Surah Ale-Imraan- सूरह आले इमरान Ayat 1 – 80
सूरह आले इमरान
तम्हीदी कलिमात
क़ुरान हकीम के आगाज़ में वाक़ेअ मक्की और मदनी सूरतों के पहले ग्रुप में मदनी सूरतों के जो दो जोड़े आये हैं, उनमें से पहले जोड़े की पहली सूरत “सूरतुल बक़रह” के तर्जुमे और मुख़्तसर तशरीह की हम तकमील कर चुके हैं, और अब हमें इस जोड़े की दूसरी सूरत “आले इमरान” का मुताअला करना है। यह बात पहले बयान हो चुकी है कि दो चीज़ों के माबैन जोड़ा होने की निस्बत यह है कि उन दोनों चीज़ों में गहरी मुशाब्हत भी हो लेकिन कुछ फ़र्क़ भी हो, और यह फ़र्क़ ऐसा हो जो एक-दूसरे के लिये तक्मीली (complementary) नौइयत का हो, यानि एक-दूसरे से मिल कर किसी मक़सद की तकमील होती हो। यह निस्बते ज़ौजियत की हक़ीक़त है।
सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान में मुशाब्हत के नुमाया पहलु यह हैं की दोनों हुरूफे मुक़त्तआत “الم” से शुरू होती हैं। दोनों के आगाज़ में क़ुरान मजीद की अज़मत का बयान है, अगरचे सूरह आले इमरान में इसके साथ ही तौरात और इन्जील का बयान भी है। फिर यह कि दोनों के इख्तताम पर बड़ी अज़ीम आयात आयी हैं। सूरतुल बक़रह के इख्तताम पर वारिद आयात हम पढ़ चुके हैं। उसकी आखरी आयत को क़ुरान हकीम की अज़ीम तरीन दुआओं में से शुमार किया जा सकता है: {…..رَبَّنَا لَا تُؤَاخِذْنَآ اِنْ نَّسِيْنَآ اَوْ اَخْطَاْنَا } सूरह आले इमरान के आखरी रुकूअ में भी एक निहायत जामेअ दुआ आयी है जो तीन-चार आयतों में फैली हुई है। फिर जैसे मैंने आपको बताया, सूरतुल बक़रह भी सूरतुल उम्मातैन है, दो उम्मतों से ख़िताब और गुफ्तगू कर रही है, और यही मामला सूरह आले इमरान का भी है। फ़र्क़ यह है कि सूरतुल बक़रह में ज़्यादा गुफ्तगू यहूद के बारे में है और सूरह आले इमरान में नसारा के बारे में। तो गोया इस तरह अहले किताब से गुफ्तगू की तकमील हो रही है। अहले किताब में से “यहूद” अहमतर तबक़ा था और दीनी ऐतबार से उनकी अहमियत ज़्यादा थी, ख्वाह तादाद में वह कम थे और कम हैं। दूसरा तबक़ा ईसाईयों का है, जिनका तज़किरा सूरतुल बक़रह में बहुत कम आया है, लेकिन सूरह आले इमरान में ज़्यादा ख़िताब उनसे है। फिर जैसे सूरतुल बक़रह के दो तक़रीबन मसावी हिस्से हैं, पहला निस्फ़ 18 रुकूओं और 152 आयात पर मुश्तमिल है और निस्फ़े सानी 22 रुकूओं लेकिन 134 आयात पर मुश्तमिल है, वही कैफ़ियत सूरह आले इमरान में ब-तमामो-कमाल मिलती है। सूरह आले इमरान के भी दो हिस्से हैं, जो बहुत मसावी हैं। इसके कुल 20 रुकूअ हैं, 10 रुकूअ निस्फ़े अव्वल में हैं और 10 रुकूअ ही निस्फ़े सानी में। पहले 10 रुकूओं में 101 आयात और दूसरे 10 रुकूओं में 99 आयात हैं। यानि सिर्फ़ एक आयत का फ़र्क़ है। फिर जैसे सूरतुल बक़रह में निस्फ़े अव्वल के तीन हिस्से हैं वैसे ही यहाँ भी निस्फ़े अव्वल के तीन हिस्से हैं, लेकिन यहाँ तक़सीम रुकूओं के ऐतबार से नहीं बल्कि आयात के ऐतबार से है। इस सूरह मुबारका की इब्तदाई 32 आयात इसी तरह तम्हीदी कलाम पर मुश्तमिल हैं जैसे सूरतुल बक़रह के इब्तदाई चार रुकूअ हैं। सूरतुल बक़रह में रुए सुखन इब्तदा ही से यहूद की तरफ़ हो गया है, जबकि यहाँ रुए सुखन इब्तदा ही से नसारा की तरफ़ है।
इब्तदाई 32 आयात के बाद 31 आयात में ख़ास तौर पर नसारा से बराहे रास्त ख़िताब है। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की विलादत किन हालात में हुई, उनका मक़ाम और मरतबा क्या था, उनकी असल हैसियत क्या थी, और फिर यह कि उनके साथ क्या मामला हुआ, इस हिस्से में यह मज़ामीन शामिल हैं। इस सूरह मुबारका का अक्सरो बेशतर हिस्सा 3 हिजरी में ग़ज़वा-ए-ओहद के बाद नाज़िल हुआ है, लेकिन 31 आयात पर मुश्तमिल यह हिस्सा 9 हिजरी में नाज़िल हुआ। “नजरान” अरब के जुनूब में यमन की जानिब एक बस्ती थी और वहाँ ईसाई आबाद थे। वहाँ के ईसाईयों के सरदार और पादरी कोई सत्तर आदमियों का एक वफद लेकर रसूल अल्लाह ﷺ की ख़िदमत में यह बात समझने-समझाने के लिये कि आप ﷺ किस बात की दावत दे रहे हैं, मदीना मुनव्वरा हाज़िर हुए और वह लोग कई दिन वहाँ मुक़ीम रहे। उन्होंने बात पूरी तरह समझ भी ली और ख़ामोश भी हो गये, लेकिन फिर भी बात नहीं मानी तो आँहुज़ूर ﷺ ने उन्हें मुबाहिले की दावत दी, लेकिन वह इस चैलेंज को क़ुबूल किये बगैर वहाँ से चले गये। उन्होंने रसूल अल्लाह ﷺ की दावत की शिद्दत के साथ तरदीद (इन्कार) नहीं की और उसे क़ुबूल भी नहीं किया। सूरह आले इमरान की यह 31 आयात नजरान के ईसाईयों से ख़िताब के तौर पर नाज़िल हुईं। सूरतुल बक़रह के बारे में एक बात बयान होने से रह गयी थी कि उसके रुकूअ 38 की आयात जिनमें सूद से मुताल्लिक़ आखरी अहकाम हैं, यह भी तक़रीबन 9 हिजरी में नाज़िल हुई हैं। गोया मुशाबहत का यह पहलु भी दोनों सूरतों में मौजूद है। सूरतुल बक़रह का अक्सरो बेशतर हिस्सा अगरचे गज़वा-ए-बद्र से क़ब्ल नाज़िल हुआ, लेकिन उसकी कुछ आयात 9 हिजरी में नाज़िल हुईं। इसी तरह सूरह आले इमरान का अक्सरो बेशतर हिस्सा अगरचे गज़वा-ए-ओहद के बाद 3 हिजरी में नाज़िल हुआ, लेकिन नजरान के ईसाईयों से ख़िताब के ज़िमन में आयात 9 हिजरी में नाज़िल हुईं। फिर जैसे सूरतुल बक़रह के निस्फ़े अव्वल के आखरी हिस्से (रुकूअ 15, 16, 17, 18) में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और खाना काबा का ज़िक्र था इस तरह से यह बात आपको यहाँ भी मिलेगी। यहाँ भी अहले किताब को उसी अंदाज़ में दावत दी गयी है जैसे सूरतुल बक़रह के सौलहवें रुकूअ में दी गयी है। सूरह आले इमरान के निस्फ़े अव्वल का यह तीसरा हिस्सा 38 आयात पर मुश्तमिल है, जो बहुत अहम और जामेअ आयात हैं।
सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान दोनों के निस्फ़े सानी का आगाज़ “يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا” के अल्फ़ाज़ से होता है। जैसे सूरतुल बक़रह के उन्नीसवें रुकूअ से निस्फ़े सानी का आगाज़ होता है:
يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اسْتَعِيْنُوْا بِالصَّبْرِ وَالصَّلٰوةِ ۭاِنَّ اللّٰهَ مَعَ الصّٰبِرِيْنَ ٥٣
इस तरह सूरह आले इमरान के ग्याहरवें रुकूअ से इसके निस्फ़े सानी का आगाज़ होता है:
يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ حَقَّ تُقٰتِھٖ وَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ ١٠٢
सूरह आले इमरान का निस्फ़े सानी दस रुकूओं पर मुश्तमिल है और इनकी तक़सीम उमूदी है, उफ़ुक़ी नहीं है। पहले दो रुकूओं में ख़िताब ज़्यादातर मुस्लमानों से है, फिर अगरचे रुए सुखन अहले किताब की तरफ़ भी है। इसके बाद मुसलसल छ: रुकूअ गज़वा-ए-ओहद के हालात पर मुश्तमिल हैं। यानि इस ज़िमन में जो मसाइल सामने आये उन पर तबसिरा, मुस्लमानों से जो गलतियाँ हुईं उन पर गिरफ्त और आइन्दा के लिये हिदायात। यह तक़रीबन 60 आयात हैं जो छ: रुकूओं पर फैली हुई हैं। यह गोया “गज़वा-ए-ओहद” के उन्वान से क़ुरान मजीद का एक मुस्तक़िल बाब (chapter) है। लेकिन क़ुरान में इस तरह से अबवाब नहीं बनाये गये हैं, बल्कि इसकी सूरतें हैं। जैसा कि इब्तदा में “तआरुफ़े क़ुरान” के ज़िमन में अर्ज़ किया जा चुका है, क़ुरान खुत्बाते इलाहिया का मजमुआ है। एक ख़ुत्बा नाज़िल हो रहा है और इसके अन्दर मुख्तलिफ़ मज़ामीन बयान हो रहे हैं, लेकिन इनमें एक रब्त और तरतीब है। अब तक इस रब्त और तरतीब पर तवज्जो कम हुई है, लेकिन इस दौर में क़ुरान हकीम के इल्म व मारफ़त का यह पहलु ज़्यादा नुमाया हुआ है कि इसमें बड़ा नज़्म है, इसके अन्दर तंज़ीम है, इसमें आयात का आपस में रब्त है, सूरतों का सूरतों से रब्त है। यह ऐसे ही बेरब्त और अलल टप कलाम नहीं है।
इस सूरह मुबारका के आख़री दो रुकूअ बहुत अहम हैं। उनमें से भी आखरी रुकूअ तो बहुत ही जामेअ है। इसमें वह अज़ीम दुआ भी आयी है जिसका ज़िक्र मैंने अभी किया, और फ़लसफ़ा-ए-ईमान के बारे में अहम तरीन बहस भी उस मक़ाम पर आयी है। और उससे पहले का रुकूअ यानि उन्नीसवा रुकूअ भी बड़े जामेअ मज़ामीन पर मुश्तमिल है और उसमें दर हक़ीक़त पूरी सूरह मुबारका के मज़ामीन को sum-up किया गया है।
इन दोनों सूरतों के माबैन निस्बते ज़ौजियत के हवाले से आप देखेंगे कि बाज़ मक़ामात पर तो अल्फ़ाज़ भी वही आ रहे हैं, वही अंदाज़ है। जैसे सूरतुल बक़रह की आयत 136 में फ़रमाया गया: “(ऐ मुस्लमानों!) तुम कहो हम ईमान रखते हैं अल्लाह पर और जो कुछ हम पर नाज़िल किया गया और जो कुछ इब्राहीम अलैहिस्सलाम और इस्माइल अलैहिस्सलाम और इसहाक़ अलैहिस्सलाम और याक़ूब अलैहिस्सलाम और औलादे याक़ूब पर नाज़िल किया गया…..।” बिल्कुल यही मज़मून सूरह आले इमरान की आयत 84 में आया है। हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का ज़िक्र भी दोनों सूरतों में मिलता है। यहूद के बारे में {….وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ وَالْمَسْكَنَةُ } वाली आयत सूरह आले इमरान में भी है, ज़रा तरतीब का फ़र्क़ है। [क़ुरान मजीद में ऐसे मक़ामात “मुतशाबाह” कहलाते हैं और यह हुफ्फ़ाज़ के लिये मुश्किल तरीन मक़ाम होते हैं कि तेज़ी और रवानी में वह इससे मुशाबेह दूसरे मक़ाम पर मुन्तक़िल हो जाते हैं।] इन दोनों सूरतों के मज़ामीन के अन्दर आपको इतनी गहरी मुनास्बत नज़र आयेगी जिसको मैंने ज़ौजियत से तशबीह दी है। ज़ाहिर बात है कि हर हैवान का जोड़ा जो होता है वह तक़रीबन नब्बे फ़ीसद तो एक-दूसरे से मुशाबेह होता है लेकिन उसमें कोई दस फ़ीसद का फ़र्क़ भी होता है, और वह फ़र्क़ भी ऐसा होता है कि दोनों के जमा होने से किसी मक़सद की तकमील हो रही होती है। जैसा कि आपको मालूम है, मर्द और औरत एक-दूसरे से मुशाबेह हैं, लेकिन जिन्स के ऐतबार से मर्द और औरत के जिस्म में फ़र्क़ है। अलबत्ता दोनों के मिलाप से मक़सदे तनासुल यानि पैदाइशे औलाद और अफ़ज़ाइशे नस्ल (नस्ल में वृधि) हासिल हो रहा है, जो एक तरफ़ा तौर पर हासिल नहीं हो सकता। यह निस्बते ज़ौजियत क़ुरान मजीद की सूरतों में अक्सरो बेशतर ब-तमाम-ओ-कमाल मौजूद है। अलबत्ता इस ज़िमन में गहरे तदब्बुर की ज़रूरत है। क़ुरान में गौरो फ़िक्र किया जाये, सोच-विचार किया जाये तो फिर इस नज़म क़ुरान के हवाले से इज़ाफ़ी मायने, इज़ाफ़ी इल्म, इज़ाफ़ी मार्फ़त और इज़ाफ़ी हिकमत के खज़ाने खुलते हैं। मैं सूरतुल बक़रह की तम्हीद में यह बता चुका हूँ कि नबी अकरम ﷺ ने इन दोनों सूरतों को “अज़्ज़ाहरावैन” का नाम दिया है, यानि दो निहायत ताबनाक और रोशन सूरतें। जैसे क़ुरान मजीद की आखरी दो सूरतों सूरतुल फ़लक़ और सूरतुन्नास को “अल मुअव्वज़ातैन” का नाम दिया गया है इसी तरह क़ुरान हकीम के आगाज़ में वारिद इन दोनों सूरतों को “अज़्ज़ाहरावैन” का नाम दिया गया है।
اَعُوْذُ بِاللّٰھِ مِنَ الشَّیْطٰنِ الرَّجِیْمِ
بِسْمِ اللّٰهِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِيْمِ
आयात 1 से 9 तक
الۗـۗمَّ Ǻۙ اللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۙ الْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ Ąۭ نَزَّلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ وَاَنْزَلَ التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ Ǽۙ مِنْ قَبْلُ ھُدًى لِّلنَّاسِ وَاَنْزَلَ الْفُرْقَانَ ڛ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ لَھُمْ عَذَابٌ شَدِيْدٌ ۭ وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ Ć اِنَّ اللّٰهَ لَا يَخْفٰى عَلَيْهِ شَيْءٌ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ Ĉۭ ھُوَ الَّذِيْ يُصَوِّرُكُمْ فِي الْاَرْحَامِ كَيْفَ يَشَاۗءُ ۭ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ Č ھُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ مِنْهُ اٰيٰتٌ مُّحْكَمٰتٌ ھُنَّ اُمُّ الْكِتٰبِ وَاُخَرُ مُتَشٰبِهٰتٌ ۭ فَاَمَّا الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ زَيْغٌ فَيَتَّبِعُوْنَ مَا تَشَابَهَ مِنْهُ ابْتِغَاۗءَ الْفِتْنَةِ وَابْتِغَاۗءَ تَاْوِيْلِهٖ څ وَمَا يَعْلَمُ تَاْوِيْلَهٗٓ اِلَّا اللّٰهُ ڤ وَالرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ يَقُوْلُوْنَ اٰمَنَّا بِهٖ ۙ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ رَبِّنَا ۚ وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ Ċ رَبَّنَا لَا تُزِغْ قُلُوْبَنَا بَعْدَ اِذْ ھَدَيْتَنَا وَھَبْ لَنَا مِنْ لَّدُنْكَ رَحْمَةً ۚ اِنَّكَ اَنْتَ الْوَھَّابُ Ď رَبَّنَآ اِنَّكَ جَامِعُ النَّاسِ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ Ḍۧ
आयत 1
“अलिफ़। लाम। मीम।” | الۗـۗمَّ Ǻۙ |
यह हुरूफ़े मुक़त्तआत हैं जिनके बारे में इज्माली गुफ्तगू हम सूरतुल बक़रह के आगाज़ में कर चुके हैं।
आयत 2
“अल्लाह वह मअबूदे बरहक़ है जिसके सिवा कोई इलाह नहीं, वह ज़िन्दा है, सबका क़ायम रखने वाला है।” | اللّٰهُ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۙ الْـحَيُّ الْقَيُّوْمُ Ąۭ |
यह अल्फ़ाज़ सूरतुल बक़रह में आयतुल कुरसी के आगाज़ में आ चुके हैं। एक हदीस में आता है कि अल्लाह तआला का एक इस्मे आज़म है, जिसके हवाले से अगर अल्लाह से कोई दुआ माँगी जाये तो वह ज़रूर क़ुबूल होती है। यह तीन सूरतों अल बक़रह, आले इमरान और ताहा में है।(1)
आँहुज़ूर ﷺ ने तअय्युन के साथ नहीं बताया कि वह इस्मे आज़म कौन सा है, अलबत्ता कुछ इशारे किये हैं। जैसे रमज़ानुल मुबारक की एक शब “लय्लतुल क़द्र” जो हज़ार महीनों से अफ़ज़ल है, उसके बारे में तअय्युन के साथ नहीं बताया कि वह कौनसी है, बल्कि फ़रमाया:
فَالْتَمِسُوْھَا فِی الْعَشْرِ الْاَوَاخِرِ فِی الْوِتْرِ
“उसे आखरी अशरे की ताक़ रातों में तलाश करो।”(2)
ताकि ज़्यादा ज़ोक़ व शौक़ का मामला हो। इसी तरह इस्मे आज़म के बारे में आप ﷺ ने इशारात फ़रमाये हैं। आप ﷺ ने फ़रमाया कि यह तीन सूरतों सूरतुल बक़रह, सूरह आले इमरान और सूरह ताहा में है। इन तीन सूरतों में जो अल्फ़ाज़ मुश्तरक (common) हैं वह “अल हय्युल क़य्यूम” हैं। सूरतुल बक़रह में यह अल्फ़ाज़ आयतुल कुरसी में आये हैं, सूरह आले इमरान में यहाँ दूसरी आयत में और सूरह ताहा की आयत 111 में मौजूद हैं।
आयत 3
“उसने नाज़िल फ़रमायी है आप पर (ऐ नबी ﷺ) यह किताब हक़ के साथ” | نَزَّلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ بِالْحَقِّ |
उस अल्लाह ने जिसके सिवा कोई मअबूद नहीं, जो अलहय्य है, अल क़य्यूम है। इसमें इस कलाम की अज़मत की तरफ़ इशारा हो रहा है कि जान लो यह कलाम किसका है, किसने उतारा है। और यहाँ नोट कीजिये, लफ्ज़ नज्ज़ला आया है, अन्ज़ला नहीं आया।
“यह तसदीक़ करते हुए आयी है उसकी जो इसके सामने मौजूद है” | مُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيْهِ |
यानि तौरात और इन्जील की जो इससे पहले नाज़िल हो चुकी हैं। क़ुरान हकीम साबक़ा कुतबे समाविया की दो ऐतबार से तसदीक़ करता है। एक यह कि वह अल्लाह की किताबें थीं जिनमे तहरीफ़ हो गयी। दूसरे यह कि क़ुरान और मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ उन पेशनगोइयों का मिस्दाक़ बन कर आये हैं जो उन किताबों में मौजूद थीं।
“और उसने तौरात और इन्जील नाज़िल फ़रमायी थीं।” | وَاَنْزَلَ التَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ Ǽۙ |
आयत 4
“इससे पहले लोगों की हिदायत के लिये” | مِنْ قَبْلُ ھُدًى لِّلنَّاسِ |
“और अल्लाह ने फ़ुरक़ान उतारा।” | وَاَنْزَلَ الْفُرْقَانَ ڛ |
“फुरक़ान” का मिस्दाक़ क़ुरान मजीद भी है, तौरात भी है और मौज्ज़ात भी हैं। सूरतुल अन्फ़ाल में “यौमुल फ़ुरक़ान” गज़वा-ए-बद्र के दिन को कहा गया है। हर वह शय जो हक़ को बिल्कुल मुबरहन कर दे और हक़ व बातिल के माबैन इम्तियाज़ पैदा कर दे वह फ़ुरक़ान है।
“बेशक जिन लोगों ने अल्लाह की आयात का इन्कार किया उनके लिये सख्त अज़ाब है।” | اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بِاٰيٰتِ اللّٰهِ لَھُمْ عَذَابٌ شَدِيْدٌ ۭ |
यहाँ अब तहदीद और धमकी का अंदाज़ है कि इस क़ुरान का मामला दुनिया की दूसरी किताबों की तरह ना समझो कि मान लिया तब भी कोई हर्ज नहीं, ना माना तब भी कोई हर्ज नहीं। अगर पढ़ने पर तबीयत रागिब हुई तो भी कोई बात नहीं, तबियत रागिब नहीं है तो मत पढ़ो, कोई इल्ज़ाम नहीं। यह किताब वैसी नहीं है, बल्कि यह वह किताब है कि जो इस पर ईमान नहीं लायेंगे तो उनके लिये बहुत सख्त सज़ा होगी।
“और अल्लाह तआला ज़बरदस्त है, इन्तेक़ाम लेने वाला है।” | وَاللّٰهُ عَزِيْزٌ ذُو انْتِقَامٍ Ć |
यह लफ्ज़ इस ऐतबार से बहुत अहम है कि अल्लाह तआला बेशक रऊफ़ है, रहीम है, शफ़ीक़ है, गफ़ूर है, सत्तार है, लेकिन साथ ही “عزیز ذوانتقام” भी है, “شدیدُ العقاب” भी है। अल्लाह तआला की यह दोनों शानें क़ल्ब व ज़हन में रहनी चाहिये।
आयत 5
“यक़ीनन अल्लाह पर कोई शय भी मख्फ़ी नहीं है, ना आसमान में ना ज़मीन में।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يَخْفٰى عَلَيْهِ شَيْءٌ فِي الْاَرْضِ وَلَا فِي السَّمَاۗءِ Ĉۭ |
आयत 6
“वही है जो तुम्हारी सूरतगरी करता है (तुम्हारी माँओ के) रहमों में जिस तरह चाहता है।” | ھُوَ الَّذِيْ يُصَوِّرُكُمْ فِي الْاَرْحَامِ كَيْفَ يَشَاۗءُ ۭ |
पहली चीज़ अल्लाह के इल्म से मुताल्लिक़ थी और यह अल्लाह की क़ुदरत से मुताल्लिक़ है। वही है जो तुम्हारी नक़्शाकशी कर देता है, सूरत बना देता है तुम्हारी माँओ के रहमों में जैसे चाहता है। किसी के पास कोई इख़्तियार (choice) नहीं है कि वह अपना नक़्शा खुद बनाये।
“उसके सिवा कोई मअबूद नहीं, वह ग़ालिब और हकीम है।” | لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ Č |
आयत 7
“वही है जिसने आप ﷺ पर यह किताब नाज़िल फ़रमायी” | ھُوَ الَّذِيْٓ اَنْزَلَ عَلَيْكَ الْكِتٰبَ |
किसी-किसी जगह नज्ज़ला के बजाय अन्ज़ला का लफ्ज़ भी आ जाता है, और यह आहंग (rhythm) के ऐतबार से होता है, क्योंकि क़ुरान मजीद का अपना एक मलाकूती गिना (Divine Music) है, इसमें अगर आहंग के हवाले से ज़रुरत हो तो यह अल्फ़ाज़ एक-दूसरे की जगह आ जाते हैं।
“इसमें मोहकम आयात हैं और वही असल किताब हैं” | مِنْهُ اٰيٰتٌ مُّحْكَمٰتٌ ھُنَّ اُمُّ الْكِتٰبِ |
“मोहकम” और पुख्ता आयात वह हैं जिनका मफ़हूम बिल्कुल वाज़ेह हो और जिन्हें इधर से उधर करने की कोई गुंजाइश ना हो। इस किताब की जड़, बुनियाद और असास वही हैं।
“और कुछ दूसरी आयतें ऐसी हैं जो मुतशाबेह हैं।” | وَاُخَرُ مُتَشٰبِهٰتٌ ۭ |
जिनका हक़ीक़ी और सही-सही मफ़हूम मुअय्यन करना बहुत मुश्किल बल्कि आम हालात में नामुमकिन है। इसकी तफ़सील तआरुफ़े क़ुरान के ज़िमन में अर्ज़ की जा चुकी है। आयतुल अहकाम जितनी भी हैं वह सब मोहकम हैं, कि यह करो यह ना करो, यह हलाल है यह हराम! जैसा कि हमने सूरतुल बक़रह में देखा कि बार-बार “کُتِبَ عَلَیْکُمْ” के अल्फ़ाज़ आते रहे। मैं अर्ज़ कर चुका हूँ कि किताब दरहक़ीक़त है ही मजमुआ-ए-अहकाम। लेकिन जिन आयात में अल्लाह तआला की ज़ात व सिफ़ात की बहस है उनका फ़हम आसान नहीं है। अल्लाह की ज़ात व सिफ़ात का हम क्या तसव्वुर कर सकते हैं? अल्लाह का हाथ, अल्लाह का चेहरा, अल्लाह की कुरसी, अल्लाह का अर्श, इनका हम क्या तसव्वुर करेंगे? इसी तरह फ़रिश्ते आलमे गैब की शय हैं। आलमे बरज़ख की क्या कैफ़ियत है? क़ब्र में क्या होता है? हम नही समझ सकते। आलमे आख़िरत, जन्नत और दोज़ख़ की असल हक़ीक़तें हम नही समझ सकते। चुनाँचे हमारी ज़हनी सतह के क़रीब लाकर कुछ बातें हमें बता दी गयी हैं कि مَا لَا یُدْرَکُ کُلُّہٗ لَا یُتْرَکُ کُلُّہٗ। चुनाँचे इनका एक इज्माली तसव्वुर क़ायम हो जाना चाहिये, इसके बगैर आदमी का रास्ता सीधा नहीं रहेगा। लेकिन इनकी तफ़ासील में नहीं जाना चाहिये। दूसरे दर्जे में मैंने आपको बताया था कि कुछ तबीअयाती मज़ाहिर (Physical Phenomena) भी एक वक़्त तक आयाते मुतशाबेहात में से रहे हैं, लेकिन जैसे-जैसे साइंस का इल्म बढ़ता चला जा रहा है, रफ्ता-रफ्ता इनकी हक़ीक़त से पर्दा उठता चला जा रहा है और अब बहुत सी चीज़ें मोहकम होकर हमारे सामने आ रही हैं। ताहम अब भी बाज़ चीज़ें ऐसी हैं जिनकी हक़ीक़त से हम बेखबर हैं। जैसे हम अभी तक नहीं जानते कि सात आसमान से मुराद क्या है? हमारा यक़ीन है कि इन्शा अल्लाह वह वक़्त आयेगा कि इन्सान समझ लेगा कि हाँ यही बात सही थी और यही ताबीर सही थी जो क़ुरान ने बयान की थी।
“तो वह लोग जिनके दिलों में कजी होती है वह पीछे लगते हैं उन आयात के जो उनमें से मुतशाबेह हैं” | فَاَمَّا الَّذِيْنَ فِيْ قُلُوْبِهِمْ زَيْغٌ فَيَتَّبِعُوْنَ مَا تَشَابَهَ مِنْهُ |
“फ़ितने की तलाश में” | ابْتِغَاۗءَ الْفِتْنَةِ |
वह चाहते हैं कि कोई ख़ास नयी बात निकाली जाये ताकि अपनी ज़हानत और फ़तानत का डंका बजाया जा सके या कोई फ़ितना उठाया जाये, कोई फ़साद पैदा किया जाये। जिनका अपना ज़हन टेढ़ा हो चुका है वह उस टेढ़े ज़हन के लिये क़ुरान से कोई दलील चाहते हैं। चुनाँचे अब वह मुतशाबेहात के पीछे पड़ते हैं कि इनमें से किसी के मफ़हूम को अपने मनपसंद मफ़हूम की तरफ मोड़ सकें। यह उससे फ़ितना उठाना चाहते हैं।
“और उनकी हक़ीक़त व माहियत मालूम करने के लिये।” | وَابْتِغَاۗءَ تَاْوِيْلِهٖ څ |
वह तलाश करते हैं कि इन आयात की असल हक़ीक़त, असल मंशा और असल मुराद क्या है। यानि यह भी हो सकता है कि किसी का इल्मी ज़ोक़ ही ऐसा हो और यह भी हो सकता है कि एक शख्स की फ़ितरत में कजी हो।
“हालाँकि उनका हक़ीक़ी मफ़हूम अल्लाह अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता।” | وَمَا يَعْلَمُ تَاْوِيْلَهٗٓ اِلَّا اللّٰهُ ڤ |
“और जो लोग इल्म में रासिख हैं वह यूँ कहते हैं कि हम ईमान लाये इस किताब पर, यह कुल का कुल हमारे रब की तरफ़ से है।” | وَالرّٰسِخُوْنَ فِي الْعِلْمِ يَقُوْلُوْنَ اٰمَنَّا بِهٖ ۙ كُلٌّ مِّنْ عِنْدِ رَبِّنَا ۚ |
जिन लोगों को रुसूख फ़िल इल्म हासिल हो गया है, जिनकी जड़ें इल्म में गहरी हो चुकी हैं उनका तर्ज़े अमल यह होता है कि जो बात साफ़ समझ में आ गयी है उस पर अमल करेंगे और जो बात पूरी तरह समझ में नहीं आ रही है उसके लिये इन्तेज़ार करेंगे, लेकिन यह इज्माली यक़ीन रखेंगे कि यह अल्लाह की किताब है।
“और यह नसीहत हासिल नहीं कर सकते मगर वही जो होशमन्द हैं।” | وَمَا يَذَّكَّرُ اِلَّآ اُولُوا الْاَلْبَابِ Ċ |
और सबसे बड़ी होशमन्दी यह है कि इन्सान अपनी अक़्ल की हुदूद (limitations) को जान ले कि मेरी अक़्ल कहाँ तक जा सकती है। अगर इन्सान यह नही जानता तो फिर वह ऊलुल अलबाब में से नहीं है। बिलाशुबा अक़्ल बड़ी शय है लेकिन उसकी अपनी हुदूद हैं। एक हद से आगे अक़्ल तजावुज़ नहीं कर सकती:
गुज़र जा अक़्ल से आगे कि यह नूर
चिरागे राह है मंज़िल नहीं है!
