Suratul baqarah- सूरतुल बक़रह ayat 40 – 103

आयात 40 से 46 तक

يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَوْفُوْا بِعَهْدِىْٓ اُوْفِ بِعَهْدِكُمْ   ۚ   وَاِيَّاىَ فَارْھَبُوْنِ   40؀ وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ    ۠   وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِىْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا  وَاِيَّاىَ فَاتَّقُوْنِ    41؀ وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَــقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ   42؀ وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ وَارْكَعُوْا مَعَ الرّٰكِعِيْنَ  43؀ اَتَاْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنْسَوْنَ اَنْفُسَكُمْ وَاَنْتُمْ تَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ    ۭ   اَفَلَاتَعْقِلُوْنَ  44؀ وَاسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ      ۭ   وَاِنَّهَا لَكَبِيْرَةٌ اِلَّا عَلَي الْخٰشِعِيْنَ   45؀ۙ الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّھُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّهِمْ وَاَنَّھُمْ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَ   46؀ۧ

अब यहाँ से बनी इसराइल से ख़िताब शुरू हो रहा है। यह ख़िताब पाँचवें रुकूअ से चौदहवें रुकूअ तक, मुसलसल दस रुकूआत पर मुहीत (फैला हुआ) है। अलबत्ता इनमें एक तक़सीम है। पहला रुकूअ दावत पर मुश्तमिल है, और जब किसी गिरोह को दावत दी जाती है तो तशवीक़ व तरग़ीब (प्रोत्साहन), दिलजोई और नर्मी का अन्दाज़ इख़्तियार किया जाता है, जो दावत के अज्ज़ा-ए-ला यनफ़क (अभिन्न अंग) हैं। इस अन्दाज़ के बग़ैर दावत मौअस्सर (प्रभावी) नहीं होती। यूँ समझ लीजिये कि यह सात आयात (पाँचवा रुकूअ) इन दस रुकूओं के लिये बमंज़िला-ए-फ़ातिहा है। बनी इसराइल की हैसियत साबक़ा उम्मते मुस्लिमा की थी, जिनको यहाँ दावत दी जा रही है। वह भी मुस्लमान ही थे, लेकिन मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ का इन्कार करके काफ़िर हो गये। वरना वह हज़रत मूसा (अलै०) के मानने वाले थे, शरीअत उनके पास थी, बड़े-बड़े उलमा उनमें थे, इल्म का चर्चा उनमें था। गर्ज़ यह कि सब कुछ था। यहाँ उनको दावत दी जा रही है। इससे हमें यह रहनुमाई मिलती है कि आज मुस्लमानों में, जो अपनी हक़ीक़त को भूल गये हैं, अपने फर्जे़ मन्सबी से ग़ाफ़िल हो गये हैं और दुनिया की दीग़र क़ौमों की तरह एक क़ौम बन कर रह गये हैं, अगर कोई एक दाई गिरोह खड़ा हो तो ज़ाहिर बात है सबसे पहले उसे इसी उम्मत को दावत देनी होगी। इसलिये कि दुनिया तो इस्लाम को इसी उम्मत के हवाले से पहचानेगी (Physician heals thyself)। पहले यह खुद ठीक हो और सही इस्लाम का नमूना पेश करे तो दुनिया को दावत दे सकेगी कि आओ देखो यह है इस्लाम! चुनाँचे उनको दावत देने का जो असलूब होना चाहिये वह इस असलूब का अक्स होगा जो इन सात आयात में हमारे सामने आयेगा।

आयत 40

“ऐ बनी इसराइल! याद करो मेरे उस ईनाम को जो मैंने तुम पर किया” يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ

“बनी इसराइल” की तरकीब को समझ लीजिये कि यह मुरक्कबे इज़ाफ़ी है। “अस्र” का मायना है बन्दा या गुलाम। इसी से “असीर” बना है जो किसी का क़ैदी होता है। और लफ्ज़ “ईल” इब्रानी में अल्लाह के लिये आता है। चुनाँचे बनी इसराइल का तुर्जमा होगा “अब्दुल्लाह” यानि अल्लाह का गुलाम, अल्लाह की इताअत के क़लादे के अन्दर बंधा हुआ। “इसराइल” लक़ब है हज़रत याक़ूब (अलै०) का। उनके बारह बेटे थे और उनसे जो नस्ल चली वह बनी इसराइल है। उन्ही में हज़रत मूसा (अलै०) की बेअसत हुई और उन्हें तौरात दी गयी। फिर यह एक बहुत बड़ी उम्मत बने। क़ुरान मजीद के नुज़ूल के वक़्त तक उन पर उरूज व ज़वाल के चार अदवार (काल) आ चुके थे। दो मर्तबा उन पर अल्लाह तआला की रहमत की बारिशें हुईं और उन्हें उरूज नसीब हुआ, जबकि दो मर्तबा दुनिया परस्ती, शहवत परस्ती और अल्लाह के अहकाम को पसे पुश्त (पीठ पीछे) डाल देने की सज़ा में उन पर अल्लाह के अज़ाब के कोड़े बरसे। इसका ज़िक्र सूरह बनी इसराइल के पहले रुकूअ में आयेगा। उस वक़्त जबकि क़ुरान नाज़िल हो रहा था वह अपने इस ज़वाल के दौर में थे। हाल यह था कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत से पहले ही उनका “मअबूदे सानी” (Second Temple) भी मुनहदिम (ध्वस्त) किया जा चुका था। हज़रत सुलेमान (अलै०) ने जो हैकले सुलेमानी बनाया था, जिसको यह “मअबूदे अव्वल” (First Temple) कहते हैं, उसे बख्तनसर (Nebukadnezar) ने हज़रत मसीह से भी छ: सौ साल पहले गिरा दिया था। उसे उन्होंने दोबारा तामीर किया था जो “मअबूदे सानी” कहलाता था। लेकिन 70 ई० में मुहम्मदे अरबी ﷺ की विलादत से पाँच सौ साल पहले रोमियों ने हमला करके येरूशलम को तबाह व बरबाद कर दिया, यहूदियों का क़त्ले आम किया और जो “मअबूदे सानी” उन्होंने तामीर किया था उसे भी मसमार (विध्वंस) कर दिया, जो अब तक गिरा पड़ा है, सिर्फ़ एक दीवारे गिरया (Veiling Wall) बाक़ी है जिसके पास जाकर यहूदी मातम और गिरया व ज़ारी कर लेते हैं, और अब वह उसे सेबारा (तीसरी बार) बनाने पर तुले हुए हैं। चुनाँचे उनके “मअबूदे सालिस” (Third Temple) के नक़्शे बन चुके हैं, उसका इब्तदाई ख़ाका तैयार हो चुका है। बहरहाल जिस वक़्त क़ुरान नाज़िल हो रहा था उस वक़्त यह बहुत ही पस्ती में थे। उस वक़्त उनसे फ़रमाया गया: “ऐ बनी इसराइल! ज़रा याद करो मेरे उस ईनाम को जो मैंने तुम पर किया था।” वह ईनाम क्या है? मैंने तुमको अपनी किताब दी, नबुवत से सरफ़राज़ फ़रमाया, अपनी शरीअत तुम्हें अता फ़रमायी। तुम्हारे अन्दर दाऊद और सुलेमान (अलै०) जैसे बादशाह उठाये, जो बादशाह भी थे, नबी भी थे।

“और तुम मेरे वादे को पूरा करो ताकि मैं भी तुम्हारे वादे को पूरा करूँ।” وَاَوْفُوْا بِعَهْدِىْٓ اُوْفِ بِعَهْدِكُمْ   ۚ

बनी इसराइल से नबी आखिरुज़्ज़माँ हज़रत मुहम्मद ﷺ पर ईमान लाने का अहद लिया गया था। तौरात में किताबे इस्तस्ना या सफर-ए-इस्तस्ना (Deuteronomy) के अट्ठहारवें बाब की आयत 18-19 में अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलै०) से ख़िताब करके यह अल्फ़ाज़ फ़रमाये:

“मैं उनके लिये उन्हीं के भाईयों में से तेरी मानिन्द एक नबी बरपा करूँगा और अपना कलाम उसके मुँह में डालूँगा और जो कुछ मैं उसे हुक्म दूँगा वही वह उनसे कहेगा। और जो कोई मेरी उन बातों को जिनको वह मेरा नाम लेकर कहेगा, ना सुने तो मैं उनका हिसाब उससे लूँगा।”

यह गोया हज़रत मूसा (अलै०) की उम्मत को बताया जा रहा था कि नबी आखिरुज़्ज़माँ (ﷺ) आयेंगे और तुम्हें उनकी नबुवत को तस्लीम करना है। क़ुरान मजीद में इसका तफ्सीली ज़िक्र सूरतुल आराफ़ में आयेगा। यहाँ फ़रमाया कि तुम मेरा अहद पूरा करो, मेरे इस नबी ﷺ को तस्लीम करो, उस (ﷺ) पर ईमान लाओ, उसकी (ﷺ) की सदा पर लब्बैक कहो तो मेरे ईनाम व इकराम मज़ीद बढ़ते चले जायेंगे।

“और सिर्फ़ मुझ ही से डरो।” وَاِيَّاىَ فَارْھَبُوْنِ   40؀

आयत 41

“और ईमान लाओ उस किताब पर जो मैंने नाज़िल की है जो तस्दीक़ करते हुए आयी है उस किताब की जो तुम्हारे पास है” وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ

इन अल्फ़ाज़ के दो मायने हैं। एक तो यह कि ईमान लाओ इस क़ुरान पर जो तस्दीक़ करता है तौरात की और इन्जील की। अज़रूए अल्फ़ाज़े क़ुरानी:        { اِنَّآ اَنْزَلْنَا التَّوْرٰىةَ فِيْهَا هُدًى وَّنُوْرٌ ۚ } (सूरतुल मायदा:44) “हमने नाज़िल की तौरात जिसमें हिदायत और रोशनी थी।” { وَاٰتَيْنٰهُ الْاِنْجِيْلَ فِيْهِ هُدًى وَّنُوْرٌ } (सूरतुल मायदा:46) “और हमने उस (ईसा अलै०) को दी इन्जील जिसमें हिदायत और रोशनी थी।” और दूसरे यह कि क़ुरान और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ उन पेशनगोईयों के मिस्दाक़ बन कर आये हैं जो तौरात में थीं। वरना वह पेशनगोईयाँ झूठी साबित होती।

“और तुम ही सबसे पहले इसका कुफ़्र करने वाले ना बन जाओ।” وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ    ۠

यानि क़ुरान की दीदाह व दानिस्ता (जानबूझ कर) तकज़ीब करने वालो में अव्वल मत हो। तुम्हें तो सब कुछ मालूम है। तुम जानते हो कि हज़रत मुहम्मद ﷺ अल्लाह के रसूल हैं और यह किताब अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुई है। तुम तो आखरी नबी ﷺ के इन्तेज़ार में थे और उनके हवाले से दुआयें किया करते थे कि ऐ अल्लाह! उस नबी आखिरुज़्ज़मान के वास्ते से हमारी मदद फ़रमा और काफ़िरों के मुक़ाबले में हमें फ़तह अता फ़रमा। (यह मज़मून आगे चल कर इसी सूरतुल बक़रह ही में आयेगा।) लेकिन अब तुम ही इसके अव्वलीन मुन्कर हो गये हो और तुम ही इसके सबसे बढ़ कर दुश्मन हो गये हो।

“और मेरी आयात के एवज़ (बदले) हक़ीर (थोड़ी) सी क़ीमत क़ुबूल ना करो।” وَلَا تَشْتَرُوْا بِاٰيٰتِىْ ثَـمَنًا قَلِيْلًا

यह आयाते इलाहिया हैं और तुम इनको सिर्फ़ इसलिये रद्द कर रहे हो कि कहीं तुम्हारी हैसियत, तुम्हारी मसनदों (गद्दी) और तुम्हारी चौधराहटों पर कोई आँच ना आ जाये। यह तो हक़ीर सी चीज़ें हैं। यह सिर्फ़ इस दुनिया का सामान है, इसके सिवा कुछ नहीं।

“और सिर्फ़ मेरा तक़वा इख़्तियार करो।” मुझ ही से बचते रहो! وَاِيَّاىَ فَاتَّقُوْنِ    41؀

आयत 42

“और ना गढ़मढ़ करो हक़ के साथ बातिल को और ना छुपाओ हक़ को दर हालाँकि तुम जानते हो।”وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَــقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ   42؀

यह बात अच्छी तरह नोट कर लीजिये कि मुगालते में गलत राह पर पड़ जाना ज़लालत और गुमराही है, लेकिन जानते-बूझते हक़ को पहचान कर उसे रद्द करना और बातिल की रविश इख़्तियार करना अल्लाह तआला के गज़ब को दावत देना है। इसी सूरतुल बक़रह में आगे चल कर आयेगा कि उलमाये यहूद मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को और क़ुरान को इस तरह पहचानते थे जैसे अपने बेटों को पहचानते थे: { يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَھُمْ } (आयत:146) लेकिन इसके बावजूद उन्होंने महज़ अपनी दुनयवी मसलहतों के पेशे नज़र आप ﷺ और क़ुरान की तकज़ीब की।

आयत 43

“और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात अदा करो”وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ
“और झुको (नमाज़ में) झुकने वालो के साथ।”وَارْكَعُوْا مَعَ الرّٰكِعِيْنَ  43؀

यानि बा-जमात नमाज़ अदा किया करो।

अव्वल तो यहूद ने रुकूअ को अपने यहाँ से खारिज कर दिया था, सानियन बा-जमात नमाज़ उनके यहाँ खत्म हो गयी थी। चुनाँचे उन्हें रुकूअ करने वालो के साथ रुकूअ करने का हुक्म दिया जा रहा है। गोया सराहत की जा रही है कि नबी आखिरुज़्ज़मान ﷺ पर सिर्फ़ ईमान लाना ही निजात के लिये काफ़ी नहीं, बल्कि तमाम उसूल में आप ﷺ की पैरवी ज़रूरी है। नमाज़ भी आप ﷺ के तरीक़े पर पढ़ो जिसमें रुकूअ भी हो और जो बा-जमात हो।

आयत 44

“क्या तुम लोगों को नेकी का हुक्म देते हो और खुद अपने आप को भूल जाते हो?”اَتَاْمُرُوْنَ النَّاسَ بِالْبِرِّ وَتَنْسَوْنَ اَنْفُسَكُمْ

इन आयात के असल मुख़ातिब उलमाये यहूद हैं, जो लोगों को तक़वा और पारसाई की तालीम देते थे लेकिन उनका अपना किरदार इसके बरअक्स (विपरीत) था। हमारे यहाँ भी उलमा और वाईज़ीन (प्रचारकों) का हाल अक्सर व बेशतर यही है कि ऊँचे से ऊँचा वाज़ (उपदेश) कहेंगे, आला से आला बात कहेंगे, लेकिन उनके अपने किरदार को उस बात से कोई मुनासबत ही नहीं होती जिसकी वह लोगों को दावत दे रहे होते हैं। यही दर हक़ीक़त उलमाये यहूद का किरदार बन चुका था। चुनाँचे उनसे कहा गया कि “क्या तुम लोगों को नेकी का रास्ता इख़्तियार करने के लिये कहते हो मगर खुद अपने आप को भूल जाते हो?”

“हालाँकि तुम किताब की तिलावत करते हो।”وَاَنْتُمْ تَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ    ۭ

तुम यह कुछ कर रहे हो इस हाल में कि तुम अल्लाह की किताब भी पढ़ते हो। यानि तौरात पढ़ते हो, तुम साहिबे तौरात हो। हमारे यहाँ भी बहुत से उलमा का, जिन्हें हम उलमाये सू (बुरे उलमा) कहते हैं, यही हाल हो चुका है। बक़ौल इक़बाल:

खुद बदलते नहीं क़ुरान को बदल देते हैं

हुए किस दर्जा फक़ीहाने हरम बे तौफ़ीक़!

क़ुरान हकीम के तर्जुमे में, इसके मफ़हूम में, इसकी तफ़सीर में बड़ी-बड़ी तहरीफ़ें मौजूद हैं। अल्हमदुलिल्लाह कि इसका मतन (text) बचा हुआ है। इसलिये कि इसकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा खुद अल्लाह तआला ने ले रखा है।

“क्या तुम अक़्ल से बिल्कुल ही काम नहीं लेते?”اَفَلَاتَعْقِلُوْنَ  44؀

आयत 45

“और मदद हासिल करो सब्र से और नमाज़ से।” وَاسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ      ۭ

यहाँ पर सब्र का लफ्ज़ बहुत बा-मायने है। उलमाये सू क्यों वजूद में आते हैं? जब वह सब्र और क़नाअत (सन्तुष्टि) का दामन हाथ से छोड़ देते हैं तो हुब्बे माल (माल की मोहब्बत) उनके दिल में घर कर लेती है और वह दुनिया के कुत्ते बन जाते हैं। फिर वह दीन को बदनाम करने वाले होते हैं। बज़ाहिर दीनी मरासिम (प्रथाओं) के पाबन्द नज़र आते हैं लेकिन दरअसल उनके परदे में दुनियादारी का मामला होता है। चुनाँचे उन्हें सब्र की ताकीद की जा रही है। सूरतुल मायदा में यहूद के उलमा व मशाइख पर बा-अल्फ़ाज़ तनक़ीद (आलोचना) की गयी है: {لَوْلَا يَنْھٰىهُمُ الرَّبّٰنِيُّوْنَ وَالْاَحْبَارُ عَنْ قَوْلِهِمُ الْاِثْمَ وَاَكْلِهِمُ السُّحْتَ } (सूरतुल मायदा:63) “क्यों नहीं रोकते उन्हें उनके उलमा और सूफ़िया झूठ बोलने से और हराम खाने से?” अगर कोई आलिम या पीर अपने अरादत मन्दों को इन चीज़ों से रोकेगा तो फिर उसको नज़राने तो नहीं मिलेंगे, उसकी ख़िदमतें तो नहीं होंगी। चुनाँचे अगर तो दुनिया में सब्र इख़्तियार करना है, तब तो आप हक़ बात कह सकते हैं, और अगर दुनियवी ख्वाहिशात (ambitions) मुक़द्दम (इच्छित) हैं तो फिर आपको कहीं ना कहीं समझौता (compromise) करना पड़ेगा।

सब्र के साथ जिस दूसरी शय की ताकीद की गयी वह नमाज़ है। उलमाये यहूद वज़ूहे हक़ के बावजूद मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान ना लाते थे इसकी बड़ी वजह हुब्बे माल और हुब्बे जान थी। यहाँ दोनों का इलाज बता दिया गया कि हुब्बे माल का मदावा (इलाज) सब्र से होगा, जबकि नमाज़ से उबूदियत व तज़लील पैदा होगा और हुब्बे जान का खात्मा होगा।

“और यक़ीनन यह बहुत भारी शय है” وَاِنَّهَا لَكَبِيْرَةٌ

आमतौर पर यह ख्याल ज़ाहिर किया गया है कि इन्नहा की ज़मीर सिर्फ़ सलाह (नमाज़) के लिये है। यानि नमाज़ बहुत भारी और मुश्किल काम है। लेकिन एक राय यह है कि यह दरहक़ीक़त इस पूरे तर्जे़ अमल की तरफ़ इशारा है कि दुनिया के शदाईद (आपदाओं) और इबतलाआत (मोह) का मुक़ाबला सब्र और नमाज़ की मदद से किया जाये। मतलूब तर्जे़ अमल यह है कि दुनिया और दुनिया के मुताल्लिक़ात में कम से कम पर क़ानेअ (संतुष्ट) हो जाओ और हक़ का बोल-बाला करने के लिये मैदान में आ जाओ। इसके साथ-साथ नमाज़ को अपने मामलाते हयात का महवर (आधार) बनाओ, जो कि इमादुद्दीन है। फ़रमाया कि यह रविश यक़ीनन बहुत भारी है, और नमाज़ भी बहुत भारी है।

“मगर उन आजिज़ों पर (भारी नहीं है)।” اِلَّا عَلَي الْخٰشِعِيْنَ   45؀ۙ

उन खुशूअ (विनम्रता) रखने वालों पर, उन ड़रने वालों पर यह रविश भारी नहीं है जिनके दिल अल्लाह के आगे झुक गये हैं।

आयत 46

“जिन्हें यह यक़ीन है कि वह अपने रब से मुलाक़ात करने वाले हैं”الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّھُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّهِمْ

मैंने शुरु में {وَبِالْاٰخِرَةِ ھُمْ يُوْقِنُوْنَ} (आयत:4) के ज़ैल में तवज्जो दिलायी थी कि यह ईमान बिल आख़िरत ही है जो इन्सान को अमल के मैदान में सीधा रखता है।

“और (जिन्हें यह यक़ीन है कि) बिलआखिर उन्हें उसी की तरफ़ लौट कर जाना है।”وَاَنَّھُمْ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَ   46؀ۧ

उन्हें उसके रू-ब-रू हाज़िर होना है।

आयात 47 से 59 तक

يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ   47؀ وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِىْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ وَّلَا يُؤْخَذُ مِنْهَا عَدْلٌ وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ  48؀ وَاِذْ نَجَّيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ يُذَبِّحُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ    ۭ   وَفِىْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ    49؀ وَاِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ فَاَنْجَيْنٰكُمْ وَاَغْرَقْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ   50؀ وَاِذْ وٰعَدْنَا مُوْسٰٓى اَرْبَعِيْنَ لَيْلَةً ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِهٖ وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ   51۝ ثُمَّ عَفَوْنَا عَنْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ  52؀ وَاِذْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَالْفُرْقَانَ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ  53؀ وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ يٰقَوْمِ اِنَّكُمْ ظَلَمْتُمْ اَنْفُسَكُمْ بِاتِّخَاذِكُمُ الْعِجْلَ فَتُوْبُوْٓا اِلٰى بَارِىِٕكُمْ فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ   ۭ  ذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ عِنْدَ بَارِىِٕكُمْ   ۭ   فَتَابَ عَلَيْكُمْ   ۭ   اِنَّھٗ ھُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ  54؀ وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نُّؤْمِنَ لَكَ حَتّٰى نَرَى اللّٰهَ جَهْرَةً فَاَخَذَتْكُمُ الصّٰعِقَةُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ  55؀ ثُمَّ بَعَثْنٰكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَوْتِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ   56؀ وَظَلَّلْنَا عَلَيْكُمُ الْغَمَامَ وَاَنْزَلْنَا عَلَيْكُمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوٰى   ۭ   كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ    ۭ   وَمَا ظَلَمُوْنَا وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ  57؀ وَاِذْ قُلْنَا ادْخُلُوْا ھٰذِهِ الْقَرْيَةَ فَكُلُوْا مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ رَغَدًا وَّادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُوْلُوْا حِطَّةٌ نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطٰيٰكُمْ    ۭ  وَسَنَزِيْدُ الْمُحْسِنِيْنَ  58؀ فَبَدَّلَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا قَوْلًا غَيْرَ الَّذِىْ قِيْلَ لَھُمْ فَاَنْزَلْنَا عَلَي الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۗءِ بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ   59؀ۧ

जैसा कि अर्ज़ किया जा चुका है, सूरतुल बक़रह के पाँचवें रुकूअ से चौहदवें रुकूअ तक, बल्कि पन्द्रहवें रुकूअ की पहली दो आयात भी शामिल कर लीजिये, यह दस रुकूओं से दो आयात ज़ायद हैं कि जिनमें ख़िताब कुल का कुल बनी इसराइल से है। अलबत्ता इनमें से पहला रुकूअ दावत पर मुश्तमिल है, जिसमें उन्हें नबी करीम ﷺ पर ईमान लाने की पुरज़ोर दावत दी गयी है, जबकि बक़िया नौ रुकूअ उस फर्दे क़रारदारे जुर्म पर मुश्तमिल हैं जो बनी इसराइल पर आयद की जा रही है कि हमने तुम्हारे साथ यह अहसान व इकराम किया, तुम पर यह फ़ज़ल किया, तुम पर यह करम किया, तुम्हें यह हैसियत दी, तुम्हें यह मक़ाम दिया और तुमने इस-इस तौर से अपने उस मिशन की ख़िलाफ़ वर्ज़ी की जो तुम्हारे सुपुर्द किया गया था और अपने मक़ाम व मरतबे को छोड़ कर दुनिया परस्ती की रविश इख़्तियार की। इन नौ रुकूओं में बनी इसराइल की तारीख का तो एक बहुत बड़ा हिस्सा उसके खदोखाल (features) समेत आ गया है, लेकिन असल में यह उम्मते मुस्लिमा के लिये भी एक पेशगी तन्बीह (चेतावनी) है कि कोई मुस्लमान उम्मत जब बिगड़ती है तो उसमें यह और यह खराबियाँ आ जाती हैं। चुनाँचे इस बारे में रसूल अल्लाह ﷺ की अहादीस भी मौजूद हैं। हज़रत अब्दुल्लाह बिन उमर (रजि०) से मरवी है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया: ((لَیَاْتِیَنَّ عَلٰی اُمَّتِیْ مَا اَتٰی عَلٰی بَنِیْ اِسْرَاءِیْلَ حَذْوَ النَّعْلَ بِالنَّعْلِ))(7) “मेरी उम्मत पर भी वह सब हालात वारिद होकर रहेंगे जो बनी इसराइल पर आये थे, बिल्कुल ऐसे जैसे एक जूती दूसरी जूती से मुशाबा होती है।”

एक दूसरी हदीस में जो हज़रत अबु सईद खुदरी (रजि०) से मरवी है, रसूल अल्लाह ﷺ का इरशाद नक़ल हुआ है:

((لَتَتَّبِعُنَّ سَنَنَ مَنْ قَبْلَکُمْ شِبْرًا بِشِبْرٍ وَذِرَاعًا بِذِرَاعٍ حَتّٰی لَوْ سَلَکُوْا جُحْرَ ضَبٍّ لَسَلَکْتُمُوْہُ ، قُلْنَا: یَا رَسُوْلَ اللہِ الْیَھُوْدَ وَ النَّصَارٰی؟ قَالَ : فَمَنْ؟))(8)

“तुम लाज़िमन अपने से पहलों के तौर-तरीक़ों की पैरवी करोगे, बालिश्त के मुक़ाबले में बालिश्त और हाथ के मुक़ाबले में हाथ। यहाँ तक कि अगर वह गोह के बिल में घुसे होंगे तो तुम भी घुस कर रहोगे।” हमने अर्ज़ किया: ऐ अल्लाह के रसूल ! यहूद व नसारा की? आप ने फरमाया: “तो और किसकी?”

