Suratul baqarah-सूरतुल बक़रह ayat177 -242
आयात 177 से 182 तक
لَيْسَ الْبِرَّ اَنْ تُوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ قِـبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالْكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَ ۚ وَاٰتَى الْمَالَ عَلٰي حُبِّهٖ ذَوِي الْقُرْبٰى وَالْيَـتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَابْنَ السَّبِيْلِ ۙ وَالسَّاۗىِٕلِيْنَ وَفِي الرِّقَابِ ۚ وَاَقَامَ الصَّلٰوةَ وَاٰتَى الزَّكٰوةَ ۚ وَالْمُوْفُوْنَ بِعَهْدِهِمْ اِذَا عٰھَدُوْا ۚ وَالصّٰبِرِيْنَ فِي الْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَحِيْنَ الْبَاْسِ ۭ اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُتَّقُوْنَ ١٧٧ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِصَاصُ فِي الْقَتْلٰي ۭ اَلْحُــرُّ بِالْحُــرِّ وَالْعَبْدُ بِالْعَبْدِ وَالْاُنْـثٰى بِالْاُنْـثٰى ۭ فَمَنْ عُفِيَ لَهٗ مِنْ اَخِيْهِ شَيْءٌ فَاتِّـبَاعٌۢ بِالْمَعْرُوْفِ وَاَدَاۗءٌ اِلَيْهِ بِاِحْسَانٍ ۭ ذٰلِكَ تَخْفِيْفٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَرَحْمَـةٌ ۭ فَمَنِ اعْتَدٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَهٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ ١٧٨ وَلَكُمْ فِي الْقِصَاصِ حَيٰوةٌ يّـٰٓــاُولِي الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ ١٧٩ كُتِبَ عَلَيْكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ اِنْ تَرَكَ خَيْرَۨا ښ الْوَصِيَّةُ لِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ بِالْمَعْرُوْفِ ۚ حَقًّا عَلَي الْمُتَّقِيْنَ ١٨٠ۭ فَمَنْۢ بَدَّلَهٗ بَعْدَ مَا سَمِعَهٗ فَاِنَّمَآ اِثْمُهٗ عَلَي الَّذِيْنَ يُبَدِّلُوْنَهٗ ۭ اِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ١٨١ۭ فَمَنْ خَافَ مِنْ مُّوْصٍ جَنَفًا اَوْ اِثْمًـا فَاَصْلَحَ بَيْنَهُمْ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٨٢ۧ
जैसा कि अर्ज़ किया जा चुका है, इस सूरह मुबारका में कई ऐसी अज़ीम आयतें आई हैं जो हुज्म के ऐतबार से भी और मायने व हिकमत के ऐतबार से भी बहुत अज़ीम हैं, जैसे दो रुकूअ पहले “आयतुल आयात” गुज़र चुकी है। इसी तरह से अब यह “आयतुल बिर्र” आ रही है, जिसमें नेकी की हक़ीक़त वाज़ेह की गई है। लोगों के ज़हनों में नेकी के मुख़्तलिफ़ तसव्वुरात होते हैं। हमारे यहाँ एक तबक़ा वह है जिसका नेकी का तसव्वुर यह है कि बस सच बोलना चाहिये, किसी को धोखा नहीं देना चाहिये, किसी का हक़ नहीं मारना चाहिये, यह नेकी है, बाक़ी कोई नमाज़ रोज़े की पाबंदी करे या ना करे, इससे क्या फ़र्क़ पड़ता है! एक तबक़ा वह है जिसमें चोर उचक्के, गिरोह कट, डाकू और बदमाश शामिल हैं। उनमें बहुत से लोग ऐसे हैं जो यतीमों और बेवाओं की मदद भी करते हैं और यह काम उनके यहाँ नेकी शुमार होते हैं। यहाँ तक कि जिस्मफ़रोश ख्वातीन भी अपने यहाँ नेकी का एक तसव्वुर रखती है, वह ख़ैरात भी करती हैं और मस्जिदें भी तामीर कराती हैं। हमारे यहाँ मज़हबी तबक़ात में एक तबक़ा वह है जो मज़हब के ज़ाहिर को लेकर बैठ जाता है और वह उसकी रूह से नाआशना (अन्जान) होता है। उनका हाल यह होता है कि “मच्छर छानते हैं और समूचे ऊँट निगल जाते हैं।” उनके इख़्तलाफ़ात इस नौइयत (स्वभाव) के होते हैं कि रफ़ा यदैन के बग़ैर नमाज़ हुई या नहीं? तरावीह आठ हैं या बीस हैं? बाक़ी यह कि सूदी कारोबार तुम भी करो और हम भी, इससे किसी की हन्फ़ियत या अहले हदीसियत पर कोई आँच नहीं आयेगी। नेकी के यह सारे तसव्वुरात मस्ख़शुदा (perverted) हैं। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे अंधों ने एक हाथी को देख कर अंदाज़ा करना चाहा था कि वह कैसा है। किसी ने उसके पैर को टटोल कर कहा कि यह तो सतून की मांनिन्द है, जिसका हाथ उसके कान पर पड़ गया उसने कहा यह छाज की तरह है। इसी तरह हमारे यहाँ नेकी का तसव्वुर तक़सीम होकर रह गया है। बक़ौल इक़बाल:
उड़ाये कुछ वर्क़ लाले ने, कुछ नर्ग़िस ने, कुछ ग़ुल ने
चमन में हर तरफ़ बिखरी हुई है दास्ताँ मेरी!
यह आयत इस ऐतबार से क़ुरान मजीद की अज़ीम तरीन आयत है कि नेकी की हक़ीक़त क्या है, इसकी जड़ बुनियाद क्या है, इसकी रूह क्या है, इसके मज़ाहिर क्या हैं? फिर इन मज़ाहिर में अहमतरीन कौनसे है और सानवी हैसियत किनकी है? चुनाँचे इस एक आयत की रोशनी में क़ुरान के इल्मुल अख्लाक़ पर एक जामेअ किताब तसनीफ़ की जा सकती है। गोया अख़्लाक़ियाते क़ुरानी (Quranic Ethics) के लिये यह आयत जड़ और बुनियाद है। लेकिन यह समझ लीजिये कि यह आयत यहाँ क्योंकर आई है। इसके पसमंज़र में भी वही तहवीले क़िब्ला है। तहवीले क़िब्ला के बारे में चार रुकूअ (15 से 18) तो मुसलसल हैं। इससे पहले चौदहवें रुकूअ में आयत आयी है: {وَلِلّٰهِ الْمَشْرِقُ وَالْمَغْرِبُ ۤ فَاَيْنَـمَا تُوَلُّوْا فَثَمَّ وَجْهُ اللّٰهِ ۭ} (आयत:115) इधर भी अट्ठारहवें रुकूअ के बाद इतनी आयतें छोड़ कर यह आयत आ रही है। फ़रमाया:
आयत 177
“नेकी यही नहीं है कि तुम अपने चेहरे मशरिक़ और मग़रिब की तरफ़ फेर दो” | لَيْسَ الْبِرَّ اَنْ تُوَلُّوْا وُجُوْھَكُمْ قِـبَلَ الْمَشْرِقِ وَالْمَغْرِبِ |
इस अमल के नेकी होने की नफ़ी नहीं की गई। यह नहीं कहा गया कि यह कोई नेकी ही नहीं है। यह भी नेकी है। नेकी का जो ज़ाहिर है वह भी नेकी है, लेकिन असल शय इसका बातिन है। अगर बातिन सही है तो हक़ीक़त में नेकी नेकी है वरना नहीं।
“बल्कि नेकी तो उसकी है” | وَلٰكِنَّ الْبِرَّ |
“जो ईमान लाये अल्लाह पर, यौमे आख़िरत पर, फ़रिश्तों पर, किताब पर और नबियों पर।” | مَنْ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالْكِتٰبِ وَالنَّبِيّٖنَ ۚ |
सबसे पहले नेकी की जड़ बुनियाद बयान कर दी गयी कि यह ईमान है, ताकि तसहीहे नीयत (नीयत का सुधार) हो जाये। ईमानियात में सबसे पहले अल्लाह पर ईमान है यानि जो नेकी कर रहा है वह सिर्फ़ अल्लाह से अज्र का तालिब है। फिर क़यामत के दिन पर ईमान का ज़िक्र हुआ कि इस नेकी का अज्र दुनिया में नहीं बल्कि आख़िरत में मतलूब है। वरना तो यह सौदागरी हो गई। और आदमी अगर सौदागरी और दुकानदारी करे तो दुनिया की चीज़ें बेचे, दीन तो ना बेचे। दीन का काम कर रहा है तो उसके लिये सिवाय उख़रवी निजात के और अल्लाह की रज़ा के कोई और शय मक़सूद ना हो। यौमे आख़िरत के बाद फ़रिश्तों, किताबों और अम्बिया (अलैहिमुस्सलाम) पर ईमान का ज़िक्र किया गया। यह तीनों मिल कर एक यूनिट बनते हैं। फ़रिश्ता वही की सूरत में किताब लेकर आया, जो अम्बिया-ए-किराम (अलै०) पर नाज़िल हुई। ईमान बिल् रिसालत का ताल्लुक़ नेकी के साथ यह है कि नेकी का एक मुजस्समा, एक मॉडल, एक आइडियल “उस्वा-ए-रसूल” की सूरत में इंसानो के सामने रहे। ऐसा ना हो कि ऊँच-नीच हो जाये। नेकियों के मामले में भी ऐसा होता है कि कोई जज़्बात में एक तरफ़ को निकल गया और कोई दूसरी तरफ़ को निकल गया। इस गुमराही से बचने की एक ही शक़्ल है कि एक मुकम्मल उस्वा सामने रहे, जिसमें तमाम चीज़ें मौत्दल (मर्यादित) हों और वह उस्वा हमारे लिए मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की शख़्सियत है। नेकी के ज़ाहिर के लिये हम आप ﷺ ही को मैयार (कसौटी) समझेगें। जो शय जितनी आप ﷺ की सीरत में है, उससे ज़्यादा ना हो और उससे कम ना हो। कोशिश यह हो कि इंसान बिल्कुल रसूल अल्लाह ﷺ के उस्वा-ए-कामिला की पैरवी करे।
“और वह ख़र्च करें माल उसकी मुहब्बत के बावजूद” | ۚ وَاٰتَى الْمَالَ عَلٰي حُبِّهٖ |
यानि माल की मुहब्बत के अललरग्म (बावजूद)। “عَلٰی حُبِّہٖ” में ज़मीर मुत्तसिल अल्लाह के लिये नहीं है बल्कि माल के लिये है। माल अग़रचे महबूब है, फिर भी वह ख़र्च कर रहा है।
“क़राबतदारों, यतीमों, मोहताजों, मुसाफ़िरों और माँगने वालों पर और गर्दनों के छुड़ाने में।” | ذَوِي الْقُرْبٰى وَالْيَـتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَابْنَ السَّبِيْلِ ۙ وَالسَّاۗىِٕلِيْنَ وَفِي الرِّقَابِ ۚ |
गोया नेकी के मज़ाहिर में अव्वलीन मज़हर इंसानी हमदर्दी है। अगर यह नहीं है तो नेकी का वुजूद नहीं है। इबादात के अम्बार लगे हों मगर दिल में शक़ावत (क्लेश) हो, इंसान को हाजत में देख कर दिल ना पसीजे, किसी को तकलीफ़ में देख कर तिजोरी की तरफ़ हाथ ना बढ़े, हालाँकि तिजोरी में माल मौजूद हो, तो यह तर्ज़े अमल दीन की रूह से बिल्कुल खाली है। सूरह आले इमरान (आयत:92) में अल्फ़ाज़ आये हैं: { لَنْ تَنَالُوا الْبِرَّ حَتّٰى تُنْفِقُوْا مِمَّا تُحِبُّوْنَ ڛ } “तुम नेकी के मक़ाम को पहुँच ही नहीं सकते जब तक कि ख़र्च ना करो उसमें से जो तुम्हें महबूब है।” यह नहीं कि जिस शय से तबियत उकता गई हो, जो कपड़े बोसीदा (फटे-पुराने) हो गये हों वह किसी को देकर हातिम ताई की क़ब्र पर लात मार दी जाये। जो शय ख़ुद को पसंद हो, अज़ीज़ हो, अगर उसमें से नहीं देते तो तुम नेकी को पहुँच ही नहीं सकते।
“और क़ायम करे नमाज़ और अदा करे ज़कात।” | وَاَقَامَ الصَّلٰوةَ وَاٰتَى الزَّكٰوةَ ۚ |
हिकमते दीन मुलाहिज़ा कीजिये कि नमाज़ और ज़कात का ज़िक्र ईमान और इंसानी हमदर्दी के बाद आया है। इसलिये कि रूह़े दीन “ईमान” है और नेकी के मज़ाहिर में से मज़हरे अव्वल इंसानी हमदर्दी है। यह भी नोट कीजिये कि यहाँ “ज़कात” का अलैहदा ज़िक्र किया गया है, जबकि इससे क़ब्ल ईताए माल का ज़िक्र हो चुका है। रसूल अल्लाह ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया:
((اِنَّ فِی الْمَالِ لَحَقًّا سِوَی الزَّکَاۃِ))(20) “यक़ीनन माल में ज़कात के अलावा भी हक़ है।”
यानि अगर कुछ लोगों ने यह समझा है कि बस हमने अपने माल में से ज़कात निकाल दी तो पूरा हक़ अदा हो गया, तो यह उन ख़ाम ख़्याली है, माल में ज़कात के सिवा भी हक़ है। और आप ﷺ ने यही मज़कूरा बाला आयत पढ़ी।
ईमान और इंसानी हमदर्दी के बाद नमाज़ और ज़कात का ज़िक्र करने की हिकमत यह है कि ईमान को तरोताज़ा रखने के लिये नमाज़ है। अज़रूए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: { اَ قِمِ الصَّلٰوةَ لِذِكْرِيْ 14} (ताहा) “नमाज़ क़ायम करो मेरी याद के लिये।” और इंसानी हमदर्दी में माल ख़र्च करने के जज़्बे को परवान चढ़ाने और बरक़रार रखने के लिये ज़कात है कि इतना तो कम से कम देना होगा, ताकि बोतल का मुँह तो खुले। अगर बोतल का कॉर्क निकल जायेगा तो उम्मीद है कि उसमें से कोई शर्बत और भी निकल आयेगा। चुनाँचे ढ़ाई फ़ीसद तो फ़र्ज़ ज़कात है। जो यह भी नहीं देता वह मज़ीद क्या देगा?
“और जो पूरा करने वाले हैं अपने अहद को जब कोई अहद कर लें।” | وَالْمُوْفُوْنَ بِعَهْدِهِمْ اِذَا عٰھَدُوْا ۚ |
इंसान ने सबसे बड़ा अहद अपने परवरदिग़ार से किया था जो “अहदे अलस्त” कहलाता है, फिर शरीअत का अहद है जो हमने अल्लाह के साथ कर रखा है। फिर आपस में जो भी मुआहिदे हों उनका पूरा करना भी ज़रूरी है। मामलाते इंसानी सारे के सारे मुआहिदात की शक़्ल में हैं। शादी भी शौहर और बीवी के माबैन एक समाजी मुआहिदा (social contract) है। शौहर की भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ और फ़राइज़ हैं और बीवी की भी कुछ ज़िम्मेदारियाँ और फ़राइज़ हैं। शौहर के बीवी पर हुक़ूक़ हैं, बीवी के शौहर पर हुक़ूक़ हैं। फिर आजर और मुस्तआजर (employer & employee) का जो बाहमी ताल्लुक़ है वह भी एक मुआहिदा है। तमाम बड़े-बड़े कारोबार मुआहिदों पर ही चलते हैं। फिर हमारा जो सियासी निज़ाम है वह भी मुआहिदों पर मब्नी है। तो अगर लोगों में एक चीज़ पैदा हो जाये कि जो अहद कर लिया है उसे पूरा करना है तो तमाम मामलात सुधर जाएँगे, उनकी stream lining हो जायेगी।
“और ख़ासतौर पर सब्र करने वाले फ़क़रो फ़ाक़ा में, तकालीफ़ में और जंग की हालत में।” | وَالصّٰبِرِيْنَ فِي الْبَاْسَاۗءِ وَالضَّرَّاۗءِ وَحِيْنَ الْبَاْسِ ۭ |
यह नेकी बुद्धमत के भिक्षुओं की नेकी से मुख़्तलिफ़ है। यह नेकी बातिल को चैलेंज करती है। यह नेकी ख़ानक़ाओं तक महदूद नहीं होती, सिर्फ़ इन्फ़रादी सतह तक महदूद नहीं रहती, बल्कि अल्लाह को जो नेकी मतलूब है वह यह है कि अब बातिल का सर कुचलने के लिये मैदान में आओ। और जब बातिल का सर कुचलने के लिये मैदान में आओगे तो ख़ुद भी तकलीफ़ें उठानी पड़ेंगी। इस राह में सहाबा किराम रज़ि० को भी तकलीफ़ें उठानी पड़ी हैं और जाने देनी पड़ी हैं। अल्लाह का कलमा सरबुलंद करने के लिये सैकड़ों सहाबा किराम रज़ि० ने जामे शहादत नौश किया (पिया) है। दुनिया के हर निज़ामे अख़्लाक़ में “खैरे आला” (summum bonum) का एक तसव्वुर होता है कि सबसे ऊँची नेकी क्या है! क़ुरान की रू से सबसे आला नेकी यह है कि हक़ के ग़लबे के लिये, सदाक़त, दियानत और अमानत की बालादस्ती के लिये अपनी गर्दन कटा दी जाये। वह आयत याद कर लीजिये जो चंद रुकूअ पहले हम पढ़ चुके हैं: { وَلَا تَـقُوْلُوْا لِمَنْ يُّقْتَلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ اَمْوَاتٌ ۭ بَلْ اَحْيَاۗءٌ وَّلٰكِنْ لَّا تَشْعُرُوْنَ ١٥٤} “और जो अल्लाह की राह में क़त्ल किये जाएँ (जामे शहादत नौश कर लें) उन्हें मुर्दा मत कहो, बल्कि वह ज़िन्दा हैं लेकिन तुम्हें (उनकी ज़िन्दगी का) शऊर हासिल नहीं है।”
“यह हैं वह लोग हैं सच्चे हैं।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ صَدَقُوْا ۭ |
रास्तबाज़ी (धार्मिकता) और नेकोकारी का दावा तो बहुत सों को है, लेकिन यह वह लोग हैं जो अपने दावे में सच्चे हैं।
“और यही हक़ीक़त में मुत्तक़ी हैं।” | وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُتَّقُوْنَ ١٧٧ |
हमारे ज़हनों में नेकी और तक़वा के कुछ और नक़्शे बैठे हुए हैं कि शायद तक़वा किसी मख़्सूस लिबास और ख़ास वज़अ-क़तअ (प्रारूप) का नाम है। यहाँ क़ुरान हकीम ने नेकी और तक़वा की हामिल इंसानी शख़्सियत का एक ह्यूला (ढाँचा) और उसके किरदार का पूरा नक़्शा खींच दिया है कि उसके बातिन में रूहे ईमान मौजूद है और ख़ारिज में इस तरतीब के साथ दीन के यह तक़ाज़े और नेकी के यह मज़ाहिर मौजूद हैं।
اَللّٰھُمَّ رَبَّنَا اجْعَلْنَا مِنْھُمْ! اَللّٰھُمَّ رَبَّنَا اجْعَلْنَا مِنْھُمْ!! (آمین یا ربّ العالمین)
इसके बाद वही जो इंसानी मामलात हैं उन पर बहस चलेगी। सूरतुल बक़रह के निस्फ़े सानी के मज़ामीन के बारे में यह बात अर्ज़ की जा चुकी है कि यह गोया चार लड़ियों पर मुश्तमिल हैं, जिनमें से दो लड़ियाँ इबादात और अहकाम व शराए की है।
आयत 178
“ऐ अहले ईमान! तुम पर लाज़िम कर दिया गया है कि मक़तूलों का बदला लेना।” | يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِصَاصُ فِي الْقَتْلٰي ۭ |
قَتْلٰی “قَتِیْلٌ” की जमा है जिसके मायने मक़तूल के हैं। “كُتِبَ” के बाद “عَلٰی” फ़र्ज़ियत के लिये आता है, यानि तुम पर यह फ़र्ज़ कर दिया गया है, इस मामले में सहल अंगारी सही नहीं है। जब किसी मआशरे में इंसान का ख़ून बहाना आम हो जाये तो तमद्दुन (सभ्यता) की जड़ कट जायेगी, लिहाज़ा क़िसास तुम पर वाजिब है।
“आज़ाद आज़ाद के बदले” | اَلْحُــرُّ بِالْحُــرِّ |
अग़र किसी आज़ाद आदमी ने क़त्ल किया है तो क़िसास में वह आज़ाद ही क़त्ल होगा। यह नहीं कि वह कह दे मेरा गुलाम ले जाओ, या मेरी जगह मेरे दो ग़ुलाम ले जाकर क़त्ल कर दो।
“और ग़ुलाम ग़ुलाम के बदले” | وَالْعَبْدُ بِالْعَبْدِ |
अगर ग़ुलाम क़ातिल है तो वह ग़ुलाम ही क़त्ल किया जायेगा।
“और औरत औरत के बदले।” | وَالْاُنْـثٰى بِالْاُنْـثٰى ۭ |
अगर क़त्ल करने वाली औरत है तो वह औरत ही क़त्ल होगी। क़िसास व देयत के मामले में इस्लाम से पहले अरब में मुख़्तिलफ़ मैयारात (मापदण्ड) क़ायम थे। मसलन अगर औसी ख़ज़रजी को क़त्ल कर दें तो तीन गुना ख़ून बहा वसूल किया जायेगा और अगर ख़ज़रजी औसी को क़त्ल करे तो एक तिहाई ख़ून बहा अदा किया जायेगा। यह उनका क़ानून था। इसी तरह आज़ाद और ग़ुलाम में भी फ़र्क़ रवा रखा जाता था। लेकिन शरीअते इस्लामी ने इस ज़िमन में कामिल मुसावात (बराबरी) क़ायम की और ज़माना-ए-जाहिलियत की हर तरह की अदमे मुसावात का ख़ात्मा कर दिया। इस बारे में इमाम अबु हनीफ़ा रहि० का क़ौल यही है कि तमाम मुसलमान आपस में “कुफ़ू” (बराबर) हैं, लिहाज़ा क़त्ल के मुक़दमात में कोई फ़र्क़ नहीं किया जायेगा।
“फिर जिसको माफ़ कर दिया जाये कोई शय उसके भाई की जानिब से” | فَمَنْ عُفِيَ لَهٗ مِنْ اَخِيْهِ شَيْءٌ |
यानि मक़तूल के वुरसा अगर क़ातिल को कुछ रिआयत दे दें कि हम इसकी जान बख्शी करने को तैयार हैं, चाहे वह ख़ून बहा ले लें, चाहे वैसे ही माफ़ कर दें, तो जो भी ख़ून बहा तय हुआ हो उसके बारे में इर्शाद हुआ:
“तो (उसकी) पैरवी की जाये मारूफ़ तरीक़े पर और अदायगी की जाये ख़ूबसूरती के साथ।” | فَاتِّـبَاعٌۢ بِالْمَعْرُوْفِ وَاَدَاۗءٌ اِلَيْهِ بِاِحْسَانٍ ۭ |
“यह तुम्हारे रब की तरफ़ से एक तख्फ़ीफ़ (छूट) व रहमत है।” | ذٰلِكَ تَخْفِيْفٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَرَحْمَـةٌ ۭ |
इसका रहमत होना बहुत वाज़ेह है। अगर यह शक़्ल ना हो तो फिर क़त्ल दर क़त्ल का सिलसिला जारी रहता है। लेकिन अगर क़ातिल को लाकर मक़तूल के वुरसा के सामने खड़ा कर दिया जाये कि अब तुम्हारे हाथ में इसकी जान है, तुम चाहो तो इसको क़त्ल कर दिया जायेगा, और अगर तुम अहसान करना चाहो, इसकी जान बख़्शी करना चाहो तो तुम्हें इख़्तियार हासिल है। चाहो तो वैसे ही बख़्श दो, चाहो तो ख़ून बहा ले लो। इससे यह होता है कि दुश्मनों का दायरा सिमट जाता है, बढ़ता नहीं है। इसमें अल्लाह की तरफ़ से बड़ी रहमत है। इस्लामी मआशरे में क़ातिल की गिरफ़्तारी और क़िसास की तन्फ़ीज़ (परिपालन) हुकूमत की ज़िम्मेदारी होती है, लेकिन इसमें मुद्दई रियासत नहीं होती। आज-कल हमारे निज़ाम में ग़लती यह है कि रियासत ही मुद्दई बन जाती है, हालाँकि मुद्दई तो मक़तूल के वुरसा हैं। इस्लामी निज़ाम में किसी सदर या वज़ीरे आज़म को इख़्तियार नहीं है कि किसी क़ातिल को माफ़ कर दे। क़ातिल को माफ़ करने का इख़्तियार सिर्फ़ मक़तूल के वारिसों को है। लेकिन हमारे मुल्की दस्तूर की रू से सदरे ममलकत को सज़ा-ए-मौत माफ़ करने का हक़ दिया गया है।
“तो इसके बाद भी जो हद से तजावुज़ करेगा तो उसके लिये दर्दनाक अज़ाब है।” | فَمَنِ اعْتَدٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَلَهٗ عَذَابٌ اَلِيْمٌ ١٧٨ |
यानि जो लोग इस रिआयत से फ़ायदा उठाने के बाद ज़ुल्म व ज़्यादती का तरीका अपनाएँगे उनके लिये आख़िरत में दर्दनाक अज़ाब है।
आयत 179
“और ऐ होशमंदों! तुम्हारे लिये क़िसास में ज़िन्दगी है, ताकि तुम बच सको।” | وَلَكُمْ فِي الْقِصَاصِ حَيٰوةٌ يّـٰٓــاُولِي الْاَلْبَابِ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ ١٧٩ |
मआशरती ज़िन्दगी में अफ़व व दरग़ुज़र अग़रचे एक अच्छी क़दर है और इस्लाम इसकी तालीम देता है:
{ وَاِنْ تَعْفُوْا وَتَصْفَحُوْا وَتَغْفِرُوْا فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 14} (तग़ाबुन:14) “और अगर तुम माफ़ कर दिया करो और चश्मपोशी (अनदेखी) से काम लो और बख़्श दिया करो तो बेशक अल्लाह भी बख़्शने वाला, रहम करने वाला है। लेकिन क़त्ल के मुक़दमात में सहल अंगारी और चश्मपोशी को क़िसास की राह में हाइल नहीं होने देना चाहिये, बल्कि शिद्दत के साथ पैरवी होनी चाहिये, ताकि इसके आगे क़त्ल का सिलसिला बंद हो। आयत के आख़िर में फ़रमाया: {} “ताकि तुम बच सको।” यानि अल्लाह की हुदूद की ख़िलाफ़ वर्ज़ी और एक-दूसरे पर ज़ुल्म व तअद्दी (दुश्मनी) से बचो।
आयत 180
“जब तुममें से किसी की मौत का वक़्त आ पहुँचे और वह कुछ माल छोड़ रहा हो तो तुम पर फ़र्ज़ कर दिया गया है वालिदैन और रिश्तेदारों के हक़ में इंसाफ़ के साथ वसीयत करना।” | كُتِبَ عَلَيْكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ اِنْ تَرَكَ خَيْرَۨا ښ الْوَصِيَّةُ لِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ بِالْمَعْرُوْفِ ۚ |
अभी क़ानूने विरासत नाज़िल नहीं हुआ था, इस ज़िमन में यह इब्तदाई क़दम उठाया गया। दौरे जाहिलियत में विरासत की तक़सीम इस तरह होती थी, जैसे आज भी हिन्दुओं में होती है, कि मरने वाले की सारी जायदाद का मालिक बड़ा बेटा बन जाता था। उसकी बीवी, बेटियाँ, हत्ता कि दूसरे बेटे भी विरासत से महरूम रहते। चुनाँचे यहाँ विरासत के बारे में पहला हुक्म दिया गया कि मरने वाला वालिदैन और अक़रबाअ (रिश्तेदारों) के बारे में वसीयत कर जाये ताकि उनके हुक़ूक़ का तहफ्फ़ुज़ हो सके। फिर जब सूरह अल् निसा में पूरा क़ानूने विरासत आ गया तो अब यह आयत मन्सूख़ शुमार होती है। अलबत्ता इसके एक जुज़्व को रसूल अल्लाह ﷺ ने बाक़ी रखा है कि मरने वाला अपने एक तिहाई माल के बारे में वसीयत कर सकता है, इससे ज़्यादा नहीं, और यह कि जिस शख़्स का विरासत में हक़ मुक़र्रर हो चुका है, उसके लिये वसीयत नहीं होगी। वसीयत ग़ैर वारिस के लिये होगी। मरने वाला किसी यतीम को, किसी बेवा को, किसी यतीमख़ाने को या किसी दीनी इदारे को अपनी विरासत में से कुछ देना चाहे तो उसे हक़ हासिल है कि एक तिहाई की वसीयत कर दे। बाक़ी दो तिहाई में लाज़िमी तौर पर क़ानूनी विरासत की तन्फ़ीज़ होगी।
“अल्लाह तआला का तक़वा रखने वालों पर यह हक़ है।” | حَقًّا عَلَي الْمُتَّقِيْنَ ١٨٠ۭ |
उन पर वाजिब और ज़रुरी है कि वह वसीयत कर जाएँ कि हमारे वालिदैन को यह मिल जाये, फलाँ रिश्तेदार को यह मिल जाये, बाक़ी जो भी वुरसा हैं उनके हिस्से में यह आ जाये।
आयत 181
“तो जिसने बदल दिया इस वसीयत को इसके बाद कि इसको सुना था” | فَمَنْۢ بَدَّلَهٗ بَعْدَ مَا سَمِعَهٗ |
“तो इसका गुनाह उन्हीं पर आयेगा जो इसे तब्दील करते हैं।” | فَاِنَّمَآ اِثْمُهٗ عَلَي الَّذِيْنَ يُبَدِّلُوْنَهٗ ۭ |
वसीयत करने वाला उनके इस गुनाह से बरी है, उसने तो सही वसीयत की थी। अगर गवाहों ने बाद में वसीयत में तहरीफ़ और तब्दीली की तो उसका बवाल और उसका बोझ उन्हीं पर आयेगा।
“यक़ीनन अल्लाह तआला सब कुछ सुनने वाला (और) जानने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ١٨١ۭ |
आयत 182
“फिर जिसको अंदेशा हो किसी वसीयत करने वाले की तरफ़ से जानिब दारी या हक़तल्फ़ी का” | فَمَنْ خَافَ مِنْ مُّوْصٍ جَنَفًا اَوْ اِثْمًـا |
अगर किसी को यह अंदेशा हो और दयानतदारी (ईमानदारी) के साथ उसकी यह राय हो कि वसीयत करने वाले ने ठीक वसीयत नहीं की, बल्कि बेजा (गलत) जानिबदारी का मुज़ाहिरा किया है या किसी की हक़तल्फ़ी करके गुनाह कमाया है।
“और वह उनके माबैन सुलह करा दे” | فَاَصْلَحَ بَيْنَهُمْ |
इस तरह के अंदेशे के बाद किसी ने वुरसा को जमा किया और उनसे कहा कि देखो, इनकी वसीयत तो यह थी, लेकिन इसमें यह ज़्यादती वाली बात है, अगर तुम लोग मुत्तफ़िक़ हो जाओ तो इसमें इतनी तब्दीली कर दी जाये।
“तो उस पर कोई गुनाह नहीं है।” | فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۭ |
यानि ऐसी बात नहीं है कि इस वसीयत को ऐसा तक़द्दुस हासिल हो गया कि अब इसमें कोई तब्दीली नहीं हो सकती, बल्कि बाहमी मशवरे से और इस्लाह के जज़्बे से वसीयत में तगय्युर (बदलाव) व तब्दील हो सकता है।
“यक़ीनन अल्लाह तआला बख़्शने वाला रहम फ़रमाने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٨٢ۧ |
आयात 183 से 188 तक