यानि मंज़िल तक पहुँचाने वाली शय अक़्ल नहीं, बल्कि क़ल्ब है। लेकिन अक़्ल बहरहाल एक रोशनी देती है, हक़ीक़त की तरफ़ इशारे करती है।
आयत 8
“(और उन ऊलुल अलबाब का यह क़ौल होता है) ऐ रब हमारे! हमारे दिलों को कज ना होने दीजियो इसके बाद कि तूने हमें हिदायत दे दी है” | رَبَّنَا لَا تُزِغْ قُلُوْبَنَا بَعْدَ اِذْ ھَدَيْتَنَا |
“और हमें तू ख़ास अपने खज़ाना-ए-फ़ज़ल से रहमत अता फरमा।” | وَھَبْ لَنَا مِنْ لَّدُنْكَ رَحْمَةً ۚ |
“यक़ीनन तू ही सब कुछ देने वाला है।” | اِنَّكَ اَنْتَ الْوَھَّابُ Ď |
हमें जो भी मिलेगा तेरी ही बारगाह से मिलेगा। तू ही फ़याज़े हक़ीक़ी है।
आयत 9
“ऐ रब हमारे! यक़ीनन तू जमा करने वाला है लोगों को एक ऐसे दिन के लिये जिस (के आने) में कोई शक नहीं है।” | رَبَّنَآ اِنَّكَ جَامِعُ النَّاسِ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِ ۭ |
“यक़ीनन अल्लाह तआला उस वादे के खिलाफ़ नहीं करेगा।” | اِنَّ اللّٰهَ لَا يُخْلِفُ الْمِيْعَادَ Ḍۧ |
अल्लाह तआला अपने वादे की खिलाफ़वर्ज़ी नहीं करता। लिहाज़ा जो उसने बताया है वह होकर रहेगा और क़यामत का दिन आकर रहेगा।
आयात 10 से 20 तक
اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِىَ عَنْھُمْ اَمْوَالُھُمْ وَلَآ اَوْلَادُھُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَـيْـــــًٔـا وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمْ وَقُوْدُ النَّارِ 10ۙ كَدَاْبِ اٰلِ فِرْعَوْنَ ۙ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۭكَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۚ فَاَخَذَھُمُ اللّٰهُ بِذُنُوْبِهِمْ وَاللّٰهُ شَدِيْدُ الْعِقَابِ 11 قُلْ لِّـلَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَـتُغْلَبُوْنَ وَتُحْشَرُوْنَ اِلٰى جَهَنَّمَ ۭ وَبِئْسَ الْمِهَادُ 12 قَدْ كَانَ لَكُمْ اٰيَةٌ فِيْ فِئَتَيْنِ الْتَقَتَا ۭ فِئَةٌ تُقَاتِلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَاُخْرٰى كَافِرَةٌ يَّرَوْنَھُمْ مِّثْلَيْهِمْ رَاْيَ الْعَيْنِ ۭ وَاللّٰهُ يُؤَيِّدُ بِنَصْرِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَعِبْرَةً لِّاُولِي الْاَبْصَارِ 13 زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ الشَّهَوٰتِ مِنَ النِّسَاۗءِ وَالْبَنِيْنَ وَالْقَنَاطِيْرِ الْمُقَنْطَرَةِ مِنَ الذَّھَبِ وَالْفِضَّةِ وَالْخَيْلِ الْمُسَوَّمَةِ وَالْاَنْعَامِ وَالْحَرْثِ ۭ ذٰلِكَ مَتَاعُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ وَاللّٰهُ عِنْدَهٗ حُسْنُ الْمَاٰبِ 14 قُلْ اَؤُنَبِّئُكُمْ بِخَيْرٍ مِّنْ ذٰلِكُمْ ۭ لِلَّذِيْنَ اتَّقَوْا عِنْدَ رَبِّهِمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا وَاَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ وَّرِضْوَانٌ مِّنَ اللّٰهِ ۭ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ 15ۚ اَلَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اِنَّنَآ اٰمَنَّا فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ 16ۚ اَلصّٰبِرِيْنَ وَالصّٰدِقِيْنَ وَالْقٰنِـتِيْنَ وَالْمُنْفِقِيْنَ وَالْمُسْـتَغْفِرِيْنَ بِالْاَسْحَارِ 17 شَهِدَ اللّٰهُ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۙ وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ وَاُولُوا الْعِلْمِ قَاۗىِٕمًۢا بِالْقِسْطِ ۭ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ 18ۭ اِنَّ الدِّيْنَ عِنْدَ اللّٰهِ الْاِسْلَامُ ۣ وَمَا اخْتَلَفَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَھُمُ الْعِلْمُ بَغْيًۢا بَيْنَھُمْ ۭ وَمَنْ يَّكْفُرْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَاِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ 19 فَاِنْ حَاۗجُّوْكَ فَقُلْ اَسْلَمْتُ وَجْهِيَ لِلّٰهِ وَمَنِ اتَّبَعَنِ ۭ وَقُلْ لِّلَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ وَالْاُمِّيّٖنَ ءَاَسْلَمْتُمْ ۭ فَاِنْ اَسْلَمُوْا فَقَدِ اھْتَدَوْا ۚ وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ ۭ وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ 20ۧ
आयत 10
“यक़ीनन जिन लोगों ने कुफ़्र की रविश इख़्तियार की हरगिज़ ना बचा सकेंगे उन्हें उनके माल और ना उनकी औलाद अल्लाह से कुछ भी।” | اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِىَ عَنْھُمْ اَمْوَالُھُمْ وَلَآ اَوْلَادُھُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَـيْـــــًٔـا |
अब यह ज़रा तहदीदी और चैलेंज का अंदाज़ है। ज़माना-ए-नुज़ूल के ऐतबार से आपने नोट कर लिया कि यह सूरह मुबारका 3 हिजरी में गज़वा-ए-ओहद के बाद नाज़िल हो रही है, लेकिन यह रुकूअ जो ज़ेरे मुताअला है इसके बारे में गुमाने ग़ालिब है कि यह गज़वा-ए-बद्र के बाद नाज़िल हुआ। गज़वा-ए-बद्र में मुस्लमानों को बड़ी ज़बरदस्त फ़तह हासिल हुई थी तो मुस्लमानों का morale बहुत बुलन्द था। लेकिन ऐसी रिवायात भी मिलती हैं कि जब मुस्लमान बद्र से गाज़ी बन कर, फ़तहयाब होकर वापस आये तो मदीना मुनव्वरा में जो यहूदी क़बीले थे उनमें से बाज़ लोगों ने कहा कि मुस्लमानों! इतना ना इतराओ। यह तो कुरैश के कुछ नातजुर्बेकार छोकरे थे जिनसे तुम्हारा मुक़ाबला पेश आया है, अगर कभी हमसे मुक़ाबला पेश आया तो दिन में तारे नज़र आ जायेंगे, वगैरह-वगैरह। तो इस पसमंज़र में यह अल्फ़ाज़ कहे जा रहे हैं कि सिर्फ़ मुशरिकीने मक्का पर मौक़ूफ़ (विश्राम) नहीं, आख़िरकार तमाम कुफ्फ़ार इसी तरह से ज़ेर होंगे और अल्लाह का दीन ग़ालिब होकर रहेगा। {وَاللّٰهُ غَالِبٌ عَلٰٓي اَمْرِهٖ وَلٰكِنَّ اَكْثَرَ النَّاسِ لَا يَعْلَمُوْنَ 21 } (सूरह युसुफ:21)
“और वह तो सबके सब आग का ईंधन बनेंगे।” | وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمْ وَقُوْدُ النَّارِ 10ۙ |
आयत 11
“(उनके साथ भी वैसा ही मामला होगा) जैसा कि आले फ़िरऔन और उन लोगों के साथ हुआ जो उनसे पहले गुज़रे।” | كَدَاْبِ اٰلِ فِرْعَوْنَ ۙ وَالَّذِيْنَ مِنْ قَبْلِهِمْ ۭ |
तुम्हारी तो हैसियत ही क्या है! क्या पिद्दी और क्या पिद्दी का शोरबा। आले फ़िरऔन का मामला याद करो, उनके साथ क्या हुआ था? फ़िरऔन बहुत बड़ा शहंशाह और बड़े लाव लश्कर वाला था, लेकिन उसका क्या हाल हुआ? और उससे पहले आद व समूद जैसी ज़बरदस्त क़ौमें इसी जज़ीरा नुमाये अरब में रही हैं।
“उन्होंने भी हमारी आयात को झुठलाया था।” | كَذَّبُوْا بِاٰيٰتِنَا ۚ |
“तो अल्लाह ने पकड़ा उनको उनके गुनाहों की पादाश में।” | فَاَخَذَھُمُ اللّٰهُ بِذُنُوْبِهِمْ |
“और अल्लाह सज़ा देने में बहुत सख्त है।” | وَاللّٰهُ شَدِيْدُ الْعِقَابِ 11 |
आयत 12
“(ऐ नबी ﷺ!) कह दीजिये उन लोगों से जो कुफ़्र की रविश इख़्तियार कर रहे हैं कि तुम सबके सब (दुनिया में) मग्लूब होकर रहोगे और (फिर आख़िरत में) जहन्नम की तरफ घेर कर ले जाये जाओगे।” | قُلْ لِّـلَّذِيْنَ كَفَرُوْا سَـتُغْلَبُوْنَ وَتُحْشَرُوْنَ اِلٰى جَهَنَّمَ ۭ |
“और वह बहुत बुरा ठिकाना है।” | وَبِئْسَ الْمِهَادُ 12 |
आयत 13
“तुम्हारे लिये एक निशानी आ चुकी है उन दो गिरोहों में जिन्होंने आपस में जंग की।” | قَدْ كَانَ لَكُمْ اٰيَةٌ فِيْ فِئَتَيْنِ الْتَقَتَا ۭ |
यानि बद्र की जंग में एक तरफ़ मुस्लमान थे और दूसरी तरफ मुशरिकीने मक्का थे। इसमें तुम्हारे लिये निशानी मौजूद है।
“एक गिरोह अल्लाह की राह में जंग कर रहा था और दूसरा काफ़िर था” | فِئَةٌ تُقَاتِلُ فِيْ سَبِيْلِ اللّٰهِ وَاُخْرٰى كَافِرَةٌ |
“वह उन्हें देख रहे थे अपनी आँखों से कि उनसे दो गुने हैं।” | يَّرَوْنَھُمْ مِّثْلَيْهِمْ رَاْيَ الْعَيْنِ ۭ |
इसके कईं मायने किये गये हैं। एक यह कि मुस्लमानों को तो खुल्लम-खुल्ला नज़र आ रहा था कि हमारे मुक़ाबिल हमसे दोगुनी फ़ौज है, जबकि वह तिगुनी थी। बाज़ रिवायात में यह भी आता है कि अल्लाह तआला ने गज़वा-ए-बद्र में कुफ्फ़ार पर ऐसा रौब तारी कर दिया था कि उन्हें नज़र आ रहा था कि मुस्लमान हमसे दोगुने हैं।
“और अल्लाह तआला ताईद (समर्थन) फ़रमाता है अपनी नुसरत से जिसकी चाहता है।” | وَاللّٰهُ يُؤَيِّدُ بِنَصْرِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ |
“इसमें यक़ीनन एक इबरत है आँखें रखने वालों के लिये।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَعِبْرَةً لِّاُولِي الْاَبْصَارِ 13 |
यह इबरत और सबक़ आमूज़ी सिर्फ़ उनके लिये होती है जो आँखें रखते हों, जिनके अन्दर देखने की सलाहियत मौजूद हो।
अगली आयत फ़ितरते इंसानी के ऐतबार से बड़ी अहम है। बाज़ लोगों में ख़ास तौर पर दुनिया और अलाइक़ दुनयवी (दुनिया की दिलचस्पी) की मोहब्बत ज़्यादा शदीद होती है। यहाँ उसका असल सबब बताया जा रहा है कि अल्लाह तआला ने वाक़िअतन यह शय फ़ितरते इंसानी में रखी है। इसलिये कि अल्लाह तआला ने इस दुनिया को क़यामत तक आबाद रखना है और इसकी रौनक़े बहाल रखनी हैं। चुनाँचे मर्द और औरत की एक-दूसरे के लिये कशिश होगी तो औलाद पैदा होगी और दुनिया की आबादी में इज़ाफ़ा होता रहेगा और इस तरह दुनिया क़ायम रहेगी। दौलत की कोई तलब होगी तो आदमी मेहनत व मशक्क़त करेगा और दौलत कमायेगा। इसलिये यह चीज़ें फ़ितरते इंसानी में basic animal instincts के तौर पर रख दी गयी हैं। बस ज़रूरत इस बात की है कि इन जिबिल्ली (स्वाभाविक) तक़ाज़ों को दबा कर रखा जाये, अल्लाह की मोहब्बत और अल्लाह की शरीअत को इससे बालातर रखा जाये। यह मतलूब नहीं है कि इनको ख़त्म कर दिया जाये। ताअज़ीबे नफ्स और नफ्सकशी (self annihilation) इस्लाम में नहीं है। यह तो रहबानियत है कि अपने नफ्स को कुचल दो, ख़त्म कर दो। जबकि इस्लाम तज़किया-ए-नफ्स और self control का दर्स देता है कि अपने आपको क़ाबू में रखो। नफ्से इंसानी एक मुँहज़ोर घोड़ा है। घोड़ा जितना ताक़तवर होता है उतना ही सवार के लिये तेज़ दौड़ना आसान होता है। लेकिन मुँहज़ोर और ताक़तवर घोड़े को क़ाबू में रखने की ज़रूरत भी है। वरना सवार अगर उसके रहमो करम पर आ गया तो वह जहाँ चाहेगा उसे पटखनी दे देगा।
आयत 14
“मुज़य्यन कर (संवार) दी गयी है लोगों के लिये मरगूबाते (आकर्षक) दुनिया की मोहब्बत जैसे औरतें और बेटें” | زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ الشَّهَوٰتِ مِنَ النِّسَاۗءِ وَالْبَنِيْنَ |
मरगूबाते दुनिया में से पहली मोहब्बत औरतों की गिनवायी गयी है। फ़्राईड के नज़दीक भी इंसानी मुहर्रिकात में सबसे क़वी और ज़बरदस्त मुहर्रिक (potent motive) जिंसी जज़्बा है और यहाँ अल्लाह तआला ने भी सबसे पहले उसी का ज़िक्र किया है। अगरचे बाज़ लोगों के लिये पेट का मसला फ़ौक़ियत इख़्तियार कर जाता है और मआशी ज़रूरत जिंसी जज़्बे से भी शदीदतर हो जाती है, लेकिन वाक़िया यह है कि मर्द व औरत के माबैन कशिश इंसानी फ़ितरत का लाज़िमा है। चुनाँचे रसूल अल्लाह ﷺ ने भी फ़रमाया है:
مَا تَرَکْتُ بَعْدِیْ فِتْنَۃً اَضَرَّ عَلَی الرِّجَالِ مِنَ النِّسَاءِ
“मैंने अपने बाद मर्दों के लिये औरतों के फ़ितने से ज़्यादा ज़रर रसाँ (हानिकारक) फ़ितना और कोई नहीं छोड़ा।”
उनकी मोहब्बत इन्सान को कहाँ से कहाँ ले जाती है। बिलआम बिन बाऊरा यहूद में से एक बहुत बड़ा आलिम और फ़ाज़िल शख्स था, मगर एक औरत के चक्कर में आकर वह शैतान का पैरो बन गया। उसका क़िस्सा सूरतुल आराफ़ में बयान हुआ है। बहरहाल औरतों की मोहब्बत इंसानी फ़ितरत के अन्दर रख दी गयी है। फिर इन्सान को बेटे बहुत पसंद हैं कि उसकी नस्ल और उसका नाम चलता रहे, वह बुढ़ापे का सहारा बनें।
“और जमा किये हुए खज़ाने सोने के और चांदी के” | وَالْقَنَاطِيْرِ الْمُقَنْطَرَةِ مِنَ الذَّھَبِ وَالْفِضَّةِ |
“और निशानज़दा घोड़े” | وَالْخَيْلِ الْمُسَوَّمَةِ |
उम्दा नस्ल के घोड़े जिन्हें चुन कर उन पर निशान लगाये जाते हैं।
“और माल मवेशी और खेती।” | وَالْاَنْعَامِ وَالْحَرْثِ ۭ |
पंजाब और सराइकी इलाक़े में चौपायों को माल कहा जाता है। यह जानवर उनके मालिकों के लिये माल की हैसियत रखते हैं।
“यह सब दुनयवी ज़िन्दगी का साज़ो सामान है।” | ذٰلِكَ مَتَاعُ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا ۚ |
बस नुक्ता-ए-ऐतदाल यह है कि जान लो यह सारी चीज़ें इस दुनिया की चंद रोज़ा ज़िन्दगी का साज़ो सामान हैं। इस ज़िन्दगी के लिये ज़रुरियात की हद तक इनसे फ़ायदा उठाना कोई बुरी बात नहीं है।
“लेकिन अल्लाह के पास है अच्छा लौटना।” | وَاللّٰهُ عِنْدَهٗ حُسْنُ الْمَاٰبِ 14 |
वह जो अल्लाह के पास है उसके मुक़ाबले में यह कुछ भी नहीं है। अगर ईमान बिलआख़िरत मौजूद है तो फिर इन्सान इन तमाम मरगूबात को, अपने तमाम जज़्बात और मीलानात को एक हद के अन्दर रखेगा, उससे आगे नहीं बढ़ने देगा। लेकिन अगर इनमें से किसी एक शय की मोहब्बत भी इतनी ज़ोरदार हो गयी कि आपके दिल के ऊपर उसका क़ब्ज़ा हो गया तो बस आप उसके गुलाम हो गये, अब वही आपका मअबूद है, चाहे वह दौलत हो या कोई और शय हो।
आयत 15
“इनसे कहिये कि क्या मैं तुम्हें बताऊँ इन तमाम चीज़ों से बहतर शय कौनसी है?” | قُلْ اَؤُنَبِّئُكُمْ بِخَيْرٍ مِّنْ ذٰلِكُمْ ۭ |
“जो लोग तक़वा इख़्तियार करते हैं उनके लिये उनके रब के पास ऐसे बाग़ात हैं जिनके दामन में नदियाँ बहती होंगी” | لِلَّذِيْنَ اتَّقَوْا عِنْدَ رَبِّهِمْ جَنّٰتٌ تَجْرِيْ مِنْ تَحْتِهَا الْاَنْهٰرُ |
तक़वा यही है कि तुम पर अपने नफ्स का भी हक़ है जो तुम्हें अदा करना है, लेकिन नाजायज़ रास्ते से नहीं। तुम्हारे पेट का भी हक़ है, वह भी अदा करो, लेकिन अकले हलाल से। तुम्हारी बीवियों और तुम्हारी औलाद के भी तुम पर हुक़ूक़ हैं, जो तुम्हें जायज़ तरीक़ों से अदा करने हैं। तुम्हारे जो मुलाक़ाती आने वाले हैं उनका भी तुम पर हक़ है। रसूल अल्लाह ﷺ ने हज़रत अब्दुल्लाह बिन अम्र बिन आस رضی اللہ عنہ से इशारा फ़रमाया था:
فَاِنَّ لِجَسَدِکَ عَلَیْکَ حَقًّا، وَاِنَّ لِعَیْنِکَ عَلَیْکَ حَقًّا، وَاِنَّ لِزَوْجِکَ عَلَیْکَ حَقًّا، وَاِنَّ لِزَوْرِکَ عَلَیْکَ حَقًّا
इन सबके हुक़ूक़ अदा करो, लेकिन अल्लाह से ऊपर किसी हक़ को फ़ाइक़ ना कर देना। बस यह है असल बात। “गर हिफ्ज़े मरातिब ना कुनी ज़िन्दीक़ी!” अगर यह हिफ्ज़े मरातिब नहीं होगा तो गोया आपका दीन भी गया और दुनिया भी गयी।
“उनमें वह हमेशा रहेंगे” | خٰلِدِيْنَ فِيْهَا |
“और उनके लिये बड़ी ही पाक औरतें होंगी” | وَاَزْوَاجٌ مُّطَهَّرَةٌ |
“और (सबसे बढ़ कर) अल्लाह की खुशनूदी होगी।” | وَّرِضْوَانٌ مِّنَ اللّٰهِ ۭ |
“और अल्लाह अपने बन्दों को देख रहा है।” | وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ 15ۚ |
आयत 16
“जो यह कहते रहते हैं परवरदिगार! हम ईमान ले आये” | اَلَّذِيْنَ يَقُوْلُوْنَ رَبَّنَآ اِنَّنَآ اٰمَنَّا |
“पस हमारे गुनाहों को बख्श दे” | فَاغْفِرْ لَنَا ذُنُوْبَنَا |
“और हमें आग के अज़ाब से बचा ले।” | وَقِنَا عَذَابَ النَّارِ 16ۚ |
आगे उनकी मदाह (तारीफ़) में अल्फ़ाज़ इस्तेमाल हो रहे हैं कि जो यह दुआएँ करते हैं उनके यह औसाफ़ हैं। इसमें गोया तलक़ीन है कि अगर अल्लाह से यह दुआ करना चाहते हो कि अल्लाह तुम्हारे गुनाह बख्श दे और तुम्हें जहन्नम के अज़ाब से बचा ले तो अपने अन्दर यह औसाफ़ पैदा करो।
आयत 17
“सब्र करने वाले और रास्तबाज़ (सच्चे)” | اَلصّٰبِرِيْنَ وَالصّٰدِقِيْنَ |
रास्तबाज़ी में रास्तगोयी भी शामिल है और रास्त किरदारी भी। यानि आपका अमल भी सही और दुरुस्त हो और क़ौल भी सही और दुरुस्त हो।
“और फ़रमाबरदार और अल्लाह की राह में खर्च करने वाले” | وَالْقٰنِـتِيْنَ وَالْمُنْفِقِيْنَ |
“और अवक़ाते सहर में मगफ़िरत चाहने वाले।” | وَالْمُسْـتَغْفِرِيْنَ بِالْاَسْحَارِ 17 |
वह जो सहर का वक़्त है (small hours of the morning) उस वक़्त अल्लाह के हुज़ूर इस्तगफ़ार करने वाले। एक तो पंच वक़्ता नमाज़े हैं, और एक ख़ास वक़्त है जिसके बारे में फ़रमाया गया है कि हर रात जब रात का आखरी एक तिहाई हिस्सा बाक़ी रह जाता है तो अल्लाह तआला समाये दुनिया तक नुज़ूल फ़रमाता है और कहता है:
ھَلْ مِنْ سَائِلٍ یُعْطٰی؟ ھَلْ مِنْ دَاعٍ یُسْتَجَابُ لَہٗ؟ ھَلْ مِنْ مُسْتَغْفِرٍ یُغْفَرُ لَہٗ؟
“है कोई माँगने वाला कि उसे अता किया जाये? है कोई दुआ करने वाला कि उसकी दुआ क़ुबूल की जाये? है कोई इस्तगफ़ार करने वाला कि उसे माफ़ किया जाये?” गोया:
हम तो माइल बा करम हैं कोई साइल ही नहीं
राह दिखलायें किसे राह रवे मंज़िल ही नहीं!
