Suratul baqarah-सूरतुल बक़रह ayat 243 – 286

आयात 243 से 253 तक

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ خَرَجُوْا مِنْ دِيَارِھِمْ وَھُمْ اُلُوْفٌ حَذَرَ الْمَوْتِ ۠ فَقَالَ لَهُمُ اللّٰهُ مُوْتُوْا     ۣ ثُمَّ اَحْيَاھُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَذُوْ فَضْلٍ عَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُوْنَ  ٢٤٣؁ وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ   ٢٤٤؁ مَنْ ذَا الَّذِيْ يُقْرِضُ اللّٰهَ قَرْضًا حَسَنًا فَيُضٰعِفَهٗ لَهٗٓ اَضْعَافًا كَثِيْرَةً  ۭوَاللّٰهُ يَـقْبِضُ وَيَبْصُۜطُ ۠وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ  ٢٤٥؁ اَلَمْ تَرَ اِلَى الْمَلَاِ مِنْۢ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِ يْلَ مِنْۢ بَعْدِ مُوْسٰى ۘ اِذْ قَالُوْا لِنَبِىٍّ لَّهُمُ ابْعَثْ لَنَا مَلِكًا نُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۭقَالَ ھَلْ عَسَيْتُمْ اِنْ كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ اَلَّا تُقَاتِلُوْا  ۭ قَالُوْا وَمَا لَنَآ اَلَّا نُقَاتِلَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَقَدْ اُخْرِجْنَا مِنْ دِيَارِنَا وَاَبْنَاۗىِٕنَا  ۭ فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ تَوَلَّوْا اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۭ وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِمِيْنَ  ٢٤٦؁ وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ اِنَّ اللّٰهَ قَدْ بَعَثَ لَكُمْ طَالُوْتَ مَلِكًا  ۭ قَالُوْٓا اَنّٰى يَكُوْنُ لَهُ الْمُلْكُ عَلَيْنَا وَنَحْنُ اَحَقُّ بِالْمُلْكِ مِنْهُ وَلَمْ يُؤْتَ سَعَةً مِّنَ الْمَالِ ۭ قَالَ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىهُ عَلَيْكُمْ وَزَادَهٗ بَسْطَةً فِي الْعِلْمِ وَالْجِسْمِ ۭ وَاللّٰهُ يُؤْتِيْ مُلْكَهٗ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ   ٢٤٧؁ وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ اِنَّ اٰيَةَ مُلْكِهٖٓ اَنْ يَّاْتِيَكُمُ التَّابُوْتُ فِيْهِ سَكِيْنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَبَقِيَّةٌ مِّمَّا تَرَكَ اٰلُ مُوْسٰى وَاٰلُ ھٰرُوْنَ تَحْمِلُهُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ  ٢٤٨؁ۧ فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوْتُ بِالْجُنُوْدِ ۙ قَالَ اِنَّ اللّٰهَ مُبْتَلِيْكُمْ بِنَهَرٍ ۚ فَمَنْ شَرِبَ مِنْهُ فَلَيْسَ مِنِّىْ ۚ وَمَنْ لَّمْ يَطْعَمْهُ فَاِنَّهٗ مِنِّىْٓ اِلَّا مَنِ اغْتَرَفَ غُرْفَةًۢ بِيَدِهٖ ۚ فَشَرِبُوْا مِنْهُ اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۭ فَلَمَّا جَاوَزَهٗ ھُوَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ ۙ قَالُوْا لَا طَاقَةَ لَنَا الْيَوْمَ بِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِهٖ ۭ قَالَ الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّهُمْ مُّلٰقُوااللّٰهِ ۙ كَمْ مِّنْ فِئَةٍ قَلِيْلَةٍ غَلَبَتْ فِئَةً كَثِيْرَةًۢ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ   ٢٤٩؁ وَلَمَّا بَرَزُوْا لِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِهٖ قَالُوْا رَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا وَّثَبِّتْ اَقْدَامَنَا وَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ  ٢٥٠؀ۭ فَهَزَمُوْھُمْ بِاِذْنِ اللّٰهِ  ڐ وَقَتَلَ دَاوٗدُ جَالُوْتَ وَاٰتٰىهُ اللّٰهُ الْمُلْكَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَهٗ مِمَّا يَشَاۗءُ   ۭ وَلَوْلَا دَفْعُ اللّٰهِ النَّاسَ بَعْضَهُمْ بِبَعْضٍ ۙ لَّفَسَدَتِ الْاَرْضُ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ ذُوْ فَضْلٍ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ   ٢٥١؁ تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْھَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ ۭ وَاِنَّكَ لَمِنَ الْمُرْسَلِيْنَ   ٢٥٢؀ تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ  ۘ مِنْھُمْ مَّنْ كَلَّمَ اللّٰهُ وَرَفَعَ بَعْضَھُمْ دَرَجٰتٍ ۭ وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِيْنَ مِنْۢ بَعْدِھِمْ مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْھُمُ الْبَيِّنٰتُ وَلٰكِنِ اخْتَلَفُوْا فَمِنْھُمْ مَّنْ اٰمَنَ وَمِنْھُمْ مَّنْ كَفَرَ  ۭ وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا اقْتَتَلُوْا  ۣوَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَفْعَلُ مَا يُرِيْدُ  ٢٥٣؁ۧ

अब जो दो रुकूअ ज़ेरे मुताअला आ रहे हैं यह इस ऐतबार से बहुत अहम हैं कि इनमें उस जंग का तज़किरा है जिसकी हैसियत गोया तारीखी बनी इस्राईल के ग़ज़वा-ए-बदर की है। क़ब्ल अज़ यह बात ज़िक्र की जा चुकी है कि हज़रत मूसा अलै० के बाद बनी इस्राईल ने यूशा बिन नून की सरकरदगी में जिहाद व क़िताल किया तो फ़लस्तीन फ़तह हो गया। लेकिन उन्होंने एक मुस्तहकम हुकूमत क़ायम करने की बजाय छोटी-छोटी बारह हुकूमतें बना लीं और आपस में लड़ते भी रहे। लेकिन तीन सौ बरस के बाद फिर यह सूरते हाल पैदा हुई कि जब उनके ऊपर दुनिया तंग हो गई और आस-पास की काफ़िर और मुशरिक क़ौमों ने उन्हें दबा लिया और बहुत सों को उनके घरों और उनके मुल्कों से निकाल दिया तो फिर तंग आकर उन्होंने उस वक़्त के नबी से कहा कि हमारे लिये कोई बादशाह, यानि सिपहसालार मुक़र्रर कर दीजिये, अब हम अल्लाह की राह में जंग करेगें। चुनाँचे वह जो जंग हुई है तालूत और जालूत की, उसके बाद गोया बनी इस्राईल का दौरे ख़िलाफ़रे राशदा शुरू हुआ।

बनी इस्राईल की तारीख़ का यह दौर जिसे मैं “ख़िलाफ़ते राशदा” से ताबीर कर रहा हूँ, उनके रसूल अलै० के इन्तेक़ाल के तीन सौ बरस बाद शुरू हुआ, जबकि इस उम्मते मुस्लिमा की ख़िलाफ़ते राशदा रसूल अल्लाह ﷺ के ज़माने के साथ मुत्तसिल (जुड़ा) है। इसलिये कि सहाबा किराम रज़ि० ने जानें दीं, ख़ून दिया, क़ुर्बानियाँ दीं और इसके नतीजे में रसूल अल्लाह ﷺ की ज़िन्दगी ही में दीन ग़ालिब हो गया और इस्लामी रियासत क़ायम हो गई। नतीजतन आप ﷺ के इन्तेक़ाल के बाद ख़िलाफ़त का दौर शुरू हो गया, लेकिन वहाँ तीन सौ बरस गुज़रने के बाद उनका दौरे ख़िलाफ़त आया है। इसमें भी तीन ख़िलाफ़तें तो मुत्तफ़िक़ अलैह हैं। यानि हज़रत तालूत, हज़रत दाऊद और हज़रत सुलेमान अलै० की ख़िलाफ़त। लेकिन चौथी ख़िलाफ़त पर आकर तक़सीम हो गई। जैसे हज़रत अली रज़ि० ख़लीफ़ा-ए-राबेअ के ज़माने में आलमे इस्लाम मुन्क़सिम हो गया कि मिस्र और शाम ने हज़रत अली रज़ि० की ख़िलाफ़त को तस्लीम नहीं किया। इस तरह फ़लस्तीन की मम्लकत हज़रत सुलेमान अलै० के दो बेटों में तक़सीम हो गई, और इस्राईल और यहूदिया के नाम से दो रियासतें वुजूद में आ गईं। क़ुरान हकीम में इस मक़ाम पर तालूत और जालूत की उस जंग का तज़किरा आ रहा है जिसके बाद तारीखी बनी इस्राईल में इस्लाम के ग़ल्बे और ख़िलाफ़ते राशदा का आग़ाज़ हो रहा है। यह दरहक़ीक़त सहबा किराम रज़ि० को एक आईना दिखाया जा रहा है कि अब यही मरहला तुम्हें दरपेश है, ग़ज़वा-ए-बदर पेश आया चाहता है।

आयत 243

“क्या तुमने उन लोगों के हाल पर ग़ौर नहीं किया जो निकल खड़े हुए अपने घरों से”اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ خَرَجُوْا مِنْ دِيَارِھِمْ
“जबकि वह हज़ारों की तादाद में थे”وَھُمْ اُلُوْفٌ
“मौत के डर की वजह से।”حَذَرَ الْمَوْتِ ۠

यानि जब कुफ़्फ़ार और मुशरिकीन ने उन पर ग़लबा कर लिया और यह दहशतज़दा होकर, अपने मुल्क छोड़ कर, अपने घरों से निकल भागे।

“तो अल्लाह ने उनसे कहा कि मर जाओ!”فَقَالَ لَهُمُ اللّٰهُ مُوْتُوْا     ۣ
“फिर (अल्लाह ने) उन्हें ज़िन्दा किया।”ثُمَّ اَحْيَاھُمْ ۭ

यहाँ मौत से मुराद ख़ौफ और बुज़दिली की मौत भी हो सकती है जो उन पर बीस बरस तारी रही, फिर सिमोइल (Samuel) नबी की इस्लाह व तजदीद की कोशिशों से उनकी निशाते सानिया हुई और अल्लाह ने उनके अंदर एक जज़्बा पैदा कर दिया। गोया यहाँ पर मौत और अहया (ज़िन्दगी) से मुराद मायनवी और रुहानी व अख़्लाक़ी मौत और अहया है। लेकिन बिल् फ़अल जसदी मौत और अहया भी अल्लाह के इख़्तियार से बाहर नहीं, उसकी क़ुदरत में है, वह सबको मार कर भी दोबारा ज़िन्दा कर सकता है।

“यक़ीनन अल्लाह तआला तो लोगों पर बड़ा फ़ज़ल करने वाला है लेकिन अक्सर लोग शुक्र नहीं करते।”اِنَّ اللّٰهَ لَذُوْ فَضْلٍ عَلَي النَّاسِ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَشْكُرُوْنَ  ٢٤٣؁

अक्सर लोग शुक्रगुज़ारी की रविश इख़्तियार करने की बजाय अल्लाह तआला के अहसानात की नाक़द्री करते हैं।

अब साबक़ा उम्मते मुस्लिमा के “ग़ज़वा-ए-बदर” का हाल बयान करने से पहले मुसलमानों से गुफ़्तगू हो रही है। इसलिये कि यह सब कुछ उनकी हिदायत के लिये बयान हो रहा है, तारीख़ बयान करना क़ुरान का मक़सद नहीं है। यह तो मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की इन्क़लाबी जद्दोजहद की तहरीक जिस मरहले से गुज़र रही थी और इन्क़लाबी अमल जिस स्टेज पर पहुँच चुका था उसकी मुनासबत से साबक़ा उम्मते मुस्लिमा की तारीख़ से वाक़्यात भी लाये जा रहे हैं और उसी की मुनास्बत से अहकाम भी दिये जा रहे हैं। चुनाँचे फ़रमाया:

आयत 244

“और जंग करो अल्लाह की राह में, और ख़ूब जान लो कि अल्लाह तआला सब कुछ सुनने वाला (और) सब कुछ जानने वाला है।”وَقَاتِلُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ   ٢٤٤؁

आयत 245

“कौन है जो अल्लाह को क़र्ज़े हसना दे तो अल्लाह उसको उसके लिये कई गुना बढ़ाता रहे।”مَنْ ذَا الَّذِيْ يُقْرِضُ اللّٰهَ قَرْضًا حَسَنًا فَيُضٰعِفَهٗ لَهٗٓ اَضْعَافًا كَثِيْرَةً  ۭ

जो इन्फ़ाक़ खालिस अल्लाह तआला के दीन के लिये किया जाता है उसे अल्लाह अपने ज़िम्मे क़र्ज़े हसना से ताबीर करता है। वह कहता है कि तुम मेरे दीन को ग़ालिब करना चाहते हो, मेरी हुकूमत क़ायम करना चाहते हो, तो जो कुछ इस पर ख़र्च करोगे वह मुझ पर क़र्ज़ है, जिसे मैं कई गुना बढ़ा-चढ़ा कर वापस करुँगा।

“और अल्लाह तंगदस्ती भी देता है और कुशादगी भी देता है।”وَاللّٰهُ يَـقْبِضُ وَيَبْصُۜطُ ۠

अल्लाह ही के इख़्तियार में है किसी चीज़ को सिकोड़ देना और खोल देना, किसी के रिज़्क़ को तंग कर देना या उसमें कशाइश कर देना।

“और उसी की तरफ़ तुम्हें लौटा दिया जायेगा।”وَاِلَيْهِ تُرْجَعُوْنَ  ٢٤٥؁

यहाँ देखिये जिहाद बिल् नफ़्स और जिहाद बिल् माल दोनों चीज़ों का तज़किरा किया जा रहा है। जिहाद बिल् नफ़्स की आख़री शक्ल क़िताल है और जिहाद बिल् माल के लिये पहले लफ़्ज़ “इन्फ़ाक़” आ रहा था, अब क़र्ज़े हसना लाया जा रहा है।

आयत 246

“क्या तुमने ग़ौर नहीं किया बनी इस्राईल के सरदारों क मामले में, जो उन्हे मूसा अलै० के बाद पेश आया?”اَلَمْ تَرَ اِلَى الْمَلَاِ مِنْۢ بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِ يْلَ مِنْۢ بَعْدِ مُوْسٰى ۘ
“जबकि उन्होंने अपने नबी से कहा कि हमारे लिये कोई बादशाह मुक़र्रर कर दीजिये, ताकि हम अल्लाह की राह में जंग करें।”اِذْ قَالُوْا لِنَبِىٍّ لَّهُمُ ابْعَثْ لَنَا مَلِكًا نُّقَاتِلْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ۭ

यहाँ बादशाह से मुराद अमीर और सिपहसालार है। ज़ाहिर बात है कि नबी की मौजूदगी में बुलंदतरीन मर्तबा तो नबी ही का रहेगा, लेकिन एक ऐसा अमीर नामज़द कर दीजिये जो नबी के ताबेअ होकर जंग की सिपहसालारी कर सके। मैं हदीस बयान कर चुका हूँ कि बनी इस्राईल में हज़रत मूसा अलै० से लेकर हज़रत ईसा अलै० तक कोई ना कोई नबी ज़रूर मौजूद रहा है। उस वक़्त सैमुअल नबी थे जिनसे सरदाराने बनी इस्राईल ने यह फ़रमाइश की थी।

“उन्होंने कहा कि तुमसे इस बात का भी अंदेशा है कि जब तुम पर जंग फ़र्ज़ कर दी जाये तो उस वक़्त तुम जंग ना करो।”قَالَ ھَلْ عَسَيْتُمْ اِنْ كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ اَلَّا تُقَاتِلُوْا  ۭ

यानि अभी तो तुम्हारे बड़े दावे हैं, बड़े जोश व ख़रोश और बहादुरी का इज़हार कर रहे हो, लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं होगा कि मैं अल्लाह तआला से जंग की इजाज़त भी लूँ और तुम्हारे लिये कोई सिपहसालार या बादशाह भी मुक़र्रर कर दूँ और फिर तुम जंग से कन्नी कतरा जाओ?

“उन्होंने कहा कि यह कैसे हो सकता है कि हम अल्लाह की राह में क़िताल ना करें?” قَالُوْا وَمَا لَنَآ اَلَّا نُقَاتِلَ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ
“जबकि हमें निकाल दिया गया है हमारे घरों से और अपने बेटों से।”وَقَدْ اُخْرِجْنَا مِنْ دِيَارِنَا وَاَبْنَاۗىِٕنَا  ۭ

दुश्मनों ने उनके बेटों को गुलाम और उनकी औरतों को बांदियाँ बना लिया था और यह अपने मुल्कों से ख़ौफ़ के मारे भागे हुए थे। चुनाँचे उन्होंने कहा कि अब हम जंग नहीं करेगें तो क्या करेंगे?

“फिर जब उन पर जंग फ़र्ज़ कर दी गई”فَلَمَّا كُتِبَ عَلَيْهِمُ الْقِتَالُ
“तो सब पीठ फेर गये, सिवाय उनकी एक क़लील (थोड़ी) तादाद के”تَوَلَّوْا اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۭ

यह गोया मुसलमानों को तम्बीह (चेतावनी) की जा रही है कि तुम भी बहुत कहते रहे हो कि हुज़ूर हमें जंग की इजाज़त मिलनी चाहिये, लेकिन ऐसा ना हो कि जब जंग का हुक्म आये तो वह तुम्हें नागवार गुज़रे। आयत 216 में हम यह अल्फ़ाज़ पढ़ चुके हैं: { كُتِبَ عَلَيْكُمُ الْقِتَالُ وَھُوَ كُرْهٌ لَّكُمْ ۚ } “तुम पर जंग फ़र्ज़ की गई है और वह तुम्हें नागवार है।”

“और अल्लाह ऐसे ज़ालिमों से ख़ूब बाख़बर है।”وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالظّٰلِمِيْنَ  ٢٤٦؁

आयत 247

“और उनसे कहा उनके नबी अलै० ने कि अल्लाह तआला ने तालूत को तुम्हारा बादशाह मुक़र्रर कर दिया है।”وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ اِنَّ اللّٰهَ قَدْ بَعَثَ لَكُمْ طَالُوْتَ مَلِكًا  ۭ

इनका नाम तौरात में साउल (Saul) आया है। हो सकता है कि असल नाम साउल हो, लेकिन चूँकि वह बहुत क़द्दावर थे इसलिये उनका एक सिफ़ाती नाम या लक़ब “तालूत” हो। तालूत के मायने “लंबे तड़ंगे” के हैं।

“उन्होंने कहा कि कैसे हो सकता है कि उसे हमारे ऊपर बादशाहत मिले?”قَالُوْٓا اَنّٰى يَكُوْنُ لَهُ الْمُلْكُ عَلَيْنَا
“जबकि हम उससे ज़्यादा हक़दार हैं बादशाहत के”وَنَحْنُ اَحَقُّ بِالْمُلْكِ مِنْهُ
“और उसे तो माल की वुसअत भी नहीं दी गई।”وَلَمْ يُؤْتَ سَعَةً مِّنَ الْمَالِ ۭ

वह तो मुफ़लिस है, उसे तो अल्लाह तआला ने ज़्यादा दौलत भी नहीं दी है। क्योंकि उनके मैयारात यही थे कि जो दौलतमंद हैं वही साहिबे इज्ज़त है।

“(नबी अलै०) ने कहा: (अब जो चाहो कहो) यक़ीनन अल्लाह ने, उसको चुन लिया है तुम पर।”قَالَ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىهُ عَلَيْكُمْ

यह फ़ैसला हो चुका है। यह अल्लाह का फ़ैसला (Divine Decision) है, जिसे कोई तब्दील नहीं कर सकता। अल्लाह ने उसी को तुम्हारी सरदारी के लिये चुना है।

“और उसे कुशादगी अता की है इल्म और जिस्म दो चीज़ों में।”وَزَادَهٗ بَسْطَةً فِي الْعِلْمِ وَالْجِسْمِ ۭ

वह ना सिर्फ़ क़द्दावर और ताक़तवर है बल्कि अल्लाह ने उसे इल्म और फ़हम भी वाफ़र (प्रयाप्त) अता फ़रमाया है, उसे उमूरे जंग से भी वाक़्फ़ियत है। तुम्हारे नज़दीक इज्ज़त और सरदारी का मैयार दौलत है, मगर अल्लाह ने उसे इन दो चीज़ों की बिना पर चुना है। एक तो वह जिस्मानी तौर पर मज़बूत और ताक़तवर है। उस दौर में ज़ाहिर बात है इसकी बहुत ज़रूरत थी। और दूसरे यह कि उसे इल्म, फ़हम, समझ और दानिश दी है।

“और अल्लाह तआला जिसको चाहता है अपनी बादशाहत दे देता है।”وَاللّٰهُ يُؤْتِيْ مُلْكَهٗ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ

अल्लाह को इख़्तियार है कि अपना मुल्क जिसको चाहे दे, वह जिसे चाहे अपनी तरफ़ से इक़्तदार बख़्शे।

“और अल्लाह बहुत समाई (सुनने) वाला है, सब कुछ जानने वाला है।”وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ   ٢٤٧؁

उसकी वुसअत अथाह है, कोई उसका अंदाज़ा नहीं कर सकता, और वह बड़ा इल्म रखने वाला है, सब कुछ जानने वाला है। वह जिसको जो कुछ देता है बरबनाये इल्म (अपने पूरे इल्म से) देता है कि कौन उसका मुस्तहिक़ है।

आयत 248

“और उनसे कहा उनके नबी ने कि तालूत की बादशाहत की एक निशानी यह होगी कि तुम्हारे पास वह सन्दूक़ आ जायेगा (जो तुमसे छिन चुका है) जिसमें तुम्हारे लिये तस्कीन का सामान है तुम्हारे रब की तरफ़ से और कुछ आले मूसा अलै० और आले हारून अलै० के छोड़े हुए तबर्रुकात हैं, वह सन्दूक़ फ़रिश्तों की तहवील में है।”وَقَالَ لَهُمْ نَبِيُّهُمْ اِنَّ اٰيَةَ مُلْكِهٖٓ اَنْ يَّاْتِيَكُمُ التَّابُوْتُ فِيْهِ سَكِيْنَةٌ مِّنْ رَّبِّكُمْ وَبَقِيَّةٌ مِّمَّا تَرَكَ اٰلُ مُوْسٰى وَاٰلُ ھٰرُوْنَ تَحْمِلُهُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ ۭ

तालूत की अमारत और बादशाही की अलामत के तौर पर वह सन्दूक़ तुम्हारे पास वापस आ जायेगा। असल में यह “ताबूते सकीनह” लकड़ी का एक बहुत बड़ा सन्दूक़ था, जिसमें बनी इस्राईल के अम्बिया किराम अलै० के तबर्रुकात महफ़ूज़ थे। यहूदियों का दावा है कि यह सन्दूक़ अब भी मस्जिदे अक़्सा के नीचे सुरंग में मौजूद है। उन्होंने बाज़ ज़राए से फ़ोटो लेकर उसकी दस्तावेज़ी फ़िल्म भी दिखा दी है। यह “ताबूते सकीनह” हज़रत सुलेमान अलै० के तामीर कर्दा हैकल के तहखाने में रखा हुआ था और वहीं पर रबाई (رَبَّانِیِّیْنَ) भी मौज़ूद थे। जब उस हैकल को मुन्हदिम (ध्वस्त) किया गया तो वह उसी में दब गये। वह तहख़ाना चारों तरफ से बंद हो गया होगा और उनकी लाशें और ताबूते सकीनह उसके अंदर ही होंगे। ताबूते सकीनह में बनी इस्राईल के लिये बहुत बड़ी रुहानी तस्कीन का सामान था कि हमारे पास हज़रत मूसा और हज़रत हारून अलै० के तबर्रुकात हैं। उसमें असा-ए-मूसा भी था और वह अल्वाह भी जो हज़रत मूसा अलै० को कोहे तूर पर दी गई थीं और जिन पर तौरात लिखी हुई थी। उस ताबूत को देख कर बनी इस्राईल को इसी तरह तस्कीन होती थी जैसे एक मुसलमान को खाना-ए-काबा को देख कर तस्कीन होती है। इस्राईलियों को जब उनके पड़ोसी मुल्कों ने शिकस्त दी तो वह ताबूते सकीनह भी छीन कर ले गये। पूरी क़ौम ने इस अज़ीम सानेहा पर मातम किया और इसे बनी इस्राईल से सारी इज्ज़त व हशमत छिन जाने से ताबीर किया। चुनाँचे इससे उनके हौसले मज़ीद पस्त हो गये। अब जबकि इस्राईलियों ने जंग का इरादा किया और वक़्त के नबी हज़रत सैमुअल अलै० ने तालूत को उनका अमीर मुक़र्रर किया तो उन्हें यह भी बताया कि तालूत को अल्लाह की तरफ़ से नामज़द किये जाने की एक अलामत यह होगी कि तुम्हारी तस्कीन का सामान “ताबूते सकीनह” जो तुमसे छिन गया था, उनके अहदे अमारत में तुम्हें वापस मिल जायेगा और इस वक़्त वह फ़रिश्तों की तहवील में है। हुआ यह कि उनके दुश्मन जब ताबूत छीन कर ले गये तो वह उनके लिये एक मुसीबत बन गया। वह उसे जहाँ रखते वहाँ ताऊन और दूसरी वबाऐं फूट पड़ती। बिलआख़िर उन्होंने उसे नहुसत का बाइस समझते हुए छकड़े पर रखा और बैलों को हाँक दिया कि जिधर चाहें ले जाएँ। बैल सीधे चलते-चलते उसे बनी इस्राईल के इलाक़े में ले आये। ज़ाहिर है कि यह मामला फ़रिश्तों की रहनुमाई से हुआ। इस तरह वह ताबूते सकीनह उनके पास वापस पहुँच गया जो बरसों पहले उनसे छिन चुका था।

