Suratul baqarah-सूरतुल बक़रह ayat 104 – 152

आयात 104 से 152 तक

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقُوْلُوْا رَاعِنَا وَقُوْلُوا انْظُرْنَا وَاسْمَعُوْا ۭ وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ اَلِــيْمٌ    ١٠٤؁ مَا يَوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ وَلَا الْمُشْرِكِيْنَ اَنْ يُّنَزَّلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ خَيْرٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ وَاللّٰهُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭوَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ  ١٠٥؁ مَا نَنْسَخْ مِنْ اٰيَةٍ اَوْ نُنْسِهَا نَاْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَآ اَوْ مِثْلِهَا ۭ اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ  ١٠٦؁ اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ ١٠٧؁ اَمْ تُرِيْدُوْنَ اَنْ تَسْـــَٔـلُوْا رَسُوْلَكُمْ كَمَا سُىِٕلَ مُوْسٰى مِنْ قَبْلُ ۭ وَمَنْ يَّتَـبَدَّلِ الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۗءَ السَّبِيْلِ  ١٠٨؁ وَدَّ كَثِيْرٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يَرُدُّوْنَكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ اِيْمَانِكُمْ كُفَّارًا ښ حَسَدًا مِّنْ عِنْدِ اَنْفُسِهِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ ۚ فَاعْفُوْا وَاصْفَحُوْا حَتّٰى يَاْتِيَ اللّٰهُ بِاَمْرِهٖ  ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْ ءٍ قَدِيْرٌ   ١٠٩؁ وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ ۭ وَمَا تُقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوْهُ عِنْدَ اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ    ١١٠؁ وَقَالُوْا لَنْ يَّدْخُلَ الْجَنَّةَ اِلَّا مَنْ كَانَ ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى ۭ تِلْكَ اَمَانِيُّھُمْ ۭ قُلْ ھَاتُوْا بُرْھَانَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ    ١١١؁ بَلٰي ۤ مَنْ اَسْلَمَ وَجْهَهٗ لِلّٰهِ وَھُوَ مُحْسِنٌ فَلَهٗٓ اَجْرُهٗ عِنْدَ رَبِّهٖ ۠ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ    ١١٢؀

आयत 104

“ऐ ईमान वालों तुम رَاعِنَا मत कहा करो”يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقُوْلُوْا رَاعِنَا
“बल्कि اُنْظُرْنَا  कहा करो”وَقُوْلُوا انْظُرْنَا
“और तवज्जो से बात को सुनो!”وَاسْمَعُوْا ۭ

क़ब्ल अज़ मुनाफ़िक़ीन बनी इसराइल का ज़िक्र हुआ था, जिनका क़ौल था: “سَمِعْنَا وَ عَصَیْنَا”। अब यहाँ उन मुनाफ़िक़ीन का तर्ज़े अमल बयान हो रहा है जो मुस्लमानों में शामिल हो गये थे और यहूद के ज़ेरे असर थे। यहूदी और उनके ज़ेरे असर मुनाफ़िक़ीन जब रसूल अल्लाह ﷺ की महफ़िल में बैठते थे तो अगर आप ﷺ की कोई बात उन्हें सुनाई ना देती या समझ में ना आती तो वह رَاعِنَا कहते थे, जिसका मफ़हूम यह है कि हुज़ूर (ﷺ) ज़रा हमारी रिआयत कीजिये, बात को दोबारा दोहरा दीजिये, हमारी समझ में नहीं आई। अहले ईमान भी यह लफ्ज़ इस्तेमाल करने लगे थे। लेकिन यहूद और मुनाफ़िक़ीन अपने खबसे बातिन का इज़हार इस तरह करते कि इस लफ्ज़ को ज़बान दबा कर कहते तो “رَاعِیْنَا” हो जाता (यानि ऐ हमारे चरवाहे!) इस पर दिल ही दिल में खुश होते और इस तरह अपनी खबासते नफ्स को गिज़ा मुहैय्या करते। अगर कोई उनको टोक देता कि यह तुम क्या कह रहे हो तो जवाब में कहते हमने तो رَاعِنَا कहा था, मालूम होता है आपकी समाअत में कोई खलल पैदा हो चुका है। चुनाँचे मुस्लमानों से कहा जा रहा है कि तुम इस लफ्ज़ ही को छोड़ दो, इसकी जगह कहा करो: اُنْظُرْنَا। यानि ऐ नबी ﷺ हमारी तरफ़ तवज्जो फ़रमाइये! या हमें मोहलत दीजिये कि हम बात को समझ लें। और दूसरे यह कि तवज्जो से बात को सुना करो ताकि दोबारा पूछने की ज़रूरत ही पेश ना आये।

“और इन काफ़िरों के लिये दर्दनाक अज़ाब है।”وَلِلْكٰفِرِيْنَ عَذَابٌ اَلِــيْمٌ    ١٠٤؁

आयत 105

“और नहीं चाहते वह लोग जिन्होंने कुफ़्र किया है अहले किताब में से और मुशरिकीन में से कि नाज़िल हो तुम पर कोई भी खैर तुम्हारे रब की तरफ से।” مَا يَوَدُّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ وَلَا الْمُشْرِكِيْنَ اَنْ يُّنَزَّلَ عَلَيْكُمْ مِّنْ خَيْرٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ

जिन लोगों ने दावाते हक़ को क़ुबूल करने से इन्कार कर दिया है, ख्वाह अहले किताब में से हो या मुशरिकीने मक्का में से, वह इस बात पर हसद की आग में जल रहे हैं कि यह कलामे पाक आप ﷺ पर क्यों नाज़िल हो गया और “खातमुन्न नबिय्यीन” का यह मंसब आप ﷺ को क्यों मिल गया। वह नहीं चाहते कि अल्लाह की तरफ़ से कोई भी खैर आपको मिले।

“और अल्लाह ख़ास कर लेता है अपनी रहमत के साथ जिसको चाहता है।” وَاللّٰهُ يَخْتَصُّ بِرَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ

यह तो उसका इख़्तियार और उसका फ़ैसला है।

“और अल्लाह तआला बड़े फ़ज़ल वाला है।” وَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ  ١٠٥؁

आयत 106

“जो भी हम मंसूख (cancel) करते हैं कोई आयत या उसे भुला देते हैं” مَا نَنْسَخْ مِنْ اٰيَةٍ اَوْ نُنْسِهَا

एक तो है नस्ख यानि किसी आयत को मंसूख कर देना और एक है हाफ़िज़े से ही किसी शय को मह्व कर (निकाल) देना।

“तो हम (उसकी जगह पर) ले आते हैं उससे बेहतर या (कम अज़ कम) वैसी ही।” نَاْتِ بِخَيْرٍ مِّنْهَآ اَوْ مِثْلِهَا ۭ
“क्या तुम यह नहीं जानते कि अल्लाह हर शय पर क़ुदरत रखता है?” اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ  ١٠٦؁

उसे हर शय का इख़्तियार हासिल है।

इस आयत का असल मफ़हूम और और पसमंज़र समझ लीजिये। आपको मालूम है कि अल्लाह का दीन आदम अलैहिस्सलाम से लेकर इदम तक एक ही है। नूह अलैहिस्सलाम का दीन, मूसा अलैहिस्सलाम का दीन, ईसा अलैहिस्सलाम का दीन और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ का दीन एक ही है, जबकि शरीअतों में फ़र्क़ रहा है। इस फ़र्क़ का असल सबब यह है कि नौए इंसानी मुख्तलिफ़ ऐतबारात से इरतक़ाअ (विकास) के मराहिल तय कर रही थी। ज़हनी पुख्तगी, शऊर की पुख्तगी और फिर तमद्दुनी इरतक़ाअ (सामाजिक विकास) मुसलसल जारी था। लिहाज़ा उस इरतक़ाअ के जिस मरहले में रसूल आये उसी की मुनासबत से उनको तालीमात दे दी गयीं। इन तालीमात के कुछ हिस्से ऐसे थे जो अब्दी (eternal) हैं, वह हमेशा रहेंगे, जबकि कुछ हिस्से ज़माने की मुनासबत से थे। चुनाँचे जब अगला रसूल आता तो उनमे से कुछ चीज़ों में तगय्युर (परिवर्तन) व तबद्दुल (बदलाव) हो जाता, कुछ चीज़ें नयी आ जाती और कुछ पुरानी साक़ित (अस्वीकार) हो जाती। यह मामला नस्ख कहलाता है। या तो अल्लाह तआला तअय्युन (निर्धारण) के साथ किसी हुक्म को मंसूख फ़रमा देते हैं और उसकी जगह नया हुक्म भेज देते हैं, या किसी शय को सिरे से लोगों के ज़हनों से ख़ारिज कर देते हैं। यहूदी यह ऐतराज़ कर रहे थे कि अगर यह दीन वही है जो मूसा अलैहिस्सलाम का था तो फिर शरीअत पूरी वही होनी चाहिये। यहाँ इस ऐतराज़ का जवाब दिया जा रहा है।

फिर नासिख व मंसूख का मसला क़ुरान में भी है। क़ुरान में भी तदरीज (क्रम) के साथ शरीअत की तकमील हुई है। जैसा कि मैंने पहले अर्ज़ किया था, शरीअत का इब्तदाई खाका (blue print) सूरतुल बक़रह में मिल जाता है, लेकिन शरीअत की तकमील सूरतुल मायदा में हुई है। यह जो तक़रीबन पाँच-छ: साल का अरसा है इसमें कुछ अहकाम किये गये, फिर उनमे रद्दो-बदल करके नये अहकाम दिये गये और फिर आख़िर में यह इरशाद फ़रमा दिया गया: {اَلْيَوْمَ اَ كْمَلْتُ لَكُمْ دِيْنَكُمْ وَاَتْمَمْتُ عَلَيْكُمْ نِعْمَتِيْ وَرَضِيْتُ لَكُمُ الْاِسْلَامَ دِيْنًا  ۭ  } (अल मायदा:3) “आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिये मुकम्मल कर दिया है और अपनी नेअमत तुम पर तमाम कर दी है और तुम्हारे लिये इस्लाम को बहैसियत दीन पसंद कर लिया है।” तो यह नासिख व मंसूख का मसला सिर्फ़ साबक़ा शरीअतों और शरीअते मुहम्मदी ﷺ के माबैन ही नहीं है, बल्कि खुद शरीअते मुहम्मदी (علٰی صاحبہا الصلٰوۃ والسلام) में भी ज़मानी ऐतबार से इरतक़ाअ हुआ है। मिसाल के तौर पर पहले शराब के बारे में हुक्म दिया गया कि इसमें गुनाह का पहलु ज़्यादा है, अगरचे कुछ फ़ायदे भी हैं। इसके बाद हुक्म आया कि अगर शराब के नशे में हो तो नमाज़ के क़रीब मत जाओ। फिर सूरतुल मायदा में आखरी हुक्म आ गया और उसे गन्दा शैतानी काम क़रार देकर फ़रमाया गया: { فَهَلْ اَنْتُمْ مُّنْتَهُوْنَ    91 ؀} “तो क्या अब भी बाज़ आते हो या नहीं?” इस तरह तदरीजन (क्रमानुसार) अहकाम आये और आखरी हुक्म में शराब हराम कर दी गयी। यहाँ फ़रमाया कि अगर हम किसी हुक्म को मंसूख करते हैं या उसे भुला देते हैं तो उससे बेहतर ले आते हैं या कम अज़ कम उस जैसा दूसरा हुक्म ले आते हैं। इसलिये कि अल्लाह तआला क़ादिरे मुतलक़ है, उसका इख़्तियार कामिल है, वह मालिकुल मुल्क है, दीन उसका है, उसमें वह जिस तरह चाहे तब्दीली कर सकता है।

आयत 107

“क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह ही के लिये बादशाही है आसमानों की और ज़मीन की?” اَلَمْ تَعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ لَهٗ مُلْكُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ
“और नहीं है तुम्हारे लिये अल्लाह के सिवा कोई भी हिमायती और ना कोई मददगार।” وَمَا لَكُمْ مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ ١٠٧؁

आयत 108

“क्या तुम मुस्लमान भी यह चाहते हो कि सवालात (और मुतालबे) करो अपने रसूल से उसी तरह जैसे इससे पहले मूसा अलैहिस्सलाम से किये जा चुके हैं?” اَمْ تُرِيْدُوْنَ اَنْ تَسْـــَٔـلُوْا رَسُوْلَكُمْ كَمَا سُىِٕلَ مُوْسٰى مِنْ قَبْلُ ۭ

मसलन उनसे कहा गया कि हम आपकी बात नहीं मानेंगे जब तक कि अल्लाह को अपनी आँखों से ना देख लें। इसी तरह के और बहुत से मुतालबे (माँग) हज़रत मूसा अलै० से किये जाते थे। यहाँ मुस्लमानों को आगाह किया जा रहा है कि उस रविश से बाज़ रहो, ऐसी बात तुम्हारे अन्दर पैदा नहीं होनी चाहिये।

“और जो कोई ईमान के बदले कुफ़्र ले लेगा वह तो भटक चुका सीधी राह से।” وَمَنْ يَّتَـبَدَّلِ الْكُفْرَ بِالْاِيْمَانِ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاۗءَ السَّبِيْلِ  ١٠٨؁

ज़ाहिर है कि जो मुनाफ़िक़ीन अहले ईमान की सफ़ों में शामिल थे वही ऐसी हरकतें कर रहे होंगे। इसलिये फ़रमाया कि जो कोई ईमान को हाथ से देकर कुफ़्र को इख़्तियार कर लेगा वह तो रहे रास्त से भटक गया। मुनाफ़िक़ का मामला दो तरफ़ा होता है, चुनाँचे क़ुरान हकीम में मुनाफ़िक़ीन के लिये “مُذَبْذَبِیْنَ بَیْنَ ذٰلِکَ” के अल्फ़ाज़ आये हैं। अब इसका भी इम्कान होता है कि वह कुफ़्र की तरफ़ यक्सु हो जाये और इसका भी इम्कान होता है कि बिलआख़िर ईमान की तरफ़ यक्सु हो जाये। जो शख्स ईमान और कुफ़्र के दरमियान मुअल्लिक़ (लटका) है उसके लिये यह दोनों इम्कानात मुमकिन हैं। जो कुफ़्र की तरफ़ जाकर मुस्तक़िल (स्थायी) तौर पर उधर रागिब हो गया यहाँ उसका ज़िक्र है।

आयत 109

“अहले किताब में से बहुत से लोग यह चाहते हैं कि किसी तरह तुम्हें फेर कर तुम्हारे ईमान के बाद तुम्हें फिर काफ़िर बना दें।” وَدَّ كَثِيْرٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يَرُدُّوْنَكُمْ مِّنْۢ بَعْدِ اِيْمَانِكُمْ كُفَّارًا ښ

यह ऐसे ही है जैसे किसी बिल्ली की दुम कट जाये तो वह यह चाहेगी कि सारी बिल्लियों की दुमें कट जायें ताकि वह अलैहदा से नुमाया (प्रतीत) ना रहे। चुनाँचे अहले किताब यह चाहते थे कि अहले ईमान को भी वापस कुफ़्र में ले आया जाये।

“बसबब उनके दिली हसद के” حَسَدًا مِّنْ عِنْدِ اَنْفُسِهِمْ

उनका यह तर्ज़े अमल उनके हसद की वजह से है कि यह नेअमत मुस्लमानों को क्यों दे दी गयी?