आयत 18
“अल्लाह खुद गवाह है कि उसके सिवा कोई मअबूद नहीं है” | شَهِدَ اللّٰهُ اَنَّهٗ لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ ۙ |
सबसे बड़ी गवाही तो अल्लाह तबारक व तआला की है, जो कुतुबे समाविया से भी ज़ाहिर है और मज़ाहिरे फ़ितरत से भी।
“और सारे फ़रिश्ते (गवाह हैं)” | وَالْمَلٰۗىِٕكَةُ |
“और अहले इल्म भी (इस पर गवाह हैं)” | وَاُولُوا الْعِلْمِ |
ऊलुल इल्म वही लोग हैं जिन्हें क़ुरान कहीं ऊलुल अलबाब क़रार देता है और कहीं उनके लिये “الَّذِیْنَ یَعْقِلُوْنَ” जैसे अल्फ़ाज़ आते हैं। यह वह लोग हैं जो आयाते आफ़ाक़ी के हवाले से अल्लाह को पहचान लेते हैं और मान लेते हैं कि वही मअबूदे बरहक़ है। सूरतुल बक़रह के बीसवें रुकूअ की पहली आयत हमने पढ़ी थी जिसे मैं “आयतुल आयात” क़रार देता हूँ। उसमें बहुत से मज़ाहिरे फ़ितरत बयान करके फ़रमाया गया: {لَاٰيٰتٍ لِّقَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ } (आयत:164) “(इनमें) यक़ीनन निशानियाँ हैं उन लोगों के लिये जो अक़्ल से काम लेते हैं।” तो यह जो “قَوْمٍ يَّعْقِلُوْنَ” हैं, जो ऊलुल अलबाब हैं, ऊलुल इल्म हैं, वह भी गवाह हैं कि अल्लाह के सिवा कोई मअबूद नहीं है।
“वह अद्ल व क़िस्त (परिणाम) का क़ायम करने वाला है।” | قَاۗىِٕمًۢا بِالْقِسْطِ ۭ |
यह इस आयत मुबारका के अहम तरीन अल्फ़ाज़ हैं। क़ब्ल अज़ अर्ज़ किया जा चुका है कि हम यह समझते हैं कि अल्लाह अद्ल क़ायम करता है और अद्ल करेगा, अलबत्ता अहले सुन्नत के नज़दीक यह कहना सूए अदब है कि अल्लाह पर अद्ल करना वाजिब है। अल्लाह पर किसी शय का वजूब नहीं है। अल्लाह को अद्ल पसंद है और वह अद्ल करने वालों से मोहब्बत रखता है। (अल हुजरात:9) { اِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِيْنَ} और अल्लाह खुद भी अद्ल फ़रमायेगा।
“उसके सिवा कोई मअबूद नहीं, वह ज़बरदस्त है, कमाले हिकमत वाला है।” | لَآ اِلٰهَ اِلَّا ھُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ 18ۭ |
आयत 19
“यक़ीनन दीन तो अल्लाह के नज़दीक सिर्फ़ इस्लाम ही है।” | اِنَّ الدِّيْنَ عِنْدَ اللّٰهِ الْاِسْلَامُ ۣ |
अल्लाह का पसन्दीदा और अल्लाह के यहाँ मंज़ूरशुदा दीन एक ही है और वह “इस्लाम” है। सूरतुल बक़रह और सूरह आले इमरान की निस्बते ज़ौजियत के हवाले से यह बात समझ लीजिये कि सूरतुल बक़रह में ईमान पर ज़्यादा ज़ोर है और सूरह आले इमरान में इस्लाम पर। सूरतुल बक़रह के आगाज़ में भी ईमानियात का तज़किरा है, दरमियान में आयतुल बिर्र में भी ईमानियात का बयान है और आखरी आयात (आयत:285) में भी ईमानियात का ज़िक्र है: { اٰمَنَ الرَّسُوْلُ بِمَآ اُنْزِلَ اِلَيْهِ مِنْ رَّبِّهٖ وَالْمُؤْمِنُوْنَ ۭ } जबकि इस सूरह मुबारका में इस्लाम को emphasize किया गया है। यहाँ फ़रमाया: { اِنَّ الدِّيْنَ عِنْدَ اللّٰهِ الْاِسْلَامُ ۣ } आगे जाकर आयत आयेगी: {وَمَنْ يَّبْتَـغِ غَيْرَ الْاِسْلَامِ دِيْنًا فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْهُ ۚ } (आयत:85) “और जो कोई इस्लाम के सिवा किसी और दीन को क़ुबूल करेगा वह उसकी जानिब से अल्लाह के यहाँ मंज़ूर नहीं किया जायेगा।”
“और अहले किताब ने इख्तिलाफ़ नहीं किया इसके बाद कि उनके पास इल्म आ चुका था मगर बाहमी ज़िद्दम-ज़िद्दा के सबब से।” | وَمَا اخْتَلَفَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَھُمُ الْعِلْمُ بَغْيًۢا بَيْنَھُمْ ۭ |
यह गोया सूरतुल बक़रह की आयत 213 (आयतुल इख्तलाफ़) का खुलासा है। दीने इस्लाम तो हज़रत आदम अलैहिस्सलाम से चला आ रहा है। जिन लोगों ने इसमें इख्तलाफ़ किया, पगडंडियाँ निकालीं और गलत रास्तों पर मुड़ गये, इसके बाद कि उनके पास इल्म आ चुका था, उनका असली रोग वही ज़िद्दम-ज़िद्दा की रविश और ग़ालिब आने की उमंग (the urge to dominate) थी।
“और जो कोई अल्लाह की आयात का इन्कार करता है तो (वह याद रखे कि) अल्लाह बहुत जल्द हिसाब चुका देने वाला है।” | وَمَنْ يَّكْفُرْ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ فَاِنَّ اللّٰهَ سَرِيْعُ الْحِسَابِ 19 |
अल्लाह तआला को हिसाब लेते देर नहीं लगेगी, वह बड़ी तेज़ी के साथ हिसाब ले लेगा।
आयत 20
“फिर (ऐ नबी ﷺ!) अगर वह आप ﷺ से हुज्जत बाज़ी करें” | فَاِنْ حَاۗجُّوْكَ |
दलील बाज़ी और मुनाज़रे की रविश इख़्तियार करें।
“तो आप कह दें कि मैंने तो अपना चेहरा अल्लाह के सामने झुका दिया है और उन्होंने भी जो मेरा इत्तेबाअ कर रहे हैं।” | فَقُلْ اَسْلَمْتُ وَجْهِيَ لِلّٰهِ وَمَنِ اتَّبَعَنِ ۭ |
आप ﷺ उनसे दो टूक अंदाज़ में यह आखरी बात कह दें कि हमने तो अल्लाह के आगे सरइताअत ख़म कर दिया है। हमने एक रास्ता इख़्तियार कर लिया है। तुम जिधर जाना चाहते हो जाओ, जिस पगडण्डी पर मुड़ना चाहते हो मुड़ जाओ, जिस खाई में गिरना चाहते हो गिर जाओ। {لَكُمْ دِيْنُكُمْ وَلِيَ دِيْنِ} (अलकाफ़िरून:6)
“और (ऐ नबी ﷺ!) आप कह दीजिये उनसे भी कि जिन्हें किताब दी गयी थी (यानि यहूद और नसारा) और उम्मिय्यीन से भी कि क्या तुम भी इसी तरह इस्लाम लाते हो?” | وَقُلْ لِّلَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ وَالْاُمِّيّٖنَ ءَاَسْلَمْتُمْ ۭ |
क्या तुम भी सरे तस्लीम ख़म करते हो या नहीं? ताबेअ होते हो या नहीं? अपने आपको अल्लाह के सुपुर्द करते हो या नहीं?
“पस अगर वह भी इसी तरह इस्लाम ले आयें तो हिदायत पर हो जायेंगे।” | فَاِنْ اَسْلَمُوْا فَقَدِ اھْتَدَوْا ۚ |
“और अगर वह मुँह मोड़ लें तो (ऐ नबी ﷺ!) आप ﷺ पर ज़िम्मेदारी सिर्फ पहुँचा देने की है।” | وَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّمَا عَلَيْكَ الْبَلٰغُ ۭ |
आप ﷺ ने हमारा पैगाम उन तक पहुँचा दिया, हमारी दावत उन तक पहुँचा दी, हमारी आयात उन्हें पढ़ कर सुना दीं, अब क़ुबूल करना या ना करना उनका अपना इख़्तियार (choice) है। आप ﷺ पर ज़िम्मेदारी नहीं है कि यह लोग ईमान क्यों नहीं लाये। सूरतुल बक़रह में हम यह अल्फ़ाज़ पढ़ आये हैं: {وَّلَا تُسْـــَٔـلُ عَنْ اَصْحٰبِ الْجَحِيْمِ } (आयत:119)
“और अल्लाह अपने बन्दों के हाल को देख रहा है।” | وَاللّٰهُ بَصِيْرٌۢ بِالْعِبَادِ 20ۧ |
वह उनसे हिसाब-किताब कर लेगा और उनसे निबट लेगा। आप ﷺ के ज़िम्मे जो फ़र्ज़ है आप उसको अदा करते रहिये।
आयात 21 से 32 तक
اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّـبِيّٖنَ بِغَيْرِ حَقٍّ ۙ وَّيَقْتُلُوْنَ الَّذِيْنَ يَاْمُرُوْنَ بِالْقِسْطِ مِنَ النَّاسِ ۙ فَبَشِّرْھُمْ بِعَذَابٍ اَلِيْمٍ 21 اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ حَبِطَتْ اَعْمَالُھُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۡ وَمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ 22 اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ يُدْعَوْنَ اِلٰى كِتٰبِ اللّٰهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَھُمْ ثُمَّ يَتَوَلّٰى فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ وَھُمْ مُّعْرِضُوْنَ 23 ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْا لَنْ تَمَــسَّنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ ۠ وَغَرَّھُمْ فِيْ دِيْــنِهِمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 24 فَكَيْفَ اِذَا جَمَعْنٰھُمْ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِ ۣ وَوُفِّيَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ 25 قُلِ اللّٰهُمَّ مٰلِكَ الْمُلْكِ تُؤْتِي الْمُلْكَ مَنْ تَشَاۗءُ وَتَنْزِعُ الْمُلْكَ مِمَّنْ تَشَاۗءُ ۡ وَتُعِزُّ مَنْ تَشَاۗءُ وَتُذِلُّ مَنْ تَشَاۗءُ ۭبِيَدِكَ الْخَيْرُ ۭ اِنَّكَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 26 تُوْلِجُ الَّيْلَ فِي النَّهَارِ وَتُوْلِجُ النَّهَارَ فِي الَّيْلِ ۡ وَتُخْرِجُ الْـحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ وَتُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْـحَيِّ ۡ وَتَرْزُقُ مَنْ تَشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ 27 لَا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللّٰهِ فِيْ شَيْءٍ اِلَّآ اَنْ تَتَّقُوْا مِنْھُمْ تُقٰىةً ۭ وَيُحَذِّرُكُمُ اللّٰهُ نَفْسَهٗ ۭ وَاِلَى اللّٰهِ الْمَصِيْرُ 28 قُلْ اِنْ تُخْفُوْا مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ اَوْ تُبْدُوْهُ يَعْلَمْهُ اللّٰهُ ۭوَيَعْلَمُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 29 يَوْمَ تَجِدُ كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ مِنْ خَيْرٍ مُّحْضَرًا ٻ وَّمَا عَمِلَتْ مِنْ سُوْۗءٍ ڔ تَوَدُّ لَوْ اَنَّ بَيْنَهَا وَبَيْنَهٗٓ اَمَدًۢا بَعِيْدًا ۭ وَيُحَذِّرُكُمُ اللّٰهُ نَفْسَهٗ ۭوَاللّٰهُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ 30ۧ قُلْ اِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّوْنَ اللّٰهَ فَاتَّبِعُوْنِيْ يُحْبِبْكُمُ اللّٰهُ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوْبَكُمْ ۭوَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 31 قُلْ اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ ۚ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْكٰفِرِيْنَ 32
आयत 21
“यक़ीनन वह लोग जो अल्लाह की आयात का कुफ़्र करते हैं और अम्बिया अलै० को नाहक़ क़त्ल करते रहे हैं” | اِنَّ الَّذِيْنَ يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ النَّـبِيّٖنَ بِغَيْرِ حَقٍّ |
“और उन लोगों को क़त्ल करते रहे हैं (या क़त्ल करते हैं) जो इन्सानों में से अद्ल व क़िस्त का हुक्म देते हैं” | وَّيَقْتُلُوْنَ الَّذِيْنَ يَاْمُرُوْنَ بِالْقِسْطِ مِنَ النَّاسِ ۙ |
इसलिये कि इन्साफ़ की बात तो बिलउमूम किसी को पसंद नहीं होती। “اَلْحَقُّ مُرٌّ” (हक़ बात कड़वी होती है)। बहुत से मौक़ों पर किसी हक़गोह इन्सान को हक़गोई की पादाश में अपनी जान से भी हाथ धोने पड़ते हैं। यहाँ फिर अद्ल व क़िस्त का मामला आया है। अल्लाह खुद “قَآئِمًا بِالْقِسْطِ” है और अल्लाह के महबूब बन्दे वही हैं जो अद्ल का हुक्म दें, इन्साफ़ का डंका बजाने की कोशिश करें। तो फ़रमाया कि जो ऐसे लोगों को क़त्ल करें…
“तो (ऐ नबी ﷺ!) उन्हें बशारत सुना दीजिये दर्दनाक अज़ाब की।” | فَبَشِّرْھُمْ بِعَذَابٍ اَلِيْمٍ 21 |
लफ्ज़ बशारत यहाँ तंज़ के तौर पर इस्तेमाल किया गया है।
आयत 22
“यह वह लोग हैं जिनके तमाम आमाल दुनिया और आख़िरत में अकारत हो गये।” | اُولٰۗىِٕكَ الَّذِيْنَ حَبِطَتْ اَعْمَالُھُمْ فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۡ |
कुरैश को यह ज़अम था कि हम खुद्दामे काबा हैं और हमारे पास जो यह लोग हज करने आते हैं हम उनको खाना खिलाते हैं, पानी पिलाते हैं, हमारी इन खिदमात के एवज़ हमें बख्श दिया जायेगा। फ़रमाया वह सारे आमाल हब्त हो जायेंगे। अगर तो सही-सही पूरे दीन को इख़्तियार करोगे तो ठीक है, वरना चाहे खैरात और भलाई के बड़े से बड़े काम किये हों, लोगों की फ़लाह व बहबूद (कल्याण) के इदारे क़ायम कर दिये हों, अल्लाह की निगाह में उनकी कोई हैसियत नहीं।
“और उनका फिर कोई मददगार नहीं होगा।” | وَمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ 22 |
आयत 23
“क्या तुमने गौर नहीं किया उन लोगों की हालत पर जिन्हें किताब का एक हिस्सा दिया गया था?” | اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ |
اُوْتُوْا मजहूल का सीगा है और याद रहे कि जहाँ मज़हम्मत का पहलु होता है वहाँ मजहूल का सीगा आता है।
“अब उन्हें बुलाया जाता है अल्लाह की किताब की तरफ़ कि वह उनके माबैन फ़ैसला करे” | يُدْعَوْنَ اِلٰى كِتٰبِ اللّٰهِ لِيَحْكُمَ بَيْنَھُمْ |
“फिर उनमें से एक गिरोह पीठ फेर लेता है ऐराज़ करते हुए।” | ثُمَّ يَتَوَلّٰى فَرِيْقٌ مِّنْھُمْ وَھُمْ مُّعْرِضُوْنَ 23 |
यानि किताब को मानते भी हैं लेकिन उसके फ़ैसले को तस्लीम करने के लिये तैयार नहीं हैं।
आयत 24
“यह इस वजह से है कि यह कहते हैं कि हमें तो जहन्नम की आग छू ही नहीं सकती मगर गिनती के चंद दिन।” | ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْا لَنْ تَمَــسَّنَا النَّارُ اِلَّآ اَيَّامًا مَّعْدُوْدٰتٍ ۠ |
यह मज़मून सूरतुल बक़रह में आ चुका है। उनकी ढिठाई का असल सबब उनके मनघडन्त ख्यालात हैं। जब उनसे कहा जाता है कि तुम किताब पर ईमान रखते हो तो उस पर अमल क्यों नहीं कर रहे? उसमें तो लिखा है कि सूद हराम है और तुम सूदखोरी पर कमरबस्ता हो, उसके हलाल को हलाल और उसके हराम को हराम क्यों नहीं जानते? तो इसके जवाब में वह अपना यह मनघडन्त अक़ीदा बयान करते हैं कि “हमें तो जहन्नम की आग छू ही नहीं सकती मगर गिनती के चंद दिन।” जब यह अक़ीदा है तो फिर इन्सान काहे को दुनिया का नुक़सान बर्दाश्त करे। “बाबर बईश कोश कि आलम दोबारा नीस्त।” फिर तो हलाल से, हराम से, जायज़ से, नाजायज़ से, जैसे भी ऐश दुनिया हासिल किया जा सकता हो हासिल करना चाहिये। यह अक़ीदा दरहक़ीक़त ईमान बिलआख़िरत की नफ़ी कर देता है।
“और उन्हें धोखे में मुब्तला कर दिया है उनके दीन के बारे में उन चीज़ों ने जो यह घड़ते रहे हैं।” | وَغَرَّھُمْ فِيْ دِيْــنِهِمْ مَّا كَانُوْا يَفْتَرُوْنَ 24 |
इस तरह के जो अक़ाइद व नज़रियात उन्होंने घड लिये हैं उनके बाइस यह दीन के मामले में गुमराही का शिकार हो गये हैं। अल्लाह ने तो ऐसी कोई ज़मानत नहीं दी थी। तौरात लाओ, इन्जील लाओ, कहीं ऐसी ज़मानत नहीं है। यह तो तुम्हारा मनघडन्त अक़ीदा है और इसी की वजह से अब तुम दीन के अन्दर बददीन या बेदीन हो गये हो।
आयत 25
“तो क्या हाल होगा जब हम उन्हें इकट्ठा करेंगे उस दिन जिसके बारे में कोई शक नहीं!” | فَكَيْفَ اِذَا جَمَعْنٰھُمْ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِ ۣ |
इस वक़्त तो यह बढ़-चढ़ कर बातें बना रहे हैं, ज़बान दराज़ियाँ कर रहे हैं। लेकिन जब हम इन्हें एक ऐसे दिन में जमा करेंगे जिसके आने में ज़रा शक नहीं, तो उस दिन इनका क्या हाल होगा!