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَي الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ ١٨٣ۙ اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ ۭ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ عَلٰي سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ اَ يَّامٍ اُخَرَ ۭ وَعَلَي الَّذِيْنَ يُطِيْقُوْنَهٗ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِيْنٍ ۭ فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهٗ ۭ وَاَنْ تَصُوْمُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ١٨٤ شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِيْٓ اُنْزِلَ فِيْهِ الْقُرْاٰنُ ھُدًى لِّلنَّاسِ وَ بَيِّنٰتٍ مِّنَ الْهُدٰى وَالْفُرْقَانِ ۚ فَمَنْ شَهِدَ مِنْكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ ۭ وَمَنْ كَانَ مَرِيْضًا اَوْ عَلٰي سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ ۭ يُرِيْدُ اللّٰهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيْدُ بِكُمُ الْعُسْرَ ۡ وَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّةَ وَلِتُكَبِّرُوا اللّٰهَ عَلٰي مَا ھَدٰىكُمْ وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ ١٨٥ وَاِذَا سَاَلَكَ عِبَادِيْ عَنِّىْ فَاِنِّىْ قَرِيْبٌ ۭ اُجِيْبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِ ۙفَلْيَسْتَجِيْبُوْالِيْ وَلْيُؤْمِنُوْابِيْ لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُوْنَ ١٨٦ اُحِلَّ لَكُمْ لَيْلَةَ الصِّيَامِ الرَّفَثُ اِلٰى نِسَاۗىِٕكُمْ ۭ ھُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَاَنْتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ ۭعَلِمَ اللّٰهُ اَنَّكُمْ كُنْتُمْ تَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَكُمْ فَتَابَ عَلَيْكُمْ وَعَفَا عَنْكُمْ ۚ فَالْئٰنَ بَاشِرُوْھُنَّ وَابْتَغُوْا مَا كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ ۠وَكُلُوْا وَاشْرَبُوْا حَتّٰى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْاَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْاَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ۠ ثُمَّ اَتِمُّوا الصِّيَامَ اِلَى الَّيْلِ ۚ وَلَا تُـبَاشِرُوْھُنَّ وَاَنْتُمْ عٰكِفُوْنَ ۙ فِي الْمَسٰجِدِ ۭ تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَا تَقْرَبُوْھَا ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ اٰيٰتِهٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ ١٨٧ وَلَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ وَتُدْلُوْا بِهَآ اِلَى الْحُكَّامِ لِتَاْكُلُوْا فَرِيْقًا مِّنْ اَمْوَالِ النَّاسِ بِالْاِثْمِ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ١٨٨ۧ
सूरतुल बक़रह के निस्फ़े आख़िर के मज़ामीन के बारे में अर्ज़ किया जा चुका है कि यह चार लड़ियों की मानिन्द हैं जो आपस में गुथी हुई हैं। अब इनमें से इबादात वाली लड़ी आ रही है और ज़ेरे मुताअला रुकूअ में “सौम” की इबादत का तज़किरा है। जहाँ तक “सलाह” (नमाज़) का ताल्लुक़ है तो इसका ज़िक्र मक्की सूरतों में बेताहाशा आया है, लेकिन मक्की दौर में “सौम” बतौर इबादत कोई तज़किरा नहीं मिलता।
अरबों के यहाँ सौम या सियाम के लफ़्ज़ का इत्लाक़ और मफ़हूम क्या था और उससे वह क्या मुराद लेते थे, इसे ज़रा समझ लीजिये! अरब ख़ुद तो रोज़ा नहीं रखते थे, अलबत्ता अपने घोड़ों को रखवाते थे। उसकी वजह यह थी कि अक्सर अरबों का पेशा ग़ारतगरी और लूटमार था। फिर मुख़्तलिफ़ क़बीलों के माबैन वक़्फ़े-वक़्फ़े से जंगें होती रहती थीं। इन कामों के लिये उनको घोड़ों की ज़रूरत थी और घोड़ा इस मक़सद के लिये निहायत मौज़ुँ (उचित) जानवर था कि उस पर बैठ कर तेज़ी से जायें, लूटमार करें, शब ख़ून मारें और तेज़ी से वापस आ जायें। ऊँट तेज़ रफ़्तार जानवर नहीं है, फिर वह घोड़े के मुक़ाबले में तेज़ी से अपना रुख़ भी नहीं फेर सकता। मगर घोड़ा जहाँ तेज़ रफ़्तार जानवर है, वहाँ तुनक मिज़ाज और नाज़ुक मिज़ाज भी है। चुनाँचे वह तरबियत के लिये उन घोड़ों से यह मशक़्क़त करवाते थे कि उनको भूखा-प्यासा रखते थे और उनके मुँह पर एक “तोबड़ा” चढ़ा देते थे। इस अमल को वह “सौम” कहते थे और जिस घोड़े पर यह अमल किया जाये उसे वह “साइम” कहते थे, यानि यह रोज़े से है। इस तरह वह घोड़ों को भूख-प्यास झेलने का आदी बनाते थे कि कहीं ऐसा ना हो कि मुहिम के दौरान घोड़ा भूख-प्यास बर्दाश्त ना कर सके और जी हार दे। इस तरह तो सवार की जान शदीद ख़तरे में पड़ जायेगी और उसे ज़िन्दगी के लाले पड़ जायेंगे! मज़ीद यह कि अरब इस तौर पर घोड़ों को भूखा-प्यासा रख कर मौसम गरमा और लू की हालत में उन्हें लेकर मैदान में जा खड़े होते थे। वह अपनी हिफ़ाज़त के लिये अपने सरों पर डढ़ाटे बाँध कर और जिस्म पर कपड़े वग़ैरह लपेट कर उन घोड़ों की पीठ पर सवार रहते थे और उन घोड़ों का मुँह सीधा लू और बादे सरसर के थपेड़ों की तरफ़ रखते थे, ताकि उनके अंदर भूख-प्यास के साथ-साथ लू के इन थपेड़ों को बर्दाश्त करने की आदत भी पड़ जाये, ताकि किसी डाके के मुहिम या क़बाइली जंग के मौक़े पर घोड़ा सवार के क़ाबू में रहे और भूख-प्यास या बादे सरसर के थपेड़ों को बर्दाश्त करके सवार की मर्ज़ी के मुताबिक़ मतलूबा रुख़ बरक़रार रखे और उससे मुँह ना फेरे। तो अरब अपने घोड़ों को भूखा-प्यासा रख कर जो मशक़्क़त कराते थे इस पर वह “सौम” के लफ़्ज़ यानि रोज़ा का, इत्लाक़ करते थे।
लेकिन रसूल अल्लाह ﷺ जब मदीना तशरीफ़ लाये तो यहाँ यहूद के यहाँ रोज़ा रखने का रिवाज था। वह आशूरा का रोज़ा भी रखते थे, इसलिये कि इस रोज़ बनी इसराइल को फ़िरऔनियों से निजात मिली थी। रसूल अल्लाह ﷺ ने मुसलमानों को इब्तदाअन हर महीने “अय्यामे बैज़” [अय्यामे बैज़: इस्लामी महीनों की 13, 14 और 15 तारीख] के तीन रोज़े रखने का हुक्म दिया। इस रुकूअ की इब्तदाई दो आयात में ग़ालिबन इसी की तौसीक़ है। अगर इब्तदा ही में पूरे महीने के रोज़े फ़र्ज़ कर दिये जाते तो वह यक़ीनन शाक़ गुज़रते। ज़ाहिर बात है कि महीने सख़्त गर्म भी हो सकते हैं। अब अगर तीस के तीस रोज़े एक ही महीने में फ़र्ज़ कर दिये गये होते और वह जून जुलाई के होते तो जान ही तो निकल जाती। चुनाँचे बेहतरीन तदबीर यह की गई कि हर महीने में तीन दिन के रोज़े रखने का हुक्म दिया गया और यह रोज़े मुख़्तलिफ़ मौसमों में आते रहे। फिर कुछ अरसे के बाद रमज़ान के रोज़े फ़र्ज़ किये गये। हर महीने में तीन दिन के रोज़ों का जो इब्तदाई हुक्म था उसमें अलल इत्लाक़ यह इजाज़त थी कि जो शख़्स यह रोज़े ना रखे वह इसका फ़िदया दे दे, अग़रचे वह बीमार या मुसाफ़िर ना हो और रोज़ा रखने की ताक़त भी रखता हो। जब रमज़ान के रोज़ों की फ़र्ज़ियत का हुक्म आ गया तो अब यह रुख्सत ख़त्म कर दी गई। अलबत्ता रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़िदये की इस रुख्सत को ऐसे शख़्स के लिये बाक़ी रखा जो बहुत बूढ़ा है, या किसी ऐसी सख़्त बीमारी में मुब्तला है कि रोज़ा रखने से उसके लिये जान की हलाकत का अंदेशा हो सकता है। यह है इन आयतों की तावील जिस पर मैं बहुत अरसा पहले पहुँच गया था, लेकिन चूँकि अक्सर मुफ़स्सिरीन ने यह बात नहीं लिखी इसलिये मैं इसे बयान करने से झिझकता रहा। बाद में मुझे मालुम हुआ कि मौलाना अनवर शाह काश्मीरी रहि० की राय यही है तो मुझे अपनी राय पर ऐतमाद हो गया। फिर मुझे इसका ज़िक्र तफ़्सीरे कबीर में इमाम राज़ी रहि० के यहाँ भी मिल गया कि मुतक़द्दमीन के यहाँ यह राय मौजूद है कि रोज़े से मुताल्लिक़ पहली दो आयतें (183,184) रमज़ान के रोज़े से मुताल्लिक़ नहीं हैं, बल्कि वह अय्यामे बैज़ के रोज़ों से मुताल्लिक़ हैं। अय्यामे बैज़ के रोज़े रसूल अल्लाह ﷺ ने रमज़ान के रोज़ों की फ़र्ज़ियत के बाद भी नफ़लन रखे हैं।
रोज़े के अहकाम पर मुश्तमिल यह रुकूअ छ: आयतों पर मुश्तमिल है और इस ऐतबार से एक अजीब मक़ाम है कि इस एक जगह रोज़े का तज़किरा जामियत के साथ आ गया है। क़ुरान मजीद में दीग़र अहकाम बहुत दफ़ा आये हैं। नमाज़ के अहकाम बहुत से मक़ामात पर आये हैं। कहीं वुज़ू के अहकाम आये हैं तो कहीं तयम्मुम के, कहीं नमाज़े कसर और नमाज़े ख़ौफ़ का ज़िक्र है। लेकिन “सौम” की इबादत पर यह कुल छ: आयात हैं, जिनमें इसकी हिकमत, इनकी ग़र्ज़ व ग़ायत और इसके अहकाम सबके सब एक जगह आ गये हैं। फ़रमाया:
आयत 183
“ऐ ईमान वालों! तुम पर भी रोज़ा रखना फ़र्ज़ किया गया है जैसे कि फ़र्ज़ किया गया था तुमसे पहलों पर ताकि तुम्हारे अंदर तक़वा पैदा हो जाये।” | يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا كُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ كَمَا كُتِبَ عَلَي الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِكُمْ لَعَلَّكُمْ تَتَّقُوْنَ ١٨٣ۙ |
वह जंग के लिये घोड़े को तैयार करवाते थे, तुम्हें तक़वे के लिये अपने आपको तैयार करना है। रोज़े की मश्क़ तुमसे इसलिये कराई जा रही है ताकि तुम भूख को क़ाबू में रख सको, शहवत को क़ाबू में रख सको, प्यास को बर्दाश्त कर सको। तुम्हें अल्लाह तआला की राह में जंग के लिये निकलना होगा, उसमें भूख भी आयेगी, प्यास भी आयेगी। अपने आपको जिहाद व क़िताल के लिये तैयार करो। सूरतुल बक़रह के अगले रुकूअ से क़िताल की बहस शुरू हो जायेगी। चुनाँचे रोज़े की यह बहस गोया क़िताल के लिये बतौरे तम्हीद आ रही है।”
आयत 184
“गिनती के चंद दिन है।” | اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ ۭ |
“مَعْدودات” जमा क़िल्लत है, जो तीन से नौ तक के लिये आती है। यह गोया इसका सुबूत है कि यहाँ महीने भर के रोज़े मुराद नहीं है।
“इस पर भी जो कोई तुममें से बीमार हो या सफ़र पर हो” | فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ عَلٰي سَفَرٍ |
“तो वह तादाद पूरी कर ले दूसरे दिनों में।” | فَعِدَّةٌ مِّنْ اَ يَّامٍ اُخَرَ ۭ |
“और जो इसकी ताक़त रखते हों (और वह रोज़ा ना रखें) उन पर फ़िदया है एक मिस्कीन का खाना खिलाना।” | وَعَلَي الَّذِيْنَ يُطِيْقُوْنَهٗ فِدْيَةٌ طَعَامُ مِسْكِيْنٍ ۭ |
इन आयात की तफ़्सीर में, जैसा कि अर्ज़ किया गया, मुफ़स्सिरीन के बहुत से अक़वाल हैं। मैंने अपने मुताअले के बाद जो राय क़ायम की है मैं सिर्फ़ वही बयान कर रहा हूँ कि उस वक़्त इमाम राज़ी रहि० के बक़ौल यह फ़र्ज़ियत علی التّعیین नहीं थी बल्कि علی التّخییر थी। यानि रोज़ा फ़र्ज़ तो किया गया है लेकिन उसका बदल भी दिया जा रहा है कि अगर तुम रोज़ा रखने की इस्तताअत के बावजूद नहीं रखना चाहते तो एक मिस्कीन को खाना खिला दो। चूँकि रोज़े के वह पहले से आदी नहीं थे, लिहाज़ा उन्हें तदरीजन इसका ख़ूग़र बनाया जा रहा था।
“और जो अपनी मर्ज़ी से कोई ख़ैर करना चाहे तो उसके लिये ख़ैर है।” | فَمَنْ تَطَوَّعَ خَيْرًا فَهُوَ خَيْرٌ لَّهٗ ۭ |
अगर कोई रोज़ा भी रखे और मिस्कीन को खाना भी खिलाये तो यह उसके लिए बेहतर होगा।
“और रोज़ा रखो, यह तुम्हारे लिये बेहतर है अगर तुम जानों।” | وَاَنْ تَصُوْمُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ١٨٤ |
यहाँ भी एक तरह की रिआयत का अंदाज़ है। यह दो आयतें हैं जिनमें मेरे नज़दीक रोज़े का पहला हुक्म दिया गया, जिसके तहत रसूल अल्लाह ﷺ और अहले ईमान ने हर महीने में तीन दिन के रोज़े रखे। यह भी हो सकता है कि इन रोज़ों का हुक्म रसूल अल्लाह ﷺ ने अहले ईमान को अपने तौर पर दिया हो और बाद में इन आयतों ने उसकी तौसीक़ (पुष्टी) कर दी हो।
अब वह आयतें आ रही हैं जो ख़ास रमज़ान के रोज़े से मुताल्लिक़ हैं। इनमे से दो आयतों में रोज़े की हिकमत और ग़र्ज़ व ग़ायत बयान की गई है। फिर एक तवील आयत रोज़े के अहकाम पर मुश्तमिल है और आख़िर में एक आयत गोया लिट्मस टेस्ट है।
आयत 185
“रमज़ान का महीना वह है जिसमें क़ुरान नाज़िल किया गया” | شَهْرُ رَمَضَانَ الَّذِيْٓ اُنْزِلَ فِيْهِ الْقُرْاٰنُ |
“लोगों के लिये हिदायत बना कर और हिदायत और हक़ व बातिल के दरमियान इम्तियाज़ की रोशन दलीलों के साथ।” | ھُدًى لِّلنَّاسِ وَ بَيِّنٰتٍ مِّنَ الْهُدٰى وَالْفُرْقَانِ ۚ |
“तो जो कोई भी तुममें से इस महीने को पाये (या जो शख़्स भी इस महीने में मुक़ीम हो) उस पर लाजिम है कि रोज़ा रखे।” | فَمَنْ شَهِدَ مِنْكُمُ الشَّهْرَ فَلْيَصُمْهُ ۭ |
अब वह वुजूब अलल तस्खीर का मामला ख़त्म हो गया और वुजूब अलल तअय्युन हो गया कि यह लाज़िम है, यह रखना है।
“और जो बीमार हो या सफ़र पर हो तो वह तादाद पूरी कर ले दूसरे दिनों में।” | وَمَنْ كَانَ مَرِيْضًا اَوْ عَلٰي سَفَرٍ فَعِدَّةٌ مِّنْ اَيَّامٍ اُخَرَ ۭ |
यह रिआयत हसबे साबक़ (पहले की तरह) बरक़रार रखी गई।
“अल्लाह तुम्हारे साथ आसानी चाहता है और वह तुम्हारे साथ सख़्ती नहीं चाहता।” | يُرِيْدُ اللّٰهُ بِكُمُ الْيُسْرَ وَلَا يُرِيْدُ بِكُمُ الْعُسْرَ ۡ |
लोग ख़्वाह माख्वाह अपने ऊपर सख़्तियाँ झेलते हैं, शदीद सफ़र के अंदर भी रोज़े रखते हैं, हालाँकि अल्लाह तआला ने दूसरे दिनों में गिनती पूरी करने की इजाज़त दी है। रसूल अल्लाह ﷺ ने एक सफ़र में उन लोगों पर काफ़ी सरज़निश (डांट) की जिन्होंनें रोज़ा रखा हुआ था। आप ﷺ सहाबा किराम रज़ि० के हमराह जिहाद व क़िताल के लिये निकले थे कि कुछ लोगों ने इस सफ़र में भी रोज़ा रख लिया। नतीजा यह हुआ कि सफ़र के बाद जहाँ मंज़िल पर जाकर ख़ेमे लगाने थे वह निढ़ाल होकर गिर गये और जिन लोगों का रोज़ा नहीं था उन्होंने ख़ेमे लगाये। इस पर रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ((لَیْسَ مِنَ الْبِرِّ الصَّوْمُ فِی السَّفَرِ))(21) “सफ़र में रोज़ा रखना कोई नेकी का काम नहीं है।” लेकिन हमारा नेकी का तसुव्वर मुख़्तलिफ़ है। कुछ लोग ऐसे भी हैं कि ख़्वाह 105 बुख़ार चढ़ा हुआ हो वह कहेंगे कि रोज़ा तो नहीं छोडूंगा। हालाँकि अल्लाह तआला की तरफ़ से दी गई रिआयत से फ़ायदा ना उठाना एक तरह का कुफ़राने नेअमत है।
“ताकि तुम तादाद पूरी करो” | وَلِتُكْمِلُوا الْعِدَّةَ |
मर्ज़ या सफ़र के दौरान जो रोज़े छूट जाएँ तुम्हें दूसरे दिनों में उनकी तादाद पूरी करनी होगी। वह जो एक रिआयत थी कि फ़िदया देकर फ़ारिग़ हो जाओ वह अब मन्सूख़ हो गई।
“और ताकि तुम बड़ाई करो अल्लाह की उस पर जो हिदायत उसने तुम्हें बख़्शी है” | وَلِتُكَبِّرُوا اللّٰهَ عَلٰي مَا ھَدٰىكُمْ |
“और ताकि तुम शुक्र कर सको।” | وَلَعَلَّكُمْ تَشْكُرُوْنَ ١٨٥ |
वह नेअमते उज़मा जो क़ुरान हकीम की शक़्ल में तुम्हें दी गई है, तुम उसका शुक्र अदा करो। इस मौज़ू पर मेरे दो किताबचों “अज़मते सौम” और “अज़मते सियाम व क़ियामे रमज़ाने मुबारक” का मुताअला मुफ़ीद साबित होगा। उनमें यह सारे मज़ामीन तफ़सील से आये हैं कि रोज़े की क्या हिकमत है, क्या ग़र्ज़ व ग़ायत है, क्या मक़सद है और आख़री मंज़िल क्या है। मतलूब तो यह है कि तुम्हारा यह जो जिस्मे हैवानी है, यह कुछ कमज़ोर पड़े और रूहे रब्बानी जो तुम में फूँकी गई है उसे तक़्वियत हासिल हो। चुनाँचे दिन में रोज़ा रखो और इस हैवानी वुजूद को ज़रा कमज़ोर करो, इसके तक़ाज़ों को दबाओ। फिर रातों को खड़े हो जाओ और अल्लाह का कलाम सुनो और पढ़ो, ताकि तुम्हारी रूह की आबयारी (पोषण) हो, इस पर आबे हयात का तरशह (छिड़काव) हो। नतीजा यह निकलेगा कि ख़ुद तुम्हारे अंदर से तक़र्रुब इलल्लाह की एक प्यास उभरेगी।
आयत 186
“और (ऐ नबी ﷺ!) जब मेरे बंदे आपसे मेरे बारे में सवाल करें तो (उनको बता दीजिये कि) मैं क़रीब हूँ।” | وَاِذَا سَاَلَكَ عِبَادِيْ عَنِّىْ فَاِنِّىْ قَرِيْبٌ ۭ |
मेरे नज़दीक यह दुनिया में हुक़ूक़े इंसानी का सबसे बड़ा मन्शूर (Magna Carta) है कि अल्लाह और बंदे के दरमियान कोई फ़सल (दूरी) नहीं है। फ़सल अगर है तो वह तुम्हारी अपनी ख़बासत है। अगर तुम्हारी नीयत में फ़साद है कि हरामख़ोरी तो करनी ही करनी है तो अब किस मुँह से अल्लाह से दुआ करोगे? लिहाज़ा किसी पीर के पास जाओगे कि आप दुआ कर दीजिये, यह नज़राना हाज़िर है। बंदे और ख़ुदा के दरमियान ख़ुद इंसान का नफ़्स हाइल है और कोई नहीं, वरना अल्लाह तआला का मामला तो यह है कि:
हम तो माईल ब करम हैं कोई साइल ही नहीं
राह दिखलाएँ किसे, राह रवे मंज़िल ही नहीं!
उस तक पहुँचने का वास्ता कोई पोप नहीं, कोई पादरी नहीं, कोई पंडित नहीं, कोई पुरोहित नहीं, कोई पीर नहीं। जब चाहो अल्लाह से हम कलाम हो जाओ। अल्लामा इक़बाल ने क्या ख़ूब कहा है:
क्यों ख़ालिक़ और मख़्लूक़ में हाइल रहें पर्दे?
पीराने कलीसा को कलीसा से उठा दो!
अल्लाह तआला ने वाज़ेह फ़रमा दिया है कि मेरा बंदा जब चाहे, जहाँ चाहे मुझसे हम कलाम हो सकता है।
“मैं तो हर पुकारने वाले की पुकार का जवाब देता हूँ जब भी (और जहाँ भी) वह मुझे पुकारे” | ۭ اُجِيْبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِ ۙ |
“اجابت” के मफ़हूम में किसी की पुकार का सुनना, उसका जवाब देना और उसे क़ुबूल करना, यह तीनों चीज़ें शामिल हैं। लेकिन इसके लिये एक शर्त आयद की जा रही है:
“पस उन्हें चाहिये कि वह मेरा हुक्म मानें” | فَلْيَسْتَجِيْبُوْالِيْ |
“और मुझ पर ईमान रखें” | وَلْيُؤْمِنُوْابِيْ |
यह एक तरफ़ा बात नहीं है, बल्कि यह दो तरफ़ा मामला है। जैसे हम पढ़ चुके हैं: { فَاذْكُرُوْنِيْٓ اَذْكُرْكُمْ} “पस तुम मुझे याद रखो मैं तुम्हें याद रखूँगा” तुम मेरा शुक्र करोगे तो मैं तुम्हारी क़द्रदानी करुँगा। तुम मेरी तरफ़ चल कर आओगे तो मैं दौड़ कर आऊँगा। तुम बालिश्त भर आओगे तो मैं हाथ भर आऊँगा। लेकिन अगर तुम रुख़ मोड़ लोगे तो हम भी रुख़ मोड़ लेंगे। हमारी तो कोई ग़र्ज़ नहीं है, ग़र्ज़ तो तुम्हारी है। तुम रुजूअ करोगे तो हम भी रुजूअ करेंगे। तुम तौबा करोगे तो हम भी अपनी नज़रे करम तुम पर मुतवज्जा कर देंगे। सूरह मुहम्मद ﷺ में अल्फ़ाज़ आये हैं” { اِنْ تَنْصُرُوا اللّٰهَ يَنْصُرْكُمْ} (आयत:7) “अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा।” लेकिन अगर तुम अल्लाह के दुश्मनों के साथ दोस्ती की पींगें बढ़ाओ, उनके साथ तुम्हारी साज़-बाज़ हो और खड़े हो जाओ क़ुनूते नाज़िला में अल्लाह से मदद माँगने के लिये तो तुमसे बड़ा बेवक़ूफ़ कौन होगा? पहले अल्लाह की तरफ़ अपना रुख़ तो करो, अल्लाह से अपना मामला तो दुरुस्त करो। इसमें यह कोई शर्त नहीं है कि पहले वली-ए-कामिल बन जाओ, बल्कि उसी वक़्त ख़ुलूसे नियत से तौबा करो, सारे पर्दे हट जाएँगे। आयत के आख़िर में फ़रमाया:
“ताकि वह सही राह पर रहें।” | لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُوْنَ ١٨٦ |
अल्लाह तआला पर ईमान रखने और उसके अहकाम पर चलने का यह नतीजा निकलेगा कि वह रुशदो हिदायत की राह पर गामज़न हो जाएँगे।
आयत 187
“ह़लाल कर दिया गया है तुम्हारे लिये रोज़े की रातों में बेहिजाब होना अपनी बीवियों से।” | اُحِلَّ لَكُمْ لَيْلَةَ الصِّيَامِ الرَّفَثُ اِلٰى نِسَاۗىِٕكُمْ ۭ |
अहकामे रोज़े से मुताल्लिक़ यह आयत बड़ी तवील है। यहूद के यहाँ शरीअते मूसवी में रोज़ा शाम को ही शुरु हो जाता था और रात भी रोज़े में शामिल थी। चुनाँचे ताल्लुक़े ज़न व शौ (मियाँ-बीवी का ताल्लुक़) भी क़ायम नहीं हो सकता था। उनके यहाँ सेहरी वग़ैरह का भी कोई तसुव्वर नहीं था। जैसे ही रात को सोते रोज़ा शुरु हो जाता और अगले दिन ग़ुरूबे आफ़ताब तक रोज़ा रहता। हमारे यहाँ रोज़े में नरमी की गई है। एक तो यह कि रात को रोज़े से ख़ारिज कर दिया गया। रोज़ा बस दिन का है और रात के वक़्त रोज़े की सारी पाबंदियाँ ख़त्म हो जाती हैं। चुनाँचे रात को ताल्लुक़े ज़न व शौ भी क़ायम किया जा सकता है और खाने-पीने की भी इजाज़त है। लेकिन बाज़ मुसलमान यह समझ रहे थे कि शायद हमारे यहाँ भी रोज़े के वही अहकाम हैं जो यहूद के यहाँ हैं। इसलिये ऐसा भी होता था कि रोज़ों की रातों में बाज़ लोग जज़्बात में बीवियों से मुक़ारबत (संभोग) कर लेते थे, लेकिन दिल में समझते थे कि शायद हमनें गलत काम किया है। यहाँ अब उनको इत्मिनान दिलाया जा रहा है कि तुम्हारे लिये रोज़े की रातों में अपनी बीवियों के पास जाना हलाल कर दिया गया है।
“वह पोशाक हैं तुम्हारे लिये और तुम पोशाक हो उनके लिये।” | ھُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَاَنْتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ ۭ |
यह बड़ा लतीफ़ किनायह (इशारा) है कि वह तुम्हारे लिये बमंज़िला-ए-लिबास हैं और तुम उनके लिये बमंज़िला-ए-लिबास हो। जैसे लिबास में और जिस्म में कोई पर्दा नहीं ऐसे ही बीवी में और शौहर में कोई पर्दा नहीं है। ख़ुद लिबास ही तो पर्दा है। वैसे भी मर्द के अख्लाक़ की हिफ़ाज़त करने वाली बीवी है और बीवी के अख्लाक़ की हिफ़ाज़त करने वाला मर्द है। मुझे इक़बाल का शेर याद आ गया:
ने पर्दा ने तालीम, नई होकर पुरानी
निस्वानियते ज़न का निगहबान है फ़क़त मर्द
बहरहाल मर्द व औरत एक दूसरे के लिये एक ज़रुरत भी हैं और एक दूसरे की पर्दापोशी भी करते हैं।
“अल्लाह के इल्म में है कि तुम अपने आपके साथ ख्यानत कर रहे थे” | عَلِمَ اللّٰهُ اَنَّكُمْ كُنْتُمْ تَخْتَانُوْنَ اَنْفُسَكُمْ |
तुम एक काम कर रहे थे जो गुनाह नहीं है, लेकिन तुम समझते थे कि गुनाह है, फिर भी उसका इरतकाब कर रहे थे। इस तरह तुम अपने आप से ख्यानत के मुरतकिब हो रहे थे।
“तो अल्लाह ने तुम पर नज़रे रहमत फ़रमाई” | فَتَابَ عَلَيْكُمْ |
“और तुम्हें माफ़ कर दिया” | وَعَفَا عَنْكُمْ ۚ |
इस सिलसले में जो भी ख़ताएँ हो गई हैं वह सबकी सब माफ़ समझो।
“तो अब तुम उनके साथ ताल्लुक़े ज़न व शौ क़ायम करो” | فَالْئٰنَ بَاشِرُوْھُنَّ |
“और तलाश करो उसको जो कुछ अल्लाह तआला ने तुम्हारे लिख दिया है।” | وَابْتَغُوْا مَا كَتَبَ اللّٰهُ لَكُمْ ۠ |
यानि औलाद, जो ताल्लुक़े ज़न व शौ का असल मक़सद है। दूसरे यह कि अल्लाह तआला ने इस ताल्लुक़े ज़न व शौ को सुकून व राहत का ज़रिया बनाया है। जैसे क़ुरान मजीद में {لِتَسْکُنُوْا اِلَیْھَا} के अल्फ़ाज़ आये हैं। इस ताल्लुक़ के बाद आसाब (नसों) के तनाव में एक सुकून की कैफ़ियत पैदा हो जाती है। और इसमें यही हिकमत है कि रसूल अल्लाह ﷺ अपने हर सफ़र में एक ज़ौजा-ए-मोहतरमा को ज़रूर साथ रखते थे। इसलिये की क़ायद और सिपहसलार को किसी वक़्त किसी ऐसी परेशानकुन सूरते हाल में फ़ैसले करने पड़ते हैं कि जज़्बात पर और आसाब पर दबाव होता है।
“और खाओ-पियो यहाँ तक कि वाज़ेह हो जाये तुम्हारे लिये फ़ज्र की सफ़ेद धारी (रात की) स्याह धारी से।” | وَكُلُوْا وَاشْرَبُوْا حَتّٰى يَتَبَيَّنَ لَكُمُ الْخَيْطُ الْاَبْيَضُ مِنَ الْخَيْطِ الْاَسْوَدِ مِنَ الْفَجْرِ ۠ |
यह पौ फटने के लिये इस्तआरा (लक्षण) है। यानि जब सुपैदा सहर नुमाया होता है, सुबह सादिक़ होती है उस वक़्त तक खाने-पीने की छूट है। बल्कि यहाँ { وَكُلُوْا وَاشْرَبُوْا } “और खाओ और पियो” अम्र के सीगे आये हैं। सहरी करने की हदीस में भी ताकीद आई है और रसूल अल्लाह ﷺ ने यह भी फ़रमाया है कि हमारे और यहूद के रोज़े के माबैन सेहरी का फ़र्क़ है। एक हदीस में आया है: ((تَسَحَّرُوْا فَاِنَّ فِی السَّحُوْرِ بَرَکَۃً))(22) “सहरी ज़रूर किया करो, इसलिये कि सहरी में बरकत है।”
“फिर रात तक रोज़े को पूरा करो।” | ثُمَّ اَتِمُّوا الصِّيَامَ اِلَى الَّيْلِ ۚ |
“रात तक” से अक्सर फ़ुक़हा के नज़दीक ग़ुरूबे आफ़ताब मुराद है। अहले तशय्य (शिया) इससे ज़रा आगे जाते हैं कि ग़ुरूबे आफ़ताब पर चंद मिनट मज़ीद गुज़र जाएँ।
“और उनसे मुबाशरत मत करो जबकि तुम मस्जिदों में हालते ऐतकाफ़ में हो।” | وَلَا تُـبَاشِرُوْھُنَّ وَاَنْتُمْ عٰكِفُوْنَ ۙ فِي الْمَسٰجِدِ ۭ |
यह रिआयत जो तुम्हें दी जा रही है इसमें एक इस्तशना (exception) है कि जब तुम मस्जिदों में मौतकिफ़ हो तो फिर अपनी बीवियों से रात के दौरान भी कोई ताल्लुक़ क़ायम ना करो।
“यह अल्लाह की (मुक़र्रर की हुई) हुदूद हैं, पस इनके क़रीब भी मत जाओ।” | تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَا تَقْرَبُوْھَا ۭ |
बाज़ मक़ामात पर आता है: { تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَا تَعْتَدُوْھَا} “यह अल्लाह की मुक़र्रर कर्दा हुदूद हैं, पस इनसे तजावुज़ ना करो” इनको उबूर ना करो। इस्लाहन हराम तो वही शय होगी कि हुदूद से तजावुज़ किया जाये। लेकिन बहरहाल अहतियात इसमें है कि इन हुदूद से दूर रहा जाये (to keep at a safe distance) आख़री हद तक चले जाओगे तो अंदेशा है कि कहीं इस हद को उबूर ना कर जाओ।
“इसी तरह अल्लाह वाज़ेह करता है अपनी निशानियाँ लोगों के लिये” | كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ اٰيٰتِهٖ لِلنَّاسِ |
“ताकि वह तक़वा की रविश इख़्तियार कर सकें।” | لَعَلَّهُمْ يَتَّقُوْنَ ١٨٧ |
अब इस रुकूअ की आख़री आयत में बताया जा रहा है कि तक़वा का मैयार और उसकी कसौटी क्या है। रोज़ा इसलिये फ़र्ज़ किया गया है और यह सारे अहकाम तुम्हें इसी लिये दिये जा रहे हैं ताकि तुम में तक़वा पैदा हो जाए- और तक़वा का लिट्मस टेस्ट है “अकल हलाल (हलाल खाना)” अगर यह नहीं है तो कोई नेकी नेकी नहीं है। फ़रमाया:
आयत 188
“और तुम अपने माल आपस में बातिल तरीक़ों से हड़प ना करो” | وَلَا تَاْكُلُوْٓا اَمْوَالَكُمْ بَيْنَكُمْ بِالْبَاطِلِ |
“और इसको ज़रिया ना बनाओ हुक्काम तक पहुँचने का” | وَتُدْلُوْا بِهَآ اِلَى الْحُكَّامِ |