तिरमिज़ की मज़कूरा बाला हदीस में तो यहाँ तक अल्फ़ाज़ आते हैं कि: ((حَتّٰی اِنْ کَانَ مِنْھُمْ مَّنْ اَتٰی اُمَّہٗ عَلَانِیَۃٍ لَکَانَ فِیْ اُمَّتِیْ مَنْ یَصْنَعُ ذٰلِکَ)) यानि अगर उनमें कोई बदबख़्त ऐसा उठा होगा जिसने अपनी माँ से अलल ऐलान ज़िना किया था तो तुम में से भी कोई शकी ऐसा ज़रूर उठेगा जो यह हरकत करेगा। इस ऐतबार से इन रुकूओं को पढ़ते हुए यह ना समझिये कि यह महज़ अगलों की दास्तान हैं, बल्कि:

“खुशतर आँ बाशिद कि सर दिलबराँ

गुफ्ता-ए-आयद दर हदीस दीगराँ”

के मिस्दाक़ यह हमारे लिये एक आईना है और हमें हर मरहले पर सोचना होगा, दरूँ बीनी (आत्मनिरीक्षण) करनी होगी कि कहीं इसी गुमराही में हम भी तो मुब्तला नहीं?

दूसरा अहम नुक्ता पहले से ही यह समझ लीजिये कि सूरतुल बक़रह की आयात 47-48 जिनसे इस छठे रुकूअ का आगाज़ हो रहा है, यह दो आयतें बैयन ही पन्द्रहवें रुकूअ के आगाज़ में फिर आयेंगी। इनमें से पहली आयत में तो शोशे भर का फ़र्क़ भी नहीं है, जबकि दूसरी आयत में सिर्फ़ अल्फ़ाज़ की तरतीब बदली है, मज़मून वही है। यूँ समझिये कि यह गोया दो ब्रेकेट्स हैं और नौ रुकूओं के मज़ामीन इन दो ब्रेकिटों के दरमियान हैं। और सूरतुल बक़रह का पाँचवा रुकूअ जो इन ब्रेकिटों से बाहर है, इसके मज़ामीन ब्रेकिटों के अन्दर के सारे मज़ामीन से ज़र्ब खा रहे हैं। यह हिसाब का बहुत ही आम-फ़हम सा क़ायदा है कि ब्रेकेट के बाहर लिखी हुई रक़म, जिसके बाद जमा या तफ़रीक़ वगैरह की कोई अलामत ना हो, वह ब्रेकिट के अन्दर मौजूद तमाम अक़दार (values) के साथ ज़र्ब खायेगी। तो गोया इस पूरे मामले में हर-हर क़दम पर रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान लाने की दावत मौजूद है। यह वज़ाहत इसलिये ज़रूरी है कि इस हिस्से में बाज़ आयात ऐसी आ गयी है जिनसे कुछ लोगों को मुगालता पैदा हुआ या जिनसे कुछ लोगों ने जानबूझ कर फ़ितना पैदा किया कि निजाते उखरवी के लिये मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान ज़रूरी नहीं है। इस फ़ितने ने एक बार अकबर के ज़माने में “दीन-ए इलाही” की शक्ल में जन्म लिया था कि आख़िरत में निजात के लिये सिर्फ़ खुदा को मान लेना, आख़िरत को मान लेना और नेक आमाल करना काफ़ी है, किसी रसूल पर ईमान लाना ज़रूरी नहीं है। यह फ़ितना सूफ़िया में भी बहुत बड़े पैमाने पर फैला और “मस्जिद मन्दिर हिकड़ो नूर” के फ़लसफ़े की तशहीर (विज्ञापन) की गयी। यानि मस्जिद में और मन्दिर में एक ही नूर है, सब मज़ाहिब असल में एक ही हैं, सारा फ़र्क़ शरीअतों का और इबादात की ज़ाहिरी शक्ल का है। और वह रसूलों से मुताल्लिक़ है। चुनाँचे रसूलों को बीच में से निकाल दीजिये तो यह “दीन-ए-इलाही” (अल्लाह का दीन) रह जायेगा। यह एक बहुत बड़ा फ़ितना था जो हिन्दुस्तान में उस वक़्त उठा जब सियासी ऐतबार से मुस्लमानों का इक़तदार चोटी (climax) पर था। यह फ़ितना जिस मुस्लमान हुक्मरान का उठाया हुआ था वह “अकबर-ए-आज़म” और “मुगल-ए-आज़म” कहलाता था। उसके पेशकरदा “दीन” का फ़लसफ़ा यह था कि दीने मुहम्मदी ﷺ का दौर ख़त्म हो गया (नाउज़ुबिल्लाह), वह एक हज़ार साल के लिये था, अब दूसरा हज़ार साल (अल्फ़े सानी) है और इसके लिये नया दीन है। उसे “दीने अकबरी” भी कहा गया और “दीने इलाही” भी। सूरतुल बक़रह के इस हिस्से में एक आयत आयेगी जिससे कुछ लोगों ने इस “दीने इलाही” के लिये इस्तदलाल (तर्क) किया था।

हिन्दुस्तान में बीसवीं सदी में यह फ़ितना फिर उठा जब गाँधी जी ने “मुत्तहिदा वतनी क़ौमियत” का नज़रिया पेश किया। इस मौक़े पर मुस्लमानों मे से एक बहुत बड़ा नाबगा (genius) इन्सान अबुल कलाम आज़ाद भी इस फ़ितने का शिकार हो गया। गाँधी जी अपनी प्रार्थना में कुछ क़ुरान की तिलावत भी करवाते, कुछ गीता भी पढ़वाते, कुछ उपनिषदों से, कुछ बाईबल से और कुछ गुरुग्रन्थ से भी इस्तफ़ादा किया जाता। मुत्तहिदा वतनी क़ौमियत का तसव्वुर यह था कि एक वतन के रहने वाले लोग एक क़ौम हैं, लिहाज़ा उन सबको एक होना चाहिये, मज़हब तो इन्फ़रादी मामला है, कोई मस्जिद में चला जाये, कोई मन्दिर में चला जाये, कोई गुरुद्वारे में चला जाये, कोई कलैसा, सिनेगाग या चर्च में चला जाये तो इससे क्या फ़र्क़ वाक़ेअ होता है? इस तरह के नज़रियात और तसव्वुरात का तोड़ यही है कि यूँ समझ लीजिये कि पाँचवें रुकूअ की सात आयात ब्रेकेट के बाहर हैं और यह ब्रेकिटों के अन्दर के मज़मून से मुसलसल ज़र्ब खा रही हैं। चुनाँचे इन ब्रेकिटों के दरमियान जितना भी मज़मून आ रहा है वह इनके ताबेअ होगा। गोया जहाँ तक मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान लाने का मामला है वह हर मरहले पर मुक़द्दर (understood) समझा जायेगा। अब हम इन आयात का मुतअला शुरू करते हैं।

आयत 47

“ऐ याक़ूब की औलाद! याद करो मेरे उस ईनाम को जो मैंने तुम पर किया”يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ

इसकी वज़ाहत गुज़िश्ता (पिछले) रुकूअ में हो चुकी है, लेकिन यहाँ आगे जो अल्फ़ाज़ आ रहे हैं बहुत ज़ोरदार हैं:

“और यह कि मैंने तुम्हें फज़ीलत अता की तमाम जहानों पर।”وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ   47؀

अरबी नहव (वाक्य-विन्यास) का यह क़ायदा है कि कहीं ज़र्फ का तज़किरा होता है (यानि जिसमें कोई शय है) लेकिन इससे मुराद मज़रूफ़ होता है (यानि ज़र्फ के अन्दर जो शय है)। यहाँ भी ज़र्फ की जमा लायी गयी है लेकिन इससे मज़रूफ़ की जमा मुराद है। “तमाम जहानों पर फज़ीलत” से मुराद “जहान वालों पर फज़ीलत” है। मतलब यह है कि हमने तुम्हें तमाम अक़वामे आलम पर फज़ीलत अता की। आलमे इन्सानियत के अन्दर जितने भी मुख़्तलिफ गिरोह, नस्लें और तबक़ात हैं उनमें फज़ीलत अता की।

आयत 48

“और ड़रो उस दिन से कि जिस दिन काम ना आ सकेगी कोई जान किसी दूसरी जान के कुछ भी” وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِىْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا

कब्ल अज़ यह बात अर्ज़ की जा चुकी है कि इन्सान के अमल के ऐतबार से सबसे मौअस्सर शय ईमान बिलआखिरा है। मुहासबा-ए-आख़िरत अगर मुस्तहज़र (जागरूक) रहेगा तो इन्सान सीधा रहेगा, और अगर इसमें ज़ौफ (कमी) आ जाये तो ईमान बिल्लाह और ईमान बिर्रिसालत भी ना मालूम क्या-क्या शक्लें इख़्तियार कर लें। इस आयत के अन्दर चार ऐतबारात से मुहासबा-ए-उखरवी पर ज़ोर दिया गया है। सबसे पहले फ़रमाया कि ड़रो उस दिन से जिस दिन कोई जान किसी दूसरी जान के कुछ भी काम ना आ सकेगी।

“और ना किसी से कोई सिफ़ारिश क़ुबूल की जायेगी” وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ
“और ना किसी से कोई फ़िदया क़ुबूल किया जायेगा” وَّلَا يُؤْخَذُ مِنْهَا عَدْلٌ
“और ना उन्हें कोई मदद मिल सकेगी।” وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ  48؀

ईमान बिलआखिरा के ज़िमन में लोगो ने तरह-तरह के अक़ीदे गढ़ रखे हैं, जिनमें शफ़ाअते बातिला (झूठी हिमायत) का तसव्वुर भी है। अहले अरब समझते थे कि फ़रिश्ते खुदा की बेटियाँ हैं। उन्होंने लात, मनात और उज़्ज़ा वगैरह के नाम से उनके बुत बना रखे थे, जिन्हें वह पूजते थे और यह अक़ीदा रखते थे कि अल्लाह की यह लाड़ली बेटियाँ हमें अपने “अब्बाजान” से छुडा लेंगी। (نعوذ بالله من ذلك) हमारे यहाँ भी शफ़ाअते बातिला का तसव्वुर मौजूद है कि औलिया अल्लाह हमें छुडा लेंगे। खुद रसूल अल्लाह ﷺ की शफ़ाअत के बारे में गलत तसव्वुरात मौजूद हैं। एक शफ़ाअते हक़ है, जो बरहक़ है उसकी वज़ाहत का यह मौक़ा नहीं है। इसी सूरह मुबारका में जब हम आयतुल कुर्सी का मुतअला करेंगे तो इन्शाअल्लाह तो इसकी वज़ाहत भी होगी। यह सारे तसव्वुरात और ख्यालात जो हमने गढ़ रखे हैं, इनकी नफ़ी इस आयत के अन्दर दो टूक अन्दाज़ में कर दी गयी है।

इसके बाद अल्लाह तआला की तरफ़ से बनी इसराइल पर जो अहसानात व ईनामात हुए और उनकी तरफ़ से जो नाशुक्रियाँ हुईं उनका तज़किरा बड़ी तेज़ी के साथ किया गया है। वाज़ेह रहे कि यह वाक़िआत कई सौ बरस पर मुहीत हैं और इनकी तफ़सील मक्की सूरतों मे आ गयी है। इन वाक़िआत की सबसे ज़्यादा तफ़सील सूरतुल आराफ़ में मौजूद है। यहाँ पर तो वाक़िआत का पय-बा-पय तज़किरा किया जा रहा है, जैसे किसी मुलज़िम पर फ़र्दे क़रारदारे जुर्म आइद की जाती है तो उसमें सब कुछ गिनवाया जाता है कि तुमने यह किया, यह किया और यह किया।

आयत 49

“और ज़रा याद करो जबकि हमने तुम्हें निजात दी थी फ़िरऔन की क़ौम से”وَاِذْ نَجَّيْنٰكُمْ مِّنْ اٰلِ فِرْعَوْنَ
“वह तुम्हें बदतरीन अज़ाब में मुबतला किये हुऐ थे”يَسُوْمُوْنَكُمْ سُوْۗءَ الْعَذَابِ
“तुम्हारे बेटों को ज़िबह कर डालते थे और तुम्हारी औरतों को ज़िन्दा रखते थे।”يُذَبِّحُوْنَ اَبْنَاۗءَكُمْ وَيَسْتَحْيُوْنَ نِسَاۗءَكُمْ    ۭ  

फ़िरऔन ने हुक्म दिया था कि बनी इसराइल में जो भी लड़का पैदा हो उसको क़त्ल कर दिया जाये और लड़कियों को ज़िन्दा रहने दिया जाये ताकि उनसे ख़िदमत ली जा सके और उन्हें लौंडियाँ (नौकरानी) बनाया जा सके। बनी इसराइल के साथ यह मामला दो मौक़ों पर हुआ है। इसकी तफ़सील इन्शा अल्लाह बाद में आयेगी।

“और इसमें तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे लिये बड़ी आज़माइश थी।”وَفِىْ ذٰلِكُمْ بَلَاۗءٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ عَظِيْمٌ    49؀

आयत 50

“और याद करो जबकि हमने तुम्हारी ख़ातिर समुन्दर को (या दरिया को) फाड़ दिया”وَاِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ

यह एक मुख़्तलिफ़ फ़ी बात है कि बनी इसराइल ने मिस्र से जज़ीरा नुमाये सीना आने के लिये किस समुन्दर या दरिया को उबूर (पार) किया था। एक राय यह है कि दरिया-ए-नील को उबूर करके गये थे, लेकिन यह बात इस ऐतबार से गलत है कि दरिया-ए-नील तो मिस्र के अन्दर बहता है, वही कभी भी मिस्र की हद नहीं बना। दूसरी राय यह है कि बनी इसराइल ने खलीज सुवेज़ को उबूर किया था। बहरा-ए-कुलज़ुम (Red Sea) ऊपर जाकर दो खाड़ियों में तब्दील हो जाता है, मशरिक़ की तरफ खलीज उक़बा और मग़रिब की तरफ खलीज सुवेज़ है और इनके दरमियान जज़ीरा नुमाये सीना (Sinai Peninsula) है। यह इसी तरह की तकवीन है जैसे जज़ीरा नुमाये हिन्द (Indian Peninsula) है। खलीज सुवेज़ और बहरा-ए-रूम के दरमियान कईं बड़ी-बड़ी झीलें थी, जिनको बाहम जोड़-जोड़ कर, दरमियान में हाइल खुश्की को काट कर नहर सुवेज़ बनायी गयी है, जो अब एक मुसलसल राब्ता है। मालूम होता है कि हज़रत मूसा (अलै०) और बनी इसराइल ने खलीज सुवेज़ को उबूर किया था। मुझे खुद भी इसी राय से इत्तेफाक़ है। इस लिये कि कोहे तूर इस जज़ीरा नुमाये सीना की नोक (tip) पर वाके़अ है, जहाँ हज़रत मूसा (अलै०) को चालीस दिन-रात के लिये बुलाया गया और फिर उन्हें तौरात दी गयी। बनी इसराइल ने खलीज सुवेज़ को इस तरह उबूर किया कि हज़रत मूसा (अलै०) के असा की एक ज़र्ब से समुन्दर फट गया। अज़रूए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: {فَانْفَلَقَ فَكَانَ كُلُّ فِرْقٍ كَالطَّوْدِ الْعَظِيْمِ  63؀ۚ} (अशशौरा:63) “पस समुन्दर फट गया और हो गया हर हिस्सा जैसे बड़ा पहाड़।” समुन्दर का पानी दोनों तरफ़ पहाड़ की तरह खड़ा हो गया और बनी इसराइल उसके दरमियान में से निकल गये। उनके पीछे-पीछे जब फ़िरऔन अपना लश्कर लेकर आया तो उसने सोचा कि हम भी ऐसे ही निकल जायेंगे, लेकिन वे ग़र्क़ हो गये। इसलिये कि दोनों तरफ़ का पानी आपस में मिल गया। यह एक मौज्ज़ाना कैफ़ियत थी और यह बात फ़ितरत (nature) के क़वानीन के मुताबिक़ नहीं थी।

“फिर तुम्हें तो निजात दे दी और फ़िरऔन के लोगों को ग़र्क़ कर दिया जबकि तुम देख रहे थे।”فَاَنْجَيْنٰكُمْ وَاَغْرَقْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ   50؀

तुम्हारी निगाहों के सामने फ़िरऔन के लाव-लश्कर को ग़र्क़ कर दिया। बनी इसराइल खलीज सुवेज़ से गुज़र चुके थे और दूसरी जानिब खड़े थे। उन्होंने देखा कि इधर से फ़िरऔन और उसका लाव-लश्कर समुन्दर में दाखिल हुआ तो पानी दोनों तरफ़ से आकर मिल गया और यह सब ग़र्क़ हो गये।

आयत 51

“और याद करो जब हमने वादा किया मूसा (अलै०) से चालीस रातों का”وَاِذْ وٰعَدْنَا مُوْسٰٓى اَرْبَعِيْنَ لَيْلَةً

अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलै०) को तौरात अता फ़रमाने के लिये चालीस दिन-रात के लिये कोहे तूर पर बुलाया।

“फिर तुमने बना लिया बछड़े को (मअबूद) उसके बाद”ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِهٖ

बनी इसराइल ने हज़रत मूसा (अलै०) की ग़ैरहाज़री में बछड़े की परस्तिश शुरु कर दी और उसे मअबूद बना लिया।

“और तुम ज़ालिम थे।”وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ   51۝

बछड़े को मअबूद बना कर तुमने बहुत बड़े ज़ुल्म कर इरत्काब (commit) किया था। अल्फ़ाज़े क़ुरानी: {اِنَّ الشِّرْكَ لَظُلْمٌ عَظِيْمٌ} के मिस्दाक़ अज़ीम-तरीन ज़ुल्म जो है वह शिर्क है, और बनी इसराइल ने शिर्के जली की यह मकरूह तरीन शक्ल इख़्तियार की कि बछड़े की परस्तिश शुरु कर दी।

आयत 52

“फिर हमने तुम्हे इसके बाद भी माफ़ किया”ثُمَّ عَفَوْنَا عَنْكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ

यह हमारा करम रहा है, हमारी रहमत रही है।

“ताकि तुम शुक्र करो।”لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ  52؀

आयत 53

“और याद करो जबकि हमने मूसा (अलै०) को किताब और फ़ुरक़ान अता फ़रमायी ताकि तुम हिदायत पाओ।”وَاِذْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَالْفُرْقَانَ لَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ  53؀

“फ़ुरक़ान” से मुराद हक़ और बातिल के दरमियान फ़र्क़ कर देने वाली चीज़ है और किताब का लफ्ज़ आमतौर पर शरीअत के लिये आता है।

आयत 54

“और याद करो जबकि कहा था मूसा (अलै०) ने अपनी क़ौम से” وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ
“ऐ मेरी क़ौम के लोगों! यक़ीनन तुमने अपने ऊपर बड़ा जुल्म किया है बछड़े को मअबूद बना कर” يٰقَوْمِ اِنَّكُمْ ظَلَمْتُمْ اَنْفُسَكُمْ بِاتِّخَاذِكُمُ الْعِجْلَ
“पस अब तौबा करो अपने पैदा करने वाले की जनाब में” فَتُوْبُوْٓا اِلٰى بَارِىِٕكُمْ
“तो क़त्ल करो अपने आपको।” فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ   ۭ

यह वाक़िआ तौरात में तफ़सील से आया है, क़ुरान में इसकी तफ़सील मज़कूर नहीं है। बहुत से वाक़िआत जिनका क़ुरान में इजमालन (संक्षिप्त) ज़िक्र है उनकी तफ़सील के लिये हमें तौरात से रुजूअ करना पड़ता है, वरना बाज़ आयात का सही-सही मफ़हूम वाजे़ह नहीं होता। यहाँ अल्फ़ाज़ आये हैं:  {فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ ۭ} “मार डालो अपनी जानें” या “क़त्ल करो अपने आपको।” इसके क्या मायने हैं? यह दरअसल क़त्ले मुरतद की सज़ा है। बनी इसराइल के बारह क़बीले थे। हर क़बीले में से कुछ लोगों ने यह कुफ़्र और शिर्क किया कि बछड़े को मअबूद बना लिया, बाक़ी लोगों ने ऐसा नहीं किया। बनी इसराइल को हुक्म दिया गया कि हर क़बीले के वह लोग जो इस शिर्क में मुलव्विस (शामिल) नहीं हुए अपने-अपने क़बीले के उन लोगों को क़त्ल करें जो इस कुफ़्र व शिर्क के मुरतकिब (दोषी) हुए। “فَاقْتُلُوْٓا اَنْفُسَكُمْ   ۭ” से मुराद यह है कि तुम अपने क़बीले के लोगों को क़त्ल करो। इसलिये कि क़बाइली ज़िन्दगी बड़ी हस्सास (संवेदनशील) होती है और किसी दूसरे क़बीले की मुदाखलत (हस्तक्षेप) से क़बाइली असबियत (दुश्मनी) भड़क उठने का अन्देशा होता है। हज़रत मूसा (अलै०) इस हुक्म पर अमल दर आमद (implementation) के नतीजे में सत्तर हज़ार यहूदी क़त्ल हुए। इससे बड़ी तौबा और इससे बड़ी ततहीर (purge) मुमकिन नहीं है। किसी भी नज़रियाती जमात के अन्दर तज़किया और ततहीर का अमल बहुत ज़रूरी होता है। कुछ लोग एक नज़रिये को क़ुबूल करके जमात से वाबस्ता (सम्बंधित) हो जाते हैं, लेकिन रफ्ता-रफ्ता नज़रिया औझल हो जाता है और अपने मफ़ादात और चौधराहटें मुक़द्दम हो जाती हैं। इसी से जमातें खराब होती हैं और गलत रास्ते पर पड़ जाती हैं। चुनाँचे नज़रियाती जमातों में यह अमल बहुत ज़रूरी होता है कि जो अफ़राद नज़रिये से मुनहरिफ़ (गुमराह) हो जायें उनको जमात से काट कर अलैहदा कर दिया जाये।

क़ुरान हकीम के इस मक़ाम से क़त्ले मुरतद की सज़ा साबित होती है, जबकि क़त्ले मुरतद का वाजे़ह हुक्म हदीसे नबवी ﷺ में मौजूद है। हमारे बाज़ जदीद दानिश्वर इस्लाम में क़त्ले मुरतद की हद को तस्लीम नहीं करते, लेकिन मेरे नज़दीक यह शरीअते मूसवी (अलै०) का तसलसुल है। शरीअते मूसवी (अलै०) के जिन अहकाम के बारे में सराहतन (निश्चित रूप से) यह मालूम नहीं कि उन्हें तब्दील कर दिया गया है वह शरीअते मुहम्मदी ﷺ का जुज़ (हिस्सा) बन गये हैं। शादी-शुदा ज़ानी पर हद्दे रज्म का मामला भी यही है। क़ुरान मजीद में हद्दे रज्म की कोई सरीह आयत मौजूद नहीं है, लेकिन अहादीस में यह सज़ा मौजूद है। इसी तरह क़ुरान मजीद में मुरतद के क़त्ल की कोई सरीह आयत मौजूद नहीं है, लेकिन यह हदीस और सुन्नत से साबित है। अलबत्ता इन दोनों सज़ाओ का मिम्बा (स्रोत) और माखज़ (निकास) दरअसल तौरात है। इस ऐतबार से क़ुरान हकीम का यह मक़ाम बहुत अहम है, लेकिन अक्सर लोग यहाँ से बहुत सरसरी तौर पर गुज़र जाते हैं।

बनी इसराइल जब मिस्र से निकले तो उनकी तादाद छ: लाख थी। जज़ीरा नुमाये सीना पहुँचने के बाद उनकी तादाद मज़ीद बढ़ गयी होगी। उनमें से सत्तर हज़ार अफ़राद को शिर्क की पादाश (इल्ज़ाम) में क़त्ल किया गया, और हर क़बीले ने जो अपने मुरतद थे उनको अपने हाथ से क़त्ल किया।

“यही तुम्हारे लिये तुम्हारे रब के नज़दीक बेहतर बात है।” ذٰلِكُمْ خَيْرٌ لَّكُمْ عِنْدَ بَارِىِٕكُمْ   ۭ
“तो (अल्लाह ने) तुम्हारी तौबा क़ुबूल कर ली।” فَتَابَ عَلَيْكُمْ   ۭ

बनी इसराइल की तौबा इस तरह क़ुबूल हुई कि उम्मत का तज़किया हुआ और उनमें से जिन लोगों ने इतनी बड़ी गलत हरकत की थी उनको ज़िबह करके, क़त्ल करके उम्मत से काट कर फेंक दिया गया।

“यक़ीनन वह तो है ही तौबा का बहुत क़ुबूल फ़रमाने वाला, बहुत रहम फ़रमाने वाला।” اِنَّھٗ ھُوَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ  54؀