“और हर जान को पूरा-पूरा दे दिया जायेगा जो कुछ उसने कमाई की होगी” | وَوُفِّيَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ |
“और उन पर कोई ज़्यादती नहीं होगी।” | وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ 25 |
इसके बाद अब फिर एक बहुत अज़ीम दुआ आ रही है। इस सूरह मुबारका में बहुत सी दुआएँ हैं। यह भी एक अज़ीम दुआ है, जिसकी बाक़ायदा तलक़ीन करके कहा गया है कि यूँ कहा करो।
आयत 26
“कहो ऐ अल्लाह! तमाम बादशाहत के मालिक!” | قُلِ اللّٰهُمَّ مٰلِكَ الْمُلْكِ |
कुल मुल्क तेरे इख़्तियार में है।
“तू हुकूमत और इख़्तियार देता है जिसको चाहता है” | تُؤْتِي الْمُلْكَ مَنْ تَشَاۗءُ |
“और सल्तनत छीन लेता है जिससे चाहता है” | وَتَنْزِعُ الْمُلْكَ مِمَّنْ تَشَاۗءُ ۡ |
“और तू इज़्ज़त देता है जिसको चाहता है” | وَتُعِزُّ مَنْ تَشَاۗءُ |
“और तू ज़लील कर देता है जिसको चाहता है।” | وَتُذِلُّ مَنْ تَشَاۗءُ ۭ |
“तेरे ही हाथ में सब खैर है।” | بِيَدِكَ الْخَيْرُ ۭ |
इसके दोनों मायने हैं। एक यह कि कुल खैर व खूबी तेरे हाथ में है और दूसरे यह कि तेरे हाथ में खैर ही खैर है। बसा अवक़ात इन्सान जिसे अपने लिये शर समझ बैठता है वह भी उसके लिये खैर होता है। सूरतुल बक़रह (आयत 216) में हम पढ़ चुके हैं: {وَعَسٰٓى اَنْ تَكْرَھُوْا شَـيْـــًٔـا وَّھُوَ خَيْرٌ لَّكُمْ ۚ وَعَسٰٓى اَنْ تُحِبُّوْا شَـيْـــــًٔـا وَّھُوَ شَرٌّ لَّكُمْ ۭ }
“यक़ीनन तू हर चीज़ पर क़ादिर है।” | اِنَّكَ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 26 |
आयत 27
“तू रात को ले आता है दिन में पिरो कर” | تُوْلِجُ الَّيْلَ فِي النَّهَارِ |
“और फिर दिन को निकाल लाता है रात में से पिरो कर।” | وَتُوْلِجُ النَّهَارَ فِي الَّيْلِ ۡ |
“और तू निकालता है ज़िन्दा को मुर्दे से” | وَتُخْرِجُ الْـحَيَّ مِنَ الْمَيِّتِ |
“और तू निकालता है मुर्दे को ज़िन्दा से।” | وَتُخْرِجُ الْمَيِّتَ مِنَ الْـحَيِّ ۡ |
इसकी बेहतरीन मिसाल मुर्गी और अंडा है। अंडे में जान नहीं है लेकिन उसी में से ज़िन्दा चूज़ा बरामद होता है और मुर्गी से अंडा बरामद होता है।
“और तू देता है जिसको चाहता है बेहद व बेहिसाब।” | وَتَرْزُقُ مَنْ تَشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ 27 |
आयत 28
“अहले ईमान ना बनायें काफ़िरों को अपने दोस्त अहले ईमान को छोड़ कर।” | لَا يَتَّخِذِ الْمُؤْمِنُوْنَ الْكٰفِرِيْنَ اَوْلِيَاۗءَ مِنْ دُوْنِ الْمُؤْمِنِيْنَ ۚ |
“औलिया” ऐसे क़ल्बी दोस्त होते हैं जो एक-दूसरे के राज़दार भी बन जायें और एक-दूसरे के पुश्त पनाह भी हों। यह ताल्लुक़ कुफ्फ़ार के साथ इख़्तियार करने की इजाज़त नहीं है। उनके साथ अच्छा रवैय्या, ज़ाहिरी मदारात और तहज़ीब व शाइस्तगी से बात-चीत तो और बात है, लेकिन दिली मोहब्बत, क़ल्बी रिश्ता, जज़्बाती ताल्लुक़, बाहमी नुसरत और तआवुन और एक-दूसरे के पुश्त पनाह होने का रिश्ता क़ायम कर लेने की इजाज़त नहीं है। कुफ्फ़ार के साथ इस तरह के ताल्लुक़ात अल्लाह तआला को हरगिज़ पसंद नहीं हैं।
“और जो कोई भी यह हरकत करेगा तो फिर अल्लाह के साथ उसका कोई ताल्लुक़ नहीं रहेगा” | وَمَنْ يَّفْعَلْ ذٰلِكَ فَلَيْسَ مِنَ اللّٰهِ فِيْ شَيْءٍ |
अगर अल्लाह के दुश्मनों के साथ तुम्हारी दोस्ती है तो ज़ाहिर है फिर तुम्हारा अल्लाह के साथ कोई रिश्ता व ताल्लुक़ नहीं रहा है।
“सिवाये यह कि तुम उनसे बचने के लिये अपना बचाव करना चाहो।” | اِلَّآ اَنْ تَتَّقُوْا مِنْھُمْ تُقٰىةً ۭ |
बाज़ अवक़ात ऐसे हालात होते हैं कि खुले मुक़ाबले का अभी मौक़ा नहीं होता तो आप दुश्मन को तरह (उपाय) देते हैं और इस तरह गोया वक़्त हासिल करते हैं (you are buying time) तो इस दौरान अगर ज़ाहिरी खातिर मदारात का मामला भी हो जाये तो कोई हर्ज नहीं है, लेकिन मुस्तक़िल तौर पर कुफ्फ़ार से क़ल्बी मोहब्बत क़ायम कर लेना हरगिज़ जायज़ नहीं है। क़ुरान के इन्ही अल्फ़ाज़ को हमारे यहाँ अहले तशय्यो ने तक़िये की बुनियाद बना लिया है। लेकिन उन्होंने इसे इस हद तक पहुँचा दिया है की झूठ बोलना और अपने अक़ाइद को छुपा लेना भी रवा समझते हैं और उसके लिये दलील यहाँ से लाते हैं। लेकिन यह एक बिल्कुल दूसरी शक्ल है और यह सिर्फ़ ज़ाहिरी मदारात की हद तक है। जैसे की हम सूरतुल बक़रह में पढ़ चुके हैं कि अगरचे तुम्हारे खिलाफ़ यहूद के दिलों में हसद की आग भरी हुई है लेकिन { فَاعْفُوْا وَاصْفَحُوْا } (आयत:109) अभी ज़रा दरगुज़र करते रहो और चश्मपोशी से काम लो। अभी फ़ौरी तौर पर इनके साथ मुक़ाबला शुरू करना मुनासिब नहीं है। इस हद तक मसलहत बीनी तो सही है, लेकिन यह नहीं कि झूठ बोला जाये, माज़ अल्लाह!
“और अल्लाह तुम्हें डराता है अपने आप से।” | وَيُحَذِّرُكُمُ اللّٰهُ نَفْسَهٗ ۭ |
अल्लाह से डरो। यानि किसी और से ख्वाह मा ख्वाह डर कर सिर्फ़ खातिर मदारात कर लेना भी सही नहीं है। किसी वक़्त मसलहत का तक़ाज़ा हो तो ऐसा कर लो, लेकिन तुम्हारे दिल में खौफ़ सिर्फ़ अल्लाह का रहना चाहिये।
“और अल्लाह ही की तरफ़ (तुम्हें) लौट कर जाना है।” | وَاِلَى اللّٰهِ الْمَصِيْرُ 28 |
आयत 29
“कह दीजिये (ऐ नबी ﷺ!) कि अगर तुम छुपाओ जो कुछ कि तुम्हारे सीनों में है या उसे ज़ाहिर कर दो अल्लाह उसे जानता है।” | قُلْ اِنْ تُخْفُوْا مَا فِيْ صُدُوْرِكُمْ اَوْ تُبْدُوْهُ يَعْلَمْهُ اللّٰهُ ۭ |
तुम अपने सीनों में मख्फ़ी बातें एक-दूसरे से तो छुपा सकते हो, अल्लाह तआला से नहीं। सूरतुल बक़रह (आयत 284) में हम पढ़ चुके हैं: { وَاِنْ تُبْدُوْا مَا فِيْٓ اَنْفُسِكُمْ اَوْ تُخْفُوْهُ يُحَاسِبْكُمْ بِهِ اللّٰهُ ۭ } “और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है ख्वाह तुम उसे ज़ाहिर करो ख्वाह छुपाओ अल्लाह तुमसे उसका मुहासबा कर लेगा।”
“और वह जानता है जो कुछ कि आसमानों में है और जो ज़मीन में है।” | وَيَعْلَمُ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ |
“और अल्लाह तआला हर चीज़ पर क़ादिर है।” | وَاللّٰهُ عَلٰي كُلِّ شَيْءٍ قَدِيْرٌ 29 |
आयत 30
“(उस दिन का तसव्वुर करो) जिस दिन हर जान अपने सामने मौजूद पायेगी हर नेकी जो उसने की होगी” | يَوْمَ تَجِدُ كُلُّ نَفْسٍ مَّا عَمِلَتْ مِنْ خَيْرٍ مُّحْضَرًا ٻ |
“और हर बुराई जो उसने कमाई होगी।” | وَّمَا عَمِلَتْ مِنْ سُوْۗءٍ ڔ |
इसका नक्शा सूरतुल ज़िलज़ाल में बाअल्फ़ाज़ खींचा गया है:
“तो जिसने एक ज़र्रे के हमवज़न नेकी की होगी वह उसको (बचश्म खुद) देख लेगा। और जिसने एक ज़र्रे के हमवज़न बुराई की होगी वह उसको (बचश्म खुद) देख लेगा।” | فَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ خَيْرًا يَّرَهٗ Ċۭ وَمَنْ يَّعْمَلْ مِثْقَالَ ذَرَّةٍ شَرًّا يَّرَهٗ Ďۧ |
“और (हर जान) यह चाहेगी कि काश उसके और उस (के नामाये आमाल) के दरमियान एक ज़माना-ए-दराज़ हाईल होता।” | تَوَدُّ لَوْ اَنَّ بَيْنَهَا وَبَيْنَهٗٓ اَمَدًۢا بَعِيْدًا ۭ |
उस वक़्त हर इन्सान यह चाहेगा कि काश मेरे और मेरे आमाल नामे के दरमियान बड़ा फ़ासला आ जाये और मेरी निगाह भी उस पर ना पड़े।
“और अल्लाह डरा रहा है तुम्हें अपने आपसे।” | وَيُحَذِّرُكُمُ اللّٰهُ نَفْسَهٗ ۭ |
यानि तक़वा इख़्तियार करना है तो उसका करो, डरना है तो उससे डरो, खौफ़ खाना है तो उससे खाओ!
“और अल्लाह तआला अपने बन्दों के हक़ में बहुत शफ़ीक़ है।” | وَاللّٰهُ رَءُوْفٌۢ بِالْعِبَادِ 30ۧ |
यह तम्बिहात (warnings) वह तुम्हें बार-बार इसी लिये दे रहा है ताकि तुम्हारी आक़बत ख़राब ना हो।
आयत 31
“(ऐ नबी ﷺ!) कह दीजिये कि अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो तो मेरी पैरवी करो” | قُلْ اِنْ كُنْتُمْ تُحِبُّوْنَ اللّٰهَ فَاتَّبِعُوْنِيْ |
यह आयत बहुत मारूफ़ है और मुस्लमानों को बहुत पसंद भी है। हमारे यहाँ मवाइज़ और खिताबात में यह बहुत कसरत से बयान होती है। फ़रमाया कि ऐ नबी ﷺ अहले ईमान से कह दीजिये कि अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो तो मेरी पैरवी करो, मेरा इत्तेबाअ करो! उसका नतीजा यह निकलेगा कि:
“अल्लाह तुमसे मोहब्बत करेगा” | يُحْبِبْكُمُ اللّٰهُ |
“और तुम्हारे गुनाह बख्श देगा।” | وَيَغْفِرْ لَكُمْ ذُنُوْبَكُمْ ۭ |
“और अल्लाह बख्शने वाला, रहम फ़रमाने वाला है।” | وَاللّٰهُ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ 31 |
आयत 32
“कह दीजिये इताअत करो अल्लाह की और रसूल ﷺ की।” | قُلْ اَطِيْعُوا اللّٰهَ وَالرَّسُوْلَ ۚ |
“फिर अगर वह पीठ मोड़ लें तो (याद रखें कि) अल्लाह को ऐसे काफ़िर पसंद नहीं हैं।” | فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللّٰهَ لَا يُحِبُّ الْكٰفِرِيْنَ 32 |
यह दो आयतें इस ऐतबार से बहुत अहम हैं कि इनमें रसूल अल्लाह ﷺ के लिये दो अल्फ़ाज़ आये हैं “इताअत” और “इत्तेबाअ”। इताअत अगर नहीं है तो यह कुफ़्र है। चुनाँचे इताअत तो लाज़िम है और वह भी दिली आमादगी से, मारे-बांधे की इताअत नही। लेकिन इताअत किस चीज़ में होती है? जो हुक्म दिया गया है कि यह करो वह आपको करना है। इत्तेबाअ इससे बुलन्दतर शय है। इन्सान खुद तलाश करे कि आँहुज़ूर ﷺ के आमाल क्या थे और उन पर अमल पैरा हो जाये, ख्वाह आप ﷺ ने उनका हुक्म ना दिया हो। गोया इत्तेबाअ का दायरा इताअत से वसीतर है। इन्सान को जिस किसी से मोहब्बत होती है वह उससे हर तरह से एक मुनास्बत पैदा करना चाहता है। चुनाँचे वह उसके लिबास जैसा लिबास पहनना पसंद करता है, जो चीज़ें उसको खाने में पसंद है वही चीज़ें खुद भी खाना पसंद करता है। यह ऐसी चीज़ें हैं जिनका हुक्म नहीं दिया गया लेकिन इनका इल्तेज़ाम (प्रावधान) पसन्दीदा है। एक सहाबी رضی اللہ عنہ का वाक़िया आता है कि वह एक मरतबा रसूल अल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो उन्होंने देखा कि आप ﷺ के कुरते के बटन नहीं लगे हुए थे और आप ﷺ का गिरेबान खुला था। उसके बाद उन सहाबी رضی اللہ عنہ ने फिर सारी उम्र अपने कुरते के बटन नहीं लगाये। हालाँकि हुज़ूर ﷺ ने तो उन्हें इसका हुक्म नहीं दिया था। यह सहाबी رضی اللہ عنہ कहीं दूर-दराज़ से आये होंगे और एक ही मरतबा खिदमते अक़दस में हाज़िर हुए होंगे, लेकिन उन्होंने उस वक़्त मुहम्मदुन रसूल अल्लाह ﷺ को जिस शान में देखा उसको फिर अपने ऊपर लाज़िम कर लिया।
इत्तेबाअ के ज़िमन में यह बात भी लायक़ तवज्जो है कि अगरचे दीन के कुछ तक़ाज़े ऐसे हैं कि उन्हें जिस दर्जे में मुहम्मदुन रसूल अल्लाह ﷺ ने पूरा फ़रमाया उस दर्जे में पूरा करना किसी इन्सान के बस में नहीं है, फिर भी इसकी कोशिश करते रहना इत्तेबाअ का तक़ाज़ा है। मसलन रसूल अल्लाह ﷺ ने कोई मकान नहीं बनाया, कोई जायदाद नहीं बनाई, जैसे ही वही का आगाज़ हुआ, उसके बाद आप ﷺ ने कोई दुनयवी काम नहीं किया, कोई तिजारत नहीं की। आप ﷺ ने अपने वक़्त का एक-एक लम्हा और अपनी तवानाई की एक-एक रमक़ अल्लाह के दीन की दावत और उसकी अक़ामत में लगा दी। सबके लिये तो इस मक़ाम तक पहुँचना यक़ीनन मुश्किल है, लेकिन बहरहाल बंदा-ए-मोमिन का आईडियल यह रहे और वह इसी की तरफ़ चलने की कोशिश करता रहे, अपना ज़्यादा से ज़्यादा वक़्त और ज़्यादा से ज़्यादा वसाइल फ़ारिग़ करे और इस काम के अन्दर लगाये तो “इत्तेबाअ” का कम से कम तक़ाज़ा पूरा होगा। अलबत्ता जहाँ तक “इताअत” का ताल्लुक़ है उसमें कोताही क़ाबिले क़ुबूल नहीं। जहाँ हुक्म दे दिया गया कि यह हलाल है, यह हराम है, यह फ़र्ज़ है, यह वाजिब है, वहाँ हुक्म अदूली (उल्लंघन) की गुंजाइश नहीं। अगर इताअत ही से इन्कार है तो इसे क़ुरान कुफ़्र क़रार दे रहा है।
इत्तेबाअ का मामला यह है कि नबी ﷺ का इत्तेबाअ करने वाला अल्लाह का महबूब बन जाता है। यहाँ इरशाद फ़रमाया कि ऐ नबी ﷺ! अहले ईमान से कह दीजिये कि अगर तुम अल्लाह से मोहब्बत करते हो तो मेरा इत्तेबाअ करो, मेरी पैरवी करो। देखो, मेरे शबो रोज़ क्या हैं? मेरी तवानईयाँ किन कामों पर लग रही हैं? दुनिया के अन्दर मेरी दिलचस्पियाँ क्या हैं? इन मामलात में तुम मेरी पैरवी करो। इसके नतीजे में तुम अल्लाह तआला के “मुहिब्ब” से बढ़ कर “महबूब” बन जाओगे और अल्लाह तुम्हारे गुनाह बख्श देगा। वह यक़ीनन ग़फ़ूर और रहीम है। बाक़ी इताअत तो अल्लाह और उसके रसूल ﷺ की हर सूरत करनी है। अगर यह इस इताअत से भी मुँह मोड़ें तो अल्लाह तआला को ऐसे काफ़िर पसंद नहीं हैं। क्योंकि इताअते रसूल ﷺ का इन्कार तो कुफ़्र हो गया। यहाँ सूरह आले इमरान के निस्फ़े अव्वल का सुलुसे अव्वल मुकम्मल हो गया। मैंने अर्ज़ किया था कि इस सूरह मुबारका की पहली 32 आयात तम्हीदी और उमूमी नौइयत की हैं। इनमें दीन के बड़े गहरे उसूल बयान हुए हैं, निहायत जामेअ दुआएँ तलक़ीन की गई हैं और मोहकमात और मुतशाबेहात का फ़र्क़ वाज़ेह किया गया है।
आयात 33 से 41 तक
اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰٓي اٰدَمَ وَنُوْحًا وَّاٰلَ اِبْرٰهِيْمَ وَاٰلَ عِمْرٰنَ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ 33 ۙ ذُرِّيَّةًۢ بَعْضُهَا مِنْۢ بَعْضٍ ۭ وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ 34ۚ اِذْ قَالَتِ امْرَاَتُ عِمْرٰنَ رَبِّ اِنِّىْ نَذَرْتُ لَكَ مَا فِيْ بَطْنِىْ مُحَرَّرًا فَتَقَبَّلْ مِنِّىْ ۚ اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 35 فَلَمَّا وَضَعَتْهَا قَالَتْ رَبِّ اِنِّىْ وَضَعْتُهَآ اُنْثٰى ۭ وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا وَضَعَتْ ۭ وَلَيْسَ الذَّكَرُ كَالْاُنْثٰى ۚ وَاِنِّىْ سَمَّيْتُهَا مَرْيَمَ وَاِنِّىْٓ اُعِيْذُھَابِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ الشَّيْطٰنِ الرَّجِيْمِ 36 فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُوْلٍ حَسَنٍ وَّاَنْۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَـنًا ۙ وَّكَفَّلَهَا زَكَرِيَّا ڝ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيْهَا زَكَرِيَّا الْمِحْرَابَ ۙ وَجَدَ عِنْدَھَا رِزْقًا ۚ قَالَ يٰمَرْيَـمُ اَنّٰى لَكِ ھٰذَا ۭ قَالَتْ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۭ اِنَّ اللّٰهَ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ 37 ھُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهٗ ۚ قَالَ رَبِّ ھَبْ لِيْ مِنْ لَّدُنْكَ ذُرِّيَّةً طَيِّبَةً ۚ اِنَّكَ سَمِيْعُ الدُّعَاۗءِ 38 فَنَادَتْهُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ وَھُوَ قَاۗىِٕمٌ يُّصَلِّيْ فِي الْمِحْرَابِ ۙ اَنَّ اللّٰهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحْيٰى مُصَدِّقًۢـا بِكَلِمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ وَسَيِّدًا وَّحَصُوْرًا وَّنَبِيًّا مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ 39 قَالَ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ غُلٰمٌ وَّقَدْ بَلَغَنِىَ الْكِبَرُ وَامْرَاَتِيْ عَاقِرٌ ۭ قَالَ كَذٰلِكَ اللّٰهُ يَفْعَلُ مَا يَشَاۗءُ 40 قَالَ رَبِّ اجْعَلْ لِّيْٓ اٰيَةً ۭ قَالَ اٰيَتُكَ اَلَّا تُكَلِّمَ النَّاسَ ثَلٰــثَةَ اَيَّامٍ اِلَّا رَمْزًا ۭوَاذْكُرْ رَّبَّكَ كَثِيْرًا وَّسَبِّحْ بِالْعَشِيِّ وَالْاِبْكَارِ 41ۧ
सूरह आले इमरान के निस्फ़े अव्वल का दूसरा हिस्सा 31 आयात पर मुश्तमिल है। इस हिस्से में ख़िताब बराहे रास्त नसारा से है और उन्हें बताया गया है कि यह जो तुमने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को मअबूद बना लिया है और तस्लीस (Trinity) का अक़ीदा गढ़ लिया है यह सब बातिल है। ईसाईयों के यहाँ दो तरह की तस्लीस राइज रही है: 1) ख़ुदा, मरयम और ईसा अलैहिस्सलाम और 2) ख़ुदा, रूहुल क़ुदुस और ईसा अलैहिस्सलाम। यहाँ पर वाज़ेह कर दिया गया कि यह जो तस्लीसें तुमने ईजाद कर ली हैं इनकी कोई बुनियाद नहीं है, यह तुम्हारी कज रवी है। तुमने गलत शक्ल इख़्तियार की है। हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम बहुत बुरगज़ीदा पैगम्बर थे। हाँ उनकी विलादत मौज्ज़ाना तरीक़े पर हुई है। लेकिन उनसे मुत्तसालन क़ब्ल हज़रत याहया अलैहिस्सलाम की विलादत भी तो मौज्ज़ाना हुई थी। वह भी कोई कम मौज्ज़ा नहीं है। और फिर हज़रत आदम अलैहिस्सलाम की विलादत भी तो बहुत बड़ा मौज्ज़ा है। अल्लाह ने आदम अलैहिस्सलाम को पैदा किया और उनसे नस्ले इंसानी का आगाज़ हुआ। चुनाँचे अगर किसी की मौज्ज़ाना विलादत अलुहियत (divinity) की दलील है तो क्या हज़रत आदम अलै० और हज़रत याहया अलै० भी इलाह हैं? तो यह सारी बहस इसी मौज़ू पर हो रही है।
आयत 33
“यक़ीनन अल्लाह ने चुन लिया आदम अलै० को, नूह अलै० को, आले इब्राहीम अलै० को और आले इमरान को तमाम जहाँ वालों पर।” | اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰٓي اٰدَمَ وَنُوْحًا وَّاٰلَ اِبْرٰهِيْمَ وَاٰلَ عِمْرٰنَ عَلَي الْعٰلَمِيْنَ 33 ۙ |
इस्तफ़ाअ के मायने मुन्तखब करने या चुन लेने (selection) के हैं। ज़ेरे मुताअला आयत से मुतबादर (ज़ाहिर) होता है कि हज़रत आदम अलै० का भी “इस्तफ़ाअ” हुआ है। इसमें उन लोगों के लिये एक दलील मौजूद है जो तख्लीक़े आदम के ज़िमन में यह नज़रिया रखते हैं कि पहले एक नौ (species) वजूद में आयी थी और अल्लाह ने उस नौ के एक फ़र्द को चुन कर उसमें अपनी रूह फूँकी तो वह आदम अलै० बन गये। चुनाँचे वह भी चुनिन्दा (selected) थे। इस्तफ़ाअ के एक आम मायने भी होते हैं, यानि पसंद कर लेना। इन मायनों में आयत का मफ़हूम यह होगा कि अल्लाह तआला ने आदम अलै० को और नूह अलै० को और इब्राहीम अलै० के खानदान को और इमरान के खानदान को तमाम जहान वालों पर तरजीह देकर पसंद कर लिया। तारीख बनी इसराइल में “इमरान” दो अज़ीम दो शख्सियतों के नाम हैं। हज़रत मूसा अलै० के वालिद का नाम भी इमरान था और हज़रत मरयम अलै० के वालिद यानि हज़रत ईसा अलै० के नाना का नाम भी इमरान था। यहाँ पर गालिबन हज़रत मूसा अलै० के वालिद मुराद हैं। लेकिन आगे चूँकि हज़रत मरयम अलै० और ईसा अलै० का तज़किरा आ रहा है, लिहाज़ा ऐन मुमकिन है कि यहाँ पर हज़रत मरयम अलै० के वालिद की तरफ़ इशारा हो।
आयत 34
“यह एक-दूसरे की औलाद से हैं।” | ذُرِّيَّةًۢ بَعْضُهَا مِنْۢ بَعْضٍ ۭ |
हज़रत नूह अलै० हज़रत आदम अलै० की औलाद से हैं, हज़रत इब्राहीम अलै० हज़रत नूह अलै० की औलाद से हैं, और फिर हज़रत इब्राहीम अलै० का पूरा खानदान बनी इस्माइल, बनी इसराइल और आले इमरान उनकी औलाद में से हैं।
“और अल्लाह सुनने वाला, जानने वाला है।” | وَاللّٰهُ سَمِيْعٌ عَلِيْمٌ 34ۚ |
आयत 35
“जब कहा इमरान की बीवी ने कि ऐ मेरे रब! जो बच्चा मेरे पेट में है इसको मैं तेरी ही नज़र करती हूँ, हर ज़िम्मेदारी से छुड़ा कर” | اِذْ قَالَتِ امْرَاَتُ عِمْرٰنَ رَبِّ اِنِّىْ نَذَرْتُ لَكَ مَا فِيْ بَطْنِىْ مُحَرَّرًا |
इमरान की बीवी यानि हज़रत मरयम अलै० की वालिदा बहुत ही नेक, मुत्तक़ी और ज़ाहिदा थीं। जब उनको हमल हुआ तो उन्होंने अल्लाह तआला के हुज़ूर यह अर्ज़ किया कि परवरदिगार! जो बच्चा मेरे पेट में है, जिसे तू पैदा फ़रमा रहा है, इसे मैं तेरी ही नज़र करती हूँ। हम इस पर दुनयवी ज़िम्मेदारियों का कोई बोझ नहीं डालेंगे और इसको खालिसतन हैकल की ख़िदमत के लिये, दीन की ख़िदमत के लिये, तौरात की ख़िदमत के लिये वक़्फ़ कर देंगे। हम अपना भी कोई बोझ इस पर नहीं डालेंगे। उन्हें यह तवक्क़ो थी कि अल्लाह तआला बेटा अता फ़रमायेगा। مُحَرَّرًا के मायने हैं “इसे आज़ाद करते हुए।” यानि हमारी तरफ़ से इस पर कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी और इसे हम तेरे लिये खालिस कर देंगे।
“पस तू इसको मेरी तरफ़ से क़ुबूल फ़रमा!” | فَتَقَبَّلْ مِنِّىْ ۚ |
ऐ अल्लाह तू मेरी इस नज़र को शर्फे क़ुबूल अता फ़रमा।
“यक़ीनन तू सब कुछ सुनने वाला, सब कुछ जानने वाला है।” | اِنَّكَ اَنْتَ السَّمِيْعُ الْعَلِيْمُ 35 |
आयत 36
“तो जब उसे वज़अ हमल हुआ तो उसने कहा ऐ मेरे रब! यह तो मैं एक लड़की जन गयी हूँ।” | فَلَمَّا وَضَعَتْهَا قَالَتْ رَبِّ اِنِّىْ وَضَعْتُهَآ اُنْثٰى ۭ |
यानि मेरे यहाँ तो बेटी पैदा हो गयी है। मैं तो सोच रही थी कि बेटा पैदा होगा तो मैं उसको वक़्फ़ कर दूँगी। उस वक़्त तक हैकल के ख़ादिमों में किसी लड़की को क़ुबूल नहीं किया जाता था।
“और अल्लाह बेहतर जानता था कि उसने क्या जना है।” | وَاللّٰهُ اَعْلَمُ بِمَا وَضَعَتْ ۭ |
उसे क्या पता था कि उसने कैसी बेटी जनी है!
