Surah Ale-Imraan-सूरह आले इमरानAyat 81 -120

आयात 81 से 91 तक

وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ النَّبِيّٖنَ لَمَآ اٰتَيْتُكُمْ مِّنْ كِتٰبٍ وَّحِكْمَةٍ ثُمَّ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَكُمْ لَتُؤْمِنُنَّ بِهٖ وَلَتَنْصُرُنَّهٗ  ۭ قَالَ ءَاَقْرَرْتُمْ وَاَخَذْتُمْ عَلٰي ذٰلِكُمْ اِصْرِيْ ۭ قَالُوْٓا اَقْرَرْنَا  ۭ قَالَ فَاشْهَدُوْا وَاَنَا مَعَكُمْ مِّنَ الشّٰهِدِيْنَ   81؀ فَمَنْ تَوَلّٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْفٰسِقُوْنَ   82؀ اَفَغَيْرَ دِيْنِ اللّٰهِ يَبْغُوْنَ وَلَهٗٓ اَسْلَمَ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ طَوْعًا وَّكَرْھًا وَّاِلَيْهِ يُرْجَعُوْنَ  83؀ قُلْ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا وَمَآ اُنْزِلَ عَلٰٓى اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَالنَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْ ۠ لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ ۡ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ  84؀ وَمَنْ يَّبْتَـغِ غَيْرَ الْاِسْلَامِ دِيْنًا فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْهُ  ۚ وَھُوَ فِي الْاٰخِرَةِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ  85؀ كَيْفَ يَهْدِي اللّٰهُ قَوْمًا كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِهِمْ وَشَهِدُوْٓا اَنَّ الرَّسُوْلَ حَقٌّ وَّجَاۗءَھُمُ الْبَيِّنٰتُ ۭوَاللّٰهُ لَايَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ  86؀ اُولٰۗىِٕكَ جَزَاۗؤُھُمْ اَنَّ عَلَيْهِمْ لَعْنَةَ اللّٰهِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ  87؀ۙ خٰلِدِيْنَ فِيْهَا  ۚ لَا يُخَفَّفُ عَنْھُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْظَرُوْنَ 88؀ۙ اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْا      ۣ فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ    89؀ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِهِمْ ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا لَّنْ تُقْبَلَ تَوْبَتُھُمْ ۚ وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الضَّاۗلُّوْنَ    90؀ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَھُمْ كُفَّارٌ فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْ اَحَدِھِمْ مِّلْءُ الْاَرْضِ ذَھَبًا وَّلَوِ افْتَدٰى بِهٖ  ۭ اُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ وَّمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ    91؀ۧ

आयत 81

“और याद करो जबकि अल्लाह ने तमाम अम्बिया से एक अहद लिया था कि” وَاِذْ اَخَذَ اللّٰهُ مِيْثَاقَ النَّبِيّٖنَ
“जो कुछ भी मैं तुम्हें किताब और हिकमत अता करूँ, फिर तुम्हारे पास आये कोई और रसूल जो तस्दीक़ करता हो उसकी जो तुम्हारे पास (पहले से) मौजूद है तो तुम्हें लाज़िमन उस पर ईमान लाना होगा और उसकी मदद करनी होगी।” لَمَآ اٰتَيْتُكُمْ مِّنْ كِتٰبٍ وَّحِكْمَةٍ ثُمَّ جَاۗءَكُمْ رَسُوْلٌ مُّصَدِّقٌ لِّمَا مَعَكُمْ لَتُؤْمِنُنَّ بِهٖ وَلَتَنْصُرُنَّهٗ  ۭ

इसलिये कि अम्बिया और रुसुल का एक तवील सिलसिला चल रहा था, और हर नबी ने आइन्दा आने वाले नबी ﷺ की पेशनगोई की है और अपनी उम्मत को उसका साथ देने की हिदायत की है। और यह भी ख़त्मे नबुवत के बारे में बहुत बड़ी दलील है कि ऐसी किसी शय का ज़िक्र क़ुरान या हदीस में नहीं है कि मुहम्मदुन रसूल अल्लाह ﷺ से ऐसा कोई अहद लिया गया हो या आप ﷺ ने अपनी उम्मत को किसी बाद में आने वाले नबी की ख़बर देकर उस पर ईमान लाने की हिदायत फ़रमायी हो, बल्कि इसके बरअक्स क़ुरान में सराहत के साथ आँहुज़ूर ﷺ को खातमुन्न नबिय्यीन फ़रमाया गया है और मुतअद्दिद अहादीस में आप ﷺ ने फ़रमाया है कि आप ﷺ के बाद कोई नबी नहीं आयेगा। हज़रत मसीह अलै० मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की बशारत देकर गये हैं और दीगर अम्बिया की किताबों में भी बशारतें मौजूद हैं। इन्जील बरनबास का तो कोई सफ़ा खाली नहीं है जिसमें आँहुज़ूर ﷺ की बशारत ना हो, लेकिन बाक़ी इन्जीलों में से यह बशारतें निकाल दी गयी हैं।    

“अल्लाह ने फ़रमाया क्या तुमने इक़रार कर लिया है और इस पर मेरी डाली हुई ज़िम्मेदारी क़ुबूल कर ली है?” قَالَ ءَاَقْرَرْتُمْ وَاَخَذْتُمْ عَلٰي ذٰلِكُمْ اِصْرِيْ ۭ
“उन्होंने कहा हाँ हमने इक़रार किया।” قَالُوْٓا اَقْرَرْنَا  ۭ

अम्बिया व रुसुल से यह अहद आलमे अरवाह में लिया गया। जिस तरह तमाम अरवाहे इंसानिया से “अहदे अलस्त” लिया गया था { اَلَسْتُ بِرَبِّكُمْ  ۭ قَالُوْا بَلٰي ڔ } इसी तरह जिन्हें नबुवत से सरफ़राज़ होना था उनकी अरवाह से अल्लाह तआला ने यह इज़ाफ़ी अहद लिया कि मैं तुम्हें नबी बना कर भेजूँगा, तुम अपनी उम्मत को यह हिदायत करके जाना कि तुम्हारे बाद जो नबी भी आये उस पर ईमान लाना और उसकी मदद और नुसरत करना।  

“अल्लाह तआला ने कहा अच्छा अब तुम भी गवाह रहो और मैं भी तुम्हारे साथ गवाहों में से हूँ। قَالَ فَاشْهَدُوْا وَاَنَا مَعَكُمْ مِّنَ الشّٰهِدِيْنَ   81؀

आयत 82

“तो जिसने भी मुँह मोड़ लिया इसके बाद तो यक़ीनन वही लोग सरकश (और नाहंजार) हैं।” فَمَنْ تَوَلّٰى بَعْدَ ذٰلِكَ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْفٰسِقُوْنَ   82؀

आयत 83

“तो क्या यह अल्लाह के दीन के सिवा कोई और दीन चाहते हैं?” اَفَغَيْرَ دِيْنِ اللّٰهِ يَبْغُوْنَ
“जबकि आसमानों और ज़मीन में जो भी है वह अल्लाह के सामने सरे तस्लीम ख़म किये हुए है, चाहे ख़ुशी से और चाहे मजबूरन, और उसी की तरफ़ उन सबको लौटा दिया जायेगा।” وَلَهٗٓ اَسْلَمَ مَنْ فِي السَّمٰوٰتِ وَالْاَرْضِ طَوْعًا وَّكَرْھًا وَّاِلَيْهِ يُرْجَعُوْنَ  83؀

आयत 84

“कहिये हम ईमान लाये अल्लाह पर और जो नाज़िल किया गया हम पर” قُلْ اٰمَنَّا بِاللّٰهِ وَمَآ اُنْزِلَ عَلَيْنَا

याद रहे कि सूरतुल बक़रह की आयत 136 में थोड़े से लफ्ज़ी फ़र्क़ के साथ यही मज़मून बयान हुआ है।  

“और जो कुछ नाज़िल किया गया इब्राहीम अलै०, इस्माइल अलै०, इसहाक़ अलै०, याक़ूब अलै० और उनकी औलाद पर” وَمَآ اُنْزِلَ عَلٰٓى اِبْرٰهِيْمَ وَاِسْمٰعِيْلَ وَاِسْحٰقَ وَيَعْقُوْبَ وَالْاَسْبَاطِ
“और जो भी मूसा अलै०, ईसा अलै० और तमाम अम्बिया अलै० को दिया गया उनके रब की तरफ़ से।” وَمَآ اُوْتِيَ مُوْسٰى وَعِيْسٰى وَالنَّبِيُّوْنَ مِنْ رَّبِّهِمْ ۠
“हम उनमें से किसी एक के माबैन भी कोई तफ़रीक़ नहीं करते, और हम तो अल्लाह ही के फ़रमाबरदार हैं।” لَا نُفَرِّقُ بَيْنَ اَحَدٍ مِّنْھُمْ ۡ وَنَحْنُ لَهٗ مُسْلِمُوْنَ  84؀

आयत 85

“और जो कोई इस्लाम के सिवा कोई और दीन इख़्तियार करना चाहेगा तो वह उसकी जानिब से क़ुबूल नहीं किया जायेगा।” وَمَنْ يَّبْتَـغِ غَيْرَ الْاِسْلَامِ دِيْنًا فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْهُ  ۚ
“और फिर आख़िरत में वह खसारा पाने वालों में से होकर रहेगा।” وَھُوَ فِي الْاٰخِرَةِ مِنَ الْخٰسِرِيْنَ  85؀

आयत 86

“कैसे हिदायत देगा अल्लाह उन लोगों को जो ईमान के बाद काफ़िर हो गये?” كَيْفَ يَهْدِي اللّٰهُ قَوْمًا كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِهِمْ

यानि उनके दिल ईमान ले आये थे, उन पर हक़ीक़त मुन्कशिफ़ हो गयी थी, लेकिन दुनियवी मसलहतें आड़े आ गयीं और ज़बान से इन्कार कर दिया। जैसे सूरतुल नमल में हम पढ़ेंगे: { وَجَحَدُوْا بِهَا وَاسْتَيْقَنَتْهَآ اَنْفُسُهُمْ ظُلْمًا وَّعُلُوًّا  ۭ} (आयत:14) “उन्होंने ज़ुल्म और तकब्बुर के मारे उन मौज्ज़ात का इन्कार किया हालाँकि उनके दिल उनके क़ायल हो चुके थे।”       

