिस्र के दरिया-ए-नील) की शक्ल इख्तियार करते हैं उस मक़ाम को मज्मअ-अल-बहरीन कहा गया है और ये मक़ाम खर्तूम की सरहद के आस-पास है।

आयत 61

“फिर जब वह दोनों पहुँच गए दो दरियाओं के मिलने के मक़ाम पर”فَلَمَّا بَلَغَا مَجْمَعَ بَيْنِهِمَا
“तो वह अपनी मछली को भूल गए और उस (मछली) ने अपना रास्ता बना लिया था दरिया में सुरंग की तरह।”نَسِيَا حُوْتَهُمَا فَاتَّخَذَ سَبِيْلَهٗ فِي الْبَحْرِ سَرَبًا     61؀

ये भुनी हुई मछली थी जिसको वह खाने की गर्ज़ से अपने साथ लेकर आए थे। इस मछली को अलाह तआला की तरफ़ से निशानी बनाया गया था और उन्हें हिदायत की गई थी के जिस मक़ाम पर ये मछली ज़िन्दा होकर दरिया में चली जाएगी उसी जगह मतलूबा शख्सियत से उनकी मुलाक़ात होगी। चुनाँचे मज्मअ-अल-बहरीन के क़रीब पहुँच कर वह मछली ज़िन्दा होकर उनके तोशेदान से बाहर आई और उसने सुरंग सी बना कर दरिया में अपनी राह ली। इस मंज़र को हज़रत यूशा बिन नून ने देखा भी मगर हज़रत मूसा अलै. से इसका तज़किरा करना भूल गए।

आयत 62

“फिर जब वह दोनों (वहाँ से) आगे निकल गए तो मूसा ने अपने साथी से कहा कि अब हमारा नाश्ता ले आओ, अपने इस सफ़र से तो हमें बहुत थकान हो गई है।”فَلَمَّا جَاوَزَا قَالَ لِفَتٰىهُ اٰتِنَا غَدَاۗءَنَا  ۡ لَقَدْ لَقِيْنَا مِنْ سَفَرِنَا هٰذَا نَصَبًا    62؀

यहाँ मुफ़स्सरीन ने एक बहुत अहम नुक्ता बयान किया है कि आपको थकावट इस वजह से महसूस हुई कि आप मतलूबा मक़ाम से आगे निकल गए थे। वरना इस मक़ाम तक पहुँचने में आपको किसी क़िस्म की थकावट का अहसास नहीं हुआ था।

आयत 63

“उस (नौजवान) ने कहा: देखिये, जब हम ठहरे थे चट्टान के पास तो मैं भूल गया मछली को (निगाह में रखना)”قَالَ اَرَءَيْتَ اِذْ اَوَيْنَآ اِلَى الصَّخْرَةِ فَاِنِّىْ نَسِيْتُ الْحُوْتَ ۡ
“और नहीं मुझे भुलाए रखा मगर शैतान ने कि मैं (आपसे) इसका ज़िक्र करूँ, और उसने तो बना लिया था अपना रास्ता दरिया में अजीब तरह से।”وَمَآ اَنْسٰنِيْهُ اِلَّا الشَّيْطٰنُ اَنْ اَذْكُرَهٗ  ۚ وَاتَّخَذَ سَبِيْلَهٗ فِي الْبَحْرِڰ عَجَبًا   63؀

यानि उस जगह वह मछली ज़िन्दा होकर अजीब तरीक़े से दरिया में चली गई थी।

आयत 64

“मूसा ने कहा: यही तो था जिसकी हमें तलाश थी!”قَالَ ذٰلِكَ مَا كُنَّا نَبْغِ ڰ

यही तो हमें निशानी बताई गई थी कि जिस जगह मछली ज़िन्दा होकर दरिया में चली जाएगी उस जगह पर अल्लाह के उस बन्दे से हमारी मुलाक़ात होगी। चुनाँचे चलो अब वापस उसी जगह पर पहुँचे।

“पस वह दोनों वापस लौटे अपने नक़ूशे पा (पैरों के निशान) को देखते हुए।”فَارْتَدَّا عَلٰٓي اٰثَارِهِمَا قَصَصًا    64؀ۙ

वापस अपने क़दमों के निशानात पर चलते हुए वह ऐन उसी जगह पर आ गए जहाँ चट्टान के पास मछली ज़िन्दा होकर दरिया में कूद गई थी।

आयत 65

“तो पाया उन्होंने (वहाँ) हमारे बन्दों में से एक बन्दे को जिसे हमने रहमत अता की थी अपनी तरफ़ से और उसे सिखाया था एक इल्म ख़ास अपने पास से।”فَوَجَدَا عَبْدًا مِّنْ عِبَادِنَآ اٰتَيْنٰهُ رَحْمَةً مِّنْ عِنْدِنَا وَعَلَّمْنٰهُ مِنْ لَّدُنَّا عِلْمًا    65؀

यानि अल्लाह तआला ने अपने पास से, अपने ख़ास खज़ाना-ए-फैज़ से उसे ख़ुसूसी इल्म अता कर रखा था। “इल्मे लदुन्नी” की इस्तलाह यहीं से अखज़ की गई है। लदुन के मायने क़रीब या नज़दीक के हैं। चुनाँचे इल्मे लदुन्नी से मुराद वह इल्म है जो अल्लाह तआला अपनी ख़ास रहमत से किसी को अता कर दे। यानि एक इल्म तो वह है जो इन्सान अपने हवासे खम्सा के ज़रिये से बा-क़ायदा मेहनत व मशक्क़त के अमल से गुज़र कर हासिल करता है, जैसे मदारिसे अरबिया में सर्फ़ व नह्व, तफ़सीर व हदीस और फ़िक़ह वगैरह उलूम हासिल किये जाते हैं, या स्कूल व कॉलेज में मुतदावल उमरानी व साइन्सी उलूम सीखे जाते हैं, लेकिन इल्म की एक क़िस्म वह भी है जो अल्लाह तआला बराहेरास्त किसी इन्सान के दिल में डाल देता है और उसको उसकी तहसील के लिये कोई मशक्क़त वगैरह भी नहीं उठानी पड़ती।

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आयत 66

“मूसा ने उससे कहा: क्या मैं आपके साथ रह सकता हूँ इस शर्त पर कि आप मुझे सिखायें उसमें से जो भलाई आपको सिखाई गई है?”قَالَ لَهٗ مُوْسٰي هَلْ اَتَّبِعُكَ عَلٰٓي اَنْ تُعَلِّمَنِ مِمَّا عُلِّمْتَ رُشْدًا    66؀

मुझे अल्लाह तआला ने बताया है कि उसने आपको ख़ास हिकमत और दानाई अता कर रखी है। अगर आप इजाज़त दें तो मैं कुछ अरसा आपके साथ रहूँ और आप मुझे भी उस इल्मे ख़ास में से कुछ सिखा दें।

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आयत 67

“उसने कहा: मेरे साथ (रह कर) आप हरगिज़ सब्र नहीं कर सकेंगे।”قَالَ اِنَّكَ لَنْ تَسْتَطِيْعَ مَعِيَ صَبْرًا   67؀

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आयत 68

“और आप कैसे सब्र करेंगे उस चीज़ पर जिसकी आपको पूरी-पूरी ख़बर नहीं!”وَكَيْفَ تَصْبِرُ عَلٰي مَا لَمْ تُحِطْ بِهٖ خُبْرًا    68؀

मेरे साथ रह कर आपको मेरे काम बड़े अजीब लगेंगे और आप सब्र नहीं कर पायेंगे, क्योंकि उन कामों की हक़ीक़ी गर्ज़ व ग़ायत के बारे में आपको पूरी तरह आगाही हासिल नहीं होगी। जो बातें आपके दायरा-ए-इल्म से बाहर होंगी उन पर आप कैसे सब्र कर पायेंगे!

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आयत 69

“मूसा ने कहा: आप मुझे इंशाअल्लाह साबिर पायेंगे, और मैं ख़िलाफ़ वर्ज़ी नहीं करूँगा आपके किसी हुक्म की।”قَالَ سَتَجِدُنِيْٓ اِنْ شَاۗءَ اللّٰهُ صَابِرًا وَّلَآ اَعْصِيْ لَكَ اَمْرًا     69؀

यहाँ पर एक अहम नुक्ता लायक़-ए-तवज्जो है कि जब सब्र करने की बात हुई तो इसके साथ हज़रत मूसा ने इंशाअल्लाह कहा, लेकिन नाफ़रमानी ना करने के वादे के साथ ‘इंशाअल्लाह’ नहीं कहा। चुनाँचे बाद में हम देखेंगे कि इसी वादे की ख़िलाफ़ वर्ज़ी आपसे हुई जिसके साथ इंशाअल्लाह नहीं कहा गया था। इस हवाले से इसी सूरत का वह हुक्म भी ज़हन में रखिये जिसमें हुज़ूर ﷺ को मुख़ातिब करके फ़रमाया गया है: {وَلَا تَقُوْلَنَّ لِشَايْءٍ اِنِّىْ فَاعِلٌ ذٰلِكَ غَدًا} (आयत 23) {اِلَّآ اَنْ يَّشَاۗءَ اللّٰهُ  ۡ وَاذْكُرْ رَّبَّكَ اِذَا نَسِيْتَ وَقُلْ عَسٰٓي اَنْ يَّهْدِيَنِ رَبِّيْ لِاَقْرَبَ مِنْ هٰذَا رَشَدًا} (आयत 24) “और किसी चीज़ के बारे में ये कभी ना कहा करें कि मैं कल ये करने वाला हूँ मगर ये कि अल्लाह चाहे, और अपने रब को याद कर लिया कीजिये जब आप भूल जायें और कहिये कि मुमकिन है मेरा रब मेरी रहनुमाई कर दे इससे ज़्यादा भलाई की राह की तरफ़।”

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आयत 70

“उसने कहा: अगर आप मेरे साथ चलना चाहते हैं तो किसी चीज़ के बारे में मुझसे खुद ना पूछना यहाँ तक कि मैं खुद ही आपको उसके बारे में बता दूँ।”قَالَ فَاِنِ اتَّبَعْتَنِيْ فَلَا تَسْــــَٔـلْنِيْ عَنْ شَيْءٍ ﱑ اُحْدِثَ لَكَ مِنْهُ ذِكْرًا  70؀ۧ

बस आप मेरे साथ-साथ रहें और मैं जो कुछ करूँ या मेरे साथ जो कुछ हो आप खामोशी से उसका मुशाहेदा करते रहें, मगर किसी चीज़ के बारे में मुझसे सवाल ना करें। मैं जब मुनासिब समझूँगा उन तमाम चीज़ों की हक़ीक़त और तफ़सील आपको बता दूँगा जो आपके मुशाहिदे में आई होंगी।

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आयत 71

“फ़िर वह दोनों चल पड़े, यहाँ तक कि जब वह दोनों सवार हुए एक कश्ती में, तो उसने उस (कश्ती) में शगाफ़ डाल दिया।”فَانْطَلَقَا   ۪ﱑ اِذَا رَكِبَا فِي السَّفِيْنَةِ خَرَقَهَا    ۭ

हज़रत मूसा अलै. ने उनकी सवाल ना करने वाली शर्त तस्लीम कर ली और यूँ वह दोनों सफ़र पर रवाना हो गए। जब वह दरिया पार करने के लिये एक कश्ती में सवार हुए तो उन्होंने (उनको साहिबे मूसा कहें या हज़रत खिज़र कहें) बैठते ही कश्ती का एक तख्ता उखाड़ दिया। हज़रत मूसा ने जब ये देखा तो आप कहाँ ख़ामोश रहने वाले थे, फ़ौरन उनको टोक दिया।

“मूसा ने कहा: आपने इसे फाड़ डाला है ताकि गर्क़ कर दें इसके तमाम सवारों को? ये तो आपने बहुत ही गलत काम किया है।”قَالَ اَخَرَقْتَهَا لِتُغْرِقَ اَهْلَهَا  ۚ لَقَدْ جِئْتَ شَيْــــًٔـا اِمْرًا   71؀

आयत 72

“उसने कहा: मैंने कहा नहीं था कि आप मेरे साथ सब्र नहीं कर सकेंगे?”قَالَ اَلَمْ اَقُلْ اِنَّكَ لَنْ تَسْتَطِيْعَ مَعِيَ صَبْرًا  72؀