“यक़ीनन इसमें तुम्हारे लिये बड़ी निशानी है अगर तुम मानने वाले हो।”اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ  ٢٤٨؁ۧ

आयत 249

“फिर जब तालूत अपने लश्करों को लेकर चले”فَلَمَّا فَصَلَ طَالُوْتُ بِالْجُنُوْدِ ۙ
“तो उन्होंने कहा कि अल्लाह तआला तुम्हारी आज़माइश करेगा एक दरिया से (यानि दरिया-ए-उरदन)।”قَالَ اِنَّ اللّٰهَ مُبْتَلِيْكُمْ بِنَهَرٍ ۚ
“तो जो उसमें से (पेट भर कर) पानी पियेगा वह मेरा साथी नहीं है।”فَمَنْ شَرِبَ مِنْهُ فَلَيْسَ مِنِّىْ ۚ
“और जो उसमें से पानी नहीं पियेगा वह मेरा साथी है” وَمَنْ لَّمْ يَطْعَمْهُ فَاِنَّهٗ مِنِّىْٓ
“सिवाय इसके कि कोई अपने हाथ से सिर्फ़ चुल्लु भर पानी लेकर पी ले।”اِلَّا مَنِ اغْتَرَفَ غُرْفَةًۢ بِيَدِهٖ ۚ

असल में हर कमांडर के लिये ज़रूरी होता है कि किसी भी बड़ी जंग से पहले अपने साथियों के जोश व जज़्बे और अज़म व हौसले (morale) को परखे और नज़म (discipline) की हालत को देखे। चुनाँचे रसूल अल्लाह ﷺ ने भी ग़ज़वा-ए-बदर से क़ब्ल मशावरत की थी कि मुसलमानों! एक तरफ़ जुनूब से कील काँटे से लैस एक लश्कर आ रहा है और दूसरी तरफ़ शिमाल से माल व असबाब से लदा-फंदा एक क़ाफ़िला आ रहा है। अल्लाह तआला ने वादा फ़रमाया है कि उन दोनों में से एक तुम्हें ज़रूर मिलेगा। बताओ किधर चलें? कुछ लोग जो कमज़ोरी दिखा रहे थे उन्होंने कहा कि चलें पहले क़ाफ़िला लूट लें! और जो लोग बा-हिम्मत थे उन्होंने कहा हुज़ूर! जो आप ﷺ का इरादा हो, जो आप ﷺ की मंशा हो, आप ﷺ उसके मुताबिक़ फ़ैसला फ़रमाये, हम हाज़िर हैं! तो यहाँ भी तालूत ने अपने लश्करों का टेस्ट लिया कि वह मेरे हुक्म की पाबंदी करते हैं या नहीं करते।

“तो उन्होंने उसमें से (ख़ूब जी भर कर) पानी पिया”فَشَرِبُوْا مِنْهُ
“सिवाय उनमें से एक क़लील तादाद के।”اِلَّا قَلِيْلًا مِّنْهُمْ ۭ
“तो जब दरिया पार करके आगे बढ़े तालूत और उसके साथी अहले ईमान”فَلَمَّا جَاوَزَهٗ ھُوَ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا مَعَهٗ ۙ

वाज़ेह रहे कि सबसे पहली स्क्रीनिंग क़ब्ल अज़ हो चुकी थी। उनमें से जो क़िताल ही के मुन्कर हो गए थे वह पहले ही अलग हो चुके थे। अब यह दूसरी छलनी थी। जो उसमें से नहीं निकल सके वह पानी पीकर बेसुध हो गए। यह ऐसा ही जैसे ग़ज़वा-ए-उहद में रसूल अल्लाह ﷺ के साथ एक हज़ार आदमी मदीना मुनव्वरा से निकले थे फिर ऐन वक़्त पर तीन सौ अफ़राद साथ छोड़ कर चले गए। तो जब तालूत और उसके उन साथियों ने जो ईमान पर साबित क़दम रहे थे, दरिया पार कर लिया…..

“तो उन्होंने कहा कि आज हममें जालूत और उसके लश्करों का मुक़ाबला करने की ताक़त नहीं है।”قَالُوْا لَا طَاقَةَ لَنَا الْيَوْمَ بِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِهٖ ۭ

जालूत (Goliath) बड़ा क़वी हैकल और ग्रानडेल इंसान था। ज़िरहबकतर (कवच) में उसका पूरा जिस्म इस तरह छुपा हुआ था कि सिवाय आँख के सुराख़ के जिस्म का कोई हिस्सा खुला नहीं था। उसकी मुबारज़त (ललकार) के जवाब में कोई भी मुक़ाबले पर नहीं आ रहा था।

“तो कहा उन लोगों ने जो यक़ीन रखते थे कि उन्हें (एक दिन) अल्लाह से मुलाक़ात करनी है, कि कितनी मर्तबा ऐसा हुआ है कि एक छोटी जमाअत बड़ी जमाअत पर ग़ालिब आ गई अल्लाह के हुक्म से।”قَالَ الَّذِيْنَ يَظُنُّوْنَ اَنَّهُمْ مُّلٰقُوااللّٰهِ ۙ كَمْ مِّنْ فِئَةٍ قَلِيْلَةٍ غَلَبَتْ فِئَةً كَثِيْرَةًۢ بِاِذْنِ اللّٰهِ ۭ

सो तुम आगे बढ़ो, हिम्मत करो, अपनी कम हिम्मती का सबूत ना दो। अल्लाह तआला की नुसरत और मदद से तुम्हें फ़तह हासिल हो जायेगी।

“और अल्लाह तो सब्र करने वालों के साथ है।”وَاللّٰهُ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ   ٢٤٩؁

आयत 250

“और जब वह मुक़ाबले पर निकले जालूत और उसके लश्करों के”وَلَمَّا بَرَزُوْا لِجَالُوْتَ وَجُنُوْدِهٖ

بَرَزَ के मायने हैं ज़ाहिर हो जाना, आमने-सामने आ जाना। अब दोनों लश्कर मैदाने जंग में आमने-सामने आये। इधर तालूत का लश्कर है और उधर जालूत का।

“तो उन्होंने दुआ की कि ऐ हमारे रब! हम पर सब्र उंडेल दे”رَبَّنَآ اَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا

“اَفْرَغَ” का मफ़हूम है किसी बर्तन से किसी के ऊपर पानी इस तरह गिरा देना कि वह बर्तन ख़ाली हो जाये। तालूत और उनके साथी अहले ईमान ने दुश्मन के मद्दे मुक़ाबिल आने पर दुआ की कि ऐ हमारे परवरदिगार! हम पर सब्र का फ़ैज़ान फ़रमा, सब्र की बारिश फ़रमा दे।

“और (मैदाने जंग में) हमारे क़दमों को जमा दे”وَّثَبِّتْ اَقْدَامَنَا
“और हमारी मदद फ़रमा काफ़िरों के मुक़ाबले में।”وَانْصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ  ٢٥٠؀ۭ

यह दुआ गोया अहले ईमान को तल्क़ीन की जा रही है कि जब बदर के मौक़े पर तुम्हारा कुफ़्फ़ार से मुक़ाबला होगा तो तुम्हें यह दुआ करनी चाहिये।

आयत 251

“तो उन्होंने मार भगाया उनको अल्लाह के हुक्म से।”فَهَزَمُوْھُمْ بِاِذْنِ اللّٰهِ  ڐ

अहले ईमान ने अल्लाह के इज़्न से और अल्लाह की मशियत से दुश्मनों को शिकस्त दी।

“और दाऊद अलै० ने जालूत को क़त्ल कर दिया”وَقَتَلَ دَاوٗدُ جَالُوْتَ

यह दाऊद वही हज़रत दाऊद अलै० हैं जो जलीलुलक़द्र नबी और बादशाह हुए। इनके बेटे हज़रत सुलेमान अलै०थे। तौरात से मालूम होता है कि दाऊद एक गड़रिये थे और जंगल में अपनी भेड़-बकरियाँ चराया करते थे। उनके पास एक गोपया होता था, जिसके अंदर पत्थर रख कर वह उसको घुमा कर मारते थे। निशाना इतना सही था कि इससे वह अपनी बकरियों पर हमला करने वाले जंगली जानवरों के जबड़े तोड़ दिया करते थे। जब तालूत और जालूत के लश्कर आमने सामने थे तो दाऊद इत्तेफाक़न वहाँ आ निकले। उन्होंने देखा कि जालूत ललकार रहा है कि है कोई जो मेरे मुक़ाबले में आये? लेकिन इधर सबके सब सहमें खड़े हैं, कोई आगे नहीं बढ़ रहा। यह देख कर उनकी ग़ैरत को जोश आ गया। उन्होंने तालूत से उसके मुक़ाबले की इजाज़त माँगी और कहने लगे कि मैं तो अपने गोपये से शेरों के जबड़े तोड़ दिया करता हूँ, भला इस नामख़तून की क्या हैसियत है, मैं अभी इसको कैफ़रे किरदार तक पहुँचाता हूँ। (वाज़ेह रहे कि ख़तना हज़रत इब्राहीम अलै० की सुन्नत है और यह मिल्लते इब्राहीमी में हमेशा राइज रहा है। लेकिन कुफ़्फ़ार और मुशरिकीन के यहाँ ख़तना का रिवाज नहीं था। चुनाँचे “नामख़तून” बनी इस्राईल के यहाँ सबसे बड़ी गाली थी) दाऊद अलै० ने सिपहसालार की इजाज़त से अपना गोपया और चंद पत्थर उठाये और देव हैकल जालूत के सामने जा खड़े हुए। जालूत ने उनका मज़ाक उड़ाया, लेकिन उन्होंने अपने गोपये में एक पत्थर रख कर ऐसे घुमा कर छोड़ा कि वह सीधा आँख के सुराख़ से पार होकर उसके भेजे के अंदर उतर गया और जालूत वहीं ढ़ेर हो गया।

“और अल्लाह ने उसे सल्तनत और हिकमत अता की और जो कुछ चाहा उसे सिखा दिया।”وَاٰتٰىهُ اللّٰهُ الْمُلْكَ وَالْحِكْمَةَ وَعَلَّمَهٗ مِمَّا يَشَاۗءُ   ۭ

तालूत ने दाऊद अलै० से अपनी बेटी का निकाह कर दिया, इस तरह वह तालूत के दामाद हो गये। फ़िर तालूत ने उन्हीं को अपना वारिस बनाया और यह बादशाह हुए। अल्लाह तआला ने हज़रत दाऊद अलै० को हुकूमत व सल्तनत भी अता फ़रमाई और हिकमत व नबुवत से भी नवाज़ा। इन दोनों ऐतबारात से अल्लाह तआला ने आप अलै० को सरफ़राज़ फ़रमाया। यह सब ईनामात इस वाक़ये के बाद हज़रत दाऊद अलै० पर हुए। इन सब पर मुस्तज़ाद यह कि अल्लाह ने उन्हें सिखाया जो कुछ कि अल्लाह ने चाहा।

“और अगर (इस तरीक़े से) अल्लाह एक गिरोह को दूसरे के ज़रिये से दफ़ा ना करता रहता तो ज़मीन में फ़साद फैल जाता”وَلَوْلَا دَفْعُ اللّٰهِ النَّاسَ بَعْضَهُمْ بِبَعْضٍ ۙ لَّفَسَدَتِ الْاَرْضُ

ज़मीन में जब भी फ़साद होता है तो अल्लाह तआला कोई शक्ल ऐसी पैदा करता है कि किसी और गिरोह को सामने लाकर मुफ़्सिदों का ख़ात्मा करता है। अगर ऐसा ना होता तो ज़मीन में फ़साद ही फ़साद फैल गया होता। अल्लाह तआला ने जंगों के ज़रिये से फ़सादी ग़िरोहों का ख़ात्मा फ़रमाया है। हर बड़ा फ़िरऔन जो आता है अललाह तआला उसके मुक़ाबले किसी मूसा को खड़ा कर देता है। इस तरह अल्लाह तआला ने हर सरकश और फ़सादी के लिये कोई ना कोई ईलाज तजवीज़ किया हुआ है।

“लेकिन अल्लाह तआला तो तमाम जहानों पर बड़ा फ़ज़ल करने वाला है।”وَلٰكِنَّ اللّٰهَ ذُوْ فَضْلٍ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ   ٢٥١؁

आयत 252

“यह अल्लाह की आयात हैं जो हम आप को पढ़ कर सुना रहे हैं हक़ के साथ।”تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْھَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ ۭ

यह क़ौल गोया हज़रत जिब्रील अलै० की तरफ़ मन्सूब होगा। यह मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ और तमाम मुसलमानों से ख़िताब है कि यह अल्लाह की आयात हैं जो हम आप ﷺ को सुना रहे हैं हक़ के साथ। यह एक बामक़सद सिलसिला है।

“और यक़ीनन (ऐ मुहम्मद ) आप (अल्लाह के) रसूलों में से हैं।”وَاِنَّكَ لَمِنَ الْمُرْسَلِيْنَ   ٢٥٢؀

आयत 253

“उन रसूलों में से हमने बाज़ को बाज़ पर फ़ज़ीलत दी हैتِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ  ۘ

यह एक बहुत अहम उसूल बयान हो रहा है। यह बात क़ब्ल अज़ बयान की जा चुकी है कि “तफ़रीक़ बयनल रुसुल” कुफ़्र है, जबकि “तफ़ज़ील” क़ुरान से साबित है। अल्लाह तआला ने अपने रसूलों में से हर एक को किसी ना किसी पहलु से फ़ज़ीलत बख्शी है और इस ऐतबार से वह दूसरों पर मुमताज़ है। चुनाँचे जुज़्वी फ़ज़ीलतें मुख्तलिफ़ रसूलों की हो सकती हैं, अलबत्ता कुल्ली फ़ज़ीलत तमाम अम्बिया व रुसुल अलै० पर मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को हासिल है।

“उनमें से वह भी थे जिनसे अल्लाह ने कलाम फ़रमाया”مِنْھُمْ مَّنْ كَلَّمَ اللّٰهُ

यह हज़रत मूसा अलै० की फ़ज़ीलत का ख़ास पहलु है।

“और बाज़ के दरजात (किसी और ऐतबार से) बढ़ा दिये।”وَرَفَعَ بَعْضَھُمْ دَرَجٰتٍ ۭ
“और हमने ईसा इब्ने मरयम अलै० को बड़े खुले मौज्ज़े दिये”وَاٰتَيْنَا عِيْسَى ابْنَ مَرْيَمَ الْبَيِّنٰتِ
“और उनकी मदद फ़रमायी रूहुल क़ुदुस (हज़रत जिब्रील अलै०) के साथ।”وَاَيَّدْنٰهُ بِرُوْحِ الْقُدُسِ ۭ
“और अगर अल्लाह चाहता तो उनके बाद आने वाले आपस में ना लड़ते-झगड़ते”وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا اقْتَتَلَ الَّذِيْنَ مِنْۢ بَعْدِھِمْ

यानि ना तो यहूदियों की आपस में जंगें होतीं, ना यहूदियों और नसरानियों की लड़ाइयाँ होतीं, और ना ही नसरानियों के फ़िरक़े एक-दूसरे से लड़ते।

“इसके बाद की उनके पास वाज़ेह तालीमात आ चुकी थीं”مِّنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَتْھُمُ الْبَيِّنٰتُ
“लेकिन उन्होंने इख्तलाफ़ किया”وَلٰكِنِ اخْتَلَفُوْا
“फिर कोई तो उनमें से ईमान लाया और कोई कुफ़्र पर अड़ा रहा।”فَمِنْھُمْ مَّنْ اٰمَنَ وَمِنْھُمْ مَّنْ كَفَرَ  ۭ
“और अगर अल्लाह चाहता तो वह आपस में ना लड़ते।”وَلَوْ شَاۗءَ اللّٰهُ مَا اقْتَتَلُوْا  ۣ

यानि अगर अल्लाह तआला जबरन तकवीनी तौर पर उन पर लाज़िम कर देता तो वह इख्तलाफ़ ना करते और आपस में जंग व जिदाल से बाज़ रहते।

“लेकिन अल्लाह तो करता है जो वह चाहता है।” 

अल्लाह तआला ने दुनिया को इस हिकमत पर बनाया है कि दुनिया कि यह ज़िन्दगी आज़माइश है। चुनाँचे आज़माइश के लिये उसने इन्सान को आज़ादी दी है। तो जो शख्स ग़लत रास्ते पर जाना चाहता है उसे भी आज़ादी है और जो सही रास्ते पर आना चाहता है उसे भी आज़ादी है।

आयात 254 से 257 तक

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّاْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْهِ وَلَا خُلَّةٌ وَّلَا شَفَاعَةٌ  ۭ وَالْكٰفِرُوْنَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ  ٢٥٤؁ اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ  ۚ اَلْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ ڬ لَا تَاْخُذُهٗ سِـنَةٌ وَّلَا نَوْمٌ  ۭ لَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ  ۭ مَنْ ذَا الَّذِيْ يَشْفَعُ عِنْدَهٗٓ اِلَّا بِاِذْنِهٖ ۭ يَعْلَمُ مَا بَيْنَ اَيْدِيْهِمْ وَمَا خَلْفَھُمْ ۚ وَلَا يُحِيْطُوْنَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهٖٓ اِلَّا بِمَا شَاۗءَ  ۚ وَسِعَ كُرْسِـيُّهُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ ۚ وَلَا يَـــــُٔـــوْدُهٗ حِفْظُهُمَا  ۚ وَھُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيْمُ   ٢٥٥؁ لَآ اِكْرَاهَ فِي الدِّيْنِ ڐ قَدْ تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ  ۚ فَمَنْ يَّكْفُرْ بِالطَّاغُوْتِ وَيُؤْمِنْۢ بِاللّٰهِ فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقٰى ۤ لَا انْفِصَامَ لَهَا  ۭ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ    ٢٥٦؁ اَللّٰهُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا  ۙيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ ڛ وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْلِيٰۗــــــُٔــھُمُ الطَّاغُوْتُ ۙ يُخْرِجُوْنَـھُمْ مِّنَ النُّوْرِ اِلَى الظُّلُمٰتِ  ۭ اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  ٢٥٧؁ۧ

तक़रीबन दो रुकूओं पर मुश्तमिल तालूत और जालूत की जंग के वाक़िआत हम पढ़ चुके हैं और अब गोया गज़वा-ए-बदर के लिये ज़हनी और नफ्सियाती तैयारी हो रही है। गज़वात के लिये जहाँ सरफ़रोशी की ज़रूरत है वहाँ इन्फ़ाक़े माल भी नागुज़ीर (ज़रूरी) है। चुनाँचे अब यहाँ बड़े ज़ोरदार अंदाज़ में इन्फ़ाक़े माल की तरफ़ तवज्जो दिलाई जा रही है। जैसा कि अर्ज़ किया जा चुका है, सूरतुल बक़रह के निस्फ़े आखिर में चार मज़ामीन तकरार के साथ आये हैं। यानि इन्फ़ाक़े माल, क़िताल, इबादात और मामलात। यह गोया चार डोरियाँ हैं जो इन बाईस रुकूओं के अन्दर ताने-बाने की तरह गुथी हुई हैं।

आयत 254

“ऐ अहले ईमान! खर्च करो उसमें से जो कुछ हमने तुम्हें दिया है इससे पहले कि वह दिन आ धमके जिसमें ना कोई खरीद व फ़रोख्त होगी, ना कोई दोस्ती काम आयेगी और ना कोई शफ़ाअत मुफ़ीद होगी।”يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِمَّا رَزَقْنٰكُمْ مِّنْ قَبْلِ اَنْ يَّاْتِيَ يَوْمٌ لَّا بَيْعٌ فِيْهِ وَلَا خُلَّةٌ وَّلَا شَفَاعَةٌ  ۭ
“और जो इन्कार करने वाले हैं वही तो ज़ालिम हैं।”وَالْكٰفِرُوْنَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ  ٢٥٤؁

यहाँ काफ़िर से मुराद इस्तलाही काफ़िर नहीं, बल्कि मायनवी काफ़िर हैं, यानि अल्लाह के हुक्म का इन्कार करने वाले। जो शख्स अल्लाह तआला के इस हुक्म इन्फ़ाक़ की तामील नहीं करता, देखता है कि दीन मगलूब है और उसको ग़ालिब करने की जद्दो-जहद हो रही है, उसके कुछ तक़ाज़े हैं, उसकी माली ज़रूरतें हैं और अल्लाह ने उसे क़ुदरत दी है कि उसमें खर्च कर सकता है लेकिन नहीं करता, वह है असल काफ़िर।

इसके बाद अब वह आयत आ रही है जो अज़रूए फ़रमाने नबवी ﷺ क़ुरान हकीम की अज़ीम तरीन आयत है, यानि “आयतुल कुरसी”। इसका नाम भी मारूफ़ है। मैंने आपको सूरतुल बक़रह में आने वाले हिकमत के बड़े-बड़े मोती और बड़े-बड़े फूल गिनवाये हैं, मसलन आयतुल आयात, आयतुल बिर्र, आयतुल इख्तलाफ़ और अब यह आयतुल कुरसी है जो तौहीद के अज़ीम तरीन खज़ानों में से है। रसूल अल्लाह ﷺ ने इसे तमाम आयाते क़ुरानी की सरदार क़रार दिया है। हज़रत अबु हुरैरा रज़ि० से रिवायत है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

 لِکُلِّ شَیْءٍ سَنَامٌ وَ اِنَّ سَنَامَ الْقُرْآنِ سُوْرَۃُ الْبَقَرَۃِ، وَ فِیْھَا آیَۃٌ ھِیَ سَیِّدَۃُ آیِ الْقُرْآنِ، ھِیَ آیَۃُ الْکُرْسِیِّ

“हर शय की एक चोटी होती है और यक़ीनन क़ुरान हकीम की चोटी सूरतुल बक़रह है, इसमें एक आयत है जो आयाते क़ुरानी की सरदार है, यह आयतुल कुरसी है।” (32)

जिस तरह आयतुल बिर्र और सूरतुल अस्र में एक निस्बत है कि अल्लाह तआला ने हिदायत और निजात की सारी की सारी शराइत एक छोटी सी सूरत में जमा कर दीं:

وَالْعَصْرِ  Ǻ۝ۙ اِنَّ الْاِنْسَانَ لَفِيْ خُسْرٍ   Ą۝ۙ اِلَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَتَوَاصَوْا بِالْحَقِّ ڏ وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ Ǽ۝ۧ

लेकिन इसकी तफ़सील एक आयत में बयान हुई है और वह आयतुल बिर्र है। चुनाँचे हमने मुताअला-ए-क़ुरान हकीम का जो मुन्तखब निसाब मुरत्तब (सेट) किया है उसमें पहला दर्स सूरतुल अस्र का है और दूसरा आयतुल बिर्र का है। यही निस्बत आयतुल कुरसी और सूरतुल इख्लास में है। सूरतुल अस्र एक मुख़्तसर की सूरत है जबकि आयतुल बिर्र एक तवील आयत है। इसी तरह सूरतुल इख्लास चार आयात पर मुश्तमिल एक छोटी सी सूरत है और यह आयतुल कुरसी एक तवील आयत है। सूरतुल इख्लास तौहीद का अज़ीम तरीन खज़ाना है और तौहीद के मौज़ू पर क़ुरान हकीम की जामेअ तरीन सूरत है, चुनाँचे रसूल अल्लाह ﷺ ने इसे सुलूसे क़ुरान (एक तिहाई क़ुरान) क़रार दिया है, जबकि तौहीद और ख़ास तौर पर तौहीद फिल सिफ़ात के मौज़ू पर क़ुरान करीम की अज़ीम तरीन आयत यह आयतुल कुरसी है।

आयत 255

“अल्लाह वह माअबूदे बरहक़ है जिसके सिवा कोई इलाह नहीं।”اَللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ  ۚ
“वह ज़िन्दा है सबका क़ायम रखने वाला है।”اَلْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ ڬ

वह अज़खुद और बाखुद ज़िन्दा है। उसकी ज़िन्दगी मुस्तआर (उधार) नहीं है। उसकी ज़िन्दगी हमारी ज़िन्दगी की मानिन्द नहीं है, जिसके बारे में बहादुर शाह ज़फर ने कहा था:

उम्रे दराज़ माँग कर लाये थे चार दिन

दो आरज़ू में कट गये दो इन्तेज़ार में!