“और उन्होंने गवाही दी कि यह रसूल हक़ हैं” وَشَهِدُوْٓا اَنَّ الرَّسُوْلَ حَقٌّ

अहले किताब जब आपस में बातें करते थे तो कहते थे कि यह वाक़िअतन नबी आखिरुज्ज़मान हैं जो हमारी किताबों में बयान करदा पेशनगोइयों का मिस्दाक़ हैं। चुनाँचे रिवायात में आता है कि अलक़मा के दो बेटे अबु हारसा और कर्ज़ जब जब नजरान से मदीना मुनव्वरा चले आ रहे थे तो रास्ते में कर्ज़ के घोड़े को कहीं ठोकर लगी तो उसने कहा “تَعِسَ الْاَبْعَدُ” (हलाक हो जाये वह दूर वाला यानी जिसकी तरफ़ हम जा रहे हैं)। उसका इशारा मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ की तरफ़ था। इस पर उसके बड़े भाई अबु हारसा ने कहा    “بَلْ تَعِسَتْ اُمُّکَ” (बल्कि तेरी माँ हलाक हो जाये!) उसने कहा मेरे भाई! तुम्हें मेरी बात इस क़दर बुरी क्यों लगी? अबु हारसा ने कहा: अल्लाह की क़सम! यक़ीनन वह वही नबी उम्मी हैं जिसके हम मुन्तज़िर थे। कर्ज़ ने कहा: जब आप यह सब जानते हैं तो उन पर ईमान क्यों नहीं ले आते? अबु हारसा कहने लगा: उन बादशाहों ने हमें बड़ा मक़ाम व मरतबा अता कर रखा है, अगर हम ईमान ले आये तो वह हमसे यह सब कुछ छीन लेंगे। यह लोग सल्तनते रोमा के तहत थे और उन्हें मिस्र की हुकूमत की तरफ़ से बड़ी मराआत हासिल थीं, उन्हें माल व दौलत और इज़्ज़त व वजाहत हासिल थी। अभी यह लोग मुहम्मदे अरबी ﷺ से मुलाक़ात के लिये जा रहे थे तो यह हाल था, इससे अंदाज़ा किया जा सकता है कि आँहुज़ूर ﷺ की ख़िदमत में कईं रोज़ गुज़ारने के बाद मुबाहला से राहे फ़रार इख़्तियार करके वापस जाते हुए उन्हें किस क़दर यक़ीन हासिल हो गया होगा कि यही वह नबी आखिरुज्ज़मान ﷺ हैं जिनके वह मुन्तज़िर थे। उनके दिल गवाही दे चुके थे कि यह रसूल बरहक़ (ﷺ) हैं।        

“और उनके पास खुली-खुली निशानियाँ भी आ चुकी हैं।” وَّجَاۗءَھُمُ الْبَيِّنٰتُ ۭ
“और अल्लाह ऐसे ज़ालिमों को हिदायत नहीं देता।” وَاللّٰهُ لَايَهْدِي الْقَوْمَ الظّٰلِمِيْنَ  86؀

आयत 87

“यही वह लोग हैं कि जिनका बदला यह है कि उन पर अल्लाह की, फ़रिश्तों की और तमाम इंसानों की लानत है।” اُولٰۗىِٕكَ جَزَاۗؤُھُمْ اَنَّ عَلَيْهِمْ لَعْنَةَ اللّٰهِ وَالْمَلٰۗىِٕكَةِ وَالنَّاسِ اَجْمَعِيْنَ  87؀ۙ

आयत 88

“उसी (लानत) में वह हमेशा रहेंगे।” خٰلِدِيْنَ فِيْهَا  ۚ
“उनके अज़ाब में कोई तख्फ़ीफ़ नहीं की जायेगी और ना ही उनको कोई मोहलत मिलेगी।” لَا يُخَفَّفُ عَنْھُمُ الْعَذَابُ وَلَا ھُمْ يُنْظَرُوْنَ 88؀ۙ

यह अल्फ़ाज़ भी सूरतुल बक़रह (आयात 161-162) में आ चुके हैं।

आयत 89

“सिवाये उनके जो इसके बाद तौबा कर लें और इस्लाह कर लें” اِلَّا الَّذِيْنَ تَابُوْا مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ وَاَصْلَحُوْا      ۣ

यानि सच्चे दिल से ईमान लाकर अमले सालेह की रविश पर गामज़न हो जायें।           

“तो यक़ीनन अल्लाह तआला बख्शने वाला, रहम फ़रमाने वाला है।” فَاِنَّ اللّٰهَ غَفُوْرٌ رَّحِيْمٌ    89؀

तौबा का दरवाज़ा अभी बंद नहीं है।

आयत 90

“बेशक जिन लोगों ने कुफ़्र किया अपने ईमान के बाद, फिर वह अपने कुफ़्र में बढ़ते चले गये” اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا بَعْدَ اِيْمَانِهِمْ ثُمَّ ازْدَادُوْا كُفْرًا

यानि हक़ को पहचान लेने के बाद, चाहे ज़बान से माना हो या ना माना हो, फिर अगर वह कुफ़्र करते हैं या ज़बान से मानने के बाद मुर्तद हो जाते हैं, और फिर वह अपने कुफ़्र में बढ़ते चले जाते हैं।

“उनकी तौबा कभी क़ुबूल नहीं होगी।” لَّنْ تُقْبَلَ تَوْبَتُھُمْ ۚ
“और वह यक़ीनन गुमराहों में से हैं।” وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الضَّاۗلُّوْنَ    90؀

आयत 91

“यक़ीनन वह लोग जिन्होंने कुफ़्र किया और मर गये इसी हाल में कि वह काफ़िर थे” اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا وَمَاتُوْا وَھُمْ كُفَّارٌ
“तो उनमें से किसी से ज़मीन की मिक़दार के बराबर सोना भी फ़िदये में क़ुबूल नहीं किया जायेगा अगर वह पेश कर सके।” فَلَنْ يُّقْبَلَ مِنْ اَحَدِھِمْ مِّلْءُ الْاَرْضِ ذَھَبًا وَّلَوِ افْتَدٰى بِهٖ  ۭ

ज़ाहिर है कि यह महाल है, नामुमकिन है, लेकिन यह बात समझाने के लिये कि वहाँ पर कोई फ़िदया नहीं है फ़रमाया कि अगर कोई ज़मीन के हुजम के बराबर सोना देकर भी छुटना चाहेगा तो नहीं छुट सकेगा। यह वही बात है जो सूरतुल बक़रह की आयत 48 और आयत 123 में फ़रमायी गयी कि उस दिन किसी से कोई फ़िदया नहीं लिया जायेगा।  

“यह वह लोग हैं कि जिनके लिये दर्दनाक अज़ाब है” اُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ عَذَابٌ اَلِيْمٌ
“और नहीं होंगे उनके लिये कोई मदद करने वाले।” وَّمَا لَھُمْ مِّنْ نّٰصِرِيْنَ    91؀ۧ

आयात 92 से 101 तक

لَنْ تَنَالُوا الْبِرَّ حَتّٰى تُنْفِقُوْا مِمَّا تُحِبُّوْنَ ڛ وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ شَيْءٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ      92؀ كُلُّ الطَّعَامِ كَانَ حِلًّا لِّبَنِىْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ اِلَّا مَا حَرَّمَ اِسْرَاۗءِيْلُ عَلٰي نَفْسِھٖ مِنْ قَبْلِ اَنْ تُنَزَّلَ التَّوْرٰىةُ  ۭ قُلْ فَاْتُوْا بِالتَّوْرٰىةِ فَاتْلُوْھَآ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ     93؀ فَمَنِ افْتَرٰى عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ     94؀۬ قُلْ صَدَقَ اللّٰهُ     ۣفَاتَّبِعُوْا مِلَّــةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا  ۭ وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ     95؀ اِنَّ اَوَّلَ بَيْتٍ وُّضِــعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِيْ بِبَكَّةَ مُبٰرَكًا وَّھُدًى لِّـلْعٰلَمِيْنَ      96؀ۚ فِيْهِ اٰيٰتٌۢ بَيِّنٰتٌ مَّقَامُ اِبْرٰهِيْمَ  ڬ وَمَنْ دَخَلَهٗ كَانَ اٰمِنًا  ۭ وَلِلّٰهِ عَلَي النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْـتَـطَاعَ اِلَيْهِ سَبِيْلًا  ۭ وَمَنْ كَفَرَ فَاِنَّ اللّٰهَ غَنِىٌّ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ     97؀ قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ڰ وَاللّٰهُ شَهِيْدٌ عَلٰي مَا تَعْمَلُوْنَ      98؀ قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ مَنْ اٰمَنَ تَبْغُوْنَھَا عِوَجًا وَّاَنْتُمْ شُهَدَاۗءُ  ۭوَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ       99؀ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوْا فَرِيْقًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ يَرُدُّوْكُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ كٰفِرِيْنَ     ١٠٠؀ وَكَيْفَ تَكْفُرُوْنَ وَاَنْتُمْ تُتْلٰى عَلَيْكُمْ اٰيٰتُ اللّٰهِ وَفِيْكُمْ رَسُوْلُهٗ  ۭ وَمَنْ يَّعْتَصِمْ بِاللّٰهِ فَقَدْ ھُدِيَ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ     ١٠١؁ۧ

आयत 92

“तुम हरगिज़ नहीं पहुँच सकते नेकी के मक़ाम को जब तक कि खर्च ना करो उसमें से जो तुम्हें पसंद है।”لَنْ تَنَالُوا الْبِرَّ حَتّٰى تُنْفِقُوْا مِمَّا تُحِبُّوْنَ ڛ

आयतुल बिर्र (सूरतुल बक़रह:177) के ज़िमन में इस आयत का हवाला भी आया था कि नेकी के मज़ाहिर में से सबसे बड़ी और सबसे मुक़द्दम शय इंसानी हमदर्दी है, और इंसानी हमदर्दी में अपना वह माल खर्च करना मतलूब है जो खुद अपने आपको महबूब हो। ऐसा माल जो रद्दी हो, दिल से उतर गया हो, बोसीदा हो गया हो वह किसी को देकर समझा जाये कि हमने हातिम ताई की क़ब्र पर लात मार दी है तो यह बजाये खुद हिमाक़त है।

“और जो कुछ भी तुम खर्च करोगे अल्लाह उससे बाख़बर है।”وَمَا تُنْفِقُوْا مِنْ شَيْءٍ فَاِنَّ اللّٰهَ بِهٖ عَلِيْمٌ      92؀

