Suratul baqarah -सूरतुल बक़रह ayat153 – 176

आयात 153 से 163 तक

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ  ۭاِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ    ٥٣؁ وَلَا تَـقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتٌ ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ   ١٥٤؁ وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ ۭ وَبَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَ   ١٥٥؁ۙ الَّذِيْنَ اِذَآ اَصَابَتْهُمْ مُّصِيْبَةٌ  ۙ قَالُوْٓا اِنَّا لِلّٰهِ وَاِنَّآ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَ    ١٥٦؁ۭ اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْهِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ   ۣوَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُهْتَدُوْنَ   ١٥٧؁ اِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِنْ شَعَاۗىِٕرِاللّٰهِ ۚ فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ اَوِ اعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِ اَنْ يَّطَّوَّفَ بِهِمَا ۭ وَمَنْ تَـطَوَّعَ خَيْرًا  ۙ فَاِنَّ اللّٰهَ شَاكِـرٌ عَلِــيْمٌ   ١٥٨؁ اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنٰتِ وَالْهُدٰى مِنْۢ بَعْدِ مَا بَيَّنّٰهُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتٰبِ ۙاُولٰۗىِٕكَ يَلْعَنُهُمُ اللّٰهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللّٰعِنُوْنَ    ١٥٩؁ۙ اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَبَيَّنُوْا فَاُولٰۗىِٕكَ اَتُوْبُ عَلَيْهِمْ ۚوَاَنَا التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ    ١٦٠؁ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَھُمْ كُفَّارٌ اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْهِمْ لَعْنَةُ اللّٰهِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ   ١٦١۝ۙ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا  ۚ لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْظَرُوْنَ    ١٦٢؁ وَاِلٰـهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۚ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ الرَّحْمٰنُ الرَّحِيْمُ  ١٦٣؀ۧ

सूरतुल बक़रह के उन्नीसवें रुकूअ से अब उम्मते मुस्लिमा से बराहे रास्त ख़िताब है। इससे क़ब्ल इस उम्मत की ग़र्ज़े तासीस (स्थापना) बाअल्फ़ाज़ बयान की जा चुकी है: { لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا } (आयत:143) “ताकि तुम लोगों पर गवाही देने वाले बनो और रसूल ﷺ तुम पर गवाही देने वाले बने।” गोया अब तुम हमेशा-हमेश के लिये मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और नौए इंसानी के दरमियान वास्ता हो। एक हदीस में उल्माये हक़ के बारे में फ़रमाया गया है: ((اِنَّ الْعُلَمَاءَ ھُمْ وَرَثَۃُ الْاَنْبِیَاءِ))(17) “यक़ीनन उलमा ही अम्बिया के वारिस है।” इसलिये कि अब नबुवत तो ख़त्म हो गई ख़ातिमुल मुर्सलीन मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर, लेकिन यह आख़री किताब क़यामत तक रहेगी, इसको पहुँचाना है, इसको आम करना है, और सिर्फ़ तब्लीग़ से नहीं अमल करके दिखाना है। वह निज़ाम अमलन क़ायम करके दिखाना है जो मुहम्मद अरबी ﷺ ने क़ायम किया था, तब हुज्जत क़ायम होगी। इसके लिये तुम्हें क़ुर्बानियाँ देनी होंगी, मुश्किलात झेलनी होंगी, जान व माल का नुक़सान बर्दाश्त करना होगा। आराम से घर बैठे, ठन्डे पेटों हक़ नहीं आ जायेगा, कुफ़्र इस तरह जगह नहीं छोड़ेगा। कुफ़्र को हटाने के लिये, बातिल को ख़त्म करने के लिये और हक़ को क़ायम करने के लिये तुम्हें तन-मन-धन लगाने होंगे। चुनाँचे अब पुकार आ रही है:

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आयत 153

“ऐ ईमान वालो! सब्र और नमाज़ से मदद चाहो।”يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ  ۭ

पाँचवें रुकूअ की सात आयतों को मैंने बनी इसराइल से ख़िताब के ज़िमन में बमंज़िला-ए-फ़ातिहा क़रार दिया था। वहाँ पर यह अल्फ़ाज़ आये थे:

“और मदद चाहो सब्र और नमाज़ से, और यक़ीनन यह भारी चीज़ है मगर उन लोगों के लिये जो डरने वाले हैं, जो ग़ुमान रखते हैं कि वह अपने रब से मुलाक़ात करने वालें हैं और वह उसी की तरफ़ लौटने वाले हैं।”وَاسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ      ۭ   وَاِنَّهَا لَكَبِيْرَةٌ اِلَّا عَلَي الْخٰشِعِيْنَ   45؀ۙ الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّھُمْ مُّلٰقُوْا رَبِّهِمْ وَاَنَّھُمْ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَ   46؀ۧ

अब यही बात अहले ईमान से कही जा रही है।

“जान लो कि अल्लाह सब्र करने वालों के साथ है।”اِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ    ٥٣؁

अल्लाह तआला की मईयत (साथ) से क्या मुराद है! एक बात तो मुत्तफ़िक़ अलैय है कि अल्लाह की मदद, अल्लाह की ताईद (समर्थन), अल्लाह की नुसरत उनके शामिले हाल है। बाक़ी यह है कि जहाँ कहीं भी हम हैं अल्लाह हमारे साथ है। उसकी कैफ़ियत हम नहीं जानते, लेकिन ख़ुद उसका फ़रमान है कि “हम तो इंसान से उसकी रगेजान से भी ज़्यादा क़रीब हैं।”(क़ॉफ़:16)

आयत 154

“और मत कहो उनको जो अल्लाह की राह में क़त्ल हो जाऐं कि वह मुर्दा हैं।”وَلَا تَـقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتٌ ۭ

अब पहले ही क़दम पर अल्लाह की राह में क़त्ल होने की बात आ गई “शर्ते अव्वल क़दम ईं अस्त कि मजनून बाशी!” ईमान का अव्वलीन तक़ाज़ा यह है कि जानें देने के लिये तैयार हो जाओ।

“(वो मुर्दा नहीं हैं) बल्कि ज़िन्दा हैं, लेकिन तुम्हें इसका शऊर नहीं है।”بَلْ اَحْيَاۗءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ   ١٥٤؁

जो अल्लाह की राह में क़त्ल हो जाएँ उनको जन्नत में दाख़िले के लिये यौमे आख़िरत तक इन्तेज़ार नहीं करना होगा, शहीदों को तो उसी वक़्त बराहे रास्त जन्नत में दाख़िला मिलता है, लिहाज़ा वह तो ज़िन्दा हैं। यही मज़मून सूरह आले इमरान में और ज़्यादा निख़र कर सामने आयेगा।

आयत 155

“और हम तुम्हें लाज़िमन आज़माऐंगे किसी क़द्र ख़ौफ़ और भूख से”وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ

देख लो, जिस राह में तुमने क़दम रखा है यहाँ अब आज़माइशें आयेंगी, तकलीफ़ें आयेंगी। रिश्तेदार नाराज़ होंगे, शौहर और बीबी के दरमियान तफ़रीक़ होगी, औलाद वालिदैन से जुदा होगी, फ़साद होगा, फ़तूर होगा तसादुम होगा, जान व माल का नुक़सान होगा। हम ख़ौफ़ की कैफ़ियत से भी तुम्हारी आज़माइश करेंगे और भूख़ से भी। चुनाँचे सहाबा किराम रज़ि० ने कैसी-कैसी सख़्तियाँ झेलीं और कई-कई रोज़ के फ़ाक़े बर्दाशत किये। ग़ज़वा-ए-अहज़ाब में क्या हालात पेश आये हैं! उसके बाद जैशुल असरा (ग़ज़वा-ए-तबूक) में क्या कुछ हुआ है!