इस क़िस्से में मज़कूरा तीन वाक़िआत के हवाले से एक अहम बात समझने की ये है कि अल्लाह के जिन अहकाम के मुताबिक़ इस कायनात का निज़ाम चल रहा है, उनकी हैसियत तशरीई (शरीअत के मुताल्लिक़) नहीं बल्कि तकवीनी (कायनात के इंतेज़ामी अमूर से मुताल्लिक़) है। इन अहकाम की तन्फीज़ के लिये फ़रिश्ते मुक़र्रर हैं। इस सिलसिले में शाह वलीउल्लाह रह. की राय ये भी है कि इस मक़सद के लिये औलिया अल्लाह की अरवाह को भी मलाएका के तबक़ा-ए-असफ़ल में शामिल कर दिया जाता है और वह भी फ़रिश्तों के साथ मिल कर अल्लाह तआला के अहकाम की तन्फीज़ में हिस्सा लेते हैं। बहरहाल इन तकवीनी अहकाम की तामील के नतीजे में जो वाक़िआत रूनुमा होते हैं हम उनके सिर्फ़ ज़ाहिरी पहलुओं को ही देख सकते हैं। किसी वाक़िये के पीछे अल्लाह की मशीयत क्या है? इसका इदराक हम नहीं कर सकते। ज़रूरी नहीं कि कोई वाक़िया या कोई चीज़ बज़ाहिर जैसे दिखाई दे उसकी हक़ीक़त भी वैसी ही हो। मुमकिन है हम किसी चीज़ को अपने लिये बुरा समझ रहे हों मगर उसके अन्दर हमारे लिये खैर हो और जिस चीज़ को अच्छा समझ रहे हों, वह हक़ीक़त में अच्छी ना हो। सूरतुल बक़रह में हम ये आयत पढ़ चुके हैं: {وَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَھُوْا شَـيْـــًٔـا وَّھُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تُحِبُّوْا شَـيْـــــًٔـا وَّھُوَ شَرٌّ لَّكُمْ ۭ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ} (आयत 216) “हो सकता है तुम किसी चीज़ को बुरा समझो और वह तुम्हारे लिये बेहतर हो और हो सकता है तुम किसी चीज़ को पसन्द करो और वह तुम्हारे लिये बुरी हो, अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।” चुनाँचे एक बंदा-ए-मोमिन को तफ़वीज़ुल अम्र का रवैया अपनाना चाहिये कि ऐ अल्लाह! मेरा मामला तेरे सुपर्द है, मेरे लिये जो तू पंसद करेगा मैं उसी पर राज़ी रहूँगा, क्योंकि तेरे हाथ में खैर ही खैर है: {بِيَدِكَ الْخَيْرُ  ۭ } (आले इमरान 26)

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आयत 73

“मूसा ने कहा: आप मेरा मुआख्ज़ा ना कीजिये मेरे भूल जाने पर और ना ही मेरे मामले में ज़्यादा सख्ती कीजिए।”قَالَ لَا تُؤَاخِذْنِيْ بِمَا نَسِيْتُ وَلَا تُرْهِقْنِيْ مِنْ اَمْرِيْ عُسْرًا    73؀

मैं भूल गया था कि आपसे मैंने सवाल ना करने का वादा किया है, लिहाज़ा आप मेरी इस भूल की वजह से मेरा मुआख्ज़ा ना करें और दरगुज़र से काम लें।

आयत 74

“फ़िर वह दोनों चल पड़े, यहाँ तक कि उनकी मुलाक़ात हुई एक लड़के से तो उस (खिज़र) ने उसको क़त्ल कर दिया”فَانْطَلَقَا    ۪حَتّىٰٓ اِذَا لَقِيَا غُلٰمًا فَقَتَلَهٗ  ۙ
“मूसा ने कहा: क्या आपने क़त्ल कर दिया एक मासूम जान को बगैर किसी जान के (बदले के)?”قَالَ اَقَتَلْتَ نَفْسًا زَكِيَّةًۢبِغَيْرِ نَفْسٍ ۭ

उसने कोई गुनाह नहीं किया था, किसी का खून नहीं बहाया था, फ़िर भी आपने उसे क़त्ल कर दिया।

“ये तो आपने बहुत ही नामाक़ूल हरकत की है।”لَقَدْ جِئْتَ شَـيْــــًٔـا نُّكْرًا  74؀

आयत 75

“उस (खिज़र) ने कहा: क्या मैंने आपसे कहा नहीं था कि आप मेरे साथ सब्र नहीं कर सकेंगे?”قَالَ اَ لَمْ اَقُلْ لَّكَ اِنَّكَ لَنْ تَسْتَطِيْعَ مَعِيَ صَبْرًا 75؀

आयत 76

“मूसा ने कहा: अगर मैं आपसे सवाल करूँ किसी चीज़ के बारे में इसके बाद तो आप मुझे अपने साथ ना रखियेगा।قَالَ اِنْ سَاَلْتُكَ عَنْ شَيْءٍۢ  بَعْدَهَا فَلَا تُصٰحِبْنِيْ ۚ

एक दफ़ा फ़िर आप मेरी इस भूल को नज़रअंदाज़ कर दें, लेकिन अगर तीसरी मर्तबा ऐसा हुआ तब बेशक आप मुझे अपने साथ रखने से इन्कार कर दें।

“आप पहुँच चुके हैं मेरी तरफ़ से हद-ए-उज़्र को।”قَدْ بَلَغْتَ مِنْ لَّدُنِّىْ عُذْرًا   76؀

यानि आपकी तरफ़ से मुझ पर हुज्जत क़ायम हो चुकी है। लिहाज़ा इसके बाद आप मुझे साथ ना रखने के बारे में उज़्र कर सकते हैं।

आयत 77

“फ़िर वह दोनों चल पड़े, यहाँ तक कि जब पहुँचे एक बस्ती के लोगों के पास तो उन्होंने खाना माँगा बस्ती वालों से”فَانْطَلَقَا      ۪ﱑ  اِذَآ اَتَيَآ اَهْلَ قَرْيَـةِۨ اسْـتَطْعَمَآ اَهْلَهَا

कि हम मुसाफिर हैं, भूखे हैं, हमें खाना चाहिए।

“तो उन्होंने इन्कार कर दिया उन दोनों की मेहमान नवाज़ी से”فَاَبَوْا اَنْ يُّضَيِّفُوْهُمَا

उस बस्ती के बाशिंदे कुछ ऐसे कठोर दिल थे कि पूरी बस्ती में से किसी एक शख्स ने भी उन्हें खाना खिलाने की हामी ना भरी।

“तो उन दोनों ने वहाँ एक दीवार देखी जो गिरा चाहती थी तो उस (खिज़र) ने उसे सीधा कर दिया।”فَوَجَدَا فِـيْهَا جِدَارًا يُّرِيْدُ اَنْ يَّنْقَضَّ فَاَقَامَهٗ  ۭ
“मूसा ने कहा: अगर आप चाहते तो इस पर कुछ उजरत ले लेते।”قَالَ لَوْ شِئْتَ لَتَّخَذْتَ عَلَيْهِ اَجْرًا   77؀

ये ऐसे नाहंजार लोग हैं कि इन्होंने हमें खाना तक खिलाने से इन्कार कर दिया था और आपने बगैर किसी मुआवज़े के इनकी दीवार मरम्मत कर दी है। बेहतर होता अगर आप इस काम की कुछ उजरत तलब करते और इसके एवज़ हम खाना ही खा लेते।

आयत 78

“उस (खिज़र) ने कहा: बस अब ये जुदाई (का वक़्त) है मेरे और आपके दरमियान, अब मैं आपको बताए देता हूँ असल हक़ीक़त उन चीज़ों की जिन पर आप सब्र ना कर सके।”قَالَ ھٰذَا فِرَاقُ بَيْنِيْ وَبَيْنِكَ ۚ سَاُنَبِّئُكَ بِتَاْوِيْلِ مَا لَمْ تَسْتَطِعْ عَّلَيْهِ صَبْرًا  78؀

आयत 79

“जहाँ तक उस कश्ती का मामला है तो वह ग़रीब लोगों की (मिलकियत) थी जो मेहनत करते थे दरिया में”اَمَّا السَّفِيْنَةُ فَكَانَتْ لِمَسٰكِيْنَ يَعْمَلُوْنَ فِي الْبَحْرِ

वह बहुत ग़रीब और नादार लोग थे, सिर्फ़ वह कश्ती ही उनके मआश का सहारा थी। उसके ज़रिये वह लोगों को दरिया के आर-पार ले जाते और इस मज़दूरी से अपना पेट पालते थे।

“तो मैंने चाहा कि उसे ऐबदार कर दूँ, और उनके आगे एक बादशाह था जो पकड़ रहा था हर कश्ती को ज़बरदस्ती।”فَاَرَدْتُّ اَنْ اَعِيْبَهَا وَكَانَ وَرَاۗءَهُمْ مَّلِكٌ يَّاْخُذُ كُلَّ سَفِيْنَةٍ غَصْبًا   79؀

बादशाह हर उस कश्ती को अपने क़ब्ज़े में ले लेता था जो सही व सालिम होती थी। उन नादार लोगों की कश्ती भी अगर बे-ऐब होती तो बादशाह उनसे ज़बरदस्ती छीन लेता। चुनाँचे मैंने उसका एक तख्ता तोड़ कर उसे ऐबदार कर दिया। अब जब बादशाह उस ऐबदार कश्ती को देखेगा तो उसे छोड़ देगा और इस तरह उनकी रोज़ी का वाहिद सहारा उनसे नहीं छिनेगा। पूरी कश्ती छिन जाने के मुक़ाबले में एक तख्ते का टूट जाना तो मामूली बात है। उस तख्ते की वह लोग आसानी से मरम्मत कर लेंगे और यूँ वह कश्ती उनकी रोज़ी का ज़रिया बनी रहेगी। लिहाज़ा वह तख्ता उन लोगों की भलाई के लिये तोड़ा गया था ना कि किसी को नुक़सान पहुँचाने के लिये।

आयत 80

“रहा वह लड़का! तो उसके वालिदैन दोनों मोमिन थे, तो हमें यह खदशा हुआ कि वह सरकशी और नाशुक्री से उन पर ताअदि करेगा।”وَاَمَّا الْغُلٰمُ فَكَانَ اَبَوٰهُ مُؤْمِنَيْنِ فَخَشِيْنَآ اَنْ يُّرْهِقَهُمَا طُغْيَانًا وَّكُفْرًا   80؀ۚ

हज़रत खिज़र को अपने ख़ास इल्म की बिना पर मालूम हुआ होगा कि उस बच्चे के genes अच्छे नहीं हैं और बड़ा होकर अपने वालिदैन के लिये सोहाने रूह साबित होगा और सरकशी और नाशुक्री की रविश इख्तियार करके उनको आजिज़ कर देगा।

आयत 81

“पस हमने चाहा कि उन दोनों को बदले में दे उनका रब इससे बेहतर (औलाद) पाकीज़गी में और क़रीबतर शफ़क्क़त में।”فَاَرَدْنَآ اَنْ يُّبْدِلَهُمَا رَبُّهُمَا خَيْرًا مِّنْهُ زَكٰوةً وَّاَقْرَبَ رُحْمًا   81؀

बच्चे के वालिदैन चूँकि नेक और सालेह लोग थे इसलिये उनके रब ने चाहा कि उस बच्चे की जगह उन्हें एक ऐसा फ़रज़न्द अता फ़रमाए जो पाकीज़ा नफ्सी व परहेज़गारी में उससे बेहतर और मुरव्वत व दर्दमंदी में उससे बढ कर हो। चुनाँचे वक़्ती तौर पर तो बच्चे के फौत होने से वालिदैन पर गम का पहाड़ टूट पड़ा होगा लेकिन हक़ीक़त में ये सब कुछ उनकी बेहतरी के लिये ही किया गया था।

आयत 82

“और रही वह दीवार! तो वह शहर के दो यतीम लड़कों की थी, और उसके नीचे ख़ज़ाना था उन दोनों के लिये, और उनका बाप नेक आदमी था।”وَاَمَّا الْجِدَارُ فَكَانَ لِغُلٰمَيْنِ يَتِيْمَيْنِ فِي الْمَدِيْنَةِ وَكَانَ تَحْتَهٗ كَنْزٌ لَّهُمَا وَكَانَ اَبُوْهُمَا صَالِحًا ۚ

बाप ने जब देखा होगा कि मेरा आख़री वक़्त क़रीब आ लगा है और मेरे बच्चे अभी बहुत छोटे हैं तो उसने अपनी सारी पूँजी इकठ्ठी करके दीवार की बुनियाद में दफ़न कर दी होगी, इस उम्मीद पर कि जब वह बड़े होंगे तो निकाल लेंगे। लेकिन अगर वह दीवार वक़्त के पहले ही गिर जाती तो इस बस्ती के नाहन्जार लोग जो किसी मुसाफ़िर को खाना खिलाने के भी रवादार नहीं, उन यतीमों का दफ़ीना लूट कर ले जाते।

“लिहाज़ा आपके रब ने चाहा कि वह दोनों अपनी जवानी को पहुँच जायें और निकाल लें अपना ख़जाना”فَاَرَادَ رَبُّكَ اَنْ يَّبْلُغَآ اَشُدَّهُمَا وَيَسْتَخْرِجَا كَنْزَهُمَا  ڰ

बाप चूँकि नेक आदमी था इसलिये अल्लाह तआला की तरफ़ से दीवार की मरम्मत का अहतमाम करके उसके कमसिन यतीम बच्चों की भलाई का सामान किया गया।

“(ये सब अमूर) आपके रब की रहमत से (तय हुए) थे, और मैंने अपनी राय से इन्हें सर अंजाम नहीं दिया।”رَحْمَةً مِّنْ رَّبِّكَ ۚ وَمَا فَعَلْتُهٗ عَنْ اَمْرِيْ ۭ

यानि ये तमाम अमूर अल्लाह की रहमत का मज़हर थे। ये अल्लाह ही के फ़ैसले थे और उसी के हुक्म से इनकी तन्फीज़ व तामील की गई। मैंने अपनी मर्ज़ी से इनमें से कुछ भी नहीं किया। इन अमूर के सिलसिले में अल्लाह के अहकाम की तन्फीज़ करने वाले अल्लाह के वह बन्दे हज़रत खिज़र थे, कोई और वली अल्लाह थे, या कोई फ़रिश्ता थे, इससे फ़र्क़ नहीं पड़ता। इस सारे वाक़िये में असल बात जो समझने की है वह ये है कि अल्लाह के ऐसे तमाम बन्दे कारकुनाने क़ज़ा व क़द्र की फौज़ के सिपाही हैं और वह लोग अल्लाह तआला के जिन अहकाम की तन्फीज़ कर रहे हैं उनका ताल्लुक़ शरीअत से नहीं बल्कि तकवीनी अमूर से है। दुनिया में जो वाक़िआत व हादसात रूनुमा होते हैं हम सिर्फ़ उनके ज़ाहिरी पहलु को देख कर ही उन पर खुशी का इज़हार करते हैं या दिल गिरफ़्ता होते हैं। बहरहाल हमें यक़ीन होना चाहिये कि अल्लाह तआला की तरफ़ से जो कुछ होता है उसमें खैर और भलाई ही होती है। लिहाज़ा हमें अपने तमाम मामलात में “तफ़वीज़ुल अम्र” का रवैय्या अपनाते हुए राज़ी ब-रज़ा-ए-रब रहना चाहिये कि: “हरचे साक़ी मारेख्त ऐन अल्ताफ़ अस्त!”