आयत 93

“खाने की सारी चीज़ें (जो शरीअते मुहम्मदी में हलाल हैं) बनी इसराइल के लिये भी हलाल थीं”كُلُّ الطَّعَامِ كَانَ حِلًّا لِّبَنِىْٓ اِ سْرَاۗءِيْلَ
“सिवाय उन चीज़ों के जिन्हें इसराइल (हज़रत याक़ूब अलै०) ने हराम ठहरा लिया था अपनी जान पर, इस से पहले कि तौरात नाज़िल हो।”اِلَّا مَا حَرَّمَ اِسْرَاۗءِيْلُ عَلٰي نَفْسِھٖ مِنْ قَبْلِ اَنْ تُنَزَّلَ التَّوْرٰىةُ  ۭ

यहूदी शरीअते मुहम्मदी ﷺ पर ऐतराज़ करते थे कि इसमें बाज़ ऐसी चीज़ें हलाल क़रार दी गयी हैं जो शरीअते मूसवी अलै० में हराम थीं। मसलन उनके यहाँ ऊँट का गोश्त हराम था, लेकिन शरीअते मुहम्मदी ﷺ में यह हराम नहीं है। अगर यह भी आसमानी शरीअत है तो यह तगय्युर कैसे हो गया? यहाँ उसकी हक़ीक़त बताई जा रही है कि तौरात के नुज़ूल से क़ब्ल हज़रत याक़ूब अलै० ने तबई कराहत या किसी मर्ज़ के बाइस बाअज़ चीज़ें अपने लिये ममनूअ क़रार दे ली थीं जिनमें ऊँट का गोश्त भी शामिल था। जैसे नबी अकरम ﷺ ने अपनी दो अज़वाज की दिलजोई की खातिर शहद ना खाने की क़सम खा ली थी, जिस पर यह आयत नाज़िल हुई (सूरह तहरीम:1):  {يٰٓاَيُّهَا النَّبِيُّ لِمَ تُحَرِّمُ مَآ اَحَلَّ اللّٰهُ لَكَ ۚ تَبْتَغِيْ مَرْضَاتَ اَزْوَاجِكَ ۭ} हज़रत याक़ूब अलै० की औलाद ने बाद में इन चीज़ों को हराम समझ लिया, और यह चीज़ उनके यहाँ रिवाज के तौर पर चली आ रही थी। तो अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि इन चीज़ों की हुरमत तौरात में नाज़िल नहीं हुई। खाने-पीने की वह तमाम चीज़ें जो इस्लाम ने हलाल की हैं वह बनी इसराइल के लिये भी हलाल थीं, सिवाय उन चीज़ों के जिन्हें हज़रत याक़ूब अलै० ने अपनी ज़ाती नापसंद के बाइस अपने ऊपर हराम ठहरा लिया था, और यह बात तौरात के नुज़ूल से बहुत पहले की है। इसलिये कि हज़रत याक़ूब अलै० में और नुज़ूले तौरात में चार-पाँच सौ साल का फ़सल है।        

“(ऐ नबी ! इनसे) कहिये लाओ तौरात और उसको पढ़ो अगर तुम (अपने ऐतराज़ में) सच्चे हो।”قُلْ فَاْتُوْا بِالتَّوْرٰىةِ فَاتْلُوْھَآ اِنْ كُنْتُمْ صٰدِقِيْنَ     93؀

तौरात के अन्दर तो कहीं भी ऊँट के गोश्त की हुरमत मज़कूर नहीं है।

आयत 94

“पस जो लोग इसके बाद भी अल्लाह की तरफ़ झूठ मंसूब करते रहें तो वही लोग ज़ालिम हैं।”فَمَنِ افْتَرٰى عَلَي اللّٰهِ الْكَذِبَ مِنْۢ بَعْدِ ذٰلِكَ فَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الظّٰلِمُوْنَ     94؀۬

आयत 95

“कह दीजिये अल्लाह ने जो कुछ फ़रमाया है सच फ़रमाया है”قُلْ صَدَقَ اللّٰهُ     ۣ
“पस पैरवी करो मिल्लते इब्राहीम की जो यक्सु थे (या यक्सु होकर!)”فَاتَّبِعُوْا مِلَّــةَ اِبْرٰهِيْمَ حَنِيْفًا  ۭ

“حَنِیْفًا” इब्राहीम का हाल है। अगर इसे “اِتَّبِعُوْا” का हाल (बा-माअनी حَنِیْفِیِّیْنَ) माना जाये तो दूसरा तर्जुमा होगा। यानि यक्सु होकर, बाद की तमाम तक़सीमात से बुलन्दतर होकर, इब्राहीम अलै० के तरीक़े की पैरवी करो!           

“और वह मुशरिकीन में से नहीं थे।”وَمَا كَانَ مِنَ الْمُشْرِكِيْنَ     95؀

आयत 96

“यक़ीनन पहला घर जो लोगों के लिये बनाया गया (अल्लाह की इबादत के लिये) वही है जो मक्का में है”اِنَّ اَوَّلَ بَيْتٍ وُّضِــعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِيْ بِبَكَّةَ

“بَکَّۃ” और “مِکَّۃ” दरहक़ीक़त एक ही लफ्ज़ के लिये दो तलफ्फ़ुज़ (pronunciations) हैं।       

“बरकत वाला है और हिदायत का मरकज़ है तमाम जहान वालों के लिये।”مُبٰرَكًا وَّھُدًى لِّـلْعٰلَمِيْنَ      96؀ۚ

आयत 97

“इसमें बड़ी वाज़ेह निशानियाँ हैं, जैसे मक़ामे इब्राहीम अलै०।”فِيْهِ اٰيٰتٌۢ بَيِّنٰتٌ مَّقَامُ اِبْرٰهِيْمَ  ڬ

सूरतुल बक़रह के निस्फ़े अव्वल के आखरी चार रुकूओं (15,16,17,18) में पहले हज़रत इब्राहीम अलै० और खाना काबा का ज़िक्र है, फिर बाक़ी सारी गुफ्तगू है। यहाँ सूरह आले इमरान के निस्फ़े अव्वल के तीसरे हिस्से में हज़रत इब्राहीम अलै० और खाना काबा का तज़किरा आख़िर में आया है। गोया मज़ामीन वही हैं, तरतीब बदल गयी है।

“और जो भी उसमें दाख़िल हो जाता है अमन में आ जाता है।”وَمَنْ دَخَلَهٗ كَانَ اٰمِنًا  ۭ

जाहिलियत के बदतरीन दौर में भी बैतुल्लाह अमन का गहवारा था। पूरे अरब के अन्दर खूँरेज़ी होती थी, लेकिन हरमे काबा में अगर कोई अपने बाप के क़ातिल को भी देख लेता था तो उसे कुछ नहीं कहता था। हरम की यह रिवायात हमेशा से रही हैं और आज तक यह अल्लाह के फ़ज़लो करम से दारुल अमन है कि वहाँ पर अमन ही अमन है।

“और अल्लाह का हक़ है लोगों पर कि वह हज करें उसके घर का, जो भी इस्तताअत रखता हो उसके सफ़र की।”وَلِلّٰهِ عَلَي النَّاسِ حِجُّ الْبَيْتِ مَنِ اسْـتَـطَاعَ اِلَيْهِ سَبِيْلًا  ۭ
“और जिसने कुफ़्र किया तो (वह जान ले कि) अल्लाह बे नियाज़ है तमाम जहान वालों से।”وَمَنْ كَفَرَ فَاِنَّ اللّٰهَ غَنِىٌّ عَنِ الْعٰلَمِيْنَ     97؀

नोट कीजिये की यहाँ लफ्ज़ “کَفَرَ” आया है। इसके मायने यह हैं कि जो कोई इस्तताअत के बावजूद हज नहीं करता वह गोया कुफ़्र करता है।

अगली आयत में अहले किताब को बड़े तीखे और झिंझोड़ने के से अंदाज़ में मुख़ातिब किया जा रहा है, जैसे किसी पर निगाहें गाड़ कर उससे बात की जाये।

आयत 98

“कह दीजिये ऐ अहले किताब! तुम क्यों अल्लाह की आयात का इन्कार कर रहे हो?”قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ ڰ 
“जबकि जो कुछ तुम कर रहे हो अल्लाह उसे देख रहा है।”وَاللّٰهُ شَهِيْدٌ عَلٰي مَا تَعْمَلُوْنَ      98؀

आयत 99

“कह दीजिये ऐ किताब वालो! तुम क्यों रोकते हो अल्लाह के रास्ते से उसको जो ईमान ले आता है”قُلْ يٰٓاَھْلَ الْكِتٰبِ لِمَ تَصُدُّوْنَ عَنْ سَبِيْلِ اللّٰهِ مَنْ اٰمَنَ
“तुम उसमें कजी पैदा करना चाहते हो”تَبْغُوْنَھَا عِوَجًا

तुम चाहते हो कि जो अहले ईमान हैं वह भी टेढ़े रास्ते पर चलें। चुनाँचे तुम साज़िशें करते हो कि सुबह को ईमान लाओ और शाम को काफ़िर हो जाओ ताकि अहले ईमान के दिलों में भी वस्वसे और दगदगे पैदा हो जायें।

“हालाँकि तुम खुद गवाह हो!”وَّاَنْتُمْ شُهَدَاۗءُ  ۭ

तुम राहे रास्त को पहचानते हो और जो कुछ कर रहे हो जानते-बूझते कर रहे हो।

“और अल्लाह गाफिल नहीं है उससे जो तुम कर रहे हो।”وَمَا اللّٰهُ بِغَافِلٍ عَمَّا تَعْمَلُوْنَ       99؀

लेकिन इन तमाम साज़िशों के जवाब में अहले ईमान से फ़रमाया गया है:

आयत 100

“ऐ वह लोगों जो ईमान लाये हो! अगर तुम इन अहले किताब के किसी गिरोह की बात मान लोगे तो यह तुमको तुम्हारे ईमान के बाद फिर कुफ़्र की हालत में लौटा कर ले जायेंगे।”يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوْا فَرِيْقًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ يَرُدُّوْكُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ كٰفِرِيْنَ     ١٠٠؀