“और मालों और जानों और समारात (फ़लों) के नुक़सान से।”وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ ۭ

माली और जानी नुक़सान भी होंगे और समारात का नुक़सान भी होगा। “समारात” यहाँ दो मायने दे रहा है। मदीने वालों की मईशत (अर्थव्यवस्था) का दारोमदार ज़राअत (कृषि) और बाग़वानी पर था। ख़ासतौर पर खजूर उनकी पैदावार थी, जिसे आज की इस्तलाह में cash crop कहा जायेगा। अब ऐसा भी हुआ कि फ़सल पक कर तैयार खड़ी है और अगर उसे दरख़्तों से उतारा ना गया तो ज़ाया हो जायेगी, उधर से ग़ज़वा-ए-तबूक का हुक्म आ गया कि निकलो अल्लाह की राह में! तो यह इम्तिहान है समारात के नुक़सान का। इसके अलावा समारात का एक और मफ़हूम है। इंसान बहुत मेहनत करता है, जद्दो-जहद करता है, एक कैरियर अपनाता है और उसमें अपना एक मक़ाम बना लेता है। लेकिन जब वह दीन के रास्ते पर आता है तो कुछ और ही शक़्ल इख़्तियार करनी पड़ती है। चुनाँचे अपनी तिजारत के ज़माने में या किसी प्रोफ़ेशन में अपना मक़ाम बनाने में उसने जो मेहनत की थी वह सब की सब सिफ़र होकर रह जाती है, और अपनी मेहनत के समारात से बिल्कुल तहे दामन होकर उसे इस वादी में आना पड़ता है।

“और (ऐ नबी !) बशारत दीजिये इन सब्र करने वालों को।”وَبَشِّرِ الصّٰبِرِيْنَ   ١٥٥؁ۙ

आयत 156

“वह लोग कि जिनको जब भी कोई मुसीबत आये”الَّذِيْنَ اِذَآ اَصَابَتْهُمْ مُّصِيْبَةٌ  ۙ
“तो वह कहते हैं कि बेशक हम अल्लाह ही के हैं और उसी की तरफ़ हमें लौट जाना है।”قَالُوْٓا اِنَّا لِلّٰهِ وَاِنَّآ اِلَيْهِ رٰجِعُوْنَ    ١٥٦؁ۭ

आख़िरकार तो यहाँ से जाना है, अगर कल की बजाये हमें आज ही बुला लिया जाये तब भी हाज़िर हैं। बक़ौल इक़बाल:

निशाने मर्दे मोमिन बा तो गोयम

चूँ मर्ग आयद तबस्सुम बर लबे ऊस्त!

यानि मर्दे मोमिन की तो निशानी ही यही है कि जब मौत आती है तो मुसर्रत (ख़ुशी) के साथ उसके होठों पर मुस्कुराहट आ जाती है। वह दुनिया से मुस्कुराता हुआ रुख़सत होता है। यह ईमान की अलामत है और बंदा-ए-मोमिन इस दुनिया में ज़्यादा देर तक रहने की ख़्वाहिश नहीं कर सकता। उसे मालूम है कि वह दुनिया में जो लम्हा भी गुज़ार रहा है उसे इसका हिसाब देना होगा। तो जितनी उम्र बढ़ रही है हिसाब बढ़ रहा है। चुनाँचे हदीस में दुनिया को मोमिन के लिये क़ैदखाना और काफ़िर के लिये जन्नत क़रार दिया गया है: ((اَلدُّنْیَا سِجْنُ الْمُؤمِنِ وَ جَنَّۃُ الْکَافِرِ))(18)

आयत 157

“यही हैं वह लोग कि जिन पर उनके रब की इनायतें हैं और रहमत।”اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْهِمْ صَلَوٰتٌ مِّنْ رَّبِّهِمْ وَرَحْمَةٌ   ۣ

इन पर हर वक़्त अल्लाह की इनायतों का नुज़ूल होता रहता है और रहमत की बारिश होती रहती है।

“और यही लोग हिदायत याफ़्ता हैं।”وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُهْتَدُوْنَ   ١٥٧؁

यह वह लोग हैं जिन्होंने वाक़िअतन हिदायत को इख़्तियार किया है। और जो ऐसे मरहले पर ठिठक कर खड़े रह जायें, पीछे हट कर बैठ जायें, पीठ मोड़ लें तो गोया वह हिदायत से तहे दामन हैं।

आयत 158

“यक़ीनन सफ़ा और मरवा अल्लाह के शआइर (निशानियों) में से हैं।”اِنَّ الصَّفَا وَالْمَرْوَةَ مِنْ شَعَاۗىِٕرِاللّٰهِ ۚ

यह आयत असल सिलसिला-ए-बहस यानि क़िब्ले की बहस से मुताल्लिक़ है। बाज़ लोगों के ज़हनों में यह सवाल पैदा हुआ कि हज के मनासिक में यह जो सफ़ा और मरवा की सई है तो इसकी क्या हक़ीक़त है? फ़रमाया कि यह भी अल्लाह के शआइर में से हैं। शआइर, शईराह की जमा है जिसके मायने ऐसी चीज़ के हैं जो शऊर बख्शे, जो किसी हक़ीक़त का अहसास दिलाने वाली और उसका मज़हर और निशान हो। चुनाँचे वह मज़ाहिर जिनके साथ उलुल अज़्म पैगम्बरों या उलुल अज़्म औलिया अल्लाह के हालात व वाक़िआत का कोई ज़हनी सिलसिला क़ायम होता हो और जो अल्लाह और रसूल ﷺ की तरफ़ से बतौर एक निशान और अलामत मुक़र्रर किये गये हों शआइर कहलाते हैं। वह गोया बाज़ मानवी हक़ाइक़ का शऊर दिलाने वाले और ज़हन को अल्लाह की तरफ़ ले जाने वाले होते हैं। इस ऐतबार से बैतुल्लाह, हज्रे अस्वद, जमरात और सफ़ा व मरवा अल्लाह तआला के शआइर में से हैं।

“तो जो कोई भी बैतुल्लाह का हज करे या उमरा करे तो उस पर कोई हर्ज नहीं है कि उन दोनों का तवाफ़ भी करे।”فَمَنْ حَجَّ الْبَيْتَ اَوِ اعْتَمَرَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِ اَنْ يَّطَّوَّفَ بِهِمَا ۭ

सफ़ा व मरवा के तवाफ़ से मुराद वह सई है जो इन दोनों पहाड़ियों के दरमियान सात चक्करों की सूरत में की जाती है।