“ये है असल हक़ीक़त उन बातों की जिन पर आप सब्र ना कर सके।”ذٰلِكَ تَاْوِيْلُ مَا لَمْ تَسْطِعْ عَّلَيْهِ صَبْرًا   82؀ۄ

आयात 83 से 101 तक

وَيَسْـــَٔـلُوْنَكَ عَنْ ذِي الْقَرْنَيْنِ ۭ قُلْ سَاَتْلُوْا عَلَيْكُمْ مِّنْهُ ذِكْرًا 83 ؀ۭ اِنَّا مَكَّنَّا لَهٗ فِي الْاَرْضِ وَاٰتَيْنٰهُ مِنْ كُلِّ شَيْءٍ سَبَبًا   84؀ۙ فَاَتْبَعَ سَبَبًا   85؀ ﱑ اِذَا بَلَغَ مَغْرِبَ الشَّمْسِ وَجَدَهَا تَغْرُبُ فِيْ عَيْنٍ حَمِئَةٍ وَّوَجَدَ عِنْدَهَا قَوْمًا  ڛ  قُلْنَا يٰذَا الْقَرْنَيْنِ اِمَّآ اَنْ تُعَذِّبَ وَاِمَّآ اَنْ تَتَّخِذَ فِيْهِمْ حُسْنًا   86؀ قَالَ اَمَّا مَنْ ظَلَمَ فَسَوْفَ نُعَذِّبُهٗ ثُمَّ يُرَدُّ اِلٰى رَبِّهٖ فَيُعَذِّبُهٗ عَذَابًا نُّكْرًا  87؀ وَاَمَّا مَنْ اٰمَنَ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَهٗ جَزَاۗءَۨ الْحُسْنٰى ۚ وَسَنَقُوْلُ لَهٗ مِنْ اَمْرِنَا يُسْرًا  88؀ۭ ثُمَّ اَتْـبَـعَ سَبَبًا   89؀ ﱑ اِذَا بَلَغَ مَطْلِعَ الشَّمْسِ وَجَدَهَا تَـطْلُعُ عَلٰي قَوْمٍ لَّمْ نَجْعَلْ لَّهُمْ مِّنْ دُوْنِهَا سِتْرًا 90؀ۙ كَذٰلِكَ  ۭ وَقَدْ اَحَطْنَا بِمَا لَدَيْهِ خُبْرًا  91؀ ثُمَّ اَتْبَعَ سَبَبًا  92 ؀ ﱑ اِذَا بَلَغَ بَيْنَ السَّدَّيْنِ وَجَدَ مِنْ دُوْنِهِمَا قَوْمًا ۙ لَّا يَكَادُوْنَ يَفْقَهُوْنَ قَوْلًا  93؀ قَالُوْا يٰذَا الْقَرْنَيْنِ اِنَّ يَاْجُوْجَ وَمَاْجُوْجَ مُفْسِدُوْنَ فِي الْاَرْضِ فَهَلْ نَجْعَلُ لَكَ خَرْجًاعَلٰٓي اَنْ تَجْعَلَ بَيْنَنَا وَبَيْنَهُمْ سَدًّا  94؀ قَالَ مَا مَكَّــنِّيْ فِيْهِ رَبِّيْ خَيْرٌ فَاَعِيْنُوْنِيْ بِقُــوَّةٍ اَجْعَلْ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُمْ رَدْمًا 95؀ۙ اٰتُوْنِيْ زُبَرَ الْحَدِيْدِ ۭ ﱑ اِذَا سَاوٰى بَيْنَ الصَّدَفَيْنِ قَالَ انْفُخُوْا   ۭ ﱑ اِذَا جَعَلَهٗ نَارًا  ۙ قَالَ اٰتُوْنِيْٓ اُفْرِغْ عَلَيْهِ قِطْرًا  96؀ۭ فَمَا اسْطَاعُوْٓا اَنْ يَّظْهَرُوْهُ وَمَا اسْتَطَاعُوْا لَهٗ نَقْبًا 97؀ قَالَ ھٰذَا رَحْمَةٌ مِّنْ رَّبِّيْ  ۚ فَاِذَا جَاۗءَ وَعْدُ رَبِّيْ جَعَلَهٗ دَكَّاۗءَ  ۚ وَكَانَ وَعْدُ رَبِّيْ حَقًّا 98؀ۭ وَتَرَكْنَا بَعْضَهُمْ يَوْمَىِٕذٍ يَّمُوْجُ فِيْ بَعْضٍ وَّنُفِخَ فِي الصُّوْرِ فَـجَـمَعْنٰهُمْ جَمْعًا 99۝ۙ وَّعَرَضْنَا جَهَنَّمَ يَوْمَىِٕذٍ لِّلْكٰفِرِيْنَ عَرْضَۨا   ١٠٠؀ۙ الَّذِيْنَ كَانَتْ اَعْيُنُهُمْ فِيْ غِطَاۗءٍ عَنْ ذِكْرِيْ وَكَانُوْا لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ سَمْعًا   ١٠١؀ۧ

इस रुकूअ में ज़ुल्क़रनैन के बारे में यहूदे मदीना के सवाल का जवाब दिया गया है। बीसवीं सदी के आग़ाज़ तक अक्सर मुफ्फ़सरीन ज़ुल्क़रनैन से ना वाक़िफ़ थे। चुनाँचे तेरह सौ साल तक आम तौर पर सिकंदर-ए-आज़म ही को ज़ुल्क़रनैन समझा जाता रहा। इसकी वजह ये थी कि क़ुरान में ज़ुल्क़रनैन की फ़तुहात का ज़िक्र जिस अंदाज़ में हुआ है ये अंदाज़ सिकंदर-ए-आज़म की फ़तुहात से मिलता-जुलता है, लेकिन हक़ीक़त ये है कि ज़ुल्क़रनैन की सीरत का वह नक़्शा जो क़ुरान ने पेश किया है उसकी सिकंदर-ए-आज़म की सीरत के साथ सिरे से कोई मुनासिबत ही नहीं।

बहरहाल जदीद तहक़ीक़ से मालूम हुआ है कि ज़ुल्क़रनैन क़दीम ईरान के बादशाह कैखोरस या साएरस का लक़ब था। ये उस ज़माने की बात है जब ईरान के ईलाक़े में दो अलग-अलग खुद मुख्तार मम्लिकतें क़ायम थीं। एक का नाम पारस था जिससे “फ़ारस” का लफ्ज़ बना है और दूसरे का नाम “मादा” था। कैखोरस या साएरस ने इन दोनों मम्लिकतों को मिला कर एक मुल्क बना दिया और यूँ सल्तनते ईरान के सुनहरे दौर का आग़ाज़ हुआ। दो मम्लिकतों के फ़रमाँरवा होने की अलामत के तौर पर उसने अपने ताज में दो सींग लगा रखे थे और इस तरह उसका लक़ब ज़ुल्क़रनैन (दो सींगो वाला) पड़ गया।

आयत 83

“और ये लोग आपसे ज़ुल्क़रनैन के बारे में पूछते हैं। आप कहिये कि अभी मैं आप लोगों को उसका हाल बताता हूँ।”وَيَسْـــَٔـلُوْنَكَ عَنْ ذِي الْقَرْنَيْنِ ۭ قُلْ سَاَتْلُوْا عَلَيْكُمْ مِّنْهُ ذِكْرًا 83 ؀ۭ

ज़ुल्क़रनैन के बारे में जदीद तहक़ीक़ को अहले इल्म के हल्क़े में मुतारिफ़ कराने का सेहरा मौलाना अबुल कलाम आज़ाद रह. के सिर है। उन्होंने अपनी तफ़सीर “तर्जुमानुल क़ुरान” में इस मौज़ू पर बहुत तफसील से बहस की है और साबित किया है कि क़दीम ईरान का बादशाह कैखोरस या साएरस ही ज़ुल्क़रनैन था। मौलाना अबुल कलाम आज़ाद रह. की तहक़ीक़ की बुनियाद उन मालूमात पर है जो शहंशाह-ए-ईरान रज़ा शाह पहलवी के दौर में एक खुदाई के दौरान दस्तयाब हुई थीं। इस खुदाई के दौरान उस अज़ीम फ़ातेह बादशाह का एक मुजस्समा भी दरयाफ्त हुआ था और मक़बरा भी। इस खुदाई से मिलने वाली मालूमात की बुनियाद पर रज़ा शाह पहलवी ने उसकी ढाई हज़ार साला बरसी मनाने का ख़ुसूसी अहतमाम किया था। दरयाफ्त शुदा मुजस्समे के सिर पर जो ताज था उसमें दो सींग भी मौजूद थे जिससे ये साबित हो गया कि ईरान का यही बादशाह (कैखोरस या साएरस) था जो तारीख़ में ज़ुल्क़रनैन के लक़ब से मशहूर है।

अब ये सवाल पैदा होता है कि यहूदियों ने ख़ुसूसी तौर पर ये सवाल क्यों पूछा था और ज़ुल्क़रनैन की शख्सियत में उनकी इस दिलचस्पी का सबब क्या था? इस सवाल का जवाब हमें बनी इसराइल की तारीख़ से मिलता है। जब 87 क़ब्ल मसीह के लगभग ईराक़ के बादशाह बख्तनसर ने फ़लस्तीन पर हमला करके येरुशलम को तबाह किया तो उस शहर की अक्सरियत को तहे तैग़ (सर क़लम) कर दिया गया और ज़िन्दा बच जाने वालों को वह अपनी फौज़ के साथ बाबुल (Babilonia) ले गया, जहाँ ये लोग डेढ़ सौ साल तक असीरी की हालत में रहे।

जब ईरान के बादशाह कैखोरस या साएरस (आइन्दा सतूर में इन्हें “ज़ुल्क़रनैन ही लिखा जायेगा) ने ईरान को मुत्तहिद करने के बाद अपनी फ़तुहात का दायरा वसीअ किया तो सबसे पहले ईराक़ को फ़तह किया। मशरिक़े वुस्ता के मौजूदा नक़्शे को ज़हन में रखा जाए तो फ़लस्तीन, इसराइल, शरक़ उरदन, मगरबी किनारा और लेबनान के मुमालिक पर मुश्तमिल पूरे इलाक़े को उस ज़माने में शामे अरब या शाम और इससे मशरिक़ में वाक़ेअ इलाक़े को ईराक़े अरब या ईराक़ कहा जाता था, जबकि ईराक़ के मज़ीद मशरिक़ में ईरान वाक़ेअ था। ईराक़ पर क़ब्ज़ा करने के बाद ज़ुल्क़रनैन ने बाबुल में असीर यहूदियों को आज़ाद कर दिया और उन्हें इजाज़त दे दी कि वह अपने मुल्क वापस जाकर अपना तबाहशुदा शहर येरुशलम दोबारा आबाद कर लें। चुनाँचे हज़रत उज़ैर अलै. की क़यादत में यहूदियों का क़ाफिला बाबुल से वापस येरुशलम आया। उन्होंने अपने इस शहर को फ़िर से आबाद किया और हेकल सुलेमानी को भी अज़सर नौ तामीर किया। इस पसमंज़र में यहूदी ज़ुल्क़रनैन को अपना मोहसिन समझते हैं और इसी सबब से उनके बारे में उन्होंने हुज़ूर ﷺ से ये सवाल पूछा था।