“इसके बाद कि उन पर हक़ बिल्कुल वाज़ेह हो चुका है।” مِّنْۢ بَعْدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ الْحَقُّ ۚ

वह हक़ को जान चुके हैं और पहचान चुके हैं, किसी मुगालते या गलतफ़हमी में नहीं हैं।

“तो (ऐ मुस्लमानों!) तुम माफ़ करते रहो और सर्फ़े नज़र (बेपरवाही) से काम लो” فَاعْفُوْا وَاصْفَحُوْا

यह बहुत अहम मक़ाम है। मुस्लमानों को बावर कराया (दिखाया) जा रहा है कि अभी तो मदनी दौर का आगाज़ हो रहा है, अभी कशमकश, कशाकश और मुक़ाबला व तसादुम के बड़े सख्त मराहिल आ रहे हैं। क्योंकि तम्हारा सबसे पहला महाज़ (सामना) कुफ्फ़ारे मक्का के खिलाफ़ है और वही सबसे बढ़ कर तुम पर हमले करेंगे और उनसे तुम्हारी जंगे होंगी, लिहाज़ा यह जो आस्तीन के साँप हैं, यानि यहूद, इनको अभी मत छेड़ो। जब तक यह ख्वाबेदाह (dormant) पड़े रहें इन्हें पड़ा रहने दो। फ़िलहाल इनके तर्ज़े अमल के बारे में ज़्यादा तवज्जो ना दो, बल्कि अफ़व (माफ़ी) व दरगुज़र और चश्मपोशी से काम लेते रहो।

“यहाँ तक कि अल्लाह अपना फ़ैसला ले आये।” حَتّٰى يَاْتِيَ اللّٰهُ بِاَمْرِهٖ  ۭ

एक वक़्त आयेगा जब ऐ मुस्लमानों तुम्हें आखरी गलबा हासिल हो जायेगा और जब तुम बहार के दुश्मनों से निमट लोगे तो फिर इन अंदरूनी दुश्मनों के खिलाफ़ भी तुम्हें आज़ादी दी जायेगी कि इनको भी केफ़र-ए-किरदार तक पहुँचा दो।

“यक़ीनन अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर है।” اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْ ءٍ قَدِيْرٌ   ١٠٩؁

आयत 110

“और नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात देते रहो।” وَاَقِيْمُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتُوا الزَّكٰوةَ ۭ
“और जो भलाई भी तुम अपने लिये आगे भेजोगे उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे।” وَمَا تُقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ مِّنْ خَيْرٍ تَجِدُوْهُ عِنْدَ اللّٰهِ ۭ

जो माल तुम अल्लाह की राह में खर्च कर रहे हो वह अल्लाह के बैंक में जमा हो जाता है और मुसलसल बढ़ता रहता है। लिहाज़ा उसके बारे में फ़िक्र करने की कोई ज़रूरत नहीं।

“यक़ीनन जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उसे देख रहा है।” اِنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ    ١١٠؁

आयत 111

“और यह कहते हैं हरगिज़ दाख़िल ना होगा जन्नत में मगर वही जो यहूदी हो या नसरानी हो।” وَقَالُوْا لَنْ يَّدْخُلَ الْجَنَّةَ اِلَّا مَنْ كَانَ ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى ۭ

जब यह नयी उम्मते मुस्लिमा तशकील (निर्मित) पा रही थी तो यहूदी और नसरानी, जो एक दूसरे के दुश्मन थे, मुस्लमानों के मुक़ाबले में जमा हो गये। उन्होंने मिल कर यह कहना शुरू किया कि जन्नत में कोई हरगिज़ नहीं दाख़िल होगा सिवाय उसके जो या तो यहूदी हो या नसरानी हो। इस तरह की मज़हबी जत्थे बन्दियाँ हमारे यहाँ भी बन जाती है। मसलन अहले हदीस के मुक़ाबले में बरेलवी और देवबन्दी जमा हो जाएँगे, अगरचे उनका आपस में एक-दूसरे के साथ बैर अपनी जगह है। जब एक मुश्तरका (संयुक्त) दुश्मन नज़र आता है तो फिर वह लोग जिनके अपने अन्दर बड़े इख्तलाफ़ात होते हैं वह भी एक मुत्तहिदा महाज़ बना लेते हैं। यहूद व नसारा के इस मुश्तरका बयान के जवाब में फ़रमाया:

“यह इनकी तमन्नायें हैं।”تِلْكَ اَمَانِيُّھُمْ ۭ

यह इनकी ख्वाहिशात हैं, मनघडत ख्यालात हैं, खुशनुमा आरज़ुएँ (wishful thinkings) हैं।

“उनसे कहो अपनी दलील पेश करो अगर तुम (अपने दावे में) सच्चे हो।” قُلْ ھَاتُوْا بُرْھَانَكُمْ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ    ١١١؁

किसी आसमानी किताब से दलील लाओ। कहीं तौरात में लिखा हो या इन्जील में लिखा हो तो हमें दिखा दो! अब यहाँ पर फिर एक अलमगीर सदाक़त (universal truth) बयान हो रही है:

आयत 112

“क्यों नहीं, हर वह शख्स जो अपना चेहरा अल्लाह के सामने झुका दे और वह मोहसिन हो” بَلٰي ۤ مَنْ اَسْلَمَ وَجْهَهٗ لِلّٰهِ وَھُوَ مُحْسِنٌ

उसका सरे तस्लीम ख़म कर देने (सर झुकाने) का रवैय्या सदक़ व सच्चाई और हुस्ने किरदार पर मब्नी हो। सर का झुकाना मुनाफ़िक़ाना अंदाज़ में ना हो, उसकी इताअत जुज़्वी ना हो कि कुछ माना कुछ नहीं माना।

“तो उसके लिये उसका अज्र महफ़ूज़ है उसके रब के पास।” فَلَهٗٓ اَجْرُهٗ عِنْدَ رَبِّهٖ ۠
“और ऐसे लोगों को ना तो कोई खौफ़ लाहक़ होगा और ना ही वह किसी हुज़्न (शोक) व मलाल से दो-चार होंगे।” وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ    ١١٢؀

यह दूसरी आयत है कि जिससे कुछ लोगों ने इस्तेदाल किया है कि निजाते उखरवी के लिये ईमान बिर्रिसालत ज़रूरी नहीं है। इसका जवाब पहले अर्ज़ किया जा चुका है। मुख्तसरन यह कि:

अव्वलन- क़ुरान हकीम में हर मक़ाम पर सारी चीज़ें बयान नहीं की जाती। कोई शय एक जगह बयान की गयी है तो कोई कहीं दूसरी जगह बयान की गयी है। इससे हिदायत हासिल करनी है तो इसको पूरे का पूरा एक किताब की हैसियत से लेना होगा।

सानियन- यह सारा सिलसिला-ए-कलाम दो ब्रेकिटों के दरमियान आ रहा है और इससे पहले यह अल्फ़ाज़ वाज़ेह तौर पर आ चुके हैं:           {وَاٰمِنُوْا بِمَآ اَنْزَلْتُ مُصَدِّقًا لِّمَا مَعَكُمْ وَلَا تَكُوْنُوْٓا اَوَّلَ كَافِرٍۢ بِهٖ    ۠  } (आयत:41) चुनाँचे यह इबारत ज़र्ब खा रही है इस पूरे के पूरे सिलसिला-ए-मज़ामीन से जो इन दो ब्रेकिटों के

दरमियान आ रहा है।

आयात 113 से 123 तक

وَقَالَتِ الْيَهُوْدُ لَيْسَتِ النَّصٰرٰى عَلٰي شَيْءٍ ۠ وَّقَالَتِ النَّصٰرٰى لَيْسَتِ الْيَهُوْدُ عَلٰي شَيْءٍ ۙ وَّھُمْ يَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ ۭ كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ ۚ فَاللّٰهُ يَحْكُمُ بَيْنَھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ   ١١٣؁ وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ مَّنَعَ مَسٰجِدَ اللّٰهِ اَنْ يُّذْكَرَ فِيْهَا اسْمُهٗ وَسَعٰى فِيْ خَرَابِهَا ۭاُولٰۗىِٕكَ مَا كَانَ لَھُمْ اَنْ يَّدْخُلُوْھَآ اِلَّا خَاۗىِٕفِيْنَ ڛ لَھُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ وَّلَھُمْ فِي الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ    ١١٤؁ وَلِلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۤ فَاَيْنَـمَا تُوَلُّوْا فَثَمَّ وَجْهُ اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ    ١١٥؁ وَقَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا ۙ سُبْحٰنَهٗ ۭ بَلْ لَّهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭكُلٌّ لَّهٗ قٰنِتُوْنَ    ١١٦؁ بَدِيْعُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭوَاِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ   ١١٧؁ وَقَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ لَوْلَا يُكَلِّمُنَا اللّٰهُ اَوْ تَاْتِيْنَآ اٰيَةٌ ۭ كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ مِّثْلَ قَوْلِهِمْ ۭ تَشَابَهَتْ قُلُوْبُھُمْ ۭ قَدْ بَيَّنَّا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ   ١١٨؁ اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ بِالْحَقِّ بَشِيْرًا وَّنَذِيْرًا ۙ وَّلَا تُسْـــَٔـلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ   ١١٩؁ وَلَنْ تَرْضٰى عَنْكَ الْيَهُوْدُ وَلَا النَّصٰرٰى حَتّٰى تَتَّبِعَ مِلَّتَھُمْ ۭ قُلْ اِنَّ ھُدَى اللّٰهِ ھُوَ الْهُدٰى ۭ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَھْوَاۗءَھُمْ بَعْدَ الَّذِيْ جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ مَا لَكَ مِنَ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ  ١٢٠؁ اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰھُمُ الْكِتٰبَ يَتْلُوْنَهٗ حَقَّ تِلَاوَتِهٖ ۭ اُولٰۗىِٕكَ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِهٖ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْخٰسِرُوْنَ   ١٢١۝ۧ يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ  ١٢٢۝ وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِيْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا عَدْلٌ وَّلَا تَنْفَعُهَا شَفَاعَةٌ وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ   ١٢٣؀

आयत 113

“यहूदी कहते हैं कि नसारा किसी बुनियाद पर नहीं हैं” وَقَالَتِ الْيَهُوْدُ لَيْسَتِ النَّصٰرٰى عَلٰي شَيْءٍ ۠

उनकी कोई हैसियत नहीं है, कोई जड़ बुनियाद नहीं है।

“और नसारा कहते हैं कि यहूद किसी बुनियाद पर नहीं हैं” وَّقَالَتِ النَّصٰرٰى لَيْسَتِ الْيَهُوْدُ عَلٰي شَيْءٍ ۙ

उनकी कोई बुनियाद नहीं है, यह बेबुनियाद लोग हैं, इनकी कोई हक़ीक़त नहीं है।

“हालांकि दोनों ही किताब पढ़ रहे हैं।” وَّھُمْ يَتْلُوْنَ الْكِتٰبَ ۭ

अहदनामा-ए-क़दीम (Old Testament) यहूदियों और ईसाईयों में मुश्तरक (common) है। यह बहुत अहम नुक्ता है और अमेरिका में जदीद ईसाइयत की सूरत में एक बहुत बड़ी ताक़त जो उभर रही है वह ईसाइयत को यहूदियत के रंग में रंग रही है। रोमन कैथोलिक मज़हब ने तो बाइबल से अपना रिश्ता तोड़ लिया था और सारा इख़्तियार पॉप के हाथ में आ गया था, लेकिन प्रोटेस्टेन्टस (Protestants) ने फिर बाइबल को क़ुबूल किया। अब इसकी मन्तक़ी (logical) इन्तहा यह है कि अहदनामा-ए-क़दीम पर भी उनकी तवज्जो हो रही है और वह कह रहे हैं कि इसे भी हम अपनी किताब मानते हैं और इसमें जो कुछ लिखा है उसे हम नज़र अंदाज़ नहीं कर सकते। अमेरिका में हमने एक सेमिनार मुनअक़िद (आयोजित) किया था, जिसमें एक यहूदी आलिम ने कहा था कि इस वक़्त इसराइल को सबसे बड़ी नुसरत व हिमायत अमेरिका के उन ईसाईयों से मिल रही है जो Evengelists कहलाते हैं और वहाँ पर एक बड़ा फ़िरक़ा बन कर उभर रहे हैं। बहरहाल यह उनका तर्ज़े अमल बयान हुआ है।

“इसी तरह कही थी उन लोगों ने जो कुछ भी नहीं जानते, इन्हीं की सी बात।” كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ ۚ

यहाँ इशारा है मुशरिकीने मक्का की तरफ़।

“पस अल्लाह तआला फ़ैसला कर देगा इनके माबैन क़यामत के दिन उन तमाम बातों का जिनमें यह इख्तिलाफ़ कर रहे थे।” فَاللّٰهُ يَحْكُمُ بَيْنَھُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فِيْمَا كَانُوْا فِيْهِ يَخْتَلِفُوْنَ   ١١٣؁

अब देखिये इस सिलसिला-ए-कलाम की बक़िया आयात में भी अगरचे ख़िताब तो बनी इसराइल ही से है, लेकिन अब यहाँ पर अहले मक्का से कुछ ताअरीज़ (लड़ाई) शुरू हो गयी है। इसके बाद हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का तज़किरा आयेगा, फिर तहवीले क़िब्ला का ज़िक्र आयेगा। बैतुल्लाह चूँकि उस वक़्त मुशरिकीने मक्का के कब्ज़े में था, लिहाज़ा इस हवाले से कुछ मुताल्लिक़ा (सम्बंधित) मज़ामीन आ रहे हैं और तहवीले क़िब्ला की तम्हीद बाँधी जा रही है। “तहवीले क़िब्ला” दरअसल इस बात की अलामत थी कि अब वह साबक़ा उम्मते मुस्लिमा माज़ूल की जा रही है और इस मक़ाम पर एक नयी उम्मत, उम्मते मुहम्मद ﷺ की तक़ररी (नियुक्ति) अमल में लायी जा रही है। इस हवाले से { كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ مِثْلَ قَوْلِهِمْ ۚ } के अल्फ़ाज़ में मुशरिकीने मक्का की तरफ़ इशारा किया गया।

आयत 114

“और उस शख्स से बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जो अल्लाह तआला की मस्जिदों से (लोगों को) रोके कि उनमे उसका नाम लिया जाये?” وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ مَّنَعَ مَسٰجِدَ اللّٰهِ اَنْ يُّذْكَرَ فِيْهَا اسْمُهٗ

मुशरिकीने मक्का ने मुस्लमानों को मस्जिदे हराम में हाज़री से महरूम कर दिया था और उनको वहाँ जाने की इजाज़त ना थी। 6 हिजरी में रसूल अल्लाह ﷺ ने सहाबा किराम रज़िअल्लाहुअन्हुम के हमराह उमरे के इरादे से मक्का का सफ़र फ़रमाया, लेकिन मुशरिकीन ने आप ﷺ और आप ﷺ के साथियों को मक्का में दाख़िल होने की इजाज़त नहीं दी। इस मौक़े पर सुलह हुदैबिया हुई और आप ﷺ को उमरा किये बगैर वापस आना पड़ा। फिर अगले बरस 7 हिजरी में आप ﷺ ने सहाबा किराम रज़िअल्लाहुअन्हुम के हमराह उमरा अदा किया। तो यह सात बरस मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और अहले ईमान पर बहुत शाक़ (कठिन) गुज़रे हैं। यहाँ मुशरिकीने मक्का के इस ज़ुल्म का ज़िक्र हो रहा है कि उन्होंने अहले ईमान को मस्जिदे हराम से रोक रखा है।

“और वह उनकी तखरीब के दर पे हो?” وَسَعٰى فِيْ خَرَابِهَا ۭ

ख़राब और तख़रीब का माद्दाये असली एक ही है। तख़रीब दो तरह की होती है। एक ज़ाहिरी तख़रीब कि मस्जिद को गिरा देना, और एक बातिनी और मानवी (सचमुच) तख़रीब कि अल्लाह के घर को तौहीद के बजाये शिर्क का अड्डा बना देना। मुशरिकीने मक्का ने बैतुल्लाह को बुतकदा बना दिया था:

दुनिया के बुतकदों में पहला वह घर ख़ुदा का

हम उसके पासबाँ हैं वह पासबाँ हमारा!

खाना-ए-काबा में 360 बुत रख दिये गये थे, जिसे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने तौहीदे खालिस के लिये तामीर किया था। मसाजिद के साथ लफ्ज़ “ख़राब” एक हदीस में भी आया है। यह बड़ी दिलदोज़ हदीस है और मैं चाहता हूँ कि आप इसे ज़हन नशीन कर लें। हज़रत अली रज़िअल्लाहुअन्हु से रिवायत है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:

یُوْشِکُ اَنْ یَاْ تِیَ عَلَی النَّاسِ زَمَانٌ

“अंदेशा है कि लोगों पर (यानि मेरी उम्मत पर) एक ज़माना ऐसा भी आयेगा कि”

لَا یَبْقٰی مِنَ الْاِسْلَامِ اِلَّا اسْمُہٗ

“इस्लाम में से इसके नाम के सिवा कुछ नहीं बचेगा”

وَلَا یَبْقٰی مِنَ الْقُرْآنِ اِلَّا رَسْمُہٗ

“और क़ुरान में से इसके रस्मुल ख़त (अल्फ़ाज़ और हुरूफ़) के सिवा कुछ नहीं बचेगा।”

अल्लाह तआला ने इसी की ज़मानत दी है कि क़ुरान हकीम के अल्फ़ाज़ व हुरूफ़ मन व अन महफ़ूज़ रहेंगे।

مَسَاجِدُھُمْ عَامِرَۃٌ وَ ھِیَ خَرَابٌ مِنَ الْھُدٰی

“उनकी मस्जिदें आबाद तो बहुत होंगी लेकिन हिदायत से खाली हो जाएँगी।”

यहाँ भी लफ्ज़ “ख़राब” नोट कीजिये। गोया मानवी ऐतबार से यह वीरान हो जाएँगी।

عُلَمَاؤُھُمْ شَرٌّمَنْ تَحْتَ اَدِیْمِ السَّمَاءِ

“उनके उलमा आसमान की छत के नीचे के बदतरीन इन्सान होंगे।”

مِنْ عِنْدِھِمْ تَخْرُجُ الْفِتْنَۃُ وَ فِیْھِمْ تَعُوْدُ(13) 

“फितना उन्हीं के अन्दर से बरामद होगा और उन्हीं में घुस जायेगा।”

यानि उनका काम ही फ़ितना अन्गेज़ी, मुखालफ़त और जंग व जिदाल होगा। अपने-अपने फ़िरक़े के लोगों के जज़्बात को भड़काते रहना और मुस्लमानों के अन्दर इख्तलाफ़ात को हवा देना ही उनका काम रह जायेगा।

आज जिनको हम उलमा कहते हैं उनकी अज़ीम अक्सरियत इस कैफ़ियत से दो-चार हो चुकी है। जब मज़हब और दीन पेशा बन जाये तो उसमें कोई खैर बाक़ी नहीं रहता। दीन और मज़हब पेशा नहीं था, लेकिन इसे पेशा बना लिया गया। इस्लाम में कोई पेशवाइयत नहीं, कोई पापाइयत नहीं, कोई ब्रह्मनियत नहीं। इस्लाम तो एक खुली किताब की मानिंद हैं। हर शख्स किताबुल्लाह पढ़े, हर शख्स अरबी सीखे और किताबुल्लाह को समझे। हर शख्स को इबादात के क़ाबिल होना चाहिये। हर शख्स अपनी बच्ची का निकाह खुद पढ़ाये, अपने वालिद का जनाज़ा खुद पढ़ाये। हमने खुद इसे पेशा बना दिया है और इबादात के मामले में एक ख़ास तबक़े के मोहताज हो गये हैं। मिर्ज़ा ग़ालिब ने कहा था:

पेशे में ऐब नहीं, रखिये ना फ़रहाद को नाम!