“और जो शख़्स ख़ुशदिली से कोई भलाई का काम करत है”وَمَنْ تَـطَوَّعَ خَيْرًا  ۙ
“तो (जान लो कि) अल्लाह बड़ा क़द्रदान है, जानने वाला है।”فَاِنَّ اللّٰهَ شَاكِـرٌ عَلِــيْمٌ   ١٥٨؁

यहाँ अल्लाह तआला के लिये लफ़्ज़ “शाकिर” आया है। लफ़्ज़ शुक्र की निस्बत जब बंदे की तरफ़ हो तो इसके मायने शुक्रगुज़ारी और अहसानमंदी के होते हैं, लेकिन जब इसकी निस्बत अल्लाह तआला की तरफ़ हो तो इसके मायने क़द्रदानी और क़ुबूल करने के हो जाते हैं। “शाकिर” के साथ दूसरी सिफ़त “अलीम” आई है कि वह सब कुछ जानने वाला है। चाहे किसी और को पता ना लगे उसे तो ख़ूब मालूम है। अगर तुमने अल्लाह की रज़ाजोई के लिये किसी को कोई माली मदद दी है, इस हाल में कि दाहिने हाथ ने जो कुछ दिया है उसकी बायें हाथ को भी ख़बर नहीं होने दी, बजाय यह कि किसी और इंसान के सामने उसका तज़किरा हो, तो यह अल्लाह के तो इल्म में है, चुनाँचे अगर अल्लाह से अज्रो सवाब चाहते हो तो अपनी नेकियों का ढिंढोरा पीटने की कोई ज़रुरत नहीं, लेकिन अगर तुमने यह सब कुछ लोगों को दिखाने के लिये किया था तो गोया वह शिर्क हो गया।

आयत 159

“यक़ीनन वह लोग जो छुपाते हैं उस शय को जो हमने नाज़िल की बय्यिनात में से और हिदायत में से” اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلْنَا مِنَ الْبَيِّنٰتِ وَالْهُدٰى
“बाद इसके कि हमने उसको वाज़ेह कर दिया है लोगों के लिये किताब में”مِنْۢ بَعْدِ مَا بَيَّنّٰهُ لِلنَّاسِ فِي الْكِتٰبِ ۙ
“तो वही लोग हैं कि जिन पर लानत करता है अल्लाह और लानत करते हैं तमाम लानत करने वाले।اُولٰۗىِٕكَ يَلْعَنُهُمُ اللّٰهُ وَيَلْعَنُهُمُ اللّٰعِنُوْنَ    ١٥٩؁ۙ

इस आयत में यहूद की तरफ़ इशारा है, जिनकी मआनदाना (दुश्मनी की) रविश का ज़िक्र पहले गुज़र चुका है। यहाँ अब गोया आख़री क़तई सफ़ाई (mopping up operation) के तौर पर उनके बारे में चंद बातों का मज़ीद इज़ाफ़ा किया जा रहा है। यहाँ बय्यिनात और हुदा से ख़ास तौर पर वह निशानियाँ मुराद हैं जो अल्लाह तआला ने तौरात में नबी आख़िरुज़्ज़मा ﷺ के बारे में यहूद की रहनुमाई के लिये वाज़ेह फ़रमायी थी। लेकिन यहूद ने उन निशानियों से रहनुमाई हासिल करने के बजाय उनको छुपाने की कोशिश की। आयत 140 में हम पढ़ आये हैं: { وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَهَادَةً عِنْدَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۭ } “और उस शख़्स से बढ़ कर ज़ालिम और कौन होगा जिसके पास अल्लाह की तरफ़ से एक गवाही थी जिसे उसने छुपा लिया।” यहाँ इसकी वज़ाहत हो रही है कि तौरात और इंजील में कैसी-कैसी ख़ुली शहादते थीं, और उनको यह छुपाये फिर रहे हैं!

आयत 160

“सिवाय उनके जो तौबा करें और इस्लाह कर लें और (जो कुछ छुपाते थे उसे) वाज़ेह तौर पर बयान करने लगें” اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا وَاَصْلَحُوْا وَبَيَّنُوْا
“तो उनकी तौबा मैं क़ुबूल करुँगा।”فَاُولٰۗىِٕكَ اَتُوْبُ عَلَيْهِمْ ۚ

मैं अपनी निगाहे उल्तफ़ात (प्यार भारी निगाह) उनकी तरफ़ मुतवज्जह कर दूँगा।

“और मैं तो हूँ ही तौबा का क़ुबूल करने वाला, रहम फ़रमाने वाला।”وَاَنَا التَّوَّابُ الرَّحِيْمُ    ١٦٠؁

आयत 161

“यक़ीनन जिन लोगों ने कुफ़्र किया और वह इसी हाल में मर गये कि कुफ़्र पर क़ायम थे”اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَھُمْ كُفَّارٌ
“उन पर लानत है अल्लाह की भी और फ़रिश्तों की भी और तमाम इंसानों की भी।”اُولٰۗىِٕكَ عَلَيْهِمْ لَعْنَةُ اللّٰهِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ   ١٦١۝ۙ

आयत 162

“इसी (लानत की कैफ़ियत) में वह हमेशा रहेंगे।”خٰلِدِيْنَ فِيْهَا  ۚ
“ना उन पर से अज़ाब में कोई कमी की जायेगी” لَا يُخَفَّفُ عَنْهُمُ الْعَذَابُ
“और ना उनको मोहलत ही मिलेगी।”وَلَا ھُمْ يُنْظَرُوْنَ    ١٦٢؁

अज़ाब का तसलसुल हमेशा क़ायम रहेगा। ऐसा नहीं होगा कि ज़रा सी देर के लिए वक़्फ़ा हो जाये या साँस लेने की मोहलत ही मिल जाये।

आयत 163

“और तुम्हारा इलाह एक ही इलाह है।”وَاِلٰـهُكُمْ اِلٰهٌ وَّاحِدٌ ۚ
“उसके सिवा कोई इलाह नहीं है, वह रहमान है, रहीम है।”لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ الرَّحْمٰنُ الرَّحِيْمُ  ١٦٣؀ۧ

रहमान और रहीम की वज़ाहत सूरतुल फ़ातिहा में गुज़र चुकी है।

आयात 164 से 167 तक

اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ وَالْفُلْكِ الَّتِىْ تَجْرِيْ فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنْفَعُ النَّاسَ وَمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ مِنْ مَّاۗءٍ فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا وَبَثَّ فِيْهَا مِنْ كُلِّ دَاۗبَّةٍ    ۠ وَّتَـصْرِيْفِ الرِّيٰحِ وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ   ١٦٤؁ وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّتَّخِذُ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَنْدَادًا يُّحِبُّوْنَهُمْ كَحُبِّ اللّٰهِ ۭ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَشَدُّ حُبًّا لِّلّٰهِ ۭ وَلَوْ يَرَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْٓا اِذْ يَرَوْنَ الْعَذَابَ ۙ اَنَّ الْقُوَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا  ۙ وَّاَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعَذَابِ   ١٦٥؁ اِذْ تَبَرَّاَ الَّذِيْنَ اتُّبِعُوْا مِنَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا وَرَاَوُا الْعَذَابَ وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الْاَسْـبَابُ   ١٦٦؁ وَقَالَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا لَوْ اَنَّ لَنَا كَرَّةً فَنَتَبَرَّاَ مِنْهُمْ كَمَا تَبَرَّءُوْا مِنَّا ۭ كَذٰلِكَ يُرِيْهِمُ اللّٰهُ اَعْمَالَهُمْ حَسَرٰتٍ عَلَيْهِمْ ۭ وَمَا ھُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنَ النَّارِ١٦٧؁ۧ