अल्लाह तआला की ज़िन्दगी “हयाते मुस्तआर” नहीं है, वह किसी की दी हुई नहीं है। उसकी ज़िन्दगी में कोई ज़ौफ़ (दुर्बलता), कोई कमज़ोरी, और कोई एहतियाज (गरीबी) नहीं है। वह खुद अपनी जगह ज़िन्दा-ओ-जावेद हस्ती है और बाक़ी हर शय का वुजूद उसके हुक्म से क़ायम है। वह “اَلْقَیُّوْمُ” है। उसके इज़्न के बगैर कोई शय क़ायम नहीं है। सूरतुल इख्लास में अल्लाह तआला के लिये दो अल्फाज़ “اَلْاَحَدُ” और “اَلْصَّمَدُ” आये हैं। वह अपनी जगह “اَلْاَحَدُ” है लेकिन बाक़ी पूरी क़ायनात के लिये “اَلْصَّمَدُ” है। इसी तरह वह अज़खुद “اَلْحَیُّ” है और बाक़ी पूरी क़ायनात के लिये “اَلْقَیُّوْمُ” है।

“ना उस पर ऊँघ ग़ालिब आती है ना नींद।”لَا تَاْخُذُهٗ سِـنَةٌ وَّلَا نَوْمٌ  ۭ
“जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है सब उसी का है।”لَهٗ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ  ۭ

हर शय की मिलकियते ताम्मा और मिलकियते हक़ीक़ी उसी की है।

“कौन है वह जो शफ़ाअत कर सके उसके पास किसी की मगर उसकी इजाज़त से!”مَنْ ذَا الَّذِيْ يَشْفَعُ عِنْدَهٗٓ اِلَّا بِاِذْنِهٖ ۭ

सूरतुल बक़रह में क़ब्ल अज़ तीन मर्तबा क़यामत के रोज़ किसी शफ़ाअत का दो टूक अन्दाज़ में इन्कार (categorical denial) किया गया है कि कोई शफाअत नहीं! यहाँ भी बहुत ही जलाली अन्दाज़ इख़्तियार किया गया है: {مَنْ ذَا الَّذِيْ يَشْفَعُ عِنْدَهٗٓ } यानि किसकी यह हैसियत है, किसका यह मक़ाम है, किसको यह इख़्तियार हासिल है कि वह अपनी हैसियत की बुनियाद पर अल्लाह के हुज़ूर किसी की शफाअत कर सके? { اِلَّا بِاِذْنِهٖ ۭ} हाँ, जिसके लिये अल्लाह इजाज़त दे दे! यहाँ पहली मर्तबा इस्तसना के साथ शफ़ाअत का ज़िक्र आया है, वरना सूरतुल बक़रह के छठे रुकूअ की दूसरी आयत में हम अल्फ़ाज़ पढ़ चुके हैं: {وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ} “और ना (उस रोज़) किसी की तरफ से कोई शफ़ाअत क़ुबूल की जायेगी।” इसी तरह पंद्रहवे रुकूअ की दूसरी आयत में अल्फ़ाज़ आये हैं: {وَّلَا تَنْفَعُهَا شَفَاعَةٌ} “और ना उसको किसी की शफ़ाअत ही फ़ायदा देगी।” और अब इस रुकूअ की पहली आयत में आ चुका है: {وَّلَا شَفَاعَةٌ  ۭ } “और ना कोई शफ़ाअत मुफ़ीद होगी।” लेकिन यहाँ एक इस्तसना बयान किया जा रहा है कि जिसको अल्लाह की तरफ से इज़्ने शफ़ाअत हासिल होगा वह उसके हक़ में शफ़ाअत कर सकेगा जिसके लिये इज़्न होगा। यह ज़रा बारीक मसला है कि शफ़ाअते हक्क़ा क्या है और शफ़ाअते बातिला क्या है। दौरा-ए-तर्जुमा-ए-क़ुरान के दौरान इस पर तफ़सील के साथ बहस नहीं की जा सकती। इस पर मैं अपने तफ़सीली दर्स रिकॉर्ड करा चुका हूँ।

“वह जानता है जो कुछ उनके सामने है और जो कुछ उनके पीछे है।”يَعْلَمُ مَا بَيْنَ اَيْدِيْهِمْ وَمَا خَلْفَھُمْ ۚ

आम तौर पर दुनिया में हम किसी की सिफ़ारिश करते हैं तो कहते हैं कि भई मैं इस शख्स को बेहतर जानता हूँ, असल में यह जैसा कुछ नज़र आता है वैसा नहीं है, इसके बारे में जो मालूमात आप तक पहुँची है वह मब्नी पर हक़ीक़त नहीं है, असल हक़ाइक़ कुछ और हैं, वह मैं आपको बताता हूँ। यह बात अल्लाह के सामने कौन कह सकता है? जबकि अल्लाह तो जानता है जो कुछ उनके सामने है और जो कुछ उनके पीछे है।

“और वह इहाता नहीं कर सकते अल्लाह के इल्म में से किसी शय का भी सिवाय उसके जो अल्लाह चाहे।”وَلَا يُحِيْطُوْنَ بِشَيْءٍ مِّنْ عِلْمِهٖٓ اِلَّا بِمَا شَاۗءَ  ۚ

बाक़ी हर एक के पास जो इल्म है वह अल्लाह का दिया हुआ, अताई इल्म है। बड़े से बड़े वली, बड़े से बड़े रसूल और बड़े से बड़े फ़रिश्ते का इल्म भी महदूद है। फ़रिश्तों का क़ौल {لَاعِلْمَ لَنَآ اِلَّا مَا عَلَّمْتَنَا} हम चौथे रुकूअ में पढ़ आये हैं।

“उसकी कुरसी तमाम आसमानों और ज़मीन को मुहीत है।”وَسِعَ كُرْسِـيُّهُ السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضَ ۚ

यहाँ कुरसी के दो मफ़हूम हो सकते हैं। एक तो ये कि उसका इक़तदार, उसकी क़ुदरत और उसका इख़्तियार (Authority) पूरी कायनात के ऊपर हावी है। नेज़ यह भी हो सकता है कि अल्लाह तआला के इक़तदार की अलामत के तौर पर वाक़िअतन कोई मुजस्सम शय भी हो जिसको हम कुरसी कह सकें। अल्लाह तआला के अर्श और कुरसी के बारे में यह दोनों बातें ज़हन में रखें। यह भी हो सकता है कि इनकी कोई मुजस्सम हक़ीक़त हो जो हमारे ज़हन और तख़य्युल (कल्पना) से मा-वरा (बहुत ऊपर) है और यह भी हो सकता है कि इससे इस्तआरा मुराद हो कि उसका इख़्तियार और इक़तदार आसमानों और ज़मीन पर छाया हुआ है।

“और उस पर गिरां (भारी) नहीं गुज़रती उन दोनों की हिफाज़त।”وَلَا يَـــــُٔـــوْدُهٗ حِفْظُهُمَا  ۚ

आसमानों और ज़मीन की हिफ़ाज़त और इनका थामना उस पर ज़रा भी गिरां नहीं और इससे उस पर कोई थकान तारी नहीं होती।

“और वह बुलन्द व बाला (और) बड़ी अज़मत वाला है।”وَھُوَ الْعَلِيُّ الْعَظِيْمُ   ٢٥٥؁

यह आयतुल कुरसी है जो तमाम आयाते क़ुरानी की सरदार और तौहीदे इलाही का एक बहुत बड़ा खज़ाना है। इसके बाद आने वाली दो आयात भी हिकमत और फ़लसफ़ा-ए-दीन के ऐतबार से बड़ी अज़ीम आयात हैं।

आयत 256

“दीन में कोई जबर नहीं है।” لَآ اِكْرَاهَ فِي الدِّيْنِ ڐ

इस्लाम इस बात की इजाज़त नहीं देता कि किसी को इस्लाम क़ुबूल करने पर मजबूर किया जाये। इस्लाम में किसी फ़र्द को जबरन मुस्लमान बनाना हराम है। लेकिन इस आयत का यह मतलब निकाल लेना कि निज़ामे बातिल को ख़त्म करने के लिये भी कोई ताक़त इस्तेमाल नहीं हो सकती, परले दर्जे की हिमाक़त है। निज़ामे बातिल ज़ुल्म पर मब्नी है और यह लोगों का इस्तेहसाल (शोषण) कर रहा है। यह अल्लाह और बन्दों के दरमियान हिजाब और आड़ बन गया है। लिहाज़ा निज़ामे बातिल को ताक़त के साथ ख़त्म करना मुस्लमान का फ़र्ज़ है। अगर ताक़त मौजूद नहीं है तो ताक़त हासिल करने की कोशिश की जाये, लेकिन जिस मुस्लमान का दिल निज़ामे बातिल को ख़त्म करने की आरज़ू और इरादे से खाली है उसके दिल में ईमान नहीं है। ताक़त और जबर निज़ामे बातिल को ख़त्म करने पर सर्फ़ (ख़र्च) किया जायेगा, किसी फ़र्द को मजबूरन मुस्लमान नहीं बनाया जायेगा। यह है असल में इस आयत का मफ़हूम।

“हिदायत गुमराही से वाज़ेह हो चुकी है।” قَدْ تَّبَيَّنَ الرُّشْدُ مِنَ الْغَيِّ  ۚ

जितनी भी कजियाँ हैं, गलत रास्ते हैं, शैतानी पगडंडियाँ हैं सिराते मुस्तक़ीम को इनसे बिल्कुल मुबह्हरन (अलग) कर दिया गया है।

“तो जो कोई भी तागूत का इन्कार करे” فَمَنْ يَّكْفُرْ بِالطَّاغُوْتِ

देखिये, अल्लाह पर ईमान लाने से पहले तागूत का इन्कार ज़रूरी है। जैसे कलमा-ए-तैय्यबा “لا الٰہ الا اللہ” में पहले हर इलाह की नफ़ी है और फिर अल्लाह का अस्बात (पुष्टिकरण) है। तागूत तगा से है, यानि शरकश। तो जिसने अपनी हाकिमियत का ऐलान किया वह तागूत है, जिसने गैरुल्लाह की हाकिमियत को तस्लीम किया वह भी तागूत है और गैरुल्लाह की हाकिमियत के तहत बनने वाले सारे इदारे तागूत हैं, ख़्वाह वह कितने ही खुशनुमा इदारे हों। “अदलिया” के नाम से एक इदारा अगर अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसलें नहीं कर रहा, कुछ और लोगों के बनाये हुए क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसलें कर रहा है तो वह तागूत है। “मुताफन्ना” का इदारा अगर अल्लाह की नाज़िल करदा हिदायत के मुताबिक़ क़ानून साज़ी नहीं कर रहा तो वह भी तागूत है। जो कोई भी अल्लाह के हुदूद-ए-बन्दगी से तजावुज़ करता है वह तागूत है। दरिया जब अपनी हदों से बाहर निकलता है तो यह तुग्यानी है:

दरिया को अपनी मौज की तुग्यानियों से काम

कश्ती किसी की पार हो या दरमियान रहे!

तगा और बगा दोनों बड़े क़रीब के अल्फ़ाज़ हैं, जिनका मफ़हूम तुग्यानी और बग़ावत है। फ़रमाया कि “जो कोई कुफ़्र करे तागूत के साथ।”

“और फिर अल्लाह पर ईमान लाये” وَيُؤْمِنْۢ بِاللّٰهِ

तागूत से दोस्ती और अल्लाह पर ईमान दोनों चीज़ें यक्जा (एक साथ) नहीं हो सकती। अल्लाह के दुश्मनों से भी याराना हो और अल्लाह के साथ वफ़ादारी का दावा भी हो यही तो मुनाफ़क़त है। जबकि इस्लाम तो {حَنِیْفًا مُّسْلِمًا} के मिस्दाक़ कामिल यक्सुई (पूरी एकाग्रता) के साथ इताअत शआरी का मुतालबा करता है।

“तो उसने बहुत मज़बूत हल्का (कुंडा) थाम लिया।” فَقَدِ اسْتَمْسَكَ بِالْعُرْوَةِ الْوُثْقٰى ۤ

जिस शख्स ने यह काम कर लिया कि तागूत की नफ़ी की और अल्लाह पर ईमान लाया उसने एक मज़बूत कुंडा थाम लिया। यूँ समझिये अगर कोई शख्स समुन्द्री जहाज के अर्शे से समुन्दर में गिर जाये, उसे तैरना भी ना आता हो और किसी तरह हाथ-पैर मार कर वह जहाज के किसी कुंडे को थाम ले तो अब वह समझता है कि मेरी ज़िन्दगी इसी से वाबस्ता (समर्पित) है, अब मैं इसे नहीं छोडूँगा। वह कुंडा अगर कमज़ोर है तो उसका सहारा नहीं बन सकेगा और उसके वज़न से ही उखड जायेगा या टूट जायेगा, लेकिन अगर वह कुंडा मज़बूत है तो वह उसकी ज़िन्दगी का ज़ामिन (जमानती) बन जायेगा। यहाँ फ़रमाया कि तागूत का इन्कार करके अल्लाह पर ईमान लाने वाले शख्स ने बहुत मज़बूत कुंडे पर हाथ डाल दिया है।

“जो कभी टूटने वाला नहीं है।” لَا انْفِصَامَ لَهَا  ۭ

कभी अलैहदा होने वाला नहीं है। यह बहुत मज़बूत सहारा है। रसूल अल्लाह ﷺ के एक ख़ुत्बे में यह अल्फ़ाज़ नक़ल किये गये हैं: ((وَ اَوْ ثَقُ الْعُرٰی کَلِمَۃُ التَّقْوٰی)) यानि तमाम कुंडों में सबसे मज़बूत कुंडा तक़वे का कुंडा है।(33) लिहाज़ा इसको मज़बूती के साथ थमने की ज़रूरत है।

“और अल्लाह सब कुछ सुनने वाला सब कुछ जानने वाला है।” وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ    ٢٥٦؁

आयत 257

“अल्लाह वली है अहले ईमान का” اَللّٰهُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا  ۙ

ईमान दरहक़ीक़त अल्लाह और बन्दे के दरमियान एक दोस्ती का रिश्ता क़ायम करता है। यह विलायते बाहमी यानि दो तरफ़ा दोस्ती है। एक तरफ़ मतलूब यह है कि बंदा अल्लाह का वली बन जाये (सूरह युनुस:62-63):

“याद रखो, अल्लाह के दोस्तों के लिये ना तो किसी तरह का खौफ़ है और ना वह ग़मगीन होंगे। यह वह लोग हैं जो ईमान लाये और उन्होंने तक़वा इख़्तियार किया।” اَلَآ اِنَّ اَوْلِيَاۗءَ اللّٰهِ لَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ 62۝ښ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَكَانُوْا يَتَّقُوْنَ      63؀ۭ

दूसरी तरफ़ अल्लाह भी अहले ईमान का वली है, यानि दोस्त है, पुश्त पनाह है, मददगार है, कारसाज़ है।

“वह उन्हें निकलता रहता है तारीकियों से नूर की तरफ।” يُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ ڛ

आप नोट करेंगे कि क़ुरान में “नूर” हमेशा वाहिद आता है। “अनवार” का लफ्ज़ क़ुरान में नहीं आया, इसलिये कि नूर एक हक़ीक़ते वाहिदा है। लेकिन “ज़ुलुमात” हमेशा जमा में आता है, इसलिये कि तारीकी के shades मुख्तलिफ़ हैं। एक बहुत गहरी तारीकी है, एक ज़रा उससे कम है, फिर उससे कमतर है। कुफ़्र, शिर्क, इल्हाद (नास्तिकता), माद्दा परस्ती, ला अदरियत (Agnosticims) वगैरह मुख्तलिफ़ क़िस्म की तारीकियाँ हैं। तो जितने भी गलत फ़लसफ़े हैं, जितने भी गलत नज़रियात हैं, जितनी भी अमल की गलत राहें हैं उन सबके अँधियारों से निकाल कर अल्लाह अहले ईमान को ईमान की रोशनी के अन्दर लाता रहता है।

“और (इनके बरअक्स) जिन्होंने कुफ़्र किया, उनके औलिया (पुश्त पनाह, साथी और मददगार) तागूत हैं।” وَالَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اَوْلِيٰۗــــــُٔــھُمُ الطَّاغُوْتُ ۙ
“वह उनको रोशनी से निकाल कर तारीकियों की तरफ़ ले जाते हैं।” يُخْرِجُوْنَـھُمْ مِّنَ النُّوْرِ اِلَى الظُّلُمٰتِ  ۭ

अगर कहीं नूर की थोड़ी बहुत रमक़ (बिंदु) उन्हें मिली भी थी तो उससे उन्हें महरूम करके उन्हें तारीकियों की तरफ़ धकेलते रहते हैं।

“यही लोग हैं आग वाले, यह उसमें हमेशा-हमेश रहेंगे।” اُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  ٢٥٧؁ۧ

اَلّٰلھُمَّ اجْعَلنَا مِنْ عِبَادِکَ الْمُؤْمِنِیْنَ، اَلّٰلھُمَّ اَخْرِجْنَا مِنَ الظُّلُمٰتِ اِلَی النُّوْرِ۔  آمِین یا ربّ العالمین۔

इसके बाद हज़रत इब्राहीम और हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी के कुछ वाक़िआत बयान किये जा रहे हैं।

आयात 258 से 260 तक

اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْ حَاۗجَّ اِبْرٰھٖمَ فِيْ رَبِّهٖٓ اَنْ اٰتٰىهُ اللّٰهُ الْمُلْكَ  ۘاِذْ قَالَ اِبْرٰھٖمُ رَبِّيَ الَّذِيْ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ ۙ قَالَ اَنَا اُحْيٖ وَاُمِيْتُ  ۭ قَالَ اِبْرٰھٖمُ فَاِنَّ اللّٰهَ يَاْتِيْ بِالشَّمْسِ مِنَ الْمَشْرِقِ فَاْتِ بِهَا مِنَ الْمَغْرِبِ فَبُهِتَ الَّذِيْ كَفَرَ  ۭ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ   ٢٥٨؁ۚ اَوْ كَالَّذِيْ مَرَّ عَلٰي قَرْيَةٍ وَّهِيَ خَاوِيَةٌ عَلٰي عُرُوْشِهَا  ۚ قَالَ اَنّٰى يُـحْيٖ ھٰذِهِ اللّٰهُ بَعْدَ مَوْتِهَا  ۚ فَاَمَاتَهُ اللّٰهُ مِائَـةَ عَامٍ ثُمَّ بَعَثَهٗ  ۭ قَالَ كَمْ لَبِثْتَ  ۭ قَالَ لَبِثْتُ يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍ  ۭ قَالَ بَلْ لَّبِثْتَ مِائَةَ عَامٍ فَانْظُرْ اِلٰى طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمْ يَتَسَـنَّهْ  ۚ وَانْظُرْ اِلٰى حِمَارِكَ وَلِنَجْعَلَكَ اٰيَةً لِّلنَّاسِ وَانْظُرْ اِلَى الْعِظَامِ كَيْفَ نُنْشِزُھَا ثُمَّ نَكْسُوْھَا لَحْــمًا  ۭ فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهٗ  ۙ قَالَ اَعْلَمُ اَنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ  ٢٥٩؁ وَاِذْ قَالَ اِبْرٰھٖمُ رَبِّ اَرِنِيْ كَيْفَ تُـحْيِ الْمَوْتٰى  ۭ قَالَ اَوَلَمْ تُؤْمِنْ  ۭ قَالَ بَلٰي وَلٰكِنْ لِّيَطْمَىِٕنَّ قَلْبِىْ  ۭ قَالَ فَخُذْ اَرْبَعَةً مِّنَ الطَّيْرِ فَصُرْھُنَّ اِلَيْكَ ثُمَّ اجْعَلْ عَلٰي كُلِّ جَبَلٍ مِّنْهُنَّ جُزْءًا ثُمَّ ادْعُهُنَّ يَاْتِيْنَكَ سَعْيًا  ۭ وَاعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ    ٢٦٠؁ۧ

आयत 258

“क्या तुमने उस शख्स को नहीं देखा जिसने हुज्जतबाज़ी की थी इब्राहीम अलैहिस्सलाम से इस वजह से कि अल्लाह ने उसे बादशाही दी हुई थी।” اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْ حَاۗجَّ اِبْرٰھٖمَ فِيْ رَبِّهٖٓ اَنْ اٰتٰىهُ اللّٰهُ الْمُلْكَ  ۘ

यह बाबुल (इराक़) का बादशाह नमरूद था। यह ज़हन में रखिये कि नमरूद असल में लक़ब था, किसी का नाम नहीं था। जैसे फ़िरऔन (जमा फ़राअना) मिस्र के बादशाहों का लक़ब होता था इसी तरह नमरूद (जमा नमारुद) बाबुल (इराक़) के बादशाहों का लक़ब था। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की की पैदाइश “उर” में हुई थी जो बाबुल (Babylonia) का एक शहर था और वहाँ नमरूद की बादशाहत थी। जैसे फ़िरऔन ने मिस्र में अपनी बादशाहत और अपनी खुदाई का दावा किया था इसी तरह का दावा नमरूद का भी था। फ़िरऔन और नमरूद का खुदाई का दावा दरहक़ीक़त सियासी बादशाहत और इक़तदार का दावा था कि इख़्तियारे मुतलक़ हमारे हाथ में है, हम जिस चीज़ को चाहें गलत क़रार दे दें और जिस चीज़ को चाहें सही क़रार दे दें। यही असल में खुदाई इख़्तियार है जो उन्होंने हाथ में ले लिया था। तहलील व तहरीम (हलाल-हराम का फ़ैसला करना) अल्लाह तआला का हक़ है, किसी शय को हलाल करने या किसी शय को हराम करने का इख़्तियारे वाहिद अल्लाह के हाथ में है। और जिस शख्स ने भी क़ानून साज़ी का यह इख़्तियार अल्लाह के क़ानून से आज़ाद होकर अपने हाथ में ले लिया वही तागूत है, वही शैतान है, वही नमरूद है, वही फ़िरऔन है। वरना फ़िरऔन और नमरूद ने यह दावा तो नहीं किया था कि यह दुनिया हमने पैदा की है।

“जब इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने कहा कि मेरा रब तो वह है जो ज़िन्दा करता है और मारता है तो उसने कहा कि मैं भी ज़िन्दा करता हूँ और मारता हूँ।” اِذْ قَالَ اِبْرٰھٖمُ رَبِّيَ الَّذِيْ يُـحْيٖ وَيُمِيْتُ ۙ قَالَ اَنَا اُحْيٖ وَاُمِيْتُ  ۭ

नमरूद ने जेल से सज़ा-ए-मौत के दो क़ैदी मंगवाये, उनमें से एक की गर्दन वहीं उड़ा दी और दूसरे की सज़ा-ए-मौत माफ़ करते हुए उसे रिहा कर दिया और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से कहने लगा कि देखो, मैंने जिसको चाहा ज़िन्दा रखा और जिसको चाहा मार दिया। हज़रत इब्राहीम अलै० ने देखा कि यह कटहुज्जती पर उतरा हुआ है, इसे ऐसा जवाब दिया जाना चाहिये जो उसको चुप करा दे।

“इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने कहा कि अल्लाह सूरज को मशरिक़ से निकालता है (अगर तू खुदाई का मुद्दई है) तो इसे मग़रिब से निकाल कर दिखा” قَالَ اِبْرٰھٖمُ فَاِنَّ اللّٰهَ يَاْتِيْ بِالشَّمْسِ مِنَ الْمَشْرِقِ فَاْتِ بِهَا مِنَ الْمَغْرِبِ
“तो मबहूत (आकर्षित) होकर रह गया वह काफ़िर।” فَبُهِتَ الَّذِيْ كَفَرَ  ۭ

अब उसके पास कोई जवाब नहीं था। वह यह बात सुन कर भौंचक्का और शशदर (हैरान) होकर रह गया।

“और अल्लाह ज़ालिमों को हिदायत नही दिया करता।” وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ   ٢٥٨؁ۚ

अल्लाह ने उसे राहयाब नहीं किया, लेकिन वह चुप हो गया, उससे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की बात का कोई जवाब नहीं बन पड़ा। इसके बाद उसने बुतकदे के पुजारियों के मशवरे से यह फैसला किया कि इब्राहीम अलैहिस्सलाम को आग में झोंक दिया जाये।

आयत 259

“या फिर जैसे कि वह शख्स (उसका वाक़िया ज़रा याद करो) जिसका गुज़र हुआ एक बस्ती पर और वह औंधी पड़ी हुई थी अपनी छतों पर।” اَوْ كَالَّذِيْ مَرَّ عَلٰي قَرْيَةٍ وَّهِيَ خَاوِيَةٌ عَلٰي عُرُوْشِهَا  ۚ

तफ़ासीर में अगरचे इस वाक़िये की मुख्तलिफ़ ताबीरात मिलती हैं, लेकिन यह दरअसल हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम का वाक़िया है जिनका गुज़र येरुशलम शहर पर हुआ था जो तबाह व बर्बाद हो चुका था। बाबुल (इराक़) के बादशाह बख्तनसर (Nebuchadnezzar) ने 586 ई०पू० में फ़लस्तीन पर हमला किया था और येरुशलम को ताखत (सरपट) व ताराज (तहस-नहस) कर दिया था। इस वक़्त भी इराक़ और इसराइल की आपस में बदतरीन दुश्मनी है। यह दुश्मनी दर हक़ीक़त ढाई हज़ार साल पुरानी है। बख्तनसर के हमले के वक़्त येरुशलम बारह लाख की आबादी का शहर था। बख्तनसर ने छ: लाख नफूस (इंसानों) को क़त्ल कर दिया और बाक़ी छ: लाख को भेड़-बकरियों की तरह हाँकता हुआ क़ैदी बना कर ले गया। यह लोग डेढ़ सौ बरस तक असीरी (captive) में रहे और येरुशलम उजड़ा रहा है। वहाँ कोई मुतनफ्फ़िस ज़िन्दा नहीं बचा था। बख्तनसर ने येरुशलम को इस तरह तबाह व बर्बाद किया था कि कोई दो ईंटें सलामत नहीं छोड़ी। उसने हैकले सुलेमानी को भी मुकम्मल तौर पर शहीद कर दिया था। यहूदियों के मुताबिक़ हैकल के एक तहखाने में “ताबूते सकीनह” भी था और वहाँ उनके रबाई भी मौजूद थे। हैकल मस्मार (विध्वंस) होने पर वहीँ उनकी मौत वाक़ेअ हुई और ताबूते सकीनह भी वहीँ दफ़न हो गया। तो जिस ज़माने में यह बस्ती उजड़ी हुई थी, हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम का उधर से गुज़र हुआ। उन्होंने देखा कि वहाँ कोई मुतनफ्फ़िस ज़िन्दा नहीं और कोई इमारत सलामत नहीं।

“उसने कहा कि अल्लाह इस बस्ती को, इसके इस तरह मुर्दा और बर्बाद हो जाने के बाद किस तरह ज़िन्दा करेगा?” قَالَ اَنّٰى يُـحْيٖ ھٰذِهِ اللّٰهُ بَعْدَ مَوْتِهَا  ۚ

उनका यह सवाल इज़हारे हैरत की नौइयत का था कि इस तरह उजड़ी हुई बस्ती में दोबारा कैसे अहया हो सकता है? दोबारा कैसे इसमें लोग आकर आबाद हो सकते हैं? इतनी बड़ी तबाही व बर्बादी कि कोई मुतनफ्फ़िस बाक़ी नहीं, कोई दो ईंटे सलामत नहीं!