ज़ुल्क़रनैन की फ़तुहात के सिलसिले में तीन मुहिम्मात (जंगों) का ज़िक्र तारीख़ में भी मिलता है। इन मुहिम्मात में ईरान से मगरिब में बहरा-ए-रोम (Mediterranian) तक पूरे इलाक़े की तस्खीर, मशरिक़ में बलोचिस्तान और मकरान तक लश्कर कशी और शिमाल में बहरा-ए-खज़र (Caspian Sea) और बहरा-ए-असवद (Black Sea) के दरमियानी पहाड़ी इलाक़े की फ़तुहात शामिल हैं। ज़ुल्क़रनैन का ये सिलसिला-ए-फ़तुहात हज़रत उमर रज़ि. के दौरे ख़िलाफ़त की फ़तुहात के सिलसिले से मुशाबेह है। हज़रत उमर रज़ि. के दौर में भी जज़ीरा नुमाए अरब से मुख्तलिफ़ सिम्तों में तीन लश्करों ने पेशक़दमी की थी, एक लश्कर शाम और फ़िर मिस्र गया था, दूसरे लश्कर ने ईराक़ के बाद ईरान को फ़तह किया था, जबकि तीसरा लश्कर शिमाल में कोह क़ाफ़ (Caucasus) तक जा पहुँचा था।

क़दीम रिवायात में ज़ुल्क़रनैन के बारे में कुछ ऐसी मालूमात भी मिलती हैं कि इब्तदाई उम्र में वह एक छोटी सी ममलिकत के शहज़ादे थे। उनके अपने मुल्क में कुछ ऐसे हालात हुए कि कुछ लोग उनकी जान के दरपे हो गए। वह किसी ना किसी तरह वहाँ से बच निकलने में कामयाब हो गए और कुछ अरसा सहरा में रूपोश रहे। इसी अरसे के दौरान उन तक किसी नबी की तालीमात पहुँची। ये भी मुमकिन है कि ज़रतश्त ही अल्लाह के नबी हों और उन्हीं की तालीमात से उन्होंने इस्तफ़ादा किया हो। बहरहाल क़ुरान ने ज़ुल्क़रनैन का जो किरदार पेश किया है वह एक नेक और सालेह बंदा-ए-मोमिन का किरदार है और इस किरदार की ख़ुसूसियात तारीख़ी ऐतबार से उस ज़माने के किसी और फ़ातेह हुक्मरान पर मुन्तबिक़ नहीं होतीं।

आयत 84

“हमने उसे ज़मीन में तमक्कुन अता किया था और उसे हर तरह के असबाब व वसाएल मुहैय्या किये थे।”اِنَّا مَكَّنَّا لَهٗ فِي الْاَرْضِ وَاٰتَيْنٰهُ مِنْ كُلِّ شَيْءٍ سَبَبًا   84؀ۙ

आयत 85

“तो उसने एक (मुहिम का) सरो सामान किया।”فَاَتْبَعَ سَبَبًا   85؀

आयत 86

“यहाँ तक कि जब वह सूरज के गुरूब होने की जगह तक पहुँचा”ﱑ اِذَا بَلَغَ مَغْرِبَ الشَّمْسِ

ये ज़ुल्क़रनैन की मगरबी इलाक़ों पर लश्कर कशी का ज़िक्र है, जब वह पेश क़दमी करते हुए बहरा-ए-रोम (Mediterranian Sea) के साहिल तक जा पहुँचे। चूँकि उस ज़माने में उन लोगों को पूरी दुनिया का नक़्शा मालूम नहीं था इसलिये वह यही समझ रहे होंगे कि हम इस सिम्त में दुनिया या ज़मीन की आखरी सरहदों तक पहुँच गए हैं और इससे आगे बस समन्दर ही समन्दर है। वहाँ साहिल पर खड़े होकर उन्हें सूरज बज़ाहिर समन्दर में गुरूब होता हुआ नज़र आया और इस तरह वह इस जगह को مَغْرِبَ الشَّمْسِ (सूरज के गुरूब होने की जगह) समझे।

“उसने उसे गुरूब होते हुए पाया एक गदले चश्मे में”وَجَدَهَا تَغْرُبُ فِيْ عَيْنٍ حَمِئَةٍ

इससे Aegean Sea मुराद है जिसका पानी बहुत गदला है।

“और उसने पाया वहाँ एक क़ौम को।”وَّوَجَدَ عِنْدَهَا قَوْمًا  ڛ 

यानि उस इलाक़े को जब उन्होंने फ़तह कर लिया तो वहाँ बसने वाली क़ौम उनकी रिआया बन गई।

“हमने कहा: ऐ ज़ुल्क़रनैन! तुम चाहो तो इन्हें सज़ा दो और चाहो तो इन (के बारे) में हुस्ने सुलूक का मामला करो।”قُلْنَا يٰذَا الْقَرْنَيْنِ اِمَّآ اَنْ تُعَذِّبَ وَاِمَّآ اَنْ تَتَّخِذَ فِيْهِمْ حُسْنًا   86؀

यानि आपने इस इलाक़े को ब-ज़ोर-ए-बाज़ू फ़तह किया है, अब यहाँ के बाशिंदे आपके रहमो-करम पर हैं, आपको इन पर मुकम्मल इख्तियार है। आप चाहें तो इन पर सख्ती करें और आप चाहें तो इनके दरमियान हुस्ने सुलूक की रिवायत क़ायम करें। आयत के अल्फ़ाज़ से ज़ाहिर होता है कि ये बात अल्लाह तआला ने बराहेरास्त ज़ुल्क़रनैन को मुखातिब करके फ़रमाई, लेकिन ज़रूरी नहीं कि हक़ीक़त में ऐसा ही हुआ हो। अगर तो वह नबी थे (वल्लाह आलम) तो ये मुमकिन भी है, वरना इससे मुराद अलक़ाअ या इल्हाम भी हो सकता है। जैसे सूरतुल नहल (आयत 68) में शहद की मक्खी की तरफ़ वही किये जाने का ज़िक्र है।

आयत 87

“उसने कहा: जिसने ज़ुल्म किया हम उसे सज़ा देंगे, फ़िर वह लौटाया जायेगा अपने रब की तरफ़ और वह उसे बहुत सख्त अज़ाब देगा।”قَالَ اَمَّا مَنْ ظَلَمَ فَسَوْفَ نُعَذِّبُهٗ ثُمَّ يُرَدُّ اِلٰى رَبِّهٖ فَيُعَذِّبُهٗ عَذَابًا نُّكْرًا  87؀

यहाँ ज़ुल्म से मुराद कुफ़्र और शिर्क भी हो सकता है।

आयत 88

“और जो कोई ईमान लाया और उसने नेक आमाल किये तो उसके लिये है अच्छी जज़ा, और उससे हम बात करेंगे अपने मामले में नरमी से।”وَاَمَّا مَنْ اٰمَنَ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَهٗ جَزَاۗءَۨ الْحُسْنٰى ۚ وَسَنَقُوْلُ لَهٗ مِنْ اَمْرِنَا يُسْرًا  88؀ۭ

यानि इस मफ़तूहा इलाक़े में अपनी रिआया के अहले ईमान नेक लोगों से हम तमाम मामलात में नरमी से काम लेंगे और खराज वगैरह की वसूली के सिलसिले में उन पर सख्ती नहीं करेंगे।

आयत 89

“फ़िर उसने एक (और मुहिम का) सरो सामान किया।”ثُمَّ اَتْـبَـعَ سَبَبًا   89؀

मगरबी मुहिम से फ़ारिग होने के बाद ज़ुल्क़रनैन ने मशरक़ी इलाक़ों की तरफ़ पेश क़दमी का मंसूबा बनाया।

आयत 90

“यहाँ तक कि वह सूरज के तुलूअ होने की जगह पर पहुँच गया”ﱑ اِذَا بَلَغَ مَطْلِعَ الشَّمْسِ

इस मुहिम के सिलसिले में तारीख़ी तौर पर मकरान के इलाक़े तक ज़ुल्क़रनैन की पेश क़दमी साबित है। (वल्लाह आलम!) मुमकिन है साहिल मकरान पर खड़े होकर भी उन्होंने महसूस किया हो कि वह इस सिम्त में भी ज़मीन की आख़री हद तक पहुँच गए हैं।

“उसने उसको तुलूअ होते पाया एक ऐसी क़ौम पर जिसके लिये हमने इस (सूरज) के मुक़ाबिल कोई ओट नहीं रखी थी।”وَجَدَهَا تَـطْلُعُ عَلٰي قَوْمٍ لَّمْ نَجْعَلْ لَّهُمْ مِّنْ دُوْنِهَا سِتْرًا 90؀ۙ

उस ज़माने में ये इलाक़ा Gedrosia कहलाता था। यहाँ ऐसे वहशी क़बाइल आबाद थे जो ज़मीन पर सिर्फ़ दीवारें खडी करके अपने घर बनाते थे और उस ज़माने तक उनके तमद्दुन (civilization) में घरों पर छतें डालने का कोई तसव्वुर मौजूद नहीं था।

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आयत 91

“(फिर) ऐसा ही हुआ।”كَذٰلِكَ  ۭ

फिर यहाँ भी वैसा ही मामला हुआ जैसा कि पहली मुहिम के सिलसिले में हुआ था कि अल्लाह तआला ने उन्हें मुकम्मल फ़तह अता फ़रमाई और इलाक़े में आबाद क़बाइल के मामलात में नरमी या सख्ती करने का पूरा इख्तियार दिया। यहाँ भी ज़ुल्क़रनैन ने ज़ालिम और शरीर (बद) लोगों के साथ सख्ती जबकि नेक और शरीफ़ लोगों के साथ नरमी का रवैय्या इख्तियार करने के अज़्म का इज़हार किया।

“और हम पूरी तरह बाख़बर थे उसके अहवाल से।”وَقَدْ اَحَطْنَا بِمَا لَدَيْهِ خُبْرًا  91؀

जो कुछ ज़ुल्क़रनैन के पास था और जिन हालात से उसको साबक़ा पेश आया हम उससे पूरी तरह बाख़बर थे।

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आयत 92

“फिर उसने एक (और मुहिम का) सरो सामान किया।”ثُمَّ اَتْبَعَ سَبَبًا  92 ؀

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आयत 93

“यहाँ तक कि जब वह दो दीवारों के दरमियान पहुँचा”ﱑ اِذَا بَلَغَ بَيْنَ السَّدَّيْنِ

“सद” दीवार को कहते हैं। दो दीवारों से मुराद यहाँ दो पहाड़ी सिलसिले हैं। दाहिनी तरफ़ मशरिक़ में बहीरा-ए-कैप्सियन था और दूसरी तरफ़ बहीरा-ए-असवद। इन दोनों समुन्दरों के साहिलों के साथ-साथ दो पहाड़ी सिलसिले मुतवाज़ी (बराबर-बराबर) चलते हैं। और इन पहाड़ी सिलसिलों की दरमियानी गुज़रगाह से शिमाली इलाक़ों के वहशी क़बाइल (याजूज माजूज) इस इलाक़े पर हमलावर होते थे।

“उसने पाया उन दोनों से परे एक क़ौम (के अफ़राद) को जो कोई बात समझ नहीं सकते थे।”وَجَدَ مِنْ دُوْنِهِمَا قَوْمًا ۙ لَّا يَكَادُوْنَ يَفْقَهُوْنَ قَوْلًا  93؀

गोया ये भी एक ग़ैर-मुत्मद्दिन (uncivilized) क़ौम थी। इस क़ौम के अफ़राद ज़ुल्क़रनैन और उसके साथियों की ज़बान से क़तअन नाआशना थे और हमलावर लश्कर के लोग भी इस मफ़तूहा क़ौम की ज़बान नहीं समझ सकते थे। मगर फिर भी उन्होंने किसी ना किसी तरह से ज़ुल्क़रनैन के सामने अपना मुद्दा बयान कर ही दिया:

आयत 94

“उन्होंने कहा: ऐ ज़ुल्क़रनैन! याजूज और माजूज ज़मीन में बहुत फ़साद मचाने वाले लोग हैं”قَالُوْا يٰذَا الْقَرْنَيْنِ اِنَّ يَاْجُوْجَ وَمَاْجُوْجَ مُفْسِدُوْنَ فِي الْاَرْضِ
“तो क्या हम आपको कुछ खराज अता करें कि उसके एवज़ आप हमारे और उनके दरमियान एक दीवार बना दें?”فَهَلْ نَجْعَلُ لَكَ خَرْجًاعَلٰٓي اَنْ تَجْعَلَ بَيْنَنَا وَبَيْنَهُمْ سَدًّا  94؀