अब जो बात आ रही है इसका मुताअले से पहले एक बात समझ लीजिये कि सूरतुल बक़रह का निस्फ़े सानी जो बाईस रुकूओं पर मुश्तमिल है और जिसका आग़ाज़ उन्नीसवें रुकूअ से हुआ है, उसमें तरतीब क्या है। सूरतुल बक़रह के पहले अट्ठारह रुकूओं की तक़सीम उमूदी (verticle) है। यानि चार रुकूअ इधर, दस दरमियान में, फिर चार उधर। लेकिन उन्नीसवें रुकूअ से अब उफ़ुक़ी (horizontal) तक़सीम का आग़ाज़ हो गया है। इस हिस्से में चार मज़ामीन ताने-बाने की तरह बुने हुए हैं। या यूँ कह लें कि चार लड़ियाँ हैं जिनको बट कर रस्सी बना दिया गया है। इन चार में से दो लड़ियाँ तो शरीअत की हैं, जिनमें से एक इबादात की और दूसरी अहकाम व शराए की है कि यह वाजिब है, यह करना है, यह हलाल है और यह हराम है। नमाज़ फ़र्ज़ है, रोज़ा फ़र्ज़ है वगैरह-वगैरह। अहकाम व शराए में ख़ासतौर पर शौहर और बीवी के ताल्लुक़ को बहुत ज़्यादा अहमियत दी गई है। इसलिये कि मआशरते इंसानी की बुनियाद यही है। लिहाज़ा इस सूरत में आप देखेगें कि आइली क़वानीन (familiy laws) के ज़िमन में तफ़सीली अहकाम आएँगे। जबकि दूसरी दो लड़ियाँ जिहाद बिल् माल व जिहाद बिल् नफ़्स की हैं। जिहाद बिल् नफ़्स की आख़री इन्तहा क़िताल है जहाँ इंसान नक़द जान हथेली पर रख कर मैदाने कारज़ार (जंग) में हाज़िर हो जाता है।

अब इन चारों मज़ामीन या चारों लड़ियों को एक मिसाल से समझ लीजिये। फ़र्ज़ कीजिये एक सुर्ख़ लड़ी है, एक पीली है, एक नीली है और एक सब्ज़ (हरी) है, और इन चारों लड़ियों को एक रस्सी की सूरत में बट दिया गया है। आप रस्सी को देखेगें तो चारो रंग कटे-फटे नज़र आएँगे। पहले सुर्ख़, फिर पीला, फिर नीला और फिर सब्ज़ नज़र आयेगा। लेकिन अगर रस्सी के बल खोल दें तो हर लड़ी मुसलसल नज़र आयेगी। चुनाँचे सूरतुल बक़रह के निस्फ़े आख़िर में इबादात, अहकामे शरीअत, जिहाद बिल् माल और जिहाद बिल् नफ़्स के चार मज़ामीन चार लड़ियों के मानिन्द गुथे हुए हैं। ये चारों लड़ियाँ ताने-बाने की तरह बुनी हुई हैं। लेकिन इसी बुन्ति में बहुत बड़े-बड़े फूल मौजूद हैं। यह फूल क़ुरान मजीद की अज़ीम तरीन और तवील आयात हैं, जिनकी नुमाया तरीन मिसाल आयतल कुर्सी की है। इन अज़ीम आयतों में से एक आयत यहाँ बीसवें रुकूअ के आग़ाज़ में आ रही है, जिसे मैंने “आयतुल आयात” का उन्वान दिया है। इसलिये कि क़ुरान मजीद की किसी और आयत में इस क़द्र मज़ाहिरे फ़ितरत (phenomena of nature) यक्जा (इकट्ठे) नहीं हैं। अल्लाह तआला तमाम मज़ाहिरे फ़ितरत को अपनी आयात क़रार देता है। आसमान और ज़मीन की तख़्लीक़, रात और दिन का उलट-फेर, आसमान के सितारे और ज़मीन की नबातात (वनस्पति), यह सब आयात हैं जिनका ज़िक्र क़ुरान मजीद में मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर किया गया है, लेकिन यहाँ बहुत से मज़ाहिरे फ़ितरत को जिस तरह एक आयत में समोया गया है यह हिकमते क़ुरानी का एक बहुत बड़ा फूल है जो इन चारों लड़ियों की बुन्ति के अंदर आ गया है।

आयत 164

“यक़ीनन आसमान और ज़मीन की तख्लीक़ में और रात और दिन के उलट-फेर में”اِنَّ فِيْ خَلْقِ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ وَاخْتِلَافِ الَّيْلِ وَالنَّهَارِ
“और उन कश्तियों (और जहाज़ों) में जो समुन्दर में (या दरियाओं में) लोगों के लिये नफ़ा बख़्श सामान लेकर चलती हैं”وَالْفُلْكِ الَّتِىْ تَجْرِيْ فِي الْبَحْرِ بِمَا يَنْفَعُ النَّاسَ
“और उस पानी में कि जो अल्लाह ने आसमान से उतारा है”وَمَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ السَّمَاۗءِ مِنْ مَّاۗءٍ
“फिर उससे ज़िन्दगी बख़्शी ज़मीन को उसके मुर्दा हो जाने के बाद”فَاَحْيَا بِهِ الْاَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا

बे आबो गयाह (बेरंग) ज़मीन पड़ी थी, बारिश हुई तो उसी में से रुईदगी (वनस्पति) आ गई।

“और हर क़िस्म के हैवानात (और चरिंदे परिंदे) इसके अंदर फैला दिये।”وَبَثَّ فِيْهَا مِنْ كُلِّ دَاۗبَّةٍ    ۠
“और हवाओं की गर्दिश में”وَّتَـصْرِيْفِ الرِّيٰحِ

हवाओं की गर्दिश के मुख़्तलिफ़ अंदाज़ और मुख़्तलिफ़ पहलू हैं। कभी शिमालन जुनुबन चल रही, कभी मशरिक़ से आ रही है, कभी मग़रिब से आ रही है। इस गर्दिश में बड़ी हिकमतें कारफ़रमा हैं।

“और उन बादलों में जो मुअल्लिक़ कर दिये गये हैं आसमान और ज़मीन के दरमियान”وَالسَّحَابِ الْمُسَخَّرِ بَيْنَ السَّمَاۗءِ وَالْاَرْضِ
“यक़ीनन निशानियाँ हैं उन लोगों के लिये जो अक़्ल से काम लें।”لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ   ١٦٤؁