“तो अल्लाह ने उस पर मौत वारिद कर दी सौ बरस के लिये और फिर उसको उठाया।” فَاَمَاتَهُ اللّٰهُ مِائَـةَ عَامٍ ثُمَّ بَعَثَهٗ  ۭ
“पूछा कितना अरसा यहाँ रहे हो?”  قَالَ كَمْ لَبِثْتَ  ۭ
“कहने लगा एक दिन या एक दिन का कुछ हिस्सा।”  قَالَ لَبِثْتُ يَوْمًا اَوْ بَعْضَ يَوْمٍ  ۭ

उनको ऐसा महसूस हुआ जैसे थोड़ी देर के लिये सोया था, शायद एक दिन या दिन का कुछ हिस्सा मैं यहाँ रहा हूँ।         

“(अल्लाह तआला ने) फ़रमाया बल्कि तुम पूरे सौ साल इस हाल में रहे हो” قَالَ بَلْ لَّبِثْتَ مِائَةَ عَامٍ
“तो ज़रा तुम अपने खाने और अपने मशरूब को (जो सफ़र में तुम्हारे साथ था) देखो, उनके अन्दर कोई बसांद पैदा नहीं हुई।” فَانْظُرْ اِلٰى طَعَامِكَ وَشَرَابِكَ لَمْ يَتَسَـنَّهْ  ۚ

उनमें से कोई शय गली-सड़ी नहीं, उनके अन्दर कोई ख़राबी पैदा नहीं हुई।

“और (दूसरी तरफ़) अपने गधे को देखो (हम इसको किस तरह ज़िन्दा करते हैं)” وَانْظُرْ اِلٰى حِمَارِكَ

हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम की सवारी का गधा इस अरसे में बिल्कुल ख़त्म हो चुका था, उसकी बोशीदा हड्डियाँ ही बाक़ी रह गयी थीं, गोश्त गल-सड़ चुका था।

“और ताकि हम तुम्हें लोगों के लिये एक निशानी बनायें” وَلِنَجْعَلَكَ اٰيَةً لِّلنَّاسِ

यानि ऐ उज़ैर अलैहिस्सलाम! हमने तो खुद तुम्हें लोगों के लिये एक निशानी बनाया है, इसलिये हम तुम्हें अपनी यह निशानी दिखा रहे हैं ताकि तुम्हें दोबारा उठाये जाने पर यक़ीने कामिल हासिल हो।

“और अब इन हड्डियों को देखो, किस तरह हम इन्हें उठाते हैं” وَانْظُرْ اِلَى الْعِظَامِ كَيْفَ نُنْشِزُھَا
“फिर (तुम्हारी निगाहों के सामने) इनको गोश्त पहनाते हैं।” ثُمَّ نَكْسُوْھَا لَحْــمًا  ۭ

चुनाँचे हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम के देखते ही देखते उनके गधे की हड्डियाँ जमा होकर उसका ढाँचा खड़ा हो गया और फिर उस पर गोश्त भी चढ़ गया।

“पस जब उसके सामने यह बात वाज़ेह हो गयी” فَلَمَّا تَبَيَّنَ لَهٗ  ۙ

हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम ने बचश्मे सर एक मुर्दा जिस्म को ज़िन्दा होने का मुशाहिदा कर लिया।

“वह पुकार उठा कि मैंने पूरी तरह जान लिया (और मुझे यक़ीन कामिल हासिल हो गया) कि अल्लाह हर शय पर क़ादिर है।” قَالَ اَعْلَمُ اَنَّ اللّٰهَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ  ٢٥٩؁

उन्हें यक़ीन हो गया कि अल्लाह तआला इस उजड़ी हुई बस्ती को भी दोबारा आबाद कर सकता है, इसकी आबादी अल्लाह तआला के इख़्तियार में है।

हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम को बनी इसराइल की निशाते सानिया (Renaissance) के नक़ीब (अग्रदूत) की हैसियत हासिल है। बाबुल की असारत (क़ैद) के दौरान यहूद अख्लाक़ी ज़वाल का शिकार थे। जब हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम को अल्लाह तआला ने मुतज़क्किर बाला मुशाहदात करवा दिये तो आप अलैहिस्सलाम ने वहाँ जाकर यहूद को दीन की तालीम दी और उनके अन्दर रूहे दीन को बेदार किया। इसके बाद ईरान के बादशाह केखोरस (Cyrus) ने जब बाबुल (इराक़) पर हमला किया तो यहूदियों को असारत (Captive) से निजात दी और उन्हें दोबारा फ़लस्तीन में जाकर आबाद होने की इजाज़त दे दी। इस तरह येरुशलम की तामीरे नौ हुई और यह बस्ती 136 साल बाद दोबारा आबाद हुई। फिर यहूदियों ने वहाँ हैकले सुलेमानी दोबारा तामीर किया जिसको वह माअबूदे सानी (Second Temple) कहते हैं। फिर यह हैकल 70 ई० में रोमन जनरल टाइटस के हाथों तबाह हो गया और अब तक दोबारा तामीर नहीं हो सका। दो हज़ार बरस होने को आये हैं कि उनका काबा ज़मींबोस है। यही वजह है कि आज दुनिया भर के यहूदियों के दिलों में आग सी लगी हुई है और वह मस्जिदे अक़सा को मस्मार करके वहाँ हैकले सुलेमानी (माअबूदे सालिस) तामीर करने के लिये बेताब हैं। उसके नक्शे भी तैयार हो चुके हैं। बस किसी दिन कोई एक धमाका होगा और ख़बर आ जायेगी कि किसी जुनूनी (Fanatic) ने वहाँ जाकर बम रख दिया था, जिसके नतीजे में मस्जिदे अक़सा शहीद हो गयी है। आपके इल्म में होगा कि एक जुनूनी यहूदी डॉक्टर ने मस्जिदे अल खलील में 70 मुस्लमानों को शहीद करके खुद भी खुदकुशी कर ली थी। इसी तरह कोई जुनूनी यहूदी मस्जिदे अक़सा में बम नसब करके उसको गिरा देगा और फिर यहूदी कहेंगे कि जब मस्जिद मस्मार हो ही गयी है तो अब हमें यहाँ हैकल तामीर करने दें। जैसे अयोध्या में बाबरी मस्जिद के इन्हदाम (विध्वंस) के बाद हिन्दुओं का मौक़फ़ था कि जब मस्जिद गिर ही गयी है तो अब यहाँ पर हमें राम मन्दिर बनाने दो! बहरहाल ये हज़रत उज़ैर अलैहिस्सलाम का वाक़िया था। अब इसी तरह का एक मामला हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का मुशाहिदा है।

आयत 260

“और याद करो जबकि इब्राहीम अलै० ने भी कहा था परवरदिगार! ज़रा मुझे मुशाहिदा करा दे कि तू मुर्दों को कैसे ज़िन्दा करेगा?” وَاِذْ قَالَ اِبْرٰھٖمُ رَبِّ اَرِنِيْ كَيْفَ تُـحْيِ الْمَوْتٰى  ۭ
“(अल्लाह तआला ने) फ़रमाया क्या तुम (इस बात पर) ईमान नहीं रखते?” قَالَ اَوَلَمْ تُؤْمِنْ  ۭ
“कहा क्यों नहीं! (ईमान तो रखता हूँ)” قَالَ بَلٰي
“लेकिन चाहता हूँ कि मेरा दिल पूरी तरह मुतमईन हो जाये।” وَلٰكِنْ لِّيَطْمَىِٕنَّ قَلْبِىْ  ۭ

यह तमाम अम्बिया-ए-किराम अलैहिस्सलाम का मामला है कि उन्हें अय्नुल यक़ीन और हक्कुल यक़ीन के दर्जे का ईमान अता किया जाता है। उन्हें चूँकि ईमान और यक़ीन की एक ऐसी भट्टी (furnace) बनना होता है कि जिससे ईमान और यक़ीन दूसरों में सरायत करे, तो उनके ईमान व यक़ीन के लिये उनको ऐसे मुशाहदात करवा दिये जाते हैं कि ईमान उनके लिये सिर्फ़ ईमान बिलगैब नहीं रहता बल्कि वह ईमान बिलशहादा भी हो जाता है। सूरतुल अनआम में सराहत के साथ फ़रमाया गया है कि हमने इब्राहीम अलै० को आसमानों और ज़मीन के निज़ामे हुकूमत का मुशाहिदा कराया ताकि वह कामिल यक़ीन करने वालों में से हो जाये। मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ को शबे मेराज में आसमानों पर ले जाया गया कि वह हर शय को अपनी आँखों से देख लें। इन मुशाहदात से अम्बिया को उन ईमानी हक़ाइक़ पर यक़ीन कामिल हो जाता है जिनकी वह लोगों को दावत देते हैं। गोया वह खुद ईमान और यक़ीन की एक भट्टी बन जाते हैं।

“फ़रमाया, अच्छा तो चार परिन्दे ले लो और उन्हें अपने साथ हिला लो” قَالَ فَخُذْ اَرْبَعَةً مِّنَ الطَّيْرِ فَصُرْھُنَّ اِلَيْكَ

उन्हें अपने साथ इस तरह मानूस कर लो कि वह तुम्हारी आवाज़ सुन कर तुम्हारे पास आ जाया करें।”

“फिर उनके टुकड़े करके हर पहाड़ पर उनका एक-एक टुकड़ा रख दो” ثُمَّ اجْعَلْ عَلٰي كُلِّ جَبَلٍ مِّنْهُنَّ جُزْءًا
“फिर उनको पुकारो तो वह तुम्हारे पास दौड़ते हुए आयेंगे।” ثُمَّ ادْعُهُنَّ يَاْتِيْنَكَ سَعْيًا  ۭ

इसकी तफ़सील में आता है कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने चारों परिंदों के सर, धड़, टाँगें और उनके पर अलैहदा-अलैहदा किये। फिर एक पहाड़ पर चारों के सर, दूसरे पहाड़ पर चारों के धड़, तीसरे पहाड़ पर चारों की टाँगें और चौथे पहाड़ पर चारों के पर रख दिये। इस तरह उन्हें मुख्तलिफ़ अज्ज़ाअ (हिस्सों) में तक़सीम कर दिया। फिर उन्हें पुकारा तो उनके अज्ज़ाअ मुज्तमेअ (जमा) होकर चारों परिन्दें अपनी साबक़ा हैइयत (आकार) में ज़िन्दा होकर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के पास दौड़ते हुए आ गये।

“और (इस बात को यक़ीन के साथ) जान लो कि अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, कमाले हिकमत वाला है।” وَاعْلَمْ اَنَّ اللّٰهَ عَزِيْزٌ حَكِيْمٌ    ٢٦٠؁ۧ

आयात 261 से 273 तक

مَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ اَنْۢبَتَتْ سَـبْعَ سَـنَابِلَ فِيْ كُلِّ سُنْۢبُلَةٍ مِّائَةُ حَبَّةٍ  ۭوَاللّٰهُ يُضٰعِفُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ    ٢٦١؁ اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ ثُمَّ لَا يُتْبِعُوْنَ مَآ اَنْفَقُوْا مَنًّا وَّلَآ اَذًى ۙ لَّھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ   ٢٦٢؁ قَوْلٌ مَّعْرُوْفٌ وَّمَغْفِرَةٌ خَيْرٌ مِّنْ صَدَقَةٍ يَّتْبَعُهَآ اَذًى ۭ وَاللّٰهُ غَنِىٌّ حَلِيْمٌ    ٢٦٣؁ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُبْطِلُوْا صَدَقٰتِكُمْ بِالْمَنِّ وَالْاَذٰى ۙ كَالَّذِيْ يُنْفِقُ مَالَهٗ رِئَاۗءَ النَّاسِ وَلَا يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ فَمَثَلُهٗ كَمَثَلِ صَفْوَانٍ عَلَيْهِ تُرَابٌ فَاَصَابَهٗ وَابِلٌ فَتَرَكَهٗ صَلْدًا  ۭ لَا يَـقْدِرُوْنَ عَلٰي شَيْءٍ مِّمَّا كَسَبُوْا  ۭ وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ   ٢٦٤؁ وَمَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمُ ابْتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ وَتَثْبِيْتًا مِّنْ اَنْفُسِهِمْ كَمَثَلِ جَنَّةٍۢ بِرَبْوَةٍ اَصَابَهَا وَابِلٌ فَاٰ تَتْ اُكُلَهَا ضِعْفَيْنِ ۚ فَاِنْ لَّمْ يُصِبْهَا وَابِلٌ فَطَلٌّ ۭ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ  ٢٦٥؁ اَيَوَدُّ اَحَدُكُمْ اَنْ تَكُوْنَ لَهٗ جَنَّةٌ مِّنْ نَّخِيْلٍ وَّاَعْنَابٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۙ لَهٗ فِيْهَا مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ ۙ وَاَصَابَهُ الْكِبَرُ وَلَهٗ ذُرِّيَّةٌ ضُعَفَاۗءُ ښ فَاَصَابَهَآ اِعْصَارٌفِيْهِ نَارٌفَاحْتَرَقَتْ ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ   ٢٦٦؁ۧ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا كَسَبْتُمْ وَمِمَّآ اَخْرَجْنَا لَكُمْ مِّنَ الْاَرْضِ ۠ وَلَا تَيَمَّمُوا الْخَبِيْثَ مِنْهُ تُنْفِقُوْنَ وَلَسْتُمْ بِاٰخِذِيْهِ اِلَّآ اَنْ تُغْمِضُوْا فِيْهِ ۭ وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَنِىٌّ حَمِيْدٌ   ٢٦٧؁ اَلشَّيْطٰنُ يَعِدُكُمُ الْفَقْرَ وَيَاْمُرُكُمْ بِالْفَحْشَاۗءِ ۚ وَاللّٰهُ يَعِدُكُمْ مَّغْفِرَةً مِّنْهُ وَفَضْلًا  ۭ وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ    ٢٦٨؁ڦ يُّؤْتِي الْحِكْمَةَ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۚ وَمَنْ يُّؤْتَ الْحِكْمَةَ فَقَدْ اُوْتِيَ خَيْرًا كَثِيْرًا ۭوَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ    ٢٦٩؁ وَمَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ نَّفَقَةٍ اَوْ نَذَرْتُمْ مِّنْ نَّذْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُهٗ  ۭ وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ ٢٧٠؁ اِنْ تُبْدُوا الصَّدَقٰتِ فَنِعِمَّا هِىَ  ۚ وَاِنْ تُخْفُوْھَا وَتُؤْتُوْھَا الْفُقَرَاۗءَ فَھُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۭ وَيُكَفِّرُ عَنْكُمْ مِّنْ سَيِّاٰتِكُمْ ۭ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ   ٢٧١؁ لَيْسَ عَلَيْكَ ھُدٰىھُمْ وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلِاَنْفُسِكُمْ ۭ وَمَا تُنْفِقُوْنَ اِلَّا ابْتِغَاۗءَ وَجْهِ اللّٰهِ  ۭوَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ يُّوَفَّ اِلَيْكُمْ وَاَنْتُمْ لَا تُظْلَمُوْنَ   ٢٧٢؁ لِلْفُقَرَاۗءِ الَّذِيْنَ اُحْصِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ ضَرْبًا فِي الْاَرْضِ ۡ يَحْسَبُھُمُ الْجَاهِلُ اَغْنِيَاۗءَ مِنَ التَّعَفُّفِ  ۚ تَعْرِفُھُمْ بِسِيْمٰھُمْ ۚ لَا يَسْــَٔـلُوْنَ النَّاسَ اِلْحَافًا  ۭ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ   ٢٧٣؁ۧ

अब जो दो रुकूअ आ रहे हैं, इनका मौज़ू इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह है, और इस मौज़ू पर ये क़ुरान मजीद का ज़रवा-ए-सनाम (climax) है। इनके मुताअले से पहले यह बात नोट कर लीजिये कि अल्लाह तआला की रज़ा जोई के लिये अपना माल खर्च करने के लिये दीन में कईं इस्तलाहात हैं। सबसे पहली “اِطعامُ الطَّعام” (खाना खिलाना) है: {وَيُطْعِمُوْنَ الطَّعَامَ عَلٰي حُبِّهٖ مِسْكِيْنًا وَّيَـتِـيْمًا وَّاَسِيْرًا} (अद दहर:8) दूसरी इस्तलाह ईताये माल है: (सूरतुल बक़रह:177)         {وَاٰتَى الْمَالَ عَلٰي حُبِّهٖ ذَوِي الْقُرْبٰى وَالْيَـتٰمٰى وَالْمَسٰكِيْنَ وَابْنَ السَّبِيْلِ ۙ }  फिर इससे आगे सदक़ा, ज़कात, इन्फ़ाक़ और क़र्ज़े हस्ना जैसी इस्तलाहात आती हैं। ये पाँच-छ: इस्तलाहात (terms) हैं, लेकिन इनके अन्दर एक तक़सीम ज़हन में रखिये। अल्लाह तआला की रज़ा जोई के लिये माल खर्च करने की दो बड़ी-बड़ी मदें हैं। एक मद अब्नाये नौ पर खर्च करने की है। यानि क़राबतदार, गुरबा, यतामा, मसाकीन, मोहताज और बेवाओं पर खर्च करना। यह आपके मआशरे के अज्ज़ाअ (हिस्से) हैं, आपके भाई-बन्द हैं, आपके अज़ीज़ व अक़रबाअ हैं। इनके लिये खर्च करना भी अल्लाह तआला को बहुत पसंद है और इसका अजर मिलेगा। यह भी गोया आपने अल्लाह तआला ही के लिये खर्च किया। जबकि दूसरी मद है ऐन अल्लाह के दीन के लिये खर्च करना।

क़ुरान हकीम में इन्फ़ाक़ और क़र्ज़े हस्ना की इस्तलाहें इस दूसरी मद के लिये आती हैं और पहली मद के लिये इतआमुल तआम, ईताये माल, सदक़ा व खैरात और ज़कात की इस्तलाहात हैं। चुनाँचे इन्फ़ाक़े माल या इन्फ़ाक़े फ़ी सबीलिल्लाह से मुराद है अल्लाह की राह में खर्च करना, अल्लाह के दीन की दावत को आम करने और अल्लाह की किताब के पैगाम को आम करने के लिये खर्च करना। अल्लाह के दीन की दावत को इस तरह उभारना कि बातिल के साथ ज़ोर आज़माई करने वाली एक ताक़त पैदा हो जाये, एक जमाअत वुजूद में आये। इस जमाअत के लिये साज़ो-सामान फ़राहम करना ताकि ग़लबा-ए-दीन के हर मरहले के जो तक़ाज़े और ज़रूरतें हैं वह पूरी हो सकें, इस काम में जो माल सर्फ़ (खर्च) होगा वह है इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह या अल्लाह के ज़िम्मे क़र्ज़े हस्ना। तो यहाँ असल में इस इन्फ़ाक़ की बात हो रही है। आम तौर पर फ़ी सबीलिल्लाह का मफ़हूम बहुत आम समझ लिया जाता है और पानी की कोई “सबील (प्याऊ)” बना कर उसे भी “फ़ी सबीलिल्लाह” क़रार दे दिया जाता है। ठीक है, वह भी सबील तो है, नेकी का वह भी रास्ता है, सबील अल्लाह है, लेकिन “इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह” का मफ़हूम बिल्कुल और है। फ़ुक़रा व मसाकीन और अहले हाजत के लिये सदक़ात व खैरात हैं। ज़कात भी असलन गरीबों का हक़ है, लेकिन उसमें भी एक मद “फ़ी सबीलिल्लाह” की रखी गयी है। अगर आपके अज़ीज़ व अक़ारब और क़ुर्ब व जवार में अहले हाजत हैं, गुरबा हैं तो सदक़ा व ज़कात में उनका हक़ फ़ाइक़ है, पहले उनको दीजिये। इसके बाद उसमें से जो भी है वह दीन के काम के लिये लगाइये। जब दीन यतीमी की हालत को आ गया हो तो सबसे बड़ा यतीम दीन है। और आज वाक़िअतन दीन की यही हालत है। अब हम इन आयात का मुताअला करते हैं:

आयत 261

“मिसाल उनकी जो अपने माल अल्लाह की राह में (अल्लाह के दीन के लिये) खर्च करते हैं ऐसे है जैसे एक दाना कि उससे सात बालियाँ (खोशे) पैदा हों और हर बाली में सौ दाने हों।”مَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ كَمَثَلِ حَبَّةٍ اَنْۢبَتَتْ سَـبْعَ سَـنَابِلَ فِيْ كُلِّ سُنْۢبُلَةٍ مِّائَةُ حَبَّةٍ  ۭ

इस तरह एक दाने से सात सौ दाने वजूद में आ गये। यह उस इज़ाफ़े की मिसाल है जो अल्लाह की राह में खर्च किये हुए माल के अज्रो सवाब में होगा। जो कोई भी अल्लाह के दीन के लिये अपना माल खर्च करेगा अल्लाह तआला उसके माल में इज़ाफ़ा करेगा, उसको जज़ा देगा और अपने यहाँ उस अज्रो सवाब को बढ़ाता रहेगा।

“अल्लाह जिसको चाहता है अफ्ज़ोनी (वृधि) अता फ़रमाता है।”وَاللّٰهُ يُضٰعِفُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ

ये सात सौ गुना इज़ाफ़ा तो तुम्हें तम्सीलन बताया है, अल्लाह इससे भी ज़्यादा इज़ाफ़ा करेगा जिसके लिये चाहेगा। सिर्फ सात सौ गुना नहीं, और भी जितना चाहेगा बढ़ाता चला जायेगा।

“और अल्लाह बड़ी वुसअत वाला और सब कुछ जानने वाला है।”وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ    ٢٦١؁

उसके खज़ानों में कोई कमी नहीं और उसका इल्म हर शय को मुहीत है।

आयत 262

“जो लोग अपने माल खर्च करते हैं अल्लाह की राह मे” اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ
“फिर जो कुछ वह खर्च करते हैं उसके बाद ना तो अहसान जताते हैं और ना तकलीफ़ पहुँचाते हैं” ثُمَّ لَا يُتْبِعُوْنَ مَآ اَنْفَقُوْا مَنًّا وَّلَآ اَذًى ۙ

उनका तर्ज़े अमल यह नहीं होता कि देखिये जी, मैंने उस वक़्त इतना चंदा दिया था, मालूम हुआ कि मेरा हक़ ज़्यादा है, हम चंदे ज़्यादा देते हैं तो फिर बात भी तो हमारी मानी जानी चाहिये! या अगर कोई शख्स अल्लाह के दीन के काम में लगा हुआ है और आप उसके साथ तआवुन कर रहे हैं ताकि वह फिक्रे मआश से आज़ाद होकर अपना पूरा वक़्त दीन की ख़िदमत में लगाये, लेकिन अगर कहीं आपने उसको जता भी दिया, उस पर अहसान भी रख दिया, कोई तकलीफ़देह कलमा भी कह दिया, कोई दिल आज़ारी की बात कह दी तो आपका जो अज्रो सवाब था वह सिफ़र (ज़ीरो) हो जायेगा।

“उनका अज्र उनके रब के पास महफ़ूज़ है। और ना तो उनके लिये कोई खौफ़ होगा और ना ही वह किसी रन्ज व ग़म से दो चार होंगे।” لَّھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ   ٢٦٢؁

आयत 263

“भली बात कहना और दरगुज़र करना” قَوْلٌ مَّعْرُوْفٌ وَّمَغْفِرَةٌ
“बेहतर है उस खैरात से जिसके बाद अज़ियत पहुँचाई जाये।” خَيْرٌ مِّنْ صَدَقَةٍ يَّتْبَعُهَآ اَذًى ۭ

अगर आपके पास कोई ज़रूरतमंद आ गया है, किसी ने हाथ फैला दिया है तो अगर आप उसकी मदद नहीं कर सकते तो दिलदारी का एक कलमा कह दीजिये, नरमी के साथ जवाब दे दीजिये, मआज़रत कर लीजिये। या अगर किसी साइल ने आपके साथ दरश्त (भद्दा) रवैय्या इख़्तियार किया है तो फिर भी उसे डाँटीये नहीं: {وَاَمَّا السَّاۗىِٕلَ فَلَا تَنْهَرْ} (अददुहा:10) बल्कि दरगुज़र से काम लीजिये। ये तर्ज़े अमल उससे कहीं बेहतर है कि ज़रूरतमंद को कुछ दे तो दिया लेकिन उसके बाद उसे दो-चार जुम्ले भी सुना दिये, उसकी दिल आज़ारी भी कर दी। तो उसका कोई फ़ायदा नहीं होगा।

“अल्लाह तआला गनी है और हलीम है।” وَاللّٰهُ غَنِىٌّ حَلِيْمٌ    ٢٦٣؁

वह बेनियाज़ भी है और बुर्दबार भी। अगर तुम किसी को कुछ दे रहे हो तो असल में अल्लाह को दे रहे हो। इस ज़िमन में एक हदीसे क़ुदसी में बड़ी वज़ाहत आयी है। हज़रत अबु हुरैरा रज़ि० रिवायत करते हैं कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