यानि आप इन पहाड़ों के दरमियान वाक़ेअ इस वाहिद क़ुदरती गुज़रगाह को बंद कर दें ताकि याजूज व माजूज हम पर हमलावर ना हो सकें। ये वही तस्सवुर या असूल था जिसके तहत आज-कल दरियाओं पर डैम तामीर किये जाते हैं। यानि दो मुतवाज़ी पहाड़ी सिलसिलों के दरमियान अगर दरिया की गुज़रगाह है तो किसी को मुनासिब मक़ाम पर मज़बूत दीवार बना कर पानी का रास्ता रोक दिया जाए ताकि दरिया एक बहुत बड़ी झील की शक्ल इख्तियार कर ले।

ये याजूज माजूज कौन हैं? इनके बारे में जानने की लिये नस्ले इन्सानी की क़दीम तारीख़ का मुताअला ज़रूरी है। क़दीम रिवायात के मुताबिक़ हज़रत नूह अलै. के बाद नस्ले इन्सानी आपके तीन बेटों साम, हाम और याफ़िस से चली थी। इनमें से सामी नस्ल तो बहुत मारूफ़ है। क़ौमे आद, क़ौमे समूद और हज़रत इब्राहीम अलै. सब सामी नस्ल में से थे। हज़रत याफ़िस की औलाद के लोग वस्ती एशिया के पहाड़ी सिलसिले को अबूर करके शिमाल की तरफ़ चले गए। वहाँ से उनकी नस्ल बढ़ते-बढ़ते शिमाली एशिया और यूरोप के इलाक़ों में फ़ैल गई। चुनाँचे मशरिक़ में चीन और हिन्द चीनी की yellow races, मगरिब में रूस और सेकंड यूनियन मुमालिक की अक़वाम, मगरबी यूरोप के एंग्लो सक्सोंस, मशरिक़ी यूरोप में ख़ुसूसी तौर पर शिमाली इलाक़ों और सहरा-ए-गोबी के इलाक़ों की तमाम आबादी हज़रत याफ़िस की नस्ल से ताल्लुक़ रखती है। तौरात में हज़रत याफ़िस के बहुत से बेटों के नाम मिलते हैं। इनमें Mosc, Tobal, Gog & Magog वगैरह क़ाबिले ज़िक्र हैं (मुमकिन है रूस का शहर मास्को, हज़रत याफ़िस के बेटे मास्क ने आबाद किया हो)। इसी तरह Baltic Sea और Baltic States का नाम गालिबन Tobal के नाम पर है। बहरहाल यूरोप की एंग्लो सैक्सन अक़वाम और तमाम Nordic Races याजूज माजूज ही की नस्ल से हैं। बुनियादी तौर पर ये ग़ैर-मुतमद्दिन और वहशी लोग थे जिनका पेशा लूट-मार और क़त्ल व ग़ारतगिरी था। वह अपने मल्हक़ा (आस-पास के) इलाक़ो पर हमलावर होते, क़त्ल व ग़ारत का बाज़ार गर्म करते और लूट-मार करके वापस चले जाते। उनकी इस गारत-गिरी की झलक मौजूदा दुनिया ने भी देखी जब Anglo Saxons ने एक सैलाब की तरह यूरोप से निकल कर देखते ही देखते पूरे एशिया और अफ्रीक़ा को नौ-आबादयाती निज़ाम (न्यू वर्ल्ड आर्डर) के शिकंजे में जकड़ लिया। बाद अज़ा मुख्तलिफ़ अवामिल की बिना पर उन्हें इन इलाक़ों से बज़ाहिर पसपा तो होना पड़ा मगर हक़ीक़त में दुनिया के बहुत से मुमालिक पर बिल्वास्ता अब भी उनका क़ब्ज़ा है। आई एम एफ और वर्ल्ड बैंक जैसे इदारे उनकी इसी बिल्वास्ता हुक्मरानी को मज़बूत करने में उनकी मदद करते हैं।

क़रीब-ए-क़यामत में इन क़ौमों की एक और यलगार होने वाली है। इसकी तफ़सीलात अहादीस और रिवायात में इस तरह आई हैं कि क़यामत से क़ब्ल दुनिया एक बहुत होलनाक जंग की लपेट में आ जाएगी। इस जंग को अहादीस में “अल मलहमातुल उज़मा” जबकि बाइबिल में Armageddon का नाम दिया गया है। मशरिक़े वुस्ता का इलाक़ा इस जंग का मरकज़ी मैदान बनेगा। इस जंग में एक तरफ़ इसाई दुनिया और तमाम यूरोपी अक़वाम होंगी और दूसरी तरफ़ मुसलमान होंगे। इसी दौरान अल्लाह तआला मुसलमानों को एक अज़ीम लीडर इमाम मेहदी की सूरत में अता करेगा। इमाम मेहदी अरब में पैदा होंगे और वह मुजद्दिद होंगे। फिर किसी मरहले पर हज़रत ईसा अलै. का नुज़ूल होगा। खुरासान के इलाक़े से मुसलमान अफ़वाज उनकी मदद को जाएँगी। फिर इस जंग का ख़ात्मा इस तरह होगा कि हज़रत ईसा अलै. दज्जाल को क़त्ल कर देंगे, यहूदियों का ख़ात्मा हो जाएगा और तमाम इसाई मुसलमान हो जायेंगे। यूँ इस्लाम को उरूज मिलेगा और दुनिया में इस्लामी हुकूमत क़ायम हो जाएगी। (अल्लाह तआला मुसलमाने पाकिस्तान को तौफ़ीक़ दे कि इससे पहले वह यहाँ निज़ाम-ए-ख़िलाफ़त क़ायम कर लें और हमसाया इलाक़ा खुरासान से जो फ़ौजें इमाम मेहदी की मदद के लिये रवाना हों उनमें हमारे लोग भी शामिल हों।)

जब हौलनाक जंग अपने अंजाम को पहुँच जाएगी तो इसके बाद याजूज माजूज की बहुत बड़ी यलगार होगी। मेरे ख्याल में ये लोग चीन और हिन्द चीनी वगैरह इलाक़ों की तरफ़ से हमलावर होंगे। ये लोग Armageddon में हिस्सा नहीं लेंगे बल्कि इसके बाद इस इलाक़े पर यलगार करके तबाही मचाएँगे। सूरतुल अंबिया की आयत 94, 97 और 98 में उनकी इस यलगार का ज़िक्र क़रीबे क़यामत के वाक़िआत के हवाले से किया गया है।

आयत 95

“उसने कहा: जो कुछ मुझे दे रखा है उसमें मेरे रब ने वह बहुत बेहतर है”قَالَ مَا مَكَّــنِّيْ فِيْهِ رَبِّيْ خَيْرٌ

कि मुझे तुम्हारे ख़राज वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं। इससे बेहतर माल तो मेरे रब ने मुझे पहले ही अता कर रखा है। बहरहाल तुम्हारे इस मसले को मैं हल किये देता हूँ। इस जुमले से ज़ुल्क़रनैन के किरदार की अकासी (reflection) होती है।

“अलबत्ता तुम लोग मेरी मदद करो क़ुव्वत (मेहनत) के ज़रिये से, मैं तुम्हारे और उनके दरमियान एक मज़बूत दीवार बना दूँगा।”فَاَعِيْنُوْنِيْ بِقُــوَّةٍ اَجْعَلْ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَهُمْ رَدْمًا 95؀ۙ

दीवार बनाने के लिये जो माद्दी असबाब व वसाएल दरकार हैं वह मैं मुहैय्या कर लूँगा। आप लोग इस सिलसिले में मेहनत व मशक्क़त और अफ़रादी क़ुव्वत (manpower) के ज़रिये मेरा हाथ बटाओ।

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आयत 96

“लाओ मेरे पास तख्ते लोहे के।”اٰتُوْنِيْ زُبَرَ الْحَدِيْدِ ۭ
“यहाँ तक कि जब उसने बराबर कर दिया दोनों ऊँचाइयों के दरमियान (की जगह) को”ﱑ اِذَا سَاوٰى بَيْنَ الصَّدَفَيْنِ

जब लोहे के तख्तों को जोड़ कर उन्होंने दोनों पहाड़ों के दरमियानी दर्रे में दीवार खडी कर दी तो:

“उसने कहा: अब आग दहकाओ!”قَالَ انْفُخُوْا   ۭ

उसने बड़े पैमाने पर आग जला कर उन तख्तों को गरम करने का हुक्म दिया।

“यहाँ तक कि जब बना दिया उसने उसको आग (की मानिन्द)”ﱑ اِذَا جَعَلَهٗ نَارًا  ۙ

जब लोहे के वह तख्ते गर्म होकर सुर्ख हो गए तो:

“उसने कहा: लाओ मेरे पास मैं डाल दूँ इस पर पिघला हुआ ताँबा।” قَالَ اٰتُوْنِيْٓ اُفْرِغْ عَلَيْهِ قِطْرًا  96؀ۭ

और यूँ ज़ुल्क़रनैन ने लोहे के तख्तों और पिघले हुए तांबे के ज़रिये से एक इन्तहाई मज़बूत दीवार बना दी। इस दिवार के आसार बहीरा-ए-कैस्पियन के मगरबी साहिल के साथ-साथ दारयाल और दरबन्द के दरमियान अब भी मौजूद हैं। ये दीवार पचास मील लम्बी, उनत्तीस फीट ऊँची और दस फीट चौड़ी थी। आज से सैंकड़ों साल पहले लोहे और तांबे की इतनी बड़ी (मिस्र के असवान डैम से भी बड़ी जिसे असद्दुल आला कहा जाता है) दीवार तामीर करना यक़ीनन एक बहुत बड़ा कारनामा था।

आयत 97

“अब ना तो वह (याजूज माजूज) इसके ऊपर चढ़ सकेंगे, और ना ही इसमें नक़ब (सेंध) लगा सकेंगे।”فَمَا اسْطَاعُوْٓا اَنْ يَّظْهَرُوْهُ وَمَا اسْتَطَاعُوْا لَهٗ نَقْبًا 97؀

आयत 98

“उसने कहा कि ये रहमत है मेरे रब की”قَالَ ھٰذَا رَحْمَةٌ مِّنْ رَّبِّيْ  ۚ

इतना बड़ा कारनामा सरअंजाम देने के बाद भी ज़ुल्क़रनैन कोई कलमा-ए-फ़ख्र ज़बान पर नहीं लाए, बल्कि यही कहा कि इसमें मेरा कोई कमाल नहीं, ये सब अल्लाह की मेहरबानी से ही मुमकिन हुआ है।

“और जब आ जाएगा वादा मेरे रब का तो वह कर देगा इसको रेज़ाह-रेज़ाह।”فَاِذَا جَاۗءَ وَعْدُ رَبِّيْ جَعَلَهٗ دَكَّاۗءَ  ۚ

चुनाँचे इम्तदादे ज़माना (समय गुज़रने) के सबब ये दीवार अब ख़त्म हो चुकी है, सिर्फ़ इसके आसार मौजूद हैं, जिनसे इसके मक़ाम और साइज़ वगैरह का पता चलता है।

“और मेरे रब का वादा सच्चा है।”وَكَانَ وَعْدُ رَبِّيْ حَقًّا 98؀ۭ

आयत 99

“और हम छोड़ देंगे इनको उस दिन वह एक-दूसरे में गुत्थम-गुत्था हो जाएँगे”وَتَرَكْنَا بَعْضَهُمْ يَوْمَىِٕذٍ يَّمُوْجُ فِيْ بَعْضٍ

ये क़यामत से पहले रूनुमा होने वाले जंगी वाक़िआत की तरफ़ इशारा है। क़रीबे क़यामत के वाक़िआत में से एक अहम वाक़िया याजूज व माजूज का ज़हूर भी है। अहादीस में इनके बारे में ऐसी ख़बरें हैं कि वह दरियाओं और समुन्दरों का पानी पी जाएँगे और हर चीज़ को हड़प कर जाएँगे। ऐन मुमकिन है वह आदमखोर भी हों और ज़रूरत पड़ने पर इन्सानों को भी खा जाएँ। जैसे आज हम चीनी क़ौम को देखते हैं कि वह साँप, बिच्छु, कुत्ता, बिल्ली हर चीज़ को हड़प कर जाते हैं। कसरत-ए-आबादी के लिहाज़ से भी याजूज व माजूज की बेशतर अलामात का तताबुक़ (मेल) चीनी क़ौम पर होता नज़र आता है।

याजूज व माजूज की यलगार का नक़्शा सूरतुल अम्बिया में इस तरह खींचा गया है: { وَهُمْ مِّنْ كُلِّ حَدَبٍ يَّنْسِلُوْنَ} (आयत 96) “और वह हर पहाड़ की ढलान से उतरते हुए नज़र आएँगे।” 1962 ई० में चीन-भारत जंग के दौरान अखबारों ने चीनी अफ़वाज के हमलों की तफ़सीलात बताते हुए भी कुछ ऐसी ही तस्वीर कशी की थी: Waves after waves of Chinese soldiers were coming down the slopes.” बहरहाल जिस तरह याजूज व माजूज आज से ढ़ाई हज़ार साल पहले अपने मल्हक़ा इलाक़ों की महज़ब आबादियों को ताख्त व ताराज करते थे, इसी तरह क़यामत से पहले एक दफ़ा फिर वह दुनिया में तबाही मचाएँगे और उनका ज़हूर अपनी नौइयत का एक बहुत अहम वाक़िया होगा।