“और नहीं होगा कोई बेटा इस बेटी जैसा!” | وَلَيْسَ الذَّكَرُ كَالْاُنْثٰى ۚ |
इस जुम्ले के दोनों मायने किये गये। अव्वलन: अगर यह क़ौल माना जाये हज़रत मरयम अलै० की वालिदा का तो तर्जुमा यूँ होगा: “और लड़का, लड़की की मानिंद तो नहीं होता।” अगर लड़का होता तो मैं उसे ख़िदमत के लिये वक़्फ़ कर देती, यह तो लड़की हो गयी है। सानियन: “अगर इस क़ौल को अल्लाह की तरफ़ से माना जाये तो मफ़हूम यह होगा कि कोई बेटा ऐसा हो ही नहीं सकता जैसी बेटी तूने जन्म दी है। और अब मरयम अलै० की वालिदा का कलाम शुरू हुआ:
“और मैंने इसका नाम मरयम रखा है” | وَاِنِّىْ سَمَّيْتُهَا مَرْيَمَ |
“और (ऐ परवरदिगार!) मैं इसको और इसकी औलाद को तेरी पनाह में देती हूँ शैताने मरदूद (के हमलों) से।” | وَاِنِّىْٓ اُعِيْذُھَابِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ الشَّيْطٰنِ الرَّجِيْمِ 36 |
ऐ अल्लाह! तू इस लड़की (मरयम अलै०) को भी और इसकी आने वाली औलाद को भी शैतान के शर से अपनी हिफ़ाज़त में रखियो!
आयत 37
“तो क़ुबूल फ़रमा लिया उसको (यानि हज़रत मरयम अलै० को) उसके रब ने बड़ी ही उम्दगी के साथ” | فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُوْلٍ حَسَنٍ |
शर्फे क़ुबूल अता फ़रमाया बड़े ही ख़ूबसूरत अंदाज़ में।
“और उसको परवान चढ़ाया बहुत आला तरीक़े पर” | وَّاَنْۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَـنًا ۙ |
“और उसको ज़करिया अलै० की कफ़ालत में दे दिया।” | وَّكَفَّلَهَا زَكَرِيَّا ڝ |
हज़रत ज़करिया अलै० उनके सरपरस्त मुक़र्रर हुए और उन्होंने हज़रत मरयम अलै० की कफ़ालत व तरबियत की ज़िम्मेदारी उठाई। वह हज़रत मरयम अलै० के खालू थे। आप अलै० वक़्त के नबी थे और इस्राइली इस्तलाह में हैकले सुलेमानी के काहिने आज़म (Chief Priest) भी थे।
“जब कभी भी ज़करिया अलै० उनके पास जाते थे मेहराब में” | كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيْهَا زَكَرِيَّا الْمِحْرَابَ ۙ |
“तो उनके पास रिज़्क़ पाते।” | وَجَدَ عِنْدَھَا رِزْقًا ۚ |
“मेहराब” से मुराद वह गोशा या हुजरा है जो हज़रत मरयम अलै० के लिये मख़सूस कर दिया गया था। हज़रत ज़करिया अलै० उनकी देख-भाल के लिये अक्सर उनके हुजरे में जाते थे। आप अलै० जब भी हुजरे में जाते तो देखते कि हज़रत मरयम अलै० के पास खाने-पीने की चीज़ें और बगैर मौसम के फ़ल मौजूद होते। बाज़ लोगों की राय यह भी है कि यहाँ रिज़्क़ से मुराद माद्दी खाना नहीं, बल्कि इल्म व हिकमत है कि जब हज़रत ज़करिया अलै० उनसे बात करते थे तो हैरान रह जाते थे कि इस लड़की को इस क़दर हिकमत और इतनी मार्फ़त कहाँ से हासिल हो गयी है?
“वह पूछते ऐ मरयम अलै०! तुम्हें यह चीज़ें कहाँ से मिलती हैं?” | قَالَ يٰمَرْيَـمُ اَنّٰى لَكِ ھٰذَا ۭ |
यह अन्वा व अक़साम के खाने और बेमौसमी फ़ल तुम्हारे पास कहाँ से आ जाते हैं? या यह इल्म व हिकमत और मार्फ़त की बातें तुम्हें कहाँ से मालूम होती हैं?
“वह कहती थीं कि यह सब अल्लाह की तरफ़ से है।” | قَالَتْ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۭ |
यह सब उसका फज़ल और और उसका करम है।
“यक़ीनन अल्लाह तआला जिसको चाहता है बेहिसाब अता करता है।” | اِنَّ اللّٰهَ يَرْزُقُ مَنْ يَّشَاۗءُ بِغَيْرِ حِسَابٍ 37 |
आयत 38
“(हज़रत ज़करिया अलै० को यह मुशाहिदा हुआ तो उन्होंने) उसी वक़्त अपने परवरदिगार से एक दुआ की। | ھُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهٗ ۚ |
“उन्होंने कहा: ऐ मेरे रब! तू मुझे भी अपनी जनाब से कोई पाकीज़ा औलाद अता फ़रमा दे।” | قَالَ رَبِّ ھَبْ لِيْ مِنْ لَّدُنْكَ ذُرِّيَّةً طَيِّبَةً ۚ |
हज़रत ज़करिया अलै० बहुत बूढ़े हो चुके थे, उनकी अहलिया भी बहुत बूढी हो चुकी थीं और सारी उम्र बाँझ रही थी और उनके यहाँ कोई औलाद नहीं हुई थी। यह मज़ामीन सूरह मरयम में ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान हुए हैं। मक्की दौर में जबकि मुस्लमान हिजरते हब्शा के लिये गये थे, तो वहाँ जाकर नाज्जाशी के दरबार में हज़रत जाफ़र رضی اللہ عنہ बिन अबी तालिब ने सूरह मरयम की आयात पढ़ कर सुनाई थीं। इस मुनास्बत से यह मज़ामीन सूरह मरयम में भी मिलते हैं। हज़रत ज़करिया अलै० सारी उम्र बेऔलाद रहे थे, लेकिन हज़रत मरयम अलै० के पास अल्लाह तआला की क़ुदरत का मुशाहिदा करने के बाद औलाद की जो ख्वाहिश उनके अन्दर दबी हुई थी वह चिंगारी दफ्फ़तन भड़क उठी। उन्होंने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह! तू इस बच्ची को यह सब कुछ दे सकता है तो अपनी क़ुदरत से मुझे भी पाकीज़ा औलाद अता फ़रमा दे!
“यक़ीनन तू दुआ का सुनने वाला है।” | اِنَّكَ سَمِيْعُ الدُّعَاۗءِ 38 |
आयत 39
“तो फ़रिश्तों ने उन्हें निदा (आवाज़) दी जबकि वह अपने हुजरे में खड़े हुए नमाज़ पढ़ रहे थे” | فَنَادَتْهُ الْمَلٰۗىِٕكَةُ وَھُوَ قَاۗىِٕمٌ يُّصَلِّيْ فِي الْمِحْرَابِ ۙ |
“कि अल्लाह तआला तुम्हें बशारत देता है याहया अलै० की” | اَنَّ اللّٰهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحْيٰى |
“जो तस्दीक़ करेगा अल्लाह की तरफ़ से एक कलिमे की” | مُصَدِّقًۢـا بِكَلِمَةٍ مِّنَ اللّٰهِ |
इससे मुराद हज़रत ईसा अलै० हैं, जिनके लिये आयत 44 में “بِکَلِمِۃٍ مِنْہُ” का लफ्ज़ आ रहा है।
“और सरदार होगा और तजर्रुद (अविवाहित) की ज़िन्दगी गुज़ारेगा और नबी होगा सालेहीन में से।” | وَسَيِّدًا وَّحَصُوْرًا وَّنَبِيًّا مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ 39 |
यहाँ नोट कर लीजिये कि आखरी लफ्ज़ जो हज़रत याहया अलै० की मदह के लिये आया है वह “नबी” है।
आयत 40
“(ज़करिया अलै० ने) कहा: परवरदिगार! मेरे यहाँ लड़का कैसे हो जायेगा?” | قَالَ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ غُلٰمٌ |
अभी खुद दुआ कर रहे थे, लेकिन अल्लाह की तरफ़ से बेटे की बशारत मिलने पर गालिबन उसकी तौसीक़ और re-assurance चाह रहे हैं कि मेरे यहाँ कैसे बेटा हो जायेगा?
“जबकि मैं इन्तहाई बूढ़ा हो चुका हूँ” | وَّقَدْ بَلَغَنِىَ الْكِبَرُ |
“और मेरी बीवी बाँझ रही है।” | وَامْرَاَتِيْ عَاقِرٌ ۭ |
“(अल्लाह ने) फ़रमाया: इसी तरह अल्लाह जो चाहता है करता है।” | قَالَ كَذٰلِكَ اللّٰهُ يَفْعَلُ مَا يَشَاۗءُ 40 |
उसे असबाब की अहतियाज नहीं है। असबाब उसके मोहताज हैं, अल्लाह असबाब का मोहताज नहीं है।
आयत 41
“उन्होंने अर्ज़ किया: परवरदिगार! मेरे (इत्मिनान के) लिये कोई निशानी मुक़र्रर कर दे।” | قَالَ رَبِّ اجْعَلْ لِّيْٓ اٰيَةً ۭ |
मुझे मालूम हो जाये कि वाक़ई ऐसा होना है और यह कलाम जो मैं सुन रहा हूँ वाक़िअतन तेरी तरफ़ से है।
“(अल्लाह ने) फ़रमाया: तुम्हारे लिये निशानी यह है कि अब तुम तीन दिन तक लोगों से गुफ्तगू नहीं कर सकोगे सिवाये इशारे-किनारे के।” | قَالَ اٰيَتُكَ اَلَّا تُكَلِّمَ النَّاسَ ثَلٰــثَةَ اَيَّامٍ اِلَّا رَمْزًا ۭ |
यानि उनकी क़ुव्वते गोयाई सल्ब (बोलने की क्षमता बन्द) हो गयी और अब वह तीन दिन किसी से बात नहीं कर सकते थे।
“और (अपने दिल में) अपने रब को कसरत से याद करते रहो” | وَاذْكُرْ رَّبَّكَ كَثِيْرًا |
“और तस्बीह किया करो शाम के वक़्त भी और सुबह के वक़्त भी।” | وَّسَبِّحْ بِالْعَشِيِّ وَالْاِبْكَارِ 41ۧ |
आयात 42 से 54 तक
وَاِذْ قَالَتِ الْمَلٰۗىِٕكَةُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفٰىكِ عَلٰي نِسَاۗءِ الْعٰلَمِيْنَ 42 يٰمَرْيَمُ اقْنُتِىْ لِرَبِّكِ وَاسْجُدِيْ وَارْكَعِيْ مَعَ الرّٰكِعِيْنَ 43 ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهِ اِلَيْكَ ۭ وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يُلْقُوْنَ اَقْلَامَھُمْ اَيُّھُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَ ۠وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يَخْتَصِمُوْنَ 44 اِذْ قَالَتِ الْمَلٰۗىِٕكَةُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللّٰهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِّنْهُ ڰ اسْمُهُ الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ وَجِيْهًا فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَ 45ۙ وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا وَّمِنَ الصّٰلِحِيْنَ 46 قَالَتْ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ وَلَدٌ وَّلَمْ يَمْسَسْنِىْ بَشَرٌ ۭقَالَ كَذٰلِكِ اللّٰهُ يَخْلُقُ مَا يَشَاۗءُ ۭ اِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ 47 وَيُعَلِّمُهُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ 48ۚ وَرَسُوْلًا اِلٰى بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ ڏ اَنِّىْ قَدْ جِئْتُكُمْ بِاٰيَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۙ اَنِّىْٓ اَخْلُقُ لَكُمْ مِّنَ الطِّيْنِ كَهَيْــــَٔــةِ الطَّيْرِ فَاَنْفُخُ فِيْهِ فَيَكُوْنُ طَيْرًۢ ا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۚ وَاُبْرِئُ الْاَكْمَهَ وَالْاَبْرَصَ وَاُحْىِ الْمَوْتٰى بِاِذْنِ اللّٰهِ ۚ وَاُنَبِّئُكُمْ بِمَا تَاْكُلُوْنَ وَمَا تَدَّخِرُوْنَ ۙفِيْ بُيُوْتِكُمْ ۭ اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ 49ۚ وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرٰىةِ وَلِاُحِلَّ لَكُمْ بَعْضَ الَّذِيْ حُرِّمَ عَلَيْكُمْ وَجِئْتُكُمْ بِاٰيَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۣ فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوْنِ 50 اِنَّ اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوْهُ ۭھٰذَا صِرَاطٌ مُّسْتَقِيْمٌ 51 فَلَمَّآ اَحَسَّ عِيْسٰى مِنْھُمُ الْكُفْرَ قَالَ مَنْ اَنْصَارِيْٓ اِلَى اللّٰهِ ۭ قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ نَحْنُ اَنْصَارُ اللّٰهِ ۚ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ ۚ وَاشْهَدْ بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ 52 رَبَّنَآ اٰمَنَّا بِمَآ اَنْزَلْتَ وَاتَّبَعْنَا الرَّسُوْلَ فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰهِدِيْنَ 53 وَمَكَرُوْا وَمَكَرَ اللّٰهُ ۭ وَاللّٰهُ خَيْرُ الْمٰكِرِيْنَ 54ۧ
हज़रत ज़करिया और हज़रत याहया अलैहिस्सलाम का क़िस्सा बयान हो गया कि अल्लाह तआला ने हज़रत ज़करिया अलै० को शदीद ज़ईफ़ी की उम्र में एक बाँझ और बूढ़ी औरत से हज़रत याहया अलै० जैसा बेटा दे दिया। तो क्या यह आम क़ानून के मुताबिक़ है? ज़ाहिर है यह भी तो मौज्ज़ा था। इसी तरह इससे ज़रा बढ़ कर एक मौज्ज़ा हज़रते मसीह अलै० की पैदाइश है कि उन्हें बगैर बाप के पैदा फ़रमा दिया। अब इसका ज़िक्र आ रहा है।
आयत 42
“और याद करो जबकि कहा फ़रिश्तों ने ऐ मरयम अलै०” | وَاِذْ قَالَتِ الْمَلٰۗىِٕكَةُ يٰمَرْيَمُ |
“यक़ीनन अल्लाह ने तुम्हें चुन लिया है और तुम्हें खूब पाक कर दिया है और तुम्हें तमाम जहान की ख्वातीन पर तरजीह दी है।” | اِنَّ اللّٰهَ اصْطَفٰىكِ وَطَهَّرَكِ وَاصْطَفٰىكِ عَلٰي نِسَاۗءِ الْعٰلَمِيْنَ 42 |
आयत 43
“ऐ मरयम अलै०! अपने रब की फ़रमा-बरदारी करती रहो” | يٰمَرْيَمُ اقْنُتِىْ لِرَبِّكِ |
“और सज्दा करती रहो और रुकूअ करती रहो रुकूअ करने वालों के साथ।” | وَاسْجُدِيْ وَارْكَعِيْ مَعَ الرّٰكِعِيْنَ 43 |
यानि नमाज़े बा-जमाअत के अन्दर शरीक हो जाया करो।
आयत 44
“यह गैब की ख़बरों में से है जो (ऐ मुहम्मद ﷺ!) हम आपको वही कर रहे हैं।” | ذٰلِكَ مِنْ اَنْۢبَاۗءِ الْغَيْبِ نُوْحِيْهِ اِلَيْكَ ۭ |
“और आप तो उनके पास मौजूद नहीं थे जबकि वह अपने क़लम फेंक रहे थे (यह तय करने के लिये) कि उनमें से कौन मरयम का कफील होगा।” | وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يُلْقُوْنَ اَقْلَامَھُمْ اَيُّھُمْ يَكْفُلُ مَرْيَمَ ۠ |
जब हज़रत मरयम अलै० को उनकी वालिदा ने हैकल की ख़िदमत के लिये वक़्फ़ किया तो हैकल के काहिनों में से हर एक यह चाहता था कि यह बच्ची मेरी तहवील में हो, इसकी तरबियत और परवरिश की सआदत मुझे हासिल हो जाये जिसे अल्लाह के नाम पर वक़्फ़ कर दिया गया है। चुनाँचे इसके लिये वह अपने क़लम फेंक कर किसी तरह क़ुर्रा अंदाज़ी कर रहे थे। इसमें अल्लाह ने हज़रत ज़करिया अलै० का नाम निकाल दिया। यहाँ अस्नाये कलाम में नबी अकरमﷺ को मुखातिब करके फ़रमाया जा रहा है कि आपﷺ तो उस वक़्त वहाँ नहीं थे जब वह क़ुर्रा अंदाज़ी से यह मामला तय कर रहे थे।
“और ना आप उस वक़्त उनके पास मौजूद थे जबकि वह आपस में झगड़ रहे थे।” | وَمَا كُنْتَ لَدَيْهِمْ اِذْ يَخْتَصِمُوْنَ 44 |
आयत 45
“याद करो जबकि फ़रिश्तों ने कहा ऐ मरयम अलै०! यक़ीनन अल्लाह तआला तुम्हें बशारत दे रहा है अपनी तरफ़ से एक कलिमे की” | اِذْ قَالَتِ الْمَلٰۗىِٕكَةُ يٰمَرْيَمُ اِنَّ اللّٰهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٍ مِّنْهُ ڰ |
तुम्हें अल्लाह तआला एक ऐसी हस्ती की विलादत की खुशखबरी दे रहा है जो उसकी जानिब से एक ख़ास कलिमा होगा।
“उसका नाम होगा अल-मसीह, ईसा, मरयम का बेटा” | اسْمُهُ الْمَسِيْحُ عِيْسَى ابْنُ مَرْيَمَ |
“मरतबे वाला होगा दुनिया में भी और आख़िरत में भी और अल्लाह के बहुत ही मुक़र्रबीन बारगाह में से होगा।” | وَجِيْهًا فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ وَمِنَ الْمُقَرَّبِيْنَ 45ۙ |
आयत 46
“और वह लोगों से गुफ्तगू करेगा गोद में भी और पूरी उम्र का होकर भी” | وَيُكَلِّمُ النَّاسَ فِي الْمَهْدِ وَكَهْلًا |
कहुलत चालीस बरस के बाद आती है और हज़रत मसीह अलै० का रफ़ा-ए-समावी 33 बरस की उम्र में हो गया था। गोया इस आयत का तक़ाज़ा अभी पूरा नहीं हुआ है। और इससे अंदाज़ा कर लीजिये कि यह बात कहने की ज़रूरत क्या थी? पूरी उम्र को पहुँच कर तो सभी बोलते हैं, यहाँ इसका इशारा क्यों किया गया? इसलिये ताकि हमें मालूम हो जाये की हज़रत मसीह अलै० पर मौत अभी वारिद नहीं हुई, बल्कि वह वापस आयेंगे, दुनिया में दोबारा उतरेंगे, फिर उनकी कहुलत की उम्र भी होगी। वह शादी भी करेंगे, उनकी औलाद भी होगी और उनके ज़रिये से अल्लाह तआला निज़ामे ख़िलाफ़त अला मिन्हाजन्नबुवा को पूरी दुनिया में क़ायम करेगा।
“और वह हमारे नेकोकार बन्दों में से होगा।” | وَّمِنَ الصّٰلِحِيْنَ 46 |
आयत 47
“(हज़रत मरयम अलै० ने यह बात सुनी तो तअज्जुब से) बोली: ऐ अल्लाह! मेरे औलाद कैसे हो जायेगी जबकि मुझे तो किसी मर्द ने हाथ तक नहीं लगाया!” | قَالَتْ رَبِّ اَنّٰى يَكُوْنُ لِيْ وَلَدٌ وَّلَمْ يَمْسَسْنِىْ بَشَرٌ ۭ |
“फ़रमाया: इसी तरह अल्लाह तआला तख्लीक़ फ़रमाता है जो कुछ चाहता है।” | قَالَ كَذٰلِكِ اللّٰهُ يَخْلُقُ مَا يَشَاۗءُ ۭ |
वह अपने बनाये हुए क़वानीने फ़ितरत का पाबन्द नहीं है। अगरचे आम विलादत इसी तरह होती है कि उसमें बाप का भी हिस्सा होता है और माँ का भी, लेकिन अल्लाह तआला इन असबाब और वसाइल व ज़राये का मोहताज नहीं है, वह जैसे चाहे पैदा करता है।
“वह तो जब किसी अम्र का फ़ैसला कर लेता है तो उससे कहता है हो जा तो वह हो जाता है।” | اِذَا قَضٰٓى اَمْرًا فَاِنَّمَا يَقُوْلُ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ 47 |
आयत 48
“और अल्लाह तआला उसको सिखायेगा किताब और हिकमत भी और तौरात और इन्जील भी।” | وَيُعَلِّمُهُ الْكِتٰبَ وَالْحِكْمَةَ وَالتَّوْرٰىةَ وَالْاِنْجِيْلَ 48ۚ |
यहाँ पर चार चीज़ों का ज़िक्र आया है जिनकी अल्लाह तआला ने हज़रत मसीह अलै० को तालीम दी: किताब और हिकमत और तौरात और इन्जील। इन चार चीज़ों के माबैन जो तीन “و” आये हैं उनमें से दो वावे अतफ़ हैं, जबकि दरमियानी “و” वावे तफ़सीर है। इस तरह आयत का मफ़हूम यह होगा कि “अल्लाह उनको सिखायेगा किताब और हिकमत यानि तौरात और इन्जील।” इसलिये कि तौरात में सिर्फ़ अहकाम थे, हिकमत नहीं थी और इन्जील में सिर्फ़ हिकमत है, अहकाम नहीं हैं। यही वह नुक्ता है जिसको समझ लेने से यह गुत्थी हल होती है और इसे समझे बगैर लोगों के ज़हनों में उलझनें रहती हैं।
आयत 49
“और उसको रसूल बना कर भेजेगा बनी इसराइल की तरफ़” | وَرَسُوْلًا اِلٰى بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ ڏ |
अब यह जो दो ब-यक वक़्त आने वाली (contemporary) इस्तलाहात हैं इनको नोट कर लीजिये। हज़रत याहया अलै० के बारे में तमाम तौसीफ़ी कलिमात के बाद आखरी बात यह फ़रमायी: {وَّنَبِيًّا مِّنَ الصّٰلِحِيْنَ} (आयत:39) “नबी होंगे सालिहीन में से।” जबकि हज़रत ईसा अलै० के बारे में फ़रमाया: {وَرَسُوْلًا اِلٰى بَنِىْٓ اِسْرَاۗءِيْلَ ڏ } यानि बनी इसराइल की तरफ़ रसूल बन कर आयेंगे। नबी और रसूल में यह फ़र्क़ नोट कर लीजिये कि हज़रत याहया अलै० सिर्फ़ नबी थे इसलिये वह क़त्ल भी कर दिये गये, जबकि हज़रत ईसा अलै० रसूल थे और रसूल क़त्ल नहीं हो सकते, इसलिये उन्हें ज़िन्दा आसमान पर उठा लिया गया। यह बहुत अहम मज़मून है। मुताअला क़ुराने हकीम के दौरान इसके और भी हवाले आयेंगे।
“(चुनाँचे हज़रत मसीह अलै० बनी इसराइल को दावत दी) कि मैं तुम्हारे पास तुम्हारे परवरदिगार की तरफ़ से निशानी लेकर आया हूँ” | اَنِّىْ قَدْ جِئْتُكُمْ بِاٰيَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۙ |
अभी तक गुफ्तगू हो रही थी कि हज़रत मरयम अलै० को अल्लाह तआला की तरफ़ से यह सारी खुशखबरियाँ दी गयीं। अब यूँ समझिये कि क़िस्सा मुख़्तसर, उनकी विलादत हुई, वह पले-बढ़े, यह सारी तारीख बीच में से हज़फ़ करके नक्शा खींचा जा रहा है कि अब हज़रत मसीह अलै० ने अपनी दावत का आगाज़ कर दिया। आप अलै० ने बनी इसराइल से कहा कि मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से निशानी लेकर आया हूँ।
“कि मैं तुम्हारे लिये मिट्टी से परिन्दे की मानिंद सूरत बनाता हूँ” | اَنِّىْٓ اَخْلُقُ لَكُمْ مِّنَ الطِّيْنِ كَهَيْــــَٔــةِ الطَّيْرِ |
“फिर मैं उसमें फूँक मरता हूँ तो वह बन जाता है उड़ता हुआ परिन्दा अल्लाह के हुक्म से।” | فَاَنْفُخُ فِيْهِ فَيَكُوْنُ طَيْرًۢ ا بِاِذْنِ اللّٰهِ ۚ |