“क़यामत के दिन अल्लाह अज्ज़ व जल्ल फ़रमाएगा: ऐ आदम के बेटे! मैं बीमार हुआ तूने मेरी तीमारदारी नहीं की। वह कहेगा: ऐ परवरदिगार! मैं तेरी तीमारदारी कैसे करता जबकि तू रब्बुल आलामीन है? अल्लाह तआला फ़रमाएगा: क्या तू नहीं जानता कि मेरा फलां बंदा बीमार हुआ और तूने उसकी तीमारदारी नहीं की? क्या तू नहीं जानता कि अगर तू उसकी तीमारदारी करता तो मुझे उसके पास मौजूद पाता! ऐ आदम के बेटे मैंने तुझसे खाना माँगा था, तूने मुझे खाना नहीं खिलाया। वह कहेगा: ऐ मेरे रब! मैं तुझको खाना कैसे खिलाता जबकि तू रब्बुल आलामीन है? अल्लाह तआला फरमाएगा: क्या तू नहीं जानता कि तुझसे मेरे फलां बन्दे ने खाना माँगा था, तूने उसको खाना नहीं खिलाया? क्या तू नहीं जानता कि अगर तू उसे खाना खिलाता तो उस खाने को मेरे पास मौजूद पाता! ऐ आदम के बेटे! मैंने तुझसे पानी माँगा था, तूने मुझे पानी नहीं पिलाया। वह कहेगा: परवरदिगार! मैं तुझको कैसे पानी पिलाता जबकि तू तो रब्बुल आलामीन है? अल्लाह तआला फ़रमाएगा: तुझसे मेरे फलां बन्दे ने पानी माँगा था, तूने उसको पानी नहीं पिलाया था, क्या ऐसा नहीं है कि अगर तू उसको पानी पिला देता तो अपने उस अमल को मेरे पास मौजूद पाता!”(34)

चुनाँचे याद रखो कि जो कुछ तुम किसी ज़रूरतमन्द को दे रहे हो वह दरहक़ीक़त अल्लाह को दे रहे हो, जो गनी है, जिसने तुम्हें सब कुछ अता किया है। और तुम्हारे तर्ज़े अमल के बावजूद भी अगर वह तुमसे दरगुज़र कर रहा है तो उसकी वजह यह है कि वह हलीम है, बुर्दबार है। अगर तुम अपने दिल से उतरी हुई शय अल्लाह के नाम पर देते हो, कोई बेकार और रद्दी चीज़ अल्लाह के नाम पर दे देते हो तो अल्लाह तआला की गैरत अगर उसी वक़्त जोश में आ जाये तो तुम्हें हर नेअमत से महरूम कर दे। वह चाहे तो ऐसा कर सकता है, लेकिन नहीं करता, इसलिये कि वह हलीम है।

आयत 264

“ऐ अहले ईमान! अपने सदक़ात को बातिल ना कर लो अहसान जतला कर और कोई अज़ीयत बख्श बात कह कर” يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تُبْطِلُوْا صَدَقٰتِكُمْ بِالْمَنِّ وَالْاَذٰى ۙ
“उस शख्स की तरह जो अपना माल खर्च करता है लोगों को दिखाने के लिये” كَالَّذِيْ يُنْفِقُ مَالَهٗ رِئَاۗءَ النَّاسِ

अगरचे अपना माल खर्च कर रहा है, लोगों को सदक़ात दे रहा है, बड़े-बड़े खैराती इदारे क़ायम कर दिये हैं, लेकिन यह सब कुछ रियाकारी के लिये, सरकार दरबार में रसाई के लिये, कुछ अपने टैक्स बचाने के लिये और कुछ अपनी नामवरी के लिये है। यह सारे काम जो होते हैं अल्लाह जानता है कि इनमें किसकी कियानियत है।

“और वह ईमान नहीं रखता अल्लाह और यौमे आख़िरत पर।” وَلَا يُؤْمِنُ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ ۭ

जो कोई रियाकारी कर रहा है वह हक़ीक़त में अल्लाह पर और यौमे आख़िरत पर ईमान नहीं रखता। रिया और ईमान एक-दूसरे की ज़िद हैं, जैसा कि यह हदीस हम मुतअद्दिद पढ़ चुके हैं:

مَنْ صَلّٰی یُرَائِیْ فَقَدْ اَشْرَکَ، وَمَنْ صَامَ یُرَائِیْ فَقَدْ اَشْرَکَ وَمَنْ تَصَدَّقَ یُرَائِیْ فَقَدْ اَشْرَکَ

“जिसने दिखावे के लिये नमाज़ पढ़ी उसने शिर्क किया, जिसने दिखावे के लिये रोज़ा रखा उसने शिर्क किया और जिसने दिखावे के लिये लोगों को सदक़ा व खैरात दिया उसने शिर्क किया।”(35)

“तो उसकी मिसाल उस चट्टान की सी है जिस पर कुछ मिट्टी (जम गई) हो” فَمَثَلُهٗ كَمَثَلِ صَفْوَانٍ عَلَيْهِ تُرَابٌ

अगर किस चट्टान पर मिट्टी की थोड़ी सी तह जम गई हो और वहाँ आपने कुछ बीज डाल दिये हों तो हो सकता है कि वहाँ कोई फसल भी उग आये, लेकिन वह इन्तहाई नापायदार होगी।

“फिर उस पर ज़ोरदार बारिश पड़े तो वह उसको बिल्कुल साफ़ पत्थर छोड़ दे।” فَاَصَابَهٗ وَابِلٌ فَتَرَكَهٗ صَلْدًا  ۭ

बारिश के एक ही ज़ोरदार छींटे में चट्टान के ऊपर जमी हुई मिट्टी की तह भी बह गई, आपकी मेहनत भी ज़ाया हो गई, आपका बीज भी अकारत (व्यर्थ) गया और आपकी फ़सल भी गई। बारिश से धुल कर वह चट्टान अन्दर से बिल्कुल साफ़ और चटियल निकल आई। यानि सब कुछ गया और कुछ हासिल ना हुआ। इसका मतलब यह है कि रियाकारी का यही अंजाम होता है कि हाथ से माल भी दिया और हासिल कुछ ना हुआ। अल्लाह के यहाँ किसी अज्रो सवाब का सवाल ही नहीं।

“उनकी कमाई में से कुछ भी उनके हाथ नहीं आयेगा।” لَا يَـقْدِرُوْنَ عَلٰي شَيْءٍ مِّمَّا كَسَبُوْا  ۭ

ऐसे लोग अपने तै सदक़ा व खैरात करके जो नेकी कमाते हैं उसमें से कुछ भी उनके हाथ नहीं आता।

“और अल्लाह तआला ऐसे काफ़िरों को राहयाब नहीं करता।” وَاللّٰهُ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الْكٰفِرِيْنَ   ٢٦٤؁

वह नाशुक्रों और मुन्करीने नेअमत को सीधी राह नहीं दिखाता और उन्हें बामुराद नहीं करता।

अगली आयत में फौरी ताक़बुल (simultaneous contrast) के तौर पर उन लोगों के लिये भी मिसाल बयान की जा रही है जो वाक़िअतन अल्लाह तआला से अज्रो सवाब की उम्मीद रखते हुए ख़ुलूस व इख्लास से खर्च करते हैं।

आयत 265

“और मिसाल उन लोगों की जो खर्च करते हैं अपने माल अल्लाह की रज़ाजोई के लिये” وَمَثَلُ الَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمُ ابْتِغَاۗءَ مَرْضَاتِ اللّٰهِ
“और अपने दिलों को जमाये रखने के लिये” وَتَثْبِيْتًا مِّنْ اَنْفُسِهِمْ
“उस बाग़ की मानिंद है जो बुलंदी पर वाक़ेअ हो” كَمَثَلِ جَنَّةٍۢ بِرَبْوَةٍ

जैसा कि मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि क़ुदरती बाग़ का यही तसव्वुर होता था कि ज़रा ऊँचाई पर वाक़ेअ है, उसके दामन में कोई नदी बह रही है जिससे खुद-ब-खुद आब पाशी हो रही है और वह सेराब हो रहा है।

[क़ादयानियों ने इसी लफ्ज़ “ربوہ” के नाम पर पाकिस्तान में अपना शहर बनाया।]

“अब अगर उस बाग़ के ऊपर ज़ोरदार बारिश बरसे” اَصَابَهَا وَابِلٌ
“तो दोगुना फ़ल लाये।” فَاٰ تَتْ اُكُلَهَا ضِعْفَيْنِ ۚ
“और अगर ज़ोरदार बारिश ना भी बरसे तो हल्की सी फुहार (ही उसके लिये काफी हो जाये)।” فَاِنْ لَّمْ يُصِبْهَا وَابِلٌ فَطَلٌّ ۭ
“और जो कुछ तुम कर रहे हो, अल्लाह तआला उसको देख रहा है।” وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ بَصِيْرٌ  ٢٦٥؁

लिहाज़ा तुम दरूं बीनी (intro spection) करते रहा करो कि तुम जो यह माल खर्च कर रहे हो वाक़िअतन खुलूसे दिल और इख्लासे नीयत के साथ अल्लाह ही के लिये कर रहे हो। कहीं गैर-शऊरी तौर पर तुम्हारा कोई और जज़्बा इसमें शामिल ना हो जाये। चुनाँचे अपने गिरेबानों में झाँकते रहो।

आयत 266

“क्या तुममें से कोई कोई यह पसंद करेगा कि उसके पास खजूरों और अंगूरों का एक बाग़ हो, जिसके दामन में नदियाँ बहती हों” اَيَوَدُّ اَحَدُكُمْ اَنْ تَكُوْنَ لَهٗ جَنَّةٌ مِّنْ نَّخِيْلٍ وَّاَعْنَابٍ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ ۙ

अहले अरब के नज़दीक यह एक आईडियल बाग़ का नक्शा है, जिसमें ख़जूर के दरख़्त भी हो और अंगूरों की बेलें भी हो, फिर उसमें आबपाशी का क़ुदरती इंतेज़ाम हो।

“उसके लिये उस बाग़ में हर तरह के फ़ल हों” لَهٗ فِيْهَا مِنْ كُلِّ الثَّمَرٰتِ ۙ
“और उस पर बुढ़ापा तारी हो जाये जबकि उसकी औलाद भी नातवां (कमज़ोर) हो।” وَاَصَابَهُ الْكِبَرُ وَلَهٗ ذُرِّيَّةٌ ضُعَفَاۗءُ ښ
“और ऐन उस वक़्त उस बाग़ पर एक ऐसा बगुला फिर जाये जिसमें आग हो और वह बाग़ झुलस कर रह जाये?” فَاَصَابَهَآ اِعْصَارٌفِيْهِ نَارٌفَاحْتَرَقَتْ ۭ

यानि एक इन्सान सारी उम्र यह समझता रहा कि मैंने तो नेकियों के अम्बार लगाये हैं, मैंने खैराती इदारे क़ायम किये, मैंने फाउंडेशन बनाई, मैंने मदरसा क़ायम किया, मैंने यतीमखाना बना दिया, लेकिन जब उसका नामाये आमाल पेश होगा तो अचानक उसे मालूम होगा कि यह तो कुछ भी ना था। “जब आँख खुली गुल की तो मौसम था खज़ा का!” बस बादे मौसम का एक बगुला आया और सब कुछ जला गया। इसलिये कि उसमें इख्लास था ही नहीं, नीयत में खोट था, उसमें रियाकारी थी, लोगों को दिखाना मक़सूद था। फिर उसका हाल वही होगा जिस तरह कि वह बूढ़ा अब कफ़े अफ़सोस (अफ़सोस में हाथ) मल रहा है जिसका बाग़ जल कर ख़ाक हो गया और उसके कमसिन बच्चे अभी किसी लायक़ नहीं। वह खुद बूढ़ा हो चुका है और अब दोबारा बाग़ नहीं लगा सकता। उस शख्स की मोहलते उम्र भी ख़त्म हो चुकी होगी और सिवाय कफ़े अफ़सोस मलने के उसके पास कोई चारा ना होगा।

“इस तरह अल्लाह तआला अपनी आयात तुम्हारे लिये वाज़ेह करता है ताकि तुम गौर-ओ-फ़िक्र करो।” كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمُ الْاٰيٰتِ لَعَلَّكُمْ تَتَفَكَّرُوْنَ   ٢٦٦؁ۧ

आयत 267

“ऐ ईमान वालो! अपने कमाये हुए पाकीज़ा माल में से खर्च करो।” يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اَنْفِقُوْا مِنْ طَيِّبٰتِ مَا كَسَبْتُمْ

अल्लाह के दीन के लिये खर्च करना है, अल्लाह के नाम पर देना है तो जो कुछ तुमने कमाया है उसमें से अच्छी चीज़, पाकीज़ा चीज़, बेहतर चीज़ निकालो।

“और उसमें से खर्च करो जो कुछ हमने निकाला है तुम्हारे लिये ज़मीन से।” وَمِمَّآ اَخْرَجْنَا لَكُمْ مِّنَ الْاَرْضِ ۠

ज़ाहिर बात है कि ज़मीन से जो भी नबातात बाहर आ रही हैं उनका पैदा करने वाला अल्लाह है। चाहे कोई चरागाह है तो उसके अन्दर जो हरियावल है वह अल्लाह ही ने पैदा की है। खेत के अन्दर आपने मेहनत की है, हल चलाया है, बीज डाले हैं, लेकिन फ़सल का उगाना तो आपके इख़्तियार में नहीं है, यह तो अल्लाह के हाथ में है। “पालता है बीज को मिट्टी की तारीकी में कौन?” चुनाँचे फ़रमाया कि जो कुछ हमने तुम्हारे लिये ज़मीन से निकाला है उसमें से हमारी राह में खर्च करो!

“और उसमें से रद्दी माल का इरादा ना करो कि उसे खर्च कर दो!” وَلَا تَيَمَّمُوا الْخَبِيْثَ مِنْهُ تُنْفِقُوْنَ

ऐसा ना हो कि अल्लाह की राह में खर्च करने के लिये रद्दी और नाकारा माल छाँटने की कोशिश करने लगो। मसलन भेड़-बकरियों का गल्ला है, उसमें से तुम्हें ज़कात के लिये भेड़ें और बकरियाँ निकालनी हैं तो ऐसा हरगिज़ ना हो कि जो कमज़ोर हैं, ज़रा लागर (दुर्बल) हैं, बीमार हैं, नुक़्स वाली हैं उन्हें निकाल कर गिनती पूरी कर दो। इसी तरह उश्र निकालना है तो ऐसा ना करो कि गन्दुम के जिस हिस्से पर बारिश पड़ गई थी वह निकाल दो। तयम्मुम के मायने क़सद (नीयत) और इरादा करने के हैं।

“और तुम हरगिज़ नहीं होगे उसको लेने वाले (अगर वह शय तुमको दी जाये) इल्ला यह कि चश्मपोशी कर जाओ।” وَلَسْتُمْ بِاٰخِذِيْهِ اِلَّآ اَنْ تُغْمِضُوْا فِيْهِ ۭ

ऐसा भी तो हो सकता है कि तुम मोहताज हो जाओ और तुम्हें ज़रूरत पड़ जाये, फिर अगर तुम्हें कोई ऐसी चीज़ देगा तो तुम क़ुबूल नहीं करोगे, इल्ला यह कि चश्मपोशी (अनदेखा) करने पर मजबूर हो जाओ। एहतियाज उस दर्जे की हो कि नफ़ीस या खबीस जो शय भी मिल जाये चश्मपोशी करते हुए उसे क़ुबूल कर लो। वरना आदमी अपने तय्बे खातिर के साथ रद्दी शय क़ुबूल नहीं कर सकता।

“और खूब जान रखो कि अल्लाह तआला गनी है और हमीद है।” وَاعْلَمُوْٓا اَنَّ اللّٰهَ غَنِىٌّ حَمِيْدٌ   ٢٦٧؁

यहाँ “गनी” का लफ्ज़ दोबारा आया है। यह ना समझो कि तुम किसी मोहताज और ज़रूरतमन्द को दे रहे हो, बल्कि यूँ समझो कि अल्लाह को दे रहे हो, जो गनी है, सबकी ज़रूरतें पूरी करने वाला है और हमीद है, यानि अपनी ज़ात में खुद महमूद है। एक तो किसी शय की अच्छाई या हुस्न या कमाल ऐसा होता है कि जिसे ज़ाहिर किया जाये कि भई देखो इसमें यह ख़ूबसूरती है। और एक वह ख़ूबसूरती होती है जो अज़ खुद ज़ाहिर हो। “हाजते मुशाता नीस्त रूए दिल आराम रा!” तो अल्लाह तआला इतना सतूदाह सिफ़ात (तारीफ़ के क़ाबिल) है कि वह अपनी ज़ात में अज़ खुद महमूद है, उसे किसी हम्द की हाजत नहीं है।

आयत 268

“शैतान तुम्हें फ़क्र का अन्देशा दिलाता है और बेहयाई के कामों की तरगीब देता है।” اَلشَّيْطٰنُ يَعِدُكُمُ الْفَقْرَ وَيَاْمُرُكُمْ بِالْفَحْشَاۗءِ ۚ
“और अल्लाह वादा कर रहा है तुमसे अपनी तरफ से मग़फ़िरत का और फ़ज़ल का।” وَاللّٰهُ يَعِدُكُمْ مَّغْفِرَةً مِّنْهُ وَفَضْلًا  ۭ

अब देख लो तुम्हें कौनसा तर्ज़े अमल इख़्तियार करना है:

रुख-ए-रोशन के आगे शमा रख कर वह यह कहते हैं

उधर जाता है देखें या इधर परवाना आता है!

शैतान तुम्हें अल्लाह की राह में खर्च करने से रोकता है कि इस तरह तुम्हारा माल कम हो जायेगा और तुम फ़क्रो फ़ाक़ा में मुब्तला हो जाओगे। अब अगर वाक़ई तुम यह खौफ़ रखते हो कि कहीं ऐसा ना हो कि मुझ पर फ़क्र आ जाये, लिहाज़ा मुझे अपना माल सम्भाल-सम्भाल कर, सेंत-सेंत कर रखना चाहिये तो तुम शैतान के जाल में फँस चुके हो, तुम उसकी पैरवी कर रहे हो। और अगर तुमने अपना माल अल्लाह की राह में खर्च कर दिया अल्लाह पर ऐतमाद करते हुए कि वह मेरी सारी हाजतें आज भी पूरी कर रहा है, कल भी पूरी करेगा (इन्शा अल्लाह) तो अल्लाह की तरफ़ से मग़फ़िरत और फ़ज़ल का वादा पूरा होकर रहेगा।

“और अल्लाह बहुत वुसअत वाला है, सब कुछ जानने वाला है।” وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ    ٢٦٨؁ڦ

तुम उसके खज़ानों की महदूदियत का कोई तसव्वुर अपने ज़हन में ना रखो।

आयत 269

“वह जिसको चाहता है हिकमत अता करता है।” يُّؤْتِي الْحِكْمَةَ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۚ

ये हिकमत की बातें हैं, जिनका समझना हर किस व नाकिस के लिये मुमकिन नहीं। एक चीज़ों का ज़ाहिर है और एक बातिन है, जो हिकमत से नज़र आता है। ज़ाहिर तो सबको नज़र आ रहा है, लेकिन किसी शय की हक़ीक़त क्या है, यह बहुत कम लोगों को मालूम है:

ऐ अहले नज़र! ज़ोके नज़र खूब है लेकिन

जो शय की हक़ीक़त को ना देखे वह नज़र क्या?

जिस किसी पर यह हक़ीक़त अयाँ (उजागर) हो जाती है वह हकीम है। और हिकमत असल में इन्सान की अक़्ल और शऊर की पुख्तगी का नाम है। इस्तेहकाम इसी “हिकमत” से ही बना है। अल्लाह तआला अक़्ल व फ़हम और शऊर की यह पुख्तगी और हक़ाइक़ तक पहुँच जाने की सलाहियत जिसको चाहता है अता फ़रमाता है।

“और जिसे हिकमत दे दी गयी उसे तो खैरे कसीर अता हो गया।” وَمَنْ يُّؤْتَ الْحِكْمَةَ فَقَدْ اُوْتِيَ خَيْرًا كَثِيْرًا ۭ

इससे बड़ा खैर का खज़ाना तो और कोई है ही नहीं।

“और नहीं नसीहत हासिल कर सकते मगर वही लोग जो होशमंद हैं।” وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ    ٢٦٩؁

इन बातों से सिर्फ़ वही लोग सबक़ लेते हैं जो ऊलुल अल्बाब हैं, अक़्लमंद हैं। लेकिन जो दुनिया पर रीझ गये हैं, जिनका सारा दिली इत्मिनान अपने माल व ज़र, जायदाद, असासाजात (संपत्ति) और बैंक बैलेंस पर है तो ज़ाहिर बात है कि वह ऊलुल अल्बाब (अक़्लमंद) नहीं हैं।

आयत 270

“और जो कुछ भी तुम खर्च करते हो (सदक़ा व खैरात देते हो) या जो भी तुम (अल्लाह के नाम पर) मन्नत मानते हो, तो यक़ीनन अल्लाह तआला उस सबको जानता है।” وَمَآ اَنْفَقْتُمْ مِّنْ نَّفَقَةٍ اَوْ نَذَرْتُمْ مِّنْ نَّذْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ يَعْلَمُهٗ  ۭ 
“और (याद रखो कि) ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं होगा।” وَمَا لِلظّٰلِمِيْنَ مِنْ اَنْصَارٍ ٢٧٠؁

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आयत 271

“अगर तुम सदक़ात को ऐलानिया दो तो यह भी अच्छा है।” اِنْ تُبْدُوا الصَّدَقٰتِ فَنِعِمَّا هِىَ  ۚ

ख़ासतौर पर ज़कात का मामला तो ऐलानिया ही है। तो अगर तुम अपने सदक़ात ज़ाहिर करके दो तो यह भी ठीक है। इसलिये कि कम से कम फ़ुक़रा का हक़ तो अदा हो गया, किसी की ज़रूरत को पूरी हो गई।

“और अगर तुम उन्हें छुपाओ और चुपके से ज़रूरतमंदों को दे दो तो यह तुम्हारे लिये बेहतर है।” وَاِنْ تُخْفُوْھَا وَتُؤْتُوْھَا الْفُقَرَاۗءَ فَھُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۭ

याद रहे कि यह बात सदक़ाते नाफ़िला के लिये है। लेकिन जो सदक़ाते वाजिबा हैं, जो लाज़िमन देने हैं, ज़कात और उश्र, उनके लिये अख्फ़ा नहीं है। यह दीन की हिकमत है, इसको ज़हन में रखिये कि फ़र्ज़ इबादात ऐलानिया अदा की जायेंगी। यह वस्वसा भी शैतान बहुत सों के दिलों में डाल देता है कि क्या पाँच वक़्त मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ने से लोगों पर अपने तक़वे का रौब डालना चाहते हो? घर में पढ़ लिया करो! या दाढ़ी इसलिये रखोगे कि लोग तुम्हें समझें कि बड़ा मुत्तक़ी है? ऐसे वसावसे शैतानी को कोई अहमियत नहीं देनी चाहिये और जो चीज़ फ़र्ज़ व वाजिब है, वह अलल ऐलान करनी चाहिये, उसके इज़हार में कोई रुकावट नहीं आनी चाहिये। हाँ जो नफ्ली इबादात हैं, सदक़ाते नाफ़िला हैं या नफ्ल नमाज़ है उसे छुपा कर करना चाहिये। नफ्ल इबादत का इज़हार बहुत बड़ा फ़ितना है। लिहाज़ा फ़रमाया कि अगर तुम अपने सदक़ात छुपा कर चुपके से ज़रूरतमंदों को दे दो तो वह तुम्हारे लिये बहुत बेहतर है।

“और अल्लाह तआला तुमसे तुम्हारी बुराईयों को दूर कर देगा।” وَيُكَفِّرُ عَنْكُمْ مِّنْ سَيِّاٰتِكُمْ ۭ
“और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह तआला उससे बाख़बर है।” وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ خَبِيْرٌ   ٢٧١؁

आयत 272

“(ऐ नबी !) आपके ज़िम्मे नहीं है कि उनको हिदायत दे दें” لَيْسَ عَلَيْكَ ھُدٰىھُمْ

उनको हिदायत देने की ज़िम्मेदारी आप पर नहीं है, आप ﷺ पर ज़िम्मेदारी तब्लीग की है। हमने आपको बशीर और नज़ीर बना कर भेजा है।

“बल्कि अल्लाह तआला ही हिदायत देता है जिसको चाहता है।” وَلٰكِنَّ اللّٰهَ يَهْدِيْ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ
“और जो भी माल तुम खर्च करोगे वह तुम्हारे अपने लिये बेहतर है।” وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلِاَنْفُسِكُمْ ۭ

उसका अज्रो सवाब बढ़ा-चढ़ा कर तुम्ही को दिया जायेगा, सात सौ गुना, चौदह सौ गुना या उससे भी ज़्यादा।

“और तुम नहीं खर्च करोगे मगर अल्लाह की रज़ाजोई के लिये।” وَمَا تُنْفِقُوْنَ اِلَّا ابْتِغَاۗءَ وَجْهِ اللّٰهِ  ۭ

तभी तुम्हें इस क़दर अज्र मिलेगा। अगर रियाकाराना खर्च किया था तो अज्र का क्या सवाल? वह तो शिर्क बन जायेगा।

“और जो भी माल तुम खर्च करोगे वह पूरा-पूरा तुम्हें लौटा दिया जायेगा और तुम पर कोई ज़ुल्म नहीं होगा।” وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ يُّوَفَّ اِلَيْكُمْ وَاَنْتُمْ لَا تُظْلَمُوْنَ   ٢٧٢؁

तुम्हारी ज़रा भी हक़ तल्फी नहीं की जायेगी।

अब वाज़ेह किया जा रहा है कि इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह का सबसे बढ़ कर हक़दार कौन है।

आयत 273

“यह उन ज़रूरतमंदों के लिये है जो घिर कर रह गये हैं अल्लाह की राह में” لِلْفُقَرَاۗءِ الَّذِيْنَ اُحْصِرُوْا فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ

जैसे रसूल अल्लाह ﷺ के दौर में असहाबे सुफ्फ़ा थे कि मस्जिदे नबवी ﷺ में आकर बैठे हुए हैं और अपना वक़्त तलाशे मआश में सर्फ़ नहीं कर रहे, आँहुज़ूर ﷺ से इल्म सीख रहे हैं और जहाँ-जहाँ से मुतालबा आ रहा है कि मुअल्लिमीन और मुबल्लिगीन की ज़रूरत है वहाँ उनको भेजा जा रहा है। अगर वह मआश की जद्दो-जहद करते तो यह तालीम कैसे हासिल करते? इसी तरह दीन की किसी ख़िदमत के लिये कुछ लोग अपने आप को वक़्फ़ कर देते हैं तो वह उसका मिस्दाक़ होंगे। आपने दीन की दावतो तब्लीग और नशरो इशाअत के लिये कोई तहरीक उठायी है तो उसमें कुछ ना कुछ हमावक़्ती कारकुन (हर वक़्त तैयार रहने वाले कार्यकर्त्ता) दरकार होंगे। उन कारकुनों की मआश का मसला होगा। वह आठ-आठ घंटे दफ्तरों में जाकर काम करें और वहाँ अफसरों की डाँट-डपट भी सुनें, आने-जाने में भी दो-दो घंटे लगायें तो अब वह दीन के काम के लिये कौनसा वक़्त निकालेंगे और क्या काम करेंगे? लिहाज़ा कुछ लोग तो होने चाहिये जो इस काम में हमावक़्त लग जायें। लेकिन पेट तो उनके साथ भी हैं, औलाद तो उनकी भी होगी।

“वह (अपने कसब मआश के लिये) ज़मीन में दौड़-धूप नहीं कर सकते।” لَا يَسْتَطِيْعُوْنَ ضَرْبًا فِي الْاَرْضِ ۡ

ज़मीन के अन्दर घूम-फिर कर तिजारत करने का उनके पास वक़्त ही नहीं है।

“नावाक़िफ आदमी उनको खुशहाल ख्याल करता है उनकी खुद्दारी के सबब।” يَحْسَبُھُمُ الْجَاهِلُ اَغْنِيَاۗءَ مِنَ التَّعَفُّفِ  ۚ

यह इस तरह के फ़क़ीर तो हैं नहीं जो लिपट कर माँगते हों। उनकी खुद्दारी की वजह से आम तौर पर जो नावाक़िफ शख्स है वह समझता है कि यह ग़नी हैं, खुशहाल हैं, इन्हें कोई ज़रूरत ही नहीं, इन्होंने कभी माँगा ही नहीं। लेकिन इसकी वजह यह है कि वह इस तरह के सवाली नहीं हैं, वह फ़क़ीर नहीं हैं, उन्होंने तो अल्लाह तआला के दीन के लिये अपने आप को लगा दिया है। यह तुम्हारा काम है कि उन्हें तलाश करो और उनकी ज़रूरियात पूरी करो।

“तुम पहचान लोगे उन्हें उनके चेहरों से।” تَعْرِفُھُمْ بِسِيْمٰھُمْ ۚ

ज़ाहिर बात है कि फ़क्र व अहतियाज का असर चेहरे पर तो आ जाता है। अगर किसी को सही गिज़ा नहीं मिल रही है तो चेहरे पर उसका असर ज़ाहिर होगा।

“वह लोगों से लिपट कर सवाल नहीं करते।” لَا يَسْــَٔـلُوْنَ النَّاسَ اِلْحَافًا  ۭ

वह उन साइलों की तरह नहीं हैं जो असल में अपनी मेहनत का सिला वसूल करते हैं कि आपके सर होकर आपसे ज़बरदस्ती कुछ ना कुछ निकलवा लेते हैं। यह बड़ा अहम मसला है कि अक़ामते दीन की जद्दो-जहद में जो लोग हमावक़्त लग जायें, आखिर उनके लिये ज़रिया-ए-मआश क्या हो? इस वक़्त इस पर तफ़सील से गुफ्तगू मुमकिन नहीं। बहरहाल यह समझ लीजिये कि ये दो रुकूअ इन्फ़ाक़ के मौज़ू पर क़ुरान हकीम का नुक़्ता-ए-उरूज हैं और यह आखरी आयत इनमें अहमतरीन है।

“और जो माल भी तुम खर्च करोगे तो अल्लाह तआला उसको खूब जानता है।” وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ خَيْرٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ   ٢٧٣؁ۧ

यह ना समझना कि तुम्हारा इन्फ़ाक़ अल्लाह के इल्म में नहीं है। तुम ख़ामोशी के साथ, इख्फ़ा के साथ लोगों के साथ तआवुन करोगे तो अल्लाह तआला तुम्हें इसका भरपूर बदला देगा।

आयात 274 से 281 तक

اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ بِالَّيْلِ وَالنَّهَارِ سِرًّا وَّعَلَانِيَةً فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  ٢٧٤؁۩۩ اَلَّذِيْنَ يَاْكُلُوْنَ الرِّبٰوا لَا يَقُوْمُوْنَ اِلَّا كَمَا يَقُوْمُ الَّذِيْ يَتَخَبَّطُهُ الشَّيْطٰنُ مِنَ الْمَسِّ  ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْٓا اِنَّمَا الْبَيْعُ مِثْلُ الرِّبٰوا  ۘ وَاَحَلَّ اللّٰهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا  ۭ فَمَنْ جَاۗءَهٗ مَوْعِظَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ فَانْتَهٰى فَلَهٗ مَا سَلَفَ  ۭ وَاَمْرُهٗٓ اِلَى اللّٰهِ  ۭ وَمَنْ عَادَ فَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  ٢٧٥؁ يَمْحَقُ اللّٰهُ الرِّبٰوا وَيُرْبِي الصَّدَقٰتِ ۭ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ اَثِيْمٍ ٢٧٦؁ اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتَوُا الزَّكٰوةَ لَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  ٢٧٧؁ يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَذَرُوْا مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبٰٓوا اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ  ٢٧٨؁ فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا فَاْذَنُوْا بِحَرْبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ ۚ وَاِنْ تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوْسُ اَمْوَالِكُمْ ۚ لَا تَظْلِمُوْنَ وَلَا تُظْلَمُوْنَ   ٢٧٩؁ وَاِنْ كَانَ ذُوْ عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ اِلٰى مَيْسَرَةٍ ۭ وَاَنْ تَصَدَّقُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ     ٨٠؁ وَاتَّقُوْا يَوْمًا تُرْجَعُوْنَ فِيْهِ اِلَى اللّٰهِ ۼ ثُمَّ تُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ   ٢٨١؁ۧ

अब हम इस सूरह मुबारका का जो रुकूअ पढ़ रहे हैं यह आज के हालात में अहमतरीन है। यह रुकूअ सूद की हुरमत और शनाअत (बुराई) पर क़ुरान हकीम का इन्तहाई अहम मक़ाम है। इस दौर में अल्लाह तआला के खिलाफ़ बग़ावत की सबसे बड़ी सूरत तो गैरुल्लाह की हाकिमियत का तसव्वुर है, जो सबसे बड़ा शिर्क है। अगरचे नफ्सियाती और दाखिली ऐतबार से सबसे बड़ा शिर्क माद्दे पर तवक्कुल है, लेकिन खारजी और वाक़ियाती दुनिया में इस वक़्त सबसे बड़ा शिर्क गैरुल्लाह की हाकिमियत है, जो अब “अवामी हाकिमियत” की शक्ल इख़्तियार कर गई है। इसके बाद इस वक़्त के गुनाहों और बदअम्ली में सबसे बड़ा फ़ितना और फ़साद सूद की बुनियाद पर है। इस वक़्त दुनिया में सबसे बड़ी शैतानियत जो यहूदियों के ज़रिये से पूरे क़ुर्रा-ए-अर्ज़ी को अपनी गिरफ्त में लेने के लिये बेताब है, वह यही सूद का हथकंडा है। यहाँ इसकी हुरमत दो टूक अन्दाज़ में बयान कर दी गई। इस मक़ाम पर मेरे ज़हन में कभी-कभी एक सवाल पैदा होता था कि इस रुकूअ की पहली आयत का ताल्लुक़ तो इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह से है, लिहाज़ा इसे पिछले रुकूअ के साथ शामिल होना चाहिये था, लेकिन बाद में ये हक़ीक़त मुझ पर मुन्कशिफ़ हुई कि इस आयत को बड़ी हिकमत के साथ इस रुकूअ के साथ शामिल किया गया है। वह हिकमत मैं बाद में बयान करूँगा।

आयत 274

“जो लोग अपना माल खर्च करते रहते हैं रात को भी और दिन में भी”اَلَّذِيْنَ يُنْفِقُوْنَ اَمْوَالَھُمْ بِالَّيْلِ وَالنَّهَارِ
“ख़ुफ़िया तौर पर भी और ऐलानिया भी”سِرًّا وَّعَلَانِيَةً

सदक़ाते वाजिबा ऐलानिया और सदक़ाते नाफ़िला ख़ुफ़िया तौर पर देते हैं।

“उनके लिये उनका अज्र (महफ़ूज़) है उनके रब के पास, ना तो उन पर कोई खौफ़ तारी होगा और ना ही वह किसी हुज़्न से दो-चार होंगे।”فَلَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۚ وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  ٢٧٤؁۩۩

इसके बरअक्स मामला उनका है जो सूद खाते हैं। वजह क्या है? असल मसला है “क़द्रे ज़ायद” (surplus value) का! आपका कोई शुगल है, कोई कारोबार है या मुलाज़मत है, आप कमा रहे हैं, उससे आपका खर्च पूरा हो रहा है, कुछ बचत भी हो रही है। अब इस बचत का असल मसरफ़ (उपयोग) क्या है? आयत 219 में हम पढ़ आये हैं: {وَيَسْــَٔـلُوْنَكَ مَاذَا يُنْفِقُوْنَ ڛ قُلِ الْعَفْوَ  ۭ} “लोग आपसे दरयाफ्त करते हैं कि (अल्लाह की राह में) कितना खर्च करें? कह दीजिये जो भी ज़ायद अज़ ज़रूरत हो!” चुनाँचे असल रास्ता तो यह है कि अपनी बचत को अल्लाह की राह में खर्च कर दो। या मोहताजों को दे दो या अल्लाह की के दीन की नशरो इशाअत और सरबुलंदी में लगा दो। लेकिन सूदखोराना ज़हनियत यह है कि इस बचत को भी मज़ीद कमाई का ज़रिया बनाओ। लिहाज़ा असल में सूदखोरी इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह की ज़िद है। यह उक़द (गिरह) मुझ पर उस वक़्त खुला जब मैंने “اَلْقُرْآنُ یُفَسِّرُ بَعْضُہٗ بَعْضًا” के उसूल के तहत सूरतुल रूम की आयत 39 का मुताअला किया। वहाँ भी इन दोनों को एक-दूसरे के मुक़ाबले में लाया गया है, अल्लाह की रज़ाजोई के लिये इन्फ़ाक़ और उसके मुक़ाबले में रिबा, यानि सूद पर रक़म देना। फ़रमाया: {وَمَآ اٰتَيْتُمْ مِّنْ رِّبًا لِّيَرْبُوَا۟ فِيْٓ اَمْوَالِ النَّاسِ فَلَا يَرْبُوْا عِنْدَ اللّٰهِ  ۚ } “और जो माल तुम देते हो सूद पर ताकि लोगों के अमवाल में (शामिल होकर) बढ़ जाये तो वह अल्लाह के यहाँ नहीं बढ़ता।” मेहनत कोई कर रहा है और आप उसकी कमाई में से अपने सरमाये की वजह से वसूल कर रहे हैं तो आपका माल उसके माल में शामिल होकर उसकी मेहनत से बढ़ रहा है। लेकिन अल्लाह के यहाँ उसकी बढ़ोतरी नहीं होती। {وَمَآ اٰتَيْتُمْ مِّنْ زَكٰوةٍ تُرِيْدُوْنَ وَجْهَ اللّٰهِ فَاُولٰۗىِٕكَ هُمُ الْمُضْعِفُوْنَ   39؀} “और वह जो तुम ज़कात (और सदक़ात) में दे देते हो महज़ अल्लाह की रज़ा जोई के लिये तो यही लोग (अपने माल अल्लाह के यहाँ) बढ़ा रहे हैं।” उनका माल मुसलसल बढ़ रहा है, उसकी बढ़ोतरी हो रही है। चुनाँचे इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह और सदक़ात व ज़कात वगैरह का मामला सूद के बिल्मुक़ाबिल और उसके बरअक्स है। अपने इस बचत के माल को या तो कोई अल्लाह की राह में खर्च करेगा या फिर सूदी मुनाफ़ा हासिल करने का ज़रिया बनायेगा। और आपको मालूम है कि आज के बैंकिंग के निज़ाम में सबसे ज़्यादा ज़ोर बचत (saving) पर दिया जाता है और उसके लिये सेविंग एकाउंट्स और बहुत सी पुरकशिश मुनाफ़ाबख्श स्कीमें मुतारुफ़ कराई जाती हैं। उनकी तरफ़ से यही तरगीब दी जाती है कि बचत करो मज़ीद कमाने के लिये! बचत इसलिये नहीं कि अपना पेट काटो और गुरबा की ज़रुरियात पूरी करो, अपना मैयारे ज़िन्दगी कम करो और अल्लाह के दीन के लिये खर्च करो। नहीं, बल्कि इसलिये कि जो कुछ तुम बचाओ वह हमें दो, ताकि वह हम ज़्यादा शरह सूद पर दूसरों को दें और थोड़ी शरह सूद तुम्हें दे दें। चुनाँचे इन्फ़ाक़ और सूद एक-दूसरे की ज़िद हैं। फ़रमाया:

आयत 275

“जो लोग सूद खाते हैं।” اَلَّذِيْنَ يَاْكُلُوْنَ الرِّبٰوا
“वह नहीं खड़े होते मगर उस शख्स की तरह जिसको शैतान ने छूकर मख्बूतुल हवास बना दिया हो।”لَا يَقُوْمُوْنَ اِلَّا كَمَا يَقُوْمُ الَّذِيْ يَتَخَبَّطُهُ الشَّيْطٰنُ مِنَ الْمَسِّ ۭ

यहाँ आम तौर पर यह समझा गया है कि यह क़यामत के दिन का नक़्शा है। क़यामत के दिन का यह नक़्शा तो होगा ही, इस दुनिया में भी सूदखोरों का हाल यही होता है, और उनका यह नक़्शा किसी स्टॉक एक्सचेंज में जाकर बखूबी देखा जा सकता है। मालूम होगा गोया दीवाने हैं, पागल हैं, जो चीख़ रहे हैं, दौड़ रहे हैं, भाग रहे हैं। वह नॉर्मल इन्सान नज़र नहीं आते, मख्बूतुल हवास लोग नज़र आते हैं जिन पर गोया असीब का साया हो।          

“इस वजह से कि वह कहते हैं बैय (खरीदो फ़रोख्त) भी तो सूद ही की तरह है।” ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْٓا اِنَّمَا الْبَيْعُ مِثْلُ الرِّبٰوا

कोई शख्स कह सकता है कि मैंने सौ रूपये का माल ख़रीदा, 110 रूपये में बेच दिया, 10 रूपये बच गये, यह रबह (मुनाफ़ा) है, जो जायज़ है, लेकिन अगर सौ रूपये किसी को दिये और 110 वापस लिये तो यह रिबा (सूद) है, यह हराम क्यों हो गया? एक शख्स ने 10 लाख का मकान बनाया, 4 हज़ार रूपये महाना किराये पर दे दिया तो जायज़ हो गया, और 10 लाख रूपये किसी को क़र्ज़ दिये और उससे 4 हज़ार रूपये महीना लेना शुरू किये तो यह सूद हो गया, हराम हो गया, ऐसा क्यों है? अक़्ली तौर पर इस तरह की बातें सूद के हामियों की तरफ़ से कही जाती हैं। (रबह और रिबा का फ़र्क़ सूरतुल बक़रह की आयत 26 के ज़िमन में बयान हो चुका है।) इस ज़ाहिरी मुनासबत की वजह से यह मख्बूतुल हवास सूदखोर लोग इन दोनों के अन्दर कोई फ़र्क़ महसूस नहीं करते। यहाँ अल्लाह तआला ने इनके क़ौल का अक़्ली जवाब नहीं दिया, बल्कि फ़रमाया:  

“हालाँकि अल्लाह ने बैय को हलाल क़रार दिया है और रिबा को हराम ठहराया है।” وَاَحَلَّ اللّٰهُ الْبَيْعَ وَحَرَّمَ الرِّبٰوا  ۭ

अब तुम यह बात करो कि अल्लाह को मानते हो या नहीं? रसूल अल्लाह ﷺ को मानते हो या नहीं? क़ुरान को मानते हो या नहीं? या महज़ अपनी अक़्ल को मानते हो? अगर तुम मुस्लमान हो, मोमिन हो तो अल्लाह तआला और उसके रसूल ﷺ के हुक्म पर सरे तस्लीम ख़म करो (सूरतुल हश्र:7): {وَمَآ اٰتٰىكُمُ الرَّسُوْلُ فَخُذُوْهُ    ۤ وَمَا نَهٰىكُمْ عَنْهُ فَانْتَهُوْا  ۚ } “जो कुछ रसूल तुम्हें दें उसे ले लो और जिस चीज़ से रोक दें उससे रुक जाओ।” यह तो शरीअत का मामला है। वैसे मआशियात के ऐतबार से इसमें यह फ़र्क़ वाक़ेअ होता है कि एक है fluid capital और एक है fixed capital. जहाँ तक मकान का मामला है तो वह fixed capital है। दस लाख रूपये के मकान में जो शख्स रह रहा है वह उससे क्या फ़ायदा उठायेगा? वह उसमें रिहाइश इख़्तियार करेगा और उसके एवज़ महाना किराया अदा करेगा। इसके बरअक्स अगर आपने दस लाख रूपये किसी को नक़द दे दिये तो वह उन्हें किसी काम में लगायेगा। इसमें यह भी इम्कान है कि दस लाख के बारह लाख या पन्द्रह लाख बन जायें और यह भी कि आठ लाख रह जायें। चुनाँचे इस सूरत में अगर आपने पहले से तयशुदा (fix) मुनाफ़ा वसूल किया तो यह हराम हो जायेगा। तो इन दोनों में कोई मुनास्बत नहीं है। लेकिन अल्लाह तआला ने अक़्ली जवाब नहीं दिया। जवाब दिया कि “अल्लाह ने बैय को हलाल ठहराया है और रिबा को हराम।”     

“तो जिस शख्स के पास उसके रब की तरफ़ से यह नसीहत पहुँच गयी और वह बाज़ आ गया तो जो कुछ वह पहले ले चुका है वह उसका है।” فَمَنْ جَاۗءَهٗ مَوْعِظَةٌ مِّنْ رَّبِّهٖ فَانْتَهٰى فَلَهٗ مَا سَلَفَ  ۭ

वह उससे वापस नहीं लिया जायेगा। हिसाब-किताब नहीं किया जायेगा कि तुम इतना सूद खा चुके हो, वापस करो। लेकिन इसका यह मतलब भी नहीं कि उस पर इसका कोई गुनाह नहीं होगा।           

“उसका मामला अल्लाह के हवाले है।” وَاَمْرُهٗٓ اِلَى اللّٰهِ  ۭ

अल्लाह तआला चाहेगा तो माफ़ कर देगा और चाहेगा तो पिछले सूद पर भी सरज़निश (डाँट-फटकार) होगी।

“और जिसने (इस नसीहत के आ जाने के बाद भी) दोबारा यह हरकत की तो यह लोग जहन्नमी हैं, वह उसमें हमेशा-हमेश रहेंगे।” وَمَنْ عَادَ فَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْهَا خٰلِدُوْنَ  ٢٧٥؁

आयत 276

“अल्लाह तआला सूद को मिटाता है और सदक़ात को बढ़ाता है।” يَمْحَقُ اللّٰهُ الرِّبٰوا وَيُرْبِي الصَّدَقٰتِ ۭ

हमारे ज़माने में शेख़ महमूद अहमद (मरहूम) ने अपनी किताब “Man & Money” में साबित किया है कि तीन चीज़ें सूद के साथ-साथ बढ़ती चली जाती हैं। जितना सूद बढ़ेगा उसी क़दर बेरोज़गारी बढ़ेगी, इफ़राते ज़र (inflation) में इज़ाफा होगा और उसके नतीजे में शरह सूद (interest rate) बढ़ेगा। शरह सूद के बढ़ने से बेरोज़गारी मज़ीद बढ़ेगी और इफ़राते ज़र में और ज़्यादा इज़ाफ़ा होगा। यह एक दायरा-ए-ख़बीसा (vicious circle) है और इसके नतीजे में किसी मुल्क की मइशत बिल्कुल तबाह हो जाती है। यह तबाही एक वक़्त तक पोशीदा रहती है, लेकिन फिर एकदम इसका ज़हूर बड़े-बड़े बैंकों के दिवालिया होने की सूरत में होता है। अभी जो कोरिया का हश्र हो रहा है वह आपके सामने है। इससे पहले रूस का जो हश्र हो चुका है वह पूरी दुनिया के लिये बाइस-ए-इबरत है। सूदी मइशत का मामला तो गोया शीश महल की तरह है, इसमें तो एक पत्थर आकर लगेगा और इसके टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। इसके बरअक्स मामला सदक़ात का है। उनको अल्लाह तआला पालता है, बढ़ाता है, जैसा कि सूरतुल रूम की आयत 39 में इरशाद हुआ।

“और अल्लाह किसी नाशुक्रे और गुनाहगार को पसंद नहीं करता।” وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ كَفَّارٍ اَثِيْمٍ ٢٧٦؁

अल्लाह तआला को वह सब लोग हरगिज़ पसंद नहीं हैं जो नाशुक्रे और गुनाहगार हैं।

आयत 277

“हाँ जो लोग ईमान लाये और उन्होंने नेक अमल किये और नमाज़ क़ायम करते रहे और ज़कात अदा करते रहे उनके लिये उनका अज्र उनके रब के पास महफ़ूज़ है।” اِنَّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ وَاَقَامُوا الصَّلٰوةَ وَاٰتَوُا الزَّكٰوةَ لَھُمْ اَجْرُھُمْ عِنْدَ رَبِّهِمْ ۚ

नेक अमल में ज़ाहिर बात है जो शय हराम है उसका छोड़ देना भी लाज़िम है।           

“और ना उन्हें कोई खौफ़ लाहक़ होगा और ना ही वह ग़मगीन होंगे।” وَلَا خَوْفٌ عَلَيْهِمْ وَلَا ھُمْ يَحْزَنُوْنَ  ٢٧٧؁

आयत 278

“ऐ ईमान वालो! अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और सूद में से जो बाक़ी रह गया है उसे छोड़ दो” يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ وَذَرُوْا مَا بَقِيَ مِنَ الرِّبٰٓوا

आज फैसला कर लो कि जो कुछ भी तुमने किसी को क़र्ज़ दिया था अब उसका सूद छोड़ देना है।          

“अगर तुम वाक़ई मोमिन हो।” اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ  ٢٧٨؁

आयत 279

“फिर अगर तुमने ऐसा ना किया तो ख़बरदार हो जाओ कि अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से तुम्हारे खिलाफ़ ऐलाने जंग है।” فَاِنْ لَّمْ تَفْعَلُوْا فَاْذَنُوْا بِحَرْبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَرَسُوْلِهٖ ۚ

सूदखोरी से बाज़ ना आने पर यह अल्टीमेटम है। क़ुरान व हदीस में किसी और गुनाह पर यह बात नहीं आयी है। यह वाहिद गुनाह है जिस पर अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की तरफ़ से ऐलाने जंग है।

“और अगर तुम तौबा कर लो तो फिर असल अमवाल तुम्हारे ही हैं।” وَاِنْ تُبْتُمْ فَلَكُمْ رُءُوْسُ اَمْوَالِكُمْ ۚ

तुम्हारे जो असल रासुल माल हैं वह तुम्हें लौटा दिये जाएँगे। चुनाँचे सूद छोड़ दो और अपने रासुल माल वापस ले लो।   

“ना तुम ज़ुल्म करो और ना तुम पर ज़ुल्म किया जाये।” لَا تَظْلِمُوْنَ وَلَا تُظْلَمُوْنَ   ٢٧٩؁

ना तुम किसी पर ज़ुल्म करो कि उससे सूद वसूल करो और ना ही तुम पर ज़ुल्म किया जाये कि तुम्हारा रासुल माल भी दबा दिया जाये।

आयत 280

“और अगर मक़रूज़ तंगदस्त हो तो फराखी हासिल होने तक उसे मोहलत दो।” وَاِنْ كَانَ ذُوْ عُسْرَةٍ فَنَظِرَةٌ اِلٰى مَيْسَرَةٍ ۭ

उसे मोहलत दो कि उसके यहाँ कुशादगी पैदा हो जाये ताकि वह आसानी से आपका क़र्ज़ आपको वापस कर सके।

“और अगर तुम सदक़ा ही कर दो तो यह तुम्हारे लिये बेहतर है” وَاَنْ تَصَدَّقُوْا خَيْرٌ لَّكُمْ