“ताकि तुम लोगों के माल का कुछ हिस्सा हड़प कर सको गुनाह के साथ” | لِتَاْكُلُوْا فَرِيْقًا مِّنْ اَمْوَالِ النَّاسِ بِالْاِثْمِ |
“और तुम उसको जानते बूझते कर रहे हो। | وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ ١٨٨ۧ |
यह तक़वा के लिये मैयार और कसौटी है। जो शख़्स अकले हलाल पर क़ानेअ (संतुष्ट) हो गया और हराम ख़ोरी से बच गया वो मुत्तक़ी है। वरना नमाज़ों और रोज़ों के अम्बार के साथ-साथ जो शख़्स हरामख़ोरी की रविश इख़्तियार किये हुए है वह मुत्तक़ी नहीं है। मैं हैरान होता हूँ कि लोगों ने इस बात पर ग़ौर नहीं किया कि अहकाम की आयतों के दरमियान यह आयत क्योंकर आई है। इससे पहले रोज़े के अहकाम आये हैं, आगे हज के अहकाम आ रहे हैं, फिर क़िताल के अहकाम आएँगे। इनके दरमियान में इस आयत की क्या हिकमत है? वाक़्या यह है कि जैसे रोज़े की हिकमत का नुक़्ता-ए-उरूज यह है कि रूहे इंसानी में तक़र्रुब इलल्लाह की तलब पैदा हो जाये इसी तरह अहकामे सौम का नुक़्ता-ए-उरूज “अकल हलाल” (हलाल खाना) है।
आयात 189 से 196 तक
يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْاَهِلَّةِ ۭ قُلْ ھِىَ مَوَاقِيْتُ لِلنَّاسِ وَالْحَجِّ ۭ وَلَيْسَ الْبِرُّ بِاَنْ تَاْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ ظُهُوْرِھَا وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقٰى ۚ وَاْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ اَبْوَابِهَا ۠ وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ ١٨٩ وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ الَّذِيْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوْا ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ ١٩٠ وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْھُمْ وَاَخْرِجُوْھُمْ مِّنْ حَيْثُ اَخْرَجُوْكُمْ وَالْفِتْنَةُ اَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ وَلَا تُقٰتِلُوْھُمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتّٰى يُقٰتِلُوْكُمْ فِيْهِ ۚ فَاِنْ قٰتَلُوْكُمْ فَاقْتُلُوْھُمْ ۭكَذٰلِكَ جَزَاۗءُ الْكٰفِرِيْنَ ١٩١ فَاِنِ انْتَهَوْا فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٩٢ وَقٰتِلُوْھُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ لِلّٰهِ ۭ فَاِنِ انْتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ اِلَّا عَلَي الظّٰلِمِيْنَ ١٩٣ اَلشَّهْرُ الْحَرَامُ بِالشَّهْرِ الْحَرَامِ وَالْحُرُمٰتُ قِصَاصٌ ۭ فَمَنِ اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ فَاعْتَدُوْا عَلَيْهِ بِمِثْلِ مَا اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ ۠ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ مَعَ الْمُتَّقِيْنَ ١٩٤ وَاَنْفِقُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا تُلْقُوْا بِاَيْدِيْكُمْ اِلَى التَّهْلُكَةِ ٻوَاَحْسِنُوْا ڔ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ ١٩٥ وَاَتِمُّوا الْحَجَّ وَالْعُمْرَةَ لِلّٰهِ ۭ فَاِنْ اُحْصِرْتُمْ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۚ وَلَا تَحْلِقُوْا رُءُوْسَكُمْ حَتّٰى يَبْلُغَ الْهَدْيُ مَحِلَّهٗ ۭ فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ بِهٖٓ اَذًى مِّنْ رَّاْسِهٖ فَفِدْيَةٌ مِّنْ صِيَامٍ اَوْ صَدَقَةٍ اَوْ نُسُكٍ ۚ فَاِذَآ اَمِنْتُمْ ۪ فَمَنْ تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَةِ اِلَى الْحَجِّ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۚ فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ فِي الْحَجِّ وَسَبْعَةٍ اِذَا رَجَعْتُمْ ۭتِلْكَ عَشَرَةٌ كَامِلَةٌ ۭ ذٰلِكَ لِمَنْ لَّمْ يَكُنْ اَھْلُهٗ حَاضِرِي الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ ١٩٦ۧ
आयत 189
“(ऐ नबी ﷺ!) यह आप ﷺ से पूछ रहे हैं चाँद की घटती-बढ़ती सूरतों के बारे में।” | يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْاَهِلَّةِ ۭ |
“कह दीजिये यह लोगों के लिये अवक़ात का तअय्युन है और हज के लिये है।” | قُلْ ھِىَ مَوَاقِيْتُ لِلنَّاسِ وَالْحَجِّ ۭ |
यह अल्लाह तआला ने एक कैंडल लटका दिया है। हिलाल को देख कर मालूम हो गया कि चाँद की पहली तारीख़ हो गई। कुछ दिनों के बाद निस्फ़ चाँद देख कर पता चल गया कि अब एक हफ़्ता गुज़र गया है। दो हफ़्ते हो गये तो पूरा चाँद हो गया। अब इसने घटना शुरू किया। तो यह निज़ाम गोया लोगों के लिये अवक़ाते कार की तअय्युन के लिये है और इस ज़िमन में ख़ासतौर पर सबसे अहम मामला हज का है। यह नोट कीजिये की सौम के बाद हज और हज के साथ ही क़िताल का ज़िक्र आ रहा है। इसलिये कि “हज” वह इबादत है जो एक ख़ास जगह पर हो सकती है। नमाज़ और रोज़ा हर जगह हो सकते हैं, ज़कात हर जगह दी जा सकती है, लेकिन “हज” तो मक्का मुकर्रमा ही में होगा, और वह मुशरिकीन के ज़ेरे तसल्लुत (एकाधिकार) था और उसे मुशरिकीन के तसल्लुत से निकालने के लिये क़िताल लाज़िम था। क़िताल के लिये पहले सब्र का पैदा होना ज़रूरी है। चुनाँचे पहले रोज़े का हुक्म दिया गया कि जैसे अपने घोड़ों को रोज़ा रखवाते थे ऐसे ही ख़ुद रोज़ा रखो। सूरतुल बक़रह में सौम, हज और क़िताल के अहकाम के दरमियान यह तरतीब और रब्त है।
“और यह कोई नेकी नहीं है कि तुम घरों में उनकी पुश्त की तरफ़ से दाख़िल हो, बल्कि नेकी तो उसकी है जिसने तक़वा इख़्तियार किया।” | وَلَيْسَ الْبِرُّ بِاَنْ تَاْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ ظُهُوْرِھَا وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقٰى ۚ |
अहले अरब अय्यामे जाहिलियत में भी हज तो कर रहे थे, मनासिके हज की कुछ बिगड़ी हुई शक्लें भी मौजूद थीं, और इसके साथ उन्होंने कुछ बिद्आत व रस्मों का इज़ाफ़ा भी कर लिया था। उनमें से एक बिद्अत यह थी कि जब वह अहराम बाँध कर घर से निकल पड़ते तो उसके बाद अगर उन्हें घरों में दाख़िल होने की ज़रूरत पेश आती तो घरों के दरवाज़ों से दाख़िल ना होते बल्कि पिछवाड़े से दीवार फलाँद कर आते थे और समझते थे कि यह बड़ा तक़वा है। फ़रमाया यह सिरे से कोई नेकी की बात नहीं है कि तुम घरों में उनके पिछवाड़ों से दाख़िल हो, बल्कि असल नेकी तो उसकी नेकी है जो तक़वा की रविश इख़्तियार करे और हुदूदे इलाही का अहतराम मलहूज़ रखे। यहाँ पूरी आयत “आयतुल बिर्र” को ज़हन में रख लीजिये जिसके आख़िर में अल्फ़ाज़ आये थे: { وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُتَّقُوْنَ ١٧٧} चुनाँचे आयत ज़ेरे मुताअला में { وَلٰكِنَّ الْبِرَّ مَنِ اتَّقٰى ۚ } के अल्फ़ाज़ में नेकी का वह पूरा तसव्वुर मुज़मर है जो आयतुल बिर्र में बयान हो चुका है।
“और घरों में दाख़िल हो उनके दरवाज़ों से।” | وَاْتُوا الْبُيُوْتَ مِنْ اَبْوَابِهَا ۠ |
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो ताकि तुम फ़लाह पाओ।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ لَعَلَّكُمْ تُفْلِحُوْنَ ١٨٩ |
आयत 190
“और क़िताल करो अल्लाह की राह में उनसे जो तुमसे क़िताल कर रहे हैं” | وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ الَّذِيْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ |
लीजिये क़िताल का हुक्म आ गया। सूरतुल बक़रह के निस्फ़े सानी के मज़ामीन की जो चार लड़ियाँ मैंने गिनवाई थीं- यानि इबादात, मामलात, इन्फ़ाक़ और क़िताल- यह उनमें से चौथी लड़ी है। फ़रमाया कि अल्लाह की राह में उनसे क़िताल करो जो तुमसे क़िताल कर रहे हैं।
“लेकिन हद से तजावुज़ ना करो।” | وَلَا تَعْتَدُوْا ۭ |
“बेशक अल्लाह तआला हद से तजावुज़ करने वालों को पंसद नहीं करता।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِيْنَ ١٩٠ |
आयत 191
“और उन्हें क़त्ल करो जहाँ कहीं भी उन्हें पाओ” | وَاقْتُلُوْھُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوْھُمْ |
“और निकालो उनको वहाँ से जहाँ से उन्होंने तुमको निकाला है” | وَاَخْرِجُوْھُمْ مِّنْ حَيْثُ اَخْرَجُوْكُمْ |
मुहाजरीन मक्का मुक्कर्रमा से निकाले गये थे, वहाँ पर मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और आप ﷺ के साथी अहले ईमान पर क़ाफ़िया-ए-हयात तंग (जीना दूभर) कर दिया गया था। तभी तो आप ﷺ ने हिजरत की। अब हुक्म दिया जा रहा है कि निकालो उन्हें वहाँ से जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है।
“और फ़ितना क़त्ल से भी बढ़ कर है।” | وَالْفِتْنَةُ اَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ |
कुफ्फ़ार व मुशरिकीन से क़िताल के ज़िमन में कहीं यह ख़्याल ना आये कि क़त्ल और खूँरेज़ी बुरी बात है। याद रखो कि फ़ितना इससे भी ज़्यादा बुरी बात है। फ़ितना क्या है? ऐसे हालात जिनमें इंसान ख़ुदाये वाहिद की बन्दगी ना कर सके, ऐसे ग़लत कामों पर मजबूर किया जाये, वह हरामख़ोरी पर मजबूर हो गया हो, यह सारे हालात फ़ितना हैं। तो वाज़ेह रहे कि क़त्ल और खूँरेज़ी इतनी बुरी शय नहीं है जितनी फ़ितना है।
“हाँ मस्जिदे हराम के पास (जिसे अमन की जगह बना दिया गया है) उनसे जंग मत करो जब तक वह तुमसे उसमें जंग ना छेड़ें।” | وَلَا تُقٰتِلُوْھُمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتّٰى يُقٰتِلُوْكُمْ فِيْهِ ۚ |
“फिर अगर वह तुमसे जंग करें तो उनको क़त्ल करो।” | فَاِنْ قٰتَلُوْكُمْ فَاقْتُلُوْھُمْ ۭ |
“यही बदला है काफ़िरों का।” | كَذٰلِكَ جَزَاۗءُ الْكٰفِرِيْنَ ١٩١ |
आयत 192
“फिर अगर वह बाज़ आ जाएँ तो यक़ीनन अल्लाह बख़्शने वाला बहुत मेहरबान है।” | فَاِنِ انْتَهَوْا فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٩٢ |
आयत 193
“और लड़ो उनसे यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी ना रहे और दीन अल्लाह का हो जाये।” | وَقٰتِلُوْھُمْ حَتّٰى لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ لِلّٰهِ ۭ |
“फिर अगर वह बाज़ आ जाएँ तो कोई ज़्यादती जायज़ नहीं है मगर ज़ालिमों पर।” | فَاِنِ انْتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ اِلَّا عَلَي الظّٰلِمِيْنَ ١٩٣ |
दावते मुहम्मदी ﷺ के ज़िमन में अब यह जंग का मरहला शुरू हो गया है। मुसलमानों जान लो, एक दौर वह था कि बारह-तेरह बरस तक तुम्हें हुक्म था {کُفُّوْا اَیْدِیَکُمْ} “अपने हाथ बाँधे रखो!” मारे खाओ मगर हाथ मत उठाना। अब तुम्हारी दावत और तहरीक नए दौर में दाख़िल हो गई है। अब जब तुम्हारी तलवारें म्यान से बाहर आ गई हैं तो म्यान में ना जाएँ जब तक कि फ़ितना बिल्कुल ख़त्म ना हो जाये और दीन अल्लाह ही के लिये हो जाये, अल्लाह का दीन क़ायम हो जाये, पूरी ज़िन्दगी में उसके अहकाम की तन्फ़ीज़ हो रही हो। यह आयत दोबारा सूरतुल अन्फ़ाल में ज़्यादा निखरी हुई शान के साथ आई है: { وَقَاتِلُوْهُمْ حَتّٰي لَا تَكُوْنَ فِتْنَةٌ وَّيَكُوْنَ الدِّيْنُ كُلُّهٗ لِلّٰهِ ۚ } (आयत:39) “और जंग करो उनसे यहाँ तक कि फ़ितना बाक़ी ना रहे और दीन कुल का कुल अल्लाह के लिये हो जाये।” दीन की बालादस्ती (प्रधानता) जुज़्वी (आंशिक) तौर पर नहीं बल्कि कुल्ली तौर पर पूरी इंसानी ज़िन्दगी पर क़ायम हो जाये, इन्फ़रादी ज़िन्दगी पर भी और इज्तमाई ज़िन्दगी पर भी। और इज्तमाई ज़िन्दगी के भी सारे पहलू (Politico-Socio-Economic System) कुल्ली तौर पर अल्लाह के अहकाम के ताबेअ हों।
आयत 194
“हुरमत वाला महीना बदला है हुरमत वाले महीने का” | اَلشَّهْرُ الْحَرَامُ بِالشَّهْرِ الْحَرَامِ |
“और हुरमात के अंदर भी बदला है।” | وَالْحُرُمٰتُ قِصَاصٌ ۭ |
यानि अगर उन्होंने अशहरे हुरुम की बेहुरमती की है तो उसके बदले में यह नहीं होगा कि हम तो हाथ पर हाथ बाँध कर खड़े रहें कि यह तो अशहरे हुरुम हैं। हुदूदे हरम और अशहरे हुरुम की हुरमत अहले अरब के यहाँ मुसल्लम (मान्य) थी। उनके यहाँ यह तय था कि इन चार महीनों में कोई खूँरेज़ी, कोई जंग नहीं होगी, यहाँ तक कि कोई अपने बाप के क़ातिल को पा ले तो वह उसको भी क़त्ल नहीं करेगा। यहाँ वज़ाहत की जा रही है कि अशहरे हुरुम व हुदूदे हरम में जंग वाक़िअतन बहुत बड़ा गुनाह है, लेकिन अगर कुफ़्फ़ार की तरफ़ से उनकी हुरमत का लिहाज़ ना रखा जाये और वह इक़्दाम (कार्यवाही) करें तो अब यह नहीं होगा कि हाथ-पाँव बाँध कर अपने आपको पेश कर दिया जाये, बल्कि जवाबी कार्यवाही करना होगी। इस जवाबी इक़्दाम में अगर हुदूदे हरम या अशहरे हुरुम की बेहुरमती करनी पड़े तो इसका बवाल भी उन पर आयेगा जिन्होंने इस मामले में पहल की।
“तो जो कोई भी तुम पर ज़्यादती करता है तो तुम भी उसके ख़िलाफ़ कार्यवाही करो (इक़्दाम करो) जैसे कि उसने तुम पर ज़्यादती की।” | فَمَنِ اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ فَاعْتَدُوْا عَلَيْهِ بِمِثْلِ مَا اعْتَدٰى عَلَيْكُمْ ۠ |
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ |
“और जान लो कि अल्लाह मुत्तक़ियों के साथ है।” | وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ مَعَ الْمُتَّقِيْنَ ١٩٤ |
यानि अल्लाह की ताईद व नुसरत और उसकी मदद अहले तक़वा के लिये आयेगी। अब आगे “इन्फ़ाक़” का हुक्म आ रहा है जो मज़ामीन की चार लड़ियों में से तीसरी लड़ी है। क़िताल के लिये इन्फ़ाक़े माल लाज़िम है। अगर फ़ौज के साज़ो सामान ना हो, रसद का अहतमाम ना हो, हथियार ना हों, सवारियाँ ना हों तो जंग कैसे होगी?
आयत 195
“और ख़र्च करो अल्लाह की राह में और मत डालो अपने आपको अपने हाथों हलाकत में।” | وَاَنْفِقُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا تُلْقُوْا بِاَيْدِيْكُمْ اِلَى التَّهْلُكَةِ ٻ |
यानि जिस वक़्त अल्लाह के दीन को रूपये-पैसे की ज़रुरत हो उस वक़्त जो लोग अल्लाह की राह में जान व माल की क़ुर्बानी से जी चुराते हैं और अपने आपको अपने हाथों से हलाकत में डालते हैं। जैसे रसूल अल्लाह ﷺ ने ग़ज़वा-ए-तबूक के मौक़े पर आम अपील की और उस वक़्त जो लोग अपने माल को समेट कर बैठे रहे तो गोया उन्होंने अपने आपको ख़ुद हलाकत में डाल दिया।
“और अहसान की रविश इख़्तियार करो।” | وَاَحْسِنُوْا ڔ |
अपने दीन के अंदर ख़ूबसूरती पैदा करो। दीन में बेहतर से बेहतर मक़ाम हासिल करने की कोशिश करो। हमारा मामला यह है कि दुनिया में आगे से आगे और दीन में पीछे से पीछे रहने की कोशिश करते हैं। दीन में यह देखेंगे कि कम से कम पर गुज़ारा हो जाये, जबकि दुनिया के मामले में आगे से आगे निकलने की कोशिश होगी “है जुस्तजू कि ख़ूब से है ख़ूब तर कहाँ!” यह जुस्तजू जो दुनिया में है इससे कहीं बढ़ कर दीन में होनी चाहिये, अज़रुए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: {فَاسْتَبِقُوا الْخَیْرٰتِ} “पस तुम नेकियों में एक-दूसरे से बाज़ी ले जाने की कोशिश करो।”
“यक़ीनन अल्लाह तआला मोहसिनीन को (उन लोगों को दर्जा-ए-अहसान पर फ़ाइज़ हो जाएँ) पसंद करता है।” | اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُحْسِنِيْنَ ١٩٥ |
हदीसे जिब्राइल (जिसे उम्मुस सुन्नाह कहा जाता है) में हज़रत जिब्राइल अलै० ने रसूल अल्लाह ﷺ से तीन सवाल किये थे: (1) اَخْبِرْنِیْ عَنِ الْاِسْلَامِ “मुझे इस्लाम के बारे में बताइये (कि इस्लाम क्या है?)” (2) اَخْبِرْنِیْ عَنِ الْاِیْمَانِ “मुझे ईमान के बारे में बताइये (कि ईमान क्या है?)” (3) اَخْبِرْنِیْ عَنِ الْاِحْسَانِ “मुझे अहसान के बारे में बताइये (कि अहसान क्या है?)” अहसान के बारे में रसूल अल्लाह ﷺ ने इर्शाद फ़रमाया: (اَنْ تَعْبُدَ اللہَ کَاَنَّکَ تَرَاہُ، فَاِنْ لَمْ تَکُنْ تَرَاہُ فَاِنَّہٗ یَرَاکَ) (23) “(अहसान यह है) कि तू अल्लाह तआला की इबादत ऐसे करे गोया तू उसे देख रहा है, फिर अगर तू उसे ना देख सके (यानि यह कैफ़ियत हासिल ना हो सके) तो (कम से कम यह ख़्याल रहे कि) वह तो तुझे देख रहा है।” दीन के सारे काम, इबादात, इन्फ़ाक़ और जिहाद व क़िताल ऐसी कैफ़ियत में और ऐसे इख़्लास के साथ हों गोया तुम अपनी आँखों से अल्लाह को देख रहे हो, और अगर यह मक़ाम और कैफ़ियत हासिल ना हो तो कम से कम यह कैफ़ियत तो हो जाये कि तुम्हें मुस्तहज़र (अहसास) रहे कि अल्लाह तुम्हें देख रहा है। यह अहसान है। आमतौर पर इसका तर्जुमा इस अंदाज़ में नहीं किया गया। इसको अच्छी तरह समझ लीजिये। वैसे यह मज़मून ज़्यादा वज़ाहत के साथ सूरतुल मायदा में आयेगा।
आयत 196
“और हज और उमरा मुकम्मल करो अल्लाह के लिये।” | وَاَتِمُّوا الْحَجَّ وَالْعُمْرَةَ لِلّٰهِ ۭ |
उमरा के लिये अहराम तो मदीना मुनव्वरा से सात मील बाहर निकल कर ही बाँध लिया जायेगा, लेकिन हज मुकम्मल तब होगा जब तवाफ़ भी होगा, वक़ूफ़े अरफ़ा भी होगा और उसके सारे मनासिक अदा किये जाएँगे। लिहाज़ा जो शख़्स भी हज या उमरा की नीयत कर ले तो फिर उसे तमाम मनासिक को मुकम्मल करना चाहिये, कोई कमी ना रहे।
“फिर अगर तुम्हें घेर लिया जाये” | فَاِنْ اُحْصِرْتُمْ |
यानि रोक दिया जाये, जैसा कि 6 हिजरी में हुआ कि मुसलमानों को सुलह हुदेबिया करनी पड़ी और उमरा अदा किये बग़ैर वापस जाना पड़ा। मुशरिकीने मक्का अड़ गये थे कि मुसलमानों को मक्का में दाख़िल नहीं होने देंगे।
“तो जो कोई भी क़ुर्बानी मयस्सर हो वह पेश कर दो।” | فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۚ |
यह दमे अहसार कहलाता है कि चूँकि अब हम आगे नहीं जा सकते, हमें यहीं अहराम खोलना पड़ रहा है तो हम अल्लाह के नाम पर यह जानवर दे रहे हैं। यह एक तरह से इसका कफ़्फ़ारा है।
“और अपने सिर उस वक़्त तक ना मूँड़ो जब तक कि क़ुर्बानी अपनी जगह ना पहुँच जाये।” | وَلَا تَحْلِقُوْا رُءُوْسَكُمْ حَتّٰى يَبْلُغَ الْهَدْيُ مَحِلَّهٗ ۭ |
यानि जहाँ जाकर क़ुर्बानी का जानवर ज़िबह होना है वहाँ पहुँच ना जाये। अगर आपको हज या उमरा से रोक दिया गया और आपने क़ुर्बानी के जानवर आगे भेज दिये तो आपको रोकने वाले उन जानवरों को नहीं रोकेगें, इसलिये कि उनका गोश्त तो उन्हें खाने को मिलेगा। अब अंदाज़ा कर लिया जाये कि इतना वक़्त गुज़र गया है कि क़ुर्बानी का जानवर अपने मक़ाम पर पहुँच गया होगा।
“फिर जो कोई तुममें से बीमार हो या उसके सिर में कोई तकलीफ़ हो” | فَمَنْ كَانَ مِنْكُمْ مَّرِيْضًا اَوْ بِهٖٓ اَذًى مِّنْ رَّاْسِهٖ |
यानि सिर में कोई ज़ख़्म वग़ैरह हो और उसकी वजह से बाल कटवाने ज़रूरी हो जायें।
“तो वह फ़िदये के तौर पर रोज़े रखे या सदक़ा दे या क़ुर्बानी करे।” | فَفِدْيَةٌ مِّنْ صِيَامٍ اَوْ صَدَقَةٍ اَوْ نُسُكٍ ۚ |
अगर उस हदी के जानवर के काबा पहुँचने से पहले-पहले तुम्हें अपने बाल काटने पड़ें तो फ़िदया अदा करना होगा। यानि एक कमी जो रह गई है उसकी तलाफ़ी के लिये कफ़्फ़ारा अदा करना होगा। इस कफ़्फ़ारे की तीन सूरतें बयान हुई हैं: रोज़े, या सदक़ा या क़ुर्बानी। इसकी वज़ाहत अहादीससे नबवी ﷺ से होती है कि या तो तीन दिन के रोज़े रखे जायें, या छ: मिस्कीनों को खाना खिलाया जाये या कम से कम एक बकरी की क़ुर्बानी दी जाये। इस क़ुर्बानी को दमे जनायत कहते हैं।
“फिर जब तुम्हें अमन हासिल हो (और तुम सीधे बैतुल्लाह पहुँच सकते हो)” | فَاِذَآ اَمِنْتُمْ ۪ |
“तो जो कोई भी फ़ायदा उठाये उमरे का हज से क़ब्ल तो वह क़ुर्बानी पेश करे जो भी उसे मयस्सर हो।” | فَمَنْ تَمَتَّعَ بِالْعُمْرَةِ اِلَى الْحَجِّ فَمَا اسْتَيْسَرَ مِنَ الْهَدْيِ ۚ |
रसूल अल्लाह ﷺ की बेअसत से पहले अहले अरब के यहाँ एक सफ़र में हज और उमरा दोनों करना गुनाह समझा जाता था। उनके नज़दीक यह काबा की तौहीन थी। उनके यहाँ हज के लिये तीन महीने शवाल, ज़िल क़ादा और ज़िल हिज्जा थे, जबकि रज्जब का महीना उमरे के लिये मख़सूस था। वह उमरे के लिये अलैहदा सफ़र करते और हज के लिये अलैहदा। यह बात हुदूदे हरम में रहने वालों के लिये तो आसान थी, लेकिन इस उम्मत को तो पूरी दुनिया में फैलना था और दूर दराज़ से सफ़र करके आने वालों के लिये इसमें मशक़्क़त थी। लिहाज़ा शरीअते मुहम्मदी ﷺ में लोगों के लिये जहाँ और आसानियाँ पैदा की गईं वहाँ हज व उमरे के ज़िमन में यह आसानी भी पैदा की गई कि एक ही सफ़र में हज और उमरा दोनों को जमा कर लिया जाये। इसकी दो सूरतें हैं। एक यह कि पहले उमरा करके अहराम खोल दिया जाये और फिर आठवें ज़िल हिज्जा को हज का अहराम बाँध लिया जाये। यह “हज्जे तमत्तोअ” कहलाता है। दूसरी सूरत यह है कि हज के लिये अहराम बाँधा था, जाते ही उमरा भी कर लिया, लेकिन अहराम खोला नहीं और उसी अहराम मे हज भी कर लिया। यह “हज्जे क़िरान” कहलाता है। लेकिन अगर शुरू ही से सिर्फ़ हज का अहराम बाँधा जाये और उमरा ना किया जाये तो यह “हज्जे अफ़राद” कहलाता है। क़िरान या तमत्तोअ करने वाले पर क़ुर्बानी ज़रूरी है। इमाम अबु हनीफ़ा रहि० इसे दमे शुक्र कहते हैं और क़ुर्बानी करने वाले को इसमें से खाने की इजाज़त देते हैं। इमाम शाफ़ई रहि० के नज़दीक यह दमे जबर है और क़ुर्बानी करने वाले को इसमें से खाने की इजाज़त नहीं है।
“जिसको क़ुर्बानी ना मिले तो वह तीन दिन के रोज़े अय्यामे हज में रखे” | فَمَنْ لَّمْ يَجِدْ فَصِيَامُ ثَلٰثَةِ اَيَّامٍ فِي الْحَجِّ |
यानि ऐन अय्यामे हज में सातवें, आठवें और नौवें ज़िल हिज्जा को रोज़ा रखे। दसवें का रोज़ा नहीं हो सकता, वह ईद का दिन (यौमुल नहर) है।
“और सात रोज़े रखो जबकि तुम वापस पहुँच जाओ।” | وَسَبْعَةٍ اِذَا رَجَعْتُمْ ۭ |
अपने घरों में जाकर सात रोज़े रखो।
“यह कुल दस (रोज़े) होंगे।” | تِلْكَ عَشَرَةٌ كَامِلَةٌ ۭ |
“यह (रिआयत) उसके लिये है जिसके घर वाले मस्जिदे हराम के क़रीब ना रहते हो।” | ذٰلِكَ لِمَنْ لَّمْ يَكُنْ اَھْلُهٗ حَاضِرِي الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۭ |
यानि एक ही सफ़र में हज और उमरा को जमा करने की रिआयत, ख़्वाह तमत्तोअ की सूरत में हो या क़िरान की सूरत में, सिर्फ़ आफ़ाक़ी के लिये है, जिसके अहलो अयाल जवारे हरम में ना रहते हों, यानि जो हुदूदे ह़रम के बाहर से हज करने आया हो।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ |
“और ख़ूब जान लो कि अल्लाह तआला सज़ा देने में भी बहुत सख़्त है।” | وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ ١٩٦ۧ |
आयात 197 से 203 तक
اَلْحَجُّ اَشْهُرٌ مَّعْلُوْمٰتٌ ۚ فَمَنْ فَرَضَ فِيْهِنَّ الْحَجَّ فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوْقَ ۙوَلَا جِدَالَ فِي الْحَجِّ ۭ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ يَّعْلَمْهُ اللّٰهُ ڼوَتَزَوَّدُوْا فَاِنَّ خَيْرَ الزَّادِ التَّقْوٰى ۡ وَاتَّقُوْنِ يٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ ١٩٧ لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَبْتَغُوْا فَضْلًا مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ فَاِذَآ اَفَضْتُمْ مِّنْ عَرَفٰتٍ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ عِنْدَ الْمَشْعَرِ الْحَرَامِ ۠ وَاذْكُرُوْهُ كَمَا ھَدٰىكُمْ ۚ وَاِنْ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلِهٖ لَمِنَ الضَّاۗلِّيْنَ ١٩٨ ثُمَّ اَفِيْضُوْا مِنْ حَيْثُ اَفَاضَ النَّاسُ وَاسْتَغْفِرُوا اللّٰهَ ۭاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٩٩ فَاِذَا قَضَيْتُمْ مَّنَاسِكَكُمْ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَذِكْرِكُمْ اٰبَاۗءَكُمْ اَوْ اَشَدَّ ذِكْرًا ۭ فَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا وَمَا لَهٗ فِي الْاٰخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ٢٠٠ وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَّفِي الْاٰخِرَةِ حَسَـنَةً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ ٢٠١ اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ نَصِيْبٌ مِّمَّا كَسَبُوْا ۭ وَاللّٰهُ سَرِيْعُ الْحِسَابِ ٢٠٢ وَاذْكُرُوا اللّٰهَ فِيْٓ اَ يَّامٍ مَّعْدُوْدٰتٍ ۭ فَمَنْ تَعَـجَّلَ فِيْ يَوْمَيْنِ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۚ وَمَنْ تَاَخَّرَ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۙ لِمَنِ اتَّقٰى ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ ٢٠٣
पिछले रुकूअ से मनासिके हज का तज़किरा शुरू हो चुका है। अब इस पच्चीसवीं रुकूअ में हज का असल फ़लसफ़ा, उसकी असल हिकमत और उसकी असल रूह का बयान है। फ़रमाया:
आयत 197
“हज के मालूम महीने हैं” | اَلْحَجُّ اَشْهُرٌ مَّعْلُوْمٰتٌ ۚ |