इन मज़ाहिरे फ़ितरत को देखो और इनके ख़ालिक़ और मुदब्बिर (रचनाकार) को पहचानो! इन आयाते आफ़ाक़ी पर ग़ौरो फ़िक्र और इनके ख़ालिक़ को पहचानने का जो अमली नतीजा निकलना चाहिये और जिस तक आमतौर पर लोग नहीं पहुँच पाते अब अगली आयत में उसका तज़किरा है। नतीजा तो यह निकलना चाहिये कि फिर महबूब अल्लाह ही हो, शुक्र उसी का हो, इताअत उसी की हो, इबादत उसी की हो। जब सूरज में अपना कुछ नहीं, उसे अल्लाह ने बनाया है और उसे हरारत (गर्मी) अता की है, चाँद में कुछ नहीं, हवायें चलाने वाला भी वही है तो और किसी शय के लिये कोई शुक्र नहीं, कोई इबादत नहीं, कोई दंडवत नहीं, कोई सजदा नहीं। चुनाँचे अल्लाह तआला ही मतलूब व मक़सूद बन जाये, वही महबूब हो। “ला महबूबा इल्लल्लाह, ला मक़सूदा इल्लल्लाह, ला मतलूबा इल्लल्लाह” जिन लोगों की यहाँ तक रसाई नहीं हो पाती वह किसी और शय को अपना महबूब व मतलूब बना कर उसकी परस्तिश शुरू कर देते हैं। ख़ुदा तक नहीं पहुँचे तो “अपने ही हुस्न का दीवाना बना फिरता हूँ” के मिस्दाक़ अपने नफ़्स ही को मअबूद बना लिया और ख़्वाहिशाते नफ़्स की पैरवी में लग गये। कुछ लोगों ने अपनी क़ौम को मअबूद बना लिया और क़ौम की बरतरी और सरबुलंदी के लिये जाने भी दे रहे हैं। बाज़ ने वतन को मअबूद बना लिया। इस हक़ीक़त को अल्लामा इक़बाल ने समझा है कि इस दौर का सबसे बड़ा बुत वतन है। उनकी नज़्म “वतनियत” मुलाहिज़ा कीजिये:

इस दौर में मय और है, जाम और है, जम और

साक़ी ने बिना की रविशे लुत्फ़ो सितम और

तहज़ीब के आज़र ने तरशवाये सनम और

मुस्लिम ने भी तामीर किया अपना हरम और

इन ताज़ा ख़ुदाओं में बड़ा सबसे वतन है

जो पैरहन इसका है वो मज़हब का कफ़न है!

अगली आयत में तमाम मअबूदाने बातिल की नफ़ी करके एक अल्लाह को अपना महबूब और मतलूबो मक़सूद बनाने की दावत दी गई है।

आयत 165

“और लोगों में से कुछ ऐसे भी हैं जो अल्लाह को छोड़ कर कुछ और चीज़ों को उसका हमसर और मद्दे मुक़ाबिल बना देते हैं”وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّتَّخِذُ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ اَنْدَادًا
“वह उनसे ऐसी मुहब्बत करने लगते हैं जैसी अल्लाह से करनी चाहिये।”يُّحِبُّوْنَهُمْ كَحُبِّ اللّٰهِ ۭ

यह दरअसल एक फ़लसफ़ा है कि हर बाशऊर इंसान किसी शय को अपना आईडियल, नस्बुलऐन (लक्ष्य) या आदर्श ठहराता है और फिर उससे भरपूर मोहब्बत करता है, उसके लिये जीता है, उसके लिये मरता है, क़ुर्बानियाँ देता है, इसार (त्याग) करता है। चुनाँचे कोई क़ौम के लिये, कोई वतन के लिये, और कोई ख़ुद अपनी ज़ात के लिये क़ुर्बानी देता है। लेकिन बंदा-ए-मोमिन यह सारे काम अल्लाह के लिये करता है। वो अपना मतलूबो मक़सूद और महबूब सिर्फ़ अल्लाह को बनाता है। वह उसी के लिये जीता है, उसी के लिये मरता है: {قُلْ اِنَّ صَلَاتِيْ وَنُسُكِيْ وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِيْ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ    ١٦٢؀ۙ} (अल् अनआम) “बेशक मेरी नमाज़, मेरी क़ुर्बानी, मेरा जीना और मेरा मरना अल्लाह ही के लिये है जो तमाम जहानों का परवरदिग़ार है।” इसके बरअक्स आम इंसानों का मामला यही होता है कि:

मी तराशद फ़िक्र मा हर दम ख़ुदा बंदे दीगर

रस्त अज़ यक बंद ता उफ़ताद दर बंदे दीगर

इंसान अपने ज़हन से मअबूद तराशता रहता है, उनसे मुहब्बत करता है और उनके लिये क़ुर्बानियाँ देता है। यह मज़मून सूरतुल हज के आख़री रुकूअ में ज़्यादा वज़ाहत के साथ आयेगा।

“और जो लोग वाक़िअतन साहिबे ईमान होते हैं उनकी शदीद तरीन मुहब्बत अल्लाह के साथ होती है।”وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَشَدُّ حُبًّا لِّلّٰهِ ۭ

“ग़र यह नहीं तो बाबा फिर सब कहानियाँ है!” यह गोया लिट्मस टेस्ट है। कोई शय अगर अल्लाह से बढ़ कर महबूब हो गई तो वह तुम्हारी मअबूद है। तुमने अल्लाह को छोड़ कर उसको अपना मअबूद बना लिया, चाहे वह दौलत ही हो। हदीसे नबवी ﷺ है: ((تَعِسَ عَبْدُ الدِّیْنَارِ وَ عَبْدُ الدِّرْھَمِ))(19) “हलाक और बर्बाद हो जाये दिरहम व दीनार का बंदा।” नाम ख़्वाह अब्दुल रहमान हो, हक़ीक़त में वो अब्दुल दीनार है। इसलिये कि वह यह ख़्वाहिश रखता है कि दीनार आना चाहिये, ख़्वाह हराम से आये या हलाल से, जायज़ ज़राए से आये या नाजायज़ ज़राए से। चुनाँचे उसका मअबूद अल्लाह नहीं, दीनार है। हिन्दुओं ने लक्ष्मी देवी की मूर्ती बना कर उसे पूजना शुरू कर दिया कि यह लक्ष्मी देवी अगर ज़रा मेहरबान हो जायेगी तो दौलत की रेल-पेल हो जायेगी। हमने इस दरमियान वास्ते को भी हटा कर बराहे रास्त डॉलर और पेट्रो डॉलर को पूजना शुरू कर दिया और उसकी ख़ातिर अपने वतन और अपने माँ-बाप को छोड़ दिया। चुनाँचे यहाँ कितने ही लोग सिसक-सिसक कर मर जाते हैं और आख़री लम्हात में उनका बेटा या बेटी उनके पास मौजूद नहीं होता बल्कि दियारे ग़ैर में डॉलर की पूजा में मसरूफ़ होता है।