एक चीज़ जब पेशा बन जाती है तो उसमें पेशा वाराना चश्मकें और रक़ाबतें दर आती हैं। लेकिन साथ ही यह बात वाज़ेह रहे कि दुनिया कभी उल्माये हक़ से खाली नहीं होगी। चुनाँचे यहाँ उल्माये हक़ भी हैं और उल्माये सू भी हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि उनकी अक्सरियत का हाल वही हो चुका है जो हदीस में बयान हुआ है, वरना उम्मत का यूँ बेड़ा ग़र्क़ ना होता।

“ऐसे लोगों को तो उनमें दाख़िल ही नहीं होना चाहिये मगर डरते हुए।”اُولٰۗىِٕكَ مَا كَانَ لَھُمْ اَنْ يَّدْخُلُوْھَآ اِلَّا خَاۗىِٕفِيْنَ ڛ

इन लोगों को लायक़ नहीं है कि अल्लाह की मस्जिदों में दाख़िल हों, यह अगर वहाँ जायें भी तो डरते हुए जायें।

“उनके लिये दुनिया में भी ज़िल्लत व रुसवाई है” لَھُمْ فِي الدُّنْيَا خِزْيٌ
“और आख़िरत में उनके लिये अज़ाबे अज़ीम है।” وَّلَھُمْ فِي الْاٰخِرَةِ عَذَابٌ عَظِيْمٌ    ١١٤؁

अगली आयत में तहवीले क़िब्ला के लिये तम्हीद (प्रस्तावना) बाँधी जा रही है। क़िब्ले की तब्दीली बड़ा हस्सास (संवेदनशील) मामला था। जिन लोगों को येरुशलम और बैतुलमक़दस के साथ दिलचस्पी थी उनके दिलों में उसकी अक़ीदत जागज़ी (विरासत में प्राप्त) थी, जबकि मक्का मुकर्रमा और बैतुल्लाह के साथ जिनको दिलचस्पी थी उनके दिलों में उसकी मोहब्बत व अक़ीदत थी। तो इस हवाले से क़िब्ले की तब्दीली कोई मामूली बात ना थी। हिजरत के बाद क़िब्ला दो दफ़ा बदला है। मक्का मुकर्रमा में मुस्लमानों का क़िब्ला बैतुल्लाह था। मदीने में आकर रसूल अल्लाह ﷺ ने सौलह महीने तक बैतुलमक़दस की तरफ़ रुख करके नमाज़ पढ़ी और फिर बैतुल्लाह की तरफ़ नमाज़ पढ़ने का हुक्म आया। इस तरह अहले ईमान के कई इम्तिहान हो गये, उनका ज़िक्र आगे आ जायेगा। लेकिन यहाँ उसकी तम्हीद बयान हो रही है। फ़रमाया:

आयत 115

“और मशरिक़ और मग़रिब सब अल्लाह के हैं।”وَلِلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۤ

यानि अगर हम मग़रिब की तरफ़ रुख करते हैं तो इसके मायने यह नहीं हैं कि अल्लाह मग़रिब में है (मआज़ अल्लाह)। अल्लाह तो जोहत (दिशा) और मक़ाम से मा वरा है, वरा उल वरा सुम्मा वरा उल वरा है (High, Higher, Highest)। यह तो यक्सानियत (समानता) पैदा करने के लिये और इज्तमाई रंग देने के लिये एक चीज़ को क़िब्ला बना दिया गया है। यह तो एक अलामत है। ग़ालिब ने क्या खूब कहा है:

है परे सरहद इदराक से अपना मसजूद

क़िब्ले को अहले नज़र क़िब्ला नुमा कहते हैं!

क़िब्ला हमारा मसजूद तो नहीं है!

“पस जिधर भी तुम रुख करोगे उधर ही अल्लाह का रुख है।”فَاَيْنَـمَا تُوَلُّوْا فَثَمَّ وَجْهُ اللّٰهِ ۭ
“यक़ीनन अल्लाह बहुत वुसअत (विस्तार) वाला, सब कुछ जानने वाला है।”اِنَّ اللّٰهَ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ    ١١٥؁

वह बहुत वुसअत वाला है, वह किसी भी सिम्त में महदूद नहीं है, और हर शय का जानने वाला है।

तहवीले क़िब्ला की तम्हीद के तौर पर एक आयत कह कर अब फिर असल सिलसिला-ए-कलाम जोड़ा जा रहा है:

आयत 116

“और इन (में वह भी हैं जिन) का क़ौल है कि अल्लाह ने किसी को बेटा बनाया है। वह तो इन बातों से पाक है।” وَقَالُوا اتَّخَذَ اللّٰهُ وَلَدًا ۙ سُبْحٰنَهٗ ۭ

ज़ाहिर बात है यहाँ फिर अहले मक्का ही की तरफ़ इशारा हो रहा है जिनका यह क़ौल था कि अल्लाह ने अपने लिये औलाद इख़्तियार की है। वह कहते थे कि फ़रिश्ते अल्लाह की बेटियाँ हैं। नसारा कहते थे कि मसीह अलैहिस्सलाम अल्लाह के बेटे हैं, और यहूदियों का भी एक गिरोह ऐसा था जो हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम को अल्लाह का बेटा कहता था।

“बल्कि आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है उसी की मिलकियत है।” بَلْ لَّهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ

सब मख्लूक़ और ममलूक हैं, खालिक़ और मालिक सिर्फ़ वह है।

“सबके सब उसी के मुतीअ फ़रमान हैं।” كُلٌّ لَّهٗ قٰنِتُوْنَ    ١١٦؁

बड़े से बड़ा रसूल हो या बड़े से बड़ा वली या बड़े से बड़ा फ़रिश्ता या बड़े बड़े अजरामे समाविया (खगोलीय पिंड), सब उसी के हुक्म के पाबन्द हैं।

आयत 117

“वह नया पैदा करने वाला है आसमानों और ज़मीन का।” بَدِيْعُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ ۭ

वह बगैर किसी शय के आसमानों और ज़मीन को पैदा करने वाला है। “ابداع” और “خلق” में फ़र्क़ नोट कीजिये। शाह वलीउल्लाह देहलवी रहीमुल्लाह ने हुज्जतुल्लाह अलबाल्गा के पहले बाब में लिखा है कि अल्लाह तआला के अफ़आल बुनियादी तौर पर तीन हैं: इब्दाअ, खल्क़ और तदबीर। इब्दाअ से मुराद है अदम-ए-महज़ से किसी चीज़ को वजूद में लाना, जिसे अंग्रेज़ी में “creation ex nihilo” से ताबीर किया जाता है। जबकि खल्क़ एक चीज़ से दूसरी चीज़ का बनाना है, जैसे अल्लाह तआला ने गारे से इन्सान बनाया, आग से जिन्नात बनाये और नूर से फ़रिश्ते बनाये, यह तख्लीक़ है। तो “بدیع” वह ज़ात है जिसने किसी माद्दा-ए-तख्लीक़ के बगैर एक नयी कायनात पैदा फ़रमा दी। हमारे यहाँ “बिदअत” वह शय कहलाती है जो दीन में नहीं थी और ख्वाह माख्वाह लाकर शामिल कर दी गयी। जिस बात की जड़ बुनियाद दीन में नहीं है वह बिदअत है।

“और जब वह किसी मामले का फ़ैसला कर लेता है तो उससे बस यही कहता है कि हो जा और वह हो जाता है।” وَاِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ ١١٧؁

आयत 118

“और कहा उन लोगों ने जो इल्म नहीं रखते” وَقَالَ الَّذِيْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ

यहाँ पर मुशरिकीने मक्का की तरफ़ रूए सुखन है।

“क्यों नहीं बात करता हमसे अल्लाह या क्यों नहीं आ जाती हमारे पास कोई निशानी?” لَوْلَا يُكَلِّمُنَا اللّٰهُ اَوْ تَاْتِيْنَآ اٰيَةٌ ۭ

मुशरिकीने मक्का का रसूल अल्लाह ﷺ से बड़ी शिद्दत के साथ यह मुतालबा था कि आप कोई ऐसे मौज्ज़ात ही दिखा दें जैसे आप कहते हैं कि ईसा अलैहिस्सलाम ने दिखाये थे या मूसा अलैहिस्सलाम ने दिखाये थे। अगर आप हमारे यह मुतालबे पूरे कर दें तो हम आपको अल्लाह का रसूल मान लेंगे। यह मज़मून तफ़सील के साथ सूरतुल अनआम में और फिर सूरह बनी इसराइल में आयेगा।

“इसी तरह की बातें जो लोग इनसे पहले थे वह भी कहते रहे हैं।” كَذٰلِكَ قَالَ الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ مِّثْلَ قَوْلِهِمْ ۭ
“इनके दिल एक-दूसरे से मुशाबेह हो गये हैं।” تَشَابَهَتْ قُلُوْبُھُمْ ۭ
“हम तो अपनी आयात वाज़ेह कर चुके हैं उन लोगों के लिये जो यक़ीन करना चाहें।” قَدْ بَيَّنَّا الْاٰيٰتِ لِقَوْمٍ يُّوْقِنُوْنَ   ١١٨؁

आयत 119

“(ऐ नबी !) बेशक हमने आपको भेजा है हक़ के साथ बशीर और नज़ीर बना कर” اِنَّآ اَرْسَلْنٰكَ بِالْحَقِّ بَشِيْرًا وَّنَذِيْرًا ۙ

आप ﷺ की बुनियादी हैसियत यह है कि आप ﷺ अहले हक़ को जन्नत और उसकी तमाम तर नेअमतों की बशारत दें, और जो गलत रास्ते पर चल पड़ें, कुफ़्र करें, मुनाफ़क़त में मुब्तला हों, मुल्हिद (नास्तिक) हों और बदअमली करें उनको आप ﷺ ख़बरदार कर दें कि उनके लिये जहन्नम तैयार कर दी गयी है। आप ﷺ का काम दावत, इब्लाग, तब्लीग और नसीहत है।

“और आप से सवाल नहीं किया जायेगा जहन्नमियों के बारे में।” وَّلَا تُسْـــَٔـلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ   ١١٩؁

जो लोग अपने तर्ज़े अमल की बिना पर जहन्नम के मुस्तहिक़ (हक़दार) क़रार पा गये हैं उनके बारे में आप ﷺ ज़िम्मेदार नहीं हैं। आप ﷺ से यह नहीं पूछा जायेगा कि यह क्यों जहन्नम में पहुँच गये? आप ﷺ के होते हुए यह जहन्नमी क्यों हो गये? नहीं, यह आप ﷺ की ज़िम्मेदारी नहीं है। कौन जन्नत में जाना चाहता है और कौन जहन्नम में, यह आदमी का अपना फ़ैसला है। आप ﷺ का काम हक़ को वाज़ेह कर देना है, इसकी वज़ाहत में कमी ना रह जाये, हक़ वाज़ेह हो जाये, कोई इश्तबाह (गलती) बाक़ी ना रहे, बस यह ज़िम्मेदारी आप ﷺ की है, इससे ज़्यादा नहीं। इन्सान अगर अपनी असल मसूलियत (उत्तरदायित्व) से ज़्यादा ज़िम्मेदारी अपने सर पर डाल ले तो ख्वाह माख्वाह मुश्किल में फँस जाता है। हमारे यहाँ की बहुत सी जमातें इसी तरह की गलतियों की वजह से गलत रास्ते पर पड़ गईं और पूरी की पूरी तहरीकें बर्बाद हो गईं। रसूल अल्लाह ﷺ चाहते थे कि किसी तरह यह उल्माये यहूद ईमान ले आयें और जहन्नम का ईंधन ना बनें। उनके लिये आप ﷺ ने अल्लाह के हुज़ूर दुआएँ की होगी। जैसे मक्की दौर में आप ﷺ दुआएँ माँगते थे कि ऐ अल्लाह! उमर बिन हिशाम और उमर बिन ख़त्ताब में से किसी एक को तू मेरी झोली में डाल दे और उसके ज़रिये से इस्लाम को क़ुव्वत अता फ़रमा!

आयत 120

“और (ऐ नबी ! आप किसी मुगालते में ना रहिये) हरगिज़ राज़ी ना होंगे आप से यहूदी और नसरानी जब तक कि आप पैरवी ना करें उनकी मिल्लत की।” وَلَنْ تَرْضٰى عَنْكَ الْيَهُوْدُ وَلَا النَّصٰرٰى حَتّٰى تَتَّبِعَ مِلَّتَھُمْ ۭ

लिहाज़ा आप उनसे उम्मीद मुन्क़तअ (अलग) कर लीजिये। इसलिये कि ज़्यादा उम्मीद हो तो फिर मायूसी हो जाती है। इक़बाल ने बंदा-ए-मोमिन के बारे में बहुत खूब कहा है:

उसकी उम्मीदें क़लील, उसके मक़ासिद जलील!

मक़सद ऊँचा हो, लेकिन उम्मीद क़लील (कम) रहनी चाहिये। अल्लाह चाहेगा तो हो जायेगा, नहीं चाहेगा तो नहीं होगा। बंदा-ए-मोमिन का काम अपनी हद तक अपना फ़र्ज़ अदा कर देना है। इससे ज़्यादा की ख्वाहिश अगर अपने दिल में पालेंगे तो किसी उजलतपसन्दी (जल्दीबाज़ी) में गिरफ्तार हो जाएँगे और किसी राहे यसीर (आसान) या राहे कसीर (short cut) के ज़रिये मंज़िल तक पहुँचने की कोशिश करेंगे और अपने आपको भी बर्बाद कर लेंगे।

“कह दीजिये हिदायत तो बस अल्लाह की हिदायत है।” قُلْ اِنَّ ھُدَى اللّٰهِ ھُوَ الْهُدٰى ۭ

जो अल्लाह ने बतलाया है वही सीधा रास्ता है।

“और (ऐ नबी !) अगर आप ने इनकी ख्वाहिशात की पैरवी की उस इल्म के बाद जो आपके पास आ चुका है” وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَھْوَاۗءَھُمْ بَعْدَ الَّذِيْ جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِۙ

अगर बफर्ज़े महाल (असम्भव मान लीजिये) आप ﷺ ने इनकी ख्वाहिशात की पैरवी की कि चलो कुछ लो कुछ दो का मामला कर लो, कुछ इनकी बात मानो कुछ अपनी बात मनवा लो, तो यह तर्ज़े अमल अल्लाह तआला के यहाँ क़ाबिले क़ुबूल ना होगा। मक्का में क़ुरैश की तरफ़ से इस तरह की पेशकश की जाती थी कि कुछ अपनी बात मनवा लीजिये, कुछ हमारी मान लीजिये, compromise कर लीजिये, और अब मदीना में यहूद के साथ भी यही मामला था। चुनाँचे इस पर मुतनब्बा किया (ध्यान दिलाया) जा रहा है।

“तो नहीं होगा अल्लाह के मुक़ाबले में आप के लिये कोई मददगार और ना हिमायती।” (माज़ अल्लाह) مَا لَكَ مِنَ اللّٰهِ مِنْ وَّلِيٍّ وَّلَا نَصِيْرٍ  ١٢٠؁

हक़ की तलवार बिल्कुल उरियाँ (नग्न) है। अल्लाह का अद्ल हर फ़र्द के लिये अलग नहीं है, यह फ़र्द से फ़र्द तक बदलता नहीं है। ऐसे ही हर क़ौम और हर उम्मत के लिये क़ानून तब्दील नहीं होता। ऐसा नहीं है कि किसी एक क़ौम से कोई एक मामला हो और दूसरी क़ौम से कोई दूसरा मामला। अल्लाह के उसूल और क़वानीन गैर मुबद्दल हैं। इस ज़िमन में इसकी एक सुन्नत है जिसके बारे में फ़रमाया: {فَلَنْ تَجِدَ لِسُنَّتِ اللّٰهِ تَبْدِيْلًا ڬ وَلَنْ تَجِدَ لِسُنَّتِ اللّٰهِ تَحْوِيْلًا 43؀ } (फ़ातिर) “पस तुम अल्लाह के तरीक़े में हरगिज़ कोई तब्दीली ना पाओगे, और तुम अल्लाह के तरीक़े को हरगिज़ टलता हुआ नहीं पाओगे।”

आयत 121

“वह लोग जिन्हें हमने किताब दी है वह उसकी तिलावत करते हैं जैसा कि उसकी तिलावत का हक़ है।” اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰھُمُ الْكِتٰبَ يَتْلُوْنَهٗ حَقَّ تِلَاوَتِهٖ ۭ

इस पर मैंने अपने किताबचे “मुस्लमानों पर क़ुरान मजीद के हुक़ूक़” में बहस की है कि तिलावत का असल हक़ क्या है। एक बात जान लीजिये कि तिलावत का लफ्ज़, जो क़ुरान ने अपने लिये इख़्तियार किया है, बड़ा जामेअ लफ्ज़ है। “تَلَا یَتْلُوْ” का मायना पढ़ना भी है और “تَلَا یَتْلُوْ” किसी के पीछे-पीछे चलने (to follow) को भी कहते हैं। सुरतुश्शम्स की पहली दो आयात मुलाहिज़ा कीजिये:

“क़सम है सूरज की और उसकी धूप की। और क़सम है चाँद की जब वह उसके पीछे आता है।”وَالشَّمْسِ وَضُحٰىهَا   Ǻ۝۽ وَالْقَمَرِ اِذَا تَلٰىهَا  Ą۝۽

जब आप कोई किताब पढ़ते हैं तो आप उसके मतन (text) के पीछे-पीछे चल रहे होते हैं। चुनाँचे बाज़ लोग जो ज़्यादा माहिर नहीं होते, किताब पढ़ते हुए अपनी ऊँगली साथ-साथ चलाते हैं ताकि निगाह इधर से उधर ना हो जाये, एक सतर (लाइन) से दूसरी सतर पर ना पहुँच जाये। अल्लाह तआला की तरफ से नाज़िल करदा किताब की तिलावत का असल हक़ यह होगा कि आप इस किताब को follow करें, इसे अपना इमाम बनायें, इसके पीछे चलें, इसका इत्तेबाअ (पालन) करें, इसकी पैरवी (अनुसरण) करें, जिसकी हम दुआ करते हैं: وَاجْعَلْہُ لِیْ اِمَامًا وَّنُوْرًا وَّھُدًی وَّرَحْمَۃً “और इसे मेरे लिये इमाम और रोशनी और हिदायत और रहमत बना दे!” अल्लाह तआला इस क़ुरान को हमारा इमाम उसी वक़्त बनायेगा जब हम फ़ैसला कर लें कि हम इस किताब के पीछे चलेंगे।

“वही हैं जो इस पर ईमान रखते हैं।” اُولٰۗىِٕكَ يُؤْمِنُوْنَ بِهٖ ۭ

यानि जो अल्लाह की किताब की तिलावत का हक़ अदा करें और उसकी पैरवी भी करें। और जो ना तो तिलावत का हक़ अदा करें और ना किताब की पैरवी करें, लेकिन वह दावा करें कि हमारा ईमान है इस किताब पर तो यह दावा झूठा है। अज़रूए हदीसे नबवी ﷺ: ((مَا آمَنَ بِالْقُرْآنِ مَنِ اسْتَحَلَّ مَحَارِمَہٗ))(14) “जिस शख्स ने क़ुरान की हराम करदा चीज़ों को अपने लिये हलाल कर लिया उसका क़ुरान पर कोई ईमान नहीं है।”

“और जो इसका कुफ़्र करेगा तो वही लोग हैं खसारे में रहने वाले।” وَمَنْ يَّكْفُرْ بِهٖ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْخٰسِرُوْنَ   ١٢١۝ۧ

अब यहूद के साथ इस सिलसिला-ए-कलाम का इख्तताम (अंत) हो रहा है जिसका आगाज़ छठे रुकूअ से हुआ था। इस सिलसिला-ए-कलाम के आगाज़ में जो दो आयात आयी थीं उन्हें मैंने ब्रेकेट से ताबीर किया था। वही दो आयात यहाँ दोबारा आ रही हैं और इस तरह गोया ब्रेकेट बंद हो रही है। फ़रमाया:

आयत 122

“ऐ औलादे याक़ूब! याद करो मेरे उस ईनाम को जो मैंने तुम पर किया, और यह कि मैंने तुम्हें फ़ज़ीलत दी थी अहले आलम पर।” يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ  ١٢٢۝

यह आयत बैन ही इन अल्फ़ाज़ में छठे रुकूअ के आगाज़ में आ चुकी है। (आयत 47) दूसरी आयत भी ज्यों की त्यों आ रही है, सिर्फ़ अल्फ़ाज़ की तरतीब थोड़ी सी बदली है। इबारत के शुरू और आखिर वाली ब्रेकेट्स एक दूसरे का अक्स (mirror) होती हैं। एक की गोलाई दायीं तरफ़ होती है तो दूसरी की बायीं तरफ़। इसी तरह यहाँ दूसरी आयत की तरतीब दरमियान से थोड़ी सी बदल दी गयी है। फ़रमाया:

आयत 123

“और डरो उस दिन से कि जिस दिन कोई जान किसी दूसरी जान के कुछ भी काम ना आ सकेगी” وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِيْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا
“और ना उससे कोई फ़िदया क़ुबूल किया जायेगा” وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا عَدْلٌ

वहाँ अल्फ़ाज़ थे { وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ} “और ना उसे कोई सिफ़ारिश क़ुबूल की जायेगी।”

“और ना उसे कोई सिफ़ारिश ही फ़ायदा दे सकेगी” وَّلَا تَنْفَعُهَا شَفَاعَةٌ

यहाँ अद्ल पहले और शफ़ाअत बाद में है, वहाँ शफ़ाअत पहले है और अद्ल बाद में। बस यही एक तब्दीली है।

“और ना उन्हें कोई मदद मिल सकेगी।” وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ   ١٢٣؀

यह टुकड़ा भी ज्यों का त्यों वही है जिस पर छठे रुकूअ की दूसरी आयत ख़त्म हुई थी।

आयात 124 से 129 तक

وَاِذِ ابْتَلٰٓى اِبْرٰهٖمَ رَبُّهٗ بِكَلِمٰتٍ فَاَتَـمَّهُنَّ ۭ قَالَ اِنِّىْ جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ اِمَامًا ۭ قَالَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِىْ ۭ قَالَ لَا يَنَالُ عَهْدِي الظّٰلِمِيْنَ   ١٢٤؀ وَاِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَاَمْنًا ۭ وَاتَّخِذُوْا مِنْ مَّقَامِ  اِبْرٰهٖمَ مُصَلًّى ۭ وَعَهِدْنَآ اِلٰٓى اِبْرٰهٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ اَنْ طَهِّرَا بَيْتِىَ لِلطَّاۗىِٕفِيْنَ وَالْعٰكِفِيْنَ وَالرُّكَّعِ السُّجُوْدِ   ١٢٥؁ وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهٖمُ رَبِّ اجْعَلْ ھٰذَا بَلَدًا اٰمِنًا وَّارْزُقْ اَھْلَهٗ مِنَ الثَّمَرٰتِ مَنْ اٰمَنَ مِنْھُمْ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ قَالَ وَمَنْ كَفَرَ فَاُمَتِّعُهٗ قَلِيْلًا ثُمَّ اَضْطَرُّهٗٓ اِلٰى عَذَابِ النَّارِ ۭ وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ  ١٢٦؀ وَاِذْ يَرْفَعُ اِبْرٰھٖمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَاِسْمٰعِيْلُ ۭ رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا ۭ اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ   ١٢٧؁ رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِنَآ اُمَّةً مُّسْلِمَةً لَّكَ ۠ وَاَرِنَا مَنَاسِكَنَا وَتُبْ عَلَيْنَا ۚ اِنَّكَ اَنْتَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ  ١٢٨؁ رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيْهِمْ رَسُوْلًا مِّنْھُمْ يَتْلُوْا عَلَيْهِمْ اٰيٰتِكَ وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَيُزَكِّيْهِمْ ۭ اِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ    ١٢٩؀ۧ

सूरतुल बक़रह के इब्तदाई अट्ठारह रुकूओं में रुए सुखन मज्मुई तौर पर साबक़ा उम्मते मुस्लिमा यानि बनी इसराइल की जानिब है। इब्तदाई चार रुकूअ अगरचे उमूमी नौइयत के हामिल हैं, लेकिन उनमें भी यहूद की तरफ़ रुए सुखन के इशारे मौजूद हैं। चौथे रुकूअ के आगाज़ से पंद्रहवे रुकूअ की इब्तदाई दो आयात तक, इन दस रुकूओं में सारी गुफ्तगू सराहत के साथ (विशेष रूप से) बनी इसराइल ही से है, इल्ला यह कि एक जहग अहले ईमान से ख़िताब किया गया और कुछ मुशरिकीने मक्का का भी तारीज़ के असलूब में तज़किरा हो गया।

इसके बाद अब हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का ज़िक्र शुरू हो रहा है। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल से बनी इस्माइल और बनी इसराइल दो शाखें हैं। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़ौजा मोहतरमा हज़रत हाजरा से हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम पैदा हुए, जो बड़े थे, जबकि दूसरी बीवी हज़रत सारा से इसहाक़ अलैहिस्सलाम पैदा हुए। उनके बेटे याक़ूब अलैहिस्सलाम थे, जिनका लक़ब इसराइल था। उनके बारह बेटों से बनी इसराइल के बारह क़बीले वजूद में आये। हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम को हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने खाना काबा के पास, वादी-ए-गैर ज़ी ज़रअ (बंज़र ज़मीन) में आबाद किया था, जिनसे एक नस्ल बनी इस्माइल चली। हज़रत इब्राहीम अलै० के बाद नबुवत हज़रत इस्माइल अलै० को तो मिली, लेकिन उसके बाद तक़रीबन तीन हज़ार साल का फ़ासला है कि इस शाख में कोई नबुवत नहीं आई। नबुवत का सिलसिला दूसरी शाख में चला। हज़रत इसहाक़ के बेटे हज़रत याक़ूब और उनके बेटे हज़रत युसुफ अलैहिस्सलाम सब नबी थे। फिर हज़रत मूसा और हज़रत हारून अलैहिस्सलाम से शुरू होकर हज़रत ईसा और हज़रत याहया अलैहिस्सलाम तक चौदह सौ बरस मुसलसल ऐसे हैं कि बनी इसराइल में नबुवत का तार टूटा ही नहीं। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल से एक तीसरी शाख बनी क़तूरा भी थी। यह आप अलैहिस्सलाम की तीसरी अहलिया क़तूरा से थी। इन्हीं में से बनी मदयन (या बनी मदयान) थे, जिनमें हज़रत शोएब अलैहिस्सलाम की बेअसत हुई थी। इस तरह हज़रत शोएब अलैहिस्सलाम भी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नस्ल में से हैं।

जैसा कि अर्ज़ किया गया, हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम के बाद बनी इस्माइल में नबुवत का सिलसिला मुनक़तअ (कटा) रहा। यहाँ तक कि तक़रीबन तीन हज़ार साल बाद मुहम्मदे अरबी ﷺ की बेअसत हुई। आप ﷺ की बेअसत के बाद इमामतुन्नास साबक़ा उम्मते मुस्लिमा (बनी इसराइल) से मौजूदा उम्मते मुस्लिमा (उम्मते मुहम्मदी अला साहिबहुमा अस्सलातु वस्सलाम) को मुन्तक़िल हो गयी। इस इन्तेक़ाले इमामत के वक़्त बनी इसराइल से ख़िताब करते हुए उनके और बनी इस्माइल के माबैन क़द्र मुश्तरक (common ground) का तज़किरा किया जा रहा है ताकि उनके लिये बात का समझना आसान हो जाये। उन्हें बताया जा रहा है कि तुम्हारे जद्दे अमजद भी इब्राहीम अलैहिस्सलाम ही थे और यह दूसरी नस्ल भी इब्राहीम अलैहिस्सलाम ही की है। इस हवाले से यह समझ लिया जाये कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने खाना काबा की तामीर की थी और अब इसे अहले तौहीद का मरकज़ बनाया जा रहा है, चुनाँचे पंद्रहवें रुकूअ से अट्ठाहरवें रुकूअ तक यह सारी गुफ्तगू जो हो रही है इसका असल मज़मून “तहवीले क़िब्ला” है।

आयत 124

“और ज़रा याद करो जब इब्राहीम अलै० को आज़माया उसके रब ने बहुत सी बातों में तो उसने उन सबको पूरा कर दिखाया।” وَاِذِ ابْتَلٰٓى اِبْرٰهٖمَ رَبُّهٗ بِكَلِمٰتٍ فَاَتَـمَّهُنَّ ۭ

“ईद-उल-अज़हा और फ़लसफ़ा-ए-क़ुरबानी” के उन्वान से हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की शख्सियत पर मेरा एक किताब्चा है जो मेरी एक तक़रीर और एक तहरीर (लेखन) पर मुश्तमिल है। तहरीर का उन्वान है: “हज और ईद-उल-अज़हा और उनकी असल रूह।” अपनी यह तहरीर मुझे बहुत पसंद है। इसमें मैंने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलातु वस्सलाम के इम्तिहानात और आज़माइशों का ज़िक्र किया है। आप अलैहिस्सलाम के तवील सफ़रे हयात का खुलासा और लुब्बे लुबाब (सार) ही “इम्तिहान व आज़माइश” है, जिसके लिये क़ुरान की इस्तलाह (मुहावरा) “इबतला” है। इस आयत मुबारका में इनकी पूरी दास्ताने इबतला को चंद अल्फ़ाज़ में समो दिया गया है, और “فَاَتَمَّھُنَّ” का लफ्ज़ इन तमाम इम्तिहानात का नतीजा ज़ाहिर कर रहा है कि वह इन सबमें पूरा उतरे, इन सबमें पास हो गये, हर इम्तिहान में नुमाया हैसियत से कामयाबी हासिल की।

“तब फ़रमाया: (ऐ इब्राहीम अलै०!) अब मैं तुम्हें नौए इंसानी का इमाम बनाने वाला हूँ!” قَالَ اِنِّىْ جَاعِلُكَ لِلنَّاسِ اِمَامًا ۭ
“उन्होंने कहा: और मेरी औलाद में से भी!” قَالَ وَمِنْ ذُرِّيَّتِىْ ۭ

यानि मेरी नस्ल के बारे में भी यह वादा है या नहीं?

“फ़रमाया: मेरा यह अहद ज़ालिमों से मुताल्लिक़ नहीं होगा।” قَالَ لَا يَنَالُ عَهْدِي الظّٰلِمِيْنَ   ١٢٤؀

यानि तुम्हारी नस्ल में से जो साहिबे ईमान होंगे, नेक होंगे, सीधे रास्ते पर चलेंगे, उनसे मुताल्लिक़ हमारा यह वादा है। लेकिन यह अहद नस्लियत की बुनियाद पर नहीं है कि जो भी तुम्हारी नस्ल से हो वह इसका मिस्दाक़ बन जाये।

आयत 125

“और याद करो जब हमने इस घर (बैतुल्लाह) को क़रार दे दिया लोगों के लिये इज्तमाअ (और ज़ियारत) की जगह और उसे अमन का घर क़रार दे दिया।” وَاِذْ جَعَلْنَا الْبَيْتَ مَثَابَةً لِّلنَّاسِ وَاَمْنًا ۭ
“और (हमने हुक्म दिया कि) मक़ामे इब्राहीम अलै० को अपनी नमाज़ पढ़ने की जगह बना लो।” وَاتَّخِذُوْا مِنْ مَّقَامِ  اِبْرٰهٖمَ مُصَلًّى ۭ

दौरे जदीद के बाज़ उलमा ने यह कहा है कि मक़ामे इब्राहीम अलैहिस्सलाम से मुराद कोई ख़ास पत्थर नहीं है, बल्कि असल में वह पूरी जगह ही “मक़ामे इब्राहीम” है जहाँ हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम आबाद हुए थे। लेकिन सही बात वही है जो हमारे सलफ़ से चली आ रही है और इसके बारे में पुख्ता रिवायात हैं कि जिस तरह हज्रे अस्वद जन्नत से आया था ऐसे ही यह भी एक पत्थर था जो हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के लिये जन्नत से लाया गया था। खाना काबा की तामीर के दौरान आप अलैहिस्सलाम इस पर खड़े होते थे और जैसे-जैसे तामीर ऊपर जा रही थी उसके लिये यह पत्थर खुद-ब-खुद ऊँचा होता जाता है। इस पत्थर पर आप अलैहिस्सलाम के क़दमों का निशान है। यही पत्थर “मक़ामे इब्राहीम” है जो अब भी महफूज़ है। बैतुल्लाह का तवाफ़ मुकम्मल करके इसके क़रीब दो रकअत नमाज़ अदा की जाती है।

“और हमने हुक्म किया था इब्राहीम अलै० और इस्माइल अलै० को कि तुम दोनों मेरे इस घर को पाक रखो तवाफ़ करने वालों, ऐताकाफ़ करने वालों और रुकूअ व सुजूद करने वालों के लिये।” وَعَهِدْنَآ اِلٰٓى اِبْرٰهٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ اَنْ طَهِّرَا بَيْتِىَ لِلطَّاۗىِٕفِيْنَ وَالْعٰكِفِيْنَ وَالرُّكَّعِ السُّجُوْدِ   ١٢٥؁

इससे दोनों तरह की ततहीर (सफ़ाई) मुराद है। ज़ाहिरी सफाई भी हो, गन्दगी ना हो, ताकि ज़ायरीन आयें तो उनके दिलों में कदुरत (नफ़रत) पैदा ना हो, उन्हें कोफ्त (ऊब) ना हो। और ततहीर बातिनी का भी अह्तमाम हो कि वहाँ तौहीद का चर्चा हो, किसी तरह का कोई कुफ़्र व शिर्क दर ना आने पाये।