आयत 55

“और याद करो जबकि तुमने कहा था ऐ मूसा (अलै०)! हम तुम्हारा हरगिज़ यक़ीन नहीं करेंगे जब तक हम अल्लाह को सामने ना देख लें”وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نُّؤْمِنَ لَكَ حَتّٰى نَرَى اللّٰهَ جَهْرَةً

یُؤْمِنُ اٰمَنَ के बाद “بِ” का सिला हो तो इसके मायने ईमान लाने के होते हैं, जबकि “لِ” के सिले के साथ इसके मायने सिर्फ़ तस्दीक़ के होते हैं। बनी इसराइल ने हज़रत मूसा (अलै०) से कहा था कि हम आपकी बात की तस्दीक़ नहीं करेंगे जब तक हम अपनी आँखों से अल्लाह को आपसे कलाम करते ना देख लें। हम कैसे यक़ीन कर लें कि अल्लाह ने यह किताब आपको दी है? आप (अलै०) तो हमारे सामने पत्थर की कुछ तख्तियाँ लेकर आ गये हैं जिन पर कुछ लिखा हुआ है। हमें क्या पता कि यह किसने लिखा है? देखिये, एक ख़्वाहिश हज़रत मूसा (अलै०) की भी थी कि { رَبِّ اَرِنِيْٓ اَنْظُرْ اِلَيْكَ} (आराफ़:143) “ऐ मेरे रब! मुझे याराये नज़र दे कि मैं तुझको देखूँ।” वह कुछ और शय थी, वह “तू मेरा शौक देख मेरा इन्तेज़ार देख!” की कैफ़ियत थी, लेकिन यह तखरीबी (विनाशकारी) ज़हन की सोच है कि हम भी चाहते हैं कि अल्लाह को अपनी आँखों से देखें और हमें मालूम हो कि वाक़ई उसने आपको यह किताब दी है।

“तो तुम्हें आ पकड़ा एक बहुत बड़ी कड़क ने और तुम देख थे।”فَاَخَذَتْكُمُ الصّٰعِقَةُ وَاَنْتُمْ تَنْظُرُوْنَ  55؀

तुम्हारे देखते-देखते एक बहुत बड़ी कड़क ने तुम्हें आलिया (पकड़ लिया) और तुम सबके सब मुर्दा हो गये।

आयत 56

“फिर हमने तुम्हें दोबारा उठाया तुम्हारी मौत के बाद”ثُمَّ بَعَثْنٰكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَوْتِكُمْ

बाज़ लोग इसकी एक तावील करते हैं कि यह मौत नहीं थी, बल्कि ज़बरदस्त कड़क की वजह से सबके सब बेहोश होकर गिर पड़े थे, लेकिन मेरे नज़दीक यहाँ तावील की ज़रूरत नहीं है, बाअस बाद अल मौत (मौत के ज़िन्दा करना) अल्लाह के लिये कुछ मुश्किल नहीं है। {مِّنْۢ بَعْدِ مَوْتِكُمْ} के अल्फ़ाज़ अपने मफ़हूम के ऐतबार से बिल्कुल सरीह (साफ़) हैं, इन्हें ख्वाह माख्वाह कोई और मायने पहनाना दुरुस्त नहीं है।

“ताकि तुम (इस अहसान पर हमारा) शुक्र करो।”لَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ   56؀

आयत  57

“और हमने तुम पर अब्र (बादल) का साया किया” وَظَلَّلْنَا عَلَيْكُمُ الْغَمَامَ

जज़ीरा नुमाये सीना के लक़ व दक़ सहरा (ऐसा चटियल व सुनसान रेगिस्तान जिसमें कोई पेड़-पौधा ना हो) में छ: लाख का काफ़िला चल रहा है, कोई ओट नहीं, कोई साया नहीं, धूप की तपिश से बचने का कोई इन्तेज़ाम नहीं। इन हालात में उन पर अल्लाह तआला का यह फ़ज़ल हुआ कि तमाम दिन एक बादल उन पर साया किये रहता और जहाँ-जहाँ वह जाते वह बादल उनके साथ होता।

“और उतारा तुम पर मन्न व सलवा।”وَاَنْزَلْنَا عَلَيْكُمُ الْمَنَّ وَالسَّلْوٰى   ۭ

सहराये सीना में बनी इसराइल के पास खाने को कुछ नहीं था तो उनके लिये मन्न व सलवा नाज़िल किये गये। “मन्न” रात के वक़्त शबनम के क़तरों की मानिन्द उतरता था, जिसमें शीरीनी (मिठास) भी होती थी, और उसके क़तरे ज़मीन पर आकर जम जाते थे और दानों की सूरत इख़्तियार कर लेते थे। यह गोया उनका अनाज हो गया, जिससे काब्रोहाईड्रेट्स की ज़रूरत पूरी हो गयी। “सलवा” एक ख़ास क़िस्म का बटेर की शक्ल का परिन्दा था। शाम के वक़्त उन परिन्दों के बडे़-बडे़ झुण्ड आते और जहाँ बनी इसराइल डेरा डाले होते उसके गिर्द उतर आते थे। रात की तारीकी (अँधेरे) में यह उन परिन्दों को आसानी से पकड़ लेते थे और भून कर खाते थे। चुनाँचे उनकी प्रोटीन की ज़रूरत भी पूरी हो रही थी। इस तरह अल्लाह तआला ने उनको मुकम्मल गिज़ा फ़राहम कर दी थी।

“(हमने कहा) खाओ इन पाकीज़ा चीज़ों को जो हमने तुमको अता की है।”كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ    ۭ 
“और उन्होंने हमारा कुछ नुक़सान ना किया, बल्कि वह खुद अपने ऊपर ज़ुल्म ढाते रहे।”وَمَا ظَلَمُوْنَا وَلٰكِنْ كَانُوْٓا اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ57؀

हर क़दम पर नाफ़रमानी और नाशुक्री बनी इसराइल का वतीराह (आदत) थी। चुनाँचे उन्होंने “मन्न व सलवा” जैसी नेअमत की क़द्र भी ना की और नाशुक्री की रविश अपनाये रखी। इसका ज़िक्र अगली आयात में आ जायेगा।

आयत 58

“और याद करो जबकि हमने तुमसे कहा था कि दाखिल हो जाओ इस शहर में और फिर खाओ उसमें से बाफ़राग़त जहाँ से चाहो जो चाहो”وَاِذْ قُلْنَا ادْخُلُوْا ھٰذِهِ الْقَرْيَةَ فَكُلُوْا مِنْهَا حَيْثُ شِئْتُمْ رَغَدًا
“लेकिन देखना (बस्ती के) दरवाजे़ में दाखिल होना झुक कर और कहते रहना मग़फिरत-मग़फिरत, तो हम तुम्हारी खताओं से दरगुज़र फ़रमायेंगे।”وَّادْخُلُوا الْبَابَ سُجَّدًا وَّقُوْلُوْا حِطَّةٌ نَّغْفِرْ لَكُمْ خَطٰيٰكُمْ    ۭ
“और मोहसीनीन को हम मज़ीद फ़ज़ल करम से नवाजे़ंगे।”وَسَنَزِيْدُ الْمُحْسِنِيْنَ  58؀

बनी इसराइल के सहराये सीना में आने और तौरात अता किये जाने के बाद हज़रत मूसा (अलै०) ही के ज़माने में उन्हें जिहाद और क़िताल का हुक्म हुआ, लेकिन इससे पूरी क़ौम ने इन्कार कर दिया। इस पर अल्लाह तआला ने उन पर यह सज़ा मुसल्लत कर दी कि यह चालीस बरस तक इसी सहरा में भटकते फिरेंगे। अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि अगर यह अभी जिहाद और क़िताल करते तो हम पूरा फ़लस्तीन इनके हाथ से अभी फ़तह करा देते। लेकिन चूँकि इन्होंने बुज़दिली दिखाई है लिहाज़ा अब इनकी सज़ा यह है: {فَاِنَّهَا مُحَرَّمَةٌ عَلَيْهِمْ اَرْبَعِيْنَ سَـنَةً ۚ يَتِيْھُوْنَ فِي الْاَرْضِ } (मायदा:26) यानि अर्दे फ़लस्तीन जो उनके लिये अर्दे मौऊद (वादा की हुई) थी वह उन पर चालीस साल के लिये हराम कर दी गयी है, अब यह चालीस साल तक इसी सहरा में भटकते फिरेंगे। सहरानावरदी (cross-country) के इस अर्से में हज़रत मूसा (अलै०) का भी इन्तेक़ाल हो गया और हज़रत हारून (अलै०) का भी। इस अर्से में एक नयी नस्ल पैदा हुई और वह नस्ल जो मिस्र से गुलामी का दाग़ उठाये हुए आयी थी वह पूरी की पूरी ख़त्म हो गयी। गुलामी का यह असर होता है कि गुलाम क़ौम के अन्दर अख़्लाक़ व किरदार की कमज़ोरियाँ पैदा हो जाती हैं। सहरानावरदी के ज़माने में जो नस्ल पैदा हुई और सहरा ही में परवान चढ़ी वह एक आज़ाद नस्ल थी जो उन कमज़ोरियों से पाक थी और उनमें एक जज़्बा था। बनी इसराइल की इस नयी नस्ल ने हज़रत मूसा (अलै०) के ख़लीफ़ा यूशा बिन नून [तौरात में इनका नाम येशूआ (Joshua) आया है] की क़यादत में क़िताल किया और पहला शहर जो फतह हुआ वह “अरीहा” था। यह शहर आज भी जेरिका (Jericho) के नाम से मौजूद है।

यहाँ पर इस फ़तह के बाद का तज़किरा हो रहा है कि याद करो जबकि हमने तुमसे कहा था कि इस शहर में फ़ातेह की हैसियत से दाखिल हो जाओ और फिर जो कुछ नेअमतें यहाँ हैं उनसे मुतमताअ (आनंदित) हो, खूब खाओ-पीयो, लेकिन शहर के दरवाज़े से सज्दा करते हुए दाखिल होना। मुराद यह है कि झुक कर, सज्दाये शुक्र बजालाते हुए दाखिल होना। ऐसा ना हो कि तकब्बुर की वजह से तुम्हारी गरदनें अकड़ जायें। अल्लाह का अहसान मानते हुए गरदनें झुका कर दाखिल होना। यह ना समझना कि यह फ़तह तुमने ब-ज़ोरे बाज़ू हासिल की है। इसका नक़्शा हमें मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की शख्सियत में नज़र आता है कि जब फ़तह मक्का के मौक़े पर आप ﷺ मक्का में दाखिल हुए तो जिस सवारी पर आप ﷺ बैठे हुए थे आप ﷺ की पेशानी मुबारक उसकी गर्दन के साथ जुड़ी हुई थी। यह वक़्त होता है जबकि एक फ़ातेह तकब्बुर और तअल्ली (बड़प्पन) का मुज़ाहिरा करता है, लेकिन बन्दा-ए-मोमिन के लिये यही वक़्त तवाज़े (विनम्रता) का और झुकने का है।

इसके साथ ही उन्हें हुक्म दिया गया: {وَّقُوْلُوْا حِطَّةٌ} “और कहते जाओ मग़फ़िरत-मग़फ़िररत।” حِطَّۃٌ का वज़न فِعْلَۃٌ और माद्दा “ح ط ط” है। حَطَّ یَحُطُّ حَطًّا के मुतअद्दिद (कईं) मायने हैं, जिनमें से एक “पत्ते झाड़ना” है। मसलन कहेंगे حَطَّ وَرَقَ الشَّجَرِ (उसने दरख़्त के पत्ते झाड़ दिये)। حِطَّۃٌ के मायने “अस्तग़फ़ार, तलब-ए-मग़फ़िररत और तौबा” के किये जाते हैं। गोया इसमें गुनाहों को झाड़ देने और ख़ताओं को माफ़ कर देने का मफ़हूम है। चुनाँचे “وَّقُوْلُوْا حِطَّةٌ” का मफ़हूम यह होगा कि मफ़तूह बस्ती में दाखिल होते वक़्त जहाँ तुम्हारी गरदनें आजिज़ी के साथ झुकी होनी चाहिये वहीं तुम्हारी ज़ुबान पर भी इस्तग़फ़ार होना चाहिये कि ऐ अल्लाह हमारे गुनाह झाड़ दे, हमारी मग़फ़िरत फ़रमा दे, हमारी ख़ताओं को बख़्श दे! अगर तुम हमारे इस हुक्म पर अमल करोगे तो हम तुम्हारी ख़तायें माफ़ फ़रमा देंगे, और तुम में जो मोहसिन और नेकोकार होंगे उन्हें मज़ीद फ़ज़ल व करम और ईनाम व इकराम से नवाजे़ंगे।

1

आयत 59

“फिर बदल डाला ज़ालिमों ने बात को खिलाफ़ उसके जो उनसे कह दी गयी थी” فَبَدَّلَ الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا قَوْلًا غَيْرَ الَّذِىْ قِيْلَ لَھُمْ

उनमें से जो ज़ालिम थे, बदकार थे उन्होंने एक और क़ौल इख़्तियार कर लिया उस क़ौल की जगह जो उनसे कहा गया था। उनसे कहा गया था कि “हित्तातुन-हित्तातुन” कहते हुए दाखिल होना, लेकिन उन्होंने इसकी बजाय “हिन्तातुन-हिन्तातुन” कहना शुरू कर दिया, यानि हमें तो गेहूँ चाहिये, गेहूँ चाहिये! अगले रुकूअ में यह बात आ जायेगी कि मन्न व सलवा खाते-खाते बनी इसराइल की तबीयतें भर गयी थीं, एक ही चीज़ खा-खा कर वह उकता गये थे और अब वह कह रहे थे कि हमें ज़मीन की रूईदगी और पैदावार में से कोई चीज़ खाने को मिलनी चाहिये। इस ख़्वाहिश का इज़हार उनकी ज़बानों पर “हिन्तातुन-हिन्तातुन” की सूरत में आ गया। इस तरह उन्होंने अल्लाह तआला के उस हुक्म का इस्तेहज़ाअ व तमस्खुर किया जो उन्हें “وَّقُوْلُوْا حِطَّةٌ” के अल्फ़ाज़ में दिया गया था। इसी तरह शहर में सज्दारेज़ होते हुए दाखिल होने की बजाय उन्होंने अपने सरीनों पर फिसलना शुरू किया।

“फिर हमने उतारा ज़ुल्म करने वालों पर एक बड़ा अज़ाब आसमान से” فَاَنْزَلْنَا عَلَي الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا رِجْزًا مِّنَ السَّمَاۗءِ

जिन ज़ालिमों ने अल्लाह तआला के हुक्म का इस्तेहज़ाअ व तमस्खुर किया था उन पर आसमान से एक बहुत बड़ा अज़ाब नाज़िल हुआ। तौरात से मालूम होता है कि अरीहा शहर में पहुँचने के बाद उन्हें ताऊन की वबा (महामारी) ने आलिया (पकड़ लिया) और जिन्होंने यह हरकत की थी वह सबके सब हलाक़ हो गये।

“बसबब उस नाफ़रमानी के जो उन्होंने की।” بِمَا كَانُوْا يَفْسُقُوْنَ   59؀ۧ

यह उन नाफ़रमानियों और हुक्म अदलियों (उल्लंघन) की सज़ा थी जो वह कर रहे थे।

आयात 60 से 61 तक

وَاِذِ اسْتَسْقٰى مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ فَقُلْنَا اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ    ۭ  فَانْفَجَرَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا    ۭ  قَدْ عَلِمَ كُلُّ اُنَاسٍ مَّشْرَبَھُمْ   ۭ   كُلُوْا وَاشْرَبُوْا مِنْ رِّزْقِ اللّٰهِ وَلَا تَعْثَوْا فِى الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ  60۝ وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نَّصْبِرَ عَلٰي طَعَامٍ وَّاحِدٍ فَادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُخْرِجْ لَنَا مِمَّا تُنْۢبِتُ الْاَرْضُ مِنْۢ بَقْلِهَا وَقِثَّاۗىِٕهَا وَفُوْمِهَا وَعَدَسِهَا وَبَصَلِهَا   ۭ   قَالَ اَتَسْتَبْدِلُوْنَ الَّذِىْ ھُوَ اَدْنٰى بِالَّذِىْ ھُوَ خَيْرٌ   ۭ  اِھْبِطُوْا مِصْرًا فَاِنَّ لَكُمْ مَّا سَاَلْتُمْ     ۭ   وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ     ۤ   وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ    ۭ   ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّـبِيّٖنَ بِغَيْرِ الْحَقِّ   ۭ  ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ   61۝ۧ

अब यहाँ फिर सहराये सीना के वाक़िआत बयान हो रहे हैं। इन वाक़िआत में तरतीबे ज़मानी नहीं है। अरीहा की फ़तह मूसा अलै० के बाद हुई, जिसका ज़िक्र गुज़िश्ता आयात में हुआ, लेकिन अब यहाँ फिर उस दौर के वाक़िआत आ रहे हैं जब बनी इसराइल सहराये तईहा में भटक रहे थे।

आयत 60

“और जब पानी माँगा मूसा (अलै०) ने अपनी क़ौम के लिये तो हमने कहा ज़र्ब (चोट) लगाओ अपने असा (लाठी) से चट्टान पर।” وَاِذِ اسْتَسْقٰى مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ فَقُلْنَا اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ    ۭ

सहराये सीना में छ: लाख से ज़ायद बनी इसराइल पड़ाव डाले हुए थे और वहाँ पानी नहीं था। उन्होंने हज़रत मूसा अलै० से पानी तलब किया। हज़रत मूसा अलै० ने अल्लाह तआला से अपनी क़ौम के लिये पानी की दुआ की तो उन्हें अल्लाह तआला ने हुक्म दिया कि अपने असा से चट्टान पर ज़र्ब लगाओ।

“तो उससे बारह चश्में फूट बहे।” فَانْفَجَرَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا    ۭ

“فَجَرَ” कहते हैं कोई चीज़ फट कर उससे किसी चीज़ का बरामद होना। फज्र के वक़्त को फज्र इसी लिये कहते हैं कि उस वक़्त रात की तारीकी का परदा चाक होता है और सफेदा सहर नमोदार होता है।

“हर क़बीले ने अपना घाट जान लिया (और मुअय्यन कर लिया)।” قَدْ عَلِمَ كُلُّ اُنَاسٍ مَّشْرَبَھُمْ   ۭ 

बनी इसराइल के बारह क़बीले थे, अगर उनके लिये अलैहदा-अलैहदा घाट ना होता तो उनमें बाहम लड़ाई झगडे़ का मामला होता। उन्हें बारह चश्में इसी लिये दिये गये थे कि आपस में लड़ाई झगड़ा ना हो। पानी तो बहुत बड़ी चीज़ है और क़बाइली ज़िन्दगी में इसकी बुनियाद पर जंग व जदल का आगाज़ हो सकता है।

कहीं पानी पीने-पिलाने पे झगड़ा

कहीं घोड़ा आगे बढ़ाने पे झगड़ा

तो इस ऐतबार से अल्लाह तआला ने उनके लिये यह सहुलत मुहैय्या की कि बारह चश्में फूट बहे और हर क़बीले ने अपना घाट मुअय्यन कर लिया।

“(गोया उनसे यह कह दिया गया कि) खाओ और पियो अल्लाह के रिज़्क़ में से” كُلُوْا وَاشْرَبُوْا مِنْ رِّزْقِ اللّٰهِ
“और ज़मीन में फ़साद मचाते ना फिरो।” وَلَا تَعْثَوْا فِى الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ  60۝

सहरा में उनके लिये पीने को पानी भी मुहैय्या कर दिया गया और खाने के लिये मन्न व सलवा उतार दिया गया, लेकिन उन्होंने नाशुक्री का मामला किया, जिसका ज़िक्र मुलाहिज़ा हो।

आयत 61

“और याद करो जबकि तुमने कहा था मूसा! हम एक ही खाने पर सब्र नहीं कर सकते” وَاِذْ قُلْتُمْ يٰمُوْسٰى لَنْ نَّصْبِرَ عَلٰي طَعَامٍ وَّاحِدٍ

मन्न व सलवा खा-खा कर अब हम उकता गये हैं।

“तो ज़रा अपने रब से हमारे लिये दुआ करो” فَادْعُ لَنَا رَبَّكَ
“कि निकाले हमारे लिये उससे कि जो ज़मीन उगाती है” يُخْرِجْ لَنَا مِمَّا تُنْۢبِتُ الْاَرْضُ

यानि ज़मीन की पैदावार में से, नबाताते अर्ज़ी में से हमें रिज़्क़ दिया जाये।

“उसकी तरकारियाँ” مِنْۢ بَقْلِهَا
“और ककडि़याँ” وَقِثَّاۗىِٕهَا

यह लफ्ज़ खीरे और ककड़ी वगैरह सबके लिये इस्तेमाल होता है।

“और लहसुन” وَفُوْمِهَا

फ़ूम का एक तर्जुमा गेहूँ किया गया है, लेकिन मेरे नज़दीक ज़्यादा सही तर्जुमा लहसुन है। अरबी में इसके लिये बिल्उमूम लफ्ज़ “ثُوم” इस्तेमाल किया जाता है। लहसुन को फ़ारसी में तूम और पंजाबी, सराइकी और सिन्धी में “थूम” कहते हैं और यह फ़ूम और सूम ही की बदली हुई शक्ल है, इसलिये कि अरबों की आमद के बाइस उनकी ज़बान के बहुत से अल्फ़ाज़ सिन्धी और सराइकी ज़बान में शामिल हो गये, जो थोड़ी सी तब्दीली के साथ काफ़ी तादाद में अब भी मौजूद हैं।

“और मसूर” وَعَدَسِهَا
“और प्याज़।” وَبَصَلِهَا   ۭ  

अब जो सालन के चटखारे इन चीज़ों से बनते हैं उनकी ज़बानें वह चटखारे माँग रही थीं। बनी इसराइल सहराये सीना में एक ही तरह की गिज़ा “मन्न व सलवा” खाते-खाते उकता गये थे, लिहाज़ा वह हज़रत मूसा अलै० से कहने लगे कि हमें ज़मीन से उगने वाली चटखारेदार चीज़ें चाहिये।

“हज़रत मूसा अलै० ने फ़रमाया: क्या तुम वह शय लेना चाहते हो जो कमतर है उसके बदले में जो बेहतर है?” قَالَ اَتَسْتَبْدِلُوْنَ الَّذِىْ ھُوَ اَدْنٰى بِالَّذِىْ ھُوَ خَيْرٌ   ۭ 

मन्न व सलवा नबाताते अर्ज़ी से कहीं बेहतर है जो अल्लाह की तरफ़ से तुम्हें दिया गया है। तो इससे तुम्हारा जी भर गया है और इसको हाथ से देकर चाहते हो कि यह अदना चीजे़ं तुम्हें मिलें?

“उतरो किसी शहर में तो तुमको मिल जायेगा जो कुछ तुम माँगते हो।” اِھْبِطُوْا مِصْرًا فَاِنَّ لَكُمْ مَّا سَاَلْتُمْ     ۭ

लफ्ज़ “اِهْبِطُوْا” पर आयत 38 के ज़ैल में बात हो चुकी है कि इसका मायने बुलन्दी से उतरने का है। ज़ाहिर बात है यहाँ यह लफ्ज़ आसमान से ज़मीन पर उतरने के लिये नहीं आया, बल्कि इसका सही मफ़हूम यह होगा कि किसी बस्ती में जाकर आबाद हो जाओ! (settle down somewhere) अगर तुम्हें ज़मीन की पैदावार में से यह चीज़ें चाहियें तो कहीं आबाद (settle) हो जाओ और काश्तकारी करो, यह सारी चीज़ें तुम्हें मिल जायेगी।

“और उन पर ज़िल्लत व ख्वारी और मोहताजी व कम हिम्मती थोप दी गयी।” وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ     ۤ
“और वह अल्लाह का गज़ब लेकर लौटे।” وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ    ۭ  

वह अल्लाह के ग़ज़ब में घिर गये।

बनी इसराइल वह उम्मत थी जिसके बारे में फ़रमाया गया (बक़रह:47) {وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ  47؀} उसी उम्मत का फिर यह हश्र हुआ तो क्यों हुआ? अल्लाह तआला की नाफ़रमानी की वजह से! उन्हें किताब दी गयी थी कि उसकी पैरवी करें और उसे क़ायम करें। सूरतुल मायदा (आयत:66) में फ़रमाया गया:

“अगर यह (अहले किताब) तौरात और इन्जील और उन दूसरी किताबों को क़ायम करते जो उनकी जानिब उनके रब की तरफ़ से उतारी गयीं तो खाते अपने ऊपर से और अपने क़दमों के नीचे से।” وَلَوْ اَنَّهُمْ اَقَامُوا التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِمْ مِّنْ رَّبِّهِمْ لَاَكَلُوْا مِنْ فَوْقِهِمْ وَمِنْ تَحْتِ اَرْجُلِهِمْ  ۭ

यानि उनके सरों के ऊपर से भी नेअमतों की बारिश होती और ज़मीन भी उनके लिये नेअमतें उगलती। लेकिन उन्होंने इसको छोड़ कर अपनी ख्वाहिशात, अपने नज़रियात, अपने ख्यालात, अपनी अक़्ल और अपनी मसलहतों को मुक़द्दम किया, और अपने तमर्रुद (विद्रोह), अपनी सरकशी और अपनी हाकमियत को बालातर किया। जो क़ौम दुनिया में अल्लाह के क़ानून, अल्लाह की हिदायत और अल्लाह की किताब की अमीन होती है वह अल्लाह की नुमाइन्दा (representative) होती है, और अगर वह अपने अमल से गलत नुमाइन्दगी (misrepresent) करे तो वह अल्लाह के नज़दीक काफ़िरों से बढ़ कर मग़ज़ूब (तुच्छ) और मबग़ूज़ (घृणित) हो जाती है। इसलिये कि काफ़िरों को दीन पहुँचाना तो इस मुस्लमान उम्मत के ज़िम्मे था। अगर यह खुद ही दीन से मुन्हरिफ़ हो गये तो किसी और को क्या दीन पहुँचायेंगे? आज इस मक़ाम पर मौजूदा उम्मते मुस्लिमा खड़ी है कि तादाद में सवा अरब या डेढ़ अरब होने के बावजूद उनके हिस्से में इज़्ज़त नाम की कोई शय नहीं है। दुनिया के सारे मामलात जी-7 और जी-15 मुमालिक के हाथ में हैं। सिक्योरिटी काउंसिल के मुस्तक़िल अरकान को वीटो का हक़ हासिल है, लेकिन कोई मुस्लमान मुल्क ना तो सिक्योरिटी काउंसिल का मुस्तक़िल रुकन है और ना ही जी-7, जी-9 या जी-15 में शामिल है। गोया “किस नमी पुरसद के भैया कैस्ती!” हमारी अपनी पालिसियाँ कहीं और तय होती हैं, हमारे अपने बजट कहीं और बनते हैं, हमारी सुलह और जंग किसी और के इशारे से रिमोर्ट कन्ट्रोल अन्दाज़ में होती हैं। यह ज़िल्लत और मसकनत है जो आज हम पर थोप दी गयी है। हम कहते हैं कश्मीर हमारी शह रग है, लेकिन उसके लिये जंग करने को हम तैयार नहीं हैं। यह ख़ौफ नहीं है तो क्या है? यह मसकनत नहीं है तो क्या है? अगर अल्लाह पर यक़ीन है और अपने हक़ पर होने का यक़ीन है तो अपनी शह रग दुश्मन के कब्ज़े से आज़ाद कराने के लिये हिम्मत करो। लेकिन नहीं, हम में यह हिम्मत मौजूद नहीं है। हमारे रेडियो और टेलीविज़न पर ख़बरें आती रहेंगी कि काबिज़ भारतीय फौज ने रियासती दहशतगर्दी की कार्यवाहियों में इतने कश्मीरियों को शहीद कर दिया, इतनी मुस्लमान औरतों की बेहुरमती कर दी, लेकिन हम यहाँ अपने-अपने धन्धों में, अपने-अपने कारोबार में, अपनी-अपनी मुलाज़मतों में और अपने-अपने कैरियर्ज़ में मगन हैं। बहरहाल मुताज़क्किरह बिलअल्फ़ाज़ अगरचे बनी इसराइल के लिये आये हैं कि उन पर ज़िल्लत व ख्वारी और मोहताजी व कम हिम्मती मुसल्लत कर दी गयी, लेकिन इसमें आज की उम्मते मुस्लिमा का नक़्शा भी मौजूद है।

खुशतर आं बाशिद कि सर दिलबरां

गुफ्ता आयद दर हदीस दीगरां!