“और सूर में फूँका जाएगा, पस हम इन सबको जमा कर लेंगे।”وَّنُفِخَ فِي الصُّوْرِ فَـجَـمَعْنٰهُمْ جَمْعًا 99۝ۙ

आयत 100

“और उस रोज़ हम जहन्नम को काफ़िरों के सामने ले आएँगे।”وَّعَرَضْنَا جَهَنَّمَ يَوْمَىِٕذٍ لِّلْكٰفِرِيْنَ عَرْضَۨا   ١٠٠؀ۙ

कि देख लो अपनी आँखों से, इसे हमने तुम्हारे अंजाम के लिये तैयार कर रखा है।

आयत 101

“वह लोग जिनकी निगाहें परदे में थीं मेरे ज़िक्र से, और वह सुन भी नहीं सकते थे।”الَّذِيْنَ كَانَتْ اَعْيُنُهُمْ فِيْ غِطَاۗءٍ عَنْ ذِكْرِيْ وَكَانُوْا لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ سَمْعًا   ١٠١؀ۧ

वह लोग जो अंधे और बहरे होकर दुनिया समटने में लगे हुए थे, हक़ीक़ी मुसब्बबुल असबाब को बिल्कुल फ़रामोश कर चुके थे, सिर्फ़ दुनियवी अस्बाब व वसाएल पर भरोसा करते थे और दुनिया में उनकी सारी तगो-दो (struggle) माद्दी मनफ़अत के हसूल के लिये थी। यही मज़मून अगले (आख़री) रुकूअ में बहुत तीख़े अंदाज़ में आ रहा है।

आयात 102 से 110 तक

اَفَحَسِبَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنْ يَّــتَّخِذُوْا عِبَادِيْ مِنْ دُوْنِيْٓ اَوْلِيَاۗءَ  ۭ اِنَّآ اَعْتَدْنَا جَهَنَّمَ لِلْكٰفِرِيْنَ نُزُلًا  ١٠٢؁ قُلْ هَلْ نُنَبِّئُكُمْ بِالْاَخْسَرِيْنَ اَعْمَالًا  ١٠٣؁ۭ اَلَّذِيْنَ ضَلَّ سَعْيُهُمْ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَهُمْ يَحْسَبُوْنَ اَنَّهُمْ يُحْسِنُوْنَ صُنْعًا ١٠4؁ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ رَبِّهِمْ وَلِقَاۗىِٕهٖ فَحَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فَلَا نُقِيْمُ لَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ وَزْنًا ١٠٥؁ ذٰلِكَ جَزَاۗؤُهُمْ جَهَنَّمُ بِمَا كَفَرُوْا وَاتَّخَذُوْٓا اٰيٰتِيْ وَرُسُلِيْ هُزُوًا  ١٠٦؁ اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ كَانَتْ لَهُمْ جَنّٰتُ الْفِرْدَوْسِ نُزُلًا ١٠٧؁ۙ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا لَا يَبْغُوْنَ عَنْهَا حِوَلًا ١٠٨؁ قُلْ لَّوْ كَانَ الْبَحْرُ مِدَادًا لِّكَلِمٰتِ رَبِّيْ لَنَفِدَ الْبَحْرُ قَبْلَ اَنْ تَنْفَدَ كَلِمٰتُ رَبِّيْ وَلَوْ جِئْنَا بِمِثْلِهٖ مَدَدًا  ١٠٩؁ قُلْ اِنَّمَآ اَنَا بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ يُوْحٰٓى اِلَيَّ اَنَّمَآ اِلٰـــهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ  ۚ فَمَنْ كَانَ يَرْجُوْا لِقَاۗءَ رَبِّهٖ فَلْيَعْمَلْ عَمَلًا صَالِحًا وَّلَا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهٖٓ اَحَدًا  ١١٠؀ۧ

इस आखरी रुकूअ में बहुत वाज़ेह अल्फ़ाज़ में बता दिया गया है कि अल्लाह की नज़र में कौन लोग हक़ीक़ी गुमराही और कुफ़्र व दज्ल में मुबतला हैं। अगरचे क़रीबे क़यामत के ज़माने में एक शख्से मुअय्यन “दज्जाले अकबर” का फ़ितना और उसका ज़हूर अपनी जगह एक हक़ीक़त है (ये उसकी तफ़सील का मौक़ा नहीं) मगर अमूमी तौर पर दज्जालियत का फ़ितना यही है कि इंसान हसूले दुनिया में मशगूल होकर इस हद तक ग़ाफिल हो जाए कि उसे ना तो अपने दारे आख़िरत की कोई फ़िक्र रहे और ना ही अपने खालिक़ व मालिक की मर्ज़ी व मंशा का कुछ होश रहे। वह इस “उरूसे हज़ार दामाद” की ज़ुल्फ़े गिरहगीर का ऐसा असीर हो कि इसकी ज़ाहिरी दिलफ़रेबियों और चमक-दमक ही में खोकर रह जाए।

आयत 102

“क्या काफ़िरों ने ये समझ रखा है कि वह मेरे ही बन्दों को मेरे मुक़ाबले में अपने हिमायती बना लेंगे।”اَفَحَسِبَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَنْ يَّــتَّخِذُوْا عِبَادِيْ مِنْ دُوْنِيْٓ اَوْلِيَاۗءَ  ۭ

ये लोग जिन अम्बिया व रुसुल, मलाएका और सालेहा को मेरे शरीक़ ठहराते हैं और अपना कारसाज़ समझते हैं वह सब मेरे बन्दे हैं। क्या इनका ख्याल है कि मेरे ये बन्दे मेरे मुक़ाबले में इनकी मदद और हिमायत करेंगे? ख्वाह हज़रत ईसा अलै. हो या अब्दुल क़ादिर जीलानी रहि., मेरे ये बन्दे मेरे मुक़ाबले में इनके हामी व मददगार और हाजत रवां साबित होंगे?

“यक़ीनन हमें तैयार कर रखा है जहन्नम को ऐसे काफ़िरों की मेहमानी के लिये।”اِنَّآ اَعْتَدْنَا جَهَنَّمَ لِلْكٰفِرِيْنَ نُزُلًا  ١٠٢؁

आयत 103

“आप कहिये! क्या हम तुम्हें बतायें कि अपने आमाल के ऐतबार से सबसे ज़्यादा ख़सारे में कौन है?قُلْ هَلْ نُنَبِّئُكُمْ بِالْاَخْسَرِيْنَ اَعْمَالًا  ١٠٣؁ۭ

ये है वह मज़मून जिसे इब्तदा में इस सूरत का अमूद क़रार दिया गया था, यानि दुनिया और इसकी ज़ेब व ज़ीनत! इस मज़मून के सायबान का एक खूंटा सूरत के आग़ाज़ में नस्ब है, जबकि दूसरा खूंटा यहाँ इन आयात की सूरत में। इब्तदाई आयात में वाज़ेह तौर पर बताया गया था कि दुनिया की ज़ेब व ज़ीनत और रौनक़ों पर मुश्तमिल ये ख़ूबसूरत महफ़िल सजाई ही इंसानों की आज़माईश के लिये गई है। इसके ज़रिये से इंसानों के रवैय्यों की परख पड़ताल करना और उनकी जद्दो-जहद की गर्ज़ व गायत का तअय्युन करना मक़सूद है: { اِنَّا جَعَلْنَا مَا عَلَي الْاَرْضِ زِيْنَةً لَّهَا لِنَبْلُوَهُمْ اَيُّهُمْ اَحْسَنُ عَمَلًا} अब यहाँ आयत ज़ेरे नज़र में उन लोगों की निशानदेही की जा रही है जो अपने आमाल, अपनी मेहनत व मशक्क़त, भाग-दौड़ और सई व जहद में सबसे ज़्यादा घाटा खाने वाले हैं। और ये वह लोग हैं जो इस आज़माईश में नाकाम होकर दुनिया की ज़ेब व ज़ीनत ही में खो गए हैं।

जहाँ तक मेहनत और मशक्क़त का ताल्लुक़ है वह तो हर शख्स करता है। जैसे हुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया: ((کُلُّ النَّاسِ یَغْدُوْ فَبَاءِعٌ نَفْسَہٗ ‘ فَمُعْتِقُھَا اَوْ مُوْبِقُھَا))(25) “हर इंसान जब सुबह करता है तो खुद को बेचना शुरू करता है, फिर या तो वह उसे आज़ाद करा लेता है या (गुनाहों) से हलाक कर देता है।” चुनाँचे हर कोई अपने आपको बेचता है। कोई अपनी ताक़त व क़ुव्वत बेचता है, कोई अपनी ज़हानत और सलाहियत बेचता है और कोई अपना वक़्त और हुनर बेचता है। गोया ये दुनिया मेहनत, अमल और कोशिश की दौड़ का मैदान है और हर इंसान अपने मफ़ाद के लिये ब-क़द्रे हिम्मत दौड़ में शामिल है। मगर बदक़िस्मती से कुछ ऐसे लोग भी हैं जो अपनी पूरी कोशिश और मेहनत के बावजूद घाटे में रहते हैं। उनके लिये खुद को बेचने के इस अमल में कुछ भी नफ़ा नहीं बल्कि नुक़सान ही नुक़सान है, ख़सारा ही ख़सारा है। तो अल्लाह की नज़र में सबसे ज़्यादा ख़सारे में रहने वाले ये कौन लोग हैं?

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आयत 104

“वह लोग जिनकी सई व जोहद दुनिया ही की ज़िंदगी में गुम होकर रह गई”اَلَّذِيْنَ ضَلَّ سَعْيُهُمْ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا

ऐसे लोग जिन्हें आख़िरत मतलूब ही नहीं, उनकी सारी तगो-दो और सोच-विचार दुनिया कमाने के लिये है। आख़िरत के लिये उन्होंने ना तो कभी कोई मंसूबा बंदी की और ना ही कोई मेहनत। बस बराए नाम और मौरूसी मुस्लमानी का भ्रम रखने के लिये कभी कोई नेक काम कर लिया, कभी नमाज़ भी पढ़ ली, और कभी रोज़ा भी रख लिया। मगर अल्लाह को असल में उनसे मक़सूद व मतलूब क्या है? इस बारे में उन्होंने कभी संजीदगी से सोचने की ज़हमत ही गवारा नहीं की। ऐसे लोगों को उनकी मेहनत का सिला हस्बे मशियते इलाही दुनिया ही में मिल जाता है, जबकि आख़िरत में उनके लिये सिवाय जहन्नम के कुछ नहीं। इस मज़मून का ज़रवा-ए-सनाम (चोटी) सूरह बनी इसराइल की ये आयात हैं:

مَنْ كَانَ يُرِيْدُ الْعَاجِلَةَ عَجَّــلْنَا لَهٗ فِيْهَا مَا نَشَاۗءُ لِمَنْ نُّرِيْدُ ثُمَّ جَعَلْنَا لَهٗ جَهَنَّمَ   ۚ يَصْلٰىهَا مَذْمُوْمًا مَّدْحُوْرًا   18؀ وَمَنْ اَرَادَ الْاٰخِرَةَ وَسَعٰى لَهَا سَعْيَهَا وَهُوَ مُؤْمِنٌ فَاُولٰۗىِٕكَ كَانَ سَعْيُهُمْ مَّشْكُوْرًا    19؀

“जो कोई तलबगार बनता है जल्दी वाली (दुनिया) का तो हम उसको जल्दी दे देते हैं उसमें जो कुछ हम चाहते हैं, जिसके लिये चाहते हैं, फिर हम मुक़र्रर कर देते हैं उसके लिये जहन्नम, वह दाख़िल होगा उसमें मलामत ज़दा, धुत्कारा हुआ। और जो कोई आख़िरत का तलबगार हो, और कोशिश करे उसके लिये उसकी सी कोशिश और वह मोमिन भी हो, तो वही लोग होंगे जिनकी कोशिश की क़दर की जाएगी।” चुनाँचे निजाते उखरवी का उम्मीदवार बनने के लिये हर बंदा-ए-मुसलमान को वाज़ेह तौर पर अपना रास्ता मुत’अय्यन करना होगा कि वह तालिबे दुनिया है या तालिबे आख़िरत? जहाँ तक दुनिया में रहते हुए ज़रूरियाते ज़िंदगी का ताल्लुक़ है वह तो अल्लाह की तरफ़ से नेक व बद सबकी पूरी हो रही हैं: (बनी इसराइल:20) { كُلًّا نُّمِدُّ هٰٓؤُلَاۗءِ وَهٰٓؤُلَاۗءِ مِنْ عَطَاۗءِ رَبِّكَ  ۭ وَمَا كَانَ عَطَاۗءُ رَبِّكَ مَحْظُوْرًا } “हम सबको मदद पहुँचाये जा रहे हैं, इनको भी और उनको भी, आपके रब की अता से, और आपके रब की अता रुकी हुई नहीं है।” लिहाज़ा इंसान को अपनी ज़रूरियाते ज़िंदगी के हसूल के सिलसिले में अल्लाह तआला पर तवक्कुल रखना चाहिये। उसने इंसान को दुनिया में ज़िन्दा रखना है तो वह उसके खाने-पीने का बंदोबस्त भी करेगा: { وَّيَرْزُقْهُ مِنْ حَيْثُ لَا يَحْتَسِبُ ۭ } (तलाक़:3) “वह उसको वहाँ से रिज़्क़ देगा जहाँ से उसे गुमान भी ना होगा।” चुनाँचे एक बंदा-ए-मोमिन को चाहिये कि फ़िक्र-ए-दुनिया से बेनियाज़ होकर आख़िरत को अपना मतलूब व मक़सूद बनाए, और उन लोगों के रास्ते पर ना चले जिन्होंने सरासर घाटे का सौदा किया है, जिनकी सारी मेहनत और तगो-दो दुनिया की ज़िंदगी ही में गुम होकर रह गई है:

“और वह समझते हैं कि वह बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।”وَهُمْ يَحْسَبُوْنَ اَنَّهُمْ يُحْسِنُوْنَ صُنْعًا ١٠4؁

ऐसे लोग अपने कारोबार की तरक्क़ी, जायदादों में इज़ाफ़े और दीगर माद्दी कामयाबियों को देखते हुए समझते हैं कि इनकी मेहनतें रोज़-ब-रोज़ नतीजा खेज़ और कोशिशें बारआवर हो रही हैं।

आयत 105

“यही वह लोग हैं जिन्होंने इन्कार किया अपने रब की आयात और उसकी मुलाक़ात का”اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ رَبِّهِمْ وَلِقَاۗىِٕهٖ

ऐसे लोग बेशक इक़रार करते हैं कि वह अल्लाह को और क़ुरान को मानते हैं, लेकिन हक़ीक़तन वह आख़िरत को भुला कर दिन-रात दुनिया समेटने ही में मसरूफ़ हैं तो अपने अमल से गोया वह अल्लाह की आयात और आख़िरत में उससे होने वाली मुलाक़ात का इन्कार कर रहे हैं। अल्लाह का फ़ैसला तो ये है: {وَاِنَّ الدَّارَ الْاٰخِرَةَ لَھِىَ الْحَـيَوَانُ ۘ } (अन्कबूत:29) “यक़ीनन आख़िरत की ज़िंदगी ही असल ज़िंदगी है।” लेकिन तालिबाने दुनिया का अमल अल्लाह की इस बात की तस्दीक़ करने के बजाय इसको झुठलाता है। इसलिये फ़रमाया गया कि यही वह लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की आयात को और उसके सामने रोज़े महशर की हाज़री को अमली तौर पर झुठला दिया है।

“तो बरबाद हो गए इनके आमाल और हम क़ायम नहीं करेंगे इनके लिये क़यामत के दिन कोई वज़न।”فَحَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فَلَا نُقِيْمُ لَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ وَزْنًا ١٠٥؁

क़यामत के दिन ऐसे लोगों के आमाल का वज़न नहीं किया जाएगा। अगर इन्होंने अपने दिल की तसल्ली और ज़मीर की ख़ुशी के लिये भलाई के कुछ काम किए भी होंगे तो ऐसी नेकियाँ जो ईमान और यक़ीन के खाली होंगी उनकी अल्लाह के नज़दीक़ कोई हैसियत नहीं होगी। चुनाँचे इनकी ऐसी तमाम नेकियाँ ज़ाया कर दी जाएँगी और मीज़ान में इनका वज़न करने की नौबत ही नहीं आएगी। इस भयानक अंजाम की बुनियादी वजह यही है कि दुनिया की आराईश व ज़ेबाईश में ग़ुम होकर इंसान को ना अल्लाह का ख्याल रहता है और ना आख़िरत की फ़िक्र दामनगीर होती है। वाज़ेह रहे कि दुनिया की ज़ेबो-ज़ीनत के हवाले से ये मज़मून इस सूरत में बार-बार दोहराया गया है (मुलाहिज़ा हो: आयत 7, 27 और 46)।

आयत 106

“इनका बदला जहन्नम है बसबब इसके कि इन्होंने कुफ़्र किया और मेरी आयात और मेरे रसूलों का मज़ाक़ उड़ाया।”ذٰلِكَ جَزَاۗؤُهُمْ جَهَنَّمُ بِمَا كَفَرُوْا وَاتَّخَذُوْٓا اٰيٰتِيْ وَرُسُلِيْ هُزُوًا  ١٠٦؁

अल्लाह की आयात और रसूलों के फ़रमूदात के मुताबिक़ तो असल ज़िंदगी आख़िरत की ज़िंदगी है और दुनियवी ज़िंदगी की कुछ अहमियत नहीं, मगर इन तालिबाने दुनिया ने समझ रखा था कि असल कामयाबी इसी दुनियवी ज़िंदगी की ही कमयाबी है। चुनाँचे इसी कामयाबी के हसूल के लिये इन्होंने मेहनत और कोशिश की और इसी ज़िंदगी को सँवारने के लिये वह खुद को हल्कान करते रहे। आख़िरत को लायक़-ए-ऐतनाअ (negligence) समझा और ना ही इसके लिये इन्होंने कोई संजीदा तगो-दो (भाग-दौड़) की। आख़िरत का ख़याल कभी आया भी तो ये सोच कर खुद को तसल्ली दे ली कि हमने फ़लाँ-फ़लाँ भलाई के काम भी तो किये हैं और फिर हम हुज़ूर ﷺ के उम्मती भी तो हैं। आप ﷺ हमारी शफ़ाअत फ़रमाएँगे और हम कामयाब व कामरान होकर जन्नत में पहुँच जाएँगे। ये अक़ीदा यहूदियों के अक़ीदे से मिलता-जुलता है। वह भी दावा करते थे कि हम अल्लाह के बेटों की मानिन्द हैं, उसके लाड़ले और चहेते हैं।

इन आयात के हवाले से एक अहम नुक्ता ये भी है तवज्जो तलब है कि यहाँ कुफ्फ़ार से मुराद इस्तलाही (शर्तिया) कुफ्फ़ार नहीं, बल्कि ऐसे लोग हैं जो क़ानूनी तौर पर तो मुसलमान ही हैं, मगर अल्लाह और उसके रसूल के अहकाम को पसे पुश्त डाल कर सरतापा (पूरे के पूरे) दुनिया के तालिब बने बैठे हैं। इस सिलसिले में ये बात याद रखनी चाहिए कि मज़कूरा मफ़हूम में जो शख्स भी आख़िरत के मुक़ाबले में दुनिया का तालिब है वही इन आयात का मिस्दाक़ है, बज़ाहिर चाहे वह मुसलमान हो, मुसलमानों का लीडर हो, मज़हबी पेशवा हो या कोई बहुत बड़ा आलिम हो। इसी मज़मून को किसी बुज़ुर्ग ने “जो दम ग़ाफिल सो दम काफ़िर” के अल्फ़ाज़ में बयान किया है। चुनाँचे आख़िरत की निजात के सिलसिले में ये बात तय करना इन्तहाई ज़रूरी है कि बुनियादी तौर पर इंसान तालिबे दुनिया है या तालिबे आख़िरत!

आखरी रुकूअ की इन आयात का सूरत की इब्तदाई आयात के साथ एक ख़ास ताल्लुक़ है और दज्जाली फ़ितने से हिफ़ाज़त के लिये इनकी ख़ुसूसी अहमियत है, चुनाँचे हदीस में इनको फ़ितना-ए-दज्जाल से हिफ़ाज़त का ज़रिया क़रार दिया गया है। इसलिये बेहतर है कि इब्तदाई दस आयात और इन आखरी आयात को हिफ्ज़ कर लिया जाए और कसरत से इनकी तिलावत की जाए। और अगर अल्लाह तआला तौफ़ीक़ दे तो जुमे के रोज़ पूरी सूरतुल कहफ़ की तिलावत को भी मामूल बनाया जाए।

आयत 107

“(इसके बरअक्स) वह लोग जो ईमान लाए और उन्होंने नेक आमाल किये उनकी मेहमानी के लिये फ़िरदौस के बाग़ात होंगे।”اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ كَانَتْ لَهُمْ جَنّٰتُ الْفِرْدَوْسِ نُزُلًا ١٠٧؁ۙ

जिन लोगों ने ईमान के तक़ाज़े भरपूर तौर पर पूरे किये और नेक आमाल करते रहे उनके लिये ठंडी छाँव वाले बाग़ात होंगे। आज हम तस्सवुर भी नहीं कर सकते कि वह बाग़ात कैसे होंगे और कहाँ होंगे। इस कायनात की वुसअत बेहद-ओ-हिसाब है और जन्नत की वुसअत भी हमारे अहाता-ए-ख्याल में नहीं समा सकती। इस कायनात में अनगिनत कहकशायें हैं और ना मालूम अल्लाह तआला ने अपने बन्दों के लिये कहाँ-कहाँ जन्नतें बना रखी हैं। हदीस में आता है कि निचले दर्जे वाला जन्नती ऊपर वाले जन्नती को ऐसे देखेगा जैसे आज हम ज़मीन से सितारों को देखते हैं। बहरहाल मालूम होता है कि अहले जन्नत की इब्तदाई मेहमान नवाज़ी (नुज़ुल) यहीं इसी ज़मीन पर होगी। यानि “क़िस्सा-ए-ज़मीन बर सर ज़मीन” ही तय किया जाएगा।

आयत 108

“वह उसमें हमेशा-हमेश रहेंगे, वहाँ से वह जगह बदलना नहीं चाहेंगे।”خٰلِدِيْنَ فِيْهَا لَا يَبْغُوْنَ عَنْهَا حِوَلًا ١٠٨؁

यानि जन्नत ऐसी जगह नहीं है कि जहाँ रहते-रहते किसी का जी उकता जाए। दुनिया में इंसान हर वक़्त तगय्युर (परिवर्तन) व तब्दीली का ख्वाहाँ (इच्छुक) है। तब्दीली की इसी ख्वाहिश के तहत बुरी से बुरी जगह पर भी कुछ देर के लिये इंसान का दिल बहल जाता है जबकि अच्छी से अच्छी जगह पर भी मुस्तक़िल तौर पर रहना पड़े तो बहुत जल्द उसे उकताहट महसूस होने लगती है। हम कश्मीर और स्विट्ज़रलैंड को “फ़िरदौस बर रुए ज़मीं” गुमान करते हैं, लेकिन वहाँ के रहने वाले वहाँ की ज़मीनी व आसमानी आफ़ात से तंग हैं। अहले जन्नत मुस्तक़िल तौर पर एक ही जगह रहने के बाइस उकाताएँगे नहीं, और वहाँ से जगह बदलने की ज़रूरत महसूस नहीं करेंगे।

अब इस सूरत की आख़री दो आयात आ रही हैं जो गोया तौहीद के दो बहुत बड़े खज़ाने हैं।

आयत 109

“(ऐ नबी !) आप कहिये कि अगर समुन्दर रौशनाई बन जाए मेरे रब (के कलिमात को लिखने) के लिये तो यक़ीनन समुन्दर ख़त्म हो जाएगा इससे पहले कि मेरे रब के कलिमात ख़त्म हों अगरचे उसी की तरह और (समुन्दर) भी हम (उसकी) मदद के लिये ले आएँ।”قُلْ لَّوْ كَانَ الْبَحْرُ مِدَادًا لِّكَلِمٰتِ رَبِّيْ لَنَفِدَ الْبَحْرُ قَبْلَ اَنْ تَنْفَدَ كَلِمٰتُ رَبِّيْ وَلَوْ جِئْنَا بِمِثْلِهٖ مَدَدًا  ١٠٩؁

यहाँ पर सूरह बनी इसराइल की आख़री आयत से पहले की आयत को दोबारा ज़हन में लाएँ: { قُلِ ادْعُوا اللّٰهَ اَوِ ادْعُوا الرَّحْمٰنَ  ۭ اَيًّا مَّا تَدْعُوْا فَلَهُ الْاَسْمَاۗءُ الْحُسْنٰى  ۚ } “आप कह दीजिये कि तुम पुकारो अल्लाह (कह कर) या पुकारो रहमान (कह कर), जिस (नाम) से भी तुम पुकारो, उसी के हैं तमाम नाम अच्छे।” सूरह बनी इसराइल की इस आयत में अल्लाह तआला के असमाअ (नामों) का ज़िक्र है, जबकि यहाँ आयत ज़ेरे नज़र में अल्लाह तआला के कलिमात का ज़िक्र है। अल्लाह के कलिमात से मुराद उसकी मुख्तलिफ़ अल नौअ मख्लूक़ात (types of creation) हैं, और उसकी हर मख्लूक़ उसके एक कलमा-ए-कुन का ज़हूर है। चुनाँचे अल्लाह तआला की जुमला-ए-मख्लूक़ात का अहाता करना किसी के बस की बात नहीं। सूरह लुक़मान में यही मज़मून इस तरह बयान हुआ है:

وَلَوْ اَنَّ مَا فِي الْاَرْضِ مِنْ شَجَـرَةٍ اَقْلَامٌ وَّالْبَحْرُ يَمُدُّهٗ مِنْۢ بَعْدِهٖ سَبْعَةُ اَبْحُرٍ مَّا نَفِدَتْ كَلِمٰتُ اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ     27؀

“और अगर ज़मीन के तमाम दरख़्त क़लमें बन जाएँ और समुन्दर स्याही हो, इसके बाद सात समुन्दर और हों तब भी अल्लाह के कलिमात ख़त्म नहीं होंगे। यक़ीनन अल्लाह ग़ालिब, हिकमत वाला है।”

आयत 110

“(ऐ नबी !) आप कह दीजिये कि मैं तो बस तुम्हारी ही तरह का एक इंसान हूँ, मुझ पर वही की जाती है कि तुम्हारा मअबूद बस एक ही मअबूद है।”قُلْ اِنَّمَآ اَنَا بَشَرٌ مِّثْلُكُمْ يُوْحٰٓى اِلَيَّ اَنَّمَآ اِلٰـــهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ  ۚ
“पस जो कोई भी उम्मीद रखता हो अपने रब से मुलाक़ात की तो उसे चाहिये कि नेक आमाल करे और अपने रब की इबादत में किसी को भी शरीक़ ना करे।”فَمَنْ كَانَ يَرْجُوْا لِقَاۗءَ رَبِّهٖ فَلْيَعْمَلْ عَمَلًا صَالِحًا وَّلَا يُشْرِكْ بِعِبَادَةِ رَبِّهٖٓ اَحَدًا  ١١٠؀ۧ

यानि इबादत खालिस अल्लाह की हो। ये तौहीदे अमली है। इस बारे में सूरह बनी इसराइल आयत 23 में यूँ फ़रमाया गया है: {وَقَضٰى رَبُّكَ اَلَّا تَعْبُدُوْٓا اِلَّآ اِيَّاهُ} “और फ़ैसला कर दिया है आपके रब ने कि तुम लोग नहीं इबादत करोगे किसी की सिवाय उसके।” सूरतुल कहफ़ की इस आख़री आयत और सूरह बनी इसराइल की आख़री आयत का भी आपस में मअनवी रब्त व ताल्लुक़ है। मवाज़ना (तुलना) के लिये सूरह बनी इसराइल की आयत मुलाहिज़ा कीजिये: { وَقُلِ الْحَمْدُ لِلّٰهِ الَّذِيْ لَمْ يَتَّخِذْ وَلَدًا وَّلَمْ يَكُنْ لَّهٗ شَرِيْكٌ فِي الْمُلْكِ وَلَمْ يَكُنْ لَّهٗ وَلِيٌّ مِّنَ الذُّلِّ وَكَبِّرْهُ تَكْبِيْرًا} “और कह दीजिये कि कुल हम्द और कुल शुक्र अल्लाह के लिये है जिसने नहीं बनाई कोई औलाद, और नहीं है उसका कोई शरीक़ बादशाही में, और ना ही उसका कोई दोस्त है कमज़ोरी की वजह से और उसकी तकबीर करो जैसे कि तकबीर करने का हक़ है।” इस आयत में अल्लाह तआला का बुलंद मक़ाम और उसकी शान बयान करके शिर्क की नफ़ी की गई है। दरअसल अल्लाह के साथ शिर्क की दो सूरतें हैं। या तो अल्लाह को मरतबा-ए-अलवहियत से नीचे उतार कर मख्लूक़ात के साथ खड़ा कर दिया जाता है या फिर मख्लूक़ात की सफ़ में से किसी को उठा कर अल्लाह के बराबर बैठा दिया जाता है। चुनाँचे सूरह बनी इसराइल की आख़री आयत में अल्लाह की किबरियाई का ऐलान करने का हुक्म देकर शिर्क की पहली सूरत का इब्ताल (रद्द) किया गया है जबकि सूरतुल कहफ़ की आख़री आयत में शिर्क की दूसरी सूरत यानि मख्लूक़ात में से किसी को अल्लाह के बराबर करने की नफ़ी की गई है।

देखा जाए तो अल्लाह की मख्लूक़ में से उसके शरीक़ बनाने की रिवायत हर ज़माने में रही है। ईसाइयों ने हज़रत मसीह अलै. को ख़ुदा का दर्जा दे दिया और अहले अरब ने फ़रिश्तों को ख़ुदा की बेटियाँ क़रार दे दिया। हमारे यहाँ भी बाज़ लोगों ने हुज़ूर ﷺ को (नाउज़ू बिल्लाह) ख़ुदा बना दिया:

वही जो मस्तवी-ए-अर्श था ख़ुदा होकर

उतर पड़ा वह मदीने में मुस्तफ़ा होकर!

और किसी ने हज़रत अली रज़ी. को ख़ुदा की ज़ात से मिला दिया:

हर चंद अली की ज़ात नहीं है ख़ुदा की ज़ात

लेकिन नहीं है ज़ाते ख़ुदा से जुदा अली!

और मिर्ज़ा ग़ालिब तो इस सिलसिले में यहाँ तक कह गए:

ग़ालिब नदीम दोस्त से आती है बू-ए-दोस्त

मशगूल-ए-हक़ हूँ बंदगी बू तुराब में!

यानि जब मैं अबु तुराब (हज़रत अली रज़ि.) की बंदगी करता हूँ तो दर हक़ीक़त अल्लाह ही की बंदगी कर रहा होता हूँ। इसी तरह आगा खानियों के यहाँ हज़रत अली रज़ि. को “दशम अवतार” क़रार दिया गया। हिन्दुओं के यहाँ नौ (9) अवतार तस्लीम किये जाते थे, उन्होंने हज़रत अली रज़ि. को “दसवाँ अवतार” मान लिया। عاذنا اللّٰہ من ذٰلک!!

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔

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फुटनोट्स

  • सहीह मुस्लिम, किताबुल ईमान, बाब बयानुल ईमान वल इस्लाम वल अहसान। (पेज 23)
  • रवाहू तिरमिज़ी, मिश्कातुल मसाबीह, किताबुल रिक़ाक़, बाबुल बकाअ वल खौफ़, अल फ़सल सानी। (पेज 36)
  • रवाहू रज़ीन, ब-हवाला मिशकातुल मसाबीह, किताबुल दावात, बाबुल दावात फ़िल औक़ात। (पेज 54)
  • अल सुननुल कुबरा लिल बयहक़ी 105/2, अन उम्मे सलामा हिन्द बिन्ते अबी उमैय्या। (पेज 59)
  • सही बुखारी, किताब अहादीसुल अम्बिया, बाब क़ौलुहू अज्ज़ व जल्ल व नबाअहुम अन ज़ैफ़ इब्राहीम। व सहीह मुस्लिम, किताबुल ईमान, बाब ज़्यादतु तमानियतुल क़ल्ब बितज़ाहिरुल अद्ल। (पेज 61)
  • अल जामेअल सगीर लिल स्यूती, ह. 1483। अन अब्दुल्लाह बिन अबी तालिब। (पेज 102)
  • सहीह मुस्लिम, किताबुल ज़ौहद वर्रिक़ाक़, बाबुल मोमिन अमरुहू कुल्लुहू खैर। (पेज 129)
  • सही मुस्लिम, किताबुल ज़कात, बाबुल हिस अलल सदक़ा वलव बिशक ताम्र अव कलिमतु तय्यबा। (पेज 136)
  • इन अल्फ़ाज़ में यह हदीस अल्लामा मुहम्मद बिन अब्दुल वहाब रहि. ने “किताबुल तौहीद” में निसाई के हवाले से दर्ज की है। मसनद अहमद में अल्फ़ाज़ वारिद हुए हैं: ((أَجَعَلْتَنِیْ وَاللّٰہَ عَدْلًا)) “क्या तूने मुझे और अल्लाह को बराबर कर दिया?” (मुरत्तब) (पेज 138)
  • इस आयत का यह तर्जुमा “وَاِنْ كَانَ مَكْرُهُمْ” में “اِنْ” को नाफ़िया मान कर किया गया है और यह हज़रत शैखुल हिन्द रहि. के तर्जुमे के मुवाफ़िक़ है। बाज़ मुफ़स्सरीन ने “اِنْ” शर्तिया और वाव असलिया मान कर तर्जुमा यूँ किया है: “अगरचे उनकी यह चालें ऐसी (ज़बरदस्त) थीं कि इनसे पहाड़ भी अपनी जगह से टल जाते।” (इज़ाफ़ा अज़ मुरत्तब) (पेज 143)
  • मसनद अहदम, ह. 20728, रावी हज़रत अबुदरदा रज़ि. (पेज 148)
  • अबु लहब के इस क़ौल के जवाब में अल्लाह तआला ने एक पूरी सूरत “सूरतुल लहब” नाज़िल फ़रमाई, जिसकी पहली आयत में ही फ़रमाया: { تَبَّتْ يَدَآ اَبِيْ لَهَبٍ وَّتَبَّ} “अबु लहब के हाथ टूटें और वह हलाक हो।” (मुरत्तब) (पेज 167)
  • शरह अल मुवाफ़िक़ लिल स्यूती:12 (पेज 182)
  • सही मुस्लिम, किताबुल ज़िक्र वल दुआ वत्तौबा वल इस्तगफ़ार, बाब फ़ज़लुल इज्तमाअ अला तिलावतुल क़ुरान व अला ज़िक्र। (पेज 182)
  • हज़रत अबु हुरैरा रज़ि. से रिवायत है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: ((لَیْسَ الْغِنٰی عَنْ کَثْرَۃِ الْعَرَضِ‘ وَلٰکِنَّ الْغِنٰی غِنَی النَّفْسِ)) “दौलतमन्दी अस्बाबे दुनियवी की कसरत से नहीं होती, बल्कि असल दौलतमन्द (ग़नी) तो वह है जिसका दिल ग़नी है।” (सही बुखारी, किताबुल रिक़ाक़, बाबुल ग़नीउल नफ्स। व सही मुस्लिम, किताबुल ज़कात, बाब लय्सल ग़नी अन कसरतुल अर्ज़) (पेज 201)
  • सुनन तिरमिज़ी, अबवाबुल दावात। व मसनद अहमद, ह.: 21995 (पेज 211)
  • सुनन तिरमिज़ी, अब्वाबुल ईमान, बाब मा जाअ फ़ी इफ़तराक़ हज़िहिल आमा (पेज 211)
  • यहाँ यह भी मल्हूज़ खातिर रहे कि मिस्र के मौजूदा इन्तखाबात (2012-13 ई.) में इख्वानुल मुस्लिमून वाज़ेह अक्सरियत के साथ बरसर इक़तदार आ चुकी है। (मुरत्तब) (पेज 219)
  • सही बुख़ारी, किताबुल दावात, बाब अद् दुआ इन्दल इस्तख़ारा। व सुनन अल् तिरमिज़ी, अबवाबुस्सलात, बाब मा जाअ फ़ी सलातुल इस्तख़ारा। (पेज 220)
  • सही बुख़ारी, किताब अहादीसुल अम्बिया, बाब क़ौल अल्लाह तआला وَاِنَّ یُوْنُسَ لَمِنَ الْمُرْسَلِیْنَ व सही मुस्लिम, किताबुल फ़जाइल, बाब मिन फ़जाइल मूसा अलै.। (पेज 236)
  • सही बुख़ारी, किताब अहादीसुल अम्बिया, बाब क़ौल अल्लाह तआला وَاِنَّ یُوْنُسَ لَمِنَ الْمُرْسَلِیْنَ व सही मुस्लिम, किताबुल फ़जाइल, बाब फ़ी ज़िक्र युनुस अलै. व क़ौलुन्नबी ﷺ لا ینبغی لعبد ان یقول انا خیر من یونس بن متی (पेज 236)
  • सही बुख़ारी, किताब अहादीसुल अम्बिया व किताबुल मनाक़ब। व सही मुस्लिम, किताबुल बिर्र वस्स्लात वल आदाब, बाबुल अरवाह जुनूद मुजन्नद। (पेज 246)
  • सही मुस्लिम, किताब सलातुल मुसाफ़िरीन व क़सरहा, बाब फ़ज़ल मिन यक़ूम बिल क़ुरान व यअलमुहू। व सुनन इब्ने माजा, अल मुक़दमा, बाब फ़ज़ल मिन तालीमुल क़ुरान व इस्मुहू। व सुनन दारमी, किताब फज़ाइलुल क़ुरान, बाब इन्नल्लाहा यरफ़आ बिहाज़ल क़ुरान अक़वामा व व यज़ाअ आखरीन। (पेज 253)
  • सही बुख़ारी, किताबुल रिक़ाक़, बाबुल तवाज़अ। (पेज 273)
  • सही मुस्लिम, किताबुल तहारत, बाब फ़ज़लुल वुज़ू। व सुनन तिरमिज़ी, अब्वाबुल दावात। (पेज 294)

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم۔

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