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आयत 126

“और याद करो जबकि इब्राहीम अलै० ने दुआ की थी: ऐ मेरे परवरदिगार! इस घर को अमन की जगह बना दे” وَاِذْ قَالَ اِبْرٰهٖمُ رَبِّ اجْعَلْ ھٰذَا بَلَدًا اٰمِنًا
“और यहाँ आबाद होने वालों (यानि बनी इस्माइल अलै०) को फ़लों का रिज़्क़ अता कर, जो कोई उनमें से ईमान लाये अल्लाह पर और यौमे आख़िर पर।” وَّارْزُقْ اَھْلَهٗ مِنَ الثَّمَرٰتِ مَنْ اٰمَنَ مِنْھُمْ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ

यहाँ हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने खुद ही अहतियात बरती और अपनी सारी औलाद के लिये यह दुआ नहीं की, बल्कि सिर्फ़ उनके लिये जो अल्लाह पर और यौमे आख़िर पर ईमान रखते हों। इसलिये कि पहली दुआ में      “وَمِنْ ذُرِّیَّتِیْ” के जवाब में अल्लाह तआला ने इरशाद फ़रमाया था:               {لَا يَنَالُ عَهْدِي الظّٰلِمِيْنَ   ١٢٤؀} लेकिन यहाँ मामला मुख्तलिफ़ (अलग) नज़र आता है।

“अल्लाह तआला ने फ़रमाया: और (तुम्हारी औलाद में से) जो कुफ़्र करेगा तो उसको भी मैं दुनिया की चंद रोज़ा ज़िन्दगी का साज़ो सामान तो दूँगा” قَالَ وَمَنْ كَفَرَ فَاُمَتِّعُهٗ قَلِيْلًا

जो लोग ईमान से महरूम होंगे उन्हें मैं इमामत में शामिल नहीं करूँगा, लेकिन बहरहाल दुनियवी ज़िन्दगी का माल व मताअ (उपयोगी सामान) तो मैं उनको भी दूँगा।

“फिर उसे कशां-कशां ले आऊँगा जहन्नम के अज़ाब की तरफ।” ثُمَّ اَضْطَرُّهٗٓ اِلٰى عَذَابِ النَّارِ ۭ
“और वह बहुत बुरी जगह है लौटने की।” وَبِئْسَ الْمَصِيْرُ  ١٢٦؀

आयत 127

“और याद करो जब इब्राहीम अलै० और इस्माइल अलै० हमारे घर की बुनियादों को उठा रहे थे।” وَاِذْ يَرْفَعُ اِبْرٰھٖمُ الْقَوَاعِدَ مِنَ الْبَيْتِ وَاِسْمٰعِيْلُ ۭ

बाप-बेटा दोनों बैतुल्लाह की तामीर में लगे हुए थे। यहाँ लफ्ज़ “قَوَاعِدَ” जो आया है इसे नोट कीजिये, यह “قاعدہ” की जमा है और बुनियादों को कहा जाता है। इस लफ्ज़ से यह इशारा मिलता है कि हज़रत इब्राहीम अलै० खाना काबा के असल मअमार (Architect) और बानी (संस्थापक) नहीं हैं। काबा सबसे पहले हज़रत आदम अलैहिस्सलाम ने तामीर किया था। सूरह आले इमरान (आयत 96) में अल्फाज़ आये हैं: {اِنَّ اَوَّلَ بَيْتٍ وُّضِــعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِيْ بِبَكَّةَ } “बेशक सबसे पहला घर जो लोगों के लिये मुक़र्रर किया गया यही है जो मक्का में है।” अब यह कैसे मुमकिन था कि हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के ज़माने से लेकर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम तक, कम-ओ-बेश चार हज़ार बरस के दौरान, रुए अर्ज़ी पर कोई मस्जिद तामीर ना हुई हो? अल्लाह तआला की इबादत के लिये तामीर किया गया सबसे पहला घर यही काबा था। इम्तदादे ज़माने (वक़्त गुज़रने) से इसकी सिर्फ़ बुनियादें बाक़ी रह गयी थीं, और चूँकि यह वादी में वाक़ेअ था जो सैलाब का रास्ता था, लिहाज़ा सैलाब की वजह से इसकी सब दीवारें बह गयी थीं। हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माइल अलै० ने इन बुनियादों को फिर से उठाया। सूरतुल हज में यह मज़मून तफ़सील से आया है।

जब वह इन बुनियादों को उठा रहे थे तो अल्लाह तआला से दुआयें माँग रहे थे:

“ऐ हमारे रब! हमसे यह ख़िदमत क़ुबूल फ़रमा ले।” رَبَّنَا تَقَبَّلْ مِنَّا ۭ

हमारी इस कोशिश और हमारी इस मेहनत व मशक्क़त को क़ुबूल फ़रमा! जिस वक़्त हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम बैतुल्लाह की तामीर कर रहे थे उस वक़्त हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम की उम्र लगभग तेरह बरस थी, आप अलैहिस्सलाम इस काम में अपने वालिद मोहतरम का हाथ बटा रहे थे।

“यक़ीनन तू सब कुछ सुनने वाला जानने वाला है।” اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ   ١٢٧؁

आयत 128

“और ऐ हमारे रब! हमें अपना मुतीअ फ़रमान बनाये रख” رَبَّنَا وَاجْعَلْنَا مُسْلِمَيْنِ لَكَ

नोट कीजिये, यह दुआ इब्राहीम अलैहिस्सलाम कर रहे हैं। तो मैं और आप अगर अपने बारे में मुत्मईन हो जायें कि मेरी मौत लाज़िमन हक़ पर होगी, इस्लाम पर होगी तो यह बहुत बड़ा धोखा है। चुनाँचे डरते रहना चाहिये और अल्लाह की पनाह तलब करते रहना चाहिये।

“और हम दोनों की नस्ल से एक उम्मत उठाइयो जो तेरी फ़रमाबरदार हो।” وَمِنْ ذُرِّيَّتِنَآ اُمَّةً مُّسْلِمَةً لَّكَ ۠
“और हमें हज करने के क़ायदे बतला दे” وَاَرِنَا مَنَاسِكَنَا

ऐ परवरदिगार! तेरा यह घर तो हमने बना दिया, अब इसकी ज़ियारत से मुताल्लिक़ जो रसूमात हैं, जो मनासिके हज हैं वह हमें सिखा दे।

“और हम पर अपनी तवज्जो फ़रमा।”  وَتُبْ عَلَيْنَا ۚ

हम पर अपनी शफक्क़त की नज़र फ़रमा।

“यक़ीनन तू ही है बहुत ज़्यादा तौबा का क़ुबूल फ़रमाने वाला (और शफक्क़त के साथ रुजूअ करने वाला) और रहम फ़रमाने वाला।” اِنَّكَ اَنْتَ التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ  ١٢٨؁

आयत 129

“और ऐ हमारे परवरदिगार! उन लोगों में उठाइयो एक रसूल खुद उन्हीं में से” رَبَّنَا وَابْعَثْ فِيْهِمْ رَسُوْلًا مِّنْھُمْ

فِیْھِمْ से हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माइल अलैहिस्सलाम की नस्ल यानि बनी इस्माइल मुराद है। वह दोनों दुआ कर रहे थे कि परवरदिगार! हमारी इस नस्ल में एक रसूल मबऊस (नियुक्त) फ़रमाना जो उन्हीं में से हो, बाहर का ना हो, ताकि उनके और उसके दरमियान मुगायरत (टकराव) और अजनबियत का कोई पर्दा हाईल (रुकावट) ना हो।

“जो उन्हें तेरी आयात पढ़ कर सुनाये” يَتْلُوْا عَلَيْهِمْ اٰيٰتِكَ
“और उन्हें किताब और हिकमत की तालीम दे” وَيُعَلِّمُهُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ

किताब का सिर्फ़ पढ़ कर सुना देना तो बहुत आसान काम है। इसके बाद किताब और उसमें मौजूद हिकमत की तालीम देना और उसे दिलों में बिठाना अहमतर है।

“और उनको पाक करे।” وَيُزَكِّيْهِمْ ۭ

उनका तज़किया करे और उनके दिलों में तेरी मोहब्बत और आख़िरत की तलब की सिवा कोई तलब बाक़ी ना रहने दे।

“यक़ीनन तू ही है ज़बरदस्त और कमाले हिकमत वाला।” اِنَّكَ اَنْتَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ    ١٢٩؀ۧ

आयात 130 से 141 तक

وَمَنْ يَّرْغَبُ عَنْ مِّلَّةِ اِبْرٰھٖمَ اِلَّا مَنْ سَفِهَ نَفْسَهٗ ۭ وَلَقَدِ اصْطَفَيْنٰهُ فِي الدُّنْيَا ۚ وَاِنَّهٗ فِي الْاٰخِرَةِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ   ١٣٠؁ اِذْ قَالَ لَهٗ رَبُّهٗٓ اَسْلِمْ ۙ قَالَ اَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ   ١٣١؁ وَوَصّٰى بِهَآ اِبْرٰھٖمُ بَنِيْهِ وَيَعْقُوْبُ ۭيٰبَنِىَّ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰى لَكُمُ الدِّيْنَ فَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ   ١٣٢؁ اَمْ كُنْتُمْ شُهَدَاۗءَ اِذْ حَضَرَ يَعْقُوْبَ الْمَوْتُ ۙ اِذْ قَالَ لِبَنِيْهِ مَا تَعْبُدُوْنَ مِنْۢ بَعْدِيْ ۭ قَالُوْا نَعْبُدُ اِلٰهَكَ وَاِلٰهَ اٰبَاۗىِٕكَ اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ اِلٰــهًا وَّاحِدًا ښ وَّنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ  ١٣٣؁ تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ وَلَا تُسْـــَٔــلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ   ١٣٤؁ وَقَالُوْا كُوْنُوْا ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى تَهْتَدُوْا ۭ قُلْ بَلْ مِلَّةَ اِبْرٰھٖمَ حَنِيْفًا ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ  ١٣٥؁ قُوْلُوْٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ اِلٰٓى اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَمَآ اُوْتِيَ النَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ ڮ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ   ١٣٦؁ فَاِنْ اٰمَنُوْا بِمِثْلِ مَآ اٰمَنْتُمْ بِهٖ فَقَدِ اھْتَدَوْا ۚ وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا ھُمْ فِيْ شِقَاقٍ ۚ فَسَيَكْفِيْكَهُمُ اللّٰهُ ۚ وَھُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ   ١٣٧؁ۭ صِبْغَةَ اللّٰهِ ۚ وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ صِبْغَةً ۡ وَّنَحْنُ لَهٗ عٰبِدُوْنَ   ١٣٨؁ قُلْ اَتُحَاۗجُّوْنَـــنَا فِي اللّٰهِ وَھُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ ۚ وَلَنَآ اَعْمَالُنَا وَلَكُمْ اَعْمَالُكُمْ ۚ وَنَحْنُ لَهٗ مُخْلِصُوْنَ    ١٣٩؁ اَمْ تَقُوْلُوْنَ اِنَّ اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطَ كَانُوْا ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى ۭ قُلْ ءَاَنْتُمْ اَعْلَمُ اَمِ اللّٰهُ ۭ وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَهَادَةً عِنْدَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۭ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ   ١٤٠؁ تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ وَلَا تُسْـَٔـلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ   ١٤١؁ۧ

आयत 130

“और कौन होगा जो इब्राहीम अलैहिस्सलाम के तरीक़े से मुँह मोड़े?” وَمَنْ يَّرْغَبُ عَنْ مِّلَّةِ اِبْرٰھٖمَ

रग़बत का लफ्ज़ अरबी ज़बान में दोनों तरह इस्तेमाल होता है। “رَغِبَ اِلٰی” का मफ़हूम है किसी शय की तरफ़ रग़बत होना, मोहब्बत होना, मीलान होना, जबकि “رَغِبَ عَنْ” का मतलब है किसी शय से मुतनफ्फ़िर (नफ़रत) होना, किसी शय से इबा (इन्कार) करना, उसको छोड़ देना। जैसा कि हदीस में आया है: ((فَمَنْ رَّغِبَ عَنْ سُنَّتِیْ فَلَیْسَ مِنِّیْ))(15) “पस जिसे मेरी सुन्नत नापसंद हो तो वह मुझसे नहीं है।”

“सिवाय उसके जिसने अपने आपको हिमाक़त ही में मुब्तला करने का फ़ैसला कर लिया हो!” اِلَّا مَنْ سَفِهَ نَفْسَهٗ ۭ

उसके सिवा और कौन होगा जो इब्राहीम अलै० के तरीक़े से मुँह मोड़े?

“और हमने तो उन्हें दुनिया में भी मुन्तखब कर लिया था।” وَلَقَدِ اصْطَفَيْنٰهُ فِي الدُّنْيَا ۚ
“और यक़ीनन आख़िरत में भी वह हमारे सालेह बन्दों में से होंगे।” وَاِنَّهٗ فِي الْاٰخِرَةِ لَمِنَ الصّٰلِحِيْنَ   ١٣٠؁

आयत 131      

“जब भी कहा उससे उसके परवरदिगार ने कि मुतीअ (विनम्र) फ़रमान होजा तो उसने कहा मैं मुतीअ फ़रमान हूँ तमाम जहानों के परवरदिगार का।”اِذْ قَالَ لَهٗ رَبُّهٗٓ اَسْلِمْ ۙ قَالَ اَسْلَمْتُ لِرَبِّ الْعٰلَمِيْنَ   ١٣١؁

यहाँ तक कि इकलौते बेटे को ज़िबह करने का हुक्म आया तो उस पर भी सरे तस्लीम ख़म कर दिया। यह हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के सिलसिलाये इम्तिहानात का आखरी इम्तिहान था जो अल्लाह तआला ने उनका सौ बरस की उम्र में लिया। अल्लाह तआला से दुआएँ माँग-माँग कर सतासी बरस की उम्र में बेटा (इस्माइल अलैहिस्सलाम) लिया था और अब वह तेरह बरस का हो चुका था, बाप का दस्तो बाज़ू बन गया था। उस वक़्त उसे ज़िबह करने का हुक्म हुआ तो आप अलैहिस्सलाम फ़ौरन तैयार हो गये। यहाँ फ़रमाया जा रहा है कि जब भी हमने इब्राहीम अलैहिस्सलाम से कहा कि हमारा हुक्म मानो तो उसे हुक्म बरदारी के लिये सरापा तैयार पाया। अल्लाह तआला हमें भी इस तर्ज़े अमल की पैरवी की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये। आमीन!

आयत 132

“और इसी की वसीयत की थी इब्राहीम अलै० ने अपने बेटों को और याक़ूब ने भी।” وَوَصّٰى بِهَآ اِبْرٰھٖمُ بَنِيْهِ وَيَعْقُوْبُ ۭ

आगे वह नसीहत बयान हो रही है:

“ऐ मेरे बेटों! अल्लाह ने तुम्हारे लिये यही दीन पसंद फ़रमाया है” يٰبَنِىَّ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰى لَكُمُ الدِّيْنَ
“पस तुम हरगिज़ ना मरना मगर मुस्लमान!” فَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ   ١٣٢؁

देखना तुम्हें मौत ना आने पाये, मगर फ़रमाबरदारी की हालत में! यही बात सूरह आले इमरान (आयत:102) में मुस्लमानों से ख़िताब करके फ़रमायी गयी: {يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ حَقَّ تُقٰتِھٖ وَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ     ١٠٢؁} “ऐ लोगों जो ईमान लाये हो! अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो जैसा कि उसके तक़वे का हक़ है और तुमको मौत ना आये, मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम हो।” और फ़रमाया: {اِنَّ الدِّيْنَ عِنْدَ اللّٰهِ الْاِسْلَامُ ۣ} (आयत:19) “यक़ीनन दीन तो अल्लाह के नज़दीक सिर्फ़ इस्लाम है।” मज़ीद फ़रमाया: {وَمَنْ يَّبْتَـغِ غَيْرَ الْاِسْلَامِ دِيْنًا فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْهُ  ۚ } (आयत:85) “और जो कोई इस्लाम के सिवा कोई और दीन इख़्तियार करना चाहे तो उससे वह हरगिज़ क़ुबूल ना किया जायेगा।”

आयत 133

“क्या तुम उस वक़्त मौजूद थे जब आ धमकी याक़ूब पर मौत” اَمْ كُنْتُمْ شُهَدَاۗءَ اِذْ حَضَرَ يَعْقُوْبَ الْمَوْتُ ۙ

यानि जब याक़ूब अलैहिस्सलाम की मौत का वक़्त आया। उस वक़्त हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम और उनके सब बेटे हज़रत युसुफ़ अलैहिस्सलाम के ज़रिये मिस्र में पहुँच चुके थे। यह सारा वाक़िया सूरह युसुफ़ में बयान हुआ है। हज़रत याक़ूब अलैहिस्सलाम का इन्तेक़ाल मिस्र में हुआ। दुनिया से रुख्सत होने से पहले उन्होंने अपने बारह के बारह बेटों को जमा किया।

“जब कहाँ अपने बेटों से कि तुम किसकी इबादत करोगे मेरे बाद?” اِذْ قَالَ لِبَنِيْهِ مَا تَعْبُدُوْنَ مِنْۢ بَعْدِيْ ۭ

किसकी पूजा करोगे? किसकी परस्तिश करोगे? यह बात नहीं थी कि उन्हें मालूम ना था कि उन्हें किसकी इबादत करनी है, बल्कि आप अलैहिस्सलाम ने क़ौल व क़रार को मज़ीद पुख्ता करने के लिये यह अंदाज़ इख़्तियार फ़रमाया।

“उन्होंने कहा हम बन्दगी करेंगे आपके मअबूद की और आपके आबा इब्राहीम, इस्माइल और इसहाक़ के मअबूद की” قَالُوْا نَعْبُدُ اِلٰهَكَ وَاِلٰهَ اٰبَاۗىِٕكَ اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ
“वही एक मअबूद है” اِلٰــهًا وَّاحِدًا ښ
“और हम सब उसी के मुतीअ फ़रमान हैं।” وَّنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ  ١٣٣؁

हम उसी के सामने सर झुकाते हैं और उसी की फ़रमाबरदारी का इक़रार करते हैं।

आयत 134

“यह एक जमाअत थी जो गुज़र चुकी।” تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ

यह आयत इस रुकूअ में दो मरतबा आयी है। यह इन्सानों का एक गिरोह था जो गुज़र गया। इब्राहीम, इस्माइल, इसहाक़, याक़ूब अलैहिस्सलाम और उनकी औलाद सब गुज़र चुके।

“उनके लिये था जो उन्होंने कमाया और तुम्हारे लिये होगा जो तुम कमाओगे।” لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ

यहाँ “पदरम सुल्तान बूद” का दावा कोई मक़ाम नहीं रखता। हर शख्स के लिये अपना ईमान, अपना अमल और अपनी कमाई ही काम आयेगी।

“तुमसे यह नहीं पूछा जायेगा कि वह क्या करते थे।” وَلَا تُسْـــَٔــلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ   ١٣٤؁

तुमसे तो यही पूछा जायेगा कि तुम क्या करके लाये हो? तुम्हारा बाप सुल्तान होगा, लेकिन तुम अपनी बात करो कि तुम क्या हो?