“और अगर यह ज़ालिम लोग उस वक़्त को देख लें जब यह देखेंगे अज़ाब को, तो (इन पर यह बात वाज़ेह हो जाएगी कि) क़ुव्वत तो सारी की सारी अल्लाह के पास है”وَلَوْ يَرَى الَّذِيْنَ ظَلَمُوْٓا اِذْ يَرَوْنَ الْعَذَابَ ۙ اَنَّ الْقُوَّةَ لِلّٰهِ جَمِيْعًا  ۙ

यहाँ ज़ुल्म शिर्क के मायने में आया है और ज़ालिम से मुराद मुशरिक हैं।

“और यह कि अल्लाह सज़ा देने में बहुत सख़्त है।”وَّاَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعَذَابِ   ١٦٥؁

उस वक़्त आँखे खुलेगी तो क्या फ़ायदा होगा? अब आँख खुले तो फ़ायदा है।

आयत 166

“उस वक़्त वह लोग जिनकी (दुनिया में) पैरवी की गई थी अपने पैरूओं से इज़हारे बराअत करेंगे”اِذْ تَبَرَّاَ الَّذِيْنَ اتُّبِعُوْا مِنَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا

हर इंसानी मआशरे में कुछ ऐसे लोग ज़रूर होते हैं जो दूसरे लोगों को अपने पीछे लगा लेते हैं, चाहे अरबाबे इक़तदार हों चाहे मज़हबी मसनदों के वाली हों। लोग उन्हें अपने पेशवा और रहनुमा मान कर उनकी पैरवी करते हैं और उनकी हर सच्ची-झूठी बात पर सरे तस्लीम ख़म करते हैं। जब अज़ाबे आख़िरत ज़ाहिर होगा तो यह पेशवा और रहनुमा अज़ाब से बचाने में अपने पैरूओं के कुछ भी काम ना आएँगे और उनसे साफ़-साफ़ इज़हारे बराअत और ऐलाने ला ताल्लुक़ी कर देंगे।

“और वह अज़ाब से दो-चार होंगे और उनके तमाम ताल्लुक़ात मुन्क़तअ (अलग) हो जाएँगे।”وَرَاَوُا الْعَذَابَ وَتَقَطَّعَتْ بِهِمُ الْاَسْـبَابُ   ١٦٦؁

जब जहन्नम उनकी निगाहों के सामने आ जायेगी तो तमाम रिश्ते मुन्क़तअ हो जाएँगे। सूरह अबस में इस नफ़्सा-नफ़्सी का नक़्शा यूँ खींचा गया है:

“उस रोज़ आदमी भागेगा अपने भाई से, और अपनी माँ और अपने बाप से, और अपनी बीवी और अपनी औलाद से। उनमें से हर शख़्स पर उस दिन ऐसा वक़्त पड़ेगा कि उसे अपने सिवा किसी का होश ना होगा।”يَوْمَ يَفِرُّ الْمَرْءُ مِنْ اَخِيْهِ 34؀ۙ وَاُمِّهٖ وَاَبِيْهِ 35؀ۙ وَصَاحِبَتِهٖ وَبَنِيْهِ  36؀ۭلِكُلِّ امْرِۍ مِّنْهُمْ يَوْمَىِٕذٍ شَاْنٌ يُّغْنِيْهِ  37؀ۭ

इसी तरह सूरतुल मआरिज में फ़रमाया गया है:

“मुजरिम चाहेगा कि उस दिन के अज़ाब से बचने के लिये अपनी औलाद को, अपनी बीवी को, अपने भाई को, अपने क़रीब तरीन ख़ानदान को जो उसे पनाह देने वाला था, और रूए ज़मीन के सब इंसानों को फ़िदये में दे दे और यह तदबीर उसे निजात दिला दे।”يَوَدُّ الْمُجْرِمُ لَوْ يَفْتَدِيْ مِنْ عَذَابِ يَوْمِىِٕذٍۢ بِبَنِيْهِ    11۝ۙ وَصَاحِبَتِهٖ وَاَخِيْهِ   12۝ۙ وَفَصِيْلَتِهِ الَّتِيْ تُـــــْٔوِيْهِ  13۝ۙ وَمَنْ فِي الْاَرْضِ جَمِيْعًا   ۙ ثُمَّ يُنْجِيْهِ   14۝ۙ

यहाँ फ़रमाया: {تَقَطَّعَتْ بِهِمُ الْاَسْـبَابُ   ١٦٦؁} “उनके सारे रिश्ते मुन्क़तअ हो जाएँगे” यह लम्हा-ए-फ़िक्रिया है कि जिन रिश्तों की वजह से हम हराम को हलाल और हलाल को हराम कर रहे हैं, जिनकी दिलजोई के लिये हराम की कमाई करते हैं और जिनकी नाराज़गी के ख़ौफ़ से दीन के रास्ते पर आगे नहीं बढ़ रहे हैं, यह सारे रिश्ते इसी दुनिया तक महदूद हैं और उख़रवी ज़िन्दगी में यह कुछ काम ना आयेंगे।

आयत 167

“और जो उनके पैरोकार थे वह कहेंगे कि अगर कहीं हमें दुनिया में एक बार लौटना नसीब हो जाए”وَقَالَ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْا لَوْ اَنَّ لَنَا كَرَّةً
“तो हम भी इनसे इसी तरह इज़हारे बराअत करेंगे जैसे आज यह हमसे बेज़ारी ज़ाहिर कर रहे हैं।”فَنَتَبَرَّاَ مِنْهُمْ كَمَا تَبَرَّءُوْا مِنَّا ۭ
“इस तरह अल्लाह उनको उनके आमाल हसरतें बना कर दिखायेगा।”كَذٰلِكَ يُرِيْهِمُ اللّٰهُ اَعْمَالَهُمْ حَسَرٰتٍ عَلَيْهِمْ ۭ

वह कहेंगे काश हमने समझा होता, काश हमने इनकी पैरवी ना की होती, काश हमने इनको अपना लीडर और अपना हादी व रहनुमा ना माना होता!!

“लेकिन वह अब आग से निकलने वाले नहीं होंगे।” وَمَا ھُمْ بِخٰرِجِيْنَ مِنَ النَّارِ١٦٧؁ۧ

अब उनको दोज़ख़ से निकलना नसीब नहीं होगा।

आयात 168 से 176 तक

يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ كُلُوْا مِمَّا فِي الْاَرْضِ حَلٰلًا طَيِّبًا   ڮ وَّلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ ۭ اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ   ١٦٨؁ اِنَّمَا يَاْمُرُكُمْ بِالسُّوْۗءِ وَالْفَحْشَاۗءِ وَاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ    ١٦٩؁ وَاِذَا قِيْلَ لَهُمُ اتَّبِعُوْا مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ قَالُوْا بَلْ نَتَّبِــعُ مَآ اَلْفَيْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۗءَنَا  ۭ اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۗؤُھُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يَهْتَدُوْنَ   ١٧٠؁ وَمَثَلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا كَمَثَلِ الَّذِيْ يَنْعِقُ بِمَا لَا يَسْمَعُ اِلَّا دُعَاۗءً وَّنِدَاۗءً  ۭ ۻ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ   ١٧١؁ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ وَاشْكُرُوْا لِلّٰهِ اِنْ كُنْتُمْ اِيَّاهُ تَعْبُدُوْنَ   ١٧٢؁ اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ وَمَآ اُهِلَّ بِهٖ لِغَيْرِ اللّٰهِ ۚ فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ   ١٧٣؁ اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَشْتَرُوْنَ بِهٖ ثَـمَنًا قَلِيْلًا ۙ اُولٰۗىِٕكَ مَا يَاْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِهِمْ اِلَّا النَّارَ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اللّٰهُ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيْهِمْ ښ وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ    ١٧٤؁ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَةَ بِالْهُدٰى وَالْعَذَابَ بِالْمَغْفِرَةِ  ۚفَمَآ اَصْبَرَھُمْ عَلَي النَّارِ ١٧٥؁ ذٰلِكَ بِاَنَّ اللّٰهَ نَزَّلَ الْكِتٰبَ بِالْحَـقِّ ۭ وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِي الْكِتٰبِ لَفِيْ شِقَاقٍۢ بَعِيْدٍ   ١٧٦۝ۧ