आयत 101

“और (ज़रा सोचो तो सही) यह कैसे हो सकता है कि तुम फिर कुफ़्र करने लगो जबकि तुम्हें अल्लाह की आयात पढ़ कर सुनाई जा रही हैं और तुम्हारे अन्दर उसका रसूल मौजूद है।”وَكَيْفَ تَكْفُرُوْنَ وَاَنْتُمْ تُتْلٰى عَلَيْكُمْ اٰيٰتُ اللّٰهِ وَفِيْكُمْ رَسُوْلُهٗ  ۭ

तुम्हारे दरमियान मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ ब-नफ्से-नफ़ीस तुम्हारी रहनुमाई के लिये मौजूद हैं और तुम्हें अल्लाह तआला की आयात पढ़-पढ़ कर सुना रहे हैं। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि मदीना में उलमाये यहूद का कितना असर था। औस और खजरज के लोग उनसे मरऊब थे क्योंकि यह अनपढ़ लोग थे, इनके पास कोई किताब, कोई शरीअत और कोई क़ानून नहीं था, जबकि यहूद साहिबे किताब और साहिबे शरीअत थे, उनके यहाँ उलमा थे। लिहाज़ा औस और खजरज के जो लोग इस्लाम ले आये थे उनके बारे में अन्देशा होता था कि कहीं यहूदी की रेशा दवानियों का शिकार ना हो जायें। इस क़िस्म के खतरे से बचने की तदबीर भी बता दी गयी:

“और जो कोई अल्लाह से चिमट जाये उसको तो हिदायत हो गयी सिराते मुस्तक़ीम की तरफ़।”وَمَنْ يَّعْتَصِمْ بِاللّٰهِ فَقَدْ ھُدِيَ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ     ١٠١؁ۧ

जो कोई अल्लाह की पनाह में आ जाये, अल्लाह का दामन मज़बूती से थाम ले उसे तो ज़रूर सिराते मुस्तक़ीम की हिदायत मिलेगी और वह ज़लालत व गुमराही के ख़तरात से महफ़ूज़ हो जायेगा। जैसे शीर ख्वार बच्चे को कोई ख़तरा महसूस हो तो वह दौड़ कर आयेगा और अपनी माँ के साथ चिमट जायेगा। अब वह यह समझेगा कि मैं मज़बूत क़िले में आ गया हूँ, अब मुझे कोई कुछ नहीं कह सकता। वह नहीं जानता कि माँ बेचारी तमाम ख़तरात से उसकी हिफ़ाज़त नहीं कर सकती। उसे क्या पता कि कब कोई दरिन्दा सिफ्त इन्सान उसे माँ की गौद से खींच कर उछाले और किसी बल्लम या नेज़े की आनी में पिरो दे। बहरहाल बच्चा तो यही समझता है कि अब मैं माँ की गौद में आ गया हूँ तो महफ़ूज़ पनाह में आ गया हूँ। अल्लाह का दामन वाक़िअतन महफ़ूज़ पनाहगाह है, और जो कोई उसके साथ चिमट जाता है वह गुमराही की ठोकरों से महफ़ूज़ हो जाता है और जादेह मुस्तक़ीम पर गामज़न हो जाता है।

اللھم ربّنا اجعلنا منھم! آمین یا ربّ العالمین!!

आयात 102 से 109 तक

يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ حَقَّ تُقٰتِھٖ وَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ     ١٠٢؁ وَاعْتَصِمُوْا بِحَبْلِ اللّٰهِ جَمِيْعًا وَّلَا تَفَرَّقُوْا  ۠وَاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ كُنْتُمْ اَعْدَاۗءً فَاَلَّفَ بَيْنَ قُلُوْبِكُمْ فَاَصْبَحْتُمْ بِنِعْمَتِھٖٓ اِخْوَانًا  ۚ وَكُنْتُمْ عَلٰي شَفَا حُفْرَةٍ مِّنَ النَّارِ فَاَنْقَذَكُمْ مِّنْھَا  ۭ كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِھٖ لَعَلَّكُمْ تَھْتَدُوْنَ     ١٠٣؁ وَلْتَكُنْ مِّنْكُمْ اُمَّةٌ يَّدْعُوْنَ اِلَى الْخَيْرِ وَيَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ ۭوَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُفْلِحُوْنَ     ١٠٤؁ وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ تَفَرَّقُوْا وَاخْتَلَفُوْا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَھُمُ الْبَيِّنٰتُ  ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ        ١٠٥؁ۙ يَّوْمَ تَبْيَضُّ وُجُوْهٌ وَّتَسْوَدُّ وُجُوْهٌ ۚ فَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْوَدَّتْ وُجُوْھُھُمْ  ۣاَكَفَرْتُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ    ١٠٦؁ وَاَمَّا الَّذِيْنَ ابْيَضَّتْ وُجُوْھُھُمْ فَفِيْ رَحْمَةِ اللّٰهِ  ۭ ھُمْ فِيْھَا خٰلِدُوْنَ    ١٠٧؁ تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْھَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ  ۭوَمَا اللّٰهُ يُرِيْدُ ظُلْمًا لِّلْعٰلَمِيْنَ    ١٠٨؁ وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ وَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ     ١٠٩؁ۧ

अब सूरह आले इमरान का निस्फ़े सानी शुरू हो रहा है, जिसका पहला हिस्सा दो रुकूओं पर मुश्तमिल है। आपने यह मुशाबेहत भी नोट कर ली होगी कि सूरतुल बक़रह के निस्फ़े अव्वल में भी एक मरतबा { يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا } से ख़िताब था: { يٰٓاَيُّهَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَقُوْلُوْا رَاعِنَا وَقُوْلُوا انْظُرْنَا وَاسْمَعُوْا ۭ } इसी तरह सूरह आले इमरान के निस्फ़े अव्वल में भी एक आयत ऊपर आ चुकी है (आयत:100):    { يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْٓا اِنْ تُطِيْعُوْا فَرِيْقًا مِّنَ الَّذِيْنَ اُوْتُوا الْكِتٰبَ يَرُدُّوْكُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ كٰفِرِيْنَ  } लेकिन मुस्लमानों से असल ख़िताब ग्याहरवे रुकूअ से शुरू हो रहा है और यहाँ पर असल में उम्मत को एक सह निकाती लाहिया (three pronged strategy) अमल दिया जा रहा है। ज़ाहिर है कि यह उम्मत अब क़यामत तक क़ायम रहने वाली है, और इसमें ज़वाल भी आयेगा और अल्लाह तआला ऊलूल अज़्म और बा-हिम्मत लोगों को भी पैदा करेगा, जैसा कि हमें मालूम है कि मुजद्दिदे दीने उम्मत हर सदी के अन्दर उठते रहे। लेकिन जब भी तजदीदे दीन का कोई काम हो, दीन को अज़सरे नौ तरो-ताज़ा करने की कोशिश हो, दीन को क़ायम करने की जद्दो-जहद हो तो उसका एक लाहिया अमल होगा। वह लाहिया अमल सूरह आले इमरान की इन तीन आयात (102,103,104) में निहायत जामियत के साथ सामने आया है। यह हुस्ने इत्तेफ़ाक़ है कि यह भी तीन आयात हैं जैसे सूरतुल अस्र की तीन आयात हैं, जो निहायत जामेअ हैं। इन आयात के मज़ामीन पर मेरी एक किताब भी मौजूद है “उम्मते मुस्लिमा के लिये सह निकाती लाहिया अमल” और उसका अंग्रेज़ी में भी तर्जुमा हो चुका है। इस लाहिया अमल का पहला नुक्ता यह है कि जब भी कोई काम करना है तो सबसे पहले अफ़राद की शख्सियत साज़ी, किरदार साज़ी करना होगी। चुनाँचे फ़रमाया:

आयत 102

“ऐ अहले ईमान! अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो जितना कि उसके तक़वे का हक़ है” يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوا اتَّقُوا اللّٰهَ حَقَّ تُقٰتِھٖ
“और तुम्हें हरगिज़ मौत ना आने पाये मगर फ़रमाबरदारी की हालत में।” وَلَا تَمُوْتُنَّ اِلَّا وَاَنْتُمْ مُّسْلِمُوْنَ     ١٠٢؁

क़ुरान मजीद में तक़वे की तलक़ीन के लिये यह सबसे गाढ़ी आयत है। इस पर सहाबा رضی اللہ عنھم घबरा गये कि या रसूल अल्लाह ﷺ! अल्लाह के तक़वे का हक़ कौन अदा कर सकता है? फिर जब सूरह तगाबुन की यह आयत नाज़िल हुई कि { فَاتَّقُوا اللّٰهَ مَا اسْتَطَعْتُمْ } (आयत:16) “अपनी इम्कानी हद तक अल्लाह का तक़वा इख़्तियार करो” तब उनकी जान में जान आयी। तक़वे के हुक्म के साथ ही यह फ़रमाया कि “मत मरना मगर हालते फ़रमाबरदारी में।” इसके मायने यह हैं कि कोई पता नहीं किस लम्हे मौत आ जाये, लिहाज़ा तुम्हारा कोई लम्हा नाफ़रमानी में ना गुज़रे, मबादा मौत का हाथ उसी वक़्त आकर तुम्हें दबोच ले। अगर पहले इस तरह की शख्सियतें ना बनी हो तो इज्तमाई इस्लाह का कोई काम नहीं हो सकता। इसलिये पहले अफ़राद की किरदार साज़ी पर ज़ोर दिया गया। उसके बाद दूसरा मरहला यह है कि एक इज्तमाइयत इख़्तियार करो।

आयत 103

“अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो मिल-जुल कर और तफ़रक़े में ना पड़ो।” وَاعْتَصِمُوْا بِحَبْلِ اللّٰهِ جَمِيْعًا وَّلَا تَفَرَّقُوْا  ۠