इस पसमंज़र में अब यहूद की खबासत को नुमाया किया जा रहा है कि इब्राहीम और याक़ूब अलैहिस्सलाम की वसीयत तो यह थी, मगर उस वक़्त के यहूद व नसारा का क्या रवैय्या है। उन्होंने अल्लाह के रसूल ﷺ के खिलाफ़ मुत्तहिदा महाज़ बना रखा है।

आयत 135

“और वह कहते हैं या तो यहूदी हो जाओ या नसरानी तो हिदायत पर हो जाओगे।” وَقَالُوْا كُوْنُوْا ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى تَهْتَدُوْا ۭ
“कह दीजिये नहीं, बल्कि (हम तो पैरवी करेंगे) इब्राहीम के तरीक़े की बिल्कुल यक्सु होकर।” قُلْ بَلْ مِلَّةَ اِبْرٰھٖمَ حَنِيْفًا ۭ

مِلَّةَ से क़ब्ल फ़अल نَتَّبِعُ  महज़ूफ़ है। गोया: “بَلْ نَتَّبِعُ  مِلَّةَ اِبْرٰھٖمَ حَنِيْفًا”।

“और वह मुशरिकों में से नहीं थे।” وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ  ١٣٥؁

अब मुस्लमानों को हुक्म दिया जा रहा है कि यहूद व नसारा जो कुछ कहते हैं उसके जवाब में तुम यह कहो”

आयत 136

“कहो हम ईमान रखते हैं अल्लाह पर” قُوْلُوْٓا اٰمَنَّا بِاللّٰهِ
“और जो कुछ नाज़िल किया गया हमारी जानिब” وَمَآ اُنْزِلَ اِلَيْنَا
“और जो कुछ नाज़िल किया गया इब्राहीम, इस्माइल, इसहाक़, याक़ूब और औलादे याक़ूब की तरफ़” وَمَآ اُنْزِلَ اِلٰٓى اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ
“और जो कुछ दिया गया मूसा और ईसा को” وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى
“और जो कुछ दिया गया तमाम नबियों को उनके रब की तरफ से।” وَمَآ اُوْتِيَ النَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْ ۚ
“हम उनमें से किसी के माबैन तफ़रीक़ नहीं करते।” لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ ڮ

हम सबको मानते हैं, किसी का इन्कार नहीं करते। एक बात समझ लीजिये कि एक है “تفضیل” यानि किसी एक को दूसरे से ज़्यादा अफ़ज़ल समझना, यह और बात है, इसकी नफ़ी नहीं है। सूरतुल बक़रह (आयत:253) ही में अल्फ़ाज़ आये हैं: { تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ  ۘ} “यह सब रसूल फ़ज़ीलत दी हमने बाज़ को बाज़ पर।” जबकि तफ़रीक़ यह है कि एक को माना जाये और एक का इन्कार कर दिया जाये। और रसूलों में से किसी एक का इन्कार गोया सबका इन्कार है।

“और हम उसी के मुतीअ फ़रमान हैं।” وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ   ١٣٦؁

हमने तो उसी की फ़रमाबरदारी का क़लादा अपनी गर्दन में डाल लिया है।

आयत 137

“फिर (ऐ मुस्लमानों) अगर वह (यहूद व नसारा) भी उसी तरह ईमान ले आयें जिस तरह तुम ईमान लाये हो” فَاِنْ اٰمَنُوْا بِمِثْلِ مَآ اٰمَنْتُمْ بِهٖ

यानि वह ज़िद और हठधर्मी की रविश तर्क कर दें और ठीक-ठीक वही दीन और वही रास्ता इख़्तियार करें जो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के ज़रिये से तुम्हें दिया गया है।

“तब वह हिदायत पर होंगे।” فَقَدِ اھْتَدَوْا ۚ
“और अगर वह पीठ मोड़ लें” وَاِنْ تَوَلَّوْا
“तो फिर वही हैं ज़िद पर।” فَاِنَّمَا ھُمْ فِيْ شِقَاقٍ ۚ

अगर वह ईमान नहीं लाते तो इसके मायने यह हैं कि वह हठधर्मी और ज़िद्दम ज़िद्दा में मुब्तला हो चुके हैं और दुश्मनी और मुखालफ़त पर अड़े हुए हैं।

“तो (ऐ नबी !) आपके लिये इनके मुक़ाबले में अल्लाह काफी है।” فَسَيَكْفِيْكَهُمُ اللّٰهُ ۚ

आप फ़िक्र ना करें, आप ﷺ मदाहनत (compromise) की किसी दावत की तरफ़ तवज्जो ही ना करें, कुछ दो कुछ लो का मामला आप बिल्कुल भी ना सोचें। आप इनकी मुखाल्फ़तों से मरऊब (भयभीत) ना हों और इनकी धमकियों का कोई असर ना लें। अल्लाह तआला आपकी हिमायत के लिये इन सबके मुक़ाबले में काफ़ी रहेगा।

“और वह सब कुछ सुनने वाला जानने वाला है।” وَھُوَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ   ١٣٧؁ۭ

ऐसा नहीं है कि उसे मालूम ना हो कि आप ﷺ इस वक़्त किन हालात में हैं, कैसी मुश्किलात में हैं, किस तरह की नाज़ुक सूरते हाल है जो दिन-ब-दिन शक्ल बदल रही है। अल्लाह तआला हर तरह के हालात में आपका मुहाफ़िज़ और मददगार है।

[हज़रत उस्मान रज़िअल्लाहुअन्हु शहादत के वक़्त क़ुरान हकीम के जिस नुस्खे पर तिलावत फ़रमा रहे थे उसमें इन अल्फ़ाज़ पर खून का धब्बा आज भी मौजूद है। बागियों ने आप रज़ि० को क़ुरान की तिलावत करते हुए शहीद किया था। आप रज़ि० की ज़ौजा मोहतरमा नाईला रज़िअल्लाहुअन्हा ने आपको बचाना चाहा तो उनकी उँगलियाँ कट गईं और खून इन अल्फ़ाज़ पर पड़ा।]

आयत 138

“हमने तो इख़्तियार कर लिया है अल्लाह के रंग को।” صِبْغَةَ اللّٰهِ ۚ

“مِلَّۃَ اِبْرَاھِیْمَ” की तरह “صِبْغَۃَ اللہِ” में भी मुज़ाफ की नसब बता रही है कि यह मुरक्कबे इज़ाफ़ी मफ़ऊल है और इसका फ़अल महज़ूफ़ है।

“और अल्लाह के रंग से बेहतर और किसका रंग होगा?” وَمَنْ اَحْسَنُ مِنَ اللّٰهِ صِبْغَةً ۡ
“और हम तो बस उसी की बन्दगी करने वाले लोग हैं।” وَّنَحْنُ لَهٗ عٰبِدُوْنَ   ١٣٨؁

आयत 139

“(ऐ नबी इनसे) कहिये क्या तुम हमसे झगड़ रहे हो (दलील बाज़ी कर रहे हो) अल्लाह के बारे में?” قُلْ اَتُحَاۗجُّوْنَـــنَا فِي اللّٰهِ
“हालाँकि वही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी।” وَھُوَ رَبُّنَا وَرَبُّكُمْ ۚ

रब भी एक है और उसका दीन भी एक है, हाँ शरीअतों में फ़र्क़ ज़रूर हुआ है।

“और हमारे लिये होंगे हमारे अमल और तुम्हारे लिये होंगे तुम्हारे अमल।” وَلَنَآ اَعْمَالُنَا وَلَكُمْ اَعْمَالُكُمْ ۚ
“और हम तो खालिस उसी के हैं।” وَنَحْنُ لَهٗ مُخْلِصُوْنَ    ١٣٩؁

हम उसके लिये अपने आपको और अपनी बन्दगी को खालिस कर चुके हैं।

यहाँ पे-दर-पे आने वाले तीन अल्फ़ाज़ को नोट कीजिये। यह मक़ाम मेरे और आपके लिये लम्हा-ए-फिक्रिया है। आयत 136 इन अल्फ़ाज़ पर ख़त्म हुई थी: { وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ   ١٣٦؁ } “हम उसी के सामने सरे तस्लीम ख़म करते हैं।” इनमें तो हम भी शामिल हैं। इसके बाद आयत 138 के इख्तताम पर यह अल्फ़ाज़ आये: { وَّنَحْنُ لَهٗ عٰبِدُوْنَ   ١٣٨؁ } “और हम उस ही की बन्दगी करते हैं।” सिर्फ़ इस्लाम नहीं, इबादत यानि पूरी ज़िन्दगी में उसके हर हुक्म की पैरवी और इताअत दरकार है। इससे आगे यह बात आयी: { وَنَحْنُ لَهٗ مُخْلِصُوْنَ    ١٣٩؁} यह इबादत अगर इख्लास के साथ नहीं है तो मुनाफ़क़त है। इस इबादत से कोई दुनयवी मनफ़अत पेशे नज़र ना हो। “सौदागरी नहीं, यह इबादत ख़ुदा की है!” दीन को दुनिया बनाने और दुनिया कमाने का ज़रिया बनाने से बढ़ कर गिरी हुई हरकत और कोई नहीं है। रसूल अल्लाह ﷺ का इर्शादे गरामी है:

((مَنْ صَلّٰی یُرَائِیْ فَقَدْ اَشْرَکَ وَمَنْ صَامَ یُرَائِیْ فَقَدْ اَشْرَکَ وَمَنْ تَصَدَّقَ یُرَائِیْ فَقَدْ اَشْرَکَ))

“जिसने दिखावे के लिये नमाज़ पढ़ी उसने शिर्क किया, जिसने दिखावे के लिये रोज़ा रखा उसने शिर्क किया, और जिसने दिखावे के लिये सदक़ा व खैरात किया उसने शिर्क किया।” (मसनद अहमद)

इन तीनों अल्फ़ाज़ को हर्ज़े जान (तावीज़) बना लीजिये:

نَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ،    نَحْنُ لَهٗ عٰبِدُوْنَ،     نَحْنُ لَهٗ مُخْلِصُوْنَ۔ اَللّٰھُمَّ رَبَّنَا اجْعَلْنَا مِنْھُمْ! اَللّٰھُمَّ رَبَّنَا اجْعَلْنَا مِنْھُمْ!!

आयत 140

“क्या तुम्हारा कहना यह है कि इब्राहीम, इस्माइल, इसहाक़ और याक़ूब और उनकी औलाद सब यहूदी थे या नसरानी थे?” اَمْ تَقُوْلُوْنَ اِنَّ اِبْرٰھٖمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطَ كَانُوْا ھُوْدًا اَوْ نَصٰرٰى ۭ

तुम जो कहते हो कि यहूदी हो जाओ या नसरानी तब हिदायत पाओगे, तो क्या इब्राहीम अलैहिस्सलाम यहूदी थे या नसरानी? और इसहाक़, याक़ूब, युसुफ़, मूसा और ईसा अलैहिस्सलाम कौन थे? यही बात आज मुस्लमानों को सोचनी चाहिये कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और आप ﷺ के असहाब रज़िअल्लाहुअन्हुम देवबन्दी थे, बरेलवी थे, अहले हदीस थे, या शिया थे? अल्लाह तआला के साथ इख्लास का तक़ाज़ा यह है कि इन तक़सीमों से बालातर (ऊपर) रहा जाये। ठीक है एक शख्स किसी फ़िक्ही मसलक की पैरवी कर रहा है, लेकिन उस मसलक को अपनी शिनाख्त बना लेना, उसे दीन पर मुक़द्दम रखना, उस मसलक ही के लिये है सारी मेहनत व मशक्क़त और भाग-दौड़ करना, और उसी की दावत व तब्लीग करना, दीन की असल हक़ीक़त और रूह के यक्सर (पूरी तरह से) खिलाफ़ है।

“कहिये: तुम ज़्यादा जानते हो या अल्लाह?” قُلْ ءَاَنْتُمْ اَعْلَمُ اَمِ اللّٰهُ ۭ
“और (कान खोल कर सुन लो) उस शख्स से बढ़ कर ज़ालिम और कौन होगा जिसके पास अल्लाह की तरफ़ से एक गवाही थी जिसे उसने छुपा लिया?” وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَهَادَةً عِنْدَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۭ

उल्माये यहूद जानते थे कि मुहम्मद ﷺ अल्लाह के रसूल हैं, जिनके वह मुन्तज़िर थे। लेकिन वह इस गवाही को छुपाये बैठे थे।

“और अल्लाह हरगिज़ ग़ाफ़िल नहीं है उससे जो तुम कर रहे हो।” وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ   ١٤٠؁

आयत 141

“वह एक जमाअत थी जो गुज़र चुकी।” تِلْكَ اُمَّةٌ قَدْ خَلَتْ ۚ

यह उस मुक़द्दस जमाअत के गुले सरसब्द थे जिनका तज़किरा हुआ।

“उनके लिये है जो कमाई उन्होंने की और तुम्हारे लिये है जो कमाई तुमने की।” لَهَا مَا كَسَبَتْ وَلَكُمْ مَّا كَسَبْتُمْ ۚ

जो अमल उन्होंने कमाये वह उनके लिये हैं, तुम्हारे लिये नहीं। तुम्हारे लिये वही होगा जो तुम कमाओगे।

“और तुमसे उनके आमाल के बारे में सवाल नहीं होगा।” وَلَا تُسْـَٔـلُوْنَ عَمَّا كَانُوْا يَعْمَلُوْنَ   ١٤١؁ۧ

तुमसे यह नहीं पूछा जायेगा कि उन्होंने क्या किया, तुमसे तो यह सवाल होगा कि तुमने क्या किया!