“यह इसलिये हुआ कि वह अल्लाह की आयात का इन्कार करते रहे” ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ
“और अल्लाह के नबियों को नाहक़ क़त्ल करते रहे।” وَيَقْتُلُوْنَ النَّـبِيّٖنَ بِغَيْرِ الْحَقِّ   ۭ 

हमारे यहाँ भी मुजद्दिदे दीने उम्मत को क़त्ल भी किया गया और उनमे से कितने हैं जो जेलों में ड़ाले गये। मुतअद्दिद सहाबा किराम (रजि०) और सैंकडों ताबईन मुस्तबद (कट्टरपंथी) हुक्मरानों के हाथों मौत के घाट उतार दिये गये। अइम्मा-ए-दीन को ऐसी-ऐसी मार पड़ी है कि कहा जाता है कि हाथी को भी ऐसी मार पड़े तो वह बर्दाश्त ना कर सके। इमाम अहमद बिन हम्बल (रहि०) के साथ क्या कुछ हुआ! इमाम अबु हनीफ़ा (रहि०) ने जेल में इन्तेक़ाल किया और वहाँ से उनका जनाज़ा उठा। इमामे दारुल हिजरत इमाम मालिक (रहि०) के कन्धें खींच दिये गये और मुँह काला करके उन्हें ऊँट पर बिठा कर फिराया गया। हज़रत मुजद्दि अल्फ़े सानी शेख अहमद सरहन्दी (रहि०) को पसे दीवार ज़िन्दा ड़ाला गया। सय्यद अहमद बरेलवी (रहि०) और उनके साथियों को खुद मुस्लमानों ने शहीद करवा दिया। हमारी तारीख ऐसी दास्तानों से भरी पड़ी है। अब नबी तो कोई नहीं आयेगा। उनके यहाँ नबी थे, हमारे यहाँ मुजद्दिदीन हैं, उलमाये हक़ हैं। उन्होंने जो कुछ अम्बिया (अलै०) के साथ किया वही हमने मुजद्दिदे दीन के साथ किया।

“और यह इसलिये हुआ कि वह नाफ़रमान थे और हद से तजावुज़ करते थे।” ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ   61۝ۧ

उनको यह सज़ा उनकी नाफ़रमानियों की वजह से और हद से तजावुज़ करने की वजह से दी गयी। अल्लाह तआला तो ज़ालिम नहीं है (नाऊज़ुबिल्लहा), अल्लाह तआला ने तो उन्हें ऊँचा मक़ाम दिया था। अल्लाह तआला ने हमें भी “ख़ैर उम्मत” क़रार दिया। हमने भी जब अपना मिशन छोड़ दिया तो ज़िल्लत और मसकनत हमारा मुक़द्दर बन गयी। अल्लाह का क़ानून और अल्लाह का अद्ल बे लाग है। यह सबके लिये एक है, हर उम्मत के लिये अलग-अलग नहीं है। अल्लाह की सुन्नत बदलती नहीं। चुनाँचे बनी इसराइल की बद आमालियों के सबब उनका जो हश्र हुआ आज वह हमारा हो रहा है। इस ज़िमन में मेरीकिताब “साबक़ा और मौजूदा मुस्लमान उम्मतों का माज़ी, हाल और मुस्तक़बिल” के नाम से मौजूद है, उसका मुतअला कीजिये!

आयात 62 से 66 तक

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ھَادُوْا وَالنَّصٰرٰى وَالصّٰبِـــِٕيْنَ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ    ګ    وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  62۝ وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَ   ۭ  خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاذْكُرُوْا مَا فِيْهِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ  63۝ ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ    ۚ  فَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ لَكُنْتُمْ مِّنَ الْخٰسِرِيْنَ  64۝ وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِيْنَ اعْتَدَوْا مِنْكُمْ فِى السَّبْتِ فَقُلْنَا لَھُمْ كُوْنُوْا قِرَدَةً خٰسِـــِٕيْنَ 65۝ۚ فَجَــعَلْنٰھَا نَكَالًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهَا وَمَا خَلْفَهَا وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَ  66۝

अब वह आयत आ रही है कि जिससे बाज़ लोगों ने यह इस्तदलाल किया है कि निजाते उखरवी के लिये ईमान बिर्रिसालत ज़रूरी नहीं है।

आयत 62

“यक़ीनन जो लोग ईमान लाये” اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا

और इससे मुराद है जो ईमान लाये मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर।

“और जो यहूदी हो गये और नसरानी” وَالَّذِيْنَ ھَادُوْا وَالنَّصٰرٰى
“और साबी” وَالصّٰبِـــِٕيْنَ

साबी वह लोग थे जो ईराक़ के इलाके़ में रहते थे और उनका कहना था कि हम दीने इब्राहीमी पर हैं। लेकिन उनके यहाँ भी बहुत कुछ बिगड़ गया था। जैसे हज़रत इब्राहीम (अलै०) की नस्ल बिगाड़ का शिकार हो गयी थी इसी तरह वह भी बिगड़ गये थे और उनके यहाँ ज़्यादातर सितारा परस्ती रिवाज पा गयी थी।

“जो कोई भी ईमान लाया (उनमें से) अल्लाह पर और यौमे आखिर पर” مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ
“और उसने अच्छे अमल किये” وَعَمِلَ صَالِحًا
“तो उनके लिये (महफ़ूज़) है उनका अज्र उनके रब के पास” فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ    ګ
“और ना उन पर कोई ख़ौफ़ होगा और ना ग़मगीन होंगे।” وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  62۝

उन लोगों को ना तो कोई ख़ौफ़ दामनगीर होगा और ना ही वह किसी हज़्न से दो चार होंगे। ज़ाहिर अल्फ़ाज़ के ऐतबार से देखें तो यहाँ ईमान बिर्रिसालत का ज़िक्र नहीं है। अगर कोई इससे गलत इस्तदलाल करता है तो इसका पहला उसूली जवाब तो यह है कि बाज़ अहादीस में ऐसे अल्फ़ाज़ भी मौजूद हैं: ((مَنْ قَالَ لَا اِلٰہَ اِلَّا اللہُ دَخَلَ الْجَنَّۃَ)) तो क्या इसके यह मायने हैं कि सिर्फ़ ला इलाहा इल्लल्लाह कहने से जन्नत में दाखिल हो जायेंगे, किसी अमल की ज़रूरत नहीं? बल्कि किसी हदीस का मफ़हूम अखज़ करने के लिये पूरे क़ुरान को और पूरे ज़खीरा-ए-अहादीस को सामने रखना होगा। किसी एक जगह से कोई नतीजा निकाल लेना सही नहीं है। लेकिन इसके अलावा छठे रुकूअ के आगाज़ में यह उसूली बात भी बयान की जा चुकी है कि सूरतुल बक़रह का पाँचवा रुकूअ छठे रुकूअ से शुरू होने वाले सारे मज़ामीन से ज़र्ब खा रहा है, जिसमें मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और आप ﷺ पर नाज़िल होने वाले क़ुरान पर ईमान लाने की पुरज़ोर दावत बा-अल्फाज़ (आयत:41) मौजूद है:  { وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ  ۠ } “और ईमान लाओ इस किताब पर जो मैंने नाज़िल की है, जो तस्दीक़ करते हुए आयी है उस किताब की जो तुम्हारे पास है, और तुम ही सबसे पहले इसका कुफ़्र करने वाले ना बन जाओ।” अब फ़साहत और बलागत का यह तक़ाज़ा है कि एक बात बार-बार ना दोहरायी जाये। अलबत्ता यह बात हर जगह मुक़द्दर (understood) समझी जायेगी। इसलिये कि सारी गुफ्तुगू इसी के हवाले से हो रही है। इस हवाले से अब यूँ समझिये कि आयते ज़ेरे मुतआला में “فِىْ اَيَّامِهِمْ” या “فِىَ اَزْمِنَتِهِمْ” (अपने-अपने दौर में) के अल्फ़ाज़ महज़ूफ़ माने जायेंगे। गोया:

اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ھَادُوْا وَالنَّصٰرٰى وَالصّٰبِـــِٕيْنَ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَعَمِلَ صَالِحًا  ﴿ فِىْ اَيَّامِهِمْ ﴾  فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ    ګ    وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  62۝

यानि निजाते उखरवी के लिये अल्लाह तआला और रोज़े क़यामत पर ईमान के साथ-साथ अपने दौर के नबी पर ईमान लाना भी ज़रूरी है। चुनाँचे जब तक हज़रत ईसा (अलै०) नहीं आये थे तो हज़रत मूसा (अलै०) के मानने वाले जो भी यहूदी मौजूद थे, जो अल्लाह पर ईमान रखते थे, आख़िरत को मानते थे और नेक अमल करते थे उनकी निजात हो जायेगी। लेकिन जिन्होंने हज़रत ईसा (अलै०) के आने के बाद उन (अलै०) को नहीं माना तो अब वह काफ़िर क़रार पाये। मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत से क़ब्ल हज़रत ईसा (अलै०) तक तमाम रसूलों पर ईमान निजाते उखरवी के लिये काफ़ी था, लेकिन मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत के बाद आप ﷺ पर ईमान ना लाने वाले काफ़िर क़रार पायेंगे।

आयते ज़ेरे मुतअला में असल ज़ोर इस बात पर है कि यह ना समझो कि किसी गिरोह में शामिल होने से निजात पाओगे, निजात किसी गिरोह में शामिल होने की वजह से नहीं है, बल्कि निजात की बुनियाद ईमान और अमल सालेह है। अपने दौर के रसूल पर ईमान लाना तो लाज़िम है, लेकिन इसके साथ अगर अमल सालेह नहीं है तो निजात नहीं होगी। क़ुरान मजीद के एक मक़ाम पर आया है: { وَلِكُلِّ اُمَّةٍ اَجَلٌ  ۚ} (आराफ़:34) “और हर उम्मत के लिये एक खास मुअय्यन मुद्दत है।” हर उम्मत इस मुअय्यना मुद्दत ही की मुकल्लिफ़ है। ज़ाहिर है कि जो लोग मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत से पहले फ़ौत हो गये उन पर तो आप ﷺ पर ईमान लाने की कोई ज़िम्मेदारी नहीं थी। बेअसते नबवी ﷺ से क़ब्ल ऐसे मुवह्हिदीन मक्का मुकर्रमा में मौजूद थे जो काबा के परदे पकड़-पकड़ कर यह कहते थे कि ऐ अल्लाह! हम सिर्फ़ तेरी बन्दगी करना चाहते हैं, लेकिन जानते नहीं कि कैसे करें। हज़रत उमर (रज़ि०) के बहनोई और फ़ातिमा (रज़ि०) बिन्ते खत्ताब के शौहर हज़रत सईद बिन ज़ैद (रज़ि०) (जो अशरा-ए-मुबश्शरा में से हैं) के वालिद ज़ैद का यही मामला था। वह यह कहते हुए दुनिया से चले गये कि: “ऐ अल्लाह! मैं सिर्फ़ तेरी बन्दगी करना चाहता हूँ, मगर नहीं जानता कि कैसे करूँ।”

सूरतुल फ़ातिहा के मुताअले के दौरान मैंने कहा था कि एक सलीमुल फ़ितरत और सलीमुल अक़्ल इन्सान तौहीद तक पहुँच जाता है, आख़िरत को पहचान लेता है, लेकिन आगे वह नहीं जानता कि अब क्या करे। अहकामे शरीअत की तफ़सील के लिये वह “रब्बुल आलामीन” और “मालिकी यौमइद्दीन” के हज़ूर दस्ते सवाल-दराज़ करने पर मजबूर है कि: { اِھْدِنَا الصِّرَاطَ الْمُسْتَـقِيْمَ    6۝ۙ} उसी सिराते मुस्तक़ीम की दुआ का जवाब यह क़ुरान हकीम है, और इसमें सूरतुल बक़रह ही से अहकामे शरीअत का सिलसिला शुरू किया जा रहा है कि यह करो, यह ना करो, यह फ़र्ज़ है, यह तुम पर लाज़िम किया गया है और यह चीज़ें हराम की गयी हैं।

आयत 63

“और ज़रा याद करो जब हमने तुमसे क़ौल क़रार लिया और तुम्हारे ऊपर उठा दिया कोहे तूर को।” وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَ   ۭ

बनी इसराइल को जब तौरात दी गयी तो उस वक़्त उनके दिलों में अल्लाह और उसकी किताब की हैबत (दहशत) डालने और ख़शियत (डर) पैदा करने के लिये मौज्ज़ाना तौर पर एक ऐसी कैफ़ियत पैदा की गयी कि उनके ऊपर कोहे तूर उठा कर मुअल्लक़ (लटका) कर दिया गया। उस वक़्त उनसे कहा गया:

“पकड़ो इसको मज़बूती के साथ जो हमने तुमको दिया है।” خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ

इस किताब तौरात को और इसमें बयान करदा अहकामे शरीअत को मज़बूती के साथ थाम लो।

“और याद रखो उसे जो कुछ कि इसमें है” وَّاذْكُرُوْا مَا فِيْهِ
“ताकि तुम बच सको।” لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ  63۝

आयत 64

“फिर तुमने रूगरदानी की उसके बाद।” ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ    ۚ 

यानि जो मीसाक़े शरीअत तुमसे लिया गया था उसको तोड़ डाला।

“फिर अगर तुम पर अल्लाह का फ़ज़ल और उसकी मेहरबानी ना होती तो तुम (उसी वक़्त) खसारा पाने वाले हो जाते।” فَلَوْلَا فَضْلُ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهٗ لَكُنْتُمْ مِّنَ الْخٰسِرِيْنَ  64۝

अगर अल्लाह तआला का फ़ज़ल तुम्हारे शामिले हाल ना होता और उसकी रहमत तुम्हारी दस्तगीरी ना करती रहती, तुम्हें बार-बार माफ़ ना किया जाता और तुम्हें बार-बार मोहलत ना दी जाती तो तुम उसी वक़्त तबाह हो जाते।

आयत 65

“और तुम उन्हें खूब जान चुके हो जिन्होंने तुम में से ज़्यादती की थी हफ्ते के दिन में” وَلَقَدْ عَلِمْتُمُ الَّذِيْنَ اعْتَدَوْا مِنْكُمْ فِى السَّبْتِ

तुम्हें खूब मालूम है कि तुम में से वह कौन लोग थे जिन्होंने सब्त के क़ानून को तोड़ा था और हद से तजावुज़ किया था। यहूद की शरीअत में हफ्ते का रोज़ इबादत के लिये मुअय्यन कर दिया गया था और इस रोज़ दुनियावी काम-काज की इजाज़त नहीं थी। आज भी जो मज़हबी यहूदी (Practicing Jews) हैं वह इसकी पाबन्दी बड़ी शिद्दत से करते हैं। लेकिन एक ज़माने में उनके एक ख़ास क़बीले ने एक शरई हीला ईजाद करके इस क़ानून की धज्जियाँ बिखेर दी थीं। इस वाक़िये की तफ़सील सूरतुल आराफ़ में आयेगी।

“तो हमने कह दिया उनसे कि हो जाओ ज़लील बन्दर।” فَقُلْنَا لَھُمْ كُوْنُوْا قِرَدَةً خٰسِـــِٕيْنَ 65۝ۚ

उनकी शक्लें मस्ख (विरूपण) करके उन्हें बन्दरों की सूरत में तब्दील कर दिया गया। तीन दिन के बाद यह सब मर गये।

आयत 66

“फिर हमने इस (वाक़िये को या इस बस्ती) को इबरत का सामान बना दिया उनके लिये भी जो सामने मौजूद थे (उस ज़माने के लोग) और उनके लिये भी जो बाद में आने वाले थे” فَجَــعَلْنٰھَا نَكَالًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهَا وَمَا خَلْفَهَا
“और एक नसीहत (और सबक आमोज़ी की बात) बना दिया अहले तक़वा के लिये।” وَمَوْعِظَةً لِّلْمُتَّقِيْنَ  66۝

आयात 67 से 74 तक

وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖٓ اِنَّ اللّٰهَ يَاْمُرُكُمْ اَنْ تَذْبَحُوْا بَقَرَةً     ۭ  قَالُوْٓا اَتَتَّخِذُنَا ھُزُوًا    ۭ  قَالَ اَعُوْذُ بِاللّٰهِ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْجٰهِلِيْنَ   67؀ قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا هِىَ    ۭ   قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا فَارِضٌ وَّلَا بِكْرٌ     ۭ  عَوَانٌۢ بَيْنَ ذٰلِكَ    ۭ  فَافْعَلُوْا مَا تُـؤْمَرُوْنَ 68۝ قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا لَوْنُهَا    ۭ قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ صَفْرَاۗءُ  فَاقِعٌ لَّوْنُهَا تَسُرُّ النّٰظِرِيْنَ   69؀ قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا هِىَ     ۙ   اِنَّ الْبَقَرَ تَشٰبَهَ عَلَيْنَا    ۭ  وَاِنَّآ اِنْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَمُهْتَدُوْنَ   70؀ قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا ذَلُوْلٌ تُثِيْرُ الْاَرْضَ وَلَا تَسْقِى الْحَرْثَ    ۚ مُسَلَّمَةٌ لَّا شِيَةَ فِيْهَا    ۭ  قَالُوا الْـــــٰٔنَ جِئْتَ بِالْحَقِّ    ۭ   فَذَبَحُوْھَا وَمَا كَادُوْا يَفْعَلُوْنَ   71۝ۧ وَاِذْ قَتَلْتُمْ نَفْسًا فَادّٰرَءْتُمْ فِيْهَا      ۭ   وَاللّٰهُ مُخْرِجٌ مَّا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ  72۝ۚ فَقُلْنَا اضْرِبُوْهُ بِبَعْضِهَا    ۭ  كَذٰلِكَ يُـحْىِ اللّٰهُ الْمَوْتٰى   ۙ   وَيُرِيْكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ  73؀ ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَهِىَ كَالْحِجَارَةِ اَوْ اَشَدُّ قَسْوَةً     ۭ  وَاِنَّ مِنَ الْحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنْهُ الْاَنْهٰرُ    ۭ   وَاِنَّ مِنْهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخْرُجُ مِنْهُ الْمَاۗءُ    ۭ  وَاِنَّ مِنْهَا لَمَا يَهْبِطُ مِنْ خَشْـيَةِ اللّٰهِ    ۭ   وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ  74؀

इन आयात के मुताअले से क़ब्ल इनका पसमन्ज़र जान लीजिये। बनी इसराइल में आमील नामी एक शख़्स क़त्ल हो गया था और क़ातिल का पता नहीं चल रहा था। अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलै०) के ज़रिये से हुक्म दिया कि एक गाय ज़िबह करो और उसके गोश्त का एक टुकड़ा मुर्दा शख़्स के जिस्म पर मारो तो वह जी उठेगा और बता देगा कि मेरा क़ातिल कौन है।

बनी इसराइल की तारीख में हमें मौज्ज़ात का अमल-दखल बहुत ज़्यादा मिलता है। यह भी उन्हीं मौज्ज़ात में से एक मौज्ज़ाह था। गाय को ज़िबह कराने का एक मक़सद यह भी था कि बनी इसराइल के क़ुलूब व अज़्हान (दिलों व दिमागों) में गाय का जो तक़द्दुस रासिख हो चुका था उस पर तलवार चलायी जाये। और फिर उन्हें यह भी दिखा दिया गया कि एक मुर्दा आदमी ज़िन्दा भी हो सकता है, इस तरह बाअसे बाद अल मौत का एक नक़्शा उन्हें इस दुनिया में दिखा दिया गया। बनी इसराइल को जब गाय ज़िबह करने का हुक्म मिला तो उनके दिलों में जो बछड़े की मोहब्बत और गाय की तक़दीस जड़ पकड़ चुकी थी उसके बाइस उन्होंने इस हुक्म से किसी तरह से बच निकलने के लिये मीन-मेख निकालनी शुरू की और तरह-तरह के सवाल करने लगे कि वह कैसी गाय हो? उसका क्या रंग हो? किस तरह की हो? किस उम्र की हो? बिलआख़िर जब हर तरफ़ से उनका घेराव हो गया और सब चीज़ें उनके सामने वाज़ेह कर दी गयीं तब उन्होंने चार व नाचार बा दिले नाख्वास्ता (ना चाहते हुए) इस हुक्म पर अमल किया। अब हम इन आयात का एक रवा तर्जुमा कर लेते हैं।

आयत 67

“और याद करो जब मूसा (अलै०) ने कहा अपनी क़ौम से कि अल्लाह तुम्हें हुक्म देता है कि एक गाय को ज़िबह करो।” وَاِذْ قَالَ مُوْسٰى لِقَوْمِهٖٓ اِنَّ اللّٰهَ يَاْمُرُكُمْ اَنْ تَذْبَحُوْا بَقَرَةً     ۭ
“उन्होंने कहा: क्या आप (अलै०) हमसे कुछ ठठ्हा कर रहे हैं?” قَالُوْٓا اَتَتَّخِذُنَا ھُزُوًا    ۭ

क्या आप (अलै०) यह बात हँसी-मज़ाक में कह रहे हैं?