यानि अरब में जो भी पहले से रिवाज चला आ रहा था उसकी तौसीक़ (पुष्टी) फ़रमा दी गई कि वाक़ई हज के मवाक़ीत (टाइम) का तअय्युन अल्लाह तआला की तरफ़ से है।
“तो जिसने अपने ऊपर लाज़िम कर लिया इन महीनों में हज को” | فَمَنْ فَرَضَ فِيْهِنَّ الْحَجَّ |
लाज़िम करने से मुराद हज का अज़म और नियत पुख़्ता करना है और इसकी अलामत अहराम बाँध लेना है।
“तो (उसको ख़बरदार रहना चाहिये कि) दौराने हज ना तो शहवत की कोई बात करनी है, ना फ़िस्क़ व फ़जूर की और ना लड़ाई-झगड़े की।” | فَلَا رَفَثَ وَلَا فُسُوْقَ ۙوَلَا جِدَالَ فِي الْحَجِّ ۭ |
ज़माना-ए-हज में जिन बातों से रोका गया है उनमें अव्वलीन यह है कि शहवत की कोई बात नहीं होनी चाहिये। मियाँ-बीवी भी अगर साथ हज कर रहे हों तो अहराम की हालात में उनके लिये वही क़ैद है जो ऐतक़ाफ़ की हालात में है। बाक़ी यह कि फ़िसूक़ व जिदाल यानि अल्लाह की नाफ़रमानी और बाहम लड़ाई-झगड़ा तो वैसे ही नाजायज़ है, दौराने हज इससे ख़ासतौर पर रोक दिया गया। इसलिये कि बहुत बड़ी तादात में लोगों का इज्तमा होता है, सफ़र में भी लोग साथ होते हैं। इस हालत में लोगों के गुस्सों के पारे जल्दी चढ़ जाने का इम्कान होता है। लिहाज़ा इससे ख़ासतौर पर रोका गया ताकि मनासिके हज की अदायगी के दौरान अमन व सुकून हो। वाक़्या यह है कि आज भी यह बात मौज्ज़ात में से है कि दुनिया भर से इतनी बड़ी तादात में लोगों के जमा होने के बावजूद वहाँ अमन व सुकून रहता है और जंग व जिदाल और झगड़ा व फ़साद वग़ैरह कहीं नज़र नहीं आता। मुझे अल्हम्दुलिल्लाह पाँच-छ: मर्तबा हज की सआदत हालिस हुई है, लेकिन वहाँ पर झगड़ा और गाली-ग़लौज की कैफ़ियत मैंने कभी अपनी आँखों से नहीं देखी।
“और नेकी के जो काम भी तुम करोगे अल्लाह उसको जानता है।” | وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ يَّعْلَمْهُ اللّٰهُ ڼ |
हज के दौरान मनासिके हज पर मुस्तज़ाद (उच्चतम) जो भी नेकी के काम कर सको, मसलन नवाफ़िल पढ़ो या इज़ाफ़ी तवाफ़ करो तो तुम्हारी यह नेकियाँ अल्लाह के इल्म में होंगी, किसी और को दिखाने की ज़रुरत नहीं।
“और ज़ादेराह साथ ले लिया करो, यक़ीनन बेहतरीन ज़ादेराह तक़वा है।” | وَتَزَوَّدُوْا فَاِنَّ خَيْرَ الزَّادِ التَّقْوٰى ۡ |
इसके दो मायने लिये गये हैं। एक तो यह कि बेहतरीन ज़ादेराह तक़वा है। यानि सफ़रे हज में माद्दी ज़ादेराह के अलावा तक़वा की पूँजी भी ज़रूरी है। अगर आपने अख़राजाते सफ़र के लिये रुपया-पैसा तो वाफ़र (पर्याप्त) ले लिया, लेकिन तक़वा की पूँजी से तही दामन (खाली) रहे तो दौराने हज अच्छी सहूलियात तो हासिल कर लेंगे मगर हज की रूह और उसकी बरकात से महरूम रहेंगे।
लेकिन इसका एक दूसरा मफ़हूम भी बहुत अहम है कि अगर इंसान ख़ुद अपना ज़ादेराह साथ ना ले तो फिर वहाँ दूसरों से माँगना पड़ता है। इस तरह यहाँ “तक़वा” से मुराद सवाल से बचना है। यानि बेहतर यह है कि ज़ादेराह लेकर चलो ताकि तुम्हें किसी के सामने साइल ना बनना पड़े। अगर तुम साहिबे इस्तताअत नहीं हो तो हज तुम पर फ़र्ज़ ही नहीं है। और एक शय जो तुम पर फ़र्ज़ नहीं है उसके लिये ख़्वाह मख़्वाह वहाँ जाकर भीख माँगना या यहाँ से भीख माँग कर या चंदा इकट्ठा करके जाना क़तअन ग़लत हरकत है।
“और मेरा ही तक़वा इख़्तियार करो ऐ होशमंदो!” | التَّقْوٰى ۡ وَاتَّقُوْنِ يٰٓاُولِي الْاَلْبَابِ ١٩٧ |
आयत 198
“तुम पर इस अम्र में कोई गुनाह नहीं है कि तुम (सफ़रे हज के दौरान) अपने रब का फ़ज़ल भी तलाश करो।” | لَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَنْ تَبْتَغُوْا فَضْلًا مِّنْ رَّبِّكُمْ ۭ |
आदमी हिन्दुस्तान या पाकिस्तान से हज के लिये जा रहा है और वह अपने साथ कुछ ऐसी अजनास (चीज़ें) साथ ले जाये जिन्हें वहाँ पर बेच कर कुछ नफ़ा हासिल कर ले तो यह तक़वा के मनाफ़ी नहीं है।
“पस जब तुम अराफ़ात से वापस लौटो तो अल्लाह को याद करो मशअरे हराम के नज़दीक।” | فَاِذَآ اَفَضْتُمْ مِّنْ عَرَفٰتٍ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ عِنْدَ الْمَشْعَرِ الْحَرَامِ ۠ |
वक़ूफ़े अराफ़ात (अराफ़ात में ठहरना) हज का रुकने आज़म है। रसूल अल्लाह ﷺ का इर्शाद है: ((اَلْحَجُّ عَرَفَۃٌ))(24) यानि असल हज तो अरफ़ा ही है। अगर किसी से हज के बाक़ी तमाम मनासिक रह जायें, सिर्फ़ क़यामे अरफ़ा में शमूलियत हो जाये तो उसका हज हो गया, बाक़ी जो चीज़ें रह गई हैं उनका कफ़्फ़ारा अदा किया जायेगा। लेकिन अगर कोई शख़्स अराफ़ात के क़याम में ही शरीक नहीं हुआ तो फिर उसका हज नहीं हुआ। अय्यामे हज का टाइम टेबल नोट कीजिये कि 8 ज़िल हिज्जा को मक्का मुकर्रमा से निकल कर रात मिना में गुज़ारना होती है। अग़ला दिन 9 ज़िल हिज्जा यौमे अरफ़ा है। इस रोज़ सुबह को अराफ़ात के लिये क़ाफ़िले चलते हैं और कोशिश यह होती है कि दोपहर से पहले वहाँ पहुँच जाया जाये। वहाँ पर ज़ुहर के वक़्त ज़ुहर और अस्र दोनों नमाज़े मिला कर पढ़ी जाती हैं। इसके बाद से ग़ुरूबे आफ़ताब तक अराफ़ात का क़याम है, जिसमें कोई नमाज़ नहीं। यानि रिवायती इबादात के सब दरवाज़े बंद हैं। अब तो सिर्फ़ दुआ है। अगर आपके अन्दर दुआ की एक रूह पैदा हो चुकी है, आप अपने रब से हम कलाम हो सकते हैं और आपको हलावते मुनाजात हासिल हो गई है तो बस दुआ माँगते रहिये। क़यामे अरफ़ा के दौरान खड़े होकर या बैठे हुए, जिस तरह भी हो अल्लाह से मुनाजात की जाये। या इसमें अगर किसी वजह से कमी हो जाये तो आदमी तिलावत करे। लेकिन आम नमाज़ अब कोई नहीं। 9 ज़िल हिज्जा को वक़ूफ़े अराफ़ात के बाद मग़रिब की नमाज़ का वक़्त हो चुकने के बाद अराफ़ात से रवानगी है, लेकिन वहाँ मग़रिब की नमाज़ पढ़ने की इजाज़त नहीं है। बल्कि अब मुज़्दलफ़ा में जाकर मग़रिब और इशा दोनों नमाज़ें जमा करके अदा करनी हैं और रात वहीं खुले आसमान तले बसर करनी है। यह मुज़्दलफ़ा का क़याम है। मशअरे हराम एक पहाड़ का नाम है जो मुज़्दलफ़ा में वाक़ेअ है।
“और याद करो उसे जैसे कि उसने तुम्हें हिदायत की है।” | وَاذْكُرُوْهُ كَمَا ھَدٰىكُمْ ۚ |
यानि अल्लाह का ज़िक्र करो जिस तरह अल्लाह ने तुम्हें अपने रसूल ﷺ के ज़रिये सिखाया है। ज़िक्र के जो तौर तरीक़े रसूल ﷺ ने सिखाये हैं उन्हें इख़्तियार करो और ज़माना-ए-जाहिलियत के तरीक़े तर्क कर दो।
“और यक़ीनन इससे पहले तो तुम गुमराह लोगों में से थे।” | وَاِنْ كُنْتُمْ مِّنْ قَبْلِهٖ لَمِنَ الضَّاۗلِّيْنَ ١٩٨ |
तुम हज की हक़ीक़त से नावाक़िफ़ थे। हज की बस शक़्ल बाक़ी रह गई थी, इसकी रूह ख़त्म हो गई थी, इसके मनासिक़ भी रद्दोबदल कर दिया गया था।
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आयत 199
“फिर तुम भी वहीं से पलटो जहाँ से सब लोग पलटते हैं” | ثُمَّ اَفِيْضُوْا مِنْ حَيْثُ اَفَاضَ النَّاسُ |
ज़माना-ए-जाहिलियत में क़ुरैशे मक्का अराफ़ात तक ना जाते थे। उनका कहना था कि हमारी ख़ास हैसियत है, लिहाज़ा हम मिना ही में मुक़ीम रहेंगे, बाहर से आने वाले लोग अराफ़ात जाएँ और वहाँ से तवाफ़ के लिये वापस लौटें, यह सारे मनासिक हमारे लिये नहीं हैं। यहाँ फ़रमाया गया कि यह एक ग़लत बात है जो तुमने इजाद कर ली है। तुम भी वहीं से तवाफ़ के लिये वापिस लौटो जहाँ से दूसरे लोग लौटते हैं, यानि अराफ़ात से।
“और अल्लाह से इस्तग़फ़ार करते रहो।” | وَاسْتَغْفِرُوا اللّٰهَ ۭ |
अपनी अगली तक़सीर (ग़लती) पर नादम (खेद) हो और अल्लाह से अपने गुनाहों की मग़फ़िरत चाहो।
“यक़ीनन अल्लाह बख़्शने वाला रहम फ़रमाने वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ١٩٩ |
आयत 200
“और जब तुम अपने मनासिके हज अदा कर चुको” | فَاِذَا قَضَيْتُمْ مَّنَاسِكَكُمْ |
“तो अब अल्लाह का ज़िक्र करो जैसे कि तुम अपने आबा व अजदाद का ज़िक्र करते रहे हो” | فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَذِكْرِكُمْ اٰبَاۗءَكُمْ |
“बल्कि उससे भी ज़्यादा शद्दोमद के साथ अल्लाह का ज़िक्र करो।” | اَوْ اَشَدَّ ذِكْرًا ۭ |
यानि दसवीं ज़िल हिज्जा को जब अफ़आले हज से फ़रागत पा चुको तो क़यामे मिना के दौरान अल्लाह का ख़ूब ज़िक्र करो जैसे ज़माना-ए-जाहिलियत में अपने आबा व अजदाद का ज़िक्र किया करते थे, बल्कि इससे भी बढ़-चढ़ कर अल्लाह का ज़िक्र करो। उनका क़दीम दस्तूर था कि हज से फ़ारिग़ होकर तीन दिन मिना में क़याम करते और बाज़ार लगाते। वहाँ मेले का सा समाँ होता जहाँ मुख़्तलिफ़ क़बीलों के शायर अपने क़बीलों की मदह सराई (गुणगान) करते थे और अपने अस्लाफ़ की अज़मत बयान करते थे। अल्लाह का ज़िक्र ख़त्म हो चुका था। फ़रमाया कि जिस शद्दोमद के साथ तुम अपने आबा व अजदाद का ज़िक्र करते रहे हो अब उसी अंदाज़ से, बल्कि उससे भी ज़्यादा शद्दोमद के साथ, अल्लाह का ज़िक्र करो।
“लोगों में से वह भी हैं जो यही कहते रहते हैं कि ऐ हमारे रब! हमें दुनिया ही में दे दे, और ऐसे लोगों के लिये आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है।” | فَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّقُوْلُ رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا وَمَا لَهٗ فِي الْاٰخِرَةِ مِنْ خَلَاقٍ ٢٠٠ |
यानि अर्ज़े हरम में पहुँच कर दौराने हज भी उनकी सारी दुआएँ दुनयवी चीजों ही के लिये हैं। चुनाँचे वह माल के लिये, औलाद के लिये, तरक़्क़ी के लिये, दुनयवी ज़रूरियात के लिये और अपनी मुश्किलात के हल के लिये दुआ करते हैं। इसलिये कि उनके दिलों में दुनिया रची-बसी हुई है। जैसे बनी इसराइल के दिलों में बछड़े का तक़द्दुस और उसकी मुहब्बत जागज़ें (inherit) कर दी गई थी उसी तरह हमारे दिलों में दुनिया की मुहब्बत घर कर चुकी है, लिहाज़ा वहाँ जाकर भी दुनिया ही की दुआएँ माँगते हैं। यहाँ वाज़ेह फ़रमा दिया गया कि ऐसे लोगों के लिये फिर आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं है।
आयत 201
“और उनमें से वह भी हैं जो यह कहते हैं” | وَمِنْهُمْ مَّنْ يَّقُوْلُ |
“परवरदिगार! हमें इस दुनिया में भी ख़ैर अता फ़रमा और आख़िरत में भी ख़ैर अता फ़रमा और हमें बचा ले आग के अज़ाब से।” | رَبَّنَآ اٰتِنَا فِي الدُّنْيَا حَسَنَةً وَّفِي الْاٰخِرَةِ حَسَـنَةً وَّقِنَا عَذَابَ النَّارِ ٢٠١ |
यही वह दुआ है जो तवाफ़ के हर चक्कर में रुकने यमानी से हजरे असवद के दरमियान चलते हुए माँगी जाती है। दुनिया का सबसे बड़ा ख़ैर ईमान और हिदायत है। दुनिया का कोई ख़ैर ख़ैर नहीं है जब तक कि उसके साथ हिदायत और ईमान ना हो। चुनाँचे सबसे पहले इंसान हिदायत, ईमान और इस्तक़ामत (दृढ़ता) तलब करे, फिर उसके साथ अल्लाह तआला से दुनिया में कुशादगी (विस्तार) और रिज़्क़ में कशाइश (आसानी) की दुआ भी करे तो यह बात पसंदीदा है।
आयत 202
“उन्हीं लोगों के लिये हिस्सा होगा उसमें से जो उन्होंने कमाया।” | اُولٰۗىِٕكَ لَهُمْ نَصِيْبٌ مِّمَّا كَسَبُوْا ۭ |
यह अल्फ़ाज़ बहुत अहम हैं। महज़ दुआ काफ़ी नहीं हो जायेगी, बल्कि अपना अमल भी ज़रूरी है। यहाँ पर यह जो फ़रमाया कि “उनके लिये हिस्सा है उसमें से जो उन्होंने कमाया” इस पर सवाल पैदा होता है कि उसमें से क्यों? वह तो सारा मिलना चाहिये! लेकिन नहीं, बंदे को अने आमाल पर ग़रह (संतुष्ट) नहीं होना चाहिये, उसे डरते रहना चाहिये कि कहीं किसी मसले में मेरी नीयत में फ़साद ना आ गया हो, मुमकिन है मेरे किसी अमल के अंदर कोई कमी या कोताही हो गई हो। इसलिये यह ना समझ लें कि जो कुछ भी किया गया है उसका अजर लाज़िमन मिलेगा। जो कुछ उन्होंने कमाया है उसमें अगर ख़ुलूस है, रियाकारी नहीं है, उसके तमाम आदाब और शराइत मलहूज़ रखे गये हैं तो उनको उनका हिस्सा मिलेगा।
“और अल्लाह जल्द हिसाब चुकाने वाला है।” | وَاللّٰهُ سَرِيْعُ الْحِسَابِ ٢٠٢ |
अल्लाह तआला को हिसाब चुकाने में देर नहीं लगती, वह बहुत जल्दी हिसाब कर लेगा। अब तो हमारे लिये यह समझ लेना कुछ मुश्किल नहीं रहा, हमारे यहाँ कम्पयूटर्ज़ पर कितनी जल्दी हिसाब हो जाता है, अल्लाह के यहाँ तो पता नहीं कैसा सुपर कम्प्यूटर होगा कि उसे हिसाब निकालने में ज़रा भी देर नहीं लगेगी!
आयत 203
“और ज़िक्र करो अल्लाह का गिनती के चंद दिनों में।” | وَاذْكُرُوا اللّٰهَ فِيْٓ اَ يَّامٍ مَّعْدُوْدٰتٍ ۭ |
इससे मुराद जिल हिज्जा की ग्याहरवीं, बारहवीं और तेरहवीं तारीख़ें हैं जिनमें यौमे नहर के बाद मिना में क़याम किया जाता है। इन तीनों दिनों में कंकरियाँ मारने के वक़्त और हर नमाज़ के बाद तकबीर कहने का हुक्म है। दीग़र अवक़ात में भी इन दिनों में तकबीर और ज़िक्रे इलाही कसरत से करना चाहिये।
“तो जो कोई दो दिन ही में जल्दी से वापस आ जाये तो उस पर कोई गुनाह नहीं।” | فَمَنْ تَعَـجَّلَ فِيْ يَوْمَيْنِ فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۚ |
यानि जो कोई तीन दिन पूरे नहीं करता, बल्कि दो दिन ही में वापसी इख़्तियार कर लेता है तो उस पर कोई गुनाह नहीं है।
“और जो पीछे रहे” | وَمَنْ تَاَخَّرَ |
यानि मिना में ठहरा रहे और तीन दिन की मिक़दार पूरी करे।
“तो उस पर भी कोई गुनाह नहीं, बशर्ते कि वह तक़वा इख़्तियार करे।” | فَلَآ اِثْمَ عَلَيْهِ ۙ لِمَنِ اتَّقٰى ۭ |
असल चीज़ तक़वा है। जो कोई ज़माना-ए-हज में परहेज़गारी की रविश इख़्तियार किये रखे तो उस पर इस बात में कोई गुनाह नहीं कि मिना में दो दिन क़याम करे या तीन दिन। अल्लाह तआला के यहाँ उसका अजर महफ़ूज़ है। अगर किसी शख़्स ने मिना में क़याम तो तीन दिन का किया, लेकिन तीसरे दिन उसने कुछ और ही हरकतें शुरू कर दीं, इसलिये की जी उकताया हुआ है और तबीयत के अंदर ठहराव नहीं है तो वह तीसरा दिन उसके लिये कुछ ख़ास मुफ़ीद साबित नहीं होगा। असल शय जो अल्लाह के यहाँ क़ुबूलियत के लिए शर्ते लाज़िम है, वह तक़वा है। आगे फिर फ़रमाया:
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और ख़ूब जान रखो कि यक़ीनन तुम्हें उसी की जानिब जमा कर दिया जायेगा।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ اِلَيْهِ تُحْشَرُوْنَ ٢٠٣ |
तुम सबके सब हाँक कर उसी की जनाब में ले जाये जाओगे।
आयात 204 से 210 तक
وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يُّعْجِبُكَ قَوْلُهٗ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا وَيُشْهِدُ اللّٰهَ عَلٰي مَا فِيْ قَلْبِهٖ ۙ وَھُوَ اَلَدُّ الْخِصَامِ ٢٠٤ وَاِذَا تَوَلّٰى سَعٰى فِي الْاَرْضِ لِيُفْسِدَ فِيْهَا وَيُهْلِكَ الْحَرْثَ وَالنَّسْلَ ۭ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ ٢٠٥ وَاِذَا قِيْلَ لَهُ اتَّقِ اللّٰهَ اَخَذَتْهُ الْعِزَّةُ بِالْاِثْمِ فَحَسْبُهٗ جَهَنَّمُ ۭ وَلَبِئْسَ الْمِهَادُ ٢٠٦ وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّشْرِيْ نَفْسَهُ ابْـتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ ٢٠٧ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا ادْخُلُوْا فِي السِّلْمِ كَاۗفَّةً ۠وَلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ ۭ اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ ٢٠٨ فَاِنْ زَلَلْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْكُمُ الْبَيِّنٰتُ فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٠٩ ھَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ يَّاْتِيَهُمُ اللّٰهُ فِيْ ظُلَلٍ مِّنَ الْغَمَامِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ وَقُضِيَ الْاَمْرُ ۭ وَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ ٢١٠ۧ
आयत 204
“और लोगों में से कोई शख़्स ऐसा भी है जिसकी बातें तुम्हें बहुत अच्छी लगती हैं दुनिया की ज़िन्दगी में” | وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يُّعْجِبُكَ قَوْلُهٗ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا |
यह मुनाफ़िक़ीन में से एक ख़ास गिरोह का तज़किरा हो रहा है। मुनाफ़िक़ीन में से बाज़ तो ऐसे थे कि उनकी ज़बानों पर भी निफ़ाक़ वाज़ेह तौर पर ज़ाहिर हो जाता था, जबकि मुनाफ़िक़ीन की एक क़िस्म वह थी कि बड़े चापलूस और चर्प ज़बान थे। उनकी गुफ़्तुगू ऐसी होती थी गोया वह तो बड़े ही मुख़्लिस और बड़े ही फ़िदाकार हैं। अपना मौक़फ़ इस अंदाज़ से पेश करते कि यूँ लगता था कि बड़ी ही नेक नियती पर मब्नी है, लेकिन उनका किरदार इन्तहाई घिनौना था। उनकी सारी भाग-दौड़ रसूल अल्लाह ﷺ और इस्लाम की मुख़ालफ़त की राह में होती थी। उनके बारे में फ़रमाया कि बाज़ लोग ऐसे भी हैं कि जिनकी बातें दुनिया की ज़िन्दगी में तुम्हें बहुत अच्छी लगती हैं।
“और वह अल्लाह को भी गवाह ठहराता है अपने दिल की बात पर।” | وَيُشْهِدُ اللّٰهَ عَلٰي مَا فِيْ قَلْبِهٖ ۙ |
उसका अंदाज़े कलाम यह होता है कि मैं जो कुछ कह रहा हूँ अल्लाह जानता है कि ख़ुलूस से कह रहा हूँ, पूरी नेक नियती से कह रहा हूँ। मुनाफ़िक़ की एक ख़ुसूसियत यह भी है कि वह अपने आपको क़ाबिले ऐतबार साबित करने के लिये बात-बात पर क़सम खाता है।
“हालाँकि फ़िल वाक़ेअ वह शदीद तरीन दुश्मन है।” | وَھُوَ اَلَدُّ الْخِصَامِ ٢٠٤ |
आयत 205
“और जब वह पीठ फेर कर जाता है तो ज़मीन में भाग-दौड़ करता है” | وَاِذَا تَوَلّٰى سَعٰى فِي الْاَرْضِ |
“ताकि उसमें फ़साद मचाये और खेती और नस्ल को तबाह करे।” | لِيُفْسِدَ فِيْهَا وَيُهْلِكَ الْحَرْثَ وَالنَّسْلَ ۭ |
यह लोग जब आप ﷺ के पास से हटते हैं तो उनकी सारी भाग-दौड़ इसलिये होती है कि ज़मीन में फ़साद मचायें और लोगों की खेतियाँ और जानें तबाह व बर्बाद करें।”
“और अल्लाह तआला को फ़साद बिल्कुल पसंद नहीं है।” | وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الْفَسَادَ ٢٠٥ |
आयत 206
“और जब उससे कहा जाता है कि अल्लाह से डरो तो झूठी इज़्ज़ते नफ़्स उसको गुनाह पर और जमा देती है।” | وَاِذَا قِيْلَ لَهُ اتَّقِ اللّٰهَ اَخَذَتْهُ الْعِزَّةُ بِالْاِثْمِ |
जब ऐसे शख़्स से कहा जाता है कि तुम अल्लाह का ख़ौफ़ करो, अल्लाह से डरो, तुम बातें ऐसी ख़ूबसूरत करते हो और अमल तुम्हारा इतना घिनौना है, ज़रा सोचो तो सही, तो उसको अपनी झूठी अना और इज़्ज़ते नफ़्स गुनाह पर और जमा देती है। एक शख़्स वह होता है जिससे ख़ता हो गई तो उसने अपनी ग़लती तस्लीम कर ली और अपनी इस्लाह कर ली। जबकि एक शख़्स वह है जिसका तर्ज़े अमल यह होता है कि मैं कैसे मान लूँ कि मेरी ग़लती है? उसकी झूठी अना और झूठी इज़्ज़ते नफ़्स उसे गुनाह से हटने नहीं देती बल्कि मज़ीद आमादा करती है।
“उसके लिये जहन्नम काफ़ी है।” | فَحَسْبُهٗ جَهَنَّمُ ۭ |
“और यक़ीनन वह बुरा ठिकाना है।” | وَلَبِئْسَ الْمِهَادُ ٢٠٦ |
रिवायात में आता है कि मुनाफ़क़ीन मदीना में एक शख़्स अख़नस बिन शरीक़ था, यह उसका किरदार बयान हुआ है। शाने नुज़ूल के ऐतबार से यह बात ठीक है और तावीले ख़ास में इसको भी सामने रखा जायेगा, लेकिन दरहक़ीक़त यह एक किरदार है जो आपको हर जगह मिलेगा। असल में इस किरदार को पहचानना चाहिये और इसके हवाले से अल्लाह तआला से हिदायत तलब करना चाहिये कि इस किरदार से अल्लाह तआला हमें अपने ह़िफ़्ज़ो अमान में रखे।
आयत 207
“और लोगों में एक शख़्स वह है जो बेच देता है अपनी जान को अल्लाह की रज़ा के लिये।” | وَمِنَ النَّاسِ مَنْ يَّشْرِيْ نَفْسَهُ ابْـتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ ۭ |
क़ुरान का यह आम अस्लूब है कि किरदारों का फ़ौरी तक़ाबुल (simultaneo-us contrast) करता है। चुनाँचे एक नपसंदीदा किरदार के ज़िक्र के फ़ौरन बाद पसंदीदा किरदार का ज़िक्र किया गया कि लोगों में से वह भी हैं जो अपने आपको अल्लाह की रज़ाजोई के लिये बेच देते हैं और अपना तन-मन-धन क़ुर्बान करने को हर वक़्त तैयार रहते हैं। {اِنَّ صَلَاتِيْ وَنُسُكِيْ وَمَحْيَايَ وَمَمَاتِيْ لِلّٰهِ رَبِّ الْعٰلَمِيْنَ}
“और अल्लाह अपने ऐसे बंदों के हक़ में बहुत शफ़ीक़ है।” | وَاللّٰهُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ ٢٠٧ |
जिस शख़्स ने अल्लाह की रज़ाजोई के लिये अपना सब कुछ बेच देने का ईरादा कर लिया हो, नीयत कर ली हो, उससे भी कभी कोई कोताही हो सकती है, कभी जज़्बात में आकर कोई ग़लत क़दम उठ सकता है। अपने ऐसे बंदों को अल्लाह तआला बड़ी शफ़्क़त और मेहरबानी के साथ माफ़ फ़रमायेगा।
आयत 208
“ऐ अहले ईमान! इस्लाम में दाख़िल हो जाओ पूरे के पूरे।” | يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا ادْخُلُوْا فِي السِّلْمِ كَاۗفَّةً ۠ |
अहले ईमान से अब वह बात कही जा रही है जिसका माकूस (converse) हम बनी इसराइल से ख़िताब के ज़ेल में (आयत:85 में) पढ़ चुके हैं:
اَفَتُؤْمِنُوْنَ بِبَعْضِ الْكِتٰبِ وَتَكْفُرُوْنَ بِبَعْضٍ ۚ فَمَا جَزَاۗءُ مَنْ يَّفْعَلُ ذٰلِكَ مِنْكُمْ اِلَّا خِزْيٌ فِي الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ وَيَوْمَ الْقِيٰمَةِ يُرَدُّوْنَ اِلٰٓى اَشَدِّ الْعَذَابِ
“क्या तुम हमारी किताब (और दीन व शरीअत) के एक हिस्से को मानते हो और एक को रद्द कर देते हो? सो जो कोई भी तुममें से यह रविश इख़्तियार करें उनकी कोई सज़ा इसके सिवा नहीं है कि दुनिया में ज़िल्लत व ख्वारी उन पर मुसल्लत कर दी जाये और क़यामत के दिन उनको शदीद तरीन अज़ाब में झोंक दिया जाये।”
अब मुसबत पैराए (सकारात्मक अंदाज़) में मुसलमानों से कहा जा रहा है कि अल्लाह की इताअत में पूरे के पूरे दाख़िल हो जाओ- तहफ्फ़ुज़ात (reservati-ons) और इस्तसनात (exceptions) के साथ नहीं। यह तर्ज़े अमल ना हो कि अल्लाह की बंदगी तो करनी है, मगर फ़लाँ मामले में नहीं। अल्लाह का हुक्म को मानना है लेकिन यह हुक्म मैं नहीं मान सकता। अल्लाह के अहकाम में से किसी एक की नफ़ी से कुल की नफ़ी हो जायेगी। अल्लाह तआला जुज़्वी इताअत क़ुबूल नहीं करता।
“और शैतान के नक़्शे क़दम की पैरवी ना करो।” | وَلَا تَتَّبِعُوْا خُطُوٰتِ الشَّيْطٰنِ ۭ |
“वह यक़ीनन तुम्हारा बड़ा खुला दुश्मन है।” | اِنَّهٗ لَكُمْ عَدُوٌّ مُّبِيْنٌ ٢٠٨ |
आयत 209
“फिर अगर तुम फ़िसल गये इसके बाद भी कि तुम्हारे पास यह वाज़ेह तालीमात आ चुकी हैं।” | فَاِنْ زَلَلْتُمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْكُمُ الْبَيِّنٰتُ |
“तो जान लो कि अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | فَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٠٩ |
इसमें तहदीद (हद) और धमकी का पहलू है कि फिर अल्लाह की पकड़ भी बहुत सख़्त होगी। और फिर यह कि वह हकीम भी है, उसकी पकड़ में भी हिकमत है, अगर उसकी तरफ़ से पकड़ का मामला ना हो तो फिर दीन का पूरा निज़ाम बे मायने होकर रह जाता है। अगर अल्लाह की तरफ़ से किसी गुनाह पर पकड़ ही नहीं है तो फिर आज़माइश क्या हुई? फिर जज़ा व सज़ा और जन्नत व दोज़ख़ का मामला क्या हुआ?
आयत 210
“क्या यह इसी का इन्तेज़ार कर रह हैं कि आ जाये इन पर अल्लाह तआला बादलों के सायबानों में और फ़रिश्ते और फ़ैसला चुका दिया जाये?” | ھَلْ يَنْظُرُوْنَ اِلَّآ اَنْ يَّاْتِيَهُمُ اللّٰهُ فِيْ ظُلَلٍ مِّنَ الْغَمَامِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ وَقُضِيَ الْاَمْرُ ۭ |
यानि जो लोग अल्लाह तआला की तरफ़ से वाज़ेह अहकामात और तम्बिहात आ जाने के बाद भी कजरवी से बाज़ नहीं आते तो क्या वह इस बात के मुन्तज़िर हैं कि अल्लाह तआला उनको अपना जलाल दिखाये और फ़रिश्तों की अफ़वाजे क़ाहरा के साथ ज़ाहिर होकर उनका हिसाब चुका दे?
इंसान का नफ़्स उसे एक तो यह पट्टी पढ़ाता है कि दीन के इस हिस्से पर तो आराम से अमल करते रहो जो आसान है, बाक़ी फिर देखा जायेगा। गोया “मीठा-मीठा हप और कड़वा कड़वा थू।” दूसरी पट्टी यह पढ़ाता है कि ठीक है यह भी अल्लाह का हुक्म है और दीन का भी तक़ाज़ा है, लेकिन अभी ज़रा ज़िम्मेदारियों से फ़ारिग़ हो जायें, अभी ज़रा बच्चों के मामलात हैं, बच्चे बरसरे रोज़गार हो जायें, बच्चियों के हाथ पीले हो जायें, मैं रिटायरमेंट ले लूँ, और अपना मकान बना लूँ, फिर मैं अपने आपको दीन के लिये ख़ालिस कर लूँगा। यह नफ़्स का सबसे बड़ा धोखा है। इस तरह वक़्त गुज़रते-गुज़रते इंसान मौत की वादी में चला जाता है। क्या मालूम मौत की घड़ी कब आ जाये! यह मोहलते उम्र तो अचानक ख़त्म हो सकती है। पूरी दुनिया की क़यामत भी जब आयेगी अचानक ही आयेगी और हर शख़्स की ज़ाति क़यामत तो उसके सर पर तलवार की तरह लटकी हुई है। अज़रुए हदीसे नबवी ﷺ:
(25)((مَنْ مَّاتَ فَقَدْ قَامَتْ قِیَامَتُہٗ))
“जो मर गया तो उसकी क़यामत तो आ गई!”