याद रहे कि इससे पहले आयत 101 इन अल्फ़ाज़ पर ख़त्म हुई है:              { وَمَنْ يَّعْتَصِمْ بِاللّٰهِ فَقَدْ ھُدِيَ اِلٰى صِرَاطٍ مُّسْتَـقِيْمٍ } “और जो कोई अल्लाह तआला से चिमट जाये (अल्लाह की हिफ़ाज़त में आ जाये) उसको तो हिदायत हो गई सिराते मुस्तक़ीम की तरफ।” सूरतुल हज की आखरी आयत में भी यह अल्फ़ाज़ आया है: { وَاعْتَصِمُوْا بِاللّٰهِ } “और अल्लाह से चिमट जाओ!” अब अल्लाह की हिफ़ाज़त में कैसे आया जाये? अल्लाह से कैसे चिमटें? उसके लिये फ़रमाया: { وَاعْتَصِمُوْا بِحَبْلِ اللّٰهِ } कि अल्लाह की रस्सी से चिमट जाओ, अल्लाह की रस्सी को मज़बूती से थाम लो। और यह अल्लाह की रस्सी कौनसी है? मुतअद्दिद अहादीस से वाज़ेह होता है कि यह “क़ुरान” है। एक तरफ़ इन्सान में तक़वा पैदा हो, और दूसरी तरफ़ उसमें इल्म आना चाहिये, क़ुरान का फ़हम पैदा होना चाहिये, क़ुरान के नज़रियात को समझना चाहिये, क़ुरान की हिकमत को समझना चाहिये। इंसानों में इज्तमाइयत जानवरों के गल्लों की तरह नहीं हो सकती कि भेड़-बकरियों का एक बड़ा रेवड़ है और एक चरवाहा एक लकड़ी लेकर सबको हाँक रहा है। इंसानों को जमा करना है तो उनके ज़हन एक जैसे बनाने होंगे, उनकी सोच एक बनानी होगी। यह हैवाने आक़िल हैं, बाशऊर लोग हैं। इनकी सोच एक हो, नज़रियात एक हो, मक़ासिद एक हों, हम-आहंगी हो, नुक्ता-ए-नज़रिया एक हो तभी तो यह जमा होंगे। इसके लिये वह चीज़ चाहिये जो उनमें यकरंगी ख्याल, यकरंगी नज़र, यकजहती और मक़ासिद की हम-आहंगी पैदा कर दे, और वह क़ुरान है, जो “हब्लुल्लाह” है।

हज़रत अली رضی اللہ عنہ से मरवी तवील हदीस में क़ुरान हकीम के बारे में रसूल अल्लाह ﷺ के अल्फ़ाज़ नक़ल हुए हैं: ((وَ ھُوَحَبْلُ اللہِ الْمَتِیْنُ))(1) हज़रत अब्दुल्लाह बिन मसऊद رضی اللہ عنہ से रिवायत है कि आँहुज़ूर ﷺ ने फ़रमाया:

کِتَابُ اللہِ، حَبْلٌ مَمْدُودٌ مِنَ السَّمَاءِ اِلَی الْاَرْضَ

“अल्लाह की किताब (को थामे रखना), यही वह मज़बूत रस्सी है जो आसमान से ज़मीन तक तनी हुई है।”

एक और हदीस में फ़रमाया:

اَبْشِرُوْا اَبْشِرُوْا- – – – –      فَاِنَّ ھٰذَا الْقُرْآنَ سَبَبٌ،  طَرْفُہٗ بِیَدِ اللہِ وَطَرْفُہٗ بِاَیْدِیْکُمْ

“खुश हो जाओ, खुशियाँ मनाओ…… यह क़ुरान एक वास्ता है, जिसका एक सीरा अल्लाह के हाथ में है और एक सीरा तुम्हारे हाथ में है।”

चुनाँचे तक़र्रुब इलल्लाह का ज़रिया भी क़ुरान है, और मुस्लमानों को आपस में जोड़ कर रखने का ज़रिया भी क़ुरान है। यही वजह है कि हमारी दावत व तहरीक का मिम्बा व सरचश्मा और मब्ना (आधार) व मदार (क्षेत्र) क़ुरान है। इसका उन्वान ही “दावत रुजूअ इलल क़ुरान” है। मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी अल्हम्दुलिल्लाह इसी काम में खपाई है, और इसी के ज़रिये से अंजुमन हाय खुद्दामुल क़ुरान और क़ुरान अकेडमीज़ का सिलसिला क़ायम हुआ। इन अकेडमीज़ में “एक साला रुजूअ इलल क़ुरान कोर्स” बरसहा बरस से जारी है। इस कोर्स में जदीद तालीम याफ्ता लोग दाखिला लेते हैं, जो एम.ए./ एम.एस.सी. होते हैं, बाज़ पी.एच.डी. कर चुके होते हैं, डॉक्टर और इंजिनियर भी आते हैं। वह एक साल लगा कर अरबी सीखते हैं ताकि क़ुरान को समझ सकें। ज़ाहिर है जब क़ुरान मजीद के साथ आपकी वाबस्तगी होगी तो फिर आप दीन के उस रुख पर आगे चलेंगे। तो यह दूसरा नुक्ता हुआ कि अल्लाह की रस्सी को मिल-जुल कर मज़बूती से थाम लो और तफ़रक़े में ना पड़ो।

“और ज़रा याद करो अल्लाह का जो ईनाम जो तुम पर हुआ जबकि तुम एक-दूसरे के दुश्मन थे”وَاذْكُرُوْا نِعْمَتَ اللّٰهِ عَلَيْكُمْ اِذْ كُنْتُمْ اَعْدَاۗءً
“तो अल्लाह ने तुम्हारे दिलों के अन्दर उल्फ़त पैदा कर दी” فَاَلَّفَ بَيْنَ قُلُوْبِكُمْ
“पस तुम अल्लाह के फज़लो करम से भाई-भाई बन गये।” فَاَصْبَحْتُمْ بِنِعْمَتِھٖٓ اِخْوَانًا  ۚ

यहाँ अव्वलीन मुख़ातिब अन्सार हैं। उनके जो दो क़बीले थे औस और खज़रज वह आपस में लड़ते आ रहे थे। सौ बरस से खानदानी दुश्मनियाँ चली आ रही थीं और क़त्ल के बाद क़त्ल का सिलसिला जारी था। लेकिन जब ईमान आ गया, इस्लाम आ गया, अल्लाह की किताब आ गयी, मुहम्मद रसूल अल्लाह ﷺ आ गये तो अब वह शेर ओ शुक्र हो गये, उनके झगड़े ख़त्म हो गये। इसी तरह पूरे अरब के अन्दर ग़ारतगरी होती थी, लेकिन अब अल्लाह ने उसे दारुल अमन बना दिया।

“और तुम तो आग के गड्ढे के किनारे तक पहुँच गये थे” (बस उसमें गिरने ही वाले थे) وَكُنْتُمْ عَلٰي شَفَا حُفْرَةٍ مِّنَ النَّارِ
“तो अल्लाह ने तुम्हें उससे बचा लिया।” فَاَنْقَذَكُمْ مِّنْھَا  ۭ
“इसी तरह अल्लाह तुम्हारे लिये अपनी आयात वाज़ेह कर रहा है ताकि तुम राह पाओ (और सही राह पर क़ायम रहो)।” كَذٰلِكَ يُبَيِّنُ اللّٰهُ لَكُمْ اٰيٰتِھٖ لَعَلَّكُمْ تَھْتَدُوْنَ     ١٠٣؁

उम्मते मुस्लिमा के लिये सह निकाती लाहिया अमल के यह दो नुक्ते बयान हो गये। सबसे पहले अफ़राद के किरदार की तामीर, उन्हें तक़वा और फरमाबरदारी जैसे औसाफ़ से मुत्तसिफ (तैयार) करना—और फिर उनको एक जमीअत, तंज़ीम या जमाअत की सूरत में मुनज्ज़म करना, और उस तंज़ीम का मानवी महवर क़ुरान मजीद होना चाहिये, जो हब्लुल्लाह है। बक़ौल अल्लामा इक़बाल: “अ-तसा मश कुन कि हब्लुल्लाह ऊस्त!” इसको मज़बूती से थामो कि यह हब्लुल्लाह है! इस जमाअत साज़ी का फ़ितरी तरीक़ा भी हम इसी सूरत की आयत 52 के ज़ेल में पढ़ चुके हैं कि कोई अल्लाह का बंदा दाई बन कर खड़ा हो और { مَنْ اَنْصَارِيْٓ  اِلَى اللّٰهِ } की आवाज़ लगाये कि मैं तो इस रास्ते पर चल रहा हूँ, अब कौन है जो मेरे साथ इस रास्ते पर आता है और अल्लाह की राह में मेरा मददगार बनता है? ऐसी जमीअत जब वजूद में आयेगी तो वह क्या करेगी? इस ज़िमन में यह तीसरी आयत अहमतरीन है:

आयत 104

“और तुम में से एक जमाअत ऐसी ज़रूर होनी चाहिये जो खैर की तरफ़ दावत दे, नेकी का हुक्म देती रहे और बदी से रोकती रहे।” وَلْتَكُنْ مِّنْكُمْ اُمَّةٌ يَّدْعُوْنَ اِلَى الْخَيْرِ وَيَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ ۭ

उस जमाअत के करने के तीन काम बताये गये हैं, जिनमें अव्वलीन दावत इलल खैर है, और वाज़ेह रहे कि सबसे बड़ा खैर यह क़ुरान है।

“और यही लोग फ़लाह पाने वाले हैं।” وَاُولٰۗىِٕكَ ھُمُ الْمُفْلِحُوْنَ     ١٠٤؁

यहाँ लफ्ज़ “مِّنْكُمْ” बड़ा मायने खेज़ है कि तुम में से एक ऐसी उम्मत वजूद में आनी चाहिये। गोया एक तो बड़ी उम्मत है उम्मते मुस्लिमा, वह तो एक सौ पचास करोड़ नफ़ूस पर मुश्तमिल है, जो ख्वाबे गफ़लत में मदहोश है, अपने मंसब को भूले हुए हैं, दीन से दूर हैं। लिहाज़ा इस उम्मत के अन्दर एक छोटी उम्मत यानि एक जमाअत वजूद में आये जो “जागो और जगाओ” का फ़रीज़ा सर अंजाम दे। अल्लाह ने तुम्हें जागने की सलाहियत दे दी है, अब औरों को जगाओ और उसके लिये ताक़त फ़राहम करो, एक मुनज्ज़म जमाअत बनाओ! फ़रमाया कि यही लोग फ़लाह पाने वाले हैं। वह बड़ी उम्मत जो करोड़ों अफ़राद पर मुश्तमिल है और यह काम नहीं करती वह अगर फ़लाह और निजात की उम्मीद रखती है तो यह एक उम्मीद मौहूम है। फ़लाह पाने वाले सिर्फ़ यह लोग होंगे जो तीन काम करेंगे: (1) दावत इलल खैर (2) अम्र बिल मारूफ़ (3) नही अनिल मुन्कर। मैंने “मन्हजे इन्क़लाबे नबवी ﷺ” के मराहिल व मदारिज (स्तिथि) के ज़िमन में भी यह बात वाज़ेह की है कि इस्लामी इन्क़लाब के लिये आखरी अक़दाम भी “नही अनिल मुन्कर बिल यद” होगा। इसलिये कि हदीस में रसूल अल्लाह ﷺ ने नही अनिल मुन्कर के तीन मरातिब बयान किये हैं। हज़रत अबु सईद ख़ुदरी रज़ि० से रिवायत है कि रसूल अल्लाह ﷺ ने इरशाद फ़रमाया:

مَنْ رَاٰی مِنْکُمْ مُنْکَرًا فَلْیُغَیِّرْہُ بِیَدِہٖ،  فَاِنْ لَمْ یَسْتَطِعْ فَبِلِسَانِہٖ،  فَاِنْ لَمْ یَسْتَطِعْ فَبِقَلْبِہٖ، وَذٰلِکَ اَضْعَفُ الْاِیْمَانِ۔

“तुम में से जो कोई किसी मुन्कर को देखे उसका फ़र्ज़ है कि उसे ज़ोरे बाज़ू से रोक दे। पस अगर इसकी ताक़त नहीं है तो ज़बान से रोके। फिर अगर इसकी भी हिम्मत नहीं है तो दिल में बुराई से नफ़रत ज़रूर रखे। और यह ईमान का कमज़ोर तरीन दर्जा है।”

अगर दिल में नफ़रत भी ख़त्म हो गई है तो समझ लो कि मता-ए-ईमान रुख्सत हो गयी है। बक़ौल इक़बाल:

वाये नाकामी मता-ए-कारवाँ जाता रहा

कारवाँ के दिल से अहसास-ए-ज़ियाँ जाता रहा!

हाँ, दिल में नफ़रत है तो अगला क़दम उठाओ। ज़बान से कहना शुरू करो कि भाई यह चीज़ गलत है, अल्लाह ने इसको हराम ठहराया है, यह काम मत करो। लेकिन इसके साथ-साथ अपनी एक ताक़त बनाते जाओ। एक जमाअत बनाओ, क़ुव्वत मुज्तमअ करो। जब वह ताक़त जमा हो जाये तो फिर खड़े हो जाओ कि अब हम यह गलत काम नहीं करने देंगे। फिर वह होगा “नही अनिल मुन्कर बिल यद” यानि ताक़त के साथ बुराई को रोक देना। और यह होगा इन्क़लाब का आखरी मरहला।

तो इन तीन आयात के अन्दर अज़ीम हिदायत है, इन्क़लाब का पूरा लाहिया अमल मौजूद है, बल्कि इसी में मन्हजे इन्क़लाबे नबवी ﷺ का जो आखरी अक़दामी अमल है वह भी पोशीदा है।

आयत 105

“और उन लोगों की तरह ना हो जाना जो फिरक़ो में बंट गये और उन्होंने इख्तिलाफ़ पैदा कर लिये इसके बाद कि उनके पास वाज़ेह तालीमात आ गयी थीं।” وَلَا تَكُوْنُوْا كَالَّذِيْنَ تَفَرَّقُوْا وَاخْتَلَفُوْا مِنْۢ بَعْدِ مَا جَاۗءَھُمُ الْبَيِّنٰتُ  ۭ
“और उन्हीं लोगों के लिये बहुत बड़ा अज़ाब है।” وَاُولٰۗىِٕكَ لَھُمْ عَذَابٌ عَظِيْمٌ        ١٠٥؁ۙ

आयत 106

“(क़यामत के दिन) जिस दिन बाज़ चेहरे बड़े रोशन और ताबनाक होंगे और बाज़ चेहरे सियाह होंगे।” يَّوْمَ تَبْيَضُّ وُجُوْهٌ وَّتَسْوَدُّ وُجُوْهٌ ۚ
“तो जिन लोगों के चेहरे सियाह होंगे (उनसे पूछा जायेगा)” فَاَمَّا الَّذِيْنَ اسْوَدَّتْ وُجُوْھُھُمْ  ۣ
“क्या तुम अपने ईमान के बाद कुफ़्र में लौट गये थे?”اَكَفَرْتُمْ بَعْدَ اِيْمَانِكُمْ

हिदायत के आने के बाद तुम लोग तफ़रक़े में पड़ गये थे और हब्लुल्लाह को छोड़ दिया था।

“तो अब अज़ाब का मज़ा चखो उस कुफ़्र के बाइस जो तुम करते रहे थे।” فَذُوْقُوا الْعَذَابَ بِمَا كُنْتُمْ تَكْفُرُوْنَ    ١٠٦؁

आयत 107

“और जिनके चेहरे रोशन और ताबनाक होंगे तो वह अल्लाह की रहमत में होंगे।” وَاَمَّا الَّذِيْنَ ابْيَضَّتْ وُجُوْھُھُمْ فَفِيْ رَحْمَةِ اللّٰهِ  ۭ
“वह उसी में हमेशा-हमेश रहेंगे।” ھُمْ فِيْھَا خٰلِدُوْنَ    ١٠٧؁

आयत 108

“यह अल्लाह की आयात हैं जो हम आपको पढ़ कर सुना रहे हैं हक़ के साथ।” تِلْكَ اٰيٰتُ اللّٰهِ نَتْلُوْھَا عَلَيْكَ بِالْحَقِّ  ۭ
“और अल्लाह तआला तो जहान वालों के लिये ज़ुल्म का इरादा नहीं रखता।” وَمَا اللّٰهُ يُرِيْدُ ظُلْمًا لِّلْعٰلَمِيْنَ    ١٠٨؁

लोग अपने ऊपर खुद ज़ुल्म करते हैं, खुद गलत रास्ते पर पड़ते हैं और फिर उसकी सज़ा उन्हें दुनिया और आख़िरत में भुगतनी पड़ती है।

आयत 109

“और अल्लाह ही के लिये है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है।” وَلِلّٰهِ مَا فِي السَّمٰوٰتِ وَمَا فِي الْاَرْضِ ۭ
“और बिल आखिर सारे मामलात अल्लाह ही की तरफ़ लौटाये जायेंगे।” وَاِلَى اللّٰهِ تُرْجَعُ الْاُمُوْرُ     ١٠٩؁ۧ

क़ुरान हकीम में अहम मबाहिस के बाद अक्सर इस तरह की आयात आती हैं। यह गोया concluding remarks होते हैं।

आयात 110 से 120 तक

كُنْتُمْ خَيْرَ اُمَّةٍ اُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ تَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَتُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ ۭ وَلَوْ اٰمَنَ اَھْلُ الْكِتٰبِ لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ ۭمِنْھُمُ الْمُؤْمِنُوْنَ وَ اَكْثَرُھُمُ الْفٰسِقُوْنَ     ١١٠؁ لَنْ يَّضُرُّوْكُمْ اِلَّآ اَذًى ۭ وَاِنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ يُوَلُّوْكُمُ الْاَدْبَارَ   ۣ ثُمَّ  لَا يُنْصَرُوْنَ     ١١١؁ ضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ اَيْنَ مَا ثُـقِفُوْٓا اِلَّا بِحَبْلٍ مِّنَ اللّٰهِ وَحَبْلٍ مِّنَ النَّاسِ وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الْمَسْكَنَةُ  ۭذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ وَيَقْتُلُوْنَ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ ۭ ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ      ١١٢؁ۤ لَيْسُوْا سَوَاۗءً  ۭ مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ اُمَّةٌ قَاۗىِٕمَةٌ يَّتْلُوْنَ اٰيٰتِ اللّٰهِ اٰنَاۗءَ الَّيْلِ وَھُمْ يَسْجُدُوْنَ     ١١٣؁ يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ وَيَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ وَيُسَارِعُوْنَ فِي الْخَيْرٰتِ ۭوَاُولٰۗىِٕكَ مِنَ الصّٰلِحِيْنَ     ١١٤؁ وَمَا يَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلَنْ يُّكْفَرُوْهُ  ۭوَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالْمُتَّقِيْنَ     ١١٥؁ اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِىَ عَنْھُمْ اَمْوَالُھُمْ وَلَآ اَوْلَادُھُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَـيْــــًٔـا  ۭ وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ ھُمْ فِيْھَا خٰلِدُوْنَ       ١١٦؁ مَثَلُ مَا يُنْفِقُوْنَ فِيْ ھٰذِهِ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا كَمَثَلِ رِيْحٍ فِيْھَا صِرٌّ اَصَابَتْ حَرْثَ قَوْمٍ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ فَاَھْلَكَتْهُ  ۭوَمَا ظَلَمَھُمُ اللّٰهُ وَلٰكِنْ اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ    ١١٧؁ يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا بِطَانَةً مِّنْ دُوْنِكُمْ لَا يَاْلُوْنَكُمْ خَبَالًا  ۭ وَدُّوْا مَا عَنِتُّمْ ۚ قَدْ بَدَتِ الْبَغْضَاۗءُ مِنْ اَفْوَاهِھِمْ ښ وَمَا تُخْفِيْ صُدُوْرُھُمْ اَكْبَرُ  ۭ قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْاٰيٰتِ اِنْ كُنْتُمْ تَعْقِلُوْنَ    ١١٨؁ ھٰٓاَنْتُمْ اُولَاۗءِ تُحِبُّوْنَھُمْ وَلَا يُحِبُّوْنَكُمْ وَتُؤْمِنُوْنَ بِالْكِتٰبِ كُلِّھٖ ۚوَاِذَا لَقُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّا ۑ وَاِذَا خَلَوْا عَضُّوْا عَلَيْكُمُ الْاَنَامِلَ مِنَ الْغَيْظِ ۭ قُلْ مُوْتُوْا بِغَيْظِكُمْ ۭ اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ     ١١٩؁ اِنْ تَمْسَسْكُمْ حَسَنَةٌ تَـسُؤْھُمْ ۡ وَاِنْ تُصِبْكُمْ سَيِّئَةٌ يَّفْرَحُوْا بِھَا ۭ وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا لَا يَضُرُّكُمْ كَيْدُھُمْ شَـيْـــًٔـا  ۭاِنَّ اللّٰهَ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ    ١٢٠؁ۧ

आयत 110

“तुम वह बेहतरीन उम्मत हो जिसे लोगों के लिये बरपा किया गया है”كُنْتُمْ خَيْرَ اُمَّةٍ اُخْرِجَتْ لِلنَّاسِ