यहाँ आप नोट करते जाइये कि हर मौज्ज़े के बाद “بِاِذْنِ اللہِ” फ़रमाया। यानि यह मेरा कोई दावा नहीं है, मेरा कोई कमाल नहीं है। यह जो कुछ है वह अल्लाह के हुक्म से है।
“और मैं शिफ़ा दे देता हूँ मादरज़ाद अंधे को भी और कोढ़ी को भी, और मैं मुर्दे को ज़िन्दा कर देता हूँ अल्लाह के हुक्म से।” | وَاُبْرِئُ الْاَكْمَهَ وَالْاَبْرَصَ وَاُحْىِ الْمَوْتٰى بِاِذْنِ اللّٰهِ ۚ |
“और मैं तुम्हें बता सकता हूँ जो कुछ तुम खाते हो और जो कुछ तुम अपने घरों में ज़खीरा करके रखते हो।” | وَاُنَبِّئُكُمْ بِمَا تَاْكُلُوْنَ وَمَا تَدَّخِرُوْنَ ۙفِيْ بُيُوْتِكُمْ ۭ |
“यक़ीनन उन तमाम चीज़ों में तुम्हारे लिये निशानी है अगर तुम ईमान लाने वाले हो।” | اِنَّ فِيْ ذٰلِكَ لَاٰيَةً لَّكُمْ اِنْ كُنْتُمْ مُّؤْمِنِيْنَ 49ۚ |
हज़रत मसीह अलै० ने अपनी रिसालत की सदाक़त और दलील के तौर पर यह तमाम मौज्ज़ात पेश फ़रमाये।
आयत 50
“और मैं तस्दीक़ करते हुए आया हूँ उसकी जो मेरे सामने मौजूद है तौरात में से” | وَمُصَدِّقًا لِّمَا بَيْنَ يَدَيَّ مِنَ التَّوْرٰىةِ |
“और (इसलिये आया हूँ) ताकि मैं हलाल ठहरा दूँ तुम पर उनमें से बाज़ चीज़ें जो तुम पर हराम कर दी गयी हैं।” | وَلِاُحِلَّ لَكُمْ بَعْضَ الَّذِيْ حُرِّمَ عَلَيْكُمْ |
यह असल में “सब्त” के हुक्म के बारे में इशारा है। जैसे हमारे यहाँ भी बाज़ मज़हबी मिज़ाज के लोगों में बड़ी सख्ती पैदा हो जाती है और वह दीन के अहकाम में गुलू करते चले जाते हैं, इसी तरह सब्त के हुक्म में यहूदियों ने इस हद तक गुलू कर लिया था कि उस रोज़ किसी मरीज़ के लिये दुआ कि अल्लाह उसे शिफ़ा दे दे, यह भी जायज़ नहीं समझते थे। वह कहते थे कि यह भी दुनिया का काम है। चुनाँचे वह इस मामले में एक इन्तहा तक पहुँच गये थे। हज़रत मसीह अलै० ने आकर उसकी वज़ाहत की कि इस तरह की चीज़ें सब्त के तक़ाज़ों में शामिल नहीं हैं।
“और मैं तुम्हारे पास लेकर आया हूँ निशानी तुम्हारे रब की तरफ से।” | وَجِئْتُكُمْ بِاٰيَةٍ مِّنْ رَّبِّكُمْ ۣ |
“पस अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो और मेरी इताअत करो।” | فَاتَّقُوا اللّٰهَ وَاَطِيْعُوْنِ 50 |
आयत 51
“यक़ीनन अल्लाह ही मेरा भी रब है और तुम्हारा भी रब है, पस उसी की बन्दगी करो।” | اِنَّ اللّٰهَ رَبِّيْ وَرَبُّكُمْ فَاعْبُدُوْهُ ۭ |
“यही सीधा रास्ता है।” | ھٰذَا صِرَاطٌ مُّسْتَقِيْمٌ 51 |
यही अल्फ़ाज़ सूरह मरयम (आयत 36) में भी वारिद हुए हैं।
आयत 52
“पस जब ईसा अलै० ने उनकी तरफ़ से कुफ़्र को भाँप लिया” | فَلَمَّآ اَحَسَّ عِيْسٰى مِنْھُمُ الْكُفْرَ |
“तो उन्होंने पुकार लगायी कि कौन है मेरा मददगार अल्लाह की राह में?” | قَالَ مَنْ اَنْصَارِيْٓ اِلَى اللّٰهِ ۭ |
यहाँ फिर दरमियानी अरसे का ज़िक्र छोड़ दिया गया है। बनी इसराइल को दावत देते हुए हज़रत मसीह अलै० को कईं साल बीत चुके थे। इस दावत से जब उलमा-ए-यहूद की मसनदों को ख़तरा लाहक़ हो गया और उनकी चौधराहटें खतरे में पड़ गयीं तो उन्होंने हज़रत मसीह अलै० की शदीद मुखालफ़त की। उस वक़्त तक यहूदियों पर उनके उलमा का असर व रसूख बहुत ज़्यादा था। जब आप अलै० ने उनकी तरफ़ से कुफ़्र की शिद्दत को महसूस किया कि अब यह ज़िद और मुखालफ़त पर तुल गये हैं, तो आप अलै० ने एक पुकार लगायी, एक निदा दी, एक दावते आम दी कि कौन है जो अल्लाह की राह में मेरे मददगार हैं? यानि अब जो कशाकश होने वाली है, जो तसादुम होने वाला है उसमें एक “हिज़बुल्लाह” बनेगी और एक “हिज़बुश्शैतान” होगी। अब कौन है जो मेरा मददगार हो अल्लाह की राह में इस जद्दो-जहद और कशाकश में? दीन का काम करने के लिये यही असल असास है। इसी बुनियाद पर कोई शख्स उठे कि मैं दीन का काम करना चाहता हूँ, कौन है कि जो मेरा साथ दे? यह जमात साज़ी का एक बिल्कुल तबई तरीक़ा होता है। एक दाई उठता है और उस दाई पर ऐतमाद करने वाले, उससे इत्तेफाक़ करने वाले लोग उसके साथी बन जाते हैं। यह लोग ज़ाती ऐतबार से उसके साथी नहीं होते, उसकी हुकूमत और सरदारी क़ायम करने के लिये नहीं, बल्कि अल्लाह की हुकूमत क़ायम करने के लिये और अल्लाह तआला के दीन के गलबे के लिये उसका साथ देते हैं।
“कहा हवारियों ने कि हम हैं अल्लाह के मददगार!” | قَالَ الْحَوَارِيُّوْنَ نَحْنُ اَنْصَارُ اللّٰهِ ۚ |
“हवारी” के असल मायने धोबी के हैं जो कपड़े को धो कर साफ़ कर देता है। यह लफ्ज़ फिर आगे बढ़ कर अपने अख्लाक़ और किरदार को साफ़ करने वालों के लिये इस्तेमाल होने लगा। हज़रत मसीह अलै० की तब्लीग ज़्यादातर गलैली झील के किनारों पर होती थी, जो समुन्दर की तरह बहुत बड़ी झील है। आप अलै० कभी वहाँ कपड़े धोने वाले धोबियों में तब्लीग करते थे और कभी मछलियाँ पकड़ने वाले मछियारों को दावत देते थे। आप अलै० उनसे फ़रमाया करते थे कि ऐ मछलियों का शिकार करने वालों! आओ मैं तुम्हें इन्सानों का शिकार करना सिखाऊँ।” आप अलै० ने धोबियों में तब्लीग की तो उनमें से कुछ लोगों ने अपने आप को पेश कर दिया कि हम आपकी जद्दो-जहद में अल्लाह के मददगार बनने को तैयार हैं। यह आप अलै० के अव्वलीन साथी थे जो “हवारी” कहलाते थे। इस तरह हवारी का लफ्ज़ साथी के मायने में इस्तेमाल होने लगा।
“हम ईमान लाये अल्लाह पर।” | اٰمَنَّا بِاللّٰهِ ۚ |
“और आप अलै० भी गवाह रहियेगा कि हम अल्लाह के फ़रमाबरदार हैं।” | وَاشْهَدْ بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ 52 |
आयत 53
“ऐ रब हमारे! हम ईमान ले आये उस पर जो तूने नाज़िल फ़रमाया” | رَبَّنَآ اٰمَنَّا بِمَآ اَنْزَلْتَ |
“और हम इत्तेबाअ कर रहे हैं तेरे रसूल का” | وَاتَّبَعْنَا الرَّسُوْلَ |
“पस तू हमारा नाम गवाहों में लिख ले।” | فَاكْتُبْنَا مَعَ الشّٰهِدِيْنَ 53 |
यही लफ्ज़ “गवाह” अब ईसाईयों के एक ख़ास फ़िरक़े की तरफ़ (Jehova’s Witnesses) से इख़्तियार किया गया है। लफ्ज़ यहवा (Jehova) इब्रानी में ख़ुदा के लिये आता है। यानि यह लोग अपने आप को “ख़ुदा के गवाह” कहते हैं। सूरतुल बक़रह की आयत 143 हम पढ़ आये हैं:
“और (ऐ मुस्लमानों!) इसी तरह तो हमने तुम्हें एक उम्मते वस्त बनाया है ताकि तुम लोगों पर गवाह हो और रसूलﷺ तुम पर गवाह हो।” | وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا ۭ |
तो यह लफ्ज़ “शाहिद” (गवाह) क़दीम है और इस्लामी हिकमत और इस्लाम की मुस्तलाहात में इसकी एक हैसियत है।
आयत 54
“अब उन्होंने भी चालें चलीं और अल्लाह ने भी चाल चली।” | وَمَكَرُوْا وَمَكَرَ اللّٰهُ ۭ |
यहूद के उलमा और फ़रेसी हज़रत मसीह अलै० के खिलाफ़ मुख्तलिफ़ चालें चल रहे थे कि किसी तरह यह क़ानून की गिरफ्त में आ जायें और उनका काम तमाम कर दिया जाये। उन लोगों ने आँजनाब अलै० को मुरतद और वाजिबुल क़त्ल क़रार दे दिया था, लेकिन मुल्क पर सियासी इक़तदार चूँकि रूमियों का था लिहाज़ा रूमी गवर्नर की तौसीक़ (sanction) के बगैर किसी को सज़ाए मौत नहीं दी जा सकती थी। मुल्क का बादशाह अगरचे एक यहूदी था लेकिन उसकी हैसियत कठपुतली बादशाह की थी, जैसे अंग्रेज़ी हुकूमत के तहत मिस्र के शाह फ़ारूक़ होते थे। यहूद की मज़हबी अदालतें मौजूद थीं जहाँ उनके उलमा, मुफ़्ती और फ़रेसी बैठ कर फ़ैसले करते थे, और अगर वह सज़ाए मौत का फ़ैसला दे देते थे तो उस फैसले की तन्फीद (execution) रूमी गवर्नर के ज़रिये होती थी। इस सूरते हाल में उलमाये यहूद के हाथ बंधे हुए थे और वह हज़रत मसीह अलै० को रूमी क़ानून की ज़द में लाने के लिये अपनी सी चालें चल रहे थे। वह आँजनाब अलै० से इस तरह के उल्टे-सीधे सवालात करते कि आप अलै० के जवाबात से यह साबित किया जा सके कि यह शख्स रूमी हुकूमत का बागी है।
यहूद की इन चालों का तोड़ करने के लिये अल्लाह ने अपनी चाल चली। अब अल्लाह की क्या चाल क्या थी? इसकी तफ़सील क़ुरान या हदीस में नहीं है, बल्कि “इन्जील बरनबास” में है जो पॉप की लाइब्रेरी से बरामद हुई थी। हज़रत मसीह अलै० के हवारियों में से एक हवारी यहूदा को यहूद ने रिश्वत देकर इस बात पर राज़ी कर लिया था कि वह आप अलै० की मुखबरी करके गिरफ्तार कराये। अल्लाह तआला ने उसी गद्दार हवारी की शक्ल हज़रत मसीह अलै० की सी बदल दी और वह खुद गिरफ्तार होकर सूली चढ़ गया। हज़रत मसीह अलै० पर वह हाथ डाल ही नहीं सके। हज़रत मसीह अलै० एक बाग़ में रूपोश थे और बाग़ के अन्दर बनी हुई एक कोठरी में रात के वक़्त इबादत में मशगूल थे, जबकि आप अलै० के बारह हवारी बहार मौजूद थे। उस वक़्त वह शख्स वहाँ से चुपके से सटक लिया गया और जाकर सिपाहियों को ले आया ताकि आप अलै० को गिरफ्तार करा सके। यह रूमी सिपाही थे और क़न्दीलें (लालटेन) लेकर आये थे। उसने सिपाहियों से कहा था कि मैं अन्दर जाऊँगा, जिस शख्स को मैं कहूँ “ऐ हमारे उस्ताद” बस उसी को पकड़ लेना, वही मसीह अलै० हैं। इसलिये कि रूमियों को क्या पता था कि मसीह अलै० कौन हैं? यह शख्स जैसे ही कोठरी के अन्दर दाख़िल हुआ उसी वक़्त कोठरी की छत फटी और चार फ़रिश्तें नाज़िल हुए, जो हज़रत मसीह अलै० को लेकर चले गये। अल्लाह तआला ने उस शख्स की शक्ल तब्दील कर दी और हज़रत मसीह अलै० वाली शक्ल बना दी। अब यह घबरा कर बाहर निकला तो दूसरे हवारियों ने उससे कहा “ऐ हमारे उस्ताद!” यह सुनते ही सिपाहियों ने उसे क़ाबू कर लिया और असल में यही शख्स सूली चढ़ा है, ना कि हज़रत मसीह अलै०। यह सारी तफ़ासील इन्जील बरनबास में मौजूद हैं। यह शहादत दरहक़ीक़त नसारा ही के घर से हमें मिली है और क़ुरान का जो बयान है उसमें यह पूरी तरह फिट बैठती है कि “उन्होंने अपनी सी चालें चलीं और अल्लाह ने अपनी चाल चली।”
“और अल्लाह तआला बेहतरीन चाल चलने वाला है।” | وَاللّٰهُ خَيْرُ الْمٰكِرِيْنَ 54ۧ |
आयात 55 से 63 तक
اِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسٰٓى اِنِّىْ مُتَوَفِّيْكَ وَرَافِعُكَ اِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَجَاعِلُ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْكَ فَوْقَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۚثُمَّ اِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَاَحْكُمُ بَيْنَكُمْ فِيْمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ 55 فَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَاُعَذِّبُھُمْ عَذَابًا شَدِيْدًا فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۡ وَمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ 56 وَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ فَيُوَفِّيْهِمْ اُجُوْرَھُمْ ۭ وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَ57 ذٰلِكَ نَتْلُوْهُ عَلَيْكَ مِنَ الْاٰيٰتِ وَالذِّكْرِ الْحَكِيْمِ 58 اِنَّ مَثَلَ عِيْسٰى عِنْدَ اللّٰهِ كَمَثَلِ اٰدَمَ ۭخَلَقَهٗ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ 59 اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْمُمْتَرِيْنَ 60 فَمَنْ حَاۗجَّكَ فِيْهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ اَبْنَاۗءَنَا وَاَبْنَاۗءَكُمْ وَنِسَاۗءَنَا وَنِسَاۗءَكُمْ وَاَنْفُسَنَا وَاَنْفُسَكُمْ ۣ ثُمَّ نَبْتَهِلْ فَنَجْعَلْ لَّعْنَتَ اللّٰهِ عَلَي الْكٰذِبِيْنَ 61 اِنَّ ھٰذَا لَھُوَ الْقَصَصُ الْحَقُّ ۚ وَمَا مِنْ اِلٰهٍ اِلَّا اللّٰهُ ۭ وَاِنَّ اللّٰهَ لَھُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ 62 فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِالْمُفْسِدِيْنَ 63ۧ
आयत 55
“याद करो जब अल्लाह ने कहा ऐ ईसा अलै० अब मैं तुम्हें ले जाने वाला हूँ और अपनी तरफ़ उठा लेने वाला हूँ” | اِذْ قَالَ اللّٰهُ يٰعِيْسٰٓى اِنِّىْ مُتَوَفِّيْكَ وَرَافِعُكَ اِلَيَّ |
लफ्ज़ “مُتَوَفِّیْکَ” को क़ादयानियों ने अपने उस गलत अक़ीदे के लिये बहुत बड़ी बुनियाद बनाया है कि हज़रत मसीह अलै० की वफ़ात हो चुकी है। लिहाज़ा इस लफ्ज़ को अच्छी तरह समझ लीजिये। वफ़ा के मायने हैं पूरा करना। उर्दू में भी कहा जाता है वादा वफ़ा करो। इसी से बाबتفعیل मेंوَفّٰی ۔ یُوَفِّیْ ۔ تَوْفِیَۃً का मतलब है किसी को पूरा देना। जैसा कि आयत 25 में हम पढ़ आये हैं: { فَكَيْفَ اِذَا جَمَعْنٰھُمْ لِيَوْمٍ لَّا رَيْبَ فِيْهِ ۣ وَوُفِّيَتْ كُلُّ نَفْسٍ مَّا كَسَبَتْ وَھُمْ لَا يُظْلَمُوْنَ } “तो क्या हाल होगा जब हम उन्हें इकठ्ठा करेंगे उस दिन जिसके बारे में कोई शक नहीं! और हर जान को पूरा-पूरा बदला उसके आमाल का दे दिया जायेगा और उन पर कोई ज़्यादती नहीं होगी।” बाब تفعّلमेंتَوَفّٰی ۔ یَتَوَفّٰی का मायना होगा किसी को पूरा-पूरा ले लेना। और यह लफ्ज़ गोया ब-तमामो कमाल मुन्तबिक़ होता है हज़रत मसीह अलै० पर कि जिनको अल्लाह तआला उनके जिस्म और जान समेत दुनिया से ले गया। हम जब कहते हैं कि कोई शख्स वफ़ात पा गया तो यह इस्तआरतन कहते हैं। इसलिये कि उसका जिस्म तो यहीं रह गया सिर्फ़ जान गयी है। और यही लफ्ज़ क़ुरान (अज़ ज़ुमर:42) में नींद के लिये भी आया है: { اَللّٰهُ يَتَوَفَّى الْاَنْفُسَ حِيْنَ مَوْتِهَا وَالَّتِيْ لَمْ تَمُتْ فِيْ مَنَامِهَا ۚ } “वह अल्लाह ही है जो मौत के वक़्त रूहें क़ब्ज़ कर लेता है और जो अभी नहीं मरा उसकी रूह नींद में क़ब्ज़ कर लेता है।” इसलिये कि नींद में भी इन्सान से खुदशऊरी निकल जाती है, अगरचे वह ज़िन्दा होता है। रूह का ताल्लुक़ खुदशऊरी के साथ है। फिर जब इन्सान मरता है तो रूह और जान दोनों चली जाती हैं और सिर्फ़ जिस्म रह जाता है। क़ुरान हकीम ने इन दोनों हालतों (नींद और मौत) के लियेتوفّی का लफ्ज़ इस्तेमाल किया है। और सबसे ज़्यादा मुकम्मलتوفّی यह है कि अल्लाह तआला हज़रत मसीह अलै० को उनके जिस्म, जान और रूह तीनों समेत, ज्यों का त्यों, ज़िन्दा सलामत ले गया। हज़रत मसीह अलै० के रफ़ा-ए-समावी का यह अक़ीदा मुस्लमानों का है, और जहाँ तक लफ्ज़ “تَوَفّٰی” का ताल्लुक़ है उसमें क़तअन कोई ऐसी पेचीदा बात नहीं है जिससे कोई शख्स आप अलै० की मौत की दलील पकड़ सके, सिवाय इसके कि उन लोगों को बहकाना आसान है जिन्हें अरबी ज़बान की ग्रामर से वाक़फ़ियत नहीं है और वह एक ही वफ़ात जानते हैं, जबकि अज़रूए क़ुरान तीन क़िस्म की “वफ़ात” साबित होती है, जिसकी मैंने वज़ाहत की है। आयत ज़ेरे मुताअला के मुतज़क्किर बाला टुकड़े का तर्जुमा फिर कर लीजिये: “याद करो जब अल्लाह ने कहा कि ऐ ईसा अलै० मैं तुम्हें ले जाने वाला हूँ और तुम्हें अपनी तरफ़ उठा लेने वाला हूँ।”
“और तुम्हें पाक करने वाला हूँ उन लोगों से जिन्होंने (तुम्हारे साथ) कुफ्र किया है” | وَمُطَهِّرُكَ مِنَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا |
“और ग़ालिब करने वाला हूँ उन लोगों को जो तुम्हारी पैरवी करेंगे क़यामत तक उन लोगों पर जो तुम्हारा इन्कार कर रहे हैं।” | وَجَاعِلُ الَّذِيْنَ اتَّبَعُوْكَ فَوْقَ الَّذِيْنَ كَفَرُوْٓا اِلٰى يَوْمِ الْقِيٰمَةِ ۚ |
यहूद जिन्होंने हज़रत मसीह अलै० का इन्कार किया था उस वक़्त से लेकर मौजूदा ज़माने तक हज़रत मसीह अलै० के पैरोकारों से मार खाते रहे हैं। हज़रत मसीह अलै० 30 या 33 ईस्वी में आसमान पर उठा लिये गये थे और उसके बाद से यहूद पर ईसाईयों के हाथों मुसलसल अज़ाब के कोड़े बरसते रहे हैं। हज़रत मसीह अलै० के रफ़ा-ए-समावी के 40 बरस बाद 70 ईस्वी में टाइटस रूमी के हाथों हैकल सुलेमानी मस्मार हुआ और येरुशलम में एक लाख बीस हज़ार या एक लाख तैंतीस हज़ार यहूदी एक दिन में क़त्ल किये गये। गोया दो हज़ार बरस होने को हैं कि उनका काबा गिरा पड़ा है। उसकी सिर्फ़ एक दीवार (दीवारे गिरया) बाक़ी है जिस पर जाकर यह रो-धो लेते हैं।
हैकल सुलेमानी अव्वलन बख्तनसर ने छठी सदी क़ब्ल मसीह में मस्मार किया था और पूरे येरुशलम की ईंट से ईंट बजा दी थी। उसने लाखों यहूदी तहे तैग़ कर कर दिये थे और लाखों को क़ैदी बना कर अपने साथ बाबुल ले गया था। यह उनका असारत (captivity) का दौर कहलाता है। हज़रत उज़ैर अलै० के ज़माने में यह फ़लस्तीन वापस आये थे और “मअबूदे सानी” तामीर किया था, जो 70 ई० में मुन्हदिम कर दिया गया और उन्हें फ़लस्तीन से निकाल दिया गया। चुनाँचे यह मुख्तलिफ़ मुल्कों में मुन्तशिर हो गये। कोई रूस, कोई हिन्दुस्तान, कोई मिस्र और कोई यूरोप चला गया। इस तरह यह पूरी दुनिया में फ़ैल गये। यह उनका दौरे इन्तशार (Diaspora) कहलाता है। हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ि० के दौर में जब ईसाईयों ने एक मुआहिदे के तहत येरुशलम मुस्लमानों के हवाले कर दिया तो हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ि० ने उसे खुला शहर (open city) क़रार दे दिया कि यहाँ मुस्लमान, ईसाई और यहूदी सब आ सकते हैं। इस तरह उनकी येरुशलम में आमद-ओ-रफ्त शुरू हो गयी। अलबत्ता ईसाईयों ने इस मुआहिदे में यह शर्त लिखवाई थी कि यहूदियों को यहाँ आबाद होने या जायदाद खरीदने की इजाज़त नहीं होगी। चुनाँचे हज़रत उमर फ़ारूक़ रज़ि० के ज़माने से ख़िलाफ़ते उस्मानिया के दौर तक इस मुआहिदे पर अमल दरामद होता रहा और यहूदियों को फ़लस्तीन में आबाद होने की इजाज़त नहीं दी गयी। यहूदियों ने उस्मानी खुलफ़ा को बड़ी से बड़ी रिश्वतों की पेशकश की, लेकिन उन्हें इसमें कामयाबी ना हुई। चुनाँचे उन्होंने साज़िशें कीं और ख़िलाफ़ते उस्मानिया का ख़ात्मा करवा दिया। इसलिये कि उन्हें यह नज़र आता था कि इस ख़िलाफ़त के होते हुए यह मुमकिन नहीं होगा कि हम किसी तरह भी फ़लस्तीन में दोबारा आबाद हो सकें। उन्होंने 1917 ई० में बरतानवी वज़ीर बाल्फोर (Balfor) के ज़रिये “बाल्फ़ोर डिक्लेरेशन” मंज़ूर कराया, जिसमें उनको यह हक़ दिया गया कि वह फ़लस्तीन में आकर जायदाद भी खरीद सकते हैं और आबाद भी हो सकते हैं। इस डिक्लेरेशन की मंज़ूरी के 31 बरस बाद इसराइल की रियासत वजूद में आ गयी। यह तारीख ज़हन में रहनी चाहिये।