“फ़रमाया: मैं अल्लाह की पनाह तलब करता हूँ इससे कि मैं जाहिलों में से हो जाऊँ।” قَالَ اَعُوْذُ بِاللّٰهِ اَنْ اَكُوْنَ مِنَ الْجٰهِلِيْنَ   67؀

हँसी-मज़ाक और तमस्खुर व इस्तेहज़ा तो जाहिलों का काम है और अल्लाह के नबी से यह बईद है कि वह दीन के मामलात के अन्दर इन चीज़ों को शामिल कर ले।

आयत 68

“उन्होंने कहा (अच्छा ऐसी ही बात है तो) हमारे लिये ज़रा अपने रब से दुआ कीजिये कि वह हम पर वाज़ेह कर दे कि वह कैसी हो।” قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا هِىَ    ۭ
“(हज़रत मूसा अलै० ने) फ़रमाया: अल्लाह तआला फ़रमाता है कि वह एक ऐसी गाय होनी चाहिये जो ना बूढ़ी हो ना बिल्कुल बछिया।” قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا فَارِضٌ وَّلَا بِكْرٌ     ۭ
“बुढ़ापे और जवानी के बैन-बैन हो।” عَوَانٌۢ بَيْنَ ذٰلِكَ    ۭ 
“तो अब कर गुज़रो जो तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है।” فَافْعَلُوْا مَا تُـؤْمَرُوْنَ 68۝

आयत 69

“अब उन्होंने कहा (ज़रा एक दफ़ा फिर) हमारे लिये दुआ कीजिये अपने रब से कि वह हमें बता दे कि उसका रंग कैसा हो?” قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا لَوْنُهَا    ۭ
“फरमाया: अल्लाह तआला फ़रमाता है वह गाय होनी चाहिये ज़र्द रंग की, जिसका रंग ऐसा शोख हो कि देखने वालों को खूब अच्छी लगे।” قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ صَفْرَاۗءُ  فَاقِعٌ لَّوْنُهَا تَسُرُّ النّٰظِرِيْنَ   69؀

यह खूबियाँ उस गाय की थी जो उनके यहाँ ज़्यादा से ज़्यादा मुक़द्दस समझी जाती थी। अगर पहले ही हुक्म पर अमल पैरा हो जाते तो किसी भी गाय को ज़िबह कर सकते थे। लेकिन एक के बाद दीगर सवालात के बाइस रफ्ता-रफ्ता उनका घेराव होता गया कि जिस गाय के तक़द्दुस का तास्सुर (प्रभाव) उनके ज़हन में ज़्यादा से ज़्यादा था उसी को focus कर दिया गया।

आयत 70

“उन्होंने कहा (ज़रा फिर) अल्लाह से हमारे लिये दुआ कीजिये कि वह हम पर वाजे़ह कर दे कि वह गाय कैसी हो” قَالُوا ادْعُ لَنَا رَبَّكَ يُبَيِّنْ لَّنَا مَا هِىَ     ۙ 
“क्योंकि गाय का मामला यक़ीनन हम पर कुछ मुशतबा (संदिग्ध) हो गया है।” اِنَّ الْبَقَرَ تَشٰبَهَ عَلَيْنَا    ۭ 

हमें गाय की ताअयीन (selection) में इश्तबाह (चूक) हो गया है।

“और अगर अल्लाह ने चाहा तो हम ज़रूर राह पा लेंगे।” وَاِنَّآ اِنْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَمُهْتَدُوْنَ   70؀

आयत 71

“फ़रमाया कि अल्लाह फ़रमाता है वह एक ऐसी गाय होनी चाहिये कि जिससे कोई मशक़्क़त ना ली जाती हो, ना वह ज़मीन में हल चलाती हो और ना खेती को पानी देती हो।” قَالَ اِنَّهٗ يَقُوْلُ اِنَّهَا بَقَرَةٌ لَّا ذَلُوْلٌ تُثِيْرُ الْاَرْضَ وَلَا تَسْقِى الْحَرْثَ    ۚ
“वह सही सालिम एक रंग होनी चाहिये, उसमें (किसी दूसरे रंग का) कोई दाग तक ना हो।” مُسَلَّمَةٌ لَّا شِيَةَ فِيْهَا    ۭ 
“उन्होंने कहा अब आप लाये हैं ठीक बात।” قَالُوا الْـــــٰٔنَ جِئْتَ بِالْحَقِّ    ۭ

अब तो आप (अलै०) ने बात पूरी तरह वाज़ेह कर दी है।

“तब उन्होंने उसको ज़िबह किया और वह लगते ना थे कि ऐसा कर लेंगे।” فَذَبَحُوْھَا وَمَا كَادُوْا يَفْعَلُوْنَ   71۝ۧ

अब वह क्या करते, पे-बा-पे सवालात करते-करते वह घेराव में आ चुके थे, लिहाज़ा बा दिले ना ख्वास्ता वह अपनी मुक़द्दस सुनहरी गाय को ज़िबह करने पर मजबूर हो गये।

यहाँ वाक़िये की तरतीब तौरात से मुख़्तलिफ़ है और ज़िबह बक़रह का जो सबब था वह बाद में बयान हो रहा है, जबकि तौरात में तरतीब दूसरी है।

आयत 72

“और याद करो जब तुमने एक शख़्स को क़त्ल कर दिया था, और उसका इल्ज़ाम तुम एकदूसरे पर लगा रहे थे।” وَاِذْ قَتَلْتُمْ نَفْسًا فَادّٰرَءْتُمْ فِيْهَا ۭ

चुनाँचे पता नहीं चल रहा था कि क़ातिल कौन है।

“और अल्लाह को ज़ाहिर करना था जो कुछ तुम छुपाते थे।” وَاللّٰهُ مُخْرِجٌ مَّا كُنْتُمْ تَكْتُمُوْنَ  72۝ۚ

अल्लाह तआला फ़ैसला कर चुका था कि जो कुछ तुम छुपा रहे हो उसे निकाल कर रहेगा और वाज़ेह कर देगा।

आयत 73

“तो हमने हुक्म दिया कि मक़तूल की लाश को उस गाय के एक टुकड़े से ज़र्ब लगाओ।” فَقُلْنَا اضْرِبُوْهُ بِبَعْضِهَا    ۭ

इस तरह वह मुर्दा शख़्स बा-हुक्मे इलाही थोड़ी देर के लिये ज़िन्दा हो गया और उसने अपने क़ातिल का नाम बता दिया।

“देखो, इसी तरह अल्लाह मुर्दों को ज़िन्दा कर देगा” كَذٰلِكَ يُـحْىِ اللّٰهُ الْمَوْتٰى   ۙ 
“और वह तुम्हें अपनी निशानियाँ (अपनी क़ुदरत के नमूने) दिखाता है ताकि तुम अक़्ल से काम लो।” وَيُرِيْكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ  73؀

अब जो अल्फ़ाज़ आगे आ रहे हैं बहुत सख़्त हैं। लेकिन इनको पढ़ते हुए दरूँ बीनी (आत्मनिरीक्षण) ज़रूर कीजियेगा, अपने अन्दर ज़रूर झाँकियेगा।

आयत 74

“फिर तुम्हारे दिल सख़्त हो गये इस सबके बाद” ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ

जब दीन में हीले बहाने निकाले जाने लगें और हीलों बहानों से शरीअत के अहकाम से बचने और अल्लाह को धोखा देने की कोशिश की जाये तो उसका जो नतीजा निकलता है वह दिल की सख़्ती है।

“पस अब तो वह पत्थरों की मानिन्द हैं, बल्कि सख़्ती में उनसे भी ज़्यादा शदीद हैं।” فَهِىَ كَالْحِجَارَةِ اَوْ اَشَدُّ قَسْوَةً     ۭ

यह फ़साहत और बलागत के ऐतबार से भी क़ुरान हकीम का एक बड़ा उम्दा मक़ाम है।

“और पत्थरों में से तो यक़ीनन ऐसे भी होते हैं जिनसे चश्में फूट बहते हैं।” وَاِنَّ مِنَ الْحِجَارَةِ لَمَا يَتَفَجَّرُ مِنْهُ الْاَنْهٰرُ    ۭ
“और उन (पत्थरों और चट्टानों) में से बेशक ऐसे भी होते हैं जो शक़ हो (फट) जाते हैं और उनमें से पानी बरामद हो जाता है।” وَاِنَّ مِنْهَا لَمَا يَشَّقَّقُ فَيَخْرُجُ مِنْهُ الْمَاۗءُ    ۭ
“और उनमें से यक़ीनन वह भी होते हैं जो अल्लाह के ख़ौफ़ से गिर पड़ते हैं।” وَاِنَّ مِنْهَا لَمَا يَهْبِطُ مِنْ خَشْـيَةِ اللّٰهِ    ۭ
“और अल्लाह तआला ग़ाफ़िल नहीं है उससे कि जो तुम कर रहे हो।” وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ  74؀

क़सावते क़ल्बी की यह कैफ़ियत उस उम्मत के अफ़राद की बयान की जा रही है जिसे कभी अहले आलम पर फज़ीलत अता की गयी थी। इस उम्मत पर चौदह सौ बरस ऐसे गुज़रे कि कोई लम्हा ऐसा ना था कि इनके यहाँ कोई नबी मौजूद ना हो। इन्हें तीन किताबें दी गयीं। लेकिन यह अपनी बदअमली के बाइस क़ाअरे मुज़ल्लत (ज़िल्लत की गहराई) में जा गिरी। अक़ाइद में मिलावट, अल्लाह और उसके रसूल के अहकाम में मीन-मेख निकाल कर अपने आपको बचाने के रास्ते निकालने और आमाल में भी “किताबुल हियल” के ज़रिये से अपने आपको ज़िम्मेदारियों से मुबर्रा कर लेने की रविश का नतीजा फिर यही निकलता है। अल्लाह तआला मुझे और आपको इस अन्जामे बद से बचाये। आमीन!

आयात 75 से 82 तक

اَفَتَطْمَعُوْنَ اَنْ يُّؤْمِنُوْا لَكُمْ وَقَدْ كَانَ فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ يَسْمَعُوْنَ كَلٰمَ اللّٰهِ ثُمَّ يُحَرِّفُوْنَهٗ مِنْۢ بَعْدِ مَا عَقَلُوْهُ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ  75؀ وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا       ښ    وَاِذَا خَلَا بَعْضُھُمْ اِلٰى بَعْضٍ قَالُوْٓا اَتُحَدِّثُوْنَھُمْ بِمَا فَتَحَ اللّٰهُ عَلَيْكُمْ لِيُحَاۗجُّوْكُمْ بِهٖ عِنْدَ رَبِّكُمْ   ۭ   اَفَلَاتَعْقِلُوْنَ   76؀ اَوَلَا يَعْلَمُوْنَ اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ   77؀ وَمِنْھُمْ اُمِّيُّوْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ الْكِتٰبَ اِلَّآ اَمَانِىَّ وَاِنْ ھُمْ اِلَّا يَظُنُّوْنَ  78؀ فَوَيْلٌ لِّلَّذِيْنَ يَكْتُبُوْنَ الْكِتٰبَ بِاَيْدِيْهِمْ   ۤ  ثُمَّ يَقُوْلُوْنَ ھٰذَا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ لِيَشْتَرُوْا بِهٖ ثَــمَنًا قَلِيْلًا     ۭ فَوَيْلٌ لَّھُمْ مِّمَّا كَتَبَتْ اَيْدِيْهِمْ وَوَيْلٌ لَّھُمْ مِّمَّا يَكْسِبُوْنَ   79؀ وَقَالُوْا لَنْ تَمَسَّنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدَةً      ۭ  قُلْ اَتَّخَذْتُمْ عِنْدَ اللّٰهِ عَهْدًا فَلَنْ يُّخْلِفَ اللّٰهُ عَهْدَهٗٓ اَمْ تَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 80۝ بَلٰى مَنْ كَسَبَ سَيِّئَةً وَّاَحَاطَتْ بِهٖ خَطِيْۗــــَٔــتُهٗ فَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ   ۚ   ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  81۝ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ    ۚ   ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  82؀ۧ

अब तक हमने सूरतुल बक़रह के आठ रुकूअ और उन पर मुस्तज़ाद तीन आयात का मुतअला मुकम्मल किया है। साबक़ा उम्मते मुस्लिमा यानि बनी इसराइल के साथ ख़िताब का सिलसिला सूरतुल बक़रह के दस रुकूओं पर मुहीत है। यह सिलसिला पाँचवे रुकूअ से शुरू हुआ था और पन्द्रहवें रुकूअ के आगाज़ तक चलेगा। इस सिलसिला-ए-ख़िताब के बारे में यह बात अच्छी तरह ज़हननशीं रहनी चाहिये कि इसमें से पहला रुकूअ दावत पर मुश्तमिल है और वह बहुत फ़ैसलाकुन है, जबकि अगले रुकूअ से असलूबे कलाम तब्दील हो गया है और तहदीद और धमकी का अन्दाज़ इख़्तियार किया गया है। मैंने अर्ज़ किया था कि पाँचवा रुकूअ इस पूरे सिलसिला-ए-ख़िताब में बमंज़िला-ए-फ़ातिहा बहुत अहम है और जो बक़िया नौ (9) रुकूअ हैं उनके आगाज़ व इख्तताम पर ब्रेकेट का अन्दाज़ है कि दो आयतों से ब्रेकेट शुरू होती है और उन्ही दो आयतों पर ब्रेकेट ख़त्म होती है, जबकि पाँचवे रुकूअ के मज़ामीन इस पूरे सिलसिला-ए-ख़िताब से ज़र्ब खा रहे हैं। इन रुकूओं में बनी इसराइल के ख़िलाफ़ एक मुफ़स्सल फर्दे क़रारदारे जुर्म आइद की गयी है, जिसके नतीजे में वह उस मंसबे जलीला से माज़ूल कर दिये गये जिस पर दो हज़ार बरस से फाइज़ थे और उनकी जगह पर अब नयी उम्मते मुस्लिमा यानि उम्मते मुहम्मद (ﷺ) का इस मंसब पर तक़र्रुर अमल में आया (नियुक्ति हुई) और इस मसनद नशीनी की तक़रीब (Installation Ceremony) के तौर पर तहवीले क़िब्ला का मामला हुआ। यह रब्ते कलाम अगर सामने ना रहे तो इन्सान क़ुरान मजीद की तवील सूरतों को पढते हुए खो जाता है कि बात कहाँ से चली थी और अब किधर जा रही है।

इन रुकूओं के मज़ामीन में कुछ तो तारीख बनी इसराइल के वाक़िआत बयान हुए हैं कि तुमने यह किया, तुमने यह किया! लेकिन इन वाक़िआत को बयान करते हुए बाज़ ऐसे अज़ीम अब्दी हक़ाइक़ और Universal Truths बयान हुए हैं कि उनका ताल्लुक़ किसी वक़्त से, किसी क़ौम से या किसी ख़ास गिरोह से नहीं है। वह तो ऐसे उसूल हैं जिन्हें हम सुन्नतुल्लाह कह सकते हैं। इस कायनात में एक तो क़वानीने तबीई (Physical Laws) हैं, जबकि एक Moral Laws हैं जो अल्लाह की तरफ़ से इस दुनिया में कारफरमां हैं। सूरतुल बक़रह के जे़रे मुतअला नौ रुकूओं में तारीख बनी इसराइल के वाक़िआत के बयान के दौरान थोडे़-थोडे़ वक़्फे के बाद ऐसी आयात आती हैं जो इस सिलसिला-ए-कलाम के अन्दर इन्तहाई अहमियत की हामिल हैं। उनमें दर हक़ीक़त मौजूदा उम्मते मुस्लिमा के लिये रहनुमाई पौशिदा है। मिसाल के तौर पर इस सिलसिला-ए-खिताब के दौरान आयत 61 में वारिद शुदा यह अल्फ़ाज़ याद कीजिये: { وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ     ۤ   وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ    ۭ} “और उन पर ज़िल्लत व ख्वारी और मोहताजी व कमहिम्मती थोप दी गयी और वह अल्लाह का ग़ज़ब लेकर लौटे।” मालूम हुआ कि ऐसा हो सकता है कि एक मुस्लमान उम्मत जिस पर अल्लाह के बड़े फ़ज़ल हुए हों, उसे बडे़ ईनाम और इकराम से नवाज़ा गया हो, और फिर वह अपनी बेअमली या बदअमली के बाइस अल्लाह तआला के ग़ज़ब की मुस्तहिक़ हो जाये और ज़िल्लत व मसकनत उस पर थोप दी जाये। यह एक अब्दी हक़ीक़त है जो इन अल्फ़ाज़ में बयान हो गयी। उम्मते मुस्लिमा के लिये यह एक लम्हा-ए-फ़िक्रिया है कि क्या आज हम तो उस मक़ाम पर नहीं पहुँच गये?

दूसरा इसी तरह का मक़ाम गज़िश्ता आयत (74) में गुज़रा है, जहाँ एक अज़ीम अब्दी हक़ीक़त बयान हुई है: { ثُمَّ قَسَتْ قُلُوْبُكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَهِىَ كَالْحِجَارَةِ اَوْ اَشَدُّ قَسْوَةً     ۭ} “फिर तुम्हारे दिल सख़्त हो गये इस सबके बाद, पस अब तो वह पत्थरों की मानिन्द हैं, बल्कि सख़्ती में उनसे भी शदीदतर हैं।” गोया इसी उम्मते मुस्लिमा का यह हाल भी हो सकता है कि उनके दिल इतने सख़्त हो जायें कि सख़्ती में पत्थरों और चट्टानों को मात दे जायें। हालाँकि यह वही उम्मत है जिसके बारे में फ़रमाया: { وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ   47؀} “बबीं तफ़ावते राह अज़ कजास्त ताबे कजा!” अलबत्ता यहाँ एक बात वाज़ेह रहे कि इस क़सावते क़ल्बी में पूरी उम्मत मुब्तला नहीं हुआ करती, बल्कि इस कैफ़ियत में उम्मत के क़ायदीन मुब्तला हो जाते हैं और उम्मते मुस्लिमा के क़ायदीन उसके उलमा होते हैं। चुनाँचे सबसे ज़्यादा शिद्दत के साथ यह खराबी उनमें दर आती है। इसलिये कि बाक़ी लोग तो पैरोकार हैं, उनके पीछे चलते हैं, उन पर ऐतमाद करते हैं कि यह अल्लाह की किताब के पढ़ने वाले और उसके जानने वाले हैं। लेकिन जो लोग जान-बूझ कर अल्लाह की किताब में तहरीफ़ कर रहे हों और जानते-बूझते हक़ को पहचान कर उसका इन्कार कर रहे हों उन्हें तो पता है कि हम क्या कर रहे हैं! दरहक़ीक़त यह सज़ा उन पर आती है। यह बात इन आयात में जो आज हम पढ़ने चले हैं, बहुत ज़्यादा वाजे़ह हो जायेगी (इन्शा अल्लाह)। फ़रमाया:

आयत 75

“तो क्या (ऐ मुस्लमानों!) तुम यह तवक़्क़ो रखते हो कि यह तुम्हारी बात मान लेंगे?” اَفَتَطْمَعُوْنَ اَنْ يُّؤْمِنُوْا لَكُمْ

आम मुस्लमानों को यह तवक़्क़ो थी कि यहूद दीने इस्लाम की मुखालफ़त नहीं करेंगे। इसलिये कि मुशरिकीने मक्का तो दीने तौहीद से बहुत दूर थे, रिसालत का उनके यहाँ कोई तसव्वुर ही नहीं था, कोई किताब उनके पास थी ही नहीं। जबकि यहूद तो अहले किताब थे, हामिलीने तौरात थे, मूसा (अलै०) के मानने वाले थे, तौहीद के अलम्बरदार थे और आख़िरत का भी इक़रार करते थे। चुनाँचे आम मुस्लमान का ख़्याल था कि उन्हें तो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और आप ﷺ की दावत को झटपट मान लेना चाहिये। तो मुस्लमानों के दिलों में यहूद के बारे में जो हुस्ने ज़न था, यहाँ उसका पर्दा चाक किया जा रहा है और मुस्लमानों को इसकी हक़ीक़त से आगाह किया जा रहा है कि मुस्लमानों! तुम्हें बड़ी तम्आ (लालच) है, तुम्हारी यह ख़्वाहिश है, आरज़ू है, तमन्ना है, तुम्हें तवक़्क़ो है कि यह तुम्हारी बात मान लेंगे।

“जबकि हाल यह है कि इनमें एक गिरोह वह भी था कि जो अल्लाह का कलाम सुनता था और फिर खूब समझबूझ कर दानिस्ता उसमें तहरीफ़ करता था।” وَقَدْ كَانَ فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ يَسْمَعُوْنَ كَلٰمَ اللّٰهِ ثُمَّ يُحَرِّفُوْنَهٗ مِنْۢ بَعْدِ مَا عَقَلُوْهُ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ  75؀

ज़ाहिर बात है वह गिरोह उनके उलमा ही का था। आम आदमी तो अल्लाह की किताब में तहरीफ़ नहीं कर सकता।

अब अगली आयत में बड़ी अजीब बात सामने आ रही है। जिस तरह मुस्लमानों के दरम्यिान मुनाफ़िक़ीन मौजूद थे उसी तरह यहूद में भी मुनाफ़िक़ीन थे। यहूद में से कुछ लोग ऐसे थे कि जब उन पर हक़ मुनकशिफ़ हो गया तो अब वह इस्लाम की तरफ आना चाहते थे। लेकिन उनके लिये अपने ख़ानदान को, घर-बार को, अपने कारोबार को और अपने क़बीले को छोड़ना भी मुमकिन नहीं था, जबकि क़बीलों की सरदारी उनके उलमा के पास थी। ऐसे लोगों के दिल कुछ-कुछ अहले ईमान के क़रीब आ चुके थे। ऐसे लोग जब अहले ईमान से मिलते थे तो कभी-कभी वह बातें भी बता जाते थे जो उन्होंने उलमाये यहूद से नबी आख़िरुज़्ज़मान ﷺ और उनकी तालीमात के बारे में सुन रखी थीं कि तौरात उनकी गवाही देती है। इसके बाद जब वह अपने “श्यातीन” यानि उलमा के पास जाते थे तो वह उन्हें डाँट-डपट करते थे कि बेवकूफों! यह क्या कर रहे हो? तुम उन्हें यह बातें बता रहे हो ताकि अल्लाह के यहाँ जाकर वह तुम पर हुज्जत क़ायम करें कि उन्हें पता था और फिर भी उन्होंने नहीं माना!

आयत 76

“और (उनमें से कुछ लोग हैं कि) जब मिलते हैं अहले ईमान से तो कहते हैं कि हम ईमान ले आये।” وَاِذَا لَقُوا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا قَالُوْٓا اٰمَنَّا       ښ
“और जब वह ख़लवत (अकेले) में होते हैं एक-दूसरे के साथ” وَاِذَا خَلَا بَعْضُھُمْ اِلٰى بَعْضٍ
“तो कहते हैं क्या तुम बता रहे हो उनको वह बातें जो अल्लाह ने खोली हैं तुम पर?” قَالُوْٓا اَتُحَدِّثُوْنَھُمْ بِمَا فَتَحَ اللّٰهُ عَلَيْكُمْ
“ताकि वह उनके ज़रिये तुम पर हुज्जत क़ायम करे तुम्हारे रब के पास!” لِيُحَاۗجُّوْكُمْ بِهٖ عِنْدَ رَبِّكُمْ   ۭ
“क्या तुम्हें अक़्ल नहीं है?” اَفَلَاتَعْقِلُوْنَ   76؀

तुम ज़रा अक़्ल से काम लो और यह हक़ीक़तें जो तौरात के ज़रिये से हमें मालूम हैं, मुस्लमानों को मत बताओ। क्या तुम्हें अक़्ल नहीं है कि ऐसा बेवकूफ़ी का काम कर रहे हो?

उनके इस मकालमे पर अल्लाह तआला का तबसिरा यह है:

आयत 77

“और क्या यह जानते नही हैं कि अल्लाह को तो मालूम है वह सब कुछ भी जो वह छुपाते हैं और वह सब कुछ भी जिसे वह ज़ाहिर करते हैं।“” اَوَلَا يَعْلَمُوْنَ اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا يُسِرُّوْنَ وَمَا يُعْلِنُوْنَ   77؀

तुम चाहे यह बातें मुस्लमानों को बताओ या ना बताओ, अल्लाह की तरफ़ से तो तुम्हार मुहासबा होकर रहना है। लिहाज़ा यह भी उनकी नासमझी की दलील है।

आयत 78

“और उनमें बाज़ अनपढ़ हैं”وَمِنْھُمْ اُمِّيُّوْنَ

“اُمّي” का लफ्ज़ क़ुरान मजीद में असलन तो मुशरिकीने अरब के लिये आता है। इसलिये कि उनके अन्दर पढ़ने-लिखने का रिवाज ही नहीं था। कोई आसमानी किताब भी उनके पास नहीं थी। लेकिन यहाँ यहूद के बारे में कहा जा रहा है कि उनमें से भी एक तबक़ा अनपढ़ लोगों पर मुश्तमिल है। जैसे आज मुस्लमानों का हाल है कि अक्सर व बेशतर जाहिल हैं, उनमें से बाज़ अगरचे पी.एच.डी. होंगे, लेकिन उन्हें क़ुरान की “ا، ب، ت” नहीं आती, दीन के “मबादी” (आधार) तक से नावाक़िफ़ हैं। चुनाँचे आज पढ़े-लिखे मुस्लमानों की भी अज़ीम अक्सरियत “पढे़-लिखे जाहिलों” पर मुश्तमिल है। जबकि हमारी अक्सरियत वैसे ही बगैर पढ़ी-लिखी है। तो अब उन्हें दीन का क्या पता? वो तो सारा ऐतमाद करेंगे उलमा पर! कोई बरेलवी है तो बरेलवी उलमा पर ऐतमाद करेगा, कोई देवबन्दी है तो देवबन्दी उलमा पर ऐतमाद करेगा, कोई अहले हदीस है तो अहले हदीस उलमा पर ऐतमाद करेगा। अब उम्मियों का सहारा क्या होता है?

“वह किताब का इल्म नहीं रखते, सिवाय बे बुनियाद आरज़ुओं के”لَا يَعْلَمُوْنَ الْكِتٰبَ اِلَّآ اَمَانِىَّ

ऐसे लोग किताब से तो वाक़िफ़ नहीं होते, बस अपनी कुछ ख़्वाहिशात और आरज़ुओं पर तकिया किये हुए होते हैं। उन ख़्वाहिशात का ज़िक्र आगे आ जायेगा। यहूद को यह ज़अम (घमण्ड) था कि हम तो इसराइली हैं, हम अल्लाह के महबूब हैं और उसके बेटों की मानिन्द चहेते हैं, हमारी तो शफ़ाअत हो ही जायेगी। हमें तो जहन्नम में दाखिल किया भी गया तो थोड़े से अरसे के लिये किया जायेगा, फिर हमें निकाल लिया जायेगा। यह उनकी “اَمَانِيّ” हैं। “اُمْنِيَّةٌ” कहते हैं बे बुनियाद ख़्वाहिश को, اَمَانِيّ इसकी जमा (plural) है। इसकी सही ताबीर के लिये अंग्रेज़ी का लफ्ज़ wishful thinkings है। यह अपनी उन बे बुनियाद ख़्वाहिशात और झूठी आरज़ुओं के सहारे जी रहे हैं, किताब का इल्म इनके पास है ही नहीं।

“और वह कुछ नहीं कर रहे मगर ज़न्न (संदेह) व तख़्मीन (अनुमान) पर चले जा रहे हैं।”وَاِنْ ھُمْ اِلَّا يَظُنُّوْنَ  78؀

उनके पास महज़ वहम व गुमान और उनके अपने मनघड़त ख़्यालात हैं।

आयत 79

“पस हलाकत और बरबादी है उनके लिये जो किताब लिखते हैं अपने हाथ से।”فَوَيْلٌ لِّلَّذِيْنَ يَكْتُبُوْنَ الْكِتٰبَ بِاَيْدِيْهِمْ   ۤ

“وَيْل” के बारे में बाज़ रिवायात में आता है कि यह जहन्नम का वह तबक़ा है जिससे खुद जहन्नम पनाह माँगती है।

“फिर कहते हैं यह अल्लाह की तरफ़ से है”ثُمَّ يَقُوْلُوْنَ ھٰذَا مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ
“ताकि हासिल कर लें उसके बदले हक़ीर सी क़ीमत।”لِيَشْتَرُوْا بِهٖ ثَــمَنًا قَلِيْلًا     ۭ

यानि लोग उलमाये यहूद से शरई मसाइल दरयाफ्त करते तो वह अपने पास से मसले गढ़ कर फ़तवा लिख देते और लोगों को बावरकराते (यक़ीन दिलाते) कि यह अल्लाह की तरफ़ से है, यही दीन का तक़ाज़ा है। अब इस फतवा नवेसी में कितनी कुछ वाक़िअतन उन्होंने सही बात कही, कितनी हठधर्मी से काम लिया और किस क़दर किसी रिश्वत पर मबनी कोई राय दी, अल्लाह के हुज़ूर सब दूध का दूध और पानी का पानी अलग हो जायेगा। अल्लामा इक़बाल ने उलमाये सू का नक़्शा इन अल्फ़ाज़ में खींचा है:

खुद बदलते नहीं क़ुरान को बदल देते हैं

हुए किस दर्जा फ़क़ीहाने हरम बे तौफीक़!