आयत 168

“ऐे लोगों! ज़मीन में जो कुछ हलाल और तय्यब (पाकीज़ा) है उसे खाओ”يٰٓاَيُّهَا النَّاسُ كُلُوْا مِمَّا فِي الْاَرْضِ حَلٰلًا طَيِّبًا   ڮ
“और शैतान के नक़्शे क़दम की पैरवी ना करो।”وَّلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ ۭ
“यक़ीनन वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।”اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ   ١٦٨؁

यह बहस दरअसल सूरतुल अनआम में ज़्यादा वज़ाहत से आयेगी। अरब में यह रिवाज़ था कि बुतों के नाम पर कोई जानवर छोड़ देते थे, जिसको ज़िबह करना वह हराम समझते थे। ऐसी रिवायात हिन्दुओं में भी थीं जिन्हें हमने बचपन में देखा है। मसलन कोई साँड छोड़ दिया, किसी के कान चीर दिये कि यह फ़लाँ बुत के लिये या फ़लाँ देवी के लिये है। ऐसे जानवर जहाँ चाहे मुँह मारें, उन्हें कोई कुछ नहीं कह सकता था। ज़ाहिर है उनका गोश्त कैसे खाया जा सकता था! तो अरब में भी यह रिवाज थे और ज़हूरे इस्लाम के बाद भी  उनके कुछ ना कुछ असरात अभी बाक़ी थे। आबा व अजदाद की रस्में जो क़रनों (सदियों) से चली आ रही हों वह आसानी से छूटती नहीं हैं, कुछ ना कुछ असरात रहते हैं। जैसे आज भी हमारे यहाँ हिन्दुआना असरात मौजूद हैं। तो ऐसे लोगों से कहा जा रहा है कि मुशरिकाना तोहमात की बुनियाद पर तुम्हारे मुशरिक बाप-दादा ने अगर कुछ चीज़ों को हराम ठहरा लिया था और कुछ को हलाल क़रार दे लिया था तो इसकी कोई हैसियत नहीं। तुम शैतान की पैरवी में मुशरिकाना तोहमात के तहत अल्लाह तआला की हलाल ठहराई हुई चीज़ों को हराम मत ठहराओ। जो चीज़ भी असलन हलाल और पाकीज़ा व तय्यब है उसे खाओ।

आयत 169

“वह (शैतान) तो बस तुम्हें बदी और बेहयाई का हुक्म देता है”اِنَّمَا يَاْمُرُكُمْ بِالسُّوْۗءِ وَالْفَحْشَاۗءِ
“और इसका कि तुम अल्लाह की तरफ़ वह बातें मन्सूब करो जिनके बारे में तुम्हें कोई इल्म नहीं है।”وَاَنْ تَقُوْلُوْا عَلَي اللّٰهِ مَا لَا تَعْلَمُوْنَ    ١٦٩؁

आयत 170

“और जब उनसे कहा जाता है कि पैरवी करो उसकी जो अल्लाह ने नाज़िल किया है”وَاِذَا قِيْلَ لَهُمُ اتَّبِعُوْا مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ
“वह जवाब में कहते हैं कि हम तो पैरवी करेंगे उस तरीक़े की जिस पर हमने अपने आबा अजदाद को पाया है।”قَالُوْا بَلْ نَتَّبِــعُ مَآ اَلْفَيْنَا عَلَيْهِ اٰبَاۗءَنَا  ۭ
“अग़रचे उनके आबा अजदाद ना किसी बात को समझ पाये हों और ना हिदायत याफ़्ता हुए हों (फिर भी वह अपने आबा अजदाद ही की पैरवी करते रहेंगे?)”اَوَلَوْ كَانَ اٰبَاۗؤُھُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يَهْتَدُوْنَ   ١٧٠؁

सूरतुल बक़रह के तीसरे रुकूअ की पहली आयत (जहाँ नौए इंसानी को ख़िताब करके इबादते रब की दावत दी गई) के ज़िमन में वज़ाहत की गई थी कि जो लोग तुमसे पहले गुज़र चुके हैं वह भी तो मख्लूक़ थे जैसे तुम मख्लूक़ हो, जैसे तुमसे ख़ता हो सकती है उनसे भी हुई, जैसे तुम ग़लती कर सकते हो उन्होंने भी की।

आयत 171

“और उन लोगों की मिसाल जिन्होंने कुफ़्र किया, ऐसी है जैसे कोई शख़्स ऐसी चीज़ को पुकारे जो पुकार और आवाज़ के सिवा कुछ ना समझती हो।”وَمَثَلُ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا كَمَثَلِ الَّذِيْ يَنْعِقُ بِمَا لَا يَسْمَعُ اِلَّا دُعَاۗءً وَّنِدَاۗءً  ۭ

जो लोग महज़ बाप-दादा की तक़लीद (नक़ल) में अपने कुफ़्र पर अड़ गये हैं उनकी तश्बीह (तुलना) जानवरों से दी गई है जिन्हें पुकारा जाये तो वह पुकारने वाले की पुकार और आवाज़ तो सुनते हैं, लेकिन सोचने-समझने की सलाहियत से बिल्कुल आरी (वंचित) होते हैं। तमसील (कहानी) से मुराद यह है कि रसूल अल्लाह ﷺ और मुसलमान उन लोगों को समझाने की कोशिश कर रहे हैं लेकिन वह इस दावत पर कान धरने को तैयार नहीं हैं।

“वो बहरे भी हैं, गूँगे भी हैं, अंधे भी हैं, पस वो अक़्ल से काम नहीं लेते।”ۻ بُكْمٌ عُمْيٌ فَهُمْ لَا يَعْقِلُوْنَ   ١٧١؁

आयत 172

“ऐ अहले ईमान! खाओ उन तमाम पाकीज़ा चीज़ों में से जो हमने तुम्हें दी हैं”يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُلُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا رَزَقْنٰكُمْ
“और अल्लाह का शुक्र अदा करो”وَاشْكُرُوْا لِلّٰهِ
“अगर तुम वाक़िअतन उसी की इबादत करने वाले हो।”اِنْ كُنْتُمْ اِيَّاهُ تَعْبُدُوْنَ   ١٧٢؁