तो क्या तुम्हारे पास कोई गारंटी है कि यह सारे काम कर लोगे और यह सारे काम कर चुकने के बाद ज़िन्दा रहोगे और तुम्हारे जिस्म में तवानाई (ताक़त) की कोई रमक़ (कण) भी बाक़ी रह जायेगी कि दीन का कोई काम कर सको? तो फिर तुम किस चीज़ का इन्तेज़ार कर रह हो? हो सकता है अचानक अल्लाह की तरफ़ से मोहलत ख़त्म हो जाये।
“और यक़ीनन तमाम मामलात अल्लाह ही की तरफ़ लौटा दिये जाएँगे।” | وَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ ٢١٠ۧ |
आयात 211 से 216 तक
سَلْ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِ يْلَ كَمْ اٰتَيْنٰھُمْ مِّنْ اٰيَةٍۢ بَيِّنَةٍ ۭ وَمَنْ يُّبَدِّلْ نِعْمَةَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْهُ فَاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ ٢١١ زُيِّنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا وَيَسْخَرُوْنَ مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۘ وَالَّذِيْنَ اتَّقَوْا فَوْقَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ وَاللّٰهُ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ ٢١٢ كَانَ النَّاسُ اُمَّةً وَّاحِدَةً ۣ فَبَعَثَ اللّٰهُ النَّبِيّٖنَ مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ ۠ وَاَنْزَلَ مَعَهُمُ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِيَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ فِـيْمَا اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۭ وَمَا اخْتَلَفَ فِيْهِ اِلَّا الَّذِيْنَ اُوْتُوْهُ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ بَغْيًۢـا بَيْنَهُمْ ۚفَهَدَى اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لِمَا اخْتَلَفُوْا فِيْهِ مِنَ الْحَقِّ بِاِذْنِهٖ ۭ وَاللّٰهُ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ ٢١٣ اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ وَلَمَّا يَاْتِكُمْ مَّثَلُ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ ۭ مَسَّتْهُمُ الْبَاْسَاۗءُ وَالضَّرَّاۗءُ وَزُلْزِلُوْا حَتّٰى يَقُوْلَ الرَّسُوْلُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ مَتٰى نَصْرُ اللّٰهِ ۭ اَلَآ اِنَّ نَصْرَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ ٢١٤ يَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ڛ قُلْ مَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ خَيْرٍ فَلِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَابْنِ السَّبِيْلِ ۭ وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ ٢١٥ كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ وَھُوَ كُرْهٌ لَّكُمْ ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَھُوْا شَـيْـــًٔـا وَّھُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تُحِبُّوْا شَـيْـــــًٔـا وَّھُوَ شَرٌّ لَّكُمْ ۭ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ ٢١٦ۧ
आयत 211
“पूछ लो बनी इस्राईल से,हमने उन्हें कितनी रौशन निशानियाँ दीं। | سَلْ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِ يْلَ كَمْ اٰتَيْنٰھُمْ مِّنْ اٰيَةٍۢ بَيِّنَةٍ ۭ |
यानि ऐ मुसलमानों! देखो कहीं तुम भी उन्हीं के रास्ते पर ना चलना। जैसा कि रसूल अल्लाह ﷺ ने आगाह फ़रमाया था:
((لَتَتَّبِعُنَّ سَنَنَ مَنْ قَبْلَکُمْ شِبْرًا بِشِبْرٍ وَذِرَاعًا بِذِرَاعٍ حَتّٰی لَوْ سَلَکُوْا جُحْرَ ضَبٍّ لَسَلَکْتُمُوْہُ ، قُلْنَا: یَا رَسُوْلَ اللہِ الْیَھُوْدَ وَ النَّصَارٰی؟ قَالَ : فَمَنْ؟))(26)
“तुम लाज़िमन अपने से पहलों के तौर-तरीक़ों की पैरवी करोगे, बालिश्त के मुक़ाबले में बालिश्त और हाथ के मुक़ाबले में हाथ। यहाँ तक कि अगर वह गोह के बिल में घुसे होंगे तो तुम भी घुस कर रहोगे।” हमने अर्ज़ किया: ऐ अल्लाह के रसूल ﷺ! यहूद व नसारा की? आप ﷺ ने फरमाया: “तो और किसकी?”
“और जो कोई बदल डाले अल्लाह की नेअमत को, बाद इसके कि वह उसके पास आ गई हो तो (वो जान ले कि) अल्लाह सज़ा देने में भी सख़्त है।” | وَمَنْ يُّبَدِّلْ نِعْمَةَ اللّٰهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْهُ فَاِنَّ اللّٰهَ شَدِيْدُ الْعِقَابِ ٢١١ |
जो कोई अल्लाह की नेअमत को पाने के बाद उसमें तब्दीली करता है, या उसमें तहरीफ़ करता है या ख़ुद ग़लत रविश इख़्तियार करता है तो उसको जान लेना चाहिये कि अल्लाह तआला इस तर्ज़े अमल पर बहुत सख़्त सज़ा देता है। बनी इसराइल ही की मिसाल हमारे सामने मौजूद है कि क़ुरान हकीम (सूरतुल बक़रह, आयत:47) में उनसे दो मर्तबा फ़रमाया गया: { يٰبَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ اذْكُرُوْا نِعْمَتِىَ الَّتِىْٓ اَنْعَمْتُ عَلَيْكُمْ وَاَنِّىْ فَضَّلْتُكُمْ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ 47} “ऐ बनी इसराइल! याद करो मेरे उस ईनाम को जो मैंने तुम पर किया और यह कि मैंने तुम्हें फ़ज़ीलत अता की तमाम अहले आलम पर।” लेकिन फिर उन्हीं के बारे में फ़रमाया गया:{ وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ ۤ وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ } (आयत:67) “उन पर ज़िल्लत व ख़्वारी और मोहताजी व कम हिम्मती थोप दी गई और वह अल्लाह का गज़ब लेकर लौटे।” और यह मज़मून भी सूरह आले इमरान में दोबारा आयेगा।
आयत 212
“इन काफ़िरों के लिये दुनिया की ज़िन्दगी बड़ी मुज़य्यन कर दी गई है” | زُيِّنَ لِلَّذِيْنَ كَفَرُوا الْحَيٰوةُ الدُّنْيَا |
यहाँ की चमक-दमक और शानो-शौकत उनके लिये बड़ी महबूब व दिल पसंद बना दी गई है। वैसे तो नये मॉडल की लम्बी-लम्बी चमकीली कारें, ऊँची-ऊँची इमारतें और वसीअ व अरीज़ (लम्बी-चौड़ी) कोठियाँ किसको अच्छी नहीं लगतीं, लेकिन कुफ़्फ़ार के दिलों में माल व असबाबे दुनवयी की मुहब्बत इतनी घर कर जाती है कि फिर कोई अच्छी बात उनकी ज़िन्दगी में नहीं रहती, और ना ही कोई अच्छी बात उनके ऊपर असर करती है। अहले ईमान को भी अगर ईमान के साथ यह नेअमतें मिलें तो यह मुस्तहसिन हैं। अज़रुए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: { قُلْ مَنْ حَرَّمَ زِيْنَةَ اللّٰهِ الَّتِيْٓ اَخْرَجَ لِعِبَادِهٖ وَالطَّيِّبٰتِ مِنَ الرِّزْقِ ۭ} (अल् आराफ़:32) “(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कहिये, किसने अल्लाह की उस ज़ीनत को हराम कर दिया जिसे अल्लाह ने अपने बंदों के लिये निकाला था और खाने-पीने की पाकीज़ा चीज़ें?” अच्छा खाना, अच्छा पीना, अच्छा पहनना हराम नहीं है। अल्लाह ने इसको लोगों के लिए ममनूअ नहीं किया। एक मुसलमान दीन के तक़ाज़े अदा करके, अल्लाह का हक़ अदा करके और हलाल से कमा कर इन चीज़ों को हासिल तो कोई हर्ज नहीं। लेकिन इसके साथ वह हदीस भी ज़हन में ले आयें: (اَلدُّنْیَا سِجْنُ الْمُؤمِنِ وَ جَنَّۃُ الْکَافِرِ)(27) “दुनिया मोमिन के लिये एक क़ैदख़ाना और काफ़िर के लिये बाग है।”
“और वह मज़ाक़ उड़ाते हैं अहले ईमान का।” | وَيَسْخَرُوْنَ مِنَ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۘ |
ऐसे लोग ईमान की राह इख़्तियार करने वालों का मज़ाक़ उड़ाते हैं कि ज़रा इन पागलों को, इन बेवक़ूफ़ों को, इन fanatics को देखो, जिन्हें अपने नफ़ा व नुक़सान का कोई होश नहीं।
“और जिन लोगों ने तक़वा की रविश इख़्तियार की थी क़यामात के दिन वह उनके ऊपर होंगे।” | وَالَّذِيْنَ اتَّقَوْا فَوْقَهُمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ ۭ |
वह इन काफ़िरों के मुक़ाबले आली मरतबत और आली मक़ाम होंगे, बल्कि सूरतुल मुतफ्फ़िफ़ीन में तो यहाँ तक आया है कि जन्नत में जाने के बाद अहले ईमान कुफ़्फ़ार का मज़ाक़ उड़ाएँगे।
“और अल्लाह तआला रिज़्क़ अता फ़रमायेगा जिसको चाहेगा बेहिसाब।” | وَاللّٰهُ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ ٢١٢ |
यह जन्नत की तरफ़ इशारा है। अब फिर एक तवील आयत आ रही है जिसमें एक अहम मज़मून बयान हो रहा है। मैंने अर्ज़ किया था कि सूरतुल बक़रह में जा-बजा इल्म व हिकमत और मार्फ़ते इलाही के बड़े हसीन और ख़ुशनुमा फूल आये हैं जो इस बन्ती में बुन दिये गये हैं। दो लड़ियाँ शरीअत की हैं, यानि इबादात और मामलात, जबकि दो लड़ियाँ जिहाद की, यानि जिहाद बिल् माल (इन्फ़ाक़) और जिहाद बिल् नफ़्स (क़िताल), और इनके दरमियान यह अज़ीम फूल आ जाते हैं। इस आयत को मैंने “आयतुल इख्तलाफ़” का उन्वान दिया है। इसमें बयान किया गया है कि लोगों के दरमियान इख़्तलाफ़ क्यों होता रहा है, और यह बहुत अहम मज़मून है। इलसिये कि दुनिया में वहदते अदयान (सर्व धर्म एकता) का जो फ़लसफ़ा कुछ लोगों की तरफ़ से पेश होता है उसका एक हिस्सा सही है और हिस्सा ग़लत है। सही कौनसा है और ग़लत कौनसा है, वह इस आयत से मालूम होगा।
आयत 213
“तमाम इंसान एक ही उम्मत थे।” | كَانَ النَّاسُ اُمَّةً وَّاحِدَةً ۣ |
इसमें कोई शक नहीं कि इब्तदा में सबके सब इंसान एक ही उम्मत थे। तमाम इंसान हज़रत आदम अलै० की नस्ल से हैं और हज़रत आदम अलै० नबी हैं। चुनाँचे उम्मत तो एक ही थी। जब तक उनमें गुमराही पैदा नहीं हुई, इख़्तलाफ़ात पैदा नहीं हुए, शैतान ने कुछ लोगों को नहीं वरग़लाया, उस वक़्त तक तो तमाम इंसान एक ही उम्मत थे। अब यहाँ पर एक लफ़्ज़ महज़ूफ़ है: “ثُمَّ اخْتَلَفُوْا” (फिर उनमें इख़्तलाफ़ात हुए)। इख़्तलाफ़ के नतीजे में फ़साद पैदा हुआ और कुछ लोगों ने गुमराही की रविश इख़्तियार कर ली। आदम अलै० का एक बेटा अगर हाबील था तो दूसरा क़ाबील भी था।
“तो अल्लाह ने (अपने) नबी भेजे जो ख़ुश ख़बरी सुनाते और ख़बरदार करते हुए आये।” | فَبَعَثَ اللّٰهُ النَّبِيّٖنَ مُبَشِّرِيْنَ وَمُنْذِرِيْنَ ۠ |
अल्लाह तआला ने अम्बिया किराम अलै० का सिलसिला जारी फ़रमाया जो नेकूकारों को बशारत देते और ग़लतकारों को ख़बरदार करते थे।
“और उनके साथ (अपनी) किताब नाज़िल फ़रमाई हक़ के साथ, ताकि वह फ़ैसला कर दें लोगों के माबैन उन उमूर में जिनमें उन्होंने इख़्तलाफ़ किया था।” | وَاَنْزَلَ مَعَهُمُ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ لِيَحْكُمَ بَيْنَ النَّاسِ فِـيْمَا اخْتَلَفُوْا فِيْهِ ۭ |
“और किताब में इख़्तलाफ़ नहीं किया मगर उन्हीं लोगों ने जिन्हें यह दी गई थी, इसके बाद कि उनके पास रोशन हिदायात आ चुकी थीं, महज़ बाहमी ज़िद्दम-ज़िद्दा के सबब से।” | وَمَا اخْتَلَفَ فِيْهِ اِلَّا الَّذِيْنَ اُوْتُوْهُ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْهُمُ الْبَيِّنٰتُ بَغْيًۢـا بَيْنَهُمْ ۚ |
“بَغْيًا” का लफ़्ज़ क़ब्ल अज़ आयत 90 में आ चुका है। वहाँ मैंने वज़ाहत की थी कि दीन में इख़्तलाफ़ का असल सबब यही ज़िद्दम-ज़़िद्दा वाला रवैया होता है। इंसान में ग़ालिब (प्रमुख) होने की जो तलब और उमंग (The urge to dominate) मौजूद है वह हक़ को क़ुबूल करने में मुज़ाहिम (प्रतिरोधी) हो जाती है। दूसरे की बात मानना नफ़्से इंसानी पर बहुत गिरां गुज़रता है। आदमी कहता मैं इसकी बात क्यों मानूँ, यह मेरी क्यों ना माने? इंसान के अंदर जहाँ अच्छे मैलानात रखे गये हैं वहाँ बुरी उमंगें और मैलानात भी रखे गए हैं। चुनाँचे इंसान के बातिन में हक़ व बातिल की एक कशाकश चलती है। इस तरह की कशाकश ख़ारिज में भी चलती है। तो फ़रमाया कि जब इंसानों में इख़्तलाफ़ात रुनमा (उत्पन्न) हुए तो अल्लाह तआला ने अपने नबियों को भेजा जो मुबश्शिर और मुन्ज़िर बन कर आये।
“पस अल्लाह ने हिदायत बख़्शी उन लोगों को जो ईमान लाये उस हक़ के मामले में जिसमें लोगों ने इख़्तलाफ़ किया था, अपने हुक्म से।” | فَهَدَى اللّٰهُ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لِمَا اخْتَلَفُوْا فِيْهِ مِنَ الْحَقِّ بِاِذْنِهٖ ۭ |
“और अल्लाह हिदायत देता है जिसको चाहता है सीधे रास्ते की तरफ़।” | وَاللّٰهُ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ ٢١٣ |
सिलसिला-ए-अम्बिया व रुसुल के आख़िर में अल्लाह तआला ने नबी आख़िरुज़्ज़मान ﷺ पर क़ुरान हकीम नाज़िल फ़रमा कर, अपनी तौफ़ीक़ से, इस नज़ाअ व इख़्तलाफ़ में हक़ की राह अहले ईमान पर खोली है। और अल्लाह ही है जो अपनी माशियत और हिकमत के तक़ाज़ों के मुताबिक़ जिसको चाहता है राहे रास्त दिखा देता है।
अब बड़ी सख़्त आयत आ रही है, जो बड़ी लरज़ा देने वाली आयत है। सहाबा किराम रज़ि० में से एक बड़ी तादाद मुहाजरीन की थी जो मक्के की सख़्तियाँ झेल कर आये थे। उनके लिये तो अब जो भी मराहिल आइंदा आने वाले थे वह भी कोई ऐसे मुश्किल नहीं थे। लेकिन जो हज़रात मदीना मुनव्वरा में ईमान लाये थे, यानि अंसार, उनके लिये तो यह नई-नई बात थी। इसलिये कि उन्होंने तो वह सख़्तियाँ नहीं झेली थीं जो मक्के में मुहाजरीन ने झेली थीं। तो अब रुए सुख़न ख़ासतौर पर उनसे है, अग़रचे ख़िताब आम है। क़ुरान मजीद में यह असलूब आमतौर पर मिलता है कि अल्फ़ाज़ आम हैं, लेकिन रुए सुख़न किसी ख़ास तबक़े की तरफ़ है। तो दरहक़ीक़त यहाँ अंसार को बताया जा रहा है कि मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ पर ईमान लाना फूलों की सेज नहीं है।
आयत 214
“क्या तुमने यह समझ रखा है कि यूँ ही जन्नत में दाख़िल हो जाओगे” | اَمْ حَسِبْتُمْ اَنْ تَدْخُلُوا الْجَنَّةَ |
“हालाँकि अभी तक तुम्हारे ऊपर वह हालात व वाक़्यात वारिद नहीं हुए जो तुमसे पहलों पर हुए थे।” | وَلَمَّا يَاْتِكُمْ مَّثَلُ الَّذِيْنَ خَلَوْا مِنْ قَبْلِكُمْ ۭ |
“पहुँची उनको सख़्ती भूख की और तकलीफ़ और वह हिला मारे गये” | مَسَّتْهُمُ الْبَاْسَاۗءُ وَالضَّرَّاۗءُ وَزُلْزِلُوْا |
“यहाँ तक कि (वक़्त का) रसूल और उसके साथी अहले ईमान पुकार उठे कि कब आयेगी अल्लाह की मदद?” | حَتّٰى يَقُوْلَ الرَّسُوْلُ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ مَتٰى نَصْرُ اللّٰهِ ۭ |
“(अब उन्हें यह ख़ुशख़बरी दी गई कि) आगाह हो जाओ, यक़ीनन अल्लाह की मदद क़रीब है।” | اَلَآ اِنَّ نَصْرَ اللّٰهِ قَرِيْبٌ ٢١٤ |
यानि अल्लाह तो अहले ईमान को आज़माता है, उसे खोटे और खरे को अलग करना है। यह वही बात है जो इससे पहले उन्नीसवें रुकूअ के बिल्कुल आग़ाज़ में आ चुकी है: {وَلَنَبْلُوَنَّكُمْ بِشَيْءٍ مِّنَ الْخَوْفِ وَالْجُوْعِ وَنَقْصٍ مِّنَ الْاَمْوَالِ وَالْاَنْفُسِ وَالثَّمَرٰتِ ۭ } (आयत:155) “और हम तुम्हें लाज़िमन आज़माएँगे किसी क़दर ख़ौफ़ और भूख से और माल व जान और समारात के नुक़सान से।” यह कोई फूलों भरा रास्ता नहीं है, फूलों की सेज नहीं है, हक़ का रास्ता काँटो भरा रास्ता है, इसके लिये ज़हनन तैयार हो जाओ।
दर रहे मंज़िले लैय्ला कि ख़तरहास्त बसे
शर्ते अव्वल क़दम ऐन अस्त कि मजनून बाशी!
और:
यह शहादत गह उल्फ़त में क़दम रखना है
लोग आसान समझते हैं मुसलमाँ होना!
इस रास्ते में अल्लाह की मदद ज़रूर आती है, लेकिन आज़माइशों और क़ुर्बानियों के बाद। चुनाँचे सहाबा किराम रज़ि० को फिर सूरह अस्सफ़ में फ़तह व नुसरत की ख़ुशख़बरी सुनाई गई, जबकि ग़ज़वा-ए-अहज़ाब वाक़ेअ हो चुका था और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और आप ﷺ के साथी अहले ईमान रज़ि० शदीद तरीन इम्तिहान से कामयाबी के साथ गुज़र चुके थे। तब उन्हें बाअल्फ़ाज़ ख़ुशख़बरी दी गई: { وَّاُخْرٰى تُحِبُّوْنَهَا ۭ نَصْرٌ مِّنَ اللّٰهِ وَفَتْحٌ قَرِيْبٌ ۭ } (आयत:13) “और जो दूसरी चीज़ तुम्हें पसंद है (वह भी तुम्हें मिलेगी), अल्लाह की तरफ़ से नुसरत और क़रीब ही में हासिल हो जाने वाली फ़तह।” { وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ 13} “और (ऐ नबी ﷺ!) अहले ईमान को बशारत दे दीजिये!” अपने अहले ईमान साथियों को बशारत दे दीजिये कि अब वह वक़्त आ गया है कि अल्लाह के नुसरत के दरवाज़े खुलते चले जाएँगे।
आयत 215
“ये आप ﷺ से पूछते हैं कि क्या ख़र्च करें?” | يَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ڛ |
यानि इन्फ़ाक़ के लिये जो कहा जा रहा है तो हम क्या ख़र्च करें? कितना ख़र्च करें? इंसान भलाई के लिये जो भी ख़र्च करे तो उसमें सबसे पहला हक़ किन का है?
“कह दीजिये जो भी तुम ख़र्च करो माल व असबाब में से” | قُلْ مَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ خَيْرٍ |
“तो वालिदैन, रिश्तेदारों, यतीमों, मिस्कीनों और मुसाफ़िरों के लिये (ख़र्च करो)।” | فَلِلْوَالِدَيْنِ وَالْاَقْرَبِيْنَ وَالْيَتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنِ وَابْنِ السَّبِيْلِ ۭ |
सबसे पहला हक़ वालिदैन का है, इसके बाद दर्जा-ब-दर्जा क़राबतदारों, यतीमों, मिस्कीनों और मुसाफ़िरों का हक़ है।
“और जो ख़ैर भी तुम कमाओगे अल्लाह उससे अच्छी तरह बाख़बर है।” | وَمَا تَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ ٢١٥ |
तुम जो भी अच्छा काम करोगे तो जान लो कि वह अल्लाह के इल्म में है। ज़रुरत नहीं है कि दुनिया उससे वाक़िफ़ हो, तुम्हें अगर अल्लाह से अजर लेना है तो वह तो रात के अँधेरे में भी देख रहा है। अगर तुम्हारे दायें हाथ ने दिया है और बायें को पता नहीं चला तो अल्लाह को तो फिर भी पता चल गया। तो तुम ख़ातिर जमा रखो, तुम्हारी हर नेकी अल्लाह के इल्म में है और वह उसे ज़ाया नहीं करेगा।
अब अगली आयत में क़िताल के मज़मून का तसलसुल है। मैंने सूरतुल बक़रह के निस्फ़े आख़िर के मज़ामीन को चार मुख़्तलिफ़ रंगों की लड़ियों से तश्बीह दी थी, जिनको बाहम बट लिया जाये तो चारो रंग कटे-फटे नज़र आते हैं और अगर इन्हें खोल दिया जाये तो हर रंग मुसलसल नज़र आता है।
आयत 216
“(मुसलमानों!) अब तुम पर जंग फ़र्ज़ कर दी गई है और वह तुम्हें गिराँ गुज़र रही है।” | كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ وَھُوَ كُرْهٌ لَّكُمْ ۚ |
वाज़ेह रहे कि सूरतुल बक़रह से पहले सूरह मुहम्मद ﷺ नाज़िल हो चुकी थी और उसमें क़िताल की फ़र्ज़ियत आ चुकी थी। (चुनाँचे उसका एक नाम सूरतुल क़िताल भी है) लिहाज़ा इस हवाले से कुछ लोग परेशान हो रहे थे। ख़ासतौर पर मुनाफ़िक़ीन यह कहते थे कि भाई सुलह जोई से काम लो, बस दावत व तब्लीग़ के ज़रिये से लोगों को सीधे रास्ते की तरफ़ लाओ, यह जंग व जिदाल और लड़ाई-भिड़ाई तो कोई अच्छा काम नहीं है, इसमें तो बहुत ख़राबी हैं। इनके अलावा ऐसे मुसलमान जिनका ईमान क़द्रे कमज़ोर था, अग़रचे वह मुनाफ़िक़ तो नहीं थे, लेकिन उनका ईमान अभी पुख़्ता नहीं था, अभी ताज़ा-ताज़ा ईमान लाये थे और तरबियत के मराहिल से अभी नहीं गुज़रे थे, उनमें से भी बाज़ लोगों के दिलों में इन्क़बाज़ (दबाव) पैदा हो रहा था। यहाँ क़िताल की फ़र्ज़ियत के लिये “كُتِبَ” का लफ़्ज़ आया है। इससे पहले यह लफ़्ज़ रोज़े, क़िसास और वसीयत के ज़िमन में आ चुका है।
ﯜكُتِبَ عَلَيْكُمُ الصِّيَامُ…. كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِصَاصُ فِي الْقَتْلٰي ۭ…. كُتِبَ عَلَيْكُمْ اِذَا حَضَرَ اَحَدَكُمُ الْمَوْتُ اِنْ تَرَكَ خَيْرَۨا ښ الْوَصِيَّةُ….ﯛ
फ़रमाया कि तुम पर जंग फ़र्ज़ कर दी गई है और वह तुम्हें बुरी लग रही है।
“और हो सकता है कि तुम किसी शय को नापंसद करो और वह तुम्हारे लिये बेहतर हो।” | وَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَھُوْا شَـيْـــًٔـا وَّھُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ |
“और हो सकता है कि तुम किसी चीज़ को पसंद करो दर हालाँकि वह तुम्हारे लिये बुरी हो।” | وَعَسٰٓى اَنْ تُحِبُّوْا شَـيْـــــًٔـا وَّھُوَ شَرٌّ لَّكُمْ ۭ |
“और अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।” | وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ ٢١٦ۧ |
तुम अपनी अक़्ल पर ईमान ना रखो, अल्लाह की वही पर ईमान रखो, अल्लाह के रसूल ﷺ पर ईमान रखो। जिस वक़्त के लिये जो हुक्म मौज़ूं (मुनासिब) था वही तुम्हें अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की तरफ़ से दिया गया। चौदह बरस तक तुम्हें क़िताल से मना किया गया। उस वक़्त तुम्हारे लिये हुक्म था: “کُفُّوْا اَیْدِیَکُمْ” (अपने हाथ रोके रखो) अब तुम पर क़िताल फ़र्ज़ किया जा रहा है, लिहाज़ा अब इस हुक्म पर सरे तस्लीम ख़म करना तुम्हारे लिये लाज़िम है।
आयात 217 से 221 तक
يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الشَّهْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيْهِ ۭ قُلْ قِتَالٌ فِيْهِ كَبِيْرٌ ۭ وَصَدٌّ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَكُفْرٌۢ بِهٖ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۤ وَ اِخْرَاجُ اَھْلِهٖ مِنْهُ اَكْبَرُ عِنْدَ اللّٰهِ ۚ وَالْفِتْنَةُ اَكْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ ۭ وَلَا يَزَالُوْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ حَتّٰى يَرُدُّوْكُمْ عَنْ دِيْنِكُمْ اِنِ اسْتَطَاعُوْا ۭ وَمَنْ يَّرْتَدِدْ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ فَيَمُتْ وَھُوَ كَافِرٌ فَاُولٰۗىِٕكَ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ ٢١٧ اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ھَاجَرُوْا وَجٰهَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۙ اُولٰۗىِٕكَ يَرْجُوْنَ رَحْمَتَ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ٢١٨ يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْخَــمْرِ وَالْمَيْسِرِ ۭ قُلْ فِيْهِمَآ اِثْمٌ كَبِيْرٌ وَّمَنَافِعُ لِلنَّاسِ ۡ وَاِثْـمُهُمَآ اَكْبَرُ مِنْ نَّفْعِهِمَا ۭ وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ڛ قُلِ الْعَفْوَ ۭ كَذٰلِكَ يُـبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ ٢١٩ۙ فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۭ وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْيَتٰمٰي ۭ قُلْ اِصْلَاحٌ لَّھُمْ خَيْرٌ ۭوَاِنْ تُخَالِطُوْھُمْ فَاِخْوَانُكُمْ ۭ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ الْمُفْسِدَ مِنَ الْمُصْلِحِ ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَاَعْنَتَكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٢٠ وَلَا تَنْكِحُوا الْمُشْرِكٰتِ حَتّٰى يُؤْمِنَّ ۭوَلَاَمَةٌ مُّؤْمِنَةٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكَةٍ وَّلَوْ اَعْجَبَـتْكُمْ ۚ وَلَا تُنْكِحُوا الْمُشْرِكِيْنَ حَتّٰى يُؤْمِنُوْا ۭ وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكٍ وَّلَوْ اَعْجَبَكُمْ ۭ اُولٰۗىِٕكَ يَدْعُوْنَ اِلَى النَّارِ ښ وَاللّٰهُ يَدْعُوْٓا اِلَى الْجَنَّةِ وَالْمَغْفِرَةِ بِاِذْنِهٖ ۚ وَيُبَيِّنُ اٰيٰتِهٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَــتَذَكَّرُوْنَ ٢٢١ۧ
आयत 217
“(ऐ नबी ﷺ!) ये आपसे पूछते हैं हुरमत वाले महीनों में जंग के बारे में।” | يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الشَّهْرِ الْحَرَامِ قِتَالٍ فِيْهِ ۭ |
क़िताल का हुक्म आने के बाद अब वह पूछते थे कि ये जो हुरमत वाले महीने हैं उनमें जंग करना कैसा है? इसलिये कि सीरत में यह वाक़्या आता है कि हिजरत के बाद रसूल अल्लाह ﷺ ने हज़रत अब्दुल्ला बिन जहश रज़ि० को चंद अफ़राद के दस्ते का कमांडर बना कर हिदायत फ़रमाई थी कि मक्का और ताईफ़ के दरमियान जाकर वादिये नख़ला में क़याम करें और क़ुरैश की नक़ल व हरकत पर नज़र रखें। वादिये नख़ला में क़याम के दौरान वहाँ क़ुरैश के एक मुख़्तसर से क़ाफ़िले के साथ मुठभेड़ हो गई और मुसलमानों के हाथों एक मुशरिक उमर बिन अब्दुल्लाह अल् हज़रमी मारा गया। उस रोज़ रज्जब की आख़री तारीख़ थी और रज्जब का महीना अशहरे हुरुम में से है। यह हिजरत के बाद पहला ख़ून था जो मुसलमानों के हाथों हुआ। इस पर मुशरिकीन ने बहुत वावैला किया कि इन लोगों का क्या हाल है, बने फिरते हैं अल्लाह वाले, रसूल वाले, दीन वाले, आख़िरत वाले और इन्होंने हुरमत वाले महीने को बट्टा लगा दिया, इसमें जंग की। तो यह दरअसल अल्लाह तआला अपने उन मोमिन बंदों की तरफ़ से गोया ख़ुद सफ़ाई पेश कर रहे हैं। फ़रमाया कि यह आपसे पूछते हैं कि हुरमत वाले महीनों में क़िताल का क्या हुक्म है?
“कह दीजिये कि इसमें जंग करना बहुत बड़ी (गुनाह की) बात है।” | قُلْ قِتَالٌ فِيْهِ كَبِيْرٌ ۭ |
“लेकिन अल्लाह के रास्ते से रोकना, उसका कुफ़्र करना, मस्जिदे हराम से रोकना और हरम के रहने वालों को वहाँ से निकालना अल्लाह के नज़दीक इससे कहीं बड़ा गुनाह है।” | وَصَدٌّ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَكُفْرٌۢ بِهٖ وَالْمَسْجِدِ الْحَرَامِ ۤ وَ اِخْرَاجُ اَھْلِهٖ مِنْهُ اَكْبَرُ عِنْدَ اللّٰهِ ۚ |
यह वह संगीन जराइम (जुर्म) हैं जिनका इरतकाब मुशरिकीने मक्का की जानिब से हो रहा था। यहाँ फ़रमाया गया कि यह सब काम अशहरे हुरुम में जंग करने से भी बड़े जुर्म हैं। लिहाज़ा उनके सद्देबाब (मुक़ाबले) के लिये अगर अशहरे हुरुम में जंग करनी पड़ जाये तो कोई हर्ज नहीं।
“और फ़ितना क़त्ल से भी बड़ा गुनाह है।” | وَالْفِتْنَةُ اَكْبَرُ مِنَ الْقَتْلِ ۭ |
क़ब्ल अज़ आयत 191 में अल्फ़ाज़ आ चुके हैं: { وَالْفِتْنَةُ اَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ } फ़ितना हर वह कैफ़ियत है जिसमें साहिबे ईमान के लिये ईमान पर क़ायम रहना और इस्लाम पर अमल करना मुश्किल हो जाये। आज का पूरा मआशरा फ़ितना है। इस्लाम पर अमल करना मुश्किल है, बदमाशी और हरामख़ोरी के रास्ते खुले हुए हैं, अकले हलाल (हलाल खाना) इस क़द्र मुश्किल बना दिया गया है कि दाँतों पसीना आये तो शायद नसीब हो। निकाह और शादी के जायज़ रास्तों पर बड़ी-बड़ी शर्तें और क़दग़नें आयद हैं, जबकि नाजायज़ मरासिम और ज़िना के रास्ते खुले हैं। जिस मआशरे के अंदर बातिल का ग़लबा हो जाये और हक़ पर चलना मुमकिन ना रहे वह बड़े फ़ितना में मुब्तला है। बातिल का ग़लबा सबसे बड़ा फ़ितना है। लिहाज़ा फ़रमाया कि फ़ितना क़त्ल के मुक़ाबले में बहुत बड़ी शय है।
“और यह लोग तुमसे जंग करते रहेंगे यहाँ तक कि लौटा दें तुम्हें अपने दीन से अगर वह ऐसा कर सकते हों।” | وَلَا يَزَالُوْنَ يُقَاتِلُوْنَكُمْ حَتّٰى يَرُدُّوْكُمْ عَنْ دِيْنِكُمْ اِنِ اسْتَطَاعُوْا ۭ |
वह तो इस पर तुले हुए हैं कि तुम्हें तुम्हारे दीन से फेर दें। यहाँ मुशरिकीने मक्का की तरफ़ इशारा हो रहा है, क्योंकि अब यह ग़ज़वा-ए-बदर की तम्हीद चल रही है। इसके बाद ग़ज़वा-ए-बदर होने वाला है, उसके लिये अहले ईमान को ज़हनी तौर पर तैयार किया जा रहा है और उन्हें आगाह किया जा रहा है कि मुशरिकीन की जंग का मक़सद तुम्हें तुम्हारे दीन से बरग़श्ता करना (हटाना) है, वह तो अपनी भरपूर कोशिश करते रहेंगे कि अगर उनका बस चले तो तुम्हें तुम्हारे दीन से लौटा कर वापस ले जाएँ।
“और (सुन लो) जो कोई भी तुममें से अपने दीन से फिर गया” | وَمَنْ يَّرْتَدِدْ مِنْكُمْ عَنْ دِيْنِهٖ |
“और उसी हालत में उसकी मौत आ गई कि वह काफ़िर ही था” | فَيَمُتْ وَھُوَ كَافِرٌ |
“तो यह वह लोग होंगे जिनके तमाम आमाल दुनिया और आख़िरत में अकारत (बेकार) जाएँगे।” | فَاُولٰۗىِٕكَ حَبِطَتْ اَعْمَالُهُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۚ |
पहले ख़्वाह कितनी ही नेकियाँ की हुई थीं, कितनी ही नमाज़े पढ़ी हुई थीं, कितना ही इन्फ़ाक़ किया हुआ था, सदक़ात दिये थे, जो कुछ भी किया था सबका सब सिफ़र (ज़ीरो) हो जायेगा।
“और वह होंगे जहन्नम वाले, वह उसी में हमेशा रहेंगे।” | وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ ٢١٧ |
आयत 218
“(इसके बरअक्स) जो लोग ईमान लाये और जिन्होंने हिजरत की और जिहाद किया अल्लाह की राह में तो यही वह लोग हैं जो अल्लाह की रहमत के उम्मीदवार हैं।” | اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَالَّذِيْنَ ھَاجَرُوْا وَجٰهَدُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۙ اُولٰۗىِٕكَ يَرْجُوْنَ رَحْمَتَ اللّٰهِ ۭ |
यहाँ उन लोगों पर बड़ा लतीफ़ तंज़ है जो ख़ुद तो हराम के रास्ते पर जा रहे हैं, लेकिन यह उम्मीद लगाये बैठे हैं कि अल्लाह उन पर रहम फ़रमायेगा। अल्लाह ऐसी रविश इख़्तियार करने वालों पर रहमत नहीं फ़रमाता, अल्लाह की रहमत का मुस्तहिक़ बनना पड़ता है। और अल्लाह की रहमत का मुस्तहिक़ वही है जो ईमान, हिजरत और जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह का रास्ता इख़्तियार करता है। ऐसे लोग बजा तौर पर अल्लाह की रहमत के उम्मीदवार हैं।
“और अल्लाह तआला ग़फ़ूर है, रहीम है।” | وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ٢١٨ |
वो उनकी लग़ज़िशों (गुनाहों) को माफ़ करने वाला और अपनी रहमत से उन्हें नवाज़ने वाला है।
आयत 219
“(ऐ नबी ﷺ!) यह आपसे शराब और जुए के बारे में दरयाफ़्त करते हैं (कि इनका क्या हुक्म है?)।” | يَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْخَــمْرِ وَالْمَيْسِرِ ۭ |
इन अहकाम से शरीअत का इब्तदाई खाका (blue print) तैयार होना शुरू हो गया है, कुछ अहकाम पहले आ चुके हैं और कुछ अब आ रहे हैं। शराब और जुए के बारे में यहाँ इब्तदाई हुक्म बयान हुआ है और इस पर महज़ इज़हारे नाराज़गी फ़रमाया गया है।
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कह दीजिये कि इन दोनों के अंदर बहुत बड़े गुनाह के पहलु हैं।” | قُلْ فِيْهِمَآ اِثْمٌ كَبِيْرٌ |
“और लोगों के लिए येछ मनफ़अतें (फ़ायदे) भी हैं।” | وَّمَنَافِعُ لِلنَّاسِ ۡ |
“अलबत्ता इनका गुनाह का पहलु नफ़े के पहलु से बड़ा है।” | وَاِثْـمُهُمَآ اَكْبَرُ مِنْ نَّفْعِهِمَا ۭ |
यानि इशारा कर दिया गया कि इनको छोड़ दो। अब मामला तुम्हारी अक़्ले सलीम के हवाले है, हक़ीक़त तुम पर खोल दी गई है। यह इब्तदाई हुक्म है, लेकिन हुक्म के पैराये में नहीं। बस वाज़ेह कर दिया गया कि इनका गुनाह इनके फ़ायदे से बढ़ कर है, अग़रचे इनमें लोगों के लिये कुछ फ़ायदे भी हैं। बक़ौल ग़ालिब:
मय से ग़र्ज़ निशात है किसी रू स्याह को?