उलमाये यहूद का किरदार इसी तरह का था।

“तो हलाकत और बरबादी है उनके लिये उस चीज़ से कि जो उनके हाथों ने लिखी”فَوَيْلٌ لَّھُمْ مِّمَّا كَتَبَتْ اَيْدِيْهِمْ
“और उनके लिये हलाकत और बरबादी है उस कमाई से जो वह कर रहे हैं।”وَوَيْلٌ لَّھُمْ مِّمَّا يَكْسِبُوْنَ   79؀

यह फतवा फ़रोशी और दीन फ़रोशी का जो सारा धन्धा है इससे वह अपने लिये तबाही और बर्बादी मोल ले रहे हैं, इससे उनको अल्लाह तआला के यहाँ कोई अज्रो सवाब नहीं मिलेगा। अब आगे उनकी बाज़ “اَمَانِيّ” का तज़किरा है।

आयत 80

“और वह कहते हैं हमें तो आग हरगिज़ छू नहीं सकती, मगर गिनती के चन्द दिन।”وَقَالُوْا لَنْ تَمَسَّنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدَةً      ۭ

गोया सिर्फ़ दूसरों की आँखों में धूल झोंकने के लिये हमें चन्द दिन की सज़ा दे दी जायेगी कि कोई ऐतराज़ ना कर दे कि “ऐ अल्लाह! हमें आग में फेंका जा रहा है और इन्हें नहीं फेंका जा रहा, जबकि यह किरदार में हमसे भी बदतर थे।” चुनाँचे उनका मुँह बन्द करने के लिये शायद हमें चन्द दिन के लिये आग में डाल दिया जाये, फिर फौरन निकाल लिया जायेगा।

“इनसे कहिये क्या तुमने अल्लाह से कोई अहद ले लिया है?”قُلْ اَتَّخَذْتُمْ عِنْدَ اللّٰهِ عَهْدًا

क्या तुम्हारा अल्लाह से कोई क़ौल व क़रार हो गया है?

“कि अब (तुम्हें यह यक़ीन है कि) अल्लाह अपने अहद के ख़िलाफ़ नहीं करेगा?”فَلَنْ يُّخْلِفَ اللّٰهُ عَهْدَهٗٓ
“या तुम अल्लाह के ज़िम्मे वह बातें लगा रहे हो जिन्हें तुम नहीं जानते?”اَمْ تَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ 80۝

हक़ीक़त यही है कि तुम अल्लाह की तरफ़ उस बात की निस्बत कर रहे हो जिसके लिये तुम्हारे पास कोई इल्म नहीं है।

बनी इसराइल की फर्दे क़रारदारे जुर्म के दौरान गाहे-बगाहे जो अहम तरीन अब्दी हक़ाइक़ बयान हो रहे हैं, उनमें से एक अज़ीम हक़ीक़त अगली आयत में आ रही है। फ़रमाया:

आयत 81

“क्यों नहीं, जिस शख़्स ने जानबूझ कर एक गुनाह कमाया”بَلٰى مَنْ كَسَبَ سَيِّئَةً

लेकिन इससे मुराद कबीरा गुनाह है, सगीरा नहीं। سَيِّئَةً की तन्कीर “تفخیم” का फ़ायदा भी दे रही है।

“और उसका घेराव कर लिया उसके गुनाह ने”وَّاَحَاطَتْ بِهٖ خَطِيْۗــــَٔــتُهٗ

मसलन एक शख़्स सूदखोरी से बाज़ नहीं आ रहा, बाक़ी वह नमाज़ का भी पाबन्द है और तहज्जुद का भी इल्तज़ाम कर रहा है तो इस एक गुनाह की बुराई उसके गिर्द इस तरह छा जायेगी कि फिर उसकी यह सारी नेकियाँ ख़त्म होकर रह जायेंगी। हमारे मुफ़स्सिरीन ने लिखा है कि गुनाह के इहाता कर लेने से मुराद यह है कि गुनाह उस पर ऐसा ग़लबा कर ले कि कोई जानिब ऐसी ना हो कि गुनाह का ग़लबा ना हो, हत्ता कि दिल से ईमान व तस्दीक़ रुख़्सत हो जाये। उलमा के यहाँ यह उसूल माना जाता है कि   “اَلْمَعَاصِيْ بَرِيْدُ الْكُفْرٍ” यानि गुनाह तो कुफ़्र की डाक होते हैं। गुनाह पर मदावमत (दृढ़ता) का नतीजा बिलआखिर यह निकलता है कि दिल से ईमान रुख़्सत हो जाता है। एक शख्स अपने आप को मुस्लमान समझता है, लेकिन अन्दर से ईमान ख़त्म हो चुका होता है। जिस तरह किसी दरवाज़े की चौखट को दीमक चाट जाती है और ऊपर लकड़ी की एक बारीक परत (veneer) छोड़ जाती है।

“पस यही हैं आग वाले”فَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ   ۚ 
“वह उसी में हमेशा रहेंगे।”ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  81۝

आयत 82

“और (इसके बरअक्स) जो लोग ईमान लायें और नेक अमल करें”وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ

अब नेक अमल के बारे में हर शख्स ने अपना एक तसव्वुर और नज़रिया बना रखा है। जबकि नेक अमल से क़ुरान मजीद की मुराद दीन के सारे तक़ाज़ों को पूरा करना है। महज़ कोई खैराती इदारा या कोई यतीम खाना खोल देना या बेवाओं की फ़लाह व बहबूद (कल्याण) का इन्तेज़ाम कर देना और खुद सूदी लेन-देन और धोखा फ़रेब पर मब्नी कारोबार तर्क ना करना नेकी का मस्खशुदा तसव्वुर है। जबकि नेकी का जामेअ (व्यापक) तसव्वुर यह है कि अल्लाह तआला की तरफ़ से आयद करदा तमाम फ़राइज़ की बजाआवरी (कार्यान्वित) हो, दीन के तमाम तक़ाज़े पूरे किये जायें, अपने माल और जान के साथ अल्लाह के रास्ते में जिहाद और मुजाहदा किया जाये और उसके दीन को क़ायम और सरबुलन्द करने की जद्दो जहद की जाये।

“यही हैं जन्नत वाले”اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ الْجَنَّةِ    ۚ  
“वह उसी में हमेशा-हमेश रहेंगे।”ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  82؀ۧ

आयात 83 से 86 तक

وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ لَا تَعْبُدُوْنَ اِلَّا اللّٰهَ ۣوَبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا وَّذِي الْقُرْبٰى وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَقُوْلُوْا لِلنَّاسِ حُسْـنًا وَّاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ  ۭثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْكُمْ وَاَنْتُمْ مُّعْرِضُوْنَ 83؀ وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ لَا تَسْفِكُوْنَ دِمَاۗءَكُمْ وَلَا تُخْرِجُوْنَ اَنْفُسَكُمْ مِّنْ دِيَارِكُمْ ثُمَّ اَقْــرَرْتُمْ وَاَنْتُمْ تَشْهَدُوْنَ  84؀ ثُمَّ اَنْتُمْ ھٰٓؤُلَاۗءِ تَقْتُلُوْنَ اَنْفُسَكُمْ وَتُخْرِجُوْنَ فَرِيْـقًا مِّنْكُمْ مِّنْ دِيَارِھِمْ    ۡ تَظٰھَرُوْنَ عَلَيْهِمْ بِالْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ ۭوَاِنْ يَّاْتُوْكُمْ اُسٰرٰى تُفٰدُوْھُمْ وَھُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيْكُمْ اِخْرَاجُهُمْ ۭاَفَتُؤْمِنُوْنَ بِبَعْضِ الْكِتٰبِ وَتَكْفُرُوْنَ بِبَعْضٍ ۚ فَمَا جَزَاۗءُ مَنْ يَّفْعَلُ ذٰلِكَ مِنْكُمْ اِلَّا خِزْيٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ وَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يُرَدُّوْنَ اِلٰٓى اَشَدِّ الْعَذَابِ ۭ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ  85؀ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَةِ ۡ فَلَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ  86؀ۧ

आयत 83

“और याद करो जब हमने बनी इसराइल से अहद लिया था कि तुम नहीं इबादत करोगे किसी की सिवाय अल्लाह के।”وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ لَا تَعْبُدُوْنَ اِلَّا اللّٰهَ َۣ
“और वालिदैन के साथ नेक सुलूक करोगे”وَبِالْوَالِدَيْنِ اِحْسَانًا

अल्लाह के हक़ के फ़ौरन बाद वालिदैन के हक़ का ज़िक्र क़ुरान मजीद में चार मक़ामात पर आया है। उनमें से एक मक़ाम यह है।

“और क़राबतदारों के साथ भी (नेक सुलूक करोगे)”وَّذِي الْقُرْبٰى
“और यतीमों के साथ भी”وَالْيَتٰمٰى
“और मोहताजों के साथ भी”وَالْمَسٰكِيْنِ
“और लोगों से अच्छी बात कहो”وَقُوْلُوْا لِلنَّاسِ حُسْـنًا

अम्र बिलमारूफ़ करते रहो। नेकी की दावत देते रहो।

“और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात अदा करो।”وَّاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ  ۭ

यह बनी इसराइल से मुआहिदा (अनुबंध) हो रहा है।

“फिर तुम (इससे) फिर गये सिवाय तुम में से थोड़े से लोगों के”ثُمَّ تَوَلَّيْتُمْ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْكُمْ
“और तुम हो ही फिर जाने वाले।”وَاَنْتُمْ مُّعْرِضُوْنَ 83؀

तुम्हारी यह आदत गोया तबीयते सानिया है।

अल्लाह तआला ने उनसे इसके अलावा एक और अहद भी लिया था, जिसका ज़िक्र बाअल्फ़ाज़ किया जा रहा है:

आयत 84

“और जब हमने तुमसे यह अहद भी लिया था कि”وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ
“तुम अपना खून नहीं बहाओगे”لَا تَسْفِكُوْنَ دِمَاۗءَكُمْ

यानि आपस में जंग नहीं करोगे, बाहम खूँरेज़ी नहीं करोगे। तुम बनी इसराइल एक वाहदत बन कर रहोगे, तुम सब भाई-भाई बन कर रहोगे। जैसा कि क़ुरान मजीद में आया है: {اِنَّمَا الْمُؤْمِنُوْنَ اِخْوَةٌ } (अल हुजरात:10)

“और ना ही तुम निकालोगे अपने लोगों को उनके घरों से”وَلَا تُخْرِجُوْنَ اَنْفُسَكُمْ مِّنْ دِيَارِكُمْ
“फिर तुमने इसका इक़रार किया था मानते हुए।”ثُمَّ اَقْــرَرْتُمْ وَاَنْتُمْ تَشْهَدُوْنَ  84؀

यानि तुमने इस क़ौल व क़रार को पूरे शऊर के साथ माना था।

हज़रत मूसा और हज़रत हारून (अलै०) की वफ़ात के बाद बनी इसराइल ने हज़रत यूशा बिन नून की क़यादत में फ़लस्तीन को फ़तह करना शुरू किया। सबसे पहला शहर अरीहा (Jericko) फ़तह किया गया। उसके बाद जब सारा फ़लस्तीन फ़तह कर लिया तो उन्होंने एक मरकज़ी हुकूमत क़ायम नहीं की, बल्कि बारह क़बीलों ने अपनी-अपनी बारह हुकूमतें बना ली। इन हुकूमतों की बाहमी आवेज़िश (झगड़ों) के नतीजे में उनकी आपस में जंगें होती थीं और यह एक-दूसरे पर हमला करके वहाँ के लोगों को निकाल बाहर करते थे, उन्हें भागने पर मजबूर कर देते थे। लेकिन अगर उनमें से कुछ लोग फ़रार होकर किसी काफ़िर मुल्क में चले जाते और कुफ्फ़ार उन्हें गुलाम या क़ैदी बना लेते और यह इस हालत में उनके सामने लाये जाते तो फ़िदया देकर उन्हें छुड़ा लेते कि हमें हुक्म दिया गया है कि तुम्हारा इसराइली भाई अगर कभी असीर (क़ैदी) हो जाये तो उसको फ़िदया देकर छुड़ा लो। यह उनका जुज़्वी (आंशिक) इताअत का तर्जे़ अमल था कि एक हुक्म को तो माना नहीं और दूसरे पर अमल हो रहा है। असल हुक्म तो यह था कि आपस में खूँरेज़ी मत करो और अपने भाई-बन्दों को उनके घरों से मत निकालो। इस हुक्म की तो परवाह नहीं की और इसे तोड़ दिया, लेकिन इस वजह से जो इसराइली गुलाम बन गये या असीर हो गये अब उनको बड़े मुत्तक़ियाना अन्दाज़ में छुड़ा रहे हैं कि यह अल्लाह का हुक्म है, शरीअत का हुक्म है। यह है वह तज़ाद (विरोध) जो मुस्लमान उम्मतों के अन्दर पैदा हो जाता है।

आयत 85

“फिर तुम ही वह लोग हो कि अपने ही लोगों को क़त्ल भी करते हो”ثُمَّ اَنْتُمْ ھٰٓؤُلَاۗءِ تَقْتُلُوْنَ اَنْفُسَكُمْ
“और अपने ही लोगों में से कुछ को उनके घरों से निकाल देते हो”وَتُخْرِجُوْنَ فَرِيْـقًا مِّنْكُمْ مِّنْ دِيَارِھِمْ    ۡ
“उन पर चढ़ायी करते हो गुनाह और ज़ुल्म ज़्यादती के साथ।”تَظٰھَرُوْنَ عَلَيْهِمْ بِالْاِثْمِ وَالْعُدْوَانِ ۭ
“और अगर वह क़ैदी बन कर तुम्हारे पास आयें तो तुम फ़िदया देकर उन्हें छुड़ाते हो”وَاِنْ يَّاْتُوْكُمْ اُسٰرٰى تُفٰدُوْھُمْ
“हालाँकि उनका निकाल देना ही तुम पर हराम किया गया था।”وَھُوَ مُحَرَّمٌ عَلَيْكُمْ اِخْرَاجُهُمْ ۭ

अब देखिये इस वाक़िये से जो अख़्लाक़ी सबक (Moral Lesson) दिया जा रहा है वह अब्दी है। और जहाँ भी यह तर्जे़ अमल इख़्तियार किया जायेगा तावीले आम के ऐतबार से यह आयत उस पर मुन्तबिक़ (लागू) होगी।

“तो क्या तुम किताब के एक हिस्से को मानते हो और एक को नहीं मानते?”اَفَتُؤْمِنُوْنَ بِبَعْضِ الْكِتٰبِ وَتَكْفُرُوْنَ بِبَعْضٍ ۚ
“तो नहीं है कोई सज़ा इसकी जो यह हरकत करे तुममें से”فَمَا جَزَاۗءُ مَنْ يَّفْعَلُ ذٰلِكَ مِنْكُمْ
“सिवाय ज़िल्लत रुसवाई के दुनिया की ज़िन्दगी में।”اِلَّا خِزْيٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ
“और क़यामत के रोज़ वह लौटा दिये जायेंगे शदीद तरीन अज़ाब की तरफ़।”وَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يُرَدُّوْنَ اِلٰٓى اَشَدِّ الْعَذَابِ ۭ
“और अल्लाह तआला ग़ाफ़िल नहीं है उससे जो तुम कर रहे हो।”وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ  85؀

यह एक बहुत बड़ी आफ़ाक़ी सच्चाई (Universal Truth) बयान कर दी गयी है, जो आज उम्मते मुस्लिमा पर सद फ़ीसद मुन्तबिक़ हो रही है। आज हमारा तर्जे़ अमल भी यही है कि हम पूरे दीन पर चलने को तैयार नहीं हैं। हममें से हर गिरोह ने कोई एक शय अपने लिये हलाल कर ली है। मुलाज़मत पेशा तबक़ा रिश्वत को इस बुनियाद पर हलाल समझ बैठा है कि क्या करें, इसके बगैर गुज़ारा नहीं होता। कारोबारी तबक़े के नज़दीक सूद हलाल है कि इसके बगैर कारोबार नहीं चलता। यहाँ तक कि यह जो तवायफें “बाज़ारे हुस्न” सजा कर बैठी हैं वह भी कहती हैं कि क्या करें, हमारा यह धन्धा है, हम भी मेहनत करती हैं, मशक़्क़त करती हैं। उनके यहाँ भी नेकी का एक तसव्वुर मौजूद है। चुनाँचे मोहर्रम के दिनों में यह अपना धन्धा बन्द कर देती हैं, सियाह कपड़ें पहनती हैं और मातमी जुलूसों के साथ भी निकलती हैं। उनमें से बाज़ मजारों पर धमाल भी डालती हैं। उनके यहाँ इस तरह के काम नेकी शुमार होते हैं और जिस्म फ़रोशी को यह अपनी कारोबारी मजबूरी समझती हैं। चुनाँचे हमारे यहाँ हर तबके़ में नेकी और बदी का एक इम्तिज़ाज (संयोजन) है। जबकि अल्लाह तआला का मुतालबा कुल्ली इताअत का है, जुज़्वी इताअत उसके यहाँ क़ुबूल नहीं की जाती, बल्कि उल्टा मुँह पर दे मारी जाती है। आज उम्मते मुस्लिमा आलमी सतह पर जिस ज़िल्लत व रुसवाई का शिकार है उसकी वजह यही जुज़्वी इताअत है कि दीन के एक हिस्से को माना जाता है और एक हिस्से को पाँव तले रौन्द दिया जाता है। इस तर्ज़े अमल की पादाश में आज हम “ضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَ الْمَسْكَنَةُ” का मिस्दाक़ बन गये हैं और ज़िल्लत व मसकनत हम पर थोप दी गयी है। बाक़ी रह गया क़यामत का मामला तो वहाँ शदीद तरीन अज़ाब की वईद (चेतावनी) है। अपने तर्जे़ अमल से तो हम उसके मुस्तहिक़ हो गये हैं, ताहम अल्लाह तआला की रहमत दस्तगीरी (हिमायत) फ़रमा ले तो उसका इख़्तियार है। आयत के आख़िर में फ़रमाया:

“और अल्लाह ग़ाफ़िल नहीं है उससे जो तुम कर रहे हो।”وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ  85؀

सेठ साहब हर साल उमरह फ़रमा कर आ रहे हैं, लेकिन अल्लाह को मालूम है कि यह उमरे हलाल कमाई से किये जा रहे हैं या हराम से! वह तो समझते हैं कि हम नहा धोकर आ गये हैं और साल भर जो भी हराम कमायी की थी सब पाक हो गयी। लेकिन अल्लाह तआला तुम्हारी करतूतों से नावाक़िफ़ नहीं है। वह तुम्हारी दाढियों से, तुम्हारे अमामों से और तुम्हारी अबा और क़बा से धोखा नहीं खायेगा। वह तुम्हारे आमाल का अहतसाब (जवाबदेही) करके रहेगा।

आयत 86

“यह वो लोग हैं जिन्होंने दुनिया की ज़िन्दगी इख़्तियार कर ली है आख़िरत को छोड़ कर।”اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الْحَيٰوةَ الدُّنْيَا بِالْاٰخِرَةِ ۡ
“सो अब ना तो उनसे अज़ाब हल्का किया जायेगा और ना ही उनकी कोई मदद की जायेगी।”فَلَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ  86؀ۧ

आयात 87 से 96 तक

وَلَقَدْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ وَقَفَّيْنَا مِنْۢ بَعْدِهٖ بِالرُّسُلِ ۡ وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۭ اَفَكُلَّمَا جَاۗءَكُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَهْوٰٓى اَنْفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ ۚفَفَرِيْقًا كَذَّبْتُمْ ۡوَفَرِيْقًا تَقْتُلُوْنَ  87؀ وَقَالُوْا قُلُوْبُنَا غُلْفٌ ۭ بَلْ لَّعَنَهُمُ اللّٰهُ بِكُفْرِھِمْ فَقَلِيْلًا مَّا يُؤْمِنُوْنَ  88؀ وَلَمَّا جَاۗءَھُمْ كِتٰبٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَھُمْ ۙ وَكَانُوْا مِنْ قَبْلُ يَسْتَفْتِحُوْنَ عَلَي الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ښ فَلَمَّا جَاۗءَھُمْ مَّا عَرَفُوْا كَفَرُوْا بِهٖ ۡ فَلَعْنَةُ اللّٰهِ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ  89؀ بِئْسَمَا اشْتَرَوْا بِهٖٓ اَنْفُسَھُمْ اَنْ يَّكْفُرُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ بَغْيًا اَنْ يُّنَزِّلَ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ  ۚ فَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ عَلٰي غَضَبٍ ۭ وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ  90۝ وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ اٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ قَالُوْا نُؤْمِنُ بِمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا وَيَكْفُرُوْنَ بِمَا وَرَاۗءَهٗ ۤ وَھُوَ الْحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَھُمْ ۭ قُلْ فَلِمَ تَقْتُلُوْنَ اَنْۢبِيَاۗءَ اللّٰهِ مِنْ قَبْلُ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ   91۝ وَلَقَدْ جَاۗءَكُمْ مُّوْسٰى بِالْبَيِّنٰتِ ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِهٖ وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ  92۝ وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَ ۭخُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاسْمَعُوْا ۭ قَالُوْا سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا ۤ وَاُشْرِبُوْا فِيْ قُلُوْبِهِمُ الْعِجْلَ بِكُفْرِھِمْ ۭ قُلْ بِئْسَمَا يَاْمُرُكُمْ بِهٖٓ اِيْمَانُكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ   93؀ قُلْ اِنْ كَانَتْ لَكُمُ الدَّارُ الْاٰخِرَةُ عِنْدَ اللّٰهِ خَالِصَةً مِّنْ دُوْنِ النَّاسِ فَتَمَنَّوُا الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ   94؀ وَلَنْ يَّتَمَنَّوْهُ اَبَدًۢا بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ ۭ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِمِيْنَ  95۝ وَلَتَجِدَنَّھُمْ اَحْرَصَ النَّاسِ عَلٰي حَيٰوةٍ ڔ وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُــوْا ڔ يَوَدُّ اَحَدُھُمْ لَوْ يُعَمَّرُ اَلْفَ سَـنَةٍ ۚ وَمَا ھُوَ بِمُزَحْزِحِهٖ مِنَ الْعَذَابِ اَنْ يُّعَمَّرَ ۭ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ    96؀

आयत 87

“और हमने मूसा को किताब दी (यानि तौरात)”وَلَقَدْ اٰتَيْنَا مُوْسَى الْكِتٰبَ
“और उसके बाद पे दर पे रसूल भेजे।”وَقَفَّيْنَا مِنْۢ بَعْدِهٖ بِالرُّسُلِ ۡ

एक बात नोट कर लीजिये कि यहाँ लफ्ज़ “الرُّسُل” अम्बिया के मायने में आया है। नबी और रसूल में कुछ फ़र्क़ है, इसे इख्तिसार (संक्षिप्तता) के साथ समझ लीजिये। क़ुरान मजीद की इस्तलाहात के तीन जोड़े ऐसे हैं कि वह तीनों मुतरादिफ़ (बराबर) के तौर पर भी इस्तेमाल हो जाते हैं और अपना अलैहदा-अलैहदा मफ़हूम भी रखते हैं। इनके ज़िमन में उलमाये किराम ने यह उसूल वज़अ (तैयार) किया है कि “اِذَا اجْتَمَعَا تَفَرَّقَا وَ اِذَا تَفَرَّقَا اجْتَمَعَا” यानि जब (एक जोड़े के) दोनों लफ्ज़ इकट्ठे इस्तेमाल होंगे तो दोनों का मफ़हूम मुख़्तलिफ़ होगा, और जब यह दोनों अलग-अलग इस्तेमाल होंगे तो एक मायने में इस्तेमाल हो जायेंगे। इनमें से एक जोड़ा “इस्लाम” और “ईमान” या “मुस्लिम” और “मोमिन” का है। आम तौर पर मुस्लिम की जगह मोमिन और मोमिन की जगह मुस्लिम इस्तेमाल हो जाता है, लेकिन सूरतुल हुजरात में यह दोनों अल्फ़ाज़ इकट्ठे इस्तेमाल हुए हैं तो इनका फ़र्क़ वाजे़ह हो गया है। फ़रमाया: {قَالَتِ الْاَعْرَابُ اٰمَنَّا  ۭ قُلْ لَّمْ تُؤْمِنُوْا وَلٰكِنْ قُوْلُوْٓا اَسْلَمْنَا} (आयत:14) “बद्दू कहते हैं कि हम ईमान ले आये हैं। इनसे कहिये कि तुम हरगिज़ ईमान नहीं लाये हो, अलबत्ता यह कहो कि हमने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है….” इसी तरह “जिहाद” और “क़िताल” का मामला है। यह दो मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ हैं, जिनका मफ़हूम जुदा भी है लेकिन एक-दूसरे की जगह भी आ जाते हैं।