अब एक तरह से महसूस होता है कि यहूदी दुनिया भर में सियासत और इक़तदार पर छाये हुए हैं, तादाद में डेढ़ करोड़ से भी कम होने के बावजूद इस वक़्त दुनिया की मईशत का बड़ा हिस्सा उनके कंट्रोल में है। लेकिन मालूम होना चाहिये कि यह सब कुछ ईसाईयों की पुश्तपनाही की वजह से है। अगर ईसाई उनकी मदद ना करें तो अरब एक दिन में उनके टुकड़े उड़ा कर रख दें। इस वक़्त पूरी अमेरिकी हुकूमत उनकी पुश्त पर है, बल्कि White Anglo Saxon Protestants यानि अमेरिका और बिरतानिया तो गोया उनके ज़ेरे खरीद हैं। दूसरे ईसाई मुमालिक भी उनके इशारों पर नाचते हैं। बहरहाल अब भी सूरते हाल यह है कि ऊपर तो ईसाई ही हैं और यह मानवी तौर पर साज़िशी अंदाज़ में नीचे से उन्हें कंट्रोल कर रहे हैं।
“फिर मेरी तरफ़ ही तुम सबका लौटना होगा और मैं फ़ैसला कर दूँगा तुम्हारे माबैन उन बातों में जिनमें तुम इख्तिलाफ़ कर रहे थे।” | ثُمَّ اِلَيَّ مَرْجِعُكُمْ فَاَحْكُمُ بَيْنَكُمْ فِيْمَا كُنْتُمْ فِيْهِ تَخْتَلِفُوْنَ 55 |
आयत 56
“तो वह लोग जो कुफ़्र की रविश इख़्तियार करेंगे मैं उन्हें अज़ाब दूँगा बहुत सख्त अज़ाब दुनिया में भी और आख़िरत में भी।” | فَاَمَّا الَّذِيْنَ كَفَرُوْا فَاُعَذِّبُھُمْ عَذَابًا شَدِيْدًا فِي الدُّنْيَا وَالْاٰخِرَةِ ۡ |
“और नहीं होंगे उनके लिये कोई मददगार।” | وَمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ 56 |
आयत 57
“और जो ईमान लायेंगे और नेक अमल करेंगे” | وَاَمَّا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَعَمِلُوا الصّٰلِحٰتِ |
“तो वह उनको उनका पूरा अज्र देगा।” | فَيُوَفِّيْهِمْ اُجُوْرَھُمْ ۭ |
देखिये यहाँ फिर وَفّٰی ۔ یُوَفِّیْ आया है। यानि पूरा-पूरा दे देना।
“और अल्लाह ज़ालिमों को पसंद नहीं करता।” | وَاللّٰهُ لَا يُحِبُّ الظّٰلِمِيْنَ57 |
आयत 58
“यह हम आपको पढ़ कर सुना रहे हैं आयाते इलाहिया और पुर हिकमत याद दिहानी में से।” | ذٰلِكَ نَتْلُوْهُ عَلَيْكَ مِنَ الْاٰيٰتِ وَالذِّكْرِ الْحَكِيْمِ 58 |
यहाँ भी गोया पसमंज़र में हज़रत जिब्राईल अलै० हैं जो अल्लाह की आयात और ज़िक्रे हकीम नबी अकरमﷺ को पढ़ कर सुना रहे हैं।
आयत 59
“बेशक ईसा अलै० की मिसाल अल्लाह के नज़दीक आदम अलै० की सी है।” | اِنَّ مَثَلَ عِيْسٰى عِنْدَ اللّٰهِ كَمَثَلِ اٰدَمَ ۭ |
“उसको मिट्टी से बनाया फिर कहा हो जा तो वह हो गया।” | خَلَقَهٗ مِنْ تُرَابٍ ثُمَّ قَالَ لَهٗ كُنْ فَيَكُوْنُ 59 |
क़ुरान मजीद की यह आयत उन लोगों के हक़ में दलील है जो हज़रत आदम अलै० की खुसूसी तख्लीक़ (special creation) के क़ायल हैं। उनके नज़दीक हज़रत आदम अलै० का चुनाव इरतक़ा (evolution) के नतीजे में किसी नौ (species) के वजूद में आने के बाद उसके एक फ़र्द की हैसियत से नहीं हुआ बल्कि बराहे रास्त मिट्टी से तख्लीक़ किये गये। तख्लीक़े आदम अलै० के ज़िमन में यह दोनों नज़रिये मिलते हैं और दोनों के बारे में दलाइल भी मौजूद हैं। अभी यह कोई तयशुदा हक़ाइक़ नहीं हैं। हम गौरो फ़िक्र कर सकते हैं कि क़ुरान मजीद के किस मक़ाम पर किस नज़रिये के लिये कोई ताइद या तौसीक़ मिलती है। यहाँ फ़रमाया कि “अल्लाह के नज़दीक ईसा अलै. की मिसाल ऐसे ही है जैसे आदम अलै० की। उसे मिट्टी से बनाया और कहा हो जा तो वह हो गया।” तो अब अगर आदम अलै० का मामला खुसूसी तख्लीक़ का है कि बगैर बाप के और बगैर माँ के पैदा हो गये तो क्या वह “इलाह” बन गये? उनका खालिक़ तो अल्लाह है। इसी तरह हज़रत ईसा अलै० बगैर बाप के पैदा हुए तो ख़ुदा कैसे बन गये? उनकी वालिदा को हमल हुआ है, नौ महीने माँ के पेट में रहे हैं, फिर उनकी पैदाइश हुई है। तो तख्लीक़ में उनका मामला ऐजाज़ के ऐतबार से हज़रत आदम अलै० से तो कम ही रहा है। और इससे कमतर मामला हज़रत याहया अलै० का है कि इन्तहाई बुढ़ापे को पहुँचे हुए हज़रत ज़करिया अलै० और उनकी अहलिया जो सारी उम्र बाँझ रहीं, अल्लाह ने उनको औलाद दे दी। तो यह सारे मौज्ज़ात हैं, अल्लाह को इख़्तियार है जो चाहे करे। इसमें किसी की अलुहियत की दलील नहीं निकलती।
आयत 60
“यह हक़ है आपﷺ के रब की तरफ़ से, तो हरगिज़ ना हो जाना शक करने वालों में से।” | اَلْحَقُّ مِنْ رَّبِّكَ فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْمُمْتَرِيْنَ 60 |
यानि हज़रत मसीह अलै० के बारे में असल हक़ीक़त यही है जो क़ुरान ने वाज़ेह कर दी है, बाक़ी सब नसारा की अफ़साना तराज़ी है। और यह जो फ़रमाया: { فَلَا تَكُنْ مِّنَ الْمُمْتَرِيْنَ 60} इसमें ख़िताब बज़ाहिर रसूल अल्लाहﷺ से है मगर रुए सुखन मुखातबीन से है।
आयत 61
“तो (ऐ नबी ﷺ) जो भी इस मामले में आपﷺ से हुज्जतबाज़ी करे इसके बाद कि आपके पास सही इल्म आ चुका है” | فَمَنْ حَاۗجَّكَ فِيْهِ مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَكَ مِنَ الْعِلْمِ |
आपﷺ के पास तो “अल-इल्म” आ चुका है, आपﷺ जो बात कह रहे हैं अला वजहल बसीरा कह रहे हैं। इस सारी वज़ाहत के बाद भी अगर नसारा आपﷺ से हुज्जतबाज़ी कर रहे हैं और बहस व मुनाज़रा से किनाराकश होने को तैयार नहीं हैं तो उनको आखरी चैलेंज दे दीजिये कि यह आपﷺ के साथ “मुबाहला” कर लें। नजरान से नसारा का जो 70 अफ़राद पर मुश्तमिल वफ़द अबु हारसा और इब्ने अलक़मा जैसे बड़े-बड़े पादरियों की सरकरदगी में मदीना आया था, उससे दावत व तब्लीग और तज़कीर व तफ़हीम का मामला कईं दिन तक चलता रहा और फिर आख़िर में रसूल अल्लाहﷺ से कहा गया कि अगर यह इस क़दर समझाने पर भी क़ायल नहीं होते तो इन्हें मुबाहिले की दावत दे दीजिये।
“पस आप इनसे कह दीजिये कि आओ, हम बुलाते हैं अपने बेटों को और तुम बुलाओ अपने बेटों को” | فَقُلْ تَعَالَوْا نَدْعُ اَبْنَاۗءَنَا وَاَبْنَاۗءَكُمْ |
“और हम (बुलाते हैं) अपनी औरतों को और तुम (बुलाओ) अपनी औरतों को” | وَنِسَاۗءَنَا وَنِسَاۗءَكُمْ |
“और हम भी आ जाते हैं और तुम भी आ जाओ!” | وَاَنْفُسَنَا وَاَنْفُسَكُمْ ۣ |
“फिर हम सब मिल कर दुआ करें और लानत करें अल्लाह की उन पर कि जो झूठे हैं।” | ثُمَّ نَبْتَهِلْ فَنَجْعَلْ لَّعْنَتَ اللّٰهِ عَلَي الْكٰذِبِيْنَ61 |
हम सब जमा होकर अल्लाह से गिडगिड़ा कर दुआ करें और कहें कि ऐ अल्लाह! जो हममें से झूठा हो, उस पर लानत कर दे। यह मुबाहला है। और यह मुबाहला उस वक़्त होता है जबकि अहक़ाक़े हक़ हो चुके, बात पूरी वाज़ेह कर दी जाये। आपको यक़ीन हो कि मेरा मुख़ातिब बात पूरी तरह समझ गया है, सिर्फ़ ज़िद पर अड़ा हुआ है। फिर उस वक़्त यह मुबाहला आखरी शय होती है ताकि हक़ का हक़ होना ज़ाहिर हो जाये। अगर तो मुखालिफ़ को अपने मौक़फ़ की सदाक़त का यक़ीन है तो वह मुबाहला का चैलेंज क़ुबूल कर लेगा, और अगर उसके दिल में चोर है और वह जानता है कि हक़ बात तो यही है जो वाज़ेह हो चुकी है तो फिर वह मुबाहला से राहे फ़रार इख़्तियार करेगा। चुनाँचे यही हुआ। मुबाहला की दावत सुन कर वफ़द नजरान ने मोहलत माँगी कि हम मशवरा करके जवाब देंगे। मजलिसे मशावरत में उनके बड़ों ने होशमन्दी का मुज़ाहिरा करते हुए उनसे कहा: “ऐ गिरोह नसारा! तुम यक़ीनन दिलों में समझ चुके हो कि मुहम्मदﷺ नबी मुरसल हैं और हज़रत मसीह अलै० के मुताल्लिक़ उन्होंने साफ़-साफ़ फ़ैसलाकुन बातें कही हैं। तुमको मालूम है कि अल्लाह ने बनी इस्माइल में नबी भेजने का वादा किया था। कुछ बईद नहीं यह वही नबी हों। पस एक नबी से मुबाहला व मुलाअना का नतीजा किसी क़ौम के हक़ में यही निकल सकता है कि उनका कोई छोटा-बड़ा हलाकत या अज़ाबे इलाही से ना बचे और पैगम्बर की लानत का असर नस्लों तक पहुँच कर रहे। बेहतर यही है कि हम इनसे सुलह करके अपनी बस्तियों की तरफ़ रवाना हो जायें, क्योंकि सारे अरब से लड़ाई मोल लेने की ताक़त हममें नहीं। चुनाँचे उन्होंने मुक़ाबला छोड़ कर सालाना जिज़या देना क़ुबूल किया और सुलह करके वापस चले गये।
आयत 62
“यक़ीनन यही बिल्कुल सही सरगुज़श्त है।” | اِنَّ ھٰذَا لَھُوَ الْقَصَصُ الْحَقُّ ۚ |
“और नहीं है कोई मअबूद अल्लाह के सिवा।” | وَمَا مِنْ اِلٰهٍ اِلَّا اللّٰهُ ۭ |
“और यक़ीनन अल्लाह तआला ही ज़बरदस्त और कमाले हिकमत वाला है।” | وَاِنَّ اللّٰهَ لَھُوَ الْعَزِيْزُ الْحَكِيْمُ 62 |
आयत 63
“फिर अगर वह पीठ मोड़ लें तो अल्लाह तआला खूब जानता है मुफ्सिदों को।” | فَاِنْ تَوَلَّوْا فَاِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِالْمُفْسِدِيْنَ 63ۧ |
यहाँ आकर इस सूरह मुबारका के निस्फ़े अव्वल का पहला और दूसरा हिस्सा मुकम्मल हो गया, जो 32+31=63 आयात पर मुश्तमिल है।
आयात 64 से 71 तक
قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ تَعَالَوْا اِلٰى كَلِمَةٍ سَوَاۗءٍۢ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ اَلَّا نَعْبُدَ اِلَّا اللّٰهَ وَلَا نُشْرِكَ بِهٖ شَيْـــًٔـا وَّلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا اَرْبَابًا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقُوْلُوا اشْهَدُوْا بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ 64 يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تُحَاۗجُّوْنَ فِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ وَمَآ اُنْزِلَتِ التَّوْرٰىةُ وَالْاِنْجِيْلُ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِهٖ ۭاَفَلَا تَعْقِلُوْنَ 65 ھٰٓاَنْتُمْ ھٰٓؤُلَاۗءِ حَاجَجْتُمْ فِيْمَا لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ فَلِمَ تُحَاۗجُّوْنَ فِيْمَا لَيْسَ لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ ۭ وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ 66 مَا كَانَ اِبْرٰهِيْمُ يَهُوْدِيًّا وَّلَا نَصْرَانِيًّا وَّلٰكِنْ كَانَ حَنِيْفًا مُّسْلِمًا ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ 67 اِنَّ اَوْلَى النَّاسِ بِاِبْرٰهِيْمَ لَلَّذِيْنَ اتَّبَعُوْهُ وَھٰذَا النَّبِىُّ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۭوَاللّٰهُ وَلِيُّ الْمُؤْمِنِيْنَ 68 وَدَّتْ طَّاۗىِٕفَةٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يُضِلُّوْنَكُمْ ۭ وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ 69 يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَاَنْتُمْ تَشْهَدُوْنَ 70 يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَلْبِسُوْنَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ 71ۧ
सूरह आले इमरान के निस्फ़े अव्वल का तीसरा हिस्सा 38 आयात (64 से 101) पर मुश्तमिल है और यह सूरतुल बक़रह के निस्फ़े अव्वल के तीसरे हिस्से (रुकूअ 15 से 18) से बहुत मुशाबेह है जिनमें हज़रत इब्राहीम अलै० का ज़िक्र, बैतुल्लाह का ज़िक्र, अहले किताब को दावते ईमान और तहवीले क़िब्ला का हुक्म है। कम व बेश वही कैफ़ियत यहाँ मिलती है। फ़रमाया:
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आयत 64
“(ऐ नबी ﷺ) कह दीजिये: ऐ अहले किताब! आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हमारे और तुम्हारे दरमियान बिल्कुल बराबर है” | قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ تَعَالَوْا اِلٰى كَلِمَةٍ سَوَاۗءٍۢ بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمْ |
यहाँ “अहले किताब” के सीगा-ए-ख़िताब में यहूद व नसारा दोनों को जमा कर लिया गया, जबकि सूरतुल बक़रह में “یٰبَنِیْ اِسْرَآءِیْلَ” के सीगा-ए-ख़िताब में ज़्यादातर गुफ्तगू यहूद से थी। यहाँ अभी तक हज़रत ईसा अलै० का तज़किरा था और गोया सिर्फ़ नस्रानियों से ख़िताब था, अब अहले किताब दोनों के दोनों मुखातिब हैं कि एक ऐसी बात की तरफ़ आओ जो हमारे और तुम्हारे माबैन यक्साँ मुश्तरक और मुत्तफ़िक़ अलै है। वह क्या है?
“कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी ना करें” | اَلَّا نَعْبُدَ اِلَّا اللّٰهَ |
“और उसके साथ किसी चीज़ को शरीक ना ठहरायें” | وَلَا نُشْرِكَ بِهٖ شَيْـــًٔـا |
“और ना हम में से कोई एक दूसरे को अल्लाह के सिवा रब ठहराये।” | وَّلَا يَتَّخِذَ بَعْضُنَا بَعْضًا اَرْبَابًا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ ۭ |
यहूद व नसारा ने अपने अहबार व रुहबान का यह इख़्तियार तस्लीम कर लिया था कि वह जिस चीज़ को चाहें हलाल क़रार दे दें और जिस चीज़ को चाहें हराम ठहरा दें। यह गोया उनको रब मान लेने के मुतरादिफ़ है। जैसा कि सूरातुत्तौबा में फ़रमाया गया: {اِتَّخَذُوْٓا اَحْبَارَهُمْ وَرُهْبَانَهُمْ اَرْبَابًا مِّنْ دُوْنِ اللّٰهِ} (आयत:31)। मशहूर सखी हातिम ताई के बेटे अदी बिन हातिम रज़ि० (जो पहले ईसाई थे) एक मरतबा रसूल अल्लाह ﷺ की ख़िदमत में हाज़िर हुए और अर्ज़ किया कि क़ुरान कहता है: “उन्होंने अपने अहबार व रुहबान को अल्लाह के सिवा अपना रब बना लिया।” हालाँकि हमने तो उन्हें रब का दर्जा नहीं दिया। इस पर रसूल अल्लाह ﷺ ने फ़रमाया:
أَمَا اِنَّھُمْ لَمْ یَکُوْنُوْا یَعْبُدُوْنَھُمْ وَ لٰکِنَّھُمْ اِذَا اَحَلُّوْا لَھُمْ شَیْئًا اسْتَحَلُّوْہُ وَ اِذَا حَرَّمُوْا عَلَیْھِمْ شَیْئًا حَرَّمُوْہُ
“वह उनकी इबादत तो नहीं करते थे, लेकिन जब वह उनके लिये किसी शय को हलाल क़रार देते तो वह उसे हलाल मान लेते और जब वह किसी शय को हराम क़रार दे देते तो वह उसे हराम मान लेते।”
चुनाँचे हल्त व हुरमत का इख़्तियार सिर्फ़ अल्लाह का है, और जो कोई इस हक़ को इख़्तियार करता है वह गोया रब होने का दावा करता है। अब यह सारी क़ानून साज़ी जो शरीअत के खिलाफ़ की जा रही है यह हक़ीक़त के ऐतबार से उन लोगों की जानिब से खुदाई का दावा है जो इन क़ानून साज़ इदारों में बैठे हुए हैं, और जो वहाँ पहुँचने के लिये बेताब होते हैं और उसके लिये करोड़ों रुपया खर्च करते हैं। अगर तो पहले से यह तय हो जाये कि कोई क़ानून साज़ी किताब व सुन्नत के मनाफ़ी नहीं हो सकती तो फिर आप जायें और वहाँ जाकर क़ुरान व सुन्नत के दायरे के अन्दर-अन्दर क़ानून साज़ी कीजिये। लेकिन अगर यह तहदीद नहीं है और महज़ अक्सरियत की बुनियाद पर क़ानून साज़ी हो रही है तो यह शिर्क है।
अहले किताब से कहा गया कि तौहीद हमारे और तुम्हारे दरमियान मुश्तरक अक़ीदा है। इस तरह उन्हें गौर-ओ-फ़िक्र की दावत दी गयी कि वह मवाज़ ना करें कि इस क़द्रे मुश्तरक के मैयार पर इस्लाम पूरा उतरता है या यहूदियत और नस्रानियत?
“फिर अगर वह मुँह मोड़ लें तो (ऐ मुस्लमानों!) तुम कहो आप लोग गवाह रहें कि हम तो मुस्लमान हैं।” | فَاِنْ تَوَلَّوْا فَقُوْلُوا اشْهَدُوْا بِاَنَّا مُسْلِمُوْنَ 64 |
हमने तो अल्लाह की इताअत क़ुबूल कर ली है और हम मुतज़क्किर बाला तीनों बातों पर क़ायम रहेंगे। आपको अगर यह पसंद नहीं तो आपकी मर्ज़ी!
आयत 65
“ऐ किताब वालों! तुम इब्राहीम अलै० के बारे में क्यों झगड़ते हो हालाँकि तौरात और इन्जील नहीं नाज़िल की गयी मगर उसके बाद?” | يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تُحَاۗجُّوْنَ فِيْٓ اِبْرٰهِيْمَ وَمَآ اُنْزِلَتِ التَّوْرٰىةُ وَالْاِنْجِيْلُ اِلَّا مِنْۢ بَعْدِهٖ ۭ |
यह बात तुम भी जानते और मानते हो कि तौरात भी हज़रत इब्राहीम अलै० के बाद नाज़िल हुई और इन्जील भी। यहूदियत भी हज़रत इब्राहीम अलै० के बाद की पैदावार है और नस्रानियत भी। वह तो मुस्लमान थे, अल्लाह के फ़रमाबरदार थे, यहूदी या नसरानी तो नहीं थे!
“तो क्या तुम अक़्ल से काम नहीं लेते?” | اَفَلَا تَعْقِلُوْنَ 65 |
आयत 66
“देखो तुम लोग अब तक जो भी बहस मुबाहिसा करते रहे हो वह उन चीज़ों के बारे में है जिनका तुम्हें कुछ इल्म है” | ھٰٓاَنْتُمْ ھٰٓؤُلَاۗءِ حَاجَجْتُمْ فِيْمَا لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ |
“तो अब तुम ऐसी चीज़ों के ज़िमन में हुज्जत बाज़ी क्यों करते हो जिनके बारे में तुम्हारे पास कुछ भी इल्म नहीं है?” | فَلِمَ تُحَاۗجُّوْنَ فِيْمَا لَيْسَ لَكُمْ بِهٖ عِلْمٌ ۭ |
इन चीज़ों के बारे में तो तुम्हारे पास कोई दलील नहीं, कोई इल्मी बुनियाद नहीं।
“अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते।” | وَاللّٰهُ يَعْلَمُ وَاَنْتُمْ لَا تَعْلَمُوْنَ 66 |
आयत 67
“(तुम्हें भी अच्छी तरह मालूम है कि) इब्राहीम अलै० ना तो यहूदी थे ना नसरानी” | مَا كَانَ اِبْرٰهِيْمُ يَهُوْدِيًّا وَّلَا نَصْرَانِيًّا |
“बल्कि वह तो बिल्कुल यक्सु होकर अल्लाह के फ़रमाबरदार थे।” | وَّلٰكِنْ كَانَ حَنِيْفًا مُّسْلِمًا ۭ |
“और ना वह मुशरिकों में से थे।” | وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ 67 |
नज़ूले क़ुरान के वक़्त अरबों में जो तीन तबक़ात मौजूद थे, यानि मुशरिकीने अरब, यहूदी और नसरानी, वह तीनों अपने आप को हज़रत इब्राहीम अलै० से मंसूब करते थे। मुशरिकीने अरब हज़रत इस्माइल अलै० की नस्ल से होने की निस्बत से कहते थे कि हमारा रिश्ता इब्राहीम अलै० से है। इसी तरह यहूदी और नसरानी भी मिल्लते इब्राहिमी अलै० होने के दावेदार थे। लेकिन क़ुरान ने दो टूक अंदाज़ में फ़रमाया कि इब्राहीम अलै० ना तो यहूदी थी, ना नसरानी थे और ना ही मुशरिकीन में से थे, बल्कि मुस्लमान थे।
आयत 68
“यक़ीनन इब्राहीम अलै० से सबसे ज़्यादा क़ुरबत रखने वाले लोग तो वह हैं जिन्होंने उनकी पैरवी की” | اِنَّ اَوْلَى النَّاسِ بِاِبْرٰهِيْمَ لَلَّذِيْنَ اتَّبَعُوْهُ |
“और अब यह नबी (हज़रत मुहम्मद ﷺ) और जो इन पर ईमान लाये (इस निस्बत के ज़्यादा हक़दार हैं)।” | وَھٰذَا النَّبِىُّ وَالَّذِيْنَ اٰمَنُوْا ۭ |
“और अल्लाह इन मोमिनों का साथी है।” | وَاللّٰهُ وَلِيُّ الْمُؤْمِنِيْنَ 68 |
वह अहले ईमान का हामी व मददगार है, पुश्तपनाह है, हिमायती है।
आयत 69
“अहले किताब का एक गिरोह आरज़ूमन्द है कि (ऐ मुस्लमानों!) तुम्हें किसी तरह गुमराह कर दें।” | وَدَّتْ طَّاۗىِٕفَةٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ لَوْ يُضِلُّوْنَكُمْ ۭ |
“और वह नहीं गुमराह कर सकेंगे मगर अपने आप को, लेकिन उन्हें इसका शऊर नहीं है।” | وَمَا يُضِلُّوْنَ اِلَّآ اَنْفُسَھُمْ وَمَا يَشْعُرُوْنَ 69 |
आयत 70
“ऐ अहले किताब! तुम क्यों अल्लाह तआला की आयात का इन्कार करते हो जबकि तुम खुद गवाह हो?” | يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَاَنْتُمْ تَشْهَدُوْنَ 70 |
तुम क़ुरान और साहिबे क़ुरान ﷺ की हक्क़ानियत के क़ायल हो, उनको पहचान चुके हो, दिल में जान चुके हो!