इक गुना बेख़ुदी मुझे दिन-रात चाहिये!
और:
मैं मयकदे की राह से होकर गुज़र गया
वरना सफ़र हयात का बेहद तवील था!
यह हिकमत समझ लीजिये कि शराब और जुए में क्या चीज़ मुशतरक (समान) है कि यहाँ दोनों को जमा किया गया है? शराब के नशे में भी इंसान अपने आपको हक़ाइक से मुन्क़तअ करता है और मेहनत से जी चुराता है। और ज़िन्दगी के तल्ख़ हक़ाइक का मुआवज़ा करने को तैयार नहीं होता। “एक गुना बेख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए!” और जुए की बुनियाद भी मेहनत की नफ़ी पर है। एक रवैया तो यह है कि मेहनत से एक आदमी कमा रहा है, मशक़्क़त कर रहा है, कोई खोखा, छाबड़ी या रेढ़ी लगा कर कुछ कमाई कर रहा है, जबकि एक है चाँस और दाव की बुनियाद पर पैसे कमाना। यह मेहनत की नफ़ी है। चुनाँचे शराब और जुए के अन्दर असल में इल्लत एक ही है।
“और यह आप ﷺ से पूछते हैं कि (अल्लाह की राह में) कितना ख़र्च करें?” | وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ڛ |
आयत 195 में इन्फ़ाक़ का हुक्म बाअल्फ़ाज़ आ चुका है:
“और ख़र्च करो अल्लाह की राह में और अपने आपको अपने हाथों हलाकत में ना झोंको।” | وَاَنْفِقُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَلَا تُلْقُوْا بِاَيْدِيْكُمْ اِلَى التَّهْلُكَةِ ٻ |
तो सवाल किया गया कि “कितना ख़र्च करें?” हमें कुछ मिक़दार भी बता दी जाये। फ़रमाया:
“कह दीजिये: जो भी तुम्हारी ज़रुरत से ज़ायद (ज़्यादा) हो।” | قُلِ الْعَفْوَ ۭ |
अल्लाह तआला का यह मुतालबा नहीं है कि तुम अपनी ज़रुरतों को पीछे डाल दो, बल्कि तुम पहले अपनी ज़रुरतें पूरी करो, फिर जो तुम्हारे पास बच जाये उसे अल्लाह की राह में ख़र्च कर दो। कम्युनिज्म के फ़लसफ़े में एक इस्तलाह “क़द्रे ज़ायद” (surplus value) इस्तेमाल होती है। यह है “اَلْعَفْوَا।” जो भी तुम्हारी ज़रूरियात से ज़ायद है यह surplus valueहै, उसे अल्लाह की राह में दे दो। इसको बचा कर रखने का मतलब यह है कि आप अल्लाह पर बे-ऐतमादी का इज़हार कर रहे हैं कि अल्लाह ने आज तो दे दिया है, कल नहीं देगा। लेकिन यह कि इंसान की ज़रुरतें क्या हैं, कितनी हैं, इसका अल्लाह ने कोई पैमाना मुक़र्रर नहीं किया। इसका ताल्लुक़ बातिनी रूह से है। एक मुसलमान के अंदर अल्लाह की मुहब्बत और आख़िरत पर ईमान ज्यों-ज्यों बढ़ता जायेगा उतना ही वह अपनी जरुरतें कम करेगा, अपने मैयारे ज़िन्दगी को पस्त करेगा और ज़्यादा से ज़्यादा अल्लाह की राह में देगा। उसूल यह है कि हर शख़्स यह देखे कि जो मेरी ज़रुरत से ज़ायद है उसे मैं बचा-बचा कर ना रखूँ, बल्कि अल्लाह की राह में दे दूँ। इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह पर इस सूरह मुबारक में पूरे दो रुकूअ आगे आने वाले हैं।
“इसी तरह अल्लाह तआला अपनी आयात तुम्हारे लिये वाज़ेह कर रहा है ताकि तुम ग़ौरो फ़िक्र करो।” | كَذٰلِكَ يُـبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ ٢١٩ۙ |
आयत 220
“दुनिया और आख़िरत (के मामलात) में।” | فِى الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۭ |
तुम्हारा यह ग़ौरो फ़िक्र दुनिया के बारे में भी होना चाहिये और आख़िरत के बारे में भी। दुनिया में भी इस्लाम रहबानियत नहीं सिखाता। इस्लाम की तालीम यह नहीं है कि ना खाओ, ना पिओ, चिल्लेकशी करो, जंगलो में निकल जाओ! नहीं, इस्लाम तो मुत्मद्दन (सभ्य) ज़िन्दगी की तालीम देता है, घर ग्रहस्थी और शादी-ब्याह की तरग़ीब देता है, बीवी बच्चों के हुक़ूक़ बताता है और उनकी अदायगी का हुक्म देता है। इसके साथ-साथ तुम्हें आख़िरत की भी फ़िक्र करनी चाहिये, और दुनिया व आख़िरत के मामलात में एक निस्बत व तनासुब (ratio proportion) क़ायम रहना चाहिये। दुनिया की कितनी क़द्रो क़ीमत है और इसके मुक़ाबले में आख़िरत की कितनी क़द्रो क़ीमत है, इसका सही तौर पर अंदाज़ा करना चाहिये। अगर यह अंदाज़ा ग़लत हो गया और कोई ग़लत तनासुब क़ायम कर लिया गया तो हर चीज़ तलपट हो जायेगी। मिसाल के तौर पर एक दवा के नुस्ख़े में कोई चीज़ कम थी, कोई ज़्यादा थी। अगर आपने जो चीज़ कम थी उसे ज़्यादा कर दिया और जो ज़्यादा थी उसे कम कर दिया तो अब हो सकता है कि यह नुस्ख़ा शिफ़ा ना रहे, नुस्ख़ा-ए-हलाकत बन जाये।
“और यह आप ﷺ से पूछ रहे हैं यतीमों के बारे में।” | وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْيَتٰمٰي ۭ |
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कह दीजिये कि (जिस तर्ज़े अमल में) उनकी भलाई और मस्लहत (हो वही इख़्तियार करना) बेहतर है।” | قُلْ اِصْلَاحٌ لَّھُمْ خَيْرٌ ۭ |
उनकी मस्लहत को पेशे नज़र रखना बेहतर है, नेकी है, भलाई है। असल में लोगों के सामने सूरह बनी इसराइल की यह आयत (आयत:34) थी: {وَلَا تَقْرَبُوْا مَالَ الْيَتِيْمِ اِلَّا بِالَّتِيْ ھِيَ اَحْسَنُ} “और माले यतीम के क़रीब तक ना फटको, मगर ऐसे तरीक़े पर जो (यतीम के हक़ में) बेहतर हो।” चुनाँचे वो माले यतीम के बारे में इन्तहाई एहतियात कर रहे थे और उन्होंने यतीमों की हंड़ियाँ भी अलैहदा कर दी थीं कि मबादा (ऐसा ना हो कि) उनके हिस्से की कोई बोटी हमारे पेट में चली जाये। लेकिन इस तरह यतीमों की देखभाल करने वाले लोग तकलीफ़ और हर्ज में मुब्तला हो गये थे। किसी के घर में यतीम परवरिश पा रहा है तो उसका ख़र्च अलग तौर पर उसके माल में से निकाला जा रहा है और उसके लिये अलग हंडियां पकाई जा रही है। फ़रमाया कि उस हुक्म से यह मक़सद नहीं था, मक़सद यह था कि तुम कहीं उनके माल हड़प ना कर जाओ, उनके लिये इस्लाह और भलाई का मामला करना बेहतर तर्ज़े अमल है।
“और अगर तुम उनको अपने साथ मिलाये रखो तो वह तुम्हारे भाई ही तो हैं।” | ۭوَاِنْ تُخَالِطُوْھُمْ فَاِخْوَانُكُمْ ۭ |
“और अल्लाह जानता है मुफ़्सिद को भी और मुस्लिह को भी।” | وَاللّٰهُ يَعْلَمُ الْمُفْسِدَ مِنَ الْمُصْلِحِ ۭ |
वह जानता है कि कौन बदनीयती से यतीम का माल हड़प करना चाहता है और कौन यतीम की ख़ैरख़्वाही चाहता है। यह हंड़िया अलैहदा करके भी गड़बड़ कर सकता है और यह वह शख़्स है जो हंड़िया मुश्तरक करके भी हक़ पर रह सकता है।
“और अगर अल्लाह चाहता तो तुम्हें सख़्ती ही में डाले रखता।” | وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ لَاَعْنَتَكُمْ ۭ |
लेकिन अल्लाह तआला ने तुम्हें मशक़्क़त और सख़्ती से बचाया और तुम पर आसानी फ़रमाई।
“यक़ीनन अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | اِنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٢٠ |
वह इन्तहाई मशक़्क़त पर मब्नी सख़्त से सख़्त हुक्म भी दे सकता है, इसलिये कि वह ज़बरदस्त है, लेकिन वह इंसानों को मशक़्क़त में नहीं डालता, बल्कि उसके हर हुक्म के अंदर हिकमत होती है। और जहाँ हिकमत नरमी की मुतक़ाज़ी (आवेदक) होती है वहाँ वह रिआयत देता है।
आयत 221
“और मुशरिक औरतों से निकाह ना करो जब तक कि वह ईमान ना ले आएँ।” | وَلَا تَنْكِحُوا الْمُشْرِكٰتِ حَتّٰى يُؤْمِنَّ ۭ |
“और एक मोमिना लौंडी (दासी) बेहतर है एक आज़ाद मुशरिका औरत से अग़रचे वह तुम्हें अच्छी भी लगती हो।” | وَلَاَمَةٌ مُّؤْمِنَةٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكَةٍ وَّلَوْ اَعْجَبَـتْكُمْ ۚ |
“और अपनी औरतें मुशरिकों के निकाह में मत दो जब तक कि वह ईमान ना ले आएँ।” | وَلَا تُنْكِحُوا الْمُشْرِكِيْنَ حَتّٰى يُؤْمِنُوْا ۭ |
“और एक मोमिन ग़ुलाम बेहतर है एक आज़ाद मुशरिक मर्द से अग़रचे वह तुम्हें पसंद भी हो।” | وَلَعَبْدٌ مُّؤْمِنٌ خَيْرٌ مِّنْ مُّشْرِكٍ وَّلَوْ اَعْجَبَكُمْ ۭ |
ख़्वाह वह साहिबे हैसियत और मालदार हो, लेकिन दौलते ईमान से महरूम हो तो तुम्हारे लिये जायज़ नहीं है कि अपनी बहन या बेटी उसके निकाह में दे दो।
“यह लोग आग की तरफ़ बुला रहे हैं।” | اُولٰۗىِٕكَ يَدْعُوْنَ اِلَى النَّارِ ښ |
अगर इनसे रिश्ते-नाते जोड़ोगे तो वह तुम्हें भी जहन्नम में ले जाएँगे और तुम्हारी औलाद को भी।
“और अल्लाह तुम्हें बुला रहा है जन्नत की तरफ़ और मग़फ़िरत की तरफ़ अपने हुक्म से।” | وَاللّٰهُ يَدْعُوْٓا اِلَى الْجَنَّةِ وَالْمَغْفِرَةِ بِاِذْنِهٖ ۚ |
“और वह अपनी आयात वाज़ेह कर रहा है लोगों के लिये ताकि वह नसीहत हासिल करें।” | وَيُبَيِّنُ اٰيٰتِهٖ لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَــتَذَكَّرُوْنَ ٢٢١ۧ |
आयात 222 से 228 तक
وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْمَحِيْضِ ۭ قُلْ ھُوَ اَذًى ۙ فَاعْتَزِلُوا النِّسَاۗءَ فِي الْمَحِيْضِ ۙ وَلَا تَقْرَبُوْھُنَّ حَتّٰى يَـطْهُرْنَ ۚ فَاِذَا تَطَهَّرْنَ فَاْتُوْھُنَّ مِنْ حَيْثُ اَمَرَكُمُ اللّٰهُ ۭ اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ التَّـوَّابِيْنَ وَيُحِبُّ الْمُتَطَهِّرِيْنَ ٢٢٢ نِسَاۗؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ ۠ فَاْتُوْا حَرْثَكُمْ اَنّٰى شِئْتُمْ ۡ وَقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ مُّلٰقُوْهُ ۭوَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ ٢٢٣ وَلَا تَجْعَلُوا اللّٰهَ عُرْضَةً لِّاَيْمَانِكُمْ اَنْ تَبَرُّوْا وَتَـتَّقُوْا وَتُصْلِحُوْا بَيْنَ النَّاسِ ۭ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ٢٢٤ لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللّٰهُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا كَسَبَتْ قُلُوْبُكُمْ ۭ وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ٢٢٥ لِلَّذِيْنَ يُؤْلُوْنَ مِنْ نِّسَاۗىِٕهِمْ تَرَبُّصُ اَرْبَعَةِ اَشْهُرٍ ۚ فَاِنْ فَاۗءُوْ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ٢٢٦ وَاِنْ عَزَمُوا الطَّلَاقَ فَاِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ٢٢٧ وَالْمُطَلَّقٰتُ يَتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِهِنَّ ثَلٰثَةَ قُرُوْۗءٍ ۭ وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ اَنْ يَّكْتُمْنَ مَا خَلَقَ اللّٰهُ فِيْٓ اَرْحَامِهِنَّ اِنْ كُنَّ يُؤْمِنَّ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭوَبُعُوْلَتُهُنَّ اَحَقُّ بِرَدِّھِنَّ فِيْ ذٰلِكَ اِنْ اَرَادُوْٓا اِصْلَاحًا ۭ وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۠ وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ ۭ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٢٨ۧ
आयत 222
“और वह औरतों की माहवारी के बारे में आप ﷺ से सवाल कर रहे हैं।” | وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ عَنِ الْمَحِيْضِ ۭ |
“कह दीजिये वह एक नापाकी भी है और एक तकलीफ़ का मसला भी है” | قُلْ ھُوَ اَذًى ۙ |
“तो हैज़ की हालात में औरतों से अलैहदा रहो” | فَاعْتَزِلُوا النِّسَاۗءَ فِي الْمَحِيْضِ ۙ |
“और उनसे मुक़ारबत ना करो यहाँ तक कि वह पाक हो जाएँ।” | وَلَا تَقْرَبُوْھُنَّ حَتّٰى يَـطْهُرْنَ ۚ |
“फिर जब वह ख़ूब पाक हो जाऐं तो अब उनकी तरफ़ जाओ जहाँ से अल्लाह ने तुम्हें हुक्म दिया है।” | فَاِذَا تَطَهَّرْنَ فَاْتُوْھُنَّ مِنْ حَيْثُ اَمَرَكُمُ اللّٰهُ ۭ |
मालूम हुआ कि बदीहयाते फ़ितरत (पूर्व प्राकृतिक ज्ञान) अल्लाह तआला के अवामिर (आदेशों) में शामिल है। औरतों के साथ मुजामियत (संभोग) का तरीक़ा इंसान को फ़ितरी तौर पर मालूम है, यह एक अम्रे तबीय (प्राकृतिक कार्य) है। हर हैवान को भी जिबिल्ली (जन्मजात) तौर पर मालूम है कि उसे अपनी मादा के साथ कैसा ताल्लुक़ क़ायम करना है। लेकिन अगर इंसान फ़ितरी तरीक़ा छोड़ कर ग़ैर फ़ितरी तरीक़ा इख़्तियार करे और औरतों के साथ भी क़ौमे लूत वाला अमल करने लगे तो यह हराम है। सही रास्ता वही है जो अल्लाह तआला ने तुम्हारी फ़ितरत में डाला है।
“यक़ीनन अल्लाह मुहब्बत करता है बहुत तौबा करने वालों से और मुहब्बत करता है बहुत पाकबाज़ी इख़्तियार करने वालों से।” | اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ التَّـوَّابِيْنَ وَيُحِبُّ الْمُتَطَهِّرِيْنَ ٢٢٢ |
उनसे अगर कोई गुनाह सरज़द हो जाये तो उससे तौबा करते हैं और नापाक चीजों से दूर रहते हैं।
आयत 223
“तुम्हारी बीवियाँ तुम्हारे लिये बमंज़िला खेती हैं।” | نِسَاۗؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ ۠ |
जैसे खेत में बीज बोते हो, फिर फ़सल काटते हो, उसी तरह बीवियों के ज़रिये से अल्लाह तआला तुम्हें औलाद अता करता है।
“तो अपनी खेती में जिस तरह चाहो आओ।” | فَاْتُوْا حَرْثَكُمْ اَنّٰى شِئْتُمْ ۡ |
तुम अपनी खेती में जिधर से चाहो आओ, तुम्हारे लिये कोई रुकावट नहीं है, आगे से या दाहिनी तरफ़ से या बायें तरफ़ से, जिधर से भी चाहो, मगर यह ज़रूर है कि तख़मरेज़ी (वीर्यरोपण) उसी ख़ास जगह में हो जहाँ से पैदावार की उम्मीद हो सकती है।
“और अपने आगे के लिये सामान करो।” | وَقَدِّمُوْا لِاَنْفُسِكُمْ ۭ |
यानि अपने मुस्तक़बिल की फ़िक्र करो और अपनी नस्ल को आगे बढ़ाने की कोशिश करो। औलाद इंसान का असासा (संपत्ति) होती है और बुढ़ापे में उसका सहारा बनती है। आज तो उल्टी गंगा बहाई जा रही है और औलाद कम से कम पैदा करने की तरग़ीब दी जा रही है, जबकि एक ज़माने में औलाद असाए पीरी (बुढ़ापे की छड़ी) शुमार होती थी।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और जान लो कि तुम्हें उससे मिल कर रहना है।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّكُمْ مُّلٰقُوْهُ ۭ |
नोट कीजिये कि क़ुरान हकीम में शरीअत के हर हुक्म के साथ तक़वा का ज़िक्र बार-बार आ रहा है। इसलिये कि किसी क़ानून की लाख पैरवी की जा रही हो मगर तक़वा ना हो तो वह क़ानून मज़ाक़ बन जायेगा, खेल-तमाशा बन जायेगा। इसकी बाज़ मिसालें अभी आएँगी।
“और (ऐ नबी ﷺ!) अहले ईमान को बशारत दे दीजिये।” | وَبَشِّرِ الْمُؤْمِنِيْنَ ٢٢٣ |
आयत 224
“और अल्लाह के नाम को तख़्ता-ए-मश्क़ ना बना लो अपनी क़समों के लिये” | وَلَا تَجْعَلُوا اللّٰهَ عُرْضَةً لِّاَيْمَانِكُمْ |
“कि भलाई ना करोगे, परहेज़गारी ना करोगे और लोगों के दरमियान सुलह ना कराओगे।” | اَنْ تَبَرُّوْا وَتَـتَّقُوْا وَتُصْلِحُوْا بَيْنَ النَّاسِ ۭ |
यानि अल्लाह तआला के अज़ीम नाम को इस्तेमाल करते हुए ऐसी क़समें मत खाओ जो नेकी व तक़वा और मक़सदे इस्लाह के खिलाफ़ हों। किसी वक़्त गुस्से में आकर आदमी क़सम खा बैठता है कि मैं फलाँ शख़्स से कभी हुस्ने सुलूक और भलाई नहीं करुँगा, इससे रोका गया है। हज़रत अबु बक़र सिद्दीक़ रज़ि० ने भी इसी तरह की क़सम खा ली थी। मिस्तह एक ग़रीब मुसलमान थे, जो आप रज़ि० के क़राबतदार भी थे। उनकी आप रज़ि० मदद किया करते थे। जब हज़रत आयशा सिद्दीक़ा रज़ि० पर तोहमत लगी तो मिस्तह भी उस आग के भड़काने वालों में शामिल हो गये। हज़रत अबु बक़र रज़ि० उनके तर्ज़े अमल से बहुत रंजीदा ख़ातिर हुए कि मैं तो इसकी सरपरस्ती करता रहा और यह मेरी बेटी पर तोहमत लगाने वालों में शामिल हो गया। आप रज़ि० ने क़सम खाई कि अब मैं कभी इसकी मदद नहीं करुँगा। यह वाक़िया सूरतुल नूर में आयेगा। मुसलमानों से कहा जा रहा है कि तुम ऐसा ना करो, तुम अपनी नेकी के दरवाज़े क्यों बंद करते हो? जिसने ऐसी क़सम खाली है वह उस क़सम को खोल दे और क़सम का कफ़्फ़ारा दे दे। इसी तरह लोगों के माबैन मसालिहत (सुलह) कराना भी ज़रुरी है। दो भाईयों के दरमियान झगड़ा था, आपने मसालिहत की कोशिश की लेकिन आपकी बात नहीं मानी गई, इस पर आपने गुस्से में आकर कह दिया कि अल्लाह की क़सम, अब मैं इनके मामले में दख़ल नहीं दूँगा। इस तरह की क़समें खाने से रोका गया है। और अगर किसी ने ऐसी कोई क़सम खाई है तो वह उसे तोड़ दे और उसका कफ़्फ़ारा दे दे।
“और अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है।” | وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ٢٢٤ |
आयत 225
“अल्लाह तआला मुवाख़्ज़ा नहीं करेगा तुमसे तुम्हारी बे मायने क़समों पर (जो तुम अज़म व इरादे के बग़ैर खा बैठते हो)” | لَا يُؤَاخِذُكُمُ اللّٰهُ بِاللَّغْوِ فِيْٓ اَيْمَانِكُمْ |
अरबों का अंदाज़े गुफ़्तुगू इस तरह का है कि वल्लाह, बिल्लाह के बग़ैर उनका कोई जुमला शुरू ही नहीं होता। इससे दरहक़ीक़त उनकी नीयत क़सम खाने की नहीं होती बल्कि यह उनका गुफ़्तुगू का एक अस्लूब (अंदाज़) है। इस तरह की क़समों पर मुवाख़्ज़ा नहीं है।
“लेकिन उन क़समों पर तुमसे ज़रूर मुवाख़्ज़ा करेगा जो तुमने अपने दिली इरादे के साथ खाई हों।” | وَلٰكِنْ يُّؤَاخِذُكُمْ بِمَا كَسَبَتْ قُلُوْبُكُمْ ۭ |
ऐसी क़समों को तोड़ने का कफ़्फ़ारा देना होगा। कफ़्फ़ारे का हुक्म सूरतुल मायदा में बयान हुआ है। मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि सूरतुल बक़रह में शरीअते इस्लामी का इब्तदाई ख़ाका दे दिया गया है और इसके तक्मीली अहकाम कुछ सूरतुन्निसा में और कुछ सूरतुल मायदा में बयान हुए हैं।
“और अल्लाह बख़्शने वाला है और हलीम है।” | وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ٢٢٥ |
वो बहुत दरग़ुज़र करने वाला और बुर्दबार (धैर्यवान) है। वह फ़ौरन नहीं पकड़ता, बल्कि इस्लाह की मोहलत देता है।
आयत 226
“जो लोग अपनी बीवियों से ताल्लुक़ ना रखने की क़सम खा बैठते हैं उनके लिये चार माह की मोहलत है।” | لِلَّذِيْنَ يُؤْلُوْنَ مِنْ نِّسَاۗىِٕهِمْ تَرَبُّصُ اَرْبَعَةِ اَشْهُرٍ ۚ |
अगर कोई मर्द किसी वक़्त नाराज़ होकर या गुस्से में आकर यह क़सम खा ले कि अब मैं अपनी बीवी के क़रीब नहीं जाऊँगा, उससे कोई ताल्लुक़ नहीं रखूँगा, तो यह ईला कहलाता है। ख़ुद आँहुज़ूर ﷺ ने भी अपनी अज़वाजे मुतह्हरात से ईला फ़रमाया था। अज़वाजे मुतह्हरात रज़ि० ने अर्ज़ किया था कि अब आम मुसलमानों के यहाँ भी ख़ुशहाली आ गई है तो हमारे यहाँ यह तंगी और सख़्ती क्यों है? अब हमारे भी नफ़्क़ात बढ़ाये जाएँ। इस पर रसूल अल्लाह ﷺ ने उनसे ईला किया। इसका ज़िक्र बाद में आयेगा। आमतौर पर होता यह था कि लोग क़सम तो खा बैठते थे कि बीवी के पास ना जाएँगे, मगर बाद में पछताते थे कि क्या करें। अब वह बीवी बेचारी मुअल्लक़ (suspended) होकर रह जाती। इस आयत में ईला की मोहलत मुक़र्रर कर दी गई कि ज़्यादा से ज़्यादा चार माह तक इंतेज़ार किया जा सकता है।
“पस अगर वह रुजूअ कर लें तो अल्लाह बख़्शने वाला, मेहरबान है।” | فَاِنْ فَاۗءُوْ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ ٢٢٦ |
इन चार माह के दौरान अगर वह अपनी क़सम को ख़त्म करें और रुजूअ कर लें, ताल्लुक़ ज़न व शौ क़ायम कर लें तो अल्लाह तआला ग़फ़ूर व रहीम है।
आयत 227
“और अगर वह तलाक़ का इरादा कर चुके हों तो अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है।” | وَاِنْ عَزَمُوا الطَّلَاقَ فَاِنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ ٢٢٧ |
यानि चार माह का अरसा गुज़र जाने पर शौहर को बहरहाल फ़ैसला करना है कि वह या तो रुजूअ करे या तलाक़ दे। अब औरत को मज़ीद मुअल्लक़ नहीं रखा जा सकता। रुजूअ की सूरत में चूँकि क़सम तोड़नी होगी लिहाज़ा उसका कफ़्फ़ारा अदा करना होगा। हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ि० ने अपने दौरे ख़िलाफ़त में यह हुक्म जारी किया था कि जो लोग जिहाद के लिये घरों से दूर गये हों उन्हें चार माह बाद लाज़िमी तौर पर घर भेजा जाये। आप रज़ि० अल्लाह ने यह हुक्म ग़ालिबन इसी आयत से इस्तनबात (अनुमान) करते हुये जारी फ़रमाया था। इसलिये कि आप रज़ि० ने उम्मुल मोमिनीन हज़रत हफ़्सा रज़ि० से मशावरात भी फ़रमाई थी। अग़रचे आप रज़ि० का हज़रत हफ़्सा रज़ि० से बाप-बेटी का रिश्ता है, मगर दीन के मामलात में शर्म व हया आड़े नहीं आती, जैसे कि अल्लाह तआला का इर्शाद है: { وَاللّٰهُ لَا يَسْتَحْيٖ مِنَ الْحَقِّ ۭ } (अहजाब:53) “और अल्लाह शर्माता नहीं हक़ बात बतलाने में।” आप रज़ि० ने उनसे पूछा कि एक औरत कितना अरसा अपनी इफ्फ़त व अस्मत को संभाल कर अपने शौहर का इंतेज़ार कर सकती है? हज़रत हफ़्सा रज़ि० ने कहा चार माह। चुनाँचे हज़रत उमर रज़ि० ने मुजाहिदीन के बारे में यह हुक्म जारी फ़रमा दिया कि उन्हें चार माह से ज़्यादा घरों से दूर ना रखा जाये।
आयत 228
“और जिन औरतों को तलाक़ दे दी जाये उन पर लाज़िम है कि वह अपने आपको तीन हैज़ तक रोके रखें।” | وَالْمُطَلَّقٰتُ يَتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِهِنَّ ثَلٰثَةَ قُرُوْۗءٍ ۭ |
तलाक़ के बाद औरत के लिये तीन माह की इद्दत है। इस इद्दत में शौहर चाहे तो रुजूअ कर सकता है, अगर उसने एक या दो तलाक़ें दी हों। अलबत्ता तीसरी तलाक़ के बाद रुजूअ का हक़ नहीं है। तलाज़े रजीअ के बाद अभी अगर इद्दत ख़त्म हो जाये तो अब शौहर का रुजूअ का हक़ ख़त्म हो जायेगा और औरत आज़ाद होगी। लेकिन इस मुद्दत के अंदर वह दूसरी शादी नहीं कर सकती।
“और उनके लिये यह जायज़ नहीं है कि अल्लाह उनके अरहाम में जो कुछ पैदा कर दिया हो वह उसे छुपाएँ” | وَلَا يَحِلُّ لَهُنَّ اَنْ يَّكْتُمْنَ مَا خَلَقَ اللّٰهُ فِيْٓ اَرْحَامِهِنَّ |
“अगर वह फ़िलवाक़ेअ अल्लाह और यौमे आख़िर पर ईमान रखती हैं।” | اِنْ كُنَّ يُؤْمِنَّ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ |
तीन हैज़ की मुद्दत इसी लिये मुक़र्रर की गई है कि मालूम हो जाये कि औरत हामिला है या नहीं। अगर औरत हामिला हो लेकिन वह अपना हमल छुपा रही हो ताकि उसके पेट में पलने वाला उसका बच्चा उसके पास ही रहे, तो यह उसके लिये जायज़ नहीं है।
“और उनके शौहर उसके ज़्यादा हक़दार हैं कि उन्हें लौटा लें इस इद्दत के दौरान में अगर वह वाक़िअतन इस्लाह चाहते हों।” | وَبُعُوْلَتُهُنَّ اَحَقُّ بِرَدِّھِنَّ فِيْ ذٰلِكَ اِنْ اَرَادُوْٓا اِصْلَاحًا ۭ |
इसे रुजुअत कहते हैं। शौहरों को हक़ हासिल है कि वह इद्दत के अंदर-अंदर रुजूअ कर सकते हैं, लेकिन यह हक़ तीसरी तलाक़ के बाद हासिल नहीं रहता। पहली या दूसरी तलाक़ के बाद इद्दत ख़त्म होने से पहले शौहर को इसका इख़्तियार हासिल है कि वह रुजूअ कर ले। इस पर बीवी को इन्कार करने का इख़्तियार नहीं है। वह यह नहीं कह सकती कि तुम तो मुझे तलाक़ दे चुके हो, अब मैं तुम्हारी बात मानने को तैयार नहीं हूँ।
“और औरतों के लिये इसी तरह हुक़ूक़ हैं जिस तरह उन पर ज़िम्मेदारियाँ हैं दस्तूर के मुताबिक़।” | وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۠ |
यानि उनके लिये जो हुक़ूक़ हैं वह उनकी ज़िम्मेदारियों की मुनासबत से हैं।
“और मर्दों के लिये उन पर एक दर्जा फ़ौक़ियत (प्राथमिकता) का है।” | وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ ۭ |
“और अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٢٨ۧ |
इस ज़माने में इस आयत की बहुत ग़लत ताबीर भी की गई है और इससे मुसावाते मर्दो-ज़न (औरत और मर्द) का फ़लसफ़ा साबित किया गया है। चुनाँचे बाज़ मुतरजमीन (तर्जुमा करने वालों) ने { وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۠ } का तर्जुमा इस तरह किया है कि “औरतों के हुक़ूक़ भी मर्दों पर वैसे ही हैं जैसे मर्दों के उन पर हुक़ूक़ हैं।” यह तर्जुमा दुरुस्त नहीं है, इसलिये कि इस्लामी शरीअत में मर्द और औरत के दरमियान यानि शौहर और बीवी के दरमियान मुसावात नहीं है। इस आयत का मफ़हूम समझने के लिये अरबी में “لِ” और “عَلٰی” का इस्तेमाल मालूम होना चाहिये’। “لِ” किसी के हक़ के लिये और “عَلٰی” किसी की ज़िम्मेदारी के लिये आता है। चुनाँचे इस टुकड़े का तर्जुमा इस तरह होगा: لَهُنَّ “उनके लिये हुकूक़ हैं।” مِثْلُ الَّذِى عَليْهِنَّ“जैसी कि उन पर ज़िम्मेदारियाँ हैं।” अल्लाह तआला ने जैसी ज़िम्मेदारी मर्द पर डाली है वैसे हुक़ूक उसको दिये हैं और जैसी ज़िम्मेदारी औरत पर डाली है उसकी मुनासबत से उसको भी हुक़ूक़ दे दिये हैं। और इस बात को खोल दिया कि {وَلِلرِّجَالِ عَلَيْہِنَّ دَرَجَةٌ} यानि मर्दों को उन पर एक दर्जा फ़ौक़ियत का हासिल है। अब मसावात क़्योकर हो सकती है? आख़िर में फ़रमाया:
“और अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٢٨ۧ |