इस ज़िमन में तीसरा जोड़ा “नबी” और “रसूल” का है। यह दोनों लफ्ज़ भी अक्सर एक-दूसरे की जगह आ जाते हैं, लेकिन इनमें फ़र्क़ भी है। हर नबी रसूल नहीं होता, अलबत्ता हर रसूल लाज़िमन नबी होता है। यानि नबी आम है रसूल ख़ास है। नबी को जब किसी ख़ास क़ौम की तरफ़ मुअय्यन तौर पर भेज दिया जाता है तब उसकी हैसियत रसूल की हो जाती है। इससे पहले उसकी हैसियत इन्तहाई आला मरतबे पर फ़ाइज़ एक वली अल्लाह की है, जिस पर वही नाज़िल हो रही है। आम वली अल्लाह में और नबी में फ़र्क़ यही है कि नबी पर वही आती है, वली पर वही नहीं आती। लेकिन किसी नबी को जब किसी मुअय्यन क़ौम की तरफ मबऊस (नियुक्त) कर दिया जाता था तो फिर वह रसूल होता था। जैसे हज़रत मूसा और हज़रत हारून (अलै०) को हुक्म दिया गया: { اِذْهَبَآ اِلٰى فِرْعَوْنَ اِنَّهٗ طَغٰى 43؀ښ} (ताहा) “तुम दोनों फ़िरऔन की तरफ़ जाओ, यक़ीनन वह सरकशी पर उतर आया है।” इसी तरह दूसरे रसूलों के बारे में आया है कि वह अपनी-अपनी क़ौम की तरफ मबऊस फ़रमाये गये थे। मसलन { وَاِلٰي مَدْيَنَ اَخَاهُمْ شُعَيْبًا  ۭ} (अल आराफ़:85) “और मदयन की तरफ़ भेजा हमने उनके भाई शुऐब (अलै०) को।” यह फ़र्क़ है नबी और रसूल का। महज़ समझाने के लिये बतौर मिसाल अर्ज़ कर रहा हूँ कि जैसे आपके यहाँ खुसूसी तरबियत याफ्ता अफ़राद पर मुश्तमिल CSP Cadre है, उनमें से कोई डिप्टी कमिश्नर लगा दिया जाता है, किसी को जॉइंट सेक्रेट्री की ज़िम्मेदारी तफ़वीज़ की (सौंपी) जाती है, तो कोई बतौर O.S.D. ख़िदमात अन्जाम देता है, लेकिन उसका काड़र (CSP) बरक़रार रहता है। इसी ऐतबार से हर नबी हर हाल में नबी होता था, लेकिन उसे “रसूल” की हैसियत से एक इज़ाफ़ी ज़िम्मेदारी और इज़ाफ़ी मरतबा अता किया जाता था।

नबी और रसूल के फ़र्क़ के ज़िमन में एक बात यह नोट कर लीजिये कि नबियों को क़त्ल भी किया गया है, जबकि रसूल क़त्ल नहीं हो सकते। अल्लाह का फ़ैसला यह है कि { لَاَغْلِبَنَّ اَنَا وَرُسُلِيْ ۭ } (अल मुजादला:21) “लाज़िमन ग़ालिब रहेंगे मैं और मेरे रसूल।” चुनाँचे जब भी किसी क़ौम ने किसी रसूल (अलै०) की जान लेने की कोशिश की तो उस क़ौम को हलाक कर दिया गया और रसूल (अलै०) और उसके साथियों को बचा लिया गया। लेकिन यह मामला नबियों के साथ नहीं हुआ। हज़रत याहिया (अलै०) नबी थे, क़त्ल कर दिये गये, जबकि हज़रत ईसा (अलै०) रसूल थे, लिहाज़ा क़त्ल नहीं किये जा सकते थे, उनको ज़िन्दा आसमान पर उठा लिया गया, जो क़यामत से क़ब्ल दोबारा ज़मीन पर नुज़ूल फ़रमायेंगे। मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को अल्लाह के रास्ते में शहीद होने की शदीद तमन्ना थी। आप ﷺ ने अपनी इस तमन्ना और आरज़ू का इज़हार इन अल्फ़ाज़ में फ़रमाया है:

((وَالَّذِیْ نَفْسِیْ بِیَدِہٖ لَوَدِدْتُ اَنْ اُقَاتِلَ فِیْ سَبِیْلِ اللہِ فَاُقْتَلَ ثُمَّ اُحْیَا ثُمَّ اُقْتَلَ ثُمَّ اُحْیَا ثُمَّ اُقْتَلَ ثُمَّ اُحْیَا ثُمَّ اُقْتَلَ))(9)

“क़सम है उस ज़ात की जिसके क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है! मेरी बड़ी ख्वाहिश है कि मैं अल्लाह की राह में जंग करूँ तो उसमें क़त्ल कर दिया जाऊँ, फिर मैं ज़िन्दा किया जाऊँ, फिर क़त्ल किया जाऊँ, फिर मैं ज़िन्दा किया जाऊँ, फिर अल्लाह की राह में क़त्ल किया जाऊँ, फिर मैं ज़िन्दा किया जाऊँ, फिर अल्लाह की राह में क़त्ल किया जाऊँ!”

लेकिन अल्लाह तआला ने आप ﷺ की यह ख़्वाहिश पूरी नहीं की। इसलिये कि आप ﷺ अल्लाह के रसूल थे। आयत ज़ेरे मुताअला में नोट कीजिये कि अगरचे यहाँ लफ्ज़ रसूल आ गया है लेकिन यह नबी के मायने में आया है: {وَقَفَّيْنَا مِنْۢ بَعْدِهٖ بِالرُّسُلِ ۡ} “और हमने मूसा (अलै०) के बाद लगातार पैगम्बर भेजे।” हज़रत मूसा (अलै०) के बाद रसूल तो हज़रत ईसा (अलै०) ही हैं, दरमियान में जो पैगम्बर (Prophets) हैं यह सब अम्बिया हैं।

“और हमने ईसा इब्ने मरयम को बड़ी वाजे़ह निशानियाँ दीं”وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ

हिस्सी मौज्ज़ात (संवेदनात्मक चमत्कार) जिस क़दर हज़रत मसीह (अलै०) को दिये गये वैसे और किसी नबी को नहीं दिये गये। उनका तज़किरा आगे चल कर सूरह आले इमरान में आयेगा।

“और हमने मदद की उनकी रूहुल क़ुदुस के साथ।”وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۭ

हज़रत ईसा (अलै०) को हज़रत जिब्राईल (अलै०) की ख़ास ताइद (समर्थन) व नुसरत (मदद) हासिल थी। मौज्ज़ात का ज़हूर किसी नबी या रसूल की अपनी ताक़त से नहीं होता, इसी तरह करामत किसी वली अल्लाह के अपने इख़्तियार में नहीं होती, यह मामला अल्लाह की तरफ़ से होता है और इसका ज़हूर फ़रिश्तों के ज़रिये से होता है।

“फिर भला क्या जब भी आया तुम्हारे पास कोई रसूल वह चीज़ लेकर जो तुम्हारी ख्वाहिशाते नफ्स के ख़िलाफ़ थी तो तुमने तकब्बुर किया।”اَفَكُلَّمَا جَاۗءَكُمْ رَسُوْلٌۢ بِمَا لَا تَهْوٰٓى اَنْفُسُكُمُ اسْتَكْبَرْتُمْ ۚ

अम्बिया व रुसुल (अलै०) के साथ यहूद ने जो तर्जे़ अमल रवा (अपनाये) रखा, ख़ास तौर पर हज़रत ईसा (अलै०) के साथ जो कुछ किया, यहाँ उस पर तबसिरा (टिपण्णी) हो रहा है कि जब भी कभी तुम्हारे पास कोई रसूल तुम्हारी ख्वाहिशाते नफ्स के ख़िलाफ़ कोई चीज़ लेकर आया तो तुम्हारी रविश यही रही कि तुमने इस्तकबार किया और सरकशी की, वही इस्तकबार और सरकशी जिसके बाइस अज़ाज़ील इब्लीस बन गया था।

“फिर एक जमात को तुमने झुठलाया और एक जमात को क़त्ल कर दिया।”فَفَرِيْقًا كَذَّبْتُمْ ۡوَفَرِيْقًا تَقْتُلُوْنَ  87؀

अल्लाह के रसूल चूँकि क़त्ल नहीं हो सकते लिहाज़ा यहाँ नबियों का क़त्ल मुराद है। मज़ीद बरां एक राय यह भी दी गयी है कि यहाँ माज़ी का सीगा “قَتَلْتُمْ” नहीं आया, बल्कि फ़अल मुज़ारेअ “تَقْتُلُوْنَ” आया है और मुज़ारेअ के अन्दर फ़अल जारी रहने की खासियत होती है। गोया तुम उनको क़त्ल करने की कोशिश करते रहे, बाज़ रसूलों की तो जान के दर पे हो गये।

आयत 88

“और उन्होंने कहा कि हमारे दिल तो गिलाफ़ों में बन्द हैं।”وَقَالُوْا قُلُوْبُنَا غُلْفٌ ۭ

उनके इस जवाब को आयत 75 के साथ मिलाईये जो हम पढ़ आये हैं। वहाँ अल्फ़ाज़ आये हैं: {اَفَتَطْمَعُوْنَ اَنْ يُّؤْمِنُوْا لَكُمْ} “तो ऐ मुस्लमानों! तो क्या तुम यह तवक़्क़ो रखते हो कि यह तुम्हारी बात मान लेंगे?” बाज़ मुस्लमानों की इस ख़्वाहिश के जवाब में यहूद का यह क़ौल नक़ल हुआ है कि हमारे दिल तो गिलाफ़ों में महफ़ूज़ हैं, तुम्हारी बात हम पर असर नहीं कर सकती। इस तरह के अल्फ़ाज़ आपको आज भी सुनने को मिल जायेंगे कि हमारे दिल बड़े महफ़ूज़ हैं, बड़े मज़बूत और मुस्तहकम (स्थिर) हैं, तुम्हारी बात इनमें घर कर ही नहीं सकती।

“बल्कि (हक़ीक़त में तो) उन पर लानत हो चुकी है अल्लाह की तरफ़ से उनके कुफ़्र की वजह से”بَلْ لَّعَنَهُمُ اللّٰهُ بِكُفْرِھِمْ

यह उनके इस क़ौल पर तबसिरा है कि हमारे दिल महफ़ूज़ हैं और गिलाफ़ों में बन्द हैं।

“पस अब कम ही (होंगे उनमें से जो) ईमान लायेंगे।”فَقَلِيْلًا مَّا يُؤْمِنُوْنَ  88؀

आयत 89

“और जब आ गयी उनके पास एक किताब (यानि क़ुरान) अल्लाह के पास से” وَلَمَّا جَاۗءَھُمْ كِتٰبٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ
“जो उसकी तस्दीक़ करने वाली है जो उनके पास (पहले से मौजूद) है” مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَھُمْ ۙ

यह वज़ाहत क़ब्ल अज़ की जा चुकी है कि क़ुरान करीम एक तरफ़ तो तौरात और इन्जील की तस्दीक़ करता है और दूसरी तरफ़ वह तौरात और इन्जील की पेशनगोईयों का मिस्दाक़ बन कर आया है।

“और वह पहले से कुफ्फ़ार के मुक़ाबले में फ़तह की दुआयें माँगा करते थे।” وَكَانُوْا مِنْ قَبْلُ يَسْتَفْتِحُوْنَ عَلَي الَّذِيْنَ كَفَرُوْا ښ 

उनका हाल यह था कि वह इसकी आमद से पहले अल्लाह की आखरी किताब और आखरी नबी ﷺ के हवाले और वास्ते से अल्लाह तआला से काफ़िरों के ख़िलाफ़ फ़तह व नुसरत की दुआयें किया करते थे। यहूद के तीन क़बाइल बनू क़ैनक़ाअ, बनू नज़ीर और बनू क़ुरेज़ा मदीना में आकर आबाद हो गये थे। वहाँ औस और खज़रज के क़बाइल भी आबाद थे जो यमन से आये थे और असल अरब क़बाइल थे। फिर आस-पास के क़बाइल भी थे। वह सब उम्मिय्यीन में से थे, उनके पास ना कोई किताब थी, ना कोई शरीअत और ना वह किसी नबुवत से आगाह थे। उनकी जब आपस में लड़ाईयाँ होती थीं तो यहूदी चूँकि सरमायेदार होने की वजह से बुज़दिल थे लिहाज़ा हमेशा मार खाते थे। इस पर वह कहा करते थे कि अभी तो तुम हमें मार लेते हो, दबा लेते हो, नबी आखिरुज़्ज़मान (ﷺ) के आने का वक़्त आ चुका है जो नयी किताब लेकर आयेंगे। जब वह आयेंगे और हम उनके साथ होकर जब तुमसे जंग करेंगे तो तुम हमें शिकस्त नहीं दे सकोगे, हमें फ़तह पर फ़तह हासिल होगी। वह दुआ किया करते थे कि ऐ अल्लाह! उस नबी आखिरुज़्ज़मान का ज़हूर जल्दी हो ताकि उसके वास्ते से और उसके सदक़े हमें फ़तह मिल सके।

ख़ज़रज और औस के क़बाइल ने यहूद की यह दुआयें और उनकी ज़ुबान से नबी आखिरुज़्ज़मान ﷺ की आमद की पेशनगोईयाँ सुन रखी थीं। यही वजह है कि 11 नबवी के हज के मौके़ पर जब मदीना से जाने वाले ख़ज़रज के छ: अफ़राद को रसूल अल्लाह ﷺ ने अपनी दावत पेश की तो उन्होंने कन्खियों से एक-दूसरे को देखा कि मालूम होता है यह वही नबी (ﷺ) हैं जिनका यहूदी ज़िक्र करते हैं, तो इससे पहले कि यहूद इन पर ईमान लायें, तुम ईमान ले आओ! इस तरह वह इल्म जो बिलवास्ता (अप्रत्यक्ष) तौर पर उन तक पहुँचा था उनके लिये एक अज़ीम सरमाया और ज़रिया-ए-निजात बन गया। मगर वही यहूदी जो आने वाले नबी के इन्तेज़ार में घड़ियाँ गिन रहे थे, आप ﷺ की आमद पर अपने तास्सुब और तकब्बुर की वजह से आप ﷺ के सबसे बढ़ कर मुखालिफ़ बन गये।

“फिर जब उनके पास गयी वह चीज़ जिसे उन्होंने पहचान लिया तो वह उसके मुन्कर हो गये।” فَلَمَّا جَاۗءَھُمْ مَّا عَرَفُوْا كَفَرُوْا بِهٖ ۡ
“पस अल्लाह की लानत है उन मुन्करीन पर।” فَلَعْنَةُ اللّٰهِ عَلَي الْكٰفِرِيْنَ  89؀

आयत 90

“बहुत बुरी शय है जिसके एवज़ इन्होंने अपनी जानों को फ़रोख़्त कर दिया” بِئْسَمَا اشْتَرَوْا بِهٖٓ اَنْفُسَھُمْ

यानि दुनिया का हक़ीर सा फ़ायदा, यहाँ की हक़ीर सी मन्फ़अतें (लाभ), यहाँ की मसनदें (गद्दियाँ) और चौधराहटें उनके पाँव की ज़न्जीर बन गयी हैं और वह अपनी फ़लाह व सआदत और निजात की ख़ातिर इन हक़ीर सी चीज़ों की क़ुरबानी देने को तैयार नहीं हैं।

“कि वह इन्कार कर रहे हैं उस हिदायत का जो अल्लाह ने नाज़िल की है” اَنْ يَّكْفُرُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ
“सिर्फ़ इस ज़िद की बिना पर कि अल्लाह तआला नाज़िल फ़रमाता है अपने फ़ज़ल (वही व रिसालत) में से अपने बन्दों में से जिस पर चाहता है।” بَغْيًا اَنْ يُّنَزِّلَ اللّٰهُ مِنْ فَضْلِهٖ عَلٰي مَنْ يَّشَاۗءُ مِنْ عِبَادِهٖ  ۚ

यहूद इस उम्मीद में थे कि आखरी नबी भी इसराइली ही होगा, इसलिये कि चौदह सौ बरस तक नबुवत हमारे पास रही है, यह “फ़तरा” का ज़माना है, जिसे छ: सौ बरस गुज़र गये, अब आखरी नबी आने वाले हैं। उनको यह गुमान था कि वह नबी इसराइल ही में से होंगे। लेकिन हुआ यह कि अल्लाह तआला की यह रहमत और यह फ़ज़ल बनी इस्माईल पर हो गया। इस ज़िद्दम-ज़िद्दा कि वजह से यहूद अनाद (विरोध) और सरकशी पर उतर आये। इस “بَغْيًا” के लफ्ज़ को अच्छी तरह समझ लीजिये। दीन में जो इख्तलाफ़ होता है उसका असल सबब यही ज़िद्दम-ज़िद्दा वाला रवैय्या होता है, जिसे क़ुरान मजीद में “بَغْيًا” कहा गया है। यह लफ्ज़ क़ुरान में कईं बार आया है।

अहदे हाज़िर में इल्मे नफ्सियात (Psychology) में ऐडलर के मकतबा-ए-फिक्र (विचारधारा) को एक ख़ास मक़ाम हासिल है। उसका नुक़्ता-ए-नज़रिया यह है कि इन्सान के जिबिल्ली अफ़आल (instincts) और मोहर्रिकात (motives) में एक निहायत ताक़तवर मुहर्रिक ग़ालिब होने की तलब (urge to dominate) है। चुनाँचे किसी दूसरे की बात मानना नफ्से इन्सानी पर बहुत गिराँ (तकलीफ़ देह) गुज़रता है, वह चाहता है कि मेरी बात मानी जाये! “بَغْيًا” के मायने भी हद से बढ़ने और तजावुज़ करने के हैं। दूसरों पर ग़ालिब होने की ख्वाहिश में इन्सान अपनी हद से तजावुज़ कर जाता है। यही मामला यहूद का था कि उन्होंने दूसरों पर रौब गाँठने के लिये ज़िद्दम-ज़िद्दा की रविश इख़्तियार की, महज़ इस वजह से कि अल्लाह तआला ने बनी इस्माईल के एक शख्स मुहम्मदे अरबी ﷺ को अपने फ़ज़ल से नवाज़ दिया।

“तो वह लौटे ग़ज़ब पर ग़ज़ब लेकर।” فَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ عَلٰي غَضَبٍ ۭ

यानि वह अल्लाह तआला के ग़ज़ब बलाये ग़ज़ब के मुस्तहिक़ हो गये।

“और ऐसे काफ़िरों के लिये सख़्त ज़िल्लत आमेज़ (अपमानजनक) अज़ाब है।” وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ مُّهِيْنٌ  90۝

“مُهِيْنٌ” अहानत से बना है। उनकी इस रविश की वजह से उनके लिये अहानत आमेज़ अज़ाब मुक़रर्र है।

आयत 91

“और जब उनसे कहा जाता है ईमान लाओ उस पर जो अल्लाह ने नाज़िल फ़रमाया है” وَاِذَا قِيْلَ لَھُمْ اٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ
“तो कहते हैं हम ईमान रखते हैं उस पर जो हम पर नाज़िल हुआ” قَالُوْا نُؤْمِنُ بِمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا
“और वह कुफ़्र कर रहे हैं उसका जो उसके पीछे है।” وَيَكْفُرُوْنَ بِمَا وَرَاۗءَهٗ ۤ

चुनाँचे उन्होंने पहले इन्जील का कुफ़्र किया और हज़रत मसीह (अलै०) को नहीं माना, और अब उन्होंने मुहम्मद ﷺ का कुफ़्र किया है और क़ुरान को नहीं माना।

“हालाँकि वह हक़ है, तस्दीक़ करते हुए आया है उसकी जो उनके पास है।” وَھُوَ الْحَقُّ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَھُمْ ۭ
“(ऐ नबी ! इनसे) कहिये: तो फिर तुम क्यों क़त्ल करते रहे हो अल्लाह के नबियों को इससे पहले?” قُلْ فَلِمَ تَقْتُلُوْنَ اَنْۢبِيَاۗءَ اللّٰهِ مِنْ قَبْلُ
“अगर तुम वाक़िअतन ईमान रखने वाले हो!” اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ   91۝

अगर तुम ऐसे ही हक़परस्त हो और जो कुछ तुम पर नाज़िल किया गया है उस पर ईमान रखने वाले हो तो तुम उन पैगम्बरों को क्यों क़त्ल करते रहे हो जो खुद बनी इसराइल में पैदा हुए थे? तुमने ज़करिया (अलै०) को क्यों क़त्ल किया? याहिया (अलै०) को क्यों क़त्ल किया? ईसा (अलै०) के क़त्ल की प्लानिंग क्यों की? तुम्हारे तो हाथ नबियों के खून से आलूदह (दूषित) हैं और तुम दावेदार हो ईमान के!

आयत 92

“और चुके तुम्हारे पास मूसा (अलै०) सरीह (स्पष्ट) मौज्जजे़ और वाजे़ह तालिमात लेकर”وَلَقَدْ جَاۗءَكُمْ مُّوْسٰى بِالْبَيِّنٰتِ
“फिर तुमने उसकी गैरहाज़री में बछड़े को अपना मअबूद बना लिया”ثُمَّ اتَّخَذْتُمُ الْعِجْلَ مِنْۢ بَعْدِهٖ
“और तुम ज़ालिम हो।”وَاَنْتُمْ ظٰلِمُوْنَ  92۝

आयत 93

“और याद करो जबकि हमने तुमसे अहद लिया था और तुम्हारे ऊपर कोहे तूर को मौअल्लक़ कर (लटका) दिया था।”وَاِذْ اَخَذْنَا مِيْثَاقَكُمْ وَرَفَعْنَا فَوْقَكُمُ الطُّوْرَ ۭ
“पकड़ो इसको जो हमने तुमको दिया है मज़बूती के साथ और सुनो!”خُذُوْا مَآ اٰتَيْنٰكُمْ بِقُوَّةٍ وَّاسْمَعُوْا ۭ

हमने ताकीद की थी कि जो हिदायत हम दे रहे हैं उनकी सख्ती के साथ पाबन्दी करो और कान लगा कर सुनो।

“उन्होंने कहा हमने सुना और नाफ़रमानी की।”قَالُوْا سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا ۤ

यानि हमने सुन तो लिया है, मगर मानेंगे नहीं! क़ौमे यहूद की यह भी एक देरीना (कठिन) बीमारी थी कि ज़बान को ज़रा सा मरोड़ कर अल्फ़ाज़ को इस तरह बदल देते थे कि बात का मफ़हूम ही यकसर (मौलिक) बदल जाये। चुनाँचे “سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا” के बजाये “سَمِعْنَا وَعَصَيْنَا” कहते। हज़रत मूसा (अलै०) के साथ जो मुनाफ़िक़ीन थे उनका भी ही वतीरा (व्यवहार) था। उनकी जब सरज़निश (डांट) की जाती तो कहते थे कि हमने तो कहा था “سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا” आपकी अपनी समाअत में कोई खलल होगा।

“और पिला दी गयी उनके दिलों में बछड़े की मोहब्बत उनके इस कुफ़्र की पादाश में।”وَاُشْرِبُوْا فِيْ قُلُوْبِهِمُ الْعِجْلَ بِكُفْرِھِمْ ۭ
“कहिये: बहुत ही बुरी हैं यह बातें जिनका हुक्म दे रहा है तुम्हें तुम्हारा ईमान”قُلْ بِئْسَمَا يَاْمُرُكُمْ بِهٖٓ اِيْمَانُكُمْ
“अगर तुम मोमिन हो!”اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ   93؀

यह अजीब ईमान है जो तुम्हें ऐसी बुरी हरकात का हुक्म देता है। क्या ईमान के साथ ऐसी हरकतें मुमकिन होती हैं?