तुम्हारा भाई गरीब था, उसको तुमने क़र्ज़ दिया था, उस पर कुछ सूद लेकर खा भी चुके हो, बाक़ी सूद को तो छोड़ा ही है, अगर अपना रासुल माल भी उसको बख्श दो तो यह इन्फ़ाक़ हो जायेगा, यह अल्लाह को क़र्ज़े हस्ना हो जायेगा और तुम्हारे लिये ज़खीरा-ए-आख़िरत बन जायेगा। यह बात समझ लीजिये कि आपकी जो बचत है, जिसे मैंने क़द्रे ज़ायद (surplus value) कहा था, इस्लामी मइशत के अन्दर उसका सबसे ऊँचा मसरफ़ इन्फ़ाक़ फ़ी सबीलिल्लाह है। उसे अल्लाह की राह में खर्च कर दो, सदक़ा कर दो। इससे कमतर “क़र्ज़े हस्ना” है। आपके किसी भाई का कारोबार रुक गया है, उसको क़र्ज़ दे दो, उसका कारोबार चल पड़ेगा और फिर वह तुम्हें तुम्हारी असल रक़म वापस कर देगा। यह क़र्ज़े हस्ना है, इसका दर्जा इन्फ़ाक़ से कमतर है। तीसरा दर्जा मज़ारबत का है, जो जायज़ तो है मगर पसन्दीदा नहीं है। अगर तुम ज़्यादा ही खसीस (कंजूस) हो तो चलो अपना सरमाया अपने किसी भाई को मज़ारबत पर दे दो। और मज़ारबत यह है कि रक़म तुम्हारी होगी और काम वह करेगा। अगर बचत हो जाये तो उसमें तुम्हारा भी हिस्सा होगा, लेकिन अगर नुक़सान हो जाये तो वह कुल का कुल तुम्हारा होगा, तुम उससे कोई तावान नहीं ले सकते। इसके बाद इन तीन दर्जों से भी नीचे उतर कर अगर तुम कहो कि मैं यह रक़म तुम्हें दे रहा हूँ, इस पर इतने फ़ीसद मुनाफ़ा तो तुमने बहरहाल देना ही देना है, तो इससे बढ़ कर हराम शय कोई नहीं है।

इस आयत में हिदायत की जा रही है कि अगर तुम्हारा मक़रूज़ तंगी में है तो फिर इन्तेज़ार करो, उसे उसकी कशाइश और फ़राखी तक मोहलत दे दो। और अगर तुम सदक़ा ही कर दो, खैरात कर दो, बख्श दो तो वह तुम्हारे लिये बेहतर होगा।

“अगर तुम जानते हो।” اِنْ كُنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ     ٨٠؁

अगर तुम्हें अल्लाह ने हिकमत अता कर दी है, अगर तुम ऊलुल अल्बाब हो, अगर तुम समझदार हो तो तुम उस बचत के उम्मीदवार बनो जो अल्लाह के यहाँ अज्रो सवाब की सूरत में तुम्हें मिलेगी। उसके मुक़ाबले में उस रक़म की कोई हैसियत नहीं जो तुम्हें मक़रूज़ से वापस मिलनी है।

अगली आयत नुज़ूल के ऐतबार से क़ुरान मजीद की आखरी आयत है।

आयत 281

“और डरो उस दिन से कि जिस दिन तुम लौटा दिये जाओगे अल्लाह की तरफ़।” وَاتَّقُوْا يَوْمًا تُرْجَعُوْنَ فِيْهِ اِلَى اللّٰهِ ۼ

यहाँ वह आयत याद कीजिये जो सूरतुल बक़रह में अल्फ़ाज़ के मामूली फ़र्क़ के साथ दो बार आ चुकी है:

“और डरो उस दिन से कि जिस दिन काम ना आ सकेगी कोई जान किसी दूसरी जान के कुछ भी और ना किसी से कोई सिफ़ारिश क़ुबूल की जायेगी और ना किसी से कोई फ़िदया वसूल किया जायेगा और ना उन्हें कोई मदद मिल सकेगी।” وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِىْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا شَفَاعَةٌ وَّلَا يُؤْخَذُ مِنْهَا عَدْلٌ وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ  48؀

और

“और डरो उस दिन से कि जिस दिन काम ना आ सकेगी कोई जान किसी दूसरी जान के कुछ भी और ना किसी से कोई फिदया क़बूल किया जायेगा और ना किसी को कोई सिफ़ारिश फ़ायदा पहुँचा सकेगी और ना उन्हें कोई मदद मिल सकेगी।” وَاتَّقُوْا يَوْمًا لَّا تَجْزِيْ نَفْسٌ عَنْ نَّفْسٍ شَـيْــــًٔـا وَّلَا يُقْبَلُ مِنْهَا عَدْلٌ وَّلَا تَنْفَعُهَا شَفَاعَةٌ وَّلَا ھُمْ يُنْصَرُوْنَ   ١٢٣؀
“फिर हर जान को पूरा-पूरा दे दिया जायेगा जो कमाई उसने की होगी।” ثُمَّ تُوَفّٰى كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ
“और उन पर कुछ ज़ुल्म ना होगा।” وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ   ٢٨١؁ۧ

आयात 282, 283

يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا تَدَايَنْتُمْ بِدَيْنٍ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى فَاكْتُبُوْهُ  ۭ وَلْيَكْتُبْ بَّيْنَكُمْ كَاتِبٌۢ بِالْعَدْلِ ۠ وَلَا يَاْبَ كَاتِبٌ اَنْ يَّكْتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ اللّٰهُ فَلْيَكْتُبْ ۚ وَلْيُمْلِلِ الَّذِيْ عَلَيْهِ الْحَقُّ وَلْيَتَّقِ اللّٰهَ رَبَّهٗ وَلَا يَبْخَسْ مِنْهُ شَـيْــــًٔـا  ۭ فَاِنْ كَانَ الَّذِيْ عَلَيْهِ الْحَقُّ سَفِيْهًا اَوْ ضَعِيْفًا اَوْ لَا يَسْتَطِيْعُ اَنْ يُّمِلَّ ھُوَ فَلْيُمْلِلْ وَلِيُّهٗ بِالْعَدْلِ ۭ وَاسْتَشْهِدُوْا شَهِيْدَيْنِ مِنْ رِّجَالِكُمْ ۚ فَاِنْ لَّمْ يَكُوْنَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَّامْرَاَتٰنِ مِمَّنْ تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّهَدَاۗءِ اَنْ تَضِلَّ اِحْدٰىھُمَا فَتُذَكِّرَ اِحْدٰىهُمَا الْاُخْرٰى ۭ وَلَا يَاْبَ الشُّهَدَاۗءُ اِذَا مَا دُعُوْا  ۭ وَلَا تَسْــَٔـــمُوْٓا اَنْ تَكْتُبُوْهُ صَغِيْرًا اَوْ كَبِيْرًا اِلٰٓى اَجَلِهٖ  ۭ ذٰلِكُمْ اَقْسَطُ عِنْدَ اللّٰهِ وَاَقْوَمُ لِلشَّهَادَةِ وَاَدْنٰٓى اَلَّا تَرْتَابُوْٓا اِلَّآ اَنْ تَكُـوْنَ تِجَارَةً حَاضِرَةً تُدِيْرُوْنَهَا بَيْنَكُمْ فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَلَّا تَكْتُبُوْھَا  ۭ وَاَشْهِدُوْٓا اِذَا تَبَايَعْتُمْ  ۠وَلَا يُضَاۗرَّ كَاتِبٌ وَّلَا شَهِيْدٌ ڛ وَاِنْ تَفْعَلُوْا فَاِنَّهٗ فُسُوْقٌۢ بِكُمْ ۭ وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭ وَيُعَلِّمُكُمُ اللّٰهُ  ۭ وَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ    ٢٨٢؁ وَاِنْ كُنْتُمْ عَلٰي سَفَرٍ وَّلَمْ تَجِدُوْا كَاتِبًا فَرِھٰنٌ مَّقْبُوْضَةٌ  ۭ فَاِنْ اَمِنَ بَعْضُكُمْ بَعْضًا فَلْيُؤَدِّ الَّذِي اؤْتُمِنَ اَمَانَتَهٗ وَلْيَتَّقِ اللّٰهَ رَبَّهٗ  ۭ وَلَا تَكْتُمُوا الشَّهَادَةَ  ۭ وَمَنْ يَّكْتُمْهَا فَاِنَّهٗٓ اٰثِمٌ قَلْبُهٗ  ۭ وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ عَلِيْمٌ    ٢٨٣؁ۧ

आयत 282, जो ज़ेरे मुताअला है, क़ुरान हकीम की तवील-तरीन आयत है और इसे “आयते दैन” या “आयते मुदायना” का नाम दिया गया है। इस आयत में हिदायत की गई है कि कोई क़र्ज़ का बाहम लेन-देन हो या आपस में कारोबारी मामला हो तो उसे बाक़ायदा तौर पर लिख लिया जाये और उस पर दो गवाह मुक़र्रर किये जायें। हमारे यहाँ आम तौर पर इस क़ुरानी हिदायत को नज़र अंदाज़ किया जाता है और किसी भाई, दोस्त या अज़ीज़ को क़र्ज़ देते हुए या कोई कारोबारी मामला करते हुए यह ख्याल किया जाता है कि इससे क्या लिखवाना, वह कहेगा कि इन्हें मुझ पर ऐतमाद नहीं है। चुनाँचे तमाम मामलात ज़बानी तय कर लिये जाते हैं, और बाद में जब मामलात में बिगाड़ पैदा होता है तो फिर लोग शिकवा-शिकायत और चीखो पुकार करते हैं। अगर शुरू ही में क़ुरानी हिदायात के मुताबिक़ माली मामलात को तहरीर कर लिया जाये तो नौबत यहाँ तक ना पहुँचेगी। हदीसे नबवी ﷺ का मफ़हूम है कि जो शख्स क़र्ज़ देते हुए या कोई माली मामला करते हुए लिखवाता नहीं है, अगर उसका माल ज़ाया हो जाता है तो उसे इस पर कोई अज्र नहीं मिलता, और अगर वह मक़रूज़ के हक़ में बददुआ करता है तो अल्लाह तआला उसकी फ़रियाद नहीं सुनता, क्योंकि उसने अल्लाह तआला के वाज़ेह हुक्म की खिलाफ़वर्ज़ी की है।

आयत 282

“ऐ अहले ईमान! जब भी तुम क़र्ज़ का कोई मामला करो एक वक़्ते मुअय्यन तक के लिये तो उसको लिख लिया करो।” يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِذَا تَدَايَنْتُمْ بِدَيْنٍ اِلٰٓى اَجَلٍ مُّسَمًّى فَاكْتُبُوْهُ  ۭ

आयत के इस टुकड़े से दो हुक्म मालूम होते हैं। एक यह कि क़र्ज़ का वक़्त मुअय्यन होना चाहिये कि यह कब वापस होगा और दूसरे यह कि उसे लिख लिया जाये। فَاکْتُبُوْہُ फ़अल अम्र है और अम्र वजूब (ज़रूरी) के लिये होता है।

“और चाहिये कि उसको लिखे कोई लिखने वाला तुम्हारे माबैन अद्ल के साथ।” وَلْيَكْتُبْ بَّيْنَكُمْ كَاتِبٌۢ بِالْعَدْلِ ۠

लिखने वाला कोई डंडी ना मार जाये, उसे चाहिये कि वह सही-सही लिखे।

“और जो लिखना जानता हो वह लिखने से इन्कार ना करे, जिस तरह अल्लाह ने उसको सिखाया है, पस चाहिये कि वह लिख दे।” وَلَا يَاْبَ كَاتِبٌ اَنْ يَّكْتُبَ كَمَا عَلَّمَهُ اللّٰهُ فَلْيَكْتُبْ ۚ

यह हिदायत ताकीद के साथ की गयी, इसलिये कि उस मआशरे में पढ़े-लिखे लोग बहुत कम होते थे। अब भी माली मामलात और मुआहिदात बिलउमूम व वसीक़ा नोएस तहरीर करते हैं।

“और इमला वह शख्स कराये जिस पर हक़ आता है” وَلْيُمْلِلِ الَّذِيْ عَلَيْهِ الْحَقُّ

यानि जिसने क़र्ज़ लिया है वह दस्तावेज़ लिखवाये कि मैं क्या ज़िम्मेदारी ले रहा हूँ, जिसका माल है वह ना लिखवाये।

“और वह अल्लाह से डरता रहे अपने रब से” وَلْيَتَّقِ اللّٰهَ رَبَّهٗ
“और (लिखवाते हुए) उसमें से कोई शय कम ना कर दे।” وَلَا يَبْخَسْ مِنْهُ شَـيْــــًٔـا  ۭ
“फिर अगर वह शख्स जिस पर हक़ आयद होता है, नासमझ या ज़ईफ हो” فَاِنْ كَانَ الَّذِيْ عَلَيْهِ الْحَقُّ سَفِيْهًا اَوْ ضَعِيْفًا
“या उसके अन्दर इतनी सलाहियत ना हो कि इमला करवा सके” اَوْ لَا يَسْتَطِيْعُ اَنْ يُّمِلَّ ھُوَ
“तो जो उसका वली हो वह इन्साफ़ के साथ लिखवा दे।” فَلْيُمْلِلْ وَلِيُّهٗ بِالْعَدْلِ ۭ

अगर क़र्ज़ लेने वाला नासमझ हो, ज़ईफ हो या दस्तावेज़ ना लिखवा सकता हो तो उसका कोई वली, कोई वकील या मुख़्तार (attorney) उसकी तरफ़ से इन्साफ़ के साथ दस्तावेज़ तहरीर कराये। यहाँ “इमलाल” इमला के मायने में आया है।

“और इस पर गवाह बना लिया करो अपने मर्दों में से दो आदमियों को।” وَاسْتَشْهِدُوْا شَهِيْدَيْنِ مِنْ رِّجَالِكُمْ ۚ
“फिर अगर दो मर्द दस्तयाब ना हों तो एक मर्द और दो औरतें हों” فَاِنْ لَّمْ يَكُوْنَا رَجُلَيْنِ فَرَجُلٌ وَّامْرَاَتٰنِ
“यह गवाह तुम्हारे पसन्दीदा लोगों में से हो” مِمَّنْ تَرْضَوْنَ مِنَ الشُّهَدَاۗءِ

जिनकी गवाही हर दो फ़रीक़ के नज़दीक मक़बूल हो और उन पर दोनों को ऐतमाद हो। अगर मज़कूरा सिफ़ात के दो मर्द दस्तयाब ना हो सकें तो गवाही के लिये एक मर्द और दो औरतों का इन्तखाब कर लिया जाये। यानि गवाहों में एक मर्द का होना लाज़िम है, महज़ औरत की गवाही नहीं चलेगी। अब सवाल पैदा होता है कि आया हर क़िस्म के मामलात में दो औरतों की गवाही एक मर्द के बराबर है या यह मामला सिर्फ़ क़र्ज़ और माली मामलात में दस्तावेज़ तहरीर करते वक़्त का है, इसकी तफ़सील फ़ुक़ाहा के यहाँ मिलती है।

“ताकि उनमें से कोई एक भूल जाये तो दूसरी याद करवा दे।” اَنْ تَضِلَّ اِحْدٰىھُمَا فَتُذَكِّرَ اِحْدٰىهُمَا الْاُخْرٰى ۭ

यहाँ अक़्ली सवाल पैदा हो गया कि क्या मर्द नहीं भूल सकता? इसका जवाब यह है कि वाक़िअतन अल्लाह तआला ने औरत के अन्दर निस्यान का माद्दा ज़्यादा रखा है। {اَلَا يَعْلَمُ مَنْ خَلَقَ ۭ وَهُوَ اللَّطِيْفُ الْخَبِيْرُ    14؀ۧ} (अल मुल्क) “क्या वही ना जानेगा जिसने पैदा किया है? वह बड़ा बारीक-बीन और हर शय की ख़बर रखने वाला है।” जिसने पैदा किया है वह खूब जानता है कि किसमें कौनसा माद्दा ज़्यादा है। औरत में निस्यान का माद्दा क्यों ज़्यादा रखा गया है, यह भी समझ लीजिये। यह बड़ी अक़्ली और मंतक़ी बात है। दरअसल औरत को मर्द के ताबेअ रहना होता है, लिहाज़ा उसके अहसासात को कभी ठेस पहुँच सकती है, उसके जज़्बात के ऊपर कभी कोई कदुरत आती है। इस ऐतबार से अल्लाह तआला ने उनके अन्दर भूल जाने का माद्दा “सेफ्टी वाल्व” के तौर पर रखा हुआ है। वरना तो उनका मामला इस शेर के मिस्दाक़ हो जाये:

यादे माज़ी अज़ाब है या रब

छीन ले अब मुझसे हाफ्ज़ा मेरा!

चुनाँचे यह निस्यान भी अल्लाह तआला की बहुत बड़ी नेअमत है, वरना तो कोई सदमा दिल से उतरने ही ना पाये, कोई गुस्सा कभी ख़त्म ही ना हो। बहरहाल ख्वाह किसी हुक्म की इल्लत या हिकमत समझ में आये या ना आये, अल्लाह का हुक्म तो हर सूरत मानना है।

“और ना इन्कार करे गवाह जबकि उनको बुलाया जाये।” وَلَا يَاْبَ الشُّهَدَاۗءُ اِذَا مَا دُعُوْا  ۭ

गवाहों को जब गवाही के लिये बुलाया जाये तो आकर गवाही दें, उससे इन्कार ना करें। इसी सूरह मुबारका की आयत 140 में हम पढ़ आये हैं:    {وَمَنْ اَظْلَمُ مِمَّنْ كَتَمَ شَهَادَةً عِنْدَهٗ مِنَ اللّٰهِ ۭ } “और उस शख्स से बढ़ कर ज़ालिम कौन होगा जिसके पास अल्लाह की तरफ़ से एक शहादत मौजूद हो और वह उसे छुपाये?”

“और तसाहुल (लापरवाही) मत करो उसके लिखने में, मामला ख्वाह छोटा हो या बड़ा, उसकी मुअययन मुद्दत के लिये।” وَلَا تَسْــَٔـــمُوْٓا اَنْ تَكْتُبُوْهُ صَغِيْرًا اَوْ كَبِيْرًا اِلٰٓى اَجَلِهٖ  ۭ

क़र्ज़ ख्वाह छोटा हो या बड़ा, उसकी दस्तावेज़ तहरीर होनी चाहिये कि मैं इतनी रक़म ले रहा हूँ और इतने वक़्त में इसे लौटा दूँगा। इसके बाद क़र्ज़ख्वाह इस मुद्दत को बढ़ा भी सकता है, मज़ीद मोहलत दे सकता है, बल्कि माफ़ भी कर सकता है। लेकिन क़र्ज़ देते वक़्त उसकी मुद्दत मुअय्यन होनी चाहिये।

“यह अल्लाह के नज़दीक भी ज़्यादा इन्साफ़ पर मब्नी है” ذٰلِكُمْ اَقْسَطُ عِنْدَ اللّٰهِ
“और गवाही को ज़्यादा दुरुस्त रखने वाला है” وَاَقْوَمُ لِلشَّهَادَةِ

मामला ज़ब्त तहरीर (documented) में आ जायेगा तो बहुत वाज़ेह रहेगा, वरना ज़बानी याददाश्त के अन्दर तो कहीं ताबीर ही में फ़र्क़ हो जाता है।

“और यह इसके ज़्यादा क़रीब है कि तुम शुबह में नहीं पड़ोगे” وَاَدْنٰٓى اَلَّا تَرْتَابُوْٓا
“इल्ला यह कि कोई तिजारती लेन-देन हो जो तुम दस्त-ब-दस्त करते हो” اِلَّآ اَنْ تَكُـوْنَ تِجَارَةً حَاضِرَةً تُدِيْرُوْنَهَا بَيْنَكُمْ

मसलन आप किसी दुकानदार से कोई शय खरीदते हैं और नक़द पैसे अदा करते हैं तो ज़रूरी नहीं कि आप उसका कैशमेमो भी लें। अगर आप चाहें तो दुकानदार से कैशमेमो तलब कर सकते हैं।

“तो तुम पर कोई गुनाह नहीं है कि उसे ना लिखो।” فَلَيْسَ عَلَيْكُمْ جُنَاحٌ اَلَّا تَكْتُبُوْھَا  ۭ
“और गवाह बना लिया करो जब कोई (मुस्तक़बिल का) सौदा करो।” وَاَشْهِدُوْٓا اِذَا تَبَايَعْتُمْ  ۠

“بیع سلم” जो होती है यह मुस्तक़बिल का सौदा है, और यह भी एक तरह का क़र्ज़ है। मिसाल के तौर पर आप किसी ज़मींदार से तय करते हैं कि आइन्दा फ़सल के मौक़े पर आप उससे इतने रूपये फ़ी मन के हिसाब से पाँच सौ मन गन्दुम खरीदेंगे। यह बय सलम कहलाती है और इसमें लाज़िम है कि आप पूरी क़ीमत अभी अदा कर दें और आपको गन्दुम फ़सल के मौक़े पर मिलेगी। इस तरह का लेन-देन भी बाक़ायदा तहरीर में आ जाना चाहिये और इस पर दो गवाह मुक़र्रर होने चाहिये।

“और ना नुक़सान पहुँचाया जाये किसी लिखने वाले को और गवाह को। और ना नुक़सान पहुँचाये कोई लिखने वाला और गवाह।” وَلَا يُضَاۗرَّ كَاتِبٌ وَّلَا شَهِيْدٌ ڛ

“یُضَآرَّ” में यह दोनों मफ़हूम मौजूद हैं। इसलिये कि यह मारूफ़ भी है और मजहूल भी।

“और अगर तुम ऐसा करोगे (नुक़सान पहुँचाओगे) तो यह तुम्हारे हक़ में गुनाह की बात होगी।” وَاِنْ تَفْعَلُوْا فَاِنَّهٗ فُسُوْقٌۢ بِكُمْ ۭ
“और अल्लाह से डरते रहो।” وَاتَّقُوا اللّٰهَ ۭ
“और अल्लाह तुम्हें तालीम दे रहा है।” وَيُعَلِّمُكُمُ اللّٰهُ  ۭ
“और अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखने वाला है।” وَاللّٰهُ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيْمٌ    ٢٨٢؁

यह एक आयत मुकम्मल हुई है। मेरा ख्याल है कि आखरी पारे की चार-पाँच छोटी सूरतें जमा कर लें तो उनका हुज्म इस एक आयत के बराबर होगा। मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि आयात की ताअयीन तौफीक़ी (विशेषता मज़बूत) है। इसका हमारे हिसाब-किताब से, ग्रामर से, मंतिक़ से और इल्मे बयान से कोई ताल्लुक़ नहीं।

आयत 283

“और अगर तुम सफ़र पर हो और कोई लिखने वाला ना पाओ” وَاِنْ كُنْتُمْ عَلٰي سَفَرٍ وَّلَمْ تَجِدُوْا كَاتِبًا

अगर दौराने सफ़र कोई लेन-देन का या क़र्ज़ का मामला हो जाये और कोई कातिब ना मिल सके।

“तो कोई शय गिरवी रखलो क़ब्ज़े में।” فَرِھٰنٌ مَّقْبُوْضَةٌ  ۭ

क़र्ज़ लेने वाला अपनी कोई शय क़र्ज़ देने वाले के हवाले कर दे कि मेरी यह शय आपके क़ब्ज़े में रहेगी, आप इतने पैसे मुझे दे दीजिये, मैं जब यह वापस कर दूँगा आप मेरी चीज़ मुझे लौटा दीजियेगा। यह रहन बिलक़ब्ज़ा है। लेकिन रहन (गिरवी) रखी हुई चीज़ से कोई फ़ायदा उठाने की इजाज़त नहीं है, वह सूद हो जायेगा। मसलन अगर मकान रहन रखा गया है तो उस पर क़ब्ज़ा तो क़र्ज़ देने वाले का होगा, लेकिन वह उससे इस्तफ़ादा नहीं कर सकता, उसका किराया नहीं ले सकता, किराया मालिक को जायेगा।

“फिर अगर तुम में से एक-दूसरे पर ऐतमाद करे” فَاِنْ اَمِنَ بَعْضُكُمْ بَعْضًا

यानि एक शख्स दूसरे पर ऐतमाद करते हुए बगैर रहन के उसे क़र्ज़ दे देता है।

“तो जिसके पास अमानत रखी गयी है उसको चाहिये कि वह उसकी अमानत वापस करे” فَلْيُؤَدِّ الَّذِي اؤْتُمِنَ اَمَانَتَهٗ

एक शख्स के पास रहन देने को कुछ नहीं था या यह कि दूसरे भाई ने उस पर ऐतमाद करते हुए उससे कोई शय रहन नहीं ली और उसको क़र्ज़ दे दिया तो यह माल जो उसने क़र्ज़ लिया है यह उसके पास क़र्ज़ देने वाले की अमानत है, जिसका वापस लौटाना उसके ज़िम्मे फ़र्ज़ है।

“और अल्लाह से डरे जो उसका रब है।” وَلْيَتَّقِ اللّٰهَ رَبَّهٗ  ۭ
“और गवाही को छुपाया ना करो।” وَلَا تَكْتُمُوا الشَّهَادَةَ  ۭ
“और जो कोई गवाही को छुपायेगा तो उसका दिल गुनाहगार होगा।” وَمَنْ يَّكْتُمْهَا فَاِنَّهٗٓ اٰثِمٌ قَلْبُهٗ  ۭ

बाज़ गुनाहों का असर इन्सान के बाहिरी आज़ा (अंगों) तक महदूद होता है, जबकि बाज़ का ताल्लुक़ दिल से होता है। शहादत का छुपाना भी इसी नौइयत का गुनाह है। और अगर किसी का दिल दाग़दार हो गया तो बाक़ी क्या रह गया?