ख़्वाह तुम्हें यह बात पसंद हो ख़्वाह नापसंद हो, यह उसका हुक्म है। वह अज़ीज़ है, ज़बरदस्त है, जो चाहे हुक्म दे। और हकीम है, हिकमत वाला है, उसका हर हुक्म हिकमत पर मब्नी है।
इस आयत में जो मज़मून बयान हुआ है उस पर क़द्रे तफ़्सीली गुफ़्तुगू की ज़रुरत है। देखिये, इंसानी तमद्दुन (संस्कृति) का अहमतरीन और बुनियादी तरीन मसला क्या है? एक है इंसानी ज़िन्दगी का मसला। इंसानी ज़िन्दगी का सबसे पहला मसला तो वही है जो हैवानी ज़िन्दगी का भी है, यानि अपनी माद्दी ज़रूरियात। हर हैवान की तरह इंसान के साथ भी पेट लगा हुआ है जो खाने को माँगता है। लेकिन इसके बाद जब दो इंसान मिलते हैं और इससे तमद्दुन का आग़ाज़ होता है तो इसका सबसे बड़ा मसला इंसान की शहवत है। अल्लाह तआला ने मर्द और औरत दो जिन्सें (लिंग) बना दी हैं और इन दोनों के माबैन ताल्लुक़ से नस्ल आगे चलती है। अब इस मामले को कैसे मुनज़्ज़म (organized) किया जाये, इसकी क्या हुदूद व क़ैद हों? यह जज़्बा वाक़िअतन बहुत ज़ोरआवर (potent) है। इसके बारे में फ़राइड ने जो कुछ कहा है वह बिल्कुल बेबुनियाद नहीं है। बस यूँ समझिये कि उसने ज़रा ज़्यादा मिर्च-मसाला लगा दिया है, वरना इसमें कोई शक नहीं कि इंसान का जिन्सी जज़्बा निहायत क़वी और ज़ोरआवर जज़्बा है। और जो शय जितनी क़वी हो उसे हुदूद में रखने के लिये उस पर उसी क़द्र ज़्यादा क़ैद गनीं आयद करनी पड़ती हैं। कोई घोड़ा जितना मुँहज़ोर हो उतना ही उसे लग़ाम देना आसान नहीं होता, उसके लिये फिर मशक़्क़त करनी पड़ती है। चुनाँचे अगर इस जिन्सी जज़्बे को बेलग़ाम छोड़ दिया जाता तो तमद्दुन में फ़साद हो जाता। लिहाज़ा इसके लिये शादी का मामला रखा गया कि एक औरत का एक मर्द के साथ रिश्ता क़ायम हो जाये, सबको मालूम हो कि यह इसकी बीवी है यह इसका शौहर है, ताकि इस तरह नसब (वंश) का मामला भी चले और एक ख़ानदानी इदारा वुजूद में आये। वरना आज़ाद शहवतरानी (free sex) से तो ख़ानदानी इदारा वुजूद में आ ही नहीं सकता। चुनाँचे निकाह के ज़रिये अज़द्वाजी (वैवाहिक) बंधन का तरीक़ा अल्लाह तआला ने इंसानों को सिखाया और इस तरह ख़ानदानी इदारा वुजूद में आया।
अब सवाल यह है कि क्या इस इदारे में मर्द और औरत दोनों बराबर हैं? इस नज़रिये से बड़ी हिमाक़त (मुर्खता) और कोई नहीं है। इसलिये कि सीधी सी बात है कि किसी भी इदारे के दो बराबर के सरबराह (head) नहीं हो सकते। अगर आप किसी महकमे (विभाग) के दो डायरेक्टर बना दें तो वह इदारा तबाह हो जायेगा। ऊपर मैनेजिंग डायरेक्टर एक ही होगा, उसके नीचे आप दस डायरेक्टर भी बना दें तो कोई हर्ज नहीं। किसी इदारे का जनरल मैनेजर एक ही होगा, उसके मातहत आप हर शौबे का एक मैनेजर बना दीजिये। किसी भी इदारे में अगर नज़म (सिस्टम) क़ायम करना है तो उसका चोटी (Top) का सरबराह एक ही होना चाहिये। लिहाज़ा जब एक मर्द और एक औरत से एक ख़ानदानी इदारा वुजूद में आये तो उसका सरबराह कौन होगा— मर्द या औरत? मर्द और औरत इंसान होने के नाते बिल्कुल बराबर है, एक ही बाप के नुत्फ़े से बेटा भी है और बेटी भी। एक ही माँ के रहम में बहन ने भी परवरिश पाई है और भाई ने भी। लिहाज़ा इस ऐतबार से शर्फ़े इंसानियत में, नौए इंसानियत के फ़र्द की हैसियत से, दोनों बराबर हैं। लेकिन जब एक मर्द और एक औरत मिल कर ख़ानदान की बुनियाद रखते हैं तो अब यह बराबर नहीं रहे। जैसे इंसान सब बराबर हैं, लेकिन एक दफ्तर में चपरासी और अफ़सर बराबर नही हैं, उनके अलग-अलग इख़्तियारात और फ़राइज हैं।
क़ुरान हकीम में सबसे पहले और सबसे ज़्यादा तफ़सील के साथ जो अहकाम दिये गये हैं वह ख़ानदानी निज़ाम और आइली मामलात ही से मुताल्लिक़ हैं। इसलिये कि इंसानी तमद्दुन की जड़ और बुनियाद यही है। यहाँ से ख़ानदान बनता है और ख़ानदानों की इज्तमा का नाम मआशरा है। पाकिस्तानी मआशरे की मिसाल ले लीजिये। अगर हमारी आबादी इस वक़्त चौदह करोड़ है और आप एक ख़ानदान के सात अफ़राद शुमार कर लें तो हमारा मआशरा दो करोड़ ख़ानदानों पर मुश्तमिल है। ख़ानदान का इदारा मुस्तहकम (स्थिर) होगा तो मआशरा मुस्तहकम हो जायेगा। ख़ानदान के इदारे में सलाह और फ़लाह होगी तो मआशरे में भी सलाह व फ़लाह नज़र आयेगी। अगर ख़ानदान के इदारे में फ़साद, बेचैनी, ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी होगी, मियाँ और बीवी में झगड़े हो रहे होंगे तो फिर वहाँ औलाद की तरबियत सही नहीं हो सकती, उनकी तरबियत में यह मन्फ़ी चीज़ें शामिल हो जायेंगी और इसी का अक्स पूरे मआशरे पर पड़ेगा। चुनाँचे ख़ानदानी इदारे की इस्लाह और उसके इस्तहकाम के लिये क़ुरान मजीद में बड़ी तफ़सील से अहकाम दिये गये हैं, जिन्हें आइली क़वानीन कहा जाता है।
इस ज़िमन में तलाक़ एक अहम मामला है। इसमें मर्द और औरत को बराबर का इख़्तियार नहीं दिया गया। जहाँ तक शादी का ताल्लुक़ है उसमें औरत की रज़ामंदी ज़रूरी है, उसे शादी से इन्कार करने का हक़ हासिल है, उस पर जबर नहीं किया जा सकता। लेकिन एक मर्तबा जब वह निकाह में आ गई है तो अब शौहर का पलड़ा भारी है, वह उसे तलाक़ दे सकता है। अगर ज़ुल्म के साथ देगा तो अल्लाह के यहाँ जवाब देही करनी पड़ेगी और पकड़ हो जायेगी। लेकिन बहरहाल उसे इख़्तियार हासिल है। औरत ख़ुद तलाक़ नहीं दे सकती, अलबत्ता तलाक़ हासिल कर सकती है, जिसे हम “खुलाअ” कहते हैं। वह अदालत के ज़रिये से या ख़ानदान के बड़ों के ज़रिये से ख़ुलाअ हासिल कर सकती है, लेकिन उसे मर्द की तरह तलाक़ देने का हक़ हासिल नहीं है। इसी तरह अगर मर्द ने एक या दो तलाक़ें दे दीं और अभी इद्दत पूरी नहीं हुई तो उसे रुजूअ का हक़ हासिल है। इस पर औरत इंकार नहीं कर सकती। यह तमाम चीज़ें ऐसी हैं जो मौजूदा ज़माने में ख्वातीन को अच्छी नहीं लगतीं। इसलिये कि आज की दुनिया में मसावाते मर्दो-ज़न का फ़लसफ़ा शैतान का सबसे बड़ा फ़लसफ़ा और मआशरे में फ़ितना व फ़साद और गंदगी पैदा करने का सबसे बड़ा हथियार है। और अब हमारे इसाई मुल्क ख़ासतौर पर मुसलमान मुल्कों में ख़ानदानी निज़ाम की जो बची-कुची शक्ल बाक़ी रह गई है और जो कुछ रही-सही इक़दार मौजूद हैं उन्हें तबाह व बर्बाद करने की सरतोड़ कोशिशें हो रही हैं। क़ाहिरा कॉन्फ्रेंस और बीजिंग कॉन्फ्रेंस का मक़सद यही है कि एशिया का मशरिक़ और मग़रिब दोनों तरफ़ से घेराव किया जाये ताकि यहाँ कि औरत को आज़ादी दिलाई जाये। मर्द व औरत की मुसावात और औरतों की आज़ादी (emancipation) के नाम पर हमारे खानदानी निज़ाम को इसी तरह बर्बाद करने की कोशिश की जा रही है जिस तरह उनके यहाँ बर्बाद हो चुका है। अमरीकी सदर बिल क्लिन्टन ने अपने साले नौ के पैगाम में कहा था कि जल्दी ही हमारी क़ौम की अक्सरियत “हरामज़ादों” (born without any wedlock) पर मुश्तमिल होगी। वहाँ अब महज़ “one parent family” रह गई है। माँ की हैसियत बाप की भी है और माँ की भी। वहाँ के बच्चे अपने बाप को जानते ही नहीं। अब वहाँ एक मुहिम ज़ोर-शोर से उठ रही है कि हर इंसान का हक़ है कि उसे मालूम हो कि उसका बाप कौन है। यह अज़ीम तबाही है जो मग़रबी मआशरे पर आ चुकी है और हमारे यहाँ भी लोग इस मआशरे की नक्क़ाली इख़्तियार कर रहे हैं और यह नज़रिया-ए-मुसावाते मर्दो-ज़न बहुत ही ताबनाक और ख़ुशनुमा अल्फ़ाज़ के साथ सामने आ रहा है।
अलबत्ता इस मामले का एक दूसरा रुख़ भी है। इस्लाम ने औरतों को जो हुक़ूक़ दिये हैं बदक़िस्मती से हम मुसलमानों ने वह भी उनको नहीं दिये। इसकी वजह यह है कि हमारे ज़हनों पर अभी तक हमारा हिन्दुआना पसमंज़र मुसल्लत है और हिन्दुओं के मआशरे में औरत की क़तअन कोई हैसियत ही नहीं। विरासत का हक़ तो बहुत दूर की बात है, उसे तो अपने शौहर की मौत के बाद ज़िन्दा रहने का हक़ भी हासिल नहीं है, उसे तो शौहर की चिता के साथ ही जल कर सती हो जाना चाहिये। गोया उसका तो कोई क़ानूनी वुजूद (legal entity) है ही नहीं। हमारे आबा व अजदाद मुसलमान तो हो गये थे, लेकिन इस्लामी तालीमात के मुताबिक़ उनकी तरबियत नहीं हो सकी थी, लिहाज़ा हमारे ज़हनों पर वही हिन्दुआना तसव्वुरात मुसल्लत हैं कि औरत तो मर्द के पाँव की जूती की तरह है। यह जो कुछ हम कर रहे हैं कि उनके जायज़ हुक़ूक़ भी उनको नहीं देते, इसके नतीजे में हम अपने ऊपर होने वाली मग़रबी यलग़ार को मुअस्सर करने में ख़ुद मदद दे रहे हैं। अगर हम अपनी ख्वातीन को वह हुक़ूक नहीं देंगे जो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ ने उनके लिये मुक़र्रर किये हैं तो ज़ाहिर बात है कि आज़ादी-ए-निस्वाँ, हुक़ूक़े निस्वाँ और मुसावाते मर्दो-ज़न जैसे ख़ुशनुमा उन्वानात से जो दावत उठी है वह लाज़िमन उन्हें खींच कर ले जायेगी। लिहाज़ा इस तरफ़ भी ध्यान रखिये। हमारे यहाँ दीनदार घरानों में ख़ासतौर पर औरतों के हुक़ूक़ नज़र अंदाज़ होते हैं। इसको समझना चाहिये कि इस्लाम में औरतों के क्या हुकूक़ हैं और उनकी किस क़दर दिलजोई करनी चाहिये। रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया: ((خَیْرُکُمْ خَیْرُکُمْ لِاَھْلِہٖ وَاَنَا خَیْرُکُمْ لَاَھْلِیْ))(28) “तुममें से बेहतरीन लोग वह हैं जो अपने घरवालों के लिये अच्छे हों। और जान लो कि मैं अपने घर वालों के लिये तुम सबसे अच्छा हूँ।” लिहाज़ा ज़रूरी है कि औरतों के साथ हुस्ने सुलूक हो, उनकी दिलजोई हो, उनके अहसासात का भी पास किया जाये। अलबत्ता जहाँ दीन और शरीअत का मामला आ जाये वहाँ किसी लचक की गुंजाइश ना हो, वहाँ आप शमशीर बराहना हो जाएँ और साफ़-साफ़ कह दें कि यह मामला दीन का है, इसमें मैं तुम्हारी कोई रिआयत नहीं कर सकता, हाँ अपने मामलात के अंदर मैं ज़रूर नरमी करुँगा।
इस सारी बहस को ज़हन में रखिये। हमारे जदीद दानिशवर इस आयत के दरमियानी अल्फ़ाज़ को तो ले लेते हैं: { وَلَهُنَّ مِثْلُ الَّذِيْ عَلَيْهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۠ } और इससे मुसावाते मर्दो-ज़न का मफ़हूम निकालने की कोशिश करते हैं, लेकिन इनसे पहले वाले अल्फ़ाज़ और {وَبُعُوْلَتُهُنَّ اَحَقُّ بِرَدِّھِنَّ} और बाद वाले अल्फ़ाज़ {وَلِلرِّجَالِ عَلَيْهِنَّ دَرَجَةٌ ۭ} से सर्फ़े नज़र कर लेते हैं। यह तर्ज़े अमल बिल्कुल ग़लत है। एक मर्द और एक औरत से जो ख़ानदानी इदारा वुजूद में आता है, इस्लाम उसका सरबराह मर्द को ठहराता है। यह फ़लसफ़ा ज़्यादा वज़ाहत से सूरतुन्निसा में बयान होगा जहाँ अल्फ़ाज़ आये हैं: {اَلرِّجَالُ قَوّٰمُوْنَ عَلَي النِّسَاۗءِ} (आयत:34)। यहाँ इसकी तम्हीद आ गई है ताकि यह कड़वी गोली ख्वातीन के हलक़ से ज़रा नीचे उतरनी शुरू हो जाये। इस आयत का तर्जुमा एक बार फिर देख लीजिये: “और उनके शौहर इसके ज़्यादा हक़दार हैं कि उन्हें लौटा लें इस इद्दत के दौरान में अगर वह वाक़िअतन इस्लाह चाहते हों। और औरतों के लिये इसी तरह हुक़ूक़ हैं जिस तरह उन पर ज़िम्मेदारियाँ हैं दस्तूर के मुताबिक़। और मर्दों के लिये उन पर एक दर्जा फ़ौक़ियत का है। और अल्लाह ज़बरदस्त है, हकीम है।” अल्लाह तआला ने जो ज़िम्मेदारियाँ औरत के हवाले की हैं, जिस तरह के उस पर फ़राइज़ आयद किये हैं वैसे ही उसको हुक़ूक़ भी अता किये हैं। यह दुनिया का मुसल्लमा उसूल है कि हुक़ूक़ व फ़राइज़ बाहम साथ-साथ चलते हैं। अगर आपकी ज़िम्मेदारी ज़्यादा हैं तो हुक़ूक़ और इख़्तियारात भी ज़्यादा होंगे। अगर आप पर ज़िम्मेदारी बहुत ज़्यादा डाल दी जाये लेकिन हुक़ूक़ और इख़्तियारात उसकी मुनासबत से ना हों तो आप अपनी ज़िम्मेदारी अदा नहीं कर सकते। जहाँ ज़िम्मेदारी कम होगी वहाँ हुक़ूक़ और इख़्तियारात भी कम होंगे। यह दोनो चीज़ें मुनास्बत (proportionate) चलती हैं। अब हम अगली आयत का मुताअला करते हैं:
आयात 229 से 231 तक
اَلطَّلَاقُ مَرَّتٰنِ ۠ فَاِمْسَاكٌۢ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ تَسْرِيْحٌۢ بِاِحْسَانٍ ۭ وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَاْخُذُوْا مِمَّآ اٰتَيْتُمُوْھُنَّ شَـيْـــًٔـا اِلَّآ اَنْ يَّخَافَآ اَلَّايُقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۭ فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا يُقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۙ فَلَاجُنَاحَ عَلَيْھِمَا فِـيْمَا افْتَدَتْ بِهٖ ۭ تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَاتَعْتَدُوْھَا ۚ وَمَنْ يَّتَعَدَّ حُدُوْدَ اللّٰهِ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ ٢٢٩ فَاِنْ طَلَّقَھَا فَلَا تَحِلُّ لَهٗ مِنْۢ بَعْدُ حَتّٰي تَنْكِحَ زَوْجًا غَيْرَهٗ ۭ فَاِنْ طَلَّقَھَا فَلَاجُنَاحَ عَلَيْھِمَآ اَنْ يَّتَرَاجَعَآ اِنْ ظَنَّآ اَنْ يُّقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۭ وَتِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ يُبَيِّنُھَا لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ ٢٣٠ وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَھُنَّ فَاَمْسِكُوْھُنَّ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ سَرِّحُوْھُنَّ بِمَعْرُوْفٍ وَلَا تُمْسِكُوْھُنَّ ضِرَارًا لِّتَعْتَدُوْا ۚ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَهٗ ۭ وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اٰيٰتِ اللّٰهِ ھُزُوًا ۡ وَاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ وَمَآ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ وَالْحِكْمَةِ يَعِظُكُمْ بِهٖ ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ٢٣١ۧ
आयत 229
“तलाक़ दो मर्तबा है।” | اَلطَّلَاقُ مَرَّتٰنِ ۠ |
यानि एक शौहर को दो मर्तबा तलाक़ देकर रुजूअ कर लेने का हक़ है। एक दफ़ा तलाक़ दी और इद्दत के अंदर-अंदर रुजूअ कर लिया तो ठीक है। फिर तलाक़ दे दी और इद्दत के अंदर-अंदर रुजूअ कर लिया तो भी ठीक है। तीसरी मर्तबा तलाक़ दे दी तो अब वह रुजूअ नहीं कर सकता।
“फिर या तो मारूफ़ तरीज़े से रोक लेना है या फिर ख़ूबसूरती के साथ रुख़सत कर देना है।” | فَاِمْسَاكٌۢ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ تَسْرِيْحٌۢ بِاِحْسَانٍ ۭ |
यानि दो मर्तबा तलाक़ देने के बाद अब फ़ैसला करो। या तो अपनी बीवी को नेकी और भलाई के साथ घर में रोक लो, तंग करने और परेशान करने के लिये नहीं, या फिर भले तरीक़े से, भले मानुसों की तरह उसे रुख़सत कर दो।
“और तुम्हारे लिये यह जायज़ नहीं है कि जो कुछ तुमने उन्हें दिया था उसमें से कुछ भी वापस लो” | وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ اَنْ تَاْخُذُوْا مِمَّآ اٰتَيْتُمُوْھُنَّ شَـيْـــًٔـا |
जब तुम तलाक़ दे रहे हो तो तुमने उन्हें जो महर दिया था उसमें से कुछ वापस नहीं ले सकते। हाँ अगर औरत ख़ुद तलाक़ माँगे तो उसे अपने महर में से कुछ छोड़ना पड़ सकता है। लेकिन जब मर्द तलाक़ दे रहा हो तो उसमें से कुछ भी वापस नहीं ले सकता जो वह अपनी बीवी को दे चुका है। सूरतुन्निसा (आयत:20) में यहाँ तक अल्फ़ाज़ आये हैं कि अग़रचे तुमने सोने का ढ़ेर (क़िन्तार) दे दिया हो फिर भी उसमें से कुछ वापस ना लो।
“सिवाये इसके कि दोनों को अंदेशा हो कि वह हुदूद अल्लाह को क़ायम नहीं रख सकेगें।” | اِلَّآ اَنْ يَّخَافَآ اَلَّايُقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۭ |
मुराद यह है कि अल्लाह तआला ने अज़द्वाजी ज़िन्दगी के ज़िमन में जो अहदाफ़ (लक्ष्य) व मक़ासिद मुअय्यन फ़रमाये हैं, उसके लिये जो अहकाम दिये हैं और जो आदाब बताये हैं, फ़रीक़ैन अगर यह महसूस करें कि हम उन्हें मलहूज़ (ध्यान में) नहीं रख सकते तो यह एक इस्तसनाई सूरत है, जिसमें औरत कोई माल या रक़म फ़िदये के तौर पर देकर ऐसे शौहर से खुलासी हासिल कर सकती है।
“पस अगर तुम्हें यह अंदेशा हो कि वह दोनों हुदूदे इलाही पर क़ायम नहीं रह सकते, तो उन दोनों पर इस मामले में कोई गुनाह नहीं है जो औरत फ़िदये में दे।” | فَاِنْ خِفْتُمْ اَلَّا يُقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۙ فَلَاجُنَاحَ عَلَيْھِمَا فِـيْمَا افْتَدَتْ بِهٖ ۭ |
यानि ऐसी सूरत में औरत अगर फ़िदये के तौर पर कुछ दे दिला कर अपने आप को छुड़ा ले तो इसमें फ़रीक़ैन पर कोई गुनाह नहीं। मसलन किसी औरत का महर दस लाख था, वह उसमें से पाँच लाख शौहर को वापस देकर उससे ख़ुला ले ले तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।
“यह अल्लाह की हुदूद हैं, पस इनसे तज़ावुज़ मत करो।” | تِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ فَلَاتَعْتَدُوْھَا ۚ |
देखिए रोज़े वगैरह के ज़िमन में हुदूद अल्लाह के साथ { فَلَا تَقْرَبُوْھَا} फ़रमाया था। यहाँ फ़रमाया: { فَلَاتَعْتَدُوْھَا} इसलिये कि इन मामलात में लोग बड़े धड़ल्ले से अल्लाह की मुक़रर्र कर्दा हुदूद को पामाल कर (रौंद) जाते हैं। अग़रचे क़ानून बाक़ी रह जाता है मगर उसकी रूह ख़त्म हो जाती है।
“और जो लोग अल्लाह की हुदूद से तज़ावुज़ करते हैं वही ज़ालिम हैं।” | وَمَنْ يَّتَعَدَّ حُدُوْدَ اللّٰهِ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ ٢٢٩ |
आयत 230
“फिर अगर वह (तीसरी मर्तबा) उसे तलाक़ दे दे तो वह औरत इसके बाद उसके लिये जायज़ नहीं हैं, जब तक कि वह औरत किसी और शौहर से निकाह ना करे।” | فَاِنْ طَلَّقَھَا فَلَا تَحِلُّ لَهٗ مِنْۢ بَعْدُ حَتّٰي تَنْكِحَ زَوْجًا غَيْرَهٗ ۭ |
तीसरी तलाक़ दे चुकने के बाद अगर कोई शख़्स फिर उसी औरत से निकाह करना चाहे तो जब तक वह औरत किसी दूसरे शख़्स से निकाह ना करे और वह उसे तलाक़ ना दे उस वक़्त तक यह औरत अपने पहले शौहर के लिये हलाल नहीं हो सकती। इसे “हलाला” कहा जाता है। लेकिन “हलाला” के नाम से हमारे यहाँ जो मकरूह धंधा मुरव्वज (चारों ओर) है कि एक मुआहिदे के तहत औरत का निकाह किसी मर्द से किया जाता है कि तुम फिर इसे तलाक़ दे देना, इस पर रसूल अल्लाह ﷺ ने लानत फ़रमाई है।
“पस अगर वह उसको तलाक़ दे दे” | فَاِنْ طَلَّقَھَا |
यानि वह औरत दूसरी जगह पर शादी कर ले, लेकिन दूसरे शौहर से भी उसकी ना बने और वह भी उसको तलाक़ दे दे।
“तो अब कोई गुनाह नहीं होगा उन दोनों पर कि वह मराजियत (वापसी) कर लें” | فَلَاجُنَاحَ عَلَيْھِمَآ اَنْ يَّتَرَاجَعَآ |
अब वह औरत अपने साबक़ा शौहर से निकाह कर सकती है। दूसरे शौहर से निकाह के बाद औरत को शायद अक़्ल आ जाये कि ज़्यादती मेरी ही थी कि पहले शौहर के यहाँ बस नहीं सकी। अब दूसरी मर्तबा तजुर्बा होने पर मुमकिन है उसे अपनी ग़लती का अहसास हो जाये। अब अग़र वह दोबारा अपने साबक़ा शौहर की तरफ़ रुजूअ करना चाहे तो इसकी इजाज़त है कि वह फिर से निकाह कर लें।
“अगर उनको यह यक़ीन हो कि वह अल्लाह की हुदूद की पासदारी कर सकेगें।” | اِنْ ظَنَّآ اَنْ يُّقِيْمَا حُدُوْدَ اللّٰهِ ۭ |
अज़द्वाजी ज़िन्दगी में अल्लाह तआला ने जो हुदूद मुक़र्रर की हैं और जो अहकाम दिये हैं उनको बहरहाल मद्देनज़र रखना है और तमाम मामलात पर फ़ायक़ (प्रमुख) रखना है।
“और यह अल्लाह की मुक़र्रर कर्दा हुदूद हैं, जिनको वह वाज़ेह कर रहा है उन लोगों के लिये जो इल्म हासिल करना चाहें।” | وَتِلْكَ حُدُوْدُ اللّٰهِ يُبَيِّنُھَا لِقَوْمٍ يَّعْلَمُوْنَ ٢٣٠ |
يَّعْلَمُوْنَ का तर्जुमा है “जो जानतें हैं” यानि जिन्हें इल्म हासिल है। लेकिन यहाँ इसका मफ़हूम है “जो इल्म के तालिब हैं।” बाज़ अवक़ात फ़अल को तलबे फ़अल के मायने में इस्तेमाल किया जाता है।
आयत 231
“और जब तुम लोग अपनी बीवियों को तलाक़ दो और फिर वह अपनी इद्दत पूरी कर लें” | وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَھُنَّ |
“तो या तो मारूफ़ तरीक़े से उन्हें रोक लो या अच्छे अंदाज़ से उन्हें रुख़सत कर दो।” | فَاَمْسِكُوْھُنَّ بِمَعْرُوْفٍ اَوْ سَرِّحُوْھُنَّ بِمَعْرُوْفٍ |
“और तुम उन्हें मत रोको नुक़सान पहुँचाने के इरादे से कि तुम हुदूद से तजावुज़ करो।” | وَلَا تُمْسِكُوْھُنَّ ضِرَارًا لِّتَعْتَدُوْا ۚ |
देखो ऐसा मत करो कि तुम उन्हें तंग करने के लिये रोक लो कि मैं इसकी ज़रा और ख़बर ले लूँ, अगर तलाक़ हो जायेगी तो यह आज़ाद हो जायेगी। गुस्सा इतना चढ़ा हुआ है कि अभी भी ठंडा नहीं हो रहा और वह इसलिये रुजूअ कर रहा है ताकि औरत को मज़ीद परेशान करे, उसे और तकलीफ़ें पहुँचाये। इस तरह तो उसने क़ानून का मज़ाक उड़ाया और अल्लाह की दी हुई इस इजाज़त का नाजायज़ इस्तेमाल किया।
“और जो कोई भी यह काम करेगा वह अपनी ही जान पर ज़ुल्म ढ़ायेगा।” | وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَقَدْ ظَلَمَ نَفْسَهٗ ۭ |
“और अल्लाह की आयात को मज़ाक ना बना लो।” | وَلَا تَتَّخِذُوْٓا اٰيٰتِ اللّٰهِ ھُزُوًا ۡ |
ज़रुरी है कि अहकामे शरीअत पर उनकी रूह के मुताबिक़ अमल किया जाये। यही वजह है कि क़ुरान हकीम में ख़ासतौर पर अज़द्वाजी ज़िन्दगी के ज़िमन में बार-बार अल्लाह के खौफ़ और तक़वा की ताकीद की गई है। अगर तुम्हारे दिल इससे ख़ाली होंगे तो तुम अल्लाह की शरीअत को खेल-तमाशा बना दोगे, ठट्ठा और मज़ाक़ बना दोगे।
“और याद करो अल्लाह के जो ईनामात तुम पर हुए हैं” | وَاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ |
“और जो उसने नाज़िल फ़रमाई तुम पर अपनी किताब और हिकमत।” | وَمَآ اَنْزَلَ عَلَيْكُمْ مِّنَ الْكِتٰبِ وَالْحِكْمَةِ |
“वह इसके ज़रिये से तुम्हें नसीहत कर रहा है।” | يَعِظُكُمْ بِهٖ ۭ |
अल्लाह तआला की ऐसी अज़ीम नेअमतें पाने के बाद भी अगर तुमने उसकी हुदूद को तोड़ा और उसकी शरीअत का मज़ाक़ बनाया तो फिर तुम्हें उसकी ग़िरफ़्त से डरना चाहिये।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ |
“और जान लो कि अल्लाह तआला को हर चीज़ का हक़ीक़ी इल्म हासिल है।” | وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ ٢٣١ۧ |
आयात 232 से 237 तक
وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ فَلَا تَعْضُلُوْھُنَّ اَنْ يَّنْكِحْنَ اَزْوَاجَهُنَّ اِذَا تَرَاضَوْا بَيْنَهُمْ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ ذٰلِكَ يُوْعَظُ بِهٖ مَنْ كَانَ مِنْكُمْ يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ ذٰلِكُمْ اَزْكٰى لَكُمْ وَاَطْهَرُ ۭ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ ٢٣٢ وَالْوَالِدٰتُ يُرْضِعْنَ اَوْلَادَھُنَّ حَوْلَيْنِ كَامِلَيْنِ لِمَنْ اَرَادَ اَنْ يُّـتِمَّ الرَّضَاعَةَ ۭ وَعَلَي الْمَوْلُوْدِ لَهٗ رِزْقُهُنَّ وَكِسْوَتُهُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ لَا تُكَلَّفُ نَفْسٌ اِلَّا وُسْعَهَا ۚ لَا تُضَاۗرَّ وَالِدَةٌۢ بِوَلَدِھَا وَلَا مَوْلُوْدٌ لَّهٗ بِوَلَدِهٖ ۤ وَعَلَي الْوَارِثِ مِثْلُ ذٰلِكَ ۚ فَاِنْ اَرَادَا فِصَالًا عَنْ تَرَاضٍ مِّنْهُمَا وَتَشَاوُرٍ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا ۭ وَاِنْ اَرَدْتُّمْ اَنْ تَسْتَرْضِعُوْٓا اَوْلَادَكُمْ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِذَا سَلَّمْتُمْ مَّآ اٰتَيْتُمْ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ ٢٣٣ وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا يَّتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِهِنَّ اَرْبَعَةَ اَشْهُرٍ وَّعَشْرًا ۚ فَاِذَا بَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ ٢٣٤ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِـيْمَا عَرَّضْتُمْ بِهٖ مِنْ خِطْبَةِ النِّسَاۗءِ اَوْ اَكْنَنْتُمْ فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ ۭ عَلِمَ اللّٰهُ اَنَّكُمْ سَتَذْكُرُوْنَهُنَّ وَلٰكِنْ لَّا تُوَاعِدُوْھُنَّ سِرًّا اِلَّآ اَنْ تَقُوْلُوْا قَوْلًا مَّعْرُوْفًا ڛ وَلَا تَعْزِمُوْا عُقْدَةَ النِّكَاحِ حَتّٰي يَبْلُغَ الْكِتٰبُ اَجَلَهٗ ۭوَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا فِىْٓ اَنْفُسِكُمْ فَاحْذَرُوْهُ ۚ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ٢٣٥ۧ لَاجُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ مَالَمْ تَمَسُّوْھُنَّ اَوْ تَفْرِضُوْا لَھُنَّ فَرِيْضَةً ښ وَّمَتِّعُوْھُنَّ ۚ عَلَي الْمُوْسِعِ قَدَرُهٗ وَعَلَي الْمُقْتِرِ قَدَرُهٗ ۚ مَتَاعًۢابِالْمَعْرُوْفِ ۚ حَقًّا عَلَي الْمُحْسِـنِيْنَ ٢٣٦ وَاِنْ طَلَّقْتُمُوْھُنَّ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَمَسُّوْھُنَّ وَقَدْ فَرَضْتُمْ لَھُنَّ فَرِيْضَةً فَنِصْفُ مَا فَرَضْتُمْ اِلَّآ اَنْ يَّعْفُوْنَ اَوْ يَعْفُوَا الَّذِيْ بِيَدِهٖ عُقْدَةُ النِّكَاحِ ۭ وَاَنْ تَعْفُوْٓا اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰى ۭ وَلَا تَنْسَوُا الْفَضْلَ بَيْنَكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ ٢٣٧