आयात 142 से 152 तक

سَيَقُوْلُ السُّفَهَاۗءُ مِنَ النَّاسِ مَا وَلّٰىهُمْ عَنْ قِبْلَتِهِمُ الَّتِىْ كَانُوْاعَلَيْهَا ۭ قُلْ لِّلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۭ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ   ١٤٢؁ وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا ۭ وَمَا جَعَلْنَا الْقِبْلَةَ الَّتِىْ كُنْتَ عَلَيْهَآ اِلَّا لِنَعْلَمَ مَنْ يَّتَّبِـــعُ الرَّسُوْلَ مِمَّنْ يَّنْقَلِبُ عَلٰي عَقِبَيْهِ ۭ وَاِنْ كَانَتْ لَكَبِيْرَةً اِلَّا عَلَي الَّذِيْنَ ھَدَى اللّٰهُ ۭ وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِـيُضِيْعَ اِيْمَانَكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ بِالنَّاسِ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ    ١٤٣؁ قَدْ نَرٰى تَـقَلُّبَ وَجْهِكَ فِي السَّمَاۗءِ ۚ فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَةً تَرْضٰىھَا ۠فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭوَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَهٗ ۭ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهُ الْحَـقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۭ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُوْنَ   ١٤٤؁ وَلَىِٕنْ اَتَيْتَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ بِكُلِّ اٰيَةٍ مَّا تَبِعُوْا قِبْلَتَكَ ۚ وَمَآ اَنْتَ بِتَابِــعٍ قِبْلَتَهُمْ ۚ وَمَا بَعْضُهُمْ بِتَابِــعٍ قِبْلَةَ بَعْضٍ ۭ وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَھْوَاۗءَھُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙاِنَّكَ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ   ١٤٥؁ۘ اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰھُمُ الْكِتٰبَ يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَھُمْ ۭ وَاِنَّ فَرِيْقًا مِّنْهُمْ لَيَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ   ١٤٦؀۩ اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ   ١٤٧؁ۧ وَلِكُلٍّ وِّجْهَةٌ ھُوَ مُوَلِّيْهَا فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ ڲ اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يَاْتِ بِكُمُ اللّٰهُ جَمِيْعًا  ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ١٤٨؁ وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ وَاِنَّهٗ لَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ ۭ وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ    ١٤٩؁ وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَهٗ ۙ لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَيْكُمْ حُجَّــةٌ ڎ اِلَّا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْهُمْ ۤ فَلَا تَخْشَوْھُمْ وَاخْشَوْنِيْ ۤ وَلِاُتِمَّ نِعْمَتِىْ عَلَيْكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ    ١٥٠؀ڒ كَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْكُمْ رَسُوْلًا مِّنْكُمْ يَتْلُوْا عَلَيْكُمْ اٰيٰتِنَا وَيُزَكِّيْكُمْ وَيُعَلِّمُكُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَيُعَلِّمُكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ    ١٥١؀ړ فَاذْكُرُوْنِيْٓ اَذْكُرْكُمْ وَاشْكُرُوْا لِيْ وَلَا تَكْفُرُوْنِ   ١٥٢؁ۧ

दो रुकूओं पर मुश्तमिल तम्हीद (प्रस्तावना) के बाद अब तहवीले क़िब्ला का मज़मून बराहे रास्त आ रहा है, जो पूरे दो रुकूओं पर फैला हुआ है। किसी के ज़हन में यह सवाल पैदा हो सकता है कि यह कौनसी ऐसी बड़ी बात थी जिसके लिये क़ुरान मजीद में इतने शद्दो-मद (उत्साह) के साथ और इस क़दर तफ़सील बल्कि तकरार के साथ बात की गयी है? इसको यूँ समझिये कि एक ख़ास मज़हबी ज़हनियत होती है, जिसके हामिल लोगों की तवज्जो आमाल के ज़ाहिर पर ज़्यादा मरकूज़ हो जाती है और आमाल की रूह उनकी तवज्जो का मरकज़ नहीं बनती। अवामुन्नास का मामला बिल उमूम यही हो जाता है कि उनके यहाँ असल अहमियत दीन के ज़वाहिर (दिखावे) और मरासिमे उबूदियत (इबादत की रस्मों) को हासिल हो जाती है और जो असल रूहे दीन है, जो मक़ासिदे दीन हैं, उनकी तरफ़ तवज्जो नहीं होती। नतीजतन ज़वाहिर में ज़रा सा फ़र्क़ भी उन्हें बहुत ज़्यादा महसूस होता है। हमारे यहाँ इसकी मिसाल यूँ सामने आती है कि अहनाफ़ (हनफ़ियों) की मस्जिद में अगर किसी ने रफ़ा यदैन कर लिया या किसी ने आमीन ज़रा ऊँची आवाज़ में कह दिया तो गोया क़यामत आ गयी। यूँ महसूस हुआ जैसे हमारी मस्जिद में कोई और ही आ गया। इस मज़हबी ज़हनियत के पसमंज़र में यह कोई छोटा मसला नहीं था।

इसके अलावा यह मसला क़बाइली और क़ौमी पसमंज़र के हवाले से भी समझना चाहिये। मक्का मुकर्रमा में जो लोग ईमान लाये थे ज़ाहिर है उन सबको खाना काबा के साथ बड़ी अक़ीदत थी। ख़ुद नबी अकरम ﷺ ने जब मक्का से हिजरत फ़रमायी तो आप ﷺ रोते हुए वहाँ से निकले थे और आप ﷺ ने फ़रमाया था कि ऐ काबा! मुझे तुझसे बड़ी मोहब्बत है, लेकिन तेरे यहाँ के रहने वाले मुझे यहाँ रहने नहीं देते। मालूम होता है कि जब तक आप ﷺ मक्का में थे तो आप ﷺ काबा की जुनूबी (दक्षिणी) दीवार की तरफ़ रुख करके खड़े होते। यूँ आप ﷺ का रुख शिमाल (उत्तर) की तरफ़ होता, काबा आप ﷺ के सामने होता और उसकी सीध में बैतुल मुक़द्दस भी आ जाता। इस तरह “इस्तक़बाल अल क़िब्लातैन” का अहतमाम हो जाता। लेकिन मदीना में आकर आप ﷺ ने रुख बदल दिया और बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख करके नमाज़ पढ़ने लगे। यहाँ “इस्तक़बाल अल क़िब्लातैन” मुमकिन ना था, इसलिये कि येरुशलम मदीना मुनव्वरा के शिमाल में है, जबकि मक्का मुकर्रमा जुनूब में है। अब अगर खाना काबा की तरफ़ रुख करेंगे तो येरुशलम की तरफ़ पीठ होगी और येरुशलम की तरफ़ रुख करेंगे तो काबा की तरफ़ पीठ होगी। चुनाँचे अब अहले ईमान का इम्तिहान हो गया कि आया वह मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के फ़रमान की पैरवी करते हैं या अपनी पुरानी अक़ीदतों और पुरानी रिवायात को ज़्यादा अहमियत देते हैं। जो लोग मक्का मुकर्रमा से आये थे उनकी इतनी तरबियत हो चुकी थी कि उनमें से किसी के लिये यह मसला पैदा नहीं हुआ। बक़ौल इक़बाल:

ब-मुस्तफ़ा ﷺ ब-रसाँ ख़्वेश रा कि दीं हमा ऊस्त

अगर बाव ना रसीदी तमाम बू लहबी ईस्त!

हालाँकि क़ुरान मजीद में कहीं मन्क़ूल नहीं है कि अल्लाह ने अपने नबी ﷺ को बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख करने का हुक्म दिया था। हो सकता है यह हुक्म वहिये ख़फ़ी के ज़रिये से दिया गया हो, ताहम वहिये जली में यह हुक्म कहीं नहीं है कि अब येरुशलम की तरफ़ रुख करके नमाज़ पढ़िये। यह मुसलमानों का इत्तेबा-ए-रसूल ﷺ के हवाले से एक इम्तिहान था जिसमें वह सुर्ख रू हुए। फिर जब यह हुक्म आया कि अपने रुख मस्जिदे हराम की तरफ़ फेर दो तो यह अब उन मुसलमानों का इम्तिहान था जो मदीना के रहने वाले थे। इसलिये कि उनमें से बाज़ यहूदियत तर्क तरके ईमान लाये थे। मसलन अब्दुल्लाह बिन सलाम रज़ि० उल्माये यहूद में से थे, लेकिन जो और दूसरे लोग थे वह भी उल्माये यहूद के ज़ेरे असर थे और उनके दिल में भी येरुशलम की अज़मत थी। अब जब उन्हें बैतुल्लाह की तरफ़ रुख करने का हुक्म हुआ तो उनके ईमान का इम्तिहान हो गया।

मज़ीद बराँ बाज़ लोगों के दिलों में यह ख्याल भी पैदा हुआ होगा कि अगर असल क़िब्ला बैतुल्लाह था तो हमने अब तक बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख करके जो नमाज़ें पढ़ी हैं उनका क्या बनेगा? क्या वह नमाज़ें ज़ाया हो गयीं। नमाज़ तो ईमान का रुकने रकीन है! चुनाँचे इस ऐतबार से भी बड़ी तशवीश पैदा हुई। इसके साथ ही एक मसला सियासी ऐतबार से यह पैदा हुआ कि यहूद अब तक यह समझ रहे थे कि मुसलमानों और मुहम्मद ﷺ ने हमारा क़िब्ला इख़्तियार कर लिया है, तो यह गोया हमारे ही पैरोकार हैं, लिहाज़ा हमें इनकी तरफ़ से कोई ख़ास अन्देशा नहीं है। लेकिन अब जब तहवीले क़िब्ला का हुक्म आ ग़या तो उनके कान खड़े हो गये कि यह तो कोई नयी मिल्लत है और एक नयी उम्मत की तशकील हो रही है। चुनाँचे उनकी तरफ़ से मुखालफ़त के अन्दर शिद्दत पैदा हो गयी। यह सारे मज़ामीन यहाँ पर ज़ेरे बहस आ रहे हैं।

आयत 142

“अनक़रीब कहेंगे लोगों में से अहमक़ और बेवक़ूफ़ लोग”سَيَقُوْلُ السُّفَهَاۗءُ مِنَ النَّاسِ
“किस चीज़ ने फेर दिया इन्हें उस क़िब्ले से जिस पर यह थे?”مَا وَلّٰىهُمْ عَنْ قِبْلَتِهِمُ الَّتِىْ كَانُوْاعَلَيْهَا ۭ

यानि सौलह-सत्रह महीनों तक इन्होंने बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ी है, अब इन्हें बैतुल्लाह की तरफ़ किसने फेर दिया?

“कह दीजिये कि अल्लाह ही के हैं मशरिक़ और मग़रिब!”قُلْ لِّلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۭ

यह वही अल्फ़ाज़ हैं जो चौदहवें रुकूअ में तहवीले क़िब्ला की तम्हीद के तौर पर आये थे। अल्लाह तआला किसी एक सिम्त (दिशा) में महदूद नहीं हैं, बल्कि मशरिक़ व मग़रिब और शिमाल व जुनूब सब उसी के हैं।

“वह जिसको चाहता है सीधे रास्ते की तरफ़ हिदायत दे देता है।”يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيْمٍ   ١٤٢؁

आयत 143

“और (ऐ मुसलमानों!) इसी तरह तो हमने तुम्हें एक उम्मते वस्त (दरमियानी उम्मत) बनाया है”وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا

अब यह ख़ास बात कही जा रही है कि ऐ मुसलमानों! तुम इस तहवीले क़िब्ला को मामूली बात ना समझो, यह अलामत है इस बात की कि अब तुम्हें वह हैसियत हासिल हो गई है:

“ताकि तुम लोगों पर गवाह हो और रसूल तुम पर गवाह हो।”لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا ۭ

अब यह तुम्हारा फ़र्ज़े मन्सबी (कर्तव्य) है कि रसूल ﷺ ने जिस दीन की गवाही तुम पर अपने क़ौल व अमल से दी है उसी दीन की गवाही तुम्हें अपने क़ौल और अमल से पूरी नौए इंसानी पर देनी है। अब तुम मुहम्मद रसूल ﷺ और नौए इंसानी के दरमियान वास्ता (link) बन गये हो। अब तक नबुवत का सिलसिला जारी था। एक नबी की तालीम ख़त्म हो जाती या उसमें तहरीफ़ हो जाती तो दूसरा नबी आ जाता। इस तरह पे दर पे अम्बिया व रुसुल अलै० चले आ रहे थे और हर दौर में यह मामला तसलसुल (निरंतरता) के साथ चल रहा था। अब मुहम्मद रसूल ﷺ पर नबुवत ख़त्म हो रही है, लेकिन नस्ले इंसानी का सिलसिला तो क़यामत तक जारी रहना है। लिहाज़ा अब आगे लोगों को तब्लीग़ करना, उन तक दीन पहुँचाना, उन पर हुज्जत क़ायम करना और शहादत अलन्नास का फ़रीज़ा सर अंजाम देना किसकी ज़िम्मेदारी होगी? पहले तो हमेशा यही होता रहा कि अल्लाह की तरफ़ से जिब्राइल अलै० वही लाये और नबी के पास आ गये, नबी ने लोगों को सिखा दिया। अब यह मामला इस तरह है कि अल्लाह से जिब्राइल अलै० वही लाये मुहम्मद रसूल ﷺ के पास और मुहम्मद ﷺ ने सिखाया तुम्हें, और अब तुम्हें सिखाना है पूरी नौए इंसानी को! तो अब तुम्हारी हैसियत दरमियानी वास्ते की है। यह मज़मून सूरतुल हज की आखरी आयत में ज़्यादा वज़ाहत के साथ आयेगा।

وَکَذٰلِکَ (इसी तरह) से मुराद यह है कि तहवीले क़िब्ला इसका एक मज़हर (प्रदर्शन) है। इससे अब तुम अपनी ज़िम्मेदारियों का अंदाज़ा करो। सिर्फ़ खुशियाँ ना मनाओ, बल्कि एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी का जो बोझ तुम पर आ गया है उसका इदराक (अहसास) करो। यही बोझ जब हमने अपने बंदे मुहम्मद ﷺ के कंधों पर रखा था तो उनसे भी कहा था (अल् मुज़्ज़मिल:5): {اِنَّا سَنُلْقِيْ عَلَيْكَ قَوْلًا ثَـقِيْلًا} “(ऐ नबी! ﷺ) हम आप पर एक भारी बात डालने वाले है।” वही भारी बात बहुत बड़े पैमाने पर अब तुम्हारे कंधों पर आ गई है।

“और नहीं मुक़र्रर किया था हमने वह क़िब्ला जिस पर (ऐ नबी!) आप पहले थे”وَمَا جَعَلْنَا الْقِبْلَةَ الَّتِىْ كُنْتَ عَلَيْهَآ
“मग़र यह जानने के लिये (यह ज़ाहिर करने के लिये) कि कौन रसूल का इत्तेबा करता है और कौन फिर जाता है उल्टे पाँव!”اِلَّا لِنَعْلَمَ مَنْ يَّتَّبِـــعُ الرَّسُوْلَ مِمَّنْ يَّنْقَلِبُ عَلٰي عَقِبَيْهِ ۭ

यहाँ अल्लाह तआला ने बैतुल मुक़द्दस को क़िब्ला मुक़र्रर करने की निस्बत अपनी तरफ़ की है। यह भी हो सकता है कि अल्लाह तआला ने हिजरत के बाद वहिये ख़फ़ी के ज़रिये नबी अकरम ﷺ को बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख़ करके नमाज़ पढ़ने का हुक्म दिया हो, और यह भी हो सकता है कि यह आँहुज़ूर ﷺ का इज्तेहाद (विचार) हो, और उसे अल्लाह ने क़ुबूल फ़रमा लिया हो। रसूल अल्लाह ﷺ के इज्तेहाद पर अगर अल्लाह की तरफ़ से नफ़ी ना आये तो वह गोया अल्लाह ही की तरफ़ से है। बैतुल मुक़द्दस को क़िब्ला मुक़र्रर किया जाना एक इम्तिहान क़रार दिया गया कि कौन इत्तेबा-ए-रसूल ﷺ की रविश पर ग़ामजन रहता है और कौन दीन से फिर जाता है। इस आज़माइश में तमाम मुसलमान कामयाब रहे और उनमें से किसी ने यह नहीं कहा कि ठीक है, हमारा क़िब्ला वह था, अब आपने अपना क़िब्ला बदल लिया है तो आपका रास्ता और है और हमारा रास्ता और!

“और यक़ीनन यह बहुत बड़ी बात थी मग़र उनके लिये (दुश्वार ना थी) जिनको अल्लाह ने हिदायत दी।”وَاِنْ كَانَتْ لَكَبِيْرَةً اِلَّا عَلَي الَّذِيْنَ ھَدَى اللّٰهُ ۭ

वाक़्या यह है कि इतनी बड़ी तब्दीली क़ुबूल कर लेना आसान बात नहीं होती। यह बड़ा हस्सास मसला होता है।

“और अल्लाह हरग़िज़ तुम्हारे ईमान को ज़ाया करने वाला नहीं है।”ۭ وَمَا كَانَ اللّٰهُ لِـيُضِيْعَ اِيْمَانَكُمْ ۭ

ईमान से यहाँ मुराद नमाज़ है जिसे दीन का सतून क़रार दिया गया है। यह बात उस तशवीश (चिंता) के जवाब में फ़रमायी गयी जो बाज़ मुसलमानों को लाहक़ हो गयी थी कि हमारी उन नमाज़ों का क्या बनेगा जो हमने सौलह महीने बैतुल मुक़द्दस की तरफ़ रुख़ करके पढ़ी हैं? मुसलमान तो रसूल अल्लाह ﷺ के हुक्म का पाबंद है, उस वक़्त रसूल का वह हुक्म था, वह अल्लाह के यहाँ मक़बूल ठहरा, इस वक़्त यह हुक्म है जो तुम्हे रसूल की जानिब से मिल रहा है, अब तुम इसकी पैरवी करो।

“यक़ीनन अल्लाह तआला इंसानों के हक़ में बहुत ही शफ़ीक़ और बहुत ही रहीम है।”اِنَّ اللّٰهَ بِالنَّاسِ لَرَءُوْفٌ رَّحِيْمٌ    ١٤٣؁

आयत 144

“(ऐ नबी !) बिला शुबह हम आपके चेहरे का बार-बार आसमान की तरफ़ उठाना देखते रहे हैं।”قَدْ نَرٰى تَـقَلُّبَ وَجْهِكَ فِي السَّمَاۗءِ ۚ

मालूम होता है कि ख़ुद रसूल अल्लाह ﷺ को तहवीले क़िब्ला के फ़ैसले का इन्तेज़ार था और आप ﷺ पर भी यह वक़्फ़ा (अन्तराल) शाक़ (कठिन) गुज़र रहा था जिसमें नमाज़ पढ़ते हुए बैतुल्लाह की तरफ़ पीठ हो रही थी। चुनाँचे आपकी निगाहें बार-बार आसमान की तरफ़ उठती थीं कि कब जिब्रीले अमीन तहवीले क़िब्ला का हुक्म लेकर नाज़िल हों।

“सो हम फेर देते हैं आपको उसी क़िब्ले की तरफ़ जो आपको पसंद है।”فَلَنُوَلِّيَنَّكَ قِبْلَةً تَرْضٰىھَا ۠

इस आयत में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ के लिये अल्लाह की तरफ़ से बड़ी मोहब्बत, बड़ी शफक्क़त और बड़ी इनायत का इज़हार हो रहा है। ज़ाहिर बात है कि रसूल अल्लाह ﷺ को बैतुल्लाह के साथ बड़ी मोहब्बत थी, उसके साथ आप ﷺ का एक रिश्ता क़ल्बी था।