यहाँ उम्मते मुस्लिमा की ग़र्ज़े तासीस (reason to establish) बयान की जा रही है। यानि यह पूरी उम्मते मुस्लिमा इस मक़सद के लिये बनायी गयी थी। यह दूसरी बात है कि उम्मते मुस्लिमा अपना मक़सदे हयात भूल जाये। ऐसी सूरत में उम्मत में से जो भी जाग जायें वह दूसरों को जगा कर “उम्मत के अन्दर एक उम्मत” (Ummah within Ummah) बनायें और मज़कूरा बाला तीन काम करें। लेकिन हक़ीक़त में तो मज्मुई तौर पर इस उम्मते मुस्लिमा का फ़र्ज़े मंसबी ही यही है।

क़ब्ल अज़ हम सूरतुल बक़रह की आयत 143 में उम्मते मुस्लिमा का फ़र्ज़े मंसबी बाअल्फ़ाज़ पढ़ चुके हैं:

{ وَكَذٰلِكَ جَعَلْنٰكُمْ اُمَّةً وَّسَطًا لِّتَكُوْنُوْا شُهَدَاۗءَ عَلَي النَّاسِ وَيَكُـوْنَ الرَّسُوْلُ عَلَيْكُمْ شَهِيْدًا ۭ }

सूरह आले इमरान की आयत ज़ेरे मुताअला इसी के हमवज़न और हमपल्ला आयत है। फ़रमाया: “तुम बेहतरीन उम्मत हो जिसे लोगों के लिये निकाला गया है।” दुनिया की दीगर क़ौमें अपने लिये ज़िन्दा रहती हैं। उनके पेशे नज़र अपनी तरक्क़ी, अपनी बेहतरी, अपनी बहबूद (कल्याण) और दुनिया में अपनी इज़्ज़त व अज़मत होती है, लेकिन तुम वह बेहतरीन उम्मत हो जिसे लोगों की रहनुमाई के लिये मबऊस किया गया है:

हम तो जीते हैं कि दुनिया में तेरा नाम रहे

कहीं मुमकिन है कि साक़ी ना रहे जाम रहे!

मुस्लमान की ज़िन्दगी का मक़सद ज़्यादा से ज़्यादा लोगों को हिदायत की तरफ़ बुलाना और लोगों को जहन्नम की आग से बचाने की कोशिश करना है। तुम्हें जीना है उनके लिये, वह जीते हैं अपने लिये। तुम्हें निकाला गया है, बरपा किया गया है लोगों के लिये।   

“तुम हुक्म करते हो नेकी का” تَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ
“और तुम रोकते हो बदी से” وَتَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ
“और तुम ईमान रखते हो अल्लाह पर।” وَتُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ ۭ

नबी अकरम ﷺ के दौर में पूरी उम्मते मुस्लिमा की यह कैफ़ियत थी। और वह जो पहले बताया गया है कि एक जमाअत वजूद में आये (आयत 104) वह उस वक़्त के लिये है जब उम्मत अपने मक़सदे वजूद को भूल गयी हो। तो ज़ाहिर बात है जिनको होश आ जाये वह लोगों को जगायें और एक जमीअत फ़राहम करें।          

“और अगर अहले किताब भी ईमान ले आते तो यह उनके हक़ में बेहतर था।” وَلَوْ اٰمَنَ اَھْلُ الْكِتٰبِ لَكَانَ خَيْرًا لَّھُمْ ۭ
“उनमें से कुछ तो ईमान वाले हैं” مِنْھُمُ الْمُؤْمِنُوْنَ

इससे मुराद वह लोग भी हो सकते हैं जो उस वक़्त तक यहूदियों या नस्रानियों में से ईमान ला चुके थे, और वह भी जिनके अन्दर बिल क़ुव्वा (potentially) ईमान मौजूद था और अल्लाह को मालूम था कि वह कुछ अर्से के बाद ईमान ले आयेंगे।         

“लेकिन उनकी अक्सरियत नाफ़रमानों पर मुश्तमिल है।” وَ اَكْثَرُھُمُ الْفٰسِقُوْنَ     ١١٠؁

वही मामला जो आज उम्मते मुस्लिमा का हो चुका है। आज उम्मत की अक्सरियत का जो हाल है वह सबको मालूम है।

आयत 111

“(ऐ मुस्लमानों!) यह तुम्हें कोई नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगे सिवाय थोड़ी सी कोफ्त के।” لَنْ يَّضُرُّوْكُمْ اِلَّآ اَذًى ۭ

यह तुम्हारे लिये थोड़ी सी ज़बान दराज़ी और कोफ्त का सबब तो बनते रहेंगे, लेकिन यह बिल फ़अल तुम्हें कोई ज़रर नहीं पहुँचा सकेंगे।  

“और अगर यह तुमसे जंग करेंगे तो पीठ दिखा देंगे।” وَاِنْ يُّقَاتِلُوْكُمْ يُوَلُّوْكُمُ الْاَدْبَارَ   ۣ

इनमें जुर्रात नहीं है, यह बुज़दिल हैं, तुम्हारा मुक़ाबला नहीं कर सकेंगे।

“फिर उनकी मदद नहीं की जायेगी।” ثُمَّ  لَا يُنْصَرُوْنَ     ١١١؁

यह ऐसे बेबस होंगे कि इनको कहीं से मदद भी नहीं मिल सकेगी।

आयत 112

“उनके ऊपर ज़िल्लत थोप दी गयी है जहाँ कहीं भी पाये जायें” ضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الذِّلَّةُ اَيْنَ مَا ثُـقِفُوْٓا
“सिवाये यह कि (उन्हें किसी वक़्त) अल्लाह का कोई सहारा हासिल हो जाये या लोगों की तरफ़ से कोई सहारा मिल जाये” اِلَّا بِحَبْلٍ مِّنَ اللّٰهِ وَحَبْلٍ مِّنَ النَّاسِ

जैसे आज पूरी ईसाई दुनिया उनका सहारा बनी हुई है। इसराइल अपने बल पर नही, बल्कि पूरी ईसाई दुनिया की पुश्तपनाही पर क़ायम है। खलीज की जंग में इत्तेहादी अफ़वाज के कमान्डर एंड चीफ ने साफ़ कह दिया था कि यह सारी जंग हमने इसराइल के तहफ्फ़ुज़ के लिये लड़ी है। गोया इस क़दर खूँरेज़ी से सिर्फ़ इसराइल का तहफ्फ़ुज़ पेशे नज़र था।       

“और यह अल्लाह तआला के गज़ब के मुस्तहिक़ हो गये” وَبَاۗءُوْ بِغَضَبٍ مِّنَ اللّٰهِ
“और इनके ऊपर कम हिम्मती मुसल्लत कर दी गयी।” وَضُرِبَتْ عَلَيْهِمُ الْمَسْكَنَةُ  ۭ
“यह इसलिये हुआ कि यह अल्लाह तआला की आयात का इन्कार करते रहे” ذٰلِكَ بِاَنَّھُمْ كَانُوْا يَكْفُرُوْنَ بِاٰيٰتِ اللّٰهِ
“और अम्बिया को नाहक़ क़त्ल करते रहे।” وَيَقْتُلُوْنَ الْاَنْۢبِيَاۗءَ بِغَيْرِ حَقٍّ ۭ
“और यह इसलिये हुआ कि इन्होंने नाफ़रमानी की रविश इख़्तियार की और हुदूद से तजावुज़ करते रहे।” ذٰلِكَ بِمَا عَصَوْا وَّكَانُوْا يَعْتَدُوْنَ      ١١٢؁ۤ

याद रहे कि यह आयत थोड़े से लफ्ज़ी फ़र्क़ के साथ सूरतुल बक़रह में भी गुज़र चुकी है। (आयत 61)

आयत 113

“यह सबके सब बराबर नहीं हैं।” لَيْسُوْا سَوَاۗءً  ۭ

इनमें अच्छे भी हैं, बुरे भी हैं।

“अहले किताब में ऐसे लोग भी हैं जो (सीधे रास्ते पर) क़ायम हैं, रात के अवक़ात में अल्लाह की आयात की तिलावत करते हैं और सज्दा करते हैं।” مِنْ اَھْلِ الْكِتٰبِ اُمَّةٌ قَاۗىِٕمَةٌ يَّتْلُوْنَ اٰيٰتِ اللّٰهِ اٰنَاۗءَ الَّيْلِ وَھُمْ يَسْجُدُوْنَ     ١١٣؁

रसूल अल्लाह ﷺ के ज़माने में ख़ास तौर पर ईसाई राहिबों की एक कसीर तादाद इस किरदार की हामिल थी। उन्ही में से एक बहीरा राहिब था जिसने बचपन में आँहुज़ूर ﷺ को पहचान लिया था। यहूद में भी इक्का-दुक्का लोग इस तरह के बाक़ी होंगे, लेकिन अक्सरो बेशतर यहूद में से यह किरदार ख़त्म हो चुका था, अलबत्ता ईसाईयों में ऐसे लोग बकसरत मौजूद थे।

आयत 114

“वह ईमान रखते हैं अल्लाह पर और यौमे आख़िर पर”         يُؤْمِنُوْنَ بِاللّٰهِ وَالْيَوْمِ الْاٰخِرِ
“और नेकी का हुक्म देते हैं और बुराई से रोकते हैं” وَيَاْمُرُوْنَ بِالْمَعْرُوْفِ وَيَنْهَوْنَ عَنِ الْمُنْكَرِ
“और नेकियों में एक-दूसरे से आगे निकलने की कोशिश करते हैं।” وَيُسَارِعُوْنَ فِي الْخَيْرٰتِ ۭ
“और यक़ीनन यह लोग सालेहीन में से हैं।” وَاُولٰۗىِٕكَ مِنَ الصّٰلِحِيْنَ     ١١٤؁

आयत 115

“जो खैर भी यह करेंगे तो उसकी नाक़द्री नहीं की जायेगी।” وَمَا يَفْعَلُوْا مِنْ خَيْرٍ فَلَنْ يُّكْفَرُوْهُ  ۭ
“और अल्लाह ऐसे मुत्तक़ी लोगों से खूब वाक़िफ है।” وَاللّٰهُ عَلِيْمٌۢ بِالْمُتَّقِيْنَ     ١١٥؁