आयत 232
“और जब तुम अपनी औरतों को तलाक़ दे दो, फिर वह अपनी इद्दत पूरी कर लें, तो मत आड़े आओ इसमें कि वह औरतें फिर निकाह कर लें अपने साबिक़ अज़वाज से, जबकि वह आपस में रज़ामंद हो जाएँ भले तरीक़े पर।” | وَاِذَا طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ فَبَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ فَلَا تَعْضُلُوْھُنَّ اَنْ يَّنْكِحْنَ اَزْوَاجَهُنَّ اِذَا تَرَاضَوْا بَيْنَهُمْ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ |
जो औरत तलाक़ पाकर अपनी इद्दत पूरी कर चुकी हो वह आज़ाद है कि जहाँ चाहे अपनी पसंद से निकाह कर ले। उसके इस इरादे में तलाक़ देने वाले शौहर या उसके ख़ानदान वालों को कोई रुकावट नहीं डालनी चाहिये। इसी तरह अगर किसी शख़्स ने अपनी बीवी को एक या दो तलाक़ दी और इद्दत के दौरान रुजूअ नहीं किया तो अब इद्दत के बाद औरत को इख़्तियार हासिल है कि वह चाहे तो उसी शौहर से निक़ाहे सानी (दोबारा) कर सकती है। आयत 228 के ज़ेल में यह बात वज़ाहत के साथ बयान हो चुकी है कि एक या दो तलाक़ की सूरत में शौहर को इद्दत के दौरान रुजूअ का हक़ हासिल है। लेकिन अगर इद्दत पूरी हो गई तो अब यह तलाक़ रजीअ नहीं रही, तलाक़े बाईन हो गई। अब शौहर और बीवी का जो रिश्ता था वह टूट गया। अब अग़र यह रिश्ता फिर से जोड़ना है तो दोबारा निकाह करना होगा और इसमें औरत की मर्ज़ी को दख़ल है। इद्दत के अंदर-अंदर रुजूअ की सूरत में औरत की मर्ज़ी को दख़ल नहीं है। लेकिन इद्दत के बाद अब औरत को इख़्तियार है, वो चाहे तो उसी साबिक़ शौहर से निकाहे सानी कर ले और चाहे तो अपनी मर्ज़ी से किसी और शख़्स से निक़ाह कर ले। अलबत्ता तलाक़े मुग़लज़ (तीसरी तलाक़) के बाद जब तक उस औरत का निक़ाह किसी और मर्द से ना हो जाये और वह भी उसे तलाक़ ना दे दे, साबिक़ शौहर के साथ उसका निक़ाह नहीं हो सकता। इस आयत में यह हिदायत दी जा रही है कि तलाक़े बाईन के बाद अगर वही औरत और वही मर्द फिर से निक़ाह करना चाहें तो अब किसी को इसमें आड़े नहीं आना चाहिये। आमतौर पर औरत के क़रीबी रिश्तेदार इसमें रुकावट बनते हैं और कहते हैं कि इस शख़्स ने पहले भी तुम्हें सताया था, अब तुम फिर उसी से निक़ाह करना चाहती हो, हम तुम्हें ऐसा नहीं करने देंगे।
“यह वह चीज़ है जिसकी नसीहत की जा रही है तुममें से उसको जो वाक़िअतन ईमान रखता हो अल्लाह पर और यौमे आख़िरत पर।” | ذٰلِكَ يُوْعَظُ بِهٖ مَنْ كَانَ مِنْكُمْ يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ |
जिनके अंदर ईमान ही नहीं है उनके लिये तो यह सारी नसीहत गोया भैंस के आगे बीन बजाना है जिससे उन्हें कोई फ़ायदा नहीं पहुँचेगा।
“यही तरीक़ा तुम्हारे लिये ज़्यादा पाक और ज़्यादा उम्दा है।” | ذٰلِكُمْ اَزْكٰى لَكُمْ وَاَطْهَرُ ۭ |
“और अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।” | وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ ٢٣٢ |
लिहाज़ा तुम अपनी अक़्ल को मुक़द्दम ना रखो, बल्कि अल्लाह के अहकाम को मुक़द्दम रखो। मर्द और औरत दोनों का ख़ालिक़ वही है, उसे मर्द भी अज़ीज़ हैं और औरत भी अज़ीज़ है। नबी अकरम ﷺ ने फ़रमाया ((اَلْخَلْقُ عَیَالُ اللہِ))(29) यानि तमाम मख्लूक़ अल्लाह के कुनबे की मानिंद है। लिहाज़ा अल्लाह को तो हर इंसान महबूब है, ख़्वाह मर्द हो या औरत हो। इंसान उसकी तख़्लीक़ का शाहकार (masterpiece) है। इसके साथ-साथ उसका इल्म भी कामिल है, वह जनता है कि औरत के क्या हुक़ूक़ होने चाहिये और मर्द के क्या होने चाहिये।
आयत 233
“और माँए अपनि औलाद को दूध पिलाए पूरे दो साल” | وَالْوَالِدٰتُ يُرْضِعْنَ اَوْلَادَھُنَّ حَوْلَيْنِ كَامِلَيْنِ |
“उस शख़्स के लिये जो मुद्दते रज़ाअत पूरी करना चाहता हो।” | لِمَنْ اَرَادَ اَنْ يُّـتِمَّ الرَّضَاعَةَ ۭ |
अगर तलाक़ देने वाला शौहर यह चाहता है कि मुतलक्क़ा औरत उसके बच्चे को दूध पिलाए और रज़ाअत की मुद्दत पूरी करे तो दो साल तक वह औरत इस ज़िम्मेदारी से इंकार नहीं कर सकती।
“और बच्चे वाले के ज़िम्मे है बच्चों की माँओं का खाना और कपड़ा दस्तूर के मुताबिक़।” | وَعَلَي الْمَوْلُوْدِ لَهٗ رِزْقُهُنَّ وَكِسْوَتُهُنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ |
इस मुद्दत में बच्चे के बाप पर मुतलक़्क़ा के खाने और कपड़े की ज़िम्मेदारी है, जिसे हम नान-नफ्क़ा कहते हैं, इसलिये कि क़ानूनन औलाद शौहर की है। इस सिलसिले में दस्तूर का लिहाज़ रखना होगा। यानि मर्द की हैसियत और औरत की ज़रूरियात को पेशे नज़र ऱखना होगा। ऐसा ना हो कि मर्द करोड़पति हो लेकिन मुतलक़्क़ा बीवी को अपनी खादमाओं की तरह का नान नफ्क़ा देना चाहे।
“किसी पर ज़िम्मेदारी नहीं डाली जाती मगर उसकी वुसअत के मुताबिक़” | لَا تُكَلَّفُ نَفْسٌ اِلَّا وُسْعَهَا ۚ |
“ना तो तकलीफ़ पहुँचाई जाये किसी वालिदा को अपने बच्चे की वजह से” | لَا تُضَاۗرَّ وَالِدَةٌۢ بِوَلَدِھَا |
“और ना उसको जिसका वह बच्चा है (यानि बाप) उसके बच्चे की वजह से।” | وَلَا مَوْلُوْدٌ لَّهٗ بِوَلَدِهٖ ۤ |
यानि दोनों के साथ मुन्सिफ़ाना सुलूक किया जाये, जैसा कि हदीसे नबवी ﷺ है ((لَا ضَرَرَ وَلَا ضِرَارَ))(30) यानि ना तो नुक़सान पहुँचाना है और ना ही नुक़सान उठाना है।
“और वारिस पर भी इसी तरह की ज़िम्मेदारी है।” | وَعَلَي الْوَارِثِ مِثْلُ ذٰلِكَ ۚ |
अग़र बच्चे का बाप फ़ौत हो जाये तो बच्चे को दूध पिलाने वाली मुतलक्क़ा औरत का नान नफ्क़ा मरहूम के वारिसों के ज़िम्मे रहेगा।
“फिर अगर माँ-बाप चाहें की दूध छुड़ा लें (दो बरस के अंदर ही) बाहमि रज़ामंदी और सलाह से” | فَاِنْ اَرَادَا فِصَالًا عَنْ تَرَاضٍ مِّنْهُمَا وَتَشَاوُرٍ |
“तो उन दोनों पर कुछ गुनाह नहीं।” | فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا ۭ |
“और अगर तुम अपने बच्चों को किसी और से दूध पिलवाना चाहो” | وَاِنْ اَرَدْتُّمْ اَنْ تَسْتَرْضِعُوْٓا اَوْلَادَكُمْ |
“तो भी तुम पर कुछ गुनाह नहीं” | فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ |
अगर बच्चे का बाप या उसके वुरसा बच्चे की वालिदा की जगह किसी और औरत से बच्चे को दूध पिलवाना चाहतें हों तो भी कोई हर्ज नहीं, उन्हें इसकी इजाज़त है, बशर्ते…..
“जबकि तुम (बच्चे की माँ को) वह सब कुछ दे दो जिसका कि तुमने देना ठहराया था दस्तूर के मुताबिक़।” | اِذَا سَلَّمْتُمْ مَّآ اٰتَيْتُمْ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ |
यह ना हो कि नान नफ्क़ा बचाने के लिये अब तुम मुद्दते रज़ाअत के दरमियान बच्चे की माँ के बजाये किसी और औरत से इसलिये दूध पिलवाने लगो कि उसे मुआवज़ा कम देना पड़ेगा। अगर तुम किसी दाई वग़ैरह से दूध पिलवाना चाहते हो तो पहले बच्चे की माँ को भले-तरीक़े पर वह सब कुछ अदा कर दो जो तुमने तय किया था।
“और अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और जान रखो कि जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उसे देख रहा है।” | وَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ ٢٣٣ |
आयत 234
“और जो तुममें से वफ़ात पा जाएँ और बीवियाँ छोड़ जाएँ” | وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا |
“तो वह औरतें रोके रखें अपने आपको चार माह दस दिन तक।” | يَّتَرَبَّصْنَ بِاَنْفُسِهِنَّ اَرْبَعَةَ اَشْهُرٍ وَّعَشْرًا ۚ |
क़ब्ल अज़ आयत 228 में मुतल्ल्क़ा औरत की इद्दत तीन हैज़ बयान हुई है। यहाँ बेवा औरतों की इद्दत बयान की जा रही है कि वह शौहर की वफ़ात के चार माह दस दिन बाद तक अपने आपको शादी से रोके रखें।
“पस जब वह अपनी इस मुद्दत तक पहुँच जाऐं (यानि इद्दत गुज़ार लें)” | فَاِذَا بَلَغْنَ اَجَلَهُنَّ |
“तो तुम पर कोई गुनाह नहीं है इस मामले में जो कुछ वह अपने बारे में दस्तूर के मुताबिक़ करें।” | فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْمَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِنَّ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ |
इद्दत गुज़ार चुकने के बाद वह आज़ाद हैं, जहाँ मुनासिब समझे निकाह कर सकती हैं। अब तुम उन्हें रोकना चाहो कि हमारी नाक कट जायेगी, यह बेवा होकर सब्र से बैठ नहीं सकी, इससे रहा नहीं गया, इस तरह की बातें बिल्कुल ग़लत हैं, अब तुम्हारा कोई इख़्तियार नहीं कि तुम उन्हें रोको।
“और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उससे बाख़बर है।” | وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ ٢٣٤ |
आयत 235
“और तुम पर कुछ गुनाह नहीं है इसमें कि किनाया व इशारे में ज़ाहिर कर दो उन औरतों से पैग़ामे निकाह या पोशीदा रखो अपने दिलों में।” | وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِـيْمَا عَرَّضْتُمْ بِهٖ مِنْ خِطْبَةِ النِّسَاۗءِ اَوْ اَكْنَنْتُمْ فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ ۭ |
किसी औरत का इद्दत के दौरान निकाह तो नहीं हो सकता, ना ही उसे वाज़ेह तौर पर पैग़ामे निकाह दिया जा सकता है, अलबत्ता इशारे किनाए में यह बात कही जा सकती है कि मुझे इसमें दिलचस्पी है। या फिर यह बात अपने दिल ही में पोशीदा रखी जाये और इद्दत ख़त्म होने का इंतज़ार किया जाये।
“अल्लाह को मालूम है कि तुम इन औरतों का ज़िक्र करोगे।” | عَلِمَ اللّٰهُ اَنَّكُمْ سَتَذْكُرُوْنَهُنَّ |
आख़िर तुम्हें उनका ख़्याल तो आयेगा कि यह औरत बेवा हो गई है, अब मैं इससे शादी कर सकता हूँ। कोई आदमी यह भी सोच सकता है कि यह जो मेरे दिल में बेवा के बारे में ख़्याल आ रहा है और उससे निक़ाह की रग़बत पैदा हो रही है तो शायद मैं गुनहगार हूँ। यहाँ इत्मिनान दिलाया जा रहा है कि ऐसे ख़्याल का आना गुनाह नहीं है, यह क़ानूने फ़ितरत है।
“लेकिन उनसे निकाह का वादा ना कर रखो छुप कर” | وَلٰكِنْ لَّا تُوَاعِدُوْھُنَّ سِرًّا |
ऐसा ना हो कि ख़ुफिया ही ख़ुफिया निकाह की बात पक्की हो जाये।
“सिवाय इसके कि कोई बात कह दो मारूफ़ तरीक़े से।” | اِلَّآ اَنْ تَقُوْلُوْا قَوْلًا مَّعْرُوْفًا ڛ |
बस कोई ऐसी मारूफ़ बात कह सकते हो जिससे उन्हें इशारा मिल जाये।
“और मत बाँधो गिरह निकाह की जब तक कि क़ानूने शरीअत अपनी मुद्दत को ना पहुँच जाये।” | وَلَا تَعْزِمُوْا عُقْدَةَ النِّكَاحِ حَتّٰي يَبْلُغَ الْكِتٰبُ اَجَلَهٗ ۭ |
यानि अल्लाह की मुक़र्रर कर्दा इद्दत जब तक पूरी ना हो जाये। यहाँ किताब से मुराद क़ानूने शरीअत है। किताबुल्लाह में बेवा की इद्दत चार माह दस दिन मुक़र्रर कर दी गई, इसका पूरा होना ज़रूरी है, इससे पहले निकाह नहीं हो सकता।
“और जान रखो कि अल्लाह ख़ूब जानता है जो कुछ तुम्हारे दिलों में है, पस उससे डरते रहो।” | وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُ مَا فِىْٓ اَنْفُسِكُمْ فَاحْذَرُوْهُ ۚ |
उसकी पकड़ से बचने की कोशिश करो।
“और यह भी जान रखो कि अल्लाह बख़्शने वाला और बुर्दबार है।” | وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ حَلِيْمٌ ٢٣٥ۧ |
अल्लाह ग़फ़ूर है, बख़्शने वाला है, कोई ख़ता हो गई है तो इस्तग़फ़ार करो, तौबा करो, अल्लाह माफ़ फ़रमायेगा। और वह हलीम है, तहम्मुल (धैर्य) करने वाला है फ़ौरन नहीं पकड़ता, बल्कि ढ़ील देता है, मोहलत देता है कि अगर चाहो तो तुम तौबा कर लो।
आयत 236
“तुम पर कोई गुनाह नहीं है अगर तुम ऐसी बीवियों को तलाक़ दे दो जिनको ना तुमने अभी छुआ हो और ना उनके लिये महर मुक़र्रर किया हो।” | لَاجُنَاحَ عَلَيْكُمْ اِنْ طَلَّقْتُمُ النِّسَاۗءَ مَالَمْ تَمَسُّوْھُنَّ اَوْ تَفْرِضُوْا لَھُنَّ فَرِيْضَةً ښ |
अगर कोई शख़्स अपनी मन्कूहा (बीवी) को इस हाल में तलाक़ देना चाहे कि ना तो उसके साथ खल्वते सहीह (complete privacy) की नौबत आई हो और ना ही उसके लिये महर मुक़र्रर किया गया हो तो वह दे सकता है।
“और उनको कुछ ख़र्च दो।” | وَّمَتِّعُوْھُنَّ ۚ |
इस सूरत में अग़रचे महर की अदायगी लाज़िम नहीं है, लेकिन मर्द को चाहिये कि वह उसे कुछ ना कुछ माल व मता-ए-दुनियवी कपड़े वग़ैरह दे दिला कर फ़ारिग करे।
“साहिबे वुसअत पर अपने हैसियत के मुताबिक़ ज़रूरी है और तंगदस्त पर अपनी हैसियत के मुताबिक़।” | عَلَي الْمُوْسِعِ قَدَرُهٗ وَعَلَي الْمُقْتِرِ قَدَرُهٗ ۚ |
जो वुसअत वाला है, गनी है, जिसको कशाइश हासिल है वह अपनी हैसियत के मुताबिक़ अदा करे और जो तंगदस्त है वह अपनी हैसियत के मुताबिक़।
“जो ख़र्च के क़ायदे के मुवाफ़िक़ है।” | مَتَاعًۢابِالْمَعْرُوْفِ ۚ |
यह साज़ो सामाने दुनिया जो है यह भी भले अंदाज़ में दिया जाये, ऐसा ना हो कि जैसे ख़ैरात दी जा रही हो।
“यह हक़ है मोहसिनीन पर।” | حَقًّا عَلَي الْمُحْسِـنِيْنَ ٢٣٦ |
नेकी करने वाले, भले लोग यह समझ लें कि यह उन पर अल्लाह तआला कि तरफ़ से आयद कर्दा एक ज़िम्मेदारी है।
आयत 237
“और अगर तुम औरतों को तलाक़ दो उनको हाथ लगाने से पहले और तुम ठहरा चुके थे उनके लिये एक मुतअय्यन (निर्धारित) महर” | وَاِنْ طَلَّقْتُمُوْھُنَّ مِنْ قَبْلِ اَنْ تَمَسُّوْھُنَّ وَقَدْ فَرَضْتُمْ لَھُنَّ فَرِيْضَةً |
“तो जो महर तुमने तय किया था अब उसका आधा अदा करना लाज़िम है” | فَنِصْفُ مَا فَرَضْتُمْ |
इस सूरत में मुक़र्रर शुदा महर का आधा तो तुम्हें देना ही देना है।
“इल्ला यह कि वह माफ़ कर दें” | اِلَّآ اَنْ يَّعْفُوْنَ |
यानि कोई औरत ख़ुद कहे कि मुझे आधा भी नहीं चाहिये या कोई कहे कि मुझे चौथाई दे दीजिये।
“या वह शख़्स दरगुज़र से काम ले जिसके हाथ में निकाह की गिरह है।” | اَوْ يَعْفُوَا الَّذِيْ بِيَدِهٖ عُقْدَةُ النِّكَاحِ ۭ |
और यह गिरह मर्द के हाथ में है, वह उसे खोल सकता है। औरत अज़ ख़ुद तलाक़ दे नहीं सकती। लिहाज़ा मर्दों के लिये तरगीब है कि वह इस मामले में फ़राख़ (उदार) दिली से काम लें।
“और यह कि तुम मर्द दरगुज़र करो तो यह तक़वा से क़रीबतर है।” | وَاَنْ تَعْفُوْٓا اَقْرَبُ لِلتَّقْوٰى ۭ |
“और अपने माबैन अहसान करना मत भुला दो।” | وَلَا تَنْسَوُا الْفَضْلَ بَيْنَكُمْ ۭ |
इसका तर्जुमा यूँ भी किया गया है: “और तुम्हारे दरमियान एक को दूसरे पर जो फ़ज़ीलत है उसको मत भूलो।” यानि अल्लाह ने जो फ़ज़ीलत तुम मर्दों को औरतों पर दी है उसको मत भूलो। चुनाँचे तुम्हारा तर्ज़े अमल भी ऐसा होना चाहिये कि तुम अपने बड़े होने के हिसाब से उनके साथ नर्मी करो और उनको ज़्यादा दो। तुमने उनका जितना भी महर मुक़र्रर किया था वह निस्फ़ के बजाय पूरा दे दो और उन्हें मारूफ़ तरीक़े से इज़्ज़त व तकरीम के साथ रुख्सत करो।
“यक़ीनन जो कुछ तुम कर रहो हो अल्लाह उसे देख रहा है।” | اِنَّ اللّٰهَ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ ٢٣٧ |
आयात 238 से 242 तक
حٰفِظُوْا عَلَي الصَّلَوٰتِ وَالصَّلٰوةِ الْوُسْطٰى ۤ وَقُوْمُوْا لِلّٰهِ قٰنِتِيْنَ ٢٣٨ فَاِنْ خِفْتُمْ فَرِجَالًا اَوْ رُكْبَانًا ۚ فَاِذَآ اَمِنْتُمْ فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَمَا عَلَّمَكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ ٢٣٩ وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا ښ وَّصِيَّةً لِّاَزْوَاجِهِمْ مَّتَاعًا اِلَى الْحَوْلِ غَيْرَ اِخْرَاجٍ ۚ فَاِنْ خَرَجْنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْ مَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِنَّ مِنْ مَّعْرُوْفٍ ۭ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٤٠ وَلِلْمُطَلَّقٰتِ مَتَاعٌۢ بِالْمَعْرُوْفِ ۭحَقًّا عَلَي الْمُتَّقِيْنَ ٢٤١ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ ٢٤٢ۧ
आयत 238
“मुहाफ़ज़त करो तमाम नमाज़ों की और ख़ास तौर पर बीच वाली नमाज़ की।” | حٰفِظُوْا عَلَي الصَّلَوٰتِ وَالصَّلٰوةِ الْوُسْطٰى ۤ |
यह जो बार-बार आ रहा है कि जान लो अल्लाह हर शय का जानने वाला है, जान रखो कि अल्लाह तुम्हारे सब कामों को देख रहा है, जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह कि निगाह में है, जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उससे बाख़बर है, तो इस सबको क़ल्ब व ज़हन में मुस्तहज़र रखने के लिये तुम्हें पंच वक़्ता नमाज़ दी गई है कि इसकी निगहदाश्त करो। दुनिया के कारोबार से निकलो और और अल्लाह के हुज़ूर हाज़िर होकर उससे किया हुआ अहद ताज़ा करो। हफ़ीज़ का एक शेर है:
सरकशी ने कर दिये धुँधले नुक़ूशे बन्दगी
आओ सजदे मे गिरें लौहे जबीं ताज़ा करें!
“सलातुल वुस्ता” (बीच वाली नमाज़) के बारे में बहुत से अक़वाल हैं, लेकिन आमतौर पर इससे मुराद असर की नमाज़ ली जाती है। इसलिये कि दिन में दो नमाज़े फ़जर और ज़ुहर इससे पहले हैं और दो ही नमाज़ें मग़रिब और इशा इसके बाद में हैं।
“और खड़े हुआ करो अल्लाह के सामने पूरे अदब के साथ।” | وَقُوْمُوْا لِلّٰهِ قٰنِتِيْنَ ٢٣٨ |
क़याम, रुकूअ और सजदा फ़राइज़े नमाज़ में से हैं। रुकूअ में बंदा अपने रब के हुज़ूर आजिज़ी से झुक जाता है, सजदा उस झुकने कि इन्तहा है। मतलूब यह है कि क़याम भी क़ुनूत, आजिज़ी और इन्कसारी (विनम्रता) के साथ हो, मालूम हो कि एक बंदा अपने आक़ा के सामने बाअदब खड़ा है।
आयत 239
“फिर अगर तुम ख़तरे की हालत में तो चाहे प्यादा पढ़ लो या सवार।” | فَاِنْ خِفْتُمْ فَرِجَالًا اَوْ رُكْبَانًا ۚ |
दुश्मन अगर पीछा कर रहा है और आप रुक कर तमाम शराइत व आदाब के साथ नमाज़ पढ़ना शुरु कर देगें तो वह आपके सर पर पहुँच जायेगा। या आपने कहीं जाकर फ़ौरी तौर पर हमला करना है और आप नमाज़ के लिये रुक जाऐंगे तो मतलूबा हदफ़ (लक्ष्य) हासिल नहीं कर सकेगें। चुनाँचे दुश्मन से ख़तरे की हालत में पैदल या सवार जिस हाल में भी हों नमाज़ पढ़ी जा सकती है।
“फिर जब तुम अमन में हो जाओ” | فَاِذَآ اَمِنْتُمْ |
ख़तरा दूर हो जाये और अमन की हालत हो।
“फिर अल्लाह को याद करो जैसे कि तुम्हें उसने सिखाया है जिसको तुम नहीं जानते थे।” | فَاذْكُرُوا اللّٰهَ كَمَا عَلَّمَكُمْ مَّا لَمْ تَكُوْنُوْا تَعْلَمُوْنَ ٢٣٩ |
उम्मत को नमाज़ का तरीक़ा मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ सिखाया है और हुक्म दिया है: ((صَلُّوْا کَمَا رَاَیْتُمُوْنِیْ اُصَلِّیْ))(31) “नमाज़ पढ़ो जैसे कि तुम मुझे नमाज़ पढ़ते हुए देखते हो।” नमाज़ का यह तरीक़ा अल्लाह तआला का सिखाया हुआ है। रिवायात से साबित है कि हज़रत जिब्रील अलै० ने आकर मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को दो दिन नमाज़ पढ़ाई है। एक दिन पाँचों नमाज़ें अव्वल वक़्त में और दूसरे दिन पाँचों नमाज़ें आख़री वक़्त में पढ़ाईं और बता दिया कि इन नमाज़ों का वक़्त इन अवक़ात के दरमियान है। चुनाँचे नमाज़ के मामले में आँहुज़ूर ﷺ के मुअल्लिम हज़रत जिब्रील अलै० हैं और आप ﷺ पूरी उम्मत के लिये मुअल्लिम हैं।
अब बेवा औरतों के बारे में मज़ीद हिदायात आ रही हैं।
आयत 240
“और जो लोग तुममें से वफ़ात दे दिये जाऐं और वो छोड़ जाएँ बीवियाँ” | وَالَّذِيْنَ يُتَوَفَّوْنَ مِنْكُمْ وَيَذَرُوْنَ اَزْوَاجًا ښ |
“तो वह वसीयत कर जाऐं अपनी बीवियों के लिये एक साल तक के लिये नान नफ़्क़ा की, बगैर इसके कि उन्हें घरों से निकाला जाये।” | وَّصِيَّةً لِّاَزْوَاجِهِمْ مَّتَاعًا اِلَى الْحَوْلِ غَيْرَ اِخْرَاجٍ ۚ |
मिसाल के तौर पर एक शख़्स फ़ौत हुआ है और उसकी चार बीवियाँ हैं, जिनमें से एक के यहाँ औलाद है, जबकि बाक़ी तीन इस औलाद सौतेली माँऐं हैं। अब यह औलाद सगी माँ को तो अपनी माँ समझ कर उसकी ख़िदमत करेगी और बाकी तीन को ख़्वाह माख़्वाह की ज़िम्मेदारी (liability) समझेगी। तो फ़रमाया कि ऐसा ना हो कि इन बेवाओं को फ़ौरन घर से निकाल दो, कि जाओ अपना रास्ता लो, जिससे तुम्हारी शादी थी वह तो फ़ौत हो गया, बल्कि एक साल के लिये उन्हें घर से ना निकाला जाये और उनका नान नफ़्क़ा दिया जाये। इन आयतों के नुज़ूल तक क़ानूने विरासत अभी नहीं आया था, लिहाज़ा बेवाओं के बारे में वसीयत का उबूरी हुक्म दिया गया, जैसे कि क़ब्ल अज़ आयत 180 में वालिदैन और क़राबतदारों के लिये वसीयत का उबूरी हुक्म दिया गया। सूरतुन्निसा में क़ानूने विरासत नाज़िल हुआ तो उसमें वालिदैन का हक़ भी मुअय्यन कर दिया गया और शौहर की वफ़ात की सूरत में बीवी के हक़ का और बीवी की वफ़ात की सूरत में शौहर के हक़ का भी तअय्युन कर दिया गया और अब वालिदैन व अज़ीज़ व अक़ारिब और बेवगान (बेवाओं) के हक़ में वसीयत की हिदायात मन्सूख़ हो गईं।
“फिर अगर वह औरतें ख़ुद निकल जाऐं तो तुम पर इसका कोई गुनाह नहीं जो कुछ वह अपने हक़ में मारूफ़ तरीक़े पर करें।” | فَاِنْ خَرَجْنَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيْ مَا فَعَلْنَ فِيْٓ اَنْفُسِهِنَّ مِنْ مَّعْرُوْفٍ ۭ |
अगर कोई औरत इद्दत गुज़ारने के बाद दूसरी शादी करके कहीं बसना चाहे तो तुम उसे साल भर के लिये रोक नहीं सकते। वह अपने हक़ में मारूफ़ तरीक़े पर जो भी फ़ैसला करें वह उसकी मिजाज़ (अधिकृत) है, इसका कोई इल्ज़ाम तुम पर नहीं आयेगा।
“और यक़ीनन अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, हिकमत वाला है।” | وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ ٢٤٠ |
आयत 241
“और मुतल्ल्क़ा औरतों को भी साज़ो सामाने ज़िन्दगी देना है मारूफ़ तरीक़े पर।” | وَلِلْمُطَلَّقٰتِ مَتَاعٌۢ بِالْمَعْرُوْفِ ۭ |
“यह लाज़िम है परहेज़गारों पर।” | حَقًّا عَلَي الْمُتَّقِيْنَ ٢٤١ |
वाज़ेह रहे कि यह हिदायत इद्दत के वक़्त तक के लिये है, उसके बाद नहीं। इसी मामले में कलकत्ता हाई कोर्ट ने शाह बानो केस में जो एक फ़ैसला दिया था उस पर हिन्दुस्तान में शदीद एहतजाज हुआ था। उसने यह फ़ैसला दिया था कि मुसलमान अगर अपनी बीवी को तलाक़ दे दे तो वह बीवी अगर दूसरी शादी कर ले तब तो बात दूसरी है, वरना जब तक वह ज़िन्दा रहेगी उसका नान नफ़्क़ा तलाक़ देने वाले के ज़िम्मे रहेगा। इस पर भारत के मुसलमानों ने कहा कि यह हमारी शरीअत में दख़ल अंदाजी है, शरीअत ने मुतल्लक़ा के लिये सिर्फ़ इद्दत तक नान नफ़्क़ा का हक़ रखा है। चुनाँचे मुसलमानों ने इस मसले पर एहतजाजी तहरीक चलाई, जिसमें बहुत से लोगों ने जानों का नज़राना पेश किया। आख़िरकार राजीव गाँधी की हुकूमत को घुटने टेकने पड़े और फिर वहाँ यह क़ानून बना दिया गया कि हिन्दुस्तान की कोई अदालत बशमूल सुप्रीम कोर्ट मुसलमानों के आइली क़वानीन में दख़ल नहीं दे सकती। इस पर मैं मुसलमाने भारत की अज़मत को सलाम पेश किया करता हूँ। इसके बरअक्स हमारे यहाँ यह हुआ कि एक फ़ौजी आमिर ने आइली क़वानीन बनाये जिनके बारे में सुन्नी, शिया, अहले हदीस, देवबंदी, बरेलवी तमाम उल्मा और जमाअते इस्लामी की चोटी की क़यादत सबने मुतफ़क़्क़ा तौर पर यह कहा कि यह क़वानीन ख़िलाफ़े इस्लाम हैं, मगर वह आज तक चल रहे हैं। एक और फ़ौजी आमिर ग्यारह बरस तक यहाँ पर कोसे لِمَنِ الْمُلْکُ الْیَوْمَ बजाता रहा और इस्लाम इस्लाम का भी राग़ भी अलापता रहा, लेकिन उसने भी इन क़वानीन को ज्यों का त्यों बरक़रार रखा। इसी बुनियाद पर मैंने इसकी शूरा से इस्तीफ़ा दे दिया था। लेकिन हिन्दुस्तान के मुसलमानों ने वहाँ पर यह बात नहीं होने दी।
आयत 242
“इसी तरह अल्लाह तआला तुम्हारे लिये अपनी आयात को वाज़ेह कर रहा है ताकि तुम अक़्ल से काम लो (और समझो)।” | كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِهٖ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُوْنَ ٢٤٢ۧ |