“और जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उसे खूब जानता है।” وَاللّٰهُ بِمَا تَعْمَلُوْنَ عَلِيْمٌ    ٢٨٣؁ۧ

आयात 284 से 286 तक

لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَاِنْ تُبْدُوْا مَا فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ اَوْ تُخْفُوْهُ يُحَاسِبْكُمْ بِهِ اللّٰهُ  ۭ فَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ  ٢٨٤؁ اٰمَنَ الرَّسُوْلُ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ مِنْ رَّبِّهٖ وَالْمُؤْمِنُوْنَ ۭ كُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ  ۣلَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْ رُّسُلِهٖ ۣ وَقَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ڭ غُفْرَانَكَ رَبَّنَا وَاِلَيْكَ الْمَصِيْرُ  ٢٨٥؁ لَا يُكَلِّفُ اللّٰهُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَا  ۭ لَهَا مَا كَسَبَتْ وَعَلَيْهَا مَا اكْتَسَبَتْ  ۭرَبَّنَا لَا تُؤَاخِذْنَآ اِنْ نَّسِيْنَآ اَوْ اَخْطَاْنَا  ۚ رَبَّنَا وَلَا تَحْمِلْ عَلَيْنَآ اِصْرًا كَمَا حَمَلْتَهٗ عَلَي الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِنَا  ۚ رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلْنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهٖ ۚ وَاعْفُ عَنَّا   ۪ وَاغْفِرْ لَنَا   ۪ وَارْحَمْنَا   ۪ اَنْتَ مَوْلٰىنَا فَانْــصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ٢٨٦؀ۧ

अल्लाह तआला के फ़ज़लो करम से हम सूरतुल बक़रह के आखरी रुकूअ पर पहुँच गये हैं। यह अज़ीमुश्शान रुकूअ तीन आयात पर मुश्तमिल है। क़ब्ल अज़ हम इसी तरह का एक अज़ीम रुकूअ पढ़ आये हैं जिसकी चार आयात हैं और उसमें आयतुल कुरसी भी है। यूँ कहा जा सकता है कि ये दोनों रुकूअ अपनी अज़मत और अपने मक़ाम के ऐतबार से एक-दूसरे के हमपल्ला हैं। आयतुल कुरसी तौहीद के मौज़ू पर क़ुरान हकीम की जामेअ तरीन आयत है, और इस रुकूअ की आखरी आयत जामेअ तरीन दुआ पर मुश्तमिल है।

आयत 284

“अल्लाह ही का है जो कुछ भी आसमानों में है और जो कुछ भी ज़मीन में है।” لِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ

आप देखेंगे कि अक्सरो बेशतर इस तरह के अल्फ़ाज़ सूरतों के इख्तताम पर आते हैं।

“और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है ख्वाह तुम उसे ज़ाहिर करो ख्वाह छुपाओ अल्लाह तुमसे उसका मुहास्बा कर लेगा।” وَاِنْ تُبْدُوْا مَا فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ اَوْ تُخْفُوْهُ يُحَاسِبْكُمْ بِهِ اللّٰهُ  ۭ

तुम्हारी नीयतें उसके इल्म में हैं। एक हदीस में अल्फ़ाज़ आते हैं:

اِنَّ اللہَ لَا یَنْظُرُ اِلٰی صُوَرِکُمْ وَ اَمْوَالِکُمْ وَ لٰکِنْ یَنْظُرُ اِلٰی قُلُوْبِکُمْ وَاَعْمَالِکُمْ

“यक़ीनन अल्लाह तआला तुम्हारी सूरतों को और तुम्हारे माल व दौलत को नहीं देखता, बल्कि वह तुम्हारे दिलों को और तुम्हारे आमालों को देखता है।” (36)

तो तुम्हारे दिल में जो कुछ है ख्वाह उसे कितना ही छुपा लो अल्लाह के मुहास्बे से नहीं बच सकोगे।

“फिर वह बख्श देगा जिसको चाहेगा और अज़ाब देगा जिसको चाहेगा।” فَيَغْفِرُ لِمَنْ يَّشَاۗءُ وَيُعَذِّبُ مَنْ يَّشَاۗءُ  ۭ

इख़्तियारे मुतलक़ अल्लाह के हाथ में है। हमारे यहाँ अहले सुन्नत का अक़ीदा यही है कि अल्लाह तआला पर लाज़िम नहीं है कि नेकोकार को उसकी जज़ा ज़रूर दे और बदकार को उसकी सज़ा ज़रूर दे। यह दूसरी बात है कि अल्लाह ऐसा करेगा, लेकिन अल्लाह की शान इससे बहुत आला व अरफ़ा है कि उस पर किसी शय को लाज़िम क़रार दिया जाये। उसका इख्तियारे मुतलक़ है, वह { فَعَّالٌ لِّمَا يُرِيْدُ   16۝ۭ} (अल बुरूज) की शान का हामिल है। सूरतुल हज में अल्फ़ाज़ आये हैं: { اِنَّ اللّٰهَ يَفْعَلُ مَا يَشَاۗءُ  18؀ڍ } “यक़ीनन अल्लाह जो चाहता है करता है।” अहले तशय्यो का मौक़फ़ यह है कि अल्लाह पर अद्ल वाजिब है। अहले सुन्नत कहते हैं कि अल्लाह अद्ल करेगा, जज़ा व सज़ा में अद्ल होगा, लेकिन अद्ल करना उस पर वाजिब नहीं है, बल्कि अल्लाह ने जो शय अपने ऊपर वाजिब की है वह “रहमत” है। अज़रुए अल्फ़ाज़े क़ुरानी: {كَتَبَ عَلٰي نَفْسِهِ الرَّحْمَةَۭ } (अल अनआम:12) और: {كَتَبَ رَبُّكُمْ عَلٰي نَفْسِهِ الرَّحْمَةَ ۙ} (अल अनआम:54) “तुम्हारे रब ने रहमत को अपने ऊपर वाजिब कर लिया है।”

“और अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।” وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ  ٢٨٤؁

आयत 285

“ईमान लाये रसूल () उस चीज़ पर जो नाज़िल की गयी उनकी जानिब उनके रब की तरफ से और मोमिनीन भी (ईमान लाये)।” اٰمَنَ الرَّسُوْلُ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ مِنْ رَّبِّهٖ وَالْمُؤْمِنُوْنَ ۭ

यह एक गौरतलब बात और बड़ा बरीक नुक्ता है कि नबी अकरम ﷺ पर जब वही आयी तो आप ﷺ ने कैसे पहचान लिया कि यह बदरूह नहीं है, यह जिब्राइल अमीन अलैहिस्सलाम हैं? आख़िर कोई इश्तबाह भी तो हो सकता था। इसलिये कि पहला तजुर्बा था। इससे पहले ना तो आप ﷺ ने कहानत सीखी और ना आपने कोई नफ्सियाती रियाज़तें कीं। आप ﷺ तो एक कारोबारी आदमी थे और अहलो अयाल के साथ बहुत ही भरपूर ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। आप ﷺ का बुलन्द तरीन सतह का इम्पोर्ट-एक्सपोर्ट का कारोबार था। यह दर हक़ीक़त आप ﷺ की फ़ितरते सलीमा थी जिसने वही लाने वाले फ़रिश्ते को पहचान लिया और आप ﷺ उस वही पर ईमान ले आये। नबी की फ़ितरत इतनी पाक और साफ़ होती है कि उसके ऊपर किसी बदरूह वगैरह का कोई असर हो ही नहीं सकता। बहरहाल हमारे लिये बड़ी तस्कीन की बात है कि अल्लाह तआला ने अपने रसूल ﷺ के ईमान के तज़किरे के साथ हमारे ईमान का तज़किरा किया। अल्लाह तआला हमे असहाबे ईमान में शामिल फरमाये। اللھم ربنا اجعلنا منھم

“यह सब ईमान लाये अल्लाह पर, उसके फ़रिश्तों पर, उसकी किताबों पर और उसके रसूलों पर।” كُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ  ۣ

सूरतुल बक़रह में यह दूसरा मक़ाम है जहाँ ईमान के अज्ज़ाअ को गिना गया है। क़ब्ल अज़ आयतुल बिर्र (आयत 177) में अज्ज़ाये ईमान की तफ़सील बयान हो चुकी है।

“(यह कहते हैं कि) हम अल्लाह के रसूलों में किसी के दरमियान कोई तफ़रीक़ नहीं करते।” لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْ رُّسُلِهٖ ۣ

यह बात तीसरी मर्तबा आ गयी है कि अल्लाह के रसूलों के दरमियान कोई तफ़रीक़ नहीं की जायेगी। सौलहवें रुकूअ में हम यह अल्फ़ाज़ पढ़ चुके हैं:      { لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ ڮ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ   ١٣٦؁} “हम उनमें किसी के दरमियान फ़र्क़ नहीं करते और हम अल्लाह ही के फ़रमाबरदार हैं।” और सबसे पहले आयत 4 में यह अल्फ़ाज़ आ चुके हैं: { وَ الَّذِيْنَ يُؤْمِنُوْنَ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْكَ وَمَآ اُنْزِلَ مِنْ قَبْلِكَ    ۚ} “वह लोग जो ईमान रखते हैं उस पर भी जो (ऐ नबी ﷺ) आप पर नाज़िल किया गया और उस पर भी जो आपसे पहले नाज़िल किया गया।” अलबत्ता रसूलों के दरमियान तफ़ज़ील साबित है और हम यह आयत (आयत:253) पढ़ चुके हैं { تِلْكَ الرُّسُلُ فَضَّلْنَا بَعْضَھُمْ عَلٰي بَعْضٍ  ۘ مِنْھُمْ مَّنْ كَلَّمَ اللّٰهُ وَرَفَعَ بَعْضَھُمْ دَرَجٰتٍ ۭ } “यह रसूल जो हैं हमने उनमें से बाज़ को बाज़ पर फ़ज़ीलत दी है। उनमें से वह भी थे जिनसे अल्लाह ने कलाम किया और बाज़ के दर्जे (किसी और ऐतबार से) बुलन्द कर दिये।”   

“और वह कहते हैं हमने कि हमने सुना और इताअत की।” وَقَالُوْا سَمِعْنَا وَاَطَعْنَا ڭ
“परवरदिगार! हम तेरी बख्शीश माँगते हैं” غُفْرَانَكَ رَبَّنَا

 غُفْرَانَکَमफ़ऊल होने की वजह से मंसूब है। यानि نَسْئَلُکَ غُفْرَانَکَ ऐ अल्लाह! हम तुझसे तेरी मग़फ़िरत तलब करते हैं, हम तेरी बख्शीश के तलबगार हैं। 

“और तेरी ही जानिब लौट जाना है।” وَاِلَيْكَ الْمَصِيْرُ  ٢٨٥؁

यहाँ पर ईमान बिलआखिरा का ज़िक्र भी आ गया जो ऊपर इन अल्फ़ाज़ में नहीं आया था: { كُلٌّ اٰمَنَ بِاللّٰهِ وَمَلٰۗىِٕكَتِهٖ وَكُتُبِهٖ وَرُسُلِهٖ  ۣ }। अब आखरी आयत आ रही है।

आयत 286

“अल्लाह तआला नहीं ज़िम्मेदार ठहरायेगा किसी जान को मगर उसकी वुसअत के मुताबिक़।” لَا يُكَلِّفُ اللّٰهُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَا  ۭ

यह आयत अल्लाह तआला के बहुत बड़े फ़ज़ल व करम का मज़हर है। मैंने आयत 186 के बारे में कहा था कि यह दुनिया में हक़ूक़े इंसानी का सबसे बड़ा मन्शूर (Magna Carta) है कि अल्लाह और बन्दे के दरमियान कोई फ़सल नहीं है: { اُجِيْبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ اِذَا دَعَانِ } “मैं तो हर पुकारने वाले की पुकार का जवाब देता हूँ जब भी (और जहाँ भी) वह मुझे पुकारे।” { فَلْيَسْتَجِيْبُوْالِيْ وَلْيُؤْمِنُوْابِيْ} “पस उन्हें भी चाहिये कि मेरा हुक्म मानें और मुझ पर ईमान रखें।” गोया दो तरफ़ा बात चलेगी, एक तरफ़ा नहीं। मेरी मानो, अपनी मनवाओ! तुम दुआएँ करोगे, हम क़बूल करेंगे! लेकिन अगर तुम हमारी बात नहीं मानते तो फिर तुम्हारी दुआ तुम्हारे मुँह पर दे मारी जायेगी, ख्वाह क़ुनूते नाज़ला चालीस दिन तो क्या अस्सी दिन तक पढ़ते रहो। यही वजह है कि तुम्हारी दुआओं के बावजूद तुम्हें सक़ूते ढाका का सानेहा देखना पड़ा, तुम्हें यहूदियों के हाथों शर्मनाक शिकस्त से दो-चार होना पड़ा। अगरचे उन मौक़ों पर हरमैन शरीफ़ में क़ुनूते नाज़ला पढ़ी जाती रही, लेकिन तुम्हारी दुआएँ क्योंकर क़ुबूल होतीं! तुम्हारा जुर्म यह है कि तुमने अल्लाह को पीठ दिखाई हुई है, उसके दीन को पाँव तले रौंदा हुआ है, अल्लाह के बागियों से दोस्ती रखी हुई है। किसी ने मास्को को अपना क़िब्ला बना रखा था तो किसी ने वाशिंगटन को। लिहाज़ा तुम्हारी दुआएँ तुम्हारे मुँह पर दे मारी गयीं।

लेकिन आयत ज़ेरे मुताअला इस ऐतबार से बहुत बड़ी रहमत का मज़हर है कि अल्लाह तआला के यहाँ अंधे की लाठी वाला मामला नहीं है कि तमाम इन्सानों से मुहासबा एक ही सतह पर हो। अल्लाह जानता है कि किसकी कितनी वुसअत है और उसी के मुताबिक़ किसी को ज़िम्मेदार ठहराता है। और यह वुसअत मौरूसी और महौलयाती अवामिल पर मुश्तमिल होती है। हर शख्स को जो genes मिलते हैं वह दूसरे से मुख्तलिफ़ होते हैं और उन genes की अपनी-अपनी ख़ुसूसियात (properties) और तहदीदात (limitations) होती हैं। इसी तरह हर शख्स को दूसरे से मुख्तलिफ़ माहौल मयस्सर आता है। तो इन मौरूसी अवामिल (hereditary factors) और महौलयाती अवामिल (environmental factors) के हासिल ज़र्ब से इंसान की शख्सियत का एक ह्यूला बनता है, जिसको मिस्तरी लोग “पाटन” कहते हैं। जब लोहे की कोई शय ढालनी मक़सूद हो तो उसके लिये पहले मिट्टी या लकड़ी का एक साँचा (pattern) बनाया जाता है। उसको हमारे यहाँ कारीगर अपनी बोली में “पाटन” कहते हैं। अब आप लोहे को पिघला कर उसमें डालेंगे तो वह उसी सूरत में ढल जायेगा। क़ुरान की इस्तलाह में यह “शाकिला” है जो हर इन्सान का बन जाता है। इरशादे बारी तआला है (बनी इसराइल): {قُلْ كُلٌّ يَّعْمَلُ عَلٰي شَاكِلَتِهٖ ۭ فَرَبُّكُمْ اَعْلَمُ بِمَنْ هُوَ اَهْدٰى سَبِيْلًا 84؀ۧ} “कह दीजिये कि हर कोई अपने शाकिला के मुताबिक़ अमल कर रहा है। पस आपका रब ही बेहतर जानता है कि कौन सीधी राह पर है।” इस शाकिला के अन्दर-अन्दर आपको मेहनत करनी है। अल्लाह तआला जानता है कि किसका शाकिला वसीअ था और किसका तंग था, किसके genes आला थे और किसके अदना थे, किसके यहाँ ज़हानत ज़्यादा थी और किसके यहाँ जिस्मानी क़ुव्वत ज़्यादा थी। उसे खूब मालूम है कि किसको कैसी सलाहियतें वदियत की गयीं और कैसा माहौल अता किया गया। चुनाँचे अल्लाह तआला हर एक के महौलयाती अवामिल और मौरूसी अवामिल को मल्हूज़ रख कर उसकी इस्तदादात के मुताबिक़ हिसाब लेगा। फ़र्ज़ कीजिये एक शख्स के अन्दर इस्तदाद ही 20 दर्जे की है और उसने 18 दर्जे काम कर दिखाया तो वह कामयाब हो गया। लेकिन अगर किसी में इस्तदाद सौ दर्जे की थी और उसने 50 दर्जे काम किया तो वह नाकाम हो गया। हालाँकि कीमत के ऐतबार से 50 दर्जे 18 दर्जे से ज़्यादा हैं। तो अल्लाह तआला का मुहासबा जो है वह इन्फ़रादी सतह पर है। इसलिये फ़रमाया गया: {وَكُلُّهُمْ اٰتِيْهِ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ فَرْدًا  95؁} (सूरह मरयम) “और सब लोग क़यामत के दिन उसके हुज़ूर फ़रदन-फ़रदन हाज़िर होंगे।” वहाँ हर एक का हिसाब अकेले-अकेले होगा और वह उसकी वुसअत के मुताबिक़ होगा।      

{ لَا يُكَلِّفُ اللّٰهُ نَفْسًا اِلَّا وُسْعَهَا  ۭ } “के अल्फ़ाज़ में जो एक अहम उसूल बयान कर दिया गया है, बाज़ लोग दुनिया की ज़िन्दगी में उसका गलत नतीजा निकाल बैठते हैं। वह दुनिया के मामलात में तो खूब भाग-दौड़ करते हैं लेकिन दीन के मामले में कह देते हैं कि हमारे अन्दर सलाहियत और इस्तदाद ही नहीं है। यह महज़ खुदफ़रेबी है। इस्तदाद व इस्तताअत और ज़हानत व सलाहियत के बगैर तो दुनिया में भी आप मेहनत नहीं कर सकते, कोई नताइज हासिल नहीं कर सकते, कुछ कमा नहीं सकते। लिहाज़ा अपने आप को यह धोखा ना दीजिये और जो कुछ कर सकते हों, वह ज़रूर कीजिये। अपनी शख्सियत को खोद-खोद कर उसमें से जो कुछ निकाल सकते हों वह निकालिये! हाँ आप निकाल सकेंगे उतना ही जितना आपके अन्दर वदियत है। ज़्यादा कहाँ से ले आयेंगे? और अल्लाह ने किसी में क्या वदियत किया है, वह वही जानता है। तुम्हारा मुहासबा उसी की बुनियाद पर होगा जो कुछ उसने तुम्हें दिया है। इस मज़मून की अहमियत का अंदाज़ा कीजिये कि यह क़ुरान मजीद में पाँच मर्तबा आया है।        

“उसी जान के लिये है जो उसने कमाया और उसी के ऊपर वबाल बनेगा जो उसने बुराई कमाई।” لَهَا مَا كَسَبَتْ وَعَلَيْهَا مَا اكْتَسَبَتْ  ۭ

इस मक़ाम पर भी “ل” और “عَلٰی” के इस्तेमाल पर गौर कीजिये। { لَهَا مَا كَسَبَتْ} से मुराद है जो भी नेकी उसने कमाई होगी वह उसके लिये है, उसके हक़ में है, उसका अज्रो सवाब उसे मिलेगा। { وَعَلَيْهَا مَا اكْتَسَبَتْ  ۭ} से मुराद है कि जो बदी उसने कमाई होगी उसका बवाल उसी पर आयेगा, उसकी सज़ा उसी को मिलेगी।

अब वह दुआ आ गई है जो क़ुरान मजीद की जामेअ तरीन और अज़ीम तरीन दुआ है:

“ऐ हमारे रब! हमसे मुआख्ज़ा ना फ़रमाना अगर हम भूल जायें या हमसे खता हो जाये।” رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذْنَآ اِنْ نَّسِيْنَآ اَوْ اَخْطَاْنَا  ۚ

ईमान और अमल सालेह के रास्ते पर चलते हुए अपनी शख्सियत के कोनों खद्दरों में से इम्कान भर अपनी बाक़ी मांदा तवानाइयों (residual energies) को भी निकाल-निकाल कर अल्लाह की राह में लगा लें, लेकिन इसके बाद भी अपनी मेहनत पर, अपनी नेकी, अपनी कमाई और अपने कारनामों पर कोई ग़र्रा ना हो, कोई गुरूर ना हो, कहीं इन्सान धोखा ना खा जाये। बल्कि उसकी कैफ़ियत तवाज़े, आजिज़ और इन्कसारी की रहनी चाहिये। और उसे यह दुआ करते रहना चाहिये कि ऐ मेरे परवरदिगार! हमारी भूल-चूक पर हमसे मुआख्ज़ा ना फ़रमाना।

इन्सान के अन्दर खता और निस्यान दोनों चीज़ें गुंधी हुई हैं:         (اَلْاِنْسَانُ مُرَکَّبٌ مِنَ الْخَطئاِ وَ النِّسْیَانِ) खता यह है कि आपने अपनी इम्कानी हद तक तो निशाना ठीक लगाया था, लेकिन निशाना खता हो गया। इस पर आपकी गिरफ़्त नहीं होगी, इसलिये कि आपकी नीयत सही थी। एक इज्तहाद करने वाला इज्तहाद कर रहा है, उसने इम्कानी हद तक कोशिश की है कि सही राय तक पहुँचे, लेकिन खता हो गयी। अल्लाह माफ़ करेगा। मुज्तहिद मुख्ती भी हो तो उसको सवाब मिलेगा और मुज्तहिद मुसीब हो, सही राय पर पहुँच जाये तो उसको दोहरा सवाब मिलेगा। और निस्यान यह है कि भूले से कोई गलती सरज़द हो जाये। रसूल अल्लाह ﷺ का इरशाद है:

اِنَّ اللہَ تَجَاوَزَ عَنْ اُمَّتِی الْخَطَئاَ وَالنِّسْیَانَ

“अल्लाह तआला ने मेरी उम्मत से खता और निस्यान माफ़ फ़रमा दिया है।”

“और ऐ रब हमारे! हम पर वैसा बोझ ना डाल जैसा तूने उन लोगों पर डाला था जो हमसे पहले थे।” رَبَّنَا وَلَا تَحْمِلْ عَلَيْنَآ اِصْرًا كَمَا حَمَلْتَهٗ عَلَي الَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِنَا  ۚ

एक हम्ल (बोझ) वह होता है जिसको लेकर इन्सान चलता है। उसी से “हिमाल” बना है जो एक बोरी को या बोझ को उठा कर चल रहा है। जो बोझ आपकी ताक़त में है और जिसे लेकर आप चल सके वह “हम्ल” है, और जिस बोझ को आप उठा ना सकें और वह आपको बिठा दे उसको “इस्र” कहते हैं। यह लफ्ज़ सूरह आराफ़ में फिर आयेगा: { وَيَضَعُ عَنْهُمْ اِصْرَهُمْ وَالْاَغْلٰلَ الَّتِيْ كَانَتْ عَلَيْهِمْ ۭ} (आयत:157) इन अल्फ़ाज़ में मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की यह शान बयान हुई है कि उन्होंने लोगों के वह बोझ जो उनकी ताक़त से बढ़ कर थे, उनके कन्धों से उतार दिये। हमसे पहले लोगों पर बड़े भारी बोझ डाले गये थे। शरीअते मूसवी हमारी शरीअत की निस्बत बहुत भारी थी। जैसे उनके यहाँ रोज़ा रात ही से शुरू हो जाता था, लेकिन हमारे लिये यह कितना आसान कर दिया गया कि रोज़े से रात को निकाल दिया गया और सहरी करने की ताकीद फ़रमायी गयी: ((تَسَحَّرُوْا فَاِنَّ فِی السُّحُوْرِ بَرَکَۃً))(38) “सहरी ज़रूर किया करो, इसलिये कि सहरियों में बरकत रखी गयी है।” फिर रात में ताल्लुक़ ज़नो-शौ की इजाज़त दी गयी। उनके रोज़े में ख़ामोशी भी शामिल थी। यानि ना खाना, ना पीना, ना ताल्लुक़ ज़नो-शौ और ना गुफ्तगू। हमारे लिये कितनी आसानी कर दी गयी है! उनके यहाँ यौमे सब्त का हुक्म इतना सख्त था कि पूरा दिन कोई काम नहीं करोगे। हमारे यहाँ जुमे की अज़ान से लेकर नमाज़ के अदा हो जाने तक हर कारोबारे दुनयवी हराम है। लेकिन उससे पहले और उसके बाद आप कारोबार कर सकते हैं।

“और ऐ रब हमारे! हम पर वह बोझ ना डाल जिसकी हम में ताक़त ना हो।” رَبَّنَا وَلَا تُحَمِّلْنَا مَا لَا طَاقَةَ لَنَا بِهٖ ۚ
“और हमसे दरगुज़र फ़रमाता रह!” وَاعْفُ عَنَّا   ۪   

हमारी लग्ज़िशों को माफ़ करता रह!        

“और हमें बख्शता रह! وَاغْفِرْ لَنَا   ۪

हमारी खताओं की पर्दापोशी फ़रमा दे!

मग़फ़िरत की लफ्ज़ को समझ लीजिये। इसमें ढाँप लेने का मफ़हूम है। مِغْفَرْ ‘खूद’ (हेलमेट) को कहते हैं, जो जंग में सर पर पहना जाता है। यह सर को छुपा लेता है और उसे गोली या तलवार के वार से बचाता है। तो मग़फ़िरत यह है कि गुनाहों को अल्लाह तआला अपनी रहमत से ढाँप दे, उनकी पर्दापोशी फ़रमा दे।

“और हम पर रहम फ़रमा।” وَارْحَمْنَا ۪
“तू हमारा मौला है।” اَنْتَ مَوْلٰىنَا

तू हमारा पुश्तपनाह है, हमारा वली है, हमारा हामी व मददगार है। हम यह आयत पढ़ आये हैं: { اَللّٰهُ وَلِيُّ الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا  ۙيُخْرِجُهُمْ مِّنَ الظُّلُمٰتِ اِلَى النُّوْرِ ڛ } (आयत:257)।

“पस हमारी मदद फ़रमा काफ़िरों के मुक़ाबले में।” فَانْــصُرْنَا عَلَي الْقَوْمِ الْكٰفِرِيْنَ   ٢٨٦؀ۧ

इन्हीं अल्फ़ाज़ पर वह दुआ ख़त्म हुई थी जो तालूत के साथियों ने की थी। अब अहले ईमान को यह दुआ तलक़ीन की जा रही है, इसलिये कि मरहला सख्त आ रहा है। गोया:

ताब लाते ही बनेगी ग़ालिब

मरहला सख्त है और जान अजीज़!

अब कुफ्फ़ार के साथ मुक़ाबले का मरहला आ रहा है और उसके लिये मुस्लमानों को तैयार किया जा रहा है। यह दर हक़ीक़त गज़वा-ए-बद्र की तमहीद है।

بارک اللہ لی و لکم فی القرآن العظیم و نفعنی و ایا کم بالآیات والذکر الحکیم

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