आयत 116

“(इसके बरअक्स) जो लोग कुफ़्र पर अड़ गये, उनके काम नहीं आ सकेंगे ना उनके अमवाल ना उनकी औलाद अल्लाह से बचाने में कुछ भी।” اِنَّ الَّذِيْنَ كَفَرُوْا لَنْ تُغْنِىَ عَنْھُمْ اَمْوَالُھُمْ وَلَآ اَوْلَادُھُمْ مِّنَ اللّٰهِ شَـيْــــًٔـا  ۭ
“यही लोग जहन्नमी हैं।” وَاُولٰۗىِٕكَ اَصْحٰبُ النَّارِ ۚ
“उसी में हमेशा रहेंगे।” ھُمْ فِيْھَا خٰلِدُوْنَ       ١١٦؁

आयत 117

“दुनिया की इस ज़िन्दगी में यह लोग जो भी खर्च करते हैं उसकी मिसाल ऐसी है” مَثَلُ مَا يُنْفِقُوْنَ فِيْ ھٰذِهِ الْحَيٰوةِ الدُّنْيَا

क़ुरेशे मक्का अहले अहले ईमान के खिलाफ़ जो जंगी तैयारियाँ कर रहे थे तो उसके लिये माल खर्च करते थे। फ़ौज तैयार करनी हो तो उसके लिये ऊँट और दीगर सवारियों की ज़रूरत है, सामाने हर्बो ज़र्ब की ज़रूरत है, तो ज़ाहिर है उसके लिये माल तो खर्च होगा। यह इस इन्फ़ाक़े माल की तरफ़ इशारा है कि यह लोग दुनिया की ज़िन्दगी में जो कुछ खर्च करते हैं या तो दीन की मुखालफ़त के लिये या अपने जी को ज़रा झूठी तसल्ली देने के लिये करते हैं कि हम कुछ सदक़ा व खैरात भी करते हैं, चाहे हमारा किरदार कितना ही गिर गया हो। तो उनके इन्फ़ाक़ की मिसाल ऐसी है:

“कि जैसे एक ज़ोरदार आँधी जिसमें पाला हो” كَمَثَلِ رِيْحٍ فِيْھَا صِرٌّ
“वह किसी ऐसी क़ौम की खेती को आ पड़े जिसने अपनी जानों पर ज़ुल्म किया हो, फिर वह उस (खेती) को तबाह व बर्बाद और तहस-नहस करके रख दे।” اَصَابَتْ حَرْثَ قَوْمٍ ظَلَمُوْٓا اَنْفُسَھُمْ فَاَھْلَكَتْهُ  ۭ

यानि उनकी यह नेकियाँ, यह इन्फ़ाक़, यह जद्दो-जहद और दौड़-धूप सबकी सब बिल्कुल ज़ाया हो जाने वाली है।          

“और उन पर अल्लाह ने कोई ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि वह अपनी जानों पर खुद ज़ुल्म ढा रहे हैं।” وَمَا ظَلَمَھُمُ اللّٰهُ وَلٰكِنْ اَنْفُسَھُمْ يَظْلِمُوْنَ    ١١٧؁

आयत 118

“ऐ अहले ईमान! अपने सिवा किसी को अपना राज़दार ना बनाओ” يٰٓاَيُّھَا الَّذِيْنَ اٰمَنُوْا لَا تَتَّخِذُوْا بِطَانَةً مِّنْ دُوْنِكُمْ

यानि जिस शख्स के बारे में इत्मिनान हो कि साहिबे ईमान है, मुस्लमान है, उसके अलावा किसी और शख्स को अपना भेदी और महरमे राज़ ना बनाओ। यहूदी एक अर्से से मदीने में रहते थे और औस व खज़रज के लोगों की उनसे दोस्तियाँ थीं, पुराने ताल्लुक़ात और रवाबित थे। इसकी वजह से बाज़ अवक़ात सादा लौ मुस्लमान अपनी सादगी में राज़ की बातें भी उन्हें बता देते थे। इससे उन्हें रोका गया।

“वह तुम्हारे लिये किसी खराबी में कोई कसर नहीं छोड़ते।” لَا يَاْلُوْنَكُمْ خَبَالًا  ۭ
“उन्हें पसंद है वह चीज़ जो तुम्हें तकलीफ़ और मशक्क़त में डाले।” وَدُّوْا مَا عَنِتُّمْ ۚ
“उनकी दुश्मनी उनके मुँह से भी ज़ाहिर हो चुकी है।” قَدْ بَدَتِ الْبَغْضَاۗءُ مِنْ اَفْوَاهِھِمْ ښ

उनका कलाम ऐसा ज़हर आलूदा होता है कि उससे इस्लाम और मुस्लमानों की दुश्मनी टपकती पड़ती है। यह अपनी ज़बानों से आतिश बरसाते हैं।

“और जो कुछ उनके सीने छुपाये हुए हैं वह इससे भी बढ़ कर है।” وَمَا تُخْفِيْ صُدُوْرُھُمْ اَكْبَرُ  ۭ

जो कुछ उनकी ज़बानों से ज़ाहिर होता है वह तो फिर भी कम है, उनके दिलों के अन्दर दुश्मनी और हसद की जो आग भड़क रही है वह इससे कहीं बढ़ कर है। 

“हमने तुम्हारे लिये अपनी आयात को वाज़ेह कर दिया है अगर तुम अक़्ल से काम लो।” قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْاٰيٰتِ اِنْ كُنْتُمْ تَعْقِلُوْنَ    ١١٨؁

यानि अपने तर्ज़े अमल पर गौर करो और इससे बाज़ आ जाओ!

आयत 119

“यह तुम्ही हो कि उनको दोस्त रखते हो” ھٰٓاَنْتُمْ اُولَاۗءِ تُحِبُّوْنَھُمْ

यह तुम्हारी शराफ़त और सादालोई है कि तुम उनसे मोहब्बत करते हो और पुराने ताल्लुक़ात और दोस्तियों को निभाना चाहते हो।

“लेकिन (जान लो कि) वह तो तुमसे मोहब्बत नहीं करते” وَلَا يُحِبُّوْنَكُمْ

वह तुमसे दोस्ती नहीं रखते।

“हालाँकि (तुम्हारी शान यह है कि) तुम पूरी किताब को मानते हो।” وَتُؤْمِنُوْنَ بِالْكِتٰبِ كُلِّھٖ ۚ

तुम तौरात को भी मानते हो, इन्जील को भी मानते हो। सूरतुन्निसा में अल्फ़ाज़ आये हैं: {…. اَلَمْ تَرَ اِلَى الَّذِيْنَ اُوْتُوْا نَصِيْبًا مِّنَ الْكِتٰبِ} (आयत:44) क्या तुमने उन लोगों को देखा जिन्हें किताब का एक हिस्सा दिया गया था….” चुनाँचे तमाम आसमानी किताबें अल्लाह तआला की उस क़दीम किताब “उम्मुल किताब” ही के हिस्से हैं। उसी “उम्मुल किताब” में से पहले तौरात आयी, फिर इन्जील आयी और फिर यह क़ुरान मजीद आया है, जो हिदायते कामिला पर मुश्तमिल है। तो तुम तो पूरी की पूरी किताब को मानते हो।    

“और जब वह तुमसे मिलते हैं तो कहते हैं हम भी मोमिन हैं।” وَاِذَا لَقُوْكُمْ قَالُوْٓا اٰمَنَّا ۑ
“और जब वह ख़लवत में होते हैं तो अब तुम पर गुस्से की वजह से अपनी उँगलियाँ चबाते हैं।” وَاِذَا خَلَوْا عَضُّوْا عَلَيْكُمُ الْاَنَامِلَ مِنَ الْغَيْظِ ۭ

जब वह देखते हैं कि अब उनकी कुछ पेश नहीं जा रही और इस्लाम का मामला और आगे से आगे बढ़ता जा रहा है तो गुस्से में पेच व ताब खाते हैं और अपनी उँगलियाँ चबाते हैं।

“उनसे कहो मर जाओ अपने इस ग़म व गुस्से में।” قُلْ مُوْتُوْا بِغَيْظِكُمْ ۭ
“यक़ीनन अल्लाह तआला जो कुछ सीनों के अन्दर मुज़मर है उससे भी वाक़िफ है।” اِنَّ اللّٰهَ عَلِيْمٌۢ بِذَاتِ الصُّدُوْرِ     ١١٩؁

आयत 120

“(ऐ मुस्लमानों!) अगर तुम्हें कोई भलाई पहुँच जाये तो उनको बुरी लगती है।” اِنْ تَمْسَسْكُمْ حَسَنَةٌ تَـسُؤْھُمْ ۡ

अगर तुम्हें कोई कामयाबी हासिल हो जाये, कहीं फ़तह नसीब हो जाये तो उनको इससे तकलीफ़ पहुँचती है।    

“और अगर तुम्हें कोई तकलीफ़ पहुँचे तो इससे वह खुश होते हैं।” وَاِنْ تُصِبْكُمْ سَيِّئَةٌ يَّفْرَحُوْا بِھَا ۭ

अगर तुम्हें कोई गज़न्द (चोट) पहुँच जाये, कहीं आरज़ी तौर पर शिकस्त हो जाये, जैसे ओहद में हो गयी थी, तो बड़े खुश होते हैं, शादयाने बजाते हैं।    

“लेकिन अगर तुम सब्र करते रहो और तक़वा की रविश इख़्तियार किये रहो तो उनकी यह सारी चालें तुम्हें कोई मुस्तक़िल नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगी। وَاِنْ تَصْبِرُوْا وَتَتَّقُوْا لَا يَضُرُّكُمْ كَيْدُھُمْ شَـيْـــًٔـا  ۭ

सूरतुल बक़रह में सब्र और सलाह (नमाज़) से मदद लेने की तलक़ीन की गयी थी, यहाँ सलाह की जगह लफ्ज़ तक़वा आ गया है कि अगर तुम यह करते रहोगे तो फिर बिलआखिर उनकी सारी साज़िशें नाकाम होंगी।

“जो कुछ यह कर रहे हैं यक़ीनन अल्लाह तआला उसका इहाता किये हुए है।” اِنَّ اللّٰهَ بِمَا يَعْمَلُوْنَ مُحِيْطٌ    ١٢٠؁ۧ

यह अल्लाह तआला के दायरे से और उसकी खींची हुई हद से आगे नहीं निकल सकते। यह उसके अन्दर-अन्दर उछल-कूद कर रहे हैं और साज़िशें कर रहे हैं। लेकिन अल्लाह तआला तुम्हें यह ज़मानत दे रहा है कि यह तुम्हें कोई मुस्तक़िल नुक़सान नहीं पहुँचा सकेंगे।