आगे फिर एक बहुत अहम आफ़ाक़ी सच्चाई (universal truth) का बयान हो रहा है, जिसको पढ़ते हुए खुद दरूं बीनी (introspection) की ज़रूरत है। यहूद को यह ज़अम (दावा) था कि हम तो अल्लाह के बड़े चहेते हैं, लाड़ले हैं, उसके बेटों की मानिन्द हैं, हम औलिया अल्लाह हैं, हम उसके पसन्दीदा और चुनिन्दा लोग हैं, लिहाज़ा आख़िरत का घर हमारे ही लिये है। चुनाँचे उनके सामने एक लिटमस टेस्ट (litmus test) रखा जा रहा है। वाजे़ह रहे कि यह टेस्ट मेरे और आपके लिये भी है।

आयत 94

“(ऐ नबी ! इनसे) कहिये: अगर तुम्हारे लिये आख़िरत का घर अल्लाह के पास खालिस कर दिया गया है दूसरे लोगों को छोड़ कर”قُلْ اِنْ كَانَتْ لَكُمُ الدَّارُ الْاٰخِرَةُ عِنْدَ اللّٰهِ خَالِصَةً مِّنْ دُوْنِ النَّاسِ

यानि तुम्हारे लिये जन्नत मख़सूस (reserve) हो चुकी है और तुम मरते ही जन्नत में पहुँचा दिये जाओगे।          

“तब तो तुम्हें मौत की तमन्ना करनी चाहिये अगर तुम (अपने इस ख्याल में) सच्चे हो।”فَتَمَنَّوُا الْمَوْتَ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ   94؀

अगर तुम्हें जन्नत में दाखिल होने का इतना ही यक़ीन है फिर तो दुनिया में रहना तुम पर गिरां होना चाहिये। यहाँ तो बहुत सी तकलीफ़ें हैं, यहाँ तो इन्सान को बड़ी मशक़्क़त और शदीद कौफ्फत (चालबाज़ी) उठानी पड़ जाती है। जिस शख्स को यह यक़ीन हो कि इस दुनिया के बाद आख़िरत की ज़िन्दगी है और वहाँ मेरा मक़ाम जन्नत में है तो उसे यह ज़िन्दगी असासा (asset) नहीं, ज़िम्मेदारी (liability) मालूम होनी चाहिये। उसे तो दुनिया क़ैदखाना नज़र आनी चाहिये, जैसे हदीस है कि नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया:    ((اَلدُّنْيَا سِجْنُ الْمُؤْمِنِ وَ جَنَّةُ الْكَافِرِ))(10) “दुनिया मोमिन के लिये क़ैदखाना और काफ़िर के लिये जन्नत है।” अगर किसी शख्स का आख़िरत पर ईमान है और अल्लाह के साथ उसका मामला खुलूस पर मब्नी है ना कि धोखेबाज़ी पर तो उसका कम से कम तक़ाज़ा यह है कि उसे दुनिया में ज़्यादा देर तक ज़िन्दा रहने की आरज़ू तो ना हो। इसका जायज़ा हर शख्स खुद लगा सकता है, अज़रुए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: { بَلِ الْاِنْسَانُ عَلٰي نَفْسِهٖ بَصِيْرَةٌ    14؀ۙ} (अल क़ियामा) “बल्कि आदमी अपने लिये आप दलील है।” हर इन्सान को खूब मालूम है कि मैं कहाँ खड़ा हूँ। आपका दिल आपको बता देगा कि आप अल्लाह के साथ धोखेबाज़ी कर रहे हैं या आपका मामला खुलूस व इख्लास पर मब्नी है। अगर वाक़िअतन खुलूस और इख्लास वाला मामला है तो फिर तो यह कैफ़ियत होनी चाहिये जिसका नक़्शा इस हदीसे नबवी में ﷺ में खींचा गया है:                  ((كُنْ فِي الدُّنْيَا كَاَنَّكَ غَرِيْبٌ اَوْ عَابِرُ سَبِيْلٍ))(11) “दुनिया में इस तरह रहो गोया तुम अजनबी हो या मुसाफ़िर हो।” फिर तो यह दुनिया बाग़ नहीं क़ैदखाना नज़र आनी चाहिये, जिसमें इन्सान मजबूरन रहता है। फिर ज़ावया-ए-निगाह (दृष्टिकोण) यह होना चाहिये कि अल्लाह ने मुझे यहाँ भेजा है, लिहाज़ा एक मुअय्यन मुद्दत के लिये यहाँ रहना है और जो-जो ज़िम्मेदारियाँ उसकी तरफ़ आयद की गयी हैं वह अदा करनी हैं। लेकिन अगर यहाँ रहने की ख्वाहिश दिल में मौजूद है तो फिर या तो आख़िरत पर ईमान नहीं या अपना मामला अल्लाह के साथ खुलूस व इख्लास पर मब्नी नहीं। यह गोया लिटमस टेस्ट है।

आयत 95

“और यह हरगिज़ आरज़ू नहीं करेंगे मौत की”وَلَنْ يَّتَمَنَّوْهُ اَبَدًۢا
“बसबब उन करतूतों के जो इनके हाथों ने आगे भेजे हुए हैं।”بِمَا قَدَّمَتْ اَيْدِيْهِمْ ۭ

हर शख्स को खुद मालूम है कि मैंने क्या कमाई की है, क्या आगे भेजा है।

“और अल्लाह इन ज़ालिमों से बखूबी वाक़िफ़ है।”وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِمِيْنَ  95۝

आयत 96

“और तुम इन्हें पाओगे तमाम इन्सानों से ज़्यादा हरीस इस (दुनिया की) ज़िन्दगी पर।”وَلَتَجِدَنَّھُمْ اَحْرَصَ النَّاسِ عَلٰي حَيٰوةٍ ڔ
“हत्ता कि मुशरिकों से भी ज़्यादा हरीस।”وَمِنَ الَّذِيْنَ اَشْرَكُــوْا ڔ

यह इस मामले में मुशरिकों से भी बढ़े हुए हैं। मुशरिकीन ने अहले ईमान के साथ मुक़ाबला किया तो खुल कर किया, मैदान में आकर डट कर किया, अपनी जानें अपने बातिल मअबूदों के लिये क़ुरबान कीं, जबकि यहूदियों में यह हिम्मत व जुर्रात क़तअन नहीं थी कि वह जान हथेली पर रख कर मैदान में आ सकें। इनके बारे में सूरतुल हश्र में अल्फ़ाज़ वारिद हुए हैं:                   { لَا يُقَاتِلُوْنَكُمْ جَمِيْعًا اِلَّا فِيْ قُرًى مُّحَصَّنَةٍ اَوْ مِنْ وَّرَاۗءِ جُدُرٍ ۭ } (आयत:14) “यह सब मिल कर भी तुमसे जंग ना कर सकेंगे मगर क़िला बन्द बस्तियों में या दीवारों की ओट से।” चुनाँचे यहूद कभी भी सामने आकर मुस्लमानों का मुक़ाबला नहीं कर सके। इसलिये कि उन्हें अपनी जानें बहुत अज़ीज़ थीं।

“इनमें से हर एक की यह ख्वाहिश है कि किसी तरह उसकी उम्र हज़ार बरस हो जाये।”يَوَدُّ اَحَدُھُمْ لَوْ يُعَمَّرُ اَلْفَ سَـنَةٍ ۚ
“हालाँकि नहीं है इसको बचाने वाला अज़ाब से इस क़दर जीना।”وَمَا ھُوَ بِمُزَحْزِحِهٖ مِنَ الْعَذَابِ اَنْ يُّعَمَّرَ ۭ

अगर इनको इनकी ख्वाहिश के मुताबिक़ तवील ज़िन्दगी दे भी दी जाये तो यह इन्हें अज़ाब से तो छुटकारा नहीं दिला सकेगी। आख़िरत तो बिलआखिर आनी है और इन्हें इनके करतूतों की सज़ा मिल कर रहनी है।

“और अल्लाह देख रहा है जो कुछ यह कर रहे हैं।”وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِمَا يَعْمَلُوْنَ    96؀

आयात 97 से 103 तक

قُلْ مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيْلَ فَاِنَّهٗ نَزَّلَهٗ عَلٰي قَلْبِكَ بِاِذْنِ اللّٰهِ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَھُدًى وَّبُشْرٰى لِلْمُؤْمِنِيْنَ   97؀ مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّلّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَرُسُلِهٖ وَجِبْرِيْلَ وَمِيْكٰىلَ فَاِنَّ اللّٰهَ عَدُوٌّ لِّلْكٰفِرِيْنَ   98؀ وَلَقَدْ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ اٰيٰتٍۢ بَيِّنٰتٍ ۚ وَمَا يَكْفُرُ بِهَآ اِلَّا الْفٰسِقُوْنَ   99۝ اَوَكُلَّمَا عٰھَدُوْا عَهْدًا نَّبَذَهٗ فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ ۭ بَلْ اَكْثَرُھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ  ١٠٠۝ وَلَمَّا جَاۗءَھُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَھُمْ نَبَذَ فَرِيْقٌ مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ ڎ كِتٰبَ اللّٰهِ وَرَاۗءَ ظُهُوْرِھِمْ كَاَنَّھُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ   ١٠١۝ۡ وَاتَّبَعُوْا مَا تَتْلُوا الشَّيٰطِيْنُ عَلٰي مُلْكِ سُلَيْمٰنَ ۚ وَمَا كَفَرَ سُلَيْمٰنُ وَلٰكِنَّ الشَّيٰطِيْنَ كَفَرُوْا يُعَلِّمُوْنَ النَّاسَ السِّحْرَ ۤوَمَآ اُنْزِلَ عَلَي الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ ھَارُوْتَ وَمَارُوْتَ ۭ وَمَا يُعَلِّمٰنِ مِنْ اَحَدٍ حَتّٰى يَقُوْلَآ اِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلَا تَكْفُرْ ۭ فَيَتَعَلَّمُوْنَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُوْنَ بِهٖ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهٖ ۭ وَمَا ھُمْ بِضَاۗرِّيْنَ بِهٖ مِنْ اَحَدٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ وَيَتَعَلَّمُوْنَ مَا يَضُرُّھُمْ وَلَا يَنْفَعُھُمْ ۭ وَلَقَدْ عَلِمُوْا لَمَنِ اشْتَرٰىھُ مَا لَهٗ فِي الْاٰخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ڜ وَلَبِئْسَ مَا شَرَوْا بِهٖٓ اَنْفُسَھُمْ ۭ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ  ١٠٢۝ وَلَوْ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا لَمَثُوْبَةٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ خَيْرٌ ۭ لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ   ١٠٣؀ۧ

जैसा कि क़ब्ल अज़ अर्ज़ किया जा चुका है, मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत यहूद के लिये बहुत बड़ी आज़माइश साबित हुई। उनका ख्याल था कि आख़री नबुवत का वक़्त क़रीब है और यह नबी भी हस्बे साबिक़ बनी इसराइल में से मबऊस होगा। लेकिन नबी अखिरुज़्ज़मान ﷺ की बेअसत बनी इस्माईल में से हो गयी। यहूद जिस अहसासे बरतरी का शिकार थे उसकी रू से वह बनी इस्माईल को हक़ीर समझते थे। उनका कहना था कि यह उम्मी लोग हैं, अनपढ़ हैं, इनके पास ना कोई किताब है ना शरीअत है और ना कोई क़ानून और ज़ाब्ता (नियम) है, लिहाज़ा अल्लाह तआला ने उनमें से एक शख्स को कैसे चुन लिया? उनका ख्याल था कि यह सब जिब्राईल की “शरारत” है कि वह वही लेकर मुहम्मदे अरबी (ﷺ) के पास चला गया। लिहाज़ा वह हज़रत जिब्राईल को अपना दुश्मन तसव्वुर करते थे और उन्हें गालियाँ देते थे।

यह बात शायद आपको बड़ी अजीब लगे कि अहले तशय्यो में से फ़िरक़ा “गराबिया” का अक़ीदा भी कुछ इसी तरह का था। हजरत मुजद्दिद अल्फे सानी शेख अहमद सरहन्दी (रहि०) ने अपने मकातीब में इस फ़िरक़े के बारे में लिखा है कि उनका अक़ीदा यह था कि हज़रत मुहम्मद ﷺ और हज़रत अली (रजि०) दोनों की अरवाह एक-दूसरे के बिल्कुल ऐसे मुशाबेह थीं जैसे एक गुर्राब (कव्वा) दूसरे गुर्राब के मुशाबेह होता है। चुनाँचे हज़रत जिब्राईल (अलै०) धोखा खा गये। अल्लाह ने तो वही भेजी थी हज़रत अली (रजि०) के पास, लेकिन वह ले गये हज़रत मुहम्मद ﷺ के पास। यहूद के यहाँ यह अक़ीदा मौजूद था कि अल्लाह ने तो जिब्राईल (अलै०) को बनी इसराइल में से किसी के पास भेजा था, लेकिन वह मुहम्मद (ﷺ) के पास चले गये, और यही मफ़रूज़ा (कल्पना) उनकी हज़रत जिब्राईल (अलै०) से दुश्मनी की बुनियाद था। रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया था:

لَیَاْتِیَنَّ عَلٰی اُمَّتِیْ مَا اَتٰی عَلٰی بَنِیْ اِسْرَاءِیْلَ حَذْوَ النَّعْلِ بِا لنَّعْلِ

“मेरी उम्मत पर भी वह तमाम अहवाल (अफ़साने) लाज़िमन वारिद होकर रहेंगे जो बनी इसराइल पर वारिद हुए थे, जैसे एक जूता दूसरे जूते के मुशाबेह होता है।” (12)

चुनाँचे उम्मते मुस्लिमा में से किसी फ़िरक़े का इस तरह के अक़ाइद अपना लेना कुछ बईद नहीं है। इससे इस हदीस की हक़ीक़त मुन्कशिफ़ होती है।

आयत 97

“(ऐ नबी !) कह दीजिये जो कोई भी दुश्मन हो जिब्राईल (अलै०) का”قُلْ مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّجِبْرِيْلَ
“तो (वह यह जान ले कि) उसने तो नाज़िल किया है इस क़ुरान को आप  के दिल पर अल्लाह के हुक्म से”فَاِنَّهٗ نَزَّلَهٗ عَلٰي قَلْبِكَ بِاِذْنِ اللّٰهِ

इस मामले में जिब्राईल (अलै०) को तो कुछ इख़्तियार हासिल नहीं। फ़रिश्ते जो कुछ करते हैं अल्लाह के हुक्म से करते हैं, अपने इख़्तियार से कुछ नहीं करते।

“यह तस्दीक़ करते हुए आया है उस कलाम की जो इसके सामने मौजूद है”مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ
“और हिदायत और बशारत है अहले ईमान के लिये।”وَھُدًى وَّبُشْرٰى لِلْمُؤْمِنِيْنَ   97؀

इसके बाद अब फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह, उसके रसूल ﷺ और उसके मलाइका सब एक हयातयाती वहादत (organic whole) की हैसियत रखते हैं, यह एक जमाअत हैं, इनमें कोई इख्तिलाफ़ या इफ़तराक़ (विभाजन) नहीं हो सकता। अगर कोई जिब्राईल (अलै०) का दुश्मन है तो वह अल्लाह का दुश्मन है, और अगर कोई अल्लाह के सच्चे रसूल ﷺ का दुश्मन है तो वह अल्लाह का भी दुश्मन है और जिब्राईल (अलै०) का भी दुश्मन है।

आयत 98

“(तो कान खोल कर सुन लो) जो कोई भी दुश्मन है अल्लाह का और उसके फ़रिश्तों का और उसके रसूलों का और जिब्राईल और मीकाईल का तो (अल्लाह तआला की तरफ़ से भी ऐलान है कि) अल्लाह ऐसे काफ़िरों का दुश्मन है।”مَنْ كَانَ عَدُوًّا لِّلّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَرُسُلِهٖ وَجِبْرِيْلَ وَمِيْكٰىلَ فَاِنَّ اللّٰهَ عَدُوٌّ لِّلْكٰفِرِيْنَ   98؀

आयत 99

“और (ऐ नबी ) हमने आप की तरफ़ नाज़िल कर दी हैं रोशन आयात।”وَلَقَدْ اَنْزَلْنَآ اِلَيْكَ اٰيٰتٍۢ بَيِّنٰتٍ ۚ 
“और इन्कार नहीं करते इनका मगर वही जो सरकश हैं।”وَمَا يَكْفُرُ بِهَآ اِلَّا الْفٰسِقُوْنَ   99۝

याद कीजिये सूरतुल बक़रह के तीसरे रुकूअ में यह अल्फ़ाज़ आये थे:         {وَمَا يُضِلُّ بِهٖٓ اِلَّا الْفٰسِقِيْنَ   26؀ۙ} “और वह गुमराह नहीं करता इसके ज़रिये से मगर फ़ासिक़ों को।”

आयत 100

“तो क्या (हमेशा ऐसा ही नहीं होता रहा है कि) जब कभी भी इन्होंने कोई अहद किया”اَوَكُلَّمَا عٰھَدُوْا عَهْدًا

अल्लाह से कोई मीसाक़ किया या अल्लाह के रसूलों से कोई अहद किया।

“इनमें से एक गिरोह ने उसे उठा कर फेंक दिया।”نَّبَذَهٗ فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ ۭ
“बल्कि इनमें से अक्सर ऐसे हैं जो यक़ीन नहीं रखते।”بَلْ اَكْثَرُھُمْ لَا يُؤْمِنُوْنَ  ١٠٠۝

इनकी अक्सरियत ईमान व यक़ीन की दौलत से तही दामन (नष्ट) है।

यही हाल आज उम्मते मुस्लिमा का है कि मुस्लमान तो सब हैं, लेकिन ईमाने हक़ीक़ी, ईमाने क़ल्बी यानि यक़ीन वाला ईमान कितने लोगों को हासिल है? “ढू़ँढ़ अब उनको चिरागे रुख़ ज़ेबा लेकर!”

आयत 101

“और जब आया उनके पास अल्लाह की तरफ़ से एक रसूल (यानि मुहम्मद )” وَلَمَّا جَاۗءَھُمْ رَسُوْلٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ
“तस्दीक़ करने वाला उस किताब की जो उनके पास मौजूद है” مُصَدِّقٌ لِّمَا مَعَھُمْ
“तो अहले किताब में से एक जमात ने अल्लाह की किताब को पीठों के पीछे फेंक दिया” نَبَذَ فَرِيْقٌ مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ ڎ كِتٰبَ اللّٰهِ وَرَاۗءَ ظُهُوْرِھِمْ
“गोया कि वह जानते ही नहीं।” كَاَنَّھُمْ لَا يَعْلَمُوْنَ   ١٠١۝ۡ

उलमाये यहूद ने नबी आखिरुज़्ज़मान ﷺ की आमद की पेशनगोईयाँ छुपाने की खातिर खुद तौरात को पसे-पुश्त डाल दिया और बिल्कुल अन्जाने से होकर रह गये। उनके अवाम पूछते होंगे कि क्या यह वही नबी है जिनका ज़िक्र तुम किया करते थे? लेकिन यह जवाब में कहते कि यक़ीन से नहीं कह सकते, अभी तेल देखो तेल की धार देखो! उन्होंने ऐसा रवैय्या अपना लिया जैसे उन्हें कुछ इल्म नहीं है।

अब एक और हक़ीक़त नोट कीजिये। जब किसी मुस्लमान उम्मत में दीन की असल हक़ीक़त और असल तालीमात से बाअदु (फ़ासला) पैदा होता है तो लोगों का रुझान जादू, टोने, टोटके, तावीज़ और अम्लियात वगैरह की तरफ़ हो जाता है। अल्लाह की किताब तो हिदायत का सरचश्मा बन कर उतरी थी, लेकिन यह उसको अपनी दुनयवी ख्वाहिशात की तकमील का ज़रिया बनाते हैं। चुनाँचे दुश्मन को ज़ेर करने और महबूब को क़दमों में गिराने के लिये “अम्लियाते क़ुरानी” का सहारा लिया जाता है। यह धन्धे हमारे यहाँ भी खूब चल रहे हैं और शायद सबसे ज़्यादा मुनफ़अत बख्श कारोबार यही है, जिसमें ना तो कोई मेहनत करने की ज़रूरत है और ना ही किसी सरमायाकारी की। बनी इसराइल का भी यही हाल था कि वह दीन की असल हक़ीक़त को छोड़ कर जादू के पीछे चल पड़े थे। फ़रमाया:

आयत 102

“उन्होंने पैरवी की उस इल्म की जो श्यातीन पढ़ा करते थे सुलेमान (अलै०) की बादशाहत के वक़्त” وَاتَّبَعُوْا مَا تَتْلُوا الشَّيٰطِيْنُ عَلٰي مُلْكِ سُلَيْمٰنَ ۚ

अल्लाह तआला ने जिन्नात को हज़रत सुलेमान (अलै०) के ताबेअ कर दिया था। उस वक़्त चूँकि उनका इन्सानों के साथ ज़्यादा मेल-जोल रहता था, लिहाज़ा यह इन्सानों को जादू वगैरह सिखाते रहते थे।

“और सुलेमान (अलै०) ने कभी कुफ़्र नहीं किया, बल्कि यह तो श्यातीन थे जो कुफ़्र करते थे” وَمَا كَفَرَ سُلَيْمٰنُ وَلٰكِنَّ الشَّيٰطِيْنَ كَفَرُوْا
“वह लोगों को जादू सिखाते थे।” يُعَلِّمُوْنَ النَّاسَ السِّحْرَ ۤ

जादू कुफ़्र है, लेकिन आपको आज भी “नक़्शे सुलेमानी” की इस्तलाह सुनने को मिलेगी। इस तरह बाज़ मुस्लमान भी इन चीज़ों को हज़रत सुलेमान (अलै०) की तरफ़ मन्सूब कर रहे हैं और वह ज़ुल्म अब भी जारी है।

“और (वह उस इल्म के पीछे पड़े) जो नाज़िल किया गया दो फ़रिश्तों हारूत और मारूत पर बाबुल में।” وَمَآ اُنْزِلَ عَلَي الْمَلَكَيْنِ بِبَابِلَ ھَارُوْتَ وَمَارُوْتَ ۭ

बाबुल (Babylonia) ईराक़ का पुराना नाम था। येरूशलम पर हमला करने वाला बख्तनसर (Nebuchadnezar) भी यहीं का बादशाह था और नमरूद भी बाबुल ही का बादशाह था। नमरूद ईराक़ के बादशाहों का लक़ब होता था, जिसकी जमा “نماردة” है। हज़रत सुलेमान (अलै०) के दौरे हुकूमत में जिन्नात और इन्सानों का बाहम मेल-जोल होने की वजह से जिन्नात लोगों को जादूगरी की तालीम देते थे। अल्लाह तआला ने लोगों की आखरी आज़माइश के लिये दो फ़रिश्तों को ज़मीन पर उतारा जो इन्सानी शक्ल व सूरत में लोगों को जादू सिखाते थे। वह खुद ही यह वाज़ेह कर देते थे कि देखो जादू कुफ़्र है, हमसे ना सीखो। लेकिन इसके बावजूद लोग सीखते थे। गोया उन पर इत्मामे हुज्जत हो गया कि अब उनके अन्दर खबासत पूरे तरीक़े से घर कर चुकी है।

“और वह नहीं सिखाते थे किसी को भी” وَمَا يُعَلِّمٰنِ مِنْ اَحَدٍ
“यहाँ तक कि वह कह देते थे कि देखो हम तो आज़माइश के लिये भेजे गये हैं, पस तुम कुफ़्र मत करो।” حَتّٰى يَقُوْلَآ اِنَّمَا نَحْنُ فِتْنَةٌ فَلَا تَكْفُرْ ۭ
“फिर वह सीखते थे उन दोनों से वह शय जिनके ज़रिये से आदमी और उसकी बीवी के दरमियान जुदाई डालते थे।” فَيَتَعَلَّمُوْنَ مِنْهُمَا مَا يُفَرِّقُوْنَ بِهٖ بَيْنَ الْمَرْءِ وَزَوْجِهٖ ۭ 

शौहर और बीवी के दरमियान जुदाई ड़ालना और लोगों के घरों में फ़साद ड़ालना, इस तरह के काम अब भी बाज़ औरतें बड़ी सरगर्मी से सरअन्जाम देती हैं। इस मक़सद के लिये तावीज़, गन्डे़, धागे और ना जाने क्या कुछ ज़राये (साधन) इख़्तियार किये जाते हैं।

“और नहीं थे वह ज़र्र (चोट) पहुँचाने वाले इसके ज़रिये किसी को भी अल्लाह के इज़्न (आज्ञा) के बगैर।” وَمَا ھُمْ بِضَاۗرِّيْنَ بِهٖ مِنْ اَحَدٍ اِلَّا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ

ईमान का तक़ाज़ा यह है कि बन्दा-ए-मोमिन को यह यक़ीन हो कि अल्लाह के इज़्न के बगैर ना कोई चीज़ फ़ायदा पहुँचा सकती है और ना ही नुक़सान। चाहे कोई दवा हो वह भी बिइज़्ने रब काम करेगी वरना नहीं। जो कोई भी असबाबे तबीआ (फिज़ियोथेरेपी) हैं उनके असरात तभी ज़ाहिर होंगे अगर अल्लाह चाहेगा, इसके बगैर कुछ नहीं हो सकता। जादू का असर भी अगर होगा तो अल्लाह के इज़्न से होगा। चुनाँचे बन्दा-ए-मोमिन को अल्लाह के भरोसे पर ड़ते रहना चाहिये और मसाईब (मुसीबतों) व मुश्किलात का मुक़ाबला करना चाहिये।

“और वे सीखते थे वह चीज़ें जो खुद उनको भी ज़र्र पहुँचाने वाली थीं और उन्हें नफ़ा नहीं पहुँचाती थीं।” وَيَتَعَلَّمُوْنَ مَا يَضُرُّھُمْ وَلَا يَنْفَعُھُمْ ۭ 
“हालाँकि वह खूब जान चुके थे कि जो भी इस चीज़ का खरीदार बना (यानि जादू सीखा) उसके लिये आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है।” وَلَقَدْ عَلِمُوْا لَمَنِ اشْتَرٰىھُ مَا لَهٗ فِي الْاٰخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ڜ 
“और बहुत ही बुरी थी वह चीज़ जिसके बदले इन्होंने अपने आपको फ़रोख्त कर दिया।” وَلَبِئْسَ مَا شَرَوْا بِهٖٓ اَنْفُسَھُمْ ۭ 
“काश इन्हें इल्म होता।” لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ  ١٠٢۝

आयत 103

“और अगर वह ईमान रखते और तक़वा की रविश इख़्तियार करते” وَلَوْ اَنَّھُمْ اٰمَنُوْا وَاتَّقَوْا
“तो बदला पाते अल्लाह की तरफ़ से बहुत ही अच्छा।” لَمَثُوْبَةٌ مِّنْ عِنْدِ اللّٰهِ خَيْرٌ ۭ
“काश उनको मालूम होता।” لَوْ كَانُوْا يَعْلَمُوْنَ   ١٠٣؀ۧ