जैसा कि मैंने अर्ज़ किया सूरतुल अनआम में यह सारी चीजें तफ़सील से आयेंगी।

आयत 173

“उसने तो तुम पर यही हराम किया है, मुर्दार और ख़ून”اِنَّمَا حَرَّمَ عَلَيْكُمُ الْمَيْتَةَ وَالدَّمَ

जो जानवर अपनी मौत आप मर गया, ज़िबह नहीं किया गया वह हराम है और ख़ून हराम है, नजिस (अशुद्ध) है। इसी लिये अहले इस्लाम का ज़िबह करने का तरीक़ा यह है कि सिर्फ़ गर्दन को काटा जाये, ताकि उसमें शरयानें (साँस की नली) वगैरह कट जायें और जिस्म का अक्सर ख़ून निकल जाये। लेकिन अगर झटका किया जाये, यानि तेज़ धार आले (हथियार) के एक ही वार से जानवर की गर्दन अलग कर दी जाये, जैसे सिख़ करते हैं या जैसे यूरोप वग़ैरह में होता है, तो फिर ख़ून जिस्म के अंदर रह जाता है। इस तरीक़े से मारा गया जानवर हराम है।

“और ख़न्ज़ीर का गोश्त”وَلَحْمَ الْخِنْزِيْرِ
“और जिस पर अल्लाह के सिवा किसी का नाम पुकारा गया हो।”وَمَآ اُهِلَّ بِهٖ لِغَيْرِ اللّٰهِ ۚ

यानि किसी जानवर को ज़िबह करते हुए किसी बुत का, किसी देवी का, किसी देवता का, अल् ग़र्ज़ अल्लाह के सिवा किसी का भी नाम लिया गया तो वह हराम हो गया, उसका गोश्त ख़ाना हरामे मुत्लक़ (बिल्कुल हराम) है, लेकिन इसके ताबेअ (अधीन) यह सूरत भी है कि किसी बुज़ुर्ग का क़ुर्ब हासिल करने के लिये जानवर को उसके मज़ार पर ले जाकर वहाँ ज़िबह किया जाये, अग़रचे दावा यह हो कि यह साहिबे मज़ार के ईसाले सवाब की ख़ातिर अल्लाह तआला के लिये ज़िबह किया जा रहा है। इसलिये कि ईसाले सवाब के ख़ातिर तो यह अमल घर पर भी किया जा सकता है।

वह खाने जो अहले अरब में उस वक़्त राइज (प्रचलित) थे, अल्लाह तआला ने बुनियादी तौर पर उनमें से चार चीज़ों की हुरमत का क़ुरान हकीम में बार-बार ऐलान किया है। मक्की सूरतों में भी इन चीज़ों की हुरमत का मुतअद्दिद (कईं) दो बार बयान हुआ है और यहाँ सूरतुल बक़रह में भी जो मदनी सूरत है। इसके बाद सूरतुल मायदा में यह मज़मून फिर आयेगा। इन चार चीज़ों की हुरमत के बयान से हलाल व हराम की तफ़सील पेश करना हरगिज़ मक़सूद नहीं है, बल्कि मुशरिकीन की तरदीद (इन्कार) है।

“फिर जो कोई मजबूर हो जाये और वह ख़्वाहिशमंद और हद से आगे बढ़ने वाला ना हो तो उस पर कोई गुनाह नहीं।”فَمَنِ اضْطُرَّ غَيْرَ بَاغٍ وَّلَا عَادٍ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۭ

अगर कोई शख़्स भूख से मजबूर हो गया है, जान निकल रही है और कोई शय खाने को नहीं है तो वह जान बचाने के लिये हरामकर्दा चीज़ भी खा सकता है। लेकिन इसके लिये दो शर्तें आयद (लागू) की गई हैं, एक तो वह उस हराम की तरफ़ रग़बत और मैलान ना रखता हो और दूसरे यह कि जान बचाने के लिये जो नागज़ीर मिक़्दार (ज़रूरी मात्रा) है उससे आगे ना बढ़े। इन दो शर्तों के साथ जान बचाने के लिये हराम चीज़ भी खाई जा सकती है।

“यक़ीनन अल्लाह बख़्शने वाला, रहम करने वाला है।”اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ   ١٧٣؁

आयत 174

“यक़ीनन वह लोग जो छुपाते हैं उसको जो अल्लाह ने नाज़िल किया है किताब में से और फ़रोख़्त करते हैं उसे बहुत हक़ीर सी कीमत पर”اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْتُمُوْنَ مَآ اَنْزَلَ اللّٰهُ مِنَ الْكِتٰبِ وَيَشْتَرُوْنَ بِهٖ ثَـمَنًا قَلِيْلًا ۙ

यानि उसके एवज़ दुनियवी फ़ायदों की सूरत में हक़ीर क़ीमत क़ुबूल करते हैं।

“यह लोग नहीं भर रहे अपने पेटों में मगर आग़”اُولٰۗىِٕكَ مَا يَاْكُلُوْنَ فِيْ بُطُوْنِهِمْ اِلَّا النَّارَ
“और अल्लाह इनसे कलाम नहीं करेगा क़यामत के दिन।”وَلَا يُكَلِّمُهُمُ اللّٰهُ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ
“और ना इन्हें पाक करेगा।”وَلَا يُزَكِّيْهِمْ ښ
“और इनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।”وَلَهُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ    ١٧٤؁

आयत 175

“यह हैं वह लोग जिन्होंने हिदायत देकर गुमराही ख़रीद ली है”اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ اشْتَرَوُا الضَّلٰلَةَ بِالْهُدٰى
“और (अल्लाह की) मग़फ़िरत हाथ से देकर अज़ाब ख़रीद लिया है।”وَالْعَذَابَ بِالْمَغْفِرَةِ  ۚ
“तो यह किस क़द्र सब्र करने वाले हैं दोज़ख़ पर!”فَمَآ اَصْبَرَھُمْ عَلَي النَّارِ ١٧٥؁

इनका कितना हौसला है कि जहन्नम का अज़ाब बर्दाश्त करने के लिये तैयार हैं! उसके लिये किस तरह तैयारी कर रहे हैं!

आयत 176

“यह इसलिये कि अल्लाह ने तो किताब नाज़िल की हक़ के साथ।”ذٰلِكَ بِاَنَّ اللّٰهَ نَزَّلَ الْكِتٰبَ بِالْحَـقِّ ۭ
“और यक़ीनन जिन लोगों ने किताब में इख़्तलाफ़ डाला वह ज़िद और मुख़ालफ़त में बहुत दूर निकल गये।”وَاِنَّ الَّذِيْنَ اخْتَلَفُوْا فِي الْكِتٰبِ لَفِيْ شِقَاقٍۢ بَعِيْدٍ   ١٧٦۝ۧ

जिन लोगों ने अल्लाह की किताब और शरीअत में इख़्तलाफ़ की पगडंडियाँ निकालीं वह ज़िद, हठधर्मी, शक़ावत (मुसीबत) और दुश्मनी में मुब्तला हो गये और इसमें बहुत दूर निकल गये। اعاذنا اللہ منْ ذٰلِکَ!