“तो बस अब फेर दीजिये अपने रुख़ को मस्जिदे हराम की तरफ़!”فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ
“और (ऐ मुसलमानों!) जहाँ कहीं भी तुम हो अब अपना चेहरा (नमाज़ में) उसी की तरफ़ फेर।”وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَهٗ ۭ
“और यह लोग जिन्हें किताब दी गई थी, जानते हैं कि यह (तहवीले क़िब्ला का हुक्म) हक़ है उनके परवरदिगार की तरफ़ से।”وَاِنَّ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ لَيَعْلَمُوْنَ اَنَّهُ الْحَـقُّ مِنْ رَّبِّهِمْ ۭ

तौरात में भी यह मज़कूर था कि असल क़िब्ला इब्राहिमी अलै० बैतुल्लाह ही था। बैतुल मुक़द्दस को तो हज़रत इब्राहीम अलै० के एक हज़ार साल बाद हज़रत सुलेमान अलै० ने तामीर किया था, जिसे “हैकले सुलेमानी” से मौसूम (मनोनीत) किया जाता है। أَنَّهُ से मुराद यहाँ बैतुल्लाह का इस उम्मत के लिये क़िब्ला होना है। इस बात का हक़ होना और अल्लाह तआला की तरफ़ से होना यहूद पर वाज़ेह था और इसके इशारात व क़राइन (सबूत) तौरात में मौजूद थे, लेकिन यहूद अपने हसद और अनाद (विरोध) के सबब इस हक़ीक़त को भी दूसरे बहुत से हक़ाइक़ की तरह जानते-बूझते छुपाते थे। इस मौज़ू को समझने के लिये मौलाना हमीदुद्दीन फ़राही साहब का रिसाला (पत्रिका) “الرأی الصحیح فی من ھو الذبیح” बहुत अहम है, जिसका उर्दू तर्जुमा मौलना अमीन अहसन इस्लाही साहब ने “ज़बीह कौन है?” के उन्वान से किया है।

“और अल्लाह ग़ाफ़िल नहीं है उससे जो वह कर रहे हैं।”وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا يَعْمَلُوْنَ   ١٤٤؁

आयत 145

“और (ऐ नबी !) अगर आप इन अहले किताब के सामने हर क़िस्म की निशानियाँ पेश कर दें तब भी यह आपके क़िब्ले की पैरवी नहीं करेंगे।”وَلَىِٕنْ اَتَيْتَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ بِكُلِّ اٰيَةٍ مَّا تَبِعُوْا قِبْلَتَكَ ۚ
“और ना ही अब आप पैरवी करने वाले हैं इनके क़िब्ले की।”وَمَآ اَنْتَ بِتَابِــعٍ قِبْلَتَهُمْ ۚ

यह तो { لَكُمْ دِيْنُكُمْ وَلِيَ دِيْنِ} वाला मामला हो गया।

“और ना ही वह एक-दूसरे के क़िब्ले की पैरवी करने वाले हैं।”وَمَا بَعْضُهُمْ بِتَابِــعٍ قِبْلَةَ بَعْضٍ ۭ

हद यह है कि यह ख़ुद आपस में एक-दूसरे के क़िब्ले की पैरवी नहीं करते। अग़रचे यहूद व नसारा सबका क़िब्ला येरुशलम है, लेकिन ऐन येरुशसल में जाकर यहूदी हैकल सुलेमानी का मग़रबी गोशा इख़्तियार करते थे और मग़रिब की तरफ़ रुख़ करते थे, जबकि नसारा मशरिक़ की तरफ़ रुख़ करते थे, इसलिये कि हज़रत मरियम सलामुनअलैहा ने जिस मकान में ऐतक़ाफ़ किया था और जहाँ फ़रिश्ता उनके पास आया था वह हैकल के मशरिक़ी गोशे में था, जिसके लिये क़ुरान हकीम में “مَکَانًا شَرْقِیًّا” का लफ़्ज़ आया है। ईसाईयों ने इसी मशरिक़ी घर को अपना क़िब्ला बना लिया।

“और (ऐ नबी ! बिलफ़र्ज़) अगर आपने इनकी ख़्वाहिशात की पैरवी की”وَلَىِٕنِ اتَّبَعْتَ اَھْوَاۗءَھُمْ
“उस इल्म के बाद जो आप के पास आ चुका है”مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ ۙ
“तो बिला शुबह आप भी ज़ुल्म करने वालों में से हो जायेंगे।” (मआज़ अल्लाह)اِنَّكَ اِذًا لَّمِنَ الظّٰلِمِيْنَ   ١٤٥؁ۘ

आयत 146

“जिन लोगों को हमने किताब दी है वह इसको ऐसे पहचानते हैं जैसा कि अपने बेटों को पहचानते हैं।”اَلَّذِيْنَ اٰتَيْنٰھُمُ الْكِتٰبَ يَعْرِفُوْنَهٗ كَمَا يَعْرِفُوْنَ اَبْنَاۗءَھُمْ ۭ

यहाँ यह नुक्ता नोट कर लीजिये कि क़ुरान हकीम में तौरात और इंजील के मानने वालों में से ग़लतकारों के लिये मजहूल का सीग़ा आता है {اُوْتُوْا الْکِتٰبَ} “जिन्हें किताब दी गई थी” और जो उनमें से सालेहीन थे, सही रुख़ पर थे, उनके लिये मारूफ़ का सीग़ा आता है, जैसे यहाँ आया है। { يَعْرِفُوْنَهٗ} में ज़मीर (هٗ) का मरजा क़िब्ला भी है, क़ुरान भी है और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ भी हैं।

“अलबत्ता उनमें से एक ग़िरोह वह है”وَاِنَّ فَرِيْقًا مِّنْهُمْ
“जो जानते-बूझते हक़ को छुपाता है।”لَيَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ   ١٤٦؀۩

आयत 147

“यह हक़ है आप के रब की तरफ़ से”اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ

इसका तर्जुमा यूँ भी किया गया है: “हक़ वही है जो आपके रब की तरफ़ से है।”

“तो आप हरग़िज़ शक करने वालों में से ना बनें।”فَلَا تَكُوْنَنَّ مِنَ الْمُمْتَرِيْنَ   ١٤٧؁ۧ

ख़िताब का रुख़ रसूल अल्लाह ﷺ की तरफ़ है और आप ﷺ की वसातत (ज़रिये) से दरअसल हर मुसलमान से यह बात कही जा रही है कि इस बारे में कोई शक व शुबह अपने पास मत आने दो कि यही तो हक़ है तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से।”

आयत 148      

“हर एक के लिये एक सिम्त है जिसकी तरफ़ वह रुख़ करता है”وَلِكُلٍّ وِّجْهَةٌ ھُوَ مُوَلِّيْهَا
“तो (मुसलमानों!) तुम नेकियों में सबक़त (बढ़त) करो।”فَاسْتَبِقُوا الْخَيْرٰتِ ڲ

हमने तुम्हारे लिये एक रुख़ मुअय्यन कर दिया, यानि बैतुल्लाह। और एक बातिनी रुख़ तुम्हें यह इख़्तियार करना है कि नेकियों की राह में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश करो। जैसे नमाज़ का एक ज़ाहिर और एक बातिन है। ज़ाहिर यह है कि आपने बावुज़ू होकर क़िब्ले की तरफ़ रुख कर लिया और अरकाने नमाज़ अदा किये, जबकि नमाज़ का बातिन ख़ुशुअ व ख़ुज़ूअ, हुज़ूरे क़ल्ब और रक़त है। इंसान को यह अहसास हो कि वह परवरदिगारे आलम के रू-ब-रू हाज़िर हो रहा है।

“जहाँ कहीं भी तुम होगे अल्लाह तुम सबको जमा करके ले आयेगा।”اَيْنَ مَا تَكُوْنُوْا يَاْتِ بِكُمُ اللّٰهُ جَمِيْعًا  ۭ
“यक़ीनन अल्लाह तआला हर चीज़ पर क़ादिर है।”اِنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ ١٤٨؁

आयत 149

“और जहाँ कहीं से भी आप निकलें तो (नमाज़ के वक़्त) आप अपना रुख़ फेर लीजिये मस्जिदे हराम की तरफ़।”وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ
“और यक़ीनन यह हक़ है आप के रब की तरफ़ से”وَاِنَّهٗ لَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ ۭ
“और अल्लाह ग़ाफ़िल नहीं है उससे जो तुम कर रहे हो।” وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ    ١٤٩؁

जैसा कि पहले अर्ज़ किया गया, यहाँ कलाम बज़ाहिर आँहुज़ूर ﷺ से है, मगर असल में आप ﷺ की वसातत से तमाम मुसलमानों से ख़िताब है। दोबारा फ़रमाया गया:

आयत 150

“और जहाँ कहीं से भी आप निकलें तो आप अपना रुख़ (नमाज़ के वक़्त) मस्जिदे हराम ही की तरफ़ कीजिये।”وَمِنْ حَيْثُ خَرَجْتَ فَوَلِّ وَجْهَكَ شَطْرَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ
“और (ऐ मुसलमानों!) जहाँ कहीं भी तुम हो तो (नमाज़ के वक़्त) अपने चेहरों को उसी की जानिब फेर दो”وَحَيْثُ مَا كُنْتُمْ فَوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ شَطْرَهٗ ۙ

तुम ख़्वाह अमेरिका में हो या रूस में, नमाज़ के वक़्त तुम्हें बैतुल्लाह ही की तरफ़ रुख़ करना होगा।

“ताकि बाक़ी ना रहे लोगों के पास तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई दलील”لِئَلَّا يَكُوْنَ لِلنَّاسِ عَلَيْكُمْ حُجَّــةٌ ڎ

यानि अहले किताब बिलख़ुसूस यहूद के लिये तुम्हारे ख़िलाफ़ बदगुमानी फैलाने का कोई मौक़ा बाक़ी ना रह जाये। तौरात में मज़कूर था कि नबी आखिरुज्ज़मा का क़िब्ला ख़ाना काबा होगा। अगर आँहुज़ूर ﷺ यह क़िब्ला इख़्तियार ना करते तो उल्माये यहूद मुसलमानों पर हुज्जत क़ायम करते। तो यह गोया उनके ऊपर इत्मामे हुज्जत भी हो रहा है और क़ता उज़र भी।

“सिवाय उनके जो उनमें से ज़ालिम हैं।”اِلَّا الَّذِيْنَ ظَلَمُوْا مِنْهُمْ ۤ

शरीर (दुष्ट) लोग इस क़ता हुज्जत के बाद भी बाज़ आने वाले नहीं और वह ऐतराज़ करने के लिये लाख हीले बहाने बनाएँगे, उनकी ज़बान किसी हाल में बंद ना होगी।

“तो (ऐ मुसलमानों!) उनसे ना डरो”فَلَا تَخْشَوْھُمْ
“और मुझसे डरो।”وَاخْشَوْنِيْ ۤ
“और इसलिये कि मैं तुम पर अपनी नेअमत तमाम कर दूँ”وَلِاُتِمَّ نِعْمَتِىْ عَلَيْكُمْ

यह जो तहवीले क़िब्ला का मामला हुआ है और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत की बुनियाद पर एक नयी उम्मत तश्कील दी जा रही है, उसे इमामतुन्नास से सरफ़राज़ किया जा रहा है और विरासते इब्राहिमीअलै० अब इसे मुन्तक़िल हो गयी है, यह इसलिये है ताकि ऐ मुसलमानों! मैं तुम पर अपनी नेअमत पूरी कर दूँ।

“और ताकि तुम हिदायत याफ़्ता बन जाओ।”وَلَعَلَّكُمْ تَهْتَدُوْنَ    ١٥٠؀ڒ

आयत 151

“जैसे कि हमने भेज दिया है तुम्हारे दरमियान एक रसूल ख़ुद तुम में से”كَمَآ اَرْسَلْنَا فِيْكُمْ رَسُوْلًا مِّنْكُمْ
“वह तिलावत करता है तुम पर हमारी आयात”يَتْلُوْا عَلَيْكُمْ اٰيٰتِنَا
“और तुम्हें पाक करता है” (तुम्हारा तज़किया करता है)وَيُزَكِّيْكُمْ
“और तुम्हें तालीम देता है किताब और हिकमत की”وَيُعَلِّمُكُمُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ
“और तुम्हें तालीम देता है उन चीज़ों की जो तुम्हें मालूम नहीं थीं।”وَيُعَلِّمُكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ    ١٥١؀ړ

यहाँ हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल अलै० की दुआ याद कर लीजिये जो आयत 129 में मज़कूर हुई है। उस दुआ का ज़हूर तीन हज़ार बरस बाद बेअसते मुहम्मदी ﷺ की शक्ल में हो रहा है। यहाँ एक नुक्ता बड़ा अहम है कि हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल अलै० की दुआ में जो तरतीब थी, यहाँ अल्लाह ने उसको बदल दिया है। दुआ में तरतीब यह थी: तिलावते आयात, तालीमे किताब व हिकमत, फिर तज़किया। यहाँ पहले तिलावते आयात, फिर तज़किया और फिर तालीमे किताब व हिकमत आया है। ज़ाहिर बात है कि हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईलअलै० ने जो बात कही वह भी ग़लत तो नहीं हो सकती, लेकिन हम यह कह सकते हैं कि इसकी तन्फ़ीज़शुदा (imposed) सूरत यह है जो अल्लाह तआला की तरफ़ से दी गयी। इसलिये कि तज़किया मुक़द्दम है, अगर नीयत सही नहीं है तो तालीमे किताब व हिकमत मुफ़ीद नहीं होगी, बल्कि गुमराही में इज़ाफ़ा होगा। नीयत कज (टेढ़ी) है तो गुमराही बढ़ती चली जायेगी। तज़किये का हासिल इख़्लास है, यानि नीयत दुरुस्त हो जाये। अगर यह नहीं है तो कोई जितना बड़ा आलिम होगा वह उतना बड़ा शैतान भी बन सकता है। वाक़्या यह है कि बड़े-बड़े फ़ितने आलिमों ने ही उठाये हैं। “दीने अकबरी” या “दीने इलाही” की तद्वीन का ख़्याल तो अकबर के बाप दादा को भी नहीं आ सकता था, यह तो अबुल फ़ज़ल और फ़ैज़ी जैसे उलमा थे जिन्होंने उसे यह पट्टी पढ़ाई। इसी तरह ग़ुलाम अहमद क़ादयानी को भी उल्टी पट्टियाँ पढ़ाने वाला हकीम नूरुद्दीन था, जो बहुत बड़ा अहले हदीस आलिम था। तो दरहक़ीक़त कोई जितना बड़ा आलिम होगा अग़र उसकी नीयत कज हो गई तो वह उतना ही बड़ा फ़ितना उठा देगा। इस पहलु से तज़किया मुक़द्दम है। और इसका सबूत यह है कि यही मज़मून सूरह आले इमरान में और फिर सूरतुल जुमा में भी आया है, वहाँ भी तरतीब यही है:

  • तिलावते आयात
  • तज़किया
  • तालीमे किताब व हिकमत।

आयत 152

“पस तुम मुझे याद रखो, मैं तुम्हें याद रखूँगा”فَاذْكُرُوْنِيْٓ اَذْكُرْكُمْ

यह अल्लाह तआला और बंदों के दरमियान एक बहुत बड़ा मीसाक़ और मुआहिदा है। इसकी शरह (विवरण) हदीसे क़ुदसी में बाअलफ़ाज़ आयी है: ((اَنَا مَعَہٗ اِذَا ذَکَرَنِیْ، فَاِنْ ذَکَرَنِیْ فِیْ نَفْسِہٖ ذَکَرْتُہٗ فِیْ نَفْسِیْ، وَاِنْ ذَکَرَنِیْ فِیْ مَلَاءٍ ذَکَرْتُہٗ فِیْ مَلَاءٍ خَیْرٍ مِّنْھُمْ))(16) “मेरा बंदा जब मुझे याद करता है तो मैं उसके पास होता हूँ, अगर वह मुझे अपने दिल में याद करता है तो मैं भी उसे अपने जी में याद करता हूँ, और अगर वह मुझे किसी महफ़िल में याद करता है तो मैं उसे उससे बहुत बेहतर महफ़िल में याद करता हूँ।” उसकी महफ़िल तो बहुत बुलंद व बाला है, वह मला-उल-आला की महफ़िल है, मलाइका मुक़र्रबीन की महफ़िल है। अमीर ख़ुसरो मालूम नहीं किस आलम में ये शेर कह गये थे:

ख़ुदा ख़ुद मेरे महफ़िल बुद अंदर ला मकान ख़ुसरो

मुहम्मद शमा महफ़िल बुद शब जाये कि मन बुदम!

“और मेरा शुक्र करो, मेरी नाशुक्री मत करना।”وَاشْكُرُوْا لِيْ وَلَا تَكْفُرُوْنِ   ١٥٢؁ۧ

मेरी नेअमतों का इदराक करो, उनका शऊर हासिल करो। ज़बान से भी मेरी नेअमतों का शुक्र अदा करो और अपने अमल से भी, अपने आज़ा व जवारह (अंगों) से भी इन नेअमतों का हक़ अदा करो।

यहाँ इस सूरह मुबारक का निस्फ़े अव्वल मुकम्मल हो गया है जो अट्ठारह रुकूओं पर मुश्तमिल है।