आयत 71
“ऐ अहले किताब! तुम क्यों हक़ के ऊपर बातिल का मलमा (पोलिश) चढाते हो और हक़ को छुपाते हो जानते-बूझते?” | يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَلْبِسُوْنَ الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوْنَ الْحَقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ 71ۧ |
सूरतुल बक़रह के पाँचवे रुकूअ (आयत:42) में यह मज़मून बाअल्फ़ाज़ आया था: { وَلَا تَلْبِسُوا الْحَقَّ بِالْبَاطِلِ وَتَكْتُمُوا الْحَــقَّ وَاَنْتُمْ تَعْلَمُوْنَ} “يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ” के सीगा-ए-ख़िताब के साथ इन आयात में उसी तरह का दाईयाना अंदाज़ है जो सूरतुल बक़रह के पाँचवे रुकूअ में है।
आयात 72 से 80 तक
وَقَالَتْ طَّاۗىِٕفَةٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ اٰمِنُوْا بِالَّذِيْٓ اُنْزِلَ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَجْهَ النَّهَارِ وَاكْفُرُوْٓا اٰخِرَهٗ لَعَلَّھُمْ يَرْجِعُوْنَ 72ښ وَلَا تُؤْمِنُوْٓا اِلَّا لِمَنْ تَبِعَ دِيْنَكُمْ ۭ قُلْ اِنَّ الْهُدٰى ھُدَى اللّٰهِ ۙ اَنْ يُّؤْتٰٓى اَحَدٌ مِّثْلَ مَآ اُوْتِيْتُمْ اَوْ يُحَاۗجُّوْكُمْ عِنْدَ رَبِّكُمْ ۭ قُلْ اِنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللّٰهِ ۚ يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭوَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ 73ڌ يَّخْتَصُّ بِرَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ وَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ 74 وَمِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ مَنْ اِنْ تَاْمَنْهُ بِقِنْطَارٍ يُّؤَدِّهٖٓ اِلَيْكَ ۚ وَمِنْھُمْ مَّنْ اِنْ تَاْمَنْهُ بِدِيْنَارٍ لَّا يُؤَدِّهٖٓ اِلَيْكَ اِلَّا مَا دُمْتَ عَلَيْهِ قَاۗىِٕمًا ۭ ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْا لَيْسَ عَلَيْنَا فِي الْاُمِّيّٖنَ سَبِيْلٌ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ 75 بَلٰي مَنْ اَوْفٰى بِعَهْدِهٖ وَاتَّقٰى فَاِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِيْنَ 76 اِنَّ الَّذِيْنَ يَشْتَرُوْنَ بِعَهْدِ اللّٰهِ وَاَيْمَانِهِمْ ثَــمَنًا قَلِيْلًا اُولٰۗىِٕكَ لَا خَلَاقَ لَھُمْ فِي الْاٰخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُھُمُ اللّٰهُ وَلَا يَنْظُرُ اِلَيْهِمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيْهِمْ ۠ وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 77 وَاِنَّ مِنْھُمْ لَفَرِيْقًا يَّلْوٗنَ اَلْسِنَتَھُمْ بِالْكِتٰبِ لِتَحْسَبُوْهُ مِنَ الْكِتٰبِ وَمَا ھُوَ مِنَ الْكِتٰبِ ۚ وَيَقُوْلُوْنَ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ وَمَا ھُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۚ وَيَـقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ 78 مَا كَانَ لِبَشَرٍ اَنْ يُّؤْتِيَهُ اللّٰهُ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ ثُمَّ يَقُوْلَ لِلنَّاسِ كُوْنُوْا عِبَادًا لِّيْ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ وَلٰكِنْ كُوْنُوْا رَبّٰـنِيّٖنَ بِمَا كُنْتُمْ تُعَلِّمُوْنَ الْكِتٰبَ وَبِمَا كُنْتُمْ تَدْرُسُوْنَ 79ۙ وَلَا يَاْمُرَكُمْ اَنْ تَتَّخِذُوا الْمَلٰۗىِٕكَةَ وَالنَّبِيّٖنَ اَرْبَابًا ۭ اَيَاْمُرُكُمْ بِالْكُفْرِ بَعْدَ اِذْ اَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ 80ۧ
आयत 72
“और अहले किताब के एक गिरोह ने कहा कि इन अहले ईमान पर जो चीज़ नाज़िल की गयी है, उस पर ईमान लाओ सुबह के वक़्त और उसका इन्कार कर दो दिन के आख़िर में” | وَقَالَتْ طَّاۗىِٕفَةٌ مِّنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ اٰمِنُوْا بِالَّذِيْٓ اُنْزِلَ عَلَي الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا وَجْهَ النَّهَارِ وَاكْفُرُوْٓا اٰخِرَهٗ |
“शायद (इस तदबीर से) उनमें से भी कुछ फिर जायें।” | لَعَلَّھُمْ يَرْجِعُوْنَ 72ښ |
यहाँ यहूद की एक बहुत बड़ी साज़िश का ज़िक्र हो रहा है जो उनके एक गिरोह ने मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की दावत को नाकाम बनाने के लिये मुस्लमानों के खिलाफ़ तैयार की थी। इस साज़िश का पसमंज़र यह था कि दुनिया के सामने यह बात आ चुकी थी कि जो कोई एक मर्तबा दायरा-ए-इस्लाम में दाख़िल हो जाता था वह वापस नहीं आता था, चाहे उसे बदतरीन तशद्दुद का निशाना बनाया जाये, भूखा-प्यासा रखा जाये, हत्ता कि जान से मार दिया जाये। इस तरह इस्लाम की एक धाक बैठ गयी थी कि इसके अन्दर कोई ऐसी कशिश, ऐसी हक्क़ानियत और ऐसी मिठास है कि आदमी एक मर्तबा इस्लाम क़ुबूल कर लेने के बाद बड़ी से बड़ी क़ुरबानी देने को तैयार हो जाता है, लेकिन इस्लाम से दस्तबरदार होने (त्याग करने) को तैयार नहीं होता। इस्लाम की यह जो साख बन गयी थी इसको तोड़ने का तरीक़ा उन्होंने यह सोचा कि ऐसा करो सुबह के वक़्त ऐलान करो कि हम ईमान ले आये। सारा दिन मुहम्मद (ﷺ) की सोहबत में रहो और शाम को कह दो हमने देख लिया, यहाँ कुछ नहीं है, यह दूर के ढोल सुहाने हैं, हम तो अपने कुफ़्र में वापस जा रहे हैं, हमें यहाँ से कुछ नहीं मिला। इससे मुस्लमानों में से कुछ लोग तो समझेंगे कि इन्होंने साज़िश की होगी, लेकिन यक़ीनन कुछ लोग यह भी समझेंगे कि भई बड़े मुत्तक़ी लोग थे, मुत्ला श्याने हक़ (हक़ को चाहने वाले) थे, बड़े जज़्बे और बड़ी शान के साथ इन्होंने कलमा पढ़ा था और ईमान क़ुबूल किया था, फिर सारा दिन रसूल अल्लाह ﷺ की महफ़िल में बैठे रहे हैं, आख़िर इन्होंने कुछ ना कुछ तो देखा ही होगा जो वापस पलट गये। इस अंदाज़ से आम लोगों के दिलों में वस्वसा अंदाज़ी करना बहुत आसान काम है। चुनाँचे उन्होंने मुनाफ़िक़ाना शरारत की यह साज़िश तैयार की। इस्लाम में क़त्ले मुर्तद की सज़ा का ताल्लुक़ इसी से जुड़ता है। इस्लामी रियासत में इस तरह की साज़िशों का रास्ता रोकने के लिये यह सज़ा तजवीज़ की गयी है कि जो शख्स ईमान लाने के बाद फिर कुफ़्र में जायेगा तो क़त्ल कर दिया जायेगा, क्योंकि इस्लामी रियासत एक नज़रियाती (ideological) रियासत है, ईमान और इस्लाम ही तो उसकी बुनियादें हैं। चुनाँचे उसकी बुनियादों को कमज़ोर करने और उसकी जड़ों को खोदने वाली जो चीज़ भी हो सकती है उसका सद्दे बाब पूरी क़ुव्वत से करना चाहिये।
आयत 73
“और देखो किसी की बात ना मानना मगर उसी की जो तुम्हारे दीन की पैरवी करे।” | وَلَا تُؤْمِنُوْٓا اِلَّا لِمَنْ تَبِعَ دِيْنَكُمْ ۭ |
यानि इस साज़िशी गिरोह को यह ख़तरा भी था कि अगर हम जाकर चंद घंटे अल्लाह के रसूल ﷺ के पास गुज़ारेंगे तो कहीं ऐसा ना हो कि हममें से वाक़ई किसी को इंशराहे सद्र हो जाये और वह दिल से ईमान ले आये। लिहाज़ा वह तय करके गये कि देखो, उन पर ईमान नहीं लाना है, सिर्फ़ ईमान का ऐलान करना है। क़ुरान मजीद में यह शऊरी निफ़ाक़ की मिसाल है। यानि जो वक़्त उन्होंने अपने ईमान का ऐलान करने के बाद मुस्लमानों के साथ गुज़ारा उसमें वह क़ानूनन तो मुस्लमान थे, अगर इस दौरान कोई उनमें से मर जाता तो उसकी नमाज़े जनाज़ा भी पढ़ी जाती, लेकिन खुद उन्हें मालूम था कि हम मुस्लमान नहीं है। यह शऊरी निफ़ाक़ है, जबकि एक गैर शऊरी निफ़ाक़ है कि अन्दर ईमान ख़त्म हो चुका होता है मगर इन्सान समझता है कि मैं तो मोमिन हूँ, हालाँकि उसका किरदार और अमल मुनाफ़िक़ाना है और उसके अन्दर से ईमान की पूंजी ख़त्म हो चुकी है, जैसे दीमक किसी शहतीर (लकड़ी की कड़ी) को चट कर चुकी होती है लेकिन उसके ऊपर एक पर्दा (veneer) बहरहाल बरक़रार रहता है। शऊरी निफ़ाक़ और गैर शऊरी निफ़ाक़ के इस फ़र्क़ को समझ लेना चाहिये।
“(ऐ नबी ﷺ! इनसे) कह दीजिये कि असल हिदायत तो अल्लाह ही की हिदायत है” | قُلْ اِنَّ الْهُدٰى ھُدَى اللّٰهِ ۙ |
आगे यहूद के साज़िशी टोले के क़ौल का तसल्सुल है कि देखो ईमान मत लाना!
“मबादा किसी को वह शय दे दी जाये जो तुम्हें दी गयी थी” | اَنْ يُّؤْتٰٓى اَحَدٌ مِّثْلَ مَآ اُوْتِيْتُمْ |
यानि यह रिसालत व नबुवत और मज़हबी पेशवाई तो हमारी मीरास थी, हम अगर इन पर ईमान ले आयेंगे तो वह चीज़ हमसे इनको मुन्तक़िल हो जायेगी। लिहाज़ा मानना तो हरगिज़ नहीं है, लेकिन किसी तरह से इनकी हवा उखेड़ने के लिये हमें यह काम करना है।
“या तुम्हारे खिलाफ़ हुज्जत क़ायम करें तुम्हारे परवरदिगार के हुज़ूर।” | اَوْ يُحَاۗجُّوْكُمْ عِنْدَ رَبِّكُمْ ۭ |
“कह दीजिये कि फ़ज़ल तो कुल का कुल अल्लाह के हाथ में है” | قُلْ اِنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللّٰهِ ۚ |
“वह जिसको चाहता है दे देता है।” | يُؤْتِيْهِ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ |
उसने दो हज़ार बरस तक तुम्हें एक मंसब पर फाइज़ रखा, अब तुम उस मंसब के नाअहल साबित हो चुके हो, लिहाज़ा तुम्हें माज़ूल कर दिया गया है, और अब एक नयी उम्मत (उम्मते मुहम्मद ﷺ) को उस मक़ाम पर फाइज़ कर दिया गया है।
“और अल्लाह बहुत वुसअत वाला और जानने वाला है।” | وَاللّٰهُ وَاسِعٌ عَلِيْمٌ 73ڌ |
आयत 74
“वह मुख्तस (ख़ास) कर लेता है अपनी रहमत के लिये जिसको चाहता है।” | يَّخْتَصُّ بِرَحْمَتِهٖ مَنْ يَّشَاۗءُ ۭ |
“और अल्लाह बड़े फ़ज़ल का मालिक है।” | وَاللّٰهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيْمِ 74 |
अगली आयत में हिकमते दावत के ऐतबार से बहुत अहम नुक्ता मौजूद है कि बुरे से बुरे गिरोह के अन्दर भी कहीं ना कहीं कोई अच्छे अफ़राद लाज़िमन होते हैं। दाई के लिये ज़रूरी है कि वह उनका तज़किरा भी करता रहे कि उनमें अच्छे लोग भी हैं, ताकि ऐसे लोगों के दिलों के अन्दर नरमी पैदा हो। इसी तरह फ़र्द का मामला है कि बुरे से बुरे आदमी के अन्दर कोई अच्छाई भी मौजूद होती है। आप अगर उसे हक़ की दावत दे रहे हैं तो उसमें जो अच्छाई है उसको मानिये, ताकि उसे मालूम हो कि इसे मुझसे कोई दुश्मनी नहीं है, मेरी जो बात वाक़ई अच्छी है उसको यह तस्लीम कर रहा है, लेकिन जो बात गलत है उसको रद्द कर रहा है। इस तरह उसके दिल में कुशादगी पैदा होगी और वह आपकी बात सुनने पर आमादा होगा। फ़रमाया:
आयत 75
“और अहले किताब में से ऐसे लोग भी हैं कि अगर तुम उनके पास अमानत रखवा दो ढ़ेरो माल तो वह तुम्हें पूरा-पूरा वापस लौटा देंगे।” | وَمِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ مَنْ اِنْ تَاْمَنْهُ بِقِنْطَارٍ يُّؤَدِّهٖٓ اِلَيْكَ ۚ |
यानि उनमें अमानतदार लोग भी मौजूद हैं।
“और उनमें ऐसे भी हैं कि अगर तुम उनके पास एक दीनार भी अमानत रखवा दो तो वह तुम्हें वापस नहीं करेंगे” | وَمِنْھُمْ مَّنْ اِنْ تَاْمَنْهُ بِدِيْنَارٍ لَّا يُؤَدِّهٖٓ اِلَيْكَ |
“मगर जब तक कि तुम उसके सर पर खड़े रहो।” | اِلَّا مَا دُمْتَ عَلَيْهِ قَاۗىِٕمًا ۭ |
अगर तुम उसके सर पर सवार हो जाओ और उसको अदायगी पर मजबूर कर दो तब तो तुम्हारी अमानत वापस कर देगा, वरना नहीं देगा। उनमें से अक्सर का किरदार तो यही है, लेकिन अहले किताब में से जो थोड़े बहुत दयानतदार थे उनकी अच्छाई का ज़िक्र भी कर दिया गया। बिलफ़अल इस क़िस्म के किरदार के हामिल लोग ईसाईयों में तो मौजूद थे, यहूदियों में ना होने के बराबर थे, लेकिन “अहले किताब” के उन्वान से उनका ज़िक्र मुश्तरक तौर पर कर दिया गया। आगे ख़ास तौर पर यहूद का तज़किरा है कि उनमें यह बद-दियानती, बेईमानी और खयानत क्यों आ गयी है।
“यह इसलिये कि वह कहते हैं कि इन उम्मिय्यीन के मामले में हम पर कोई मलामत नहीं है।” | ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ قَالُوْا لَيْسَ عَلَيْنَا فِي الْاُمِّيّٖنَ سَبِيْلٌ ۚ |
यहूदियों का यह अक़ीदा तौरात में नहीं है, लेकिन उनकी असल मज़हबी किताब का दर्जा तौरात की बजाये तालमूद को हासिल है। यूँ समझिये कि तौरात तो उनके लिये “उम्मुल किताब” है, जबकि उनकी सारी शरीअत, क़वानीन वज़ाबत (मापदंड) और इबादात की सारी तफ़ासील तालमूद में हैं। और तालमूद में यह बात मौजूद है कि यहूदी के लिये यहूदी से झूठ बोलना हराम है, लेकिन गैर यहूदी से जैसे चाहो झूठ बोलो। यहूदी के लिये किसी यहूदी का माल हड़प करना हराम और नाजायज़ है, लेकिन गैर यहूदी का माल जिस तरह चाहो, धोखा, फ़रेब और बद-दियानती से हड़प करो। हम पर उसका कोई मुआखज़ा नहीं है। उनके नज़दीक इंसानियत का शर्फ़ सिर्फ़ यहूदियों को हासिल है और गैर यहूदी इन्सान हैं ही नहीं, यह असल में इन्सान नुमा हैवान (Goyems & Gentiles) हैं और इनसे फ़ायदा उठाना हमारा हक़ है, जैसा कि घोड़े को तांगे में जोतना और बेल को हल के अन्दर जोत लेना इन्सान का हक़ है। यहूदी यह अक़ीदा रखते हैं कि इन इन्सान नुमा हैवानों से हम जिस तरह चाहें लूट-खसोट का मामला करें और जिस तरह चाहें इन पर ज़ुल्मो-सितम करें, इस पर हमारी कोई पकड़ नहीं होगी, कोई मुआखज़ा नहीं होगा। अमेरिका में इस पर एक मूवी भी बनाई गयी है: “The Other Side of Israel” यह दस्तावेज़ी फिल्म वहाँ के ईसाईयों ने बनाई है और इसमें एक शख्स ने एक यहूदी कुतुबखाने में जाकर वहाँ उनकी किताबें निकाल-निकाल कर उनके हवाले से यहूदियों के नज़रियात को वाज़ेह किया है और यहूदियत का असल चेहरा दुनिया को दिखाया है। (अब इसी उन्वान से किताब भी शाया [पब्लिश] हो चुकी है।)
“और वह झूठ घड कर अल्लाह की तरफ़ मंसूब कर रहे हैं हालाँकि वह जानते हैं (कि अल्लाह ने ऐसी कोई बात नहीं फ़रमायी)।” | وَيَقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ 75 |
आयत 76
“क्यों नहीं! जो कोई भी अल्लाह तआला से किये हुए अपने अहद को पूरा करेगा और तक़वा की रविश इख़्तियार करेगा तो बेशक अल्लाह तआला को अहले तक़वा पसंद हैं।” | بَلٰي مَنْ اَوْفٰى بِعَهْدِهٖ وَاتَّقٰى فَاِنَّ اللّٰهَ يُحِبُّ الْمُتَّقِيْنَ 76 |
आयत 77
“यक़ीनन वह लोग जो अल्लाह तआला के अहद और अपनी क़समों को फ़रोख्त करते हैं हक़ीर सी क़ीमत पर” | اِنَّ الَّذِيْنَ يَشْتَرُوْنَ بِعَهْدِ اللّٰهِ وَاَيْمَانِهِمْ ثَــمَنًا قَلِيْلًا |
यानि जब वह देखते हैं कि लोग हमारी बात में कुछ शक कर रहे हैं तो ख़ुदा की क़सम खा कर कहते हैं कि ऐसा ही है।
“यह वह लोग हैं कि जिनके लिये कोई हिस्सा नहीं है आख़िरत में” | اُولٰۗىِٕكَ لَا خَلَاقَ لَھُمْ فِي الْاٰخِرَةِ |
“और ना अल्लाह उनसे कलाम करेगा” | وَلَا يُكَلِّمُھُمُ اللّٰهُ |
“और ना उनकी तरफ़ निगाह करेगा क़यामत के दिन” | وَلَا يَنْظُرُ اِلَيْهِمْ يَوْمَ الْقِيٰمَةِ |
“और ना उनको पाक करेगा” | وَلَا يُزَكِّيْهِمْ ۠ |
“और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है।” | وَلَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ 77 |
यह मज़मून भी तक़रीबन पूरा सूरतुल बक़रह (आयत 174) में आ चुका है।
आयत 78
“और उनमें एक गिरोह ऐसा भी है जो अपनी ज़बान को तोड़ता-मरोड़ता है किताब को पढ़ते हुए, ताकि तुम समझो कि (जो कुछ वह पढ़ रहे हैं) वह किताब में से है, हालाँकि वह किताब में से नहीं होता।” | وَاِنَّ مِنْھُمْ لَفَرِيْقًا يَّلْوٗنَ اَلْسِنَتَھُمْ بِالْكِتٰبِ لِتَحْسَبُوْهُ مِنَ الْكِتٰبِ وَمَا ھُوَ مِنَ الْكِتٰبِ ۚ |
उलमाए यहूद अल्फ़ाज़ को ज़रा सा इधर से उधर मरोड़ कर और मायने पैदा कर लेते थे। हम सूरतुल बक़रह में पढ़ चुके हैं कि यहूद से कहा गया “حِطَّۃٌ” कहो तो “حِنْطَۃٌ” कहने लगे। यानि बजाय इसके कि “ऐ अल्लाह हमारे गुनाह झाड़ दे” उन्होंने कहना शुरू कर दिया “हमें गेहूँ दे।” उन्हें तलक़ीन की गयी कि तुम कहो: “سَمِعْنَا وَ اَطَعْنَا” मगर उन्होंने कहा: “سَمِعْنَا وَ عَصَیْنَا”। इसी तरह का मामला वह तौरात को पढ़ते हुए भी करते थे। जब वह देखते कि जो साइल फ़तवा माँगने आया है उसकी पसंद कुछ और है जबकि तौरात का हुक्म कुछ और है तो वह अल्फ़ाज़ को तोड़-मरोड़ कर पढ़ देते कि देखो यह किताब के अन्दर मौजूद है, और इस तरह साइल को खुश करके उससे कुछ रक़म हासिल कर लेते।
“और वह कहते हैं यह अल्लाह की तरफ़ से है जबकि वह अल्लाह की तरफ़ से नहीं होता।” | وَيَقُوْلُوْنَ ھُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ وَمَا ھُوَ مِنْ عِنْدِ اللّٰهِ ۚ |
हम यह मज़मून सूरतुल बक़रह (आयत 79) में भी पढ़ चुके हैं।
“और वह अल्लाह पर झूठ बाँधते हैं जानते-बूझते।” | وَيَـقُوْلُوْنَ عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ وَھُمْ يَعْلَمُوْنَ 78 |
आयत 79
“किसी इन्सान के शायाने-शान नहीं है कि अल्लाह तआला तो उसको किताब, हिकमत और नबुवत अता फ़रमाये” | مَا كَانَ لِبَشَرٍ اَنْ يُّؤْتِيَهُ اللّٰهُ الْكِتٰبَ وَالْحُكْمَ وَالنُّبُوَّةَ |
“फिर वह लोगों से कहने लगे कि मेरे बन्दे बन जाओ अल्लाह को छोड़ कर” | ثُمَّ يَقُوْلَ لِلنَّاسِ كُوْنُوْا عِبَادًا لِّيْ مِنْ دُوْنِ اللّٰهِ |
यह अब नस्रानियों की तरफ़ इशारा हो रहा है कि हमने तुम्हारी तरफ़ रसूल भेजे, फिर ईसा अलै० इब्ने मरयम को भेजा, उन्हें किताब दी, हिकमत दी, नबुवत दी, मौज्ज़ात दिये। और इसका तो कोई इम्कान नहीं कि वह अलै० कहते कि मुझे अल्लाह के सिवा अपना मअबूद बना लो!
“बल्कि (वह तो यही दावत देगा कि) अल्लाह वाले बन जाओ इस वजह से कि तुम लोगों को किताब की तालीम देते हो और तुम खुद भी उसको पढ़ते हो।” | وَلٰكِنْ كُوْنُوْا رَبّٰـنِيّٖنَ بِمَا كُنْتُمْ تُعَلِّمُوْنَ الْكِتٰبَ وَبِمَا كُنْتُمْ تَدْرُسُوْنَ 79ۙ |
किताबे इलाही की तालीम व तअल्लम का यही तक़ाज़ा है। दीन का सीखना, सिखाना, क़ुरान का पढ़ना-पढ़ाना और हदीस व फ़िक़ह का दर्स व तदरीस इसलिये होना चाहिये कि लोगों को अल्लाह वाले बनाया जाये, ना यह कि अपने बन्दे बना कर और उनसे नज़राने वसूल करके उनका इस्तेहसाल किया जाये।
आयत 80
“और ना कभी वह तुम्हें इस बात का हुक्म देगा कि तुम फ़रिश्तों को और अम्बिया को रब बना लो।” | وَلَا يَاْمُرَكُمْ اَنْ تَتَّخِذُوا الْمَلٰۗىِٕكَةَ وَالنَّبِيّٖنَ اَرْبَابًا ۭ |
मुशरिकीने मक्का ने फ़रिश्तों को रब बनाया और उनके नाम पर लात, मनात और उज्ज़ा जैसी मूर्तियाँ बना लीं, जबकि नसारा ने अल्लाह के नबी हज़रत ईसा अलै० को अपना रब बना लिया।
“तो क्या वह तुम्हें कुफ़्र का हुक्म देगा इसके बाद कि तुम मुस्लिम हो चुके हो?” | اَيَاْمُرُكُمْ بِالْكُفْرِ بَعْدَ اِذْ اَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ 80ۧ |
अल्लाह का वह बंदा जिसे ने किताब, हिकमत व नबुवत अता की हो, क्या तुम्हें कुफ़्र का हुक्म दे सकता है जबकि तुम फ़रमाबरदारी इख़्तियार कर चुके हो?